श्री डॉ. गंगेश गुंजन ( १९४२- )।
जन्म स्थान- पिलखबाड़, मधुबनी। एम.ए. (हिन्दी), रेडियो नाटक पर पी.एच.डी.। कवि, कथाकार, नाटककार आ' उपन्यासकार।१९६४-६५ मे पाँच गोटे कवि-लेखक “काल पुरुष”(कालपुरुष अर्थात् आब स्वर्गीय प्रभास कुमार चौधरी, श्री गंगेश गुन्जन, श्री साकेतानन्द, आब स्वर्गीय श्री बालेश्वर तथा गौरीकान्त चौधरीकान्त, आब स्वर्गीय) नामसँ सम्पादित करैत मैथिलीक प्रथम नवलेखनक अनियमितकालीन पत्रिका “अनामा”-जकर ई नाम साकेतानन्दजी द्वारा देल गेल छल आ बाकी चारू गोटे द्वारा अभिहित भेल छल- छपल छल। ओहि समयमे ई प्रयास ताहि समयक यथास्थितिवादी मैथिलीमे पैघ दुस्साहस मानल गेलैक। फणीश्वरनाथ “रेणु” जी अनामाक लोकार्पण करैत काल कहलन्हि, “ किछु छिनार छौरा सभक ई साहित्यिक प्रयास अनामा भावी मैथिली लेखनमे युगचेतनाक जरूरी अनुभवक बाट खोलत आ आधुनिक बनाओत”। “किछु छिनार छौरा सभक” रेणुजीक अपन अन्दाज छलन्हि बजबाक, जे हुनकर सन्सर्गमे रहल आ सुनने अछि, तकरा एकर व्यञ्जना आ रस बूझल हेतैक। ओना “अनामा”क कालपुरुष लोकनि कोनो रूपमे साहित्यिक मान्य मर्यादाक प्रति अवहेलना वा तिरस्कार नहि कएने रहथि। एकाध टिप्पणीमे मैथिलीक पुरानपंथी काव्यरुचिक प्रति कतिपय मुखर आविष्कारक स्वर अवश्य रहैक, जे सभ युगमे नव-पीढ़ीक स्वाभाविक व्यवहार होइछ। आओर जे पुरान पीढ़ीक लेखककेँ प्रिय नहि लगैत छनि आ सेहो स्वभाविके। मुदा अनामा केर तीन अंक मात्र निकलि सकलैक। सैह अनाम्मा बादमे “कथादिशा”क नामसँ स्व.श्री प्रभास कुमार चौधरी आ श्री गंगेश गुंजन दू गोटेक सम्पादनमे -तकनीकी-व्यवहारिक कारणसँ-छपैत रहल। कथा-दिशाक ऐतिहासिक कथा विशेषांक लोकक मानसमे एखनो ओहिना छन्हि। श्री गंगेश गुंजन मैथिलीक प्रथम चौबटिया नाटक बुधिबधियाक लेखक छथि आ हिनका उचितवक्ता (कथा संग्रह) क लेल साहित्य अकादमी पुरस्कार भेटल छन्हि। एकर अतिरिक्त्त मैथिलीमे हम एकटा मिथ्या परिचय, लोक सुनू (कविता संग्रह), अन्हार- इजोत (कथा संग्रह), पहिल लोक (उपन्यास), आइ भोर (नाटक)प्रकाशित। हिन्दीमे मिथिलांचल की लोक कथाएँ, मणिपद्मक नैका- बनिजाराक मैथिलीसँ हिन्दी अनुवाद आ शब्द तैयार है (कविता संग्रह)।
प्रस्तुत अछि गुञ्जनजीक मैगनम ओपस "राधा" जे मैथिली साहित्यकेँ आबए बला दिनमे प्रेरणा तँ देबे करत सँगहि ई गद्य-पद्य-ब्रजबुली मिश्रित सभ दुःख सहए बाली- राधा शंकरदेवक परम्परामे एकटा नव-परम्पराक प्रारम्भ करत, से आशा अछि। पढ़ू पहिल बेर "विदेह"मे —सम्पादक
गुंजनजीक राधा
विचार आ संवेदनाक एहि विदाइ युग भू- मंडलीकरणक बिहाड़िमे राधा-भावपर किछु-किछु मनोद्वेग, बड़ बेचैन कएने रहल।
अनवरत किछु कहबा लेल बाध्य करैत रहल। करहि पड़ल। आब तँ तकरो कतेक दिन भऽ गेलैक। बंद अछि। माने से मन एखन छोड़ि देने अछि। जे ओकर मर्जी। मुदा स्वतंत्र नहि कए देने अछि। मनुखदेवा सवारे अछि। करीब सए-सवा सए पात कहि चुकल छियैक। माने लिखाएल छैक।
आइ-काल्हि मैथिलीक महांगन (महा+आंगन) घटना-दुर्घटना सभसँ डगमगाएल-
जगमगाएल अछि। सुस्वागतम!
लोक मानसकें अभिजन-बुद्धि फेर बेदखल कऽ रहल अछि। मजा केर बात ई जे से सब भऽ रहल अछि- मैथिलीयेक नाम पर शहीद बनवाक उपक्रम प्रदर्शन-विन्याससँ। मिथिला राज्यक मान्यताक आंदोलनसँ लऽ कतोक अन्यान्य लक्ष्याभासक एन.जी.ओ.यी उद्योग मार्गे सेहो। एखन हमरा एतवे कहवाक छल। से एहन कालमे हम ई विहन्नास लिखवा लेल विवश छी आ अहाँकेँ लोक धरि पठयवा लेल राधा कहि रहल छी। विचारी।
राधा
ऑगी हेराएब कोनो तेहन दुर्घट बात नहि। राधा तें उदासो नहि भेलीह। उदास तें ओ आनो आन कए कारणें छलीह। जेना,शरीरे दुखित पड़लि छलीह। कोनो टा सखि, क्यो बहिना कए दिन सं देख' पर्यंत नहि अयलनि। हुलकियो देब' नहि। दुखित कें होइत छैक आशा आग्रह। बल्कि स्पृहा। स्पृहा ई जे क्यो आबए, आबि क' दू क्षण लग मे बैसय, दु:ख पूछय। गप करय। किछु कहय, किछु सुनय। मन कें बहटारय।
सैह तकरे अभाव आ संबन्धक जोर।जे अप्पन नहि तकरा पर अधिकारे कोन? जे अपनो अछि आ अधिकारो बुझाइत अछि, वास्तव मे से कतेक अपन?
ई अधिकार आ प्रयोजनक प्राथमिकताक अपन-अपन वृत्त होइत छैक। मनुक्ख-मनक ई लाचारी छैक। ओकरा अपन एहि सीमाक ध्यान राख' पड़ैत छैक आ तहिना संपर्कित-संबंधित समस्त समाजक ध्यान राख' पड़ैत छैक। से जकरा बुतें एकर, एहि बुद्धिक संतुलन नहि रहल,तकर जीवन कनीक आर मोशकिल।अर्थात् जीवनक मोशकिली धरि अपरिहार्य।
राधाक ई सोचब आ दुखी हएब स्वाभाविके जे जीवन मोशकिलीक सवारी थिक। चिक्कन चुनमुन बाट पर पहिया सब गुड़कैत आगां बढ़ैत रहल तं बड़ दिब। सबटा मन विरुद्धो अनुभव पाछां छुटैत गेल आ मनलग्गू अनुभव अपना संग आगां बढ़ैत रहल। कतहु कोनो ठाम पहुंचि गेलाक बाद कए तरहें संतुष्ट कयलक आ कए तरहें अतृप्त राखि देलक।
आब फेर एत' सं अनुभवक अतृप्त प्रसंग जे एकहि क्षण पहिने मात्र नगण्य बुझाइत छल, से भ' जाइत अछि खोंचाड़ल मधुमाछी... खोंचाड़ल मधुमाछीमक खोंता। बिना बिन्हनहुं अनेरे ठेहुन सं मूड़ी धरि घनघनौने रहत बड़ी-बड़ी काल। हरदम डेरायल मन-काटत,आब काटत...। कोनो क्षण लुधकत आ काटि लेत। यद्यपि कि काटियो लेत तं कोन ओ अहांक गर्दनि छोपि लेत? दंश देत। से मुदा भने मधु जकां नहि, विष विशाइत दंश। कोनो गर्दनिकट्ट नहि होइत अछि- मधुमाछी !
-बरु गर्दनियें काटब सुभीतगर, ओ सोचलनि। भने मनुक्ख कें छुटकारा तं भेटि जाइ छैक। आ दिन दिनक विस विसाइत भोग-अनुभूतिक अनवरत क्रम जे संपूर्ण अस्तित्वे के बेचैन कयने रहत। देह-प्राणक किछु टा आन वातावरण नहि बनब' देत। घिसियौर कटबैत रहत। ओही अपन स्वभावक परिधि आ तकर प्रयोजन मे बन्हने रहत। मात्र बन्हनहुं टा रहि जाय, तैयो सुकुर, मुदा ओ तं अहांक बुद्धि सं आर सब किछु कें काटि-बारि क' फराक क' देत। अहीं कें अपन तेहल्ला बना क' छोड़त। लैत रहू।
आब एहि मन मे किछुओ क्षण रहि गेलौं कि ओ अहां सं अहींक परिचय तलब करत। यावत-यावत तैयार भ' क' अहां उपयुक्त सोचब आ बाजब, तावत-तावत ई बात, अहांक मनक ई मामूली घटना एकटा समाचार बनि जायत। ई समाचार बिना कोनो माध्यम कें रौद आ बसात पर सवार भ' क' पहुंचि जायत ओत' धरि जत' अहां सोचियो ने सकैत छी। आब बैसि क' कपार पीटैत रहू। ककरा-ककरा आ की-की बुझयबैक? आ से जकरा बुझयबैक से कतेक दूर धरि,की मानत? जतवा मानियो लेत तकरा सं अहांक जीवन कें की सुभीता आ कोन सुख?
हॅं, सुख? की थिक? केहन होइत छैक? कोना होइत छैक? कतवा होइत छैक? ककरा होइत छैक?
मुदा... मुदा, किछु छैक तं अवश्ये ई सुख! सुखक अनुभव अवश्ये छैक एहि पृथ्वी पर-मनुक्ख सं ल' क' सब जीवधारी मे।तें रहैए एकरा पाछां व्याकुल-बेहाल! परंतु से केहन छैक-लाल,पीयर, हरियर,उज्जर, कारी -केहन? अर्थात् सुखक कोनो रंगो होइत छैक? कोनो खास रंग?
-की स्वाद छैक? केहन स्वाद? कोनो फलक स्वाद? चाउर-दालि-गहूमक स्वाद? तीमन-तरकारीक?इनारक टटका जलक स्वाद? एक संगे दू गोटेक इजोरियाक चन्द्रमा बा एकान्त अन्हरिया मे तारा गनवाक स्वाद? कोनो अनचिन्हार चिड़ैक अपरिचित बोल अकानि चीन्हवाक कोसिसक स्वाद? बा भोरे भोरे जन्मौटी बच्चाक मिलमिलाइत आंखि जकां बाड़ीक कोनो नान्हि टा गाछ मे नव पनगल दिव्य ललाओन दुपत्ती कें देखि अह्लाद होयवाक स्वाद?....घन अन्हार मे ककरो कंठ सं अपन नामक सम्बोधन सुनवाक?
कोनो गंध होइत छैक? अत्तर-गुलाब सन, बेली-चमेली सन, तेजपात सं छौंकल दालि, कढ़ी पातक बा औंटवा काल लोहिया लागि गेल दूध सन, सोन्हायल डाबा सन,-कथी सन? जन्मौटी बच्चा सन, तुरंत बियाहलि स्त्री सन आ कि बाध सं घुरल हरवाह-गृहस्थ सन, यमुना जल मे खीचल नूआ-वस्त्र सन बा पाकल कदंब सन बा श्रीकृष्णक सांस सन?
सांस मे केहन निसां छैक ! कृष्णक सांस मे केहन निस्सां छनि? कृष्ण मे अपने केहन निसां छनि ! कृष्ण निस्सें छथि। कृष्ण माने निसां...।
बेचैनी राधाक,बेबस मनक प्रवाह मे,
बहैत रहल, यमुना धार सन,
राति, रातुक अन्हार काल मे। सब सूतल अपन-अपन ठाम।
धेने सब रातुक विश्रामक स्थान।
चिड़ै चुनमुन्नी अपन-अपन खोंता।
माल जान अपन थैर-बथान।
आ मनुक्ख अपन-अपन चौकी-खाट-मचान !
निसभेर निन्न मे डूमल जीयैत।
मात्र ई एकटा एकसर मनक विकल नियति, चुपचाप
सूतल रातिक अन्हार मे अपन निस्बद्द चलैत रहल-बहैत गेल!
राधाक मनक प्रवाह यमुना भ' गेल।
एतवो पर रच्छ छल, मुदा
कहां बांचल समयक इहो एहनो सुभीता,
सेहो तं आंजुरक जल भेल।
कतबो यत्ने बचा क' रखवा मे कहां भेलहुं सकारथ?
सबटा बहि गेल। कनीक काल रहल भने
भीजल तरहत्थी-माने स्निग्ध,
सेहो अगिले पल ऋतुक उष्ण प्रभावक वेग मे निठ्ठाहे सुखा गेल।
जानि नहि ओ आंजुर आ आंजुरक जल कोन क्षण अलोप भेल
कोना बिला गेल,
कत' गेल?
सूर्य लग गेल? चन्द्रमा लग गेल कि तारा लग? वा माटि मे,
पोखरि-इनार-धार, कोनो मे फेर सं घुरि गेल, जा क' मीलि गेल जल-
अपन उद्गम सं, उत्स सं वा भाफ बनि क' बन' गेल मेघ? कर' गेल बरखा,?
जल कत'गेल? आंजुर भरि जल कत' गेल?
ई किछु विलाप जकां
राधाक मनक परिताप अपनहि अभ्यंतर मे
मुखर चलि रहल-
अपनहि कहैत-अपने कें सुनैत। अपने सं सभटा पूछैत।
ई केहन विचित्र आत्म सम्बोधन?
अपनहि मन सोर पाड़य अपने मन !
सौंसे गाम-टोल अछैत,
टोलक लोक, संबंधी, सखि-बहिनपाक एहि
पसरल समाज आ संसार मे कोनो एकटा मन,
एहन असकर
एतेक एकान्त
काटि रहल व्याकुल पल-पल जीवन।
अपनहि विडंबना कें स्वयं करैत
आत्म सम्बोधन....
-"राधा'' ....!!
एं ई की भेल कत' सं कोन आकाशवाणी
-"आब केहन मन अछि अहांक राधा !''
के पूछल? बाजल के? के आयल पूछ'-कुशलक्षेम,
ककर थिक ई प्राणबेधी वाणी?
दुर्लभ स्वर्गिक संगीत स्वर थिक ककर?
रातिक एहि निस्बद्द एकान्त अन्हार मे के बाजल,
ककरा भेलैक हमर चिन्ता?
के आयल पूछय-हालचाल,...
अच्छा, तं... ई थिक
हुनके ताल?
राधा कें कानमे स्पष्टे क्यो पुछलकनिहें। किछुओ संदेह नहि,
सत्य छैकः
'केहन मन अछि अहांक राधा...'
ई थिक सद्य : अनुभव, कोनो टा भ्रम नहि।
मुदा तखन राधा कें कियेक लगलनिहें ई जिज्ञासा,
पुरुष-कंठक नारी-स्वर मे प्रतिध्वनि?
यदि पुछलनिहें कृष्ण तं पछाति
सैह प्रश्न करैत स्त्री के छल ई जकर स्वर छल?
ई अछि कोना संभव?
मुदा थिक तं ई सत्य,संदेह कथमपि नहि।
सत्य तं होइत अछि सत्ये।
ज्वरे परजरित एहि देहक ताप पर
जमुना जल भीजल पीतांबरी जकां के
एना पसरि रहल-ए,
आलसे निनियाइल बसात...
जमुना मे झिलहरि खेलाइत,
निस्बद्द राति।
गंगेश गुंजन/राधा- सातम खेप/ प्रेषित २३ अक्तूबर-२००८.
बाढ़िक त्रासदी-पर डॉ. गंगेश गुंजन जीक मैथिली गजल
दु:खे टा चारू कात छै आ जी रहल-ए लोक
ताकैत आसरा कोनो दुःख पी रहल-ए लोक !
घर-द्वारि दहि गेलैक सब बच्चा टा छै बांचल
रेलवेक कात, बाट-घाट जी रहल-ए लोक !
सांझो भरिक खोराक ने छैक अगिला फसिल धरि
जीबा लए ई लाचार कोना जी रहल-ए लोक !
सबटा गमा क' जान बचा आबि त' गेलय
आब फेकल छुतहर जकां हद जी रहल-ए लोक !
जले पहिरना, बिछाओन जले छैक ओढना
जबकल गन्हाइत पानि-ए खा पी रहल-ए लोक !
सब वर्ष जकां एहू बाढ़ि मे कारप्रदार
रिलीफ नामें अपन झोरी सी रहल किछु लोक !
चलि तं पड़ल-ए जीप-ट्र्क-नावक से तामझाम
आब ताही आसरा मे बस जी रहल-ए लोक !
कहि तं गेलाह-ए परसू-ए दस टन बंटत अन्न
एखबार-रेडियो भरोसे जी रहल-ए लोक !
घोखै तं छथि जे देच्च मे पर्याप्त अछि अनाज
सड़ओ गोदाम मे, उपास जी रहल-ए लोक !
उमेद मे जे आब आओत एन जी ओ कतोक
द' जायत बासि रोटी, वस्त्र, जी रहल-ए लोक !
अछि कठिन केहन समय ई राक्षस जकां अन्हार
किछु भ' रहल अछि तय, तें तं जी रहल-ए लोक !
॥ किछु एहनो बात विषय॥
यद्यपि एहि बात –‘सगर राति दीप जरय’ पर हम सिद्धांततः प्रभासजीसँ सहमत नहि रहलौँ, परन्तु एम्हर पछिला दशकमे ई तिमाही-कथा गोष्ठी- ‘सगर राति दीप जरय’- आजुक मैथिली कथा-विधामे की योगदान कएलक अछि, से तथ्य आब इतिहासमे दर्ज अछि। ई बात सही छैक जे एहन कोनो कार्य कोनो एक गोटेक नहि होइछ। मुदा सभ वर्त्तमानकेँ ओहि एक संस्थापना-कल्पक व्यक्त्ति-लेखककेँ अवसरोचित रूपेँ कृतज्ञतासँ स्मरण अवश्य कयल जयबाक चाही। से लेखकीय नैतिकता थिक। आ’ हमरा जनतबे, से रहथि- स्व. प्रभास कुमार चौधरी।
हमरा तखन दुखद निराशा भेल जखन एहि बेरक मैथिली साहित्य अकादेमी पुरस्कार पओनिहार प्रदीप बिहारीजी साहित्य अकादेमी-सभागारमे लेखक-सम्मिलन-अवसर पर अपना वक्तव्यमे सगर राति दीप्प जरयक उपलब्धिक चर्चा तँ कएलन्हि, मुदा स्व. प्रभास जीक नामोल्लेखो नहि कयलखिन। एकरा हम साधारण घटना नहि मानि सकैत छी। गंभीर बात बुझैत छी। कारण हमरा लोकनि रचनाकार छी। औसत कोटिक कोनो राजनीतिक नहि। संभव हो नाम अनावधानतामे छूटि गेल होनि। मुदा हमरा सभ लेखक छी तेँ एहन असावधानी करबा लेल स्वाधीन नहि छी। यद्यपि अपन खेद हम हुनका प्रकट कयलियनि।
हमरा लगैये जे अपन-अपन सकारात्मक इतिहासक प्रति सभ पीढ़ीक मनमे कृतज्ञताक भाव अंततः लेखकक ऊर्जा आ’ प्रेरणे बनैत रहैत छैक। बतौर कवि हम मैथिलीमे जाहि काल-बिन्दु पर ठाढ छी, तकर जड़ि विद्यापतिसँ ल’ सुमन-किरण-मधुप- आ यात्रीएमे। ई सोचि क’ मन कृतज्ञ होइत अछि! बल्कि गौरांवित। ओना, एकटा लेखक रूपमे हम एहिमे सँ क्यो नहि छी। जेना सभ, सभक कारयित्री प्रस्थान छथि, तहिना हमहुँ नागार्जुन-यात्रीक कारयात्री प्रस्थान छी। आ’ ई भाव हमरा रचनाकर्ममे अग्रसर करबाक उत्तरदायित्व द’ गेलय।
तर्पण तिल-कुश –अंजलि बला कर्मकाण्डकेँ तँ हम नहि मानैत छी, मुदा पुरखाक तर्पण हमरा प्रिय अछि। अपना शैलीमे। अपन जीवन-मूल्यक एकटा अभिन्न तत्त्व बुझाइत अछि।
तकर बाट की हो? अवसर पर कृतज्ञ स्मृति! अवसर पर- तिथि पर नहि।
भोज परक आँटी- सत्तरिक नव-खाढ़िक युवा नवतुरिआसँ
“भोज परक आँटी” अवश्य सुनल हएत बन्धु! हमरा लोकनि ते आब आयु-अवरोहणक प्रक्रियामे छी। मुदा पराभव अछि अपन एहि मैथिल मानक ओ स्वप्न जे मिथिलांचलक समग्र सामाजिक परिवर्तनक अर्थात्- जनपथक निर्माण (राजपथ नहि) आकांक्षामे सौँसे बातपर उत्कट डेगे चलिते रहबा लेल विवश छी। हमर गाम पिलखबारो ताहि से जुटल अछि, जाहिसँ हितेन्द्रजी अहाँक गाम केओटी।
हमरा पीढ़ीकेँ तँ इतिहास “भोज परक आँटी” बना लेबाक बेर-बेर उपाय कएलक, जेना-तेना बँचबामे सफल रहलियैक, मुदा भऽ कहाँ कोनो खास सकलैक। तेकरे टा अफसोच। एक बोझक रूपमे फसिलकेँ खरिहानधरि कहाँ पहुँचा सकलियैक। तेकरे टा दुःख! मुदा टिकल रहलियैक अपन जीवन-मूल्य आ समाज दर्शनक भूमिपर। एक टा कवि-लेखक जे संघर्ष असकरो कऽ सकैत छी। से रस्ता चलबाक यत्न। जे से।
पूरा बिहार- आन्दोलनक परिणति एहन आ एतए धरि भऽ जेतैक से क्यो सोचियोसकैत छलैक? अवश्ये बुझल हएत जे ताहि आन्दोलनक उपज- आमद भरि देश कैक टा महापद आसीन सी.एम. समेत कतोक एम.पी., एम.एल.ए. महोदय छथि। अहाँक पीढ़ीमे यदि सत्येक (सन्देह नहि सत्तरिक कारवाँक भव से कहि रहल छी जे) सत्ये मिथिलाक दर्द अछि तँ राजनीतिकेँ चिन्हैत जाइ जाऊ। पोलीटिक्स कऽ एहि नव अवतारकेँ। से भाषाक। ताहूमे मैथिलीक नव-नव ब्रांडक नेता आ एहन राजनीतिकेँ चीन्हि जाऊ। कारण जे राजनीतिक ई एकदम नव अवतार ठीक विश्व-बाजारी अवतार! कोनो औसत सुख लेल ककरो “भोज परक आँटी” नहि बनब। एहि वाष्पीकरणक प्रवाहमे एहन लोक नीक समय अर्थात् कोनो प्रतिगामी व्यवस्था रोकि नहि सकैत अछि। स्वयं राजनीतिक विचारधारा-अवधारणामे सेहो युगक अनुसार सकारात्मक पुनर्विचार चलि रहल छैक। जाति, धर्म, सम्प्रदय, क्षेत्रीयता सभसँ ऊपर सोचैत। समग्रतासँ एक होऊ। अपन मिथिलाँचलो तँ देशेमे ने अछि।
अपम माँ मैथिली तँ अवश्ये महान। मुदा अन्य लोकक मातृभाषा सेहो तुच्छ नहि। अपना देशक सभ भाषा श्रेष्ठ अछि। मुदा दुर्भाग्यसँ किछु मूढ़ मैथिल मानसिकताक लोक आर तँ आर हिन्दी तककेँ अपमान जेकाँ कऽ देबाकेँ अपन मैथिल प्रेम बुझि लैत छथि, ई नकारात्मक प्रवृत्ति उचित नहि। हम तँ तेहन समयकेँ सहन कएने छी, जे किछु परम् विद्वान् अत्यन्त आदरणीय लोक लिखैत तँ मैथिली नहि तँ इंग्लिश। हिन्दी नहि। ई बहुत विचित्र लागए। आखिर हिन्दी अपन बहुत गौरवशाली लोकतन्त्र राष्ट्र-भाषा थिक। बन्धु! से मानसिकता बदलि जरूर रहल अछि मुदा अहाँ खाढ़िक (पीढ़ीक) युवा नवतुरिआमे आओर तेजीसँ परिवर्तन चाही। बात नहि रुचए तँ बिसरि जाएब, आग्रह!
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पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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