भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Wednesday, November 18, 2009

मौलाइल गाछक फूल-उपन्यास-जगदीश प्रसाद मण्डल PART II

मौलाइल गाछक फुल:ः 6
छुट्टी दिन रहितहुँ हीरानन्द गाम नहि गेलाह। ओना लग मे गाम रहने शनि के गाम सोम के स्कूल स पहिने चलि अवैत छलाह। मुदा रमाकान्त केँ नहि रहने परिवारक सब भार देने गेल रहथिन। गोसाइक धाही दइते ओ नहा, चाह पीबि वौएलाल ऐठाम चललाह। मने-मन यैह होइन जे रमाकान्त कहने रहथि जे मद्रास जाइ छी, धिया-पूता केँ देखि-सुनि लगले घुमि जायब। मुदा आइ पनरहम दिन भ’ रहल छनि अखन धरि किऐक ने अएलाह। ओना दुरसो छैक आ परिवारोक सभ त ओतइ छनि ते जँ बिलंबो भेलनि त स्वभाविके छैक। रास्ता मे जे धिया-पूता देखनि हाथ जोड़ि-जोड़ि प्रणाम करनि। हीरोनन्द सभकेँ असिरवाद दइत आगू बढै़त जाइत रहति। वौएलालक घर स थोड़े पाछुए रहथि कि वौएलाल देखलकनि। देखितहि आगू बढ़ि, प्रणाम क’, संगे-संग अपना ऐठाम ल’ गेलनि। हीरानन्द केँ पाबि वौएलाल बहुत किछु सिखवो केलक आ सुधरबो कएल। अपन एकचारी बैसार मे बैसवैत पानि अनै आंगन गेल। आंगन स लोटा मे पानि नेने आबि पाएर धोय ले कहलकनि। लोटा मे पानि देखि हीरानन्दक मन मे मिथिलाक वेबहार नाचि उठलनि। सोचै लगलथि जे पूर्वज कते विचारवान छलाह जे एते चलौलनि। पाएर धोय हीरानन्द चैकी पर बैसिलाह। वौएलाल चाह बनबै आंगन गेल। माए केँ चाह बनवै नहि होइत छलैक। तहि बीच अनुपो बाड़िये मे खुरपी छोड़ि, मटिआयले हाथे आबि मास्टर साहब केँ प्रणाम कए चैकीक निच्चा मे एकचारीक खुँटा लगा बैसल। मटिआयल हाथ देखि मास्टर साहेव पूछलखिन- ‘‘कोन काज करै छलौ?’’
मटिआयल हाथ रहितहुँ अनुप केँ संकोच नहि होइत छलैक। निःसंकोच भ’ उत्तर देलकनि- ‘‘बाड़ी मे गेनहारी साग बौग केने छी, ओइ मे तते मोथा जनमि गेल अछि जे साग क’ झाँपि देने अछि, ओकरे कमठौन करै छलौ।’’
सागक कमठौन सुनि हीरानन्द कहलखिन- ‘‘चलू, जाबे वौएलाल अबै अए ताबे कनी हमहूँ देखि लिअए।’’
कहि उठि विदा भेला। मास्टर सहेव क’ ठाढ़ होइत देखि अनुपो ठाढ़ भ आगू-आगू विदा भेल। धुर दुइऐक मे साग बाओग छलैक। साग देखि हीरानन्द कहलखिन- ‘‘जिनगी मे आइये हम ऐहन गेनहारी देखलौ। ई त अद्भुत अछि। किऐक त एक रंग पत्ता वला गेनहारी त अपनो उपजबै छी मुदा ई त फूल जेँका लगै अए। अधा पात लाल आ अधा पात हरियर छैक। कत्ते स इ बीआ अनलौ?’’
मास्टर साहेवक जिज्ञासा देखि अनुप कहै लगलनि- ‘‘हम सढ़ूआड़य नोत पुरै गेल रही। ओतए देखलियै। देखि क’ मन हलसि गेल। ओतै से अनलौ। करीब दस बर्ख सँ सब साल करै छी। खाइत-खाइत जखन डाँट जुआ जाइ छै तखन छोड़ि दैत छियै। ओहि मे तत्ते बीआ भ’ जाइ अए जे अपनो बौग करै छी आ जे मंगलक तेकरो दइ छियै।’’
‘अइवेर हमरो थोड़े देब।’’
‘बड़वढ़िया।’
दुनू गोटे घुरि क’ आबि पुनः एकचारी मे बैसलाह। तहि बीच वौएलालो चाह बनौने आयल। दुनू गोटे केँ चाह दए आंगन जा अपनो लेलक आ माइयो केँ देलक। चाह पीबि, माय(रधिया) घोघ तनने दुआर पर आबि मास्टर सहेव केँ गोड़ लगलकनि। सूखल शरीर, केष पाकल आखि धसल रधियाक। रधियाक देह देखि मास्टर सहेबक मन तरे तर बाजि उठलनि- ‘‘हाय, हाय रे गरीबी आगियो स तेज धधड़ा गरीबिक होइत छैक। पेंइतिस-चालिस बर्खक शरीरक इ दषा बना दैत छैक।
मुस्की दैत एकटा आँखि उघारि रधिया बाजलि- ‘‘आइ हमर भाग जगि गेल जे मास्टर-सहाएव ऐलाह। बिनु खेने-पीने नइ जाय देबनि। जे कन-सागक उपाय आछि से बिनु खुऔने नइ जाय देवनि।’’
रधियाक स्नेह भरल शब्द सुनि हीरानन्दक आखि सिमसि गेलनि। दुनू तरहथी स दुनू आखि पोछैत बजलाह- ‘‘ओना त घुमैक विचार स आयल छलहुँ, मुदा अहाँ सभक स्नेह बिना खेने जाइ नहि दिअए चाहैत अछि। जरुर खायब।’’
घर मे सुपारी नहि रहने वौएलाल सुपारी आनै दोकान गेल। तहि बीच मास्टर साहेव अनुप के पूछलखिन- ‘‘अहाँक पूर्वज(पुरुखा) कते दिन स एहि गाम मे रहैत आयल छथि?’’
हीरानन्दक प्रष्न सुनि अनुप छगुन्ता मे पड़ि गेल। मने-मन सोचै लगल जे ऐहन बात त आइ घरि क्यो ने पूछने छलाह। मास्टर साहेव किऐक पुछलनि। मुदा मास्टर-साहेबक उपकार अनुपक हृदय मे एहि रुपे बैसल छलनि जे आत्माक दोसर रुप बुझैत छला। हुनके पाबि बेटा दू आखर पढ़बो केलक आ मनुक्खोक रस्ता सिखै अए। हँसैत अनुप कहै लगलनि- ‘‘मास्टर सहाएब, हमरा बौ के अपना घरारियो ने रहै। अनके जमीन मे घरो बन्हने रहै आ अनके हरो-फाड़ जोतए। अनके खेत मे रोपैन-कमठौन सेहो करै। हम धानोक सीस आ रब्बी मास मे खेसारियो-मौसरी लोढ़ी। अनके गाइयो पोसिया नेने रहै। साल मे जते पावनि-तिहार होय आ अनदिनो जे करजा बरजा लिअए ओ ओही गाइयक दूधो बेचि क’ आ लेरु जे होय, ओहो बेचि के करजा सठाबै। एक दिन वाउक मन खराप रहै। गिरहत आबि के भार बेटी ऐठाम दए अबै ले कहलकै। बाउक मन वेसी खराब रहै तेँ जाइ से नासकार गेल। तइ पर ओ बेटाकेँ सोर पड़लकै। बेटा एलै। दुनू बापूत। हमरा बाउ के गरिऐबो केलकै आ अंगनाक टाट-फड़क उजाड़ि के कहलकै जे हमर घरारी छोड़ि दे। हमर बौ कतेक गोरे के कहबो केलकै मुदा सब ओकरे दिस भ’ गेलै। तखन हमर बाउ की करैत ते माटिक तौला-कराही छोड़ि, थारी-लोटा, नुआ-बिस्तर, हाँसु-खुरपीक मोटरी बान्हि तीनू गोरे(बाउ, माए आ हम) ओइ गाम से भागि गोलौ। गाम से निकलि, बाघ मे एकटा आमक गाछ, रस्ते पर रहै, ओइठिन आबि के बैसलौ। बाउ के बुकौर लगै। दुनू आखि से दहो-बहो लोर खसै। माइयो कानए। थोड़े खान ओइठिन बैसलौ। तखन फेरि विदा भेलौ।’’
बजैत-बजैत अनुपक दुनू आखि मे नोर आवि गेलइ। अनुपक नोर देखि हीरोनन्दक आखि मे नोर आबि गेलनि। रुमाल से नोर पोछि पुनः पूछलखिन- ‘‘तब की भेल?’’
अनुपक हाथ मटिआयल रहै तेँ हाथ से नोर नहि पोछि गट्टा स नोर पोछि पुनः बाजै लगल- ‘‘ई मात्रिक छी। नाना जीबिते रहए। हुनका एक्के टा बेटी रहनि। हमरे माए टा। जखन तीनू गोरे ऐठाम एलो ते ननो आ नानियो अंगने मे रहए। नानी आ माए, दुनू बाँहि से दुनू गरदनि मे जोड़ि कानै लगल। बाउओ कनै लगल। नाना हमरा कोरा मे उठा नोर पोछैत अंगना से निकलि, डेढ़िया पर बुलबै लगल। थोड़े खान नानी कानि, मोटरी के घर मे राखि हाँइ-हाँइ चुल्हि पजारै लागलि। मुदा माए कनिते रहल।’’
बिचहि मे हीरानन्द पूछलखिन- ‘‘नाना गुजर कोना करैत छलाह?’’
‘अहाँ से लाथ कोन मासटर सैब। महिना मे आठ-दष साँझ भानसो ने होय। हम बच्चा रही तेँ नानी बाटी मे बसिया भात-रोटी राखि दिअए। सैह खाय छलौ।’’
अनुपक बात सुनि हीरानन्दक हृदय पघिलय लगलनि। अनुप केँ कहलखिन- ‘‘जाऊ, काजो देखिऔ। वौएलाल त आबिये गेल।’’
मास्टर साहेबक आदेष स अनुप फेरो साग कमाई ले चलि गेल। वौएलाल आ हीरानन्द, रमाकान्तक चर्चा करै लगलाह। वोएलाल बाजल- ‘‘करीब पनरह दिनक धक लगि गेल हएत, अखन धरि बाबा किऐक नहि अएलाह। बाजि क’ गेल रहथि जे आठ दिनक भीतरे चलि आयब। किछु भ’ नेते गेलनि।’’
हीरानन्द- ‘‘अखन धरि कोनो खबड़ियो नहि पठौलनि जे बुझितिअए।’’
दुनू गोटे उठि क’ बाड़ी दिषि टहलै विदा भेला। अनरनेवाक गाछ देखि हीरानन्द हिया-हिया क’ देखै लगलाह। पहिलखेपक फड़, तेँ नमहर-नमहर रहैक। गोर-दसेक फड़ नमहर आ जेना-जेना फड़ उपर होइत जायत तेना-तेना छोटो खिच्चो। पान-सात टा फड़ छिटकल। जहि मे एकटा क’ लाली पकड़ि नेने रहए। हीरानन्द बौएलाल केँ ओंगरी से देखवैत- ‘‘वौएलाल, ओ फड़ तोड़ि लाय। खूब त पाकल नहि अछि मुदा खाइ जोकर भ’ गेल आछि। हम सभ त दँतगर छी की ने।’’
गाछ बेसी नमहर नहि। हाथे से बौएलाल ओहि फड़ क’ तोड़ि, डंटी स’ बहैत दूध क’ माटि पर रगड़ि देलक। दुनू गोटे घुरि क’ आवि गेलाह। हीरानन्द चैकी पर वैसलथि आ वौएलाल अनरनेबा रखि आंगन गेल। आंगन स’ कत्ता आ एकटा छिपली नेने आयल। कत्ता से अनरनेबा क’ सोहि टुकड़ी-टुकड़ी कटलक। छिपली भरि गेल। भरलो छिपली बौएलाल हीरानन्दक आगू मे देलकनि। भरल छिपली देखि हीरानन्द बजलाह- ‘‘एत्ते, हमरे बुते खायल हएत। पान-सात टा खंडी खायब। बाकी आंगन ल’ जाह।’’
वौएलाल सैह केलक। अनरनेवा खा पानि पीबि हीराननद वौएलाल केँ कहलखिन- ‘‘चलू, थोड़े टहलि आबी?’’
दुनू गोटे रस्ते-रस्ते टहलै लगलथि।
जाधरि दुनू गोटे टहलि-बूलि केँ अयलाह ताधरि रधिया अरबा चाउरक भात माछक तीमन आ माछक तरुआ बनौलनि। भानस कए रधिया चिक्कनि माटि स ओसार नीपि, हाथ धोए कम्मल चैपेत क’ बिछौलक। थारी-बाटी, लोटा आ गिलास क’ छाउर स माँजि धोलक। लोटा-गिलास मे पनि भरि कम्मलक आगू मे रखि वौएलालकेँ बजौने आबै ले कहलक। आंगन आबि हीरानन्द कम्मल पर बैसि मने-मन सौचे लगलाह। भोजन से त पेट भरैत अछि मुदा मन त सिनेहे स भरैत अछि, जे भेटि रहल अछि। तहि बीच वौएलाल घर स थारी निकालि आगू मे देलकनि। गम-गम करैत भात तहि पर माछक नमहर-नमहर तड़ल कुटिया। जम्बीरी नेबोक खंड। बाटी मे तीमन। भोजन देखि, मुस्की दइत हीरानन्द रधिया केँ कहलखिन- ‘‘अलबत्त ढंग स भोजनक व्यवस्था केने छी। देखिये क’ पेट भरि गेल।’’
मास्टर साहेबक बात सुनि खुषी स रधिया क’ नहि रहल गेलै, बाजलि- ‘‘माहटर बाबू, अहाँ पैघ छी। देबता छी। हमर भाग जे हमरा सन गरीब लोकक ऐठाम भात खाई छी।’’
रधियाक बात सुनि बुझि गेलखिन जे भात क’ अषुद्ध बुझि कहलनि। मुदा ओहि विचार क’ झपैत कहलखिन- ‘‘वौएलाक केँ छोट भाइ बुझै छियै, आ परिवार केँ अपन परिवार बुझैत छी। तखन भात रोटी खाइ मे कोन संकोच।’’
हीरानन्दक विचार सुनि रधियाक हृदय साओनक मेघ जेँका उमड़ि पड़लनि। मन मे हुअए लगलनि जे अपन जिनगीक सभ बात कहि सुनबिअनि। उत्साहित भ’ बजै लगलीह- ‘‘माहटर बाबू, एहनो दुख कटने छी जे एक दिन ममिओत भाय आयल रहै। घर मे एक्को तम्मा चाउर नइ रहै। चिन्ता भ’ गेल जे भाइ केँ खाइ ले की देबैक। तीनि-चारि अंगना चाउर पैइच ले गेबो केलो मुदा सबहक हालति खराबे रहै। अपने ने रहैक ते हमरा की दइत। हारि के मड़ुआ रोटी आ सीम-भाँटाक तीमन रान्हि क’ भाइयो केँ खाइ ले देलिऐ आ अपनो सब खेलौ। मुदा अखन ते, रमाकान्त कक्का परसादे, सब कुछ अछि।’’
थारी मे बाटी स झोर ढारैत हीरानन्द पूछल- ‘‘पहिलुका आ अखुनका मे कते फर्क बुझि पड़ै अए?’’
‘माहटर बाबू, अहाँ स’ लाथ कोन! ओइ हिसाबे अखन राजा भ’ गेलौ। पहिने कल्लर छलौ। हरदम पेटेक चिन्ता धेने रहै छलै।’’
मुहक भात आ माछ चिबबैत रहति कि दाँतक गह मे एकटा, काँट गड़ि गेलनि। भात घोटि आंगुर स काँट निकालि, थारीक बगल मे रखि हीरानन्द पूछलखिन- ‘‘पहिने जत्ते खटै छलौ तइ स अखन बेसी खटै छी आ कि कम?’’
‘पहिने बेसी खटै छलौ। बोइन क क’ आबी तखन अंगनाक काज मे लगि जाय। अंगनाक ाकज सम्हारि भानस करी। भानस करैत-करैत बेर झुकि जाय। तखन खाइ।’’
ओसार पर बैसल अनुप रधिया केँ चोहटैत बाजल- ‘‘मास्टर सहाएव केँ भोजन करै देबहुन आ कि नहि?’’
अनुपक बात सुनि हीरानन्द बजलाह- ‘‘अहाँ तमसाई किऐक छिअनि। भोजनो करै छी आ गप्पो सुनै छी। जे बात काकी कहै छथि ओ बड़्ड़ नीक लगै अए।’’
मास्टर साहेवक समर्थन पाबि रधियाक मन मे आरो उत्साह जगि गेलैक। होइ जे जते बात पेट मे अछि, सब बात मास्टर साहेब केे सुना दिअनि। बाजलि- ‘‘माहटर बाबू बरख मे अधा से बेसी दिन सागेक तीमन खाइ छलौ। माघ-फागुन मे, जखन खेसारी, मसुरी उखाड़ै आ बोइन जे हुअए, दस-पाँच दिन दालि खाय। नइ ते बाड़ी-झाड़ी मे जे तीमन-तरकारी हुअए, से खाय। बेसी काल सागे खाइ। खेसारी मास मे महीना दिन दुनू साँझ चाहे खेसारी साग खाय नइ ते बथुआ।’’
खेसारी सागक नाम सुनि हीरानन्द पूछल- ‘‘खेसारी साग कोना बनवैत छी?’’
मास्टर साहेबक प्रष्न सुनि अनुपो केँ पैछला बात मन पड़ितहि खुषी एलैक। मुस्की दैत बाजल- ‘‘राड़िन बुते कतौ खेसारी साग रान्हल हुअए।’’
अनुपक बात केँ धोपैत हीरानन्द बजलाह- ‘‘खेसारी साग मे कँचका मिरचाई आ लसुनक फोरन द’ हमरो कनियाँ बनवैत छथि। हमरा बड़ सुन्दर खाय मे लगै अए।’’
व्यंग्यक टोन मे अनुप बाजल- ‘‘अहाँ सबहक कनियाँक पड़तर राड़िन केँ हेतइ। हमही छी जे ऐहेन लोकक गुजर चलै छै। नइ त......?’’
व्यंग्यक भाव बुझि हीरानन्द चुप्पे रहलाह। मुदा फनकि क’ रधिया एक लाड़नि चलबैत बाजलि- ‘‘नै ते, सासुर मे वास नइ होइते?’’
अनुप- ‘‘मन पाड़ू जे जइ दिन अइठिम आयल रही तइ दिन कोन-कोन लुरि रहै। जँ सासु नहि सिखवैत ते कोनो लुरियो होइत?’’
पासा बदलैत रधिया बाजलि- ‘‘माए आ सासु मे की अन्तर होइ छै। जहिना अपन माए तहिना घरवलाक माए। सिखलौ त।’’
रधिया अनुप दिषि तकैत अनुप रधिया दिस। मुदा दुनूक मन मे क्रोध नहि स्नेह रहैक। तेँ वातावरण मधुर रहैक। हीरानन्द सागक संबंध मे कहै लगलखिन- ‘‘अपना सभहक पूर्वज बहुत गरीब छलाह। अखुनका जेँका समयो नहि छल। बेसी काल ओ सभ सागे खायत छलाह।’’
जेहने भोजन बनल तेहने पवित्र बरतन छलनि। आ ताहू सँ नीक बैइसैक जगहक संग ऐतिहासिक गप-सप। जते वस्तु हीरानन्दक आगू मे आयल छलनि रसे-रसे सभ खा लेलनि। पानि नहि पीलनि, किऐक त ने गारा लगलनि आ ने बेसी कड़ू रहैक। भोजन कए बाटिये मे हाथ धोय, उठलाह। उठि क’ वौएलाल केँ कहलखिन- ‘‘एते कसि क’ आइ धरि भोजन नहि केने छलहुँ।’’
आंगन स निकलि एकचारी मे आबि सोझे पड़ि रहलाह। पड़ले-पड़ल अनुपो आ वौएलालो केँ कहलखिन- ‘‘आब अहूँ सभ भोजन करै जाउ। हमरा सुतैक मन होइ अए।’’
अस-बिस करैत हीरानन्द रहति। लगले-लगले करौट बदलैत रहति। मने-मन सोचै लगलथि जे एतबे दिन मे अनुप कते उन्नति कए गेल। उन्नतिक कारण भेलै सही ढंग से परिवार केँ बढ़ाएव। जे परिवार जते सही दिषा मे चलत ओ परिवार ओते तेजी स आगू बढ़त। मुदा जिनगीक रास्ता त बाँस जेँका सोझ नहि अछि। टेढ़-टूढ़ अछि। जहि स बौआ जायत अछि। जिनगीक रास्ता मे डेग-डेग पर तिनवट्टी-चैबट्टी अछि। जहि सँ लोक भटकि जायत अछि। तहूँ मे जकरा रास्ताक आदि-अंतक ठेकान नहि छैक ओ त आरो ओझरा जायत अछि। ऐहन-ऐहन ओझरी सभ जिनगीक रास्ता मे अछि जहि मे ओझरेला पर कियो बताह भए जाइत अछि त कियो घर-दुआरि छोड़ि चलि जायत अछि। क्षणिक सुखक खातिर स्थायी सुखक रास्ता छुटि जायत छैक। क्षुद्र सुख पैघ सुखक रास्ता स धकेलि ऐहन पहाड़ जेँका ठाढ़ भए जायत छैक जे पार करब मुष्किल भए जायत छैक। जिनगीक रास्ता एक नहि अनेक अछि मुदा पहुँचैक स्थान एक अछि। जते मनुख तते रास्ता अछि। एक मनुक्खक जिनगी दोसर स भिन्न होयत अछि। अनभुआरो आ बुझिनिहारो(अज्ञानियो आ ज्ञानियो) लगले(जिनगीक शुरुहे मे) नहि बुझि पबैत छथि। जे कोन रास्ता पकड़ला स सही जगह पर पहुँचब आ नहि पकड़ने छुटि जायब। मनुक्खक उद्धारक बात त सब सम्प्रदाय, किस्सा-पिहानी सब कहैत अछि, मुदा रास्ता मे घुच्ची कते छैक जहिठाम जा लोक खसैत अछि, से बुझिये ने अबैत छैक! मुदा इहो त सत्य छैक जे निस्सकलंक जिनगी बना ढेरो लोक ओहि स्थान पर पहुँच चुकल छथि आ ढेरो जा रहल छथि। जे जरुर पहुँचताह। भले ही हुनका भरि पेट अन्न आ भरि देह वस्त्र नहि भेटैत होनि। सुखल गाछ रुपी समाज केँ जाधरि गंगाजल सन पवित्र पानि स नहि पटाओल जायत ताधरि ओहि मे कोना कलष आ फूल फुलायत। अगर जँ समय पाबि कलषवो करत त किछुऐ दिन मे मोला जायत। दुखो थोड़ दिनक नहि, जड़िआयल रहैत अछि। अनेको महान् व्यक्ति, एहि दषिा केँ देखबैक रास्ता अदम्य साहस आ शक्ति लगा केलनि मुदा जड़ि सँ दुख कहाँ मेटाएल? हमहूँ-अहाँ एहि मातृभूमिक सन्तान छी, तेँ हमरो अहाँक दायित्व बनैत अछि जे मायक सेबा करी। छठिआरे राति समाजक माय-बहीनि कोरा मे लए छाती लगौलनि, मुदा ओकरा बिसरि कोना जाइ छी? की सभ बिराने छथि। अपन क्यो नहि?’’
बेर खसैत हीरानन्द चलैक विचार करै लगलाह। बौएलाल चाह पीबैक आग्रह केलकनि। मुदा भरिआयल पेट बुझि हीरानन्द चाहक इनकार करैत कहलखिन- ‘‘खाइ बेरि मे पानि नहि पीने छलहुँ, एक लोटा पानि पिआबह।’’
आंगन से लोटा मे पानि आनि वौएलाल देलकनि। लोटो भरि पानि पीबि हीरानन्द बाजलाह- ‘‘बुझि पड़ै अए जे अखने खा क’ उठलौ हेँ। चाह नहि पीवह, सिर्फ एक जूम तमाकू खुआ दाय।’’
अनुप तमाकुल चुनबै लगल। तहि बीच हीरानन्द बौएलाल केँ कहलखिन- ‘‘तू ते आब धुरझार किताब पढ़ै लगलह। आब तोहूँ पड़ोसिक बच्चा सभकेँ, जखन समय खाली भेटह, पढ़ावह। एहि सँ इ हेतह जे कखनो बेकारी सेहो नहि बुझि पड़तह आ थोड़-थाड़ बच्चो सभ पढ़ै दिस झुकत।’’
पढ़बैक नाम सुनि अनुप बाजल- ‘‘मासटर सहाएव, ककरा बच्चाकेँ वौएलाल पढ़ाओत! देखै छियै (ओंगरी स देखबैत) ओ तीन घर कुरमी छी। ओकरा से खनदानी दुष्मनी अछि। ने खेनाई-पीनाई अछि आ ने हकार-तिहार। तहिना (फेर ओंगरी से देखबैत) ओ घर मल्लाहक छी भरि दिन जाल ल’ क’ चर-चाचर से ल’ क’ पोखरि-झाखड़ि मे मछबारि करै अए। जकरा बेचि क’ गुजरो करै अए आ ताड़ी-दारु पीबि केँ औत आ झगड़ा-झाटी शुरु कए देत। तहिना ओ (ओंगरी स देखवैत) कुजरटोली छी। अछि त सबटा गरीबे, मुदा व्यवषायी अछि। स्त्रीगण सभ तरकारी बेचै छै आ पुरुख सभ पुरना लोहा-लक्करक कारोबार करै अए। जातिक नाम पर सदिखन अराड़िये करैत रहै अए। तहिना हम दस घर धानुक छी। हमही टा गरीब रहितौ बोनि करै छलौ। आब त अपनो दू बीधा खेत भ’ गेल (रमाकान्त देल) तेँ खेती करै लगलहुँ नहि त सभ खबासी करै अए। जुआन-जहान बेटी सभ केँ माथ पर चंगेरा दए आन-आन गाम पठबै अए। तेँ ओकरा सभहक एकटा पाटी छै आ हम असकरे छी। ने खेनाइ-पीनाइ अछि आ ने कोनो लेन-देन। आब अहीं कहू जे ककरा बच्चा केँ वौएलाल पढ़ाओत?’’
अनुपक बात सुनि हीरानन्द गुम्म भ’ गेलाह। मने-मन सोचै लगलथि जे समाजक विचित्र स्थिति छैक। ऐहेन समाज मे घुसब महा-मोसकिल अछि। कने काल गुम्म रहि हीरानन्द कहलखिन- ‘‘कहलहुँ त’ ठीके, मुदा ई सभ बीमारी पहिलुका समाज मे बेसी छलैक। ओना अखनो थोड़-थाड़ छइहे मुदा बदलि रहल छैक। आब लोक गाम छोड़ि शहर-बजार जा-जा कल-कारखाना मे काज करै लगल अछि। संगे गामो मे चाह-पानक दोकान खोलि-खोलि जिनगी बदलि रहल अछि। खेती-बाड़ी त मरले अछि तेँ एहि मे ने काज छेक आ ने लोक करै चाहैत अछि। करबो कोना करत? गोटे साल रौदी त गोटे साल बाढ़ि आबि, सबटा नष्ट कए दैत अछि। जहिना गरीब लोक मर-मर करैत अछि तहिना खेतोवला सभ। खेतोवला सभ केँ देखते छिऐक बेटीक विआह, बीमारी आ पढ़ौनाइ-लिखौनाइ बिना खेत बेचने नहि कए पबैत अछि। ओना सभहक जड़ि मे मुरुखपना छैक जे बिना पढ़ने-लिखने नहि मेटाएत। धिया-पूता केँ पढ़वैक इच्छा सभकेँ छैक मुदा ओ मने भरि छैक। बेवहार मे एकोपाइ नहि छैक। इहो बात छैक जे जकरा पेट मे अन्न नहि देह पर वस्त्र नहि रहतै ओ कोना पढ़त?’’
हीरानन्द आ अनुपक सभ गप, बाड़ी मे टाटक पुरना कड़ची उजाड़ैत, सुमित्रा सुनैत छलि। बारह-तेरह बरखक सुमित्रा। अनुपक घरक बगले मे ओकरो घर। तमाकुल खा हीरानन्द विदा भेलाह। हीरानन्द केँ अरिआतने पाछू-पाछू वौएलालो बढ़ैत छल। थोड़े दूर आगू बढ़ला पर हीरानन्द केँ छोड़ि वौएलाल घुमि गेल।
जाबे वौएलाल घुमि क’ घर पर आयल ताबे सुमित्रो जरनाक कड़ची आंगन मे रखि वौएलाल लग आइलि। ओना परिवारक झगड़ा स धिया-पूता केँ कोन मतलब। धिया-पूताक दुनियाँ अलग-होइत अछि। सुमित्रा वौएलाल केँ कहलक- ‘‘हमरा पढ़ा दे।’’
वौएलाल किछु कहै सँ पहिने मन-मन सोचै लगल जे हमर बावू आ सुमित्राक बाबूक(राम परसाद) बीच कते दिन स झगड़ा अछि, दुनूक बीच कताक दिन गरि-गरौबलि होइत देखै छी, तखन कोना पढ़ा देवई। मुदा हीरानन्दक विचार मन रहए तेँ गुनधुन कर लगल। कनी काल गुनधुन करैत सुमित्रा केँ कहलक- ‘‘पहिने ई माए स पूछि आ।’’
सुमित्रा दौड़ि क’ आंगन जा माए केँ पूछलक- ‘‘माए, हम पढ़व।’’
माए- ‘‘कते पढ़मे?’’
‘‘बोएलाल लग।’’
वौएलालक नाम सुनि माए मने-मन बिचारै लगली जे हमरा से ते कम्मो-सम्म, मुदा ओकरा(पति) से त वौएलालक बाप केँ झगड़ा छै। कने काल गुनधुुन कए माए कहलकै- ‘‘जँ वौएलाल पढ़ा देतौ(देतहु) त पढ़।’’
खानदानी घरक बेटी सुमित्राक माए। आन-आन घरक बेटियो आ पुतोहूओ चंगेरा उघैत अछि मुदा सुमित्राक माए कतौ नहि जाइत। अपने राम परसाद भार उघैत अछि। मुदा स्त्री नहि। जहिना कहियो अनुप आ रामपरसादक बीच एहि सवाल(भार उघैक) पर झगड़ा होयत त सुमित्रा मायक विचार अनुप दसि रहैत छल। मुदा मरदक झगड़ा मे कोना विरोध करैत। तेँ चुपचाप आंगन मे बैसि मने-मन अपने पति केँ गरिअवैत छलि जे कोन कुल-खनदान मे चलि एलौ।
घुमि क’ सुमित्रा आबि वौएलाल केँ कहलकै- ‘‘माइयो कहलक।’’
‘ठीक छै। मुदा पढ़मे कखन के। भरि दिन हमहू काजे उद्यम मे लगल रहै छी आ साझू पहर के अपने पढ़ै ले जाइ छी।’’
दुनू गोटे गर लगबैत तय केलक जे भोर मे(काजक बेर स पहिने) पढ़ब।
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मौलाइल गाछक फुल:ः 7
तीन बजे भोर मे हीरानन्दक निन्न टुटिलनि। निन्न टुटितहि बाहर निकललथि ते झल-अन्हार देखि पुनः ओछाइन पर आवि गेलाह। अनुपक बात हीरानन्दक मन केँ झकझोड़ैत छलनि। जे समाज मे एहि रुपे कटुता, विषमता पसरि गेल अछि जे घर-घर, जाति-जाति, टोल-टोल मे भैंसा-भैंसीक कनारि पकड़ि नेने अछि। एहना स्थिति मे, कोना समाज आगू बढ़त? समाज केँ आगू बढ़ैक लेल एक-दोसरक बीच आत्मीय प्रेम हेबाक चाहिऐक। से कोना होयत? एहि प्रष्न केँ जते सोझरबै चाहै छलाह तते ओझराइत छल। विचित्र स्थिति मे पड़ल हीरानन्द। अपने मन मे प्रष्न उठा, तर्क-वितर्क करति आ अंत होइत-होइत प्रष्न पुनः ओझरा क’ रहि जायत। विबेक काजे नहि करैत छलनि। तहि बीच भाग चिड़ैक चहचहेनाइ सुनलनि। चिड़ैक चहचहेनाइ सुनि फेरि कोठरी स निकलि पूब दिस तकलनि। मेघ ललिआयल बुझि पड़लनि। घड़ी पर नजरि देलनि त पाँच बजैत छलैक। पुनः कोठरी आवि लोटा लए मैदान दिषि विदा भेलाह। मुदा मनकेँ ऐहेन गछाड़ि केँ सवाल पकड़ने रहनि जे चलैक सुधिये नहि रहलनि। जायत-जायत बहुत दूर चलि गेलाह। खुला मैदान देखि, लोटा राखि टहलवो करैत आ प्रष्नो सोझरबैक कोषिष करैत रहति। मुदा तइयो निष्कर्ष पर नहि पहुँच सकलाह। पुनः घुरि कए घर पर आबि, दतमनि कए मुह हाथ धोय, चाह बनवै लगलाह। ओना चाहक सब समान चुल्हिऐक उपर चक्का पर राखल रहैत अछि। सिर्फ केतली पखारब, गिलास धोअब आ ठहुरी जारन डेढ़िया पर स आनै पड़लनि। सब कुछ सरिया हीरानन्द चाह बनवै वैसिहाल मुदा मन बौआइत छलनि। असथिरे नहि होयत छलनि। असकरे चाह पीनिहार मुदा भरि केतली पानि दए चुल्हि पर चढ़ा देलनि। जखन चाह खोलए लगलनि तखन मन मे एलनि जे अनेेरे एते। चाह किअए बनवै छी। फेरि केतली चुल्हि पर स उताड़ि दू गिलास दूध मिलाओल पानि कात(बगल) मे राखल गिलास मे रखि, बाकी दूध मिलाओल पानि दू गिलास केतली मे दए देलनि।
मन बौआइते छलनि। आँच लगबैत गेला मुदा चाह पत्ती केतली मे देवे नहि केलनि। आगिक ताव पर दुनू गिलास पानि जरि गेला पर मन पड़लनि जे चाह पत्ती केतली मे देबे ने केलिऐक। हाँइ-हाँइ क’ डिब्वा मे से हाथ पर चाह पत्ती लय केतलीक झप्पा उठौलनि कि नजरि केतली क भीतर गेलनि त पानिये नहि छलैक। सबटा पानि जरि गेल छलैक। तरहत्थी परक चाह पत्ती डिब्बा मे रखि पुनः केतली मे पानि देलनि। चाह बनल। भिनसुरका समय दू गिलास पीलनि। एक त ओहिना मन समाजक समस्या मे ओझड़ालय छलनि तहि पर सँ चाह आरो ओझरी लगा देलकनि।
चाह पीबि दरबज्जा पर बैसि बिचारै लगलाह। मुदा चाहक गर्मी पावि मन आरो बेसी बौआइ लगलनि। जहिना ककरो कोनो वस्तु हरा जायत छैक आ ओ खोजए लगैत अछि तहिना हीरानन्द समाजक ओहि समस्याक समाघान खोजै लगलाह जे समस्या समाज केँ टुकडा़-टुकड़ा कए देने अछि। दोसर कियो नहि छलनि। जनिका सँ तर्क-वितर्क करितथि। असकरे ओझराएल रहथि। अपने मन मे सवालो उठनि जबाबो खोजथि। अध्ययनो बहुत अधिक नहिये। छलनि। सिर्फ मैट्रिके पास छलाह। मुदा तइओ समस्याक समाधान तकितहि(खोजितहि) रहलाह, छोड़लनि नहि। जहिना पथिक केँ, बिनु देखलो पथ, हराइत-भोथिआइत भेटिये जायत छैक तहिना हीरानन्दो केँ भेटलनि। अनायास मन मे मिथिलाक चिन्तनधारा आ मिथिला समाजक बुनाबटिक ढाँचा पर गेलनि। दुनू(चिन्तनोधारा आ सामाजिक ढँचो) पर नजरि पड़ितहि मन मे एकटा नव ज्योतिक उदय भेलनि। बिजलोका इजोत जेँका मन मे चमकलनि। विछान सँ उठि ओसारे पर टहलै लगलथि। अनायास मुह स’ निकललनि- ‘‘वाह रे मिथिलाक चिन्तक! दुनियाँक गुरु। जे ज्ञान, हजारो बर्ख पहिनहि मिथिलाक धरती पर आबि गेल छल। ओइह ज्ञान उन्नैसम शताब्दी मे माक्र्स कठिन संधर्ष कए केँ अनलनि। जहि स दुनियाँक चिन्तनधारा बदलल। मुदा मिथिलाक दुर्भाग्य भेलैइ जे समाजक नियामक धूर्तइ केलक। जे चिन्तक, मनुष्य केँ एक रुप (सभ मनुक्ख मनुक्ख छी) मे देखलनि, ओहि रुप केँ, नियामक(षासन कर्ता) टुकड़ी-टुकड़ी कए काटि देलनि। आइ जरुरत अछि ओहि सभ टुकड़ी केँ जोड़ि कए एक रुप बनवैक। जे नान्हि टा समस्या नहि अछि। ततबे नहि! अखनो टुकड़ी बनौनिहारक कमी नहि अछि। जहन कि भेलि टुकड़ी केँ स्वयं ओ चेतना नहि छैक। जे टुकड़ी भेल कात मे पड़ल छी आ कौआ-कुकुड़ खायत अछि।
ई ऐहन विचार हीरानन्दकेँ उपकितहि मन असथिर भेलनि। मन मे नव स्फूर्ति, नव चेतना आ नव उत्साह जगलनि। नव ढंग(नजरि) सँ सभ वस्तु केँ देखै लगलथि। तहि बीच शषिषेखर सेहो टहलि-बूलि क’ अयलाह।
हीरानन्द पर नजरि पड़ितहि शषिषेखर केँ बुझि पड़लनि जे जना क्यो नहा क’ पोखरि स उपर भेल होअए, तहिना। मुदा हीरानन्दक मन विचार मे डूबले रहलनि। मने-मन सोचैत जे जहिना पटुआ सोन वा सनईक सोन वा रुइक रेषा महीन होइत, मुदा कारीगर ओहि रेषा केँ टेरुआ वा टौकरीक सहारा स समेटि क सूत वा सुतरी बना, कपड़ा वा बोरा वा मोटगर रस्सा बनवैत अछि। तहिना समाजोक टुटल(खंडित) मनुक्ख केँ जोड़ि समाज बनवै पड़त। तखने नव समाजक निर्माण होयत। जे अद्दी-गुद्दी काज नहि कठिन काज छी। कठिन काजक लेल कठिन मेहनतक जरुरत पड़ैत अछि। सिर्फ कठिन मेहनते कयला टा स सभ कठिन काज नहि भए सकैत अछि। कठिन मेहनतक संग, सही समझ आ सही रास्ताक बोध सेहो जरुरी अछि। तेँ कठिन मेहनत, गंभीर चिन्तन आ आगू बढ़ैक(काज करैक) अदम्य साहस सेहो सभमे हेबाक चाहिऐक। एहिक संग मजबूत संकल्प सेहो होयब जरुरी अछि। विचारक संग-संग हीरानन्दक मन मे कठिन कार्यक संकल्प सेहो अपन जगह बनबै लगलनि। भिनसुरका समय तेँ लाल सूर्य मे ठंढ़ापन सेहो देखए लगलथि। एक टक स सूर्य दिषि देखैत अपन विचार केँ संकल्प लग ल’ जाय दुनू केँ हाथ पकड़ि दोस्ती करौलनि। दुनूक बीच दोस्ती होइतहि मनक नव उत्साह शरीर मे तेजी अनै लगलनि।
दरबज्जाक आगुऐ देने उत्तरे-दछिने रास्ता। हीरानन्द शषिषेखर केँ कहलखिन- ‘‘चलू, कने बुलिये-टहलि लेब आ एकटा गप्पो कए लेब।’’
दुनू गोटे दरवज्जा पर स उठि आगू बढ़लाह कि, उत्तर से दछिन मुहे, तीन टा ढेरबा बच्चा केँ जायत देखलनि। तीनूक देह कारी खटखट। केष उड़िआयत। डोरीवला फाटल-कारी झामर पेन्ट तीनू पहिरने रहए। देह मे ककरो कोनो दोसर वस्त्र नहि। तीनूक हाथ मे पुरना साड़ीक टुकड़ा क’ चारु कोण बान्हल झोरा। तीनू गप-सप करैत उत्तर से दछिन मुहे जायत रहए। तीनू केँ एक टक स हीरानन्द देखि, तीनूक गप-सप सुनैक लेल कान पाथि देलनि। मुस्की दैत बेङबा बाजल- ‘‘रौतुका बसिया रोटी आ डोका तीमन तते ने खेलियौ जे चललो ने होइ अए। पेट ढब-ढ़ब करै अए। (दहिना हाथ दबैत) हे सुंगही हमर हाथ केहेन गमकै छै। जना बुझि पड़तौ जे कटुक-मसल्ला लागल छै। (हाथ समेटि) तू की खेलै गइ(गै) रोगही?’’
सिरसिरायल रोगही बाजलि- ‘‘हमरा माए कहलक जे जो डोका बीछि के ला गे। ताबे हमहू मड़ूआ उला, पीसि के रोटी पका क’ रखबौ। डोका चटनी(साना) आ रोटी खइहें।’’
रोगहीक बात सुनि बेङबा कबूतरीकेँ पूछलक- ‘‘तू गै कबूतरी?’’
‘काइल(काल्हि) जे माए डोका बेचै गेल रहै, ओम्हरे से मुरही कीनने आयल। सैह खेलौ।’’
कबूतरी बात सुनि बेङबा पनचैती केलक जे तोहर जतरा सबसे नीक छौ। आइ तोरा सबसे बेसी डोका हेतौ। सबसे बेसी तोरा तइ से कम हमरा आ सबसे कम रोगही के हेतइ।’’
बेङबाक पनचैतीक विरोध करैत रोगही बाजलि- ‘‘बड़ तू पंडित बनै छै। तोरे कहने हमरा कम हैत आ तोरा सब के बेसी। हमरा जेँका तोरा दुनू गोरे के डोका बिछैक लूरि छौ। घौंदिआयल डोका कते रहै छै से बुझै छीही?’’
मुह सकुचबैत बेङबा पुछलक- ‘‘कते रहै छै, से तूही कह?’’
‘किअए कहबौ। तू खेलै से हमरा बाँटि देलै।’’
बेङबा- ‘‘बाटि दितिओ, से हम अगरजानी जननिहार भगवान छी। तू कहले हेन अखनी आ बाँटि दैतियौ अंगने मे।’’
बेङबाक बात सुनि रोगही निरुत्तर भ’ गेलि। हीरानन्द आ शषिषेखर तीनूक बात, चुपचाप ठाढ़ भ’ सुनलनि। ताधरि तीनू गोटे हीरानन्दक लग पहुँचि गेल। हाथक इषारा स तीनू गोटे केँ हीरानन्द सोर पाड़ि पूछलखिन- ‘‘बौआ, तू सभ कते जाइ छह?’’
हीरानन्दक प्रष्न सुनि बेङबा धाँय दए उत्तर देलकनि- ‘‘डोका बिछै ले।’’
‘डोका बीछि क’ की करै छहक?’’
‘अपनो सब तुर खाइ छी आ माय बेचबो करै अए। बाउ कहने अछि जे डोका बेचि क’ पाइ हेतौ, तइ स अंगा-पेन्ट कीनि देबौ। घुरना विआह मे पीहीन के बरिआती जइहें।’’
बेङबाक बात सुनि हीरानन्द रोगही केँ पूछलखिन- ‘‘बच्चा तू?’’
रोगही उत्तर दैत कहलकनि- ‘‘हमहू डोके बीछै ले जाइ छी। माए कहलक जे डोका से जे पाइ हेतौ, तइ स षिवरातिक मेला मे महकौआ तेल, महकौआ साबुन, केष बन्है ले फीता आ किलीप कीनि देबौ।’’
मुस्कुराइत हीरानन्द, बातक समर्थन मे मूड़िओ डोलबैत आ मने-मन विचारबो करति जे कते आषा स गरीबोक बच्चा जीवैत अछि। शषिषेखर दिषि देखि, आखिक इषारा स कहलखिन, जे एकरा सभहक बगए देखिऔ आ आषा देखियौक। तेसर बच्चिया-कबूतरी केँ पूछलखिन- ‘‘बौआ, तू?’’
हीरानन्दक आखि मे आखि गड़ा कबूतरी कहै लगलनि- ‘‘हमरा माए कहने अछि जे डोका पाइ से सल्बार-फराक कीनि देबौ।’’
काजक समय नष्ट होइत देखि हीरानन्द तीनू केँ कहलखिन- ‘‘जाइ जाह।’’
हीरानन्द आ शषिषेखर घुरि क’ दरबज्जा पर अएलाह। ओ तीनू बच्चा गप-सप करैत आगू बढ़ल। थोड़े आगू बढ़ला पर कबूतरी बेङबा केँ पूछलक- ‘‘बेङबा, तू विआह कहिया करमे?’’
विआह सुनि बेङबाक मन मे खुषी भेलैक। ओ हॅसैत उत्तर देलक- ‘‘अखनी विआह नइ करबै। मामा गाम गेल रहियै ते भैया कहलक- ‘‘जे कनी आउर बढ़मे ते तोरा भेबन्डी(भिबन्डी) नेने जेबउ। ओतै नोकरी करबै। जखैन बहुत रुपैआ हेतै तब ईंटाक घरो बनेबइ आ बिआहो करबै।’’
विचहि मे रोगही कहलकै- ‘‘तोरा सनक ढहलेल बुते बोहू सम्हारल हेतउ?’’
बोहूक नाम सुनि बेङवाक हृदय खुषी स गदगद भए गेलैक। हँसैत कहलक- ‘‘आँई गै रोगही, तू हमरा पुरुख नइ बुझै छेँ। हम ते ओहन पुरुख छी जे एगो के, कहै जे तीन गो बहू केँ सम्हारि लेब।’’
कबुतरी- ‘‘खाइ ले बहू के की देबही?’’
बेङबा- ‘‘भेबन्डी मे जब नोकरी करबै तब बुझै छीही जे कते कमेबै। दू हजार रुपैआ एक्के महीना मे हेतइ।’’
हँसैत रोगही बिचहि मे टिपकल- ‘‘दू हजार रुपैआ गनलो हेतउ?’’
बेङबा- ‘‘बीस-बीस के गनवै। रुपैआ हेतइ ते फुलपेन्ट सियेबै, खूब चिक्कन अंगा कीनवै, घड़ी कीनवै, रेडी कीनवै, मोबाइल कीनवै, डोरी वला जुत्ता कीनबै। तब देखिऐहै जे बेङबा केहेन लगै छै।’’
कबूतरी- ‘‘तोरा नोकरी के रखतौ?’’
बेङबा- ‘‘ गामवला भैया नोकरी रखा देतइ। उ कहलक जे जेही मालिक अइठीन हम रहै छियै तेही मालिक अइठीन तोरो रखा देवउ। बड़ धनीक मालिक छै। मारिते नोकर छै। हम जे मामा गाम गेल रहियै ते भइयो गाम आइल रहै। ओ कहै जे हम मालिकक कोठी मे रहै छियै। दरमाहा छोड़ि के बाइलियो खूब कमाइ छै। मालिक के एकटा बेटी छै। उ बड़का इस्कूल(कालैज) मे पढ़ै छै। अपने स हवागाड़ी चलबै छै। सब दिन, हमर भैया ओकरा इस्कूल संगे जाइ छै। उ पढ़ै छै आ हमर भैया गाड़ी ओगरै छै। जखनी छुट्टी भ’ जाइ छै तखनी दुनू गोरे संगे अवैछै। उ मलिकाइन हमरा भैया केँ मानबो खूम करै छै। संगे-संग सिलेमा देखै ले जाइ छै। बजार घुमै ले जाइ छै। बड़का दोकान(होटल) मे दुनू गोरे खूम लड़ू खाइ अए। अन्ना ते बड़का मालिक सब नोकर के दीयाबत्ती(दिवाली) मे चिक्कनका नुआ देइ छै, हमरो भैया के दै छै। छोटकी मलिकाइन अपने दिसन से नीकहा-नीकहा फुलपेन्ट, नीकहा-नीकहा अंगा कीनि-कीनि देइ छै। रुपैयो खूम देइ छै।’’
तीनू गोटे बाध पहुँच गेल। बाध पहुँचहि तीनू गोटे तीन दिषि भए गेल। तीन दिस भए तीनू गोटे डोका बीछै लगल। उपरे सब मे डोका चराओर करै ले निकलल रहए। डोका बीछि तीनू गोटे घुरि गेल।
दरबज्जा पर आबि हीरान्द शषिषेखर केँ पूछल- ‘‘षषि, की सभ ओहि बच्चा सभ मे देखलिऐक?’’
मुह बिजकबैत शषि उत्तर देलनि- ‘‘भाय, ओहि बच्चा सभकेँ देखि छुब्द छलहुँ। ओकरा सभहक बगए देखए छलिऐक आ मनक खुषी देखै छलिऐक। जना दुनियादारी स कोनो मतलब नहि। निर्विकार। अपने-आप मे मग्न छल।’’
हीरानन्द- ‘‘कहलहुँ त ठीके, मुदा एकटा बात तर्कक छल। अपना सभहक समाज तते नमहर अछि जाहि मे भिखमंगा सँ राजा धरि बसैत अछि। एक दिस बड़का-बड़का कोठा अछि त दोसर दिस खोपड़ी। एक दिस आजुक विकसित मनुक्ख अछि त दोसर दिस आदिम युगक मनुुक्ख सेहो अछि। एते पैघ इतिहास समाज अपना पेट मे रखने अछि ने ओहि इतिहास केँ कियो पढ़निहार अछि आ ने बुझनिहार।’’
‘ठीके कहलहुँ भाय।’’
‘‘आइ धरि, हम सभ समाजक जाहि रुप केँ देखैत छी ओ उपरे-झापरे देखै छी। मुदा देखैक जरुरत अछि ओकर भीतरी ढाँचा केँ। जहिना समुद्रक उपरका पानि आ लहरि त सभ देखैत अछि, मुदा ओहिक भीतर की सभ अछि से देखनिहार कैक गोटे अछि।’’
भोर केँ वौएलाल अपनो पढ़ैत आ सुमित्रो केँ पढ़ा दइत। जाधरि टोल-पड़ोसक लोक सुति क’ उठै ताधरि वौएलाल आ सुमित्रा एक-डेढ़ घंटा पढ़ि लिअए। एक त चफलगर दोसर पढ़ैक जिज्ञासा सुमित्रा मे तेँ एक्के दिन मे अ, आ से य,र,ल,व तक सीखि गेल। कब्बीरकाने सीखि सुमित्रा बाल-पोथी आ खाँत सिखब शुरु केलक।
सुमित्रा केँ पढ़ैत देखि माय-बाप केँ खुषी होइ। ओना माइयो केँ आ बापोक मनमे शुरुहे सँ रहए जे बच्चा सभ केँ पढ़ाएब, मुदा समयक फेरि आ परिवारक विपन्नताक चलैत, मनक सभ मनोरथ मने मे गलि क’ विलीन भए गेलैक। मुदा जहिया सँ सुमित्रा पढ़ै लागलि तहिया स पुनः ओ मनोरथ अंकुरित होअए लगलैक। मनुक्खक जिनगीक गति मनुक्खक विचार आ व्यवहार केँ सेहो बदलैत अछि। अनुपक प्रति जे कटुता आ दुर्विचार रामप्रसादक मन केँ गहिया क’ धेने छलैक ओ नहुँए-नहुँए पघिलए लगलैक। रामप्रसादक स्त्री(सुमित्राक माय) अनुपक आंगन अबैत जायत छलीह। तीमन-तरकारीक लेन-देन पति सँ चोरा क’ सेहो करैत छलीह। मुदा तइयो रामप्रसादक मन मे पैछला दुष्मनी नीक-नहाँति नहि मेटाएल छलैक। जहिना सुखायल धार मे(बरसात मे) पानि अबितहि जीवित धारक रुप-रेखा पकड़ि लइत तहिना विद्याक प्रवेष स रामप्रसादोक परिवारक रुप-रेषा बदलै लगलैक। भैंसा-भैसीक दुष्मनी भाय-भैयारी मे बदलैै लगलैक।
मिरचाई, तरकारी आ चून कीनै ले अनुप हाट गेल रहए। कोसे भरि पर कछुआ हाट अछि। तहि बीच रामप्रसाद कताक बेरि अनुपक डेढ़िया पर आबि-आबि अनुपक खोज केलक। रामप्रसादक अधला विचार केँ धिक्कारि क’ भगा नीक-विचार अपन जगह बना लेलक। दोसरि साँझ मे अनुप हाट स घुरि क’ रस्ते मे अबैत छल कि रामप्रसाद फेरि तकै ले पहुँचल। अनुप पर नजरि पड़ितहि रामप्रसाद कठहँसी हँसि कहलक- ‘‘बहुत दिन जीवह भैया। बेरुए पहर से कत्ते हरा गेल छेलह?’’
रामप्रसादक बदलल चेहरा आ विचार सुनि अनुप मने-मन तारतम्य करै लगल। जे आइ सुर्ज किमहर उगलाह। जिनगी भरिक दुष्मनी एकाएक ऐना बदलि कोना गेलैक? पैछला गप अनुप केँ मन पड़लै। अखन धरि रमपसदबा संग हमरा दुष्मनी ओकर अधले (खवासी) काजक दुआरे ने छल। मुदा ताराकान्त केँ धन्यवाद दियै(दिअए) जे बेचारा मारिओ खा, जहलो जा गाम मे खबासी प्रथा मेटौलक। जाबे रमपरसदबा अधलाह काज करै छल ताबे जँ दुष्मनी छल ते ओहो नीके छल। किऐक त हमहूँ अपना डारि पर छलौ। आब जँ ओ ओहि काज केँ छोड़ि देलक ते हमरो मिलान करै मे हरज की? कालोक गति त प्रबल होइत छैक। समयो बदलि रहल अछि। एक त पहिलुका जेँका भारो-दौर लोक नहि दइत अछि, दोसर पहिने लोक कान्ह पर भार उघैत छल आब गाड़ी-सवारी मे लए जायत अछि। ततबे नहि, आब सभहक समांग परदेष सेहो खटै लगल अछि। गामक मालिको-मलिकाना केँ पहिलुका रुतबा कमले जायत छैक।
रामप्रसादक बात सुनि अनुप कहलक- ‘‘हाट जायब जरुरी छल। घर मे ने मिरचाई छल आ ने चून। जे चूनवाली चून बेचए अबै छलि ओकर सासु मरि गेलै। अईसाल एक्को दिन कटहरक आँठी देल खेरही दालि सेहो नै खेने छलौ, तेँ मन लगल छले।’’
कहि अनुप सोझे आंगन जाय ओसार पर आँठी आ मेरिचाइक मोटरी रखि, कोही मे चून रखलक। एकचारी मे बैसि रामप्रसाद तमाकुल चुनबैत। खोलिया पर रखि चूनक कोही अनुप बाहर आबि रामप्रसाद केँ कहलक- ‘‘ताबे तमाकुल लगबह कने हाथ-पाएर धोय लइ छी। एक त कच्चाी रस्ता तहू मे तते टेक्टर सब चलै छै जे भरि ठहुन के गरदा रस्ता मे भ’ गेल अछि। जहिना लोकक पएर थाल-पानि मे धँसै छै तहिना गरदो मे धसै अए।’’
कहि अनुप इनार पर जा हाथ-पाएर धोय क’ आबि, रामप्रसाद लग बैसल। अनुपकेँ तमाकुल दइत रामप्रसाद कहलकै- ‘‘भैया, दुपहरे से मन मे आयल जे तोरो बड़दक भजैती आन टोल मे छह आ हमरो अछि। दुनू गोरे ओकरा छोड़ा के अपने मे लगा लाय। जइ से दुनू गोरे के सुविधा हैत’।’’
थूक फेकि अनुप उत्तर देलकै- ‘‘ई बात त कत्ते दिन से वौएलाल कहै छलै जे जते काल बड़द अनै मे लगै छह ओते काल मे एकटा काज भ’ जेतह।’’
मूड़ी डोलबैत रामप्रसाद बाजल- ‘‘काल्हि जा क’ तोहूँ अपन भजैत केँ कहि दहक आ हमहूँ कहि देवइ। परसू से दुनू गोरे एक्के ठीन जोतब।’’
आंगन बहरनाई छोड़ि रधिया सेहो आबि क’ टाटक कात मे, ठाढ़ भ’ गेलि। किऐक त बहुतो दिनक उपरान्त दुनू गोटेक मुहा-मुही गप करैत देखलनि। बड़दक भजैतीक गप कए अनुप रामप्रसाद केँ कहलक- ‘‘अबेर भ’ गेल। अखन तोहूँ जाह हमहूँ पर-पाखाना दिस जायब।’’
जहिना सड़ल सँ सड़ल पानि मे कमल फुलेला सँ भगवान माथ पर चढ़ैक अधिकारी भए जायत अछि तहिना वौएलाक सेवा सभहक लेल होअए लगल। जहि स गाम मे बौएलाल चर्चक विषय बनि गेल। हीरानन्दक आसरा पाबि वौएलाल रामायण, महाभारत, कहानी कविता पढ़ब सीखि लेलक। जहि गाममे लोक भरि-भरि दिन ताष खेलैत, जुआ खेलैत तहि गाम मे वौएलालक दिनचार्या सबसँ अलग बीतए लगलैक। जहि स वौएलालक जिनगीक रास्ता बदलि गेल। अधिककाल हीरानन्द वौएलाल केँ कहथिन- ‘‘बौएलाल, गरीबक सबसँ पैघ दोस्त मेहनत छी। जे कियो मेहनत केँ दोस्त बना चलत ओइह गरीबी रुपी दुष्ट केँ पछाड़ि सकैत अछि। तेँ सदिखन समय केँ पकड़ि, सही रास्ता सँ मेहनत केनिहार जे अछि ओइह एहि धरती आ दुनियाँक सुख भोगि सकैत छथि।’’
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मौलाइल गाछक फुल:ः 8
रौतुके गाड़ी सँ रमाकान्त, तीनू गोटे, अपना टीषन मे उतड़लाह। अन्हार राति। भकोभन स्टेषन। सिर्फ दुइये गोटे, स्टेषन मास्टर आ पैटमेन, स्टेषनक घर मे केबाड़ बन्न कए जगल रहए। लेम्प जरैत। ने एक्को टा इजोत प्लेटफार्म पर आ ने मुसाफिर खना मे। अन्हारे मे तीनू गोटे अपन सब समान मुसाफिर खाना मे रखि, जाजीम विछा वैसि रहलाह। गाड़ी झमारक संग दू रातिक जगरना सँ तीनू गोटेक देह, ओंघी स भसिआइत रहनि। प्लेटफार्मक बगल मे ने एक्कोटा चाहक दोकान खुजल आ ने एक्को टा दोाकनदार जगल रहए। ने कोनो दोकान मे इजोत होयत छलैक आ ने गाड़ी से एक्कोटा दोसर पसिंजर(यात्री) उतड़ल। निन्न तोड़ै दुआरे रमाकान्त चाह पीबै चाहति मुदा कोनो जोगार नहि देखि कखनो समान लग बैसथि त कखनो उठि केँ टहलै लगति। जुगेसर आ श्यामा सुति रहल। मुदा रमाकान्त मन मे होइन जे जँ कहीं सुति रहब आ सब समान चोरि भए जाय तखन त भारी जुलुम हएत। निन्न तोड़ैक एकटा नीक उपाय छलनि जे ढाकीक-ढ़ाकी मच्छर रहए। जुगेसरो आ श्यामो चद्दरि ओढ़ि, मुह झाँपि सुतल रहथि।
प्लेटफार्म पर पनरह-बीस टा अनेरुआ कुकुड़ ऐम्हर स ओमहर करैत रहए। प्लेटफार्मक पछबारि भाग माल-जालक हड्डीक ढेरी स गंध अवैत सकरीक एकटा व्यापारी हड्डीक कारोबार करैत अछि। गाम-घर मे जे माल-जाल मरैत ओकर हड्डी गामे-घरक छोटका व्यापारी, भार पर उघि-उघि अनैत अछि ओहि व्यापारी ऐठाम बेचि-बेचि गुजर करैत अछि। जखन बेसी हड्डी जमा भए जायत छैक तखन ओ मालगाड़ीक डिब्बा मे लादि बाहर पठबैत अछि। जाधरि हड्डी प्लेटफार्मक बगल मे रहैत अछि ताधरि अनेरुआ कुत्ता सब ओहि हड्डी केँ चिबबैक पाछू तबाह रहैत अछि। दिन रहौ कि राति, जते टीषनक कातक कुकुड़ अछि सब ओहिक इर्द-गिर्द मड़राइत रहैत अछि। ओना आनो-आनो गामक कुकुड़ गाम छोड़ि ओतए रहैत अछि। एकटा पिल्ला एकटा पिल्लीक संग, प्लेटफार्मक पूबारि भाग से अबिते छल कि एकटा दोसर कुत्ताक नजरि पड़लैक। बिना बोली देनहि ओ कुकुड़ दौड़ि क’ ओहि जोड़ि(पिल्ला-पिल्लीक) लग पहुँच गेल। आगू-आगू पिल्ली आ पाछू-पाछू पिल्ला नाङरि डोलबैत ओ दोसर कुकुड़ पिल्लीक मुह सूँघलक। मुह सुघितहि पिल्ली, मुह चियारि केँ, ओहि कुत्ता पर टूटलि। पिल्ली केँ टूटितहि पैछला पिल्ला जोर से भुकल। कुत्ताक अवाज सुनितहि, जते अनेरुआ कुकुड़ प्लेटफार्म पर रहए, सभ भुकैत दौड़ि केँ, ओहि पिल्ली केँ घेरि लेलक। सभ सभपर भूकै लगल। मुदा पिल्ली डरायल नहि। रानी बनि हस्तिनीक चालि मे पछिम मुहे चललि। अबैत-अबैत टिकट घरक सोझे बैसि रहलि। पिल्ली केँ बैसितहि सभ पिल्ला पटका-पटकी करै लगल।
प्लेटफार्मक पछवारि भाग, कदमक गाछक निच्चा मे मघैया डोम सभ डेरा खसौने रहए। ओहि काल एकटा छैाँड़ा एकटा छैाँड़ीक संग, डेरा स थोड़े पछिम जाय, लट्टा-पट्टी करैत रहए। कुत्ताक अवाज सुनि एक गोटे केँ निन्न टूटलै। निन्न टुटितहि आखि तकलक कि पछवारि भाग दुनू गोटे केँ लट्टा-पट्टी करैत देखलक। ओ ककरो उठौलक नहि! असकरे उठि क’ ओहि दुनू लग पहुँचल। ओहो दुनू देखलकै। छैाँड़ा ससरि केँ झाड़ा फीड़ै ले कात मे वैसि गेल। मुदा छैाँड़ी चलाक। फरिक्के से ओहि आदमी केँ छैाँड़ी कहलकै- ‘‘कक्का।’’
कक्का सुनि ओ किछु बाजल नहि मुदा घुरबो नहि कयल। आगुए मुहे ससरैत बढ़ल। छैाँड़ियो ओकरे दिस ससरलि। लग मे पहुँचतहि छैाँड़ी कन्हा पर दहिना हाथ दइत फुसफुसा क’ कहलकै- ‘‘कक्का....।’’
कान्ह पर हाथ पड़ितहि कक्काक मन बदलै लगलनि। जहिना षिकारी केँ दोसराक षिकार हाथ लगला पर खुषी होइत तहिना कक्को केँ भेलनि। ओहो अपन दहिना हाथ क’ छैाँड़ीक देह पर देलखिन। देह पर हाथ पड़ितहि छैाँड़ी हल्ला केलक। छैाँउड़ो देखैत। उठि क’ ओहो हल्ला करै लगल। हल्ला सुनि सभ मघैया उठि-उठि दौड़ल।
टिकटघर (स्टेषन) मे टिकट मास्टर पैटमेन केँ कहलक- ‘‘रघू, प्लेटफार्म पर बड़ हल्ला होइ छैक। जा केँ देखहक ते।’’
पैटमेन जवाब देलकनि- ‘‘टीषन छियै। सभ रंगक लोक ऐठाम अबै-जाय अए। जँ हम ओमहर देखै ले जाय आ ऐम्हर(स्टेषन घर मे) चोर चलि आबेए ते असकरे अहाँ बुते सम्हारल हएत। भने केबाड़ बन्न छै। दुनू गोटे जागल टा रहूँ। नहि त सरकारी समान चोरि भेने दुनू गोरेक नोकरी जायत। कोनो कि सुरक्षा गार्ड अछि जे चोरिक दोख ओकरा लगतै।’’
पैटमेनक बात स्टेषन मास्टर केँ नीक बुझि पड़लनि पैटमेन केँ कहलखिन- ‘‘ठीके कहलह।’’
दुनू गोटे गप-सप करै लगला। लेम्प जरिते रहै। केवाड़क दोग देने पैटमेन प्लेटफार्म दिस तकलक ते देखलक जे कुत्ता सभ पटका-पटकी करै अए। अन्हार दुआरे मघैया सभ केँ देखबे नहि केलक।
एक दिस कुत्ता सबहक झौहड़ि आ पटका-पटकी, दोसर दिस मघैया सभहक गारि-गरौबलि स प्लेटफार्म गदमिषान हुअए। मने-मन रमाकान्त सोचति जे भने भए रहल अछि। लोकक हल्ला सँ हमर समान तँ सुरक्षित अछि। जुगेसर केँ उठवैत कहलखिन- ‘‘कने आगू बढ़ि क’ जा के देखहक ते कथीक हल्ला होइ छै?’’
जुगेसर उठि क’ कहलकनि- ‘‘कक्का, कोन फेरा मे पड़ै छीबस स्टेण्ड आ रेलवे स्टेषन मे एहिना सदिखन, झूठि-फूसि लय हल्ला होइते रहै छै। अपन जान बचाउ। अनेरे कते जायब।’’
भोर होइतहि टमटमवला सभ अवै लगल। उत्तरवारि भाग (थोड़े हटि क’) ठकुरबाड़ी मे घड़ीघंट बजै लगल। घड़ीघंटक आबाज सुनि रमाकान्त नमहर साँस छोड़लनि। जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘ओंघी से मन भकुआएल अछि। चाहो दोकान पर लोक सभ के गल-गुल करैत सुनै छियै। कने चाह पीने अबै छी। ताबे तू समान सब देखैत रहह।’’
कहि रमाकान्त उठि क’ कल पर जाय कुड़ुड़ केलनि। पानि पीलनि। पानि पीवि चाहक दोकान पर जाय चाह पीलनि। चाह पीबि पान खाय घुरि क’ आबि जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘आब तोहू जाह। चाह पीवि दू टा टमटम सेहो केने अविहह।’’
जुगेसर उठि के कल पर जाय कुड़्ड़ा केलक। कुड़्ड़ा केलाक बाद सोचलक जे अखैन भिनसुरका पहर छै। तोहू मे तीनिये-चारि टा टमटमवला आयल अछि। जँ कहीं चाह पीबै ले चलि जाय आ इमहर टमटमवला दोसर गोरे के गछि लै, तखन त पहपटि भ’ जायत। तइ से नीक जे पहिने टमटमे वला केँ कहि दिअए। सैह केलक। टमटमवला लग पहुँच क’ पूछलकै- ‘‘भाइ, टमटम खाली छह।’’
‘हँ।’
‘चलबह।’
‘हँ, चलब।’
पहिल टमटमवला जे छल, ओकर घरबाली दुखित छलैक। दस बजे मे डाॅक्टर ऐठाम जेबाक छलैक। एक्को टा पाइ नहि रहने भोरे स्टेषन पहुँच गेल जे एक्को-दू टा भाड़ा कमा लेब ते औझुका जोगार भ’ जायत। किएक त कम से कम पचास रुपैआ दवाई-दारु, तकर बाद घरक बुतात, घोड़ाक खरचा आ दस रुपैआ बैंकवला केँ सेहो देवाक अछि।
जुगेसर केँ पुछितहि टमटमवला मने-मन सोचै लगल जे भिनसुरका बोहनि छी तेँ एकरा छोड़ैक नहि अछि। साला टमटमवला सभ जे अछि ओ उपरौज करैत रहैत अछि। कहै ले अपना मे युनियन बनौने अछि मुदा बान्ह कोनो छइहें नहि। लगले बैसार क क’ विचारि लेत आ जहाँ दस रुपैआ जेबी मे एलै आ ताड़ी पीलक कि मनमाना करै लगैत अछि। अपना मे सभ विचारने अछि जे बर-बीमारी मे सभ चंदा देवइ मुदा हमरे कए टा पैसा चंदा देलक। पनरह दिन से घरवाली दुखित अछि जहि पाछु रेजानिस-रेजानिस भ’ गेल छी। ने एक्को मुट्ठी घोड़ा केँ बदाम दइ दियै आ ने अपने भरि पेट खाइ छी। धिया-पूता सभ अन्न बेतरे टउआइत(टौउआइत) रहै अए। तखन ते धन्यवाद ओही बच्चा सभ के दिअए जे भुखलो माए केँ सेवा-टहल करै अए। अपनो घोड़ाक संग-संग टमटम धिचै छी। जँ से नइ करब आ सोलहो अन्ना घोड़े भरोसे रहब ते ओहो मरि जायत। ओइह त, हमर लछमी छी। ओकरे परसादे दू पाइ देखै छी। ओकरा कन्ना छोड़ि देबइ। जिनगी भरि त ओकरे संग सुखो केलौ छोट-छोट बच्चो केँ त ओइह थतमारि केँ रखलक। हम त भरि दिन बोनाइले रहै छी। घर त ओहि वेचारीक परसादे चलै अए।
तहि बीच जुगेसर पूछलकै- ‘‘कते भाड़ा लेबहक?’’
भाड़ाक नाम सुनि टमटमवला सोचै लगल- एक त भिनसुरका बोहनि छी, दोसर डाकडरो अइठीन जाइ के अछि। जँ भाड़ा कहबै आ ओते नइ दिअए तखन ते बक-झक हैत। जँ कहीं दोसर टमटम पकड़ि लिअए तखन ते ओहिना मुह तकैत रहि जायब। तइ से नीक हैत जे पहिने समानो आ पसिनजरो चढ़ा ली। एते बात मन मे अबितहि टमटमवला कहलकै- ‘‘जे उचित भाड़ा हैत सैह ने लेब। हम तोरा एक हजार कहि देवह तेँ कि तू दइये देबह।’’
टमटमवलाक बात सुनि जुगेसर कहलकै- ‘‘अच्छा ठीक छै। पहिने चाह पीबि लाए।’’
दुनू टमटमोवला आ जुगेसरो चाहक दोकान पर जाय चाह पीलक। चाह पीबि तीनू गोटे तमाकुल खेलक। चाहवला केँ जुगेसरे पाइ देलकै। तीनू गोटे रमाकान्त लग आबि समान सब उठा-उठा टमटम पर लदलक। एकटा टमटम पर श्यामा, जुगेसर चढ़ल आ दोसर पर असकरे रमाकान्त समानक संग चढ़लनि। किछु दूर आगू बढ़ला पर रमाकान्त टमटमवला केँ कहलखिन- ‘‘घोड़ा एते लटल छह, खाइ ले नइ दइ छहक?’’
रमाकान्तक बात सुनि टमटमवला बेवषीक आखि उठा रमाकान्त दिषि देखि उत्तर देमए चाहैत मुदा कनैत हृदय मुह से बकारे नहि निकलै दैत। टमटमवलाक आखि पर आखि दए रमाकान्त पढ़ै लगलथि। तहि बीच टमटमवलाक आखि मे नोर ढवढ़बा गेलै। कान्ह परक तौनी स आखि पोछि टमटमवला कहै लगलनि- ‘‘सरकार यैह टमटम आ घोड़ा हमर जिनगी छी। अही पर परिवार चलै अए। जइ दिन से भनसिया दुखित पड़ल तइ दिन से जे कमाइ छी से दबाइये-दारु मे खरचा भ’ जाइ अए। अपनो वाल-बच्चाकेँ आ घोड़ो के खाइक तकलीफ भ’ गेलै अए। की करबै! कहुना परान बचैने छियै। परान बँचतै ते माउस हेबे करतै।’’
टमटमवलाक धैर्य आ बेवषी देखि रमाकान्तक हृदय पघिल क’ इनहोर पानि जेँका पातर भ’ गेलनि। बिना किछु बजनहि मने-मन सोचै लगलथि जे एक तरहक मजबुर ओ अछि जे किछु करबे(कमेबे) नहि करैत अछि आ दोसर तरहक ओ अछि जे दिन-राति खटैत अछि मुदा ओकरा प्राकृति स’ ल’ केँ मनुक्ख धरि एहि रुपे संकट पैदा करैत अछि जहि स ओ मजवूर होइत अछि। इ(टमटमवला) दोसर श्रेणीक मजवूर अछि तेँ ऐहेन लोक केँ मदति करब धरमक श्रेणी मे अबैत अछि। जरुर ऐहेन लोकक मदति करैक चाहिऐक। मुदा मेहनतकष आदमीक मोन एत्ते सक्कत होइत अछि जे दोसर सँ हथउठाइ नहि लेमए चाहैत अछि। जँ हम किछु मदति करै चाहिऐक आ ओ लइ स नासकार जाय तखन त मन मे कचोट हैत। एहि असमंजस मे रमाकान्त पड़ि गेला। फेरि सोचै लगलथि जे कोन रुपे एकरा मदति कयल जाय? सोचैत-सोचैत सोचलनि जे हम नहि किछु कहि एकरे सँ पूछिऐक जे अखन तू जहि संकट मे पड़ल छह ओहि मे कते सहयोग भए गेला स तोरा पाड़ लगि जेतह। इ विचार मन मे अबितहि पूछलखिन- ‘‘अखन तोरा कते मदति भए गेला सँ पार लगि जेतह।’’
रमाकान्तक बात सुनि टमटमवलाक मन मे संतोषक छोट-छीन लकीर खिंचा गेल। मने-मन सब हिसाब बैसवैत बाजल- ‘‘सरकार, अगर अखन पाँच दिनक बुतात (परिवारोक आ घोड़ोक) आ एक सय रुपैआ भए जाय त हम अपन जिनगी केँ पटरी पर आनि लेब। जखने जिनगी पटरी पर आबि जायत तखने जिनगीक सरपट चालि पकड़ि लेब। तीनू काज(स्त्रीक इलाज, परिवार आ कारोवार) ऐहेन अछि जे एक्को टा छोड़ैवला नहि अछि।’’
टमटमवलाक बोली मे रमाकान्त केँ मदतिक आषा बुझि पड़लनि। आषा देखि खुषी भेलनि। खुषी अबितहि विचारलथि जे अगर पाँच दिनक बदला दस दिनक बुतात आ सय रुपैआक बदला दू साय रुपैया जँ मदति कए देवइ त विरोध नहि करत। संगे, जखने समस्या सँ निकलैक आषा जगि जेतइ ते काजो करैक साहस बढ़ि जेतइ। मुदा असकरे त नहि अछि दू गोटे(दू टा टमटमवला) अछि। कि दुनू गोटे केँ मदति करवैक आ कि एकरे टा?’’
पुनः एहि सवाल पर सोचै लगलथि। मन मे एलनि जे मुसीबत त एहि वेचारे टा केँ छैक। ओकरा(दोसर टमटमवाला) से त गप नहि भेल जे बुझितियैक। मुदा एकर त बुझलिऐक। तेँ एकरे टा मदति करबैक। ओकरा(दोसर टमटमवला) से पुछि लेवइ जे तोहर भाड़ा कते भेलह? जेते कहत तते दए देवइ। मुदा एक ठाम (सोझामे) कम-बेसी देवो उचित नहि। तेँ पहिने ओकरा भाड़ा दए विदा कए देवइ आ एकरा रोकि, पाछू केँ सभ किछु दए विदा कए देवइ। गरीबक हृदय केँ जुराइब, बड़ पैघ काज होयत। एते सोचैत-सोचैत रमाकान्त घर पर पहुँच गेलाह।
घर मे ताला लगा हीरानन्द पैखाना गेल रहथि। दुनू टमटम पहुँच दलानक आगू मे ठाढ़ भेल। टमटम ठाढ़ होइतहि सभ कियो उतड़लाह। टमटमोवला आ जुगेसरो, सब सामान केँ उताड़ि दावज्जाक ओसार पर रखलक। ताबे हीरानन्दो बाध दिषि स आबि पोखरिक पूबरिया महार लग पहुँचलाह। महार लग अबितहि दरवज्जा पर टमटम लगल देखलनि। टमटम देखि हीरानन्द बुझि गेल जे रमाकान्त आबि गेलाह। हाँइ-हाँइ क’ दतमनि, कुड़ुड़ कए लफरल दरवज्जा पर आबि घरक ताला खोलि देलखिन। हाथे-पाथे तीनू गोटे सभ सामान केँ कोठरी मे रखि देलकनि। दोसर टमटमवला केँ भाड़ा पूछि रमाकान्त दए देलखिन। पहिल टमटमवला केँ आँखिक इषारा सँ रुकै ले कहलखिन। दोसर टमटमबला चलि गेल। पहिल टमटमवला केँ दू सय रुपैया आ दस दिनक बुतात(दू पसेरी बदाम आ तीन पसेरी चाउर) दए विदा केलनि। टमटम पर चढ़ि, मने-मन गद-गद होइत टमटमवला गीति सभक सुधि अहाँ लइ छी यौ बावा हमरा किअए विसरल छी यौ। गुनगुनाइत विदा भेल।
पसीना स गंध करैत कुरता-गंजी निकालि रमाकान्त चैकी पर रखलनि। भकुआइल मन रहनि। मुदा नीके-ना घर पहुँचला स मन खुषी होइत रहनि। हीरानन्दकेँ पूछै स पहिनहि रमाकान्त पूछलखिन- ‘‘गाम-घरक हाल-चाल बढ़िया अछि की ने?’’
‘हँ’ कहि हीरानन्द पूछलखिन- ‘‘यात्रा बढ़ियाँ रहल की ने?’
‘‘येह, यात्राक संबंध मे की कहू! अखन त मनो भकुआयल अछि आ तीनि दिन से नहेबो ने केलहुँ हेन। तेँ पहिने नहा लिअए दिअ। तखन निचेन से यात्राक संबंध मे कहब।’’
जुगेसर केँ जे बिदाइ मद्रास मे भेटल रहै, ओ चारि टा कार्टून मे रहै । चारु कार्टून जुगेसर फुटा क’ ओसारे पर रखने रहए। जुगेसरक घरवाली आ धिया-पूता सेहो आबि गेलैक। चारु कार्टून जुगेसर अपना घरवाली केँ देखबैत कहलक- ‘‘ई अप्पन छी। अंगना नेने चलू।’’
अप्पन सुनि घरोवली आ धियो-पूतो चपचपा गेल। चारु कार्टून लए आंगन विदा भेल।
रमाकान्त अबैक समाचार गाम मे बिहाड़ि जेँका पसरि गेल। धिया-पूता स ल’ क’ चेतन धरि देखै ले अबै लगलनि। दरबज्जा पर लोकक भीड़ बढै़ लागल। रमाकान्त नहाएब छोड़ि जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘जुगे, सनेसवला कार्टून एतै नेने आबह।’’
सनेस मे डाॅ. महेन्द्र दू कार्टून नारियल(टुकड़ी बनााओल) देने रहनि। जुगेसर कोठरी जा एकटा कार्टून उठौने आयल। जहिया स रमाकान्त ब्रह्मचारी जीक आश्रम गेलथि तहिया स विचारे बदलि गेलनि। अपन सुख-दुख केँ ओते महत्व नहि दिअए लगलथि जते दोसराक। दरबज्जा पर लोक थहा-थही करै लगल। जना लोकक हृदय रमाकान्त क हृदय मे मिझराय लगलनि आ रमाकान्तक हृदय लोक मे। अपन नहाएव, दतमनि करब आ आँखि पर लटकल ओघी सभ बिसरि जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘चेतन केँ दू टा टुकड़ी आ बाल-बोध केँ एक-एक टा टुकड़ी बाँटि दहक। दरवज्जा पर आयल एक्को गोटे इ नहि कहए जे हमरा नहि भेल।’’
कार्टून खोलि जुगेसर नारियलक टुकड़ी बिलहै लगल। हाथ मे पड़ितहि, की चेतन की धिया-पूता, नारियल खाय लगैत। एक कार्टून सठि गेल मुदा देखिनिहार, जिज्ञासा केनिहार नहि सठल। दोसरो कार्टून जुगेसर अनलक। दोसर कार्टून सठैत-सठैत लोको पतरा गेल। लोकक भीड़ हटल देखि रमाकान्त नमहर साँस छोड़ैत जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘आब तोहूँ जा के खा-पीअह गे। हमहूँ जाइ छी।’’
आंगन आबि जुगेसर अपन चारु कार्टून खोललक। मद्रास मे कार्टूनक भीतरका समान नहि देखने छल तेँ देखैक उत्सुकता रहै। एक-एक टा कार्टून चारु गोटे- महेन्द्र, रविन्द्र, जमुना आ सुजाता- देने रहै। पहिल कार्टून, महेन्द्रवला, मे एक जोड़ धोती, एक जोड़ साड़ी, एकटा कुरता कपड़ाक पीस(टुकड़ा) एकटा आङीक पीस, एकटा चद्दरि, एकटा गमछा, एक जोड़ जुत्ता(जुगेसर ले) आ एक जोड़ चप्पल, (घरवली ले) दुनू बच्चा ले पेन्ट-षर्टक संग तीनि सय रुपैआ रहैक। एहिना तीनू कार्टून मे सेहो रहैक। चारु कार्टूनक समान देखि जुगेसरक परिवार केँ खुसीक बिहाड़ि मन मे उठि गेलैक। दुनू बच्चा अपन कपड़ा देखि खुषी स एक-एक टा पहीरि आंगन मे नचै लगल। किऐक त कपड़ाक ऐहन सुख जिनगी मे पहिल दिन भेटल छलैक। दुनू परानी जुगेसर केँ सेहो खुषी स मन गद-गद भए गेलैक। जुगेसर हिसाब जोड़ै लगल जे जँ ओरिया केँ पहिरब ते दुनू गोरेक जिनगी पाड़ लगि जायत ऐहन चिक्कन कपड़ा आइ धरि नसीब नहि भेल छल। एक आखि जुगेसर समान पर देने आ दोसर आखि घरवालीक आखि पर देलक।
दुनू गोटेक आखि मे जिनगीक बसन्त अवै लगलैक। अपन विआह मन पड़लै। जुगेसर केँ होय जे घरवालीकेँ दुनू बाँहि स पजिया क’ छाती मे लगा ली आ घरवाली केँ होय जे घरवला केँ कोरा मे बैसि एकाकार भए जाय। मुदा तीन दिनक गाड़ीक झमार सँ जुगेसरक देहो भसिआइ आ ओंघियो आखिक पीपनी केँ झलफलबैत रहए। जुगेसर घरवाली केँ कहलक- ‘‘पहिरै ले एक-एक जोड़ कपड़ो आ जुत्तो बहार रखू आ बाकी केँ खूब सरिया क’ रखि लिअ जे दुरि नहि हुअए।’’
बेर टगि गेल। जुगेसर नवका धोती, गंजी पहीरि कान्ह पर गमछा नेने रमाकान्त ऐठाम पहुँचल। रमाकान्त सुतले रहथि। आंगन जाय श्यामा केँ देखलक ते ओहो सुति उठि के मुह-हाथ धोइत छलीह। जुगेसर केँ देखि, श्यामा एक टक स निङहारि, मुस्की दैत कहलखिन- ‘‘आइ त अहाँ दुरगमनिया बर जेँका लगै छी, जुगेसर।’’
हँसैत जुगेसर उत्तर देलकनि- ‘‘काकी, महिन्दर भाय देलहा छी।’’
महिन्दरक नाम सुनि श्यामा कहलखिन- ‘‘भगवान भोग देथि। की सब बच्चा देलनि?’’
जुगेसर- ‘‘अहाँ से लाथ कोन काकी, तते कपड़ा-लत्ता आ जुत्ता-चप्पल चारु गोरे केँ देलनि जे जिनगी भरि कतबो धाँगि क’ पहीरब तइयो ने सठत।’’
बेटा-पूतोहूक बड़ाई सुनि श्यामाक हृदय उमड़ि पड़लनि। आह्लादित भए पूछलखिन- ‘‘पाइयो-कौड़ी देलनि कि कपड़े-लत्ता टा?’’
‘रुपैआ त गनलिऐ नहि, मुदा बुझि पड़ल जे दस-पनरह टा नमरी अछि।’
‘बाह। मालिक देखलनि की नहि?’
‘ओ त सुतले छथि। हुनके देखबै ले पहीर के एलौ।’
‘हम ताबे चाह बनबै छी। दरवज्जा पर जाय क’ हुनको उठा दिऔन।’
‘बड़बढ़िया’ कहि जुगेसर दरबज्जा पर आबि रमाकान्त केँ उठवै लगलनि। आखि खोलि रमाकान्त देवालक घड़ी पर नजरि देलनि। चारि बजैत। पड़ले-पड़ल सुतैक हिसाब जोड़लनि। हिसाब जोड़ि घुनघुना क’ बजलाह- ‘‘ऐहेन निन्न त जुआनियो मे नहि अबैत छल।’ ओछाइन पर स उठि जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘कने चाह बनौने आबह। अखनो बुझि पड़ै अए जे निन्न आँखिये पर लटकल अछि। ताबे हमहूँ कुड़ुड़ कए लइत छी।’’
कहि रमाकान्त पहिने लघी करै गेलाह। लघी करै काल बुझि पड़नि जे चाहो से धीपल लघी होइ अए। ततवे नहि जते लघी चारि बेरि मे करैत छी। तोहू स बेसी भए रहल अछि। लघी कए कल पर आबि आखि-कान पोछि, कुड़ुड़ कए दमसा क’ भरि पेट पानि पीलनि। पानि पीबितहि बुझि पड़लनि जे अधा निन्न पड़ा गेल। जुगेसर चाह अनलक। रमाकान्त चाह पीवितहि रहथि कि हीरानन्दो स्कूल से आबि गेला। शषिषेखर आबि गेल। हीरानन्द जुगेसर केँ पूछलखिन- ‘‘जात्रा(यात्रा) बढ़िया रहल की ने?’’
हँसैत जुगेसर बाजल- ‘‘जाइ काल टेन मे बड़ भीड़ भेल। जाबे गाड़ी मे रही ताबे ने एक्को बेर झाड़ा भेल आ ने सुतलौ। किऐक ते रिजफ सीट रहबे ने करै। जइ डिब्बा मे बैसल रही ओहि मे लोकक करमान लागल रहै। तइ पर से सब टीषन(जइ स्टेषन मे गाड़ी रुकै) मे एगो-दूगो लोक उतड़ै आ दस-बीस गोरे चढ़ि जाय। मुदा भगवानक दया से कहुना-कहुना पहुँच गेलौ। जखन मद्रास टीषन पर उतड़लौ ते दोसरे रंगक लोक दखियै। अपना सब दिस अछि किने जे सब रंग लोक मिलल-जुलल अछि। से नइ देखियै। बेसी लोक कारिये रहै। गोटे-गोटे लोक उज्जर बुझि पड़ै। जखन डेरा पर पहुँचलौ ते मकान देखि बिसबासे ने हुअए जे अपन छिअनि। बड़का भारी मकान। तइ मे कोठलीक कमी नहि।’’
‘भरि मोन देखलौ की ने?’
‘‘ऐह, की कहू मासटर सैब, महिन्दर भाय अपने मोटर से भरि-भरि दिन बुलबैत रहथि। मोटरो तेहेन जे जहाँ बैइसी आ खुगै कि ओंघी लगि जाय। कतए की देखलौ से मनो ने अछि।’’
रमाकान्त केँ मद्रास सँ अयवाक समाचार सुनि महेन्द्रक स्कूलक संगी, सुबुध सेहो अएलाह। ओ हाई स्कूल मे षिक्षक छथि। महेन्द्र आ सुबुध, हाई स्कूल धरि, संगे-संग पढ़ने रहथि। महेन्द्र साइंसक विद्यार्थी आ सुबुध आर्टक। बी.ए. पास केला पर सुवुध षिक्षक भेलाह आ महेन्द्र डाॅक्टरी पढ़ि, डाॅक्टर बनलाह। महेन्द्रक कुषल-क्षेम पूछि सुवुध रमाकान्त केँ पूछलखिन- ‘‘अपना एहिठामक लोक आ मद्रासक लोक मे की अंतर देखलिऐक?’’
दुनू ठामक लोकक तुलना करैत रमाकान्त कहै लगलखिन- ‘‘ओत्तुका आ अपना ऐठामक लोक मे अकास-पतालक अन्तर अछि। ओहिठामक लोक अपना एहिठामक लोक सँ अधिक मेहनती आ इमानदार अछि।’’
बिचहि मे शषिषेखर प्रष्न केलकनि- ‘की मेहनती?’
‘मनुक्खक तुलना करै सँ पहिने अपन इलाका आ मद्रासक माटि-पानिक तुलना सुनि लिअ। जेहेन सुन्नर माटि अपना सभक अछि देखते छियै जे कते मुलायम आ उपजाऊ माटि अछि। पानियो कते बढ़ियाँ अछि, ऐहन मद्रास मे नहि अछि। अपना सभ सँ बेसी गरमियो पड़ैत छैक। जहाँ धरि लोकक सवाल अछि, अपना ऐठामक लोक अधिक आलसी अछि। समय केँ कोनो महत्व नहि दइत अछि। वा इ कहियौक जे एहिठामक लोक समयक महत्व बुझवे नहि करैत अछि। कियो बुझबो करैत अछि त ओ परजीवी बनि जिनगी वितबै चाहैत अछि। हँ, किछु गोटे ऐहेन जरुर छथि जे मर्यादित मनुष्य बनि जिनगी जीवि रहल छथि। जे पूजनीय छथि, मुदा सामाजिक व्यवस्था सदिखन हुनको झकझोड़ितहि रहैत छन्हि। ओहिठामक लोक समयक संग चलैत छथि। जहि सँ कमजोर इलाका रहितहुँ नीक-नहाँति जिनगी बितवैत अछि। ओहिठामक लोक भीख केँ अधला बुझि नहि मंगैत अछि, मुदा अपना ऐठाम लोक उपार्जनक स्रोत बुझैत अछि।’’
बिचहि मे सुबुध पूछलकनि- ‘पढ़ाई-लिखाई केहेन छैक?’
‘स्कूल, कओलेज, युनिवर्सिटी सभ देखलहुँ। लड़का-लड़कीक स्कूल शुरुहे से अलग-अलग अछि। मुदा तइयो दुनू केँ संगे-संग पढ़ैत सेहो देखलहुँ। अपना ऐठाम सँ बेसी लड़की ओहिठाम पढ़ैत अछि। अपना ऐठाम लड़के पछुआयल अछि त लड़कीक कोन हिसाब। गाड़ी(ट्रेन) बस मे सेहो अलग-अलग व्यवस्था छैक। जहन कि अपना ऐठाम सभ संगे-संग चलैत अछि।’’
सुबुध- ‘‘खाई-पीबैक केहेन व्यवस्था छैक?’’
‘गरीब लोकक खान-पान दब होइतहि छेक। मुदा एक हिसाव सँ देखल जाय त अपना सभक नीक अछि। कपड़ो-लत्ता पहिरब अपना ऐठाम नीक अछि।’’
रमाकान्त केँ छोटकी पुतोहू सुजाता, एक पेटी(कार्टून) फलक बनल शराब सेहो देने रहनि। आँखिक इषारा सँ रमाकान्त जुगेसर केँ एक बोतल ब्राण्डी अनै ले कहलखिन। जुगेसर उठि क’ भीतर गेल आ एकटा बोतल ब्राण्डी नेने आयल। दरवज्जा पर आबि चाहेक गिलास केँ धोय, सभमे शराब दए सभहक आगू मे देलकनि। आगू मे पड़ितहि रमाकान्त घट दए पीबि गेलाह। मुदा हीरानन्दो, शषिषेखरो आ सुबुधो केँ डर होइत छलनि। कहियो पीने नहि। दोहरी गिलास पीबैत रमाकान्त सभकेँ कहलखिन- ‘‘पीबै जाइ जाउ, फलक रस छियैक। कोनो अपकार नहि करत।’’
मुदा तइयो सभ-सभहक मुह तकैत रहति। दोहरा केँ फेरि रमाकान्त सभकेँ कहलखिन- ‘‘मने-मन सुबुध सोचलनि जे कोनो जहर-माहूर थोड़े छियैक जे मरि जायब। अगर मरबो करब ते पहिने कक्के ने मरताह। बुझल जयतैक। आगू मे राखल गिलास उठा आस्ते स दू घोट पीवि, गिलास रखि, हीरानन्दक केँ कहलखिन- ‘‘पीवू, पीबू मास्टर सहाएब। सुआद त कोनो अधला नहिये बुझि पड़ैत अछि।’’
सुबुधक बात सुनि हीरानन्दो आ शषिषेखरो गिलास उठा केँ पीलनि। तेसरो गिलास रमाकान्त चढ़ा देलखिन। तेसर गिलास पीवितहि आखि मे लाली अबै लगलनि। मन हल्लुक सेहो हुअए लगलनि। बजैक ताब सेहो अबै लगलनि। जहिना आगि पर चढ़ल पाइनिक वरतन मे, ताव लगला पर निच्चाँक पानि गर्म भए उपर आबै चाहैत अछि, तहिना रमाकान्तो केँ हुअए लगलनि। धीरे-धीरे रंग चढ़ैत नीक जेँका चढ़ि गेलनि। अहू तीनू गोटे- हीरानन्द, सुवुध आ शषिषेखर- केँ आँखि तेज हुअए लगलनि। तेज होइत नजरि सँ सुबुध पूछलखिन- ‘‘कक्का, महेन्द्र भाय मस्ती मे रहै छथि की ने?’’
बजैक वेग रमाकान्त केँ रहबे करनि, तहि पर सँ महेन्द्रक मस्ती सुनि कहै लगलखिन- ‘‘महेनद्रक मेहनत आ कमाई देखि क्षुब्द भ गेलहुँ। अप्पन बड़का मकान, चारि टा गाड़ी, बजार मे अइल-फइलिक बास तहि पर सँ बैंको मे ढेरी रुपैआ जमा केने अछि। अइठामक सम्पत्तिक ओकरा कोनो जरुरी नहि छैक। किऐक रहतैक? जेकरा अपने कमाई अम्बोह छै।’’
बिचहि मे सुवुुध टोकि देलकनि- ‘‘तखन ऐठामक खेत-पथार गरीब-गुरबा केँ दए दिऔक?’’
बिना किछु आगू-पाछू सोचनहि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बड़ सुन्नर बात अहाँ कहलहुँ। अनेेरे हम एत्ते खेत-पथार रखने छी। अइह(यैह) खेत जे गरीबक हाथ मे जेतइ ते उपजबो बेसी करतै आ ओकर जिनगीयो सुधरि जेतई।’’
जहिना धधकल आगि मे हवा सहायक होइत, तहिना रमाकान्तो केँ भेलनि। एक त ब्राण्डीक नषा, दोसर परिवार मे चारि-चारि टा डाॅक्टरक कमाई, तहि पर सँ अपार सम्पत्ति देखि मन उधिआयत छलनि। समाजक स्नेह सेहो बढ़ि गेल छलनि। ततबे नहि, अद्वेत दर्षन हृदय केँ पैघ(विषाल) बना देलकनि।
हँसैत रमाकान्त, सभहक बीच, कहलखिन- ‘‘अखन धरि हम गुलरीक कीड़ा बनल छलहुँ, मुदा आब दुनियाँ केँ देखलिऐक। दू सय बीधा जमीन अछि। किऐक हम एत्ते रखने छी। एकटा जमीनदारक खेत स सैकड़ो गरीब परिवार हँसी-खुषी सँ गुजर कए सकैत अछि। जबकि ओतेक सम्पत्तिक सुख एकटा परिवार करैत अछि। इ कते भारी अनुचित थिक। सभ मनुक्ख मनुख छी। सभकेँ सुख-दुखक अनुभव होइत छैक। केयो अन्न बेतरे काहि कटैत अछि त ककरो अन्न सड़ैत छैक। घोर अन्याय मनुक्ख-मनुक्खक संग करैत अछि।’’
कहि जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘जुगे, चाह बनौने आबह?’’
जुगेसर चाह बनबै गेल। तहि बीच वौएलाल सेहो आयल। रमाकान्त केँ गोड़ लागि कात मे बैसल। वौएलाल केँ बैसितहि रमाकान्त हीरानन्द केँ कहलखिन- ‘‘मास्टर सहाएव, महेन्द्र कहने छल जे दू गोरे(एकटा लड़का एकटा लड़की) केँ एहिठाम(मद्रास) पठा दिअ। ओहि दुनू गोटे केँ अपना संग रखि छोट-छोट बीमारीक इलाज केनाइ सिखा देबैक। गाम मे इलाजक बड़ असुविधा अछि। ततबे नहि, गरीबीक चलैत लोक रोग-व्याधि स मरि जाइत अछि मुदा इलाज नहि करा पबैत अछि। तेँ एकटा छोट-छीन अस्पताल सेहो बना देव। जहि मे मुफ्त इलाज लोकक हेतैक। तहि लेल जते दवाई-दारु मे खर्च हैत से हम देब। हम सभ चारि गोटे छी। बेरा-बेरी चारु गोटे, साल मे एक-एक मास गाम मे रहब आ लोकक इलाज करब। तहि बीच छोट-छोट बीमारीक लेल सेहो दू आदमी केँ तैयार क’ देवाक अछि। जँ कहीं बीच मे नमहर बीमारी ककरो हेतैक ते ओकर इलाजक खर्च सेहो देवइ। तेँ दू आदमी केँ पद्रास पठा दिऔ ओकर जेवाक खर्च देवई।’’
रमाकान्तक बात सुनि, सभ कियो बौएलाल आ सुमित्रा केँ मद्रास पठबैक विचार केलनि। वौएलाल केँ हीरानन्द कहलखिन- ‘‘वौएलाल सभहक विचार त तू सुनिये लेलह। काल्हि दुनू गोरे मद्रास चलि जाह।’’


मौलाइल गाछक फुल:ः 9
कछ-मछ करैत हीरानन्द भरि राति जगले रहि गेलाह। मन मे कखनो होइन जे रमाकान्त देल जमीन समाजक बीच कोना बाँटल जाय त कखनो हुनक उदार विचार नचैत रहनि। कखनो होइन जे निसांक(नषाक) झोक मे बजलाह मुदा निसां टुटला पर, जँ कहीं नठि जाथि। विचित्र स्थिति मे हीरानन्द रहथि। बात बदलब धनीक लोकक जन्मजात आदत छी। मुदा हम त षिक्षक छी षिक्षकक प्रति आदर आ निष्ठा, सभ दिन सँ, समाज मे रहलैक आ रहतैक। एहि विचारक बीच जते गोटे छलहुँ ओहि मे हम आ सुवुध षिक्षक छी। तेँ आन क्यो त कम्मो मुदा हम दुनू गोटे तँ बेसी घिनाएब। कोन मुह लए केँ समाजक बीच रहब। फेरि अपने पर शंका भेलनि जे हमहूँ ते शराबेक निषां मे ने ते बौआइ छी। इ बात मन मे उठितहि उठि कए बाहर निकलि चारु भर तकलनि। अन्हार गुप-गुप रहए। सन-सन करैत राति छलैक। हाथ-हाथ नहि सुझैत छलैक। मुदा मेघ साफ। सिंगहारक फूल जेँका तरेगण चकचक करैत रहए। हवा त कोनो नहिये बहैत रहै मुदा राति ठंढ़ाइल रहए। पुनः बाहर स कोठरी आबि विछान पर पइर रहला। मुदा निन्नक कतौ पता नहि! मन सँ जमीन हटबे नहि करैत रहनि। पुनः उठि केँ कोठरी स निकलि लघी(लघुषंका) करै कात मे बैसलाह। भरिपोख पेषाव भेलनि। पेषाव होइतहि मन हल्लुक भेलनि। मन हल्लुक होइतहि ओछाइन पर आबि पड़ि रहलाह। ओछाइन पर पड़ितहि निन्न आबि गेलनि।
सुबुध सेहो भरि राति जगले बितौलनि। मुदा हीरानन्द जेँका ओ ओझरी मे नहि ओझराइल रहथि। समाज शास्त्रक षिक्षक होइक नाते स्पष्ट सोच आ समाज चलैक स्पष्ट दिषा छलनि, तेँ मन दृढ़ संकल्प आ सक्कत विचार स भरल छलनि। सबसँ पहिने मन मे उठलनि जे जहिना आर्थिक दृष्टि स टूटल समाज केँ रमाकान्त कक्काक सहयोग स मजबूत बल भेटितैक तहिना त ओहि बल केँ चलबैक(उपयोग) सेहो मजबूत रास्ता भेटैक चाही! जे रमाकान्त कक्का बुते नहि हेतनि। इमानदारी आ उदार स्वभावक चलैत त ओ सम्पत्तिक त्याग केलनि। मुदा ओ सम्पत्ति आगू मुहे कोना बढ़तैक? जहिना मनुक्खक परिवार दोबर, तेबर, चारिबरक रफ्तार स आगू मुहे बढ़ैत अछि तहिना त सम्पत्तियोब गति हेवाक चाहिऐक। मुदा सम्पत्ति मे ओ गति तखने आओत जखन कि ओहि मे श्रमक इंजिन लगाओल जायत। ओना श्रमक इंजन लगौनिहार(श्रमिक) सेहो पर्याप्त अछि मुदा ओकरा श्रम केँ कोन रुप मे बढ़ाओल जाय। एक रुपक इ होइत जे सोझे-सोझी ओकरा नव कार्यक ढाँचा मे ढालल जाय। (नव काज देल जाय) जे संभव नहि अछि! किऐक त नव औजार, नव तरीका बिना नव ज्ञान संभव नहि अछि। जे नहि अछि। दोसर जे तरीका(लूरि) आ औजार अछि, ओकरे धारदार बना आगू बढ़ाओल जाय। जे संभवो अछि आ उपयुक्तो होयत। मुदा ओहू लेल पथ-प्रदर्षकक जरुर होएत। जेकर अभाव अछि। हमहूँ त नोकरीये करै छी। सात दनि मे एक दिन(रवि) गाम मे रहै छी, बाकी छह दिन अनतै रहैछी। तहि स काज कोना चलि सकै अए? किऐक त समाजो नमहर अछि आ समस्यो ढेर अछि। हर समस्याक समाधानक रस्तो फराक-फराक होयत। जना बुद्धदेव कहने छथि जे दुष्मन केँ सूइयाक नोक भरि जँ सुराक भेटि जायत त ओहि होइत हाथी सन विकराल जानवर प्रवेष कए जायत। समाजक समस्यो त ओहने अछि। अनायास मन मे उपकलनि जे जहिना रमाकान्त कक्का अपन सभ सम्पत्ति समाज केँ दइ ले तैयार छथि तहिना हमहूँ नोकरी छोड़ि अपन ज्ञान समाज केँ दए देबैक। सभ किछु बुझितहुँ सड़ल-गलल रास्ता, अपन अरामक दुआरे, धेने चलि रहल छी। सात बीघा जमीन, एकटा पोखरि, दस कट्ठा गाछी-कलम आ खढ़होरि अछि। जाहि सँ पिताजी नीक-नाहाँति गुजरो करैत छलाह आ हमरो पढ़ौलनि। मुदा हम नोकरीयो करैत छी, खेतो-पथार ओहिना अछि मुदा कते आगू मुहे बढ़लहुँ। हँ, एते जरुर भेल अछि जे घरोवाली केँ आ बेदरो-बुदरी कें, धनिकक मंदिरक मुरती जेँका, नीक-नीक परसाद, नीक-नीक सजावट सँ सजा काहिल बनौने छी। की हम इ नहि देखैत छी जे झक-झक करैत छातीक हाड़वला रिक्षा खिंचैत अछि, साठि बरखक महिला चिमनी मे पजेबा उघैत अछि, मरैबला पुरुख बड़दक संग हर खिंचैत अछि। अन्नक बोझ उघैत अछि। की ओकर देह लोहाक बनल छैक आ हमरा सभहक कोढ़िलाक बनल अछि। इ सभ धन आ बुद्धिक करामात छी। आइ धरिक समाज आ समाजक नियामक एकरे पोषक रहलाह जे सुधारक अछि। नहि त मनुक्ख आ जानवर मे की अन्तर रहतैक? जहि समाज मे मनुक्ख जानवरक जिनगी जीबए ओहि समाजक प्रबुद्ध लोक केँ चुरुक भरि पानि मे डूबि केँ नहि मरि जेवाक चाहिएनि। एते बात मन मे अबितहि सुबुध तय केलनि जे सभसँ पहिने काल्हि स्कूल मे त्यागपत्र दए देब। आइ धरि जे जिनगी जीविलहुँ, जीविलहुँ मुदा काल्हि सँ नव जिनगीक सूत्रपात करब। एहि संकल्प-विकल्पक बीच मन घुरिआयत।
भोर होइतहि सुबुध ओछाइन पर सँ उठि मैदान दिषि विदा भेला। हाथ मे लोटा, मुदा मन ओहि विचार मे डूवल छलनि। थोड़े दूर गेला पर गाम मे गल्ल-गुल होइत सुनलनि। रस्ते पर ठाढ़ भए अकानै लगलाह। जे कथीक गल्ल-गुल भए रहल अछि। सोझा मे ककरो नहि देखैत जे पूछियो लइतथि मने-मन अनुमान करै लगलाह जे भरिसक राति मे कतौ कोनो घटना घटि गेलैक। या त ककरो साप-ताप काटि लेलकै वा कतौ चोरि भए गेलैक। मुदा से सभ नहि छलैक। साँझ मे जे विचार रमाकान्त व्यक्त केने रहथि ओ राता-राती बिहाड़ि जेँका सगरे गाम पसरि गेलैक। रस्ते सँ घूरि सुबुध कड़चीक दतमनि तोड़ि, तदमनि करैत घर पर आयला। घर पर अबितहि देखलनि जे सुकना बैसल अछि। मुदा सुकनाक नजरि सुवुध पर नहि पड़लैक, किऐक त ओ अंगनाक दुुआरि दिषि तकैत रहए। सुबुध सुकना केँ पुछलखिन- ‘‘भोरे-भोर किमहर सुकन।’’
सुबुधक बात सुनि अकचकाइत सुकन चैकी पर सँ उठि, दुनू हाथ जोड़ि बाजल- ‘‘मालिक, अहाँ त जनिते छी जे कोनो काज-उद्दम मे सब तूर मिलि सम्हारि दइ छी। गरीबो पर नजरि रखवै।
सुकनक बात केँ, कोनो अर्थे ने सुबुध केँ लगलनि। पूछलखिन- ‘‘सुकनभाय, तोहर बात हम नहि बुझलिअह।’’
‘लोक सब कहलक हेँ जे रमाकान्त कक्का अपन सब खेत गरीब-गुरबा केँ दए देथिन, जे अहीं बँटबै।’’
सुकनक बात सुनि सुबुध मने-मन सोचै लगलथि जे जमीन-जयदादक सवाल अछि। धड़फड़ा क’ कोना हेतैक। जँ आम लोकक विच विचार कएल जायत त हो-हल्ला हेतइ। हो-हल्ला भेने काजो बिगड़ि जयतैक। तेँ असथिर सँ विचार करैक जरुरत अछि। मुदा अखन जँ सुकन केँ इ बात कहबै ते दुख हेतैक। तेँ आषक बात कहब अछि। कहलखिन- ‘‘सुकन भाय, जखन गरीबक बीच खेतक बँटवारा हैत ते तोहूँ गरीबे छह। तखन तोरा किऐक ने हेतह। अखन जाहह।’’
सुकन विदा भेल। कलक आगू मे ठाढ़ भए सुबुध सोचै लगलाह। अजीव स्थिति भए गेल। एक दिषि गरीबक सबाल अछि। जँ किनयो चूक हैत त जिनगी भरि बदनामीक मोटरी माथ पर चढ़ि जायत। तेँ इमानदारीक जरुरत अछि। मुदा इमानदारी दिषि तकै छी ते अपनो मे बेइमानी घुसल अछि। परिवारो मे तहिना देखै छी आ समाजो मे ते अछिये। गरीबो मे देखै छी जे जे मेहनती अछि ओ बहुत किछु कमा क’ बनाइयो नेने अछि। जना रहैक घर, पानि पीवैक कल, जीबैक लेल बटाई खेतीक संग पोसिया मालो-जाल खूँटा पर रखने अछि। जहन कि जे आलसी अछि ओकरा सब कथूक अभावे छैक। ततबे नहि, जँ हम इमनदारियो से विचार रखै चाहब तइयो उलझन होयत हमही टा त नहि छी। आरो गोटे रहताह। सभक नेत सभक प्रति एक्के रंग हेतनि, सेहो बात नहि अछि। जँ कियो मुह देखि मंूगबा बँटताह, सेहो भए सकै अछि। ओहि ठाम जँ हुनका कहबनि त हमरे बात मानि लेता, सेहो संभव नहि अछि। जँ रमाकान्त कक्का ककरो बेसी दिअए चाहथिन ते कि कहबनि, सम्पत्ति त हुनके छिअनि। एहि सभ विचारक जंगल मे सुबुध बौआय लगलथि। दतमनिक घुस्सा कखनो चलैत आ कखनो बन्न भए जाइत छलनि। एक त भरि रातिक जगरना तहि पर सँ अमरलत्ती जेँका ओझरी क’ सोझरायब असान नहि वुझि पड़नि कनियो किम्हरो जोर पड़त त टन दे टुटि जायत। तेँ समाजक मूल रोग केँ जड़ि सँ नहि पकड़ल जायत त सभ गूड़ गोबर भए जायत। तहि बीच मुनमा डाबा मे दूध नेने आंगन (सुबुधक) जाय डाबा रखि, सुबुध लग आबि दुनू हाथ जोड़ि कहलकनि- ‘‘भाय, अबलो पर दया करबै?’’
एक त सुबुधक मन अपने घोर-घोर भेल, तहि पर स लोकक पैरबी। मन मसोसि केँ सुबुध कहलखिन- ‘‘अखन जाह। जखन जमीनक बँटवारा हुअए लगतै त तोरो बजा लेबह।’’
दतमनि कय सुबुध आंगन जाय पत्नीकेँ पूछलखिन- ‘‘डावा मे मुनमा की नेने आयल छल?’’
‘दूध’
‘दाम देलियै।’
‘नहि।’
‘किऐक?’
‘हमरा भेल जे अहीं पठेलौ, तेँ।
पत्नीक जबाव सुनि सुवुधक मन मे आगि लगि गेलनि। खिसिया क’ पत्नी केँ कहलखिन- ‘‘झब दे चाह बनाउ। स्कूल जायब।’
पत्नी- ‘‘अखने किअए जायब? आन दिन खा केँ जाइ छलौ आ आइ भोरे किअए जायब?’
‘रौतुका खेलहा ओहिना कंठ लग अछि। तेँ नहि खायब।’
कहि सुबुध लूँगी बदलि धोति पहिरए लगला कि पत्नी चाह नेने एलखिन। कुरता पहीरि चाह पीबि सुवुध विदा भेलाह।
जिनगी भरि मे रमाकान्त केँ ऐहन निन्न कहियो नहि भेल छलनि जेहन राति भेलनि। समयक अन्दाज सँ जुगेसर आबि खिड़की देने हुलकी देलक ते देखलक जे रमाकान्त ठर्र पाड़ैत छथि। रमाकान्त केँ सुतल देखि जुगेसर जोर सँ केबाड़ ढकढ़कौलक। केवाड़क अवाज सुनि रमाकान्त आखि मलैत उठलाह। जुगेसर रमाकान्त केँ उठा चाह अनै आंगन गेल। रमाकान्तो उठि क’ कल पर जा कुड़ुड़ केलनि। ताबे जुगेसरो चाह नेने आबि गेलनि। रमाकान्त चाह पीबितहि रहति कि मन मे एलनि जे बाबा चाणक्य ठीके कहने छथि जे धन ककरा रक्खी हमरो त पितेजीक अरजल छिअनि। जाधरि ओ जीबैत छलाह, हमरा कोनो मतलब नहि छल। मुदा हुनका मुइने त सबटा हमरे भेल। दुनू बेटा तते कमाइत अछि जे अई धनक ओकरा जरुरते नहि छैक। हम कते दिन जीवे करब। तहन ते सभ धन ओहिना नष्ट भए जायत। कौआ-कुक़ुड़ लूझि-लूझि खायत। तहि स नीक जे समाजक गरीब-गुरबा केँ दए दिअए। तिब्बतक राजकुमार चेन पो (8बीं 9वीं शदी) अपन सभ सम्पति जहिना लोकक बीच बाँटि देलखिन तहिना हमहूँ बाँटि देबई। तहि स समाज मे भाइ-भैयारिक संबंध सेहो मजबुत बनतैक। आइ जँ व्यास बाबा जीबैत रहितथि त ओ जरुर बिना कहनहुँ आबि केँ असिरवाद दइतथि। अगर स्वर्ग जेबाक रस्ता तियागो होय त हमहूँ किएक ने जायब। धन्यवाद सुबुध आ मास्टर सहाएव केँ दिअनि जे हमर अज्ञानताक केबाड़ खोललनि। सभ जखन सुनत ते मने-मन खुब खुषी हैत। की हमर कयल धरम ओकरा नहि हेतैक?
चाह पीबि, पान खा लोटा लए रमाकान्त गाछी दिषि चललाह। कृष्णभोग(किसुनभोग) आमक गाछ तर लोटा रखि, टहलि-टहलि गाछ सभकेँ निङहारि-निङहारि देखै लगलाह। गाछक जे रुप आइ रमाकान्त देखथि ओ आइ धरि कहियो नहि देखने रहथि। गाछ देखि बुझि पड़नि जे सभ हँसि रहल अछि। धरतीक श्क्ति पाबि ऐष्वर्यवान बनल अछि। दोसराक सेवा लेल उत्साहित अछि। एक टक स गाछक रुप देखि रमाकान्तक हृदय सेहो गद-गद भ’ गेलनि। सभकेँ देखि लोटा उठा पाखाना दिषि बढ़लाह। तहि बीच जय-जय कारक आवाज सुनलखिन। आवाज दूर मे रहै तेँ स्पष्ट नहि बुझति, मुदा सुनतिहिन। रसे-रसे आवाज लग अबैत गेलनि। पैखाना स उठि ओ आवाज केँ अकानए लगलथि। जय-जय कारक संग अपनो नाम सुनतिहिन। अपन नाम सुनि आरो चैकन्ना भए कानक पाछू मे हाथक तरहत्थी रखि अवाज अकानै लगलथि। लोकक समूह जते लग अबैत जायत, तते अवाज स्पष्ट होइत जाइत छलैक। हाँइ-हाँइ क’, लोटा नेने पोखरिक घाट पर आबि, कुड़ुड़ कए घर दिषि विदा भेलाह। अपन नामक संग जय-जयकार सुनि सोचै लगलाह जे कि बात छियैक? किऐक लोक जय-जयकार कए रहल अछि। दिलक धड़कन सेहो तेज हुअए लगलनि। मन मे गुदगुदी सेहो लगनि। उत्साह सँ छाती सेहो फुलैत जाइनि। जाबे लोकक जुलूस घर लग पहुँचल, तहि स पहिनहि दरवज्जा पर आबि, देखै लगलथि। हीरानन्द आ शषिषेखर सेहो दलानक आगू मे ठाढ़ भए देखैत छलाह। की बूढ़, की जुआन, की बच्चा सभ एक्के सुर मे। सभ मस्त। सभ उत्साहित। सभ नचैत। सभहक मुह मे हँसी छिटकैत छलैक।
दरवज्जाक आगू मे जुलूस आबि केँ रुकल। आगू-आगू घोड़ाक नाच। पाँच गोरे, वाँसक बत्ती क’ ललका कपड़ा स सजा, घोड़ा बनौनेह। पाँचो घोड़े जेँका दौड़ैत। कखनो हीं-हीं करैत त कखनो पाछू सँ चैतार फेकैत। तहि पाछू डफरा-वाँसुरीक धुन। वसन्तक वहार छिड़िअवैत रहए। तहि पाछू लोक नचबो करैत आ जय-जयकारा करैत रहए। रमाकान्त अपन उत्साह क’ रोकि नहि सकलाह। दलानक ओसार सँ उतड़ि सोझे जुलूस मे सन्हिया नचै लगलाह। के छोट, के पैघ, के बूढ़, के जवान, सभ बाइढ़िक पानि जेँका उधिआइत रहए। घर-घर सँ स्त्रीगण सेहो आबि चारु कात पसरि गेलीह।
आंगन सँ श्यामा आबि दरबज्जाक आगू मे ठाढ़ भए नाचो देखैत आ रमाकान्तो पर आखि गरौने छलीह। रमाकान्तोकेँ नचैत देखि ओ मने-मन सोचै लगलीह जे ऐना किऐक भए रहल अछि। लोक सभ केँ कोनो चीजक खुषी हेतइ तेँ नचैत अछि। मुदा हुनका की भेटलनि जे ऐना बुढ़ाढ़ी मे कुदैत छथि। छोट बुद्धि श्यामाक, तेँ बुझवे नहि करति जे नदी(धार) जखन समुद्र मे मिलै लगैत अछि तखन दुनूक पाइन एहिना नचैत अछि। एक दिषि नदीक पानि गतिषील होइत, त दोसर दिषि समुद्रक असथिर होयत अछि। ओहि मे सिर्फ लहरि उठैत अछि।
अखन धरिक जुलूस आ नाच गामक उत्तरवारि टोल सँ आयल छलैक। दछिनबारि टोल सँ दोसर जुलूस, मोर-मोरनीक नाचक संग सेहो पहुँचल। दुनू नाचक बीच सौंसे गामक लोक हृदय खोलि केँ नचैत। कात मे ठाढ़ भेल हीरानन्द, शषिषेखर केँ कहलखिन- ‘‘अखन जे आनन्द अछि ओ समाज मे सब दिन कोना बनल रहत?’’
हीरानन्दक प्रष्नक उत्तर शषिषेखर क’ नहि फुरलनि। मुदा प्रष्नक पाछू मन जरुर दौड़लनि। गंभीर प्रष्न। तेँ धाँय द’ उत्तरो देब शषिषेखर उचित नहि बुझि चुप्पे रहलाह। मुदा एते बात जरुर मन मे अवैत रहनि जे जँ सुकर्मक रास्ता सँ मनुष्य उत्साहित भए चलैत रहत त जरुर ऐहने आनन्द जिनगी भरि चलैत रहतैक।
जुलूसक बीच रमाकान्त नचैत-नचैत घामे-पसीने तर-बत्तर भए गेल रहति। मुदा तइयो मन नचै ले उधकैत रहनि। एकटा छौंड़ा, जे अखरहो देखने, नचैत-नचैत रमाकान्त लग आवि दुनू हाथे पजिया केँ रमाकान्त के उठा कन्हा पर लए नचै लगल। सभ कियो दुनू हाथे थोपड़ी बजवैत जय-जयकार करै लगल। कात मे ठाढ़ भेल हीरानन्द केँ भेलनि जे कहीं ओ खसि-तसि नहि पड़ति तेँ लफड़ि केँ बीच मे जाय रमाकान्त क डाँड़ पकड़ि निच्चा केलकनि। निच्चा उतड़ितहि रमाकान्त दुनू हाथे थोपड़ी बजबैत फेरि नचै लगलथि। दुनू हाथ उठा क’ हीरानन्द सभकेँ शान्त होइ लेल कहलखिन। हाथक इषारा देखि सभ शान्त भए गेल। धोतीक खूँट स रमाकान्त पसीना पोछि कहै लगलखिन- ‘‘अहाँ सभक बीच कहै छी जे जे खेत-पथार आइ धरि हम्मर छल, अखन से ओ अहाँ सभहक भए गेल।’’
रमाकान्तक बात सुनि सभहक मुह स धानक लावा जेँका हँसी भरभरा गेल। जे समाज आर्थिक विपण्णताक चलैत अखन धरि मौलाइल छल ओहि मे खुषीक नव फुल फुलाय लगल। सभ केयो हँसी-चैल करैत अपन-अपन घर दिस विदा भेल।
घर स निकलि सुवुध सोझे अपन डेरा गेलाह। डेरा मे पहुँच त्याग-पत्र लिखलनि। मेसवला केँ सब हिसाब फड़िछा स्कूल जाय प्रध्यानाध्यापक केँ त्याग पत्र दैत कहलखिन- ‘‘मास्टर साहेव, आइ सँ सेवा मे सहयोग नहि कए सकब।’’
कहि आॅफिस स निकलै लगलाह। आॅफिस सँ निकलैत देखि कुरसी सँ उठि प्रध्यानाध्यापक कहलखिन- ‘‘सुबुध बावू, कने सुनि लिय।’’
हेडमास्टरक आग्रह सनि सुबुध रुकि गेलाह। मुस्की दैत कहलखिन- ‘‘की कहलौ मास्साहेब?’’
हेडमास्टरक छातीक धड़कन तेज होइत जाइत छलनि। तेँ बोलीक गति तेज हुअए लगलनि। कहलखिन- ‘‘सुबुधबावू, अहाँ जल्दीवाजी मे निर्णय कए लेलहुँ। अखनो कहब जे अपन कागज वावस लए लिअ।’’
निषंक आ गंभीर स्वर मे सुबुध कहलकनि- ‘‘मास्सैब, आइ धरि अहाँ सभहक संग रहलहुँ, मुदा आब हम बैरागीक संग जाय रहल छी। तेँ एक्को झण एतए अटकैक इच्छा नहि अछि। एक्को पाइ हमरा दुख नहि भए रहल अछि। व्यक्तिगत जिनगी बना अखन धरि जीविलहुँ मुदा आब सामाजिक जिनगी जीवैक लेल जाय रहल छी। तेँ अपनो सँ आग्रह करब जे असिरवाद दिअ।’’
एक दिषि सुबुधक मुखमंडल नवज्योति सँ प्रखर होइत जायत त दोसर दिस हेडमास्टरक मुखमंडल मलिन होइत जाइत छलनि। सुवुधक त्यागपत्रक समाचार षिक्षकक बीच सेहो पहुँचल। सभ षिक्षक अपना कोठरी सँ उठि हेडमास्टरक चेम्बर मे पहुँच गेलाह। दुनू हाथ जोड़ि सुबुध सभकेँ कहलखिन- ‘‘भाय लोकनि, आइ धरिक जिनगी, संगे-संग बितेलहुँ, तहि बीच जँ किछु अधला भेल हुअए, ओ बिसरि जायब। आइ धरि किताबी ज्ञानक बीच ओझरायल छलहुँ मुदा आब ओहि ज्ञान केँ व्यवहारिक धरती पर उताड़ै जाय रहल छी।’’
जहिना सूर्योदय सँ पूर्व थलकमल उज्जर रहैत मुदा सूर्यक रोषनी पाबि धीरे-धीरे लाल हुअए लगैत अछि तहिना सुवुधक हृदय मे समाजक प्रखर रोषनीक प्रवेष स हृदय बदलि गेलनि।
कहि सुबुध तेज गति सँ स्कूलक ओसार सँ निच्चा उतड़ि गेलाह। सुवुधक तेज चालि देखि विवेक बाबू सेहो नमहर-नमहर डेग बढ़वैत सुबुध लग आबि कहलखिन- ‘‘सुबुध भाय, अहाँ जे किछु केलहुँ, अपन विचारक अनुकूल केलहुँ। तेँ ओहि संबंध मे हमरा किछु कहैक नहि अछि। किऐक त जहिया स्कूल मे नोकरी शुरुह केलहुँ आ जते वुझै छेलिऐक ओहि सँ बेसी आइ जरुर बुझै छियैक। तेँ, ओहि दिनक विचारक अनुरुप केलहुँ आ आइ औझुका विचारक अनुकूल कय रहल छी। मुदा हमर अहाँक संबंध सिर्फ षिक्षकेक नहि अछि बल्कि विद्यार्थियोक अछि।’’
सुबुध आ विवेक हाइये स्कूल सँ संगी। हाई स्कूल से कओलेज धरि दुनू गोटे संगे-संग पढ़ने रहथि। मुदा विवेक सँ सुबुध तीनि दिन जेठ रहथि। जे बात सुबुधो केँ आ विवेको केँ वुझल छलनि। स्कूलो मे आ कओलेजो मे सुबुध विवेक स नीक विद्यार्थी रहथि। तेँ, विवेक स अधिक नम्बर परीक्षा मे सुबुध केँ अबैत रहनि। ओना दुनू एक्के डिवीजन सँ पास करैत छलाह मुदा अंक मे किछु तरपट रहैत छलनि। विवेक सुबुध केँ सीनियर बुझैत छथि। जेकर उदाहरण अछि जे जहि दिन दुनू गोटेक बहाली स्कूल मे भेल छलनि ओहि दिन सभ कागजात विवेकक अगुआयल रहितहुँ स्वेच्छा सँ विवेक सुवुध केँ तीन नम्बर षिक्षक आ अपना केँ चारि नम्वर षिक्षकक लेल हेडमास्टर केँ कहने रहथिन। जकरा चलैत सुवुधक बहाली क चिट्ठीक समय बदलि हेडमास्टर रजिष्टर मेनटेन केने रहथि। विवेकक प्रति सुवुध हृदय मे ओइह स्नेह रहनि।
दुनू गोटे विवेकक डेरा अयलाह। डेरा मे अवितहि विवेकक पत्नी चाह बना, दुनू गोटेक आगू मे दए बैठक खाना सँ निकलि खिड़की लग ठाढ़ भए गेलीह। एक जिनगीक टूटैत संबंध सँ कपैत हृदय विवेक बावूक। थरथराइत स्वर मे पूछलखिन- ‘‘एक्को दिन पहिने त इ बात नहि बाजल छलहुँ! अनायास ऐहेन निर्णय कोना कए लेलिऐक?’’
मुस्कुराइत सुवुध उत्तर देलखिन- ‘‘पहिने सँ नियार नहि छल। एहि बेरि जे गाम गेल छलहुँ तखन भेल। जहिना देव-असुर मिलि समुद्र मथन केने रहथि तहिना समाजक मथनक परिस्थिति बनि गेल अछि। जहि लेल हमरो जरुरत समाज केँ छैक। समाजक पढ़ल-लिखल लोक त हमहुँ छी तेँ अपन दायित्व पूरा करैक लेल नोकरी छोड़लहुँ। महान् जिनगीक लेल सेवा जरुरी होइत अछि। जँ नोकरी केँ सेवा कहल जाय त खेत मे काज करैवला बोनिहार केँ की कहबैक? किऐक त मजूरी(बोनि) ले ओहो काज करैत अछि आ नोकरीयो केनिहार। मुदा पेटक(जिनगीक) लेल त कमेबो जरुरी अछि। जँ से नहि करब त खायब की आ दोसर केँ खुऐबै कोना? भूखल केँ भोजन चाही। चाहे ओ अन्नक भूखल हुअए वा ज्ञानक। तेँ चाहे नोकरी होय वा आन उपारजनक काज, ओहि केँ इमानदारी सँ निमाहैत, आगू बढ़ि किछु करब चाहे ज्ञानक क्षेत्र होय वा जीवनक(भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा,षिक्षा) ओ सेवा होइत। ज्ञानक सेवा ताधरि अपन महत्वक स्थान नहि पबैत जाधरि ओ जीवन सँ जुड़ि कर्मक रुप नहि लइत अछि। सिर्फ वैचारिके धरातल सँ होइत त मिथिला मे महान्-महान्(पैघ-पैघ) विचारक, मनुष्यक उद्धारक लेल रास्ता बतौलनि। मुदा अखनो समाज मे ओहन मनुक्ख अछिये जे हजारो बर्ख पूर्व मे छलैक। हँ, किछु आगुओ बढ़लनि, इहो बात सत्य अछि। मुदा जे कियो बौद्धिक, आर्थिक- क्षेत्र मे आगू बढलथि ओ पछुआयलक क डेन पकड़ि आगू मुहे खिंचलनि वा पाछू मुहे धकेललनि। जँ बाँहि पकड़ि आगू मुहे खिंचै चाहितथि त एतेक जाति, सम्पद्राय, कार्मकांड पैदा करैक की प्रयोजन? राजसत्ता आ समाजसत्ता- दुनू पछुआयल लोक केँ आरो पाछुऐ मुहे धकेललक।’’
एते कहि सुबुध उठि क’ ठाढ़ होइत कहलखिन- ‘‘आब एक्को क्षण एहिठाम नहि रुकब। हमर बाट रमाकान्त कक्का तकैत होयताह। सुबुध केँ दुनू बाँहि पकड़ि बैसबैत विवेक पत्नी केँ कहलखिन- ‘‘झबदे थारी साठू। साबुध भाय जेवा लेल धड़फड़ाय छथि।’’
भोजन कए सुबुध विवेकक डेरा सँ विदा भए गेलाह। दुनू हाथ जोड़ि विवेक कहलकनि- ‘‘हमरो पर ध्यान राखब।’’
गामक सीमा मे प्रवेष करितहि सुबुध घरक सुधि बिसरि गेलाह। सांैसे गाम परिवारे जेँका बुझि पड़ै लगलनि। एक टक सँ खेत, पोखरि, गाछी-कलम, खढ़होरि देखि मने-मन सोचै लगलथि जँ एहि सम्पत्ति केँ ढंग सँ आगू बढ़ाओल (विकसित ढंग स कएल जाय) जाय त निसचित गामक लोक मे खुषहाली ऐबे करत। अखन धरि जहिना खेत मरनासन्न भए गेल अछि तहिना पोखरि-झाखड़ि सेहो अछि। सबसँ पैघ बात त इ अछि जे लोको दबैत-दबैत एते दबि गेल अछि जे सिर्फ मनुक्खक ढाँचा मात्र रहि गेल अछि। तेँ सभ मे नव चेतना, नव ढंग (करैक क्रिया) नव तकनीकक (नव औजार) उपयोग आवष्यक अछि। तखने षिषिरक सिकुड़ल रुप बसन्तक विकसित रुप मे बदलि सकैत अछि। सोचैत सुबुध राजिनदरक घर लग पहुँचलाह। राजिनदरक घर देखि सुबुध रास्ता छोड़ि ओकरा ओहिठाम गेलाह। राजिनदर केँ तीनि टा घर। अंगनाक एकभाग मे टाट लगौने रहए। दछिनबरिया घर मे मालो बन्हैत छल ओ अपनो बैसार बनौने। बैसार मे दू टा चैकी देने, रहए। एकटा पर अपने सुतैत आ दोसर के पाहुन-परकक लेल रखने रहए। सुबुध केँ देखि राजिनदर चैकी पर स उठि, दुनू हाथ जोड़ि बाँहि पकड़ि चैकी पर वैसौलकनि। सुवुध केँ चैकी पर बैसाय घरवाली केँ दरवज्जे पर से कहलक- ‘‘मास्टर सहाएव ऐला हेन, झव दे एक लोटा पानि नेेने आउ?’’
राजिनदरक बात सुनि गुलबिया लोटा मे पानि नेने आबि ओलती लग ठाढ़ भए गेलि। मुह झँपने। स्त्री केँ ठाढ़ देखि राजिनदर कहलक- ‘‘हिनका नइ चिन्है छिअनि, सुबुध भाइ छथि। मुह किअए झँपने छी।’’
राजिनदरक बात सुनि सुबुध मुस्की दैत बजलाह- ‘‘हम त गाम मे रहितहुँ अनगौँवा भए गेल छी। जहिया से नोकरी शुरु केलहुँ, गाम छुटि गेल। सप्ताह मे एक दिन अबै छी जहि से गाम मे घुरियो-फीरि नहि पबैत छी। तेँ, नहि चिन्है छथि। मुदा आब गाम मे रहै दुआरे नोकरी छोड़ि देलहुँ। आब चिन्हितीह।’’
सुवुधक बात सुनि राजिनदर स्त्री केँ कहलक- ‘‘सुवुध भाय पैघ लोक छथि। जखन दुआर पर पाएर रखलनि तखन बिना किछु खुऔने-पीऔने कना जाए देबनि। जाउ बाड़ी से ओरहावला चारि टा मकैक बालि तोड़ि, ओड़ाहि के नेने आउ।’’
राजिनदरक बात सुनि गुलबिया मुस्की दैत विदा भेलि। राजिनदर सुबुध केँ पूछल- ‘‘भाय नोकरी किअए छोड़ि देलिये?’’
राजिनदरक प्रष्नक सही उत्तर देब सुबुध उचित नहि बुझि कहलखिन- ‘‘नइ मन लागल। अपनो खेत-पथार अछि आब खेतिये करब।’’
चारु ओड़ाहल बालि नोन-मेरिचाइ थारी मे नेने गुलबिया आबि सुवुधक आगू मे रखि, अपने निच्चा मे वैसि गेलीह। मकैक ओड़हा देखि सुवुधतिरपित भए एकटा बालि हाथ मे लए गौर स दाना देखै लगलथि। सुभ्भर बालि। एक्को टा दाना भौर नहि। बालि केँ देखि कहलखिन- ‘‘बड़ सुन्नर मकई अछि। अपना ऐठामक गिरहत ते उपजबितहि नहि अछि जँ उपजौल जायत खूब हेतइ। बेगूसराय, सहरसा आ मुजफ्फरपुर इलाका मे देखै छियै जे मकैयेक उपजा स गिरहस्त धनिक भए गेल अछि। सालो भरि मकैक खेती होइत छैक। जहिना खेती तहिना उपजा। पाँच मन छह मन कट्ठा मकई उपजैत अछि। खाइयो मे नीक। रोटी, सतुआ, भुज्जा, ओरहा सब कुछ मकैक बनैत अछि। बदाम आ मकेक सतुआ त बुझू जे बूढ़क(विनु दाँतवलाक) अमृते छी।’’
वामा हाथ मे बालि दहिना हाथक ओंगरी स दाना छोड़ा मुह मे लइत पूछलखिन- ‘‘राजिनदर भैया, बाल-बच्चा कैक टा अछि?’’
सुवुधक प्रष्न सुनि राजिनदर चुप्पे रहल मुदा गुलबिया बाजलि- ‘‘तीनि भाय-बहीनि अछि। जेठकी सासुर बसै अए। बड़बढ़िया जेँका गुजर चलै छै। दोसरो के विआह केलहुँ। मुदा जमाय बौर गेल। दिल्ली मे नोकरी करैत रहै, ओतइ से बौर गेल ने एक्को टा चिट्ठी-पुरजी पठवै आ ने रुपैया। छह मास बेटी केँ सासुर मे रहै देलिऐ तकर बाद अपने ऐठाम लए अनलियै। दल्लिी से जे कोय आबै आ पुछियै ते कोय कहे दोसर विआह कए लेलक। ते कोय कहै अरब चलि गेल। कोय कहै मलेटरी मे भरती भए गेल ते कोय कहै उग्रवादी भए गेल। कोनो भाँजे ने लागल। आखिर मे चारि बरिस अपना अइठिन बेटी केँ रखलहुँ। मुदा गामो मे तेहेन लुच्चा-लम्पट सब अछि जे अनका इज्जत के कोनो इज्जत बुझै छै। (हाथक इषारा स देखवैत) उ घर देखै छियै, ओहि अंगनाक एकटा छैाँड़ कहियो माछ कीनि के नेने आवे ते कहियो फोटो खिंचवै ले संगे ल जाय। हम दुनू परानी वाध-बोन मे भरि-भरि दिन रहै छलौ। गाम पड़क खेल-बेल वुझवे ने करै छेलिये। जखन गामक लोक कुट्टी-चैल करै लगल तखन वुझलियै। जेठकी बेटी आयल रहए। ओकरा कहलियै। ओ अपने संगे नेने गेलै। दोसर विआह अइ दुआरे नै करियै जे जँ कहीं जमाय जीविते हुअए। जेठके जमाय से विआह कए लेलक। दुनू बहीन एक्के घर मे रहै अए। दुनू केँ सखा-पात छैक। छोट बेटा अछि। ओकरो विआह-दुरागमन कए देलियै।’’
मुस्कुराइत सुवुध पूछलखिन- ‘‘दान-दहेज मे की सब देलक?’’
दान-दहेजक नाम सुनि गुलविया हँसैत कहै लगलनि- ‘‘समैध अपने ऐला। संग मे सार (लड़कीक माम) रहनि। दुआर पर आबिते भोला बापक(घरबला) पुछाड़ि केलनि। हम चिपड़ी पथैत रही। नुआक फाँड़ बन्हने रही। माथ परक साड़ी पसरि क’ गरदनि पर रहए। दुनू हाथ मे गोबर लागल रहै। कना गोवरायल हाथे साड़ी सम्हारितौ। तेँ ओहिना चिपड़ी पथैत रहि गेलहुँ। कोनो कि चिन्हैत रहियै। ओहो ते हमरा नहिये चिन्हैत रहथि। आनठिया ओहो आ अनठिया हमहूँ रही। ओहो मनुक्खे छथि आ हमहूँ मनुक्खे छी तखन बीच मे कथीक लाज?’’
गुलबियाक बात सुनि दाँत पिसैत राजिनदर कहलक- ‘‘आबो एक उमेरक भेलि, तइओ समरथाइक ताव कम्म नै भेलै अए। जेे मन मे अबै छै, बकने जाइ अए।’’
राजिनदरक बात केँ दबैत बाजलि- ‘‘कोनो कि झूठ बात बजै छी जे लाज हैत। मास्टर बौआ कि कोनो अनगैाँवा छथि। जे रस्ते-रस्ते ढोल पीटताह।’’
बिच-बचाव करैत सुुबुध कहलखिन- ‘‘तकर बाद की भेल?’’
- ‘‘ताबे इहो (पति) आयल। दुनू गोरे केँ चैकी पर बैसाय गप-सप करै लगलथि। हमरो गोबर सठि गेल। चलि गेलहुँ। हाथ-पाएर धोय पछबरिया टाट लग ठाढ़ भए गप-सप सुनै लगलौ। लड़कीक माम उचक्का जेँका बुझि पड़ै। मुदा बाप असथिर बुझि पड़ल। वेचारा बड़ सुन्नर गप्प बाजलथि। ओ कहलकनि जे देखू अहाँक बेटा छी आ हम्मर बेटी। दुनिया मे जते लोक अछि ओ अपने बेटा-बेटी ले सबकुछ करै अए। जहिना अहाँ छी तहिना त हमहू छी। जहिना अपन नून-रोटी मे अहूँ गुजर करै छी तहिना हमहूँ करै छी कौआ से खैर लुटाएब मुरुख पन्ना छी। हमरे एकटा पितिऔत सार अपन बेटाक विआह केलक। एक लाख रुपैआ नगद नेने रहए। तते लाम-झाम से काज केलक जे अपनो जे बैंक मे साठि हजार रुपैआ रहै, सेहो सठि गेलइ। हम ओहन काज नइ करब। बेटी-जमाइ केँ एकटा चापाकल गड़ा देवइ। दू कोठरीक मकान बना देबई। एक जोड़ा गाय ली वा महीसि, से देब। लत्ता-कपड़ा (दुनू गोटे के) बरतन-वासन, लकड़ीक सब आवष्यक सामानक संग बिआहक खर्च करब। अहाँ क’ एहि (अइ) दुआरे नहि खर्च कराएब जे जे खर्च भए जेतइ ओ त ओही दुनूक जेतइ की ने। हमरा पसिन्न भए गेल। मन कछ-मछ करै लगल जे सूहकारि ली। मुदा पुरुखक बीच गप चलैत रहै। मनमे इहो हुअए जे जँ कहीं कोनो बाते दुनू गोरे मे रक्का-टोकी भ’ गेल तखन ते कुटुमैतियो नइ हैत। मन कछ-मछ करै लगल। एक बेरि खोंखी केलहु जे ओ(पति) आवए, मुदा से नइ भेल। तखन दुनू हाथे थोपड़ी बजेलहुँ। तइयो सैह। आब कि करितहुँ। काज पसिन्न गर अछि, मुदा जँ कही कोनो बाधा उपस्थित भए गेल तखन त सब नाष भ’ जायत मुह उधारनहि हम दुआर पर गेलहुँ। आगू मे ठाढ़ भए हिनका (पति) कहलिएनि- ‘‘भैया, बड़ सुन्नर बात समैध कहै छथुन भोलाक विआह कए लाय।’’ कहि चोट्टे घुमि के आंगन आबि शरबत बनेलहुँ। अपने से जा क’ तीनू गोटे केँ पिऐलहुँ। कुटुमैती पक्का भए गेल। विआह भए गेलइ।’’
तहि बीच चारु बाइलो सुवुध खा लेलनि। पानि पीबि घर दिसक रास्ता पकड़लनि।
थोड़े दूर आगू बढ़ला पर मनमे अवै लगलनि घर पर जाय कि रमाकान्त काका ऐठाम। दुबट्टी लग ठाढ़ भए गुनधुन करै लगलथि। एक मन होइन जे भरि दिनक थाकल छी, कने आराम करब जरुरी अछि। तेँ, घर पर जाएब जरुरी अछि। दोसर मन होइन जे एहि जुआनी मे जँ आराम करब त जिनगी छुटत। फेरि मन मे भेलनि जे नोकरी छोड़ैक समाचार घर पहुँचाएव जरुरी अछि। तत्-मत् करैत रमाकान्त घर दिसक रास्ता छोड़ि मलहटोलीवला एकपेड़िया पकड़ि घर दिस बढ़लाह। घर लग अबितहि सभकिछ बदलल-बदलल वुझि पड़लनि। जना सभ किछु खुषी सँ मस्त हुअए। दरवज्जाक चुहचुही सेहो नीक वुझि पड़ै लगलनि। दुआर पर आबि कुरता खोलि चैकी पर रखि पत्नी केँ सोर पाड़ि कहलखिन- ‘‘कने एक लोटा पानि नेने आउ। बड़ पियास लगल अछि।’’
पतिक आवाज सुनि लोटा मे पानि नेने अयलीह किषोरी हाथ सँ लोटा लए लोटो भरि पानि पीबि, पत्नी केँ कहलखिन- ‘‘आइ सँ नोकरी छोड़ि देलहुँ विद्यालय मे त्यागपत्र दए देलहुँ।’’
पतिक बात सुनि किषोरी चैंकि गेलीए। मुदा पति-पत्नीक बीच मजाको होइत छलनि। किषोरी केँ सोलहन्नी बिसबास नहि भेलनि मुस्की दइत बजलीह- ‘‘नीक केलहुँ। आठ दिन पर जे भेटि होय छलौ से दिन-राति भेटि होइते रहब। हमरो नीके।’’
किषोरीक बात सुनि सुवुध केँ मन मे भेलनि जे भरिसक समाचार केँ मजाक बुझलनि। दोहरबैत कहलखिन- ‘‘अहाँ मजाक बुझै छी। सत्य वात कहलौ। (जेबी से त्यागपत्रक नकल निकालि) हे देखियौ कागज।’’
तहि बीच मंगल सेहो आयल। मंगल केँ देखि किषोरी ससरि गेलीह। मुस्कुराइत सुबुध मंगल केँ कहलखिन- ‘‘काका, नौकरी छोड़ि देलहुँ। आब गामे रहि खेतियो-पथारी करब आ जहाँ धरि भए सकत समाजक सेवा करब।’’
सुबुधक बात सुनि मंगल कहलकनि- ‘‘बौआ, हम त उमेरे मे ने अहाँ से जेठ छी मुदा अहाँ पढ़लो-लिखल छी, मास्टरियो करै छी तेँ नीके जानि के ने नोकरी छोड़ने हैब।’’
मंगलक बात सुनि सुवुधक मन सवुर भेलनि। मुस्की दैत बजलाह- ‘‘कक्का जाधरि पढ़ल-लिखल लोक समाज मे रहि समाजक क्रिया-कलाप के आगू मुहे नहि धकेलत ताधरि समाज आगू कोना बढ़त।’’
सुवुध आ मंगल गप-सप करतहि रहति कि किषोरी आंगन मे अड़र्ाहट मारि कानै लगलीह। सुवुध बुझि गेलाह तेँ असथिर स वैसले रहलाह। मुदा अकबेराक कानब सुनि टोलक जनिजाति दौड़ि-दौड़ि आवए लगलीह। सैाँसे आंगन जनि-जाति सँ भरि गेलनि। नवानी वाली किषोरी केँ पूछलखिन- ‘‘कनियाँ, की भेल हेन जे ऐना अकलबेरा मे कनै छी?’’
मुदा किछु उत्तर नहि दय किषोरी आरो जोर-जोर सँ कनै छलीह। टोलक जते बहीना, फुल, पान, गुलाब, चान, पार्टनर किषोरीक छलन् िसभ केयो एक्के टा प्रष्न पूछैत छलनि जे- ‘की भेल?’
जते संगी-साथी सभ किषोरी स पूछैकत छलनि तते किषोरी जोर-जोर सँ कनैत छलीह। ककरो कोनो अर्थे नहि लगैक। मुदा अनुमानक बजार तेज होइत जायत छल। कियो किछु वुझैत त कियो किछु।
दरवज्जा पर बैसल-बैसल सुबुध मने-मन खुषी होयत रहति। सोचैत रहथि जे जाधरि पुरना चालि-ढालिक लोकक (चाहे मरद हुअए वा स्त्रीगण) चालि नहि बदलत ताधरि नव समाज कोना बनि सकैत अछि? इ प्रष्न त सिर्फ समाजेक लेल नहि परिवारोक लेल छैक। आ परिवारे किअए मनुक्खोक लेल छैक। तँ सुवुध किछु बजबे नहि करथि।
अकलबेराक समय रहबे करए। बाध दिषि स गाय, महीस, वकरी चरि-चरि अवैत रहय। धसबहिनी घासक पथिया नेने अवैत छलि। गोबर बीछिनिहारि गोवरक छितनी माथ पर नेने अबैत छलि। बुधनी आ सोमनी, घासक छिट्टा माथ पर नेने अबैत छलीह कि सुवुधक अंगना मे कानव सुनलनि। दुनू गोटे अकानि केँ वुझलनि जे सुवुधक कनियाँ कनै छथिन। सोमनी वुधनी केँ कहलखिन- ‘‘बहीनि, छिट्टा रखि केँ चल देखै ले।’’
बुधनी कहलक- ‘‘गै बहीनि अइ चमचिकनी सबहक भभटपन सुनि के की करबीही। भरि दिन चाह-पान घोटैत रहै अए, वुझै अए जे ऐहने दुनिया छै। मरद केँ किछु हुअए मौगी सब रानी छी। जाबे एतए बरदेमे ताबे गामे पर चलि जेमे। घास-भूसा झाड़ब, जरना-काठी ओरिआइब। थैर खर्ड़ब। वासन-कुसन धुअब कि अइ भभटपनवालीक भभटपन सुनब।’’
सोमनी- ‘‘बेस कहले बहीनि। जकरा जते सुख होइ छै ओ ओते कनै अए। अपने सब नीक छी जे कमाई छी खाइ छी। चैन से रहै छी। ‘अइ ललमुही सबहक किरदानी सुनबीही ते हेतउ जे मुहे पर थुक दए दीअए।’


क्रमशः

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