विरेन्द्र कुमार यादव कथा
नाह आओर जिनगी
ग्यारह अगस्त 2010क कोलाहल भरल साँझ। रूदन आ क्रन्दनक आवाज कमल किशाेरक अंगनासँ शुरू भेल आ कम समएमे ई दर्दनाक आ मर्माहतक दृश्य सौंसे गाम पसरि गेल। कियो ककरो ढाढ़स बान्हएबला नहि बचल। सबहक आँखिसँ गंगा-यमुनाक धार जकाँ जल बहए लागल। रधिया छाती पीट-पीट कऽ बाजैत- “जवान बेटीक बिआह कोना होएत? आब असगरे हम की करब? बुढ़ ससुरक गुजर कोना कराएब? हमर हीरा हमरा खोंइछासँ हेराए गेल।”
दिनहिसँ धीया-पुताक मन हर्षित छल जे सांझमे भोज खएबाक लेल जाएब। चारि बजितहि कोशीक कछेर कुआटोल गामक लोक सभ अपन-अपन धीया-पुताकेँ संग कए खएबाक लेल ितलजुगा धारमे ब्रह्मोत्तर घाटपर नाहपर चढ़य लागल। भोज खएबाक उत्साहमे ई सुधि नहि रहल जे छोट नाहपर बेसी गोटे नहि चढ़ि। भोज खएनिहारक लाटमे सँ एक गोटे नाह खेबए लगल। बीच धारमे नाहमे पानि फुलए लागल। लोक सभमे भगदड़ मचि गेल। नाह डुबि गेल। तिलयुगा धार राकस जकाँ मुँहबौने लोक सभकेँ अपना पेटमे समबए लगलीह। आगि जकाँ ई खबर चारू भर पसरि गेल। चारू भरसँ झोल अन्हारिमे लोक सभ दोड़ए लगलाह आ क्षणहिमे हँसैत मनुक्खक लहास पानिसँ लोक सभ छानए लागल। भरि राति लोकसभ लहास छानिते रहि गेल। भोर होइतहि नगरक लोक, पत्रकार, सरकारक अमला-झमला घटना स्थलपर पहुँचए लागल। सौंसे गाम रूदन-क्रन्दन आवाजसँ भरल छल। कतहु सियान, कतहुँ बच्चा, बचीयाक लहास पकड़ि लोक सभ कानैत छल।
कमल किशोरक जवान बेटी मुनियाँ माए रधियासँ कहलथिन्ह- “अहाँ धीरज बान्हु, जिनगीक ठेकान थोड़बे अछि जे के कखन आ कोन विधि मरताह। जनमक संगहि मरण लागल अछि। हमरा सभकेँ यएह लिखल छल। बाबू जीक संग एतबए दिनक छल। एहि दुनियाँमे सभ गोटे अपन-अपन भाग-तकदरीर लए आएल अछि।”
क्रमश:
जितेन्द्र झा महाकवि विद्यापति अक्षयकोष
नेपालमे मैथिली भाषा, संस्कृतिक संरक्षण, सम्बर्द्धनमे सरकार कतेक उदासिनताक नमूना बनल अछि महाकवि विद्यापति अक्षयकोष । एहिकोषक दयनीय अबस्था बयान कऽरहल अछि जे सरकारी संयन्त्र कतेक संवेदनशील अछि नेपालमे सभसं बेशी बाजल जाएबला दोसर भाषा मैथिलीक लेल ।
नेपाल सरकारे गत आर्थिक वर्ष व़ि स़ ०६६/०६७ क बजेटमे १ करोड टका अलग कएलक विद्यापति अक्षयकोषलेल । जकर उद्देश्य छल अक्षयकोषक स्थापना आ मैथिली भाषाक विकासमे योगदान कएनिहारके पुरस्कृत करब ।
नेपाल सरकार पहिल बेर बजेट भाषण मार्फत विद्यापतिक सम्मानमे एहि तरहक कोष स्थापनाक घोषणा कएने छल । मूदा बजेट भाषणक १७ महिना बितिगेलाकबादो अक्षयकोषक स्थापना नईं होब सकल अछि । संस्कृति मन्त्रालय अक्षय कोषक भार टारऽ लेल १ करोड राशि बृहत्तर जनकपुर क्षेत्र विकास परिषद्क जिम्मा लगा देने अछि । बृहत्तर जनकपुर क्षेत्र विकास परिषद् संस्कृति मन्त्रालय अन्तर्गतके एकटा कार्यालय अछि जे धनुषा आ महोत्तरी जिलाक धार्मिक तथा ऐतिहासिक सम्पदा संरक्षण करबाक उद्देश्यसं स्थापित अछि ।
संस्कृति मन्त्रालय अक्षयकोषक काज बृहत्तर जनकपुर क्षेत्र विकास परिषद् करत से कहैत कानमे रुइतेल धऽ कऽ सूतिरहल अछि । भाषा संस्कृतिक विकासक सरकारी ठेकेदार संस्कृति मन्त्रालयक अकर्मन्यतासं अक्षयकोष स्वरुप नईं ल सकल अछि ।
संगीत तथा नाट्य प्रज्ञा प्रतिष्ठानक प्राज्ञ रमेश रञ्जन कहैत छथि र्अक्षयकोषक राशि फ्रिज होएवाक अबस्थामे पहुंचलाकवाद मन्त्रालय बृहत्तर जनकपुर परिषद्क खातामे पाई पठओलक । एखन बृहत्तर जनकपुर क्षेत्र विकास परिषद् आ संस्कृति मन्त्रालयक सझिया खातामे कोषक राशि राखल अछि ।
सिमित दायरा रहल जनकपुर क्षेत्र विकास परिषद्मे कोषक राशि पठाओल जएबाक आलोचना सेहो भऽ रहल अछि । परिषद् समग्र मैथिली भाषीक प्रतिनिधित्व नहि करैत अछि कहैत छथि कोषक पूर्व अध्यक्ष रामचन्द्र झा । झा कहैत छथि परिषद् सभक भावनाके नहि समेटि सकैत अछि । विद्यापति अक्षयकोषक उद्देश्य मैथिली भाषामे योगदान कएनिहारके पुरस्कृत करबाक अछि । बृहत्तर दू जिलामे लक्षित कार्यक्रम करैत अछि, एहनमे बृहत्तरके अक्षयकोष स्थापनाक जिम्मा देनाइ औचित्यहीन रहल भाषा संस्कृतिविद्सभ कहैत छथि ।
परिषद् भ्रष्टाचारमे डुबिगेल आरोप लागि रहल समयमे कोष मूर्त रुप लऽ सकत या नहि कहब कठिन अछि । कोष आकार ग्रहण करए ताहिके लेल संस्कृति मन्त्रालयके कार्यविधि बनाबऽ पडतै, जाहिलेल एखनधरि कोनो काज शुरु नहि भेल अछि । कोषक कार्यविधि आ निर्देशिका नईं भेलाक कारणें कोषक पाई सरकारी खाताक शोभा मात्र बढा रहल अछि । कोषक १ करोड राशि बैंकमे रखैत काल बेशी ब्याज देनिहार बैंकके नहि चुनल गेल कहैत छथि प्राज्ञ रञ्जन । बैंकसभमे पाइके अभाव रहल अबस्थामे बेशी ब्याज लेल बार्गेनिंग हएबाक चाही छल, मुदा मन्त्रालय मनमौजी काठमाण्डू स्थित एक निजी बैंकके शाखामे पाइ राखिदेलक ।
संस्कृति मन्त्रालयक सचिव मोदराज डोटेल कोषक राशि बैंकमे सुरक्षित रहल प्रतिक्रिया देलनि । अक्षयकोषलेल कार्यविधि बनबाक प्रकृया शुरु भऽ गेल डोटेल जनतब देलनि ।
मैथिली भाषाक महाकवि विद्यापति नेपालक राष्ट्रिय विभूति भेलाकबादो हूनक परिचय स्थापित नहि होब सकल अछि । मैथिली भाषा आ संस्कृति लेल बजेटक अभाव रहल समयमे विद्यापति कोष सेहो अनिर्णयके बन्दी भऽ गेल अछि ।
विद्यापति स्मृति पर्वपर मैथिली भाषा संस्कृति उत्थानक भाषण त बहुत देल करैत छथि कथित बौद्धिक वर्ग । एहिबेरके स्मृति पर्व सेहो ओहने भाषणसभसं बितिगेल ।
महोत्तरी जिलाक बनौलीमे बर्षोसं निर्माणाधीन विद्यापतिद्वार एखनोधरि टकटकी लगौने ठाढ अछि । विद्यापति स्मृति दिवसमे जनकपुरक विदापति चौकपर रहल विद्यापति स्मारकमे घडी रखवाक भाषण सबनेता देलकरैत अछि ,मुदा दशो वर्षक अन्तरालमे घडी लगेवाक कुवत किनको नईं भेलन्हि अछि । भोटक समयमें मैथिली भाषा संस्कृतिक रक्षा एवं विकासक वाचा केनिहार नेतासब मात्र नइभ विद्यापतिक नामपर पेट पोसनिहार सेहो दोषी अछि एहिमे । विद्यापति स्म्ृत्ति पर्व पिण्डदानक पर्व मात्र बनिक रहिगेल अछि ।
बेचन ठाकुर
नाटक- बेटीक अपमान
(अंक तेसर, दृश्य पहिल)
(स्थान- दीपक चौधरीक घर। दीपक रोगग्रस्त अवस्थामे माथपर हाथ लेने बैस कऽ खांसि रहल छथि।)
दीपक : (खासैत) आह! ओह! दुनियाँमे कियो ककरो नहि कियो देखनिहार। जा धरि पैरूख छल, ताधरि झूठ-फूस, एम्हर ओम्हर कए बेटा बियाहलहुँ। मुदा आब कतौ कियो नहि। (खांसैत छथि)
(महेन्द्र पंडितक प्रवेश)
महेन्द्र : दोस, बड गड़बड़ स्थितिमे देखि रहल छी अहाँकेँ। एना किएक? की भए रहल गेल?
दीपक : की हएत दोस? कप्पारमे जे धँसल अछि। सएह ने होएत। (खांसैत छथि)
महेन्द्र : बड खाेंखी होइत अछि।
दीपक : की कहु दोस, दम्मा जोर कए देलक। एक्को रत्ती सक्क नहि लगैत अछि। ताहिपर सँ भनसा-भात अपने केनाइ।
महेन्द्र : (आश्चर्यसँ) से किएक? आ पुतौह?
दीपक : पुतौह गेलीह डिल्ली। बेटा नहि मानलक हमर बात।
महेन्द्र : कहु दुनियाँ केहेन छैक? बेटा-बेटी जनमाबैत अदि लोक सुख लए आ आगू दिन लए।
दीपक : मुदा हमर बेटा स्वार्थमे लीन छथि। आब हम ओकर के? दुश्मने ने।
महेन्द्र : एगो गप्प कहु दाेस।
दीपक : अवस्स कहुँ।
महेन्द्र : झांपि-तोपि कऽ दोसर बियाह कए लिअ।
दीपक : मोन तँ होइत अछि दोस। मुदा आब एहि उमरमे लोक की कहत?
महेन्द्र : लोक की कहत? कियो एक्को सांझ भनसा बनाए देतीह की?
दीपक : ई तँ सपनोमे नहि देखि सकैत छी। अपन जनमल तँ अपन होइते नहि अछि आ दोसरक कोन आशा?
महेन्द्र : छोड़ू ई सभ लटारम। दोसर बियाह कए लिअ सभ अपना-अपना लेल हरान अछि।
दीपक : (मुँह चटपटबैत आ खांसैत) दोस, मोन तँ बड्ड होइत अिछ। मुदा नहि, बाबाजी थिकहुँ। लोक की कहत? हम सरस्वती माताक समक्ष सत्त कएने रही। सत्तकेँ हम तोड़िओ सकैत छी। मुदा नहि नहि नहि।
महेन्द्र : नहि तँ दोसर बेटेकेँ बियाहि लिअ।
दीपक : हँ, ई भए सकैत अछि। मोहना तँ गेल आब सोहना जे करए। अहाँक नजरिमे दोस, कोनो लैड़की अछि?
महेन्द्र : एखन नहि अछि। ओना लैड़कीक बड्ड अभावो भए गेल अछि। जदि नजरिमे आबि जाएत तँ अवस्स कहब। एखन जए रहल छी अपन समधीयौर। समधीनकेँ शंकरजी जनम लेलथिन।
दीपक : बेस, तहन जाउ, शंकर जीकेँ दरशन करू गे।
(महेन्द्रक प्रस्थान। दीपक खांसैत-खांसैत बेदम भए जाइत छथि।)
पटाक्षेप
दृश्य- दोसर
(स्थान- दिल्ली। मोहन ओ मंजू बिछौनपर आराम करैत छथि। मुर्गाक बाङ सुनि मंजू उठि कऽ अपन पतिक सेवा कए रहल छथि आ किछु गप-सप्प सेहो कए रहल छथि।)
मंजू : (चिट्ठी निकालि कऽ दैत) स्वामी जी, पिताजीक चिट्ठी काल्हि सांक्षमे अएल छल। लिअ।
मोहन : कने पढ़ियौक ने, की लिखलन्हि अछि।
मंजू : (चिट्ठी पढ़ैत छथि) चिरंजीवी बौआ मोहन, शुभ आशीर्वाद। हमरा बेटा जनमा कऽ की भेल? दम्मासँ तबाह छी। कियो पूछैबला नहि। सोहना ओ गोपला सदिखन नरहेर जकाँ एम्हर-ओम्हर करैत रहैत अछि। तोरा बियाहि कऽ हमरा की भेटल। हँ, एकटा चीज अवस्स भेटल, चिन्ता। खाइर कतउ रहू, नीके रहु।
मोहन : (मंजूसँ चिट्ठी लऽ कऽ फंेकैत) जेहेन करनी तेहन भरनी। देखैत छेलिएनि जे भरि दिनमे एक-एक मुट्ठा बीड़ी पीबि जाइत छथि। तहिपर सँ गांजा सेहो धुकैत छथि। एकर फल हुनका नहि भेटतनि तँ ककरा भेटतनि।
मंजू : स्वीमी, मुदा छथिन्ह तँ ओ जनम दाता। की कहबैन आब हुनका। बुढ़े जकाँ छथि। तहुपर सँ दम्माक तबाही। स्वामीजी, हमर विचार अछि जे दुइ-चारि दिन लेल गाम चलू आ पिता जीकेँ देखि आबी। हुनको मोनमे संतोष हेतन्हि।
मोहन : भोरहि भोर हमरा मोन नहि खिसीआउ। गाम जेबामे माल-पानी खरचा होइत छैक की नहि। बापबला रखने छी तँ चलू।
मंजू : (शांत भऽ) जे कहलहुँ से गलती कएलहुँ।
मोहन : एखन गाम नहि जाएब। एक्के बेर सोहनक बियाहमे।
मंजू : जे मोन हुअए, सहए करू स्वामी।
(संजू कुमारीक प्रवेश। संजू अपन पाहुन ओ बहिनकेँ पएर छुबि प्रणाम करैत छथि। दुनू माथपर हाथ दए आशीर्वाद दैत दथिन्हि)
मोहन : (संजूसँ) आइ शीताहल नढ़िया जकाँ अहाँ? कोना एतए धरि अहाँ पहुँच पाओलहुँ संजू?
संजू : किएक पाहुन, हमरा अहाँ बुरबक बुझैत छी की? अहुँसँ हम काबिल छी, से बुझि लिअ।
मोहन : हँ हँ, से तँ अहाँ छी। कहु असगरे कोना-कोना एलहुँ?
संजू : गामपर बस धएलहुँ पटना अएलहुँ आ पटनामे राजधानी मकड़ि दिल्ली अएलहुँ। दिल्लीमे टेक्सी पकड़ि अहाँ लग अएलहुँ। नम्बर-पता अहाँ हमरा देनहि रही।
मोहन : खाइर एतेक अचानक अहाँक अएबाक कारण?
संजू : 26 जनवरी नजदीक छैक। ओहिमे परेड देखए हेतु प्रोग्राम अचानक बनि गेल।
मंजू : एहि बीिच लाल किला, इंडिया गेट, ताजमहल, लोटस टेम्पल, चिड़िया घर इत्यादि पाहुन सेहो देखाए आनथुन्ह। आब बुच्ची अहाँ कहिया आएब कहिया नहि।
मोहन : संजू, आब अहाँ बड़ीटा भए गेलहुँ। बियाहमे कनिएटा रही।
संजू : अहाँक विचारसँ हम सभ िदन कनिएटा रही?
मोहन : हँ हँ सएह बुझु। नमहर भेलासँ अहुँकेँ दीदी जकाँ बियाह करए पड़त। बाप-माएकेँ बड्ड खरचा करए पड़त। तैयो बाप-माएकेँ छोड़ि परघर चलि जाएब। नहि तँ हमरे लग सभ दिन रहि जाउ ने संजू।
संजू : एगोमे सुखए कऽ संठी भए गेलहुँ आ दोसरकेँ राखैत छी। डाँरमे दम अछि पहिने? केहेन-केहेन गेल्ला तँ मोंछबला एल्ला। एक्के ठुस्सी मारब तँ मुँह भसकि कऽ पेटमे चलि जाएत।
मंजू : छोड़ू बुच्ची मजाक-तजाक। काल्हि अहाँ पाहुन संगे घुमै लए चलि जाएब।
पटाक्षेप
दृश्य- तेसर
(स्थान- दीपक चौधरीक घर। दीपक खांसी करैत आ हकमैत बैसल छथि।)
दीपक : बेटा, बड़का बेटा चिट्ठीक कोनो जबाबो नहि पठेलन्हि। हमर आब कोनो ठेकान नहि। कखन छी, कखन नहि। बेमारी बड जोर कएने जा रहल अछि। (खांसी करैत-करैत बेदम भए जाइ छथि फेर ओ बीड़ी पीबैत छथि।)
सोचने रही जे मझिला बेटाक बियाह कए ली जीबतहि। मुदा हएत की नहि, से कहब कठिन।
(प्रदीप कुमार ठाकुरक प्रवेश)
प्रदीप : दीपक बाबू, अहाँक हालत बड खराब देखै छी।
दीपक : (कलपि कऽ) सर परणाम।
प्रदीप : प्रणाम-प्रणाम।
दीपक : सर, हम सोचैत रही जे अपना जीबैत बेटा सभकेँ बियाहि ली। मुदा लगैत अछि जे हएत नहि।
प्रदीप : से किएक नहि होएत? हिम्मत जुनि हारू।
दीपक : हिम्मत की हारब सर। अहु अवस्थामे लड़िकी लेल घुमैत-घुमैत, बौआइत-बौआइत, छिछिआइत-छिछिआइत नवका जूताक शोल खिआ गेल जत्तऽ जाउ बेटो, जत्तऽ जाउ बेटे।
प्रदीप : हँ, ई तँ बड़का समस्या अछि लड़िका तँ लड़िकासँ बियाह नहि करत आ लड़िकी भेटैत नहि अछि। दीपक बाबू, बुझैत छिऐक ई किएक भए रहल अछि? दहेज करणे। दहेज दुिनयाक संतुलनकेँ बिगारि देलक आ बिगारि देत। जुग अल्ट्रासाउण्डक भए गेलैए लोक अल्ट्रासाउण्ड करा कऽ बेटीकेँ जेना-तेना नष्ट कऽ दैत छथि। तहन बेटी वा लड़िकी कत्तसँ कत्तसँ आओत? की लड़िकी बरखामे खसत?
दीपक : सर, हमहुँ ओहि अल्ट्रासाउण्डक मारल छी। कोनो लड़िकी अहाँक नजरिमे नहि अछि।
प्रदीप : हँ यौ।
दीपक : जय भगवान, जाय भगवती। कहु कत्त?
प्रदीप : (मोन पाड़ैत) यौ बेलौकमे एक दिन कियो कहने रहथि जे एगो हमरा बियाहैवाली बेटी अछि। (नाक छुबैत) हँ हँ, आब मोन पड़ि गेल। ओ छलाह- हरिश्चन्द्र चौधरी। हुनका एक्केटा बेटीए छनि, बेटा-तेटा नहि।
दीपक : सर, तहन जल्दी बुझिऔक ने। सर, तहन तँ ओ माल-पानी बढ़िया खरच करताह।
प्रदीप : अहाँ बड लोभी छी। सदिखन माल-पानीक जुगारमे रहैत छी। पहिने हमरा बुझऽ दिअ जे लड़िकी छन्हिेँ वा उठि गेलीह। अच्छा रूकु हम घर जाकऽ झामलाल महतोकेँ हुनका ओहिठाम पठबैत छी। हँ की नहि, से हुनके दिया समाद पठा दैत छी। अहाँ असथिर रहु।
(प्रदीपक प्रस्थान दीपक खूब खांसैत-खासैत परेशान छथि।)
दीपक : बड़का बेटामे तँ सोलहन्नी ठकाए गेलहुँ। मुदा मझिलामे सुधि-मुरि ओसुलि लेब। आखिर एक्केटा बेटी छनि आ बेटा छन्हिें नहि हुनका। हुनक सभटा संपत्ति हमरे होएबाक चाही। (खांसैत-खांसैत परेशान)
(झामलालक प्रवेश)
झामलाल : दीपक बाबू, प्रदीप भैया हमरा हिरश्चन्द्रक ओहिठाम लड़िकीक संबंधमे पठौने रहथि। हरिश्चन्द्र बाबूक एखन धरि कुमारिए छथि। मुदा हरिश्चन्द्र बाबूक मोन बड्ड अगघाएल देखलियन्हि। पाँचटा कुटुमकेँ गप-सप्प करैत सेहो देखलिएन्हि। ओ हमरा कहलनि जे हुनका जरूरी हेतनि तँ ओ हमरहि एहिठाम आबि गप-सप्प करताह। हमरा भरि सएओ कुटुम आबैत छथि। हमरा पानि छोड़ि कऽ किछु नहि लगैत अछि। सभटा कुटुमे लेने आबैत छथि।
दीपक : एहेन बात कहलनि ओ?
झामलाल : हँ यौ दीपक बाबू, हम अहाँकेँ फुसि किएक कहब? हमरा ओहिसँ की फेदा? अन्तमे ओ कहलनि जे पियासल इनार लग जाइत अछि, इनार पियासल लग नहि।
दीपक : हारल नटुआ झुटका बिछए। काल्हि हमरा लोकनि हुनका ओहिठाम जाएब। नऽ छऽ कएने आएब। कम्मो-सम्मोमे पटटैक तँ हमरा केनाइ परम आवश्यक अछि।
पटाक्षेप
दृश्य- चारिम
(स्थान- हरिश्चन्द्रक चौधरीक घर। हरिश्चन्द्र चौधरी ओ रमण कुमार दलानपर कुर्सीपर बैसि शालिनीक बयाहक संबंधमे गप-सप्प करैत छथि। रमण कुमार हरिश्चन्द्रक मुखिया छथि।)
हरिश्चन्द्रक : मुखिया जी, शालिनीक बियाह हेतु लड़िकाबला सभ हमरा नाकोदम कए देने छथि। एखन धरि सैकड़ौ लड़िकाबला हमरा एहिठाम आबि कऽ गेलाह। मुदा हँ किनको नहि कहलियन्हि।
रमण- हरिश्चन्द्र जी, सभ दिन होत न एक समाना। कोनो समए छल जाहिमे लड़ककीबला लड़िकाबलाकेँ खुशामद करैत छलाह। मुदा आब एहेन समए आबि गेल अछि जाहिमे लड़िकाबला लड़िकीबलाकेॅँ खुशामद करैत छथि। आ एखन किछु नहि भेल। आगु देखब की-की होइत अछि?
(दीपक चाधरी, प्रदीप कुमार ठाकुर, सुरेश कामत, महेन्द्र पंडित अो झामलाल महतोक प्रवेश। हरिश्चन्द्र ओ रमण ठाढ़ भऽ कऽ हिनका लोकनिकेँ बैसाबैत छथि। दुनू पक्षसँ नमस्कार पाती होइत छनि। सभ िकयो बैस कऽ गप-सप्प करैत छथि।)
रमण : (प्रदीपसँ) प्रदीप बाबू, कहु की हाल-चाल?
प्रदीप : सरस्वती माताक कृपासँ बड़-बढ़िया हाल-चाल अछि आओर अपनेक हाल-चाल?
रमण : सभ आनन्द अछि। प्रदीप बाबू, लड़िकाक बाप के छथि?
प्रदीप : (दीपक दिशि इशारा करैत) ओ छथि, दीपक चौधरी।
दीपक : हम छी सरकार, नमस्कार।
रमण : नमस्कार, नमस्कार। दीपक बाबू, अहाँकेँ लड़िकी पसीन छथि?
दीपक : हँ, हम एगो विश्वसनीय सूत्रसँ बुझि लड़िकीसँ संतुष्ट छी।
रमण : हरिशचन्द्रजी, अपनेकेँ लड़िका पसीन छथि?
हरिश्चन्द्र : हँ, हमरो बेलॉकमे प्रदीपे बाबू कहने छलाह जे दीपक बाबूकेँ लड़िका बड नीक छथि। हम हिनकेपर पूर्ण विश्वास राखि लड़िकाकेँ बड नीक मानलहुँ।
रमण : यानी दुनू तरफसँ लड़िका-लड़िकी पसीन छथि। तहन दीपक बाबू, बाजू केना की बियाह-दान करब। बेचारा हरिश्चन्द्र बड गरीब छथि। कौहना कऽ ई बेटीकेँ पढ़ौलनि।
सुरेश : तैयो किछु बजताह ने हरिश्चनद्र बाबू जे की केना ख्रच करब?
हरिश्चन्द्र : हम किछु नहि बाजब। बजताह मुखिए जी। हमरा संबंधमे हुनका सभ किछु बुझल छन्हि।
रमण : हरिश्चन्द्र बाबू खरच करताह। जदि अपने लोकनि ई बुझि कऽ आएल छी तहन अपने सभकेँ ई गरीबक कुटमैती नहि भेल। दीपक बाबू, अपन बेटाक बियाहमे की केना खरच करताह से बाजथु।
सुरेश: दीपक बाबू की बजताह? ओ तँ अपने सबहक सवाल सुनि दंग छथि।
महेन्द्र : यौ सुरेश बाबू, हरिश्चन्द्र बाबू छिरहारा खेलाइ छथि। डुबि कऽ पानि पीबै छथि।
हरिश्चन्द्र : हरिश्चन्द्र बाबू डुबि कऽ पानि की पीताह? रहए तँ छपाए नहि, नहि रहए तँ बिकाइ नहि।
महेन्द्र : नहि रहए तँ बेटी बियाहए लेल किएक चललहुँ।
झामलाल : महेन्द्र बाबू ठीक कहैत छथि। बेटीक बियाह टिटकारीसँ नहि होइत अछि। डाँर मजगूत चाही।
हरिश्चन्द्र : जदि अहींक डाँर मजगूत अछि तँ बेटा बियाहि लिअ आनठाम। (बिगरि कऽ)
प्रदीप : अपने सभ शांत रहु। हल्ला-गुल्ला जुनि करू। मुखियाजी, अपने किछु साकारात्मक बात बाजू।
रमण : हमरा समएक बड अभाव अछि। हम एक बेर बाजि दैत छी- जदि दीपक बाबू गोटेक लाख टका खरच करताह तहन ई लड़की हिनका होएतन्हि। नहि तँ असंभव। एहि अल्ट्रासाउण्डक जुगमे बेटीक बड बेसी अभाव अछि आ बेटाक कोनो अभाव नहि अछि।
प्रदीप : मुखियाजी, हमरा लोकनि एक मिनटमे विचारि कऽ कहि दैत छी।
(प्रदीप, दीपक ओ सुरेश अन्दरमे जा कऽ गप-सप्प करैत छथि।)
सुरेश : आब ओ जमाना नहि रहि गेल जहिमे बेटीबलाकेँ बेटाबला दहेजमे कुहरा दैत छलाह। अल्ट्रासाउण्डक युगमे बेटीक बड अभाव भऽ गेल अछि आओर बेटाबलाकेँ बिआहनाइ मजबूरी अछि तेँ भागीन, हरिश्चन्द्र बाबू कमसँ कम एकाबन हजार टाका तोरासँ लेबे करथुन।
प्रदीप : दीपक बाबू, मामाश्री ठीके कहैत छथि। एकाबनमे ई कुटमैती फाइनल कऽ लिअ।
दीपक : सर, अपने सभ जे जेना कहबैक से हमरा मान्य होएत। चलु फाइनल कऽ लिअ।
(प्रदीप, दीपक, ओ सुरेशक प्रवेश।)
रमण : बाजल जाउ प्रदीप बाबू, की केना विचर भेलैक।द्य
प्रदीप : दीपक बाबूक ओतेक बढ़िया नहि अछि। ओ मात्र अहाँकेँ एकतीस हजार टाका देताह।
रमण : तहन ई कुटमैती अपने सभकेँ नहि भेल। जदि एकावन हजार टाका अपने सभ दऽ सकबनि हतन कुटमैती होएत नहि तँ जय रामजी की।
सुरेश : बेस हमरा लोकनि मािन लेलहुँ।
रमण : मानि लेलहुँ तँ एखन लड़िकीकेँ चढेबैक की बादमे?
सुरेश : बियाहेमे चढ़ए लेब।
रमण : दीपक बाबू, बात पक्का।
दीकप : हँ यौ मुखियाजी पक्का नहि तँ कच्चा।
रमण : प्रदीप बाबू गाइरेन्टर अहींक होमए पड़त।
प्रदीप : बेस, हम तँ छिहे।
रमण : तहन हरिश्चन्द्र बाबू, चाय-पान-नास्ताक ओरिआन जल्दी करू।
(हरिश्चन्द्र अन्दरसँ चाय-पान-नास्ता अनैत छथि। सभ कियो नास्ता, चाय, पान करैत छथि। फेर हाथ मुँह धोइ कऽ सभ कियो अंतीम गप-सप्प करै छथि।)
बियाह कहिया करब दीपक बाबू?
दीपक : जल्दीए राखू। फेर टकोक इन्तजाम करए पड़त ने? दू-चारि दिनमे राखु। आब मुखियाजी चलबाक आज्ञा देल जाउ।
रमण : किएक, समधीन अहाँक प्रतीक्षा करैत हेतीह?
दीपक : ओ हमरा सनक हजारोकेँ प्रतिदिन प्रतीक्षा करैत छथिन। तहन जय रामजी की, मुखियाजी।
रमण : जय रामजी की।
(प्रदीप, सुरेश आ दीपकक प्रस्थान नवस्कार-पातीक पश्चात)
पटाक्षेप
दृश्य- पाँचिम
(स्थान- हरिश्चन्द्र चौधरीक घर। शालिनीक बियाहक पूर्ण तैयारी अछि। जयमालाक मंच सजल अछि। मंचपर बाल्टीनमे जल-लोटा राखल अछि। हरिश्चन्द्रक भाए सुरेन्द्र चौधरी असगरे कुरसीपर बैसि कऽ ओङहाइत छथि आ खैनी खा कऽ छीकैत छथि। मुँहसँ खैनी निकलि जाइत अछि। फेर खैनी खा कऽ नोइस लऽ छीकैत छथि।)
महेन्द्र : आ ऽ ऽ ऽ छी। धूर सार खैनी। बड़ खच्चर छेँ। बाप लागल छौक। आ ऽ ऽ ऽ छीं। कोन खैनी अछि कोन नहि। शायद बापक जनमल खैनी नहि अछि, मएक जनमल अछि। आऽ ऽ ऽ छीं। हमरा किएक तङ करैत छेँ, बौहकेँ कर गे। एखनहि हमर मुँह नानीए दादीएकेँ उकटि देतौक। आऽ ऽ ऽ छीं। बुझि पड़ैत अछि बरियाती दुआरे एना करैत छें। सार खैनी नहितन। बापक बियाह पितीयाक सगाइ देखेबौक। आऽ ऽ ऽ छीं। लागि रहल अछि जे लड़िकाक माए चलितर बुढवाक संग उरहैर गेल। हम तेरा खेबौक नहि सार। मुदा नहि खेबौक तँ तों कानबें तहन। आऽ ऽ ऽ छीं। खैनीक पितीआइननहि तन। माएसँ बियाह कऽ लेबौक। नहि तँ अपन चालि छोड। आऽ ऽ ऽ छीं। सार खैनी मुँहे दाबि देबौक आ गरदनिमे फँसरी लगाए देबौक। मरलें तँ नॉङ साथी, जीलें तँ नाॅङ साथी। आऽ ऽ ऽ ऽ छीं। हे हे गोर लगैत छिऔक सार पाएर पकड़ैत छऔक सार आब एना करिहें। बेज्जैत भए जाएब। बरयाती आबैत होएत। आऽ ऽ ऽ छीं। हे हे, एक्के बेर छिऔक ने। अन्तिमे ने। हे हे, एकटा पौआ देबौक आइ। गांंजा देबौक। लुङिया मिरचाइ देबौक। कनियाले सुति देबौक। इज्जत बचाह। प्रतिष्ठा राख। तोरा बगैर हम नहि रहि सकैत छी। हे सार खैनी, तोरा बगैर हमर कनियां एक्को क्षण नहि रहि सकैत छथि। हँ, आब सार मानलक। कतेक कौबला-पाती कएलाक बाद। सार खैनी बड बुधियार अछि। मुदा बापसँ भेँट आइ भेलैक। एतेक दिन बापक साँएसँ होइत छेलैक।
(भटक्का आबाज करैत छथि। बरयाती सभ अन्दरमे। ई अबाज सुनि महेन्द्र तीन-तीन हाथ छरपैत छथि। डरसँ कोने-कोन नुकाइत छथि। बाप रऔ, माए गै करैत छथि। बाल्टीन माथपर राखैत छथि। एहि तरहेँ बरियातीक प्रवेश होइत छनि। सभकेँ बाप रअौ, माए गै करैत पाएर छुबि प्रणाम करैत छथि। बरयातीमे छथिन्ह- दीपक चौधरी, प्रदीप कुमार ठाकुर, झाामलाल महतो, सुरेश चौधरी, सोहन चौधरी, मोहन चौधरी आओर गोपल चौधरी। चाय-पान-नास्ताक बाद शिघ्र जयमालाक तैयारी होइत अछि।
सुरेश : (सुरेन्द्रसँ) सरकार, जय माला शिघ्र करू।
महेन्द्र : सरकार, हम सरकार नहि थिकहुँ सरकार सभ अन्दर छथि।
मोहन : सरकार सभकेँ बजाए अनियौन्हि।
सुरेन्द्र : बेस, बजाए अनैत छिअनि। (अन्दर जा कऽ आबि।)
सभ कियो आबि रहला अछि।
(हरिश्चन्द्र चौधरी ओ रमण कुमारक प्रवेश। दुनू पक्षसँ नमस्कार पाती भेलनि।)
मोहन : (मुखियाजी सँ) मुखियाजी, जय-मालामे किएक बिलंब भए रहल अछि?
रमण : हमरा लोकनिक कोनो बिलंब नहि। अहीं सभकेँ बिलंब अछथ्।
मोहन : की बिलंब?
रमण : यएह जे दीपक बाबू एखन धरि एकावन हजार टाका हरिश्चन्द्र बाबूकेँ नहि देलथिन्ह।
दीपक : हइए लिअ एकावन हजार टाका।
(प्रदीप दीपकसँ एकावन हजार टाका गिनि कऽ मुखिया जीक हाथमे दऽ दैत छथिन्ह।)
रमण : हँ, आब वादा पूर्ण भेल। आब जय-माला अतिशिघ्र होएत।
(हरिश्चन्द्र आ रमण अंदर जाइत अछि। पुन: अन्दरसँ जनानी सभ जय-माला कराबए अबैत छथि। समूहमे शालिनी कुमारी, राधा देवी आओर चारि-पाँच गोट अन्य जनानी छथि। ओ सभ परिछन कऽ जय-माला करौलन्हि। शालिनी, सोहनकेँ पाएर छुबि प्रणाम केलनि। सभ जनानी अन्दर जाइत छथि। तहन सुरेन्द्र चौधरीक प्रवेश।)
सुरेन्द्र : बरयाती सभ, आऽ ऽ ऽ छीं। (खैनी खा कऽ) सार फेरो आबि गेल। सार निरलज आऽ ऽ ऽ छीं। पतित आऽ ऽ छीं। हे सार, कुटुम स्ीा हँसैत होएत। हे सार प्रतिष्ठा आऽ ऽ ऽ छीं। बचा बचा आऽ ऽ ऽ छीं। हे हे गोर लागऽ दैत छिऔक। हे हे आइ राति नवकी समधीन लग लऽ जेबौक। बात मान। (छींक रूकि जाइत अछि।) हँ सार समधीनक लोभमे बात मानलक। बरियाती सभ भोजन सराए रहल अछि। चलै चलू भोजनमे।
(सबहक प्रस्थान)
पटाक्षेप
क्रमश:
३.६.१.सतीश चन्द्र झा- सौंसे बिहार एखनो बेहाल २.रामविलास साहु- कविता-कोशीमे समाएल जिनगी
३.७.कालीकान्त झा बूच- अंतिम- कविता- कहिया धरि उदासी
१.डॉ. नरेश कुमार ‘विकल’२. संस्कृति-कतऽ जाइ....३. गंगेश गुंजन- आउ हनुमान
डॉ. नरेश कुमार ‘विकल’ बाल गीत
अहींसँ गंगा-जमुना बहथिन
अहींसँ कमला धारा।
अहीं सुरूज ओ चान जरावी
अहींटा एक सहारा
आइ हिमालय देख रहल अछि
फेर अहींकेँ बौआ!
बाॅझ रहथु धरती बरू
पर उपज ने पाबए झौआ
कतेक दु:शासन खींचि रहल अछि
आइ द्रोपदीक चीर!
कनिको जीमे प्राण रहए तँ
रहब ने कनिको थीर!
बना कलम करूआरि अहाँ
छोड़ू वीणा केर तार!
रहू सदति तैयार अहाँ यौ
गरमी हो वा जाड़!!
(2)
सुनू बौआ मोर
कानमे बाजू बौआ जाएब ककरा कोर
आब ने भेटत बौआ तिरहुतमे तिलकोर
कतऽ गेलै करमी आ पटुआक झोर
साग आ पाग ने कोकटीक तौनी
डालाक भार आ ने सीकीक मौनी
महफाक ओहार उड़ल देखू कनियाँ गोर
स्नो आ पाउडरसँ करियो भेलै गोर
पण्डौलमे पाव रोटी भेटत चहुँ ओर
सौराठक सैण्डविच कएने अछि जोर
कपिलेश्वरमे कटलेट भेटत टटुआरमे टोस्ट
बुझि ने पड़त बौआकेँ गेस्ट आ होस्ट
लोहनाक लिपिस्टिकसँ रङल छैक ठोर
हाइ हिलक चप्पलमे नाचै चारू पोर
नेहरामे झकझक नायलान कएने अछि जोर
जार्जेट जनकपुरमे कतऽ अछि पटोर?
माय गेली मम्मी अएली टप-टप खसै नोर
डैडी ओ डार्लिंगकेँ भेटत ओर ने छोर।
२
संस्कृति वर्मा , क्लास ४था , क्विन मेरी स्कूल , मॉडल टाउन , दिल्ली
कतऽ जाइ....
हम करी तँ की
किछु ने फुरैत अछि.
हमहूँ बेदरा छी मोन नहि
पड़ैत अछि !
एक टा फ्लैटमे बन्द रहैत छी
ओहि कोठरीसँ ओहि कोठरी धरि
घुमैत रहैत छी.
टीवी खोलैत छी , केहेन केहेन दृश्य
आबि जाइत अछि
हमरो लाज लागि जाइत अछि.
कंप्यूटरपर जाइत छी , नेट पर
किछु कहाँ आबि जाइत छैक
लागले डैड सेहो पहुँचि जाइत छथि
ई की देखि रहल छेँ
डैड , हम की करी ,कते खेली आ
आ डैड न्यूज खोलि बैसि जाइत छथि.
न्यूज़ पर किछु सीन आबि जाइत छैक
आँखि गुरारि हमरा कोठरीसँ
बाहर निकालि दैत छथि ,जाऊ होम वर्क करू ............
एकटा डिब्बामे बन्न भऽ
बससँ स्कूल जाइत छी
अबैत छी ..................
नीचा नै जाऊ , जमाना ख़राप छैक
छत पर नै जाऊ
नेनाकेँ उठा कऽ लऽ जाइत छैक
आब अहीं कहू हम बच्चा सभ
कतऽ जाऊ अवलम्ब पाऊ..........???
३.गंगेश गुंजन
आउ हनुमान
माथे पर
मैना चटक केलक
हाथे पर
लुधकल बगड़ा
टाटे पर
लुटकुन गेलाह
पोखरिक घाट
धोअ' अंगरखा
दहिना हाथ ।
चितङ खसल दोस्त
बाटे पर
पोथी भेटल घरे मे
कौपी भेटत हाटे पर
टुनमुन कहल संगी के
संग च’ल त कनिएं हाट
से नहि गेल तं
लेलनि ढौआ
चलला असकरे हाट
गोला कुकुर भेटल
बीच बाट
जए कि कहलखिन-
आऽ तू आऽ त ऽऽ
अएलनि लग
ध' लेलकनि संग
संगे संगे
चलल दोकान
कौपीक बदला कीनल
मखान .
खुशी सँ कुकुर
उठौलक तान
टोकल टुनटुन रह भ' चैन
तोहर बस्तु सुअदगर लाइ
आइ नहि किनबौ देबौ काल्हि
पाइ खतम छौ घुरि चल आइ
घुरती भेटल जिलेबी छनैत
ठामहि तै लए ओ अड़ि गेल
टुनटुन ओकरा फेर बुझाएल
कुकूर लेब' उधार जिदिआएल
बुझबैत कहलक टुनटुन बात-
सौदा नै ली कखनो उधार
नगदीएक राखी वेबहार
काल्हिए तं कहलनि बाबा,
भैया के सोझाँ क' ठाढ़
चरफर दोस्त कुकुर चलल
टुनमुन ओकर माथ चूमल
तखन दुनू फेर टोल घुरल
कौपीक बदला कीनि मखान
तइ गलती पर
भाय कन्हुआएल
करबौलक उठकी-बैसकी
अपनो गलतीक टुनटुन फेर
मललक झिटुके
अपने कान
मोने रहतै इहो दोकान
कौपीक बदला किनब-मखान
ओकरे देखसी करैत कुकूर
अपने चाँगुरे पकड़लक कान ।
राजदेव मंडलक किछु कविता
(1) गाछक हिस्सा
बिरिछपर कुड़हरि दन-दना रहल अछि
दुनू भाँइ भन-भना रहल अछि
यएह गाछ छिऐ झगड़ाक जड़ि
एकरा देबै आइये काटि
सभ किछ भए गेल भिन्ने
तँ एकरो लेबै आइये बाँटि
लगमे पहुँचल संच-मंच
बुझबए लगल गामक सरपंच
बैसू हकरू दुनू भाय
नहि हएत झगड़ा अछि उपाय
गाछमे छै दूटा फेंर
नहि लाबए पड़त तरजू-सेर
हिस्सामे भेल एक-एकटा मोटका डारि
भायक परेममे किएक पाड़ै छी दरारि
एकोटा गाछ रोपल भेल
किएक करै छी एहेन अधलाह खेल
जाहिपर जिनगीक आस
चलैत अछि साँस
तकरा कऽ रहल छी विनाश
जएह देने अछि कपारपर छाँह
तकरे कटै छी वाह-वाह
ई करम अहाँसँ भऽ रहल अनुचित
जे दऽ रहल जिनगी
तकरे सँगे एहेन अहित
करबै गाछक सेवा
भेटत सुन्दर मेवा
भेटत सुन्दर फल
एहिसँ बढ़त शरीर आ मनक बल
पंचक गप्प सुनि दुनू भाँइ कहलक
घर चल।
(2) लाल ज्योति
गन्तव्य दिश अग्रसर होइत
धप्प दऽ– हम खसि पड़लहुँ
अनभुआर कुपमे
जे अछि बरिसों पुरान, सुखल
जलक नामपर
फाटल दरारि
राक्षसक मुँह सन
सधन-तमसँ भल छी भयभीत
अएबाक हेतु-ऊपर
कऽ रहल छी- यत्न पर यत्न
किन्तु सर्प सन ससरि ससरि खसैत छी
पुन: ओहिठाम
मकड़ाक जाल सभ
लटपटा रहल अछि- माथमे
आवेश वश फेंकि रहल छी माँटिक ढेपा
परन्तु ओहो लगैत अछि
ठाँहि दऽ अपनहि कपारपर
हथोड़ि रहल छी-नव राह
तखनहि तीक्ष्ण लाल प्रकाशमे
चौन्हिया जाइत अछि-चक्षु
कियो सहृदय साहस कऽ
देखा रहल अछि- मार्ग
बढ़ि रहल छी आब
शनै: शनै:
ओहि बिन्दु दिश।
(3) बीखक घैल
कतेको बरख पुरान
एहि बीखक घैलमे
तृण भरि छेद मात्र
बून-बून चुबैत
बीखसँ
भऽ रहल अछि
विषाक्त वसुन्धरा
भष्म भऽ गेल
मनवोचित गुण
तइयो तीब्र गतिसँ
आप्लावित करैत
खोजि रहल अछि
नव-नव आहार
प्राणी सभ अछि पड़ा रहल
सुड्डाह करैत अछि बढ़ि रहल
बीखक बाढ़ि
सभ अछि सशंक
खोजि रहल अछि निर्विध्न स्थान
पड़ाइत-पड़ाइत भेल अपस्याँत
किन्तु आब नहि होएत घात
बढ़ि रहल दूटा सशक्त हाथ
अहर्निश
ओहि कुम्भ दिश।
(4) पत्रोत्तर
अहाँक उपरागसँ बेधल अछि गतर-गतर
तैं दऽ रहल छी पत्रोत्तर
कतेक कएलहुँ परिश्रम
बनलहुँ निरलज टूटल धरम
तब बनेलहुँ सोनाक घर
सबकुछ सधि गेल भेलहुँ फक्कड़
मनोरथ तँ पूरा भेल
किन्तु यएह आइ जहल भऽ गेल
अहाँ लगसँ एतऽ धरि
जेना लगल अछि कोनो अदृश्य कड़ी
हवाक सँग अहाँक गन्ध आबि रहल अछि
से स्वर संगीत बनि गाबि रहल अछि
अहाँ अन्त: सँ सोर पाड़ै छी
हम अपना हृदयकेँ तरे-तर मारै छी
बीतैत अछि साल बीतैत मास
एहि जेलसँ निकलैक कऽ रहल छी प्रयास
आबैए जाड़ तँ अहाँ बिनु लगैए अन्हाड़
देहपर पड़ैए बून याद पाड़ैए अहाँक गुन-गुन
हवा बहै जब गरम लागै फूटल हमर करम
अबै जब बसन्त हमर हृदय करैत अछि हन्त
तइओ हम केहेन छी कंत
अहाँक बिसरि बनल छी संत
खोज कएलहुँ हम असली
आब बनल ओ नकली
असल परेम मुँह फेरि नहि सकैत अछि
ओकरा कियो धेर नहि सकैत अछि
नहि जानलहुँ तँ जानब
आब नहि हम मानब
एक-एक ईंटाकेँ फोड़ब
एहि स्वर्ण जेलकेँ तोड़ब
अन्तरमे मिलन पियास करै अनघोल
स्वर्णक होइत अछि बहुत मोल
पर परेमक मोल अमोल।
(5) अन्हारक खेल
ओहिठाम भऽ रहल छलै
एकटा हास्यास्पद खेल
एकत्रित दर्शकमे छलै
तत्कालीन बड्ड मेल
एकबेर आँखि मटकेलहुँ
कनेक धियान भटकेलहुँ
खेलाड़ी खेल आब की करता
देखैत छी ओहिठाम ठाढ़ छै भाषणकर्ता
भाषण झाड़ि रहल अछि
अमृत वाणी ढारि रहल अछि
छलिया भाषण
नहि दैत छलै राशन
लोग पीबै छलै अश्वासन
नहि सुनै गेल देखै लेल
गेल छलै लाेग
सेहो भेल अभोग
करऽ लगल आपसी रगड़ा
थप्पर-मुक्का आ झगड़ा
पुछए चाहलक भाषणक अता-पत्ता
आकि ओहो भऽ गेल निपत्ता
ओहि जगहपर भेल ठाढ़
सौंसे मनुक्खक हाड़
जहिमे सँ निकलि रहल छूछे अन्हार
डूबि गेल सभ ओहिमे कानए जार-जार
औनाए कऽ खसए बारम्बार
ओ अन्हार सबहक देहकेँ बना देलक हाड़े-हाड़
एक दोसराकेँ देखि सभ भऽ रहल भयभीत
बढ़बऽ पड़त एकताक गीत
मारऽ पड़त छड़पनियाँ
काटऽ पड़त गुड़कुनियाँ
आगूमे छै इजोत
जे दऽ रहल छै नोत
लगबऽ पड़त कोनो ब्योंत।
(6) नाचक बिखाद
लोग मनहि मन करै छल जाँच
हम करै छलहुँ नाँगटे नाच
आँखि देखैत छल
मुँह हँसैत छल
जखैन लोग केलक दुर छी-दुर छी
धियान गेल तब अपना दिश
अपने नाँगट देह देखि
मोनमे आबि गेल रिश
कहैत छी आब-लाउ कोनो नुआँ
होइत अछि लाज
बजैत अछि समाज-
“अलगे रहू अहाँसँ नहि अछि कोनो काज”
एहूसँ बेसी घिना जाएत
स्वजन-परिजन जब सोझा आएत
गप्प चारूभर गिन-गिना जाएत
हेओ कएलहुँ जेना
नहि करब एना
नाचैत-नाचैत कखनहुँ काल
नहि रहै छै सुधि-बुधि बिगैड़ जाइछै चाल
एहो तँ छिऐ एकटा नवका ताल
किछ लोक तँ कहै छै एकरो कमाल
ओमहर लोगकेँ भले लगो नीक ई नाच
एहिठाम नहि सोहाइत छै ई गप्प अछि साँच
एतुक्का लेल नहि छै अनुकूल ई नाच
हे यौ भाय
करू कोनो उपाय।
(7) आँखिक प्रतीक्षा
बन्न अछि अहाँक आँखि
जेना नान्हिटा चिड़इ पसारने पाँखि
आगुमे दुनू ठेहुनकेँ मोड़ने
संगहि दुनू हाथ जोड़ने
हम टक-टकी लगा कऽ रहल छी ताकि
कखैन खुगत अहाँक आँखि
एकबेर जाहिमे लेब हम झाँकि
हमरासँ की भेल भूल
चढ़ा रहल छी मनक फूल
अधरतिया भऽ गेल साइत
शरद पूर्णिमाक ई राति
प्रकृतिपर झहरैत अछि चानी
मधुर रस घोरैत कोइलीक वाणी
मन्द-मन्द सिहकैत बसात
केना रहब अहाँसँ भऽ कात
एकोबेर तँ बोलू
आबो आँखि खोलू
निकलए नेह वा धिक्कार
हमरा दुनू अछि स्वीकार
देखबाक अछि उत्कट इच्छा
हम करैत रहब जिनगी भरि प्रतीक्षा।
ज्योति सुनीत चौधरी जन्म तिथि -३० दिसम्बर १९७८; जन्म स्थान -बेल्हवार, मधुबनी ; शिक्षा- स्वामी विवेकानन्द मिडिल स्कूल़ टिस्को साकची गर्ल्स हाई स्कूल़, मिसेज के एम पी एम इन्टर कालेज़, इन्दिरा गान्धी ओपन यूनिवर्सिटी, आइ सी डबल्यू ए आइ (कॉस्ट एकाउण्टेन्सी); निवास स्थान- लन्दन, यू.के.; पिता- श्री शुभंकर झा, ज़मशेदपुर; माता- श्रीमती सुधा झा, शिवीपट्टी। ज्योतिकेँwww.poetry.comसँ संपादकक चॉयस अवार्ड (अंग्रेजी पद्यक हेतु) भेटल छन्हि। हुनकर अंग्रेजी पद्य किछु दिन धरि www.poetrysoup.com केर मुख्य पृष्ठ पर सेहो रहल अछि। ज्योति मिथिला चित्रकलामे सेहो पारंगत छथि आ हिनकर मिथिला चित्रकलाक प्रदर्शनी ईलिंग आर्ट ग्रुप केर अंतर्गत ईलिंग ब्रॊडवे, लंडनमे प्रदर्शित कएल गेल अछि। कविता संग्रह ’अर्चिस्’ प्रकाशित।
मिथिला चित्रकला
एकटा कैनवास पड़ल उज्जर रिक्त
ताकैत छल मुँह बड्ड जिज्ञासा सऽ
तूलिका उठेलहुँ रंग सऽ कऽ सिक्त
घाेर मनन करय लगलहुँ तल्लीन भऽ
अनकर पन्ना सेहाे केलहुँ अंगीकृत
प्रेरणा लऽ नीक करक अभिलाषा सऽ।।
लियोनादो बढ़िया कलाकारी गढ़ि गेला
मो
नालिसा के प्रसिद्ध रहस्यमयी मुखाकृति
तर्क वितर्क करैत रहल छबिकारक मेला
इतिहास के ललकार बनल ओ कलाकृति
ईश्वरक कृति बच्चाक निश्छल मुस्कान देखल
ओ
हि सऽ अद्भुत आर कोन अभिव्यक्ति।।
ध्यान आयल एब्सट्रैक्ट के नब पैटर्नक
मो
न भेल किछु करी आधुनिक ढ़ंगमे
भेटल अमूर्त एब्सटै्रक्ट रूप चित्रक
उड़ैत भागैत रंग बिरंग तितलीक पंखमे
विचार आयल जखन विधा फैशनक
शानदार सज्जा छल सीप आ शंखमे।।
किछु नवीन करक इच्छा रूकि जाइ छल
जखन देखै छलहुँ अपन चारू कात
ईश्वरक बनाआेल अहि दुनिया मे भेटल
सब तरहक उपलब्ध छल सर्वश्रेष्ठ करामात
स्वयं ईश्वरक विवाहमे जे सजायल रहल
साेचलहुँ मिथिला कला के करी आत्मसात।
१.उमेश मंडल किछु कविता २. राजेश मोहन झा- कविता- घुरना मोन पड़ैए
१.उमेश मंडल किछु कविता
हँसैत लहास
लहास माने मुइल
मुइल माने लहास
ई के नहि बुझत हठात्
गुम-सुम भेल छल जँए ओ
बुझाइत छल लहास तँए ओ
मुदा,
आब ओ बाजत
बजैत-बजैत हँसत
अहाँक कृतिपर
बनल संस्कृतिपर।
कविता
हम नइ बिसरब
अपन सनातन आ संस्कार
नहि बिसरक चाही अहुँकेँ अपन आचार
दोस बनब वा दियाद-बेहाल
आकि करब खाली हाल-चाल
तैयार भए गेल अछि सबालक महाल
अहाँ नै बुझै छिऐ
बनि जाउ दियाद
अहाँ करू किछु रियाज
पाँति राखू चारि याद
यौ दोस अहाँ आनू अपन होश
कए लिअ स्वीकार
हे यौ दियाद
हिया गुनि भरल
दियाद सुनि पड़ल
फाँट बीचमे आबि धूनि पड़ल
हट, हट, हट नै तँ घसक
फाँट करए उद्घोस
दुनू अपन ठाम बेहोश
मुदा,
तैयार भेल सोर-पोर
कल्याणले नहि जोर
अपन फाँटले ताबरतोड़।
बाधा-
विदा भेल मंगला पूभर
कान्हपर टँगने अछि साइकिल बाउलपर
कहुना कऽ लगिचेलक
लटपटाइत पहुँचल
धारक कछेरमे
बिनु पानिक अछि धार
चक-चक करैत अछि बाउल चारूकात
नाउ नहि बाउल देखि भेलै
मंगलाकेँ थोड़े होश एलै
अपन छूछ जेबीपर भरोस भेलै
आब टपैमे कोनो नइ हएत बाधा
पहुँचबे करब सरायगढ़क ओइपार
मुदा,
मंगला लसैक गेल घाटपर
नजरि दौड़ौलक अपन कोनो लाटपर
अपन जेबीमे देने हाथ
तकैए चारू कात
आब की करबै हौ बाप
ई तँ लेबे करतै घाटी
जेना लगैए एकरा उठल छै आँति
सुखलौ घाटक लेतै खेबाइ
नै देबै तँ देत ई रेबाड़ि
सहए भेल मंगला घुरि गेल
पछिमे मुरि गेल।
भोगी
नाच कराए बानर
चाउर खाए बबाजी
बीचमे तँए अछि सरोकारी
विकासक नाओपर भऽ रहल अछि नाच
मानसिकता, मानसिकता, मानसिकता
पसरल अछि चारूकात
नीक बात
किएक नै हुअए विकास
बिक रहल अछि चारूकात
ब्लड प्रेशर आ डायबिटीजक गोली
संगे-संग
तैयो बबे बनल छथि तियागी
भरि जीवन भोजन केलनि बैसारी
ऊपरसँ दवाइयोकेँ बढ़ौलनि बेपारी
भोग करैत-करैत भेल छथि अघोर
तइपरसँ रटना लगेने छथि ताबड़तोर
स्वर्ग जाए चाहैत छथि सोरपोर
हमरा बीचमे हुअए कोनो नै बाधा
हम सबदिन रहलौं मधुशाला
बनलै तँ अछि विचारशाला
जइमे लटकल अछि बड़का ताला।
छठि
पोखैरक चारूकात
बनौलक गौआँ घाट
भरल पथिया लऽ धेलक सभ बाट
पहुँचल सभ हाली
सजेलथि अपन-अपन डाली
जरबाक लेल तैयार भेल दिआरी
हाथिओ केलक अपन तैयारी
जरैत कुरनीपर दीप धेलक माथपर
अछि आथी बैसल आइ घाटपर
टौकना, खमरूआ, सुथनी, हरदी, आदी
सभ पुराओत अपन-अपन फर्ज
चुकाबए चाहैत अछि अपन कर्ज
सूर्यकेँ देत सभ अर्घ।
फंदा
जखने करब नखरा
सभ कहबे करत हमर दऽ दिअ बखरा
जँ अहाँ रहब शांतचित
भेटत अपन सभ परचित
करब अहाँ कल्याणक काज
सभकेँ हेतै अपने-आपपर लाज
लाज सिखबैत अछि काज
आ मुँहो मोड़ैत अछि हठात्
भऽ जाइत अछि कोनादन
धऽ लैत अछि अमती काँटसन।
धर्मात्मा
धर्मात्मा होइ छथि तियागी
तियागी कहल केकरा जाए यौ भैयारी
वएह ने
जे केलनि तियाग
आकि ओ
जे भाेग केलनि वेसुमार।
मजदूर, हरबाह
भिनसरसँ साँझ धरि
सभ देह धुनैए
उचित बोनि मात्र दू सेर पबैए
एक सेर बेच लऽ दोकान जाइए
नोन, तेल, हरदी, गोटी किनैए
बचलाहा एक सेरसँ सभो परानी पेट चलबैए
भरि दिन तँ ओहो खटबे करैए
अहीं कहू,
ई केहेन मशीन एले
हिसाब जोड़ैकाल
ऊपरे-ऊपर नजरि दौड़ौलकै
एकर तियागपर नजरि नै खिड़ैलकै
भागीकेँ धर्मात्मा कहि गेलै।
खास
खास जगहक खास आदमी
खास जिनगीमे खास बात
देशक नामपर भऽ रहल अछि ई खास
मुदा
जखने देश एक परिवार
सभकेँ चाही रोजगार
खुशी चाही सबहक घर-द्वार
आकि इहोमे करबै बेपार
गुजरि गेल मध्यकाल आ भक्तिकाल
मुदा
पाछु मुँहे लुढ़कल किएक जाइ छी यौ महराज।
लघु कविता-
प्रकाश
ज्ञानक परकाश
जाइत अछि ओत्त तक
जत्त कियो नहि जा सकत हठात्
मुदा
ज्ञानो भऽ जाइत अछि गुलाम
सांकृत्यायन पड़ै छथि मोन घराम।
(2)
हनहनाइत, भनभनाइत ओइ स्वरकेँ
सुनैले नहि छथि कियो तैयार
जाहिमे मात्र ओ मात्र गाओल जाइत अछि
सनातन गीत
कियो नहि बनए चाहैत छथि मीत
करए जे पड़तनि हुनक दर्दसँ प्रीति।
(3)
भकोभन ओइ अन्हार कोठरीमे
जइमे काजर सन कारी राति दिनो कऽ बुझाइत
अहीं कहु यौ भाय
तखन शीशामे कोना देखाएत
ओकर चित्र कोना अएत?
श्रोता
भागवत वाचन शुरू भेल
श्रोता सभ आबि-आबि जगह लेल
चारि तरहक श्रोता बैसल छथि
अपन-अपन काज-ध्यानमे मग्न छथि
बाचको आ श्रोतो
एक तरहक श्रोता
भागवत सुनि नीकक प्रचार करै छथि
दोसरोकेँ नव गप्पसँ अवगत करबै छथि
मुदा दोसर
दोसर श्रोता अंगीकार करै छथि
मुदा बजै नहि छथि बिना पुछने
तेसर श्रोताक देखियो
बैसल छथि भागवत प्रबचनमे
मुदा ध्यान छन्हि व्यापार मंडलमे
घुरिआइत-नुरिआइत
स्पष्ट अिछ जे किछु नै पेला ई
प्रसादटा खेला ई
चारिम श्रोतापर करू विचार
ई छथि मुदा सदाचार
सुनितो छथि आ गबितो छथि
अपन जिनगीक क्रियासँ मिलैबतो छथि
ओतबे नहि
डेन पकड़ि पछुएलहाकेँ खिचितो छथि
आ
ठमकलहाकेँ धक्का सेहो लगबैत छथि।
कल्याणी
कल्याणी नाओसँ लगैत अछि जेना
केने हेती ई किछु एहेन काज
जहिसँ भेल हएत कल्याण
वा हेतै कल्याण
मुदा से भेल आकि नहि भेल
एत्ते धरि जरूर भेल
भाग्य-तकदीर सभसँ पैघ होइत अछि
से कहि जरूर गेलि।
देश
हमर देश
किछु लोक खेल रहल छथि धुरखेल
खुट्टीसँ आगाँ पड़ल बड़का देवाल
देवालक भीतरे लागल अछि मड़कड़ी चारूकात
इजोत चकचकाइत अछि
दिने जकाँ राइतो बुझाइत अछि
चुट्टी-पिपड़ी छोड़ि सभ किछु देखाइत अछि
मुदा
देवालक अंतिम खुट्टीसँ ओम्हरे
भऽ रहल अछि मनोरंजन
हेबक सेहो चाही
जरूरतसँ ऊपर उठि गेलापर
स्वभाविक अछि
मुदा देवालसँ इम्हर
बोन-झार सदृश्य मनुक्खक जरल रूपक
खेखनैत स्वर कियो सुनैबला नहि
चारि तरहक नाओ रचैबला लोक
देशक भीतरेमे बड़का देवाल ठाढ़ करैमे
अपनो उड़ैलनि होश
कऽ रहल छथि किलोल
हमर देश अछि अनमोल
एक्कैसमी शदीमे चलि रहल अछि ताबड़तोर
आश्चर्य
चहारदेवालीक भीतर मात्र ई गनगनाइत अछि बोल
भऽ रहल अछि भोजक बदला भोज
मात्र ओम्हरे अछि ई गरदमगोल
माने चहारदेवालीक ओहि पार
पुंगबैत अछि अपनाकेँ मनोरंजन योग
परती-पराँतमे रहएबला दिनकट्टू
जनमे काल भेल छल मइटूगर
छेँटगर होएबासँ पहिने
ई कहबैत छल दूधकट्टू
आइ दुनू हाथ जोड़ि
दू साए फीट एन.एच. सड़कक कातमे
हजारक-हजार कहबैत अछि दिनकट्टू
पएरमे चट्टी नहि छै पहिरैले
चलऽ मुदा पड़तै पक्की सड़कपर
शीशा-काँटी पसरल सड़कपर
खाइ-पीबैक नहि छै जोगार एकरा
आ नै छै कोनो रोजगार
चारूभरसँ खाली सुनै छै
- जल्दी जोड़ि लैह सरोकार तूँ
एक्केस्मी सदीक समाज तूँ।
भाषा भेद
हमरा सबहक माथपर
पसरल अछि मरलत्ती जकाँ किछु
कियो सुचिंतक नहि जे
चिंतन करता एहिपर
ई कथी लतड़ल अछि सभपर
मुदा दुर्भाग्य
एहिमे छिपल अछि किछु बात
जाहिमे अछि नहि एक्कोटा पात
सबहक कहब छन्हि
“ई आगाँ चलि कऽ
करत प्रदूसन साफ
जीबैक लेल स्वच्छ हवा-बसातक
अछि जहिना खगता
करत ई दूर सबहक बेगरता।”
देखा चाही ई दूर करत प्रदूसन
आकि करत सभकेँ निपत्ता।
२
राजेश मोहन झा 1981- उपनाम- गुंजन, जन्मस्थान- गाम+पत्रालय- करियन, जिला- समस्तीपुर, हास्य कविताक माध्यमसँ समाजक विगलित दशाक वर्णन। बाल साहित्यमे विशेष रुचि।
कविता
घुरना मोन पड़ैए
घुरना मोन पड़ैए रौ उगना मोन पड़ैए।
भागल बौरहबा खेत-पथार दिश,
नहि देखलक हमर अश्रुधार दिश,
कंठ पियासे सूखि रहल अछि
केओ दरस नहि दैए
कतऽ पड़ा गेलैं रौ बतहा
आनि कऽ कुरता पहिरा दे
एखनहिं समाद पठौलनि खलीफा
भांगक आश लगैए
रौ घुरना हमर बात तोँ माने
दौड़ चङेरी चूड़ा भरि आने
कहेँ झटहीकेँ भूजि देथि
भूखक आभास लगैए
राति भेल जुिन होउ निपत्ता
बुन्न झड़ै अछि आनू छत्ता
नहिं छूटत हथियाक ई झपसी
सभटा धान डूबैए।।
१.शिव कुमार झा-शिवकुमार झा टिल्लू २.मुन्नाजी-हाइकू ३.किशन कारीग़र
१.
शिव कुमार झा-शिवकुमार झा टिल्लू स्निग्ध-स्वाती
झिहिर-झिहिर ना हे पिया,
झिहिर-झिहिर ना!
झहरय स्निग्ध स्वातीमे बदरा,
झिहिर-झिहिर ना...!
परम सुहावन मास विरह िहय,
टपकए नेहक बुन्न
ललित पवनमे ठिठुरि रहल छी,
जीवन भऽ गेल सुन्न
टपकए विरहक अश्रुलाप ई,
झिहिर-झिहिर ना...
तृप्ति-तपित सितुआक कल्पना,
उपटल अर्णब तट मोती
अहाँ बहएलहुँ निरस जीवनमे,
किए अगम दु:ख सोती?
मिलनक आश कानए पैजनियाँ,
झुनुर-झुनुर ना....
कांति श्रवित माणिक्य बनल,
मदमत्त भेल गजराज
मुग्ध जहानक रम्य प्रहरमे,
फफकि गेलहुँ हे ताज!
तोड़ू वेदनाक डोरि ई,
झमड़ि-झमड़ि ना.....।।
(2) घटा बसन्ती
कूकू केर मादक स्वर सुनिते,
िसनेहातुर मन चहकि उठल
उबडुब आनन हरियर कानन,
“घटा वसन्ती” धार बहल।
तितली रूनझुन नीरज रससँ
कएलक झंकृत सकल जहान
अपन मनोरथ सिद्धि करऽ लेल
प्रेयसी कएल त्रृतुराजक गान।
उमड़ि रहल नव तरूणी यौबन
रसस्नात भेलि चंचला-गात
पुष्प सेजपर मिलन सम्मोहक
चभटि गेल अछि दुनू पात।
जर्जर वृद्धा आ सुखल वृद्धमे
धुरि आएल पुनि कामुक जान
भागि गेलनि धर्मराज देखि कऽ
ऋृतुराजक ई अनुपम शान।
हॅसी-खुशीसँ चल-अचल जीवन,
ताकि रहल होरी केर वाट
जड़-चेतनक सुरभित कांति देखि कऽ
कएलक गान हृदयसँ भाट।
रंग-विरंगक अवीर गुलाल संग
नाचि रहल उन्मादित होरी
सृष्टि मनोहर चक-चक तरूवर
मॉतल चह-चह चहुँदिशि जोड़ी।
चैतावरक आेंघाएल कलरब
अग्निदेव केर जुआरि बढ़ल
एकल जहानमे कलकल जीवन
मादकता स्वर्गोकेँ जीतल।।
२.
मुन्नाजी हाइकू-
१
नाम बदलि
साइबर क्राइम
पकड़ा गेला
२
गहींर दोस्ती
जग कैल विध्वंश
खुशी भेल
३
बाढ़ि आयल
मुख्यमंत्री धनिक
चुड़ा बटल
४
अइंठ धो कऽ
कोठा कोठामे भेल
प्रतिष्ठा पैघ
५
मुसक बिल
सत्तामे भागीदारी
वास साँपक
६
निसाँ चढ़ल
सब सत्य कहलनि
लोक सभ्य
७
छुच्छे प्रचार
जातिक फुटौव्वल
मिथिला राज्य
८
अल्लाक देन
पेट भरै लए मारि
सड़क छाप
९
गारि गञ्जन
पेट भरैए एतै
कान मुनै छी
१०
जतन भरि
पोसि पालि रखलौं
निभरोस छी
११
एहेन पढ़
दु टा बरु समाज
बचौ घर
१२
अंग्रेजी असर
मैथिली बिसरल
चाही मिथिला
१३
नवका पीढ़ी
तकनीकीक जोर
संस्कारहीन
१४
आक्रान्त शहर
सरकार उदास
असगरे छी
१५
घटल जग्गह
बनै बीस मंजिला
लोक बढ़ल
१६
पूत कमाऊ
बढ़बैए इज्जत
शेष बेकार
१७
बढ़लै मन
मंगल पर लात
नीचाँ प्रदूषण
१८
सुख सुविधा
बढ़बैए बीमारी
गमैये नीक
१९
पाइक जोर
वासमति चर्चित
भाते भूखल
२०
तुम्मा फेरी
सटक सीताराम
नाम गायब
३.
किशन कारीग़र परिचय:-जन्म- 1983ई0 कलकता मे मूल नाम-कृष्ण कुमार राय किशन’। पिताक नाम- श्री सीतानन्द राय नन्दू’माताक नाम- श्रीमती अनुपमा देबी। मूल निवासी- ग्राम-मंगरौना भाया-अंधराठाढ़ी जिला-मधुबनी बिहार। हिंदी मे किशन नादान आओर मैथिली मे किशन कारीग़र के नाम सॅं लिखैत छी। हिंदी आ मैथिली मे लिखल नाटक आकाशवाणी सॅं प्रसारित एवं दर्जनों लघु कथा कविता राजनीतिक लेख प्रकाशित भेल अछि। वर्तमान मे आकशवाणी दिल्ली मे संवाददाता सह समाचार वाचक पद पर कार्यरत छी। शिक्षाः- एम फिल पत्रकारिता एवं बी एड कुरूक्षे़त्र विश्वविद्यालय कुरूक्षेत्र सॅं।
बँटवारा
कियो धर्मक नाम पर कियो जातिक नाम पर
कियो पैघक नाम पर कियो छोटक नाम पर
एहि समाजक किछू भलमानुस लोक
अपने मे कऽ लेने छथि बँटवारा।
हे यौ समाजक कर्ता-धर्ता लोकनि
किएक करेलहुॅं अपने मे बटवारा
आई धरि की भेटल एतबाक ने
छोट पैघक नाम पर अपने मे मैथिलक बॅंटवारा।
आई धरि शोक संतापे टा भेटल
आबो तऽ बंद करू एहेन बँटवारा
नहि तऽ फेर अलोपित भ जाएत
मिथिलांचलक एकटा ओ मैथिल धु्रवतारा।
हे यौ मिथिला केर मैथिल
जूनि करू अपने मे बँटवारा
ई मिथिला धाम सबहक थिक
एक दोसर केर सम्मान करू ई बड्ड निक।
हम कहैत छी मैथिलक कोनो जाति नहि
सभ गोटे एक्के छथि मिथिलाक धु्रवतारा
नहि कियो पैघ नहि कियो छोट
आई सभ मिलि लगाउ एकटा नारा।
कहबैत छी बुझनुक मनुक्ख मुदा
बँटवारा कऽ तकैत छी अपने टा सूख
एक बेर सामाजिक एकता लेल तऽ सोचू
गोत्र सगोत्रक फरिछौट मे आबो तऽ ओझराएब छोरू।
हम छी मिथिला केर मैथिल
हमर ने कोनो जाति अछि
सभ मिली मिथिला केर मान बढ़ाएब
आई सभ सॅं "किशन" एतबाक नेहोरा करैत अछि।
एक्कईसम शताब्दी नवका एकटा ई सोच
नहि कोनो भेदभाव नहि कोनो जाति-पाति
सभ मिली हॅसी खुशी सॅं करब एकटा भोज
एक्के छी सभ मैथिल गीत गाउ आई भोरे-भोर।
सबहक देहक खून एक्के रंग लाल अछि
मुदा तइयो जातिक नाम पर बँटवारा भऽ गेल अछि
सपत खाउ आ सभ मिली लगाउ एकटा नारा
आब नहि करब धर्म जातिक नाम पर हिंदुस्तानक बँटवारा।
१.सतीश चन्द्र झा- सौंसे बिहार एखनो बेहाल। २.रामविलास साहु कविता-कोशीमे समाएल जिनगी
१.
सतीश चन्द्र झा सौंसे बिहार एखनो बेहाल।
दुख व्यथा बिहारक बाँटि सकय
ओ जन्म कहाँ ल’ सकल लाल।
सौंसे बिहार एखनो बेहाल।
सौंसे बिहार एखनो बेहाल।
बीतल चुनाव सरकार बनल
मत पड़ल विकासक आशा मे।
जातिक टूटल सभ समीकरण
डूबल प्रतिपक्ष निराशा मे।
उतरल नभ मे नव आशा के
जागल प्रभात नव किरिण लाल।
सौंसे बिहार एखनो बेहाल।
अछि भाग्यहीन सत्ते बिहार
नहि बदलि सकल तकदीर एकर।
रौदी अकाल बाढ़िक प्रकोप
दाहर सुखार तस्वीर एकर।
नहि जानि विधाता छथि लिखने
की ल’ बिहार के वक्र भाल।
सौंसे बिहार एखनो बेहाल।
नक्सल बादी के बंदुक सँ
पसरल अछि सगरो केहन आगि।
छै राजनीति के खेल बेल
नहि त’ ई जइतै कतौ भागि।
जौं नहि रोकत सरकार आब
रक्तिम भ’ उठतै नदी ताल।
सौंसे बिहार एखनो बेहाल।
उतरत उद्योग एतय कहिया
बिजली कहिया चमकत सगरो।
मजदूर जाएत नहि दूर देश
रोजगार एतय भेटत सगरो।
भूखल दूखल के जीवन मे
कहिया लौटत सगरो सुकाल।
सौंसे बिहार एखनो बेहाल।
साहित्य हमर मरि रहल आइ
अछि कहाँ सृजनता ओ पहिलुक।
सम्मान लेल छथि लीखि रहल
अधिकांश लोक व्यर्थे एखनुक।
अप्पन भाषा के मान लेल
कहिया जागब बाँटब गुलाल।
सौंसे बिहार एखनो बेहाल।
२
रामविलास साहु कविता-
कोशीमे समाएल जिनगी
बाउलक ढेरपर हमर गाम समाएल
कोशी पेटमे हम छी बिलाएल
कड़ोरो दिलक बनेने अछि फटेहाल
मैथिली छी हमर भाषा कऽ पहचान
मुदा,
कोशी बनल अछि विकाशक बाधा
मैथिलीक पोथी अछि कोशीमे समाएल
पढ़वाक नहि अछि मौका कोशी देत धोखा
जिनगी बनल अछि हमर कंगाल
झौआ, पटेर, काश खगरा हमरासँ करैए रगड़ा
बाल बच्चाक जिनगी बाउलमे समाएल
की खाएब की पीयब सोचेत छी पचताइत
जखन खाएब पीयब नीक
तखन सोचबो करब नीक
अखन तँ नहि अछि गाम घरक ठेकान
जान पहचानसँ दूर रहे छी
ई कोशी हमर बनल अछि जंजाल
हमर भविष्य बाउलपर बनल अछि बेकार
तैओ नहि अछि कोशीकेँ दया
बाढ़ि-पानि अछि हमरा करैत हानि
गाम घरक ने कोनो ठेकान
कोशीमे घुमैत हमर जिनगी बनल अछि घुमन्तु
हिंसक जीब-जन्तु बीच बनल रहै छी रमनतु
हमर नहि कोइ बाटैए दु:ख
सरकारो बनल अछि बेमुख
हम छी बेसहारा कोनो नहि अछि सहारा
हम बाल-बच्चा संग बनल छी बेचारा।
कालीकान्त झा बूच
अंतिम- कविता
कहिया धरि उदासी
हम प्रिय परदेश वासी
कोना ई मधुमास काटब
निरस काटब पकड़ि पासी
रमस बहसल वाटिका अछि
भ्रमर बहसल रंगसँ सखि
हम तँ दहसलि अपन मोनक
उठल सुप्त तरंगसँ सखि
जे छलि सुअंग स्वामिनि
से भेली अनंग दासी
नव वसंग उमंग आएल
पूरल सबहक कामना सखि
शूलसँ घेरल मुकुलवत
हमर तँ अराधना सखि
चलि रहत चलिते रहल
नहि जानि “कहिया धरि उदासी।”
गंगेश गुंजन
राधा- २६ म खेप
समय स्वयं सिरमा मे रखने जलक खाली बासन,
अछि पियास सँ बिकल मुदा सबटा इनार आ पोखरि
कोना जानि ने बिसरि गेल अछि तकर प्रयोग आ रक्षा
प्रकृत जन्म भेल इच्छाक नहि क' रहलए लोक निबाह
अछि समुद्र मे माछ जकाँ पर तृप्त ने छैक पियास
केहन परिस्थिति केहन बुद्धि केर की बनलछि बिडंबना
केकरो बुझबा मे नहि आबय ई नव युग केर रचना
कि सब कोना कोन कोन विधियें पसरि रहलए घर-घर
सलिलक स्वतः धार बहइत जे छल बहैत सब
जीवन ठमकल ठमकल दुःक्ख मे भारी डेग-डेग पर क्षण-क्षण
बिनु थकनीयें बैसि जाइत अछि सोच मे पड़ जाइत अछि
बिलकुल्ले पसरल जाइत ई नबका मोनक रंग ढंग
बिना युद्ध केर प्रतिदिन प्रति घर भ' रहलए जे हताहत
घोर अशान्ति भरल बेशी मन चिन्तें अछि उद्विग्न-उन्मन
कारण तेहन नुकाएल गोपन बूझि ने पाबि रहल लोक
अधबयसे मे युगक ताल देखि भोगि नचारी गबइत लोक
समय बनल जाइत अछि दिन-दिन स्वयं मूर्त्ति लाचारीक
सभ शरीर सँ प्राण जेना सूखल जाइत अछि पल-पल
अधिक लोक जेना बनि चुकलए बौक, कतोक बहीर
शेष जीवनक नब ढर्रा सँ आतंकित आ अधीर
आब परस्पर गौआँ-गौआँक रहि ने गेल आप्तता
सब जेना सब सँ नुकाएल ताकय बचबा केर रस्ता
तें अनेर मे आओर अकारण पसरि रहल अछि दूरी
ककरो पर ककरो ने जेना बाँचल अछि आब विश्वास
बहुत लोक गुम्म, बेशी दुखिया आरो बहुत उदास
ई कोन युगक प्रवेश भेल अछि ओहन शान्त जीवन मे
कर्मतृप्त मनुखक समाज मे केहन अशुभ से होएब
बेशी हाथ कपार धेने चिन्तित बड़ ब्याकुल-ब्याकुल
प्रत्यक्षें तँ शान्त जेना किछु भेले नहि हो किछुओ
किन्तु लोक जीवनक अंतः उद्वेलित आगि जरैत'छि
सब सहिये रहलए लेकिन व्यथा अपन ने कहैत'छि
देह मोन आ प्राणक मध्य मे की अछि जीवन केर सू्त्र
अछि दर्शन,आस्था बा युग सँ कहल-सुनल अनुबन्ध
नहि बूझल होइछ बेशी क्षण एखन उठाएब प्रश्न
देह विकलता मे अपना द' अनमन अपने सन
मारि ठहक्का हँसय प्राण चकित चुपायल मोन
सभ अछि सबमे तैयो अपना अज्ञाने लाचार
जुड़य सभक अस्तित्व एकहि मे एक तंत्र संचार
बोधक भिन्न स्थिति रहितहुँ अछि एक बिन्दु पर सम
पूर्व गान केर हेतु जेना स्वर-शब्द लयक हो नियम
बिना प्रयासे स्वतस्फूर्तित ओना होइछ सब क्रिया
किन्तु आइ काल्हि ताहू मे होअय लागल व्यतिक्रम
देह-मन आ प्राणक मध्य घटि रहल जेना हो समन्वय
पहिने छल सब क्रिया बोध आ निष्पादनक सहजता
आइ जेना टुटि गेल सूत्र हो आपसक तत्परता
एक देह-मन-प्राणक सृष्टिक सुन्दर एहन महल मे
आब जेना क' रहल वास हो तीनू एकसर एकसर
तीनू ताकि लेने हो जेना अप्पन निष्क्रिय एकान्त
तीनू मे बाजा भूकी नहि तीनू निपट अशान्त।
ई अनुभव कि खसल एकाएक कोनो मेघ सँ पानि जकाँ
ई अनुभव कि जीवन मे आएल नोतल कोनो नोथारी
ई अनुभव कि आयल कोनो बनि समधियान केर भार मे
ई अनुभव कि आबि रहलए कीनि क' हाट-बजार सँ
ई अपनहि देह-मन-प्राण मे एतेक समाद हीनता
सोझाँक सहज प्राप्त सुख पर्यन्त बनल जाइत अछि दुर्लभ
कारण किछु प्रत्यक्ष कहाँ अछि कहाँ साफ किछु लक्षण
मात्र अदृश्य संदेहक छाया सँ असुरक्षित आँगन
दूरी बढ़ल जाइत अपना मे, बिन बातहिक परस्पर
टूटल संबंधक स्थिति सम आँगन मे घर घर
चौंकलि राधा, दुब्बरि गता उठलि चललि डगमग डग
ई अनुभव आएल अवश्ये.बड़ बुधियारी बाटे।
हँ बुझबा मे अबैत अछि आब ई आ'ल हाटे- हाटे इ आएल हाटे- हाटे।
हाट बनल नब बाट जेना जीबाक सब तरहे।
सभ बाट पर आब जनमि रहलए बन-झाँखुर। लोक लाचार । असमंजस मे - की करी, की नहि, कोन बाट चली एहि दुःख-दुविधा मे जे एक तँ ओहनहुँ छलैक कहाँ किछु विशेष हाथ आब तँ जेहो छलैक अपन अधीन, अपना योग्य, सभ भेल जा रहल छैक बेहाथ। किछु तं अपनहि घरक नवताक अन्हर-बिहाड़ि मे आ किछु भरि समाजक बदलि रहल दृष्टि आ व्यवहारो मे। यद्यपि कि सभक दुःख-दुविधा छैक रंग-रूप एक्के। मुदा से नहि बूझि पबैये लोक एकरा एना भ' क 'एहि रंग मे जे भ' रहलए सब किछु अंग-भंग। जीवन यापनक पारंपरिक बाट पर चलैत, सहैत जाइत सबटा नबका-नबका आघात जे प्रत्यक्ष मे तं छैक बड़ गंहीर स्नेहक स्पर्श, मुदा प्राण के थकुचि रहल छैक एक एक पल। कत' सँ ई कोन रोगाह वायु बहैत आयल छैक सभक बुद्धि बौआयल सभक हृदय घायल छैक। ताहू मे बेशी तं बनल छैक विडंबना ई, एहि सबक जड़ि छैक आन नहि, अपनहि सब ई यथा-पुत्र,पुत्रबधू, आ संगी-साथी सब। बहि रहल एहि बसात संग बेश गदगद अछि, बिनु बुझने एकर असरि। काल्हुक भविष्य पर अधिसंख्य नब लोक अपन-अपन फूकि रहलए घर। के बुझबय ? बूझक सेतु पुरना लोक सबकें राखल जा रहल अछि कतिया क'। नबके लोक सम्हारि रहल अछि नब युगक रासि। बढ़ा रहल गाड़ी के हाँकि क' एहि तरहें जेना कोनो दुपहियाक गाड़ी नहि, समस्त पृथ्वीये होथि गुड़का रहल, अपना सामर्थ्ये,अपनहि बुद्धि-ब्योंत सँ-आगाँ। समाज, बयसक पुरान ठकमूड़ी लगौने बैसल छथि चुपचाप, सबटा देखैत!
तँ कि ई प्राण जे थकुचल जाइत बुझाइत अछि दिन राति से नहि थिक एकमात्र हमर?लोकोक बहुत छैक आन अपन। तँ कि छैक व्याकुल हमरा सँ पृथक किछु लोक, तँ कि ई संसार, समाज बनल छैक ओतहु आन? छोड़ि सर-संबन्धी कि ओतहु कएने छै असकर अपनहि दुःखक ज्वाला मे कि जरैत अछि आनो घर एहन विपत्ति नव प्रकारक आ पहिले पहिल स्वभावक, तँ कि अछि प्रारंभ ई अनुभव केर नबका आवक-जावक? चीन्हि ने पाबी हम यद्यपि एकरा कोनो आँखिक विचार सँ द्विविधे दुविधा अछि प्रति पल प्रश्न सोझ सन्सार सँ अछि एही मे शुरू मनुक्खक कोमल संवेदन सब मौलाएब, टूटि खसब गाछ सँ पात जेना सुखायल क्रमशः पातक संगहि डारि, ध'र आ पूरा गाछ, सुन्न कएल जाइत जीवन रस सँ धराशायी भ’ जाइछ गाछ तँ तथापि मरि-सुखा क' रहि जाइत अछि उपयोगी जाड़नि बनि जरि चूल्हि बनाबय, आबाल बृद्धक भोजन, जड़काला- हाड़कंपौआ ऋतु मे धधकि क' दिअय जीवनक ताप, मुदा मनुख-जीवन, ई देह- समस्त बिलक्षण, प्रकृतिक अनुपम सृष्टि पृथ्वी पर अनुपम जीवित सेहो एहन निरर्थक बनल अकार्यक देहक जीवन हो अंत तखन पर्यन्त लिअय फेरो समाज,परिवार,प्रकृति सँ काँच-सुखायल गाछ जे होइछ काठ, देह कें अंतिम परिणति धरि पहुँचाबय मे,शरीर-मृत मनुक्ख शरीर डाहै मे करबा लैत अछि खर्च जाइतो-जाइतो।
-'हम-हम नहि राधा, तों..की सब सोचैत छें ...पुछैत राधा, कहैत राधा,सुनैत राधा..एखनहि केहन छल आत्म मुखर सक्रिय स्पन्दित ! मिझा गेल डिबिया जकाँ रहलए केना धुँआइत, प्रश्नक कोनो टा उत्तर नहि, कोनो टा ने बात-संवाद मात्र दीर्घ निश्वास-दीर्घ निश्वास-'कोना छी अहाँ कृष्ण, कहाँ छी, किएक छी ? एहन समय हमरे जीवन मे किएक एतेक रास जेहो नहि लेने ऋण तकरो भरि रहल छी सूदि, मूर धएल जसक तस अदृश्य कोनो बणिकक हमर पल, दिन, मास बर्ख चुकबैत अपन एक-एक साँस । एहन स्थान किएक बनि गेलय इएह हमर ई मन? भरि संसारक बस्तु, व्यक्ति, व्यक्तिक सब कार्यकलाप, क्रीड़ा आ सब कर्मक बनि गेल अछि सुलभ आँगन। जेकरा जखन सुभीता आबय क' लिअय व्यवहार। हमही आँगन हम मुदा ठकमूड़ी लेने ठाढ़ । कहि ने सकी केकरो निजताक बोझ, एकर संताप, बुझा सकी ने अपन एहि वर्तमानक कुटिल यथार्थ , हमर अर्थ छिड़ियाएल जेना कृषकक बीयाक छितनी-पथिया हो, बागु कर' खेत जाइत काल बाटे मे गेल हो हेराय, जतबा जे बिछि-समेटि सकलौं, हँसोथि-हँसोथि, खिन्न मन कर्माहत देहें यथोपलब्ध बीया कयलौं बागु ! घुरल हो ओहि प्रचण्ड रौद कें दैत ललकार घर आ बनल तथापि जीवन क्रम मे गाम मे स्थिर आशान्वित, फसिलक भावी उपलब्धिक दिस आश्वस्त, मुदा पुनि जतबो बीया छीटल गेल हो, घामे-पसेने खेत जोति तैयार कएल गेल मे तकरो सब कें चुनि क' ल' चल गेल हो चिड़ैक महा हेंज, एम्हर एक दिस निश्चिन्तता मे गबैत मनक भवितव्य, ओम्हर दोसर दिस सुन्न कएल बनि गेल हो खेतक गर्भ ! एम्हर निरन्तर बीया मे अंकुरयबाक , माटि के फोड़ि जन्मबाक-बढ़बाक, बढ़ि क' फसिलक गाछ विकसवाक अहो दिवस मर्मांतक प्रतीक्षा...ओम्हर जन्म सँ पहिनहि कोखि कें रिक्त करैत काल-गति, ई एहन हमरे टा किएक कर्माहत हमरे टा किएक वर्तमान ! आकि बोगि रहलए एहने आ यैह व्यथा आनो आन ?' सोचैत राधा छोड़लनि नमहर श्वाँस..। जानि ने कखन-कोना लागि गेल रहनि राधा कें आँखि। नहि जानि कखन बैसले बैसलि ओंघड़ा गेलीह ओ पटिया पर।
....जारी
No comments:
Post a Comment
"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका http://www.videha.co.in/:-
सम्पादक/ लेखककेँ अपन रचनात्मक सुझाव आ टीका-टिप्पणीसँ अवगत कराऊ, जेना:-
1. रचना/ प्रस्तुतिमे की तथ्यगत कमी अछि:- (स्पष्ट करैत लिखू)|
2. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो सम्पादकीय परिमार्जन आवश्यक अछि: (सङ्केत दिअ)|
3. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो भाषागत, तकनीकी वा टंकन सम्बन्धी अस्पष्टता अछि: (निर्दिष्ट करू कतए-कतए आ कोन पाँतीमे वा कोन ठाम)|
4. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो आर त्रुटि भेटल ।
5. रचना/ प्रस्तुतिपर अहाँक कोनो आर सुझाव ।
6. रचना/ प्रस्तुतिक उज्जवल पक्ष/ विशेषता|
7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।
अपन टीका-टिप्पणीमे रचना आ रचनाकार/ प्रस्तुतकर्ताक नाम अवश्य लिखी, से आग्रह, जाहिसँ हुनका लोकनिकेँ त्वरित संदेश प्रेषण कएल जा सकय। अहाँ अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर सेहो पठा सकैत छी।
"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि।
अपन टीका-टिप्पणी एतए पोस्ट करू वा अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर पठाऊ।