भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Tuesday, October 07, 2008

प्रवासी मैथिलकेँ समर्पित आठ गोट कविता- प्रस्तुति गजेन्द्र ठाकुर

विद्यापति(१३५०-१४५०) आऽ पाब्लो नेरुदा(१९०४-१९७१)

विद्यापति(१३५०-१४५०)



हम जुवती, पति गेलाह बिदेस। लग नहि बसए पड़उसिहु लेस।
सासु ननन्द किछुआओ नहि जान। आँखि रतौन्धी, सुनए न कान।
जागह पथिक, जाह जनु भोर। राति अन्धार, गाम बड़ चोर।
सपनेहु भाओर न देअ कोटबार। पओलेहु लोते न करए बिचार।
नृप इथि काहु करथि नहि साति।
पुरख महत सब हमर सजाति॥
विद्यापति कवि एह रस गाब। उकुतिहि भाव जनाब।



बड़ि जुड़ि एहि तरुक छाहरि, ठामे ठामे बस गाम।
हम एकसरि, पिआ देसाँतर, नहि दुरजन नाम।
पथिक हे, एथा लेह बिसराम।
जत बेसाहब किछु न महघ, सबे मिल एहि ठाम।
सासु नहि घर, पर परिजन ननन्द सहजे भोरि।
एतहु पथिक विमुख जाएब तबे अनाइति मोरि।
भन विद्यापति सुन तञे जुवती जे पुर परक आस।



परतह परदेस, परहिक आस। विमुख न करिअ, अबस दिस बास।
एतहि जानिअ सखि पिअतम-कथा।
भल मन्द नन्दन हे मने अनुमानि। पथिककेँ न बोलिअ टूटलि बानि।
चरन-पखारन, आसन-दान। मधुरहु वचने करिअ समधान।
ए सखि अनुचित एते दुर जाए। आओर करिअ जत अधिक बड़ाइ।



हम एकसरि, पिअतम नहि गाम। तेँ मोहि तरतम देइते ठाम।
अनतहु कतहु देअइतहुँ बास। दोसर न देखिअ पड़ओसिओ पास।
छमह हे पथिक, करिअ हमे काह। बास नगर भमि अनतह चाह।
आँतर पाँतर, साँझक बेरि। परदेस बसिअ अनाइति हेरि।
मोरा मन हे खनहि खन भाँग। जौवन गोपब कत मनसिज जाग।
घोर पयोधर जामिनि भेद। जे करतब ता करह परिछेद।
भनइ विद्यापति नागरि-रीति। व्याज-वचने उपजाब पिरीति।



उचित बसए मोर मनमथ चोर। चेरिआ बुढ़िआ करए अगोर।
बारह बरख अवधि कए गेल। चारि बरख तन्हि गेलाँ भेल।
बास चाहैत होअ पथिकहु लाज। सासु ननन्द नहि अछए समाज।
सात पाँच घर तन्हि सजि देल। पिआ देसाँतर आँतर भेल।
पड़ेओस वास जोएनसत भेल। थाने थाने अवयव सबे गेल।
नुकाबिअ तिमिरक सान्धि। पड़उसिनि देअए फड़की बान्धि।
मोरा मन हे खनहि खन भाग। गमन गोपब कत मनमथ जाग।



अपना मन्दिर बैसलि अछलिहुँ, घर नहि दोसर केवा।
तहिखने पहिआ पाहोन आएल बरिसए लागल देवा।
के जान कि बोलति पिसुन पड़ौसिनि वचनक भेल अवकासे।
घोर अन्धार, निरन्तर धारा दिवसहि रजनी भाने।
कञोने कहब हमे, के पतिआएत, जगत विदित पँचबाने।



सासु जरातुरि भेली। ननन्दि अछलि सेहो सासुर गेली।
तैसन न देखिअ कोई। रयनि जगाए सम्भासन होई।
एहि पुर एहे बेबहारे। काहुक केओ नहि करए पुछारे।
मोरि पिअतमकाँ कहबा। हमे एकसरि धनि कत दिन रहबा।
पथिक, कहब मोर कन्ता। हम सनि रमनि न तेज रसमन्ता।
भनइ विद्यापति गाबे। भमि-भमि विरहिनि पथुक बुझाबे।


पाब्लो नेरुदा (१९०४-१९७१), साहित्य लेल नोबल पुरस्कार १९७१ मे भेटलन्हि।

८.दुपहरियाक आसकतिक क्षण


अहाँक समुद्रसन गहीँर आँखिमे,
फेकैत छी नाहक पतबारि, निनायल दुपहरियामे,
ओहि पजरैत क्षणमे हमर एकान्त,
आर घन भए जड़ि उठल डूबैत घटवार जेकाँ,
धीपल लहलह चेन्ह, अहाँक हेरायल आँखिमे,
जेना दीप-स्तम्भक लगीचमे घुरैत जलराशि।

हमर देसाँतरक पिआ, अहाँ अन्हारे रखलहुँ,
अपन भंगिमासँ निकलैत दुःखक तटकेँ।


ठेहियायल दुपहरियामे, हम, फेर भए उदास फेकैत छी महाजाल
ओहि धारमे, जे अहाँक नाहसँ, आँखिमे अछि बन्न।
रतिचर चिड़ै, साँझेसँ निकलल तरेगणकेँ मारए लोल,
आऽ ओ हमर आत्मा जेना आर भए जाइत अछि दग्ध।

राति अपन छाहक घोड़ीपर अछि सबारी कसैत ,
अपन आकाशी रंगक अग्रभागसँ रेशमी चेन्ह छोड़ैत।