भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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Saturday, September 13, 2008
कोशीक बाढ़ि-किछु पद्य (प्रस्तुति गजेन्द्र ठाकुर)
1.स्व.रामकृष्ण झा “किसुन” (१९२३-१९७०)
कोशीक बाढ़ि
आबि रहलै बाढ़ि
अछि उद्दाम कोशीक धार
आबि रहलै बाढ़ि ई
अति क्षुब्ध/ मर्यादा-रहित सागर सदृश
उछलैत/ लहरिक वेगमे
भसिया रहल छै काश वा कि पटेर, झौआ, झार
गाछ, बाँस कतहु
कतहु अछि खाम्ह, खोपड़ि
खढ़ कोरो सहित फूसिक चार
आबि रहलै बाढ़ि अछि उछाम कोशीक धार
बचि सकत नहि एहिसँ
डिहबार बाबा केर उँचका थान
वा कि गहबर सलहेसक
आ रामदासक अखराहा
वा डीह राजा साहेबक
ड्योढ़ी, हवेली, अस्तबल, हथिसार
बाभनक घर हो
कि डोम दुसाध गोंढ़िक तुच्छ खोपड़ि
पानि सबकेँ कऽ देतै एकटार
आबि रहलै बाढ़ि
अछि उद्दाम कोशीक धार।
ऊँच-ऊँच जतेक अछि
सब नीच बनि जयतैक
नीच अछि खत्ता कि डाबर
भरत सबटा/ ऊँच ओ बनि जैत
हैत सबटा/ ऊँच ओ बनि जैत
हैत सबटा एक रंग समभूमि
ऊँच नीचक भेद नहि किन्नहु रहत
जे ऊँच अछि
पहिने कटनियांमे कटत
आ नीच सभकेँ
ऊँच होमक
सुलभ भऽ जयतै सहज अधिकार
कोढ़मे छक दऽ लगय तँ की करब
आब ई सब तँ सहय पड़बे करत
बाप-बाप करू कि पीटू सब अपन कपार
आबि रहलै बाढ़ि
अछि उद्दाम कोशीक धार।
आरि धूर ने काज किछुओ दऽ सकत
सब बुद्धि
नियमक सुदृढ़ बान्ह ने किच्छु
टिकि सकत किछु काल
बस
सब पर पलाड़ी पानि
उमड़ि कऽ चढ़ि जैत
सबकेँ भरि बरोबरि कऽ देतै
आ पुरनकी पोखरि
कि नवकी अछि जतेक
खसि पड़त ई पानि बाढ़िक हहाकऽ
नहि रोकि सकबै
रोकि नहि सकतैक ऊँच महार
जे बनल अछि पोखरिक रक्षक
भखरिकऽ वा कि कटिकऽ निपत्ता भऽ जैत
आ पानि जे खसतै
तखन ई
बहुत दिनसँ बान्हि कऽ राखल
महारक शृंखलामे
अछि जते युग-युग प्रताड़ित
प्रपीड़ित फुसिऐल पोसल
नैनी, भुन्ना आ कि ललमुँहियाँ प्रभृति
ई माछ सब एहि पोखरिक नहि रहि सकत
सब बहार उजाहिमे जयबे करत
पाग आब रहय कि नहि
वा बचि सकय नहि टीक ककरो
की करब?
एहि बाढ़िमे अछि ककर वश?
ककरा कहू जे के नै हैत देखार
आबि रहलै बाढ़ि
अछि उद्दाम कोशीक धार।
आबि रहलै बाढ़ि जे कोशीक ई
बचि सकत नहि घर आ कि दुआर
सड़क-खत्ता/ ऊँच-नीच
पोखरि कि डाबड़/ गाम-गाछी
आ कि खेत-पथार
आबि रहलै बाढ़ि
अछि उद्दाम कोशीक धार।
2.कोसी लोकगीत (मोरंग, नेपाल,नदियाँ गाती हैं, ओमप्रकाश भारती, २००२)
सगर परबत से नाम्हल कोसिका माता, भोटी मुख कयेले पयाम
आगू-आगू कोयला वीर धसना खभारल, पाछू-पाछू कोसिका उमरल जाय
नाम्ही-नाम्ही आछर लिखले गंगा माता, दिहलनि कोसी जी के हाथ
सात रात दिन झड़ी नमावल चरहल चनन केर गाछे ये
चानन छेबि-छेबि बेड़ बनावल, भोटी मुख देव चढ़ी आय ये
गहिरी से नदिया देखहुँ भेयाउन, तहाँ देल झौआ लगाय
रोहुआक मूरा चढ़ी हेरये कोसिका, केती दूर आबैय छे बलान
मार-मार के धार बहिये गेल, कामरू चलल घहराय
पोखरि गहीर भौरये माता कोसिका, कमला के देल उपदेस
माछ-काछु सब उसरे लोटाबय, पसर चरयै धेनु गाय
गाइब जगत के लोक कल जोरी, आजु मइआ इबु न सहा
3.कोसी लोकगीत(बिहार की नदियाँ, सहृदय, १९७७)
मुठी एक डँड़वा गे कोसिका अलपा गे बयसवा
गे भुइयाँ लौटे नामी-नामी केश
कोसी मय लोटै छौ गे केश॥
केशवा सम्हारि कोसी जुड़वा गे बन्हाओल
कोसी गे खोपवा बन्हाओल
ओहि खोपवा कुहुकै मजूर।
उतरहि राज से एलेँ हे रैया रनपाल
से कोसी के देखि-देखि सूरति निहारै
सूरति देखि धीरज नै रहै धीर॥
किये तोरा कोसिका चेकापर गढ़लक
किये जे रूपा गढ़लक सोनार॥
नै हो रनपाल मोहि चेकापर गढ़लक
नै रूपा गढ़लक सोनार
अम्मा कोखिया हो रनपाल हमरो जनम भेल
सूरति देलक भगवान
गाओल सेवक जन दुहु कर जोरि
गरुआक बेरि होउ न सहाय, गे कोसी मैया
होउ न सहाय॥
4.कोसी लोकगीत(कोसी लोकगीत- ब्रजेश्वर,१९५५)
रातिए जे एलै रानू गउना करैले,
कोहबर घरमे सुतल निचित!
जकरो दुअरिया हे रानो कोसी बहे धार
सेहो कैसे सूते हे निचित॥
सीरमा बैसल हे रानो कोसिका जगाबै
सूतल रानो उठल चेहाय॥
काँख लेल धोतिया हे रानो मुख दतमनि
माय तोरा हंटौ हे रानो बाप तोरा बरजौ
जनु जाहे कोसी असनान॥
हँटलौ ने मानै रानो दबलौ ने मानै
चली गेलै कोसी असनान॥
एक डूब हे कोसी दुइ डूब लेल
तीन डूब गेल भसियाय॥
जब तुहू आहे कोसिका हमरो डुबइबे
आनब हम अस्सी मन कोदारि॥
अस्सी मन कोदरिया हे रानो बेरासी मन बेंट
आगू आगू धसना धसाय॥
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"भालसरिक गाछ" Post edited multiple times to incorporate all Yahoo Geocities "भालसरिक गाछ" materials from 2000 onwards as...
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जेठक दुपहरि बारहो कलासँ उगिलि उगिलि भीषण ज्वाला आकाश चढ़ल दिनकर त्रिभुवन डाहथि जरि जरि पछबा प्रचण्ड बिरड़ो उदण्ड सन सन सन सन...
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खंजनि चलली बगढड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरली अपन वस्तुलक परित्याकग क’ आनक अनुकरण कयलापर अपनो व्यिवहार बिसरि गेलापर व्यंपग्यय। खइनी अछि दुइ मो...