भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति
(c)२०००-२०२३. सर्वाधिकार
लेखकाधीन आ जतऽ लेखकक नाम नै अछि ततऽ संपादकाधीन। विदेह- प्रथम मैथिली
पाक्षिक ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA सम्पादक: गजेन्द्र ठाकुर। Editor:
Gajendra Thakur
रचनाकार अपन मौलिक आ अप्रकाशित रचना (जकर मौलिकताक संपूर्ण उत्तरदायित्व
लेखक गणक मध्य छन्हि) editorial.staff.videha@gmail.com केँ मेल अटैचमेण्टक
रूपमेँ .doc, .docx, .rtf वा .txt फॉर्मेटमे पठा सकै छथि। एतऽ प्रकाशित
रचना सभक कॉपीराइट लेखक/संग्रहकर्त्ता लोकनिक लगमे रहतन्हि। सम्पादक
'विदेह' प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका ऐ ई-पत्रिकामे ई-प्रकाशित/ प्रथम
प्रकाशित रचनाक प्रिंट-वेब आर्काइवक/ आर्काइवक अनुवादक आ मूल आ अनूदित
आर्काइवक ई-प्रकाशन/ प्रिंट-प्रकाशनक अधिकार रखैत छथि। (The Editor, Videha
holds the right for print-web archive/ right to translate those archives
and/ or e-publish/ print-publish the original/ translated archive).
ऐ ई-पत्रिकामे कोनो रॊयल्टीक/ पारिश्रमिकक प्रावधान नै छै। तेँ रॉयल्टीक/
पारिश्रमिकक इच्छुक विदेहसँ नै जुड़थि, से आग्रह। रचनाक संग रचनाकार अपन
संक्षिप्त परिचय आ अपन स्कैन कएल गेल फोटो पठेताह, से आशा करैत छी। रचनाक
अंतमे टाइप रहय, जे ई रचना मौलिक अछि, आ पहिल प्रकाशनक हेतु विदेह
(पाक्षिक) ई पत्रिकाकेँ देल जा रहल अछि। मेल प्राप्त होयबाक बाद यथासंभव
शीघ्र ( सात दिनक भीतर) एकर प्रकाशनक अंकक सूचना देल जायत। एहि ई
पत्रिकाकेँ मासक ०१ आ १५ तिथिकेँ ई प्रकाशित कएल जाइत अछि।
(c) २०००-२०२२ सर्वाधिकार सुरक्षित। विदेहमे प्रकाशित सभटा रचना आ आर्काइवक सर्वाधिकार रचनाकार आ संग्रहकर्त्ताक लगमे छन्हि। भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल http://www.geocities.com/.../bhalsarik_gachh.html, http://www.geocities.com/ggajendra आदि लिंकपर आ अखनो ५ जुलाइ २००४ क पोस्ट http://gajendrathakur.blogspot.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html (किछु दिन लेल http://videha.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html लिंकपर, स्रोत wayback machine of https://web.archive.org/web/*/videha 258 capture(s) from 2004 to 2016- http://videha.com/ भालसरिक गाछ-प्रथम मैथिली ब्लॉग / मैथिली ब्लॉगक एग्रीगेटर) केर रूपमे इन्टरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितक रूपमे विद्यमान अछि। ई मैथिलीक पहिल इंटरनेट पत्रिका थिक जकर नाम बादमे १ जनवरी २००८ सँ "विदेह" पड़लै।इंटरनेटपर मैथिलीक प्रथम उपस्थितिक यात्रा विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,जे http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि। आब “भालसरिक गाछ” जालवृत्त 'विदेह' ई-पत्रिकाक प्रवक्ताक संग मैथिली भाषाक जालवृत्तक एग्रीगेटरक रूपमे प्रयुक्त भऽ रहल अछि। विदेह ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA
Thursday, March 26, 2009
समीक्षा श्रृंखला-1 विनीत उत्पलक मैथिली कविता संग्रह "हम पुछैत छी"- समीक्षक डॉ.गंगेश गुंजन
विश्व बजारी एहि समाज मे, भाषा-साहित्य सभक संसार मे सेहो बजारे जकां मंदी पसरल अछि। लगभग इएह परिस्थिति बेसी कला-विधाक बुझाइछ। साहित्यमे किछु आर विशेषे। ताहू मे कविताक विधा आओरो अनठिआएल अछि, किछु स्वयं कात करोट भेल आ किछु कएल जा रहल अछि। प्रकाशके टा द्वारा नहि, स्वयं संबंधित भाखा-भाखी अधिसंख्य लोक समाज द्वारा सेहो। जतए स्वयं कविक द्वारा, से अवश्य खेद करवाक विषय। कविता व्यक्ति कें अपन समाज मे एकटा आओर प्रतिष्ठा मात्र दिअयबाक मूल्य पर बेशी दिन जीवित नहि रहि सकैत अछि। अर्थात् कोनो सम्भ्रान्त व्यक्तिक भव्य ड्र्ाइंग रूम मे एक टा आओर इम्पोर्टेड दामी वस्तुक प्रदर्शनीय नमूनाक माल कविता नहि बनाओल जा सकैत अछि, जे कि दुर्भाग्य सं भ’ रहल अछि। भाषा वैह टा ओतबे जीवित अछि वा रह’वाली बुझा रहल अछि जे मात्र अपन भाषिक उपयोगिता बा कही अपन क्रय-विक्रय-मूल्यक बलें जीवित रहि सकय। ग्लोबल बजार मे भाषा अपन प्रवेश- जतेक दूर आओर गंहीर धरि करवाक क्षमता रखने अछि, ताही सामर्थ्यक उपयोगिते पर, ओतवे दुआरे जीवित राखल जा रहल अछि, कोनो अपन काव्य-सम्पत्ति, सांस्कृतिक अस्मिता आ भाषाक प्राचीनता बा महानताक जातीय स्वाभिमानक आधार पर नहि। तें दुर्भाग्यवश ई समय अपन-अपन भाषाक महानता ल’ क’ आत्म गौरव सं भरब तं फराक, जे मुग्ध पर्यन्त होयबाक समय नहि बांचि गेल अछि। हॅं, भाषाक ‘दाम’ ल’ क’ निश्चिन्त रहवाक बा कम बिकाएब ल’ क’ चिन्तित होयबाक समय अछि। मुदा कविता मे भाषाक आशय आ अस्तित्व कें एहन तात्क्षणिक बूझि लेब कोनो भाषा-साहित्यक मूल सं छूटि क’ आगां बढ़वाक बुद्धि कें अवसरवाद छोड़ि, दोसर किछु ने मानल जा सकैत अछि। समकालीन समस्त कवि कें, नवागन्तुक के तं अनिवार्यतः बजार आ कविता भाषाक बीचक एहि भेद कें नैतिक बुद्धियें बूझि’ए क’ एकर बाट चलवाक प्रयोजन । अन्यथा ई कविता सेहो एक टा नव पैकेटक नव उत्पाद बनि क’ दोकान मे रहत। पोथीक दोकान मे नहि। साज-शृंगारक कोनो मॉल मे, जत’ जनसाधारण लोकक पहुंचबो दुर्लभ! आब से बजार आ कविताक भाषाक एहि द्वन्द्व सं निकलैत भाषाक ई यात्रा कोन नीति-बुद्धि सं कएल जयवाक प्रयोजन ताहि विषय पर गंभीरता सं मंथन कर’ पड़त। स्वविवेक। ई त्वरित चाही। उत्पल जीक एहि कविता-पाण्डुलिपिक लाथें, ई चर्चा हमरा अभीष्ट भेल आ संभव, एकर श्रेय तें हम हिनके दैत छियनि। कारण बतौर काव्य-प्रवेशार्थी भाषा-व्यवहारक ई दायित्व हिनको वास्ते प्राथमिकताक डेग छनि। कविता भाषाहिक सवारी पर लोक धरिक अपन यात्रा करैत छैक। जेहन सवारी, जेहन सवार तेहन यात्रा। ताही मे गन्तव्य, काव्यबोध, युग आ जीवन-दर्शन समेत बहलमानी कही, कोचमानी कही, बा ड्र्ाइभरी-पॉयलटी तकर कर्म कुशलता, ई सभ तत्व अंतर्निहित छैक। बल्कि कएटा अन्यान्यहुं विषय जे कोनो कवि अपना साधनाक प्रक्रिया आ स्वविवेक सं निरन्तर अपने विकसित करैत जाइत अछि। मुदा तकरा यथावत “शब्द मे कहि सकब, प्रायः एखनो हमरा बुतें संभव नहि। कए दशक सं कविता लिखि रहल छी।
हिन्दी सन व्यापक भाषाक स्थापित नीक-नीक स्वनामधन्य कवि पर्यन्त अपन कविता-पोथी अपने छपा रहल छथि। बिकाइ छनि तं बेचि रहल छथि। कोनो ब्रांड प्रकाशक सं खामखा छपवहि चाहैत छथि तं ओकरा पुष्ट मात्रा मे धन दैत छथिन। सरकारी पुस्तकालय सभ मे थोक मात्रा मे ‘खपबा’ देबाक वचन दैत छथिन, तखन अपन गुडविल दैत छनि। वा अपने अर्थ सक्षम कवि-लेखक अपना पुस्तकक संपूर्ण प्रकाशन-व्यय स्वयं करैत छथि। तें पाठक आइ धनिके कवि टा कें, ब्रांड प्रकाशन सभ मे पढ़ि सकवाक सौभाग्य पबैत अछि । मैथिलीक स्थान निरूपण तं सहजहिं कएल जा सकैए। मैथिली मे तं ओहिना प्रायः सभ टा साहित्ये लेखक-कवि कें अपना अपनी क’ अपने छपबाव’ पड़ैत छैक। महाकवि यात्रीजी पर्यन्त विशय आबहु जीवित अति पुरना किछु लोक आ यात्रीजीक स्नेही-श्रद्धालु पाठक समेत हमरा खाढ़ीक हुनक स्नेह-समीपी किछु रचनाकार कें बिसरल नहि हेतनि। पोथीक प्रसार आ विक्रय सं मैथिल लेखकक केहन उद्यम जुड़ल रहलैक अछि! प्रकाशक कत’? अर्थात् कविता आ साहित्य कवि आ साहित्यकारहिक संसार मे जीवित अन्यथा मृत नहियों तं अनुपस्थित तं अनुभव कएले जा रहल अछि। ई युग यथार्थ एकदम देखार अछि।
एहना मे क्यो एक टा मैथिल युवक अपन समस्त ऊर्जा-उत्साहक संग दिल्ली मे कोनो संध्या बा प्रात अपन मैथिली कविताक पाण्डुलिपि दैत अपने कें ‘भूमिका’ लिखि देवाक आग्रह करथि तं केहन लागत ? मतलब जे प्रथम दृष्टया केहन अनुभव हएत? हमरा तं युवक दुस्साहसी आ किंचित गै़रजवाबदेह बुझयलाह। ओना जकरा साहस नहि हेतैक से कविताक बाट धइयो कोना सकैये !
अपन कुल अड़तालीस पृष्ठक अड़तीस कविताक पाण्डुलिपि दैत श्री उत्पल विनीत जखन से कहलनि तं किंचित असमंजस तं भेवे कएल। भूमिका-लेखन-काज सेहो एहि युग मे अपन धर्मान्तरण कए लेलक अछि। हमर प्राथमिकता सं तें बाहरे अछि। तथापि यदि कोनो मैथिली कविताक भविष्य एना सोझां उपस्थित हो तं स्वागत कोना नहि हो ! ताहू मे भागलपुरक नवतूर !
पाण्डुलिपि पढ़वाक क्रम मे हमरा कचकोही कविता ;मैथिली कवि विनोद जीक “शब्द मे कंचकूहद्धहोयवाक अनुभव भेलाक बादहु-कवि प्रतिभाक छिटकैत सूक्ष्म किरणक सेहो अनुभव, प्रिय आ आश्वस्तिकारक बुझाएल। स्वागत तें कहल अछि। उत्पलजीक प्रतियें उद्गार मे।
कविक प्रस्तावना हिनक कविताक संसार कें बुझबा मे विशेष सहायक अछि जे ई बड़ स्पष्ट बुद्धियें आ पूर्ण मनोयोग सं लिखलनिहें। हिनकर रचनाक बुनियादी वर्तमान आ सरोकारक उद्घोश जकां छनि। से मात्र वयसोचित उच्छ्वास नहि, बल्कि अपन वचनबद्धताक स्वरूप मे कहल गेल छनि।
सभ समयक नवीन पीढ़ी रचनाकारक सम्मुख अपन वर्तमाने प्रायः सब सं प्रखर चुनौती रहैत छैक। अतीत आ भविष्य तं अ’ढ़ मे रहैत छैक। रचनाकारक रूप मे अतीतक वास्ते ओकर नीक-बेजायक वास्ते ओकरा उत्तरदायी नहि बनाओल जा सकैए। यद्यपि ताही तर्क सं भविष्यक लेल ओकरा छोड़ि सेहो नहि देल जा सकैए। कारण समाजक भविष्य निर्माणक प्रक्रिया मे अन्य सभ सामाजिक कारण आ प्रेरक परिस्थिति सभ समेत, समकालीन रचनाकारहुक परोक्ष मुदा प्रमुख भूमिका रहबे करैत छैक। तें कविक दायित्व ल’ द’ क’ अपन समकालीनताक ज्ञान आओर अनुभव के विवेक सम्मत सम्वेदनाक रूप मे विकसित करैत अग्रसारितो कर’ पड़ैत छैक। जाहि सघनता आ व्यापकता सं कवि युगक “अतीत-ताप अर्थात् जीवनक दुःख-द्वन्द्व आ यथार्थ कें बूझि-पकड़ि पबैत अछि आ तकरा अपन रचना मे दूरगामी प्राणवत्ताक कलात्मक शिल्प द’ पबैत अछि, सैह ओकर प्रतिभाक सामर्थ्यक रूप मे दर्ज कएल जाइत छैक। कोनो रचनाकार अपना कृति मे बहुत युग धरि रहवाक सहज आकांक्षी होइतहिं अछि। तें हमरा जनैत मनुक्खक जिजीविशा आओर कविताक जिजीविशा मे तात्विक किछु भेद नहि। कवि जे अंततः मनुक्खे होइत अछि। तें दुनूक “आशक्ति अन्योनाश्रित होइछ।
विनीतजीक कविता मोटामोटी हमरा तीन अर्थछाया सं वेष्ठित अनुभव भेल। कविता मे अपन कथनक कोटि, तकर पकड़ आ प्रयोगक विधि। कएटा रचना तें कंचकोह जे कहल, से छैक एखन। कएटा भावानुभूति मे संवेदनशील मुदा कथन मे अपेक्षाकृत बेजगह। “कविताक विषय कथात्मक सांच मे कहि देल गेलैक अछि, जे स्वाभाविके, ओ कविता विशेष अपन जाहि अनुभव-निष्पत्तिक योग्य सक्षम रहैक आ उपयुक्तो, से नहि भ’ सकलैक अछि। से आगां सकुशल सफलता पाबि जाइक तकर सामर्थ्य कविता मे अवश्ये झलकैत छैक। से साफ-साफ। तें ओतहु निराशा नहि, आस्वस्ति छैक। कवि आ कविता दुनू अपना प्रकृतियें बनिते-बनिते बनैत छैक। तेसर जे अति ज्वलंत अतः कविताक प्राणानुभूति वला अनुभव कें पर्यन्त कवि किछु तेहन अंदाज मे कहि जाइत छथि जे ओकर वांछित प्रभाव पाठकक मन पर ओएह नहि पड़ैत छैक जे स्वयं कविक अभीष्ट छनि। अगुताइ मे कहल गेल सन आभास होइत छैक। कारण जे कविता मात्र कन्टेंटे नहि, कहवाक छटा आ व्यंजनाक कलात्मक स्तर पर काज करवाक कविक समुचित भाषिक क्षमता सेहो थिक।
बहुत सोचला उतर आधार भेटल जे, तकर यदि कोनो एकटा कारण देखल जाय, तं भाषाक अवरोध बुझाएल। कोनो भाषा स्वयं मे मात्र ओ भाषा टा नहि अपितु पूरा संस्कृति होइत छैक। भाषा मात्र ओकर बोध बा ज्ञाने नहि, ओकर संवेदना सेहो होइत अछि। अर्थात कोनो प्राचीन समृद्ध संस्कृतिक अभिव्यंजना लेल ओहि संस्कृतिक भाषाहुक प्रवाह मे प्रवेश चाही। से प्रवेश हमरा बुद्धियें भाषाक नाव टा सं संभव होइत छैक। नाव एकहि संग खेबैया सं ओकर स्वस्थ बल समेत कएटा अन्यान्य कुशलताक मांग करैत छैक। कवि सं कविता-विषय, तहिना। तें भाषाक साधना, कोनो कविक काव्य-यात्रा कें सुगम बनवैत छैक।सुचारु करैत छैक। दोसर जे, जेना जीवन आओर युग यथार्थ परिवर्तनशील होइत अछि , तहिना भाषाक भूमिका सेहो बदलैत छैक। अर्थात् भाषाक मिज़ाज।
उत्पल विनीतजी कें भाषाक रूप मे एखन मैथिलीक संग बहुत बेशी आयन-गेन करवाक प्रयोजन। तखनहि मैथिलीक सहज स्वाभाविक “शक्ति सं आत्मीयता आ परिचय विकसित भ’ सकतनि। भाषा कें अपन काव्य प्रयोगी अभियान मे विश्वसनीय संगी बनब’ पड़तनि। सभ कें बनब’ पड़ैत छैक। मातृ भाषा हएब, कविक सामर्थ्य तं होइछ मुदा काव्य सामर्थ्यो सेहो भ‘ जाइक, से आवश्यक नहि। तें कोनो कविक वास्ते काव्यभाषाक सिद्धि अभीष्ट।अनुभव तं जीवनक निरंतर अंतरंगता आओर सरोकार सं अपना स्वभावें चेतनाक अंग बनैत चलैत छैक। सैह रचनाकार कें श्रेय तथा प्रेयक विवेक भरैत रहैत छैक।
एहि टटका, उूर्जावान-संवेदनशील कविक पथ प्रशस्त हेतनि से विश्वास अछि। बहुत-बहुत स्नेह-“शुभाशंसाक संग, कालजयी कविताक आशा मे।
7 comments:
"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका http://www.videha.co.in/:-
सम्पादक/ लेखककेँ अपन रचनात्मक सुझाव आ टीका-टिप्पणीसँ अवगत कराऊ, जेना:-
1. रचना/ प्रस्तुतिमे की तथ्यगत कमी अछि:- (स्पष्ट करैत लिखू)|
2. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो सम्पादकीय परिमार्जन आवश्यक अछि: (सङ्केत दिअ)|
3. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो भाषागत, तकनीकी वा टंकन सम्बन्धी अस्पष्टता अछि: (निर्दिष्ट करू कतए-कतए आ कोन पाँतीमे वा कोन ठाम)|
4. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो आर त्रुटि भेटल ।
5. रचना/ प्रस्तुतिपर अहाँक कोनो आर सुझाव ।
6. रचना/ प्रस्तुतिक उज्जवल पक्ष/ विशेषता|
7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।
अपन टीका-टिप्पणीमे रचना आ रचनाकार/ प्रस्तुतकर्ताक नाम अवश्य लिखी, से आग्रह, जाहिसँ हुनका लोकनिकेँ त्वरित संदेश प्रेषण कएल जा सकय। अहाँ अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर सेहो पठा सकैत छी।
"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि।
अपन टीका-टिप्पणी एतए पोस्ट करू वा अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर पठाऊ।
-
"भालसरिक गाछ" Post edited multiple times to incorporate all Yahoo Geocities "भालसरिक गाछ" materials from 2000 onwards as...
-
जेठक दुपहरि बारहो कलासँ उगिलि उगिलि भीषण ज्वाला आकाश चढ़ल दिनकर त्रिभुवन डाहथि जरि जरि पछबा प्रचण्ड बिरड़ो उदण्ड सन सन सन सन...
-
खंजनि चलली बगढड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरली अपन वस्तुलक परित्याकग क’ आनक अनुकरण कयलापर अपनो व्यिवहार बिसरि गेलापर व्यंपग्यय। खइनी अछि दुइ मो...
कृतघ्न मनुख बेमार आलोचना.
ReplyDeleteमैथिली साहित्यक समृद्धि कें स्वीकारबा में प्राय: एकरा सं परिचित आनो भाषा-भाषी कं असोकर्ज नहि बुझैत छैन्हि. मुदा जे गप विचारवाक अछि से थिक साहित्यिक समृद्धिक पाछू किनका सबहक खपि जेनाय रहल छैन्हि.
नाम गिनेबा लेल जं भिडि जाइ त' असमाप्य श्रृंखला शुरू भ' जायत.
मुदा कृतघ्नता में हमर सबहक जोर नहि. भाषा संस्कृतिक नाम पर भरि जीवनक होम क' देनिहार कें हम सब बेर-बेर मोन तक पारब उचित नहि बुझैत छी. जीबैत काल धरि किछु गोष्ठीक अध्यक्षता आ छोट छिन सम्मानक अलावे हुनका सबहक हिस्सा किछु नहि अबैत छैन्हि. अहि दुर्भाग्य पूर्ण प्रसंग सं अपना सबहक सौन्दर्यबोध आ संस्कृतिबोधक इयत्ता संदेहक वस्तु
बनि गेल अछि. अतीतक तीत अनुभव नवतुरिया सबकें सहज नहि होमय द' रहल छैक. अहि सन्दर्भ में युवा रचनाकार अखिल आनंदक ई गप उल्लेख करबा योग्य अछि – “ मैथिली सं पाइक आस तं नहिये रहैत छैक कम सं कम सही मूल्यांकन त' होए’’. गुणगान आ निंदाक बीच फंसि दम तोइर रहल मैथिली आलोचनाक सधल इलाज़ बहुत जरूरी छैक।
एहि डिसकशनक परिणामस्वरूप मिथिला आर मैथिली ब्लॉग द्वारा नव लेखकक रचनाक समीक्षा शुरू कएल जा रहल अछि। एहि क्रममे पहिल समीक्षात्मक आलेख विनीत उत्पलक पहिल कविता संग्रह "हम पुछैत छी" पर डॉ. गंगेश गुंजन जीक समीक्षा जे विदेह ई-पत्रिका मे ई-प्रकाशित भेल अछि, तकरा प्रस्तुत कएल जा रहल अछि। पाठक-लेखकगणसँ एहि प्रकारक समीक्षा पठेबाक अनुरोध सेहो कएल जाइत अछि। एहि डिसकशनमे भाग लेनिहार सभ लेखक-पाठककेँ धन्यवाद।
discussion ker nik parinam, ee prarambh ekta milestone sidha hoyat.
ReplyDeletevinit utpal jik kavita ehi blog par seho kaik ta aayal achhi, hinka san nav lekhak samiksha puran lekhak dvara bhel dekhi mon harshit bhay rahal achhi,
samiksha srinkhlak pahil prastuti bad nik , professional samiksha, ee aasha jagbait achhi je aagak kari seho ohane dharra par chalat.
ReplyDeletesamiksha lekhak aarambh nik
ReplyDeletenik lagal blogak ee response
ReplyDeleteMaithili Mandan lag je sarthak vicharak shrinkhala achhi okra ahen response da apne maithilik hit ka rahal chhi. dunu gota ke badhai !
ReplyDeletebad nik vishleshan
ReplyDelete