सृजन
देह के सगरो भिजेलक।
तप्त मोनक आगि नहि
तैयो कहाँ कनिओं मिझेलक।
जड़ि रहल छल गाछ रौदक
धाह सँ आँगन दलानक।
छल केना सुड्डाह भ’ गेल
फूल गेना, तरु गुलाबक।
निन्न सँ जागल कमलदल
बुन्द पड़िते दृग उठौलक।
स्नेह सँ जल बूँद कँे सब
निज तृषित उर सँ लगौलक।
प्रस्फुटित नव पंखुरित
किछु बुन्द आंचर मे नुकौलक।
पीबि जल अमृत धरा कँे
जीव जीवन कँे बचैलक।
जड़ बनल किछु बीज कँे
जखने भेलै स्पर्श जल सँ।
अंकुरित भ’ गेल बंजर
भूमि के चेतन अतल सँ।
अछि मनोरम दृष्य सबकेँ
छै केहन आनंद भेटल।
हर्ष मे डूबल प्रकृतिक
नृत्य मे जीवन समेटल।
गाछ पर बैसल केना अछि
खग बना क’ स्नेह जोड़ा।
छी एतय हम आई असगर
नहि पिया छथि,सुन्न कोरा।
की केलहुँ हम स्नेह क’ क’
द’ देलक किछु घाव जीवन।
नीक छल दुनियाँ अबोधक
पूर्ण जीवन, तृप्त जीवन।
घाव जँ रहितै शरीरक
फोरि क’ कखनो सुखबितहुँ।
तूर के फाहा बना क’
घाव पर मलहम लगबितहुँ।
देत के औषधि बना क’
अछि चोटायल घाव मोनक।
के मिटायत आबि हमरो
नेह सँ संताप मोनक।
द्वारि के पट बंद कयने
छी व्यथित हम आबि बैसल।
आइ अबितथि पिया, रहितहुँ
अंक मे आबद्ध प्रतिपल।
ठोर पर ठहरल सुधा जल
आइ ‘प्रियतम’ के पियबितहुँ।
प्रज्ज्वलित देहक अनल किछु
स्नेह के जल सँ भिजबितहुँ।
रक्त सन टुह-ंउचयटुह कपोलक
मध्य चुंबन ल’ लितथि ओ।
बाँहि के बंधन बना क’
बाध्य हमरो क’ दितथि ओ।
तेज किछु बहितै पवन जँ
ल’ जितय आँचर उड़ा क’।
भ’ जितहुँ निर्लज्ज , भगितहुँ
नहि हुनक बंधन छोरा क’।
तोड़ि क’ सीमा असीमक
द्वारि पर जा निन्न पड़ितहुँ।
त्यागि क’ देहक वसन नव,
स्वर्ण आभूषण हटबितहुँ।
क्षण भरिक अवरोध क्षण मे
क’दितहुँ अपने समर्पण।
झाँपि आचरि मुँह करितहुँ
देह कँे निष्प्राण किछु क्षण।
प्राण सँ प्राणक मिलन मे
अछि केहन जीवन अमरता।
होइत तखने देह मे किछु
‘बूँद अमृत’ सँ सृजनता।
के करत वर्णन क्षणिक ओ
प्राण मे अनुभूति नभ कँे।
शब्द सँ बांन्धब असंभव
ओ घटित आनंद भव के।
एकर शेष भाग ...... दोसर बेर.......
ati sundar bhabak nirupam...nik lagal.
ReplyDeletekavita mon prashanna k' delak.
ReplyDeleteRAGHUNATH MUKHIYA
BALHA SUPAUL
रघुनाथ मुखियाजी। मैथिल आर मिथिलामे अहाँक रचनाक सेहो स्वागत अछि, अपन ई-मेल एडरेस maithiliblog@gmail.com पर पठाऊ, जाहिसँ ब्लॉग सदस्यताक आमंत्रण अहाँकेँ पठाओल जा सकय।
ReplyDeleteई कविता वस्तुतः बहुत नीक अछि, दोसर भागक प्रतीक्षा अछि।
jhuma delahu bhay
ReplyDeleteगाछ पर बैसल केना अछि
ReplyDeleteखग बना क’ स्नेह जोड़ा।
छी एतय हम आई असगर
नहि पिया छथि,सुन्न कोरा।
bhai ki hriday me nukaune chhi, je etek sundar anubhuti gadhi lait chhi
सम्पूर्ण कविता एखन नहि आएल अछि से पहिल भागपर समीक्षा:
ReplyDeleteआरसी प्रसाद सिंह जी मोन पड़ि गेलाह। कवि अपन व्यथा वा अनुभव आधारित सत्यक नीक वर्णन करैत छथि आ तेँ बच्चावला जीवन हुनका बेशी मोन पड़ैत छन्हि।
नीक छल दुनियाँ अबोधक
पूर्ण जीवन, तृप्त जीवन।
मुद तखने कवि सम्हरि जाइत छथि आ कहैत छथि,
तेज किछु बहितै पवन जँ
ल’ जितय आँचर उड़ा क’।
भ’ जितहुँ निर्लज्ज , भगितहुँ
नहि हुनक बंधन छोरा क’।
तोड़ि क’ सीमा असीमक
द्वारि पर जा निन्न पड़ितहुँ।
आ फेर सृजनक ओर कवि प्रयाण करैत छथि,
प्राण सँ प्राणक मिलन मे
अछि केहन जीवन अमरता।
होइत तखने देह मे किछु
‘बूँद अमृत’ सँ सृजनता।
अतिसुन्दर! दोसर भागक प्रतीक्षा रहत.
ReplyDeletepravah achhi kavita me
ReplyDeletebad nik kavita, dosar bhag me ki rahat se romanch chhorne achhi
ReplyDeleteaapki kavita me o sare sar nihit hai jo ek kavi ke guno ko darsate hai.
ReplyDeleteकी केलहुँ हम स्नेह क’ क’
ReplyDeleteद’ देलक किछु घाव जीवन।
नीक छल दुनियाँ अबोधक
पूर्ण जीवन, तृप्त जीवन।
बहुत नीक रचना अछि,पढि कय बहुत नीक लागल.
एहि के दोसर भाग कहिया देबै?
की केलहुँ हम स्नेह क’ क’
ReplyDeleteद’ देलक किछु घाव जीवन।
नीक छल दुनियाँ अबोधक
पूर्ण जीवन, तृप्त जीवन।
बहुत नीक रचना अछि,पढि कय बहुत नीक लागल. अतेक सुन्दर ढ॓ग स लीखल गेल अछि जे बेर बेर पढला के बादो मोन नहि भरैत अछि।
एहि के दोसर भाग कहिया देबै?
बरखाक बुन्दसँ शुरु भेल कविक कल्पना, जे गेना फूलक जरनाइ देखने रहए, ओकरा द्वारा अपन जीवनकेँ बचेबाक कथा।बंजर बीया अंकुरित भेल, फेर खगकेँ देखि पियाक नहीं रहने सुन्न कोरा मोन पड़ैत छन्हि। फेर स्नेह केलापर पछतावा होइत छन्हि जे एहिसँ तँ नीक रहए नेनपन।
ReplyDeleteमोनक घावक मलहम कतए भेटत!!!
एकर शीष भागक पढ़बाक उत्कंठा जागि गेल।
hriday sparshi kavita, dosar bhagtak pratiksha me chhi
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