भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Friday, July 04, 2008

विदेह 01 अप्रैल 2008 वर्ष 1 मास 4 अंक 7http://www.videha.co.in/

http://www.videha.co.in/
विदेह 01 अप्रैल 2008 वर्ष 1 मास 4 अंक 7



एहि अंकमे अछि:- 01 अप्रैल 2008 वर्ष 1 मास 4 अंक 7
1. शोध लेख: मायानन्द मिश्रक इतिहास बोध (आँगा)
प्रथमं शैल पुत्री च/ मंत्रपुत्र/ /पुरोहित/ आ' स्त्री-धन केर संदर्भमे
2. उपन्यास सहस्रबाढ़नि (आँगा)
3. महाकाव्य महाभारत (आँगा) 4. कथा(हम नहि जायब विदेश)
5. पद्य ज्योति झा चौधरीक पद्य विशाल समुद्र

आ’ आन कविक अन्यान्य कविता आन कविक अन्यान्य रचना
6. संस्कृत शिक्षा (आँगा) 7. मिथिला कला- चित्रकला चित्रकार प्रीति

8. संगीत शिक्षा (आँगा) 9. बालानां कृते (एकांकी –अपाला आत्रेयी- अंतिम भाग)
10. पंजी प्रबंध पंजी संग्रहकर्त्ताश्री विद्यानन्द झा”मोहनजी” पंज्जीकार
11. मिथिला आ’ संस्कृत( सर्वतंत्रस्वतंत्र बच्चा झाक जीवनी-दोसर भाग)
12. भाषा आ’ प्रौद्योगिकी 13. रचना लिखबासँ पहिने... (आँगा) 14. प्रवासी मैथिल English मे
अ. VN Jha केर Globalization- Is it a boon or a curse for the Maithils?
आ.VIDEHA,Mithila,Tirbhukti, Tirhut…(आँगा)




विदेह (दिनांक 01 अपैल, 2008)
संपादकीय
वर्ष: 1 मास: 4 अंक:7

मान्यवर,
विदेहक नव अंक (अंक 7 दिनांक 1 अप्रैल 2008) ई पब्लिश भ’ रहल अछि। एहि हेतु लॉग ऑन करू http://www.videha.co.in | एहि अंकमे विवेकानन्द झाक अंग्रेजी निबंध साहित्यकेँ समाजसँ जोड़बाक उद्देश्यसँ राखल गेल अछि। ज्योतिझाचौधरीक कविताक संग पञ्जीकारजीक पञ्जी पर निबंध देल गेल अछि। प्रवासी मैथिल स्तंभमे विदेहक इतिहासकेँ आँगा बढ़ाओल गेल अछि।
रचना लिखबासँ पहिने.. स्तंभमे मैथिली अकादमी द्वारा निर्धारित भाषाक अंकन कएल गेल अछि,एहिमे विशेष वृद्धि कएल गेल अछि। श्री उदय नारायण सिंह नचिकेता, निदेशक, केन्द्रीय भाषा संस्थान, मैसूर केर मेल प्राप्त भेल आ' ओ' लिखलन्हि जे ओ' एकरा डॉ. श्री बी मल्लिकार्जुनकेँ अग्रसारित कए देलन्हि, जे केन्द्रीय भाषा संस्थान, मैसूरमे भाषा पौद्योगिकी विभागक अध्यक्ष छथि। श्री मल्लिकार्जुनजीक ई-मेल सेहो प्राप्त भेल आ' ओ' लिखलन्हि अछि, जे एकरा कमेटीक समक्ष राखल जायत। बी. मल्लिकार्जुन मैथिली स्टाइल मनुअल बनएबाक कार्यकेँ आगाँ बढ़ा रहल छथि।
प्रीति द्वारा कला आ' चित्रकला स्तंभ चित्रित कएल गेल अछि।
मिथिलाक रत्नमे साहित्यकारक अतिरिक्त खेलकूद आ’ अन्यान्य विधासँ संबंधित (संगीत,फिल्म,पत्रकारिता,इतिहास,संस्कृत आ’ अंग्रेजी, अर्थशास्त्री,डिप्लोमेट,रजनीतिज्ञ आदि)मिथिलाक विभूतिक चित्र प्रदर्शित अछि। वेबसाइट खोलला अनन्तर विद्यापतिक ‘बड़ सुखसार पाओल तुव तीरे’क वाराणसीक गंगातट पर शहनाइ पर भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान द्वारा बजाओल, आ’ तबला पर किसन महाराज आ’ वायलिन पर श्रीमति एन. राजम द्वारा बजाओल संगीत बाजि उठैत अछि। संपर्क_खोज स्तंभ पर मिथिला आ’ मैथिलीक साइट सभक संकलन/लिंक देल गेल अछि।विदेहक अपन सर्च इंजिनसँ विदेहक नव-पुरान अंककेँ ताकल जा’ सकैत अछि। दोसर सर्च इंजिनसँ मैथिलीक विशेष संदर्भमे संपूर्ण वेबकेँ ताकि सकैत छी।पुरान किताब सभक डिजिटल इमेजिंग विदेह कॉर्पोराक अंतर्गत करबाओल जा’ रहल अछि। वेब सर्चेबल डिक्शनरी जाहिमे पाठक नव-नव शब्द जॉड़ि सकताह केर कार्य सेहो आरंभ कएल गेल अछि। मैथिलीमे बालानांकृतेक एनीमेशन सेहो शुरू कए देल गेल अछि।प्ञ्जीक मिथिलाक्षर आ’ देवनगरीक पत्रक सेहो स्कैनिग शुरू भ’ गेल अछि। ई सभ शीघ्र आर्काइवक अंतर्गत देल जायत।विदेहक पुरान अंक सामान्य आ’ pdf फॉर्मेटमे आर्काइवक अंतर्गत राखल गेल अछि। पाठक पाक्षिक पत्रिकाक pdf संस्करण डाउनलोड सेहो कए सकैत छथि।प्रथम पृष्ठ पर देवनागरी टाइप करबाक हेतु किछु सहयोगी लिंक देल गेल अछि। एहि तरहक तेसर लिंक पर ऑनलाइन टाइप क’ कॉपी क’ ई-मेल किंवा वर्ड दॉक्युमेंटमे पेस्ट क’ सकैत छी।
अपनेक रचना आ’ प्रतिक्रियाक प्रतीक्षामे।
गजेन्द्र ठाकुर 01.04.2008
389,पॉकेट-सी, सेक्टर-ए, बसन्तकुंज,नव देहली-110070.
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1. शोध लेख: मायानन्द मिश्रक इतिहास बोध (आँगा) प्रथमं शैल पुत्री च/ मंत्रपुत्र/ /पुरोहित/ आ' स्त्री-धन केर संदर्भमे


श्री मायानान्द मिश्रक जन्म सहरसा जिलाक बनैनिया गाममे 17 अगस्त 1934 ई.केँ भेलन्हि। मैथिलीमे एम.ए. कएलाक बाद किछु दिन ई आकाशवानी पटनाक चौपाल सँ संबद्ध रहलाह । तकरा बाद सहरसा कॉलेजमे मैथिलीक व्याख्याता आ’ विभागाध्यक्ष रहलाह। पहिने मायानन्द जी कविता लिखलन्हि,पछाति जा कय हिनक प्रतिभा आलोचनात्मक निबंध, उपन्यास आ’ कथामे सेहो प्रकट भेलन्हि। भाङ्क लोटा, आगि मोम आ’ पाथर आओर चन्द्र-बिन्दु- हिनकर कथा संग्रह सभ छन्हि। बिहाड़ि पात पाथर , मंत्र-पुत्र ,खोता आ’ चिडै आ’ सूर्यास्त हिनकर उपन्यास सभ अछि॥ दिशांतर हिनकर कविता संग्रह अछि। एकर अतिरिक्त सोने की नैय्या माटी के लोग, प्रथमं शैल पुत्री च,मंत्रपुत्र, पुरोहित आ’ स्त्री-धन हिनकर हिन्दीक कृति अछि। मंत्रपुत्र हिन्दी आ’ मैथिली दुनू भाषामे प्रकाशित भेल आ’ एकर मैथिली संस्करणक हेतु हिनका साहित्य अकादमी पुरस्कारसँ सम्मानित कएल गेलन्हि। श्री मायानन्द मिश्र प्रबोध सम्मानसँ सेहो पुरस्कृत छथि। पहिने मायानन्द जी कोमल पदावलीक रचना करैत छलाह , पाछाँ जा’ कय प्रयोगवादी कविता सभ सेहो रचलन्हि।

प्रथमं शैल पुत्री च/ मंत्रपुत्र/ /पुरोहित/ आ' स्त्री-धन केर संदर्भमे
पुरातात्त्विक ,भाषावैग्यानिक आ’ साहित्यिक साक्ष्य एहि पक्षमे अछि,जे आर्य भारतक मूल निवासी छलाह। आर्य भाषा परिवारक नामकरण मैक्समूलर द्वारा कएल गेल छल। द्रविड़ परिवारक नामकरण पादरी रॉबर्ट काल्डवेल द्वारा कएल गेल छल।आर्यक आक्रमणक सिद्धांत आयल ग्रिफिथक ऋग्वेदक अनुवादमे देल गेल फूटनोटसँ। पहिने तँ ई बात जे ई नामकरण विदेशी विद्वान द्वारा देल गेल छल, ताहि द्वारे ओकर अपन उद्देश्य होयतैक।
सरस्वती नदी,जल-प्रलय, मनु, आ’ महामत्स्यक कथा, गिल्गमेश कथा काव्य, प्राणवंतक देश गिल्गमेशक खोज, सृष्टिकथा आ’ देवतंत्रक विकास एहि सभटाक समाजशास्त्रीय विकासक विश्लेषन आर्य लोकनिक भारतक मूल निवासी होयबाक साक्ष्य प्रस्तुत करैत अछि।
ऋग्वेदमे मात्र्सत्तात्मक व्यवस्थाक स्मृतिक रूपमे बहुवचन स्त्रीलिंगक प्रयोगक बहुलता अछि।
सघोष आ’ महाप्राण ऋग्वेदिक आ’ भारतीय भाषाक ध्वनिक प्रतिरूप नहि तँ ईरानी आ’ नहिये यूरोपीय भाषा सभमे भेटैत अछि। सरस्वती आ सिन्धु धारक बीचक सभ्यता छल आर्यक सभ्यता। सरस्वती धारक तटवर्त्ती भरत, पुरु आ’ अन्य गण सभ मिलि कए ऋगवेदक रचना कएलन्हि। सरस्वतीमे जल-प्रलयक बाद ई सभ्यता सारस्वत प्रदेश सँ हटि कए कुरु-पांचाल आ’ ब्रह्मर्षि प्रदेश-मध्यदेश- पहुँचि गेल। इतिहासमे भरत लोकनिक महत्त्व समाप्त भ’ गेल। एहि जल प्रलयक बाद आर्यजन लोकनिक वंशज लोकनि मोहनजोदड़ो आ’ हड़प्पा नगरक निर्माण कएलन्हि। हड़प्पा सभ्यताक 800 मे सँ 530 सँ ऊपर स्थान, एहि लुप्त सरस्वती धारक तट पर अवस्थित छल। सिन्धुक धार पर एहि स्थल सभक बड्ड कम निर्भरता छल, आ’ जखन सरस्वतीमे पानिक प्रवाह घटल तँ एहि सभ केन्द्रक ह्रास प्रारम्भ भ’ गेल।
पहिने सरस्वतीमे जल-प्रलयसँ आर्यक पलयन भेल(ऋगवेद आ’ यजुर्वेदक रचनाक बाद) आ’ फेर सरस्वतीमे पानि कमी भेलासँ दोसर बेर आर्यक पैघ पलायन भेल(अथर्ववेदक रचनाक पहिने)।अरा-युक्त रथक वर्णन वेदमे भेटैत अछि। नहि तँ ई पश्चिम एशियामे छल आ’ नहिये यूरोपमे। फेर ई रह, भारतीय देवनाम,शिल्प,कथा, अश्वविद्या,संगीत, भाषिक तत्त्व आ’ चिंतनक संग उद्घाटित होमय लागल पश्चिम एशिया, मिश्र, आ’ यूनानमे।

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(अनुवर्तते)


2. उपन्यास सहस्रबाढ़नि (आँगा)
आ’ नियत तिथिकेँ शुरू भेल दानवीर दधीची नाटक।स्कूल खुजबासँ किछु काल पहिनहि हम सभ पहुँचि गेलहुँ स्कूल। बरण्डाक एक कोनमे गाम परसँ आनल चद्दरिक पर्दा बनल। रस्सी ठीकसँ नहि लागि सकल से ईएह निर्णय भेल चद्दरिकेँ ऊपर उठा-खसा कए काज निकालल जाएत।तकरा बाद कलाकार सभ अपन अप ड्रेस पहिरए लगलाह। ड्रेस की छल मात्र पाउडर लगा’ कय आ’ गमछा, धोती पहिरि कय सभ सभ तरहक ड्रेस पहिरि लेलक। जाहि मास्टरसाहेबक ड्यूटी लागल छल नाटकक संचालनक हेतु, हुनका कोनो आवश्यक कार्य मोन पड़ि गेलन्हि, से ओ’ ओहि दिन छुट्टी मारि देलन्हि। गामक पैघ तुरियाकेँ तावत बुझबामे आबि गेलैक,जे प्राइमरी स्कूलक छौड़ा सभ नाटक क’ रहल अछि। से तुरत्तेमे दस टा पैघ बच्चा सभ जूटि गेल आ’ पिहकारी देनाइ शुरू क’ देलन्हि। हम सभ कलाकारकेँ कहलियन्हि, जे ई सभ उत्तेजित क’ कय हमर सभक नाटककेँ दूरि करत। मुदा छोटे भाइ भीड़ि गेलाह।कहय लगलाह जे हे बौआ सभ, हम नाटकक ड्रेसमे छी, तेँ ई नहि बुझू जे मारि नहि करब। एखने ड्रेस फेकि-फाइक क’ हम सभ कर्म क’ दइ जायब अहाँ सभकेँ। मुदा पिहकी पारनहारक संख्यामे घटती नहि भेल। आ’ छोटे भाइ बाजि उठलाह जे छोड़ू आइ एहि नाटककेँ। हिनका सभक बदमस्ती हम एखने ठीक करैत छी। आ’ खुट्टा उखाड़ि कय दौड़लाह। तावत थाम्ह-थोम्ह करय बलाक जुमान भ’ गेलैक आ’ तकरा संगहि नाटक दानवीर दधीची जे हमर लिखल छल आ’ जकर मंचनक निर्देशन हम करए बला छलहुँ, बीचहिमे खतम भ’ गेल। किछु दिन धरि छोटे भाइसँ मूहा-फुल्ली रहल। ओ’ आबथि आ’ कहथि जे की करू, तामस उठि गेल छल। ओहो सभ अतत्तह क’ देने छल। फेर किछु दिनुका बाद सभटा सामान्य भ’ गेल। रामलीलाक आ’ नाटकक भूत सेहो एहि घटनाक बाद हमरा परसँ उतरि गेल।
(अनुवर्तते)


3. महाकाव्य महाभारत (आँगा) क्रोधित हृदय ईर्ष्याक वशमे छल दुर्योधनक, शकुनि संग मंत्रणा कए क’ एकटा विचारल, सोझे युद्धमे पांडवकेँ हरेनाइ अछि मुश्किल, सोचि ई दोसर व्यूह रचलन्हि दुष्ट शकुनि। भव्य सभा भवन एकटा हम सभ बनायब,
पाण्डव-जनकेँ देखबा लेल सेहो बजायब, द्यूत खेलक छी महारथी हम गांधारवासी, धृतराष्ट्रकेँ कहि आमंत्रित कराऊ बजाऊ। भवन बनि कय तैयार भेल एके निसासी।
द्यूत खेलक आमंत्रणक हेतु धृतराष्ट्र विचारल। विदुर कहल राजन् खेल करत विनाश सभकेँ,
दुर्योधनक अंधप्रेममे धृतराष्ट्र मुदा नहि मानल।
स्वयं विदुर गेलाह देबय निमंत्रण इंद्रप्रस्थ, पाण्डव जनकेँ अयला पर भेल प्रेम-मिलन। मुदा हृदयक विष बहराइत जल्दी कोना कए, दुर्योधन लय गेलाह युधिष्ठिरकेँ सभा भवनमे। द्यूतक चर्च सगरय होमय लगल छल ओतय, शुकिनि माटि फेंकि कहल युधिष्ठिर भ’ जाय, सकुचाइत छी क्षत्रिय भ’ करय छी अनुचित। युधिष्ठिर तैयार जखने भेलाह,दुःशासन कहल, ई खेल होयत यधिष्ठिर आ’ दुर्योधनक बिच, मामा शकुनि पास फेंकताह दुर्योधनक दिशिसँ, हुनक हारि जीत मानल जायत दुर्योधनक से, दोसर दिन खेल भेल सभा भवनमे भारतक हे। सभा भवन दर्शकसँ छल भरल,छल ओतय,
भीष्म,द्रोण,कृपाचार्य,विदुर,धृतराष्ट्र उपस्थित। पहिने रत्नक बाजी,फेर चानी-सोनक लागल, फेर छल सभक अश्व-रथ लागल जुआ पर । मुदा जकन तीनू टा बाजी युधिष्ठिर हारल, सौँसे सेना लागाओल दाँव पर ओ’अभागल। फेर बेर आयल राज्यक फेर चारू भाँय केर, युधिष्ठिर बाजल नहि बचल लग हमरा लेल। शकुनि कहल छथि द्रौपदी अहाँक बिचमे। एहि बेर जौँ जीतब अहाँ, दए देब हम सभ, भाइ,राज्यसेना,अश्व-रथ,रत्न चानी सोन सभ।
युधिष्ठिर सुनि ई भ’ गेल छल तैयार जखने, हा। धिक्। पापकर्म की भय रहल अछि ई। सभा बिच उठि पड़ल सभक नाद ई सभ। युधिष्ठिर सेहो कहल हम की ई कएलहुँ।
आनन्द मग्न कौरव छल, मुदा संतप्त एकेटा, दुर्योधन-भ्राता युयुत्सु छल शोकाकुल सएहटा, शकुनि आब एहि सभक बीच, फेकलक पासा, ई बाजी हमर,हुंकारलक शकुनि हारल युधिष्ठिर, द्रौपदीकेँ हारि ठकायल ठाढ़ छल सभा बिच।
(अनुवर्तते)


4. कथा
हम नहि जायब विदेश

“यौ भैय्या। कनेक काकासँ भेँट नहि करा देब”।
“काका छथि अहाँक। आ’ भेँट करा दिअ हम”।
“यौ। ओ’ तँ हमरा सभकेँ चिन्हितो नहि छथि। बच्चेमे गामसँ निकलि गेलथि , से घुरि कए कहाँ अएलाह”।
“बेश। तखन चलू भेँट करबा’ दैत छी। मुदा कोनो पैरवी आकि काज होय तँ पहिने कहि दैत छी, से ओ’ नहि करताह”।
“नहि। कोनो काज नहि अछि। मात्र भेँट करबाक इच्छा अछि। भारत वर्षमे एतेक नाम छन्हि, सभ चिन्हैत छन्हि, मुदा नहिये हमरा सभ चिन्हैत छियन्हि , आऽ नहि वैह चिन्हैत छथि”।
लाल गेल छलाह दस दिन पहिने, द्विजेन्द्र जीक घर पर। जाइते देरी लालक कटाक्ष शुरू भ’ जाइत छन्हि। गामकेँ बिसरि गेलियैक। घुरि क’ देखबो नहि कएलहुँ। खोपड़ीकेँ घर त’ बना लैतहुँ।आ’ जबाबो भेटन्हि, ओहिना बनल बनाओल।जे जा’ कय की करब। एक कट्ठाक घरारी आ’ ताहि पर कतेक बाबूक कतेक भाँय। आ’ फेर वामपंथी विचारधाराक चिन्तन शुरू भ’ जाइत छलन्हि। गाम अछि धनीकक लेल। यावत गामक जनसंख्या कम नहि होयत तावत धरि तँ अवश्ये। गरीबीमे लोककेँ लोक नहि बुझैत अछि क्यो। मुदा नगर मात्र दिल्ली, कलकत्ता नहि अछि। यावत मधेपुर, मधेपुरा, बनैली आ’ झंझारपुरक विकास नहि होयत, शोषित वर्ग रहबे करत। तावत द्विजेन्द्र जीक कनियाँ चाह राखि गेलथि।
द्विजेन्द्रजी गामेमे प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कएलन्हि।झंझारपुरमे मिड्ल स्कूल आ’ हाइ स्कूल पैरे जाथि। पिताजी राँचीमे ठिकेदारी करैत छलखिन्ह। माय पढ़ल-लिखल छलीह। लोक कहैत छल जे उपन्यास सेहो पढ़ैत छलीह।
दरभंगासँ सोझे प्रयाग पहुँचि गेलाह द्विजेन्द्र। पिता छलाह नबका बसातक लोक। खूब कमाथि आ’ खूब खर्च करथि। गामसँ कोनो सरोकार नहि। कनियाँक खोजो-खबरि नहि लैत छलाह। लोक कहैत छल जे दोसर बिआह क’ लेने छलाह राँचीमे। लोक ईहो कहैत अछि, जे यावत गाममे छलाह ओ’ तावतो वैह हाल छलन्हि। बेरू पहर तीन बजेसँ कनियाँ हुनका लेल भाङ पीसब प्रारम्भ क’ दैत छलीह। मुदा बड़का बेटाकेँ खूब मानैत छलाह। छोटका बेटा हुनके पर गेल छलन्हि। नाम छल हरेन्द्र आ’ लोक कहैत अछि, जे पटनाक कोनो गैराजमे काज करैत रहथि। द्विजेन्द्र गुरु-गम्भीर, पढ़बामे तेज, सभ विषयमे पितासँ विपरीत। आ’ ताहि द्वारे पिता हुनकर खर्च पठेबामे कोनो विलम्ब नहि करैत छलाह। एहि पठाओल पाइसँ द्विजेन्द्र छोट भाइकेँ सेहो नुकाकेँ पाइ पठा दैत छलाह। मायक सुधि मुदा हुनको नहि रहैत छलन्हि, आकि भ’ सकैत अछि जे ओतेक पाइ आ’ समय नहि रहैत होयतन्हि।
माय बेचारीकेँ क्यो कहि दएन्हि, जे बेटाकेँ फेर फर्स्ट डिवीजन भेल छन्हि, आकि पतिकेँ हाइवे केर ठेका भेटि गेल छन्हि, तँ ओ’ तिरपित भ’ जाइत छलीह। गाममे बटाइदार सभ जे किछु द’ दएन्हि ताहिसँ कोनो तरहेँ गुजर चलि जाइत छलन्हि। नील रंगक नूआ, रुबिया वाइल कहैत छल कोटाक दोकान बला सभ ओहि नूआकेँ, सेहो सस्तमे भेटि जाइत छलन्हि, ओहि कोटा बला दोकानसँ। रने-बने गाछीमे घुमय पड़ैत छलन्हि जारनिक हेतु। गाममे सभक गुजर कोहुनाकेँ भ’ जाइत छैक ।
आ’ एम्हर ठेकेदार साहेब पैघ बेटाकेँ समय पर पाइ पठेबाक अतिरिक्त्त अपन सभ कर्त्तव्य बिसरि गेल छलाह। कमाउ आ’ खाउ छल मात्र हुनकर मंत्र। गाम-घरसँ कोनो मतलबे नहि।
द्विजेन्द्र इलाहाबाद विश्वविद्यालयमे सभक आदर्श बनि गेल छलाह। इतिहास विषयक तिथि सभ हुनकर संगी बनि गेल छल। विश्वविद्यालयमे सर्वप्रथम तँ अबिते रहथि, संगहि हुनकर चालि-चलन, गुरु-गम्भीर स्वभाव, परिपक्व मानसिकता एहि सभसँ सभ क्यो प्रभावित रहैत छल। संगी-साथी सेहो कम्मे छलन्हि। एकटा संगी छलन्हि उपेन्द्र आ’ एकटा आलोक। महिला संगी कोनोटा नहि। ओ’ सभ कहितो छलीह जे द्विजेन्द्र तँ घुरि कय तकितो नहि छथि। ओहिमे एकटा छलीह अरुन्धती।पढ़बामे तेज, राजनीति विज्ञानक विद्यार्थी। प्रतियोगी स्वभावक छलीह। बापक दुलारू, आ’ पिताकेँ हुनका पर सेहो असीम विश्वास छलन्हि।एडवान्स कहि सकैत छी। द्विजेन्द्रसँ बहुत बिन्दु पर सुझावक आकांक्षी छलीह। मुदा द्विजेन्द्र बाबू तँ दोसरे लोक छलाह। घरक कोनो गप तँ ककरो बुझल नहि रहैक। मुदा से कारण छल जे द्विजेन्द्र सभक प्रति निरपेक्ष रहैत छलाह।
“यौ उपेन्द्र। राजनीति विज्ञानमे तँ हमरा कोनो दिक्कत नहि अछि, मुदा इतिहासमे तिथि आ’ दृष्टिकोणसँ बड्ड दिक्कतिमे पड़ि गेल छी”।अरुन्धती उपेन्द्रसँ पुछलन्हि।
आ’ दुनू गोटे इतिहास पर अपन- अपन दृष्टिकोण एक दोसरकेँ देबय लगलथि।रासबिहारी बोस आजाद हिन्द फ्औजक स्थापना कएलन्हि सुभाष चन्द्र बोस नहि आ’ नीलक खेतीक हेतु सरखेज जे गुजरातमे छल बड्ड प्रसिद्ध छल, धोलावीर सभसँ पैघ सिन्धु घाटी आकि सरस्वती नदी सभ्यताक स्थल छल आ’ दारा शिकोहकेँ सभसँ पैघ मनसब देल गेल छल, उपेन्द्र ई सभ गप द्विजेन्द्रसँ पूछि कए आबथि आ’ फेर अरुन्धतीसँ वार्त्तालाप करथि।एहिमे समयक हानि होइत छल। से उपेन्द्र कहलन्हि, जे किएक नहि द्विजेन्द्रकेँ सेहो अपन समूहमे शामिल कए लेल जाय।
” मात्र द्विजेन्द्रकेँ शामिल करू। बेशी गोटेकेँ आनब तँ पढ़ाइ कम आ’ गप सरक्का बेशी होयत”।
उपेन्द्रक कहलासँ द्विजेन्द्र आबय लगलाह, सामूहिक अध्ययनमे।
तावत एक दिन समाचार आयल जे पिताक मोन बड्ड खराब छन्हि। पहुँचलाह तँ लीवर खराब होयबाक समाचार भेटलन्हि। सतमायसँ सेहो भेँट भेलन्हि।गाम-घर पर कोनो खबरि नहि। फेर 15 दिनमे मृत्यु भ’ गेलन्हि पिताक। गाम पर तखन जा’ कय खबरि भेल। नहि तँ कोनो पता,नञ तँ कोनो फोन। माय बेचारी कनैत रहि गेलीह। बेटा दाह-संस्कारक बाद सोझे प्रयाग चलि गेलाह। गाम घुरियो क’ नहि गेलाह।

मायक खिस्सा यैह अछि, जे फेर ओ’ गुम-शुम रहय लगलीह। कोनो चीजक ठेकान नहि रहन्हि। एक बेर तँ डिबिया सँ चारक घरमे तेहन आगि लागि गेल जे सौँसे टोल जरि गेल। ओहि समयमे सभकेँ चारक घर रहैक। सभ घर एक दोसरसँ सटल। पूरा टोल जरि गेल। सभ कहय जे द्विजेन्द्रक माय उपन्यास पढ़ैत-पढ़ैत सुति गेलीह आ’ डिबियामे हाथ लागि गेलन्हि।सौँसे टोल जरैत रहय, आ’ ओ’ भेर भेल सूतल छलीह। ककरो फुरेलइ तँ हुनका उठा-पुठा क’ बाहर कएलक। बादमे हुनकर आरो अवहेलना होमय लागल। लोक गारि सेहो पढ़ि देने छलन्हि कताक बेर। ओहिनामे एक बेर जारक झपसीमे गुजरि गेलीह। द्विजेन्द्रक पता सेहो नहि छलन्हि ककरो लग। घरारीक लोभमे एक गोट समाङ आगि देलकन्हि। द्विजेन्द्रक निकटता अरुन्धतीसँ बढ़य लगलन्हि। उपेन्द्रकेँ अरुन्धती एक बेर कहियो देलखिन्ह जे अहाँ सीढ़ी छलहुँ हमर आ’ द्विजेन्द्रक बीचमे। अरुन्धतीक माय सेहो बच्चेमे गुजरि गेल छलीह। पिताक दुलरी छलीहे ओ’। अरुन्धतीक कहला पर द्विजेन्द्र आबि गेलाह हुनका घर पर रहबाक लेल। संगे पढ़लन्हि, आ’ फेर दुनू गोटे प्रयाग विश्वविद्यालयमे प्रोफेसर बनि गेलाह।विवाह सेहो भ’ गेलन्हि। मात्र मधुबनीक एक गोट पीसाकेँ बुझल छलन्हि हिनकर विवाहक बात।पीसा छलाह पत्रकार आ’ मधुबनीक कोनो हॉस्पीटलमे काज केनहारि केरलक नर्स सँ ताहि जमानामे विवाह कएने छलाह।घर परिवार हुनका बारि जेकाँ देने छलन्हि। मुदा छलाह बड्ड नीक लोक।द्विजेन्द्रकेँ वैह बेर-बखत पर कहियो काल मदति करैत छलाह।मुदा विवाहमे ओहो नहि अयलाह।अपन सलाहो देने छलाह एहि विवाहक विरुद्ध। अपन उदाहरण देलन्हि, जे कतेक दिक्कत भेलन्हि।मुदा संगमे ईहो कहलन्हि, जे अहाँकेँ तँ बाहर रहबाक अछि। हम तँ मधुबनीमे रहैत छलहुँ, कहियो कनियाकेँ गामो नहि ल’ जा’ सकलहुँ।
द्विजेंन्द्रकरिसर्च पर रिसर्च प्रकाशित होइत गेलन्हि। देश-विदेशमे सेमीनार पर जाथि। अरुन्धती जेना बेर पर मदति कएने छलीह, तकरा बाद द्विजेन्द्र अपना पर भरोस कएनाइ छोड़ि देने छलाह। वामपंथी इतिहासकारक रूपमे छवि बना’ कय मात्र इतिहास आ’ पुरातत्त्व सँ सम्पर्क बनओने छलाह। सालक-साल बितैत गेल। गामक लोकमे मात्र लाल छलाह जे ओहि नगरमे रहैत छलाह आ’ ताहि द्वारे कहियो काल भेँट क’ अबैत छलखिन्ह। लालक गप पर अनुत्तरित भ’ जाइत छलाह द्विजेन्द्र। मायक कोनो चर्चा पर नोर पीबि जाइत छलाह। सोचने रहथि जे किछु बनि जयताहतँ मायकेँ संग आनि रखितथि आ’ सभ पापक पश्चाताप क’ लितथि। मुदा यावत अपन खर्चा नहि जुमन्हि तवततँ ओ’ जीवित रहलीह आ’ जखन किछु बनलाह तँ तकर पहिनहि छोड़ि गेलीह। कोन मुँह ककरा देखेतथि।
आ’ जखन लाल पहुँचलाह हुनका लगमे ई बजैत जे लियह, भातिज आयल छथि भेँट करबाक हेतु, अहाँ तँ कोनो सरोकार ककरोसँ रखबे नहि कएलहुँ, तँ पहिल बेर बजलाह द्विजेन्द्र-
“कोन सरोकार मायसँ पैघ छल यौ लाल, जे अहाँ कहैत छी जे हम ककरोसँ सरोकार नहि रखने छी”।
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5. पद्य ज्योति झा चौधरीक पद्य

विशाल समुद्र
समुद्रक लहरिक तरंग
अनगिनत बेर दोहरा रहल अछि ।
उद्देश्यहीन अपने मुदा ओकर गान
कहिया कत’ सँ चलि रहल अछि ।
बेर बेर रेत पर बनल पदचिह्‌न
मेटा क’ तटसॅं घुरि जाइत अछि ।
जलक सभसॅं शक्तिशाली संगठन
सागरक रूपमे उपस्थित अछि ।
रातिक अन्हारोमे ओकर गर्जन
ओकर विशालताक आभास कराबैत अछि ।









आ’ आन कविक अन्यान्य कविता
के छथि
के छथि जिनकर हस्त-रेखमे, अछि परिश्रमसँ बढ़ब लिखल। के छथि जिनका ललाट मध्य, परिश्रमक गाथा रहैछ सकल। जे छथि सुस्त तकरे चमकैत, अछि हाथक रेखा बुझूँ सखा, जिनका घाम नहि खसन्हि, छन्हि ललाट चमकैत,नहि बेजाय।।


6. संस्कृत शिक्षा (आँगा) सुभाषितम्

अन्नदानं परं दानं विद्यादनमतः परम्। अन्नेन क्षणिका तृप्तिः यवज्जीवं च विद्यया॥ दानम करणेतु। अन्नदानं यदि कुर्मः महादानम् इति वदन्तु। यदि अन्नदानं कुर्मः, यदा वुभुक्षा भवति तावत् पर्यन्तम तिष्ठति। यदि विद्यादानम् कुर्मः यावत् जीवन् तिष्ठति।

कथा
एकः ग्रामः अस्ति। ग्रामे एकः धनिकः अस्ति। सः महान् धनिकः। तस्य सुन्दरं भवनम् अस्ति। पत्नी अस्ति, पुत्राः सन्ति। गृहे सेवकाः सन्ति।कृषिः भूमिः अस्ति। सर्वम् अपि अस्ति। तस्य कापि न्यूनता नास्ति। अतः सः सर्वदा उपविशति।तथा सः धनिकः तिष्ठति। परन्तु आश्चर्यम् नामा तस्य समीपे सर्वम् अपि अस्ति। किन्तु सः धनिकः निद्राम् न प्राप्नोति। रात्रौ निद्रामेव कर्त्तुम् सः न शक्नोति। एकदा सः स्वगृहे उपविष्टवान् आसीत्। चिन्तनं कुर्वन् आसीत। तस्मिनपि दिने तस्य निद्रा न आगता। किमर्थं मम् एवं भवति। इति तस्य मनसि महती चिन्ता उत्पन्नः। तस्मिन्नैव समये दूरतः सः एकम् गीतं श्रुणोति। मधुरं गीतम् आसीत्। कः एवं गायति। इतिः सः न जानाति। तथापि पश्यामि इति चिन्तयित्वा सः गीतस्य ध्वनिम् अनुसरन् अग्रे-अग्रे गच्छति।तस्य गृहतः समीपे एव एकं कुटीरं पश्यति सः। तस्मिन् कुटीरे कश्चन् निर्धनः आसीत्। सः तत्र शयनं कृतवान् आसीत्। शयनं कृत्वा, भित्तिम् आलव्य शयनं कृत्वा उच्चैः गायन् आसीत्। संतोषेन सः गायति। तस्य मुखे संतोषः दृश्यते। तद्दृष्ट्वा धनिकस्य आश्चर्यं भवति।अतः सः प्रश्नं पृच्छति।भो भो मित्रा। भवान् एतावता आनन्देन गायन अस्ति। भवतः आनन्दस्य किम् कारणम् इति पृच्छति। तदा सः निर्धनम् उत्तरं वदति। महाशयः, मम् समीपे धनं किमपि नास्ति। सत्यम्। तत् अहं जानामि। किन्तु अहं बहिः पश्यामि। प्रकृतिं पश्यामि। इदानीं प्रकृतिः कथं शोभते। वसन्तकालः अस्ति। सर्वं पुष्पाणि विकसन्ति। भ्रमराः संचारं कुर्वन्ति। वसन्तकालस्य सौन्दर्यं सर्वत्र दृश्यते। एतद् अस्ति अहं तद् पश्यामि। भवान् वस्तुतः किम् करोति। मम् समीपे तत् नास्ति, एतत् नास्ति,अन्यत् नास्ति। तदैव चिन्तनं करोति। यद्यपि भवतः समीपे बहुः बहुः अस्ति, तथापि भवान् यत् नास्ति तस्य विषये चिन्तनं करोति। अतः दुःखम् अनुभवति। अहं यत् अस्ति तस्य विष्ये चिन्तनं करोमि, अतः अहं सुखं अनुभवामि। एतदैव रहस्यम् इति निर्धनः वदति। तस्य वचनं श्रुत्वा धनिकस्य ज्ञानोदयः भवति। सत्यमेव खलु। वयं सर्वदापि अस्ति। तस्य विषये चिन्तनं कुर्मः चेत्। संतोषम् अनुभवामः। यत् नास्ति तस्य विषयेव चिन्तनं कुर्मः चेत् वयम् अपि दुःखम् अनुभवामः।
कथायाः अर्थः ज्ञातः।

गीतम्
वर्षाकाले आकाशे, चटका विचरति आगच्छति। शीतल समीर,चपला, मेघ गर्जति तीव्रा, जल-बिन्दु निपतति, विद्युत झंझति।

सम्भाषणम्

अद्य शनिवासरः। श्वः रविवासरः/भानुवासरः। अद्य कः वासरः। शनिवारः कदा। परश्वः सोमवासरः। रविवासरः कदा। सोमवासरः कदा। अद्य शनिवासरः। ह्यः शुक्रवासरः।
परह्यः गुरुवासरः। गुरुवासरः कदा। प्रपरश्वः मंगलवासरः। प्रपरह्यः बुधवासरः।
वयं प्रतः काले मिलामः। किम् वदामः। सुप्रभातम्। रात्रौ वदामः। शुभ रात्रिः। अन्य समये। नमोनमः/नमस्कारः/नमस्ते।
यदा दूरवाणी आगच्छति। हरिओम्। इति वदामि-हलो स्थाने। पुनः वदन्तु। एवं कृत्वा वदन्तु।
क्षम्यताम्। आम्।वेंकटरमणन्ः।
कुशलम्। अस्तु। सायंकाले आगच्छामि। पंचवादने आगच्छामि। अस्तु धन्यवादः। पश्यतु। दंतकूर्चः अस्ति। दण्डः अस्ति। अहं दण्डं स्वीकरोमि।
अहं शिक्त्तवर्त्तिकां स्वीकरोमि। अहम् अङ्कनीं स्वीकरोमि। अहं लेखनीं स्वीकरोमि।
अहं दूरवाणीं स्वीकरोमि। अहं करवस्त्रं स्वीकरोमि। अहं पुस्तकं स्वीकरोमि। इदानीम् अहं पुस्तकं/लेखनीं/अङ्कनीं/दण्डं/दंतकूर्चं स्थापयामि।
पुस्तकं/दण्डं ददामि। दूरवाणीं/शिक्त्तवर्त्तिकां/ दंतकूर्चं/लेखनीं/ न ददामि। अहम् अङ्कणीं न ददामि। अहं पुस्तकं/चमषं न ददामि।
भवती किम् ददाति। अहं दंतकूर्चं ददामि। भवती किम् ददाति। अहं पुस्तकं ददामि। भवत्याः नाम् किम्। अहं वेदवतीं पृच्छामि। भवतः नाम् किम्। अहं शुशीलेन्द्रम् पृच्छामि। रमानन्दः- रमानन्दम्
वित्तकोषम्/विद्यालयम्/मंदिरम्/पुस्तकम्/मालविकाम्/शुशीलाम्/कूपीम्/ घटीम्/अङ्गुलीम्। अहं भगवतगीतां पठामि। अहं रामायणं/काव्यं/महाभारतं/सुन्दरकाण्डं/सुभाषितं पठामि।
अहं विद्यालयं गच्छामि। भवन्तः कुत्र-कुत्र गच्छन्ति। अहं मुम्बई/तिरुपति नगरं गच्छामि।
अहम् अरण्यं गच्छामि।
माधवः ग्रामं/मथुरां/वाटिकां/पुरीं/दिल्लीं गच्छति।
इदानीं भवन्तः वाक्यं वदन्तु। कः-कः कुत्र गच्छतेति। पवित्रा चलचित्रमन्दिरं/इन्द्रलोकं गच्छति।
बालकः आपणं गच्छति। गणेशः विदेशं/नगरं/वनं/वाटिकां/नदीं गच्छति।


(अनुवर्तते)

7. मिथिला कला- चित्रकला चित्रकार प्रीति
चित्रकार- प्रीति, गाम-जगेली(जिला पूर्णिया),बिहार, भारत)।

दशपात अरिपन
कन्याक मुण्डन,कान छेदन आ' विवाहक अवसर पर कुलदेवताक घर आकि मण्डप पर बनाओल जाइत अछि।
बनेबाक- विधि। एकर बनेबाक विधि सूक्ष्म अछि।
ऊपरमे तीन पातक पुष्प, ,ओकरनीँचा पाँच-पातक कमल-पुष्प,ओकर नीचाँ सात-पात युक्त्त कमल, बीचमे अष्टदल कमल अछि। दश पात चारू दिशि अछि। नौ टा माँछक चित्र सेहो अछि।




8. संगीत शिक्षा (आँगा) थाट- एकटा सप्तकमे सात शुद्ध, चारिटा कोमल आ’ एकटा तीव्र स्वर (12 स्वर) होइत अछि। एहिमे सात स्वरक ओ’ समुदाय, जेकरासँ कोनो रागक उत्पत्ति होइत अछि, तकरा थाट वा मेल कहल जाइत अछि।
थाट रागक जनक अछि, थाटमे सात स्वर होइत छैक(संपूर्ण जाति)। थाटमे मात्र आरोही स्वर होइत अछि। थाटमे एकहि स्वरक शुद्ध आ’ विकृत स्वर संग-संग नहि रहैत अछि। विभिन्न रागक नाम पर थाट सभक नाम राखल गेल अछि। थाटक सातो टा स्वर क्रमानुसार होइत अछि आ’ एहिमे गेयता नहि होइत छैक।
थाटक 10 टा अछि।
1.आसावरी-सा रे ग॒ म प ध॒ नि॒
2.कल्याण-सा रे ग म॑ प ध नि
3.काफी-सा रे ग॒ म प ध नि॒
4.खमाज-सा रे ग म प ध नि॒
5.पूर्वी-सा रे॒ ग म॑ प ध॒ नि 6.बिलावल-सा रे ग म प ध नि 7.भैरव-सा रे॒ ग म प ध॒ नि 8.भैरवी-सा रे॒ ग॒ म प ध॒ नि॒ 9.मारवा-सा रे॒ ग म॑ प ध नि 10.तोड़ी-सा रे॒ ग॒ म॑ प ध॒ नि

वर्ण:

(अनुवर्तते) 9. बालानां कृते एकाङ्की
अपाला आत्रेयी
पात्र: अपाला: ऋगवैदिक ऋचाक लेखिका अत्रि: अपालाक पिता
वैद्य 1,2,3: कृशाश्व: अपालाक पति।
वेषभूषा
उत्तरीय वस्त्र (पुरुष), वल्कल, जूहीक माला(अपालाक केशमे), दण्ड।
मंच सज्जा
सहकार-कुञ्ज(आमक गाछी), वेदी, हविर्गन्ध, रथक छिद्र, युगक छिद्र, सोझाँमे साही, गोहि आ’ गिरग़िट।




दृश्य पाँच
(अपालाक पतिगृह।वृद्ध माता-पिता बैसल छथिन्ह आ’ अपाला घरक काजमे लागल छथि।)
अपाला: प्रिय कृशाश्व।एतेक दिन बीति गेल। पतिगृहमे हम कोनो नियंत्रणक अनुभव नहि कएलहुँ। हमरा प्रति अहाँक कोमल प्रेम सतत् विद्यमान रहल। मुदा श्वेत श्वित्रक जे दाग हमरा पर ज्वलन्त सत्ताक रूपमे अछि, कदाचित् वैह किछु दिनसँ अहाँक हृदयमे हमरा प्रति उदासीनताक रूपमे परिणत भेल अछि। कृशाश्व: हमर उदासीनता अपाला? अपाला: हँ कृशाश्व। हम देखि रहल छी ई परिवर्त्तन। की एकर कारण हमर त्वगदोषमे अंतर्निहित अछि? कृशाश्व: हे अपाला। हमरा भीतर एकटा संघर्ष चलि रहल अछि। ई संघर्ष अछि प्रेम आ’ वासनाक। प्रेम कहैत अछि, जे अपाला ब्रह्मवादिनी छथि, दिव्य नारी छथि। मुदा वासना कहैत अछि, जे अपालाक शरीरक त्वगदोष नेत्रमे रूपसँ वैराग्यक कारण बनि गेल अछि। अपाला: पुरुषक हाथसँ स्त्रीक ई भर्त्सना। कामनासँ कलुषित पुरुष द्वारा नारीक हृदय-पुष्पकेँ थकूचब छी ई। हम वेदक अध्ययन कएने छी। चन्द्रमाक प्रकाशक बीचमे ओकर दाग नुका जाइत अछि, मुदा हमर ई श्वेत श्वित्र दाग हमर विशाल गुणराशिक बीचमे नहि मेटायल। (कृशाश्व स्तब्ध भय जाइत छथि, मुदा किछु बजैत नहि छथि।) अपाला: सबल पुरुषक सोँझा हम अपन हारि मानैत, अपन पिताक तपोवन जा रहल छी, कृशाश्व।
दृश्य 6
(अपाला प्रातः कालमे समिधासँ अग्निकुण्डमे होम करैत इन्द्रक पूजा आ’ जपमे लागि गेल छथि। कुशासन पर बैसलि छथि।)
अपाला: धारक लग सोम भेटल, ओकरा घर आनल आ’ कहल जे हम एकरा थकुचब इंद्रक हेतु, शक्रक हेतु।गृह गृह घुमैत आ’ सभटा देखैत, छोट खुट्टीक ई सोम पीबू,दाँतसँ थकुचल, अन्न आ’ दहीक संग खेनाइमे प्रशंसा गीत सुनैत। हम सभ अहाँकेँ नीक जेकाँ जनबाक हेतु अवैकल्पिक रूपसँ लागल छी, मुदा क्यो गोटे अहाँकेँ प्राप्त नहि क’ सकल छी। हे चन्द्र, अहाँ आस्ते-आस्ते आ’ निरन्तर ठोपे-ठोपे इन्द्रमे प्रवाहित होऊ। की ओ’ हमरा लोकनिक सहायता नहि करताह, हमरा लोकनिक हेतु कार्य नहि करताह। की ओ’ हमरा लोकनिकेँ धनीक नहि बनओताह? की हम अपन राजासँ शत्रुताक बाद आब अपना सभकेँ इन्द्रसँ मिला लिय’। हे इन्द्र अहाँ तीन ठाम उत्पन्न करू। हमरा पिताक मस्तक पर, हुनकर खेतमे आ’ हमर उदर लग। एहि सभ फसिलकेँ ऊगय दियौक। अहाँ हमरा सभक खेतकेँ जोतलहुँ, हमर शरीरकेँ आ’ हमर पिताक मस्तककेँ सेहो। अपालाकेँ पवित्र कएल। इन्द्र! तीन बेर, एक बेर पहिया लागल गाड़ी, एक बेर चारि पहिया युक्त्त गाड़ीमे आ’ एक बेर दुनू बरदक कान्ह पर राखल युगक बीच। हे शतक्रतु! आ’ अपालाकेँ स्वच्छ कएल आ’ सूर्यसमान त्वचा देल। हे इन्द्र!

दृश्य 7 (महायज्ञक समाप्तिक पश्चात ब्रह्मोदयक दृश्य।)
अत्रि: एहि विशाल ऋत्विजगणक मध्य ऋकक मंत्रमे अपालाक ऋचाकेँ हम सम्मिलित कए सकैत छी, कारण ई स्वतः स्फुटित आ’ अभिमंत्रित अछि। अपालाक चर्मरोग एहिसँ छूटि गेल, एकर ई सद्यः प्रमाण अछि। अपाला एहि मंत्रक दृष्टा छथि। ऋषिगण: अत्रि, हमरा सभ सेहो एहि मंत्रक दर्शन कएल। अहो। सम्मिलित करबाक आ’ नहि करबाक तँ प्रश्ने नहि अछि। ई तँ आइसँ ऋकक भाग भेल। (एहि स्वीकृतिक बाद ब्रह्मोदय सभामे दोसर काज सभ प्रारम्भ भ’ जाइत अछि। कृशाश्व विचलित मोने अपालाक सोझाँ अबैत छथि।)
कृशाश्व: अपाला। हम दु:खित छी। अहाँक वियोगमे। अपाला: हे कृशाश्व। इन्द्रक देल ई त्वचा योगक परिणाम अछि। अहाँक उपेक्षा हमरा एहि योग्य बनेलक, मुदा आब एहि पर अहाँक कोनो अधिकार नहि।
(दुनू गोटे शनैः-शनैः मँचक दू दिशि सँ बहराए जाइत छथि।)
(पटाक्षेप)_
10. पंजी प्रबंध पञ्जी संग्राहक-श्री विद्यानन्द झा”मोहनजी” पंज्जीकार
श्री विद्यानन्द झा पञीकार ‘मोहनजी’ जन्म-09.04.1957,पण्डुआ, ततैल, ककरौड़(मधुबनी), रशाढ़य(पूर्णिया), शिवनगर (अररिया) आ’ सम्प्रति पूर्णिया। पिता लब्ध धौत पञ्जीशास्त्र मार्त्तण्ड पञ्जीकार मोदानन्द झा, शिवनगर, अररिया, पूर्णिया|पितामह-स्व. श्री भिखिया झा, पञ्जीशास्त्रक दस वर्ष धरि 1970 ई.सँ 1979 ई. धरि अध्ययन,32 वर्षक वयससँ पञ्जी-प्रबंधक संवर्द्धन आ' संरक्षणमे संल्गन। कृति- पञ्जी शाखा पुस्तकक लिप्यांतरण आ' संवर्द्धन- 800 पृष्ठसँ अधिक अंकन सहित। पञ्जी नगरमिक लिप्यान्तरण ओ' संवर्द्धन- लगभग 600 पृष्ठसँ ऊपर(तिरहुता लिपिसँ देवनागरी लिपिमे)। गुरु- पञ्जीकार मोदानन्द झा। गुरुक गुरु- पञ्जीकार भिखिया झा, पञ्जीकार निरसू झा प्रसिद्ध विश्वनाथ झा- सौराठ, पञ्जीकार लूटन झा, सौराठ। गुरुक शास्त्रार्थ परीक्षा- दरभंगा महाराज कुमार जीवेश्वर सिंहक यज्ञोपवीत संस्कारक अवसर पर महाराजाधिराज(दरभंगा) कामेश्वर सिंह द्वारा आयोजित परीक्षा-1937 ई. जाहिमे मौखिक परीक्षाक मुख्य परीक्षक म.म. डॉ. सर गंगानाथ झा छलाह।

श्रोत्रिय ब्राह्मण सात श्रेणीमे क्रमबद्ध छथि, आ’ योग्य एवम् वंशज पन्द्रह श्रेणीमे। पञ्जीक संख्या 209 अछि, जाहिमे 56 पंजी श्रोत्रिय आ’ 153 पंजी योग्य आ’ वंशजक अछि।
पंजी-प्रबन्धक प्रारम्भ राजा हरसिंहदेवक कालमे शुरू भेल। ज्योतिरीश्वर ठाकुरक वर्ण-रत्नाकरमे हरसिंहदेव नायक आकि राजा छलाह।
आइ काल्हि पञ्जी-प्रबंध मात्र मैथिल ब्राह्मण आ’ कर्ण-कायस्थक मध्य विद्यमान अछि। मुदा प्रारम्भमे ई क्षत्रिय(प्रयः गंधवरिया राजपूत)केर मध्य सेहो छल।
वर्णरत्नाकरमे 72 राजपूत कुलक मध्य 64 केर वर्णन अछि, जाहिमे बएस आ’ पमार दोहराओल अछि। दोसर ठाम 36 राजपूत कुलक वर्णन अछि। 20 टा नामक पूर्वहुमे चर्च अछि। विद्यापतिक लिखनावलीमे, जे प्रायः हुनकर नेपाल प्रवासक क्रममे लिखल गेल छल, चन्देल आ’ चौहानक वर्णन अछि। गाहनवार वा मिथिलाक गंधवरिया राजपूतक दू टा शखा मिथिलामे छल, भीठ भगवानपुर आ’ पंचमहला(सहर्सा, पूर्णियाँ)। गंधवरिया,पमार,विशेवार,कंचिवाल, चौहान आदि मिथिलाक महत्त्वपूर्ण राजपूत छथि।मुदा गंधवरिया मिथिलामे महत्त्वपूर्ण छथि आ’ एखनहु मधुबनीसँ सहरसा-पूर्णियाँ धरि छथि।
वर्णरत्नाकरक राजपूत कुलवर्णनक निम्न लगभग 62 टा कुल अछि। सोमवंश,सूर्यवंश, डोडा, चौसी, चोला, सेन, पाल, यादव, पामार, नन्द, निकुम्भ, पुष्पभूति, श्रिंगार, अरहान, गुपझरझार, सुरुकि, शिखर, बायेकवार, गान्हवार,सुरवार, मेदा, महार, वात, कूल, कछवाह, वायेश, करम्बा, हेयाना, छेवारक, छुरियिज, भोन्ड, भीम, विन्हा, पुन्डीरयन, चौहान, छिन्द, छिकोर, चन्देल, चनुकी, कंचिवाल, रान्चकान्ट, मुंडौट, बिकौत, गुलहौत, चांगल, छहेला, भाटी, मनदत्ता, सिंहवीरभाह्मा, खाती,रघुवंश, पनिहार, सुरभांच, गुमात, गांधार, वर्धन, वह्होम, विशिश्ठ, गुटिया, भाद्र, खुरसाम, वहत्तरी आदि। एखनो गंगा दियारामे राजपूत आ’ यादव दुनूक मध्य ‘बनौत’ होइत छथि, आ’ दुनूमे बहुत घनिष्ठता अछि।
पर्वतमे रहनिहार आ’ वनमे रहनिहारक वर्णन सेहो अछि वर्ण रत्नाकरमे। जनक राजाक विरुद ज(कबीला) सँ बनल प्रतीत होइत अछि।
(अनुवर्तते)

11. मिथिला आ’ संस्कृत( सर्वतंत्रस्वतंत्र बच्चा झाक जीवनी-दोसर भाग)

सर्वतंत्र स्वतंत्र श्री धर्मदत्त झा(बच्चा झा) (1860 ई.-1918 ई.)

महाराज लक्ष्मीश्वर सिंहक सिंहासनारोहणक बहुत दिन बाद धरि धौत परीक्षा नहि भेल छल। ई परीक्षा दरभंगा राजक संस्थापक श्री महेश ठाकुर द्वारा प्रारम्भ कएल गेल छल आ’ एहिमे मौखिक परीक्षा द्वारा श्रेष्ठ पंडितक चयन कएल जाइत छल। महाराज रमेश्वर सिंह एकर आयोजन करबओलन्हि आ’ श्री गंगानाथ झाकेँ एकर दायित्व देल गेल। श्री गंगानाथ झा परीक्षार्थीक रूपमे सेहो आवेदन कएने छलाह। महाराज परेक्षाक हेतु लिखित पद्धतिक आदेश देने छलाह। प्रश्निक नियुक्त्त भेलाह श्री बच्चा झा आ’ श्री शिव कुमार मिश्र। ई दुनू गोटे क्लिष्ट प्राश्निक आ’ कृपण परीक्षक मानल जाइत छलाह। मुदा ताहि पर श्री गंगानाथ झाकेँ 200 मे 197 अंक भेटलन्हि। महाराज पुरान परम्पराक अनुसार हिनका धोती तँ देलखिन्ह, मुदा नवीन पद्धतिक अनुसार दुशाला नहि देलखिन्ह, कारण संस्कृतक विद्वान् होयतहुँ श्री गंगानाथ झाक झुकाव अंग्रेजी दिशि छल। श्री बच्चा झा प्रकाण्ड पण्डित छलाह। महाराष्ट्र आ’ काशीक पण्डितक प्रसंगमे ओ’ कहैत छलाह जे शब्द खण्डक प्रसंगमे ओ’ सभ किछु नहि जनैत छलाह। ओहि समयमे महामहोपाध्याय दामोदर शास्त्री काशीक एकटा प्रसिद्ध वैयाकरण छलाह। विद्वान लोकनिक सुझाव पर दरभंगा महाराज गुरुधाममे एकटा पंडित सभाक आयोजन कएलन्हि। एहिमे हथुआ महाराज विशिष्ट अतिथि छलाह। काशीक सभ प्रमुख विद्वान एहिमे उपस्थित छलाह। प्रतियोगी छलाह पं.बच्चा झा आ’ म.म. दामोदर शास्त्री भरद्वाज। निर्णायक छलाह पं.कैलाश शिरोमणि भट्टाचार्या आ’ म.म.पं शिव कुमार मिश्र। एकटा सरल समस्यासँ शास्त्रार्थ प्रारम्भ भेल। एकर नैय्यायिक पक्ष लेलन्हि बच्चा झा आ’ व्याकरण पक्ष पंदामोदर शास्त्री।
दामोदर शास्त्री अपन जवाब अत्यंत सरल शब्दमे वैयाकरणिक आधार पर द’ देलन्हि। आब बच्चा झाक बेर आयल। बच्चा झा गहन परिष्कार प्रारम्भ कएलन्हि। विद्वान लोकनिमे विवाद भेलन्हि जे हुनकर प्रश्न प्रासंगिक छन्हि वा नहि। निर्णायक लोकनि एकरा प्रासंगिक मानलन्हि। जौँ-जौँ बच्चा झा आगू बढ़ैत गेलाह हुनकर उत्तर दामोदर शास्त्री आ’ निर्णायक लोकनिक हेतु अबोधगम्य होइत गेलन्हि। मध्य रात्रि तक ई चलल। अन्ततः अनिर्णीत राखि कए सभा विसर्जित भेल।



12. भाषा आ’ प्रौद्योगिकी

माइक्रोसॉफ्ट वर्डसँ pdf मे परिवर्त्तनक सोझ तरीका अछि, फाइल,प्रिंटमे जाऊ, आ’ फेर प्रिंटरमे एक्रोबेट डिस्टीलर सेलेक्ट कए प्रिंट कमांड क्दय दिअ। मुदा एहिमे कखनो काल pdf डॉक्युमेंट नहि बनैत छैक। तखन प्रिंटर एक्रोबेट डिस्टीलर सेलेक्ट कए प्रोपर्टीज मे जाऊ। ओतय अडोब pdfसेटिंग सेलेक्ट करू। ओतय ऑपशन डू नॉट सेंड फॉन्ट्स टू डिस्टिलर मे टिक लगायल होयत। ओकरा अनचेक करू। आ’ ओके कए बाहर आऊ आ’ प्रिंट कमांड दिअ। आब pdf डॉक्युमेन्ट बनि जायत।
http://www.bhashaindia.com पर tbil converter सॉफ्टवेयर डाउनलोड करू। यदि मंगल फॉंटमे आन फॉटसँ परिवर्त्तन करबाक अछि तँ डॉक्युमेन्ट .doc सेलेक्ट करू इनपुट भाषामे हिन्दी आ’ ascii फॉन्टमे फॉन्ट सेलेक्ट करू। आउटपुटमे भाषा हिन्दी आ’ फॉन्ट Unicode mangal सेलेक्ट करू। आब ब्राउज क’ कय फाइल सेलेक्ट करू। यदि अहाँक कम्प्युटर मे ऑफिस 2007 अछि आ’ वर्ड डॉक्युमेन्ट .docx एक्स्तेंशन अछि , तखन एक्स्तेंशनकेँ रिनेम करू .docआब ब्राउजमे डॉक्युमेन्ट आबि जायत। कंवर्ट टाइप करू। नूतन फाइल Unicode Mangal फॉन्टमे बनि जायत। यदि अहाँक वर्ड दॉक्युमेन्ट फाइलमे Unicode आ’ ascii फॉन्ट मिक्स अछि, तखन अंदाजीसँ फॉन्ट ascii आ’ बेशी प्रयुक्त होयबला ascii फॉन्ट चूज करू। कंवर्ट करू कन्वर्ट भ’ जायत Unicode mangal fontमे।

मूलभूत स्वर अछि- अ, इ, उ, ऋ, लृ
एकरा समानाक्षर कहल जाइत अछि।
दीर्घ स्वर अछि-आ, ई, ऊ, ॠ।
दीर्घ (मिश्र) स्वर अछि-ए ऐ, ओ, औ । एकरा सन्ध्यक्षर कहल जाइत अछि। ई सभ संज्ञा पाणिनीपूर्व वैय्याकरण लोकनिक अछि।
सन्ध्य़क्षर ह्र्स्व नहि होइत अछि, लृ दीर्घ नहि होइत अछि।
अ, इ, उ, ऋ मे प्रत्येकक ह्रस्व, दीर्घ(आ,ई,ऊ,ॠ) आ’ प्लुत(आ३ई३ऊ३ॠ३) भेद भेल, तँ सभटा मिला कय १२ भेद भेल।लृ केर ह्र्स्व आ’ प्लुत दू भेद अछि।ए, ऐ, ओ, औ एकर सभक दीर्घ आऽ प्लुत दू-दू भेद अछि। एहि प्रकारें २२ टा स्वर भेल।

(अनुवर्तते)

13. रचना लिखबासँ पहिने... (आँगा) हाथक मुद्रा 1.1.औँठा(प्रथम आँगुर)-एक यव दूरी पर
2.2.औँठा प्रथम आँगुरकेँ छुबैत 3.3.औँठा बीच आँगुरकेँ छुबैत 4.4. औँठा चारिम आँगुरकेँ छुबैत 5.5.औँठा पाँचम आँगुरकेँ छुबैत
6.11. छठम क्रुष्ट औँठा प्रथम आँगुरसँ दू यव दूरी पर 7.6. सातम अतिश्वर सामवेद 8.7.अभिगीत ऋग्वेद

ग्रामगेयगान- ग्राम आ’ सार्वजनिक स्थल पर गाओल जाइत छल। आरण्यकगेयगान- वन आ’ पवित्र स्थानमे गाओल जाइत छल।
ऊहगान- सोमयाग एवं विशेष धार्मिक अवसर पर। पूर्वार्चिकसँ संबंधित ग्रामगेयगान एहि विधिसँ। ऊह्यगान आकि रहस्यगान- वन आ’ पवित्र स्थान पर गाओल जाइत अछि। पूर्वार्चिकक आरण्यक गानसँ संबंध। नारदीय शिक्षामे सामगानक संबंधमे निर्देश:- 1.स्वर-7 ग्राम-3 मूर्छना-21 तान-49
सात टा स्वर सा,रे,ग,म,प,ध,नि, आ’ तीन टा ग्राम-मध्य,मन्द,तीव्र। 7*3=21 मूर्छन। सातू स्वरक परस्पर मिश्रण 7*7=49 तान।
ऋगवेदक प्रत्येक मंत्र गौतमक 2 सामगान(पर्कक) आ’ काश्यपक 1 सामगान(पर्कक) कारण तीन मंत्रक बराबर भ’ जाइत अछि। मैकडॉवेल इन्द्राग्नि,मित्रावरुणौ,इन्द्राविष्णु,अग्निषोमौ एहि सभकेँ युगलदेवता मानलन्हि अछि। मुदा युगलदेव अछि –विशेषण-विपर्यय।
वेदपाठ-
१.संहिता पाठ अछि शुद्ध रूपमे पाठ।
अ॒ग्निमी॑ळे पुरोहि॑त य॒घ्यस्य॑दे॒वम्त्विज॑म।होतार॑रत्न॒ धातमम्।
२. पद पाठ- एहिमे प्रत्येक पदकें पृथक कए पढल जाइत अछि।
३.क्रमपाठ- एतय एकक बाद दोसर, फेर दोसर तखन तेसर, फेर तेसर तखन चतुर्थ। एना कए पाठ कएल जाइत अच्हि।
४. जटापाठ- एहिमे जौँ तीन टा पद क, ख, आ’ ग अछि तखन पढ़बाक क्रम एहि रूपमे होयत। कख,खक,कख,खग,गख,खग। ५.घनपाठ-एहि मे ऊपरका उदाहरणक अनुसार निम्न रूप होयत- कख,खक,कखग,गखक,कखग।
६.माला,७.शिखा,८.रेखा,९.ध्वज,१०.दण्ड,११.रथ। अतिम आठकेँ अष्टविकृति कहल जाइत अछि। साम विकार सेहो 6 टा अछि, जे गानकेँ ध्यानमे रखैत घटाओल, बढ़ाओल जा सकैत अछि। 1.विकार- अग्नेकेँ ओग्नाय। 2.विश्लेषण- शब्द/पदकेँ तोड़नाइ 3.विकर्षण-स्वरकेँ खिंचनाई/अधिक मात्राक बराबर बजेनाइ। 4.अभ्यास- बेर-बेर बजनाइ।
5.विराम- शब्दकेँ तोड़ि कय पदक मध्यमे ‘यति’। 6.स्तोभ-आलाप योग्य प्दकेँ जोड़ि लेब। कौथुमीय शाखा ‘हाउ’ ‘राइ’ जोड़ैत छथि। राणानीय शाखा ‘हावु’, ‘रायि’ जोड़ैत छथि।
मैथिलीक मानक लेखन-शैली
1. जे शब्द मैथिली-साहित्यक प्राचीन कालसँ आइ धरि जाहि वर्त्तनीमे प्रचलित अछि, से सामान्यतः ताहि वर्त्तनीमे लिखल जाय- उदाहरणार्थ-
ग्राह्य अग्राह्य
एखन अखन,अखनि,एखेन,अखनी
ठाम ठिमा,ठिना,ठमा जकर,तकर जेकर, तेकर तनिकर तिनकर।(वैकल्पिक रूपेँ ग्राह्य) अछि ऐछ, अहि, ए।
2. निम्नलिखित तीन प्रकारक रूप वैक्लपिकतया अपनाओल जाय: भ गेल, भय गेल वा भए गेल। जा रहल अछि, जाय रहल अछि, जाए रहल अछि। कर’ गेलाह, वा करय गेलाह वा करए गेलाह।
3. प्राचीन मैथिलीक ‘न्ह’ ध्वनिक स्थानमे ‘न’ लिखल जाय सकैत अछि यथा कहलनि वा कहलन्हि।
4. ‘ऐ’ तथा ‘औ’ ततय लिखल जाय जत’ स्पष्टतः ‘अइ’ तथा ‘अउ’ सदृश उच्चारण इष्ट हो। यथा- देखैत, छलैक, बौआ, छौक इत्यादि।
5. मैथिलीक निम्नलिखित शब्द एहि रूपे प्रयुक्त होयत: जैह,सैह,इएह,ओऐह,लैह तथा दैह।
6. ह्र्स्व इकारांत शब्दमे ‘इ’ के लुप्त करब सामान्यतः अग्राह्य थिक। यथा- ग्राह्य देखि आबह, मालिनि गेलि (मनुष्य मात्रमे)।
7. स्वतंत्र ह्रस्व ‘ए’ वा ‘य’ प्राचीन मैथिलीक उद्धरण आदिमे तँ यथावत राखल जाय, किंतु आधुनिक प्रयोगमे वैकल्पिक रूपेँ ‘ए’ वा ‘य’ लिखल जाय। यथा:- कयल वा कएल, अयलाह वा अएलाह, जाय वा जाए इत्यादि।
8. उच्चारणमे दू स्वरक बीच जे ‘य’ ध्वनि स्वतः आबि जाइत अछि तकरा लेखमे स्थान वैकल्पिक रूपेँ देल जाय। यथा- धीआ, अढ़ैआ, विआह, वा धीया, अढ़ैया, बियाह।
9. सानुनासिक स्वतंत्र स्वरक स्थान यथासंभव ‘ञ’ लिखल जाय वा सानुनासिक स्वर। यथा:- मैञा, कनिञा, किरतनिञा वा मैआँ, कनिआँ, किरतनिआँ।
10. कारकक विभक्त्तिक निम्नलिखित रूप ग्राह्य:- हाथकेँ, हाथसँ, हाथेँ, हाथक, हाथमे। ’मे’ मे अनुस्वार सर्वथा त्याज्य थिक। ‘क’ क वैकल्पिक रूप ‘केर’ राखल जा सकैत अछि।
11. पूर्वकालिक क्रियापदक बाद ‘कय’ वा ‘कए’ अव्यय वैकल्पिक रूपेँ लगाओल जा सकैत अछि। यथा:- देखि कय वा देखि कए।
12. माँग, भाँग आदिक स्थानमे माङ, भाङ इत्यादि लिखल जाय।
13. अर्द्ध ‘न’ ओ अर्द्ध ‘म’ क बदला अनुसार नहि लिखल जाय(अपवाद-संसार सन्सार नहि), किंतु छापाक सुविधार्थ अर्द्ध ‘ङ’ , ‘ञ’, तथा ‘ण’ क बदला अनुस्वारो लिखल जा सकैत अछि। यथा:- अङ्क, वा अंक, अञ्चल वा अंचल, कण्ठ वा कंठ।
14. हलंत चिह्न नियमतः लगाओल जाय, किंतु विभक्तिक संग अकारांत प्रयोग कएल जाय। यथा:- श्रीमान्, किंतु श्रीमानक।
15. सभ एकल कारक चिह्न शब्दमे सटा क’ लिखल जाय, हटा क’ नहि, संयुक्त विभक्तिक हेतु फराक लिखल जाय, यथा घर परक।
16. अनुनासिककेँ चन्द्रबिन्दु द्वारा व्यक्त कयल जाय। परंतु मुद्रणक सुविधार्थ हि समान जटिल मात्रा पर अनुस्वारक प्रयोग चन्द्रबिन्दुक बदला कयल जा सकैत अछि।यथा- हिँ केर बदला हिं।
17. पूर्ण विराम पासीसँ ( । ) सूचित कयल जाय।
18. समस्त पद सटा क’ लिखल जाय, वा हाइफेनसँ जोड़ि क’ , हटा क’ नहि।
19. लिअ तथा दिअ शब्दमे बिकारी (ऽ) नहि लगाओल जाय।
20.
ग्राह्य अग्राह्य
1. होयबला/होबयबला/होमयबला/ हेब’बला, हेम’बला होयबाक/होएबाक
2. आ’/आऽ आ
3. क’ लेने/कऽ लेने/कए लेने/कय लेने/ ल’/लऽ/लय/लए
4. भ’ गेल/भऽ गेल/भय गेल/भए गेल
5. कर’ गेलाह/करऽ गेलह/करए गेलाह/करय गेलाह
6. लिअ/दिअ लिय’,दिय’,लिअ’,दिय’
7. कर’ बला/करऽ बला/ करय बला करै बला/क’र’ बला
8. बला वला
9. आङ्ल आंग्ल
10. प्रायः प्रायह
11. दुःख दुख
12. चलि गेल चल गेल/चैल गेल
13. देलखिन्ह देलकिन्ह, देलखिन
14. देखलन्हि देखलनि/ देखलैन्ह
15. छथिन्ह/ छलन्हि छथिन/ छलैन/ छलनि
16. चलैत/दैत चलति/दैति
17. एखनो अखनो
18. बढ़न्हि बढन्हि
19. ओ’/ओऽ(सर्वनाम) ओ
20. ओ (संयोजक) ओ’/ओऽ
21. फाँगि/फाङ्गि फाइंग/फाइङ
22. जे जे’/जेऽ
23. ना-नुकुर ना-नुकर
24. केलन्हि/कएलन्हि/कयलन्हि
25. तखन तँ तखनतँ
26. जा’ रहल/जाय रहल/जाए रहल
27. निकलय/निकलए लागल बहराय/बहराए लागल निकल’/बहरै लागल
28. ओतय/जतय जत’/ओत’/जतए/ओतए
29. की फूड़ल जे कि फूड़ल जे
30. जे जे’/जेऽ
31. कूदि/यादि(मोन पारब) कूइद/याइद/कूद/याद
32. इहो/ओहो
33. हँसए/हँसय हँस’
34. नौ आकि दस/नौ किंवा दस/नौ वा दस
35. सासु-ससुर सास-ससुर
36. छह/सात छ/छः/सात
37. की की’/कीऽ(दीर्घीकारान्तमे वर्जित)
38. जबाब जवाब
39. करएताह/करयताह करेताह
40. दलान दिशि दलान दिश
41. गेलाह गएलाह/गयलाह
42. किछु आर किछु और
43. जाइत छल जाति छल/जैत छल
44. पहुँचि/भेटि जाइत छल पहुँच/भेट जाइत छल
45. जबान(युवा)/जवान(फौजी)
46. लय/लए क’/कऽ
47. ल’/लऽ कय/कए
48. एखन/अखने अखन/एखने
49. अहींकेँ अहीँकेँ
50. गहींर गहीँर
51. धार पार केनाइ धार पार केनाय/केनाए
52. जेकाँ जेँकाँ/जकाँ
53. तहिना तेहिना
54. एकर अकर
55. बहिनउ बहनोइ
56. बहिन बहिनि
57. बहिनि-बहिनोइ बहिन-बहनउ
58. नहि/नै
59. करबा’/करबाय/करबाए
60. त’/त ऽ तय/तए
61. भाय भै
62. भाँय
63. यावत जावत
64. माय मै
65. देन्हि/दएन्हि/दयन्हि दन्हि/दैन्हि
66. द’/द ऽ/दए



(अनुवर्तते)

14. प्रवासी मैथिल English मे
अ. VN Jha केर DO WE REALLY EXIST AS NATION
आ.VIDEHA,Mithila,Tirbhukti, Tirhut…(आँगा)

अ. VN Jha केर Globalization- Is it a boon or a curse for the Maithils?



By Vivekanand Jha



Globalization- Is it a boon or a curse for the Maithils?

Globalization from intellectual perspective, simply connotes unleashing the western curses on India and simultaneously taking away the oriental virtues into the occidental world. Lamentably, hitherto, the western contagious disease of kissing the spouse at night and bidding good bye in the morning for ever, alas, has come to symbolize the status symbol of Indian aristocrats, even infiltrating the Maithils who remained, by and large, immune from this curse till before the advent of the so called the globalization of the world.

The western world, in its utter wisdom, has never been short of inventing the lollypops for the lesser sons/daughters of the God – Orientals who invariably needed these lollypops for their survival. After India attained independence, she found herself being pushed to the soviet block, for the world at that time was bi-polar and India found the socialistic block of Soviet Union catering to its newly invented socialistic aspirations in contrast to capitalistic ideology propagated by the USA. However, Gorbachev presided over the funeral of the Soviet Union and thereby heralded the arrival of uni-polar world with a the lone superpower USA at the helm of the world’s affairs. USA policy makers had to have some thing innovatively unique to make a quick inroad into the countries which, presumably it perceived, were opposed to its hegemonistic world policy. Thus, came the mantra, a newly coined ‘phrase’ on the world horizon – globalization of the world – cutting across the countries and other men made barriers. USA and other western countries, riding on the wave of its strategically devised concept created a frenzy in the third world countries which, falling invariably prey as it always did to this western disseminated opium, gullibly begun to believe that indeed the world has become one. In the name and banner of globalization, the USA and its crony western countries began terrorizing the third world countries to liberalize their economy or face a virtual isolation. The poor third world countries including India, had no option but to toe the western line and India opened its economy to its world. Was India adequately prepared for liberalization of its economy way back in 1991 is a debatable issue, but India in general and Maithils in particulars gained and lost in the wake of globalization can be summed up as below:

1. To start with the gains, India benefited from the large FDI (Foreign Direct Investment) inflows which could be productively invested in the economy resulting n the higher growth of GDP (Gross Domestic Product).
2. Indian IT sector experienced an unprecedented boom resulting in India’s domination in the software industries. The nation as of today, can boast of having the vast pool of its IT software experts in the country. The rise of Infosys, Satyam, Wipro, TCS etc. are the glowing tributes to the globalization of the Indian economy.
3. The outsourcing of jobs fro m USA and pother western countries especially in BPO, KPO, LPO etc. has absorbed our vast labor force and has immensely contributed to the growth of the service industries. However, only handful of Maithil youth have found their way into the BPO, KPO, LPO and the call centers for their gainful employment.
4. Nations economy has been consistently by growing by 9% which is undoubtedly a laudable achievement. However, how far this much touted and trumpeted economic growth has alleviated the cause of poverty itself remains a big question.

Now comes the losses:

1. Much vaunted FDI flow into Indian economy has utterly failed to do justice to the majority of Indian people. Mithilasthan (comprising of the districts like Darbhanga, Madhubani, Sitamarhi, Bettiah, Samasthipur, Muzzafarpur, Begusarai, Motihari, Kathiar, etc.) are yet to get even a penny of investments from the large pool of FDI which purportedly has come into India.
2. Boom in IT sector, albeit resulted in proving jobs to the educated Maithil youth, but the percentage of such youth is not even 1% of the total Maithil population. What the IT boom means to the vast 90% of our landless labor who still continue to run from pillar to post in search of their livelihood.
3. The outsourcing may have provided succor to the youth of other parts of the country, Maithils on accounts of lack of opportunities for English education, could not extract the amount of benefits which their counter parts from other parts of the country beneficially did. The apathetic attitude of the Bihar government to the vast area of the Mithilasthan which, thus far has remained bereft of any meaningful educational institution, is the solitary cause for the lack of adequate English education.
4. Nation’s economy might be consistently rising by 9% (approx.) but what about Maithils and their place? India may be trumpeting its economic achievement to the world, but its own constituent like Maithils are still stuck in abject poverty. Maithils seek an explanation from the government of India and Bihar, as to why no part of FDI was channelized towards the growth and development of its place? Are the Maithils only meant for leading of life of migratory birds who keep on searching from one place to another for the source of their livelihood? Do the Maithils have no right in the share of nation’s FDI inflows and in nation’s economic growth? Regrettably, the power – that – be is deliberately sowing a seed of dissension and rebellion in the nation’s polity by canalizing the vast allocation of the funds to the different parts of the country, while keeping Mithila and Maithils neglected forever.

However, the biggest curse of globalization is the most pernicious western contagious disease afflicting the nation – even the Maithils who, by and large, were perceived to be immune from it, now seem to be engulfed by it – is the rampant divorce resulting in the breakup of the families. The virus of separation and divorce which, almost engulfed the western society, has now spread within India like a plague. The western attitude of kissing the spouse at night and bidding him/her good bye for ever in the early next morning has made a deep in road into the Indian society including the Maithils. Maithil youth, exuding false pride in western education and getting alienated from their cultural roots, invariably fall prey to this western curse by bringing their sacred marital relationship to an indecisive end. They forget the famous Maithil maxim “Marriage is a second birth to the couple”. If the marriages are broken in a single fit of rage, what will happen to the society and to the nation? In Bhagvat Gita Arjuna says “If the war happens, men get killed and vast number of women left behind become corrupt. Because of women’s corruption, varanshankra’s (bastards) are born, and because of varnshankra the society and ultimately the nation become corrupts and loses its national character”.

Globalization in that sense is like a war which corrupts those who are overwhelmed by its forces, become its greatest victim. Like Mahabharta globalization is also a war which is to be fought in a detached manner without ending up as its victims.

Jai Hind.


Jai Hind.

आ.VIDEHA,Mithila,Tirbhukti, Tirhut…(आँगा)
Yaska criticises the Pada Patha of Sakalya and there was contest between Yajnavalkya and Vidagdha Sakalya, at the court of Janaka.The Chhandogya Upanishad and the Satapatha Brahmana narrate a story in which five great householders approach a senior teacher and then these six decide to go to Asvapati Kaikeya to learn about Vaisvanara.
Svaidayana Saunaka defeated Uddalaka Aruni. Aruni became his pupil.In the ethnographic section of the Indian Museum at Amsterdam there is a Balinese painting on a strip of linen, depicting the famous Mahabharata story of Dhaumya and Uddalaka Aruni.Svetlketu was the son of Uddalaka Aruni .He was a Gautama.The failures on the part of Svetaketu, led to his the position of the Purohita of Kasi, Kosala and Videha offered to Jala Jatukarnya and not to the son of Aruni¬.Svetaketu was expert,however,on matters of the duty the seventeenth priest. Yajnavalkya was a great scholar and exponent of Brahma¬vidya in the time of Janaka Vaideha. He was a pupil of Uddalaka Aruni.A large banyan tree at Jogban near the Kamtaul Station of N.E. Railway in Darbhanga district is adored as his hermitage. Shukla Yajurveda of Yajnavalkya is the great landmark between the post Vedic and the neo Vedic and later ages. Satyakama Jabala was the son of a slave girl by an unknown father. He was initiated as a Brahmacharin by Gautama Haridrumata. Gargi Vachaknavi was a rival of Yajnavalkya and took part in the contest at the court of Janaka Vaideha.Maitreyi was one of the two wives of Yajnavalkya and insisted on learning the secret of immortality.The last two kings of the Janaka dynasty of Videha were Nimi II and Karala Janaka as per the Jatakas.Nimi II is said to have united his scattered family. The Mahabharata knows one Nimi Vaideha gave his kingdom to the Brahmanas. Karala Janaka was the son of Nimi II,having long projecting teeth. The Nimi Jataka says thatNimi's son Kalara Janaka brought his line to an end. Arthashastra of Kautilya mentions that Karala Vaideha perished along with his kingdom and relations for an attempt on a Brahmana maiden.

सिद्धिरस्तु


1 comment:

  1. मान्यवर,
    1.अहाँकेँ सूचित करैत हर्ष भ’ रहल अछि, जे ‘विदेह’ प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका http://www.videha.co.in/ पर ई-प्रकाशित भ’ रहल अछि। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ’ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ’ सातो दिन उपलब्ध होए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होए आ’ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ’ भौगोलिक दूरीक अंत भ’ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ’ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ’ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। पुरान अंक pdf स्वरूपमे डाउनलोड कएल जा सकैत अछि आ’ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ’ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
    2. अहाँ लोकनिसँ 'विदेह' लेल स्तरीय रचना सेहो आमंत्रित अछि। कृपया अपन रचनाक संग अपन फोटो सेहो अवश्य पठायब। अपन संक्षिप्त आत्मकथात्मक परिचय, अपन भाषामे, सेहो पठेबाक कष्ट करब, जाहिसँ पाठक रचनाक संग रचनाकारक परिचय, ताहि प्रकारसँ , सेहो प्राप्त कए सकथि।
    हमर ई-मेल संकेत अछि-
    ggajendra@videha.com

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"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका http://www.videha.co.in/:-
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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