हमर टोल- राजदेव मंडल
८
‘ठक-ठक-ठक’
गाछ कटि रहल छै। झमटगर आमक गाछ।
कटबा रहल छै- झटकलाल मड़र। कुरहैड़क चोटसँ डारि-पात थर-थर काँपि रहल अछि। चिड़ई-चुनमुनी
फड़फड़ा कऽ उड़ि रहल छै। जार-जार कानैत जेना कहि रहल छै-गाछ।
“हौ,
हमरा नै काटह। हमर कोनो दोख नै। हम तँ तोहर सहायक छीयह। मीठ-मीठ फल, पवित्तर हवा, शीतल छाँह दैतै रहए छी। बरखा
बूनीमे हमर सहयोग देखिते छी। तैयो हमर जान लऽ रहल
छी। आह...
हमरा बहैत खूनकेँ कियो नै देखि
रहल अछि-
हौ...।”
जल्लाद जकाँ दू गोटे चला रहल अछि-कुरहैड़।
गाँजाक निसाँसँ दुनू आँखि लाल। घामसँ नहाएल। चाहै छै- जलदीसँ
जल्दी गाछकेँ गिरा दी। मौतक निन्न सुता दी।
किछु दूर हटि कऽ झटकलाल मड़र ठाढ़ अछि। जल्दी गाछ कटबाक
आग्रह कऽ रहल छै। जेना गाछ नै कोनो भरिगर बोझ ओकरे कपारपर लाधल छै।
झटकलाल मड़रक छोटका बेटा अजय जेना गाछक करूण क्रन्दन सुनि
लेलक। ओकरा पाएरमे तेजी आबि गेलै।
“बाबूजी! आमक गाछ किएक कटबा रहल छिऐ?”
झटकलाल मड़र घूमि कऽ देखलक आ कनी गम्भीर होइत बजल-
“ई अपन गाछ नै छी अजय। ऐपर जीबू बाबूक अधिकार छन्हि।”
“जीबू बाबूकेँ?”
“हँ,
हुनके दक्षिणामे देल गेल छै। बरिसोपूर्व ताेहर दादाजी केँ
श्राद्ध-कर्ममे आत्माक शांति आ मुक्ति लेल। दान-दक्षिणामे देलाक बादसँ हम सिरिफ रखबारि करै छिऐ।”
अजयक व्यंग्यसँ भरल स्वर निकललै-
“आ आम पकलापर अहाँ घर पहुँचा दैत छिऐ- वाह..।”
“हँ हौ। ब्राह्मण देवता छथि। हमरा ईमानदारीपर गाछ छोड़ने अछि। हुनके सबहक
हाथमे तँ मुक्ति छै। ओ जँ हमरापर विश्वास करै छथि तँ हमरो कर्तव्य निमाहए
पड़तै किने...।”
“अहाँ बताह भऽ गेल छी बाबूजी। हम गाछ नै काटय देब।”
“फेर,
अहाँ पढ़ि-लिख कऽ की बजै छी। आगिसँ खेल करए चाहै
छी। सराप दऽ देत तँ अगिला जनम तक पड़ि जाएत। जिनगीकेँ सफल करैले बहुत बात सहए
पड़ै छै।”
“गाछ केकरो। रखबारि कोइ आर करए। डरे फल दोसरठाम पहुँच जाए। अहाँ डेराएल छी।
आन्हर छी।”
झटकलाल मड़र तमसा गेल।
“दू अछर अँग्रेजी पढ़ि लेलहक तँ हमरा आन्हर बुझै छहक। पात्रकेँ देल दान छिऐ।
तेकरा हम बैमानी कऽ ली। अधरमी कहीं कऽ।”
नै सुनने छहक- ‘जो जस करहि सो तस फल चाखा।’
“हँ,
हँ बुझलौं। गाछक सेवा अहाँ करै छी। फलक रखबारि अहाँ करै
छी। ओ फल खाइत अछि- जीबू झा। ई छिऐ कर्मक फल।”
“हमरा फलक चिन्ता नै अछि। असलमे
गाछ हमर नै छी। हुनका लकड़ीक जरूरत छन्हि। अपन गाछ कटबा कऽ लऽ जा रहल छथि। दान-दक्षिणामे देल गेल छन्हि तेकरा हम केना रोकि देबनि। एहेन जुलुम हमरा बुत्ते नै हएत।”
“बाबूजी, जुलुम
तँ अहाँसँ भऽ रहल अछि। जीअत गाछकेँ काटनाइ पाप करम छिऐ। अपराध छी। पर्यावरण दूषित
भऽ रहल छै। गाछ-बिरिछक अभावसँ प्रदूषण फैल रहल छै। अहाँ गन्दगी फैलाबैमे
मदति कऽ रहल छिऐ।”
“हम गन्दगी फैला रहल छिऐ की? अधरमी
जकाँ बात तूँ करै छहक। पाप-पुण्यक गियान नै छह तोरा। तोरे सन लोकक
संख्या जँ धरतीपर बढ़ि जेतै तँ ई धरती थरथर काँपए लगतै।”
अजय अपन केश नोचैत धुनधुना कऽ बजल-
“भैंसक आगाँ बीन बजेलासँ की फैदा। किन्तु गाछ तँ नै काटए देबनि।”
फानि कऽ आगू गेल आ लपकि कऽ कुरहैड़ पकड़ैत बजल-
“रूकि जा। गाछ नै काटि सकै छह।”
कनीए दूरपर धर्मानन्द बाबू आ ढोढ़ाइ
गुरुजी दू गोटेसँ गप
कऽ रहल अछि।
झटकलाल मड़र जोरसँ शोर पाड़ैत अछि-
“यौ धर्मानन्द बाबू सभ गोटे एम्हर आउ। देखियौ हमर बेटा पागल जकाँ करैए। गाछ
नै काटए दइए। कहू जे जीबूबाबूकेँ की जवाब देबनि।
कोनो तरहेँ एकरा ऐठामसँ हटाउ।”
धर्मानन्द लग आबैत बजल-
“जीबूबाबू तँ हमरे दुआरिपर छथि। हमरे टाएर गाड़ीसँ हुनकर लकड़ी जेतै। बहलमानक
खोजमे आएल छेलौं। घोंचाय तँ गाड़ी चलबैमे माहिर
छै। ओकरे ताकि रहल छी।”
फेर फुसफुसाइत स्वरमे आगू बजल-
“अहाँ तँ जानिते छिऐ मड़र। टाएरगाड़ी तँ घोंचायकेँ नाओंसँ उठल छेलै। ऑफिसमे ओकरे नाओं दरज छै। ओइ दिन- हम तँ चलाकीसँ आनि लेलौं। संदेह होइत अछि आब। कहीं बुझि जाएत तँ गाड़ी घेर
लेत।”
झटकलाल मुड़ी झुलबैत कहलकै-
“धुर,
ओकरा केना मालूम पड़तै। मुरूख-चपाट
छै। एम्हर जीबूबाबू अपना सबहक संग छथि। किछो नै हेतै। मुदा
पहिले हमरा ऐ झंझटिसँ निकालू। अजयकेँ ऐठामसँ ठेल-ठालि कऽ हटाउ।”
ढोंढ़ाय गुरुजीकेँ संगे आरो दू गोटे आबि गेल।
झटकलाल मड़रक इशारा पाबि सभ गोटे एक्केबेर अजयकेँ पकड़ि
लेलक। घिंचैत-ठेलियबैत ओइठामसँ दूर लऽ जेबाक प्रयास करए लगल।
“अइठामसँ चलह। तूँ पढ़ूआ बाबू छहक। तोरा समाजक सभ गप
नै बूझल छह। जीबूबाबू साधारण लोक नै छथि। पैघ पैरवीबला बेकती छथि। हमरा सभकेँ केतेक बेर नीक-अधलामे बचौने छथि।”
अजय ओइठामसँ घुस कऽ नै चाहैत छै। विरोध कऽ रहल छै। ओकरा
सबहक बन्धनमे छटपटा रहल अछि। किन्तु बन्धन ढील पड़ै तब ने।
“कहै छी हम। हमरा छोड़ि दिअ। नै तँ बड्ड खराब बात भऽ जाएत। पाछू हमरा दोख नै
देब।”
झटकलाल मड़र ठेलैत कहलक-
“चहल अजय चलह। काज नै रोकहक। सुनह- धरम करैत जँ हुए हािन, तैयो नै छोड़ी धरमक बानि।”
अजय जालमे फँसल चिड़ै जकाँ फरफरा रहल अछि। जाल तोड़बाक
बारम्बार प्रयास कऽ रहल अछि। असोथकित भेलापर देह थिर भऽ गेल। मुदा बुइध तेजीसँ
दौड़ए लगल। घर-दुआरि-गाम-शहर-राज्य-देश आरो आगू दिस...।
mmm
९
धर्मडीहीवाली केतेक दिनसँ
कोशिशमे लगल अछि किन्तु मौका हाथ नै लगै छै। ओकर विचार छै जे असगरमे सभटा बात
खेलावन भगतकेँ साफ-साफ सुनाबी। परन्तु झार-फूँक करबैबलाकेँ कोनो अभाव छै। आ गप हाँकैबला
तँ ओकरे लग बैसत। कखनो सुनहट नै। एेसँ पहिने महतो बाबाक स्थानमे डाली लगौने रहए।
घोड़ा साफ-साफ कहि देलकै-
“हम की करबौ। कोखि मारल छौ।” फेर दवाइ करबैक विचार भेल। नीक डाक्टर
गाममे रहै नै छै। शहरक बड़का भारी डाक्टर लग जाएत तँ ओतेक रूपैआ केतएसँ
लाबत? संगे के जाएत? रहत केतए अनभुआर जगहपर?
तैयो धर्मडीहीवाली निराश नै भेल छै। किछु दिनसँ खेलावन
भगतपर ओकर विश्वास जेना बढ़ए लगलै। लचारीमे केतेक
बेर विचारी करए पड़ै छै। हौ बाबू विश्वासे गुणे फल।
आखिर दस-दस कोसक लोक आबै छै। फलित नै होइ छै तँ
ओहिना? मरल-सुखाएल कोखि हरियर भऽ जाइत छै। जश-अपजश विधि हाथ।
सोझेमे तँ छै-नररी बुढ़ियाक पुतोहू। ओझा-गुणी,
डाक्टर-वैद्य, धाइम
सभ नकारि देने रहए। खेलावन भगत दूटा सन्तान होइक वाक दऽ देलकै।
समूचा धनुकटोलीकेँ ठकमुड़ी लगि गेलै। जहिया वचन पूरा
भेलै। कहए भगता आ पूराबए देवता।
ओना तँ ऐंठ खाइ छै आ झूठ बजै छै। सभ कुकरम देखिते छी। नचारकेँ विचार की। दस गोटेक बात तँ मानहि
पड़ै छै। चलतीमे तँ माटिओ बिका जाइत छै।
धर्मडीहीवालीकेँ तँ सोचि-विचारि
कऽ काज करए पड़तै। जागेसर तँ ओइ दिन कहि देलकै- पंच सभ
साल भरिक समए देने अछि। अहाँक मन-जेकरासँ इलाज कराबी। ओझा-गुणी,
डागडर-वैद्य। हमरा दिससँ कोनो मनाही नै। सिरिफ
टाका-पैसा पुरौनाइ हमर काज छी। पाछाँ हमर कोनो दोख नै।
खेलावन भगत बेंतमे तेल लगा कऽ सुररि रहल छै। भगतकेँ सभ किछु
अलगे टाइपक। बेंत लगै छै- साँप सन। अन्हारमे देखि लेत तँ साँपे बुझेतै।
आइ धर्मडीहीवालीकेँ मौका भेटलै। सुनहटमे सभ गप फरिछा कऽ कहि रहल छै। किन्तु भगतक मन जेना केतौ आर टहल-बुलि रहल छै। देह केतौ आ मन केतौ। आँखि
जेना निशाँमे डुमल छै।
धर्मडीहीवाली सोचैत अछि- एना किए केने अछि- भगतजी। कहीं ओइ दिनका गप मन तँ ने पड़ि गेलै। झाड़ैत काल चमेटा जे लगल रहए।
कहीं हमरापर तमसाएल तँ ने अछि। आब जे होए। बखत पड़लासँ...।
धर्मडीहीवाली कनी सुरकेँ
तेज केलक। अपना दिस धियान खिंचैले तँ उपए लगबए पड़तै।
“भगत जी, हमरो दुख हरण कऽ लिअ। आब तँ हम केतौ कऽ नै रहबै। जँ बाल-बच्चा नै हेतै तँ सोतिन तरमे बास करए
पड़तै। अहाँ तँ बुझिते छी- नदी तरक चास-आ सौतिन
तरक बास।”
“सौतिन ने कहै छै। बैरिन तरक बास।” टप्प
दऽ बाजल भगत।
“हम तँ मूरूख छी भगतजी। अहाँ तँ भगवान छिऐ। परोपट्टामे अहाँक जय-जयकार भऽ रहल अछि। केतेकोकेँ दुख हरण कऽ लेलिऐ।
हमरो दुखसँ उबारू। खाली आँचारकेँ भरि दिअ। जँ हमरा संतान नै हेतै तँ हम बेसहारा
भऽ जाएब। पएर पकड़ै छी भगत जी। कोनो उपए करू।”
निसाँस खिंचैत भगत बजल-
“गुरु महराज कहने रहथिन- सुआरथ लगि करे सभ पीरीत।”
धर्मडीहीवालीकेँ आँखिसँ भरभरा कऽ नोर खसि पड़ल। भगत जीक
दिल पिघलि गेलै। ओकरा हाथकेँ अपना पएरपर सँ हटबैत कहलक-
“घबरा नै। सभ कुछो हेतै। जे बाट देखाबै छियौ।
ओइपर चलए पड़तौ।”
“बँचा लिअ भगतजी। जीअत तँ जीअत, मुइलोमे सौतिन नै बकसै छै। मुइलोपर बिसाइत छै।”
“तूँ तँ एक-तरफा सोचै छेँ। पुरूषोकेँ दूटा स्त्री भेलासँ ओहिना कठ
होइ छै। तरघुसका तकलीफ होइ छै। तोरा तँ मालूमो नै हेतौ घोंचाय मड़र भायक खिस्सा।”
“हमरा केतएसँ मालूम हेतै।”
“आब तँ बेचारा दुनियाँसँ चलि गेला। चारि-पाँच साल पहुलका गप छिऐ। सौतिनियाँ डाहक शिकार भऽ गेलै। दुनू स्त्री मिलि
कऽ दशा बिगाड़ि देने रहए। देखैत छी आइओ दुनूटा
साँढ़ जकाँ ढेकैर कऽ लड़ैत छै।”
“की भेल रहै भगतजी?”
धर्मडीहीवालीक आँखिमे उत्सुकता भरि गेल छै। खेलावन भगत
पलथी मारि कऽ बैसि गेल। दहिना जाँघपर राखल बेंत
थरथरा रहल छै। मुँहसँ खिस्साक बखान चलि रहल छै।
“घोंचाय मड़र भायक नाओं रहै- चिचाय। एकटा स्त्रीमे संतान नै भेलै। फेर दोसर केलक। ओहोमे संतान नै भेलै।
दुनू औरतियामे राति-दिन हड़-हड़, खट-खट होइते रहए। चिचाय झगड़ा छोड़बैमे अपस्याँत। दुनू तरफसँ गाड़ि मारि सुनए
पड़ैत। चिचाय लवकीकेँ बेसी मानैत। ओकरो संगे राति बिताबैत। पुरनकी कछ-मछ कऽ राति काटैत। सौतिनिया डाहसँ जरैत पुरनकी सोचलक।”
किछु काल रूकि भगत आगू बजय लगल-
“हँ,
अमवस्याक राति रहए। खट-खट अन्हार।
टिपिर-टिपिर बून चुबैत। हाथ-हाथ नै देखि
पड़ैत। लबकी जइ घरमे सुतैत रहए ओइ ओसरपर चिचाय दहिना पएर रखलक आकि बामा पएर
पुरनकी पकड़ि लेलक। अन्हारक कारने चिचाय देखि
नै सकल। ओ डरे ‘आऊँ, आऊॅ’ करए
लगल। लबकी दौग कऽ निकलल आ दहिना पएर पकड़ि लेलक। दुनू अपना-अपना दिस खिंचए लगल। अपना-अपना घर दिस लऽ जेबाक प्रयास। खैंच रहल
छल। चिचायकेँ बुझि पड़लै जे दू फाँकमे चीर कऽ बँटि लेत। ओ बाप-बाप करैत चिचिया उठल। अड़ोसिया-पड़ोसिया जमा भेल। तखनि ममिलाकेँ शान्त केलक। दूटा स्त्री केलाक फल एहनो होइ छै।”
“भगतजी, तैयो मरदक जाति ऊपरे रहै छै। हमर नैया कोन विधि
पार लगतै।”
“तूँ चिन्ता नै कर। आबए दही उ शुभ घड़ी। उ
पवितर राति।”
खेलावन भगत बेंत उठा कऽ उपदेश दिअ लगल-
“सात दिन पहिलेसँ अरबा-अरवाइन भोजन। दुनू बखत स्नान। मन देह
शुद्ध। चौबटियापर पूजा-चक्कर। बाहर बजे रातिमे एकान्त जगहपर
आबए पड़तौ। राह-बाटमे कोनो टोका-चाली नै। कियो देखै नै। निशिभाग रातिमे
चौबटियापर स्नान-पूजा कबुला सभ करए पड़तौ। समैपर सभटा बात
बुझा देबौ। भेँट करैत रहिहेँ। शरणमे आबि गेल छेँ तँ कल्याण भऽ जेतौ।”
“धन्य हो भगतजी।”
धर्मडीहीवाली उठि कऽ आँगन
दिस चलि देलक। ओकर पएर स्थिर नै भऽ रहल छै। जेना निशाँसँ मातल हो तहिना ओकरा
मनमे बुझाय छै। पता नै ई निशाँ सफलताक छिऐ वा असफलताक।
ओकर पएरक गति तेज भऽ गेलै। तैयो गहबरक गन्ध ओकरा चारूभरसँ
घेरने छै...।
mmm
१०
राति जमुन भारी सन लगै छै। खट-खट अन्हार
छै।
एते लोक केतए जाइ छै हौ?
गोपी मड़रक दुआरिपर बहुते टोलबैया जमा छै। ठाढ़ भेलहा सभ
गप-सप कऽ रहल छै आ बैसलाहा सभ फुसराहटि। लोकक बीचमे गोपी मड़रक जेठका बेटा मनमा
बैसल छै। बैसल नै छै बल्की अदहा सूतल
आ अदहा जगल छै। जेना निशाँमे मातल हुअए। ओंघराए
कऽ खसैले करैत छै किन्तु ओकर जुआन स्त्री पाछूसँ सम्हारने छै। ओकरा स्त्रीकेँ
अपना देहक कोनो सोह-सुरता नै छै। फाटल वस्त्र रहलाक कारणे
ओकर छाती कनीए उघाड़ छै। सबहक नजरि पहिने ओइ उघड़ल अंगसँ टकरा जाइ छै।
आगूमे दू-तीन हाथ जगह खाली छै। जैठाम जरैत लालटेनक इजोत आ कुदैत-फानैत
कीड़ा-फतिंगा। नीमक छोट-छोट ठारि आ पात राखल छै।
खेलावन भगत अपना चेला-चपाटीक
संगे झाड़-फूकमे लागल अछि। गरजि कऽ मंत्र जाप
करैत नीमक ठाढ़िसँ बीखकेँ झाड़ि रहल अछि।
“एगारह हाथ काय चल
बरहम दोहाय चल
सातो पुरा नाग चल
हरो-हरो बिसंभरो
दोहाय बिसहारा माताक छिअ।”
गोपी मड़र अखने भुटाय वैद्यकेँ सोर पाड़ए गेलै। ओकर छोटका
बेटा घनमा नीमक ठाढ़ि-डारि आ लगपाँचेक माटि लाबैले गेल छै।
लोक आपसी फुसराहटि कऽ रहल अछि।
पाछूसँ केकरो जोरगर स्वर आएल-
“की भेल छेलै हौ?”
“दुनू परानी सूतल छेलै। निन्न
टूटलापर चिचिया कऽ कहलकै- हमरा किछु काटि लेलकौ। दौग कऽ आबैह जा।”
“हँ,
सुनैत छिऐ जे परिवारमे कमाउ पूत
वएह टा छै।”
“खेतपर सँ थाकल-ठेहिआएल। खेलाक बाद सुति रहलै। खाट, चौकी तँ घरमे नै छै। सिमसल जमीनपर सुतै छेलै।
साँप काटि नेने हेतै।”
“हँ हौ, घरक दशा नै देखैत छहक। एक दिस कूड़ा-करकटक ढेरी तँ एकदिस जंगल-झाड़। केतौ
साफ-सुथरा देखै छहक। एनामे मनुख रहतै।”
“भुटाय वैद्य की कहै छै हौ?”
“कहै छै- असगुन भऽ गेलौ। सुनै छी ने नढ़िया भूकि रहल छौ। जान
लेबा बिमारी छौ एकरा।”
ई सुनि मनमाक स्त्री जोर-जोरसँ कानए लगली।
“फटृट चुप, कुलछनी। बाप-बाप चिचिया
रहल छेँ। सतबरती रहितेँ तँ एना हेबे नै करितौ।”
गोपी मड़रकेँ ठोर सुखि गेल छै। आँखिमे नोर नै छै तैयो गमछासँ पोछि रहल अछि। मनमाक स्त्री
ठोह पाड़ि कऽ कानि रहल छै। गोपी मड़रक छोटका बेटा घनमाकेँ आब दुख बरदाइशसँ बाहर
भऽ रहल छै। ओ चिचिया कऽ कहै छै-
“हौ भैयाकेँ कहुना बँचा दहक हौ सर-समाज।”
मनमाक हालति निरन्तर बेसी खराब भेल जा रहल छै। आब ऊ घररए
लगलै।
“नै बँचतै शाइत आब।”
लोक लगही लाथे ससरि रहल अछि। िनसाँस छोड़ैत बजै छै-
“लगै छै साँप नै कटलकै, काल डसि लेलकै।”
“आँखिओ नै तकै छै। साँस केना घुरघुराइ छै।”
“बेचारी, भरल जुआनीमे विधवा भऽ जेतै।”
“धुर,
औरतियाकेँ कोन ठेकाना। तुरत्ते दोसर बियाह कऽ लेतै। बिपैत
तँ गोपी मड़रकेँ पड़लै। बेचारेकेँ कमौआ पूत...।”
खेलाबन भगतकेँ आँखि लाल भऽ गेलै जोरसँ गरजि कऽ बजै छै-
“एहेन कठोर छइ जे सुनि नै रहल अछि। उत्तरसँ रस्ता
खाली करै जा। महा डाकिनी मंत्र पढ़ए पड़तै।”
“हे,
हौ, हटै जा उत्तर भ्ारसँ। बाट खाली करै जा।”
लोकमे सुगबुगाहटि होइ छै। एने-ओने हटि जाइ छै।
“हे रौ, उत्तरसँ हटि जो। कोन ठेकान छै- देवी
औतै की साँप।”
मुदा उत्तरसँ हड़बड़ाइत अजय अबैत छै। किछ काल तँ ओकरा
जानकारी लेबामे लगि जाइ छै। धनमा कानि-कानि सभटा गप
कहै छै। सुनिते ओ तमसा जाइ छै आ चिचिया कऽ कहैत अछि-
“किएक सभगोटे मिलि कऽ एकर जान लऽ रहल छहक। बहुत नाटक केलहक। बेचारा अन्तिम
घड़ी गनि रहल छै। आबो मंतर-जापकेँ रोकह आ लऽ कऽ अस्पताल चलह।”
सभ ओकरे दिस तकए लगल। रामखेलावनक आँखि तामसे ललिया गेलै।
ओ फुफकारैत बजल-
“आबि गेलौ बकटेट। हमरा डाकनि मंतरकेँ बिच्चेमे
तोड़ि कऽ नाश कऽ देलकौ।”
अखनि अजय केकरो बात नै
मानतै। जान जाइक सबाल छै।
“ऐ भगतजी, एकरा जानक गारन्टी लेबै अहाँ? जँ ई
मरि जेतै तँ अहाँकेँ गोपी मडरक बेटा आपस करए पड़त। अहाँकेँ अपनापर बिसवास अछि।
अहाँ बँचा लेबै।”
भीतरे-भीतर खेलाबन भगत डगमगा गेल। किछु तँ बाजए पड़तै।
“ऊपरबलाकेँ यएह इच्छा हेतै तँ के रोकि सकैत छै। देवीक कृपासँ केतेकोकेँ ठीक केलिऐ। एकरो ठीक करबै।”
“ई तँ मरल जा रहल छै आअोर अहाँ कहिया देवीक कृपासँ ठीक करबै। आ हमर दाबा अछि- जँ ई जीअत अस्पताल पहुँच जाएत तँ ठीक भऽ जेतै। एहेन स्थितिमे कियो केकरो अस्पताल लऽ गेल हेबै तब
ने बुझबै।”
नकोर बनियाँ बिच्चेमे
टपकल-
“हँ भाय, जरटोलीमे हमरा बहनोइकेँ साँप कटने रहै। चिरा लगा कऽ
ऊपर जौड़ीसँ बान्हि देलकै आ अस्पताल लऽ गेलै। दोसरे दिन ठीक भऽ आपस एलै। अस्पतालक
बड़का डागदर भगवानोसँ बढ़ि कऽ छै।”
अजय फटकारैत बजल-
“मुँह की ताकै छहक। एकरा उठाबह आ चलह अस्पताल। ओझा-गुणीक
चक्करमे जान चलि जेतह।”
“लाबह खाट। टाँगि कऽ लऽ चलह। ने सड़क छै आ ने गाड़ी।”
गोपी पड़रक छोटका बेटा दौग कऽ खाट लऽ अनलक।
तामसे फाेंफिया कऽ खेलावन भगत उठल आ झटकि कऽ चलल। औंठा
धोतीमे लगलाक कारणे धड़फड़ा गेल।
बीचसँ स्वर आएल-
“यौ भगतजी, ढेका खूलि गेल। सम्हाररू जल्दी।”
खेलावन भगत तामसे थरथराइत बजल-
“नासे काल विनासे बुद्धि। देवी माइक कारजमे अड़चन। सभ नास भऽ जेतौ।” ढेका
पकड़ने फनकैत जा रहल अछि।
सनसनाइत अधरतियाक समए। गामक चारूभर थाल-कादो आ पानिसँ भरल। एकोटा सड़क नै। खटोला उठा कऽ चलब आड़िये-धुरे सम्भव छै। कात-करोटक कटहा झाड़ टाँगमे लगैत छै। एक मील
एहने कठिन बाट छै। हिम्मत बान्हि चारि-पाँचटा
युवक खाट उठौने जा रहल छै। गोपी मड़रक बेटा खाटपर पड़ल छटपटा रहल छै। समए जेतेक बितैत छै तेतेक
रोगीक हालति खराब भेल जा रहल छै।
“हौ जल्दी चलह हौ।”
“एहेन खराब रस्ता ऊपरसँ कनहापर एतेक भार। केना दौगबै हौ।”
सड़कपर पहुँचबामे घंटा भरिक समए लगि जाइ छै। खाटकेँ
एककातमे रखि सभ
गोटे साँस खींचैत ठाढ़ भेल।
गोपी मड़र लग जा अपना बेटाकेँ मुँह उघारि देखैत अछि। आ चिचिया
उठैत अछि-
“रौ बौआ, रौ मनमा उड़ि गेलौ रौ।”
सभ खटोलाक चारूभर घेरि नेने
अछि। अजय छूबि कऽ देखैत अछि।
“वास्तवमे मरि गेल।”
सभ एक दोसराक मुँह ताकि रहल अछि।
“मरि गेलै आब की करबहक?”
“आपस लऽ चलह। कपारमे यएह छेलह।”
गोपी मड़रक छोटका बेटा बपहारि काटि रहल अछि। केतेक गोटे आँखिक नोर
गमछासँ पोछि रहल अछि। कालू मड़र कहैत अछि-
“ठीके कहै छेलै खेलाबन भगत। घमण्ड देखे लहक।
टूटि गेलह ने धमण्ड। सभटा खेला अजय लगेलकै। आब वएह जवाब
दौ। गोपी मड़रक बेटा आपस कऽ दौ। बकटेटीक कारणे भगत कहि देलकै- नास भऽ जेतौ।”
“हमरा सभ केतए जेबै? की
करबै? झाड़-फूकक सिबा रस्ता कोन?”
“अस्पताल निकटमे नै छै। सड़क एकोटा नै छै। गाड़ी-घोड़ा
नै छै जे चढ़ि कऽ फर्रसँ उड़ि जो।”
“हम तँ कहै छेलौं जे रस्तेमे खतम भऽ जेतौ।
मुदा हमर बात सुनए तब ने।”
अजयक बोल नै फुटि रहल छै। आखिर केकरा की जवाब देतै। अधिक लोक कालू मड़रक समर्थन दऽ रहल छै। ओ
सोचि रहल अछि- गामसँ केना अंधविश्वास, जड़ता
आ जीद्दकेँ हटाओल जाएत। ज्ञान-विज्ञान बढ़ि कऽ केते आगू चलि गेल। गाम केतेक
पाछू अछि। झाड़-फूक करैत-करैत
मरि जइतै तँ कोनो गप नै मुदा बँचबैक प्रयासमे मरि गेलै तँ आब देखि लियौ। दू घंटासँ
झाड़-फूंक कऽ रहल छेलै। जँ दू घंटा पहिले अस्पताल
लऽ गेल रहितै तँ एकर जान बँचि जाइतै।
आगू-आगू खटोला जा रहल अछि। आपस गाम दिस।
पाछूमे अछि, गोपी पड़र आ ओकर छोटका बेटा। कानैत, धड़फराइत बढ़ैत। करूण क्रन्दण बढले जा रहल अछि। ओही मध्यमे अजय जेना घेरा
गेल अछि।
mmm
११
“दौग कऽ अबै जा हौऽऽऽ। देखहक हौ लोक सभ। हमरा अँगनामे ढेपा बरिस रहल छै। पछुआर
दिससँ केतेक ढेपा फेँक रहल छै। दौगै जा हाे।”
“गे माइ गे माइ। कोन उपद्रव शुरू भऽ गेलै गे। कोन देवी-देवता
खिसिया गेलै हो देव। हौ समाज बँचाबह हौ।”
हल्ला–गुल्ला सुनि बहुते लोक दुआरिपर जमा भऽ
गेल छै।
देवीपुरवालीक मुँहपर डर नाचि रहल अछि।
“की भेल?”
-अड़ोसी-पड़ोसी पूछि रहल छै।
“जान बँचाबह हौ। पछुआर दिससँ ढेला बरिस रहल
अछि, अँगनामे।”
“अन्हार रातिमे पछुआरमे केना कऽ देखबै?”
“फुलचनमा टाॅर्चक इजोतसँ देखही तँ के छी सरबा।”
“हे,
गारि नै देबाक चाही। किनसाइत देवी-देवताक
ममिला हेतौ तँ धक्कापर चढ़ि जेबे। बुझि लही, एक्के
बेरमे जय-सियाराम।”
हिम्मतगरहा तीन-चारिटा छौड़ा आगू बढ़ल। चारूभर टाॅर्चक
इजोत छिड़िया गेलै।
“कहाँ छै कोइ हौ। नुका तँ नै रहलै।”
“कोन ठेकान, कहीं भूत-प्रेरक ममिला ने होइ।”
“भऽ सकै छै। देवीपुरवाली कोनो कबुला-पाती केने होइ आ पूरा नै केलाक कारणे
देवी प्रकोप मचबैत होइ।”
“देवीपुरवाली लालटेन नेस रहल छै। अँगनामे तँ ढेपाक ढेर लगल छै। एकर बेटे नै छै।”
“धुर,
उ तँ चौकपर ताड़ी पीब कऽ मतंग हेतै।”
देवीपुरवालीक पुतोहु चमकी ओसारपर बैसल छै। बेचारी डरे थर-थर काँपि रहल छै।
देवीपुरवाली िवधवा रहितो मरद जकाँ काज करैत छै। बेटाकेँ
जन्मैते पति सदाक लेल संग छोड़ि देलकै। ओइ बेटाक भरोसे पहाड़ सन जीनगी काटि
लेलकै। ओकर बेटा ‘नकचट्टा’ आब
जुआन भेलै। ओइक संगे आसा जगलै जे एकटा कमौआ पूत
भेल आब। किन्तु ओहो पियक्कड़ भऽ गेलै। काम करत तँ करिते रहि जाएत। कहीं ताड़ी
पीबैले गेल तँ कखनि आएत पता नै। सासु-पुतोहु मिलि कमा-खटा कऽ कहुना गुजर चला रहल अछि।
“कही एकर पुतोहु चमकी डाइन तँ नै छै हो?”
“नै-नै,
ई बात झूठ छै। एतेक भोली-भाली
औरत डाइन केना कऽ भऽ सकै छै।”
“हँ,
हँ, भोला-भाला
चेहरा भीतर दिल बेइमान।”
“हँ रौ भाय। तब ने जइ समैमे पहिलुक बेर आएल रहै। लबे-धबे
रहै। टोलमे बड़का हो-हल्ला भेल रहै।”
“हे रौ, ऊ जइ घरमे ठाढ़ होइ ने ठीक ओकरा कपारक सामने घरक छप्परमे
आगि लगि जाए छेलै। उतरबरिया घरमे जाय वएह बात।
दक्षिणवरिया घरमे जाय फेर वएह बात। ई तँ चट दऽ लोक मुझा दइ छेलै नै तँ पूरा घर जरि कऽ सुड्डाह भऽ जएतै।”
“पसरतै केना कऽ। बान्हल आगि रहै ने। बुझिही, औरतियाकेँ
देह नै रहै, आगिक भट्ठी रहै।”
“तब तँ नकचट्टाकेँ सलाइ कीनबाक कोनो जरूरते नै।”
सभ गोटे एक्केबेर खिसिया कऽ हँसए लगल। उन्मुक्त हास्य।
“अरे तोरी कऽ, ई तँ असल अगिनदाइ छियौ रौ।”
“फेर ई बिमारी ठीक केना भेलइ?”
“वएह खेलावन भगत केतेक दिन तक झाड़ फूंक
केलकै। तब अगिनदाइक देहसँ आगि कम भेलै।”
“सुनने रही जे ओकरे लग गेलासँ ई खेला शुरू भेल रहै।”
“हँ मथदुखी झड़बैले खेलावन भगत लग लऽ कऽ गेल
रहै। ओही दिनसँ ई अगिलगौना काण्ड हुअ लगलै।”
“तब तँ कुल करामात खेलावने भगतक रहै।”
पछुआर दिससँ अजय सोर पाड़लक-
“दौग कऽ एने अबै जो। भूत पकड़ा गेलौ।” सभ एक्केबेर दौगल। बैगन गाछक झोंझसँ
अलटरबाकेँ निकालैत अजय कहलकै-
“एकरा पंचक पास लऽ चल।”
“हँ हँ ठीके बात। घोंचाय अपना बेटाकेँ किए नै
सम्हारैत छै। राति-विराइत औनाइत रहै छै। रातिचर भूत जकाँ।”
“लोककेँ डेरानाइ कोनो नीक गप होइ छै। कहीं आँखिमे
ढेपा लगि जाय तँ फूटि जेतै।”
“जन्मेले टासँ नै होइ छै, पतिपालो करए पड़ै छै। लऽ चल। पंचसभ निरलय
करतै।”
डेढ़हथ्थी कान्हपर नेने
घोंचाय गरजैत देवीपुरवालीक दुआरिपर पहुँचलै।
“हमरा बेटाकेँ पंचक पास लऽ जेनिहार के छी? ई छौड़ा अखने अँगनासँ खा-पी कऽ निकललै। मुतै लेल वाड़ीमे गेल छेलै। ई केना कऽ ढेपा फेकतै? छै
कोइ गबाह? देखलकै ढेपा फेकैत? अजैया दू अक्षर शहरसँ पढ़ि कऽ की आएल जे सभ जगह अपने कबिलगीरी।
अोकरा अँगनामे कोनो देवी ढेपा फेकै छै आ नाओं लगबै छै, हमरा
बेटाकेँ।”
घोचायक स्त्री गारि पढ़ैत पाछूसँ अबै छै।
“के निपूतरा हमरा बेटाकेँ पकड़ने अछि। कोनो चोरी-डकैती
केलकै की। कोइढ़फुट्टा, छोड़ हमरा बेटाकेँ। ने तँ जे ने से कऽ
देबै।”
झमारि कऽ अपना बेटाकेँ छोड़ौलक। ओकर बाँहि पकड़ि घिचने
घर दिस चलि पड़ैत अछि। पाछूसँ फनकैत घोंचाइ जा रहल अछि।
“अखनि तँ बेकारक झगड़ा ठाढ़ भऽ जइतै। अजयकेँ
कोन दुसमनी छेलै, ओइ
छौड़ाक संग।”
“दुसमनी ओकरासँ नै छै। असल दुसमनी घोंचायसँ देवीपुरवालीकेँ छै।”
उचितवक्ता बीचमे आबि कऽ बाजए
लगल-
“बेटाक जन्म भेलापर अँगनासँ बहींगा फेकल जाइ छै। जे घरक ऊपरसँ दरबज्जापर गिरबाक
चाही। फेर ओही बहींगामे बैरक झाड़ आ जूता लटका कऽ घरक आगू गाड़ल जाइ छै।”
“घोंचायक संग की भेल रहै?”
“घोंचायक बेटा भेल रहै ने तँ अँगनासँ बहींगा फेकने रहै। ओही समैमे देवीपुरवाली
दुआरिपर ठाढ़ रहै। बहींगाक नोक ओकरा टांगमे गड़ि गेलै। पंचैती भेलै तँ घोंचायकेँ
डण्ड-जरिमाना लगलै। ओही दिनसँ दुसमनी चलि रहल छै।”
“कहीं ढेलफेक्का भूतकेँ घोंचाय भेजैत हेतौ।”
“कुछो हौ। खेलाबन भगतकेँ पूजाक खरचा भेट जेतै। तब देवीपुरवालीकेँ कल्याण हेतै।”
देवीपुरवालीक बेटा नकचट्टा ताड़ी पीब कऽ दुआरिपर आबि गेल
छै। ओ निसाँमे गरजि रहल छै।
“हमरा दुआरिपर एतेक लोक किएक जमा भेल छै हौ? बुझै छी, ऐ
अौरतियाकेँ। सनकल जा रहल छै। हम घरपर नै रहै छी तँ छौड़ा सभकेँ सोर पाड़ि कऽ
रसलीला करैत रहैत अछि। कहाँ छै हमर मोटका समाठ बला लाठी। आइ डाँड़ आ पीठी सरका
देबै हम।”
अगिनदाय डरसँ कोठी गोड़ा तरमे नुका रहल अछि। पता नै देहपर
लाठी केतए-केतए गिरतै।
रोइयाँ काँटो-काँट भऽ रहल छै।
उचितवक्ता दुआरिपर सँ बिदा होइत बजल-
“अजय भाय, चलह ऐठामसँ। नै तँ समाठसँ चूड़ा जकाँ कूटल जेबह।”
सभ धड़फड़ा कऽ चलि पड़ैत अछि। अजय देखैत अछि।
आसमानसँ चुगला गिरैत अछि। धरती दिस बढ़ैत इजोतक रेखा।
चारूभरसँ अन्हार ओकरा दिस दौगल। छनेमे जेना ओकरा पकड़ि घोंटि लेलक। फेर आँखि
अन्हारेमे अछि, इजोतक प्रतीक्षा करैत।
mmm
१३
जनीजाति सभ अँगनामे गाबि रहल अछि।
“बाबा केँ अँगना मे लगनहि आएल
पोती भेल डुमरी केँ फूल हे
ऐ बेर लगनमाँ फिराय दियौ बाबा
सिखऽ छिऐ लूरि बेवहार यौ।”
अकलू मड़रक बेटीकेँ बिआह हेतै। बरयाती आबि रहल छै। दुआरिकेँ
केते चिक्कन-चुनमुन
केने छै। लगै छै जेना चनन छिटका देने हो। तेतेक
इजोत चमकै छै जे अन्हार तँ जेना निपत्ता भऽ गेलै। दुआरि आ अँगनाकेँ सभ चीज
दोसरे रंगक लगै छै। चमाचम।
एककातमे भनसिया सभ अहरी चढ़ा देने छै।
“पहिने भात नै, तीमन बनतै। पानि ला रे।”
“भैया,
एक चिलम गाजा हमरा घरबारीसँ मंगा दे तँ हम भरि राति
खटबौ।”
“चुप,
दारू, गाजा पी कऽ भानस करता। नूनक बदलामे चीनी ढारि देबही। तब की हेतै?”
किछु लोक भोजन-भात बना रहल अछि तँ किछु लोक बरयातीकेँ
सूतए आ बैसए लेल बेवस्था कऽ रहल अछि।
धिया-पुता सभ दलानक आगूमे खेल रहल छै। किछु
नाँगट-उघार तँ किछुकेँ देहपर बस्तरो अछि। नाकमे नेटा, सुर-सुर करैत।
“भैया मुतबै हौ।”
“चुप सार, तोरा तुरत्ते मुतबास लगि गेलौ।”
“तँ परसादी मँगा दे।”
“भगवानक पूजा नै हेतै। एकरा अँगनामे बिआह हेतै।”
“हे रे छौड़ा, ऐठाम लगही कऽ देलही।”
बुढ़बा लाठी लऽ कऽ फटकारैत बजल-
“भाग दुआरपर सँ। निच्चाँ जा कऽ खेल।”
अँगनामे गीत गौनिहारि सभ उपरौंझ कऽ रहल अछि। पहिने तँ
एकोटा जनीजाति एबे नेे करै छेलै।
“जाितसँ अलग। ढाढल बान्हल छै- अकलू मड़र। ओकरा संगे के जाएत बन्धनमे
पड़ैले।”
अकलू मड़रक स्त्री बड्ड चलाकी जनै छै। टोलक मूलगनि
घुघुरबत्तीकेँ पटिया लेलकै।
“दाय हे, जेहने हमर बेटी तेहने तोहर बेटी। कोनो तरहेँ पार-घाट लगा दहक। दोसरा गामकसँ लोक सभ आबि रहल छै। अपना गामक इज्जतिक सबाल छै।
अपना टोलक गप आन लोक किएक बुझतै। रहबै तँ एकेठाम।”
केना कऽ मानतै औरतिया सभ। आखिर सुख-दुखमे
एकसाथ रहैत आएल छै।
“नदिया किनारे बाबा हौ किनकर बाजा बाजै,
किनकासँ माँगे दहेज हौ,
नदिया किनारे पाेती तोरे बाजा बाजै
हमरासँ माँगे दहेज गे...।”
डिम-डिम-डिमिक।
ढोलक आ पीपीहीक अवाज।
“आरे तोरी कऽ बराती तँ गामक बगलमे पहुँच गेलौं। जल्दी सभ प्रबन्ध कर रौ।”
“इह,
कोनो लाट साहैबकेँ बरयाती
नै आबि रहल छै।”
“सुनै छी, जे दू बीघा जमीन छै।”
“दू बीघा जमीन छै आ सात भाँइ छै। फेर सातोकेँ दू-दूटाक
धिया-पुता। अँगनामे बेदराक ढेरी लगल छै।”
“सुनै छी, लड़िका घरक छप्पर बनबैमे तेज छै। लाड़-पुआर बत्तीक छप्पर। तँए खेतीक अलाबे किछ आमदनी भऽ जाइ छै।”
“बुझलौं- घरमे फुइस-फाइस बाहरमे धक्का।”
अँगनासँ गीतक अवाज-
“सोनाक पिंजरा बना दऽ हौ बाबा,
ओइमे रहब नुकाय हौ।
सोनाक पिंजरा बना देबो गे पोती
पिंजरा सहित नेने जाय गे...।”
बुढ़बा सभ अपना पगड़ी आ धोतीकेँ ठीकसँ बान्हैत अछि। ढोल-पीपही आ स्पीकर जोर-जोरसँ बाजए
लगल। लोकमे हड़बड़ी मचि गेल छै। समाजक लोक दुआरिपर
एकट्ठा भऽ रहल छै।
“बरयाती आबि गेलै। चलै-चल सुआगतमे। खाना-पीना
बादमे हेतै। सुआगतमे तिरोटी नै हेबाक चाही।”
“हँ,
ठीके गप। दोसरा गामक लोक, अरिजन-परिजन, कुटुम। ओकरा ढाठ बान्हसँ की
मतलब।”
“हँ हँ, आखिर हमरो धनुकटोलीक किछ शान छै।”
“अरे तोरीकेँ, नाचक पाटी लौने अछि।”
“हँ,
लगही आ झाड़ासँ टोलकेँ महकौतौं।”
“ई सार तँ नमरी लोफर छै। धियाने दोसरे तरफ।”
उचितवक्ता मुड़ी डोलबैत बजल-
“असल गप अहिना भकभका
कऽ लगै छै। सावधान, नाच देखैते चिड़ै कोनो छौड़ा संगे उड़ि
ने जाऊ।”
“चुप्प, शैतान।”
डेढ़ियापर जनीजातिक भीड़। वर देखबाक सबहक आँखिमे उत्सुकता।
रंग-बिरंगक साड़ी-आँगी पहिरने। फूल सन फुलाएल मुख। चहकैत
छौड़ा सभक दल। पैंट-शर्ट, लुँगी-कुरतामे सजल। बूढ़ सभ धोती-कुरता आ माथकेँ गमछासँ मुरेठा बन्हने।
“पहिले पएर-हाथ धोइले जलक बेवस्था करह। पूछि लहक सभ बरियाती आबि
गेलै।”
“दुल्हा नै आएल छै?”
“आरे बहींचो, बिना वरक बरियाती आबि गेलै हौ। बिआह केना हेतै?”
“कहै छै- गामसँ संगे-संग चललौं। रस्तामे
पछुआ गेल। पता नै केतए रहि गेलै।”
“छुच्छै धुतहु फूकै छेलै रे। बिना दुल्हेक घर-दुआरि। दुआरिपर आएल किएक? मार सार बरियाती सभकेँ।”
“ऐमे बरियातीक कोन दोख?”
“हे रौ ला तँ सटका। दोष-गुणकेँ फरिछाबै छथि।”
“हे रौ, मनकेँ थिर करै जो। ठहर, एना नै
करै जो।”
बरियाती सकदम। जेना सबहक छातीमे डर ढुकि गेलै। सभ मुँह
लटका लेलक। गप-सप्प बन्न। मने-मन सभ सोचि रहल अछि। कहीं भरि राति
वर नै एतै तब की हेतै? एहने स्थितिमे बरियाती सभकेँ छौलका छोड़ेने रहै, ढेलपुरा गाममे। चलाक बरियाती धोतीकेँ डाँड़मे खोंसि रहल अछि। पछुआरक रस्तो
भँजिया रहल अछि। रंगमे भंग। तमाकूल-बीड़ी सभ बन्न। अँगनामे गीतनादक बदलामे फुसराहटि शुरू भऽ गेल छै।
“लीलाक भाग्ये खराप छै। केतेक मेहनति अकलू
मड़र केलकै तब सभ चीजक इतजाम भेलै। दू बरिससँ बेचारेकेँ एड़ी खिआ गेलै तब जा कऽ
बिआहक बात तँइ भेलै। आब देखियो...।”
“छठी राति विधि लिखे लीलारा
की संकट के मेटनहारा।”
बात सुनि लीलाक कलेजामे जेना बरछी भोंका गेलै। ओ मुँहमे
नुआ ठूसि कऽ कानि रहल अछि। लोकक मनमे शंका औना रहल अछि।
कहीं लेन-देनमे कोनो गड़बड़ी तँ नै भेल छेलै। अकलू मड़र छै-बड़ा
मक्खीचूस।
“तीमन-तरकारी बनेबै की नै?”
“धुर,
छोड़ि दियौ। की हेतै की नाइ।”
उचितवक्ता केना चुप रहतै।
“कानल कनियाँ रहिए गेल कानी कटाओल वर घूमिए
गेल।”
“मार सारकेँ रौ। बड़ लबर-लबर करै छौ। एने अकलू मड़रकेँ पाछूसँ निसाँस
छूटि रहल छै। आ एकरा...।”
अकलू मड़रकेँ दोस-महिम, कर-कुटुम सम्बन्धी सभ बाध-वोन दिस खोजै लेल निकलि गेल छै।
“हल्लो जे करबै से वरक नाओं जानबे नै करै छी।”
स्टेजपर ढोलक-हरिमुनियाँ चुप्पे पड़ल अछि। नाच
पाटीक लोक सभ चुपचाप बिड़ी पी रहल अछि।
“हमरा सभ की करबै यौ? एहो लगन ने उधारे रहि जाए।”
“चुप,
ओने दोसर नाच भऽ रहल छै। तोहर नाच के देखतौ। बानर जकाँ कूदल
घुमै छेँ तखनिसँ।”
नाचक लेबरा चट दऽ बजल-
“सभ तँ बानरेक सन्तान छी आ बानरे छी। हम छी लड़का बानर।”
“हे,
मुँहकेँ चुप राख नै तँ..।”
“गौ बाबू आदति नै छौ। पेट फूलि जाएत।”
अकलू मड़र सोचि रहल अछि- एक तँ
जाति आगि-पानि बन्न कऽ देने अछि। जखनि
कि हमर कोनो दोष नै छेलए। भैया मरि गेल छला। घरमे कुछो नै रहए। ऊपरसँ अकालक तबाही। केतएसँ करितौं भोज? लोक कहलक खेत बेचि।
कहए पड़ल- खेत बेचि लेबै तँ खेती केतए करबै? केतेक जमीने छै हमरा पास।
दोसरकेँ दुख देखबाक फुरसति केकरा पास छै? सभकेँ
तँ अपने दुख भारी छै। अपने सुआरथमे आन्हर। तैयो टेबैत, हथोरैत कहुना चलि रहल अछि।
एक साँझ भोज-भात हेतै आ हमर सभ किछो बिका जेतै।
मुदा कहाँ कोइ सुनलक हमर गप। ओही दिन जातिसँ अलग
कऽ देलक।
केतेक मेहनति केलौं। केकरा-केकरा नै गोड़लग्गी केलौं। कोन-कोन जानवर लग ने माथ लगेलाैं। तब िबआहक गप निश्चित भेल। ओहोमे कोन दुसमनी लगि गेल से पता नै।
वर बाटेमे बिला गेल। के की केलक से नै जानि। सभ तँ दुसमने अछि।
वर नै आएत तँ हमर बेटी कुमारि रहि जाएत। दोसरठाम बिआहक
गप्पो नै होएत। लोक सोचत लड़कीमे कोनो खराबी छै। बाप रे बाप, कोन उपए हेतै। केतौ कऽ ने
रहबै- हम। सभटा खरच-बरच बेकार चलि जेतै। फेर दोबारा केतएसँ एतेक टाका-पैसाक बनोबस करबै। अफवाह फैलत- बिआहमे कोन नाटक भऽ गेलै रौ।
केकरो सोझहामे केना जाएत।
अकलू मड़र अन्हारेमे बैसि कऽ कानि रहल अछि।
लोक सभ वरकेँ खोजि-खाजि कऽ आपस आबि रहल अछि।
“केतौ नै भेटलै। बड़की सड़क तक केतौ नै छै।”
“चारि-पाँचटा छौड़ा बौआ रहल छेलै।
लग जा कऽ पुछिते पड़ा गलै। गुँहे-मूते दौगैत अपने गाम दिस आएल।”
सभ निसाँस छोड़ैत अछि।
वरक काका चिचियाइत अछि-
“आबि गेल। आबि गेल- दुल्हा। केतए
रहि गेल छेलही, तूँ सभ
रौ।”
हंस पलटि गेल-समधीक। सबहक आँखिमे उत्सुकता। शान्त
पोखरिमे हलचल। लोकक देहमे जेना गति आबि गेलै।
नाच-मंडलीक कलाकार फानि कऽ स्टेजपर चढ़ि
गेलै। ढोलक-हरमुनियााकेँ जेना परान घूमि गेलै।
औरत-सभ खखसि कऽ गला साफ कऽ रहल अछि। तरे-तर।
“लीलाक माए जल्दी सभ किछो तैयार करू। चुमबैले। समए नै छै।”
“चलू,
पहिने लड़िका देखबै।”
ग्रामीण सभ जमा भऽ गेल छै।
“समधि कहाँ छै?”
“समधीकेँ रतौनी भेल छै। कम सुझै छै।”
“अहाँक बेटा कहाँ अछि? कानमे तँ लंगोटा बन्हने छै- सुनतै केना।”
“हेयौ दुल्हा केतए छै?”
बरियाती सभ चारूकात सँ घेरने अछि। बीचमे चारि-पाँचटा छौड़ा ठाढ़ अछि। ओकरा देहपर कछी-जंघिया
मात्र अछि। उघारे देह-जाड़सँ सुटकौने। मुँह लटकौने।
दुल्हाक काका हाथसँ इशारा करैत छै।
“वएह छी वर। जेकरा देहपर ललका जँघियाटा अछि।”
उचितवक्ता फेंफिया कऽ बजल-
“अरे तोरी कऽ। हौ, ओइ गामक एहने रिवाज छै। नंगा भऽ कऽ अहिना उघारे बिआह होइ छै। नंगटा कहीं के...।”
“सभ खचरपन्नी समधीक छी। दहेजबला सभटा टाका-पैसा
अपना मौगीक पछुआरे रखि कऽ आएल
अछि।”
“हँ हौ, बेटाकेँ कछी-जंघिया पहिरा कऽ कुश्ती लड़ैले ठाढ़ केने अछि।”
सभ ठिठिआ कऽ हँसल। हा... हा... हा.. ही... ही...।
“हे रौ हमरा तँ लगै छौ, भैंस-गाए
चरा कऽ बाधसँ ऐठाम चलि एलौं।
देखहक तँ कपारमे एको बून तेल छै। बिआह हेतै, कोनो
खेल नै हेतै। दसटा ग्रामीत देखतै।”
“माथपर मौड़ कहाँ छै हौ?”
“चुप रह, मौड़ की देखबहक। घौड़ देखहक। बेटाबलाकेँ संतोष रहै छै
हौ। दैत रहक।”
समधी तरे-तर तामसे फुलल अछि। बेटाक हालति देखि
बजत की। अन्तमे घोंघिया कऽ बजल-
“जखनिसँ दुआरिपर पएर रखलौं तखैनेसँ सभ ओल सन
बोल बजि रहल अछि। आँत छुबौआ बात। जेना हमर कोनो परतिष्ठे नै। मनुखक बेवहार
एहने होइ छै की? सभटा बकटेटिया आ लंठाधिराज जमा भऽ गेल अछि। बेसी तामस चढ़त तँ लड़िकाकेँ
लऽ कऽ चलि जाएब। सबहक जेना मगजे उनटल छै।”
कालू मड़र बीचमे आबि कऽ सम्हारैत अछि।
“सभ बकटेटे जकाँ गप नै करहक। एकरा सबहक संगे की
भेलै सेहो तँ बुझबहक।”
समधी अपना बेटासँ पुछै छै-
“की भेल रहौ बौआ?”
दुल्हा ठोह पाड़ि कऽ कानए लगैत अछि।
उचितवक्ता ठिठिआ कऽ हँसए लगल।
“कनियाँ बिदागरी कालमे कानै छै। ई केहेन वर छै जे सासुर अबिते काल कानि रहल
छै मौगी जकाँ।”
“पहिने सुनि लहक गप।”
“हमरा सभ टाएर-गाड़ीसँ आबि रहल छेलौं। बाधमे सात-आठटा डकैत धेरि लेलक। जेबीसँ सभटा पैसा-कौड़ी छीन लेलक। टाँर्च तँ हाथ मोचाड़ि कऽ पहिने झपटि नेने रहए। दिल्लीसँ कमा कऽ घुमैत काल जे पंेट-शुट कीनने छेलौं सेहो निकालि लेलक। हमरा
सभकेँ ठाेंठकरिया दैत गाड़ीपर सँ खसा देलक। आ उ सभ टाएरपर चढ़ि बड़दकेँ हाँकि
देलक।”
“हम कहै छियौ, निश्चित मूतनमा डाकू हेतौं। आइ-काल्हिमे ऊ जेलसँ छुटल छै।”
“आब लिअ, सुनियौ, सरकार केहेन छै। चोर-डकैतकेँ केतेक छूट दऽ देने छै। केतौ आएब-जाएब मोश्किल। सभ अपने कुरसी बँचेबाक
लेल परेशान। गरीबक तरफ धियान के देतै?”
चोर-चहार निशंक भऽ कऽ साँझ-विहान लुट-पाट करै छै। घूसक टाका-पैसा
गनैत-गनैत रक्षा करैबलाकेँ पलखति नै भेटै छै। की करतै, आदति
पड़ल छै हौ।
“हाय रे, अपने समांग दालि-भात।”
“अच्छा आब ऊ बात छोड़ि दहक दुल्हाकेँ कपड़ा-वस्तर
पहिराबह।”
धड़फड़ीमे दोसराक धोती-कुरता
वरकेँ पहिरा देल गेलै। देहक नापसँ कुरता नम्हर
छै। लड़िका बाबाजी जकाँ लगै छै।
उचितवक्ता ऊपर-निच्चाँ तकैत
कहै छै-
“हड़बड़ी बिआह कनपट्टी सिनुर।”
“टाइम नै छै। विध-बेवहार शुरू करह।”
फेरसँ सबहक मुँह हरिआ गेलै। गीत गनगना गेलै। ओने राजा
सलहेसक नाच शुरू भऽ गेलै।
“अरे तोरी के, देखहक, तालपर
डान्सरकेँ नचैत। जेहने रूप तेहने नाच। आइ खूबे जमतै।”
अखनिओ मनोरथ मड़र नम्हर केश रखिते अछि।
जुआनीमे लोक ओकरा नटुआ कहै छेलै।
बिच्चेमे टपकल-
“अरे,
ई की देखै छी। एक समैमे हमहूँ नामी डान्सर छेलौं। धनिकाहा गाम नाच-पाटीमे
गेल रहियौ। तीन दिनक साटा रहै। भोरेसँ बड़का घरक मलिकाइन सभ कहै- चाह हमरा घरपर बनतै तँ कोइ कहै जलखै हमरा घरपर। मन तँ हमर उड़ल फिरै। लेकिन
की करबै अपना घरक मोह...।”
नाच शरू भऽ गेल छै। राजा सलहेसकेँ रिझबैले सती सेालहो सिंगार
कऽ रहल छै।
अँगनामे साईत सिनुरदान भऽ रहल छै। झोंकपर गीत कान तक आबि
रहल छै।
दुल्हा सिनुर लियौ हाथ, पान-सुपारीक साथ,
दुलहिन उघारि लियौ माथ, सिनुर
लए ले। दुल्हाक सिरपर शोभे मोर, दुलहिन सभदिन पूजत गोड़
दुलहिन उघारि लियौ मांग,
सिनुर लए ले।
ग्रामीत सभ नाचक रसमे दुबकि गेल अछि।
गामक झगड़ा-लड़ाइ आ सिनेह-परेमकेँ
अजय देखि रहल अछि। ओ कखनो नाच लग जाइत अछि तँ कखनो कोनचरसँ आँगन दिस हुलकी मारैत अछि। चारूभर छड़पटाएल घुड़ैत अछि। किन्तु शीलाक कोनो सुर-पता नै भेट रहल छै। अजय तकैत-तकैत अपस्यिांत।
पछुआरमे केराक बड़का-बड़का गाछ लाेके जकाँ ठाढ़ छै। छोटका-छोटका झड़-झाँखुरमे भगजोगनी भुक-भुकाइते
रहै छै। ओइ झाँखुरक अढ़मे माटिक ढिमका छै। वएह तँ बनल अछि, दुनूक
परेम मिलन स्थल। ओइठाम दुनू गोटे सभ किछु मोन पाड़ैत अछि आ सभ किछु बिसरैत
अछि। जहियासँ जोड़ लगैत गहुमन ओइ जगहपर मारल गेलै तहियासँ ओम्हर जेबाक साहस
कमे लोक करै छै।
अँगनामे शीलाकेँ कछमच्छी लगल छै। लोकक आँखिसँ बचि कऽ ओइ
जगहपर जेबाक कोशिशमे लगल छै। परन्तु काजक अँगना अछि तँए कोइ ने कोइ ओकरा सोर
पाड़ि लैत अछि।
पछुआरमे अजयकेँ मच्छर काटि रहल छै। चोर जकाँ रगड़ि कऽ
मच्छरकेँ मारैत अछि फेर विचारमे हरा जाइत अछि।
शीला आइ दुलहिन जकाँ सजल छै। केना ने सजितै? ओकरा
बहिनक बिआह भऽ रहल छै। छजन्ता छै।
अजय आगूक खत्तामे देखैत अछि। पानिमे चान थरथराइत टहलि
रहल अछि।
चन्द्रमाँक बगलमे दोसर चानकेँ उगैत देखि चकोरकेँ चकविदोर
लगैत अछि।
“अन्हारमे चोर जकाँ के बैसल अछि?”
“मोन आ दिलकेँ चोरबैबला चोर।”
“हँ ठीके मक्खन चोर।”
अजय आ शीला सहटि कऽ बैसि
गेल अछि। दुनू एक-दोसरसँ अर्थहीन गप
कऽ रहल अछि। जइमे अर्थ भरल अछि। दुनू तेना कऽ सटि गेल जे लगैत अछि जेना गहुमन
साँपक जोड़ी फेर जोड़ लगल।
लोभ फाेंफिया उठल। हाथपर चढ़ि कऽ कामना ससरि रहल अछि।
सुगन्धक स्वरूप बदलि गेल अछि। मुखक लाली चारूभर छिड़िया गेल छै। जेकरा ठोर
समेटि रहल अछि। कामना आ परेमक डोरि बढ़ले जा रहल अछि। मन्द बसात सँ केराक गाछ
हिलैत अछि। सुखदानक संगे पत्तापर सँ पानिक बून भरभरा कऽ गिरैत अछि।
अँगनासँ कोहबर गीत आबि रहल अछि।
कथी केर मड़बा कथी केरि कोहबर
कथी-केरि लागल केबाड़,
यौ बिनु बाँसक कोहबर
सोने केरि मड़बा, रूपा केरि कोहबर
हीरा-मोती लगल छै केबाड़, यौ बिनु
बाँसक कोहबर।
mmm
१४
गामक चौबटिया। असलमे तीनबटियाकेँ सभगोटे चौबटिया नाओं रखि देलकै। दस गोटे जे कहलकै सएह
साँच। गाए बाहलै तँ हँ। बड़द बाहलै तँ हँ। की करबै, गामक
तँ एहने रूल छै।
पीपरक गाछ तर अजय धिया-पुताकेँ
पढ़ा रहल छै। ई गप केतेक दिन टोलबैयाकेँ कहलकै मुदा
कोइ धियान नै देलकै। केना कऽ धियान देतै, फुरसत हेतै तब ने। खेती-गिरहस्ती आ बीच-बीचमे सराध-बिआह
आबि जाइ छै। फेर पावनि-ितहार। संगहि झगड़ा-लड़ाइ तँ सभ दिन होइते रहै छै। एक-दोसराक टाँग पकड़ि कऽ घिचैक तैयारी।
दुसमनक काजमे बाधा नै देल हुए तँ सोझहामे हवा जरूर
छोडि देत। दुरगन्धे निकलतै। दोसराकेँ बढ़ैत देखि चुप रहब बड़ कठिन।
एहेन टोलपर अजय धिया-पुताकेँ पढ़ेबाक कोशिश कऽ रहल छै।
लोकक दुआरिपर गप उड़ि रहल छै।
“सरकारी नोकरी तँ भेटलै नै। आब चललै, गामकेँ सुधारै वास्ते।”
“अपना जेना बड़ सुधरल। दोसरो धिया-पुताकेँ निकम्मा ने बना देलक तँ फेर
कथीले।”
“बकटेट भऽ गेलै। नै घरकेँ आ ने घाटकेँ। कहै छेलै
जे सभगोटे पैखाना कोठली बनाउ। रूपैआ केतएसँ लबतै लोक।”
“बकरी-गाए चरेतै तँ दू पाइक उन्नति करतै, धिया-पुता।
जँ अजैयाक सभटा गुण सिखतै तँ समाजमे सभसँ लड़ैत रहतै।”
किछु लोक सभ जगह अलग तरहक होइ छै।
ओकर सबहक सोच भिन्न छेलै।
“धिया-पुता उच्चका जकाँ भरि दिन खेलाइते रहै छै। ऐठाम पढ़लासँ
फ्रीमे दू अछरक बोध भऽ जेतै। अजैया केहनो छै तइसँ की। काज तँ नीके कऽ रहल छै।”
“लोक सभ किछो कहौ हमरा सबहक धिया-पुता पढ़तै।”
रसे-रस गाछ तरक स्कूल चलतै की, दौड़ए लगलै। आ ढोढ़ाइ गुरुजी तामसे भेर। दियादक संगे अकलू मड़रक पलिवार ढाठल
छै। जाति आगि पानि बन्न कऽ देने छै। ओकर छौड़ा बिच्चेमे
बैसि कऽ ककहारा पढ़ि रहल छै। अजय कनीकाल लेल कोनो चलि गेल छेलै। ताबे छौड़ा सभ हड़-हड़ खट-खट शुरू कऽ देलकै।
“हे रौ, तूँ तँ ढाठल-बान्हल छी। हमरा सबहक बीचमे किएक एलही।”
“ई केकरो दुआरि थोड़बे छै। ऐठाम किए ने एबै।”
“नै रहए देबौ ऐठाम। भागि जो, नै तँ बापसँ भेँट करा देबौ।”
“बापक नाओं लेबही।” “चटाक-फट्ट”
“दुनू तरफसँ थप्पर-मुक्का शुरू भऽ गेलै। पेंट-गंजी फटि गेलै। ठोरसँ खून छड़-छड़ बहए लगलै। छौड़ा कनैत अँगना दिस
भगलै।”
अजय तेजीसँ पहुँचल। सभकेँ फटकारैत पाँितमे बैसौलक। ओकरा
सबहक दिस तकलक।
सभटा बनैया धिया-पुता सन लगैत अछि। हजारोक भविस अन्हार दिस जा रहल छै। बचेबाक प्रयासमे अपनो भविस अन्हारमे चलि जेतै। बलिदान तँ करए पड़तै। प्राप्त
करबाक लेल किछु हरा जाएब स्वभाविके छै।
अकलूक पितियौता भाय रामरती मड़र गरजैत आबि रहल छै।
“ई झटकूक बेटा माहटर बनि गेलै। खूनियाँ माहटर। ठीके कहै छेलै, ढोढाइ गुरुजी- हम तँ धान-चाउर लऽ कऽ पढ़बै छेलौं। मुदा अजैया खून लेत।”
“की भेल मड़र?”
“ई कालू मड़र, सार अपनाकेँ लाइट सहैब समझै छै। अपना धिया-पुताकेँ सनका देलकै। धरहा कुत्ता जकाँ लोककेँ कटने
फिड़ै छै। हमरा छौड़ाकेँ अंगा फाड़ि देलक। मारैत-मारैत
खून बोकरा देलकै। ई बहींचो मैनजन छी आकि काल। ओकरे धिया-पुताकेँ
आइ हम थकुचि देबै।”
कालू मड़र ओमहरसँ अबै छेलै।
गारि सुनिते गरजैत कहलकै-
“ऐ रामरती, मुँह खाली नै कर। मरदक बेटा छेँ तँ हमर कोनो बेदराकेँ
हाथ लगा कऽ देखही। ओहीठाम हाथ काटि देबौ।”
कुत्ताक झुंड एक दोसरपर भूकए लगलै। धिया-पुता सभ किताब लऽ कऽ पड़ाएल।
“भाग रौ खून खतरा हेतौ। दूनूक दियादवाद लाठी-भाला
लऽ कऽ निकलि गेल छै। टोलमे हड़कम्प मचि गेलै।”
मुँहपुरुख सभ बीच-बचाव कऽ रहल छै।
“आपसमे किएक लड़ै छी। सबूर करू। शान्त रहू मड़र। गपकेँ नै बढ़ाउ।”
ढोढाइ गुरुजीकेँ दाउ सुतरि गेलै। फेर क, ख,
पढ़बैक बदला एक बोड़ा धान लेतै। कुदि कऽ आगाँ अबैत बजल-
“सभटा नाटक अजैया कऽ रहल छै। झगड़ाक जड़ि।”
दुनू पक्षकेँ लोक सभ ठेल-ठालि
कऽ हटा देलकै। असगरे अजय गाछ तर ठाढ़ अछि।
गाछसँ स्वर निकलि रहल छै- एकटा बिआसँ हमर जनम भेल। छोट-छीन बीआमे
नुकाएल छेलौं। बाहर एलापर हजारो बिआ हमरासँ निकलि रहल अछि। एकसँ अनेक। हमरा छाँहमे केतेक जीव-जन्तु सुखक निसाँस लऽ रहल अछि। तैयो
हमरेपर झटहा...।
mmm
१५
धनुषधारी मड़र टोलबैया सभकेँ जातिक गौरव-गाथा सुना रहल छै।
“है यौ, जीबू झा हमरा छोटा जाति बुझैत अछि। हम सभ तँ मगधक
धनुष धारण करए बला जाति छी। हमरा सबहक जातिमे की नै अछि। ऐ जातिक केतेको नेता देशकेँ स्वतंत्र केलक। आइओ मंडल नेता अपन अलग पहिचान बनौने अछि। जातिक देवता
बाबाक स्थान मगहमे छै। सुनै छी जे महतो बाबा जीवान्तेमे समाधि नेने रहथि। तँए ऐबेरक एलेक्सनमे मंडल सभकेँ सोचबाक
चाही जे केकरा जीतौलासँ हमर जाति आगाँ बढ़त।”
“मड़र,
जनौ आब निकालि लिअ।”
“किए यौ, हमर वंशज
कोनो छोट अछि।”
“धूर अहींक जातिक फुलचनमा एकटा नचनियाँ छौड़ी संगे भागि गेल।”
“कहिया यौ?”
“दस-पनरह दिन पहिने। बाप तँ दिल्लीमे कमाइ छै। सुनै नै छी- ओकर माए बोमिया रहल छै।”
“चुप रह, एक-आध परशंेट सभ जगह अहिना होइ छै। तइसँ की लोक छोट भऽ जाइ छै।”
mmm
१६
“बाँन्हल जूड़ा खुबीए गेल, नयना
नाेर चुबै हे
ललना रे दरदेसँ मन भेल बियाकुल किनका जगाएब हे...।”
स्त्रीगण गीत गाबि-गाबि धान रोपि रहल अछि। मरद सभ तँ
पंजाब दिल्लीमे खटि रहल छै। औरत सभ काज नै करतै तँ खेती-पथारी
नै हेतै। औरत सबहक खुशामद करए पड़त आब।
गिरहत पाछूसँ कहैत छै-
“पाँति सोझसँ लगा। बिराड़केँ पूरा गाड़ि दीहैक। हाथ तेजीसँ चला।”
“चुप रह मौगा-गिरहत।” घुनघुनाइत स्वर।
औरत सबहक धियान गीतपर छै। ओइ सूरपर हाथो चलि रहल छै।
“पूर्वा जे बहै झलमल हे ननदि
आब पछिया बहै मधुर हे
ननदि भौजाइ मिलि पनिया लँ गेलै
जमुनामे उठि गेलै बाढ़ि हे...।”
“चुभ्- चुभ...।” कतारमे धानक बिराड़ माटिक सहारासँ
ठाढ़ होइत! माटि-पानि-प्रकाश-बीआ-प्रगति- निरन्तर
विकास!
आड़िपर सँ एक गोटे हल्ला करैत छै-
“झटक लाल मड़र स्वर्ग सिधारि गेला। दाह संस्कारमे
शामिल हेबाक लेल हकार देल जा रहल अछि।”
“करनी देखबै मरनी बेरमे।”
“ले सभ काजपर बज्जर गिर पड़लौ। अखने मरबाक टेम छेलै।”
“रोपनी टाइममे तँ लोक लहाशोकेँ झाँपि दइ छै- औछाओन
तरमे। की करबहक चलह-चहल।”
mmm
१७
कालू मड़रक दुआरिपर जातिक बैसकी भऽ रहल छै।
“भोज तँ लोक अपना मनसँ करै छै। ऐ मे दोसर गोटे की कहतै।”
“सुनै छी जे ऐ टोलपर केकरो पुरखा भोज केने रहै। केतेको
सभा नोतल रहै। पहाड़ सन भातक गंज। ऐ पारसँ ओइ पार। किछु ने देखा पड़ै। आधा मील
तलक लोक पाँतिमे बैसल रहए। जे धिया-पुता हरा गेलै से दू दिनपर भेटलै। रेलबे
कातमे भोज भेल रहै। रेलक डरेबर, गार्ड उतरि गेलै। अंग्रेजीमे
पुछए लगलै। लाेक पातपर दालि-भात देलकै। खुशी-खुशी
खेलकै। ओइ समैमे सम्पति अपार रहै। दिल विशाल रहै। इलाकामे चरचा बहुत दिन तक
होइत रहलै- हँ भैया धानुको जातिमे महाभोज चौड़ासी होइ छै। आब तँ फूटहा खा कऽ लोक जीबैत छै। कहाँ राजा भोज...।”
“बजहक जागेसर केतेक गोटेेक भोज करबहक?”
“हमर हालति तँ बड़ खराप अछि, तैयो हम जातिसँ बहार नै छी।”
“हौ एकर बाप तँ लोककेँ खेत-पथार बेचा देलकै। एकरा केना छोड़ि देबै।
अजैयाक टेरही अही बेर तोड़ि देबै।”
“भोज नै देतै तँ जातिसँ अलग कऽ देबै।”
कालू मड़रक धियान जागेसरक पचकट्ठबा खेतपर छै। टक लगौने छै केतेक दिनसँ।
धरमानन्द बाबूक धियान जागेसरक चरका बड़दक जोड़ीपर छै। बेचैए पड़तै। जेतै केतए।
“हँ,
हँ रूपैआ-पैसा भऽ जेतै। बहुत कमा कऽ रखने छै- झटकलल मड़र।”
“समाजमे किछु हैसियत देखाबए पड़तै।”
“हँ हौ बिना भोज केने स्वर्गक दुआरि केना खुलतै।”
“अठगामा लोककेँ नोति दहक। आखिर ओकरे अरजल सभटा खेत छै।”
अजय बीचमे आबि बजैत अछि।
“दबाइक अभावमे हमर बाप मरैत रहए, तँ केकरा पासमे रूपैआ नै रहै। पैंच, रीन कियो
नै देलक। आइ सबहक लग रूपैआ छै। हम बुझै छी राजनैति
हम भोज नै करबै।” कहैत, जातिक बैसकीसँ उठि चलि देलक।
“हे हे एना नै बजहक।”
“आ रे तोरी कऽ सबहक मुँहमे टाटी लगा देलकै। ठीके छै। जहिया जातिक चोटपर चढ़तै
तहिया बुझतै।”
सब किछुसँ किछु बजैत तामसे गुम्हरैत चलि देलक।
mmm
१८
खेलावन भगत चौबटियापर चक्कर पूजि रहल छै। एकाश दिस
तकलकै। लगलै जेना अधरतिया भऽ गेलै। ओना तँ साँझो-परात
लोक एनए नै अबै छै तँ रातिक कोन गप। लोककेँ डर
पैसल छै-
जे सुनहटमे बाधक चौबटियापर मुँहरगड़ा प्रेत रहै छै। एक दिन
उचितवक्ताक कक्का चोटपर चढ़ि गेल रहै। खून बोकरैत-बोकरैत
आँखि उनटि गलै। के जानि-बूझि कऽ आगिपर टाँग राखत।
“जानि बूझि नर करै ढिठाइ...।”
किनकर मैया बाघिन जनमे। केकरा ओतेक हिम्मति छै जे एमहर
एतै। खेलावन भगत पूरा निचेन अछि। ओकर आँखि अड़हूल फूल जकाँ लाले-लाल भऽ गेल छै। धोतीकेँ डाँरमे कसने अछि। चाकड़-चौरठ
देह, नंग-धड़ंग।
आगूमे सजावटिक संग पसरल अछि। अड़हूल फूल, अरबा चाउर सिनूर। एक कातमे मनुक्खक खोपड़ीक कंकाल, दाँत
किचने। धधकैत आहूत। पाँतिमे जरैत दीप।
धूमन आ घी जोरसँ झाेंकैत अछि। तँ आहूत धधकि उठैत अछि। निशिभाग
अन्हरिया रातिमे धरमडीहीवालीक चेहरा चमकि उठैत छै। नमरह-नम्हर खुगल केश। पैघ-पैघ
आँखिमे नीनक छाँह। जेना निशाँमे मातल होइ। अधभिज्जू साड़ीसँ देहक किछु भाग
झाँपल,
किछु भाग उघाड़। बन्न होइत आँखि खेलावनक
गर्जनसँ चौंकि उठैत अछि।
“जय काली-वन्दी-जोगनी
भद्रकाली-कपाली...।”
आगूमे जरैत दीप दिस ताकए
लगैत अछि।
“ओने नै एमहर देख। धधकैत आगि दिस।”
खेलावन गरजैत अछि-
“जेना कहै छियौ तहिना करैत जो। हमरा औडरकेँ अवहेलना करबै तँ अलटरबाकेँ स्त्री
जकाँ सौंसे देह आगि धधकि उठतौ।”
धरमडीहीवालीक ठोर सुखा रहल छै। बजतै से सट्ठा नै छै।
“नै यौ भगतजी। जहिना कहबै तहिना करबै।”
“हँ,
करैत जो। तइमे कल्याण छौ। जय काली।”
ऊपर दिस तकैत चिचिया उठैत अछि।
“गे छुलही गात छोड़ नै तँ जरा कऽ भसम कऽ देबौ।”
भगत आँखि गुड़रि धरमडीहीवाली दिस तकैत अछि।
“एमहर देखि, हमरा
दिस। मुँह किए गाड़ने छेँ। कलशा कऽ जल उठा कऽ पी
ले।”
“आब हम नै पी सकब। हमरा बुत्ते नै हएत। घंटा भरिसँ तँ पीते छी- घोंटे-घोटे। गलामे जलन भऽ रहल अछि। देहम जेना आगि नेश देने अछि।
निन्नसँ आँखि बन्न भऽ रहल अछि। लगै छै जेना आसमानमे उड़ि रहल छी। कहीं बेहोश
भऽ जाएब तब।”
“चुप छुलाही देखै छी- ब्रह्म पिशाचक देल बेंत। ऐसँ अखने...। मन साधि कऽ। पी ले। इलाज भऽ रहल छौ तँ राति भरि कष्ट हेबै करतौ।”
डरे थर-थर कापैत धरमडीहीवाली कलशा उठा कऽ मुँहसँ
लगा लेलक। साड़ी छातीपरसँ ससरि गेल। भगत जीक आँखि नाचए लगल।
कामनाक चिल्हौड़ सुनहट पाबि गन-गना कऽ
उड़ए लगल। स्पर्शक लेल हाथ आतुर भऽ गेल। मन बन्धन मुक्त भऽ बनमे बौआए गेलै।
कलशाक बँचल नीरसँ अपन पियास
मेटबए लगल।
श्राद्ध कर्म एक मास पहिने बीतलै। तहियासँ अजय गपकेँ भँजिया रहल छै किन्तु
कुछो पता नै लगि रहल अछि। ओकर भौजाइ कखनो जोगनी जकाँ प्रगट भऽ जाइ छै तँ कखनो
भूत जकाँ अँगनासँ निप्पता भऽ जाइ छै। परसू शीलाक गपसँ ओकर माथा ठनकल जखनिसँ धर्मडीहीवाली आ भगतक खिस्सा ओ सुनलक तखनिसँ जेना ओकरा देहमे आगि नेश देलकै।
“अरे तोरी के। पूरा टोलकेँ सुधारेबला ठीकेदारक घरेमे भोंकार। लाेक मने-मन कहैत हेतै- अपन घर-पलिबार
सम्हरबे नै करै छै आ दोसराकेँ उपदेश देने घुड़ै छै। पर उपदेश कुशल...। अँगना लेल तँ अजय बेकूफ छै। पता नै खेलावन भगत की भरने छै दिमागमे।”
साँझेसँ अजय अपना भौजाइक चमक-दमक
देखि रहल छै। बिना कारणे टिटही नै लगै छै। अजय ओकरेपर नजरि गड़ौने छेलै। किन्तु छनेमे छनाक। कखनि
निपत्ता भऽ गेलै।
अजय टाँर्च लेलक आ सभ घरमे इजोत घुमेलक। कहाँ छै केतौ। दुआरिपर ओकर भाय जागेसर खोंखिया रहल अछि। अजय
सोझे दौगल- गहवर दिस। हाय रौ तोरी। भगत गहबरसँ पार भऽ गेल छै। केतए हेतै? शीला चौबटिया परक नाओं कहने रहै।
घोड़ा जकाँ दौगल अजय। हकमैत चौबटियापर जूमि गेल। आगूमे
देखैत अछि। खेलावन भगत धरमडीहीवालीक साड़ी खोलि रहल अछि। एहनो हालतिमे
धरमडीहीवाली साड़ीकें भरि मुट्ठीसँ धेने अछि। चीरहरण सफल नै भऽ रहल अछि।
अजय लपकि कऽ भगत जीक बेंत उठौलक आ तड़ा-तड़ि खेलावनक पीठपर बरसबए लगल।
ऐ अप्रत्याशित आक्रमण लेल भगत तैयार नै छल। ओकर दिमागक
काज जेना बन्न भऽ गेल। तैयो पलटि कऽ गरजल-
“के छेँ? आइ जरा कऽ तोरा राखए कऽ देबौ। जय माँ काली...।”
अगिला शब्द ओकरा मुँहसँ नै निकलि सकल। फटा-फट बेंत ओकरा कपारेपर खसए लगल। छड़-छड़ा कऽ कपारसँ लहू बहए लगलै। माथ पकड़ने
पड़ेबाक कोशिश केलक। धधकैत आहूत अजय ओकरा देहपर उझलि देलकै।
“हौ बाप हौ। गे माइ गे।” डिरिया उठल।
अजय पाछूसँ गरजल-
“ठहर सार, आइ सभटा तंत्र-मंत्र तोरा पाछाँसँ भीतर ठूसि दइ छियौ।”
“हौ बाप आब मरि जेबइ हौ।”
कहैत लंक लऽ कऽ भागल भगत।
अजय किछु दूर रेबाड़लक। फेर आपस आबि धरमडीहीवालीकेँ सम्हारि
कऽ उठौलक कहुना घिसियाबैत टोल दिस चलि देलक।
mmm
१९
सौंसे टोल खबरि गनगना रहल छै। केतेक
गोटे अधरतियासँ जगले रहि गेल। केतेक गोटे अधरितियासँ
जगले रहि गेल।
डर केना नै हेतै? सौंसे टोल निशिभाग रातिमे भूत कहरै छेलै। कुहरौआ भूत।
डिबिया नेस कऽ लोक समए कटलक। गाममे कोनो बिजली बड़ै छै।
डरे अन्हारमे केतेक लोक अँगनेमे लगही केलक। कथाी
छी कोन ठेकान। कहीं ऊपरेसँ झपटि लेत तँ जुलुम भऽ जाएत। राति-बिराइत के केकरा देखै छै। सभ दूरेसँ ‘हो-लगऽ-लगऽ’
करत।
किछु हिम्मतगर छौड़ा सभ भिनसरबेमे बाहर निकलि गेल।
टोह लऽ रहल अछि जे कुहरैक स्वर कोन दिससँ आबि रहल अछि। सबहक अनुमान अछि जे
अकलू मड़रक पछुआर चोटाह छै, जैठाम जोड़
लगैत गहुमन मारल गेल, आही झँखुरा दिससँ अबाज अबै छेलै।
अखनी अन्हार पूरा फरीच्छ नै भेल छै। ओम्हर जेबामे साँप-कीड़ाक सेहो एकटा डर। तँए सभ गोटे अकलू मड़र घरसँ पूरब तीन बटियापर ठाढ़ अछि।
पछुआरक ऊ जमीन शाइत परती अछि। तब ने कोइ नै जोत-कोड़ करैत छै।
धुर, हमरा तँ बुझाइत अछि जे केकरो डीह-घराड़ी पहिने छेलै।
हे रौ, धरमानन्द बाबू पोखरि दिससँ आबि रहल
छै। ओकरेसँ पुछल जाए।
हे यौ, अकलू मड़रक पछुआरबला जमीन किएक परती
जकाँ पड़ल रहै छै?
धरमानन्द बाबूक पएर ठमकल।
छौड़ा सभ दिस तकैत बजल-
“बूझल नै छह- जोतबैया बिना खेतबा पड़ल परती। दुखन आ शान्ति मड़र
दूनू भाँइक घराड़ीबला अछि ऊ जमीन।”
“ओ सभ केतए चलि गेलै?”
“दुखन मड़र बड्ड झगरौआ रहै। झगड़ाबला जमीन खोजि-खोजि
कऽ कीनै छेलै। माने झगड़ा खरीदै छेलै। एकबेर पछबरिया टोलक बरियासँ पल्ला पड़ि गेलै।
ओ सात भाँइक भैयारी। धिया-पुता
हर-हाकिम। तेहेनकेँ चपाठलकै जे सभ सेर-सम्पति बिका गेलै। शान्ति मड़रसँ
झगड़ा करैले कहै। मगर शान्ति मड़र किए जाएत।
मोकदमामे आधा खरचा मँगै ओ नै दइ छेलै। दुखन
एक दिन ओकरो कान-कपाड़ फोड़ि देलकै। बेचारे शान्ति
मड़र अपन हिस्सा किछु बेचलक किछु छोड़ि-छाड़ि
कऽ शहर भागि गेल। सुनै छी जे ओकर बेटा सभ बड़का-बड़का
हाकिम बनि गेल अछि।”
“आ दुखन मड़र केतए गेलै?”
“जब रहै धन वित्त नित अबै रे पहुनमा, आब दोस-बोन
छोड़लक दुआर।”
खेत-पथार बिका गेलै। सेर सम्पति सभ नाश भऽ
गेलै। अन्न पानिक अभाव। धिया-पुता बिलटि गेलै। अनटूटू धिया-पुता दबाइ-दारूक अभावमे मरि गेलै। हौ बाप डुबै छी। हौ बौआ हाथ-पएर चलाबह। एने तँ करम भेल रहै बाम। हौ, आब की कहेबह। शान्ति मड़र जखनि
मरलै तँ कफनक कपड़ा आ अछियाक लकड़ी सभ चंदा मांगि कऽ पुराओल गेलै। ओइ दिनसँ ओकर डीह-घराड़ी
परती बनल छै। वंशक एकमात्र टीका पंजाबमे बसल छै।”
“हौ,
पछुआरमे कही शान्ति मड़र प्रेत बनि कऽ नै बैसल छै।”
“धुर,
ई बहुत पहुलका गप अछि। चलू आब फरीच्छ भऽ गेलै। किछु छै
आकि सभ निपत्ता भऽ गेलै। देखबो करबै।”
डराइत-धकमकाइत सभ पछुआरमे पहुँच गेल अछि।
“कहाँ छै केतौ किछो। हवामे बिला गेलै साइत।
रौ टाँग बँचा कऽ रखिहेँ। कहीं साँप-ताँप हेतौ।”
“रौ,
बिचला झँखुड़ा बड्ड हिलै छौ।”
“रौ बहिं, हइया रौ करिया प्रेत। मरि कऽ पड़ल छौ।”
“भाग रौ जल्दी।”
“ठहर,
हमरा ठीकसँ देखि लिअ दे।”
“नाँगटे छै। धोती तँ कटहा झाड़मे फँसल छै। रहतै नै उघारे।”
“हौ बाप ई तँ खेलावन भगत अछि। हौ, दौड़ै जा। देखहक कोन हाल भेल छै।
मारैत-मारैत हगा-मूता देने छै।”
“पानि ला रे। छींट मुँहपर। पूरा होशमे नै छौ। भुट वैदकेँ सोर पार।”
स्त्री-पुरूष ढेर लगल जा रहल छै। औरतिया सभ
नाँगट देह देखिते नाक नुआँसँ मुनैत पड़ाइत अछि।
“मारह मुँह धाय कऽ। हे रौ मुँहझौंसा सभ, पहिने आकरा बस्तरसँ झाँपि
देबही,
से नै।”
“किए भौजी ऐ सँ पहिने ई चीज नै देखने रही
अहाँ?”
औरतिया सभ गारि पढ़ैत पाछाँ घुसकल जा रहल अछि।
“हौ सौंसे देहकेँ झड़का देने छै। पीठीपर लाठीक चेन्ह छै।”
“होशमे आबि गेलै। की भेल भगतजी?”
कुहरैत बाजए लगल।
“हौ,
असल चंडालिन जोगनीसँ युद्ध भऽ गेल छल। ओहने कसगर भूतक सेना
छेलै- ओकरा सँगे। कहुना राति भरि
लड़ैत-लड़ैत गामकेँ बचेलौं। हमर दशा तँ देखिते छहक। तोरा सभकेँ बँचबै खातिर...।”
“आ रौ तोरी के, इएह छेलै
कुहरैबला प्रेत। गौआँ-घरूआ तँ उल्टे एकरे मारितै, अन्हरिया रातिमे। लुक्का लऽ कऽ झड़काबैत।”
“हे यौ भगत, अइठाम केना पहुँचलौं?”
“सभटा भूत, जोगनी, देवीकेँ मारि कऽ भगा देलिऐ। आपस होइत काल बेहोश भऽ कऽ गिर पड़लौं। ऐ टोलक लेल तँ
हम अपन जान अरपन कऽ देलिऐ। आब जाने समाज।”
“धनि छी अहाँ भगतजी। टोलक लोक अहाँक सँग अछि अहाँ लेल तैयार अछि सभ जी-जानसँ।”
“देखहक हौ, धरमडीहीवालीकेँ लोक सभ टाँगने जा रहल छै। अजय पाछाँसँ
दौगल जा रहल छै।”
“सुनै छी अस्पताल जा रहल छै। पुछलाक बादो किछु नै बजै छै अजय।”
“बजतै केतएसँ। गप्पे हेतै ओहने। जे बजलासँ...।”
अजयकेँ नाम सुनिते खेलावन भगत टन-टना कऽ
ठाढ़ भऽ गेल। पछिम दिस चलि देलक।
“हे यौ भगतजी, अहाँ केतए
जाइ छी। अहाँक तबीयत बड्ड खराब अछि। चलू गहवर घर पहुँचा दैत छी।”
“नै,
हम आब नै ठाढ़ रहब। हम जा रहल छी। हमरा बहुत दूर जेबाक अछि।
गुरुसँ भेँट करबाक अछि। वएह हमरा जान बँचा सकैत
अछि। नै तँ रातिमे की हएत से पता नै।”
“हे यौ सुनू भगतजी, कनीकाल मोन मारि सुस्ता लिअ।”
“नै-नै आब नै रोकू हमरा। जुलुम भऽ जेतै।”
दुलकी मारैत पछिम दिस चलि देलक। टाँगमे जेना पाँखि लगि
गेल हुअए।
अा तहिना लोगोक मनमे जेना पाँखि लगि गेल हुअए।
“रौ,
रातिमे सबेरे घरक भीतर बिछौन पकड़ि लीहेँ। साँझे लगही
झाड़ि कऽ कऽ लीहेँ।”
“चोर-छीनारकेँ खौब सुतरतै।”
मरद भऽ कऽ मौगी जकाँ किएक गप
करै छी। चल, अपन-अपना डेढ़हथ्थी पिजा। रोइयाँ नै भगन
हेतै केकरो।”
ईह, बड़-बड़
घोड़ी भाँसल जाए, छोट घोड़ी कहए कहाँ छै पानि।
भोरका सुरूज उगि आएल अछि।
पत्तापर सँ ओसक बून चाटि रहल अछि। बसातक ठण्ढीसँ देह सिहरि रहल अछि। चिड़ै-चुनमुनी अहारक खोजमे चलि देने अछि। पानिक जीव सभ पोखरिमे हलचल शुरू कऽ
देने अछि जेना। गिरहतक स्वरकेँ संगे बड़दक घण्टी बाजि रहल अछि। टोलसँ ऊपर
धुइयाँ उड़ि रहल अछि। सूतल प्रकृति जेना शनै: शनै: जागि रहल अछि। किन्तु ऐ टोलबैयाक माथपर शंका आ डरक छाँह पसरल जा रहल अछि।
mmm
२०
कालू मड़रकेँ अँगनासँ दुआरि धरि लोक सभ सह-सह कऽ रहल अछि। किछु लोक गप हाँकि रहल अछि।
गीत-नाद भऽ रहल छै।
“कालू मड़रकेँ अँगनामे
होम होइ छै- जाप होइ छै
हाेमक धुइयाँ अकास उड़ि जाइ छै।”
अँगनामे औरतिया सभ गीत गाबि रहल अछि। घरमे हवन कुंड जरि
रहल छै। होम-जाप भऽ रहल छै। केना नै हेतै। घरपर गिद्ध बैसि गेल रहै।
अशुद्ध आ अपवित्तर घरमे केना रहितै।
धड़फड़ीमे एकबेर भुटाय वैद्यक घरमे साँप मरबा लेल छोट जाति
ढूकि गेल रहै। ओकरो शुद्ध करबए पड़ल रहै।
ई तँ साफ-साफ घरपर गिद्ध बैसल रहै। भारी अपावन।
मरल गाए-मालक सड़ल मासु खाइबला गिद्ध।
पण्डितजी केतेको परकारक
लकड़ी मँगोने छै। घी, धुमन, जअ-तिल,
मधु सेहो सभ।
होमक धुइयाँ जतए-ततए जेतै। सभ शुद्ध भऽ जेतै।
होमक बाद टोलबैयाकेँ भोज-भात
देल जेतै। देखै छहक ने चूल्हा पजारि देने छै। तीमन-तरकारी
कटबा रहल छै।
हौ, ई तँ बिना मतलबक खरच भऽ रहल छै ने। आखिर
कौआ-पंछीक जखनि डेन दुखा जेतै तँ ओ गाछपर नै तँ
चारपर बैसबे करतै। गाछ तँ आब बड़का-बड़का छेबो नै करै।
हे रौ, कौआ-पंछी आ
गिद्धमे फरक छै ने। सुनने नै छी गिद्ध मारि गिद्ध करे अधारा...। की यौ साहैब। ओना तँ गिद्धोक संख्या घटि
गेलै आब।
धुर छोड़ह, आदमकद भेलासँ आदमी थोड़े भऽ जाए
छै।
हँ हँ, तूँ सभ मनुक्ख छहक। और सभ तँ बानरे छै।
ओइमे परिवर्त्तन हेबाक चाही।
केतएसँ बिच्चेमे
भगतिया सभ आबि गेलै हौ? मैयाक डाली उठि गलै शाइत। केकरो सपन
देने हेतै।
हँ हौ, देखै छहक ने सभसँ आगू। डालीमे माइ सजल
छै। तेकरा पाछू भगत बेंतसँ इशारा करैत वाक् दऽ रहल छै। सभसँ पाछूमे भगतिया सभ
भगति गाबि रहल छै।
...चकमक-चकमक करैत कहमाँसँ एलै हे मैया...।
जेहने झालि बजौनिहार तेहने मिरदंगिया।
सुनहक की कहै छै- भगत।
सुनु हे दाइ-माइ सकले-समाज।
हमरा सपन देलक माइ। जे हम सिलौट-लोढ़ीमे परगट भऽ रहल छिऔ। कोइ मसाला पिस
कऽ नै खो। पनरह दिनक बाद सभ अपना देव-पित्तर लग माथ लगाबिहेँ। पूजा-पाठ केलाक बादे मसाला पिस कऽ खा सकैत छहक। दस गामसँ माँगि-चाँगि कऽ पूजा-पाठ कएल जेतै। तब देवी माइ खुश हेती।
आब सौंसे टोलसँ चाउर आ रूपैआ
माँगि कऽ भगत लग जमा करहक।
परसाल हल्ला भेल रहै जे औरतिया सभ अपना-अपना नैहरासँ लबका साड़ी, चूड़ी पहिरि कऽ सासुर एतै। आ सासुरमे
घीसँ भरि राति दीप जरौतै।
तब ने साड़ी, चूड़ीक दोकानदार सभ मालो-माल भेला।
फेर ऐबेर कोनो मसाला कम्पनीबला नाटक केने हेतै।
हौ, शिक्षित नै बनबहक। आर्थिक सुधार नै
करबहक। तँ ऐ अन्हरजालीसँ बँचबो नै करबहक। चारूभर
तँ अन्हरेसँ घेरल छहक। ओ हो देवी-देवताकेँ तँ निरमान लोके ने केलकै। दोख
केकर?
ई अजय एक नम्बरकेँ बकटेट अछि। जेकर धिया-पुता एकरा लग बैसतै सभ बकटेट भऽ जेतै। हम तँ अपना छौड़केँ ममहर पठा देने छी।
देवी-देवता किछो नै बुझै छै। अहंकार देखबै
छै। नाश हेबाक पहर छै।
एहेन लोककेँ तँ गामसँ भगा देबाक चाही।
तोरा सबहक विचार उनटि गेल छह।
पढ़बहक-लिखबहक नै तँ अहिना
हेतह। नया ढँगसँ खेती-वाड़ी नै
करबहक तँ सभ दिन भूखे मरबहक। फँसले रहबहक पुरना जालमे। मरैत-रहअ आ
सड़ैत रहअ। मुरुख चपाट।
हे रौ पहिले अपना पलिवार आ कुल-खनदानकेँ
सुधारि ले। पढ़ा-लिखा ले तब लबरपन्ना करिहेँ। आ बेसी
मुरुख-मुरुख कहबेँ तँ अखने...।
ईह उचित कहैत घर झगड़ा।
हाँ हाँ, चुप रहू मड़र।
अस्थिर रहू। की मुँह लगबैत छी। अरे जे जस करै सो तस फल
चाखा।
हँ हँ ऐठामसँ चलू। नै तँ झगड़ भऽ जाएत।
होमक काज भऽ गेलै। चलै चलू भोज खेबाक लेल। लोक सभ बैसि रहल छै।
भोज खाइबला पंच सभ पाँति लगा कऽ बैसल छै। केराक पातपर दालि-भात,
तीमन-तरकारी परसल जा रहल छै।
हौउ, शुरू करू भोजन।
रौ तोरी के, घी कहाँ पड़लै हौ, बिसरि गेलहक की?
नै यौ, घी तं सभटा होममे जरि गेलै। बँचल रहितै तब ने।
सभटा आगिमे डाहि देलहक। ई तँ काबिल लोकक काज अछि।
वातावरण केहेन हम-मह करै छै।
सुकरातियेमे तँ टीकमे तेल पड़ैत। कहियो-काल भोजे-काजमे जी कऽ घीबक सुआद मन पड़ैत छल। तहूपर बज्जर गिरल।
जल-ढार भऽ गेलै। झब-झब खा
ले। देखै छी ऊपरमे। गिद्ध फेर चकभौर मारि रहल छै।
कहुना केकरो चारपर फेर बैसि
जाए।
बैसबे करतौ। जतए एहेन अधरमी लोक रहतै आ देव-पितरकेँ निंदा करतै ततए कुछो भऽ सकैत अछि।
दालि-भात आ तीमन-तरकारी
पाँते-पाँत दौग रहल अछि।
हौ पानि चला दहक। बक्-बक्
गाड़ा लगैत अछि।
आरो तोरी के, भगै जो रौ। फेर कालू मड़रकेँ
चारपर गिद्ध बैसि गेलै। देखहक हौ, जुलुम भऽ गेलै। गिद्ध तँ ओंघरा
कऽ निचा गिर पड़लै।
हौ, गिद्ध मरि गेलै। दौड़ै जा हौ। सभ
देखबाक लेल दौगल। भात-दालि टाँगसँ धँगा गेलै। भोज घिना गेलै।
अधा खा कऽ किए भागल-लोक सभ।
भागत नै तँ गिद्धे जकाँ जान देत। पपियाहा! महा
अनिष्ट केलक। तब ने एहेन गप भेलै।
बेमरियाह माल हेतै नै तँ साँप कटलासँ मरल मवेशी हेतै। ओहन
बिखाहा मासु खेतै तँ गिद्ध मरबे करतै।
फेर ई दोसरे बात।
आब कोन उपए हेतै हौ देव। हौ
समाजक लोक। महा अनरथ भऽ गेलै।
सभकेँ ठकमुड़ी लगि गेल छै। गप
कटाबलि चलि रहल छै। किछु डेरबुक सभ ससरलो जा रहल अछि। की हेतै की नै। अँइठ-कुँइठ सबहक देहमे लगि गेल छै। धाेइले पहिने।
एहेने समैपर लोक अपन-अपन गम्भीर विचार रखि सकैत अछि।
आब करहक बड़का होम-जाप आ महाभोज।
सभसँ फराक भऽ कऽ कालू मड़र मुँह बाबने ठाढ़ अछि। टक-टक आसमान दिस तकैत। मने-मन बिदबिदा रहल अछि। जेना कोनो मंत्र
आसमानमे भेज रहल अछि। आकि कोनो देव-पितरसँ गप
कऽ रहल अछि।
mmm
२१
“ढोढ़ाइ गुरुजीक भाय सिफैतकेँ नोत देबही तँ हमरा सभ भोज नै खेबौ।”
“ठीके,
ओकरा बध लगल छै। ने पूजा पाठ केलक ने गंगा असलान केलक। तब
पाँतमे बैसि कऽ खाएत। हम बरदाश नै कऽ सकै छी, ई गप। जाति आ धरमक गप
अछि। एनामे तँ लोक बहैश जाएत।”
भोज होइसँ पहिले नोत दइकालमे दसगोटेसँ सलाह-विचार तँ करै पड़ै छै। भोजक सुगन्धसँ लोक चट
दऽ जमो भऽ गेल। आपसी विचार करए लगै छै। हौ की भेल रहै? केना
वध लगलै।”
“हौ हाटसँ साँझमे खरीद कऽ लाबने रहै। रातिमे बान्हले बड़द मरि गेलै।”
“हौ,
कथीसँ खेती-पथारी करतै। बुझहक जे बजर खसि पड़लै।”
“बेमानीक टका-पैसासँ खरीदने हेतै।”
“बेचाराकेँ ऐबेर खेती मार भऽ जेतै।”
अजय ठाढ़ भऽ कऽ गप सुनैत
छल। ओकरा नै रहल गेलै तँ बजल-
“ओकरा तँ दुख पड़ले छै। ऊपरसँ अहूँ सभ तँ परान खींचबाक लेल तैयारे छी।”
“आब सुनियो अजयक गप। ई ऐ टोलमे कोनो बन्हन नै
रहए देतै। सभकेँ बिगारिकेँ छोड़ि देतै। एकोबेर इनसाफक बात नै करै छै।”
“इनसाफक गप हम नै करै छी। अहाँ लबकीकेँ बेटीक
साथ इनसाफ केलिऐ? ओकर बेटी बीख खा कऽ मरि गेलै। के नै जनै छेलै
जे ओकरा पेटमे कनफट्टा बनियाक बच्चा पलि रहल छै। कनफट्टा ओकरा सँगे जोर-जबरदस्ती केने रहै।”
“कहाँ गछलकै पंचैतीमे?”
“पंचैतीमे केतएसँ गछतै। ओइसँ पहिने कनफट्टा
लोभ दऽ देलकै। जे हम तोरा संगे बिआह कऽ लेबौ। तोहर पलिबारक खरचा हम अपना दोकानसँ
चलेबौ। ऐ कारणे लबकीक बेटी पंचैतीमे कनफट्टाकेँ बँचा
लेलकै। पंचो सभ टाका-पैसा नेने
रहै। सभ बातकेँ मटिया देलकै।”
“बादमे तँ सभ पंच लग गेल। पएर पकड़ि सभटा गप
कहलक। अहाँ सभ कहाँ कऽ सकलौं-इनसाफ। उनटे ओकरा बेहया-बेश्या कहि कऽ दुतकारि देलिऐ। तब ने बेवश
भऽ कऽ ओ बीख पीबि लेलकै। ओकर हतियाकेँ पाप केकरापर गेलै? केकरा
वध लगलै?”
“हौ,
हमरा सभ पिंगल पास थोड़े छी। दू आाखर जे पढ़ि लेलक से
आसमानेमे भूर करै छै।”
“हमरा सभ उनटा बजै छी की अहाँ सभ। सुकरातिक दिन जे सुगरक बच्चाकेँ मरखाहा
भैंससँ खून करबा दैत छी, ओइ बच्चाकेँ भैंस रगड़ि-रगड़ि जान लैत रहै छै आ अहाँ सभ ताली मारैत खेंखियाइत
रहै छी। भैंसकेँ घुमा-घुमा कऽ लबैत रहै छी। जे कहुना सुगरक बच्चाकेँ
मारि दै। एकटा छोट जीवकेँ अपना सोझहामे जानि
बूझि हत्या कराबैत काला अहाँ सबहक इनसाफ केतए
चलि जाइत अछि। ओइ समैमे सभकेँ वध लगैत अछि की नै? सभकेँ वध लगल अछि। सभ जाउ गंगा-स्नान। अहाँ सभकेँ अन्दरमे वध करबाक प्रवृत्ति अछि।”
“हे रौ एकरा ऐठामसँ भगा। नै तँ सभकेँ नाश कऽ देतौ। केकरो बजै नै दैत छै।”
“यौ मड़र सबहक नाशसँ नीक जे एकटाकेँ नाश भऽ जाए। बहींचो..। एना
कहुँ बजै छै।”
“फेर मुँह सम्हारि कऽ गप करू नै तँ ठीक कऽ
देब।”
“हाँ,
हाँ अस्थिर रहू। झगड़ा भऽ जाएत। हे रौ हटा दुनू गोटेकेँ।”
किछु गोटे दुनूकेँ ठेलि-ठालि
कऽ हटा रहल अछि।
mmm
२२
चौबटियापर गाछ तर चारि-पाँच
युवक गप हाँकि रहल अछि। जइमे सिंहेसरा, अजय,
घनमा, उचितवक्ता ठाढ़ अछि आ दूटा छौड़ा कनी
हटि कातमे फुसराहटि कऽ रहल अछि।
रामरती मड़रकेँ आगू दऽ कऽ जाइत देखि उचितवक्ताकेँ नै रहल
गेलै।
“बित्त भरिक बितबा, बितौसँ छोट, चलैत
अछि बितवा टेरैत मोछ।”
रामरती मड़र तमसा कऽ पाछू घुमि देखलक। गारि मुँहमे आबि
गेल छेलै। छौड़ा सभकेँ बेसी संख्यामे देखि
घुनघुनाइत चलि देलक।
“बुढ़बा बड्ड तमसाह छै। घमण्डी नम्बर
एक।”
“खूटा बले पररू डिरिया रहल छै। ऐ टोल परक जेतेक
मुँहपुरुख अछि सभटा जीबू बाबू नै तँ अच्युतानन्दक
गुलाम बनल अछि। तब ने झँपले-झाँपल ओकरे सबहक जूति-भाँति अहू टोलमे चलै छै।”
“गुलाम तँ सभ बनले रहितै। संयोगसँ पंजाब-दिल्ली
कमेबाक रस्ता खूलि गेलै। सभकेँ आगाँ बढ़बाक रस्ता भेटि गेलै। लबका हवा-पानि
लगलासँ बुधिक विकास भेलै। नै तँ आइओ बेगारमे गिरहत
सभ जौड़ी बँटबाबैत, वाड़ीमे
खटाबैत।”
“बेगार आइओ छै। खाली ओकर रूप बदलि गेलै। बुधिक
विकास की हेतै। आइओ ऐ टोलक स्कूल मालिक टोलपर
बनले छै। आ आहीमे बान्हल साँढ़ डिरिया रहल छै। बाँआँ-आँ।”
“नै यौ, एकरा विरोधमे एकता हेबाक चाही।”
“पहिले पढ़बहक तब ने, एकता करबहक। संघर्ष तँ आगाँक गप छिऐ।
जड़िमे स्कूले पार भऽ गेल छै।”
“पनरह दिनपर मास्टर साहैब मुँहपुरुखक दलानपर
आबि हाजरी बना लैत छै। सभटा मुँहपुरुख मास्टरकेँ
दोस-महिम अछि।”
“हे यौ, लोक सभ तँ गाए-चरौनाइकेँ
नीक बुझै छै। कहै छै पढ़लासँ की हेतै।”
“हँ हँ। नम्हर भेलापर चोरि सीखतै।”
“मुदा भोजकेँ नीक बुझै छै। तब ने केते पलिवार भोजक कारणे सभ जमीन जथा बेचि देलकै।”
“हौ,
सुनै छी जे फुलचनमा गबैया एकटा नचनियाँ छौड़ी संगे भागि
गेलै केतौ। आरे तोरीकेँ उनटे बात।”
“नीक केलक। नटुआ मनोरथकेँ बूढ़मे खाइओपर आफत
रहै छै।”
“गप तँ भँसिया गेलै। रामरती मड़र किएक खिसिया
गेल छेलै?”
“हँ,
बीत भरिक बीतबा। बुझलहक नै।”
“कहबहक तब ने बुझबै।”
“एकरा बापक नाम रहै- बिताय मड़र। भुट्टा आदमी आ बड़का-बड़का मोछ।”
“जमानाक गप कहै छहक।”
“हँ हौ सुनलाहा गप। एकर बाप बिताय मड़र चारि
बरसक रहै। ओही समैमे बिआह करैले गेल रहै। रातिमे तेतेक
कनलै जे भोरे माएकेँ जाए पड़लै। गामक कातमे जा कऽ बितायकेँ दूध पिऔलकै। मुदा बिआह भेलाक बाद निकललै बिताय। धोती-कुरता पहिरने। मोंछपर हाथ फेरैत। टेढ़िया चालि धेने। पाछाँमे साड़ी पहिरने
छोटकी कनियाँ। कनियाँ-पुतरा सन।
ओही दिनसँ ई फकरा लोक कहै छै।
बीत भरिक बीतबा बितौसँ छोट। आइओ
तँए ओकरा बेटाकेँ आँतमे लगि जाइ छै। आकि हेतै आेकरा बेटो बिआहमे सएह भेल।”
“की भेल छेलै। बुढ़बा
मड़र कहै छेलै।”
“बिताय मड़र सोचलक अपना बेटाकेँ बिआहमे गलती नै करबै। धिया-पुतामे बिआह नै करबै। बेटा जुआन भऽ गेलै तँ लड़की ओकरा उमेरक भेटबे नै करै।
लड़की जुआन घरमे राखतै तँ सभ कहतै- बुढ़िया बेटीकेँ घरमे कुमारे
रखने छै। अन्तमे बिताय मड़र अपना बेटाकेँ कमे उमेरक लड़कीसँ बिआहलक। सभ कहै- बुढ़बा लड़िका केतएसँ उठा आनलकै। कनियाँ नैहर आएल तँ सासुर जेबाक लेल तैयारे नै
होइ। बुढ़बाकेँ बेटा झगड़ा करै। केतए कहाँ बिआह कऽ देलक। अन्तमे बिताय अपना भाए संगे समधीक घर पहुँचल। समधी घरसँ अनुपस्थित रहए।
समधिन अँगनासँ समाद भेजलकै- अखनी हमर बेटी धिया-पुता छै। सासुर नै जाएत। खिसिया कऽ दुनू भाँइ आपस भेल। गामसँ बाहर भेलापर
देखलक-
जे ओकर पुतोहु साग तोड़ि रहल अछि। बिताय मड़रक भायकेँ
ललकारा देलक-
“की देखैत छी लऽ चल ऐठामसँ उठा कऽ। फेर बारहटा बहाना करतौ। गामपर छौड़ा छुरी
फनका रहल छै।
ललकारा सुनैत ओकर भाए कनियाँकेँ कन्हापर उठा लेलक। कनियोँ बाप-बाप चिचिया उठल। आवाज सुनि चारूभरसँ
गौआँ दौगल। केतेक लाठी-फराठी
दुनू भाँइक देहपर टुटलै पता नै। फेर पंचैती भेल। कनियाँ सासुर आएल। गर्भवती भेल।
किन्तु बच्चा जन्मै काल माएकेँ खा गेल।”
“तँ ई खाम सनक औरतिया के छी यौ? सुनै छी जे मंतरसँ गाछ हँकै छै।”
“गप हँकै छी कि अकासमे भूर करै छी।”
“धुर,
ई तँ चुमौनवाली लबकी छी।”
“हे रौ, भाग रौ रामरती मड़र फेर अबै छौ।”
सभ धड़फड़ा कऽ चलि देलक।
कौआ-मैनाक लड़ाइ शुरू भऽ गेल। जेकरा कियो नै
देखलक किन्तु गाछ देखलक। आर बहुत किछु देखतो गाछ चुप्पे रहल।
mmm
२३
धरमानन्द बाबूक दुआरिपर महाभारतक कथा भऽ रहल छै। कथा
बाचककेँ हाव-भाव आ टहकार लोकक मनकेँ
मोहि लैत छै। संगे भोज-भात सेहो हेतै।
“आइ दिन शुभ अछि। तब ने सरकारो शुभ दिनकेँ एलेक्सन करबा रहल छै।”
“भोँट खसबए लेल तँ हमरो जाए पड़त। पहिले किछु
देर सुनि लैत छी। भोज सबेर होएत तँ खा-पीबि कऽ भोँट
गिरबै ले जाएब।”
“अखनी तँ मालिक टोलक लोक लाइन लगा कऽ भोँट
खसबैत हेतै।”
“हँ यौ, भोँट तँ
ओही टोलक इसकूलमे गिरतै। ऐ टोलक इसकूल ओही टोलपर बनि गेलै।”
“इसकूलकेँ तँ गौशाला बना देने छै। बड़का लोकक धिया-पुता
ओइमे पढ़ैत नै छै तँ की हेतै।”
धनुक टोलीक लोक धरमानन्द बाबूक दुआरिपर महाभारत कथा सुनि
रहल छै।
“जुआ खेलैमे द्रोपदीकेँ हारि गेलै। पाण्डव सभ तामसे फनकि रहल छै। किन्तु
बेवस छै। झूठक सहारा नै लऽ सकैत अछि। आब चीरहरण हेतै।”
अजय दू-तीन संगीकेँ संग नेने सभकेँ कहि रहल छै-
“हे यौ, भोँट गिरा
लिअ। पाँच बरिसपर एहेन अवसर भेटै छै। अपना नेताकेँ चूनि लिअ।”
“के जाएत। एतए अमरीत वाणी बरिस रहल छै। भोँट तँ दू घंटा बादो गिराएल जाएत।”
धरमानन्द बाबूकेँ ऐबेर नेता सभ भोँटक
लेल रूपैआ घूस नै देने छै।
छौड़ा सबहक आगू ताश पसरल छै। मुँहपुरुखक नाटक।
“मंडल नेता एलेक्सनमे ठाढ़ छै।”
“की जाति की पर-जाति। एलेक्सनक बाद तँ कोनो नेताकेँ
दरशनो दुरलभ भऽ जाइ छै।”
“कोइ सरकार बनो। कुछो नै होइ छै। की भेलै पचासन बरिससँ।”
“हँ हँ, पहिले भोज खेबै तब भोँट
गिराबै लेल जेबै। ऐबेर तँ कोनो फायदो नै छै।”
तीन बजेमे खा-पी कऽ सभटा धनुक टोलीकेँ लोक भोँट गिरबए
लेल पहुँचल।
अच्युतानन्द बाबू आँखि उनटा कऽ तकैत अछि।
“एतेक लोक केतएसँ आबि गेलै।”
अच्युतानन्द बाबूक जेठका बेटा उचितवक्ताकेँ धकियबैत
अछि।
“रे पाछू हट। तूँ भोँट गिरा नेने छीही।”
“हम तँ अखनी एबे केलौं, भोँट गिरा
कऽ जाएब।”
“भाग,
हमरा इसकुलपर सँ।”
“केकरो बापक इसकुल नै छिऐ।”
“सार,
बापक नाम लैत छेँ। भेँट करा देबौ।”
“मार चारि चमेटा रौ।”
थप्पर-मुक्का चलए लगलै। अच्युतानन्द बाबूक
इशारा पाबि पुलिसिया डण्टा बरिसए लगलै।
“फटाक... सटाक...।”
हड़विर्ड़ो मचि गेलै। लोक बाप-बाप चिचिया
उठल। उचितवक्ता मारि खा कऽ बाहर निकलैत बाजल-
“ठीके कहै छेलै अजय। कियो बात नै मानलकै। तँए
ओते भोज खेलक चेला बनि आ एते मारि खा कऽ महंथ भेल।”
दोगा-दोगी सभ भागि रहल अछि।
mmm
२४
सुरूज डुमल हो वा धरती घूमल हो। मुदा
अन्हार तँ पसरल जा रहल छै। अन्हार भेलासँ पहिने शीला घर नै पहुँचतै तँ ओकर काका
मारैत-मारैत चमड़ी खैंच लेतै। केना नै मारतै? जवान-जहान
लोक अन्हार-धुन्हारमे घरसँ बाहर। अपन माए-बाप
नै। ओकरा जन्मसँ पहिले बाप ओकर माएकेँ राँड़-मसोमात
बना कऽ उड़ि गेलै। शीला दस सालक भेलै तँ माए अनाथ बना कऽ संसारसँ भागि गेलै।
काका-काकीक सहारासँ जिनगी कटि रहल छै। थप्पर-मुक्का
चलब कोनो खास नै। लाठीक चोट आ दगनीक दाग पड़लै तब खास गप
भेलै। भूख सहाज करै छेलै तँ देह दुबरा गेलै। समैपर
खेलक तँ खायपेट्टी नै खेलक तँ भूखले रही कोढ़िनियाँ।
सभ दिनेसँ सिनेहक भूखल छेली
बेचारी। बचपनेसँ अजय आ शीला गामक गली-कुचीमे खेलने छेलै।
डोह-डबरामे नांगटे नहेने छेलै। एकर सभसँ नम्हर कारण दुनूक माए सखी जकाँ रहै छेलै। दुनूक बीच खूब मेल। एक दोसराक कनौनाइ आ हँसौनाइ
चलै छेलै। खैर, ई छल
बचपनक गप।
फेर जुआन भेलापर अजय शहर चलि गेल। आर ओतए अपन पढ़ाइ-लिखाइ पूरा करए लगल। कहियो काल छुट्टीमे गाम अबै छेलै
तँ शीलासँ भेँट-मोलाकात भऽ जाइ छेलै। आ
सुनहटमे बैसि कऽ दुखक कथा पसारि दइ छेलै। अजय
बोल-भारोस दैत-दैत कखनो अपनो कानए लगै छेलै। परन्तु जखनि अजय शहर चलि जाइ छेलै तखनि शीला असगरे
दुखक पोखरिमे डुमकी मारए लगै छेलै।
उज्जर आ कारी पाँखि फलकौने उड़ैत समए। लोकक उमेर बितैत छै आकि समए। परन्तु बितै तँ छै। कल्पना, यर्थात आकि दुनूक मिश्रण। समए सभकेँ नापैत। दौड़ैत-पड़ाइत
आगू बढ़ैत। बेदरा, जुआन फेर बूढ़...।
गामक लगीचेमे धरमानन्द बाबूकेँ दसकठबा करजान छै। छठि
पावनिमे खौब आमदनी होइ छेलै। दसकट्ठाक केरा पावनिमे
रूपैआ उझलि दइ छेलै। ओइसँ सटले डेढ-दू बीघामे काश-पटेरक
जंगल। बड़का-बड़का घास-पात। केतएसँ
ओते जन-मजूर भेटतै। अदहा काटल आ अदहा लगले रहि जाइ छेलै।
एकबेर एकटा चीता बसेरा लऽ नेने
रहै। डरे लोक साँझे टाटी-बेनाठी लगा लइ छेलै।
ओइ भूतहा जंगल लग अजय ठाढ़ छै। बाधसँ आपस जाइत शीलाकेँ
इशारासँ सोर पाड़ैत छै। शीला एने-ओने देखलक आ सट्ट दऽ करजानमे ढुकि गेल।
अजय पुछलकै-
“नेगरी जकाँ किएक चलै छी।”
“पएरमे कनी चोट लगि गेल रहए।”
“कथीसँ?”
“छोड़ू ने ऊ गप।”
“हमरासँ चोरा कऽ कोनो गप मनमे राखए चाहै छी। एकर मतलब हृदैसँ नै चाहै छी हमरा।”
“फेर अंट-शंट बाजि रहल छी।”
“ई भेलै अंट-शंट। अहाँ हमरा सोझाँमे झूठ बजब। एहेन हमरा विश्वास नै छल।”
शीला मुड़ी गोंति लेलक। ओकरा आँखिसँ दू बून नोर खसि
पड़लै। बझाएल कंठसँ कहलकै-
“हमरा काकाकेँ सुभाव तँ बुझते छी। चारि-पाँच दिन पहिले अहाँसँ गाछीमे भेँट भेल
रहए। चुगला सभ चुगली कऽ देलकै। ई खबरि सुनिते काकाकेँ देहमे आगि नेस देलकै। ई
तँ लाठी पातर रहै जे टुटि गेलै। नै तँ हमहीं मरि जैतौं। देह हाथमे तँ कम चोट अछि
मुदा जाँघक चोट...।”
अजय देखि रहल छै शीलाक जाँघ। गोर चमड़ीपर कारी सियाह दाग
पड़ल। आँखिमे नोर रहबाक कारणे झलफलाह देखा रहल छै। खोंखीक आवाज सुनि दुनू भीतरी
करजान दिस ससरि गेलै।
ओनए टोलपर दोसरे नाटक चालू भऽ गेल छेलै।
अजयकेँ दुश्मनोक संख्या बहुत छै। जइमे सभसँ आगू छै खेलावन
भगत। मुँहपुरखी छिनबाक डर छेलै धरमानन्दकेँ ओहो
दुसमन। ढोंढाइ गुरुजीकेँ डर छेलै जे अजय कहीं धिया-पुताकेँ पढ़बए ने लगै। कालू मैनजनकेँ बात नै मानलकै। भोज नै केलकै। तँए केतेको दुसमन। केतेक
पराेक्ष आ केतेक प्रत्यक्ष दुसमन।
दुसमनक बीचमे खबरि पहुँच गेल छेलै।
“अजैया आइ चोटपर चढ़ि गेल छौ।”
“अकलू मड़रकेँ सभसँ आगू राख। ओकरा भतीजीक इज्जत खराब कऽ रहल छै ने।”
अकलू मड़र तामससँ गरमा गेल छै।
“जँ इज्जते नै बँचतै तँ जी कऽ की करबै।”
अगिलगौना सभकेँ नीक मौका भेटि गेल छै।
“ई सरबा अपनाकेँ शहरी बुझै छै। देहातक इज्जतकेँ ऊ की जनतै। बेरा-बेरी सबहक इज्जत-परतिष्ठा बेरबाद कऽ देतौ।”
“हम तँ कहै छियौ। राफ-साफ कऽ
दही-एक्केबेर। सीधे गरदनि काटि देबै। ने रहतै बाँस आ ने बजतै बौसली।”
सबहक भितरिया बाघ गरजए लगलै।
युद्ध करू वा देखू। भितरिया पियास मेटेबाक उपए।
भीड़-भाड़मे के केकरा देखै छै।
जेकरा जे हथियार हाथ लगलै, उठा
लेलकै। लाठी-भाला, तीर-धनुष, गड़ाँस-फरसा जेना बनैया सुगरकेँ मारैत काल होइ छै। सभ एके संगे
दौड़लै।
“खेलावन भगत खबरि देने छेलै केरा बगानमे दुनू
रसलीला कऽ रहल छै।”
शीला आ अजय दोसरे संसारमे टहलि-बुलि
रहल छेलै। अजय कहि रहल छेलै-
“अपन-अपन टोल, अपन-अपन जाति अलगे-अलग।
तब ने अपन जूति चलतै। अन्हा गाममे कन्हा राजा। एेठाम ज्ञान-विज्ञान निकलै छै- गहवर घरसँ। कानून निकलै छै-मुँहपुरुखक गपसँ।
बहि रहल छै- उनटा बसात। सभसँ छोट उनचास हाथ।”
पैघ निसाँस लैत आगू बजल-
“करए पड़तै परिवर्त्तन। परिवर्त्तनक लेल कि जे किछो करए पड़ै। जिनगीओकेँ होम करए पड़ै तैयो ससते बुझू।”
“हो... हो... हो... लगे...।”
“भुक...
भुक...।” टाँर्चक रोशनी।
कुत्ता कानि रहल अछि।
सुनहटकेँ चीरैत अवाज-
“घेर ले पूरा बगानकेँ आ काटि कऽ ओहीमे गाड़ि दबै।”
“चर-मर,
खट-खट, धुम-धुम।” सैकड़ों पदचाप। सुनहटक निसाँस सन। अन्हारमे जेना भूत-प्रेत
नाचैत-दौड़ैत...।
“बाप रे बाप। सबहक हाथमे हथियार छै। चारूभरसँ घेर रहल छै। जेना अपना सभ जानवर
छी।”
स्वर थरथरा कऽ निकलैत अछि-
“भागू ऐठामसँ। खुनियाँ सभ आबि गेल।”
ऊँचगर माटिक ढूहपर देखिते
शीला बोमिया कऽ कानए लगैत अछि।
“अहाँ भागि जाउ अजय। अहाँक जरूरत छै। हमरा कारणे अहूँक जान चलि जाएत।”
“अहाँकेँ छोड़ि हम असगरे भागि जाएब। हमरा एतेक डेरबुक बुझै छी। मरबै तँ संगे
आ जीअब तँ संगे। हम कोनो अधलाह करम नै केने छी। हम
भगबै नै,
संघर्ष करबै। अंतिम साँस तक परिवर्त्तन आ प्रगतिक लेल
हमर संघर्ष जारी रहतै। हम लड़बै अपना बाँहक बलसँ। अन्हार निश्चित हटतै।”
“काश-पटेरक वन दिस भागू। जल्दी करू। खुनियाँ सभ पाछूमे चलि आएल।”
घनघोर अन्हार। काश-पटेर आ घास-पातक
जंगल। पाछूमे मनुखक खूनसँ पियास मुझबैबला जानवर। भागैत-पड़ाइत
दूटा प्राणी...।
“केतौ नै भेटै छै। ऐ काशमे नुकाएल छै।”
“रौ ठेकानि कऽ अन्दाजसँ तीर चला। जेतै केतए।
आहीमे झड़का कऽ मारि देबै।”
“हँ,
सूखल काश छै। आगि लगा दहक। ओहीमे डहि कऽ भसम भऽ जेतै।”
“आ जँ बहरा दिस भगतै तँ खुंडी-खंुडी काटि देबै। ठीके बात।”
डेढ़ दू बीघा काश आ घासक जंगलमे आगि लगा देलकै। धू-धू,
चर-चर... चराक।
चिड़ै-चुनमुनी, साँप-कीड़ा, केतेको जीव सभ जरि रहल अछि। लहाश आसमान दिस उठि रहल छै।
धुइयाँसँ चारूभर भरि गेलै। गदमिसान भऽ रहल छै।
अजय आ शीला एम्हरसँ ओम्हर भागि रहल छै। पएर खुटी आ
काँटसँ लहू-लहान। देह काश पटेरसँ कटल। सन-सनाइत
एकटा तीर अजयक बाँहिमे भोंका गेलै। नोचि कऽ फेकलक अजय। बलबला कऽ खून बहए लगलै।
शीला कानैत बजली-
“हम नै जीअब आब। हमरा ऐ खूनसँ माँग भरि सकै छी अहाँ?”
समए कम छेलै, अजय हँसैत बाजल-
“लिअ खूनक सिनूर।”
भर भरा कऽ खूनक बून ओकरा माँगपर गिरल। पाछाँसँ साड़ीमे आगि
लगि गेल। अजय ओकर साड़ी खोलि कऽ फेंकि देलक। आगू भागल तावत अजयकेँ नुआ-वस्तरमे आगि पकड़ि लेलक। ओहो अपना सभ कपड़ा-बस्तर
फाड़ि कऽ फेिक देलक। दुनू वस्त्रहीन। खूनसँ भीजल देह। चारूभरसँ आगिक लपट। बँचबाक कोनो उपए नै।
तैयो भागैत-पड़ाइत। एक दोसराक सहारा दैत। झोंझमे एकटा चभच्चा देखाए
पड़लै। डबरा सन गहींरगर पानिसँ भरल। चारूभर कुकुआहा उड़ैत। आगिक झड़क। उठैत लपट।
धुइयाँसँ आन्हार भेल आँखि। जान बचेबाक लेल दुनू ओइ चभच्चामे ‘छपाक’
कूदि गेल।
कनीकाल हलचल फेर एक-दोसराकेँ आँखिमे देखैत दुनू शान्त।
ईहो काल गुजरि जेतै निश्चित। धैर्य... पैघ
प्रतीक्षा... साक्षी। दुनूक देह, मन आ
चित्त अपन-अपन काज कऽ रहल अछि।
धर्मडीहीवाली चिचिया कऽ अपन पति जागेसरकेँ कहलकै-
“लाज नै होइ छै। सभ गोटे मिलि कऽ सहोदरा भायकेँ झड़का रहल छै आ ई मुड़ी गोंति
कऽ बैसल छै। गे माइ गे माइ। आइ हमहीं मरि जेबै आकि सभकेँ मारि देबै।”
कहैत चारमे सँ ‘सड़ाक’ हँसुआ
खींचलक आ केंकिहारि काटैत केलवनी दिस दौगल अेकरा पाछू जगेसरा लाठी नेने बमकि रहल अछि। पाछू लगल आर स्त्रीगण सभ। चारू
भरक गौआँ-घरूआ गगनचुम्मी धधरा देखि दौड़ल आबि रहल छै।
अजय आ शीलाक हँसी आसमानक अट्टहासमे सम्मलित भऽ रहल अछि।
आगिक बीचमे पानि आ ओइ पानिमे हजारो जीव-जन्तु। ओइ बीचमे शीला आ अजय पूर्ण नग्न एक दोसराकेँ आलिंगनमे कसने ठाढ़ अछि।
अन्त नै अनन्त... परिवर्त्तन आ विकास हेतु...।
mmm
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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