ISSN 2229-547X VIDEHA
'विदेह' १२१ म अंक ०१ जनवरी २०१३ (वर्ष ६ मास ६१ अंक १२१)
ऐ अंकमे अछि:-
ऐ अंकमे अछि:-
३.८.१.बिनीता
झा- अही
देशक बेटी हम २.कामिनी
कामायनी -खिलैत पलास वन३. ज्योति झा चौधरी- शब्दमे उत्सव
विदेह
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विदेह रेडियो:मैथिली कथा-कविता आदिक पहिल
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VIDEHA ARCHIVE विदेह आर्काइव
ज्योतिरीश्वर पूर्व महाकवि विद्यापति। भारत आ नेपालक माटिमे पसरल मिथिलाक धरती
प्राचीन कालहिसँ महान
पुरुष ओ महिला लोकनिक कर्मभमि रहल अछि। मिथिलाक महान पुरुष ओ महिला लोकनिक चित्र 'मिथिला रत्न' मे देखू।
गौरी-शंकरक
पालवंश कालक मूर्त्ति, एहिमे
मिथिलाक्षरमे (१२००
वर्ष पूर्वक) अभिलेख
अंकित अछि। मिथिलाक
भारत आ नेपालक माटिमे पसरल एहि तरहक अन्यान्य प्राचीन आ नव स्थापत्य, चित्र, अभिलेख आ मूर्त्तिकलाक़
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विदेह जालवृत्तक
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जाउ।
"मैथिल आर मिथिला" (मैथिलीक
सभसँ लोकप्रिय जालवृत्त)
पर जाउ।
1.संपादकीय
१
१
साहित्य अकादेमी द्वारा युवा पुरस्कारक भेल घोषणा। हिन्दीमे
लिखैबला द्वारा मैथिलीमे मात्र पुरस्कार लेल लिखल जेबाक प्रवृत्ति, जे सुखाएल
मुख्यधारामे पहिनेसँ रहल अछि, आ तकरा (नव)
ब्राह्मणवादक अन्तर्गत पुरस्कृत कएल जेबाक प्रवृत्ति ओइमे सेहो रहल अछि, आब तकर प्रसार ओ
अपन जातिवादी युवा मध्य केलक अछि । चेतना समिति आदि संस्था (नव) ब्राह्मणवादी
कट्टरताकेँ ब्राह्मण युवा वर्ग मध्य पसारैत रहबाक चेष्टा करैत रहैत अछि। पोथीक
क्वालिटीक स्थानपर चमचागिरी, लेखकीय दायित्वक स्थानपर जातिवादी कट्टरता चलिते रहत? स्टेटस कोइस्ट
युवाकेँ, वैज्ञानिक (नव) ब्राह्मणवादी
युवा जे अहाँक जातिवादी विचारधाराकेँ चैलेन्ज केनाइ तँ दूर, ओइमे सहयोग करए, की ऐ तरहक
तत्वकेँ बढ़ावा दऽ अहाँ मैथिली साहित्यक पुनर्जागरण बाधक तत्व नै बनि रहल छी।
"निश्तुकी" कविता संग्रहकेँ
पुरस्कार नै भेटए ओइ लेल महेन्द्र झाकेँ सहरसा" सँ, देवेन्द्र झाकेँ
मधुबनी (संप्रति
मुजफ्फरपुर)सँ आ
योगानन्द झाकेँ बदनाम कबिलपुर गैंगसँ बजाओल गेल आ ई भार देल गेल। आ ओ सभ चुनलन्हि
अरुणाभ "झा" सौरभ केँ। सायास
"निश्तुकी" कविता संग्रह
साहित्य अकादेमी द्वारा नै मंगाओल गेल, जे एकटा इलीगल काज अछि। हरबर-दरबरमे निर्णय कएल
गेल, आब जएह
पोथी आबि सकल ओही मध्यसँ ने निर्णय हएत, से तर्क देल गेल। पूर्ण रूपसँ फार्म हाउस चिकेन (उज्जर, ब्राह्मण आ
नपुंसक) मैथिल
ब्राह्मण जूरी चुनल गेल जे कोनो रिस्क नै रहए।
ऐ इलीगल काजकेँ हर स्तरपर चुनौती देल जाएत।
मूल पुरस्कार लेल शेफालिका वर्माकेँ चुनल गेल छन्हि आ
अनुवाद पुरस्कार लेल महेन्द्र नारायण रामकेँ- दुनू गोटेकेँ
बधाइ। संगमे नचिकेताक "नो एण्ट्री: मा प्रविश", सुभाष चन्द्र यादवक "बनैत बिगड़ैत" आ जगदीश प्रसाद
मण्डलक "गामक
जिनगी"क
विरुद्ध "निश्तुकी" विरोधी तत्व जे
तीन सालसँ जान प्राण लगेने अछि जे ऐ पोथी सभकेँ मूल पुरस्कार नै भेटैक, से घोर निन्दनीय
अछि। "नो
एण्ट्री: मा
प्रविश" २००८ मे
प्रकाशित रहै आ ई किताब अगिला सालसँ पुरस्कारक रेसमे नै रहत, ऐ पोथीकेँ मूल
साहित्य अकादेमी नै भेटि सकत। मुदा की एकर स्थान मैथिलीक पहिल आ एखन धरिक एकमात्र
पोस्टमॉडर्न ड्रामाक रूपमे बरकार नै रहत, की ब्राह्मणवादी विचारधारा ई स्थान ऐ पोथीसँ छीनि सकत? सुभाष चन्द्र
यादवक "बनैत
बिगड़ैत" आ जगदीश
प्रसाद मण्डलक "गामक
जिनगी" अगिला
साल सेहो रेसमे रहत। मुदा तारानन्द वियोगी आ महेन्द्र नारायण राम किए (नव वैज्ञानिक) ब्राह्मणवाद
द्वारा स्वीकृत छथि आ सुभाष चन्द्र यादव आ मेघन प्रसाद अस्वीकृत ओइ आलोकमे सुभाष
चन्द्र यादवक "बनैत
बिगड़ैत" क
विरुद्ध रामदेव झा-
योगानन्द झा-
महेन्द्र मलंगिया- मोहन भारद्वाज- मायानन्द मिश्र- चन्द्रनाथ मिश्र
"अमर" आदिक षडयंत्र
सफल भैयो जँ जाए तँ की सुभाष चन्द्र यादवक मैथिली पाठकक हृदए मे जे स्थान छै, से की कम कऽ सकत
ई षडयंत्रकारी सभ? जगदीश
प्रसाद मण्डलक "गामक
जिनगी"क स्थान
मैथिलीक आइ धरिक सर्वश्रेष्ठ लघुकथा संग्रहक रूपमे बनि गेल अछि, की ओ स्थान कियो
दोसर छीनि सकत?
पढ़ू निश्तुकी आ चमेटा मारू महेन्द्र झा, देवेन्द्र झा आ
योगानन्द झाकेँ -
निश्तुकी
२
विदेहक सम्बन्धमे धीरेन्द्र प्रेमर्षिकेँ एकटा फकड़ा मोन पड़ल
छलन्हि- "खस्सी-बकरी एक्कहि धोकरी"। राजा सलहेसक गाथामे जतऽ सलहेस राजा
रहै छथि चूहड़मल चोर भऽ जाइ छथि आ जतऽ चूहड़मल राजा रहै छथि सलहेस चोर भऽ जाइ छथि।
साहित्यक ब्राह्मणवाद जातिक आधारपर समीक्षा करैए, समानान्तर
परम्पराक उदारवाद कट्टरता विरोधी अछि। समानान्तर परम्परा मिथिला आ मैथिलीक उदार
परम्पराकेँ रेखांकित करैए तँ ब्राह्मणवादी समीक्षाकेँ मिथिलाक कट्टर तत्व प्रभावित करै
छै। समानान्तर परम्पराक घोड़ा ब्राह्मणवादी समीक्षामे गधा बनि जाइए, आ ब्राह्मणवादी साहित्यमे तँ गधा छैहे नै, सभ घोड़ाक
खोल ओढ़ने छै। आ सएह कारण रहल जे मैथिलीक सुखाएल मुख्य धाराक साहित्य दब अछि। आ सएह
कारण रहल जे अतुकान्त कविता हुअए बा तुकान्त, बहरयुक्त गजल
हुअए बा आजाद गजल; रोला, दोहा,कुण्डलिया, रुबाइ, कसीदा,
नात, हजल, हाइकू,
हैबून बा टनका-वाका सभ ठाम समानान्तर परम्परा कतऽ सँ कतऽ बढ़ि गेल;
नाटक-उपन्यास-समीक्षा, विहनि-लघु-दीर्घ कथा सभ
क्षेत्रमे अद्भुत साहित्य मैथिलीक समानान्तर परम्परामे लिखल गेल मुदा ब्राह्मणवादी
सुखाएल मुख्यधारा आ जातिवादी रंगमंच छल-प्रपंच आ सरकारी संस्थापर नियंत्रणक अछैत
मरनासन्न अछि।
गजेन्द्र ठाकुर
ggajendra@videha.com
पंकज चौधरी (नवलश्री)
विहनि कथा : पुरस्कार
मैथिलीमे स्नातकोत्तर के उपाधि ग्रहण
केलाक उपरान्त मृदुल साहित्य सृजनमे लागि गेला। नीक आ प्रभावी लेखनी हेबाक
कारणे महाविद्यालय स्तर पर खूब ख्याति बटोरलन्हि।
रोजगारक ताकमे दिल्ली च'ल गेला मुदा शहरिया तड़क-भड़क नै सोहेलन्हि। शहरक भीड़-भरक्का आ ताम-झाममे साहित्यक संग छुटैत बुझना गेलनि त' गाम आपस आबि गेलाह आ मधुबनिएमे एकटा निजि विद्यालयमे शिक्षकक पद
सम्हारि साहित्यक प्रति समर्पित भ' गेला। शिक्षकक नौकरीसँ जतेक आमद
होनि ताहिसँ घ'रो चलब कठिन। घरमे सभ दिन लल्ला-छुच्छी लगले रहित छलनि। मुदा हारि नै
मानलन्हि। साहित्यक खुट्टा धेने रहि
गेला। जिनगीक गाड़ी जेन-तेना खींचने जा रहल छलाह।
साहित्यिक क्षेत्रमे हुनक प्रसिद्धि दिन-प्रतिदिन बढ़ल जा रहल छल। भरिसके कोनो पत्र-पत्रिका छल जाहिमे हुनक रचना नहि छपैत छल। कतेको
पोथीक प्रकाशन भ' गेल छल। तीन बेर मैथिली भाषा लेल "साहित्य अकादमी" पुरस्कारक हेतु सेहो नामित भेला मुदा भेटलनि नहि। एहि बरख हुनक एक गोट पोथी
के अमरीकामे सेहो सम्मानित कएल गेल छल। देशभरिमे पोथीक खूब चर्चा चलल। खूब
सराहना भेल। एतए तक की एहि पोथी के मैथिली साहित्यमे मील के पाथर सेहो कहल जाए लागल।
एहि बरखक मैथिली भाषामे "साहित्य अकादमी" पुरस्कारक लेल ओ प्रबल दावेदार छथि। सभके भरोस आ अपेक्षा जे
एहि बेरक ई पुरस्कार लेल मृदुल जी सभसँ उपयुक्त लोक छथि।
बेस ...
ओहो दिन आएल। पुरस्कारक घोषणा कएल गेल।
मुदा ... ई की !!!??? पुरस्कारक घोषणा अचंभित करए वला छल। पुरस्कार लेल जखन साहित्यकारक
नाउ घोषित भेल त' शंका जागल जे ई पुरस्कार मैथिली भाषाक लेल अछि आ की ....? सभ गोटे अपन-अपन तर्क लगा एहि घोषणाक तुक ताकि रहल छलाह। .....मृदुल अहू बेर छटा गेलाह !
पत्रकारक समूहमेसँ एक गोटे मृदुलसँ
प्रश्न केलनि, "मृदुल
की एकरा मैथिली साहित्यक उदारता कहब? की अहाँ संग न्याय भेल"? मृदुल नमहर स्वाँस
छोड़ैत बजलाह, "एहि प्रश्नक बेशी महत्व नै जे पुरस्कार हमरा भेटल आ की नै, एकरो महत्व नै जे हमरा संगे न्याय भेल आ की नै; महत्वपूर्ण ई जे की पुरस्कार संगे न्याय भेल !?" कोनो भाषाक लेल "साहित्य अकादमी पुरस्कार"
यदि एहन गोटे के देल
जाएत अछि जे ओहि भाषासँ जुड़ले नहि छथि, त' की एकरा ओहि भाषाक व्यापकता वा उदारता
कहल जाए? जे मैथिली आ अगबे मैथिली धेने बैसल छथि हुनका प्रसंगमे ई
केहन उदारता अछि? की सिमित साधनक ई कथित व्यापकता या उदारता असीमित साधना पर
प्रहार नहि अछि? यदि ई
व्यापकता या उदारता प्रथा बनि गेल त' जे अगबे मैथिलीमे लिखैत छथि तनिका ई साहित्यिक समाज की जबाब देत?
(तिथि:
21.12.2012)
जगदीश
प्रसाद मण्डल
दूटा लघुकथा-पटियाबला/ सनेस
पटियाबला
जेठ मास, दिनक तीन बजैत। देखैमे रातिसँ बहुत
बेसी नमहर दिन बनैत मुदा जहिना कायाक संग माया आ रौदक संग छाया चलिते रहैत तहिना
नमहर दिनक संग धूपो एते बढ़ि-चढ़ि जाइत जे मझोलको दिनसँ, श्रमशक्तिक दौड़मे छोट बनि जाइत। सूर्यक शक्तिवाण एते उग्र रूप पकड़ि
लइत जे धरतियो ताबा जकाँ आगि उगलैपर उताहुल भऽ जाइत। धरती-अकास बीच लुलुआएल लू
एक-ताले बाधमे नचैत। जेना राम-रावणक बीच वा महाभारतक सत्तरहम दिन भेल, तहिना। तेहने तीरसँ बेधित सुलेमान बेहोश भेल ओइ चिड़ै जकाँ श्याम सुनरक
दरबज्जापर आबि दावामे साइकिल ओंगठा ओसारक भुँइयेपर चारू नाल चीत खसिते आँखि
मूना गेलै। जहिना बन्न आखि साँस चलैत अधमड़ूक होइत तहिना भेल। बेरूका चाह पीबैक
अभ्यास श्याम सुनरकेँ, तीन बजेक। बगलक घरक ओसारपर चाह
बनबैत रहथि तँए साइकिलक खड़खड़ाएबसँ नै परेखि सकलाह जे वाण लगल बाझ जकाँ कियो
छथि। साइकिलक बात सामान्य तँए समुद्र उपछबसँ नीक जे जइ काजमे हाथ लागल अछि
अोकरा पूरा ली। सएह केलनि। चाह पीबैत दरबज्जापर अबिते देखलनि जे ई अधमड़ू भेल
के छियाह। मुँह निहारलनि तँ चिन्हल चेहरा सुलेमानक। आँखि बन्न, कुहरैत मनबलाक तँ बोलियो अस्पष्टे जकाँ भऽ जाइ छै, तँए बाल-बोध वा पशु जकाँ दुख बूझब कठिन भऽ जाइत, तथापि
छाती थीर करैत श्याम सुनर टोकलखिन-
“सुलेमान भाय, सुलेमान भाय?”
पानिक तहक अवाज जहिना ऊपर नै अबैत मुदा पानिक ऊपरक अवाज
कम्पित होइत, लहरिक अनुकूल ततए धरि जाइत जतए ओ पूर्ण अस्थिर नै भऽ
जाइत। श्याम सुनरकेँ उत्तर अबैसँ पहिनहि मन पड़ि गेलनि भिनसुरका अवाज। “पटिया लेब पटिया, पटिया लेब पटिया।”
मुदा लगले मनकेँ नअ घंटा उचटि कहलकनि। भरिसक रौदक चोट आ
मेहनतिक मारिसँ एते बेथा गेल छथि जे आँखि खोलैक साहसे नै होइत छन्हि। चिन्हल
दरबज्जा आ चिनहार बोली अकािन करोट फेड़ैत अध-खिल्लू आँखि उठा सुलेमान बाजल-
“श्याम भाय, केकर मुँह देखि घरसँ निकललौं
जे एको पाइक बोहनि नै भेल। उधार-पुधार ऐ उमेरमे खाएब नीक नै बुझै छी, कखन छी कखन नै छी, केकरो खा कऽ मरब तँ कोसत। जलखै खा
कऽ जे निकललौं, सहए छी। खाली पेटमे पानियोँ भोंकबे करै छै।
पेटमे बगहा लगैए।”
सुलेमानक बात सुनि श्याम सुनरकेँ भेलनि जे भरिसक एकरे
बिलाइ कुदब कहै छै। भुखाएल बिलाइ जहिना छटपटाइत अपनो बच्चाकेँ कंठ चभैले तैयार
हुअए लगैत तहिना भरिसक होइत-हेतइ। मुदा रोगो तँ असान नै एक संग कते तीर लागल छन्हि।
कोनो घुट्ठीमे तँ कोनो बाँहिमे कोनो छातीमे तँ कोनो माथमे। भूख-पियास, थकान इत्यादिसँ बेधल छथि। तोसैत श्याम सुनर कहलखिन-
“सुलेमान भाय, आँखि नीक जकाँ खोलू। एके
कप चाह बनौने छलौं जे आँइठ भऽ गेल अछि। बाजू पहिने चाह पीब आकि खेनाइ खाएब?”
पाश भरल बातमे आस लगबैत सुलेमान बाजल-
“भाय, ऐ घरकेँ कहियो दोसराक बुझलौं जे
कोनो बात बजैमे संकोच हएत। देहमे तते दर्द भऽ रहल अछि जे कनी पीठिपर चढ़ि खुनि
दिअ पहिने, तखन बूझल जेतै।”
सए
घरक जुलाहा परिवार गोधनपुरमे। झंझारपुरसँ पूब सुखेत पंचायतक गाम गोधनपुर। जइठाम
मरदे-मौगिये मिलि बिछानक कारोबार करैत अछि। गाम-गामसँ मोथी कीनि, अपनेसँ सोनक डोरी बाँटि बिछान बीनि, उत्तरमे
अंधरा ठाढ़ी, दछिन घनश्यामपुर, पूब
घोघरडीहा आ पछिम मेंहथ-कोठिया-रैमा धरिक बजार बना कारोबार करैत अछि। ओना
जुलाहा खाली गोधनपुरे टामे नै आनो-आनो गाममे अछि मुदा बिछानक कारोबार गोधनपुरे
टामे होइत। शहर-बाजरमे जहिना रंग-बिरंगक वस्तु-जात बिकाइत तहिना गामो-समाजक
बजारमे चलैत अछि। जइमे रंग-बिरंगक वस्तु-जातक बिक्री-बट्टा चलैत अछि। किछु
वस्तुगत आ अछि किछु भावगत।
साइयो परिवार अपन-अपन क्षेत्र बना भिनसरे जेर बना-बना निकलि
जाइत अछि। ओना कहियो काल सुलेमानो जेरेमे निकलैत, मुदा आइ असगरे निकलल
छल। अपनामे सीमाक अतिक्रमण करबो करैत आ नहियो करैत। खुल्ला बजार तँ ओहए ने टिकाउ
होइत जे बिसवासू वस्तुक विक्री करए। नै तँ घटिया माल आ बेसी दाममे वस्तुक विक्री
हएत। मुदा गोधनपुरक पटियाबलामे से नै एकरंगाह वस्तु, एक
रंगाहे दाममे बिकाइत।
पीठ-सँ-घुट्ठी धरि जखन श्याम सुनर दस
बेर बुललाह तखन सुलेमान पड़ले-पड़ल बाजल-
“भाय, आब उतरि जाउ। एह, अरे बाप रे आेइ जिनगीसँ घुरलौं। मन हल्लुक भेल।”
कहि फुड़फुडा कऽ उठि बैसैत बाजल-
“भाय, अचेत जकाँ भऽ गेल छलौं। आँखि चोन्हिया
गेल छलए। सौंसे अन्हारे बूझि पड़ए लगल छलए। ई तँ रच्छ रहल जे दरबज्जाक पछिला
देबालक ठेकान रहल, नै तँ कतए बौआ कऽ मरितौं तेकर ठीक नै।”
श्याम सुनर सुलेमानक बातो सुनैत आ मने-मन विचारबो करैत जे
हो-न-हो दरबज्जापर मरि जाइत तँ मुँहदुस्सी चिड़ै जकाँ लोक केना मुँह दुसैत
तेकर कोनो ठीक नै। जइठाम घरपर चिड़ै बैसने घरक सभ किछु चलि जाइ छै तइठाम कि
होइत। मुदा जइ दुर्गतिक दुर्गपर सुलेमान पहुँचि गेल छल ओइठाम मनुखक मनुखपना
केहेन होइ, ईहो तँ अछि। सत्तरि-पचहत्तरि बर्खक सुलेमान सभ दिन पचास
किलो मीटर बिछानक बोझ लऽ कऽ टहलि बेचि जीविकोपार्जन करैत अछि, ओहनकेँ कि कहल जाए। जे खून-पसीना एकबट्ट कऽ जीब रहल अछि। ओकर अंतीम
बोलो कियो परिवारक सुनि पबितै? मन ठमकिते पुछलखिन-
“सुलेमान भाय, आब केहेन मन लगैए, किछु खाइ-पीबैक इच्छा होइए?”
मुस्की दैत सुलेमान बाजल-
“भाय, आब जीब गेलौं। आब खेबे करब किने।
किछु दिन आउरो दुनियाँक खेल-बेल देखि लेब।”
जहिना गुड़-घाउक टनक जते बहैसँ पहिने रहैत अछि मुँह बनि
निकलिते किछु बेसिया जाइत मुदा मूल-खिल निकलला पछाति सुआस पड़ए लगैत, जइसँ रूप बदलि जाइ छै, पाशा आस लगबए लगै छै,
तहिना सुलेमान बाजल-
“भाय, सरेलहा भात-रोटी खाइक मन नै होइए।”
“तखन?”
“टटका जे गहुमक चारिटा रोटी भऽ जाइत तँ मन तिरपित भऽ जइतए।
ताबे नहा सेहो लेब।”
सुलेमानक बात सुनि श्याम सुनर कहलखिन-
“कल देखल अछि? वाल्टीन-लोटा आनि दइ छी,
नीक जकाँ नहा लेब।”
श्याम सुनरक बात सुनि हँसैत सुलेमान बाजल-
“भाय, एना किअए बजै छी। पचासो दिन पानि
पीने हएब, आ कतेको दिन नहेने हएब, तखन
कल देखल नै रहत। लोटा-बाल्टीन कथीले आनब, अांगनमे काज हएत।
हम सभ तरहक लूरि रखने छी ओहुना ठाढ़े-ठाढ़ वा बैसि कऽ नहा लइ छी आ जँ सासुर-समधिऔर
गेलौं तँ लोटो-बाल्टीन लऽ कऽ नहा लेलौं। ओना भाय, की कहू
लोको सभ अजीब-अजीब अछि। ने माल-जाल जकाँ नागरि छै आ ने मनुखपना छै। एक दिन अहिना
रौदमे मन तबधि गेल। एक गोरेक दरबज्जापर कल देखलिऐ, साइकिल
अड़का नहाइले गेलौं। मन भेल पहिने चारि घोँट पानि पीब ली। तही बीच एकटा झोंटहा
आबि झटहा फेकलक जे कल छुबा जाएत।”
सुलेमानक बात सुनि श्याम सुनरक मनमे वाल्मीकि आबि
गेलखिन। तमसा नदीक तटपर वाण लगल क्रोंच पक्षी। मुदा अपनाकेँ सम्हारि कहलखिन-
“अहूँ सुलेमान भाय कोन खिस्सा भुखाएलमे पसारै छी। झब दे नहाउ,
आंगनमे ताबे रोटी बनवबै छी।”
सुलेमान कल दिस आ श्याम सुनर आंगन दिस बढ़लाह। जहिना भोजनक पूर्व स्नानसँ
खुशी होइत तहिना सुलेमान कल दिस बढ़ला। मुदा श्याम सुनरक मनमे प्रश्न-पर-प्रश्न
उठए लगलनि। पहिल प्रश्न उठलनि जे मृत्युसज्जापर पड़ल यात्रीकेँ वा फाँसीपर
चढ़ैत यात्रीकेँ पूछि भोजन देल जाइत अछि तइठाम अपना मुँहेँ सुलेमान कहलक जे
गहुमक रोटी। बिनु मेजनक गहुमक रोटी ओहने होइत जेहेन डम्हाएल मालदह आम। जँ सोझे
रोटी कहैत तँ मड़ुआ रोटीक मेजन अचार, पिआजु, नून-मिरचाय, तेल सेहो होइत, मुदा
टटका गहुमक रोटी केहेन हएत? सभकेँ अपन-अपन प्रेमी होइ छै। जँ
से नै होइ छै तँ जूरशीतलमे बसिया अरबा चाउरक भात लेल पहिने लोक तड़ूआ-भुजुआ किअए
बना लइए मुदा तँए कि मोटका चाउरक बसिया भातक प्रेमी नून-पिआजु-अँचार नै हेतै।
मुदा जते जल्दिवाजीक जरूरति अछि -जल्दिवाजी ऐ लेल जे भुखाएल पेट स्नानक
पछाति दोसर रूप पकड़ैत- तइमे रसदार तरकारी बनाएब संभव नै, तँए
दूटा घेरा पका चटनी आ रोटीसँ काज चलि सकैए। सएह केलनि।
स्नान
कएल नोतहारी जकाँ दरबज्जापर अबिते सुलेमानक भुखाएल मन प्रेमी भोजनक बाट तकए लगल।
बेर-बेर आंगन दिस तकैत।
आगूमे थारी देखिते सुलेमानक मन साओनक सुहावन जकाँ हरषि
उठलनि। रोटीक पहिल टूक चटनीक संग मुँहमे अबिते दँतिया कऽ दाँत पकड़ि जीह रस
चूसए लगलनि। रस पबिते विहुँसैत सुलेमान बाजल-
“भाय, दुनियाँमे कतौ किछु ने छै। छै
सबटा अपना मनमे। जाबे आँखि तकै छी ताबे बड़बढ़ियाँ, आँखि
मुनिते दुनियाँ धिया-पुताक खेल जकाँ उसरि जाइ छै। अपने मुइने सृष्टिक लोप भऽ
जाइ छै।”
सुलेमानक गंभीर विचार सुनि श्याम सुनरक मनमे उठलनि जे भोजैत जँ भोजहरिक रसगर
बात सुनैत तँ ओ आरो बेसी आनन्दित होइत छै। मुदा अपन बात तँ बिनु प्रश्न पुछने
नै हएत। द्वैतमे दुनियाँ हेराएल छै। बाढ़ि आएल धार जकाँ कतए-सँ-कतए भसिया जाएत
तेकर ठेकान रहत। श्याम सुनर पुछलखिन-
“सुलेमान भाय, ऐ उमेरमे एत्ते भारी काज किअए
करै छी?”
श्याम
सुनरक प्रश्न सुनि सुलेमान विह्वल भऽ गेल। जिनगीक हारल सिपाही जकाँ तरसैत
बाजल-
“भाय, जखन अहाँ घरक बात पुछिये देलौं तखन
किअए ने सभ बात कहिये दी।”
सुलेमानक बात सुनि श्याम सुनर बूझि गेला जे बरिआतीक भोज
हुअए चाहैत अछि, से नै तँ चरिआ दियनि-
“सुलेमान भाय, कहने छलौं जे गरम-गरम रोटी
खाएब सराएल नै खाएब आ अपने गपक पाछू सरबै छी?”
श्याम सुन्दक बात सुनि हाँइ-हाँइ दूटा रोटी आ अधा चटनी
खा एक घोंट पानि पीब सुलेमान बाजल-
“भाय, माए-बापक बड़ दुलारू बेटा छेलिऐ।
खाइ-पीबैक कोनो दुख-तकलीफ परिवारमे नै रहए। कपड़ाक कारोबार छल। चरखा चलबैसँ लऽ कऽ
खादी भंडारसँ हाट धरिक कारोबार छल।”
श्याम सुनरक मनमे उठलनि- मोबाइल, टी.बी, कम्प्यूटर, कपड़ा,
जूतासँ घर भरल रहै छै मुदा सबुरक कतौ ठेकान नै। भरि पेट अन्न नै,
फटलो वस्त्र नै, छुच्छहो घरमे सवुर केना
फड़ि जाइ छै!! सुलेमानक परिवारिक जिनगीक ललिचगर गप सुनि
श्याम सुनर जिज्ञासा केलनि-
“ओ कारोबार किअए छोड़ि देलिऐ। मेहनतो आ आमदोक खियालसँ तँ निके
छलए?”
बामा हाथ चानिपर ठोकैत सुलेमान बाजल-
“गाम-गामक बाबू-भैया सभ गरीबक कारखाना उजाड़ि देलक। खादी
भंडारकेँ लूटि लेलक। छुच्छे हाथे कि करितौं।”
फेर जिज्ञासा करैत श्याम सुनर पुछलखिन-
“कोन-कोन तरहक कपड़ा बनबै छेलिऐ?”
सुलेमान- “पहिरन वस्त्रसँ लऽ कऽ ओढ़ैक सलगा
धरि बनबै छेलिऐ।”
डुबैत नाव देखि जहिना नइया -नाविक- निराश भऽ जाइत जे जँ
जिनगी बचियो जाएत, तँ जीब केना। तहिना सुलेमानक तरसैत मन
काँपए लगल।
आगू बढ़बैत श्याम सुनर पुछलखिन-
“ई तँ धिया-पुताक खेल भेल, जाए दिऔ।”
श्याम
सुनर सुलेमानकेँ तँ कहि देलखिन मुदा मन ठमकलनि। काजक रूपमे समाज बटल अछि। ओइ
काजक लूरि तँ ओकरा लेल सुरक्षित अछि। जँ कागजी ज्ञानक अभावो रहतै आ विकसित
बेवहारिक ज्ञान देल जाइ तँ कि घर-घर पाठशाला नै बनतै। जरूरत छल समायानुकूल ओकरा
बनबैक। से नै भेल।
तेसर रोटी खाइत सुलेमान बाजल-
“भेल तँ सहए, मुदा परिवार बिलटि गेल।”
परिवारक बिलटब सुनि श्याम सुनर आगू बढ़ि पुछलखिन-
“अपन परिवारक कारोबार मरि गेल तेकर पछाति कि केलिऐ?”
श्याम सुनरक प्रश्न सुनि उत्साहित होइत सुलेमान बाजल-
“कि केलिऐ? हमरो जुआनीक उठानि रहए।
मनमे अरोपि लेलिऐ जे दुनियाँमे कतौसँ कमा कऽ परिवार जीवित रखबे करब।”
सुलेमानक संकल्पित बात सुनि वाह-वाही दैत श्याम सुनर
पुछलखिन-
“दोसर कोन काज केलिऐ?”
सुलेमान- “गाम-गामक कपड़ा बुनिनिहार बम्बई
चलि ऐलिऐ।”
“बम्बईमे कतए?”
“भिवंडी। भिवंडीमे लूम चलै छै। ओइमे कपड़ा बुनाइ होइ छै।
गमैया लूरि तँ रहबे करए, लगले नोकरी भऽ गेल। ओना मजदूरी रेट
कम रहए मुदा काजक माप सेहो रहै। जते करब तते हएत। जुआन-जहान रहबे करी दिनकेँ ने
दिन आ रातिकेँ ने राति बुझिऐ। खूब कमेलौं।”
श्याम सुनर- “तखन ओकरा किअए छोड़ि
देलिऐ?”
श्याम सुनरक बात सुनि सुलेमानकेँ ओहिना भेलनि जहिना
चोटेपर दोहरा-तेहरा कऽ चोट लगलासँ होइत। कुम्हलाएल फूल जकाँ मुँह मलिन आ ठोरमे
फुड़फुड़ी आबए लगलनि नमहर साँस छोड़ैत बाजल-
“भाय, चारि साल खूब कमेलौं, पाँचम साल बिहारी-मराठीक हल्ला उठल। हल्ले नै उठल कतेकेँ जान गेल,
कतेकेँ बहु-बेटी छिनाएल, कतेकेँ कमाइ लुटाएल।
सभ किछु छोड़ि जान बचा गाम अाबि गेलौं।”
श्याम सुनर- “गाममे आबि फेर कि केलिऐ?”
सुलेमान- “तेही दिनसँ पटियाक ई कारोबार शुरू
केलिऐ। सभ परानी लागल रहै छी, घीचि-तीड़ि कऽ कहुना दिन
बीतबै छी।”
श्याम सुनर- “सुलेमान भाय, हम ई नै कहब जे अहाँ नै काज करू, मुदा काजक ओकाति
तँ देखए पड़त किने। कहुना-कहुना तँ चालीस-पचास किलोमीटर साइकिल चलबिते हेबै?”
“हँ से ने किअए चलबैत हेबै। आब कि ओ कोस रहल जे घंटामे एक कोस
लोक चलै छलै।”
“एक तँ अोहिना शरीर ढील भऽ रहल अछि तइपर साइकिल चलबै छी।
ततबे नै हो-न-हो कतौ रस्ता-पेरामे गीरिये परब आ हाथ-पएर टूटि जाएत तँ के देखत?”
एक तँ सुलेमानक जरल मन ठंढ़ाएल तइपर सँ परिवारक लेल
हाथ-पएर टुटब सुिन बाजल-
“भाय, केतबो अन्हारमे अनचिन्हार लोक
ढेरिया किअए ने गेल, मुदा हमहूँ कोनो समाजक लोक छी तँए सभ
समाज अपन-अपन धर्मक पालन करैत अछि। तहूमे हम तँ चिन्हार छी, गोटे-गोटे अनठा कऽ आगू बढ़ि जाइत मुदा सभ तेहने तँ नहिये अछि। तहूमे
जागल लोककेँ थोड़े विनास होइ छै।”
सुलेमानक जागल बात सुनि श्याम सुनर ठमकलाह। बात तँ बड़
सुनर अछि मुदा जागलक की अर्थ बुझै छथि, से बिनु जनने बात नै
बूझि सकब। एके चीजक नाओं-शब्द ढेर अछि, नाओंक संग काज
जुड़ल अछि। तइठाम बिनु पुछने काज नै चलत। पुछलखिन-
“भाय, जागल केकरा कहै छिऐ?”
जेना सुलेमानकेँ रटले होइ तहिना धाँइ-दऽ बाजल-
“भाय, जखन आँखि मूनल देखै छिऐ तँ बूझि
जाइ छिऐ जे सूतल अछि आ आँखि तकैत रहैए तँ बूझि जाइ छिऐ जे जागल अछि।”
फेर ताकब आ मुनबक ओझरी श्याम सुनरकेँ लगलनि। मुदा ओझरीमे
नै आगू बढ़ैत पुछलखिन-
“कते गोटेक परिवार अछि।”
सुलेमान- “अछि तँ बहुत मुदा चारू बेटीकेँ सासुर
बसेने अखन तीनिये गोरेक अछि।”
श्याम सुनर- “बेटासँ ने किअए ई काज
करबै छी। ओ तँ जुआन हएत?”
बेटाक नाओं सुनि सुलेमान विह्वल भऽ गेल। जेना कतौ सुख-दुख
दुनू बहिन गारा-जोड़ी कऽ सामाक गीत गबैत तहिना सुलेमान बाजल-
“भाय, उमेरक ढलानेमे बेटा भेल। सभसँ छोट
अछि। ओकरो दू अक्षर नै पढ़ा देबै, तँ लोक कि कहत?”
लोक
लाज सुनि श्याम सुनर हरा गेला। एहनो जिनगीमे लोक-लाज जीवित अछि। विहुँसैत
पुछलखिन-
“मन लगा कऽ पढ़ैए किने?”
केकरा मनक बात ऐ युगमे के कहत। सभ अपने बेथे बेथाएल अछि। सुलेमान
बाजल-
“भाय, से तँ ओकरे मन कहतै जे मन लगा कऽ
पढ़ै छी कि मन उड़ा कऽ पढ़ै छी।”
“अहाँ कि देखै छिऐ?”
“भाय, हम तँ अपना धंधामे लागल रहै छी। तखन
केना देखबै?”
“संगी-साथी सभ कहैत हएत किने?”
“हँ, से तँ कहैए जे जाइए पढ़ैले आ चलि
जाइए सिनेमा देखए, मैच देखए।”
“परीछामे पास करैए किने?”
“हँ से तँ ढौऔ-कौड़ी लगने पास कइये जाइए।”
“तब तँ आशा अछि?”
“हँ, से तँ ओकरेपर टक लगौने छी। जँ कहीं
नोकरी भेलै तँ दिने बदलि जाएत।”
बेटाक बात छोड़ि श्याम सुनर पुछलखिन-
“घरवाली कि सभ करै छथि?”
पत्नीक नाओं सुनि सुलेमान पसिज गेल। पत्नी, पत्नी रहल? संग चलनिहारि,
काँट-कुशक परवाह केने बिना कखनो गुरुक काज करैत तँ कखनो संगीक, कखनो प्रेमीक, जिनगीक अंतिम क्षण धरि रहैक
प्रतिज्ञा...। बाजल-
“भाय, कहुना कऽ बुढ़िया भानस भात कऽ लइए।
वेचारी दमासँ पीड़ित अछि।”
“इलाज किअए ने करा दइ छियनि?”
“गरीब घरक लोकक इलाज कि हेतै। जते पथ होइ छै तइसँ बेसी कुपथ
होइ छै। तखन तँ चाहै छी जे वेचारी पहिने मरए।”
“से किअए?”
“एतेटा जिनगीक सभ कमाइ लुटा जाएत, जखन हम
मरि जेबै आ ओइ वेचारीक भीखक कलंक लागत।”
सुलेमानक बात सुनि श्याम सुनर गुम भऽ गेलाह। किछु काल पछाति कहलखिन-
“आइ रहि जाउ। काल्हि ऐम्हरेसँ बेचैत-विकनैत चलि जाएब।”
हँसैत सुलेमान बाजल-
“भाय, जेना आइ एको पाइ बोहनि नै भेल तेना
नीके हएत। मुदा, बेमरयाह घरवालीकेँ एक नजरि नै देख लेब से
केहेन हएत।”
(बिछान, पटिया, चटाइ आ गोनरि बुननिहार एवं बेचिनिहार लेल...)
सनेस
लक्ष्मण रेखाक बीच सीता नहाँति बैसल सनक काका, प्रेम रस पीब प्रेमीक संग अधरूपिया चालि पकड़ि,
अधखिलू फूलक गंधमे गमिआइते मुँहक मुस्की सौझुका सिंगहार जकाँ महमहेलनि। अजीब
ईहो दुनियाँ अछि। ने सत्तिये अछि आ ने वेश्ये अछि। बनौनिहारकेँ धन्यवाद दी
जे एक दिस विवेकक विन्यास बाँटि पाँतिये-पाँति,
पाते-पात परसि देलनि तँ दोसर दिन-राति बना आगूमे ठाढ़ कऽ देलनि। धरमक संग पाप,
सुकर्मक संग कुकर्म, विद्वानक संग मूर्ख आ
पुरुष मौगीक जोड़ा लगा-लगा, पतिआनी बीच पात्रेक पते-पते
सेहो परसि देलनि। जते आगू दिस सनक काका देखैत छलाह ओते छगुन्ता लगैत छलनि। एक
दिस पानिक ठोप चन्द्रोदक कहबैत, तँ दोसर दिस असीम अथाह
क्षीरसागर, मुदा चन्द्रोदको तँ कतौ दूधक तँ कतौ पानिक तँ
कतौ दूधपनिया सेहो होइते अछि। कहू जे ई केहेन दुनियाँक खेल छी जे कियो असकरेमे
सोलहो ताल धऽ नचबो करैत, गेबो करैत आ देखबो करैत तँ कियो
भीड़-भाड़ तकैत। जते देखिनिहार तते नीक नाच। दुनियाँक चक्कर-भक्कर देख सनक
काकाक मन तरे-तर उदास भेल जाइत रहनि। जहिना धुरती बरिआती रंग-रंगक बात करैत तहिना
मनमे उठैत रहनि। अनेरे मनुख बनि जन्म लेलौं। मनुखपना जखन एबे ने कएल तखन मनुख
किअए भेलौं। मुदा पना आऔत केना? बाँसक पना ओधि होइत अबैत
छै, केरा-मोथी-अड़िकोच इत्यादिक सेहो ओहिना अबैत मुदा
मनुखमे से कहाँ भेल। बिनु पनेक मनुख ठाढ़ हएत। ठाढ़ तँ हएत मुदा शुद्ध ठाढ़ हएत
की अशुद्ध? जखन जानवरोमे फेंट-फाँट होइते छै, तखन अपन हिस्सा मनुखे किअए छोड़ि देत। अनेरे दुनियाँक महजालमे फँसि
मरैले छड़पटाइ छी। दुनियाँमे के एहेन अछि जे सुख-सागरमे बैस आनन्द नै चाहैए
मुदा दुनियोँ तँ दुनियेँ छी किने? रंग-बिरंगक सागर सभ
सेहो बसल अछि। क्षीर सागर, सुख सागर, लाल
सागर, कारी सागर। सनक काकाक मन ठमकलनि। जीबैतमे जतए बौआइ
मुदा समाधि तँ ठौरपर लेब। जँ से नै तँ हिटलर जकाँ थूकक धारमे भसिआइत रहब। उदास
मन, बिरहाइत बगए सनक काकाक रहनि। तखने भातीज-मनमोहन पोलीथिनक
झोरामे किलो आधेक अंगूर आ सेब आगूमे रखि देलखिन। झोरा आगूमे देखिते ठहाका मारि
काका हँसलाह। काकाक ठहाकाक चोट मनमोहनकेँ नै लगलनि, जना आमक
गाछपर गोला फेकलापर कोनोकेँ खसने गोलवाहकेँ खुसी होइत सहए खुशी मनमोहनकेँ भेल।
मुदा निशान साधल आमक महत किछु आरो। ठहाका मारि बाजल-
“काका, ई अहींक सनेस छी।”
सनेस सुनि सनक काका चौंकलाह जे सनेस कहि की कहैए। पुछलखिन-
“कतक सनेस छी?”
मनमोहन- “कश्मीरी सेब छी आ पूनाक चमन अंगूर।”
सनक काकाकेँ मन तरे-तर सनकल जाइत जे ई
छौड़ा कि बूझि मजाक करए आएल। जहिना बाप एकोटा कुकर्म नै छोड़लकै तही उतारक अपनो
भेल अछि आ सेव-अंगूर देखबए आएल अछि। तामसकेँ तरेमे दबैत काका कहलखिन-
“हौ मनमोहन, एक
दिनक भोजे की आ एक दिनक राजे की! बच्चा सभकेँ दऽ दिहक।
अपने अनरनेबा आ लताम दुइर होइए। जते तोहर लेब तते अपन दुरिये हएत। अच्छा बौआ,
एकर भाउ की छै?”
“एकर भाउ बुझैक कोन जरूरति पड़ि गेल काका?” मनमोहन बाजल।
मने-मन सनक काका सोचलनि जे छौड़ा नमहर छिनार-लुटार जकाँ
बूझि पड़ैए। कहलखिन-
“बौआ, आब तँ सहजहि चल-चलौए छी मुदा अपनो
देश-कोसक हाल बूझब कोनो अधला हएत?”
एक
तँ सनक काकाक बदनामी शुरूहेसँ रहलनि जे घरो लोक सनकले कहै छन्हि। केना नै कहनि
सभ अपन परिवारक बाल-बच्चा ले करैए आ ई सनक काका से बुझबे ने करै छथि। परिवारोमे
सनक काकाक सनकी यएह रहनि जे अपन-परिवार आ दोसर परिवारमे भेदे नै बुझथिन। जहिना
अपन परिवार तहिना दोसराक। अखन धरि मनमोहन यएह बुझैत जे परिवारोसँ बाड़ले-बेरौले
छथि तँए सभ चीजक दुख-तकलीफ होइते छन्हि। मनमोहनक नजरि कड़ुआए लगल। सनक काका
बुझैक कोशिश करए लगलाह, कारण कि छै। मनमे मिसियो भरि
सन्देह अपनापर नै भेलनि। मन गवाही दैत रहनि जे निनानबे प्रतिशत राक्षसक देश
लंका तइठाम विभीषण केना भक्ति-भजन करैत जिनगी गुदश करै छलाह। केहनो सघन बोन
सुकाठ-कुकाठक किअए ने होउ मुदा आमक गाछ आम आ लतामक गाछ लताम फड़ब बिसरि जाएत! दोहरा कऽ मनमोहनकेँ पुछलखिन-
“हौ बौआ, जहिना एके गोरे डाॅक्टरो आ
इंजीनियरो नै भऽ सकैए किएक तँ दुनूक दिशा अलग-अलग छै। मुदा सेबक जगह जँ अपनासँ
नीक लताम आ अंगूरक जगह अनरनेबा नेने अबितह तँ फले नै बीओ रोपि देतिऐ।”
सनक काकाक प्रश्न सुनि मनमोहन उछलैत बाजल-
“काका, दुनियाँ आब घर-आंगन बनल जा रहल
अछि। आ अहाँ पुस्तैनी विचार रखनहि छी।”
मनमोहनक साँसक गरमीकेँ अंकैत सनक काकाक सनकी तेज नै भेलनि।
मिड़मिड़ाइत कहलखिन-
“बौआ, जँ दुनियाँ घर-आंगन बनि गेल तँ ओ
नीक बात छी, मुदा ई तँ नीक बात नै जे कियो नौड़ी-छौड़ी बना
भाषा, साहित्य-संस्कृतिकेँ ओझरा मटिया मेट कऽ दिअए। से
कने बुझा दाए जे कि भऽ रहल छै?”
“काका, दुनियाँ आब नव पीढ़ीक अछि तँए
केतबो दुसबै ओ चढ़बे करत।” गुम्हरैत मनमोहन बाजल।
मनमोहनक प्रश्नसँ सनक काकाक सनकी पाछू मुँहेँ ससरलनि। पछुआ पकड़ि कहलखिन-
“बौआ, जर्मनी-जापानी आ अंग्रेजी शब्द ऐ
लेल चढ़-चढ़ौ भऽ गेल जे ओकर विकास अगुआ मशीनमे पहुँचि गेल आ मशीनक नाओं राखि-राखि
अहाँक घर-अंगनामे छिड़िया देलक। अहाँ ऋृषि-मुनिक राज मिथिला कहि-कहि ओतए
पहुँचि गेलौं जे ओ सभ की कहलनि तेकर डिक्शनरिये चोरा लेत। तखन अहाँ बुझबै जे
केहेन नव युगक नव लोक बनि गेलौं?”
सनक काकाक बात सुनि मनमोहन ठमकल मुदा पाछू हटैले तैयार नै
भेल। बाजल-
“काका, बजारमे अखन एक-सँ-एक खाइयो-पीबैक आ
फलो-फलहरी तेहन आबि गेल अछि जे अपना ऐठामक फल-फलहरीकेँ के पूछत?”
मनमोहनक प्रश्न सुनि सनक काका, सनकी आगू मुँहेँ ससरिते, कहलखिन-
“बौआ, कोनो देश-कोसक विकासमे ओइठामक माटि, पानि, हवा इत्यादि पंच भूत मुख्य तत्व भेल।
अनुकूल गतिये सृष्टि चलैत अछि। अपना ऐठामक लताम वा कोनो आन फल अछि, ऐठामक काल-क्रियाक गतिये जे जरूरी छल ओ प्रकृति पैदा केलक। अपना ऐठाम
एकरे अभाव भेल, जइसँ पहाड़ी फलकेँ मैदानी क्षेत्रमे नीक मानल
जाइत अछि।”
अपनाकेँ मनमोहन निरुत्तर देखि मैदानसँ हटैक विचार करए
लगल। मुदा सेव-अंगुरक पोलीथीन बीचक सीमा बनल। रूमाल चोर जकाँ सीमा पहिने के टपत।
पाछू हटैत मनमोहन बाजल-
“काका, आशा लगा अनने छलौं जे काकाकेँ नीक
फल खुएबनि।”
मनमोहनक बात सुनि सनक काका तारतम्यमे पड़ि गेलाह जे अखन
धरि जे हम बुझै छेलिऐ तइसँ भिन्न ने तँ मनमोहन अछि। आशाक दोहाइ लगा बजैए जे
आशा लगा अनने छलौं। आशा तँ सभकेँ अपन-अपन होइ छै। सबहक देहेटा अलग-अलग नै अछि,
मनक उड़ान सेहो होइ छै। पिजरामे बन्न सुग्गोकेँ पोसिनिहार सिखबैए जे आत्मा
राम पढ़़ू- चित्रकूट के घाटपर, भए संतन के भीड़। तुलसी दास
चानन रगड़े, तिलक करे रघुवीर...। मुदा सेहो तँ ने बूझि
पड़ैए। तखन? ओ तँ पुछनहि पता चलत। कहलखिन-
“हौ बौआ, जहिना घरक लोक हमरा बताह कहैए
तहिना ने ओकरो सभकेँ सनकपनिये फल खुएबै।” कहि मने-मन सोचए
लगलाह। भाँग पीब कियो बाजि चुकल छथि आकि असथिर मोने सोचि कहने छथि जे जेहेन
खाए अन्न तेहेन बने मन। मुदा अहू छौड़ाकेँ तँ छिछा-बीछा नीक नहियेँ छै। भरि दिन
देखै छिऐ जे ऐठामसँ ओइठाम, ओइठामसँ ऐठाम ढहनाइते रहैए। तइपर
सँ दिनो-दिन आगूए मुँहे ससरि रहल अछि। से केना? बहुरूपिया
ने तँ छी! सलाइ रिंच जकाँ सभ नट पकड़ै बला! तही बीच मनमोहन बाजल-
“काका, अहाँ अपने हाथे बाँटि दिऔ।”
मनमोहनक बात सुनि सनक काका ठमकि गेला। जहिना कोनो टपारि
कुदैले दू डेग पाछू हटि दौड़ कऽ टपि जाइत तहिना काका पाछूसँ आगू बढ़ि कहलखिन-
“हौ बौआ, बतरसिया हाथ भऽ गेल, ओहुना हरदम थरथराइए तइपर कोनो काज करै काल तँ आरो बेसी थरथराए लगैए। अपन
चीज जे थोड़-थाड़ छिड़िआइयो गेल तँ नै कोनो, मुदा तोहर जे
एकोटा अंगूर खसि पड़त तँ तोरे मन कि कहतह। यएह ने जे सनकाहक ठेकान कोन। तँए हमरा
चलैत तोरा मनकेँ ठेँस लगऽ, से नीक नै बुझै छी।”
काकाक बात सुनि मनमोहन बाजल-
“तँ की काका, घुमा कऽ लऽ जाइ?”
अनेरे ओझरीमे ओझराएल अपनाकेँ देखि सनक काका, ठाँहि-पठाँहि कहलखिन-
“ई तोहर खुशी छिअह जे घुमा कऽ घरपर लऽ जा वा दोकानदारेकेँ घुमा
दहक वा रस्ता-पेरामे कोनो धिये-पुतेकेँ दऽ दहक। हम किछु ने कहबह। एते दिनक
पछाति दरबज्जापर एलह सहए खुशी अछि।”
सनक
काकक बात सुनि जहिना जाड़सँ कठुआ कियो देह-हाथ तानि अचेत भऽ जाइत तहिना
मनमोहनकेँ भेल। मुदा....?
बिन्देश्वर
ठाकुर, धनुषा, नेपाल। हाल-कतार।
प्रेम-पत्र / सपनाक
अबसान
प्रेम-पत्र
हमर प्राणप्यारी नम्रता
मनभरिके माया आ स्नेह मात्र अहाँकेँ।
हम ऐठाम कुशल रहि अहाँक कुशलताक कामना करैत छी। अहाँक वियोगमे बिना पानिक माछ
आ बिना नेहु कऽ माँस बनल हम एतऽ परिवारक भरण-पोषण लेल
श्रमजीवीक टोपी लगा दिन काटि रहल छी।
काल्हिक फोनसँ साच्चे हमर मन बड दुखित अछि। अहाँक उपराग छल जे हमरा बिसरि गेलौं, बराबर फोन नै
करैत छी। अहाँकेँ हमर ख्याले नै अछि। मुदा सत्य ई नै छै। किएक तँ हम तँ बस शरीर छी
जहिकऽ आत्मा अहाँ छी। जौँ श्वास लेबऽबला फोक्सो हम छी तखन ऑक्सीजन तँ अहाँ छी। आब
अहीं कहू जकरा बिना हम एक पल बाँचि नै सकब, ओकरासँ अलग रहबाक कल्पना कोना करब? मुदा तैयो
परिस्थिति लोककेँ दोसर कऽ सामने विवश कऽ दै छै। आन लग काम करब, ओहो प्रचण्ड
गर्मीमे, बड पैघ
बात छै। घरमे बसिया-कुबसिया
किछु नै खाइ छलौं। मुदा एतऽ सुखल खबुस चिबाएब लत भऽ गेल अछि। नेपालमे
रहैत काल विदेश माने स्वर्ग हएत से कल्पना करैत छलौं। ओतुक्का लोक सभ आनन्दसँ, खुशी साथ जीवन व्यतीत करैत हेताह, से भ्रम छल।
पैसा जेना गाछसँ हिला कऽ लाख- दू लाख पठबैत अछि, तहिना बुझाइत छल। शायद एखन अहूँ ओहे सोचैत हएब। मुदा देखू
ह्रिदेश्वरी, सत्य ई
नै छै। स्वर्ग कहल ई जगह वियोगाभासमे तड़पि-तड़पि मरऽबला स्थान छै। एतऽ पैसाक महत्व
संगे मनुष्यक खरीद-बिक्री
होइ छै। दोसर दिस रातिमे अहाँ संग बिताएल ओ पल
सभ,स्नेहक
तीत-मीठ गप-सप बिढ़नीक खोता
जकाँ हमरा मानस पटलमे आबिकऽ निन्द तोड़ि दैए। कखनो-कखनो विदेश छोड़ि कऽ अहीं संग ओइठाम साग-पात खा दिवस
गमएबाक इच्छा होइए। मुदा विगतक दु:ख-दर्दसँ
मन तरसि जाइए। सच्चे, नीक
खाना, नीक
कपड़ा आ नीक गहना लेल कतेक तरसि गेल छलौं। नीक खाएब आ नीक लगाएब सपना भऽ गेल छल।
एतऽ आबि परिवार टेबब एकटा किनर मिलल अछि। दायित्व पूरा करबाक एकटा सहारा अछि।
हम एतबेमे खुशी छी। मुदा तैयो फोन करबाक पर्याप्त पैसा आ समय नै हएब, दोसरक वशमे बड़द
जकाँ जोताएब, घर- परिवारसँ दूर
रहब चिन्ताक विषय थिक।
एहन विषम परिस्थितिमे हमर साथ देब, आत्मविश्वास बढ़ाएब, अपनामे धैर्यताक बान्ध मजगूत राखब अहाँक कर्तव्य अछि। कारण
अहाँक धैर्यता आ आत्मविश्वासे प्रवासमे हमरा हौसला प्रदान करत।
अन्तमे समय-समयमे
फोन करैत रहब से वाचाक संग एखन विराम। बाँकी दोसर पत्रमे।
अहाँक स्नेही
एकान्त राम
मरुभूमि टोल,कतार
२
सपनाक अबसान
एक दिन रमलोचना आंगनमे सँ महेश महेश... किलोल करै छथि। तखन चौकिये परसँ काकी कहै
छथिन, बौआ
एम्हरे आउ- काकीक
मन बड पिड़ाएल आ मन खिन्न रहए। रमलोचना गामक बेटा आ महेसक संगी छल। बुढ़िया
रमलोचनाकेँ बजा कऽ महेशकेँ वृतान्त सुनबैत छथिन।
महेश जे तीन साल पहिने गेल छलाह कतार, अपन सपना पूरा करबाक लेल। जयबाक बेर अत्यन्त हर्षित- माएला घर बनाएब, पत्नीक लेल नीक
कपड़ा, बच्चा-बुच्चीकेँ नीक
स्कूलमे पढ़ाएब आ जबान बहिनक शादी करब। हतपतमे पास्पोर्ट बनौलक। अपन कियो नै रहै
विदेशमे। तैयो घरक पड़ोसी मदनक सहयोगमे हुनकर मामासँ वीजा मङौलक। पहिने कनिए पैसामे
भऽ जाएत कहितो प्लेनपर चढ़ऽसँ पहिने १ लाख नगद लेबाक जिद करऽ लागल। पैसा नै भेलाक
कारणे दोबर कऽ कागज बनबा लेलक। आब दूध-माछ दुनू बातर भऽ गेलै महेशकेँ।
की करत घरमे, सभ
सदस्यक आँखिक नोर पोछैत ओ गेलाह कतार। मुदा हुनका सभकेँ नै चाही एना, काम नाथुरकेँ
कैहक दिन-राति
धूपमे तबुक उठाएब आ देह धुनि बिल्डिङ कन्सट्रक्शनमे काम करब। नै खएबाक नीक
व्यवस्था, नै
सुतबाक। कम्पनी सेहो सप्लाइ।
घरक याद बड सतबैक महेशकेँ। मुदा प्रतिज्ञाक अटल रहथिन महेश। कतबो दु:ख पीड़ा होइतो
काम नै छोड़थिन। ओइठाम ब्याज बढ़ि कऽ घर गिरवी रखबाक स्थिति आबि गेलै। एतऽ पगार जहिनाक
तहिना। दिन-दिन
सोचि-सोचि
कमजोर भऽ गेल
बेचारा महेश। एक दिन काम करैत काल करेन्ट लागि गेल हुनका। साथी-संगीक सहयोगमे
अस्पताल लऽ जा बचलथि। मुदा हाथ बिना काम कऽ भऽ गेल। ऊपरसँ
कम्पनी तोरा गल्तीसँ करेन्ट लागल आ कम्पनीक समान सभ नोकसान भेल कहैत माँस सेहो
काटि लेलक। शरीर बिना कामकेँ भेलासँ उपचार करएबाक बदला महेशकेँ घर पठा देलक। महेशक
आँखिसँ नोर बर्-बर्
टपकैत रहल।
घर पहुँचलाक बाद ओ माएक स्थिति देखि बौक भऽ गेलाह। जेना मुँहसँ किछु अबाज नै
निकलल। माय सेहो अन्तिम साँस रोकने बस महेशक लेल। बौआ-बुच्ची बाबुक सनेसक
प्रतीक्षामे। पत्नीक लेल सेहो किछु नै। हाथ खाली। बड ग्लानि भेलनि महेशकेँ।
किछु दिन बाद उपराग सभसँ महेशक धैर्यताक बान्ध टुटि गेलै। ई बान्ध
बड मजगूत होइ छै आ टुटलापर सर्वनाश होइ छै। यएह भेल महेशक साथ। अपन जबान बहिनक
विवाह दहेजक कारण नै भऽ सकल आ गामक लोकक ताना सुनि-सुनि ओ पागल भऽ
गेलाह।
महेश बनि कऽ
सृष्टिक रक्षा करब उद्देश्य रखने हमर बेटा ऐ गरीबीक चपेटामे
जिनगी नरक बना लेलक। आ हम सभ दर-दर भटकि रहल छी। अते कहैत बुढ़ियाक आँखिमे नोर भरल आ
जोर-जोरसँ
चिचिया उठल आ
धिया-पुता
जकाँ हुचकि-हुचकि
कानऽ लगलीह।
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