भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Saturday, November 01, 2008

एक कथा स्नेहकें- सन्तोष मिश्र, काठमाण्डू

एक कथा स्नेहकें

नरेशक काका आइ खूब सेन्ट छिटकऽ अपन संगीक बहिनक बियाहमे जाए लेल तैयार भेलाह । ताबते नरेश सेहो ओतऽ पहुँचलाह । काकाकेँ नव कपड़ा आ सेन्टमे देखि कऽ कहलखिन्ह “कि यौ काका आई तऽ बड़ा..........।“

काका पहिने जतऽ कतौ जाइ छलथि नरेशकेँ संगे लऽ कऽ । ताहिसँ ओ नरेशकेँ कहलनि “चलबे तँ.....तहूँ चल,...जो जल्दीसँ तैयार भऽ कऽ चलि आऽ ।

“नरेश बच्चा नहि वरन ओऽ आई.ए. दोसर बर्षमे अध्ययनरत अठारह बर्षक जबान छथि । ओ जल्दीसँ तैयार भऽ कऽ आबि गेलाह, तखन जाऽ कऽ दुनु काका आ भातिज ओतऽ सँ बिदा भेलाह ।

जखन काका भातिज दुनू ओतऽ पहुँचलाह तँ घरबैयाक मोनमे बड आश अएलनि । दुनु गोटाकेँ बिभिन्न काज देबाक क्रममे नरेशकेँ टेन्ट सबहक काजक जिम्मेबारी भेटलनि । नरेश एकटा असल अतिथीक भूमिका निर्वाह करैत टेन्टक सरसमान लाबऽ लेल तैयार भेलाह । ओहि ठाम एकटा पुरान स्र्कोट मोटरसाईकल राखल छलैक । नरेश काकासँ ओहि मोटरसाइकलक लेल कहिते रहथि तावते एकटा हाफ सर्ट आ जीन्स पैन्ट पहिरने ब्यक्ति अएलाह आ कहलनि-

“एह.....धीया-पुता कि मोटरसाईकल चलेतय.....। “

फेर ओ ओहि ठाम राखल पुरना साईकल देखबैत कहलनि-

“वैह....लऽ कऽ चलि जाउ । “

एहन बात सुनि कऽ हुनका मोनमे बड दुःख लगलनि आ ओऽ अपन घर जाकऽ बाबुजीसँ मोटरसाईकल लेबाक काजमे लागि गेलाह ।

बैशाखक महिना, चण्डाल सनक रौदमे टेन्टक सभ काज समाप्त कऽ नरेश आँगन बाला नारियल गाछ लग बनाएल टेन्ट पर कुर्सी पर बैसकऽ किछ सोचैत रहथि । तावते बेबी- जिनकर बिवाह रहनि- ओ हुनकासँ पुछलखिन्ह-

“नरेश.....भोजन केलहुँ कि करब"।


नरेश किछ जबाब नहि देलनि । तखने अचानक हुनक नजरि एकटा कत्थी रंगक कुर्ती–सलबारपर, पैरमे पायल आ खुजल केशबाली लड़की पर पड़लनि । ओ लड़की नरेशकेँ एतेक नीक लगैत छैक जे ओ हुनका सँ बाजऽ लेल ब्याकुल होब लगैत छथि । हुनका मोनमे ईहो भऽ जाइत छनि-

“एकरा संग हम जीवन बिताऽ सकैत छी ।“

तखने लिली अपन भाइक संगे नरेश लग अएलीह आ हुनकर माँ आ बाबुजीके बारेमे पुछय लगलीह । ओ बात तँ लिली संगे करैत रहथि मुदा ध्यान केमहरो दोसर ठाम रहनि । कनिए देरक बाद वैह लड़की एकटा थारीमे चूड़ा, दही, चीनी, आमक अचार, आर मिठाई सब लाबिकऽ नरेशकेँ नास्ता करय लेल दैत छथि ।

नरेश दुनु हाथसँ थारी पकड़ैत कहलनि-

“आहाँ नास्ता....कऽ लेलहुँ ?”

जेना कतेक दिनसँ परिचित रहथि तहिना ओ कहलनि-

“जी नहि ........आब जाइत छी हमहुँ ।”

ओ पुनः जाकऽ तीनटा थारीमे नास्ता लऽ कऽ अएलीह । लिलि, बिक्किकेँ दैत अपनो एतहि खाए लगलीह । नरेश मात्र हुनके पर तकैत रहथि । एकबेर जखन नरेश हुनका पर तकैत रहथि तखने ओ सेहो नरेश पर तकलन्हि हुनका रहल नहि गेलनि आ ओ पुछलनि-

“आहाँक नाम...कि थिक" ?

निसंकोच ओ जबाब देलन्हि-

“हमर नाम.......रुबी अछि ।“

काज सब ओरिया गेल छलैक ताहिसँ ओ बैसल छलाह । लिलि आ नरेशक पहिनहिसँ घरसँ आनजान रहन्हि । लिलि नरेशके कहलनि-

“नरेश........चल सबगोटा हमरा आँगन..........सब गोटा लुडो खेलब ।“

ओत कोनो प्रकारक काज नहि होबऽ कें कारणसँ नरेश, लिलि, बिक्कि आ रुबी चारु गोटे लुडो खेल चललाह । सबगोटे ओतऽ "व्यापारी" खेलऽ लागल, जाहिमे नरेश बैंक बनल । भाग्यसँ कही वा संयोगसँ नरेशक कातमे रुबी बैसल । नरेशकेँ जतऽ पचास देबऽ के रहनि ओतऽ रुबीके पाँच हजार दऽ दैथ आ एकटा टिकटक बदलामे दुटा टिकट । आ एहि खेलऽके समयमे ओ रुबीसँ हुनका बारेमे सब किछ पुछऽ लगलाह । रुबीक एस.एल. सी.क सिम्बल नं. सँ घरक फोन नं. तक । एक बेर खेल समाप्त भेल । दोसर बेरक खेलमे बैंक रुबी बनलीह । रुबी एक के सट्टामे दु कऽकऽ बिक्किके देबऽ लगलीह । रुबीक गलतीकेँ बिक्कि सबकेँ खोलिकऽ देखाऽ दैक । जखन रुबीक काज नरेश पाँच–छ बेर देखलन्हि तँ कहलनि-

“ई तँ एहन दुनिया छैक जेकरा मदति करबय सैह भाला भोकत ।“

अहिके बाद रुबी नरेशकेँ एकटा टिकटक बदला तीनटा आ............। एक बेर त नरेश फेकि देलन्हि मुदा जखन रूबी नरेश पर तकलकै तँ नरेश रुबी कि कहऽ चाहैत अछि से बुझि गेलाह । आ नरेश सभ किछु स्वीकार करय लगलाह।

साँझक करीब छ बजे नरेश अपन घर जाय लेल जुत्ता पहिरैत रहथि, तावते एकटा महिला रुबीकेँ घर जाए लेल कहलन्हि । नरेश आ रुबी संगहि विदा भेलाह ।

बाटमे नरेश पुछलनि-

“.....आहाँक घर.... कोन ठाम अछि”।

बडा सिनेहसँ ओ जबाब देलन्ह “महादेब मन्दिर बाला गल्लीमे”।

किछ आगू बढैत नरेश कहलनि-

“....हम तँ ...अहाँसँ सब किछु पुछलहूँ मुदा ..अहाँ हमरा बारेमे .........”।

बात कटैत ओ कहलन्हि-

“हमरा लिली सभ किछु कहि देलन्हि।”

एते बतियाइतो नरेश रुबीसँ अखनो बाजऽ लेल छटपट करैत छलाह ताबते ओ पुछलन्हि-

“अं.....आहाँके कोनो लड़की साथी अछि ?”

नरेश ब्यंग करिते जबाब देलन्हि-

“हँ ..बहुते ।”

नरेशक जबाब सुनिते रुबी गम्भीर भऽ गेलीह आ पुनः पुछलन्हि-

“हम जे.....बुझि रहलछी .....से हो ?”

ठोही मुस्की आ आखिसँ गम्भीर भऽ नरेश कहलनि-

“हँ......अखन धरि त नहि मुदा आब भऽ जएतै ।”

रुबी अपनामे खुशी भऽ फेर पुछलन्हि-

“कतऽ के छै”।

नरेश जबाब देबऽ मे धुकचुक भऽ कहलन्हि-

“काठमाण्डूक”।

ओ कनिक देर चुप भऽ चलऽ लगलीह, तखन फेर नरेश पुछलनि-

“.......रुबी अहाँकेँ कोनो लड़का साथी अछि ?”

जहिना नरेश कहने रहथि तहिना ओहो कहलन्हि-

“हँ ..बहुते ।”

फेर नरेश सेहो पुछलनि-

“हम जे.....बुझिरहलछी..से हे ?”

“हँ......अखन धरि तँ नहि मुदा आब भऽ जएतै ।”

“कतऽ के छै”

“दिल्लीक”।

दिल्लीके नाम सुनिते नरेशकेँ बुझा गेलनि जे ओ हुनके बात पर ब्यंग करैत छलीह । फेर ओ सब कनिक देर चुपचाप चलल आ फेर नरेश कहलनि-

“ रुबी....जँ हम कोनो लड़कीकेँ कहबै जे हम ओकरा सँ प्रेम करैत छी .....तँ....कि ओ स्वीकार करतीह”।

रुबी मुस्कैत गम्भीरतासँ कहलन्हि-

“हँ ...किया नहि । एकटा लड़कीकेँ अपन वरक लेल जे किछु गुण चाही- सुन्दर, निक स्वभाव–विचार, आदी-इत्यादी सब किछु तँ अछि अहाँमे”।

आब एते बातचीत भेलाक बाद नरेश आब फेर हिम्मत जुटाकऽ एकटा प्रश्न करैत अछि-

“........अहाँ असगरे कोनो लड़काक संग साथ सिनेमा देखने छी?”

बडा गम्भीर भऽ ओ कहलन्हि-

“नहि”।

“.....आ जँ केओ कहत तँ जएबै कि नहि ?"

अहि प्रश्नक जबाब देबऽ लेल रुबीकेँ बड. कठिन पड़लनि आ ओ कहलन्हि-

“ जाएब आ नहि जाएब से तँ संगे चलऽ बाला आदमी पर परै छै“।

एते सुनिकऽ नरेशक छाती कापऽ लगलैक आ ठोढ़ सेहो कापऽ लगलैक मुदा तैयो नरेश कहैछै -

“.........काल्हि ३ बजे वाला शोमे........ नीलम हॉलमे अहाँक प्रतीक्षा करब । हमरा विश्वास अछि जे अहाँ आएब ।”
मूड़ी डोलबैत रुबी कहलन्हि-

“ठीक छै”।

एते बात भेलैक, रुबी अपन घर तक पहुँच गेलीह । दुनु गोटे आपसमे बिदा लैत अपन अपन घर दिस लागल । अखन तँ साँझक सात मात्र बजलैयऽ मुदा नरेशकेँ प्रतिक्षा छैक तँ काल्हुक ३ बजेक । धिरे–धिरे हुनक मोन बेचैन होबऽ लगलनि । ओ कखनो टि.भि.लग आ कखनो कतौ... । बैसले–बैसल नरेशकेँ उचाट जकाँ लगय आ सोंचऽ लगथि जे एतऽ किया बैसल छी । एवं प्रकारे नरेशकेँ खाए, पिबऽ, उठऽ, बैसऽ सभ किछुमे उचाट लागऽ लगलनि।

दोसर दिन नरेश करीब दूइए बजे सिनेमा हॉल पहुँचल । टिकट बिक्री तँ अढाई बजे खुलैत छैक । तखुनका एक–एक मिनट हुनका बझाइन जे एक बर्ष बित रहल अछि आ मनमे एकटा इहो छटपट्टी रहनि जे ओ अएतीह कि नहि । जखन सवा
तीन बाजि गेलैक, मुसराधार पानि सेहो परऽ लगलै तखनो नरेश बाहर जा–जाक देखऽ लगलाह । तीन बाजि गेलैक, मुसराधार पानि सेहो परऽ लगलै, तखनो नरेश बाहर जा–जाकऽ देखऽ लगलाह । घण्टी जहिना बजै, नरेशक छाती आओर तेज धरकय लगैक । जखन तीन-पैतिस भऽ गेलैक, तखन नरेश देखलक जे रुबी पानिमे भीजैत माथ पर ओढनी धएने आबि रहल छथि । ओ जल्दी सँ कूदि कऽ रुबी लग जाइत अछि आ हाथ पकरि कऽ भीतर लऽ जाइयऽ । आ ई दूनु गोटे सिनेमा कम आ एक दोसराकेँ बेशी तकैत रहैअ ।

किछ कालक बाद एकटा गीत शुरु होइछ, नरेश रुबीक हाथ पकरिकऽ कहैछ-

“....रुबी ....हमरा दिश ताकु ने ।”

रुबी हुनका दिश तकैछ तँ ओ कहैत छथि-

“हमरा अहाँसँ प्रेम भऽ गेल“।

ई सुनिकऽ रुबी फेर पर्दा दिश ताकऽ लगैछ । नरेश फेर कहैछ-

"अहाँ हमरा जबाब नहि देब" ।

बडा गम्भीर भऽ रुबी कहैछ-

“हमरा कनीक..........सोचबाक मौका नहि देब.........?”

किछ समय बाद रुबी रुबी नरेशक हाथ पकरिकऽ कहलनि-

“....नरेश हमरा अहाँसँ प्रेम भऽ गेल, हम अहाँ बिन रहि नहि सकैत छी । “

बातो तँ ओतबे हेबाक रहैक । कनिक कालक बाद ओऽ दूनु गोटे सिनेमा हॉलसँ निकललाह आ साँझमे भेट करबाक बात करैत अपन–अपन घर दिस बिदा भेलाह । करीब छ बजे साँझमे नरेश मोटरसाईकल लऽकऽ रुबीसँ भेट कऽ आएल आ तखने जल्दिसँ अपन गाम डेबडीहा चलि देलक। गाम पहुँचैत साँझक साढे-सात बाजि गेल रहैक । ओ अपन माँ लग जाऽ कऽ गम्भीरता पूर्वक बैसि गेल । नरेशकेँ एहन उदास देखि कऽ माँ पुछलन्हि-

“कि बात बेटा, अबेर आबिकऽ, उदास" ?

नरेश माँकें अपन प्रेमक विषयमे कहए गेल रहथि । बड हिम्मत जुटएलाक बाद नरेश कहलनि-

“माँ ...........हमरा प्रेम भऽगेल ऽ”।

माँके कोनो भाँज नहि लगलनि आ पहिने ओ लड़कीक विषयमे पुछलन्हि । आ नरेश सभ किछ कहि गेलाह । तखन माँ कहलन्हि-

“ठीके छैक । मुदा बाबुजीक प्रतिष्ठा बचाकऽ ।”

तकर बाद दूनु गोटाक भेँटघाट आ फोनपर गपशप चलैत रहल । बिवाहक चतुर्थीक रातिमे निमंत्रण परल रहनि । बिना काकाक संग कतहु नहि जाएबाला नरेश निमंत्रणमे असगरे चलि गेलाह । मोनमे ई रहनि जे ओतऽ रुबीसँ गप होयत । एवं प्रकारे नरेश आ रुबी बड लग भऽ जाइ गेलाह । दिन भरिमे बड़ कम तँ १२–१४ बेर फोन पर बात होइन ।

एक बेर अहिना रुबीक माँ नरेशकें रुबी आ सोनीकेँ अंग्रेजी पढाबय लेल कहलन्हि । नरेश पढाबए लगलाह । मुदा दूनु गोटे बिच जे बात होइ ताहि पर सोनीकेँ शंका रहैक । एक महिनाक बाद रुबीक बाबुजी सुर्खेतसँ अएलाह। हुनका रुबीक बारेमे मालुम भेलनि, ओ रुबीक झोराकेँ तलाश कैलनि । हुनका नरेशक लिखल किछु चिठ्ठि भेटलनि । साँझमे रुबी अपन भाईक हाथसँ नरेशक लेल चिट्ठी पठौलन्हि। नरेश ओ पढिकऽ तुरन्ते रुबीक घरपर फोन करैत अछि । फोन रुबीक माँ उठबैतछथि । नरेश रुबीसँ बात करऽके इच्छा व्यक्त करैयऽ मुदा फोन रुबीक हाथ नहि परैत छनि । आ ओऽ नरेशकेँ इहो कहैत छथि जे अहाँ एतय आबि कऽ रुबीक बाबुजीसँ बात कऽ लिअ । ई बात सुनिकऽ नरेश अपन माँके सुनबैयऽ आ रुबीक बाबुजी सँ बात करऽ लेल सेहो जिद्द करैयऽ । करीब १ बजे दिनमे नरेश आ हुनक माँ रुबीक घर जाइत छथि । नरेशक माँके देख कऽ रुबीक बाबुजी कटाक्ष बोली बजैत कहैयऽ-

“...आ....आएलजाए – आएलजाए”। माँ आ सभ गोटे बैसय बाला घरमे जाईत छथि आ नरेश रुबीबाला घरमे । ओतऽ सोनी सेहो पढैत रहैछ । घरमे जाइते नरेशक नजरि रुबीक हाथपर परैत छै । बाहिमे काटल– काटल देखिकऽ नरेश पुछैत छैक-

“ई कि.......हमरा पर भरोसा नहि “ओतऽ बैसल नोकरकेँ बजाकऽ नरेश पत्ती लाबऽलेल कहैछ । रुबी ओकरा मना करैछ । नेकोन एयरक १२ बजे बाला प्लेन सँ भागऽ के बात सेहो रुबी सँ कहलनि। हाथमे पत्ती अपने सँ आनि नरेश अपनो हाथमे खचाखच ६–७ बेर मारैयऽ ताबते नरेशक माँ हुनका बजबैत छथि । नरेश कलपर जाकऽ हाथ धोकऽ अपन माँ लग पहुँचैत छथि। माँ सभ सँ माफी मांग लेल कहैत छथि, नरेश माफी मंगैय मुदा एतेके बादो रुबीक बाबुजी एकैहटा बात कहैत छथि-

“ आब जे सभसँ पहिने लगन अएतै ताहिमे बिबाह करब तँ ठिक छैक, नहि तँ नहि हेतै । “

"ठिक छै हम एकर बाबुजी सँ बात करैछी “। एते कहि नरेश आ हुनक माँ दुनु ओतऽ सँ बिदा भेलाह ।

ओही रातिमे दू–तिन आदमी आबिकऽ नरेशक बाबुजीकेँ कहैछ-

“आहाँ बेटाकेँ सम्हारि लिअ नहि तँ ठीक नहि होएत“ ।

नरेशक बाबुजीकें एहन सुनिकऽ बरदास नहि भेलनि आ ओ कहलनि-

“हे जाउ ! ........हुनको एकहिटा बेटा छनि से याद करा देबै । .....आब आहाँ सभ जा सकैतछी ।”

एते कहिकऽ ओ केवार बन्द कऽलेलन्हि । एवं प्रकारे रुबीसँ नरेशकेँ कोनो प्रकारक बातचित करीब आठ महिना तक नहि होइत छनि ।

फेर नरेशक काठमाण्डू रहबाक बात होइत छैक । मुदा नरेश १०–१५ दिन पर जनकपुर जाइत अबैत रहैयऽ ।


एक दिन नरेश रुबीसँ जेना होइ बाजऽ के छैक, सोचिक निकलैयऽ । भोरमे रुबी गणित बिषयक ट्यूसन पढ. लेल के. झा लग अपन साथी भावना संग जाइत रहैय । अचानक नरेशक घरपर रुबीक फोन अबैत छैक आ रुबी कहैछ-

“बारह बिग्घामे बेरियामे भेट करऽ आउ । “

जखन नरेश ओत पहुचैय त रुबी सम्पूर्ण घटनाक चित्रण करैत कहैत छथि-

“....आब आहाँ जँ हमरा सँ भेट करब त हमर बाबुजी आहाँके जानसँ मरबादेता....से....कृप्या.........।”

मुदा नरेश जनकपुर १०–१५ दिन पर आन जान नहि छोरैय । आ रुबी सँ भेटबाक बात कहीयो दशमीमे, कहियो सुकरातिमे करैत –करैत नरेशके रुबी धोखा दऽ दैत छैक ।
ओना नरेशके मनकें बड चोट पहुचैत छैक, तैयो ओ एकहिटा बात कहैछैक-

“बाहिमे रहू न रहू मोनमे रहलकरु ।”

वाह नरेश !

5 comments:

  1. kanek filmi aa kanek samapti me harabari,

    ona pratibha me kono kai nahi achhi santoshji.

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  2. prem kahani kanek ansohat lagal muda ki karbaik hamra sabhak age seho bad bhay gel achhi,

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  3. santosh ji pahine ahan kathmandu se chhi se ee blog me ahank rachna dekhi harshit bhel, rachna seho nik lagal.

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  4. इंटरनेटपर रंगबिरंगक रचना देखि मैथिलीमे लिखबा के सख हमरो भ गेल। बड्ड नीक संतोषजी, कथामे कसावट कनी चाही मुदा तैयो नीक।

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  5. santoshji apne bdhiya likhai chi. tai me kono sanka nai achi. bahut khushi lagal je gam-ghar me hua bala ghatna sab ke sametai chi. muda ekta chij akharal je kahanime ashali nam aur gam ke prayog nai karbak chahi. kiya ta aaisa hunka loknik niji jindagi me asar padtain. banki apne bughaite chiyai.

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पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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