फेर पुछबनि
पतझाड़ - जगदीश प्रसाद मण्डल
(लघुकथा संग्रह) पार्ट टू
राकेश आ मुकेश गामेक हाइ स्कूलक वर्ग
दसममे पढ़ैत। एक तँ एक उमेरिया तैपर दुनूक मात्रिक एके गाम तँए सम्बन्ध आरो
बेसी गाढ़। गाढ़ सम्बन्ध तँ वएह ने भेल जे झगड़ा-मिलान संगे एक
रहैए। तेतबे किए तहूसँ बेसी होइए। तीत-मीठ दुनू संगे रहैए। तँए कि सनाबटा कऽ डलना तरकारी जे
मसल्ला सभकेँ एकबट कऽ दइ छै, से भऽ जाइ छै? नै! से नै होइ छै। होइ छै ई जे समए आ जगह पाबि वएह तीत
होइए आ समए-जगह
पाबि वएह मीठ होइए।
दस घंटी पढ़ाइक बीच नअम घंटीक पढ़ाइ शुरू
भेल। शिक्षक आबि जमीनक सर्वेक विषय पढ़बए लगला। जलिआएल विषय तँए आन शिक्षक जकाँ
धुर-झाड़ तँ
नै बाजि पबथि मुदा मन पाड़ि-पाड़ि बजने विद्यार्थी सभकेँ अकछाइत बूझि पड़लनि। मन
मोड़ैले बजला-
“जोरू जमीन जोरकेँ नै तँ केकरो औरकेँ।”
लयवद्ध पाँति तँए विद्यार्थी एकाग्र
भेल। मुदा अपन विषयक नांगरि पकड़ि पुन: शिक्षक सर्वेक विषय पकड़ि लेलनि।
छुट्टीक घंटी बजल। सभ विदा भेल। विद्यालयक
आँगनक झुण्ड पतराइते राकेश-मुकेश एकठाम भेल। झुण्डक हल्लो कमल। गप-सप्प करैक मौसम
पाबि राकेश बाजल-
“जोरू जमीन जोरकेँ, नै तँ केकरो औरकेँ।”
बजैक कारण राकेशक मनमे रहै जे मास्टर
साहैबक पढ़ौल ओहिना मन अछि। उनटबैत मुकेश बाजल-
“छुच्छे पाँति बजने हेतौ, कह तँ ओकर माने
की भेल?”
मुकेशक चाइलेंजकेँ राकेश केना नै स्वीकारैत।
बाजल-
“घरवाली आ खेत-पथार तागतिक छिऐ जे हर्ही-सुर्ही नै सम्हारि
पौत।”
गपक क्रमक नांगरि पकड़ि मुकेश बाजल-
“जहिना सुरेबगरहा लेल सुरेबगरही घरवाली होइ छै तहिना
नेंगरा लेल नेंगरीओ होइ छै, तखनि केना बुझलेँ।”
दुनूक बीच प्रश्नपर रग्गड़ नै होइत, नीक-बेजाएक सीमापर
हरदा-हरदी
कहि मानि लैत। राकेश मानैत बाजल-
“तूँ की बुझहै छीही, बाज।”
राकेशक बात सुनि मुकेशक मनमे खुशी उपकल।
खुशीओ केना नै उपकैत, केतौ बिनु पुछनौं ढाकीक-ढाकी बात छिड़िआइत
रहैए आ केतौ सुनिनिहार स्वयं जिज्ञासु होइए। बाजल-
“खेत-पथारक संग जेकर जोर भेल अछि ओकरे ने ओ भेल आकि
दोसराक?”
ओना अखनि धरि राकेश-मुकेश अपना
मतभेदकेँ अपन विवेके फरिछा लैत छल मुदा से नै भेल। रक्का-टोकी शुरू भेल, रंग-बिरंगक शब्दवाण
चलए लगल। विद्यालयसँ घर लग दुनू पहुँच गेल मुदा फरिछाएल नै। अंतमे दुनू सहमत भेल
जे काल्हि ओही मास्टर साहैबकेँ फेर पुछबनि।¦¦¦
३१ जनवरी २०१४
माघक घूर
नरक निवारण पावनि अन्हरिया चतुरदसीक
दिन, सतैहिया
शीतलहरी अपन कड़कड़ाएल मस्त जुआनी पाबि पछिया हवाक संग विहुँसैत गतिये गुनगुनाइत
बहि रहल छल। ओना दुनू मीलि दिन-राति बहैत मुदा भोरहरबामे आबि आरो विकराल रूप
पकड़ि लैत। विकरालक पाछू तेज हवा बहब नै मौसमक अपन सकल-सरूप अछि। दिनमे
कनी-मनी तँ
सुरूजक असरि पाबि कमबो करैत मुदा रातिक चारिम पहर अबैत-अबैत ऊहो असरि
हारि-थाकि, जहिना धारक किनछरिक
मरियाएल पानि कतवाहि पकडि चलैत तहिना कतवाहि पकड़ि नेने अछि। पाँच थान
मालबला रघवा कक्काक सिरसिराएल मन सीरको तरमे सिरसि कऽ तरसि रहल छन्हि। कनारथपर
असुआएल बैसल नजरि नोर सिरजि रहल छन्हि। सिरजि रहल छन्हि अपन जिनगीक बेथा-कथा। तेहेन
बीखाह समए भऽ गेल अछि जे जहिना माटिक पँखाएल दिवारकेँ कुदि-कुदि बेंग
मुँहसँ पकड़ि सुगबुगाइओ ने दैत तहिना अन्हार इजोत बीछि-बीछि बिछौन
केने जा रहल अछि।
देह परहक सीरक उतारि रघवा काका जिनगीक
समर भूमि लेल मन बनबए लगला। जँ लड़ि मरब तैयो दुखेक निवारण जँ जीवित रहब तैयो
सएह। आखिर पाँचो थानक पोसिनिहारो तँ छीहे। ओकरा मुँहमे कोनो बाेल छै जे अपन
बेथाक कथा कहत। ओना कहियो काल खेबा-पीबा लेल आकि अनठिया जीव-जन्तु देखि
आकि दुहै-गाड़ै
काल मुँह खोलैए मुदा मनुख जकाँ तँ नै कहि सकैए। नहियोँ कहत तैयो तँ एते बुझबे
करै छी जे अखनि जे दुरकाल समए अछि तइमे की सभ शक्तिशाली अछि। जाधरि हथियार
नै पकड़ाइ छै ताधरि शक्तिहीनो शक्तिशाली होइते अछि। सुकाल पाबि भलहिं वएह
शक्तिहीन शक्तिशाली किए ने बनि जाए मुदा कुकाल तँ कुकाल छिऐ जेकरा मुँहमे
अवाज भलहिं होउ,
मुदा जेकरा बोल नै छै ओ अपन बेथाक कथा कहिये केकरा सकैए। देह लगा मारब छोड़ि
उपैये दोसर की छै। मुदा जानसँ जाए आकि सोग-रोगसँ पकड़ाए, अपन जिनगीक संग
हमरो जिनगी तँ तोड़बे करत। टुटैत जिनगी देखि मन थकथकेलनि। थकथकाएल मन
बुदबुदेलनि। जिनगी टुटि कऽ फेरि ओहिना खसि पड़त जहिना दस बरख पहिने छल। जे
दस बर्खक बीच ज्ञान-कर्मक संग कठिन श्रम केला पछाति भेटल, ओ छीना रहल अछि, छीना जाएत। मुदा
बँचाइओ तँ नहियेँ सकै छी। टुटैत मनकेँ हुथैत विचार कहलकनि-
“की यएह सोचि एते समैओ आ श्रमो गमेलौं जे छनेमे छनाक भऽ जाए? जखनि जिनगीए
टुटि कऽ खसि पड़त तखनि कोन जिनगी लऽ कऽ ठाढ़ रहब!”
अनायास उत्साह जगलनि। जहिना सूतल
लोककेँ साँस भलहिं चलैत रहौ मुदा रहै तँ निष्प्राणे अछि। तँए कि ओकरा मरलो तँ
नहियेँ मानल जाएत। अहुना तँ लोकक नीन टुटबो करैए, तोड़लो जाइ छै आ
तोड़ाएलो जाइ छै। उठल उत्साह धकललकनि। देह परहक सीरक ओछाइनपर उनटा दुनू कानकेँ
तौनीक मुरेठा बान्हि चद्दरि ओढ़लनि। दुनू डेनो आ दुनू पएरो बैसले-बैसल झाड़ि कऽ
सोझ केलनि। सोझ होइते हल्लुकपर पहुँचिते उत्साह सकसकेलनि। विचार जगलनि, जगिते विचार
मन फुड़फुड़ेलनि। बारहो मासक बारहो रूप अछि जे अरूप-सरूप दुनू अछि।
ओहिक बीच ने जिनगीओ अछि। ओही जिनगीक जनक ने मनुख छी। तखनि लगले हारि मानि लेब
पीठ देखाएब भेल। नै पीठ देखाएब तँ जिनगीक हारि भेल। केना लगले सेहो मानि लेब। जँ
लगले मानि लेब तँ केकरा लेल मानि लेब, रहबे के करत जे तेकरा लेल मानि लेब। उठि
कऽ रघवा काका ओछानइनपर ठाढ़ भेला।
केबाड़ खोलि रघवा काका बाहर तकलनि तँ अन्हार
छोड़ि किछु ने देखथि। घर अन्हार, बाहर अन्हार तखनि केना डेग आगू बढ़त। चोरबत्तीक स्वीच
दबलनि तँ पसरल अन्हारमे छुहिया इजोत किछु दूर धरि भेलनि। देखिते बिसवास जगलनि
जे चाेरबत्तीक इजोतक बले आगू बढ़ल जा सकैए। जहिना बाट-बटोही आकि राह-राही गाम घर
छोड़ि कोनो गामक रस्ता–बाट पकड़ि आकि कोनो धार-गाछी-बिरछी बाध-बोनसँ हटि अपन
पेटे चलि गंगामे मिलैए तहिना एक-दोसर गामक सीमान टपि राही-बटोही अपन गण्तव्य
दिस बढ़ैए ओहिना रघवा काका माथ-कानमे मुरेठा बान्हि, चद्दरि ओढ़ि
दहिना हाथमे चोरबत्ती नेने ओसारसँ निच्चाँ होइत नजरि खिरौलनि। जहिना अल्हुआ-सुथनीसँ लऽ कऽ
साग-पात, भात-रोटी होइत, खीर-पुरी धरि भोज्य
होइत तहिना तँ घूरोक अछि। बैशाख जेठक घूर थोड़े छी जे बिनु बीखक माछी-मच्छर भगबैले
हएत। ओ तँ घासो-पातसँ
लगौल जा सकैए। लगौले किए जा सकैए ओइसँ बेसी जरूरते की छै। जहिना तपाएल समए रहै
छै तहिना अगियाएल हवो चलै छै, तेहनामे वएह ने नीक भेल जे जँ आगि हवामे उड़बो कएल
तँ उड़िते-उड़िते
हवेमे मिझाइओ जाएत। तखनि? तखनि
तँ बरसातो नहियेँ छी जे खढ़ो-पात आ जरनो-काठी बरसातक भीजान भीजल रहने धुकुड़-धुकुड़ धुआँ
होइत रहत आ ने कखनो घूरक आगि लहसत आ नहियेँ मिझाएत। ओना माछी-मच्छरक बंशो
बढ़ि गेल रहै छै आ सौनक नाग-पंचमी पाबि बीखाहो भऽ गेल रहै छै। ओकरा भगबैले तँ
कड़ुआएले धुआँ उपयुक्तो होइ छै आ अनुकूलो छै। फेरि रघवा कक्काक मन पाछूसँ ससरैत
लगमे पहुँचलनि। पहुँचिते देखलनि जे ई तँ माघ छी। तहूमे अधडरेरक छी। जहिना राति
कड़ुआएल अछि तहिना शीतक रूप बदलि पल्ला पकड़ि नेने अछि। एहेन पल्ला पकड़ि
नेने अछि जे भीतरसँ बाहर धरिक जलावन सिमसि गेल अछि। बरसातक जरना तँ अधसुखू
रहैए। हल्लुक-फल्लुक
भलहिं सामान किए ने भीज गेल होइ मुदा एहनो तँ रहिते अछि जे ऊपसँ भलहिं भीजल
हुअए मुदा भीतरसँ सूखल रहबे करैए। भीतर-बाहरक जोड़ बीचलाकेँ धकिएबे करै छै।
मुदा माघक तँ ओहेन होइए जे हवेमे धोरा भीतर-बाहर एकबट्ट कऽ दइए। भीतर-बाहर तँ ओकरा
एकबट्ट करैए जे झाँपल घरसँ बाहर रहैए, जे घरमे झाँपल रहैए ओ किए सिमसत। मनक उत्साह
कलशलनि। गठूलाक गोरहा-चिपड़ी तँ सूखल हेबे करत तहूमे ओ कि कोनो गाछक चेरा छी जे
पल्लाक डरे तरे-तर सिमसि
जाएत। बरद-गाएक
गोबरक गोइठा-गोरहा
छी जे ओस-पल्लाक
के कहए जे पानिक झीसीओ-झकासकेँ थोड़े गुदानैए। ओकरो अपन रस छै। मन पड़लनि बैशाख-जेठमे गोरहा-गाेइठा कएल घर।
बाँसक मचान बना सैंति-सैंति रखने रही, तीन मास बरसातमे सठल तेसर मास जारक गुजरि रहल अछि।
तेसरोक अदहा बीतिए गेल, हो-ने-हो कहीं ऊहो ने सठि गेल हुअए। तीन मास बरसात रहितो
अदहासँ कमे खरचा भेल हएत, मुदा जारक तँ तीनू मासमे बेसी होइते अछि। मन ठमकलनि। मुदा
लगले मन कमला गेलनि। अगिले सपता तँ वसन्तक आगमन भऽ रहल अछि। जँ लगिचाइओ गेल
हएत तैयो पाँच-दस दिन
बेसी थोड़े भेल। तहूमे जे शीतलहरी लधने अछि ओकरो कि सीमा-नांगरि छै। आगू
बढ़ि गठूला दिस विदा भेला। डेग उठिते मनमे उठलनि, उठिते मन
कहलकनि-
“पत्नीक जोगौल घर छी, पुछि लेब नीक हएत। ओ थोड़े कहती जे हमर
छी हम नै छुबए देब। जखनि ओही गाए-बच्चाक जीवैक ओरियान कऽ रहल छी, तखनि किए
रोकती तहूमे कि ओ नै बुझै छथि जे ओही लक्ष्मीक देलहासँ घर भरि सुख करै छी।”
मनमे अबिते रघवा काका पत्नीकेँ पुछब
खगता नै बूझि गठूला पहुँचला। घरक मुँहथरिपर धनउसनियाँ टीन राखल। चोरबत्तीक इजोतमे
तेना टीन चमकल जे रघवा कक्काक आँखि चोन्हिआ गेलनि। पएरक ठेँस टीनमे लगि गेलनि।
तेते जोरक अवाज भेल जे सुगिया काकीक नीन टुटि गेलनि। नीन टुटिते ओछाइनसँ उठि
सुगिया काकी गठूला दिस बढ़ली। केना ने बढ़ितथि, बैशाख-जेठमे भलहिं कम्मल-चद्दरि बैसकी
बनि जाए, गोरहा-गोइठा बाध-बोनमे छिड़ियाएल
रहए मुदा माघक तँ गिरथानि वएह ने छी। ओसारसँ निच्चाँ उतरिते चोरबत्तीक इजोत
गठूलामे देखलनि। बूझि गेली जे कियो जारनि लइले आएल अछि। भरिसक जाड़ बरदास नै
भेलै तँए घूर करत। मुदा चुपचाप आगू बढ़ब उचित नै बूझि बजली-
“गठूलामे के छी?”
पत्नीक अवाज सुनि रघवा काका ओहिना सहमि
गेला जहिना कियो पति पत्नीक पौती-सखारीमे हाथ दैत सहमैत अछि।
ओना सुगिया काकीक बोलमे चोरक ध्वनि नै
छेलनि मुदा मनमे जरूर रहनि जे एते राति कऽ घरमे किए औत। मुदा लगले मन गवाही
देलकनि जे एक तँ एते राति दोसर एहेन दुरकाल तहूमे गठूला घर, अन्न-पानिक असवावक
घर नै, बिनु
बुझने-परखने
केकरो चोर कहब उचित नै। तँए सोझे बजली जे के छी। एहनो तँ भऽ सकैए जे केकरो जाड़
नै बरदास भेल होइ,
आगिक दुआरे जारनि लइले आएल हुअए। मुदा लगले मनमे आबि गेलनि जे अनका घरमे बिना
पुछने कियो किए औत। बड़ जाड़ भेलै तँ मांगि लैत। फेरि मनमे उठि गेलनि जे एहनो
तँ भऽ सकैए जे कियो दुनियाँकेँ झूठ बूझि नीक-अधलाक विचारे ने
करैत हुअए।
पत्नीक अवाज सुनि रघवा काका बजला-
“हम छी।”
रघवा काका तेते दाबि कऽ बजला जे नीक
जकाँ सुगिया काकी सुनबो ने केलनि। तँए कि ओ सोलहन्नी नै सुनलनि, सेहो बात नै।
शब्द आ शब्दक भाव नै बुझलनि मुदा अवाज तँ कानमे पड़िये गेलनि। जहिना गंभीर
शास्त्रीय संगीतक भाव कियो बुझैत वा नै बुझैत मुदा अवाजक कम्पन्न तँ कम्पित
काइए दइ छै। जँ से नै तँ ओहन ध्वनिपर जंगलसँ मोर आबि आकि बोनसँ हरिण आबि
नाचए किए लगैए।
मने-मन सुगिया काकी
विचारबो करथि आ गठूला दिस बढ़लो जाथि। मिरमिरा कऽ रघवा काकाकेँ बजैक कारण
रहनि, पत्नीक
झगड़ाउ प्रवृति। नान्हि-नान्हिटा काजक बात लेल सुगिया काकी ऐ रूपे रक्का-टोकी करए लगै
छथिन जइसँ नोकसाने-नोकसान होइ छन्हि। ओना जहिना निआसमे आशाक जनम, अन्हारमे इजोतक
जनम होइत तहिना रक्का-टोकीसँ छोट-छोट गल्ती सहटि कऽ सहीट बनि जिनगीकेँ चिक्कन बना
दैत मुदा से रघवा काकाकेँ नै रहनि। माल-जालक जराएल मन तेना कऽ मनकेँ जरबैत रहनि
जे क्षण-क्षण
छनकैत रहनि।
दोहरा कऽ सुगिया काकी बजली-
“गठूला घर छी, साँप-कीड़ा रहैए तखनि एती राति कऽ किए एलौं। के छी?”
सुगिया काकीक बोलक मिठास रघवा कक्काक
आत्माकेँ हौंड़ि देलकनि। देखल देह चिन्हल चेहराक चुनचुनाएल स्वर, बजला-
“अपने छी।”
“एती राति कऽ एहेन जगहपर किए एलौं, एक तँ जाड़सँ ठिठुरल
बोन-झाड़, बिलक कीड़ी-फतिंगी आबि कऽ
राति विश्राम करैत हएत तैपर ओकरा देहपर हाथ कि पएर पड़त तँ ओ थोड़े अहाँक दुख
बूझत आकि लपकि कऽ अपन बीखसँ बिखा देत।”
“हँ, से तँ अपनो बुझै छी, तहीले ने हाथमे
इजोत रखने छी। हाथ-पएरमे
इजोत रहनै ने लोक पएरे-पएरे दुनियोँ टहलि लइए आ हाथसँ करबो करैए।”
बजैत-बजैत रघवा काका
बाजि तँ गेला मुदा लगले मनमे उठि गेलनि जे अनेरे काज विलमबै छी। जँ गपे करक
हएत तँ माले-घरक घूर
पजारि बैस गप-सप्प
करब। मालो-जालक
आत्मा बुझतै जे जहिना जाड़ हमरा होइए तहिना तँ पोसिनिहारोकेँ होइ छै। एहेन
पोसिनिहारक प्रेमसँ जीवि। बजला-
“बड़ दुरकाल भऽ गेल अछि, थोड़े गोरहा-चिपड़ी लऽ लिअ
आ मालक घरमे घूर कऽ दियौ।”
पतिक बात सुनि सुगिया काकी किछु ने
बजली। मन मानि गेलनि जे किछु छथि तँ छथि मुदा गृहस्वामी तँ यएह छथि। हिनके
ऊपर ने खेत-पथारसँ
लऽ कऽ माल-जाल आ
मनुख धरिक रक्छाक भार कन्हापर छन्हि। लग आबि बजली-
“उसरै बेर तेहेन ई शीतलहरी लाधि देलक जे जेहो जरना-काठीक ओरियान
कऽ रखने छेलौं सेहो निंघठि गेल, तैपर तेहेन लधान लाधि देलक जे कोनो ठेकान अछि जे
केते दिन लधने रहत?”
सुगिया काकीक जनगर बात सुनि रघवा काका
गुम भऽ गेला, मुदा
लगले मनमे फुड़लनि-
“कौल्हुका चिन्ता आइ किए करै छी, काल्हिले
काल्हि छै। कोनो ठेकान अछि जे एहने समए कौल्हुको हएत।”
दूटा गोरहा आ चारि-पाँचटा चिपड़ी
उठा, मटिया
तेलक डिबिया आ सलाइ आनि आगू-आगू सुगिया काकी आ पाछू-पाछू रघवा काका
आबि मालक घरमे घूर केलनि। सूखल गोइठा, तइमे ढाड़ल मटिया तेल सलाइक लपकी पकड़िते लपकि
लेलक। घूर धधकि गेल।¦¦¦
०६ फरवरी २०१४
खर्च
ओना समैया काका भोरेसँ ठोह फाड़ि-फाड़ि कनै छला
मुदा हम बुझलौं नअ बजेमे। सेहो ओना नै बुझलौं, रबि रहने गामक
अपनो टोलवैया आ आनो-आनो टोलवैया सभकेँ, जेरक-जेर काकाकेँ
देखए जाइत-अबैत
देखि जखनि पुछलिऐ तखनि भाँज लागल। पहिने भेल जे माघक तेसर मकड़ छी लोक हरड़ी
मेला जाइत हएत मुदा लगले घूमि किए रहल अछि। भाँज लगिते मनमे उठल जे काम-धाम तँ जिनगी
भरि चलिते रहत मुदा जँ कहीं बिच्चेमे कक्काक प्राण छुटि जेतनि तखनि तँ
भेँटो ने हेता। मात्र चेतनशून्य देहसँ भेँट हएत। ओना देहोक महत तँ अछिये, जँ से नै अछि
तँ जिनगी भरि एकरे पाछू किए लगल रहै छी।
टोहियबैत-बीहियबैत विदा
भेलौं। रस्तामे जेते लोकसँ पुछिऐ तेते रंगक बात सुनिऐ। पहिल गोटेसँ पुछलिऐ तँ
बाजल-
“अपने करमे ने कियो हँसैत मरैए तँ कियो बपहारि काटि
मरैए।”
एक तँ ओहिना रंग-बिरंगक मनक विचारमे
ओझराएल रही तैपर कर्मक फल हँसब भेल आकि कानब, भाँजे ने
बुझलौं। मन भेल जे फेर पुछिऐ मुदा फेर भेल जे जँ कहीं कहि दिअए जे समैक फल पाबि
कयो हँसैए तँ कियो कनैए। तखनि तँ एकहरी घुरछी दोहरा जाएत। जखने दोहराएत तखने आरो
सक्कत हएत तइसँ नीक जे दोसर-तेसरकेँ पुछबे ने करिऐ। जखनि भेँट करए जाइए रहल छी
तखनि पहुँचला पछाति जे पुछैक आकि बुझैक हएत से मुखाैत्रीए भऽ जाएत। जहिना छिड़ियाएल-बीतियाएल पानि
आकि गनहाएल-मनहाएल
वायु मुखात्र होइते अपन गति पकड़ि लइए तहिना ने भवैत भव मुखात्र होइत भवसागरमे
समा समाधि लैत अछि।
नजरि पड़िते देखलियनि जे समैया काका
घौना पसारि कऽ कानियोँ रहला अछि आ घुन-घुना कऽ अपन जिनगीक गीतो गाबि रहला
अछि। एक तँ ओहिना ओझराएल मन तैपर आरो ओझरी लगि गेल। चलचलौ देखि दुनू हाथ जोड़ि
प्रणाम करैत पुछलियनि-
“काका, मन केहेन लगैए?”
ले बलैया! जिज्ञासा करए
जिज्ञासु बनि गेल छेलौं मुदा ओ तँ जेना बिहाड़िमे उधिया गेल होथि तहिना बजला-
“जेते धएल-धड़ल छल सभ सठि गेल, मुदा मनक ताप नै
मेटाएल, जे घड़ी
जे पहर छी, छी। भने
भेँट-घाँट भऽ
गेल।”
समैया काका जेना कालचक्रक पूजापर बैसल
होथि तहिना बाजए लगला। भुजंग प्रयात जकाँ सुनैत रहलौं, सुनैत रहलौं।।¦¦¦
०७ फरवरी २०१४
अखरा-दोखरा
देवघरसँ अबैत रही, जसीडीहक मुसाफिर
खानामे एक गोटे भेटला। भेटला कि सिमटीक जे कुरसी बनल छल ओइपर पहिनेसँ असगरे बैसल
रही, ऊहो आबि
कऽ बैसला। कनीकाल तँ ऊहो चुपे रहला आ हमहूँ चुपे रहलौं मुदा जखनि चुनौटी निकालि
तमाकुल चुनबैक सुर-सार
केलौं आकि बजला-
“एक जुम बढ़ा देबै।”
पहिल दिनक भेँट, केना कऽ पुछितियनि
जे छोट जुम खाइ छी आकि नमहर। अपने अनुमान करए लगलौं जे मुँहक एकोटा दाँत नै टुटल
देखै छियनि तइसँ भरिसक छोटे जुम खाइत हेता। सएह करैक मन भेल, मुदा खुएला
पछाति जँ अजश भेल तखनि खुएलहा फले की हएत! तँए अहगरसँ तँ नै मुदा मझोलका घानी लगा
देलिऐ। तरहत्थीपर औंठा चलए लगल। धिया-पुताक खेल जहानि एतएसँ चलिहेँ बुढ़िया, धोकड़ी समैइहेँ
बुढ़िया...।
बाँहिपर ओंगरी चलए लगल।
घंटा भरि गाड़ी पछुआएल। भरिपोख दुनू
गोटेक बीच गपो-सप्प
भेल आ दूबेर चाहो-पान
चलल। गाड़ीक एके कोठलीमे बैस कऽ भरि रस्ता गप-सप्प करैत
एलौं। दरभंगा अबैक रहए। हायाघाटमे जखनि ओ उतरए लगला तँ कहलनि-
“फेर कहिया भेँट-घाँट हएब आकि नै हएब।”
हमहूँ टोकारा देलियनि-
“ऐ देहक कोनो ठेकान अछि, अखने डिब्बासँ
खसि पड़ब, प्राण
तियागि देब।”
हठ करि कऽ अपना संग उतारि लेलनि। दू दिन
पहुनाइ चलल। दू दिन पछाति जखनि गाम एलौं तँ बेटा पुछलक-
“दू दिन केतए हराएल छेलौं?”
जेना-जेना भेल, सभ बात सुना
देलिऐ। सुनि कऽ बाजल-
“एना जे अखरा-दोखरा-तेखरा दोस्ती हुअए लगल तँ दुनियेँ अछन भऽ जाएत।”
जहिना गबैया, खिस्सकर शुरू
कम स्वरमे करैए तहिना बेटो मुँह दाबि कऽ बाजल छल। दोखरा-तेखरा तँ नीक
जकाँ सुनलौं मुदा अखरा कहलक आकि सखरा से नीक जकाँ सुनबे ने केलौं। मनमे उठल दोखरा
बालु तँ पानिओ बनबैए आ हवो मुदा तेखरा तँ पाथरेटा बनबैए। ओ चाहे कोइला कहबए आकि
पाथर मुदा दुनूक (बालु-सिमटी) प्रेम केते
प्रगाढ़ होइए जे जुग-जुगान्तर के कहए जे जन्म-जन्मान्तर धरि
ओहिना ठाढ़ रहैए जहिना शुरूमे ठाढ़ होइए।
ओना बेसी थकान नै रहए हायेघाटसँ आएल रही, मुदा पाछू
पुछड़ी जोड़ि बजलौं-
“बौआ, थाकनिसँ देह भरियाएल अछि, पहिने नहा-खा कऽ किछु समए
अराम करब तखनि मन खनहन हएत। पछाति सविस्तर बात करबह।”
थकान सुनि बेटा अपन जवाबदेही बूझि गुमे
रहि गेल।¦¦¦
१० फरवरी २०१४
पेटगनाह
कौल्हुका भोजक अजशसँ सौंसे गामेक लोककेँ
चोट लगल मुदा सभसँ बेसी लगलनि कुसुमी काकीकेँ। बेसी चोट लगैक कारण भेल जे भोजक
अगुआ नेतेजी काका छेलखिन। घरवैया तँ अपन माइयक सराध लेल खर्चक जे मन बनौने छल ओ पाइ-चुक्ती केलक।
किए ओकर मन कहतै जे दुआरपर सँ पंच अकची-दोकची बजैत गेला। मन तँ यएह ने कहतै जे
समाज जेतेक खर्च मंगलनि से तँ दइए देलियनि तखनि काजक भार समाजक ऊपर गेल। जँ कियो
नै बुझत बलधकेल अगुऔत तँ अगुआबऽ, अपन मुँह दुइर करता। देखै छी जे केतौ वारीक समाने चाेरा
कऽ अपना ऐठाम साहि दइए तँ केतौ देखै छी भनसीए अपन कनारि चुका तीमन-तरकारीमे नोनेक
गड़बड़ी कऽ दइए। केतौ देखै छी बजारसँ सड़ल-पाकल समान कीनि दुइर करैए। तइसँ
घरवैयाकेँ की? जानए
जौ आ जानए जत्ता। सातु सने घून किए पिसाएत? बलजोरी जँ कियो पीसिनिहारि बिना उलौने-फटकने घुनाएल
अन्न पीसत तँ दोख केकर हेतै। बलधकेलकेँ कोनो जवाब होइ छै, जेकरा जे फुड़ै
छै से बजबो करैए आ करबो करैए। कियो जँ अजशक दोख घरवैयाक माथपर देत से थोड़े मानत, अपनो मन ने
गवाही दइते हेतै। काकीक मन ठमकलनि, ठमकलनि कि मानि गेलनि जे भोजैत निर्दोख अछि। जहिना
कोनो न्यायालयक न्यायाधीश दूध-पानि बेड़ा अपन पदक संग अपन गरिमा बढ़ा आत्म–परमात्ममे जोड़ि
लैत अछि तहिना कुसुमी काकी भोजैतकेँ घिनमा-घीन भेला पछातिओ पनिपत बना कमल फूल जकाँ
फुला देलनि। मुदा मन असथिर नै रहलनि, आगू बढ़ि गेलनि।
कुसुमी काकीक नजरि समाज दिस गेलनि। समाजक
एहेन दुरगति भेल जे अनगौआँ पंच सभ जे यत्र-कुत्र बाजल से तँ बजबे कएल मुदा ई जे
बाजल जे एहेन रही तँ पूजापर बैसबे ने करी। गामक रखलक की! कोनो कि जइ गामक
पंच रहए तही गामक लोकटा बाजत आकि साँझ-भोरक तरेगन जकाँ एकटा नढ़िया टाँहि देत
आकि गामसँ आन गाम धरिक नढ़िया हुआँ-हुआँ करए लगत। आनो-आन गामक लोक
बाजत। लोको तँ लोके छी किने, मान न मान हम तोहर मेहमान। जहिना बजै छी तहिना लील
समाज अपन समाजक फरिच्छ रूप सोझमे देखब से नीक? आकि बजै छी काग जकाँ आ करै छी कौआ जकाँ से नीक।
दुनूकेँ नांगड़ि जोड़ि काग-भुसुंडी मानब, अपन-अपन मन मानब
भेल। समाजे गाम भेल आ गामे ने समाज, मुदा गाम तँ ब्रह्म स्वरूप निरविकार नीरब अछि ओकर
कोन दोख। मनुखे ने समाज बना सूनसँ शून्य धरि फड़ैत-फुलाइत अछि।
मुदा समाजो टुकड़ी-टुकड़ीमे
तेना कटि-खोंटि
गेल अछि जे नीक-अधलाक
विचार जटिलसँ जटिलतर बनि गेल अछि। कुसुमी काकीक मन ठमकि गेलनि। मुदा सुदर्शन
चक्र जकाँ मन तेना नचैत रहनि जे कोनो दिशा नीक जकाँ बुझिए ने पबै छेली। तखने
नेताजी काका आँगन पहुँचला। जेना साँढ़-पारा अपन कनारि असुलैत तहिना कुसुमी काकी बघुआइत बजली-
“केते दिन मनाही केलौं जे एहेन काजमे नै पड़ू, आब ने ओ राजा
भोज छथि आ ने हुनकर दरवार छन्हि।”
जहिना टुटल घरमे अकासक बून सोझे लगैत
तहिना कुसुमी काकीक बोल नेताजी कक्काक हृदैकेँ बेधि देलकनि। छटपटाइत मन अवाक भऽ
गेलनि। नजरि काकीक आँखिमे नाचए लगलनि। बजला किछु ने। दोहरबैत कुसुमी काकी बजली-
“जखनि अहाँ देख नेने छी जे अही समाजमे केते भोज-काज भेल अछि
जइमे केतेकोकेँ जशो भेलनि आ अजशो। मुदा जश-अजशक भागी के?”
जश अजश सुनि नेताजी काका गोबर संुघौल
मुसरी जकाँ मुँह खोललनि। बजला-
“अपनो नै अखनि धरि बूझि पेलौं अछि जे हिसाबमे गलती केतए भेल, जे एना भेल!”
हिसाब सुनि कुसुमी काकी बजली-
“कागत परहक हिसाब काजमे नै काज करै छै, केतौ वारीक
समाने अपना घर साहि दइए तँ केतौ भनसीए अपन कनारि असुलि नोनगरे-अनोन बना दइए, तँ केतौ
खेनिहारे कोनो वस्तुक नांगरि पकड़ि चपैत-चपैत चापि दइए।”
पत्नीक विचार सुनि नेताजी कक्काक मन मानि
गेलनि जे भरिसक सएह भेल हएत। बजला-
“ठीके कहै छी।”
“ठीके की कहब। अहाँ अपने पेटगनाह छी, तेकरे फल भेल।”।¦¦¦
१४ फरवरी २०१४
बड़की माता
“अनसोहाँत भऽ गेल! एहेन कहियो ने देखने छेलिऐ!”
-ओछाइनपर पड़ल, अपन कुहरब छोड़ि अठासी बर्खक मंगली दादी
बजली।
जहिना बाट चलैत बटोही हारि-मारि थकान
पीड़ासँ पीड़ाएल बजैत तहिना मंगली दादी सेहो बजली। दोसराइत लगमे नै तँए कियो नै
सुनि पौलक। जहिना अकासमे मेघक टुकड़ी उड़ि-उड़ि सुर्जक
प्रभाकेँ झँपैत तहिना सोगाएल सोग दादीक बोलतीकेँ झाँपि देलकनि। जइसँ बोलती तँ
बन्न भेलनि मुदा विचार भीतरे-भीतर सुरकुनियाँ मारि बिचड़ए लगलनि। जुग बदलि गेल
वृन्दावनक गोपी एक सेकेण्डक सतरह सौमा भागकेँ जुग मानि कृष्णसँ अलग नै हुअ
चाहैत, मुदा से
थोड़े अछि। अनेरे कियो बजैए जे कलयुग अखनि ढेरबे भेल अछि, समरथाइओ पछुआएले
छै आ औरुदो बहुत बाँकी छै। केता हजार बरख आरो रहत। मनमे बिचरिते रहनि आकि
दुबटिया लग पहुँच गेली। पहुँचिते विचार उचड़लनि, ऐ बीच तँ मनुखक
केता पीढ़ी गुजरि जाएत! मनुखक जिनगीए केतेटा होइ छै! तहूमे चारि
टुकड़ी अछि। जँ सए बर्खक मानब तँ पचीस-पचीस बर्खक टुकड़ी भेल, नै जँ अस्सी
मानब तँ बीस बर्खक भेल आ जँ सरकारी मानब तँ साठि बर्खक पनरह बरख भेल। तइ हिसाबसँ
कलयुगक किए ने बेसी औरुदा पछुआएले छै। तैबीच पोता मनोज आबि अँगनामे बाजल-
“दछिनवरिया टोलमे बड़की माता एलखिन, तँए ओइ टोल दिस
नै जाएब।”
आँगनमे दोसराइत नै, ओछाइनपर पड़ल
मंगली दादी जोरसँ पोताकेँ सोर पाड़ि पुछलखिन-
“बौआ की भेल दछिनवारि टोलमे?”
दादीक प्रश्न मनोजक मनकेँ जेना धक्का
मारलक। धक्का मारलक ई जे दादी पुछलनि। लगमे आबि मनोज बाजल-
“दादी, दछिनवारि टोलमे बड़की माता एलखिन, लोक सभ बजैए जे
ओइ टोल नै जइहेँ।”
एक तँ झुनाएल पाकल टूर खसैत दादीक स्मरण
शक्ति, तैपर
बड़की माता सुनि असल अर्थ नै बूझि सकली। बुझबो केना करितथि माएसँ दादी ने बनि
गेल छेली। पोताक बातकेँ सुनि मनमे रखि लेली जे बेटा औत आकि पुतोहु तँ पुछि लेब।
बालवोध क्याँने गेल जे बड़की माता केकरा कहै छै। देवीओ होइए आ दानवीओ होइए।
जीवनदानीओ होइए आ लेनिहारिनीओ होइए। भेल ई जे रोदियाएल सौन भऽ गेल। खाली सौने
नै, रौदियाएल
अखाढ़ो ने बरिसल। फागुन-चैतक मधुआएल रौद बढ़ैत-बढ़ैत अग्नि स्वरूपा
बनि पृथ्वीकेँ गरसि लेलक। अग्नि स्वरूपा बनबो केना ने करैत? पानिक छुतिये
ने समापत भऽ गेल। अपन सहयोगीक भरपूर सहयोग भेटबे केलै। रस्ता–बाटक बैसल माटि
गर्दा-धुरा
बनि धुरिया पकड़ि अकासक रसकेँ चुिस लेलक, गाछ-बिरिछ अपन
हरितमा तियागि पीड़ासँ पीड़ा धरतीपर झड़ि गेल। पोखरि-इनार, धार-धूर माटिक खाधि
बनि गेल। सुरूजक प्रखर प्रभाकेँ धरती-अकास बीचक सेना नै रोकि हारि मानि कतबाहि धऽ लेलक, एहेन स्थितिमे
कालचक्रक पूजा केहेन हएत? गामे-गाम रंग-बिरंगक तपाएल
तप रोग-वियाधिक
संग छोटकी मातासँ सैझली, मैझली बड़की माता पसरि
गेल! एक तँ
ओहिना समैक गरुआएल गरमी तैपर देहक तपित तापसँ तपीआ जिनगीक कठिन परीछामे गामक-गाम लोक फँसि
गेल।
शुरूमे जखनि दछिनवारि टोलमे चेचकक आगमन
भेल आकि एके-दुइए
काने-मुँह
सौंसे गाम समाचार पहुँच गेल। मैयाक आगमन होइते ओझहा-धामिक संग झालि-मिरदंग उठि कऽ
ठाढ़ भेल। रंग-रंगक
प्रहार टोलपर हुअ लगल। ओ सभ तीन सालसँ गहवर खसा अनठौने अछि। तेकरे फल भेट रहल छै।
तेतबे नै आनो गामोक आ आन टोलोक आएब-जाएब घटैत-घटैत घटिया गेल। एक्कैसो घरक टोलकेँ जेना
गामो आ आनो गाम जरै-मरैले छोड़ि देलक।
छोटकी माता अपन
रूप बढ़बैत गेल। जहिना शरीरमे बढ़ल तहिना मौसमो बढ़ैत संग-संग चलए लगल।
एक्कैसो परिवार रोगसँ आक्रान्त भऽ गेल। आेना दछिनवरिये टोलटा नै गामक आनो टोल आ
आनो-आनो
गाममे वियाधि पसरि गेल।
ओछाइनपर पड़ल मंगली दादीक मन फड़फड़ेलनि।
मैयाक आगमन
तँ चैत-बैशाख
आकि आसीन-कातिकमे
होइ छेलै, जखनि
रीत-बेवहार
बदलै छै। अखनि तँ सौन छी तखनि किए भेल? अखनि तँ बाध-बोन हरिआएल रहैत, पोखरि-झाँखरिसँ लऽ कऽ
चर-चाँचड़
जलजलाएल रहैत, से किए
ने अछि? मासक
ठेकान तँ दादीकेँ मन पड़लनि मुदा मौसमक ठेकाने ने रहलनि। ठेकानो केना रहितनि, घरहटिया घरहटक
समैक लछन-करम
ठेकना नक्षत्र मन रखैए, किसान किसानी आ बेपारी बेपारक, से तँ आब दादीमे
नै रहलनि। तँए मन नै बूझि पेलकनि। मुदा सुनाएल मन सपनए लगलनि। सपनाइते खापड़िक
मकैक लाबा जकाँ चनकि धरतीपर खसलनि। खसिते चनचनेली-
“कहाँ दन साते-आठेटा मखानक फोंका जकाँ देवसुनराकेँ तेहेन निकलि
गेल अछि जे तनो-भगन-वेनग्न भऽ गेल
अछि। बापो-माए डरे
लगमे नै जाइ छै। जेबो केना करतै। जखनि एक्के घरक सातटा स्त्रीगण सात सीढ़ीमे तेना
बँटा जाइए जे मनुखक शक्ले-सुरति बदलि जाइ छै, तहिना ने बरो-बेमारीक अछि।
साधारण पेटझड़ीबला जँ रद-दसबला टोल जाएत तँ जानियेँ कऽ ने ढोढ़ीया बीखकेँ गहुमनेक
बनौत...।”
एक्कैसो घरक टोलमे ने एकोटा परिवार नागा
रहल आ ने एक्कोटा मनुख। जहिना दुनियाँक सभ परुखकेँ नारीक संग कऽ देल जाइ छै, तहिना। टोलक सभ
चेचक वियाधिसँ व्यग्र भऽ गेल। के केकरा देखत। सबहक मन कहै, जान रहत तखने ने
जहान। जँ जाबे से नै रहत तँ जहाने की। सभ िदन सभ काल दुनियाँक उदए-परले तँ होइते
छै, तँए कि
सभले एक्के होइ छै। दुनूक फेँट-फाँटमे जे जेहेन बीछिनिहार रहल ओ ओहेन कऽ बीछि लइए।
अनायास स्मृति जगलनि। जगिते मन पड़लनि अपना देहमे भेल चालीस बरख पहिनुका चेचक।
मझिली मैया मन पड़िते देह ओहिना सिहरि गेलनि जेना बर्खाक बून पड़िते अकासमे
उड़ैत चिड़ैकेँ होइत। एक तँ उमेरक जर्जर अंग तैपर चालीस बर्खक स्मृति तेना कऽ
मंगली दादीकेँ गरसि लेलकनि जे गराँसक चोटसँ जहिना अंग भऽ जाइत तहिना भऽ गेली।
बेथाएल तन-मन तेना
अकड़ि दबलकनि
जे मुँह भरभरेलनि-
“हे भगवान! अनेरे कोन नरकमे रखने छी, कहिया धरि
राखब।”
मुदा लगले मन बदलि गेलनि। बदलि ई
गेलनि जे जाबे आँखि तकै छी ताबे अहिना ने होइतो रहत आ देखबो-भोगबो करैत रहब।
तइसँ नीक जे लऽ चलू जिनगीक ओइपार जैठाम ई सभ नै देखब।
ओसारक दछिनवारि भागमे मंगली दादीक
ओछाइन, तहीबीच
बेटा बुधियार आँगन पहुँचल। माइक सभ बात तँ बुधियार नै सुनि सकल मुदा अंतिम बात, ‘लऽ चलू...।’ सुनलक। सुनिते
बुधियारक मनमे उठल, माए की बाजि रहल अछि! झब दनि लऽ चलू केतए लऽ चलू? मन मुड़ियाएल।
मुड़ियाइते भेल जे भरिसक रोग-पीड़ासँ रोगाएल-पीड़ाएल मन
तड़पि रहल छै। फेर भेलै जे अनेरे मनकेँ औनाबै छी। माइओ कियो आन थोड़े छी जे
पुछैमे संकोच हएत। बाजल-
“माए, की भेलौ, एना किए बजै छेँ?”
बुधियारक बोल सुनि मंगली दादीक हूबा
जगलनि हूबगर होइत बजली-
“सुनै छी जे गाममे मैयाक आगमन भेल अछि?”
माइक बात सुनि बुधियार तारतम करए लगल जे
माए लग झूठ केना बाजब? तहूमे
जखनि कहियो ने बजलौं, मुदा प्रश्नक जबावो केना देब। जहिना दछिनवारि टोलक रस्ता
छोड़ि देलौं, तहिना
तँ उतरवारिओ टोलक। फेर तखनि केना हँ कि नै कहबै। जहिना चिड़ै लोलसँ बोल मिलबैत
तहिना बुधियार माइयक बोलसँ बोल मिलबैत बाजल-
“हँ, माए ठीके भेल अछि।”
बेटाक बोल सुनि मंगली दादीकेँ सुआस
पड़लनि। दोहरबैत बजली-
“आनो-गाममे भेल अछि आकि अपने गामटा मे?”
दादीक मन बढ़ैत देखि मनमे भेल जे अखनि
धरि सुनलेहे बाजि बजलौं, आन गामक जँ बाजब आ अढ़ा दिअए जे अपनो कुटुम-परिवार तँ ओइ
गाममे अइछे, कनी जिगेसा
कऽ आबह तखनि तँ भारी पहपटि हएत। रस्ता–पेरा केतए फँसि जाएब तेकर ठीक अछि। बाजल-
“माए, कनी नीक जकाँ भँजियबै छी तखनि नीक जकाँ कहबौ। सुनै छी
जे कहाँदन ओझहा-धाइम
भाउ खेलाएल तँ कहलकै, गामक सीमान बान्हि देलियऽ, तखनि तँ जानक
बदला जान दिअ पड़तह।”
मंगली दादी पुछलखिन-
“वैद की कहलकै?”
ओझहा-वैदक नाओं सुनि
बुधियारक मन मानि गेल जे बिना झूठ बजने काज नै चलत। मुदा जहिना बालवोध तहिना
थाकल-ठेहियाएल
बूढ़-बुढ़ानुसकेँ
बौसब बड़ भारी नहियेँ अछि। बाजल-
“अनेरे कोन फेड़मे पड़ै छेँ। राम-राम कर सभ नीक
भऽ जेतै।”
‘राम-राम’ सुनि मंगली दादी तारतम करए लगली जे ‘राम-राम’ की कहलक। मरैकाल
राम-रामकेँ
सत् लोक मानैए। अधला काज केला पछाति राम-राम कहि दुतकारि दइ छै। शुभ काजक बेर
जँ राम-नाम सत्
छी बाजब तँ कपर फोड़ौबलि करा लेब, तखनि बुधियार की बाजल। माइओ रगड़ी बजली-
“बौआ, ओझहो-गुणी नै देखलक-सुनलक हेन?”
माइक रगड़गड़ बात सुनि बुधियार रगड़ाइत
बाजल-
“नेति-नेति कहि कातेसँ छुअब छोड़ि सतदिना रोग कहि जीबै-मरैले छोड़ि
देलक।”¦¦¦
१८ फरवरी २०१४
धरती-अकास
सुधीराक बिआहक गप-सप्प उठल। तीन
दिन पहिने तक बी.ए.क रिजल्ट निकलल
छेलै। राजनीतिशास्त्र आनर्स पाबि सुधीराक मन मानि गेल छल जे राज-काज बुझै-चलबैक लूरिक
प्रमाणपत्र युनिवर्सिटी दऽ देलक।
सुधीराक पिता प्रोफेसर साहैब संगी-बीच बैस चाहो-पान करैत रहथि
आ ठहाका-पर-ठहाका सेहो दैत
रहथिन। ठहाकाक कारण भेल जे अपन टारगेटक भीतरे बेटीक बिआहक गर लगि गेलनि। बरो
राजनीतिशास्त्रेक प्रोफेसर छथिन। साल भरि पहिने नोकरी भेलनि। बर-कन्या जँ एक विषयक
जानकार हुअए तँ ओ जिनगीक लेल सोनाक सुगंधे भेल। संगी सभकेँ बजबैक कारण प्रोफेसर
साहैब सबहक बीच सुधीराक बिआहक चर्च उठा, बेटीक विचार जानए चाहलनि।
गद-गदाएल मने
प्रोफेसर साहैब सुधीरा दिस देखैत संगीक बीच बजला-
“बेटीक बिआह पसिनगर घरमे हएत।”
संगी सभ जेना बाँसक एकटा चोंगरामे अनेको
गोटे पकड़ि सह दइए तहिना मने-मन सभ देलकनि। मुदा सुधीरा राजनीतिशास्त्रक छात्रा
छी, अपना
लगसँ लऽ कऽ दुनियाँ धरिक राज-काजक प्रक्रिया जनैए। बाजल-
“बाबूजी, केहेन परिवारमे पठबए चाहै छी?”
पिता चुपे रहला। दोसर जे संगी रहथिन ओ
बजला-
“बाउ, संयुक्त परिवार, खानदानी परिवार, तहूमे सातो
भाँइक भैयारीमे सभसँ छोट भाएक संग।”
सुधीरा-
“जहिना सात तल अकास ऊपर अछि तहिना सात तल पतालो। भैयारीक
सातम तलकेँ ऊपर-निच्चाँ
तजबीज केलिऐ?”¦¦¦
१९ फरवरी २०१४
बकठाँइ
ओछाइन छोड़िते दुनू परानी लाल भायकेँ
बकठाँइ शुरू भऽ गेलनि। बरहमसिया बकठाँइ तँए शुभ-अशुभक मद्दी नै।
मद्दी तँ ओतए होइए जेतए निअमित किरिया-कलाप चलैत। ओना दोसरो कारण छेलनि, से छेलनि पति-पत्नीक बीच जिनगीक
सम्बन्ध। तँए कहियो एहनो भाइए जाइ छन्हि जे सुतलीओ रातिमे आ कहियो
अकलबेरोमे तेहेन परोड़क मुड़ी जकाँ सरेड़ निकलै छन्हि जे अड़ोसीओ-पड़ोसीओ आ दिआदोवाद
गामसँ फाजिल कहि अपन मुँह बरजि लइ छथि। ओना से ओहिना नै कियो बरजलनि, किछु दिन पहिने
जोतखी भायसँ निसभरि रातिमे तेहेन बजरान बजरलनि जे सौंसे गामक लोक जमा भऽ गेलनि।
मुदा गौआँकेँ चाबस्सी दी जे जोतखीए भायकेँ दोखी बना मुँह बन्न करैले कहि, छोड़ि देलकनि।
बात कोनो कि किछु रहै, एतबे रहै जे किछु एहनो काज होइए जेकर बरजित अकलबेरामे कएल
जाए। तँए छुट्टा साँढ़ जकाँ दुनू परानी लाल भायकेँ गौआँ बूझि, एक घर डाइनो
बरजै छै कहि बिनु नीनक पकड़ल ओछाइनपर कर घूमि-घूमि कछमछ करितो, कानमे झड़
पड़ैबितो अड़ोसीया-पड़ोसीया ने लगमे पहुँचैक साहस करैत आ ने सुतले-सूतल कियो
मनाही करैबला। तेकर कारण ई नै रहै जे लाल भायसँ आन कम तागतिबला छथि आकि दउगर-पेंचगर कम छथि।
मुदा कारण जहिना धानक झड़ केतौ धाने झड़ भऽ जाइए आ केतौ झड़ाह बनि झड़ बनैए।
माने ई जे एक धानक खेतीक बीच जँ दोसर धान आबि गेल तँ ओ धानो भेल आ झड़ो भेल। धान
भेल जे जँ एकरंगाह दोसरमे चलि गेलौं, मुदा फुटै-पकैक, नमती-मोटाइ आ गुद्दाक
रंग जँ एक होउ, तँ किए
ने धान भेल। मुदा तुलसीफुल आकि कनकजीर धानक खेतमे जँ उलाँक धान मिझड़ा जाए तखनि
की कहबै? एकटा
धान दोसरसँ दस बड़ नमहरो आ दस बड़ मोटो होइए। खाइकाल तँ पारखी ओकरा पकड़ि घरनीकेँ
दसटा सोहर सुनबैक अधिकारी तँ बनियेँ जेता किने। बनबाको चाहिए। जैठाम एक-एक दाना पकड़ैक
बात अछि तैठाम जँ पँचमुखी रूद्राक्षमे गो-मुखी नुकबए चाहबै तँ की छोड़बो उचित? खैर जे होउ...।
बरहमसिया बकठाँइ तँए दुनू परानी ओहेन
अभ्यस्त जे घंटो भरि एके आसन एके टाँगे धेने रहै छथि। ओना लाल भाय आ लाल भौजीक
विचारक दूरी नमहर छन्हि मुदा बिना दूरी पार केने सीमोपर नहियेँ पहुँचल जा
सकैए। तहूमे मनुख सामाजिक प्राणी छी, जँ दूटा मनुखकेँ एकठाम रहैक सूत्र नै बनल रहत तँ सदिकाल
भैंसा-भैंसी
होइते रहत। विवाह सूत्र तँ दुनू परानी लाल भायकेँ बान्हिए देने छन्हि।
दुनू परानी लाल भाइक आझुका बकठाँइ छेलनि
लाल भायक ओ विचार जेकरा ओ सिद्धान्तसँ जोड़ल छन्हि। तैबीच भौजीक सुमति जगलनि
आ बेडटी केर ओरियानमे लगि गेली मुदा लाल भाय ओछाइनेपर पड़ल रहला। जेना अस्सी मन
पानि विचारपर पड़ि गेल होन्हि तहिना। जहिना बच्चाक शुरूक शिक्षा जिनगीक
संग अधिक दूर तक संग पुड़ैए तहिना लाल भायक विचार सेहो संगे चलि रहल छन्हि।
सिद्धान्तक बीच फँसल रहनि लाल भायक विचार! चाह पीबैसँ पहिने
लाल भायक मन तुरूछि गेलनि। तुरूछैक कारण छेलनि जे अखनि धरिक जे जिनगी रहलनि
ओ ई रहलनि जे जँ घर-बाहर एकरंगाह काज हुअए तँ पहिने बाहरक कऽ ली, पछाति घरक। तहिना
दोसर विचार रहनि जे जँ अपनो काज रहए ओहने काजक भार जँ दोसराइतोक होइ तँ पहिने
दोसराइतक करब नीक। मुदा.., तइ विचारमे फँसल। मनमे रंग-रंगक बात गाड़ीक
पहिया जकाँ चलैत रहनि। पनिपत जहिना बीज रूपमे एक दिस पाँकमे गड़ल रहैए तँ
दोसर दिस कमल सदृश आँखि सेहो बनौने रहैए तहिना लाल भायक विचार ऊपर-निच्चाँ होइत
रहनि। बच्चेमे एक गुरु नै अनेक गुरु माए-बापसँ लऽ कऽ साहित्य धरिक गुरुक उपदेश
कानमे पड़ैत रहल जे ‘सत् बाजी, केकरो अनुचित नै करिऐ, सत्-धर्मक पालन करी! मुदा देखि की
रहल छी। मन बमछि गेलनि, बुदबुदेला-
“कियो अपन कर्ता-धर्ता छी, सिद्धान्तक
संग कोनो समझौता नै।”
शिवलिंग जकाँ विचारक बीच खूट्टा गाड़ि
देलनि।
ओछाइनपर पड़ल लाल भाय जिनगीक परीछाक बीच
फँसल छला। चाहमे कनी चीनी बढ़बैत लाल भौजी गद्-गद् जे दुनियाँक
के एहेन पुरुख अछि जे अपन स्वेच्छासँ जिनगी बना लेत? तैठाम तँ अजमौल
पुरुख छथिए। लगले पाछू घुसुकिये जेता। धुआइत चाहक कप दहिना हाथसँ उठबैत लाल
भौजी बजली-
“किए, महिंस मोड़ जकाँ ओछाइन पकड़ने छी, उठब चाह पीब आकि
पड़ले रहब।”
लाल भौजीक बात लाल भायकेँ जँचलनि।
फुड़फुड़ा कऽ उठि जेबीक पाइ सेरियबए लगला। चाह लाल भौजीक हाथेमे। पाइ सेरियबैत
देखि भौजी टीपली-
“भोरे लोक राम-नाम करैए, अहाँ पाइए सेरियबै छी।”
लाल भौजीक मनोवृति भैया नीक जकाँ परेखने।
परेखने ई छथि जे अनकर काजक किछु होउ, अपन कुरथी बलुआ जाए। तैपर दूधबलाक काजक समैपर सेहो
नजरि रहनि। दूधबला बेटी बिआहक सरंजाम कीनए भोरे बजार जाएत। लाल भायक हाथमे पाइ
नै रहनि, तँए
घुमबैत कहने रहथिन-
“नअ-दस बजे राति तक पाइ औत, काजक घरमे अनेरे
नै बैसह, बजार
जाइसँ पहिने तोरा पाइ पहुँचा देबह।”
छअ बजेक समए देने रहथिन। अँखिमुना बिसवासू
दूधबला, तँए
पाइक िचन्ता मनसँ हटा नेने रहए। जहिना भक्तक भगवानपर सँ हटि भगवान बनि जाइए, तहिना।
चाह पीब लाल भाय सोझे दूधबला ओइठाम विदा
भेला। विदा होइते लाल भौजी टोकि देलखिन-
“केतए जाइ छी?”
“दूधबलाकेँ पाइ दइले।”
“भोरे-भोर अहूँकेँ किछु फुड़ल नै जे अनेरे विदा भेलौं?”
“की अनेरे?”
“जेकरा खगता रहै छै, ओ अनेरे दौगल अबैए।”
“हमहूँ खगता बुझलिऐ तँए ने दौगल जाइ छी।”
पतिक सकताएल विचार सुनि लाल भौजी ठमकि
गेली। बजली किछु ने। मुदा नजरिक लाली कतियाए लगलनि। जहिना बाघक आगू पड़ने
दुनूकेँ ज्वर
लगि जाइ छै तहिना लालो भाय आ लाल भौजीओकेँ हुअ लगलनि। मुदा दुनूक ज्वरक दू
कारण छेलनि। केकरो रदु-बसातसँ एला पछाति नहेलासँ अबैत तँ केकरो नहेला पछाति रदु-बसातमे गेला
पछाति अबैत। लाल भाय अपन विचारक पाछू अपन मानक संग परिवारक सम्मानक रक्छाक
बातमे डूमि कलियाएल जाइत रहथि तँ लाल भौजी अपन मान-सम्मानमे।¦¦¦
२४ फरवरी २०१४
विदेह नूतन अंक भाषापाक रचना-लेखन
इंग्लिश-मैथिली-कोष / मैथिली-इंग्लिश-कोष
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