भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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Friday, May 01, 2009
सृजन- अंतिम खेप- सतीश चन्द्र झा
23 comments:
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"भालसरिक गाछ" Post edited multiple times to incorporate all Yahoo Geocities "भालसरिक गाछ" materials from 2000 onwards as...
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जेठक दुपहरि बारहो कलासँ उगिलि उगिलि भीषण ज्वाला आकाश चढ़ल दिनकर त्रिभुवन डाहथि जरि जरि पछबा प्रचण्ड बिरड़ो उदण्ड सन सन सन सन...
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खंजनि चलली बगढड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरली अपन वस्तुलक परित्याकग क’ आनक अनुकरण कयलापर अपनो व्यिवहार बिसरि गेलापर व्यंपग्यय। खइनी अछि दुइ मो...
bahut nik laagal.
ReplyDeleteबुझि सकल नहि गर्भ मे ओ
ReplyDeleteभावना नारी हृदय केँ।
बनि असुर निज आचरण सँ
क’ देलक लज्जित समय कँे ।
हृदयस्पर्शी आ भावनात्मक रचना I एतेक सुंदर रचना के लेल अपनें धन्यवाद के पात्र थिकहूँ I
मनीष झा "बौआभाई"
http://jhamanish4u.blogspot.com/
झुमा देलहुँ सतीशजी, तीनू खेप फेरसँ पढ़लहुँ। नव अर्थ ज्ञात भेल।
ReplyDeletebad ni lagal bhai ji
ReplyDeletebahu nik ee tesar bhag seho, nichor bhetal
ReplyDeletesatish chandra jha
ReplyDeleteapnek maithli kabita bahut... bahut nik lagal.
tesar bhag seho bad nik
ReplyDeleteपैध होइते शिशु केना ओकिछु बनै छै दुष्ट दानव।अंध मोनक वासना मेंहोइत अछि पथ भ्रष्ट मानव।
ReplyDeleteबुझि सकल नहि गर्भ मे ओभावना नारी हृदय केँ।बनि असुर निज आचरण सँ क’ देलक लज्जित समय कँे ।
......
......
नहि हेतै किछु आब कनने,शक्ति चाही खूब जोड़क।नोर मे सामथ्र्य रहितै...नहि रहैत ओ ‘वस्तु भोगक’।
छीन क’ ओ ल’ सकत जँकिछु अपन सम्मान कहियो।चुप रहत भेटतै केना क’दान मेे अधिकार कहियो ।
dhanyavad satish ji etek nik rachna lel
flow rahay kavita me eke nisas me padhi gelahu
ReplyDeletenikgar kavita
ReplyDeletesrijan srinkhla ker sabh kavita nik lagal, teenoo bhag
ReplyDeletemongar kavita
ReplyDeletemanohari
ReplyDeletebah bhai mon par raj karai chhi ahan
ReplyDeleteनहि हेतै किछु आब कनने,शक्ति चाही खूब जोड़क।नोर मे सामथ्र्य रहितै...नहि रहैत ओ ‘वस्तु भोगक’।
ReplyDeleteछीन क’ ओ ल’ सकत जँकिछु अपन सम्मान कहियो।चुप रहत भेटतै केना क’दान मेे अधिकार कहियो ।
nik
srijanak srijanta mohi lelak
ReplyDeleteपैध होइते शिशु केना ओकिछु बनै छै दुष्ट दानव।अंध मोनक वासना मेंहोइत अछि पथ भ्रष्ट मानव।
ReplyDeleteबुझि सकल नहि गर्भ मे ओभावना नारी हृदय केँ।बनि असुर निज आचरण सँ क’ देलक लज्जित समय कँे ।
होइत अछि नारी ‘बलत्कृत’अछि पुरूष ओ के जगत कँे ?गर्भ नारी सँ धरा में जन्म नहि लेलक कहू के ?
छी! घृणित कामी, कुकर्मीछै पुरूष पाथर केहन ओ।यंत्राणा दै छै केना क’ आइ ककरो देह कँे ओ।
भरि जेतै ओ घाव कहियोदेह नोचल , चेन्ह चोटक।जन्म भरि बिसरत केनाक’, ओ मुदा किछु दंश मोनक।
मोन नहि भोगल बिसरतै, ज्वार पीड़ा के उमड़तै ।लाल टुह टुह घाव बनिक जन्म भरि नहि आब भरतै।
पढ़ि लितय जौं भाग्य ममताअछि अधर्मी ई जगत के।नहि करत ओ प्राण रक्षापेट मे बैसल मनुख के ।
जन्म द’ क’ ओहि पुरुष केअछि कहू के भेल दोषी ?देव दोषी ? काल दोषी ?गर्भ अथवा बीज दोषी ?
छै नियति नारी के एखनहुँहाथ बान्हल, ठोर साटल।के देतै सम्मान ओकराछै कहाँ भव धर्म बाँचल।
ग्रन्थ के उपदेश ज्ञान कअछि जतेक लीखल विगत मे।भेल अछि निर्माण सभटामात्रा नारी लय जगत मे।
क’ सकत अवहेलना नहिदृष्टि छै सदिखन समाजक।नहि केलक विद्रोह कहियोधर्म छै बंधन विवाहक।
जन्म सँ छै ज्ञान भेटलधर्म पत्नी के निभायब।स्वर्ग अछि पति के चरण मेकष्ट जे भेटय उठायब।
ध्यान, तप, सेवा, समर्पणजन्म भरि नहि बात बिसरब।प्राण नहि निकलय जखन धरिद्वारि के नहि नांघि उतरब।
नहि हेतै किछु आब कनने,शक्ति चाही खूब जोड़क।नोर मे सामथ्र्य रहितै...नहि रहैत ओ ‘वस्तु भोगक’।
छीन क’ ओ ल’ सकत जँकिछु अपन सम्मान कहियो।चुप रहत भेटतै केना क’दान मेे अधिकार कहियो ।
ehi blog par jahiya abait chhi nav racha bhetite ta achhi, ehina satish ji aa aan sabh gotek yogdan sarahniya
ReplyDeleteमोन नहि भोगल बिसरतै, ज्वार पीड़ा के उमड़तै ।लाल टुह टुह घाव बनिक जन्म भरि नहि आब भरतै।
ReplyDeleteपढ़ि लितय जौं भाग्य ममताअछि अधर्मी ई जगत के।नहि करत ओ प्राण रक्षापेट मे बैसल मनुख के ।
जन्म द’ क’ ओहि पुरुष केअछि कहू के भेल दोषी ?देव दोषी ? काल दोषी ?गर्भ अथवा बीज दोषी ?
nik bhai bad nik
bhai ji, ehina likhait rahoo badhait rahoo
ReplyDeletenootan kavitak sheeghra prastutik aasha achhi ahan se.
ReplyDeleteee srinkhlak sukhad samapti par dhanyavad,
ReplyDeletenik prastuti rahal
अहाँक नारीक प्रति समर्पित ई सृंखला बहुत रास नव बाट खोलत,संयोगसँ घर-बाहरक नव अंक सेहो काल्हिये भेटल जतए अहाँक पतखरनी कविता पढ़लहुँ। अहाँक सोच एकटा दिशा लेने अछि से स्तुत्य।
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