भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Tuesday, September 01, 2009

पेटार १८

शैलेन्द्र मोहन झा- गद्य संग्रह

..

पक्षधर मिश्र

चन्दा झा



महामहोपाध्याय पक्षधर मिश्र--मैथिल सोदरपुर भौआलमूल शाण्डिल्य गोत्र निवास
भटपुरा जे पूर्ब अमरावती सहरक अन्तर्गत छल। अध्यापि भटपुरा सत्कुल मैथिल ब्रााहृण बसै
छथि श्री फकीर झा नैयायिक सदाचारनिरत सुशील सद्धम्र्मानुष्ठान तत्पर छथि; प्रशंसनीय।
प्राचीन मिथिले•ार नामक महादेव ताहि ग्राम समीप छथि। सज्ज्नलोक बसैछ, पो0 मनीगाछी
जिला दरभज़्र्।ि



पक्षधर मिश्रक मुख्यनाम जयदेव। पंजीकार मुखश्रुति जयदेवापर नामक पक्षधर। हिनत
पिताक नाम गुणेमिश्र। पितृव्यक नाम महामहोपाध्याय हरि मिश्र। अहै पक्षधर मिश्रक यावत्
शास्त्रक गुरु। ई वृत्तान्त परिचय स्वयं लिखलहि छथि पक्षधर मिश्र। भटपुरा मे चौपाड़ि-
पाठशालाक साक्षिणी भूमि अछि। एक पुस्तक विष्णुपुराण तालीपत्र मे अछि, योगिवाड़ श्री केशव
झाक घर मे अछि। से पक्षधर मिश्रहिक लिखल थिक। पुस्तकक अन्तपत्र मे लिखल एक श्लोक
अछि--



वाणौवेद युतैस्त शम्भुनयनै स्संख्याज़्ते हायने

श्री मद् गौड़ महीभुजो गुरुदिने माग्र्गेच पक्षे सिते।

षष्टयान्ताममरावती मधिवसन् याभूमिदेवालया

श्री मत्पक्षधरस्सुपुस्तकमिदं शुद्धंव्यलेखीद्द्रुतम्।



(ल0 सं0 345 मार्ग शुदि 6 वृहस्पति अमरावती मे वास करैत जे ब्रााहृणक बस्ती श्री
पक्षधर मिश्र ई पुस्तक शुद्ध झटिति लिखल।)



ई पक्षधर मिश्र आलोक नामक टीका कत्र्ता। मूलकत्र्ता महामहोपाध्याय जगद्गुरु
गज़्âशकृत तत्वचिन्तामणि चानुखण्डक जे आलोक सर्वत्र दार्शनिक मण्डलीक मे
विद्याविशेषरत्नाय मान अछि। अतः पर की। भारतभरि सुविदित मेधावी रघुनाथ शिरोमणि जे
आलोक सम्यक् आलोकिक कय बज़्र्ििद देश मे नाना टीका टिप्पणि निम्र्माण कें सुगम बोध हेतु
स्वग्रन्थ अनेक प्रचारित कयल जाहि सौं न्यायानुमानखण्डक विद्वान अनेकानेक ग्रन्थक कत्र्ता
होइत भेलाह। आलोकक तथापि शुद्ध बोधवाला विद्वान विरल छथि। पक्षधर मिश्र शैव छलाह।
पक्षधर मिश्रक विद्वत्ता केवल रघुनाथ शिरोमणि के भेल जे मिथिला सौह्मद्य कैं यावत पदार्थ
कृतकृत्य स्वदेश मिथिला सौं गेला। ग्रन्थ--आलोक, प्रसन्नराघव, चन्द्रलोक, तिथि-चन्द्रिका,
तत्वनिर्णय।


(चन्दा झाक स्वलिखित पोथी सँ)





.. .. .. ..







सुकन्या

लालदास



सूय्र्यपुत्र वैव•ात मुनिकें बड़ प्रतापी प्रजापालक सकल गुण सम्पन्न शय्र्याति नामक पुत्र
छलथिन्ह। ताहि शय्र्याति महाराज कैं एक कन्या, जनिक सुकन्या नाम छलैन्हि अतिशय सुन्दरी
मोहिनी मूर्त्ति छलथिन्ह। सुकन्याक माय पातिव्रत गुणसौं विभूषिता छलथीन्ह। माईक गुणें
सुकन्या सेहौ तेहनि सद्गुण सभसौं विभूषिता भेलीह। राजभवनमे राजस सुख भोग्ये क्रमहि क्रम
शुक्ल पक्षक चन्द्रमा सदृश बढ़ैत-बढ़ैत योग्य अवस्था पर पहुँचि गेलीह, पूर्ण चन्द्रक समान
देदीप्यमान होमय लगलीह, लोकमे, से सुकन्या देवकन्या तुल्य अनुमानित होमय लगलीह,
सद्गुणी ओ पतिव्रता स्त्रीमे स्थान पयबाक योग्य भय गेलीह।



विवाह नहि भेल छलैन्हि ताहि अन्तरामे एक दिन शय्र्याति महाराज सैन्यसहित
महारानीक संग वनक शोभा देखबाक हेतु मानसरोवरक उपमादेवाक योग्य एक विलक्षण सरोवर
जे राजधानीक समीपहि छलैन्हि, ताहिठाम अबैत भेलाह। राजकन्या सुकन्या सेहो संगहि
छलथीन्ह।



एक दिशि सैन्य ओ सेवकक डेरा पड़ लागल, एक दिशि महाराज महारानी कैं संगलेने
फलफूल सौं युक्त वृक्षलता ओ मृगगण ओ पक्षी सभक शोभा देखैत, कमल वन ओ जलपक्षी
समूह सौं आक्रान्त जे उत्तम सरोवर चाहि ठाम पहुँचि गेलाह। एक दिशि सुकन्या विद्युल्लताक
समान देदीप्यमान होइत सखी सभक संग फूल लोढ़ैत वनक उत्तम शोभा देखैत वनक एक
प्रान्तमे चलि गेलीह। ताहीठाम अत्यन्त रमणीय तपोवन सदृश एक विलक्षण स्थान देखैत
भेलीह। यद्यपि ओ स्थान देखबामे निर्जन बुझि पड़ै छल, परन्तु ताहिठाम एक सुन्दर कुटीक
सम कुञ्जभवन ताहिमे एक माटिक भिंड सदृश तृण आदि सँ आच्छादित विचित्र रूप देखलैन्ह।
ताहि वल्मीकिक समीप जाय बहुत सूक्ष्मदृष्टि सौ देखला सन्ता दुहू कैं गोटे रन्घ्र ताहिमे
भकजुगुणीक समान चकचक करैत किछु देखि पड़लैन्ह, सुकन्या आश्चर्य मानि कोनो रत्नक
धोखा सौं ताहि वस्तुकैं एक खुभिया सौं खोधिक बाहर करय लगलीह तौं ताहि सौं शोणित
लागल आँखिक डिम्बा बहराय गेल। से देखि सुकन्या अनुमान कयलैन्ह जे कोनो मुनि तपस्या
करैं छथि तनिकैं आँखि हम फोड़ि देलियैन्ह। से बूझि सुकन्याक ह्मदय काँपय लगलैन्ह, त्रास
ओ चिन्ता सौं सम्पूर्ण शरीरमे घर्मा व्याप्त भेलैन्ह, आँखिसौं नीर बहैत कहै लगलीह--"हा ई•ार!
आब हम की करब, हमर की गति होयत' शोक करितहि छलीह, ताही अन्तरामे महाराज
महारानी समेत सैन्यक पेट फूलि गेलैन्ह, नदी-लघीक अवरोध भेला सन्ता व्यथित भै सबहि


छटपट करय लगलाह। राजा क्लेशक कारण विचारितहि छलाह ताहिकाल सुकन्या अपन
कृतकर्मक विषय पितासौं जाय निवेदन कय कानय लगलीह। कन्याक कथा सुनितहि शय्र्याहि
शय्र्याति महाराज बड़ व्याकुल भै बजलाह--"हे पुत्री! अहाँ बड़ अनुचित काज कयल। महर्षि
भृगुक पुत्र महात्मा च्यवन मुनिक ओ स्थान थिकैन्ह, च्यवन मुनि ताहि स्थान मे इन्द्रियगण कैं
अपना वश कयने अन्न जल त्यागि अनेक वर्ष सौं तपस्या कय रहल छथि, ई•ार मे मन कैं लीन
कयने वाह्र ज्ञान सौं त्यक्त छथि, हुनका पर वल्मीकि चढ़ि गेल छैन्ह ताहि पर कुश तृण आदि
गुल्मलता लागि गेल छैक, अहाँ प्रायः ताही महात्माक आँखि फोड़ि देलियैन्ह अछि जाहि कारणें
हमरहु सबहि घोरकष्ट मे पड़ल छी।"



ई कहि तत्कालहि सभलोक सहित राजा च्यवन मुनिक आश्रम मे जाय जल सौं सेचन
करैत माटि कैं हटायमुनिकै बाहर करौलैन्ह। मुनिक पयर पर साष्टांग प्रणामकय स्तुति करैत
अपन ओ अपना कन्याक अपराध क्षमा करबाक हेतु बहुत प्रार्थना कयलैन्ह। परन्तु मुनि
आँखिक व्यथा सौं तेहन दुःखित ओ व्याकुल छलाह जे शान्ति नहिं भैलैन्ह प्रत्युत् क्रोधानलक
कण प्रत्यक्ष होमय लगलैन्ह। ताहि क्रोधाग्नि सौं राजाक राज्य धन सभ नष्ट होमय लागल। से
देखि राजा मुनिक पयर धय बहुत प्राथना कयलैन्ह--"हे प्रभो ! हम अपनेक शरणागत

छी रक्षा कयल जाय।" मुनि बजलाह--"हे नृप। हम महावृद्ध छी, चलब फिरब सौं अक्षम, ताहि
पर अहाँक कन्या हमरा अन्ध बनाय देलक, आब हम अपन नित्य क्रिया वा कोनो धर्म-कर्म
कोना करब, जौं अहाँ हमरा सेवा परिचच्र्चा हेतु अपन कन्या दी तौं हमर क्रोध शान्त हो,
अन्यथा नहि।"



राजामुनिक कथा सूनि विचार कयलैन्ह, हमर राज्य धन सभ नष्ट भै जाय से नीक
किन्तु एहनि सुकुमारि सुशीला सुकन्याक विवाह एहि महावृद्ध ओ अन्ध मुनिक संग उचित नहि।
जखन ई काम शरसौं पीड़ित होइतीह तखन हिनको दशा गौतम मुनिक स्त्री अहल्याक सदृश
भै जयतैह जाहि कारणें इन्द्र ओ अहल्या गौतम मुनिक श्राप सौं घोर कष्टक भोग कयलैन्ह।
सुन्दरी कन्याक विवाह वृद्धक संग कदापि नहि कत्र्तव्य थीक। फेरि 2 राजा मुनि कैं बड़ नम्रता
सौं प्रार्थना कयलैन्ह--"हे महात्मन ! हम अपनेक सेवा निमित अनेक दास-दासी नियुक्त करै छी
हम अपनहुँ सेवामे नियुक्त छी किन्तु एहि सुकुमारी सुकन्या कैं बन से कोना रहय देव?" मुनि
बजलाह--"हे महाराज ! धर्मक नियम परिव्रता स्त्रीक द्वारा निवाहल जाइ अछि, सेवकादिक
द्वारा तकर निर्वाह नहि भय सकैछ अहाँक कन्या तद्योग्या छथि।" राजा बजलाह--"हे तपोधन
अपनेक ई काज हमरा सौं नहि भय सकत।"



राजाक कथा सूनि मुनिक क्रोध द्विगुणित प्रज्वलित भयगेल, से देखि सुकन्या बुझलैन्ह
जे आब अन्धेर होयत, मुनिक क्रोध सौं सम्पूर्ण राज प्रजा नष्ट होयबाक पर अछि, अपनहि
सुकन्या राजा कै कहैत भेलथीन्ह--



"हे पिता अपने हमरा हेतु एतेक शोक कियैक करै छी, एक हमरा कारण असंख्य
राजप्रजा ओ राज सम्पत्ति कियैक नाश करै छी। विधाता जनिकाँ भाग्यमे जे लीखि देलथीन्ह


अछि से अवश्य भोग करै छथि। हे पिता ! हमरा माता उपदेश देने छथि, ओ स्त्री धर्मक कथा
मे सुनौने छथि जे, स्त्री कै स्वामी केहनो अधलाह होथीन्ह किन्तु तनिके सेवा सौं हुनक कल्याण
होइ छैन्ह; स्त्रीकैं स्वामी ई•ार थीकथीन्ह हुनके सेवा-सन्तोष सौं दुहू लोक मे त्राण पबै छथि;
पतिव्रता स्त्री वनमे रहथु वा घरमे रहथु हुनक अघलाह कतहु नहि होइ छैन्ह प्रत्युत हुनक
अनिष्ट कयनिहार सभ अपनहि नाश भै जाइ छथि; श्रीजानकी ओ द्रौपदीक हष्टान्त सौं बूझि
जाउ, कतगोट प्रतापी रावण ओ दुय्र्योधन छलाह, पतिव्रता स्त्री कैं दुख देला सौं ओ अपमान
कैला सौं वंश सहित नाश भै गेलाह। माताक शिक्षा सौं पतिव्रता स्त्रीक कर्तव्य हम नीकैं जनै
छी; अपने कोनो बातक चिन्ता जनु करी। मुनिक आज्ञा मानि अपन आनन्द मन सौं हमरा हुनक
दासी बनाय दिअ, एहीं मै अपनेक ओ हमर दुनुक कल्याण अछि। जौं हम मुनिक सेवा नहि
करब तौं एतगोट हमर ई अपराध कोना क्षमा होयत।"



सुकन्याक कोमल ओ परोपकार सम्मिलित कथा सूनि सभलोक आनन्दक नोर आँखि सौं
खसबैत सुकन्याक बुद्धि ओ धैर्यक प्रशंसा करय लागल। नितान्त राजा सुकन्याक कथा सौं
मुनिक आज्ञा स्वीकार कय कन्याक पाणि ग्रहण महात्मा च्यवन मुनि सौं कराय देलैन्ह;
सुकन्याक विवाह मुनि सौं होइत हिमात्र सभलोक जे कष्टमे पड़ल छलाह, से सभक क्लेश
निवृत्त भय गेलैन्ह।



सुकन्या वन मे रहय लगलीह। राजस भोग्य भूषण पाटम्बर आदिक विसर्जन भय गेल।
वनक कन्द-मूल फल ओ बल्कल पर सुकन्याक जीवन निर्वाह होमय लागल। कुक्कुर बिलाड़ीक
शब्द सुनि जे सुकन्या राजभवन मे डर सौं कम्पमान भै जाइत छलीह से आब बाघ सिंहक
भयंकर शब्द सुनय लगलीह। राजभवन मे जनिकाँ अनेक दास-दासी सेवा करैत छलैन्ह से
अपनहि हाथ सौं बढ़नि धयने बल्कल पहिरने मुनिक कुटी ओ आश्रम नीपय-बढ़ारय लगलीह।



एक दिन प्रातःकाल सुकन्या पति परिचय्र्या हेतु सरोवर सौं स्नान कय जल भरने चलि
अबैत छलीह,

ताही समय देवताक वैद्य अ•िानी कुमार स्वर्ग सौं आबि वनक विलक्षण शोभा देखैत कोनहु
दिशि सौं ताहि सरोवर पर पहुँचि गेलाह। ताहिठाम सुकन्या कैं देखतहि हुनक नववयसक
सौन्दय्र्य ओ स्वरूप पर अत्यन्त मोहित भय गेलाह, रहल नहि गेलैन्ह, लगलै सुकन्याक समीप
आबि बजलाह--"ऐ सुन्दरि ! अहाँ ककर कन्या थिकहुँ ओ कोन भाग्यवान पुरुष थिकथि जनिक
अहाँ गृहिणी भय हुनक घरकें सुशोभित ओ पवित्र कैलियैन्ह। ऐ! अहाँ लक्ष्मीक सनि सुन्दरि भै
एकसरि एहि वनमे कियैक विचरण करै छी से हमरा कहू !" सुकन्या बजलीह-"हम शय्र्याति
महाराजक कन्या थिकहु, सुकन्या हमर नाम थीक, महात्मा च्यवन मुनिक हम दासी थिकियैन्ह,
पिता हमर हुनकहि सौं पाणि ग्रहण करौने छथि तनिके सेवा परिचय्र्या हेतु जल लेने जाइ छी।"



सुकन्याक कथा सूनि अ•िानी कुमार अत्यन्त क्षोभित भै बजलाह-"हे सुन्दरि ! हे बाले !!
अहाँक सनि सुन्दरी हम देवलोकहु मे नहि देखल। हे कोमलार्ज़िं् ! अहाँ एहनि सुकुमारि कमल
कै लज्जित कयनिहारि अहाँक कोमल दुहू पयर से वन मे फिरबाक योग्य नहि थीक। हे रम्भोरु


! (केराक थम्म सन चिक्कन जाँघ वाली) अहाँक सनि सुन्दरी नवयुवती कें जैं महावृद्धक संग
विवाह करौलैन्ह तैं अन्यायी थिकाह। हे मृगाक्षी ! अहाँक एहन विशाल नेत्र से तनिका आन्हर
ओ वृद्ध सौं विवाह करौलैन्ह तैं अहाँक पिता अविचारी थिकाह। हे गजगामिमि ! हम सृष्टिकत्र्ता
ब्राहृा कें बड़ अल्पबुद्धि बुझै छी जे अहाँ सर्वाज़् सुन्दरी कै स्थावर जरातुर तपस्वीक हाथ फेकि
देलैन्हि,। हे विलासिनि ! ओ अन्ध स्थावर मुनि भोग विलास की जानत? अहाँ राजकन्या,
सर्वाज़् सुन्दरी, सुन्दर पुरुष सौं भोग करबाक योग्यता, से एहि भयंकर वनमे कियैक वृद्धक
सेवामे एतेक कष्ट उठौने छी, ओ दुख सहै छी? हे चन्द्रमुखी ! अहाँक ई नववयस, आ
सुन्दरता देखि हमरा बड़ दया उत्पन्न भै गेल अछि। हे मानिनि ! हम दुहू गोटे सूय्र्यक पुत्र
अ•ानी कुमार थिकहु--हमरा सन सुन्दर पुरुष स्वर्गहु मे केओ नहि छथि। तैं कहै छी अहाँ
अपन सुख देखू हमर कथा मानू। ऐ भामिनि ! अहाँ एह अन्ध ओ वृद्ध मुनिकें त्यागि हमरा दुहू
मे एक कै स्वामी करू, अहाँ अपन यौवनावस्थाकैं विफल जनुकरी। जखन कन्दर्पक शारसौं अहाँ
पीड़ित होयव तखन ओ वृद्ध तपस्वी अहाँक कोन सन्तोष कय सकत"--इत्यादि बहुत बजलाह।
अ•िानी कुमारक मुख सौं एहन निल्र्लज्ज कथा सभ सुनितहि सुकन्या क्रोध सौं कम्पमान होइत
उत्तर करैत भेलीह--



"ओ सुरद्वय ! सभलोकक साक्षी ओ तीनू लोकक प्रकाश कयनिहार जे सूय्र्यनारायण,
अहाँ तनिक पुत्र भय कैं एहन लम्पट समान आचारण किय करै छी? अहाँ कैं ककरो त्रास
नहि? महात्मा कश्यप प्रजापतिक वंश मे जन्म लय साक्षात् सूय्र्यक पुत्र भय एहन पवित्र शरीर
सौं अधम्र्म सम्मिलित अपवित्र कथा कियैक बाहर कयल? औ ! सूय्र्यहैक पुत्र धम्र्मराज जनिकाँ
सौं अहाँ कैं भाइयेक टा सम्बन्ध अछि से धम्र्माधर्म विवेचना करबाक हेतु परमे•ार सौं कत गोट
श्रेष्ठ अधिकार पौने छथि, पापीक दण्ड करबामे हुनकाँ अपन परार देवता वा मनुष्य ककरो रोच
नहि रहै छैन्ह, अहाँ कैं तनिको त्राश नहि भेल?"



सुकन्याक महाक्रोध संयुक्त कथा सुनि अ•िानी कुमार अत्यन्त लज्जित भै शिर झुकाय
लेलैन्ह ओ डर सौं थरथर कँपैत बड़े नम्रता सौं बजलाह--"हे महापतिव्रते ! हे धर्ममूत्र्ते !! हमर
अपराध क्षमा करू; हम जे किछु कहल से केवल अहाँक धर्मक परीक्षा हेतु, आन भाव नहि। हे
भद्रे ! अहाँ कैं अपना स्वामीमे निश्चल भक्ति देखि हम बड़े प्रसन्न भेलहुँ, अहाँक धर्म सम्मिलित
कथा सभ सूनि हम बहुत उपदेश ओ शिक्षा पाओल, हमरा प्रति सन्तुष्ट होउ, जौं किछु इच्छा
हो तौं वर मांगू से हम देव।"



सुकन्या हुनक कथाक किछु उत्तर नहि देलथीन्ह। तखन फेरि बजलाह--"हे सुशीले !
अहाँक पातिव्रत धर्म निष्टंक देखि हमरा किछु कहबाक अछि, से सुनि लिय। हम देवताक वैद्य
थिकहुँ अहाँक स्वामीकें वृद्ध, आँखि सौं क्लेशित देखि आरोग्य करबाक इच्छा अछि, जौं अहाँ
हुनका हमरा दुहूँ गोटाक संग एहि सरोवरमे

स्नान करय दियैन्ह तौ हुनका हम आरोग्यकें अपने समान सुन्दर ओ तरुण बनाय दियैन्ह,
पश्चात अहाँ अपन स्वामी चीन्हि कै लय जायब।"




सुकन्या अ•िानी कुमारक कथा मानि "तथास्तु" कहि अपना कुटीमे जाय मुनिकै सभ
वृत्तान्त कहि देलथीन्ह। मुनि सुकन्याक संग सरोवर अयलाह। अ•िानीकुमार मुनिकै संग लय
जलमे संगहि डूब देलैन्ह। ताही काल मुनि आरोग्य भऽ अत्यन्त सुन्दर ओ तरुण बनि गेलाह।
पश्चात् तीनू व्यक्ति जल सौं बहराय पांती लगाय ठाढ़ भय गेलाह। युवावस्थाक तेज सौं तीनू
गोटाक शरीर अतिशय सुन्दर, एक सदृश प्रकाशमान होइत छल। सुकन्या तीनू गोटाक एक रज़्
रूप ओ अवस्था देखि मनमे परम चिन्ता करैत ब्याकुलि भय बजलीह--"हा ई•ार हा जगदम्बे !
आब हम की करब, हम अ•िानीकुमारक कथामे पड़ि ई की कयल, एहि तीनूमे हमर स्वामी के
थिकाह से चिन्हले नहि जाइ छथि, हम ककर हस्तग्रहण करब, जों भ्रम सौं आनक हाथ धयल
गेल तौं पातिव्रत धर्म नष्ट भै हम नरकमे खसाउलि जायब" एवं प्रकार चिन्ता कय मनहि मन
गौरीक स्मरण करय लगलीह। ताही काल हुनका दिव्य ज्ञान भय गेलैन्ह, मन पड़लैन्ह जे
देवता कैं छाया नहि होइत छैन्ह ओ ने पपनी खसै छैन्ह, अतएव हमर स्वामी सैह थिकाह
जनिक छाया स्पष्ट देखल जाइ अछि। ई विचारि सुकन्या आनन्द पूर्वक अपना स्वामीक हाथ
पकड़ि लेलैन्ह। अ•िानीकुमार सुकन्याक अतिशय दृढ़ पातिव्रत धर्म देखि पूर्ण आशीर्वाद
देलथीन्ह। जखन दुहू देवता स्वर्ग बिदा होमय लगलाह तखन बड़े प्रसन्नता सौं च्यवनमुनि
बजलाह--



"औ दुनू देवता? हम अहाँक अनुग्रह सौं सुन्दर ओ आरोग्य भै तरुण बनि गेलहुँ, अहाँ
हमरा आँखि दय जन्म भरिक महाघोर दुःख छोड़ाय देल, तैं एहि उपकारक हम प्रत्युपकार
अहाँक करै चाहै छी से जाहि वस्तुक अभिलाषा हो से हमरा सौं मांगू हम पूर्ति करब।"
अ•िानीकुमार बजलाह--"हे महात्मन्? पिताक अनुग्रह सौं हमरा सभ वस्तु प्राप्त अछि किन्तु हे
मुनिवर ! हम देवताक वैद्य थिकहुँ वैद्य कर्मनिन्दित जानि हमरा न्यून बूझि इन्द्रादि देवता, संग
भै सोमपान नहि करै द छथि; कनकाचल मे जखन ब्राहृा भारी यज्ञ कयने छलाह ताहि ठाम
इन्द्र वैद्य कहि कै सोमपान करबा सौं निषेध कय देलैन्ह। ताहि दिन सौं यज्ञभाग नहि भेटै
अछि, हम देवताक पंक्तिमे बैसय नहि पबै छी, ने कोनो यज्ञ मे यज्ञभाग हमरा भेटै अछि, जौं
अपनेके हमरा पर अनुग्रह भेल तौं हमरा देवताक सोमपायी करू।" मुनि बजलाह--"हे सुरद्वय !
हम अन्ध जरातुर बृद्ध छलहुँ, अपनेक प्रसादन अत्यन्त सुन्दर ओ रूपवान भै युवावस्था पाओल,
सुकन्याक सनि एहनि सुन्दरी स्त्री पावि कैं तथापि हम दुखीये भेल भोग्य सौं विहीन छलहुँ से
अहींक कृपा सौं सफल भै सुख भोग्य करब। तखन अहाँक सन उपकारी हमरा दोसर के
होयताह, तौं अहाँ सौं सत्य करै छी, थोड़बयकाल उत्तर महाराज शय्र्यतिक यज्ञ मे हम अहाँ कैं
इन्द्रादि देवता सभक संगहि सोमपायी करब।" ई कहि च्यवन मुनि सुकन्याक हाथ धयने अपना
कुटी मे जाय भोग विलास करय लगलाह, ओ अ•िानीकुमार आनन्द भै स्वर्ग कैं बिदा भेलाह।



(स्त्री--धर्म शिक्षा अर्थात् पातिव्रताचार सँ
उद्धत)



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मिथिला-भाषा-वाचार

मुरलीधर झा



श्रीयुत विज्ञ मिथिला विचारक ! अपने लोकनि मिथिला मोदक लेख कैं देखि ओ अपन
यथेच्छ लेख कैं

विचारि विम्रतिखिन्न अर्थात् कोन भाषा लिखैक योग्य थिक एहि संशय मे पड़ि नानाविध शच्र् िओ
समाधान करैत होएब--यदर्थ दूइ चारि उदाहरण हम देखबैत छी यथा "ओ ई कार्य कएलैन्हि,
ओ ई काज कयलैन्हि, ओ ई काज कैलन्हि, ओ एहि काज कैं कैलन्हि।" आब एतै विचारणीय
जे कोन प्रयोग शुद्ध। ध्यान देबाक थिक, जे जे क्यो वर्ष मध्य 2-4 चिट्ठी मात्र लिखैत छथि
हुनका बुझने तँ जे अपने लिखैत छथि वैह शुद्ध, यदि ताहि प्रयोग कें मानी तँ उपर जे देखि
आएल छी चारिटा सेहो पहाड़ा में पड़ि पहाड़ भै जाएत जे कोनहु रूपैं नहि बुझल जाय सकैत
अछि; अथ यदि उच्चारण पर निर्भर होएब तँ "कएलैन्ह, कयलैन्हि ओ कैलन्हि" एहि तीनू सँ
एक विलक्षणे उच्चारण थिक जकरा हम कोनहुँ मातृकाक्षर मे लिखि नहिं देखाय सकैत छी;
एहना स्थिति में "कैलन्हि" येह यदि 'मोद'मे प्रयुक्त होइत अछि तथापि कएलैन्हि, कयलैन्हि'
एहि दुनू सँ जे बोध होएत सैह बुझल जाइत अछि; विशेषता ई जे एक तँ अक्षर-लाघव, दोसर
(ध्यान दै विचार करू जे) संस्कृत शब्दोच्चारण में जे-जे अक्षर जेना-जेना उच्चरित होइत अछि
ताहू में कैक गोट अक्षर एहन अछि जकर उच्चारणक कण्ठदिस्थान निर्दिष्ट अछि ओ तथापि
भेद अछि यथा 'ऋ' क दाक्षिणात्यक उच्चारण में 'रू' बुझना जाएत, 'ज्ञ' क 'दन्य'; मैथिल वर्ग
में 'ग्यँ' ओ नवीन शिक्षित समाज में यथार्थ 'ज्ञ' उच्चारित होइत अछि.....।



प्रिय भाषा स्नेहि जन ! अपने जनैत छी जे एहि नानाविध भाषाक मूल की? अर्थात्
सर्वत्र कोनहु समय शिक्षित समाज में संस्कृत (एकरहु कतेक गोटें कहैत छथि जे 'संस्कृत' वैह
कहबैत अछि जकर संस्कार कैल गेल हो, एतावता बहुतो प्राचीन काल में वैदिक प्रयोगानुसारे
आर्य जाति ब्रााहृण समाज मे वाक्य प्रयुक्त होइत छल जे पाणिनि ओ पातञ्जलि प्रभृति ऋषि
द्वारा किछु भेद पावि बैदिक प्रयोग सँ भिन्न 'संस्कृत' एहि शब्दें व्यवह्मत लौकिक प्रयोग कहाबै
लागल) क प्रचार छल नीच जातिअहु में विशेषतः संस्कृतहिक किंतु बिनु व्याकरणवेत्ताक प्रयोग
लेख ओ उच्चारण दुनू में विकृति भै (बिगाड़ि) देश ओ व्यक्तिक कारणें "गौड़ी, मागधी, पैशाची
ओ शौरसेनी इत्यादि शब्दे व्यवह्मत भै प्राकृत वा अभट कहाबै लागल। एहि प्राकृतक प्रचार बौद्ध
ओ जैन प्रभृति वेद विरोधी (नास्तिक) क औतै अधिक अछि ओ अपना लोकनिक ओतै केवल
नाटक ग्रंथ मध्य जतै कतहु स्त्री पात्र तथा नीच पात्रक उक्ति रहैत छैक, ताहि मे देवता जाइत
अछि अस्तु--यथा यथा कलिकालक जाल मे बद्ध भै लोक ब्रााहृण्य धर्म सँ लोकच्युत होमै
लागल तथा तथा 'सदाचार' क न्यूनता ओ नीच जातिक वृद्धि होइत प्राकृतिक प्रयोग होमय
लागल अर्थात् यवन राज्यारम्भ सँ पूर्व सर्वत्र आर्यावत्र्त देश मे प्राकृत भाषाहिक प्रभाव छल,
अनन्तर यावनी (मुसलमानी) भाषा मिश्रित होमै लागल।




प्रिय भाषा विचारक ! ताही समय मे धर्मभीरु पण्डितजी लोकनि लिखि मारलन्हि जे "न
वदेह्रावनी भाषा प्राणैः कण्ठरतैरपि" तथा वस्त्रधारणहुक हेतु "उध्र्व वस्त्रमधोवस्त्रम्।" इत्यादि
नाना वचन प्रमाण रहलहु सन्ता तरह, वेश नीक....इत्यादि कतेको शब्द मितिला-भाषहु मे
निझड़ाएल। पश्चिम प्रांत यवनक अधिक प्रचार अतएव ताहि शब्द ओ वेषहुक प्रचार मिथिला
देश सँ अधिक जे 'उर्दू' तथा यामिनी शब्दें व्यवह्मत भै मिथिला मे निन्दित छल। वस्तुतः 'वह
जाता है' तुझै, मुझे, आओ, जाओ इत्यादि 'उर्दू' नहि थिक किन्तु अद्यावधि कतेको महोदय
लोकनि विद्यमान छथि जे उर्दूए कहैत छथि अस्तु, पठित समाज मे 'हिन्दी' कै प्रसिद्ध अछि।
एहि हिन्दी के प्रचार ओ सुधार केहेन भै गेल अछि ओ होइत जाइत अछि ई ककरहु सँ
अविदित नहिं। एहनहु अवस्था मे अनेक देश भाषा अछि जे अपन प्रबल प्रचारक कारणें आहत
भै रहल अछि परन्तु मिथिला 'जेहने देश तेहने भेष' कें दिनानुदिन ईष्र्या बढ़ाय पुसिए नाक
मारि रहल अछि। ओ महाशय ! डोड़ौ डाबरक काछु सततकाल लखड़ौअहि में अपन मूड़ी
(घेंट) के नुकौने नहि रहैत अछि, यदि अपनहु लोकनि कतेक अनग्रह क विचार करब तँ क्यो
झपटि नहि लेत--देखू--आबहु दछिनाहा-पछिमाहाक बाजब--'कैलन, खेलन' इत्यादि अछि जे
मुख संकोच विकाश सँ कैलन्हि, खैलन्हि इत्यादि उच्चरित होइत अछि। उपर उक्त 'कै' तथा
'खै'--में यथार्थ ऐकारक उच्चारण नहि होइत अछि किन्तु दुनू गलफड़ कें विस्तार कै विस्तृत-
कण्ठतालु सँ उच्चारण होइत अछि। देखू--'हम जाइत जी' मिथिला, 'आमी जाइते छी' वंगला,
'म जानू छू' नेपाल में बाजल जाइत

अछि किन्तु विचार कैला सँ स्पष्ट बुझना जाएत जे वस्तुतः एकहि शब्द सँ बनल वाक्यक अक्षर
देश कोसक भेदै बनल मुखक संकोच ओ विकाश सँ भिन्न-भिन्न भाषा प्रतीत होइत अछि अर्थात्
बंगालीक मुखमंडलक नीचा भाग किछु उपर भागक अपेक्षैं बढ़ि उच्चारण में कैल जाइत अछि,
येह मुख्य कारण थीक जे अँग्रेजी शब्दक उच्चारण प्रायः देशवासीक अपेक्षे बज़्र्लिीक शुद्ध होइत
अछि। एवं नेपाल देशीयक नाक संकुचित, भँहु चढ़ल ओ मुखाग्र बढ़ल होइत छन्हि अतएव
उच्चारणो तादृशे होइत अछि यद्यपि 'काठमाण्डु'क लोक सुन्दर होइत अछि किंतु तैं
यावत्पर्वतस्थ नेपालीयक लेखा नहिं हो।



किछु हो, मिथिलाभाषा सम्प्रति ताहि अवस्था मे नहि अछि जे छाती तानि स्वतन्त्र रूप
सँ चलै से जँ देखैत छी तँ 'हिन्दी' अहि कैं कहब परन्तु हम कतेको पण्डित जी लोकनि यादृशे
जन्मतः पढ़ल अपन संस्कृतकक दुर्दशा कैने रहैत छथि तादृशे 'हिन्दी' अहुक।



हम पण्डितजी सँ पुछैत छिऐन्ह जे 'वह जाता है' एहि हिन्दी-वाक्य मे 'है' क उच्चारण
कोन रूपैं कैल जाइत अछि? यदि ताहि उच्चारण कै अपने मानैत छी तँ 'कैल' एहि शब्दक
आगाँ मिथिला भाषाक श्राद्धार्थ 'बाछा' जनु लगाबी। बहुतो पण्डितजीक बुझने 'ओ जे कहलन्हि'
एहि वाक्य मे 'जे' क स्थान 'ये' होएब उचित तथा 'कखन' क स्थान 'कषन'।



प्रिय मोद स्नेहिजन ! केवल 'कौमुदी'क शास्त्रार्थें एहि सभैक पटुता नहि भै सकैत
अछि, एहि हेतु हेमचन्द्रकृत बालबोध, वररुचिकृत प्राकृत कौमुदी तथा प्राकृत प्रकाश तथा


हिन्दीक अनेक-अनेक पटुलोकक कैल व्याकरणक ग्रन्थ देखू तखन एहि सभैक विचार ह्मदय कैं
स्पर्श करत अन्यथा ई भेंड़ाक लड़ाई नहिं थिकैक जे जतहि देखब सिंह रोपि देव।



यद्यपि हमरा यथार्थ अहच्र्रि नहिं अछि किन्तु काबुली-ऊँट (जनिका पीठ पर लादल
मेवा रहिओ खैबाक काल काँटे) लोकनि सँ प्रार्थना वा नोदना जे आबहु अपना कै मनुष्य बुझि
देश-भाषा-स्नेही होथु जाहि सँ संस्कृतहुक मर्मे बुझना जैतन्हि जे भेलासँ सर्वत्र आवृत होएताह,
से नहि कैंला सँ पण्डितक कप्पार मे भाषानभिज्ञताक कलच् झलकितहि रहत।



(मिथिला मोद, वर्ष 4, उद्गार 44, ज्येष्ठ सन् 1317
साल)







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ग्रीष्म-वर्णन

म0 म0 डा0 श्री उमेश मिश्र



अहा ! की सुन्दर समय छल, ने गर्मी ने सद्री। सभदिसि सभ प्रसन्ने देखए मे अबैत
छल। गाछ-वृच्छ सभ नव पल्लव सँ केहन सुहावन भए गेल छल? फूल सभक सुगन्धि सँ
चारूकात वन ओ उपवन मह-मह करैत रहैत छल।



परन्तु प्रकृतिक नियम कें के अवरुद्ध कए सकैत अछि। प्रकृति मे प्रतिक्षण परिणाम
होइते रहैत छैक। ओ एक रूप केर परित्याग कए दोसर रूप सतत धारण करैत रहैत अछि।
यद्यपि ई परिवर्तन प्रतिक्षण होइत रहैछ किन्तु प्रतिक्षण ओहि परिवर्तन केर भान हमरालोकनिकाँ
नहि होइत अछि। किछु दिन बितलापर जखन ओ परिवर्तन स्थूल रूप धारण कए लैत अछि,
तखन हमरहु सभकाँ ओ परिवर्तन रूप स्पष्ट देखए मे अबैत अछि। ई परिवर्तन एकमात्र
चितिशक्ति कें छोड़ि संसारक प्रत्येक वस्तु मे होइते रहैत छैक, क्यो एहि सँ बाँचल नहि रहि
सकैत छथि।



तैं ओ वसन्तक समय क्रमशः विदा भए गेल। सूय्र्य केर रश्मि मे प्रखरता बढ़ए
लगलन्हि। वायु मे उष्णता आबए लागल। लोक मे आलस्य प्रवेश कएलक। शरीरक हेतु
उत्तरीय आच्छादन पटक आवश्यकता नहि रहलैक। पथिककें शीतल छायाक ओ छाया वृक्ष
केर अन्वेषण करए पड़लन्हि। छाताक आवश्यकता लोककें होबए लगलन्हि। शीतल जलक
अन्वेषण लोक करए लागल। बहुतो आलसीओ लोकनि प्रातः स्नान आरम्भ कएलन्हि। माछीक
आधिकयें लोक अकच्छ भए गेल। कतहु-कतहु मोसक आक्रमणो होएब आरम्भ भए गेल।




शनैः शनैः प्रचण्ड रूप धारण कए समस्त पृथ्वीक रस कएँ रश्मि समूहें अपना दिशि
आकर्षित कए सूर्य पृथ्वी कएँ शुष्क ओ नीरस कए देलन्हि। नदी, नद, पोखरि, इनार, खत्ता,
डाबर सभ सुखाए चलल। बाध मे माल-जाल कएँ तप्त कएनिहार जलक सर्वथा अभाव भए
गेल। माछ सब अथाह जलाशयक अगाध जलमे नुकाए गेल। परन्तु ओतहु समय-समय पर
सूय्र्यक प्रखर किरणक प्रभावें कष्टक अनुभव करैत विक्षिप्त जकाँ इतस्ततः दौड़ए लगैछ।
अथाह जल सँ बहार भए एस संग शतशः जलक उपर मे हेलैत रंग-विरंगक माछ सबहिकएँ
देखि लोक चकित भए जाइत छथि। 'जम्बीर नीर परिपूरित मत्स्यखण्डे"क पूर्वाभूत स्वादक
स्मरण कए "पाठीन रोहिता वाद्यौ नियुक्तौ हव्य कव्ययोः। राजीवान् सिंहतुण्डाँश्च सशल्काँश्चैव
सर्वशः", "मत्स्येष्वपिहि.... सिंह तुण्ड करोहिताः। तथा पाठोत राजीव सशल्काश्च द्विजातिभिः"
इत्यादि मनु एवं याज्ञवल्क्यक वचन कएँ मन मे आनि जीहसँ पानि टप्-टप् चुअबैत कोन प्रकारें
एहि सभक आस्वादन कए सकब तकर उपाय सोचए लगैत छथि। पोखरीक महार पर बेस
जनसमूह एकत्रित भए जाइछ। इहो शोभा धन्य ग्रीष्मक प्रखर किरण जे कहिओ-कहिओ देखए
मे अबैत अछि।



मध्याह्न मे आँखि पसारि रौद दिशि तकने पृथ्वी सँ बहार होइत तरल अग्नि-राशिक
वेगक व्याजे ग्रीष्माकार धारण कएने प्रकृति देवी नृत्य करत देखि पड़ैत छथि। मध्याह्न होएवा
सँ पूर्वहि पशुगण छाहरिक शरण मे जएबाक हेतु उद्यत भए जाइछ। जनबनिहार कार्य करैत-
करैत शीघ्र थाकि जाइत अछि। पहरेक दिन उठितहिं पक्षीगणक चुनचुनाएब, कौआक कटु
आक्रोश, मार्ग मे लोकक गमनागमन क्रमशः कम होबए लगैछ। माल-जाल घरहि मे खुट्टा पर
बैसि पाउज करए लगैछ। नेना-भुटका छाहरि मे गोट-रस, सतघरा, चारि-चारि, लिखौवलि
आदि छाहरिक खेल खेलाए लगैत अछि। काज करैत-करैत शीघ्र लोक थाकए लगैछ ओ
विश्राम दिश सभक ध्यान चल जाइछ।



मझिनी भोजन कए सभ लोक किछु कालक हेतु आवश्यक काजक अभाव मे स्त्रीवर्ग
पाकशालाक काज सँ अवकाश पाबि एकठाम पटिआ ओछाए सुपारी चिबबैत संसार भरिक
उचित-अनुचितक गप्प मे तेना भए लागि जाइत छथि जे हुनका आन कथूक ज्ञाने नहि रहैत
छन्हि। गप्पेटा सुख देनिहार एक मात्र काज हुनका लोकनिक हेतु थिकन्हि। ओहि समय नेनो
लोकनिक खोज पुछारी ओ सभ नहि राखए चाहैत छथि। गप्प सँ सन्तोष पाबि पुनः ओहो
लोकनि किछु विश्राम करिते छथि, अन्यथा पुनः आश्रमक भार उठएबा मे, पाकघरक

आयोजनमे, नेनाभुटका सँ लए नौड़ी-बहिकिरनी धरिकें प्रेम सँ निरालस भोजन करएबा मे कोना
क्षम रहतीहि ई त लौकिक परिस्थिति देखए मे अबैत अछि।



ओम्हर लोकक द्वारा वसन्तक अत्यधिक आदर सँ जरैत पुनि हुनका वर्षारम्भक
शुभोत्सवक उपलक्ष्य मे ऋतुराजक उपाधि सँ विभूषित देखि क्रोधाग्नि सँ प्रथम अपनहि शरीर
कएँ दग्ध करत संसारक प्राणीमात्र पर खिसिआएल ग्रीष्म-ऋतु सबकाँ यथोचित दण्ड देबाक
इच्छा सँ अपन प्रधान मन्त्रो सूय्र्य कएँ सभ सँ प्रथम तदनुकूल आचरण करएक हेतु आदेश दैत
छथिन्हि। जे देखू, जे क्यो प्राणो अपन कत्र्तव्य सँ विमुख होथि तथा अकर्मण्य भए पड़ल होथि
तनिका उचित दण्ड दिऔन्हि। सूर्यो उठतहिं क्रोधे आँखि कें ओ ईषद्रक्त कए सभहिक सम्मुख


उपस्थित भए प्रथम अपन स्वरुपहि सँ सभकाँ भावी भीषणताक सूचना देबए लगैत छथिन्हि।
समस्त संसार हुनक ई प्रचण्ड रूप देखतहिं चकित भए जाइछ। सभहिक ह्मदय थर-थर काँपए
लगैछ जे ने जानि आइ पर सभहिक कल्याण केर विशेष भार रहैछ, शीघ्र अपन नित्यकृत्य
स्नान कए मन्त्रीक उपस्थान, ध्यान ओ जप करए लगै छथि जाहि सँ मन्त्रीक रोषक किछुओ
शमन हो। सूति कए उठितँहि नेना लोकनि कानए लगैछ, बालक सभ खेलाए लगैछ, बटुक
लोकनि स्वाध्याय मे लागि जाइ छथि, गृहस्थ लोकनि गृहक कार्य मे तत्पर भए जाइ छथि, स्त्री
लोकनि आश्रमक कार्य मे लागि जाइ छथि, जन-बनिहार खेतीक कार्य मे व्यस्त भए जाइछ,
चिड़इ-चुनमुनी गीत गाबि-गाबि वा चहचहाइत इम्हर-ओम्हर फुदकए लगैछ, कौआ सभ काँओ-
काँओ करैत अपन आहारक अन्वेषण मे व्यग्र भए जाइछ। गाछ-वृक्ष शीतल बसातें सभकाँ जीवन
दान करए लगैछ, फूल सब विकसित भए अपन अपन सुगन्धिएँ लोक कें प्रसन्न करए लगैछ।
एवं प्रकारें समस्त वि•ामण्डलक प्राणी अपन-अपन कत्र्तव्य मे निरत भए जाइ छथि, जाहि सँ
ककरो आलस्य में पड़ल मन्त्री देखय नहि पाबथि।



अपन राजा ग्रीष्मक आज्ञानुसार सातो घोड़ाक रथ जोति ओहि पर सवार भए संसार मे
के की काज करैत अछि, कें एखनहु वसन्तक गुणगान कए पड़ल अछि तकर निरीक्षण करैत
सूय्र्य एककात सँ दोसर दिसि बिदा होइत छथि। गम्भीर भाव धारण कयने मौन मुद्राहिक द्वारा
सभ काँ अपन राजाक शासनक प्रभाव सँ परिचय करबैत मध्याह्न धरि अपन पूर्ण उत्कर्ष देखाए
सभ काँ कार्य मे लग्न पाबि पुनः पश्चिम दिसि बिदा भए जाइ छथि। हुनक डरहिं छाया रूप मे
सभहिक जे कान्ति क्रमशः क्षीण होइत-होइत लुप्त स्वरूपक धारण करए लागल। मन्त्री काँ
पश्चिम दिसि घूमल चल जाइत देखि लोक कनेक आ•ाासन पबैत अछि। कदाचित् कयो
गुप्तचर जाकए अपराधीक परिगणन मे नाम नहि लिखा देथि। लोक कार्य मे त लगले रहैछ
तथापि प्रातः कालहि सँ अनवरत कार्य मे लागल रहबाक कारणें थाकल जनसमूह किछु कालक
हेतु विश्राम त कैये लैत अछि। किन्तु अधिक आलस्यें कदाचित् कतहु सँ पुनः डाँट ने पड़ए एहि
भयें झट दए पुनि तत्पर भए सभ लोक अपन-अपन कार्य मे लागि जाइछ।



रौद त तेहन होइछ जे ओहि दिसि तकबो दुर्घट, परन्तु काज त माननिहार नहि तएँ
पुनि रौदहि मे सभ घर-बाहर खेत-पथार सभ करितहिं अछि। पश्चिम देश जकाँ मिथिला मे
गरम बसात नहि बहैछ। रौदहुँ मे बसात धरि ठण्ढे बहैछ। पुरिबा अधिक काल हाँइ-हाँइ,
कखनहु मध्यमो वेगें बहिते रहैछ, ततबे कुशल। उत्तर भाग मे हिमालय पर्वतक सानिध्यें अधिक
दिन सूय्र्य अपन मस्तिष्क कएँ उन्नते कएने नहि रहि सकै छथि। सभकाँ 'गौरीशच्र'क लग मे
पहुँचबा सँ पूर्वहि अपन सम्तक काँ नत करए पड़िते छन्हि। सूय्र्यहु कएँ एहि नियमक उल्लंघन
करबाक साहस नहि होइत छन्हि। तें हिमालय दिसि अबैत मेघ हुनके आज्ञा सँ प्रबल भए
सूय्र्यहुक प्रलय किरण कें शमन शीघ्रे कए दैत अछि। तथा रोहिणी मे सूय्र्यक प्रवेश होइतहिं
मेघ झट हुनक तापकेर अवरोध समय-समय पर करए लगैछ। प्रचण्ड तापें किछु जीव-जन्तु
गाछ-वृक्ष एवं घास-पात ह्मदयसँ प्रफुल्लित भए जाइछ। एहि पुण्य भूमिक प्रभावें मिथिलावासीक
समस्त पाप सदा स्वतः क्षालिते रहैत छन्हि।

अतः प्रायश्चित रुपहु मे ककरहु सूय्र्यों दहन रूपी दण्ड नहि दए सकैत छथि। मध्याह्नहु मे
कोकिलक कलकल पञ्चम स्वर सभ ह्मदय कएँ सरस बनबिते अछि। आमक मञ्जरी मे लुबुधल


मृगगण क मञ्जुगान सँ मुग्ध भए सभ ओकरे सूर मे सूर मिलाए आनन्दक महासमुद्र उबड्डब
करैत तरुणातपहु कें बिसरि जाइत अछि।



मिथिला देश 'आमक देश' थिक। सैकड़ो प्रकारक 'सरही' ओ अनेक प्रकारक 'कलमी'
आम एहि देश मे प्रचुर होइछ। प्रत्येक गाम मे दूसय चारिसय-विगहा गाछी रहिते छैक। जाहू
दरिद्र कें अपना गाछी नहि रहैछ, तकरो आमक पूर्ण भोग भेटिते छैक। छोटका लोक मे कहै
छैक--'माघ गुजरे, फागुन मजरे चैत हो टिकुलबा' एहि क्रमें जेठ मे आम मे कोसा भइए छैक।
केनो कोना गाछ 'रोहनियाँ' होइछ से त पकबो करय लगैछ।



आम सन फल दोसर नहि। टिकुले सँ एकर चटनी लोक खाए लगैछ। टिकुला मे कम
अमत होइछ। कनेक आओर पैघ भेला पर भरिवर्षक हेतु एकर 'दड़िमा' आमिल लोक बनबैत
अछि। कुच्चा, आचार सेहो भरि वर्षक हेतु, बनाओल जाइछ। कोसा भेला पर नाना प्रकारक
मसाला दए 'फड़ा' अचार बनाओल जाइछ। एकर रसो मे भिजाए वा ड्डबाए अनेक वस्तुक
अचार बनाओल जाइछ।



वसन्ते ऋतु सँ पुरिबा बसात बेस बेगें एहि देश मे बहैत रहै छैक। तें टिकुला सब खूब
खसैत छैक। नेना सभक ई अपूर्व आनन्दक समय होइछ। टिकुला बीछए मे नेना सभ मे परम्पर
ईष्या स्पर्धा तथा हर्षातिरेक अत्यधिक देखि पड़ैछ। एहि पाछाँ ओ सभ भोजनो करब बिसरि
जाइछ। भरिदिन ओ साँझ तथा रतिवासो मे ओ सभ दौड़ि कए गाछी जाइछ तथा सभ सँ पहिने
रोहनिए गाछ तर जाइछ जाहि मे कदाचित् गोटेको पाकल आम भेटि जाय जखन आम पाकए
लगैछ तखन त की नेना, की चेतन, की बूढ़ सभ हाथ मे जाबी नेने आम-संग्रहक हेतु गाछी मे
भरिदिने नहि, अपितु राति ओक दौड़िते रहै छथि। सुन्दर क मचान ओ खोपड़ी लोक बन्हैत
अछि। रातिओ क गाछी सुन्न नहि रहए देल जाइछ। निबिड़ अन्धकार मे आमक भट-भट खसब
केहन चित्ताकर्षक होइछ से त बगबारे लोकनि बुझैत छथि। डोली अएला पर जे उत्साह ओ
आनन्द बगबार कें होइछ तकर वर्णन के कए सकत। तावत बर्षाक आरम्भ भए जाइछ। वर्षाक
जलें तृप्त आम मे गमी नहि रहैछ। वर्षाक चोटें खसैत आम कें बीछि-बीछी बूलि-बूलि कए
खाइत बगबार सभ स्वर्गीय आनन्दक अनुभव करैछ। एकर हेतु केहनो कष्ट कें लोक कष्ट नहि
बुझैछ। मुसलाधार वर्षा होइत रहैछ, ठनका ठनकैत रहैछ, तैओ नेना सँ बूढ़ सभ गाछीक आन्द
मे मग्न रहै छथि। हिड्डला पर झुलैत मचकी परक मलार गाबि-गाबि सोक मस्त रहैत अछि।
राति क बगबर सभ सुन्दर मलार ओ बरहमासा गाबि-गाबि कोकिलक स्वर कें स्तब्ध कए दैछ।
खएबा सँ बेसी जे आम होइछ तकर अमोट स्त्रीवर्ग दैत छथि। आम कें धोए खोइचा छोड़ाए
ऊखरि मे मूसर सँ कूटि ओकर रस कें रौदमे पसारि--पसारि सुखाबए मे गृहिणी लोकनि व्यस्त
रहै छथि। ई अमोट भरि वर्ष लोक खाइत अछि। एहि मे उएह सौरभ, उएह माधुर्य पश्चातो
रहैछ। एहि प्रकारें एकमात्र आम सँ कतेक लोक कें दू मास त जीवन-निर्वाह होइते छै, परन्तु
भरिओ वर्ष अनेक प्रकारें एकर उपयोग कए लोक आनन्द प्राप्त करैत अछि।



ई आनन्द त ग्रीष्म ऋतए मे मिथिला देश मे लोककें अनायस भेटत छैक। एहि देश मे
वर्षाम आगमन शीघ्रे भए जाइछ तथा आमक विनोद मे रहबाक कारणें लोक कें गर्मीक तेहन


अनुभवो एहि ऋतु मे नहि होइछ। वस्तुतः ग्रीष्म ऋतु मे मिथिला मे गर्मीक तेहन अनुभव नहि
होइछ जेहन वर्षा मे वर्षा बन्द भेला पर, चतुर्दिक्षु गुम भए गेने। धन्य थिक ई ऋतु !



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श्रमक महत्व

ज्यो0 पं0 श्री बलदेव मिश्र



समाजक कत्र्तव्य थिकैक जे लोक कै श्रमशील बनाबै। जखन हमरा लोकनि देखैत छी
जे प्रतिदिन सूर्य चन्द्र उदित भै कै चलैत छथि, नदी अपन वेग सँ बहैत छथि, वायु बहि रहल
छथि तखन हमरा लोकनि कें जानैक चाही जे हमरहु लोकनि अपन कत्र्तव्य कें करी। अपन
शक्तिभरि श्रम करब सभक कत्र्तव्य थीक से नहि करबे आलस्य थिक और गत्र्त मे पड़ब थिक।
समयक परिस्थितिक अनुसारो समाज मे गुण-दोष अबैत छैक तथा किछु दिन पूर्व समाज एहेन
मन्तव्य रखने छल जे शारीरिक श्रम सभक कत्र्तव्य नहि थीक। केवल अर्थहीन जातिहीन लोके
शारीरिक परिश्रम करैत छल। अर्थ सम्पन्न तथा जाति महत्त्वक लोक शारीरिक श्रम करब
अपमानक कार्य बुझैत छलाह तथा एहि सँ अपन मर्यादाक हीनता बुझैत छलाह। मिथिलादेशक
कुलीन लोकक विषय मे तँ एतेक दूर धरि कहल जाइत अछि जे शौचक निमित्त अपना हाथै
लोटा मे पानि लै जाएब, स्वयं इनार सँ जल खींचि कै स्नान करब, अपन धोती खीचब इत्यादि
शारीरिक कार्यहुक संपादन व्यक्यन्तर सँ संपादन करबैत छलाह तथा औखनधरि बहुत लोकक
निर्वाह एहि प्रकार सँ होइत छन्हि। धन रहने सेवाक कार्य आनक द्वारा विधि भेलहु पर अपन
शारीरिक कार्य कै स्वयं करबा मे अपमान करब एक पैघ दोष थिक जाहि सँ सभाज कैं बचवाक
चाही। समाजक ई कत्र्तव्य थिकैक जे एतादृश विकृत बुद्धिक निन्दा करै और स्वयं शारीरिक
कार्य कैनिहार लोकक प्रशंसा करैं। शारीरिक श्रम कैंनिहार लोक कैं हीन दृष्टि सँ नहि देखै
प्रत्युत प्रत्येक व्यक्ति कैं श्रमशील बनेबाक हेतु यत्न करै। अपन साध्यभरि शारीरिक श्रम करब
सभक कत्र्तव्य थिक हेतु जे भगवान जैह अंग जैह शरीर श्रमशील व्यक्ति कैं देने छथि सैह सभ
वस्तु बिना कार्य कैने आराम सँ भोग कैनिहार व्यक्ति क छन्हि तैं एहि आरामतलब लोक कैं
बुझबाक चाही जे श्री भगवान्क एहेन आदर्श छन्हि जे सब लोक शारीरिक श्रम करथि। अवश्य
हमरा लोकनिक समाज मे एहन लोक अनेक छथि जनिक शारीरिक श्रमक अपेक्षा बौद्धिक
श्रमहिक प्रयोजन देश कैं छैक तैं हुनक बौद्धिक श्रमे कत्र्तव्य महत्वक थिक किन्तु हुनकहु
लोकनि कें शरीर स्वस्थ तथा कार्योन्मुख रखवाक हेतु शारीरिक श्रमक आवश्यकता रहैत छन्हि
और तैं ओ लोकनि किछु शारीरिक श्रम करितहि छथि तैं शारीरिक श्रम करबाक आनुषर्ज़िं्क
फल ई छैंक जे शरीर सँ स्वस्थ रहब तैं बहुत ज्ञानवान लोक भिन्न-भिन्न प्रकारक शारीरिक
श्रमक कार्य करैत छथि, क्यो जारन चीरैंत छथि, क्यो बगीचा मे जमीन कोड़ैत छथि, क्यो
कमारक काज कैं करत छथि, क्यो दौड़ैत छथि, क्यो आसन लगवैंत छथि, क्यो बहुत घूमैत
छथि, क्यो दण्ड-वैसक करैत छथि, तै शरीर कैं स्वस्थ रखबाक हेतु शारीरिक श्रम आवश्यक
छैक।



हमरा लोकनिक देश मे अन्न-वस्त्रक अल्पता अछि तकर एक ई बड़ पैघ कारण अछि जे


सब लोक एहि अन्न-वस्त्रक उत्पत्तिक हेतु प्रयत्न नहि करैत छी जे सभक कत्र्तव्य थिक जखन
कि अन्न-वस्त्रक बिना क्यो एहि संसार मे रहि नहि सकैत छी। मनुष्यक आधा स्त्री समाज,
नेना, वृद्ध, रुग्ण कैं तँ एहि कार्य सँ छुटकारा छन्हिहै शेषो जे लोक बचैत छथि ताहि मे बहुत
थोड़ लोक अन्न-वस्त्रक उत्पत्ति कार्य कैं करैत छथि अतएव हमरा लोकनिक अनेक अंश भूखल
तथा नांगट रहि जीवन विनवैत छी। यदि हमरा लोकनि सब गोटै एहि कार्य मे भाग ली तँ
अन्न-वस्त्रक कष्ट देश कै नहि रहै। अन्न-वस्त्रक सुविधा प्राप्ति मात्रे मनुष्य जीवनक लक्ष्य नहि
थिक, मनुष्य जीवनक लक्ष्य एहि सब सँ बहुत महान अछि किन्तु हमरा लोकनिक अनेक
लोकक सब शक्ति अही आवश्यक दुनू वस्तुक प्राप्ति मे जाइत अछि, ई शक्तिक अपव्यय एहि
हेतु भै रहल अछि जै हेतु हमरा लोकनि सब गोटैं शारीरिक श्रम नहि करैत छी। वस्त्रक पूर्ति
मे सहायता हमरा लोकनिक स्त्री समाज चर्खा तथा टकुरी काटि कैं अनेक रूपैं कैं सकैंत
छति। पूर्व मे एहि देशक सैह व्यवस्था छल। कतहु यान्त्रिक मिल

पूर्व मे नहि छलैक। पुरुषगण खेत मे बाड0 उपजाय तूरक अभाबक मोचन कें सकैंत छथि और
खेत मे शारीरिक श्रम कें प्रचुर मात्रा मे भिन्न-भिन्न प्रकारक अन्नक सृष्टि कै सकैत छथि।
तत्काल जमीन कोड़वाक हेतु ट्राक्टरक प्रयोग देखैत छी, एहि सँ पूर्व भारतवर्षक बुद्धिमान
लोकनि बड़द तथा हर सँ पृथिवी विदारनक काज कैं करैं लगलाह। परञ्च विचार करबाक
थिक जे जखन हरक प्रचलन नहि भेल छलैक तखन तँ लोक स्वयं जमीन कोड़ि कैं अन्न
उपजावैत होएताह। औखन एहेन लोक जनिकाँ हर-बरदक प्रबन्ध नहि छन्हि पृथिवी कै कोड़ि
कै ताहि जमीन मे अन्न उपजबैत अछि। जँ सब लोक जे आन कार्य मे नियुक्त नहि छथि एहि
कार्य कैं करथि तँ देश मे अन्नक अभाव नहि रहै।



अंगरेज कवि टेनीसन एक ठाम कविता मे लिखने छथि जे संसार मे पुरान रीति रिवाज
हटैत छैंक और तकर स्थान मे नवीन रीति-रिवाज अधैत छैक ई विषय सत्य थिक किन्तु सर्वत्र
ई परिवत्र्तन मंगलकारक सुखदायक नहि होइत छैक। हमरा लोकनिक देशमे श्रमक महत्व छूटि
गेलैक और तकर स्थान मे अमीरी अयलैक जकर कुफल हमरा लोकनि भोगैत छी। यम, नियम
दुटा आवश्यक वस्तु छैक जाहि मे यम कै प्राधान्य छैक, नियम गौण छैक। पूर्व मे सैह छलैक !
तत्काल यमक प्राधान्यक स्थान मे नियमहिक प्राधान्य छैक। यम थिक सत्य बाजव, क्रोध नहि
करव न्यायवान् होयब इत्यादि। नियम थिक स्नान, पूजा, शौच मे निरत होएव। पूर्व मे लोक
विद्या पढ़ैत छलाह, ज्ञान तथा धर्मक निमित्त, एखन विद्या पढ़ैत छथि गुजरक निमित्त, अर्थक
निमित्त। एवं अनेक वस्तुक परिवत्र्तन कुफलहिक हेतु भेल छैक। एहि ठामक विचार केवल एही
विषय पर आधारित अछि जे हमरा लोकनि शारीरिक श्रम क हेय तथा अपमानकारक बुझि कैं
श्रमकत्र्ता कै हेय दृष्टि सँ देखि कै स्वयं जगत मे हेय भै गेल छी।



हमरा लोकनिक सोझा मे इहो विषय उपस्थित अछि जे एकठाम लोक बहुत श्रम सँ
पचासो हाथ नीचा मे स्थित पानि सँ खैत क सिञ्चित कै तकरा जोति कोड़ि पुनः सिञ्चित कै
कठिन परिश्रम सँ अन्नक उत्पत्ति करैत छथि जखन कि अनेक स्थानक लोक कै अल्पायासहि मे
पृथिवी सँ अन्न उपजैवाक सौविध्य छन्हि तथापि समुचितो अल्प प्रयत्न नहि करैत छथि। एहि
विषमता कै दूर करवाक थिक अर्थात् सब लोक कै श्रमशील होएवाक थिक। स्वयं श्रम करव
गौरवक विषय थिक। नेपोलियन बोनापार्ट जखन सैनिक शिक्षा मे बहाल भेलाह ताहि समय मे


फ्रान्स देशक सैनिक शिक्षार्थी अमीरी जीवन बितबैत छलाह। नेपोलियन ताहि जीवनक विरोध
कैल ओर प्रत्येक सिपाही सैनिक कै अपन सब कार्य स्वयं करबाक थिकैन्ह तादृश प्रस्ताव
कारगर कराओल। ओ स्वयं तँ श्रमशील छलाहे। प्रसिद्ध देश-सेवक पूनाक गोखले अपनहि जल
भरि क स्नान करथि और अपन धोती स्वयं खीचथि। गाँधी जी अपन खादीक वस्त्र मे साबुन
लगाय कै स्वयं खीचैत छलाह तै अपन शारीरिक कार्यक हेतु श्रम करव दोष नहि थिक,
आवश्यक कत्र्तव्य थिक। सारांश ई थिक जे केवल अपन शारीरिक सौविध्यक हेतुए नहि अपन
परिवारक अपन गामक अपन देशक हेतु कोनो प्रकारक शारीरिक श्रम कैनिहार लोक कै हेय
दृष्टि सँ नहि देखल जाय। किन्तु एहि दृष्टि सँ देखल जाय जे वास्तव मे ओ लोकनि समाजक
उपकारक थिकाह। अवश्य लोक उत्तम विचार सँ उत्तम काज कै कैला सँ उत्तम गुण विभूषित
भेला सँ पैघ होइत छथि परन्तु केहनो पैघ व्यक्ति किएक नहि होथि यदि हुनका शारीरिक श्रम
सँ घृणा छन्हि वा शारीरिक श्रम कैनिहार कै नीच दृष्टि सँ देखैत छथि तखन आ व्यक्ति
प्रशंसाक योग्य नहि रहि जाइत छथि हेतु जे श्रमशील लोकक श्रमहि सँ देश और संसार चलैत
अछि तँ श्रमक कार्य कै हीन दृष्टि सँ देखब समुचित नहि थिक।



अवश्य एक समय छलैक खखन समाज अपन प्रत्येक वर्ग कै भिन्न-भिन्न कार्यक हेतु
निर्दिष्ट कै देने छल और प्रत्येक वर्ग अपन अपन व्यवसाय मे रहिए कै प्रसन्नता पूर्वक जीवन
व्यतीत करैत छल ताहि समय मे एक वृत्ति मे दोसर प्रवेश नहि करैत छलैक और जँ केओ से
करैत छल तँ तकर निन्दा होइत छलैक,से व्यक्ति

समाज सँ बहिष्कृत कैल जाइत छल। तत्काल समस्त संसार एक प्रदेश भै गेल अछि तै कोनो
प्रदेश, कोनो देश, कोनो समाज आब अपन पूर्वक लीख पर चलत से विषय कठिन छैक हेतु जे
सभक व्यवसाय सब कै रहल अछि तै एखन जाहि व्यवसाय सँ जनिक योग क्षेम चलैत छन्हि
ताहि व्यवसाय कै से करैत छथि फलतः इहो एक श्रमक महत्व कै देखबैत अछि जे सब लोक
श्रमशील होवें चाहैत छथि।



तत्काल संसार मे बड़ पैघ परिवत्र्तन सब भै रहल छैक। लक्षेश लोकनि साधारण लोक
मे परिणत भै रहलाह अछि। साधारण लोक उच्च पंक्ति मे जाय रहल छथि एकर प्रत्यक्ष फल
जे सकल साधारणक ऊपर पड़ल अछि ओ ई थिक जे सब व्यक्ति श्रमक मूल्य क बुझै लगलाह
अछि। पराश्रितक कष्टक अनुभव करै लागल अछि तै एहि प्रकाण्डक उत्तम फल यैह छैक जे
सब मे समता बुद्धि आएब, छोट-पैघक भावक त्याग तथा सब कै शारीरिक श्रमक सार्थकताक
ज्ञान भेल छन्हि जे बड़ आवश्यक विषय छल। विना एहि महत्व परिवत्र्तनक एहि सूक्ष्म विषयक
ज्ञान लोक कै होएव कठिन छयन्हि किन्तु ई•ार स्वयं एहेन जगतक परिवत्र्तन कैने छथि जाहि
मे एहि आवश्यक मूलभूत विषयक ज्ञान सब कै भै गेलन्हि।



.. .. .. ..



निबन्धक स्वरूप-विवेचन

कुमार श्री गंगानन्द सिंह




कोनो विषयक प्रगाढ़ अध्ययनक उपरान्त ओकर प्रत्येक अंगक सूक्ष्म विश्लेषण कय
मौलिक रूप मे उपस्थित करबा कै हमरा लोकनि साधारणतः निबन्ध कहि सकै छी। ओना त
पत्र-पत्रिकादि मे प्रकाशित लेख, प्रासंगिक लिखित भाषण एवं गूढ़ ग्रन्थक-परि चयात्मक भूमिका
आदिहु मे अनेक एहन रचना उपलब्ध होइछ जकरा हमरा लोकनि एहि श्रेणी मे आनि सकैत
छी। यावत पाश्चात्य साहित्य सँ हमरालोकनि कें परिचय नहि छल तावत हमरालोकनि कें
निबन्ध सँ ओहि प्रकारक ग्रन्थक बोध होइत छल जे मोटा-मोटी आइ-काल्हि अंग्रेजी शब्द
'कोड' सँ होइत अछि। पहिने हमरालोकनि देश मे कोनो विषयक विशद व्याख्या करैत, ओहि
सँ उत्पन्न भेनिहार शंका सभक समाधान करैत मान्य निर्णय कें निर्धारित कय बन्धेज करब
'निबन्ध' कहबैत छलैक। एहि तरहक निबन्ध रचना कैनिहार मिथिला मे अनेक भेलाह परन्तु
हुनक रचना संस्कृत भाषा मे छैन्ह। मैथिली मे एकोटा नहि। परन्तु आब निबन्ध शब्दक व्यवहार
प्रायः ओहि अर्थ मे कयल जाइत अछि जाहि मे अंगरेजी शब्द 'एसे'क। रचयिताक विद्या, बुद्धि
एवं अनुभव आधार कोनो निबन्धक स्तर निरूपित करैछ। मैथिली मे उनैसम खृष्टाब्दक अन्तिम
भाग सँ एहि प्रकारक निबन्ध उपलब्ध होइछ। यद्यपि आन अनेको भाषाक अपेक्षा एहि क्षेत्र मे
हमरा लोकनि बहुत पछुआयल छी तथापि मौथिली साहित्य कोष एहि प्रकारक रचना सँ रिक्त
नहि अछि।



हम आरम्भहि मे कहलहुँ अछि जे निबन्धक प्रथम आधार शिला छैक प्रगाढ़ अध्ययन।
अध्ययन मुख्यतः दू प्रकारे भय सकत छैक प्रथम निबन्धक विषयक सम्बन्ध मे जे सामग्री छैक
तकर यथा संभव ज्ञान एवं ओहि विषयक सम्बन्ध मे जतेक विचारधारा छैक तकर परिचय। और
दोसर, निबन्धक विषयक सम्बन्ध मे अपन प्रत्यक्ष सम्पर्क सँ प्राप्त अनुभव। निबन्धक रचना-भूमि
छैक, उपलब्ध ज्ञानक (जाहि सँ विषयक प्रत्येक अंग स्पष्ट भय गेल हो तकर) सूक्ष्म विश्लेषण।
ई बहुत किछु लेखकक प्रतिभा, निष्पक्षता तथा सत्यप्रियता और निर्भयता पर अवलम्बित अछि।
और ओकर रचना पद्धतिक आवश्यक उपादान छैक मौलिकता। 'मौलिकता' शब्दक प्रयोग हम
व्यापक अर्थ मे करैत छी। एहि मे तर्क, विचार, शैली, वस्तुकें निरूपित करबाक कौशल आदि
सब विषय सम्मिलित अछि। निबन्ध छोट हो वा पैघ, जाहि मात्रा मे उपर्युक्त लक्षण ओहि मे
परिलक्षित

होइ छैक ओकरे अनुपात मे ओकर मूल्यांकन होइछ।



हमरा बुझने केवल पूर्व कथित वस्तुसभक उल्लेख कय देब निबन्ध रचना नहि थीक;
केवल कल्पनाक हिलोर मे उबडुब करैत भावावेश मे प्रवाहित भय जायब निबन्ध नहि थीक।
केवल शब्दाडम्बर वा वाक्य रचना चातुरी के हमरालोकनि निबन्ध नहि कहि सकै छी; परन्तु ई
निर्विवाद जे एहि सभ सँ हमरालोकनि अपन निबन्ध रचना कें अलंकृत कय सकै छी। एहि
सभक उपयोगिता शरीरक सुन्दरता बढ़ैबा मे अछि। हमरा जनैत पूर्व कथित वस्तु सभक
उल्लेख करब इतिहास-क्षेत्र मे, कल्पना शब्द वा वाक्यविन्यास, काव्य, कथा आदिक क्षेत्र मे
विशेष उपयोगी सिद्ध भय सकैछ।



निबन्धक क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत छैक। संसार मे प्रायः कोनो एहन वस्तु नहि छैक जाहि
पर निबन्ध नहि लिखल जा सकैत छैक। परन्तु निबन्धक पृष्ठभूमि छैक साधना, तपस्या। जाहि


लेखकक जेहेन साधना, ताहि लेखकक निबन्ध कें ततेक मान्यता, ततेक स्थायित्व। परन्तु
निबन्ध-लेखक कें ई दृष्टि मे राखब उचित जे जाहि युगक ओ छथि ओहि युगक वातावरणक
अनुरूप चित्रण करथि। अन्यथा, वास्तविकता सँ पृथक भय ओहि मे शक्ति नहि रहतैक।
अतीतक सार्थकता छैक वत्र्तमान कें प्रेरणा प्रदान करै मे और भविष्योक सार्थकता छैक वत्र्तमान
कें नियन्त्रित करै मे। अतएव वत्र्तमाने हमरालोकनिक साध्यवस्तु थीक; ओकरे समस्याक चर्चा
रोचक भय सकै अछि; ओकर चिन्तन प्रभावोत्पादक भ सकैछ।



.. .. .. ..





आर्य क आदि-भूमि आर्यावत्र्त

अच्युतानन्द दत्त



सृष्टि क रहस्य सदा सँ अज्ञेय रहि आएल अछि एवं रहत अल्पबुद्धि मनुष्य कहां धरि
अपन कल्पना क बल पर एकर रहस्यो„âदन कए सकैत अछि? प्रकृति क अजेय एवं दुज्र्ञेय दुर्ग
क भेदन सामान्य काय्र्य नहि, तथापि सातन काल सँ बड़े-बड़े विद्वान् लोकनि एहि विषय पर
अपन-अपन मत प्रदर्शित करितहिं आएल छथि।



वत्र्तमान वैज्ञानिक युग पाश्चात्य सभ्यता क भित्ति पर निर्मित भेल अछि। एहि युग क
प्रभावें प्राचीन कालक निर्णीत एवं मान्य वस्तुक क्रम-क्रम सँ बहिष्कार भए रहल अछि। वत्र्तमान
मनीषि-मंडल प्राचीन कालक कथा-साहित्य, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि कें 'मिथ' (गप)
सिद्ध करबा मे सतर्क देखता जाइत छथि। जे हिनका लोकनिक बुद्धि मे नहि अबैत छन्हि
तकरा एकदम फूसिफाटाका बुझैत छथि। फल-स्वरूप प्राचीन धम्र्म ओ आचार-विचार पय्र्यन्त
पर कुठाराघात भए रहल अछि।



एकेटा विषय क समीक्षा कएने हमर उक्ति क समर्थन भए जएत। वेद, इतिहास, पुराण
आदि भारतीय ग्रन्थ एवं यूनानी आदि विदेशियो लोकनि क प्राचीन ग्रन्थ एक स्वर सँ स्वीकार
कए गेल छथि जे सृष्टि क उत्पत्ति भारतहि मे भेल एवं आर्य लोकनि सभ क जेठ भाए छति।
आर्य लोकनि क नित्य वास-स्थान भारतवर्ष थीक। एहि देश अर्थात् भारत मे रहनिहार आर्य एवं
इतर स्थान क रहनिहार 'म्लेच्छ'। कहबैत छथि। यथा--"उत्त शूद्रे इत आय्र्ये"।
"म्लेच्छदेशस्त्वतः परम्"। इत्यादि शतशः प्रमाण प्राचीन ग्रन्थ सभ मे भेटैत

अछि।



किन्तु आइ कतिपय प्रमाण द्वारा ई सिद्ध कएल गेल अछि जे आर्य भारत क आदि
अधिवासी नहि थिकाह--ओ बाहर सँ एतए आएल छथि एवं एहि देश क आदिवासी कोल, भील,
द्राविड़ प्रभृति अनार्य लोकनि कें पराभूत कय एकरा अपन वासस्थान बनौलन्हि तथा एकर नाम
'आर्यावत्र्त' रखलन्हि। पश्चात् ओ दक्षिणापथगामी भेलाह। इएह सिद्धान्त--इएह थ्योरी हमर


बालक लोकनि अपन-अपन स्कूल मे पढ़ैत जाइत छथि। तखन भारत क प्रति हुनका लोकनि कें
स्वाभिमान क ध्यान कोना होइन्ह?

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। - म्लेच्छ शब्द प्राचीन ग्रन्थ में घृणाव्यञ्जक नहि, प्रयुक्त आई जाहि स्थान मे 'विदेशी
और मुल्क क बाशिन्दा' तथा 'फौरनर्स'क व्यबहार होइत अछि ओही स्थान मे प्राचीन काल मे
'म्लेच्छ' शब्द म्यवह्मत होइत छल।
-लेखक

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भारतमे जखन अनार्य लोकनि छलाह, तखन ओ लोकनि अपन देशक कोनो नाम रखने
छलाह वा नहि? नदी, पहाड़, वन, ग्राम, एहि सभ क अनार्य-प्रदत्त की नाम छल वा अनार्य क
समय मे ई सभ किछु छले नहि? आर्य लोकनिक अबितहिं की नदियो, पहाड़ आदि एहि देश मे
आएल? जाहि द्राविड़ी सभ्यता क अनुमान आइ 'मांटोगोमरी' एवं 'महेञ्जोदारो' क खनन सँ
प्राप्त प्राचीन चिन्ह क बल पर कएल जाए रहल अछि, की ताहि सभ्य द्राविड़ क एतद्विषयक
एकोटा प्राचीन साहित्य नहि अथवा आर्य लोकनि विजयोन्मादें अपन विजितक समस्त चिन्ह
लुप्त कए अमेरिका क रेड-इंडियन क तुल्य बनाएँ अपन वर्वरता क परिचय देलन्हि? जखन
आइ हुनक वंशधर सभ स्थान-स्थान पर पाओले जाइत छथि, ओ अपन स्मृति-स्वरूप प्राचीन
चिन्हक रक्षा मे सर्वथा अक्षम रहितथि, ई नहि कहल जाए सकैत अछि। एहि सँ ई निष्कर्ष
बरहाइत अछि जे भारत क आदि निवासी अनार्य नहि थिकाह। तखन तथाकथिन अनार्य क
वंशधर के थिकाह एकर विवेचन पश्चात् करब।



आर्य लोकनि उत्तरी ध्रुव-प्रदेश सँ आएल छलाह, (जाहि बात कें लोकमान्य तिलक
सप्रमाण सिद्ध कए गेल छथि) एतेक टा विशाल भू-भाग होइत एकदम भारत पहुँचि गेलाह--
कतहु नहि रुकलाह। बीच मे कोनो भागक नाम 'आर्यवत्र्त' नहि राखि एही भारत पर दया
कऐलन्हि? एतेक दूर क अभियान मे हुनका लोकनि कें बोलो नहि फूटि सकलन्हि जे ओ संसार
क सब सँ प्राचीन साहित्य ऋग्वेद क निम्र्माण करितथि? किछु काल क हेतु लोकमान्य क ई
उक्ति मानि ली जे ऋग्वेद क एकाध मन्त्र क, उत्तरीय ध्रुवमे रहितहि काल आर्य ऋषि, निम्र्माण
कएने छलाह, तथापि एहि सन्देहक निराकरण नहि भए सकैत अछि जे आर्य ऋषि सर्वप्रथम
सरस्वती क मूल प्रदेश मे पवित्र वेद-ध्वनि किऐक कएलन्हि? जै ओहि नदी-तट पर हुनका मुँह
सँ वाणी विनिर्गत भेल तै वाग्देवतहि क नाम 'सरस्वती' एवं तकर स्मारक ओहू नदी क नाम
'सरस्वती' ! की उत्तरीयो ध्रुव मे आर्य क एहेन स्मारक कतहु छल वा सरस्वती क मूल प्रदेश
पय्र्यन्त अबैत काल धरि आर्य लोकनि मूके छलाह? जे हिम-प्रलय आर्य लोकनि कें उत्तरी ध्रुव
सँ खेहाड़ि भारत मे आनि पटकलक तकर चर्चा प्राचीन वेदहु मे नहि? "किमाशचर्यामतः-परम्
?" जाहि मूल भूमि सँ ओ लोकनि अन्यत्र पड़एलाह, तकरा तँ अवश्ये ओ 'पितृ-प्रदेश' कहितथि


! सत्यवादी आर्यगण ओहि मूलभूमि क प्रति कहियो उपेक्षाभाव नहि रखितथि। किन्तु हमरहि
लोकनि नहि, विदेशियो लोकनि, जाहि आर्य क सत्यवादिता क गुण क लोह मानि नेने छथि,
ओहि आर्य क अमर लेखनी सँ निःसृत ग्रंथावली स्पष्ट घोषित करैत अछि जे आर्य लोकनि
भारतवर्षहि आदिवासी थिकाह। उक्त शंका आर्यक अन्यान्यो मूलभूमि क प्रति उठाओल जाए
सकैत अछि।



सृष्टि क उत्पत्ति पर एक बेरि विचार कए लेब आवश्यक। संसार क प्रायः समस्त
प्राचीन धम्र्मग्रंथ एहि विषय पर एकमत अछि जे सृष्टि क आदि उत्पत्ति भारतहि क कोनो प्रान्त
मे भेल अछि। 'मनु-शतरूपा' वा हजरन-आदन', 'हजरत हौआ' वा'आदम-ईव' वा 'मैन्यूअस',
जे संसारक मानव जातिक आदि माता-पिता मानल जाइत छथि, सृष्टि-उत्पत्ति क कार्य एशिया
क कोनो दक्षिण प्रान्त मे (सम्भवतः भारतवर्षहि मे) कएलन्हि। कारण महारानी एलिजाबेथक
समसामयिक इंगलैण्डक प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर वाल्टर रैले अपन 'संसार क इतिहास' (क्तत्द्मद्यदृद्धन्र्
दृढ द्यण्ड्ढ ज़्दृद्धथ्ड्ड) मे स्वीकार कए गेल छथि जे आदि सृष्टि क उत्पत्ति बारतवर्षहि मे भेल अछि।
राजस्थान क रचयिता कर्नल टॉड लिखने छथि जे संसार मे भारत क विन्ध्याचलक समीप क
अतिरिक्त आदि सृष्टि-स्थान क चिन्ह कतहु नहि पाओल जाइत अछि। जे लोकनि कहैत छथि
जे आर्य लोकनि उत्तर सँ, चाहे ओ उत्तरी ध्रुव सँ आयल होथु वा युराल झीलक निकटवत्र्ती
प्रदेश वा मध्य एशिया सँ भारत मे पदार्पण कएने होथु, हुनका लोकनि कें भारतहि मे बलवान्
अनार्य लोकनि सँ भिड़न्त भेलन्हि--ओतेक टा विशाल भू-भाग पार कएल-बीच-बीच मे हुनकहि
सँ शाखा-प्रशाखा फूटैत गेल-परन्तु कतहु कोनो लोक सँ आर्य लोकनि क भेंट नहि भेलन्हि।
पता नहि, यूरोप आदि गेनिहार आर्य--शाखा कें कोनो अनार्य वा आन जाति सँ भेंट भेल होइन्ह
वा नहि। अतएव हुनको लोकनि क मतें आदि सृष्टि भारतहि मे भाल छल छल। डार्विन साहेब
अफ्रिका क पूर्वीय उपकूल, एवं एकटा अओर कोनो पाश्चात्य विद्वान ऑस्ट्रेलिया क उपकूल मे
आदि सृष्टि क स्थान मानि गेल छथि।



प्राकृतिक दृष्टि सँ भारत क दुइ भाग अछि--उत्तर भारत एवं दक्षिणापथ। विन्ध्याचल
एकर विभाग-रेखा थीक। भूगर्भशास्त्रज्ञ-वेत्ता लोकनि प्रबल प्रमाण उपस्थित कए सिद्ध कए
चुकल छथि जे उत्तर भारत दाक्षिणात्यक अपेक्षा नवीन अछि एवं विन्ध्याचल हिमालय क जेठ
भाए थिकाह। चाहे जे हो, परन्तु वेद आदि प्राचीन ग्रन्थ सँ सिद्ध अछि जे गंडक क पूर्ववती
प्रदेश--'मिथिला' पूर्व मे दलदल छलि। आर्य लोकनि अग्निदेव क कृपा सँ एहि मे बसलाह।
अतएव ई मिथिला पूर्व मे प्रायः समुद्र मे छलो हो तँ कोनो आश्चर्य नहि, अस्तु। सुप्रसिद्ध
पुरातत्त्वविद् महामहोपाध्याय स्वर्गीय काशीप्रसाद जायसवालजी क मत अछि जे विन्ध्याचल
प्रान्त क अमरकण्टक आदि स्थान मे एहेन चिह्न पाओल जाइत अछि, जे वत्र्तमान सृष्टि मे
नहि, पूर्वतन सृष्टि मे, छल हो। ओ ईहो कहैत छथि जे प्रलय क धक्का सँ बाँचि गेनहि एकर
नाम 'अमरकण्टक' सिद्ध अछि।



प्रलय सँ पूर्व संसारक मानचित्र कोनो भिन्ने प्रकारक छल। किन्तु ओ कोन प्रकारक
छल, ई कहब कठिने नहि, प्रत्युत असम्भव। बहुत सम्भव जे कमलक पात सन छल हो। पुराण
मे, पाद्म कल्प प्रसंगे, एहि बातक सूक्ष्म ध्वनि भेटैत अछि। आर्य लोकनिक आर्यवत्र्तहुक मानचित्र


आने प्रकारक छल। जे वैदिक धम्र्म-कम्र्मानुयायी छलाह ओ आर्य एवं एहि सँ जे विरुद्धाचारी
छलाह ओ असुर वा दैत्य कहबैत छलाह। दूनू गोटा मे परस्पर घोर संघर्ष होइत छल। आइ
यूरोपक इतिहास मे जे क्तद्वदड्डद्धड्ढड्ड न्र्ड्ढठ्ठद्धद्म' ध्र्ठ्ठद्ध क उल्लेख अछि तँ ओहू दूनू मे शतवार्षिक
युद्ध भेल छल ।। दूनू गोटे--आर्य एवं असुर पड़ोसी छलाह एवं हुनका दूनू गोटाक वासस्थल मे
कोनो समुद्र आदिक व्यवधान नहि छलन्हि एवं प्रायः दक्षिण भारत, अफ्रिका, ओ ऑस्ट्रेलिया एके
छल ! जहिना उत्तर भारत समुद्र-मग्न कहल जाइत अछि तहिना वत्र्तमान एटलांटिक महासागर
कहियो भू-भागे छल। ई कहल जाए सकैत अछि जे काल-क्रमें कोनो एहेन प्राकृतिक कोप भेल
जे एकटा विशाल भू-भाग जलमग्न भए 'एटलांटिक' महासागर बनल। दैत्य लोकनिक विशाल
वैभव जलसात् भए गेल। संसारक प्रायः समस्त धम्र्मग्रन्थ कोनहु-ने-कोनहु रूपें एहि प्रलयक
चर्चा करबे कएलक अछि। चाहे ओ मनु वा म्यूनियसक प्रलय हो वा नूह क। वत्र्तमान सृष्टिक
आदि रूप ओही ठाम सँ उठाओल जाए सकैत अछि। जाहि असुर वा दैत्य क वर्णन वेदादि
ग्रन्थ मे पाओल जाइत अछि, ओ जातिए अपन सम्पूर्ण वैभव तथा निशान-पताक संगहि 'प्रलय-
पयोधि' क जल मे मग्न भए गेल। किछु वत्र्तमान एतिहासिक ओही जाति क वंशधर कें कोल-
भील आदि बनबैत छथि।



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। "देवासुरमभूद्युद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा"---मार्कण्डेय पुराण।

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'प्रलयपयोधि'क जल दैत्य लोकनिक सँ सर्वनाशे कए देलक, किन्तु आर्यो लोकनिक
कम क्षति नहि कएलक। ओ लोकनि, जाहि मे बहुसंख्यक डूबिए गेलाह, जे बचलाह से, जकरा
जेम्हर बाट सूझलन्हि, पड़ाए गेलाह। वेद क संस्कृतिक संग किछु आर्य उत्तर पड़एलाह ओ
ओम्हरे हिमशिखर पर रक्षा पओलन्हि। ओहि ठाम सँ फेरि भू-भाग देखि दक्षिण उतरलाह।
वैदिक संस्कारवश अपन नव वासस्थानक वैदिक नाम 'आय्र्यवत्र्त' रखलन्हि। इएह मत स्वामी
दयानन्द क छलन्हि जे आर्य लोकनि 'त्रिविष्टप्' वा 'तिब्बत' सँ एहि देश मे आएल छलाह।
आर्य लोकनि, नव दृष्ट नदी पर्वत देश आदि सभक, नाम वेदानुकूले रखलन्हि। प्रलयक स्मृति
हिनका लोकनि कें बहुत दिन धरि बनले रहल--तकर भय प्राण मे समाए गेलन्हि। तैं आइयो
धरि मृत्युपति यमराजक स्थान दक्षिण मे मानल जाइत अछि। आर्य लोकनि इहो जनैत छलाह
जे हमरा लोकनि दक्षिण सँ आएल छी, अतएव ओ लोकनि पितरक स्थानो दक्षिणे मानलन्हि एवं
आइ धरि मानितहि छथि तथा आर्यवंशधर पितृतर्पणो दक्षिणे मुँह भए करैत छथि। प्रलयकाल मे
जनिका सभ कें पड़ाए जएवाक सुविधा नहि भेलन्हि ओ लोकनि, अनेक त्रास एवं कष्ट सहि
अपन मूलस्थल मे रहि गेलाह ओ छोड़ि कए पड़ाए जएवाक कारणें वैदिक संस्कार सम्पन्न एवं
उन्नत बनल आर्य लोकनि सँ उदासे रहए लगलाह। ओहि डरें वा कोनो अन्य कारणे आयों
लोकनि हुनका नहि अपनौलन्हि। फलतः वैदिक संस्कार सँ ओ बहुत दूर भए गेलाह। ओएह
लोकनि वर्तमान अनार्य कहाओल जाइत छथि। किन्तु प्रकृत प्रस्तावें ओ अनार्य नहि छलाह,
कारण भारत मे अनार्य क वासे नहि छल।




प्रलय-जल एटलांटिक महासागर उत्पन्न कए एवं भारत, अफ्रिका तथा ऑस्ट्रेयिला कें
पृथक्-पृथक् कए शान्त भए गेल। सृष्टिक इतिहास पुनः नवीन प्रकारें लिखल जाए लागल।
आर्य लोकनि स्मृति सँ पुनः वेद-गान करए लगलाह। सभ्य तँ ओ छलाहे, पूर्वतन-संस्कार वशें
पुनः हुनक वंशधर प्रसिद्ध भेलाह। संसार हुनक धाख मानए लागल। सम्पूर्ण संसार मे वैदिक-
धर्म क प्रतिष्ठा भेल। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम धरि पृथ्वीक सागरान्त पता लगाओल गेल।
पुनः आर्य लोकनि आर्यावत्र्तें घुरि अएलाह। मनुस्मृति क टीकाकार कुल्लूकभट्ट क लिखल सत्य
भेल जे आर्य लोकनि क वारंवार आवत्र्तनक कारणें भारतवर्शक उत्तराद्ध क नाम आर्यावत्र्त थीक।
एकरे नाम 'पुराणौक' वा 'प्रत्स्न्यौक' थीक।



उपर्युक्त कारणें विद्वान् लोकनि कें आदि सृष्टिक लक्षण दक्षिण भारत, आफ्रिका एवं
ऑस्ट्रेलियाक उपकूल मे यदि पाओल जाइत होइन्ह तँ कोनो आश्चर्य नहि।



मनुस्मृति मे स्पष्ट लिखल अछि--



"एहि देश मे उत्पन्न भेल अग्रजन्मा आर्य लोकनि सँ पृथ्वी क सम्पूर्ण मानव जाति अपन-
अपन आचार-विचारक शिक्षा ग्रहण कएलन्हि ।"

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। "एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सवमानवाः।।"

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एहने बात यूनानियोक प्राचीन ग्रन्थ मे पाओल जाइत अछि जे व्यास नामक हिन्दू एहि
ठाम आबि विद्या एवं सभ्यताक प्रसार कए पुनः हिन्दूस्थान घुरि गेलाह। वर्तमान यूरोप कें सभ्य
बनौनिहार वैह यूनानी छथि।



उक्त मनुक श्लोक मे 'प्रसूत' शब्द पर ध्यान देवाक चाही। ओ शब्द स्पष्ट आर्य लोकनि
कें एही देश क सनातनवासी सिद्ध करैत अछि। मनुक उक्ति सँ विदेशी लोकनि एही आर्यक
शाखा-प्रशाखा सँ उत्पन्न छथि एवं वैदिक संस्कार सँ छुटि गेने वृषलत्व कें प्राप्त भेलाह। पुराण
मे उल्लेख अछि जे पुरुरवाक पुत्र आयु उत्तर पूर्व मे जाए बसलाह। संभव जे ओ चीन कें
आबाद कएने होथि; कारण, चीन क प्राचीन राजवंश 'आउच' नामक पुरुष सँ चलैत अछि जे
सम्भवतः आयुक रूपान्तरे हो। ययाति क पुत्र (अनु, द्रह्रु आदि) म्लेच्छ देशक प्रवत्र्तक बनाओल
गेल छलाह। कश्यप सुदूर उत्तर मे वैदिक सभ्यता क विस्तार कएलन्हि। एही सभ कारणें
प्राचीन आर्यक चिन्ह संसारक प्रायः बहुतो स्थान मे पाओल जाइत अछि; परन्तु हुनक आदिभूमि
भारतवर्ष थीक। कम-सँ-कम हम तँ एही निष्कर्ष पर पहुंचि विद्वान् लोकनि सँ प्राथीं छी जे ओहो
लोकनि अपन-अपन गवेषणापूर्ण विचार एहि विषय पर प्रकाशित करथि।




.. .. .. ..



वैज्ञानिक आविष्कार मे आकस्मिकता क प्रभाव

श्री जगन्नाथ प्रसाद मिश्र



हमरा लोकनि क नित्य-नैमित्तिक जीवन मे अदृष्ट क जे खेल होइत रहैत अछि ओहि
सँ हमरा लोकनि कें किछु-ने-किछु परिचय भेटतहि रहैत अछि। एहि अदृष्ट देवता क प्रसाद सँ
पथ क भिखारि राजसिंहासन क अधिकारी होइत अछि ओ ओकर निष्ठुर परिहास सँ हरियर
भरल-पूरल घर-गृहस्थी माटि मे मिलि जाइत अछि।



विज्ञान-जगतहु मे एहि देवता क प्रभाव कम नहि देखल जाइत अछि। अदृष्ट अपन
आकस्मिक आविर्भाव द्वारा वैज्ञानिक लोकनि क ध्यानमग्न नेत्र क सम्मुख नूतन रहस्य क
उद्घाटन करैत अछि। तुच्छ सँ तुच्छ कोनो आकस्मिक घटना अचिन्तनीय रूप मे विज्ञान-राज्य
मे युगान्तर उपस्थित कए दैत अछि।



एक फल कें गाछ सँ खसैत देखि कए अकस्मात् न्यूटन क ध्यान ओहि दिश आकृष्ट
भेल ओ एकर फल-स्वरूप गुरुत्वाकर्षण क सिद्धान्त आविष्कृत भेल।



भाफ कै प्रभाव सँ चाह क वरतन क ढाकन क शब्द क संग ओहि बासन क उठब ओ
खसब एक परम सामान्य घटना छल। किन्तु ओहि सँ 'जेम्सवाट' क मन मे स्टीम इंजिन क
स्वप्न जागृत भेल। ओहि स्वप्न कें चरितार्थ भेला सँ आइ-काल्हि मनुष्य क कतेक उपकार भए
रहल अछि, ई कहबा क आवश्यकता नहि।



स्वर्गीय आचार्य जगदीशन्द्र बोस जड़-पदार्थ मे जीवन क सन्धान प्राप्त कए आओर जड़
तथा तथा जीव क योग-सूत्र स्थापित कए अपन एहि मूल्यवान् आविष्कार-द्वारा संसार कें
चकित कए दलन्हि। किन्तु हुनक एहि आविष्कार क पाछाँ मे आकस्मिकता क प्रभाव नुकाएल
छल। अपन प्रयोग-शाला मे ओ एक धातु क यन्त्र लय काज कए रहल छलाह। काज करैत
करैत ओ देखलन्हि जे यन्त्र किछु क्षण क हेतु मानू अचल भए

गेल आओर फेरि एकर बाद अपनहि सँ स्वाभाविक गति सँ काज करए लागल। धातु-खण्ड क
एहि अद्भुत आचरण कें देखि हुनका ई अनुभूति प्राप्त भेलन्हि जे जड़ तथा प्राणी (चेतन) दुहू
एकहि प्राकृतिक नियम सँ नियन्त्रित होइत अछि।



विद्युत्-शक्तिहु क जन्म-रहस्य क मूल में इएह आकस्मिकता अन्तर्हित अछि। कॉलेज-
भवन क लोह क रेलिंग के ऊपर ताम क तार सँ एक मुइल बेङ झूलि रहल छल। बरसात क
झोक सँ जखन बेङ क शरीर रेलिंग कें छुबैत छल ओ सिकुड़ि जाइत छल आओर फेरि रेलिंग
क स्पर्श सँ मुक्त भेला पर स्वाभाविक अवस्था मे भए जाइत छल। अध्यापक 'गेलभेनी' क ध्यान
एकाएक मुइल बेङ क एहि सिकुड़नाइ ओ पसरनाइ क दिश आकृष्ट भेल तथा एकर काण क
अनसन्धान करैत-करैत ओ तड़ित्-प्रवाह क आविष्कार कएलन्हि।




50 वर्ष पूर्व बंगाल तथा बिहार मे नील क खेती विशेष रूप मे होइत छल। पाश्चात्य
देश सभ कें नील (लील) क हेतु भारतहि पर निर्भर रहए पड़ैत छलन्हि। ओहि समय मे जर्मनी
क वैज्ञानिक कृत्रिम नील क आविष्कार करबा मे लागल छलाह। परीक्षा-प्रयोग द्वारा ज्ञात
भेलन्हि जे "नैपथलिन" तथा 'सलफिउरिक एसीड' एक संग बहुत समय धरि उत्पत्त कएला सँ
जे थोड़ेक 'थैलीक एसिड' तैयार होइत अछि ओऐह नील क प्रधान उपादान थीक। 'वेभर'
नामक एक वैज्ञानिक एक दिन नेपथलिन तथा सलफ्यूरिक एसिड कें आगि मे गरम कए रहल
छलाह अओर एक तापमान-यंत्र द्वारा ताप क परीक्षा कए रहल छलाह। असावधानता क कारणें
तापमान-यंत्र टूटि गेलन्हि अओर ओकर पारा बहराए कए ओहि मे मिलि गेलैक। देखैत-देखैत
समस्त द्रव्य 'थैलिक एसिड' मे परिणत भए गेल। एकर द्वारा नील तैयार करबा क प्रक्रिया
बहुत सुलभ रीत्या भए गेल अओर ओकर प्रतियोगिता मे भारत क ई व्यवसाय नष्ट भय गेल।



माता'वा गोटी (दामस)क टीका (पाच)क आविष्कारो एही प्रकार क आश्चर्य-जनक अछि
! 'एडवार्ड जेनर' नामक एक डाक्टर क लग एक ग्रामीण स्त्री ओषधि लेमए आइलि। वार्तालाप
क प्रसज़्ã ओ कहलकन्हि जे जकरा एक बेरि गो-वसन्त होइत छैक ओकरा पुनः दामस क
आक्रमण क भय नहि रहैत छैक। 'जेनर' एहि कथन क दामस क सत्यासत्य क निर्णय करबा
क हेतु गाय कें लय परीक्षा प्रारम्भ कएलन्हि अओर तखन ई ज्ञान भेलन्हि जे गो-वसन्त क
बीजक टीका (पाच) लेला सँ पुनः माता (दामस) रोग होएवा क भय नहि रहैत अछि।



जर्मनी क रज़् जे आइ संसार भरि क बजार पर अधिकार (दखल) जमौने अछि ओकरो
इतिहास आकस्मिक घटना क ऊपर निर्भर करैत अछि। लन्दन क 'रॉयल कॉलेज ऑफ
साइन्स' मे 'हफमैन' नामक एक जर्मन रसायनशास्त्र क अद्यापक छलाह। हुनक अधीन 15 वर्ष
क बालक 'पार्किन' काइला अलकतरा सँ कृत्रिम रूपमे कुनाइन तैयार करवाक गवेषणामे
नियुक्त छलाह। अलकतरा सँ उत्पन्न 'एनिलाइन' कें प्रक्रिया-विशेष द्वारा कुनाइन मे परिणत
करवा क सम्भावना सँ एहि गवेषणा क आरम्भ भेल। पार्किन कें गवेषणा करैत-करैत थाल सन
एक कारी वस्तु भेटलन्हि। ओकरा अओर दिन जकाँ नहि फेकि कए पार्किन स्पिरिट सँ धो
देलन्हि। देखितहिं ओ वस्तु फीका बैगनि रंग मे परिणत भेल ओएही प्रकार वत्र्तमान रंग क
व्यवसाय क सूत्रपात भेल।



'सैकरिन' क अविष्कार क कथा एही प्रकार क अछि 'रेमसन' नामक एक अमेरिका-
निवासी रासायनिक अलकतरा लए कए अनेक प्रयोग क बाद भोजन करबा क हेतु अपन घर
गेलाह। ओतए पहुँचि कए गृह-स्वामिनि सँ किछु भोजन देवा क हेतु कहलथीन्ह। खएबा काल
हुनका बूझि पड़लन्हि जे, जे कोनो पदार्थ ओ मुँह मे दैत छथि, सभ हुनका बहुत मीठ बूझि
पड़ैत छन्हि। एहि सँ क्रुद्ध भए ओ गृह-स्वामिनि कें धूसए

लगलथीन्ह। किन्तु हुनक जी मे तखन एक आज़्Ûर क स्पर्श भेलन्हि तखन हुनका ज्ञात भेलन्हि
जे हुनक हाथो मीठ छन्हि। बेरि-बेरि हाथ धोनहु-उत्तर जखन ओ देखलन्हि जे हुनक हाथ क
संग-लागल मीठ स्वाद दूर नहि भए रहल छन्हि तखन ओ अपन प्रयोग-शाला क दिश दौड़ि


कए गेलाह। ओतए क प्रत्येक बस्तु क परीक्षा करैत-करैत ओ एक एहेन वस्तु क आविष्कार
कएलन्हि जकर मीठ स्वाद चिन्नी सँ 300 गुण अधिक छल। इएह वस्तु 'सैकरिन' क नाम सँ
परिचित भेल।



'एक्सरे' क आविष्कारो एही प्रकार क आकस्मिक रूप मे भेल छल। अध्यापक
'इण्टजन' एक वायु-शून्य काच क नली क भीतर विद्युत्-प्रवाह क प्रवेश कराए परीक्षा कए
रहल छलाह। विद्युत् सञ्चार क समय एक-एक स्पार्क (चिनगी) क संग-संग सुन्दर रज़्-विरंग
क आलोक विकीर्ण भए रहल छल। ओही घर मे काठक एक बाकस क भीतर बहुत फोटो प्लेट
छलैक। अध्यापक इन्टजन जखन ओहि बाकस कें ताकए गेलाह सँ देखलन्हि जे ओ सभ फोटो
प्लेट एकदम नष्ट भे गेल छैक। कोनो प्रकार क आलोक क स्पर्श नहि भेला पर प्लेट क
अविकृत रहबा क बात छल। कोन प्रकार सँ आलोक क संग एकरा सभ कें संस्पर्श भेलैक, एहि
पर विचार करे त अन्त मे ओ एहि निर्णय पर पहुँचलाह जे परीक्षा क समय मे जे सभ आलोक
विकीर्ण भय रहल छल ओकरहि सभ क द्वारा ई घटना भेल छैक। ओहि ओ एहि आलोक
स्वरूप तथा प्रकृति क निर्णय नहि कए सकलाह। एही हेतु ऐकर नाम राखल गेलैक 'ऐक्सरे'।



'एसिटनालाइड' आइ-काल्हि चिकित्सा-जगत् मे एक नित्य प्रयोजनीय पदार्थ मानल
जाइत अछि। एकर प्रयोजन आविष्कृत भेल एक भ्रम कें लए कए। डाक्टर 'कैंन' क लग चर्म-
रोगक एक रोगी चिकित्सा क हेतु आएल ओ ओकरा 'नेपथलिन'क प्रयोग क व्यवस्था देलथीन्ह
अओर एहि हेतु एक बोतल 'नेपथलिन' अनबा लए आदमी पठौलथीन्ह। धोखा सँ 'नेपथलिन'क
बदला मे 'एसिटनालाइड' हुनका ओहि ठाम पठाओल गेलन्हि। एकर व्यवहार कएला पर देखल
गेलैक जे एहि सँ आशानुरूप फल नहि भए कए अप्रत्याशित रूप मे रोगी क ज्वर छूटि गेलैक।
एहि बोतल क सठी गेला उत्तर ओ एक बोतल 'नेपथलिन' अओर गौलन्हि। एहि बेरि असली
'नेपथलिने' छल। किन्तु प्रयोग कएला पर पूर्ववत फल नहि बहरएलन्हि। पाछू धोखा क पता
लगलन्हि। ओहि समय सँ ज्वर क चिकित्सा मे 'एसिटनालाइड' क व्यवहार भए रहल अछि।



रबर क भलकेनाइज करबा क प्रथा एहि प्रकार आविष्कृत भेल छल। एक जर्मन
रासायनिक पहिने ई आविष्कार कएलन्हि जे तारपीन मे गन्धक कें गलाए कए ओकर सहयोग
सँ रबर कड़ा कएल जाए सकैत छैंक। किन्तु अनेक कारण-वशात् ई प्रयोग सफल नहि भए
सकल। तत्पश्चात् अमेरिका--वासी 'चाल्र्स गुड इयर साहेब' एक दिन रबर क संग एक
निश्चित परिणाम मे गन्धक मिलाए कए ओकर परीक्षा कए रहल छलाह। हुनक राथ सँ ओ
रबर छिटकि कए एक जरत चूल्हि पर जाए खसलन्हि ओ तुरत्ते ओहि रबर कैं उठाए लेल्हि।
ठंढा भेलापर देखल गेल जे गन्धक-मिश्रित रबर आशानुरूप कड़ा भए गेल छैंक। एहि प्रकार
वैज्ञानिक लोकनि बहुत दिन सँ जाहि हेतु परिश्रम कए रहल छलाह ओ एक आकस्मिक घटना
क फलस्वरूप सिद्ध भए गेल। रबर भलकेनाइज करबा क फलस्वरूप मोटर-व्यवसाय मे
युगान्तर उपस्थित भए गेल।



उपर्युक्त किछु घटना क अतिरिक्त डिनामाइट, लिथोग्राफी, इलेक्ट्रिक मोटर, रैस क


तरलीकरण इत्यादि युगान्तरकारी विभिन्न आविष्कार क संग आकस्मिकता क घनिष्ट सम्बन्ध
छैंक। किन्तु एकर पाछाँ वैज्ञानिक लोकनि क जे तीक्ष्ण प्रतिभा-शाली बुद्धि क प्रयोग क भारी
मूल्य अछि ओकरहु हम विस्मरण नहि कए सकैंत छी।



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ग्रामसेविका

प्रो0 श्री हरिमोहन झा



मकुनाही पोखरि पर लूटन मिसर वैद्यकें मुँह धोइत देखि काशीनाथ कहलथिन्ह--वैद्यजी,
एकरा नव गप्प सुनलिऐक अछि?

वैद्यजी साकांक्ष होइत पुछलथिन्ह--की? कोन बात भेलैक अछि?

काशीनाथ बजलाह--अपना इलाका मे एकटा ग्रामसेविका आएल अछि।

वैद्यजी पुछलथिन्ह--'ग्रामसेविका'क की अर्थ? कि ओ संपूर्ण गामक पैर दबाओति?

काशी0--ओ घर-घर घूमिकऽ स्त्रीगणकें शिक्षा देति।

वै0--की शिक्षा देति?

का0--यैह जे पर्दा तोड़ि कऽ सभ काज करै जाइ।

वैद्यजी दातमनिक जिभिया फेकैत बजलाह--आब जे जे ने हो !

फूदन चौधरि घाट पर बैसल लोटा मँजैत रहथि। ई गप्प सुनि बजलाह--ओकर वयस
की हैतैक?

काशीनाथ ठिकियबैत कहलथिन्ह--यैह करीब अट्ठारह-उन्नैस।

चौ0--विवाहिता अछि कि कुमारि?

का0--देखबामे त कुमारिए जकाँ लगैत अछि।

चौ0--तखन ओ अनका की सिखौतैक? नतिनी सिखाबय बुढ़ दादीकें !

का0--चौधरीजी, से नहि कहिऔक। ओ बहुत पढ़लि छैक। तैं सरकार एहि काज पर
ओकरा बहाल कैने छैक।

चौधरीजी कुरुड़ करैत बजलाह--हौ तों सरकारे कें की बुझैत छह? अनकर बहु-बेटीकें
नचाकऽ देखबामे बड़ मन लगैत छैक। पतिव्रतासँ ओकरा कोन काज?



तावत् कान पर जनउ चढ़ौने पहुँचि गेलाह पंडितजी। बजलाह--एहि युगमे भ्रष्टक उदय
छैक। जे स्वयं भ्रष्टा रहैत अछि से सभकें अपने सन बनाबय चाहैत अछि। ओ आबिकऽ सौंसे
गामक स्त्रीगणकें दूरि कय छोड़ि देत तखन कि एकोटा बेटीपुतोहु कथा मानत? ओकरा
'ग्रामसेविका' नहि 'ग्रामशोधिका' बूझू।



बौकू बाबू एतीकाल धरि भरि ढोंढ़ो जलमे ठाढ़ भेल 'अधमर्षण सूक्त' जपैत छलाह।


आब नहि रहि भेलैन्ह। बजलाह--हम त किन्नहु ओहि छोड़ीकें अपना आङनमे नहि टपय देबैक।



काशी0--बाबा, ओना 'छौड़ी' नहि कहिऔक। ओ अफसर भऽ कऽ आइलि अछि। बौकू
बाबू उत्तेजित होइत बजलाह--एहि गाममे अफसरी शान चलतैक। जौं हमरा घरकें बिगाड़य
आओति त झोंट धऽ कऽ मारि करची कें मारि करचीकें घूठ तोड़ि देबैक।



ताबत बौकूबाबूक पौत्र हकमैत ओहिठाम पहुँचि गेलैन्ह। बौकूबाबू पुछलथिन्ह--की हौ
भुटकुन ! एना दौड़ल किऐक ऐलाह अछि? घरमे साँप बहरैलौह अछि की? भुटकुन हँफैत-हँफैत
कहय लगलथिन्ह--एकटा मौगी खूब उज्जर नूआ पहिरने आइलि अछि। दलानमे कुर्सी पर
बैसल अछि। कहै छैक जे आङन जाकऽ सभसँ भेट करब। माय-काकी त तैयार छथिन्ह। परन्तु
दादी कहलन्हि जे दौड़ि कऽ अपन बाबासँ बुझने

आबह।



बौकू बाबू सशंकित होइत पुछलथिन्ह--ओ के थीक? की करय आइलि अछि? हमरा
आङनसँ कोन काज छैक?



भुटकुनकें चुप्प देखि काशीनाथ पुछलथिन्ह--की हौ भूटकुन ! ओकर माथ उघारे छैक
कि ने?

भुटकुन--हँ।

काशी0--हाथमे बैगो छैक?

भुट0--हँ।

काशी0--तखन निश्चय वैह थीक।



बौकू बाबू क्रोधसँ बताह होइत बजलाह--हड़ाशंखिनीकें आर कोनो घर नहि भेटलैक?
सभसँ पहिने हमरे शोधय आएल अछि?



प0 जी, वैद्यजी ओ चौधरीजी आनन्दसँ मुसकुरा उठलाह। बौकू बाबूकें किछु नहि
फुरलैन्ह, चट्ट दऽ एक थापड़ कसिक़ भुटकुनक गालमे लगा देलथिन्ह।



जखन बौकू बाबू आङन पहुँचलाह त चकित भऽ उठलाह। जकरा ओ भरि बाट डाइन,
राक्षसी, कुलटा आदि नाना प्रकारक उपाधि दत आएल छलथिन्ह तकरा देखै छथि जे आँचर
कसने एक हाथमे झाड़ू ओ दोसरामे फेनाइलक बाल्टी नने हुनका आङनक मोड़ी साफ करबामे
लागल अछि आर अपना आङनक स्त्रीगण मरौत काढ़ते पाछाँ टाढ़ि भेल बक्कर-बक्कर ताकि
रहल छथिन्ह। बौकू बाबूकें आङनमे पैर दितहि मोड़ीक गन्ध लगैत छलैन्ह। नित्य प्राणायामे
करैत अबै छलाह। से आइ खुलिकऽ साँस लेलन्हि। ओसारा पर सभ दिन कूड़ा-कचारक ढेरी
टपि कऽ जाय पड़ैत छलैन्ह। आइ देखै छथि त एकदम 'लाइन क्लीयर' ! कतहु एकटा फालतू
चीज नहि। चौकठि लग एकटा कोइला सन कारी लालटेन टाङल रहैत छलैन्ह से कै दिन


माथेमे ठेकि जाइत छलैन्ह। आइ देखै छथि त ओ लालटेन साफ चमकैत एक कोनमे खुट्टीसँ
लटकल अछि। ई कायापलट कोना भऽ गेलैक? हुनका घरमे छौ माससँ जे झोल जमल छलैन्ह
तकर आइ नामोनिशान नहि। बौकू बाबू सोचय लगलाह अहा ! एहने संस्कार वाली यदि अपनो
घरमे रहैत तखन नित्य किएक गदहकिच्चन होइत?



बौकू बाबू पूजा पर बैसलाह त जँगलासँ देखाइ पड़लैन्ह जे ओ लड़की पछुआड़मे ठाढ़ि
अछि। कान्हमे एकटा बैग लटकौने जाहि पर सुन्दर अक्षरमे 'विमला देवी' अंकित छैक। एकटा
नेबोक गाछमे कीड़ा लागल छलैक। ताहिमे ओ कोनो दवाइ घोरि कए पिचकारी दए रहल
अछि। बीच-बीचमे स्त्रीगणकें किछु बुझा रहल छैन्ह।



देखैत-देखैत एकटा आश्चर्य बात भए गेल। जे बरहड़बावाली सासुक देखादेखी
सदिखन नाक झपने रहैत छलीह से एकाएक विमला देवीक निर्देशानुसार भरकछ भोड़ि हाथमे
कोदारि लेलन्हि आर बाड़ीमे नेना द्वारा अपवित्र कैल माटिकें काटि कय फेकए लगलीह।
देखैत-देखैत बाड़ी साफ भए गेल।



थोड़ेक कालक बाद विमला देवी साबुन लऽ कऽ हाथ धाएलन्हि। एक मिनट बच्चाकें
दुलार कैलथिन्ह। तदुपरान्त दुनू हाथ जोड़ि सभकें 'नमस्ते' कय बिदा भऽ गेलीह। बौकू बाबू
मंत्रमुग्ध भय देखैत रहलाह। ई त चाँडालिन जकाँ नहि, मुनिकन्या जकाँ लगैत अछि। जत्तहि
जाएत, तत्तहि तपोवन बना देत।

बलहुँ बेचारीक प्रति ओतबा अपशब्द कहलिऐक। बौकू बाबू दुर्गापाठ करए लगलाह। किन्तु
घुरि-फिरि कऽ वैह लालठोपवाली •ोतवसना ध्यानमे आबि जान्हि।



भोजनकाल बौकू बाबू स्त्रीकें कहलन्हि--देखलिऐक एकटा बंगालिन लड़कीक पानि।



स्त्री कहलथिन्ह--ओ बंगालिन नहि, देशीए अछि।

बौकू बाबू कहलथिन्ह--ई हम मानि नहि सकैत छी। ओ पानि एम्हर कहाँ पाबी?

स्त्री कहलथिन्ह--बंगला नूआ देखने नहि बुझिऔक। ओ मैथिलानीए थीक। कमलपुर
घर छैक।



ई सुनैत बौकूबाबूकें दक्कदऽ करेज सालि देलकैन्ह ! पहिलुक प्रफुल्लता विलीन भऽ
गेलैन्ह। स्याह होइत मनमे सोचय लगलाह--बंगालिन किंवा पंजाबिन रहैत त ई सभटा
छजितैक। परन्तु मैथिल-कन्या भऽ कऽ एना करैत अछि? अनकच्छल बात। 'खंजन चललीह
बगड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरि गेलीह ! देशी मुर्गी विलायती बोल !' प्रकाश्यतः बजलाह--
एकरा माय-बाप नहि छैक की? एखन धरि कुमारिए किऐक अछि?



स्त्री कहलथिन्ह--हम पुछलिऐक : हे दाइ ! तों एहेन सुन्नरि छह। विवाह किएक ने
करैत छह? तखन हँसय लागलि--'बच्चा उत्पन्न करय-बाली देशमे बहुय गोटा छथि। एखन


सेवा करयवालीक कमी छैक। तें हम यैह मार्ग अपनौने छी'। हमकहलिऐक--'हे दाइ ! तोरा
एतबेटामे एतेक रासे बुद्धि कोना भऽ गेलौह? तखन फेर हँसय लागि गेल।



बौकूबाबू कहलथिन्ह--अन्यदेशी हैत त हम सभटा बात शिरोधार्य कऽ लितिऐक। परंच
एही माटिसँ बहरा कऽ ई एतबा शान देखाओत से कोना मानि लेबैक? कतबो बंगला नूआ
पहिरथु, परन्तु धातु त तिरहुतिए छैन्ह। ई चाली भऽ कऽ सांपक देखाउस करै छथि। किछु भऽ
जैतैन्ह त सभटा फुचफुच्ची बाहर भऽ जेतैन्ह।



किछुए दिनमे विमलादेवीक ज्योतिसँ घर-घर आलोकित भऽ उठल। बुचैली बालीक
इनारमे कीड़ा सहसह करैत छलैन्ह। से आब ब्लीचिंग पाउडर पड़ि गेलैन्ह। जहाँ सभ घैल
सतत मुँह बौने रहैत छलैन्ह, तहाँ आब साफ मलमलक टुकड़ासँ झापल रहैत छैन्ह।
रूपौलीबालीक नेनाक देहपर सेर भरि रिट्टारिट्टी लादल रहैत छलैन्ह से उतरि गेलैन्ह। जहाँ
बंगटक नाकमे सतत पोटा लटकल रहैत छलैन्ह, तहाँ आब हाइड्रोजन पेरोक्साइड लऽ क़
हुनक कान साफ कैल जाइ छैन्ह। ठकोलीबालीक बच्चा जहाँ दुरुखेमे नदी फीरि दैत छलथिन्ह
तहाँ आब घरसँ बाहर जाकऽ लघी कऽ अबैत छथिन्ह। सिसौनाबाली बारह बजे मुँह धोबय
बैसैत छलीह से आब सूर्योदयसँ पहिनहि स्नान कय लैत छथि। मुजोनाबालीकें नित्य बेरू पहर
खुटौनाबालीसँ झगड़ा होइत छलैन्ह। से आब दुनू गोटा बैसि कऽ ऊनीमोजा बुनैत छथि। एवं
प्रकारें गामक आमूल परिवत्र्तन भऽ गेल। विमलादेवीक डरसँ कोनो बच्चाक आँखिमे काँची नहि।
सभक नह साफ। कोनो सड़कपर नाक मुनबाक काज नहि। सभक बाड़ी-झाड़ीमे कोबी, टमापर
ओ मटरक छीमी लहाइत। भिट्टोबाली पर्यन्त भिटैमिन बूझय लागि गेलीह।



नारी-समाजक ई नव जागरण केवल घरे धरि सीमित नहि रहल। बाहरो ओकर किरण
प्रस्फुटित होमय लागि गेल।



एक दिन पंच लोकनि दलानपर बैसल रहथि। देखै छथि जे समौलावाली मोसम्माति
सामने खेतमे मोढ़ा पर बैसि धान कटा रहल छथि। ई देखैत पंजीकें लेसि देलकैन्ह। बजलाह-
आब गाममे अकरहर भऽ रहल

अछि।



काशीनाथ कहलथीन्ह--घरमे पुरुष-पात नहि छैन्ह। तें स्वयं कटबा रहल छथि। एहिमे
दोष कोन?



पं0 जी बजलाह--सैह छलैन्ह त अपन दोग-दागसँ कटबा लितथि। एना बीच ठाम
महोखा जकाँ बैसि कऽ पुरुषक छातीपर मूँह किऐक दररैत छथि?



काशीनाथ कहलथिन्ह--ग्रामसेविका.............ग्रामसेविकाक नाम सुनितहि पं0 जीक
क्रोधाग्नि भड़कि उठलैन्ह। हुनका पहिने घर-घरसँ नेओत पड़ैत रहै छलैन्ह। विमला देवीक
ऐलासँ ओ बहुत किछु कम्म भऽ गेलैन्ह ! एहि द्वारे ओ खौंझाएल रहैत छलाह। बजलाह--गाममे


तेहन ने चंडालिन आइलि अछि जे आब एकोटा धर्म-कर्म एहि गाममे रहय देति। एतबा दिनक
सञ्चित मर्यादा आब नासीमे बूड़ल जा रहल अछि।



वैद्योजी ग्रामसेविकापर विशेष प्रसन्न नहि छलाह। कारण जे विमलादेवी बभनटोलीसँ
लय मुहपर टोली धरि घर-घर जाकऽ स्त्रीगणकें मुफ्त दबाइ दऽ अबैत छलथिन्ह। कतेक
युवतीकें इंजेक्शानो देनाइ सिखा देने छलथिन्ह। एहि सभसँ वैद्यजीक आमदनी मारल जाइ
छलैन्ह। ओ फुफकार छोड़ैत बजलाह--सभ फसादक जड़ि थीक ई ग्रामसेविका। बैह केचुआ
सभकें फूकि साँप बना रहल अछि। जौं किछु दिन आर एहि गाममे रहि गेल त हमरा लोकनिक
निर्वाह हैब कठिन।



फूदन चौधरीकें अपना घरक मर्यादापर बड्ड गर्व छलैन्ह। बजलाह--जौं हमरा घरक स्त्री
एना करए त गरदनिमे...... एतबा बजैत-बजैत चौधरीजी चकाएक चिहुँकि उठलाह। जेना
सहसा बिजलीक धक्का लागि गेल होइन्ह। सड़कक कात कोल्हु-आड़मे हुनक स्त्री स्वयं ठाढ़
भऽ कऽ गुड़क चेकी बनबा रहल छलथिन्ह। चौधरीजी चुप्प भऽ गेलाह।



बैद्यजी पं0जी दिस आँखि मारलथिन्ह। पं0जी बजलाह--कलिकाल जे ने कराबय !
बैद्यजी उत्तर देलथिन्ह--कलिकाल की करतैक। हमरा आङनमे कथमपि एना नहि भऽ सकैत
अछि।



परन्तु वैद्योजीक गर्व खर्वं होइत देरी नहि लगलैन्ह। कारण जे जैखन ओ पं0जीक संग
सड़क पर ऐलाह कि देखै छथि जे बैदाइत अपना पाँच वर्षक कन्याकें आङुर धरा कऽ स्कूलमे
नाम लिखायब लऽ जा रहल छथि। बैद्यजी अनठा कऽ दोसर बाट धऽ लेलन्हि।



पं0 जी मुसुका उठलाह। हुनका वि•ाास भऽ गेलैन्ह जे ग्राम सेविका सभ स्त्रीकें बहत्रा
बना देलकैन्ह। केवल हुनके पंडिताइन टा बाँचल छथिन्ह। एहि विचारसँ प्रसन्न होइत पं0 जी
अपन दलानमे एलाह त स्तम्भित रहि गेलाह। पंडिताइन दरबाजापर ठाढ़ि भेल अपना समधिसँ
निर्धोष गप्प कऽ रहल छलीह। पं0 जीकें देखि सहज शान्त स्वरसँ बजलीह--'देखू, कतीकालसँ
समधि बैसल छथि। आब अपना दुनू गोटा मे गप्प करू। हमरा आङनमे काज अछि।



पं0 जी ई दृश्य देखि अवाक् रहि गेलाह।



एक दिन सम्पूर्ण गामक लोक आँखि खेलिकऽ देखि लेलन्हि जे नारी-समाजक सामूहिक
शक्ति केहन होइ छैक। विमल देवीक नेतृत्वमे गामक समस्त बेटी-पुतोहु आँचर कसने श्रमदान
द्वारा महिला-पुस्तकालयक

नेओ देबय जा रहल छथि। बूढ़ लोकनिक मुँह तेहन भ गेलैन्ह जेना केओ चिरैताक काढ़ा पिया
देने होइन्ह। बूढ़ी लोकनिकें बुझा गेलैन्ह जे आब भरि-भरि दिनक जतनाइ-पिचनाइ ओ ढील
हेरनाइ गेल; किन्तु एहि प्रवाहकें रोकब असंभव छल।




थोड़बे दिनमे 'महिला-क्लब' तैयार भऽ गेल। जे बात स्वप्नोमे वि•ाास करबा योग्य नहि
छल से आब प्रत्यक्ष होमय लागल। बुचौलीबाली नित्य एकबार पढ़य लागि गेलीह। पंडिताइन
ओ बैदाइन ग्रामसुधारक योजना बूझय लगलीह। बरहड़बावाली ओ भखराइनवाली समाजवाद
पर बहस करय लगलीह। तनौतावाली तानपुराक सुर चढ़ाबय लगलीह। मुजौना ओ
खुटौनाबाली बैडमिंटन खेलाय लगलीह।



दुइए वर्षमे गामक काया-कल्प भऽ गेल। तेहन उत्साहक लहरि आएल जे फूदन
चौधरीक भाभहु स्कूलमे मास्टरी करय लगलीह, बैदाइनक बेटी नर्सक काज सीखय लगलीह
आर पंडिताइनक पुतोहु रेडिओमे जा कऽ बाजय लगलीह।



ग्रामसेविका नारी-समाजक उन्नति देखि पुलकित भय उठलीह। एतबा कम दिनमे एहन
क्रान्ति। हुनका आशातीत सफलता भेटल छलैन्ह। जेना ककरो रोपल कलम हुइए वर्षमे फरय
लागि जाइक तेहने आनन्दसँ हुनक ह्मदय भरि गेलैन्ह। परन्तु आइ ओ उद्यानकें छोड़ि कऽ जा
रहल छथि। हुनका दोसर इलाकामे बदली भऽ गेल छैन्ह।



आइ विमला देवी गामसँ विदा भऽ रहल छथि। ताहि उपलक्ष्यमे सभा आयोजित अछि।
पुरुषोसँ बेसी महिलाक संख्या देखबामे अबैत अछि। आबाल वृद्धवनिता सभक आँखिमे नोर
भरल अछि। जेना कोनो बेटी सासुर जा रहल हो। अथवा मन्दिरसँ प्रतिभाक विसर्जन भऽ रहल
हो। नवयुवती सभ विमला देवीकें फूलक माला पहिरोलथिन्ह। युवक लोकनि मानपत्र देलथिन्ह।
वृद्ध लोकनि दूर्वाक्षत लय आशीर्वाद देलथिन्ह। वृद्धागण खोंइछ देलथिन्ह। सभसँ वयोवृद्ध
छलीह पं0जीक पितामही। ओ कहलथिन्ह--बेटी, तोहर गुण हमरा लोकनि कहियो नहि
बिसरब। आँखि निपट्ट छल। से तों आबिकऽ फोलि देलइ। भगवान तोहर कल्याण करथुन्ह।



विमला देवी अत्यन्त नम्रता ओ शालीनतापूर्वक उत्तर देलथिन्ह--हम अहीं लोकनिक बेटी
थिकहुँ। सेवा करब हमर धर्मे थीक। हम केवल अपना कत्र्तव्यक पालन कैलहुँ अछि। एहिमे
हमर बड़ाइ कोन? सफलताक श्रेय अहीं लोकनिकें अछि जे सभ गोटा मिलि कऽ हमरा सहयोग
दैत एलहुँ। अहाँ लोकनि हमरा जे स्नेह प्रदान कलहुँ से हम जीवन भरि स्मरण राखब। एही
बल पर हम एक वस्तु मँगैत छी। एहि गाममे ज्योति जागल अछि तकरा मिझाय नहि देब। यैह
हमर सभसँ बड़का बिदाइ थीक।



लोकक आँखि भरि ऐलैक। भगवान करथु घर-घरमे एहने विमला सन बेटी होथि।
गामक बेटी-पुतोहु श्रद्धावश विमलाक आरती उतारए लगलीह। एक नवयुवती हारमोनियम पर
समदाउनि उठौलन्हि।



ताहीकाल टमटमसँ उतरलाह बतहू बाबू। बौकूबाबूक बड़का भाय जे आइ तीन वर्ष पर
कामाख्यासँ आबि रहल छथि। स्त्री-पुरुषक एहन अद्भुत अभूत-पूर्व सम्मेलन देखि ओ क्षुब्ध भय
किछु काल आँखि फाड़ि तकत रहलाह। एहिठाम एना भैरवी-चक्र किऐक लागल अछि? पुनः
अपना आँखि-कान टोएलन्हि जे कतहु धोखा त ने भऽ रहल अछि, फेर अपना माथ ठोकलन्हि


जे कतहु गड़बड़ त ने अछि। तखन अपना पौत्रके सोर कैलन्हि--की हौ बुच्चुन छऽ हौ? सौंसे
गाम बताह भऽ गेल अछि कि हमहीं बताह भऽ गेल छी?



बुच्चन पैप छुबैत कहलथिन्ह--बाबा, एको शब्द बजियौक जुनि। आबे गाम सम्मत भेल
अछि।



.. .. .. ..





कविवर चन्दा झा

प्रो0 श्रीरमानाथ झा



मैथिली साहित्यक क्षेत्रमे कवी•ार चन्दा झा एक जन उत्कृष्ट ओ यशस्वी कविक रूप
मे परिचित छथि। अपन रामायणक रचना कए ओ अमर भे गेल छथि ओ जा धरि एहि भाषाक
अस्तित्व रहत, ता धरि मिथिलाक सद्म-सद्म मे आबाल वृद्ध वनिता हिनक ललित पदक गान
कए कए हिनक यशः शरीर मे जरा-मरणक भए नहि आबए देत।



परन्तु हिनक कृति रामायणे टा नहि अछि। विद्यापतिक पुरुष परीक्षाक गद्य-पद्यमय
अनुवाद, वाताह्वान, गातसप्तशती, गीतिसुधा, ओ लक्ष्मी•ार विलास हिनक रचित प्रकाशित
अछि। हिनक महेशवानीक संग्रह सँ डा0 अमरनाथ झा ओ अन्यान्यो कविता क संग्रह
दड़िभंगाक राज प्रेम सँ प्रकाशित अछि। पचाढ़ी स्थानक संस्थापक महन्थ साहेवराम दासक
गीतावली ई सम्पादित कए छपओने छथि। अतएव केवल परिमाणहुक दृष्टि सँ एहि साहित्यक
क्षेत्र मे कवी•ारक स्थान सबसँ प्रमुख उचित प्राप्त छैन्हि।



परन्तु कवी•ारक कृतिक ओ अंश जे लोक कें विसरल जाए रहल छैक से थिक हिनक
प्राचीन मैथिली साहित्य, ओ मिथिलाक पुरातत्व विषयक अनुसन्धान। पूर्व मे जस्टिस
शारदाचरण मित्र ओ पश्चात नगेन्द्रनाथ गुप्त कें विद्यापतिक रचनाक संग्रह मे जे ई साहाय्य
कएल से सर्वथा स्तुत्य अछि ओ तैओ हिनक संग्रह मे कतेको विद्यापतिक गीत भेटैत अछि जे
अद्यापि कतहु प्रकाशित नहि अछि। गोबिन्ददास झाक रचना श्रृंगार भजनावली जे श्रीमदमर
नाथ झा प्रकाशिता कराओल से हिनके संग्रहक आधार पर हिनकहि लेख सँ। रामायणक अन्तमे
म0 म0 महाराज महेश ठाकुरक गीत ओ सएँ तालीस गोट कविक नामावली, पुरुष परीक्षाक
अनुवाद मे टिप्पणीक रूपमे देल दश-पाँच गोट अपूर्व कथा, साहेबरामक गीतावलीक भूमिकामे
पचाढ़ी स्थानक इतिहास इत्यादि हिनक अनुसन्धानक द्योतक मात्र थीक। वस्तुतः वर्णरत्नाकरक
प्रकाशन ओ कीर्त्तिपताकाक किछु विशेष परिचय छोड़ि एहि पचास वर्षमे मैथिली साहित्यक
प्रसंग अनुसन्धानक क्षेत्र मे कोनो प्रगति नहि भेल अछि, सभटा कवी•ार कए गेल छथि। प्रत्युत
जे ओ लीखि नहि गेलाह से धरि लुप्त भए गेल। सबहुँ जनैत छी जे कीर्त्तिलता नेपाल सँ म0
म0 हरप्रसाद शास्त्री प्रकाशित कराओल परन्तु ताहि सँ बीस पर्ष पूर्व कवी•ार समस्त
कीर्तिलताक पोथी अपना हाथ सँ आठ फरवरी 1908 कें कलकत्ता मे लीखि महामना ग्रियर्सन


साहेब कें देल जे सम्प्रति इन्डिया आफिसक लाइव्रेरी मे अछि। समस्त रागतरर्ज़िं्णीक पोथी ई
आइ सँ चौंसठ वर्ष पूर्व शाके 1810क पौष कृष्ण पंचमी सोम कें ठाढ़ी मे लिखल जकर
प्रतिलिपि हमरा संग अछि। मैथिली छन्दक एहन मर्मज्ञ पंडित एमहर दोसर नहि भेल ओ केवल
रामायण मे प्रयुक्त छन्दक विवेचना सँ ओ ताहि सज़्-सज़् देल नामक सामञ्जस्य सँ केवल
मैथिली छन्द शास्त्रहिकटा नहि मैथिल सज़र््ींत शास्त्रहुक तत्वालोचन भए जाएत एहि मे कोनो
सन्देह नहि।



मिथिला पुरातत्वक प्रसंग कवी•ारक लिखल बहुत किछु अद्य पर्यन्त अप्रकाशिते अछि
तथा हिनक बहो सबहिक अन्वेषण कए कए संग्रह कएला उत्तर एहि बिषयक हिनक काजक
पर्यालोचना भए सकत। मिथिला

परम्परया श्रुत इतिहासक ई अपूर्व ज्ञाता छलाह तथा तकर पुष्टि अन्यान्य प्रमाण सँ करैत रहैत
छलाह। गामक नामक व्युत्पत्ति कए ओहि सँ प्राचीन इतिहासक ऊहि, पञ्जी साहित्यक आधार
पर परिचयक संकलन, मिथिलाक प्राचीन स्थानक पर्यवेक्षण ओतहि सँ प्राचीन इतिहासक
विवरण इत्यादि हिनक कार्यक अनेक प्रकार छल।



खेद एतवय, जे स्वयं कवी•ार जनैत छलाह अथवा जे अन्वेषण कए जानि सकल
छलाह से सबटा क्रमबद्ध लीखि नहि गेलाह ओ ताहू संखेदक विषय ई जे कवी•ारक लिखल
सबटा बही कोनहु तादृश अनुसन्धानी व्यक्तिक हाथ नहि पड़ल जे ओहि मे डूबि ओतय निहित
रत्नक संचय करैत। परन्तु से बही सबटा नष्ट नहि भेल अछि; क्रमशः प्रकाशमे आबि रहल
अछि ओ आशा अछि जे अचिरहिं कवी•ारक कृतिक एक गोट विस्तार समालोचना प्रकाशित
हो, जाहि सँ मिथिला-पुरातत्वानुसन्धान क्षेत्र मे कवी•ारक कएल सेवाक साधारणो ज्ञान
नवयुवक अनुसन्धानापेक्षी युवक समुदाय कें भए जाइक।



.. .. .. ..


साहित्यिक शिक्षाक भविष्य

श्री सतीशचन्द्र मिश्र



वर्तमान युग प्रधानतया औद्योगिक एवं व्यावसायिक युग अछि। अठारहम शताब्दो मे
जखन इज़्लैण्ड मे औद्योगिक क्रान्तिक प्रादुर्भाव भेल तखनहि एहि युगक जन्म भेल। एहिमे
कोनोटा सन्देह नहि जे इज़्लैण्ड मे विशिष्ट भाव सँ पन्द्रहम एवं सोलहम शताब्दी मे व्यापारिक
युग प्रारम्भ भए गेल छलैक। व्यापारिक भावना सँ प्रेरित भेला सँ अज़्रेज वि•ाक भिन्न-भिन्न
प्रान्त मे व्यापार विस्तारक हेतु गेल छलाह। भारतवर्ष मे व्यापारक हेतु इष्ट-इण्डिआ कम्पनीक
स्थापना भेलैक। भिन्न-भिन्न देशमे अज़्रेज अपन उपनिवेश वनओने छलाह पश्चात् दू-तीन
शताब्दी पर्यन्त क्रमिक रूप सँ ओही भावक विस्तार होइत रहल। संयुक्तराष्ट्र अमेरिका, भिन्न-
भिन्न सम्बद्ध तथा न्यूइज़्लैण्ड, वर्जीनिया, मेरीलैण्ड इत्यादि अज़्रेजक प्रसार भेल।



एकर अर्थ ई नहि जे केवलमात्र इज़्लैण्ड मे ई भावना छल अपितु हॉलैण्ड, स्पेन,


पोर्तुगाल इत्यादि यूरोपीय देशमे प्रायः सर्वत्र व्यापारिक एवं औपनिवशिक कम्पनीक जन्म
भेलैक। फ्रान्समे अपन जन्मजात बौद्धिक प्रखरता सँ त एहन भेल छलैक जे सम्राट् चतुर्दश
लुइ स्वयं एवं कोलपर्ट प्रभृति राज सञ्चालक राजकीय सहायता सँ भिन्न-भिन्न कम्पनीक
स्थापना कए देशक समृद्धिक विस्तारक हेतु कटिवद्ध भेलाह।



प्रायः अठारहम शताब्दीक प्रारम्भ पर्यन्त ई कहल जा सकैत अछि जे यूरोपक विभिन्न
राष्ट्रक पारस्परिक प्रतिस्पर्धा प्रायः समान भाव सँ चलल। किन्तु जखन इज़्लैण्ड 1719मे स्पेनक
शासनक उत्तराधिकारक युद्धमे (ध्र्ठ्ठद्ध दृढ द्मद्रठ्ठदत्द्मण् द्मद्वड़ड़ड्ढद्मद्मत्दृद) मे विजयी भेल तखन सँ
प्रायः व्यापारिक एवं औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा मे इज़्लैण्ड सर्वोपरि रहए लगलै। कारण एहि प्रसज़्
फ्रान्स ओकर प्रधान प्रतिद्वन्दी छलैक। जखन ओकर पराजय भेलैक तखन आर दोसर कोनो
राष्ट्र नहि रहलै जे इज़्लैण्डक समक्ष ठाढ़ भए सकैत छल। किन्तु ओही शताब्दीक मध्यमे
जखन इज़्लैण्ड मे कताइ, बुनाइ आदिक नवीन यान्त्रिक साधनक आविष्कार भेल एवं
यातायातक हेतु स्वेज नहरक निर्माण भेल तथा पश्चात् स्टीम इञ्जनक आविष्कार सेहो भेल
तखन ई बूझि पड़ल जे जातीय जीवनक धार नवीन दिशामे प्रवाहित हयत। पूजीवादक पूर्ण
रूपेण प्रचार भेल। प्रत्येक मनुष्य भौतिक समुन्नतिक हेतु व्यग्र होअए लगलाह। पाछाँ सएह भाव
यूरोपक अन्यान्य देशमे सेहो पसरि गेल। एकरे संक्षेप रूप सँ औद्यौगिक क्रान्तिक युग कहल
जा सकैत अछि। आओर ओहिदिन सँ अद्यपर्यन्त

ओही भावक उत्तरोत्तर पुष्टि एवं वृद्धि भए रहल अछि। आव परिस्थिति ई अछि जे संसार मे
आर कतहु कोनो दोसर भावक प्रावल्य नहि बुझि पड़ैत अछि।



एहि सम्बन्ध मे आव प्रश्न ई होइत अछि जे एकर प्रभाव मनुष्यक बुद्धि एवं ह्मदय पर
की पड़ल? यावत् पर्यन्त जीवन यापनक साधन अपेक्षाकृत सामान्य छल तावत् मनुष्य समष्टि
रूपसँ भौतिक साधनक स्वामी छल। मनुष्य स्वाभाविक रूपसँ अपन जीवन निर्वाह करत छल।
किन्तु जाहिक्रमसँ भौतिक साधनक प्राचुय्र्य भेल ताहिक्रम सँ मनुष्य अपन सामान्य सँ सामान्य
आवश्यकताक पूर्त्ति करवाक हेतु यन्त्रक सहायताक आभारी भेल। ताहिसँ जीवन अधिकाधिक
जटिल (क्दृथ्र्द्रथ्ड्ढन्) भेल। आइ तँ एहन बूझि पड़ैत अछि जे मनुष्य प्रायः सर्वतोभावेन यन्त्रक
दासत्व स्वीकार कए लेलक अछि। जे यन्त्र प्रायः दास रूप सँ प्रकट भेल से आई मनुष्यक
ऊपर परोक्षरूप सँ शासन कए रहल अछि। मनुष्य कोनो तरहे ओकरा छोड़ि नहि सकैत अछि।
गान्धीजीक सदृश महापुरुष जे यन्त्रक अत्याचार कें ओहन अनुभव कए रहल अछि सेहो रेल-
तारक विना काज नहि चला सकैत छथि। ई स्पष्ट बुझना जाइत अछि जे एहि युग मे
हमरालोकनि चेष्टाकरी तथापि यान्त्रिक सभ्यता सँ बाहर नहि भए सकैत छी।



तखन इएह होइत अछि जे यदि ओ यन्त्र शारीरिक सुविधाक हेतु भेल अछि यथापि की
एकर प्रभाव ओतवए दूर तक सीमित छैक? उत्तर हएत नहि। एकर प्रभाव स्पष्टतः मानसिक
क्षेत्र पर्यन्त पहुँचल छै, आइ मनुष्यक विचार सरणि यन्त्रक संगहि चलैत छैक। प्रथमतः
शारीरिक सुखक हेतु एतेक अधिकाधिक साधक भए गेल छै जे प्रत्येक सामथ्र्यवान व्यक्ति चाहैए
जे आ सभवस्तु ओकराप्राप्त भए सकैं। जीवनक सफलताक इएह कसौटी भए गेल अछि। अभाव
सँ लोक दुखी एवं असन्तुष्ट रहैत अछि किन्तु एकर प्राचुर्यक प्रभाव एहन भेल छैक जे मनुष्यकें


प्रायः अन्य भावनाक लेल समय बहुत कम भेटैत छैक। संयुक्तराष्ट्र अमेरिका मे त एहन-एहन
अवस्था भए गेल छै जे मनुष्यकें समाचार पत्र पढ़वाक सेहो समय नहि भेटैत अछि। पारिवारिक
जीवन पर्यन्त विश्रृङ्खल भए गेलैक अछि। अर्थात् साधारणतया ई कहल जा सकैत अछि जे
अप्रकटक रूपसँ मनुष्यक ह्मदय एवं बुद्धि दुहू पर यन्त्र भावनाक आधिपत्य भए गेल अछि।



आब देवताक चाही जे शिक्षा-सरणि पर एकर की प्रभाव पड़लैक अछि। शिक्षा मनुष्य के
जीवन संघर्ष मे सहायता करवाक लेल देल जाइत छैक। शिक्षाक अर्थ अछि मनुष्यक अन्तर्हित
शक्तिकें जागृत करब। किन्तु ई शक्ति कोनो लक्ष्यहीन सौद्धान्तिक रूप सँ जागृत नहि भए
सकैत अछि। सदत ओकर एक उद्देश्य रहैत छैक। हम मनुष्यकें शिक्षा द सकैत छी जाहिसँ
समाजक अकल्याण होइ यथा चोरो करब, परनिन्दा करब, कलह, असत्यभाषण इत्यादि। किन्तु
ई शिक्षाक उद्देश्य नहि राखल जा सकैत छैक। कारण? कारण इएह जे एहन प्रवृत्ति सँ मनुष्य
समाज मे शान्ति सँ नहि रहि सकैत अछि। ताहि लेल शील, सत्य, एवं अन्यान्य नैतिक गुणक
प्रचार कएल जाइ छैक। जीवनयापन मे समय-समय पर युद्धक आवश्यकता पड़ैत छैक
आत्मरक्षाक लेल, जाति रक्षाक लेल, देश-रक्षाक लेल अथवा अन्यान्य वस्तुक लेल। ओहि हेतु
प्राचीन समयसँ अद्यपर्यन्त सैनिक शिक्षाक आवश्यकता रहल अछि। किन्तु, जखन-जखन बौद्ध,
जैन कालमे किंवा इसाई धर्मक प्रावल्यक कालमे मनुष्यक संस्कार विशुद्ध रूप सँ शान्तिक
दिशामे बहल तखन लोक युद्ध विद्याक दिससँ उदासीन भए गेल। तात्पर्य ई जे एहन शिक्षा
वरावरि समाजक सामूहिक आदर्श सँ प्रभावित होएत।



हम सब देखै छी जे ग्रासमे शिक्षाक आदर्श मे दर्शनक संग-संग संगीत एवं व्यायाम
शिक्षाक स्थान छल। भारतवर्ष मे ताही तरहे साहित्यिक एवं दार्शनिक शिक्षाक प्रचार भेल।
युगक जेहन आदर्श रहत तेहन शिक्षाक लक्ष्य भेल। तखन ओकर अभ्यन्तर केहेन-केहेन विशिष्ट
रूप रहलैक ताहिमे प्रवेश करबाक स्थान नहि अछि। तथापि एतवा कहि सकैत छी जे वर्तमान
युग सँ पूर्व शिक्षाक प्रधान उद्देश्य छल बुद्धि एवं रुचिक

संस्कार; भावनाक परिष्कार। किन्तु आइ ई वस्तु नहि रहल। कारण स्पष्ट अछि, आइ जे मानव
सभ्यता मे ई अभूत पूर्व परिवर्तन भए गेल अछि तकर परिणामस्वरूप शिक्षाक आदर्श मे सेहो
परिवर्तन भए गेल अछि।



ऊपर कहल जा चुकल अछि जे यूरोप मे अठारहम शताब्दी मे यान्त्रिक सभ्यताक प्रचार
भेल किन्तु आश्चर्य इएह जे प्रायः उन्नैसम शताब्दी धरि यूरोपियन शिक्षाक ऊपर यान्त्रिक प्रभाव
कम्म भेल। यान्त्रिक सभ्यता सँ समाज मे संगठनक भाव उदित भेल। ताहि सँ अधिकाधिक
संख्या मे संगठित रूप सँ वि•ाविद्यालयक द्वारा शिक्षाक प्रचार भेल। किन्तु विषय प्रायः पूर्वहिक
रहल-साहित्य, दर्शन, गणित, इतिहास इत्यादि। शिक्षा मे प्रायः लौकिकता (ण्द्वथ्र्ठ्ठदत्द्यत्ड्ढद्म)क
प्राधान्य रहल। आश्चर्य तँ ई जे जखन इज़्लैण्ड मे यान्त्रिक सभ्यताक एकदिश उत्थान भेल
ओहीठाम ओही समय (ङदृथ्र्ठ्ठदद्यत्ड़ द्धड्ढध्त्ध्ठ्ठथ्)या कल्पनाशील साहित्यिक प्रादुर्भाव भेल। कवि
एवं साहित्यिक सामान्य एवं प्रचलित आडम्बर पूर्ण निर्जीव साहित्य एवं कलाक त्याग कय
स्वच्छन्द नवीन साहित्यक दिशा मे अग्रसर भेलाह।




ई प्रत्यक्षतः आश्चर्यक बात बुझना जाइत अछि जे जाहिठाम एक दिश स्टीम इञ्जिन,
एवं चर्खा कर्घाक यन्त्रक आविष्कार भ' रहल छल ताहिठाम दोसर दिश शैली, वर्डस्वर्थ एवं
कीटस्क काव्यलहरी लहराइत छल किन्तु वास्तविक त बात सएह छल। वि•ाविद्यालय मे सेहो
प्रायः उदार शिक्षाक प्राचुर्य सएह रहल। साहित्य, भाषाज्ञान, दर्शन, इतिहास सएह सब विषय
छल। जखन उन्नैसम शताब्दीक उत्तराद्र्ध मे पदार्थविज्ञान एवं रसायनशास्त्र किंवा अर्थशास्त्र
इत्यादि नवीन-नवीन विषय प्रचलित भेल तखनो प्रायः ई सभ विषय लगभग प्राचीन प्रणाली पर
सांस्कृतिक सएह रहल। ताहि कारण सँ शिक्षा पद्धतिक ऊपर तकर स्पष्ट कोनो प्रभाव नहि
पड़लै।



किन्तु, बीसम शताब्दीमे विज्ञान अधिकाधिक व्यवहारिक रूप धारण कएने अछि।
जीवनक साधन प्रस्तुत करवा मे विज्ञानक सहायताक आवश्यकता अत्यधिक भए गेल छैक।
समाजकें आब अधिकाधिक मात्रामे शिक्षित इञ्जीनियर, डाक्टर, रसायनवेत्ता एवं यन्त्रशास्त्रीक
आवश्यकता आब समाजकें कम बूझि पड़ैत छैक। परिणाम की भेल अछि? प्रत्येक सभ्यदेशमे
आब ई स्ष्ट स्वर उठल अछि जे वि•ाविद्यालयके देशक उद्योगकेन्द्र किंवा कल-कारखाना सँ
सम्बन्ध रखबाक चाही। शिक्षाक जे समय पहिने विशुद्ध ज्ञानार्जन किंवा भावपरिमार्जन मे लगैत
छलैक से समय आब यन्त्रज्ञान मे लगबाक चाही। एकर परिणाम को हेतैक? नवयुवक
अधिकाधिक संख्यामे यान्त्रिक शिक्षामे लागत। ई जे अवश्यम्भावी परिवर्तन अछि तकरा हमरा
लोकनि रोकिओ नहि सकैत छी यावत वर्तमान सभ्यताक दिशामे परिवर्तन नहि करी। से
परिवर्तन एखन केओ-कैओ नहि सकैत अछि। ताहि कारण सँ शिक्षाक रूपमे परिवर्तन अवश्य
हएत।



किन्तु संगहि-संग एकबात पर हमरासभकें ध्यान राखब आवश्यक अछि। यदि सभकेओ
यान्त्रिक भए जाएब तँ मनुष्यक आन्तरिक भाव पर ओकर की प्रभाव पड़तैक? मनुष्य कि मनुष्य
रहत? यदि हम सभ सुरुचि, सुसंस्कार, साहित्य, संगीतकें त्यागि केवल मात्र भौतिक साधन
उत्पादन केनिहार प्राणी भए जाइ तखन की मनुष्य अधिक सुखी हएत? भए सकैत अछि जे हम
सभ अधिक मात्रामे सांसारिक वस्तुक व्यवहार कए सकब किन्तु ताहिसँ की हमरालोकनिक
अनुभूति शक्तिक वृद्धि हैत? यदि नहि, त फेर जाहि सुखक अन्वेषण मे हम सभ एतेक कए
रहल छी से सुख की मनुष्यकें भेटत? यदि मानवप्राणी भावहीन मशीन भए जायत तखन पशु मे
एवं मनुष्यमे भेद की रहत? अज़्रेज कवि व्राउनिज़् एहि भावकें दोसर रूपसँ प्रकट कएने छथि
'क्ष्द्धत्त्द्म ड़ठ्ठद्धड्ढ द्यण्ड्ढ थ्र्दृद्वद्यण्ढद्वथ् डत्द्धड्ड?' हम सब ओहन सभ्यतामे सुपालित भए सकैत छी किन्तु
ताहिसँ अतिरिक्त किछु नहि रहब। आइ यदि संसारसँ बाल्मीकि, होमर, कालिदास, सेक्सपिअर,
गेटे प्रभृतिक नाम उठि जाए तखन संसारक मनुष्यक अवस्था की रहतै? यदि हम हुनका
दिशसँ उदासीन भए जाइत परिणाम

प्रायः एके हएत। ई बात सत्य जे जखन संसारमे हुनका लोकनि सँ सहानुभूति कएनिहार लोक
अछि किन्तु पाछाँ की अवस्था हएत?



एही कारणसँ ई, आवश्यक बुझना जाइत अछि जे उदारशिक्षा, विशुद्ध ज्ञानार्जन, ओ


भावनाक विकास होइत रहए। मनुष्य भूतकालक महाकवि, कलाकार, साहित्यिक, इतिहासज्ञ
एवं दार्शनिकक कृतिसँ अपन मानसिक विकासक प्रयत्न एवं संगहि संग यान्त्रिक पटुताकें प्राप्त
करबाक सेहो प्रयत्न करथि। शिक्षामे साहित्य एवं दिशुद्ध कालक समुचित स्थान रहैक अन्यथा
मनुष्य प्राणी-जगतमे जे अपन विशिष्टता रखैत अछि तकरा छोड़ि देत ! से समय हएत जखन
मानव आत्मापर पर्णरूपेण जड़ जगतक विजय भए जएतैक। शिक्षाशास्त्रक वेत्ता एवं नियन्त्रक
के एहि स्थिति पर ध्यान राखब आवश्यक।

.. .. .. ..

मिथिला

श्री सुरेन्द्र झा 'सुमन'



भारतक मानचित्र जँ कोनहुँ मूर्त्तिक रूप मे परिणत कयल जाय, कवीन्द्र रवीन्द्रक शब्द
मे जे एहि 'भुवन-मनो-मोहिनी' भूमि कें 'सिन्धु-धौत-चरण-तल' ओ 'शुभ्र तुषार-किरीटिनी'क
साज मे सजाओल जाय, तँ वि•ावन्द्य हमर चिरन्भन भारत-जननी क दृष्टि' क स्थान कोन
'खण्ड' कें प्राप्त होयत?



भारतीय सभ्यता जे वि•ाक अन्यान्य सभ्यता सबहिक जननी अथवा सबहिक वयोवृद्ध
उपदेशिका कहल जा सकैत अछि, तकर दर्शन साहित्य, स्थापत्य सज़र््ींत, चित्रकला, प्रभृति
जतेक अज़् अछि तकरा जँ भारतक अज़्भूत जनपद सबहि मे अपन-अपन वैशिष्ट¬क अनुरूप
विभाजित कयल जाय तँ 'दर्शन'क स्थान कोन 'खण्ड' कें भेटत?



हिन्दू-संस्कृतिक विकास कालक किछु दिन पूर्व धरि आध्यात्मिकताक लगाम धयने युग-
वाजी कें जे मस्तिष्क अभ्रान्त पथ पर चलौलन्हि, जनिक वाणी कोटि-कोटि जिज्ञासु कण्ठक
सज़र््ींत बनल ओहि दिग्गज विद्वान लोकनिक, चरमकोटिक दार्शनिक लोकनिक 'मा' कहयबाक
गैरव जाहि नापल-जोखल किछु योजन भूमि कें भेटल से कोन थीक?



हमरा लोकनि ओकरा मिथिलाक नाम सँ स्मरण करी ओ मिथि महाराजक संग ओकर
इतिहास कें युक्त करी, अथवा विदेहभूमि कहि विदेह जनकक प्रिय भूमि कही, अथवा तिरहुतिक
नाम धय ओकर तीर पर भेल अपन पूर्वज ऋषि लोकनिक यज्ञ-हवन के मन पाड़ी, परन्तु होयत
ओ इयह हिमालयक शीतल छाह मे गज़्र्म्बिुचुम्बित मिथिला।



मिथिला--ई नाम सुनितहिं मन पड़ि अबैत अछि आदि युगक ओ दलदल भूमि जे
यज्ञाग्नि द्वारा सक्कत बनाओल गेल छल; ओ स्वर्णभूमि जतय सीता उपजा जकाँ उत्पन्न भेलि
छलीह; ओ राजसभा जतय योगी शुक मिथिलेशक द्वारपालक संग आध्यात्मिक प्रश्नोत्तर कय
रहल छथि; ओ युग जखन मांसविक्रयो व्याध क्रोधभ्रष्ट जतय शुकशुकी 'स्वतः प्रमाणं परतः
प्रमाणं' गिरा रटि रहल अछि।




मिथिला सँ, गण्डकी आ कौशिकीक अन्तरालक मृणमय भौतिक रूपक नहि, प्रत्युत
ओहि सभ्यताक प्रतीति होइत अछि जाहि सँ आर्यावत्र्त अद्यापि अनुप्रमाणित अछि। काशी ओ
मिथिला इयह दुनू आदिकालहि सँ

हिन्दूक ज्ञानपिपासा शान्त करबा मे पूर्ण भाग लेने आयल अछि। उपनिषद मे 'काशो-विदेह'
स्थान-स्थान पर ज्ञानभूमिक रूपमे उद्धृत अछि।



राजस्थान ओ पञ्जाबक हटि गेला सँ जेना भारतवर्ष भुजा कटि जायत, बज़्र्लि कें
हटाय देने जेना वाणीक सज़र््ींत उठि जायत, तहिना मिथिला कें जँ भारतवर्ष सँ फराक कय दी
तँ प्रत्यक्षतः भारतक सदृश विशाल भूखण्ड मे ओहेन कोनो बाह्र अन्तर तँ नहि होयत परन्तु
ओकर अन्तः स्वरूप मे जे आघात होयत तकर चिन्तना समेत करबाक साहस नहि होइत
अछि।



राजर्षि विदेह जनकक अभाव सँ ब्रााहृण कालक सम्पूर्ण गौरव लुप्त भय जायत। राजस
मे सात्विक भावक सम्मिश्रण कयनिहार ओहि रूपक राजर्षि कोनहु युग मे प्रादुर्भूत नहि भेलाह।
'कर्मणैवहि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः'क दृष्टान्त गीता कें तकनहु नहि भेटितैन्हि। न्याय-सूत्र
प्रणेता महर्षि गौतम नहि होइतथि तँ न्याय-दर्शन बिनु भारतीय दर्शन लाँगड़े रहि जाइत। शुक्ल
युर्जुर्वेदक द्रष्टा ब्राहृर्षि याज्ञवल्क्य कें जँ छोड़ि दिऐन्हि तँ 'ईशावास्य'क ज्ञानकाण्ड के
सिखौनिहार पवित्र ऋचा आइ दुर्लभ रहैत।



जनिक पतिप्रवणताक तुलना कोनहु युगक ओ कोनहु भुवनक केओ नारी आइ धरि नहि
कय सकलि, ताही, सती-सीमन्तिनी सीता क बिना नारीत्वक चरम आदर्श आइ संसार नहि
सीखि सकैत! तपस्विनी उर्मिला मनस्विनी माण्डवी ओ श्रुतिकीर्त्तिक सदृश देवी कतय भेटत !
गार्गो ओ मैत्रेयीक सदृश ब्राहृवादिनी महिला सँ ई संसार वञ्चिते रहि जाइत !



पुरान युगक कथा जाय दिअ। एम्हरहु त भारतक साहित्य किंवा दर्शनक इतिहास बिनु
मिथिलाक निपले पोतल रहि जायत। आचार्य उदयनक कुसुमाञ्जलि, मिश्र वाचस्पतिक दर्शन-
भाष्य ओ मण्डन मिश्रक मीमांसा-ग्रन्थ सँ रिक्त रहि, परमगुरु गज़्âश उपाध्यायक चिन्तामणि कें
त्यागि, भारतीय दर्शन शास्त्र पूर्ण नहि रहि सकैत अछि। कर्कश तर्क विद्याक दिशि सँ घूड़ि जँ
कोमल काव्य-कल्पनाक दिशि दृष्टिपात करी तँ प्रसन्नराघवकार जयदेव, आर्यासप्ततीकार
गोवर्धन, गर्वी मुरारी, रससिद्ध कविराज भानुदत्त सदृश साहित्य-महारथी लोकनिक अभाव मे
संस्कृत साहित्यक गम्भीर क्षति बिनुभेलें नहि रहि सकैत अछि, बिनु मैथिल कोकिलक
काकलीक अंग-बंग कलिंग मे, ओ ब्राजनिकुञ्ज मे बसन्त कोना आबि बसैत?



मुदा जखन हमरा लोकनि नीचाँ अबैत छी ओ प्राचीन मिथिला सँ नवीन मिथिला दिशि
आँखि फेरैत छी तँ अन्तर बड़ अधिक देखि पड़ैत अछि, महाकवि भवभूतिक श्लोक मन पड़ैत
अछि जाहि मे ओ जनस्थानक वर्णन मे पछाति कहैत छथि।



निवेशः शैलानों तदिदमिति बुदिं्ध द्रढ़यति।




प्राचीन तपोभूमि मिथिला आइ निरुद्ध वायुमण्डल मे •ाास लय रहल अछि। ओकर
प्राचीन गौरवक स्तम्भ आइ खण्डहर जकाँ पड़ल अछि। ई 'ओ' नहि बुझि पड़ैत अछि। हँ,
कतोक विभूति आइयो काल्हि ओहि पुरातन महिमा कें संसूचित कय-कय जाइत छथि जाहि सँ
हमरा लोकनि केवल एकरा चिन्हटा जाइत छी।



.. .. .. ..



काव्य

प्रो0 श्री श्रीकृष्ण मिश्र



शब्द तीन प्रकारक होइछ-एक प्रभु सम्मित दोसर सुह्मत्सम्मित, तेसर कान्ता सम्मित।
कोनो शब्द वक्ता प्रयोग करैत छथि श्रोता कें किछु कहबाक हेतु। ओ कहबाक शिष्ट प्रकार
समस्त वाङ्मय मे उपलब्ध होइछ तीन रूपें। वक्ता मालिक जकाँ अपन आज्ञा दैंछ, वा मित्र
जकाँ श्रोता कें बुझबैछ वा प्रियतमा जकाँ रसमय वाणी सँ आकृष्ट करैछ। एहि तीन प्रकारक
शब्द मे प्रभु सम्मित शास्त्र कहबैछ ओ कान्तासम्मित काव्य। सुह्मत्सम्मित शब्द हमरा जनैत
काव्य ओ शास्त्र दूनू भय सकैछ। प्रियतमा सँ विशिष्ट सुह्मद आर के? अतः सुह्मत्सम्मित शब्द
मे सुह्मत् केर सह्मदयताक मात्रा निर्भर करछ जे हुनक शब्द काव्य थिक वा शास्त्र। एही कारण
संस्कृत साहित्य मे पुराणादि जे सुह्मत्सम्मित शब्दक दृष्टान्त मानल जाइत अछि से काव्यहु
जकाँ सुन्दर रूपें पढ़ल जा सकैछ। किन्तु वर्णनक रोचकता मात्र मे ओकर विश्राम नहि भ'
जाइछ अतः ओ काव्य पदेन व्यवह्मत नहि होइछ।



वास्तब मे ई तीन प्रकारक विभाग संस्कृत आलच्र्ििरक लोकनि उपदेश कथनक दृष्टि स
कएलन्हि अछि। प्रभुसम्मित ओ सुह्मत्सम्मित शब्द मे उपदेश रूप अर्थ विशेष प्रधान होइछ, शब्द
ओतेक प्रधान नहि। तथापि प्रभुसम्मित शब्दक सबसँ उत्कृष्ट दृष्टान्त वेद मे शब्दक ततेक
प्राधान्य छैक जे ओहि मे पय्र्याय शब्दक प्रयोग कय ओहि अर्थ कें प्रगट नहि कएल जा सकैछ।
एहि परिवृत्य सहिष्णुताक कारणे वेद शब्दप्रधान वाङ्मय कहबैछ। कारण विधि-निषेध कथनक
दृष्ट्या वेद आज्ञा प्रधान शब्द थीक जाहि मे शब्द अर्थ सँ गौण नहिं रहैछ। सुह्मत्सम्मित
पुराणादि मे एहिना शब्द अप्रधान रहैछ, ओ अर्थ प्रधान। ओना त शब्द ओ अर्थ के ततेक
तादात्म्य छैक जे एक दोसर सँ पृथक् नहिं कएल जा सकैछ ओ सिद्धान्ततः पर्याय शब्द-कतहु
प्रयोग नहि कएल जा सकैछ, किन्तु वक्ताक अभिप्राय यदि अर्थ मे विशेष होइछ त ओ अर्थप्रधान
वाङ्मय कहबैछ। अर्थात् जँ बक्ता कें अपन शब्दावलीक छटा मे कोनो आवेश नहि होइन्ह अपितु
ओ अपन भावमात्र कें बुझएवा सँ विश्राम लेथि, त ओ अर्थ प्रधान वाङ्मय कहाओत। केवल
शब्दमय वाङ्मय नहि भ सकैछ कारण अर्थहीन शब्दक प्रयोग कोनो बुद्धिमान् व्यक्ति नहि
करत। अतः एक विभाग वाङ्मयक थिक--शास्त्र; जाहि मे-पुनः दू विभाग अछि--वेद शब्द प्रधान
ओ पुराणादि अर्थ प्रधान। दोसर विभाग वाङ्मयक ओ थीक जाहि मे शब्द ओ अर्थ दूनूक
सहभाव रहय। ओ थीक 'काव्य'। एही कारणे एकर दोसर नाम देल गेल अछि साहित्य, जकर


व्युत्पत्तियर्थ ई थिक जे जाहि वाङ्मय मे शब्द ओ अर्थ समान भावेन रहय। वास्तव मे शब्द ओ
अर्थक समान भावेन रहब वा अर्थक विशेष रूपेण प्राधान्य रहब एकर विवेक विचारला सँ अन्त
मे वक्ताक वा श्रोताक दृष्टि पर निर्भर करैछ। एके ग्रन्थ एक पाठक काव्यक रूप मे पढ़ि
सकैछ, दोसर शास्त्रक रूप मे। किन्तु ओ वास्तव मे शास्त्र थिक वा काव्य ई निर्णय श्रोताक
दृष्टि सँ नहि अपितु वक्ताक दृष्टि सँ कएल जाइछ। अतः शास्त्र ओ थिक जाहि मे लेखकक
उद्देश्य एक विशिष्ट अर्थ कें बुझएबा मात्र मे वित्राम लैछ, एवं काव्य ओ जाहिमे वक्ताक उद्देश्य
रहैछ जें श्रोता जहिना हुनक अर्थक विशिष्टता दीस ध्यान देथि तहिना शब्दावलीक चमत्कारो
दीस। कवि वास्तव मे कान्ता जकाँ बजैछ। जेना रमणी बजबा काल अपन हाव भाव सँ अर्थ कें
विशिष्ट रूप दत रहैछ तहिना कवि अपन शब्दावलीक चमत्कार सँ अर्थक वैशिष्टय बढ़बैछ।



काव्य होइत अछि चमत्कार प्राण। काव्यक अर्थ ओ शब्द दूनू मे चमत्कार रहैछ। जँ
पुरान अर्थक पिष्टपेषण केहनो विशिष्ट शब्दावलीक प्रयोग सँ कएल जाय तँ ओ सत्काव्य नहिं
भ सकैछ, तहिना नवीन सं नवीन कथा ओ सुन्दर सँ सुन्दर अर्थ कहबाक ढज़् नीरस रहला सँ
काव्य पदवी कें नहि प्राप्त करैछ। यद्यपि ई कथ्य एतेक सोझ तरहें नहिं बुझाओल जा सकैछ
कारण संसार मे एहेन महाकवि कम्मे होइत छथि जनिक

शब्द ओ अर्थ दूनू चमत्कुत होइन्ह, वा जनिक रचना मे कतहु नीरसताक भान नहिं हो। जँ से
रहैत त काव्यगत गुण दोषक विचार नहि कएल जाइत एवं दोष प्रकरण मे कविए लोकनिक
उक्ति सभ दृष्टान्त नहि बनैत। काव्य होइत अछि चमत्कार प्राण अवश्य, ओ चमत्कार शब्द ओ
अर्थ उभयनिष्ठ रहैछ ईहो सत्य, किन्तु ई कहब जे काव्य वैह थिक जाहि मे शब्द ओ अर्थ दूनू
मे चमत्कार रहबे करैक, वा नहि रहला सँ ओ शब्दार्थ समूह काव्य नहिं कहा सकैछ एक
आदर्शवादी कल्पना मात्र भ जायत। हमरा जनैत काव्य ओहि रचना के कही जकर लेखक शब्द
ओ अर्थ उभयनिष्ठ चमत्कार कें अपन आदर्श मानि अपन लेखनी उठओने होथि। ओ सत्काव्य
ओ थीक जाहि मे एहि आदर्श मे लेखक कें सफलता प्राप्त भेल होइन्हि, ओ कुत्सित काव्य ओ
जाहि मे कवि कें एहिमे सफलता नहि भेटल होइन्हि।



काव्य मे शब्द अर्थ एहि दूनू मे चमत्कार कोन प्रकारें अबैछ, एहि विषय मे अनेको मत
अछि। केओ अलच्र्रि कें, केओ रीति कें, केओ वक्रोक्ति कें काव्यक आत्मा मानैत छथि। परिभाषा
कएल गेल अछि 'वैग्ध्यभज़र््ीं भणिति' अर्थात् चतुर रीतिसँ कथन। यद्यपि बक्रोक्तिकार कुन्तक
वक्रोक्ति कें काव्यक आत्मा मानैत छथि ओ साहित्यक समस्त मर्म कें एही सिद्धान्तक विशद
विवेचन स बुझबैत छथि तथापि वक्रोक्ति अलच्र्रिक एक प्रभेद मात्र बूझि पड़ैछ। कारण
अलच्र्रिहुक अर्थ यैह होइत अछि जे अलच्रण करय अर्थात् जे शोभाकर हो। दण्डिक शब्द मे
अलच्र्रि थिक 'काव्य शोभाकरधर्म'। भामह ओ उद्भट प्रभृति प्राचीन आलच्र्ििरकक मतें अलच्र्रिे
काव्यक सर्वस्व थिक। एहि सँ भिन्न वामनाचार्य रीति कें काव्यक आत्मा मानैत छथि। रीतिक
हुनक परिभाषा छैन्हि 'विशिष्ट पदरचना रीतिः' ओ विशिष्टता हुनका मतें गुण सँ अबैछ। यद्यपि
वामन दश गुणक उल्लेख कयने छथि किन्तु एहि मे सँ ओज, प्रसाद ओ माधुर्यक अतिरिक्त
आन गुण अलच्र्रिादिक अन्तरर्गत आवि जाइछ किंवा एही तीन गुण मे अन्तर्भूक्त भ जाइछ। एवं
प्रकारें अलच्र्रि ओ गुण काव्यक चमत्कारक आश्रय मानल गेल अछि। किन्तु वास्तव मे अलच्र्रि
ओ गुण ककर ई कथा यावत् स्पष्टतया व्यक्त नहि होइछ तावत् काव्यक मम बड़ दुरूह अछि।


अलच्र्रि ओ गुण कें काव्यक प्रधान अंश माननिहार लोकनि काव्यक अन्तः स्थित रहस्यक
उद्घाटन नहि क सकलाह। अलच्र्रि कें काव्यक सर्वस्व बुझनिहार लोकनि काव्यपुरुषक स्वरूप
मात्र सँ परिचित भेलाह। गुण के काव्यक विशिष्टताधायक माननिहार काव्य-पुरुषक मन धरि
पहुँचि सकलाह। किन्तु काव्य-पुरुषक आत्माक परिचय हुनकहुँ नहिं भेलैन्हि।



काव्य-पुरुषक आत्मा थिक रस जाहि बिना काव्यक समस्त वाङ्मय मे मूर्धन्यता स्थापित
होयब असम्भव। काव्यक बाह्र परिचय यदियपि शब्द ओ अर्थ सँ होइछ किन्तु काव्यक
आन्तरिक ओ वास्तविक स्वरूप, जाहि कारण अर्थ मे विशिष्टता अबैछ वा शब्दक तादृश यतन
कएल जाइछ से शब्द ओ अर्थ दुहूक अन्तस्तल मे निहित ओ गम्भीर वस्तु थीक जकरा रस
कहैछ ओ जकरे संपर्क सँ शब्द ओ अर्थ दूनू चमत्कृत होइछ। कवि कें जे कोनो कथा कहबाक
होइछ तकरा पूर्वहिं ह्मदयज़्म क लेब बड़ आवश्यक। कोनो कथा कें ह्मदयज़्म करबा मे बुद्धि सँ
त अवश्य कार्य लेल जाइछ किन्तु एक एहेन स्थिति होइत छैक जखन बुद्धि जेना मार्ग छोड़ि
दैक ओ कविक आत्मा ओकरा आत्मसात् क लैछ। ओङि समय मे बुद्धिक परिच्छिन्नता जन्य
दोष दूर भ जाइछ ओ कवि ओहि वस्तुक अनुभव अपरिछिन्न रूपें करैछ। वैह होइछ रसानुभूति
ओ सर्वोत्कृष्ट काव्यक जननी। बुद्धिक परिच्छेद यावत् रहैछ तावत भाव-काव्य मात्रक निर्माण भ
सकैछ। वर्णनीय कथाक अपरिच्छिन्नानुभूति रसानुभूति कहबैछ किन्तु एहि अपरिच्छिन्नानुभूति कें
कविक शब्दक परिच्छेद मध्य वर्णन करए पड़ैछ। ई नहि सम्भव भय सकैत जँ शब्द मे ई
सामथ्र्य नहिं होइत जे स्वयं परिच्छिन्न रहितहुँ अपरिछिन्न अर्थ कें प्रकट करय। शब्दक ओहि
शक्ति कें जाहि द्वारा ई सम्भव भय सकैछ तकरा व्यञ्जना कहैत छैक।



अतः उच्च कोटिक काव्यक भाषा व्यञ्जनात्मके होइछ। ओहि शब्द सभक अपरिछिन्न
अर्थक व्यञ्जकता एक विशिष्टे होइत छैक। उच्चकोटिक कविक शब्दावली मे ओ निम्न कोटिक
कविक शब्दावली मे मुख्यतः

एही व्यञ्जकताक अन्तर रहैछ।



अलच्र्रिक गुण ओ दोषक बिचार एही रसरूप आत्माक दृष्टि सँ कएल जाइछ। जेना
शौय्र्यादि गुण मनुष्यक आकारक नहिं अपितु आत्मा (नैयायिकक मतें) क गुण मानल जाइछ
तहिना माधुर्य ओज ओ प्रसाद ई तीनू काव्य-पुरुषक आत्मभूत रसक गुण होइत छैक। ओ
आभूषण जेना मनुष्यक सुन्दरता बढ़बैछ तहिना अलच्र्रि काव्य-पुरुषक। अलच्र्रि ओ गुण दूनू
रसक उत्कर्षा धायक होइछ। भेद एतबे जे अलच्र्रि रहबो करैछ वा नहिओं रहैछ रसक संग।
किन्तु बिना रसे अलच्र्रि जकाँ गुणक पृथक स्थिति सम्भव नहि। ओ रहला उत्तर रसक निश्चित
रूपें ओ उपकारक होइछ। आभूषण जेना तत्तदज़्क शोभा बढ़ाय शरीरी मनुष्यहुक शोभा बढ़बैछ
तहिना अलच्र्रि काव्यक शब्द वा अर्थ रूप अंगक शोभा बढ़ाय अंगी रसहुक शोभा बढ़बैछ।
जाहि ठाम रस स्पष्ट रूपें व्यक्त नहि रहैछ ताहि ठाम अलच्र्रि उक्ति वैचित्रय मात्र होइछ।
रसक अछैतो कतहु कतहु अलच्र्रि ओकर शोभा नहि बढ़बैछ जेना गोटेक आभूषण मनुष्यक
सौन्दर्यक बढ़एबा मे कोनो सहायक नहि होइछ।



आत्माक वास्तविक स्वरूप चिदानन्द मात्र होयबाक कारणे समस्त काव्यक स्वाद
आनन्दमय ओ चिन्मय होइछ। शोकादि दुःख जनक भागि एहि मे दुःख कें छोड़ि दैछ। वास्तव


मे सांसारिक दुःख वा सुख सँ काव्य जगत्केर सुखा ओ दुःख विलक्षण होइत अछि तकर यैह
कारण जे काव्यक सुखानुभूति परिछिन्न नहिं रहैछ ओ सांसारिक दुःख ओ सुख दूनू परिछिन्न
रहबाक कारणें आत्यन्तिक नहि होइछ। काव्यगत दुःखो परिछिन्नता रहित भए दुःखक कारण
नहि बनैछ।



काव्यक प्रयोजन अनेक रहितहुँ ई आनन्दक अनुभव करब ओ करायब सब सँ प्रधान
प्रयोजन थिक। कारण यद्यपि थिक। कारण यद्यपि यशहु आदिक हेतु काव्य अवश्य लिखल
जाइछ, तथा कान्ता सम्मित शब्दें उपदेशहुक प्रयोजन एहि सँ सिद्ध होइछ, किन्तु जँ कवि के
अपना रसानन्दक अनुभूति नहि भेल होइन्हि त काव्य लिखबा पढ़वा दिशि ओहि प्रकारक प्रगाढ़
ओ स्वाभाविक प्रवृत्ति नहिं होइतैन्हि जाहि बिना काव्य लिखब ओ पढ़ब असम्भव। अतएव एहि
अपरिछिन्न रसानुभूति कें सकल-प्रयोजन-मौलिभूत कहल गेल अछि।



कविक काव्य रचनाक प्रयोजन मे जहिना रसानुभूतिक मूर्धन्यता छैक तहिना काव्य
रचनीक कारणहुँ मे बिना एहि अनुभवँ प्रतिभा नहिं सकैछ ओ बिना प्रतिभा सँ व्युत्पत्ति ओ
अभ्यास कवि कें काव्य रचना मे ततेक सहायक नहि भ सकैछ। प्रतिभा काव्यक हेतु सभ मे
ओहने स्थान छैक जेहन उपनय-यज्ञ मे गायत्रीक। अतः बहुत आलच्र्ििरक त केवल प्रतिभेटा कें
काव्यक हेतु मानलैन्हि अछि। व्युत्पत्ति ओ अभ्यास तँ वास्तव मे प्रतिभाक उद्बोधक वा संस्कार-
कारक मात्र थिक, काव्यक हेतु नहिं।



.. .. .. ..



बन्दी राजकुमार

श्री काञ्चीनाथ झा 'किरण'



(स्थान--जौनपुर)

पाठान बादशाहक दरवार भवन।



गद्दी पर बैसल बादशाह गम्भीर मुद्रामे।गद्दीक बाम भागमे बैसल बजीर तथा किछु
दरवारी (चुप

सशंकित मुद्रामे)।



आठ सैनिक द्वारा घेड़ल मिथिलाक युवराज शिवसिंहकें लेने पाठान सेनापतिक प्रवेश।
सेनापति ओ सैनिक बादशाहकें सलाम कय शिवसिंहक दूनू कात तथा पाछूमे ठाढ़ भय जाइछ।
शिवसिंह निर्विकार भावें ठाढ़ रहैत छथि।

बादशाह--(गम्भीर स्वरमे) कहू राजकुमार साहब?

शिवसिंह--की कहू

बाद0--आब की इरादा अछि?

शिव0--एकर अर्थ?


बाद0--(ताच्छिल्यपूर्ण स्वरमे) जंगक जोस ठंढा होगेल किने?

शिव0--युद्धलिप्सा? पाठानपति ! व्यर्थक विषय नहि उठाउ !



हमरा युद्धक लिप्सा ने छल, ने अछि ! हम मनुष्य मात्रकें बन्धु मानैत छी। कोनो देशक
रहओ, कोनो जाति रहओ--सभ मनुष्य थिक सभ बन्धु थिक। हमर यैह मत अछि। मुदा अपन
देशक अपन समाजक स्वाधीनताक रक्षा तँ करबे करब। जे हमर स्वानीनताक अपहरण करय
चाहत तकरा मानव जातिक शत्रु मानि ओकर संग अवश्य लड़ब ! हम अहाँक देशपर आक्रमण
कहाँ करैत छी?



बाद0--(कनेक विस्मित अप्रतिभ सन भेल) आब अहाँक की इरादा अछि से बताउ !

शिव0--ओ ऽऽऽ। हमर इच्छा अछि कारागारकें तोड़ि अपन देश जाइ आ' अपन देशकें स्वतन्त्र
बनाबी !

बाद0--(व्यंग सँ) से तँ मुमकिन नै अछि । तब?

शिव0--तखन कारागार मे छीहे !

बाद0--दोसरो तरीका सँ कैदखाना सँ बाहर हो सकै छी? अपन मुल्क कें मालिको हो सकै
छी?

शिव0--तात्पय्र्य एकर?

बाद0--हमर मातहती कबूल कऽ ली तँ हम छोड़ि देब। अहाँ अपन मुल्क कें मालिक हो जायब।

शिव0--(क्रोध ओ घृणापूर्वक) छिः एहन कथा पुन जीभपर नहि लाउ।

बाद0--(कड़कि) से काहे?

शिव0--युद्धमे हारि जीति स्वाभाविके थिक ! तञ विजेता पराजितक अपमान करय से
सभ्यलोकक कर्तव्य नहि थिक। अहाँ आब एहि पवित्र भारतमे घर बनालेलहुँ तँ किछु शिष्टाचारो
सिखू !

बाद0--(आँखि गुड़रि) तब हमर मातहती कें बेइज्जती समझै छी?

शिव0--(जोरदय) अहींक मातहती टा कें नहि; पराधीनताएकें अपमान मानै छी।

बाद0--(मूड़ी डोलबैत) एत्ता घमंड अहाँकें ऐहे?

शिव0--ई घमंड नहि थिक। एकरा स्वाभिमान कहैत छैक।

बाद0--(रङि) तव जिन्दगी भर कैदखाने मे सङऽ पड़त !

शिव0--उत्तमबात।

बाद0--हमरा तवियत होत तए कत्ल क' देब।

शिव0--विलक्षण विचार !

वजीर--ऐ सँ अहाँ कें फायदा कोन मिलत?

शिव0--(ओकर कथा पर ध्यान नहि दैत दोसर दिस तकैत छथि।)

बाद0--(खौंझा'क) ठीक तँ पुछै छथि। जहानक साथेसाथ जानो चल जायत तैसँ की फायदा
मिलत?


शिव0--लभ हयत। बड़पैघ लाभ हयत !

बाद0--(खौंझायले सन स्वरें) कोन फायदा होत सेहे तँ पुछै छी?

शिव0--(विरक्त स्वरें) से बुझयबाक प्रयोजन हमरा नहि अछि ! व्यर्थक बात हम नहि करब।
हमर डाँड़ दुखा गेल। सैनिक ! हमरा कारागारमे दय आउ ! चलू ! (घुमैत छथि)

बाद0--(हँसि) अहाँक लड़कपन नहि गेल ए ! हमर सिपाहि अहाँक हुकुम कोना मानत?

शिव0--(अप्रतिभसन भय) हमर मन नहि बन्दी अछि !

बाद0--कमर दुखा गेल तँ बैठि जाउ !

शिव0--(मुह घुमा लैत छथि)

एकदरबारी--(उठि बादसाहकें सलाम कय) हुजूर ! हुकुम मिलय तँ एक गो गद्दी ला' दिअनि।
राजकुमार छथ किने !

बजीर--(उठि सलाम कय) जी हुजूर। आखिर जिन्दगी भर कैदखाना मे रहते कत्ल भ' गेने
राजाकें कोन फायदा मिलै छै से हमरा सभ कें मालुम होबक चाही। जब ऐ मुल्क मे रह गेलहुँ
तँ हीयाँ कें चालतरकीब समझव चरूरी।

बाद0--(हँसि) अच्छा। ला' दिऔन। (बजीरक हुकुम सँ एक सैनिक गद्दी आनि बिछा दैत छनि।
शिवसिंह बैसैत छथि)।

बाद0--आब बताउ !

शिव0--सुनू आ' सिखू !

बाद0--अहाँ बताउने।

शिव0--एखन एकेटा हमही वन्दी छी किने?

बाद0--ठीक।

शिव0--शूली पर चढ़ब एकसरे हमही टा?

बाद0--वेसक।

शिव0--एक वेक्तिक मरने देशक कतेत शक्ति घटतै? गनगुआरिक एकटाङ टूटनहि की?

बाद0--अहाँके अपना कोन फायदा होत सेने बताउ !

शिव0--(विहँसि) पाठानपति ! हमर अहाँक दृष्टिमे एतय बड़ अन्तर अछि। हम सभ देशेक
हितमे अपन हित मानैत छी ! यदि लोक व्यक्तिगत लाभ हानि कें प्रमुखता देबय लागत तँ
समाज कोना चलतै? आ' राजा तँ देशेक हितक लेल बनाओल गेल? अहाँकें तँ देश अछि
नहि। अपन मौजक लेल जिबैत छी अपन मौजक लेल लड़ैत छी?

बाद0--(चौंकि) हमरा मुल्क नै ऐछ? बाहियात बात !

शिब0--कोन देश थिक अहाँक?

बाद0--काहे जहाँ पर मकान ऐछ से हमर मुल्क नै होल?

शिव0--यदि एकरा अपन देश मानैत रहितहँ तँ एतक प्रजाक भलाइक बास्ते यत्न करितहुँ। से
करैत छी? अपना राज्य विस्तारक वास्ते ओकरा सभ कें भेंड़ा-बकरा जकाँ कटा रहल छी !

बाद0--(कनेक काल चुपरहि) अहाँ हमर मातहती कबूलि लेब तै सँ अहाँक तिरहुतक कोन
नुकसान होत? अहीं टा हमर मातहत रहब किने?


शिव0--(जोर सँ) नहि। समस्त मैथिल समाज पराधीन भय जायत। मिथिलाक आत्मा मरि जा'
सकै छैक।

बाद0--से काहे?

शिव0--(घृणा युक्त स्वरे) आनक अधीन राजा नोकर थिक, बहिया थिक। देशक हेतु सभ सँ
हानिप्रद यैह राजा होइत अछि। ओ पराधीनताकें समाजक गह-गह मे पहुँचा दैत अछि !

(चुप रहैत छथि। दरबार निस्तब्ध हैत अछि।)

बाद0--(उत्सुकता पूव्र्वक) तब?

शिव0--एहन राजाकें स्वतन्त्रता प्रेमी समाज अपन राजा मानतैक? नहि। कपमपि ननि ! अतएव
ई राजा छल-बल-प्रपंच-प्रलोभन सभक प्रयोग करैत अछि समाजक एकता कें नष्ट करैक लेल।
समाज सँ स्वतन्त्रताक भावना ओ देश प्रेम कें विनष्ट कय देब एकर प्रथम काज रहैत छैक !
(आवेश मे आबि) एहन राजा पतित थिक। देशक द्रोही थिक। देशक पाप थिक अभिशाप थिक
!



(सभ चुप शिवसिंहक मूह दिस तकैत रहैछ।)



शिव0--(गम्भीर स्वरें) पाठान पति? मिथिला मे एकेटा शिवसिंह नहि छथि। मिथिलाक राज-
काजक संचालकविद्या-बुद्धि-सिन्धु मनीषी लोकनि सँ खड़पातक बनल खोपड़ी सभ मानव
सभ्यताक केन्द्र बनि रहल अछि। देशकें लेल प्राण अर्पण केनिहार दधीचिसँ मिथिलाक बाध-बोन
भरल छैक। एक शिवसिंहकें मारने मिथिला अहाँक अधीन नहि होयत। बेस आब हम जायब
(उठैत छथि।)

बाद0--(हतप्रभ भेल) अहाँक इहे आखरि फसला भेल?

शिव0--आद्य-मध्यम-अन्तिम निर्णय।

बाद0--एक बार फिर से सोचू।

शिव0--शतसः सोचल अछि।

बाद0--सिपहसालार पहुँचा दिऔन हिनका कैदखाना।

सेनापति--(सलामकय) जे हुकुम जहापनाह।

(शिवसिंहके पूर्ववत लक प्रश्थान)

बाद0--अजीब जोशीला आदमी छथ। विलकूल निङर मगर उजड्डपनाकें बूतक नै। एक एक
लब्ज वजनदार। वाह ! तारीफ लायक आदमी छथ।

बजीर--जी हुजूर ! हिनक मुल्ककें मातहत राखब कठिन मालुम पड़ैए।

बाद0--हँ। शेर ए दिल आदमी एकरा कही।

दरबार--तबकी ओनाही छोड़ि देबनि?

बजीर--हरगिज नै। कैदखाना मे एखन रहथ।

बाद0--देखल जेतै। मगर जरा इज्जत और मुहब्बतक साथ बर्ताब करब। बड़ा सोच समझ से
कदम उठाब पड़त !

(उठैंत छथि)

(नेपथ्यमे--रूवरू साहन्साह बादसाह अलीजाह बहादूर के


सलामत हो ऽ ऽ ऽ)

यवनिका



.. .. .. ..



सलिला-देवी सरस्वती

डा0 श्री माहे•ारी सिंह 'महेश'



वेद मे सरस्वतीक नाम सलिलाक हेतु आयल अछि। कतिपय ब्रााहृण-ऋचामे हिनक
वन्दना सलिला एवं देवीक रूपमे कैल गेल अछि। सरस्वतीकें ब्राहृावर्तक सीमन्तिनी कहल गेल
अछि। ओ स्वास्थ्य दायिनी थिकीह। पूत-सलिला सरस्वती धन-धान्य दैत प्रवाहित होइत छथि,
एवं हरिप्रिया भगवती सरस्वती वाणी-विज्ञान

और भाषा लिपि प्रदान करैत छथि।



मनुस्मृतिमे दृषद्वती और सरस्वती नाम्नी युगल नदीकें देव-नदीक नामसँ सम्बोधित
कैल गेल अछि। एही दुहू नदीक मध्य मे अवस्थित विनसनधरा ब्राहृावर्त, आर्यावत किंवा मध्य
देश थीक। एहि धराक आचार सदाचार थीक--मनुजाचार थीक। पूजा-पद्धति-जल-शुद्धि-मंत्र
'गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वति नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेस्मिन सन्निधिं कुरू" मे बन्दिता
सरस्वतीक प्लक्ष समुद्यवा, वाक्प्रदा, ब्राहृसुता, वाणी, विशाला एवं कुटिला पर्याय थीक। देश
भेदसँ हिनक और सात नाम उल्लिखित अछि--यथा, पुष्करमे सुप्रभा, नैमिषारण्यमे कांचनाक्षी,
गव देशमे विशाला, उत्तर कौशलमे मनोरमा, कुरुक्षेत्रमे ओधवती, गंगाद्वारमे सुरेणु और हिमालय
पर्वत पर विमलोदा।



महाभारतक अनुसार सरस्वती विशेष पुण्यतीर्थमे गनल जाइत छथि। सरस्वती-स्नान
सकल-मल-प्रक्षालक बुझल जाइत अछि। सरस्वतीक प्राप्ति लोक-परलोक-शोक-विनाशिनी
थीक। लक्ष-लक्ष जीव सरस्वती-पथ सँ स्वर्ग-बिहारी बनैत अछि। ब्राहृावर्त पुराणमे लिखल अछि
जे शुभ तिथि यथा, चातुर्मास्य, पूर्णिमा तथा अमावस्या आदि अवसर पर स्नान करब सकल पाप
नाशक तथा बिष्णुलोक निवास-दायक थीक।



कहल जाइत अछि जे प्रारम्भमे गंगा, लक्ष्मी तथा सरस्वती हरिक प्रतिभा छलीह।
भगवान हरि हिनका लोक निक संग समव्यवहार करैत छलथिन्ह। एकबेरि सरस्वतीकें गंगाक
प्रति हरिक व्यवहारमे शंका भेलैन्हि। ओ रुष्ट भै हरिक भत्र्सना करै लगलथिन्ह। हरि विष्णुक ई
तिरष्कार देखि गंगा क्रुद्ध भै सरस्वतीकें नदीक रूपमे भूतल पर अवतीर्ण होयबाक शाप
देलथिन्ह। एहि पर सरस्वतीकें सेहो क्रोध भेलैन्हि तथा ओ वैह शाप गंगाके देलथिन्ह। फलतः
ई दुहू नदीक रूपमे पृथ्वी पर अचलीह।



सरस्वतीक सम्बन्धमे उपर्युक्त उल्लेख चिरकालसँ, वैदिक कालसँ चल अबैत अछि।
हिनक माहात्म्य बड़ भव्य एवं आदरक थीक जे प्रारम्भमे आर्यलोकनि एहि नदीक पार्•ा मे अपन


निवास बनाने छलाह। एकर कारण ई जे एहि नदीक-पार्•ा-देश अजरुा गुग्ध-शस्य सँ पूर्ण छल।
मध्य एशियासँ प्रवाहित ब्राहृावर्तकें पवित्र कैनिहार सरस्वती लौकिक पारलौकिक उभय-समृद्धि
प्रदायिनी थिकीह। वेद, ब्रााहृण स्मृति, पुराण, साहित्य एवं काव्य सर्वत्र हिनक यशोगान अछि।



भारतवर्षमे सरस्वती नाम्नी तीन सलिला छथि। प्रथम सरस्वती पंजाबमे सिन्धु सँ मिलैत
छथि। हिनके अन्त्य रूप प्रयागक समीप गंगा-यमुनामे तिरोहित त्रिवेणी बनैत अछि। एहि
त्रिवेणीक अपार माहात्म्य अछि। दोसर सरस्वती राजपुतानामे छथि। हिनक माहात्म्य स्कन्द
पुराणमे वर्णित अछि। आओर तेसर बंगाल मे छथि। बंगवासी एहि संगमकें महातीर्थ मानैत
छथि।



देवी सरस्वतीक उत्पति-कथा पुराणमे बर्णित अछि। हिनक आविर्भाव वि•ाात्माक मुखसँ
भेल अछि। ई शुक्लवर्णा, वीणाहस्ता, कोटि-विधु, शोभिता, कुन्देन्दु-तुषारहार-धवला,
शुभ्रवस्त्रावृता एवं •ोत पद्मासना छथि। ई श्रुत शास्त्र-श्रेष्ठा एवं पण्डित-जननी थिकीह। ई
वाणीक अधृष्ठातृ, कविक इष्ट-दात्री आर शुद्ध तत्व स्वरूपिणी सरस्वती थिकीह। राधा, पद्मा,
सावित्री, दुर्गा और सरस्वती आदि कालसँ परमात्माक पंच शक्तिमे सरस्वती बागधिष्ठात्री, शास्त्र
ज्ञानदायिनी एवं कृष्णकठोद्भवा थिकीह।



भगवान कृष्ण सर्वप्रथम एही देवी सरस्वतीक पूजा कैने छलाह। कृष्ण-मुख आविर्भूता
देवी कृष्ण कामना कैने छलीह। आराधनासँ प्रसन्न भय कृष्ण हुनका वैकुण्ठ मे बास देलथिन्ह।
हिनक पूजा माघ शुक्र पञ्चमीक

दिन होइत छन्हि। एहि पूजा सँ मूर्खो पण्डित भय जाइत छथि।



देवीभगवत मे लिखत अछि जे अनन्त शक्ति परमात्मा विष्णुकें लक्ष्मी, महे•ारकें काली
और ब्राहृाकें सरस्वती प्रदान केलथिन्ह। ई शक्ति देवी दिव्यरूपा, चारुहासिनी, रजोगुण-युक्ता,
•ोताम्बरधारिणी, •ोतसरोजवासिनी, हंसवाहिनी एवं महासरस्वती नाम्नी थिकीह। ब्राहृा एही
अनुत्तमा क्रीड़ा सहचारिणी प्रियतमाक संग सत्यलोक मे विचरण करैत चतुर्जीव सभक सृजन
कैलन्हि।



कतेक पुराणानुसार देवी सरस्वती सृष्टिकत्र्ता ब्राहृाक मानसकन्या थिकीह।



भारतवर्षामे सरस्वतीक पूजाक अपार माहात्म्य अछि। ई पूजा माघ मासक शुक्ल
श्रीपञ्चमीक दिन होइत अछि। ई तिथि विद्यारम्भक हेतु बड़ पवित्र बुझल जाइत अछि। हमरा
लोकनिक ग्रन्थ सभमे ई पूजा सांगोपांग वर्णित अछि। श्रीसूक्त जकाँ सरस्वती-सूक्त सेहो उदात्त
शब्दमे लिखल अछि। सरस्वती पूजा लक्ष्मीपूजा सँ प्रारम्भ होइत अछि आर तकरा बाद अन्य
देवता लोकनिक पूजा होइत अछि। सरस्वतीक आठ अंग लक्ष्मी, मेधा, पुष्टि, गौरी तुष्टि, प्रभा
आर धृतिक पूजा हैबाक चाही। तन्त्रमे हिनक तारादेवी तथा नील-सरस्वती नाम प्रसिद्ध छैन्हि।



आजुक सरस्वती-पूजा सभ्यता, संस्कृति एवं कलाक पूजा मानल जाइत अछि। अपार
भक्ति-भावसँ प्रेरित ई पूजा सार्वजनीन पूजाक रूप ग्रहण कय रहल अछि। देवी सरस्वतीक एहि


पूजामे, पूजाक एहि मन्दिरमे, वर्गजाति किंवा धर्म भेद समाप्त भय चुकल अछि। धर्म-निरपेक्ष
भारतक ई वसन्तकालीन कला-पूजा मानवता-पूजा बनि राष्ट्र-धर्म, मानव-धर्म भय गेल अछि।



.. .. .. ..



साहित्य आवेश

श्री बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'



संसार मे जे कोनो काज लोक करैत अछि तकर उद्देश्य रहैत छैक आनन्द प्राप्त करब !
आनन्द प्रधानतः तीन प्रकारक होइत छैक (1) तात्कालिक-क्षणिक; यथा रसगुल्ला खाइत बड़
बढ़िआँ लगैत छैक यावत मुखमे स्वाद रहैक (2) आजन्म आनन्द-तत्काल यदि कष्टोक अनुभव
भेल तँ पश्चात् ओ शेष जीवन भरि आनन्द दैत रहत यथा पढ़वा मे श्रम परीक्षार्थी कें वा कोनो
उद्यममूलक काजमे लोक कें। (3) तात्कालिक तथा स्थायी दूनू आनन्द यथा, मोनलग्गू तथा
तथ्यपूर्ण विषयक अध्ययन आओर श्रवणसँ लगले आ स्थायी आनन्द लाभ होइत छैक।



ई उदाहरण ओहिना भेल जना स्मरणक प्रसंगमे प्रसिद्ध अछि (क) वेवे वेगा-लगले
ठेकान भए जाएत लगले बिसारे जाएब (ख) चिरे चिरा अधिक काले ठेकान होएत अधिक काल
धरि मोन रहत (ग) चिरे बेगा-अधिक काले ठेकान होएतलगले बिसरि जाएब (घ) बेगेचिरा--
लगले ठेकान होएत अधिक काल धरि वा आजन्म मोन रहत।



एहो आधार पर साहित्यक बिचार करू। साहित्य शब्द व्यापक अछि। जाहि मे हितैषी
सभ शास्त्र

आओत। परन्तु हमरा लोकनि ओकरा काव्यक अर्थमे अधिक ठाम ग्रहण करैत छी। जाहि
काव्यक भेद अछि दृश्य आओर श्रव्य। दृश्य भेल ओ जे देखल जाए यथा नाटक इत्यादि। श्रव्य
भेल ओ जे सूनल जाय-जना गीत, कविता, गद्य इत्यादि। परन्तु दृश्यमे श्रव्यक अंश रहैत छैक
मुदा श्रव्यमे दृश्य प्रत्यक्ष नहि रहैत अछि। काव्यक एहि दूनू भेदसँ तात्काल आनन्द भेटैत छैक।
किएक? एहि मे रस छैक? ओएह रस जे रसगुल्ला जकाँ तात्काल सुख देत, मन रहबामे पूर्ण
सहायता देत आओर जीवन भरि आनन्द देत।



तें आचार्य लोकनि कहने छथि जे काव्यक अध्ययन सँ यश होइत छैक, अर्थ प्राप्ति
होइत छैक, लोक-लोकक संग व्यवहार करब सिखैत अछि, अधलाह भावनाक नाश होइत छैक,
लगले अनको आनन्द दैत अछि आओर अपन प्रिय व्यक्तिक वचन जकाँ उपदेश-प्रद होइत
अछि।



ई सभकें बूझि पड़त होएत जे कोनो वस्तुक उपमा कोनो वस्तु कें देल जाइत छैक तँ
आनन्द होइत छैक कोनो झाँपल सुन्दर वस्तु देखने मोन प्रसन्न भए जाइत छैक। जाहि पाँती मे
नायक-नायिकाक प्रेम रहैक, कोनो वीरक चरित्र रहैक, हास्यक गप्प रहैक, ककरो वेदना रहैक,
कोनो आश्चर्यपूर्ण बात रहैक, ककरो क्रोधक गप्प रहैक, कोनो भयानक वर्णन रहैक, कोनो


घृणाक वर्णन रहैक वैराग्यक कथा रहैक तथा नेनाक गप्प रहैक--ताहि सभमे लोकके मन लगैत
छैक। कारण मनुष्यक जीवनमे घूरि फीरि कए इएह सभ अबैत अछि। तें काव्यमे 'वेगे चिरा'
अछि।



एहि सभसँ ई सिद्ध भेल जे साहित्यक आवेश सभकें कनेक ने कनेक रहितहिं छैक।
एहने 'मनघट्टू' केओ हेताह जनिका नहि नीक लगतन्हि। 'मनपूरन' वननिहारकें नीक लगबे
करतन्हि। ओहि मे आवेश बढ़ओने तात्कालिक आनन्दक संग ओ सभ लाभ होएत जे आचार्य
लोकनि कहि गेल छथि। अहाँ जकर आवेश करबैक से अहाँक आवेश करबे करत आओर एहि
पारस्परिक प्रेमसँ स्थायी आनन्द भेटत।



.. .. .. ..

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