भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Saturday, March 16, 2024

गजेन्द्र ठाकुर- नूतन अंक सम्पादकीय [विदेह ३९० म अंक १५ मार्च २०२४ (वर्ष १७ मास १९५ अंक ३९०)]

गजेन्द्र ठाकुर- नूतन अंक सम्पादकीय [विदेह ३९० म अंक १५ मार्च २०२४ (वर्ष १७ मास १९५ अंक ३९०)]

 सोशल मीडिया, अन्तर्जाल आ दूरदर्शनक कार्यक्रम सभमे वेदमे ई लिखल अछि, ई वर्णित अछि, शूद्रक प्रति, स्त्रीक प्रति, शूद्रक स्त्रीक प्रति अपमान जनक गप लिखल अछि; ई सभ सूनि कऽ कियो विकीपीडिया आ आन आन ठाम अन्तर्जालपर लेख सभमे परिवर्तन कऽ देने रहथि। एक गोटे अंग्रेजीमे लिखलनि- “अथर्ववेदमे शूद्रक पत्नीकेँ बिना स्वीकृतिक कियो हाथ पकड़ि लऽ जा सकय, बला वक्तव्य अछि।हम कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, खण्ड-; प्रबन्ध निबन्ध समालोचना भाग-, २०१४ मे अपन आलेख विद्यापति: किछु प्रचलित कुप्रचारक निवारणमे लिखने रही-

“.. ई ओहिना भेल जेना अथर्ववेदमे शूद्रक पत्नीकेँ बिना स्वीकृतिक कियो हाथ पकड़ि लऽ जा सकए बला वक्तव्य।

मुदा अथर्ववेद बा कोनो वेदमे ओइ तरहक वक्तव्य कत्तौ नै आयल अछि। तकर विपरीत शुक्ल यजुर्वेद ई कहैत अछि:-

शुक्ल यजुर्वेद (२६.२)-यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।।हम सभ गोटेकें ई पवित्र वाणी (वेदवाणी) सुनाबी। ब्राह्मणकें, क्षत्रियकें, शूद्रकें आ आर्यकें; अपन लोककें आ अपरिचितकें सेहो (माने सभकें)। मुदा ऐ वेदवाक्यक विपरीत मनुस्मृति वेदवाणीक अध्ययन/ श्रवणकें समाजक किछु गोटे लेल निषेध करऽ चाहलक, मुदा स्मृति सेहो वेदवाक्यकें प्रमाण मानैत अछि (शब्द प्रमाण) तें तकर विरुद्ध देल ओकर निर्देश स्वयं अमान्य भऽ जाइत अछि।

वेद मे उपलब्ध शूद्र शब्दक उल्लेखित अंशक संग्रह नीचाँ देल जा रहल अछि। शूद्रक अपमानजनक उल्लेख तँ नहिये अछि, वरन् पएरसँ पवित्र पृथ्वीक जन्मक उल्लेख अछि आ तही उत्पत्तिक सादृश्यताक कारणसँ मानव समुदायक पालक शूद्र कहल गेल छथि।

प॒द्भ्याग्ँ॑ शू॒द्रो अ॑जायत॥

पएरसँ शूद्रक उत्पत्ति भेल॥

प॒द्भ्यां भूमि॒र्दिशः॒ श्रोत्रात्।

मुदा पएरेसँ भूमियोक उत्पत्ति।

 

REFERENCE OF SHUDRAS IN VEDAS [Dr Tulsi Ram, 2013, Atharveda: Samaveda: Yajurveda: Rigveda; English Translations]

 

ATHARVA VEDA (3 references)

 

KANDA-14

(MARRIAGE AND FAMILY) Kanda 14/Sukta 1 (Surya’s Wedding)

Devata: Dampati; Rshi: Surya Savitri

60. Bhagastataksha caturah padanbhagastataksha catvaryuspalani. Tvasta pipesa madhyatonu vardhrantsa no astu sumangali.

Bhaga, lord sustainer and ordainer of life, has framed the value orders of life: Dharma, Artha, Kama and Moksha; four social orders: Brahmana, Kshatriya, Vaishya and Shudra; four stages of personal life: Brahmacharya, Grhastha, Vanaprastha and Sanyasa. Tvashta, lord maker and organiser of life, has placed the woman as partner of man in matrimony in this order and organisation. May the bride be good and auspicious for us.

भाग- पालनकर्ता आ जीवनक अधिष्ठाता- जीवनक मूल्य क्रम तैयार केने छथिः धर्म, अर्थ, काम आ मोक्ष; चारि सामाजिक क्रम- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आ शूद्र; व्यक्तिगत जीवनक चारि चरण- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ आ सन्यास।त्वष्टा- स्वामी निर्माता आ जीवनक आयोजक- एहि क्रममे आ सङ्गठनमे स्त्रीकेँ विवाहमे पुरुषक साथीक रूपमे रखने छथि। से वधू हमर सभक लेल नीक आ शुभ होथि।

Kanda 19/Sukta 6 (Purusha, the Cosmic Seed)

Purusha Devata, Narayana Rshi

6. Brahmano sya mukhamasid bahu rajanyo bhavat. Madhyam tadasya yadvaishyah padbhyam sudro ajayata.

Brahmana, (man of knowledge, divine vision and the Vedic Word in the human community) is the mouth of the Samrat Purusha. Kshatriya, man of justice and polity, is the arms of defence and organisation. The middle part is the Vaishya who produces and provides food and energy. And the ancillary services that provide sustenance and support with auxiliary labour are the feet, the Shudra that bears the burden of society.

ब्राह्मण (ज्ञानी, दिव्य दृष्टि आ मानव समुदाय लेल वैदिक शब्द) सम्राट पुरुषक मुख अछि। क्षत्रिय -न्याय आ राजनीतिक लोक- रक्षा आ सङ्गठनक हाथ छथि। मध्य भाग वैश्य छथि जे भोजन आ ऊर्जाक उत्पादन आ आपूर्ति करैत छथि। आ सहायक सेवा जे सहायक श्रमक सङ्ग निर्वाह आ सहायता प्रदान करैत अछि, ओ अछि पैर, शूद्र जे समाजक भार वहन करैत छथि।

 

Kanda 19/Sukta 32 (Darbha)

Darbha Devata, Bhrgu Ayushkama Rshi

8. Priyam ma darbha krunu brahmarajanyabhyam sudraya charyaya cha. Yasmai ca kamayamahe sarvasmai cha vipasyate.

O Darbha, destroyer and preserver, eternal sanative, render me dear and loving to and loved by all Brahmanas, Kshatriyas, Vaishyas, Shudras, whoever we love and desire, and all those who have the eye to see (and discriminate right and wrong).

हे दर्भा, विनाशक आ संरक्षक, शाश्वत विवेकशील; हमरा सभकेँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, सभक प्रिय आ प्रेमी बना दिअ। संगे ओ सभ हमरा सभसँ प्रेम् करथि जिनका सँ हम प्रेम करी बा जिनकर कामना करी; आ ओ सभ जिनका लग देखबाक दृष्टि अछि (आ सही आ गलतमे भेद बुझैत छथि)।

 

SAMAVEDA (o reference)

 

 

YAJURVEDA  (7 references)

CHAPTER- VIII

30. (Dampati Devata, Atri Rshi)

Purudasmo visuruupa indurantarmahimanamanaja dhirah. Ekapadim dvipadim tripadim chatupadimastapadim bhuvananu prathantam svaha.

 

The man of mighty deeds, who eliminates suffering and creates joy, of versatile attainments, bright and honourable, constant and resolute, should wait for the great new arrival. Men of the household, cultivate the vaidic culture of one, two, three, four and eight steps of attainment: one: Aum; two: worldly fulfilment and the freedom of moksha; three: the joy of the truth of word and the health of body and mind; four: the attainment of Dharma, wealth, fulfilment of desire, and moksha; eight: the joy of all the four classes and all the four stages of life (Brahmana, Kshatriya, Vaishya and Shudra, Brahmacharya, Grihastha, Vanaprastha and Sanyasa). Build homes for the people and advance in life.

शक्तिशाली कर्मक पुरुष, जे दुःखकेँ समाप्त करैत अछि आ आनन्द उत्पन्न करैत अछि, बहुमुखी उपलब्धिक, उज्ज्वल आ सम्मानजनक, स्थिर आ दृढ़ संकल्पित, ओकरा महान नव आगमनक प्रतीक्षा करबाक चाही। घरक लोक, उपलब्धिक एक, दू, तीन, चारि आ आठ चरणक वैदिक संस्कृति विकसित करैत छथिः एकः ओम; दुइः सांसारिक पूर्ति आ मोक्ष रूपी स्वतन्त्रता; तीनः वचनक सत्यक आनन्द आ शरीर आ मस्तिष्कक स्वास्थ्य; चारिः धर्मक प्राप्ति, धन, इच्छाक पूर्ति, आ मोक्ष; आठः जीवनक चारि वर्ग आ चारि चरणक आनन्द (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आ शूद्र, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वनप्रस्थ आ सन्यास)। लोकक लेल घर बनाउ आ जीवन मे प्रगति करू।

 

CHAPTER- XVIII

48. (Brihaspati Devata, Shunah-shepa Rshi)

Rucham no dhehi brahmanesu rucham rajasu naskrudhi. Rucha vishyesu shudreshu mayi dhehi rucha rucham.

Brihaspati, lord of the universe, eminent teacher and master of vast knowledge, inspire our Brahma section of the community—scholars, scientists, teachers and researchers with brilliance and love. Infuse brilliance, love and justice into our Kshatrias, defence, administration and justice section of the community. Bless with light, love and generosity our Vaishyas, producers and distributors among the community. And bless our Shudras, the ancillary services, with light, love and loyalty. Bless me with light and love toward us all.

बृहस्पति- ब्रह्माण्डक स्वामी, प्रख्यात शिक्षक आ विशाल ज्ञानक स्वामी- समुदायक ब्रह्म वर्ग- विद्वान, वैज्ञानिक, शिक्षक आ शोधकर्ता- केँ प्रतिभा आ प्रेम सँ प्रेरित करू। हमर क्षत्रिय-रक्षा, प्रशासन आ न्याय- समुदायक वर्गमे प्रतिभा, प्रेम आ न्यायक संचार करू। हमर वैश्य-समुदायक निर्माता आ वितरक- सभकेँ प्रकाश, प्रेम आ उदारतासँ आशीर्वाद दियौ। आ हमर सभक शूद्र -समुदायक सहायक सेवी- केँ प्रकाश, प्रेम आ निष्ठा सँ आशीर्वाद दियौ। हमरा सभ केँ प्रकाश आ प्रेम सँ आशीर्वाद दियौ।

 

CHAPTER- XXV

23. (Dyau etc. Devata, Prajapati Rshi)

Aditirdyauraditirantarikshamaditirmata sa pita sa putrah. Vishve deva aditih pancha jana aditirjatamaditirjanitvam.

In the essence: Light is indestructible; sky is indestructible; mother Prakriti (matter-energy-thought) is indestructible; Father, the Cosmic Spirit is indestructible; Son, the soul (jiva), is indestructible; all the divinities of nature and humanity are indestructible; five people, Brahmana, Kshatriya, Vaishya, Shudra, others, are indestructible; whatever is born is indestructible; whatever will be born is indestructible. (All that was, is and shall be is indestructible in the essence.)

सारमे: प्रकाश अविनाशी अछि; आकाश अविनाशी अछि; माता प्रकृति (पदार्थ-ऊर्जा-विचार) अविनाशी अछि; पिता, ब्रह्मांडीय आत्मा अविनाशी अछि; पुत्र, आत्मा (जीव) अविनाशी अछि; प्रकृति आ मानवताक सभ देवत्व अविनाशी अछि; पाँच व्यक्ति, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आ आन अविनाशी अछि; जे किछु जन्मल अछि से अविनाशी अछि; जे किछु जन्मत से अविनाशी अछि। (जे किछु छल, अछि बा रहत/ आओत से सार मे अविनाशी अछि।)

 

CHAPTER- XXVI

2. (Ishvara Devata, Laugakshi Rshi)

Yathemam vacham kalyanimavadani janebhyah. Brahmarajanyabhyam Shudraya charyaya cha svaya charayaya cha. Priyo devanam dakshinayai daturiha bhuyasamayam me kamah samrudhyatamupa mado namatu.

Just as this blessed Word of the Veda I speak for the people, all without exception, Brahmana, Kshatriya, Shudra, Vaishya, master and servant, one’s own and others, so do you too. May I be dear and favourite with the noble divinities and the generous people for the gift of the sacred speech. May this noble aim of mine be fulfilled here in this life. May the others too follow and come my way beyond this life.

जेना वेदक ई धन्य वचन हम बिना कोनो अपवादक, ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य, स्वामी आ सेवक, अपन आ अन्य लोकक लेल कहैत छी, तहिना अहाँ सेहो करैत छी। पवित्र भाषणक ऐ उपहारक लेल हम महान देवत्व आ उदार लोक सभक प्रिय आ मनभावन रही। हमर ई महान उद्देश्य ऐ जीवन मे पूर हुअय। आन सभ सेहो हमर मार्गक अनुसरण करैत बढ़ैत जाय आ से ऐ जीवनसँ आगाँ धरि बढ़य।

 

CHAPTER- XXX

5. (Parameshvara Devata, Narayana Rshi)

Brahmane brahmanam kshatraya rajanyam marudbhyo vaishyam tapase Shudram tamase taskaram narakaya virahanam papmane klibamakrayayaayogum kamaya punshchalumatikrustaya magadham.

Give us, we pray, the Brahmanas for education and research, culture and human values; the Kshatriyas for governance, defence and administration; the Vaishyas for economic development, and the Shudras for assistance and labour in the ancillary services. Remove, we pray, the thief roaming in the dark, the murderer bent on lawlessness, the coward disposed to sin, the armed terrorist bent on destruction, the harlot out for pleasure of flesh, and the bastard fond of scandal.

Note: In mantras 5-22 in which various aspects of organised life are listed, there is repetition of ‘asuva’ and ‘parasuva’ from mantra 3, which means: ‘Give us, we pray, what is good’, and, ‘Remove, we pray, what is evil’. This is the prayer. Also, there are echoes of ‘havamahe’ from mantra 4, which means: ‘We invoke and develop’, and, ‘we challenge and fight out’. This is the call for action under the divine eye.

शिक्षा आ शोध, संस्कृति आ मानवीय मूल्यक लेल ब्राह्मण; शासन, रक्षा आ प्रशासनक लेल क्षत्रिय; आर्थिक विकासक लेल वैश्य; आ सहायक सेवामे सहायता आ श्रम लेल शूद्र हमरा दिअ से हम प्रार्थना करैत छी। हम प्रार्थना करैत छी जे अन्हारमे घुमैत चोर, अराजकता पर बिर्त खूनी, पाप पर बिर्त कायर, विनाश पर बिर्त सशस्त्र आतंकवादी, दैहिक सुख लेल बाहर गेल वेश्या, आ कलंकक शौकीन नाजायजकेँ हटा दियौ।

नोटः मंत्र 5-22 मे, जइमे संगठित जीवनक विभिन्न पक्ष सूचीबद्ध अछि, मंत्र 3 सँ 'आशुवा' 'परशुवा' क पुनरावृत्ति होइत अछि, जकर अर्थः 'हमरा सभ केँ दिअ, हम प्रार्थना करैत छी, जे नीक अछि', , 'हटाउ, हम प्रार्थना करैत छी, जे अधलाह अछि'। ई प्रार्थना अछि। सङ्गहि, मंत्र 4 सँ 'हवामाहे' क प्रतिध्वनि अछि, जकर अर्थः 'हम आह्वान करैत छी आ आगू बढ़बै छी', , 'हम माँटि दइ छी आ लड़ै छी'। ई दिव्य दृष्टिक अन्तर्गत काज करबाक आह्वान अछि।

 

CHAPTER- XXX

22. (Rajeshvarau Devate, Narayana Rshi)

Athaitanastauau virupanalabhateitidirgham chatihrasvam chatisthulam chatikrusham chatishuklam chatikrushnam chatikulvam chatilomasham cha. Ashudra abrahmanaste prajapatyah. Magadhah punshchali kitavah kliboshudra abrahmanaste prajapatyah.

The good human being accepts and works with these eight classes of people of different forms and colours: too tall, too short, too fat, too thin, too white, too dark, too hairless, too hairy. Also they are neither Brahmanas nor Shudras (nor the others). They too, all of them, are children of God, Prajapati. Even the bastard and the ‘despicable’, the wanton, the gambler, and the coward and the eunuch, neither Shudras nor Brahmanas (nor the others), they too are children of God, Prajapati, father of all.

नीक लोक विभिन्न रूप आ रङ्गक ऐ आठ वर्गक लोकक संग स्वीकार करैत अछि आ काज करैत अछिः खूब लम्बा, बड्ड छोट, बड्ड मोट, खूब पातर, बड्ड गोर, बड्ड कारी, बहुत कम केशबला, खूब केशबला। ओ सभ ने ब्राह्मण छथि, नहिये शूद्र (आ नहिये आन कियो)। ओ सभ सेहो भगवान प्रजापतिक सन्तान छथि। एतऽ धरि जे नाजायज बा 'घृणित', ऊधमी, जुआरी, आ कायर आ नपुंसक, ने शूद्र, नहिये ब्राह्मण (नहिये आन कियो), ओ सभ सेहो भगवान प्रजापतिक सन्तान छथि, प्रजापति- सभक पिता।

 

CHAPTER- XXXI

11. (Purusha Devata, Narayana Rshi)

Brahmanosya mukhamashid bahu rajanyah krutah. Uru tadasya  yadvaishyah padbhyam Shuudro ajayata.

The Brahmana, man of divine vision and Vedic Word, is the mouth of the Samrat Purusha, the human community. The Kshatriya, man of justice and polity, is created as the arms of defence. The Vaishya, who produces food and wealth for the society, is the thighs. And the man of sustenance and support with labour is the Shudra who bears the burden of the human family.

दिव्य दृष्टि आ वैदिक वचनक लोक ब्राह्मण, सम्राट पुरुष-मानव समुदाय-क मुख छथि। न्याय आ शिष्टताक लोक क्षत्रियकेँ रक्षाक हथियारक रूपमे बनाओल गेल अछि। वैश्य, जे समाजक लेल भोजन आ धन उत्पन्न करैत छथि, जांघ छथि। आ श्रमक सङ्ग निर्वाह आ सहारा देबऽबला व्यक्ति शूद्र छथि जे मानव परिवार सभकक भार वहन करैत छथि।

 

RIG VEDA (2 references)

Mandala 10/Sukta 90

Purusha Devata, Narayana Rshi

12. Brahmano sya mukhamasidbahu rajanyah kritah. Uru tadasya yadvaisyah padbhyam sudro ajayata.

The Brahmana, man of divine vision and the Vedic Word, is the mouth of the Samrat Purusha, the human community. Kshatriya, man of justice and polity, is created as the arms of defence. The Vaishya, who produces food and wealth for the society, is the thighs. And the man of sustenance and ancillary support with labour is the Shudra who bears the burden of the human family as the legs bear the burden of the body.

दिव्य दृष्टि आ वैदिक वचन बला ब्राह्मण, सम्राट पुरुष-मानव समुदाय- क मुख छथि। क्षत्रिय- न्याय आ राजनीतिक लोक- केँ रक्षाक हथियारक रूपमे बनाओल गेल अछि। वैश्य, जे समाजक लेल भोजन आ धन उत्पन्न करैत छथि, जांघ छथि। आ जीविकोपार्जन आ श्रमक सङ्ग सहायक व्यक्ति शूद्र छथि जे मानव परिवारक भार वहन करैत छथि जेना पैर शरीरक भार वहन करैत अछि।

 

Mandala 10/Sukta 124

Devata: Agni (1); Rshi: Agni, Varuna, Soma

1. Imam no agna upa yajnamehi panchayamam trivritam saptatantum. Aso havyavaluta nah puroga jyogeva dirgham tama ashayishthah.

Agni, yajnic light of life, come to this life yajna of ours: which has five divisions, i.e., Brahma-yajna, Deva-yajna, Pitr-yajna, Atithi-yajna, and Balivaishvadeva-yajna; conducted by five people, i.e, four socioeconomic classes of Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras and others like chance visitors from other groups there might be; which is threefold, i.e., paka yajna, haviryajna and somayajna; and which has seven extensions, i.e., Agnishtoma, Atyagnishtoma, Ukthya, Shodashi,Vajapeya, Atiratra and Aptoyami. You are our leader and pioneer, Agni, and you are the carrier of our yajna to the divinities as well as harbinger of the fruits of yajna to us. Pray come and be our all-time dispeller of the cavern of deep darkness from life. (Yajna is a creative process of development in life from the individual to the social, national, global and environmental level of life. The explanation above is related to the social level. Swami Brahmamuni explains the yajna at the individual level, and that is also suggested in Rgveda 10, 7, 6: ‘Svayam yajasva’, and yajurveda 4, 13: “Iyam te yajniya tanu”, which means: Develop yourself by yajna according to the seasons of your growth, and remember your life in body, mind and soul is worthy of yajnic service for your personal development, your body being the first instrument of your wider yajna of life. This personal yajna is fivefold, for the elemental balance of earth, water, heat, air and ether; threefold for the balance of vata, pitta and kaf, and also for balanced growth of body, mind and soul; sevenfold for the growth of rasa, rakta, mansa, meda, asthi, majja and virya. Thus yajna is the process of growth beginning with the individual, accomplished at the cosmic level.)

 

अग्नि -जीवनक यज्ञक प्रकाश- हमर सभक ऐ जीवन-यज्ञमे आउ, जइमे पाँच विभाग छै, अर्थात, ब्रह्म-यज्ञ, देव-यज्ञ, पितृ-यज्ञ, अतिथि-यज्ञ, आ बलिवैश्वदेव-यज्ञ; पाँच लोक द्वारा संचालित, अर्थात, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आ शूद्र क चारि सामाजिक-आर्थिक वर्ग आ पाँचम आन समूह कखनो काल आयल आगंतुक। आ से तीनटा छै- अर्थात, पाक यज्ञ, हविर्यज्ञ आ सोमयज्ञ; आ जकर सात विस्तार छै, अर्थात, अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्त्या, षोडषी, वाजपेय, अतिरात्र आ अप्तोयमी। अग्नि, अहाँ हमरा सभक नेता आ अग्रगामी छी, आ अहाँ देवत्व लेल हमर यज्ञक वाहक छी आ सङ्गहि हमरा सभक लेल यज्ञक फलक अग्रदूत छी। प्रार्थना अछि जे आउ आ हमरा सभक जीवन तरहरि सन अन्हार सदाक लेल दूर करैबला बनू। (यज्ञ व्यक्तिगतसँ जीवनक सामाजिक, राष्ट्रीय, वैश्विक आ पर्यावरणीय स्तर धरि जीवनक विकासक एकटा रचनात्मक प्रक्रिया अछि। उपरोक्त व्याख्या सामाजिक स्तरसँ सम्बन्धित अछि। स्वामी ब्रह्ममुनी व्यक्तिगत स्तर पर यज्ञक व्याख्या करैत छथि, आ ई ऋग्वेद 10,7,6 मे सेहो सुझाओल गेल अछिः 'स्वयं यज्ञ'; आ यजुर्वेद 4,13: 'इयम ते यज्ञीय तनू', जकर अर्थ अछि- अपन विकासक ऋतुक अनुसार यज्ञ द्वारा अपना केँ विकसित करू, आ मोन राखू जे शरीर, मन आ आत्मा युक्त अहाँक जीवन यज्ञक सेवाक लेल अछि, आ तइसँ अहाँक व्यक्तिगत विकास हएत; अहाँक शरीर अहाँक जीवनक व्यापक यज्ञक पहिल साधन अछि। ई व्यक्तिगत यज्ञ पाँच प्रकारक अछि, पृथ्वी, जल, ऊष्मा, वायु आ आकाशक मौलिक संतुलनक लेल; तीन प्रकारक- वात, पित्त आ कफक संतुलनक लेल; आ शरीर, मन आ आत्माक संतुलित विकासक लेल सेहो; सात प्रकारक माने रस, रक्त, मानस, मेधा, अस्थि, मज्जा आ विर्यक विकासक लेल। ऐ तरहेँ यज्ञ व्यक्तिसँ शुरू होइत विकासक प्रक्रिया अछि, जे ब्रह्मांडीय स्तर पर सम्पन्न होइत अछि।)

आब आउ यूरोपक विद्वान लोकनि द्वारा वेदक गलत अनुवादक किछु उदाहरण देखू:-

EXAMPLES OF SOME MISTRANSLATIONS OF VEDAS BY WESTERN SCHOLARS

I

W.D. Whitney’s translation of the Atharvaveda (7, 107, 1) edited and revised by K.L. Joshi, published by Parimal Publications, Delhi, 2004:

Namaskrutya dyavapruthivibhyamantarikshaya mrutyave.

Mekshamyurdhvastisthaan ma ma hinsishurishvarah.

 

“Having paid homage to heaven and earth, to the atmosphere, to Death, I will urinate standing erect; let not the Lords (Ishvara) harm me.” I give below an English rendering of the same mantra translated by Pundit Satavalekara in Hindi:

“Having done homage to heaven and earth and to the middle regions and Death (Yama), I stand high and watch (the world of life). Let not my masters hurt me.”

An English rendering of the same mantra translated by Pundit Jai Dev Sharma in Hindi is the following:

“Having done homage to heaven and earth (i.e. father and mother) and to the immanent God and Yama (all Dissolver), standing high and alert, I move forward in life. These masters of mine, pray, may not hurt me.”

I would like to quote my own translation of the mantra now under print:

“Having done homage to heaven and earth, and to the middle regions, and having acknowledged the fact of death as inevitable counterpart of life under God’s dispensation, now standing high, I watch the world and go forward with showers of the cloud. Let no powers of earthly nature hurt and violate me.”

‘Showers of the cloud’ is a metaphor, as in Shelley’s poem ‘the Cloud’: “I bring fresh showers for the thirsting flowers”, which suggests a lovely rendering.

The problem here arises from the verb ‘mekshami’ from the root ‘mih’ which means ‘to shower’ (sechane). It depends on the translator’s sense and attitude to sacred writing how the message is received and communicated in an interfaith context with no strings attached (or unattached).

[Dr Tulsi Ram, 2013, Atharveda: English Translation; Page xxvi]

 

II

The idea that there was slavery in the Vedic Society originated with the Western Indologists with their intentional or careless translation of a Sanskrit word into “slave”. For example, in the Taittiriya Samhita (Krishna Yajurveda), [7.5.10] [kanda 7,prapathaka 5, verse 10], a part of translation by Keith reads “slave girls dance around the fire”. But in a footnote in the same page [pg., 628, Vol. 2] the author Keith says that the verse describes the dance of maidens. Suddenly the maidens have become “slave girls”. Both Paranjape and Avinash Bose point to the mistranslation of the word ‘yosha’ as courtesan by the indologist Pischel [Bose, Hymns from the Veda, p. 36].

[Veda Books,SRI AUROBINDO KAPALI SHASTRY INSTITUTE OF VEDIC CULTURE, page 240]

 

III

In 1795, H.T. Colebrooke, then a young scholar, wrote his maiden paper, “On the Duties of a Faithful Hindu Widow,” for the Asiatic Society (Asiatic Researches IV 1795: 205-15). He cited the hymn from the Rig Veda as sanctioning widow burning, which William Jones immediately contested (Canon 1993 I:lxx). Colebrooke translated the end of the hymn as “let them pass into fire, whose original element is water.” A quarter of a century later, the Orientalist, H.H. Wilson pointed out that the hymn had been distorted (Wilson 1854: 201-14; Cassels 2010: 89). Wilson translated the verse as per the reading corroborated by Sayana, the authoritative medieval commentator on the Vedas, and demonstrated that it did not refer to widow burning (Rocher and Rocher 2012: 24-25).

[Meenakshi Jain,2016; Sati: Evangelicals, Baptist Missionaries; and the Changing Colonial Discourse, Page 5)

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Do not judge each day by the harvest you reap but by the seeds that you plant. -Robert Louis Stevenson

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Videha: Maithili Literature Movement

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