भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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Friday, May 08, 2009
महाकाव्य- असञ्जाति मन - गजेन्द्र ठाकुर
ई पुरातन देश नाम भरत,
राज करथि जतए इक्ष्वाकु वंशज।
एहि वंशक शाक्य कुल राजा शुद्धोधन,
पत्नी माया छलि, कपिलवस्तुमे राज करथि तखन।
अश्वघोषक वर्णन ई सकल,
दैत अछि सम्बल असञ्जाति मनक।
माया देखलन्हि स्वप्न आबि रहल,
एकटा श्वेत हाथी आबि मायाक शरीरमे,
पैसि छल रहल हाथी मुदा,
मायाकेँ भए रहल छलन्हि ने कोनो कष्ट,
वरन् लगलन्हि जे आएल अछि मध्य क्यो गर्भ।
गर्भक बात मुदा छल सत्ते,
भेल मोन वनगमनक,
लुम्बिनी जाए रहब, कहल शुद्धोधनकेँ।
दिन बीतल ओतहि लुम्बनीमे दिन एक,
बिना प्रसव-पीड़ाक जन्म देलन्हि पुत्रक,
आकाशसँ शीतल आ गर्म पानिक दू टा धार,
कएल अभिषेक बालकक लाल-नील पुष्प कमल,
बरसि आकाश।
यक्षक राजा आ दिव्य लोकनिक भेल समागम,
पशु छोड़ल हिंसा पक्षी बाजल मधुरवाणी।
धारक अहंकारक शब्द बनल कलकल,
छोड़ि “मार” आनन्दित छल विश्व सकल,
“मार” रुष्ट आगमसँ बुद्धत्वप्राप्ति करत ई?
माया-शुद्धोधनक विह्वलताक प्रसन्नताक,
ब्राह्मण सभसँ सुनि अपूर्व लक्षण बच्चाक,
भय दूर भेल माता-पिताक तखन जा कऽ,
मनुष्यश्रेष्ठ पुत्र आश्वस्त दुनू गोटे पाबि कऽ।
महर्षि असितकेँ भेल भान शाक्य मुनि लेल जन्म,
चली कपिलवस्तु सुनि भविष्यवाणी बुद्धत्व करत प्राप्त,
वायु मार्गे अएलाह राज्य वन कपिलवस्तुक,
बैसाएल सिंहासन शुद्धोधन तुरत ।
राजन् आएल छी देखए बुद्धत्व प्राप्त करत जे बालक।
बच्चाकेँ आनल गेल चक्र पैरमे छल जकर,
देखि असित कहल हा मृत्यु समीप अछि हमर,
बालकक शिक्षा प्राप्त करितहुँ मुदा वृद्ध हम अथबल,
उपदेश सुनए लेल शाक्य मुनिक जीवित कहाँ रहब।
वायुमार्गे घुरलाह असित कए दर्शन शाक्य मुनिक,
भागिनकेँ बुझाओल पैघ भए बौद्धक अनुसरण करथि।
दस दिन धरि कएलन्हि जात-संस्कार,
फेर ढ़ेर रास होम जाप,
करि गायक दान सिंघ स्वर्णसँ छारि,
घुरि नगर प्रवेश कएलन्हि माया,
हाथी-दाँतक महफा चढ़ि।
धन-धान्यसँ पूर्ण भेल राज्य,
अरि छोड़ल शत्रुताक मार्ग,
सिद्धि साधल नाम पड़ल सिद्धार्थ।
मुदा माया नहि सहि सकलीह प्रसन्नता,
मृत्यु आएल मौसी गौतमी कएल शुश्रुषा।
उपनयन संस्कार भेल बालकक,
शिक्षामे छल चतुर,
अंतःपुरमे कए ढेर रास व्यवस्था विलासक,
शुद्धोधनकेँ छल मोन असितक बात,
बालकक योगी बनबाक।
सुन्दरी यशोधरासँ फेर करबाओल सिद्धार्थक विवाह,
समय बीतल सिद्धार्थक पुत्र राहुलक भेल जन्म।
उत्सवक संग बितैत रहल दिन पल,
सुनलन्हि चर्च उद्यानक कमल सरोवरक,
सिद्धार्थ इच्छा देखेलन्हि घुमक ।
सौँसे रस्तामे आदेश भेल राजाक,
क्यो वृद्ध दुखी रोगी रहथि बाट ने घाट।
सुनि नगरवासी देखबा लेल व्यग्र,
निकलि आएल पथपर दर्शनक सिद्धार्थक ।
चारू कात छल मनोरम दृश्य,
मुदा तखने आएल पथ एक वृद्ध।
हे सारथी, सूतजी के अछि ई,
आँखि झाँपल भौँहसँ,
श्वेत केश,
हाथ लाठी,
झुकल की अछि भेल?
कुमार अछि ई वृद्ध,
भोगि बाल युवा अवस्था जाए
अछि भेल वृद्ध आइ ।
की ई होएत सभक संग,
हमहू भए जाएब वृद्ध एक दिन?
सभकेँ अछि बुझल ई खेल,
फेर चहुदिस ई सभ करए किलोल ?
हर्षित मुदित बताह तँ नहि ई भीड़ ?
घुरि चलू सूत जी आब,
उद्यानमे मोन कतए लाग !
महलमे घुरि-फिरि भऽ चिन्तामग्न,
पुनि लऽ आज्ञा राजासँ निकलल अग्र ।
मुदा एहि बेर भेटल एकटा लोक,
पेट बढ़ल, झुकल लैत निसास,
रोगग्रस्त छल ओ पूछल सिद्धार्थ,
सूत जी छथि ई के, की भेल?
रोगग्रस्त ई कुमार अछि ई तँ खेल,
कखनो ककरो लैत अछि अपन अधीन ।
सूत जी घुरू भयभीत भेलहुँ हम आइ फेर।
घुरि घर विचरि-विचरि कय चिन्तन,
शुद्धोधन चिन्तित जानि ई घटनाक्रम।
आमोद प्रमोदक कए आर प्रबन्ध,
रथ सारथी दुनू नव कएल शुद्धोधन।
फेर एक दिन पठाओल राजकुमार,
युवक-युवती संग पठाओल करए विहार ।
मुदा तखने एकटा यात्रा मृत्युक,
हे सूतजी की अछि ई दृश्य,
सजा-धजा कए चारि गोटे धए कान्ह,
मुदा तैयो सभ कानि रहल किए नहि जान ?
हे कुमार आब ई सजाओल मनुक्ख,
नहि बाजि सकत, अछि ई काठ समान।
कानि-खीजि जाथि समस्त ई लोक,
छोड़ए ओकरा मृत्यु केलन्हि जे प्राप्त।
घुरू सारथी नहि होएत ई बर्दाश्त,
भय नहि अछि एहि बेर,
मुदा बुझितो आमोद प्रमोदमे भेर,
अज्ञानी सन कोना घुमब उद्यान।
मुदा नव सारथी घुरल नहि द्वार,
पहुँचल उद्यान पद्म खण्ड जकर नाम।
युवतीगणकेँ देलक आदेश उदायी, पुरोहित पुत्र,
करू सिद्धार्थकेँ आमोद-प्रमोदमे लीन ।
मुदा देखि इन्द्रजीत सिद्धार्थक अनासक्ति,
पुछल उदायी भेल अहाँकेँ ई की?
हे मित्र क्षणिक ई आयु,
बुझितो हम कोना गमाऊ ?
साँझ भेल घुरि युवतीसभ गेल,
सूर्यक अस्तक संग संसारक अनित्यताक बोध,
पाबि सिद्धार्थ घुरल घर चिन्ता मग्न,
शुद्धोधन विचलित मंत्रणामे लीन।
किछु दिनक उपरान्त,
माँगि आज्ञा बोन जएबाक,
संग किछु संगी निकलि बिच खेत-पथार,
देखि चास देल खेत मरल कीट-पतंग ।
दुखित बैसि उतड़ल घोड़ासँ अधः सिद्धार्थ,
बैसि जोमक गाछक नीचाँ धए ध्यान,
पाओल शान्ति तखने भेटल एक साधु।
छल ओ मोक्षक ताकिमे मग्न,
सुनि ओकर गप देखल होइत अन्तर्धान।
गृह त्यागक आएल मोनमे भाव,
बोन जएबाक आब एखन नहि काज।
घुरि सभ चलल गृहक लेल,
रस्तामे भेटलि कन्या एक,
कहल अहाँ छी जनिक पति,
से छथि निश्चयेन निवृत्त।
निवृत्त शब्दसँ निर्वाणक प्रसंग,
सोचि मुदित सिद्धार्थ घुरल राज सभा,
रहथि ओतए शुद्धोधन मंत्रीगणक बिच।
कहल - लए संन्यास मोक्षक ज्ञानक लेल,
करू आज्ञा प्रदान हे भूदेव।
हे पुत्र कएल की गप,
जाऊ पहिने पालन करू भए गृहस्थ ।
संन्यासक नहि अछि आएल बेर,
तखन सिद्धार्थ कहल अछि ठीक,
तखन दूर करू चारि टा हमर भय,
नहि मृत्यु, रोग, वृद्धावस्था आबि सकय,
धन सेहो नहि क्षीण होए।
शुद्धोधन कहल अछि ई असंभव बात,
तखन हमर वियोगक करू नहि पश्चाताप।
कहि सिद्धार्थ गेलाह महल बिच,
चिन्तित एम्हर-ओम्हर घुमि निकललि बाह्य ।
सूतल छंदककेँ कहल श्वेत वेगमान,
कंथक घोड़ा अश्वशालासँ लाऊ ।
सभ भेल निन्नमे भेर कंथक आएल,
चढा सिद्धार्थकेँ लए गेल नगरसँ दूर ।
नमस्कार कपिलवस्तु !
घुरब जखन पाएब जन्म-मृत्युक भेद !
सोझाँ आएल भार्गव ऋषिक कुटी उतरि सिद्धार्थ,
लेलन्हि रत्नजटित कृपाण काटल केश ।
मुकुट मणि आभूषण देल छंदककेँ।
अश्रुधार बहल छंदकक आँखि,
जाऊ छंदक घुरु नगर जाऊ ।
नहि सिद्धार्थ हम नहि छी सुमन्त,
छोड़ि राम घुरल अयोध्या नगर।
घोटक कंथकक आँखिमे सेहो नोर,
तखने एक व्याध छल आएल,
कषाय वस्त्र पहिरने रहए, कहल सिद्धार्थ,
हमर शुभ्र वस्त्र लिअ दिअ ई वस्त्र,
अदलि-बदलि दुनु गोटे वस्त्र पहिरि,
छंदक देखि केलक प्रणाम गेल घुरि।
सिद्धार्थ अएलाह आश्रम सभ भेल चकित,
देखि नानाविध तपस्या कठोर,
नहि संतुष्ट कष्ट भोगथि पाबय लेल स्वर्ग,
अग्निहोत्रक यज्ञ तपक विधि देखि ।
निकलि चलल किछु दिनमे सिद्धार्थ आश्रम छोड़ि,
स्वर्ग नहि मोक्षक अछि हमरा खोज ।
जाऊ तखन अराड मुनि लग विंध्यकोष्ठ,
नमस्कार मुनि प्रणाम घुरू सभ जाऊ,
सिद्धार्थ निकलि बढ़ि पहुँचलाह आगु।
एम्हर कंथकक संग छंदक खसैत-पड़ैत,
एक दिनमे आएल मार्ग आठ दिनमे चलैत,
घरमुँहा रस्ता आइ कम नहि, अछि भेल अनन्त ।
घुरि सुनेलक खबरि कषाय वस्त्र पहिरबाक सिद्धार्थक,
गौतमी मूर्छित, यशोधरा कानथि बाजि-बाजि,
एहन कठोर हृदय सिद्धार्थक मुखेटा कोमल रहए,
ओकरो सँ कठोर अछि हृदय हमर जे फाटए अछि नञि ।
शुद्धोधन कहथि दशरथक छल भाग्य,
पुत्र वियोगमे प्राण हमर निकलए नञि अछि।
पुरहित आ मंत्रीजी निकलि ताकू जाय,
भार्गव मुनिक आश्रममे देखू पूछू ओतए।
जाय जखन सभ ओतए पूछल भार्गव कहल,
गेलथि अराड मुनिक आश्रम दिस मोक्षक लेल बेकल।
दुनू गोटे बढ़ि आगाँ देखैत छथि की,
कुमार गाछक नीचाँ बैसल ओतए।
पुरोहित कहल हे कुमार पिताक ई गप सुनू,
गृहस्थ राजा विदेह, बलि, राम आ बज्रबाहु,
केलन्हि प्राप्त मोक्ष करू अहाँ सेहो।
मुदा सिद्धार्थ बोनसँ घुरताह नहि,
मोक्षक लेलन्हि अछि प्रण तोड़ताह नहि।
हे सिद्धार्थ पहिनहु घुरल छथि बोनसँ,
अयोध्याक राम, शाल्व देशक द्रुम आ राजा अंबरीष ।
हे पुरहित जी घुरू व्यर्थ समय नष्ट छी कए रहल,
राम आ कि आन नहि उदाहरण समक्ष ।
नहि बिना तप कोनो क्यो बहटारि सकत,
ज्ञान स्वयं पाएब नव रस्ता तकैत।
घुरल दुहु गोटे गुप्त-दूत नियुक्त कए।
सिद्धार्थ बढ़ि आगाँ कएल गंगाकेँ पार,
राजगृह नगरी पहुँचि कए भिक्षा ग्रहण,
पहुँचि पाण्डव-पर्वत जखन बैसलथि,
राजा बिम्बसार आबि बुझाओल बहुत ।
सूर्यवंशी कुमार जाऊ घुरि,
मुदा सिद्धार्थ कहल हर्यंक वंशज,
मोहकेँ छोड़ल घुरि जाएब कतए ?
राजा सेहो होइछ कखनहुँ काल दुखित,
दास वर्गकेँ सेहो कखनहुँ भेटए छै खुशी ?
करू रक्षाक प्रजाक संग अपन सेहो,
सिद्धार्थ वैश्वंतर आश्रम दिश बढ़लाह,
मगधराज चकित !
अराडक आश्रममे ज्ञान लेल,
गेलाह शाक्य,
कहल मुनि अविद्या अछि पाँचटा,
अकर्मण्यता आलस्यक अछि अन्हार,
अन्हारक अंग अछि क्रोध आ विषाद,
मोह अछि ई वासना जीवनक आ संगक मृत्यु,
कल्याणक मार्ग अछि मार्ग मोक्षक ।
मुदा सिद्धार्थ कहल हे मुनिवर !
आत्माक मानब तँ अछि मानब अहंकारकेँ,
अहाँ गप नहि रुचल बढ़ल आश्रम उद्रकक से।
नगरी गेलाह राजर्षिक जे आश्रम छल,
मुदा नहि उत्तर भेटल ओतहु सिद्धार्थक।
गेलाह तखन नैरंजना तट पाँचटा भिक्षुक भेटल,
छह बरख तप कएल मुदा प्रश्न अनुत्तरित छल।
स्वस्थ तनमे भेटत मनसक प्रश्नक उत्तर,
प्रण कएल ई निरंजनामे कएल स्नान ओ,
बाहर बहराए अएलाह तखने कन्या गोपराजक,
श्वेत रंग नील वस्त्रमे नन्द बाला जकर नाम छल ।
आयलि पायस पात्र लेने तृप्त भए सिद्धार्थ भोजन कएल।
पाँचू संगी देखि ई सिद्धार्थक संग छोड़ल ।
मुदा ओ भेलाह सबल बोधिसत्वक प्राप्तिक लेल,
दृढ़ प्रण लए पीपरक तर ओ आसन देलन्हि ।
काल सर्प कहल देखू ई नीलकंठक झुण्डकेँ,
घुमि रहल चारू दिस अहाँक,
प्रमाण अछि जे बोधिसत्व प्राप्त करब अहाँ।
सुनि ई तृण उठाए कएल प्रतिज्ञा तखन,
सिद्धार्थ पाओत ज्ञान आ तखने उठत छोड़ि आसन।
ब्रह्मांड छल प्रसन्न मुदा दुष्ट मार डरायल,
कामदेव, चित्रायुध पुष्पसर नाम मारक,
सिद्धार्थ प्राप्त कए ज्ञान जगकेँ बताओत।
हमर साम्राज्यक होएत की तखन,
पुत्र विभ्रम,हर्ष, दर्प छल ओकर,
पुत्री अरति, प्रीति, तृषा के सेहो कए संग।
चलू ई लेने ढाल प्रतिज्ञाक,
सत् धनुषपर बुद्धिक वाण चढ़ाए,
जीतत से की जीतए देबए हमरा सभ आइ ?
हे सिद्धार्थ यज्ञ कए पढ़ि कए शास्त्र,
करू इन्द्रपद प्राप्त भोगू भोग,
छोड़ू आसन देब वाण चलाए।
नहि देलन्हि सिद्धार्थ एहिपर ध्यान,
मार तखन देलक वाण चलाए,
मुदा भेल कोनो नहि परिणाम।
शिवपर सेहो चलल रहए ई वाण,
विचलित भेल रहथि ओ सेहो,
के अछि ई से नहि जान !!
हे सैनिक हमर विकराल-विचित्र,
त्रिशूल घुमाए, गदा उठाए,
साँढ़क सन दए हुंकार,
आऊ करू विजित अछि शत्रु विकराल।
राति घनघोर अन्हरियामे कतए छथि चन्द्र ?
तरेगणक सेहो कोनो नहि दर्श !
मुदा सभ गेल व्यर्थ पदार्पण भेल अदृश्य,
मार जाऊ होएत नहि ई विचलित।
देखू एकर क्षमा प्रतीक जटाक,
धैर्य अछि एकर जेना गाछक मूल,
चरित्र पुष्प बुद्धि शाखा धर्म फलक प्रतीक।
स्थान जतए अछि आसन पृथ्वीक थिक नाभि,
प्राप्त करत ई ज्ञान सहजहि आइ ।
पराजित मार गेल ओतएसँ भागि।
रातिक पहिल पहरिमे शाक्य मुनि,
पाओल वर्णन स्मरण पूर्व जन्मक सहजहि ।
दोसर पहरमे दिव्य चक्षु पाबि,
देखल कर्मक फल वेदनाक अनुभूति ।
गर्भ सरोवर नरक आ स्वर्ग दुहुक,
पाओल अनुभव देखल खसैत स्वर्गहुसँ,
अतृप्त भोगी जन्म, जरा, मृत्यु।
बीतल तेसर पहरि चारिममे जाए,
पाओल ज्ञान बुद्ध भए पाओल शान्ति।
शान्त मन शान्त छल पूर्ण जगत !!!
धर्म चारू दिस बिन मेघ अछार !!
सूचना देल दुन्दभि बाजि अकाश !
सकल दिशा सिद्धगणसँ दीप्तमय छल,
स्वर्गसँ वृष्टि पुष्पक इक्षवाकु वंशक ई मुनि छल।
बैसल एहि अवस्थामे सात दिन धरि मुनि शाक्य,
विमान चढ़ि अएलाह तखन देवता दू टा,
करू उद्धार जगतक दए मोक्षक शिक्षा।
आ भिक्षुपात्र लए अएलाह फेर एक देव,
कएल स्मरण अराड आ उद्रकक बुद्ध,
मुदा दुहु छल छोड़ल जगत ई तुच्छ।
आब जाएब वाराणसी भिक्षु पाँचो संगी जतए,
कहल देखि बोधिक गाछ दिस स्नेहसँ।
बुद्ध चललाह असगरे रस्तामे भिक्षु एक भेटल,
तेजमय अहाँ के गुरु के छथि अहाँक ?
हे वत्स गुरु नहि क्यो हमर
प्राप्त कएल निर्वाण हम,
सभ किछु जानल जे अछि जनबा योग्य
लोक कहए छथि हमरा बुद्ध !
जा रहल छी काशी दुखित कल्याण लेल
दूर सँ देखल वरुणा आ गंगाक मिलन
आ गेलाह बुद्ध लगहिमे मृगदाव वन।
पाँचू संगि हुनक रहथि ओतहि
देखैत अबैत विचारल क्यो नहि करत अभिवादन हुनक
मुदा पहुँचिते ई की गप भेल ?
सभ हुनक सत्कारमे छल लागि गेल?
आसन दए जखन बैसेलन्हि हुनका सभ क्यो,
उपदेश देब शुरु करितथि मुदा तखने बाजल कियो,
अहाँ तँ तत्वकेँ नहि छी बुझैत,
तप छोड़ि बीचहि उठल छलहुँ किएक ?
बुद्ध कहल घोर तप आ आसक्ति दुनुक हम त्याग कएल
मध्य मार्गकेँ पकड़ि बोधत्व प्राप्त कएल ।
एकर सूर्य अछि सम्यक दृष्टि आ
एकर सुन्दर रस्तापर चलैए सम्यक संकल्प ।
ई करैए विहार सम्यक आचरणक उपवनमे
सम्यक् आजीविका अछि भोजन एकर।
सेवक अछि सम्यक व्यायाम,
शान्ति भेटैए एकरा सम्यक स्मृति रूपी नगरीमे
आ सुतैए सम्यक समाधिक बिछाओनपर ई।
एहि अष्टांग योगसँ अछि सम्भव ई
जन्म, जरा, व्याधि आ मृत्युसँ मुक्ति।
मध्य मार्ग चारिटा अछि ध्रुव सत्य
दुख, अछि तकर कारण, दुखक निरोध
आ अछि उपाय निरोधक ।
कौंडिन्य आ ओकर चारू संगी सुनल ई,
प्राप्त कएल सभ दिव्यज्ञान ।
हे नरमे उत्तम पाँचू गोटे
भेल ज्ञान अहाँ लोकनि के?
कौंण्डिन्य कहलन्हि हँ, भेल भंते,
कौंडिन्य भेलाह तखन प्रमुख धर्मवेत्ता
तखनहि यक्षसभ पर्वतपरसँ कएलक सिंहनाद,
शाक्यमुनि अछि कएलक धर्मचक्र प्रवर्तित !!!!
शील कील अछि क्षमा-विनय अछि धूरी,
बुद्धि-स्मृतिक पहिया अछि सत्य अहिंसासँ युक्त,
एहिमे बैसि भेटत शान्ति ई बाजल सभ यक्ष,
मृगदावमे भेल धर्मचक्र प्रवर्तित।
फेर अश्वजित आ ओकर चारि टा आन भिक्षु
कएल निर्वाण धर्ममे बुद्ध दीक्षित,
फेर कुलपुत्र यश प्राप्त कएल अर्हत पद
यश आ चौवन गृहस्थकेँ
कएल बुद्ध सद्धर्ममे प्रशीक्षित ।
घरमे रहि कऽ भऽ सकै छी अनाशक्त
आ वनमे रहियो प्राप्त कऽ सकए छी आशक्ति ।
एहिमेसँ आठ गोट अर्हत प्राप्त शिष्यकेँ
बिदा कए आठो दिशामे चललाह बुद्ध ।
पहुँचि गया जितबाक रहन्हि इच्छा
सिद्धि सभसँ युक्त काश्यप मुनिकेँ।
गयामे काश्यप मुनि कएलन्हि स्वागत बुद्धक,
मुदा रहबाक लेल देल अग्निशाला रहए छल महासर्प जतए ।
रातिमे मुदा ओ सर्प प्रणाम कएल बुद्धकेँ
भोरमे काश्यप देखल सर्पकेँ बुद्धक भिक्षापात्रमे ।
कए प्रणाम ओ आ हुनकर पाँच सए शिष्य
संग अएलाह काश्यक भाए गय आ नदी ।
कएल स्वीकार धर्म बुद्धक
प्राप्त कएल गय उत्तुंगपर निर्वाणधर्मक शिक्षा
लए सभ काश्यपकेँ संग बुद्ध पहुँचल राजगृहक वेणुवण ।
बिम्बसार सुनि आएल ओतए देखल काश्यपकेँ बुद्धक शिष्य बनल
पूछल बुद्ध तखन काश्यपसँ,
छोड़ल अहाँ अग्निक उपासना किएक भंते ?
काश्यप कहल मोह जन्म रहि जाइछ देने
आहुति अग्निमे कएने पूजा पाठ ओकर तँहि ।
बुद्धक आज्ञा पाबि कएल काश्यप दिव्य शक्तिक प्रदर्शन
आकाशमध्य उड़ि अग्निक समान जरि कए ।
तखन बिम्बसारकेँ देल बुद्ध अनात्मवादक शिक्षा
विषय, बुद्धि आ इन्द्रिक संयोगसँ अबैछ चेतनता
शरीर इन्द्रिय आ चेतना अछि भिन्न
आ अभिन्न सेहो।
बिम्बसार भऽ प्रसन्न दान बुद्धकेँ वेणुवन देल
तथागतक शिष्य अश्वजित नगर गेल भिक्षाक लेल ।
कपिल संप्रदायक लोक देखि तेज पूछल अहाँक गुरु के?
कहल अश्वजित सुगत बुद्ध छथि जे इक्षवाकुवंशक।
सएह हमर गुरु कहए छथि बिन कारणक नहि होइछ किछुओ
उपतिष्य ब्राह्मणकेँ प्राप्त भेल ज्ञान कहलक ओ मौद्गल्यायनकेँ
मौद्गल्यायनकेँ सेहो प्राप्त भेलैक सम्यक दृष्टि सुनिकेँ।
सुनि वेणुवनमे उपदेश त्यागल जटा दंड
पहिरि काषाय कएल साधना प्राप्त कएल परम पद
काश्यप वंशक एकटा धनिक ब्राह्मण छोड़ल पत्नी परिजन
प्रसिद्धि भेटल हिनका महाकाश्यप नामसँ।
कोसलक श्रावस्तीक धनिक सुदत्त आएल वेणुवन
गृहस्थ रहितो प्राप्त भेल तत्वज्ञान ओकरा ।
उपतिष्य संगे सुदत्त गेल श्रावस्ती नगर
जेत केर वनमे विहार बनएबाक कएल निश्चित् ।
जेत रहए लोभी ढेर पाइ लेलक जेतवनक
मुदा देखि दैत पाइ हृदय परिवर्तित भेल ओकर
सभटा वन देलक ओ विहारक लेल
विहार शीघ्रे बनि गेल उपतिष्यक संरक्षकत्वमे।
बुद्ध फेर राजगृहसँ चलि देलन्हि कपिलवस्तु दिस
ओतए पिता शुद्धोधनकेँ देल बौद्ध रूपी अमृत
कोनो पुत्र पिताकेँ नहि देने रहए ई।
कर्म धरए अछि मृत्युक बादो पछोड़
कर्मक स्वभाव, कारण, फल, आश्रयक रहस्य बुझू,
जन्म, मृत्यु, श्रम, दुखसँ फराक पथ ताकू ।
आनन्द, नन्द, कृमिल, अनुरुद्ध, कुन्डधान्य, देवदत्त, उदायि
कए ग्रहण दीक्षा छोड़ल गृह सभ ।
अत्रिनन्दन उपालि सेहो कएल ग्रहण दीक्षा
शुद्धोधन देल राजकाज भाए केँ
रहए लगलाह राजर्षि जेकाँ ओ ।
फेर बुद्ध कएल प्रवेश नगरमे
न्यग्रोध वनमे बुद्ध पहुँचि
चिन्तन कल्याणक जीवक करए लगलाह।
फेर ओ ओतए सँ निकलि गेलाह प्रसेनजितक देस कोसल
श्रावस्तीक जेतवन छल श्वेत भवन आ अशोकक गाछसँ सज्जित
सुदत्त कएल स्वर्णमालासँ स्वागत बुद्धक
कएल जेतवन बुद्धक चरणमे समर्पित।
प्रसेनजित भेल धर्ममे दीक्षित
तीर्थक साधु सभक कए शंकाक समाधान
कएल बुद्ध हुनका सभकेँ दीक्षित।
ओतएसँ अएलाह बुद्ध फेर राजगृह
ज्योतिष्क, जीवक, शूर, श्रोण,अंगदकेँ उपदेश दए,
कएल सभकेँ संघमे दीक्षित।
ओतएसँ गंधार जाए राजा पुष्करकेँ कएल दीक्षित
विपुल पर्वतपर हेमवत आ साताग्र दुनू यक्षकेँ उपदेश दए
अएलाह जीवकक आम्रवन।
ओतए कए विश्राम घुमैत-फिरैत
पहुँचल आपण नगर,
ओतए अंगुलीमाल तस्करकेँ
कएल दीक्षित प्रेमक धर्ममे।
वाराणसीमे असितक भागिन कात्यायनकेँ कएल दीक्षित
देवदत्त मुदा भए ईर्ष्यालु संघमे चाहलक पसारए अरारि।
गृध्रकूट पर्वतपर खसाओल शिलाखंड बुद्धपर
राजगृह मार्गमे छोड़ल हुनकापर बताह हाथी
सभ भागल मुदा आनन्द संग रहल बुद्धक
लग आबि गजराज भए गेल स्वस्थ कएल प्रणाम झुकि कए
उपदेश देल गजराजकेँ बुद्ध।
देखल ई लीला राजमहलसँ अजातशत्रु
भए गेल ओहो शिष्य तखन बुद्धक।
राजगृहसँ बुद्ध अएलाह पाटलिपुत्र
मगधक मंत्री वर्षाकार बना रहल छल दुर्ग,
बुद्ध कएल भविष्यवाणी होएत ई नगर प्रसिद्ध
तखन तथागत गेलाह गौतम द्वारसँ गंगा दिस।
गंगापार कुटी गाममे
देल उपदेश धर्मक
फेर गेलाह नन्दिग्राम जतए भेल छल बहुत रास मृत्यु।
दए सान्त्वना गेलाह वैशाली नगरी
निवास कएल आम्रपालीक उद्यानमे।
श्वेत वस्त्र धरि अएलीह ओ
बुद्ध चेताओल शिष्य सभकेँ,
धरू संयम रहब स्थिरज्ञानमे लऽ बोधक ओखध
प्रज्ञाक वाणसँ शक्तिक धनुषसँ करू अपन रक्षा।
आम्रपाली आबि पओलक उपदेश
भेलैक ओकरा घृणा अपन वृत्तिसँ
माँगलक धर्मलाभक भिक्षा,
बुद्ध कएलन्हि प्रार्थना ओकर स्वीकार,
संगहि आएब भिक्षाक लेल अहाँक द्वार ।
सुनि ई गप जे आएल छथि बुद्ध आम्रपालीक उद्यान
लिच्छवीगण अएलाह बुद्धक समीप
बुद्ध देलन्हि शीलवान रहबाक सन्देश।
लिच्छवीगण देलन्हि भिक्षाक लेल अपन-अपन घर अएबाक आमन्त्रण,
पाबि आमन्त्रण कहलन्हि बुद्ध
मुदा जाएब हम आम्रपालीक द्वार
कारण हुनका हम देलियन्हि अछि वचन।
लिच्छवीगणकेँ लगलन्हि ई कनेक अनसोहाँत,
मुदा पाबि उपदेश बुद्धक,
घुरलाह अपन-अपन घर-द्वार।
पराते आम्रपालीसँ ग्रहण कए भिक्षा
बुद्ध गेलाह वेणुमती करए चारि मासक बस्सावास।
चारि मास बितओला उत्तर,
रहए लगलाह मर्कट सरोवरक तट।
ओतहि आएल मार,
कहलक हे बुद्ध नैरंजना तटपर अहाँक संकल्प
जे निर्वाणसँ पूर्व करब उद्धार देखाएब रस्ता दोसरोकेँ,
आब तँ कतेक छथि मुक्त, कतेक छथि मुक्ति पथक अनुगामी,
आब कोनो टा नहि बाँचल अछि कारण
करू निर्वाण प्राप्त।
कहलन्हि बुद्ध, हे मार
नहि करू चिन्ता,
आइसँ तीन मासक बाद,
प्राप्त करब हम निर्वाण,
मार होइत प्रसन्न तृप्त
गेल घुरि।
बुद्ध धऽ आसन प्राणवायुकेँ लेलन्हि चित्तमे
आ चित्तकेँ प्राणसँ जोड़ि योग द्वारा समाधि कएल प्राप्त।
प्राणक जखने भेल निरोध,
भूमि विचलित, विचलित भेल अकास !!
आनन्द पूछल करू अनुग्रह लिच्छवी सभपर,
किएक ई धरा आ आकास,
दलमलित मर्त्य आ दिव्यलोक !!!
बुद्ध कहलन्हि आबि गेल छी हम बाहर,
छोड़ि अपन प्रकोष्ठ,
मात्र तीन मास अनन्तर
छोड़ब ई देह,
निर्वाण मे रहबा लेल सतत !!!!
आनन्द सुनि ई करए लागल हाक्रोस,
सुनि विलाप लिच्छवी गण जुटि सेहो,
विलापमे भऽ गेलाह संग जोड़ ।
बुद्ध सभकेँ बुझा-सुझा,
चललाह वैशालीक उत्तर दिशा।
पहुँचि भोगवती नगरी,
देल शिक्षा जे विनय अछि हमर वचन,
जे बोल अछि विनयविहीन,
से अछि नहि धर्म।
तखन मल्लक नगरी पापुर जाए,
अपन भक्त चुंदक घरमे कएल भोजन बुद्ध,
दए ओकरा उपदेश बिदा भेलाह कुशीनगरक दिस।
संगे चुन्दक पार कएल इरावती धार
सरोवर तटपर कए विश्राम,
कए हिरण्यवती धारमे स्नान,
कहल हे आनन्द,
दुनू शालक गाछक बीच करब हम शयन।
आजुक रातिक उत्तर पहर,
करब प्राप्त निर्वाण।
हाथक बनाए गेरुआ,
दए टाँगपर टाँग,
लऽ दहिना करोट कहल हे आनन्द,
बजा आनू मल्ल लोकनिकेँ,
भेँट करबा लेल निर्वाण पूर्व।
शान्त दिशा, शान्त व्याघ्र-भालु,
शान्त चिड़इ शान्त सभटा जन्तु।
आबि मल्ल लोकनि कएल विलाप,
मुदा बुद्ध दए सांत्वना घुरेलन्हि सभकेँ।
आएल सुभद्र त्रिदंडी संन्यासी तकर बाद,
पाबि अष्टांग मार्गक शिक्षा,
कहल सुभद्र हे करुणावतार
अहाँक मृत्युक दर्शनसँ पहिने हम करए
चाहैत छी निर्वाण प्राप्त ।
बैसल ओ पर्वत जेकाँ
आ जेना मिझा जाइत अछि दीप
हवाक झोँकसँ,
तहिना क्षणेमे कएलक निर्वाण प्राप्त।
छल ई हमर अन्तिम शिष्य !
सुभद्रक करू अन्तिम संस्कार !
बीतल आध राति,
बुद्ध बजाए सभ शिष्यकेँ,
देल प्रातिमोक्षक उपदेश,
कोनो शंका होए तँ पूछू आइ ।
अनिरुद्ध कहल नहि अछि शंका आर्य सत्यमे ककरो।
बुद्ध तखन ध्यान कऽ एकसँ चारिम तहमे पहुँचि,
प्राप्त कएल शान्ति।
भेल ई महापरिनिर्वाण !
मल्ल सभ आबि उठेलक बुद्धकेँ स्वर्णक शव-शिविकामे,
नागद्वारसँ बाहर भए कएलन्हि पार हिरण्यवती धार,
मुदा शवकेँ चन्दनसँ सजाए,
जखन लगाओल आगि, नहि उठल चिन्गारि ।
शिष्य काश्यप छल बिच मार्ग,
ओकरा अबिते लागल चितामे आगि !
मल्ल लोकनि बीछि अस्थि धऽ स्वर्णकलशमे,
आनल नगर मध्य,
बादमे कए भवन पूजाक निर्माण,
कएल अस्थिकलश ओतए विराजमान।
फेर सात देशक दूत,
आबि मँगलक बुद्धक अस्थि,
मुदा मल्लगण कएल अस्वीकार,
तँ बजड़ल युद्ध-युद्ध ।
सभ आबि घेरल कुशीनगर,
मुदा द्रोण ब्राह्मण बुझाओल दुनू पक्ष।
बाँटि अस्थिकेँ आठ भाग,
द्रोण लेलक ओ घट आ गण पिसल छाउर बुद्धक ।
सभ घुरलाह अपन देश आब।
अस्थि कलश छाउर पर बनाए स्तूप,
करए गेलाह पूजा अर्चना जाए,
दसटा स्तूप बनि भेल ठाढ़,
जतए अखण्ड ज्योति आ घण्टाक होए निनाद।
फेर राजगृहसँ आएल पाँच सए भिक्षु,
आनन्दकेँ देल गेल ई काज,
बुद्धक सभ शिक्षाकेँ कहि सुनाऊ,
होएत ई सभ समग्र आब।
हम ई छलहुँ सुनने एहि तरहेँ,
कएल सम्पूर्ण वर्णन नीके।
कालान्तरमे अशोक स्तूपसँ लए धातु कए कए कऽ सए विभाग,
बनाओल कएक सए स्तूप,
श्रद्धाक प्रतीक।
जहिया धरि अछि जन्म, अछि दुख,
पुनर्जन्मसँ मुक्ति अछि मात्र सुख,
तकर मार्ग देखाओल जे महामुनि,
शाक्यमुनि सन दोसर के अछि शुद्ध।
असञ्जाति मनक ई सम्बल,
देलहुँ अहाँ हे बुद्ध
हे बुद्ध
हे बुद्ध ।
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"भालसरिक गाछ" Post edited multiple times to incorporate all Yahoo Geocities "भालसरिक गाछ" materials from 2000 onwards as...
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जेठक दुपहरि बारहो कलासँ उगिलि उगिलि भीषण ज्वाला आकाश चढ़ल दिनकर त्रिभुवन डाहथि जरि जरि पछबा प्रचण्ड बिरड़ो उदण्ड सन सन सन सन...
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खंजनि चलली बगढड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरली अपन वस्तुलक परित्याकग क’ आनक अनुकरण कयलापर अपनो व्यिवहार बिसरि गेलापर व्यंपग्यय। खइनी अछि दुइ मो...
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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