भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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Sunday, July 27, 2008
विदेह 01 मई 2008 वर्ष 1 मास 5 अंक 9 1. नाटकश्री उदय नारायण सिंह ‘नचिकेता’ नो एंट्री : मा प्रविश
श्री उदय नारायण सिंह ‘नचिकेता’ जन्म-1951 ई. कलकत्तामे।1966 मे 15 वर्षक उम्रमे पहिल काव्य संग्रह ‘कवयो वदन्ति’ | 1971 ‘अमृतस्य पुत्राः’(कविता संकलन) आ’ ‘नायकक नाम जीवन’(नाटक)| 1974 मे ‘एक छल राजा’/’नाटकक लेल’(नाटक)। 1976-77 ‘प्रत्यावर्त्तन’/ ’रामलीला’(नाटक)। 1978मे जनक आ’ अन्य एकांकी। 1981 ‘अनुत्तरण’(कविता-संकलन)। 1988 ‘प्रियंवदा’ (नाटिका)। 1997-‘रवीन्द्रनाथक बाल-साहित्य’(अनुवाद)। 1998 ‘अनुकृति’- आधुनिक मैथिली कविताक बंगलामे अनुवाद, संगहि बंगलामे दूटा कविता संकलन। 1999 ‘अश्रु ओ परिहास’। 2002 ‘खाम खेयाली’। 2006मे ‘मध्यमपुरुष एकवचन’(कविता संग्रह। भाषा-विज्ञानक क्षेत्रमे दसटा पोथी आ’ दू सयसँ बेशी शोध-पत्र प्रकाशित। 14 टा पी.एह.डी. आ’ 29 टा एम.फिल. शोध-कर्मक दिशा निर्देश। बड़ौदा, सूरत, दिल्ली आ’ हैदराबाद वि.वि.मे अध्यापन। संप्रति निदेशक, केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर।
नो एंट्री : मा प्रविश
(चारि-अंकीय मैथिली नाटक)
नाटककार उदय नारायण सिंह ‘नचिकेता’ निदेशक, केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर
(मैथिली साहित्यक सुप्रसिद्ध प्रयोगधर्मी नाटककार श्री नचिकेताजीक टटका नाटक, जे विगत 25 वर्षक मौन भंगक पश्चात् पाठकक सम्मुख प्रस्तुत भ’ रहल अछि।)
प्रथम कल्लोलक दोसर भाग जारी....विदेहक एहि नवम अंक 01 मई 2008 मे।
नो एंट्री : मा प्रविश
प्रथम कल्लोल (पछिला अंकसँ आँगा)
[चोर-उचक्का-पॉकिट-मार ताली दैत अछि, सुनि कए चौंकैत भिख-मंगनी आ प्रेमी-युगल बिनु किछु बुझनहि ताली बजाब’ लागैत अछि।]
चोर : ई त’ नीक फकरा बनि गेल यौ!
पॉकिट-मार : एम्हर तस्कर-राज त’ ओम्हर कवि-राज!
बाजारी : (खौंझैत’) कियै ? कोन गुण छह तोहर, जकर
बखान करै अयलह एत’?
पॉकिट-मार : (इंगित करैत आ हँसैत) हाथक सफाई... अपन
जेब मे त’ देखू , किछुओ बाकी अछि वा नञि...
बाजारी : [बाजारी तुरंत अपन जेब टटोलैत छथि – त’ हाथ
पॉकिटक भूर देने बाहर आबि जाइत छनि। आश्चर्य
चकित भ’ कए मुँह सँ मात्र विस्मयक आभास होइत छनि।] जा !
[बीमा बाबूकेँ आब रहल नञि गेलनि। ओ ठहक्का पाड़ि
कए हँस’ लगलाह, हुनकर देखा–देखी कैक गोटे बाजारी दिसि हाथ सँ इशारा करैत हँसि रहल छलाह।]
चोर : [हाथ उठा कए सबकेँ थम्हबाक इशारा करैत] हँसि त’
रहल छी खूब !
उचक्का : ई बात त’ स्पष्ट जे मनोरंजनो खूब भेल हैतनि।
पॉकिट-मार : मुदा अपन-अपन पॉकिट मे त’ हाथ ध’ कए देखू !
[भिखमंगनी आ प्रेमी-युगल केँ छोड़ि सब क्यो पॉकिट टेब’ लागैत’ छथि आ बैगक भीतर ताकि-झाँकि कए देख’ लागैत छथि त’ पता चलैत छनि जे सभक पाइ, आ नहि त’ बटुआ गायब भ’ गेल छनि। हुनका सबकेँ ई बात बुझिते देरी चोर, उचक्का, पॉकिट-मार आ भिख-मंगनी हँस’ लागैत छथि। बाकी सब गोटे हतबुद्धि भए टुकुर- टुकुर ताकिते रहि जाइत छथि]
भिखमंगनी : नंगटाक कोन डर चोर की उचक्का ?
जेम्हरहि तकै छी लागै अछि धक्का !
धक्का खा कए नाचब त’ नाचू ने !
खेल खेल हारि कए बाँचब त’ बाँचू ने !
[चोर-उचक्का–पॉकिट-मार, समवेत स्वर मे जेना धुन गाबि रहल होथि]
नंगटाक कोन डर चोर कि उचक्का !
आँखिएक सामने पलटल छक्का !
भिख-मंगनी : खेल–खेल हारि कए सबटा फक्का !
समवेत-स्वर : नंगटाक कोन डर चोर कि उचक्का ?
[कहैत चारू गोटे गोल-गोल घुर’ लागै छथि आ नाचि नाचि कए कहै छथि।]
सब गोटे : आब जायब, तब जायब, कत’ ओ कक्का ?
पॉकिट मे हाथ दी त’ सब किछु लक्खा !
नंगटाक कोन डर चोर कि उचक्का !
बीमा-बाबू : (चीत्कार करैत) हे थम्ह’ ! बंद कर’ ई तमाशा...
चोर : (जेना बीमा-बाबूक चारू दिसि सपना मे भासि रहल
होथि एहन भंगिमा मे) तमाशा नञि... हताशा....!
उचक्का : (ताहिना चलैत) हताशा नञि... निराशा !
पॉकिट-मार : [पॉकिट सँ छह-सातटा बटुआ बाहर क’ कए देखा –
देखा कए] ने हताशा आ ने निराशा, मात्र तमाशा...
ल’ लैह बाबू छह आना, हरेक बटुआ छह आना!
[कहैत एक–एकटा बटुआ बॉल जकाँ तकर मालिकक
दिसि फेंकैत छथि आ हुनका लोकनि मे तकरा
सबटाकेँ बटौर’ लेल हड़बड़ी मचि जाइत छनि। एहि
मौकाक फायदा उठबैत चोर–उचक्का-पॉकिटमार
आ भिख-मंगनी कतारक सब सँ आगाँ जा’ कए ठाढ
भ’ जाइत छथि।]
रद्दी-बला : [जकर कोनो नुकसान नहि भेल छल-ओ मात्र मस्ती क’ रहल छल आ घटनासँ भरपूर आनन्द ल’ रहल छल।] हे बाबू– भैया लोकनि ! एकर आनन्द नञि अछि कोनो जे “भूलल-भटकल कहुना क’ कए घुरि आयल अछि हमर बटुआ”। [कहैत दू डेग बढा’ कए नाचिओ लैत’ छथि।] ई जे बुझै छी जे अहाँक धन अहीं केँ घुरि आयल... से सबटा फूसि थिक !
बीमा-बाबू : (आश्चर्य होइत) आँय ? से की ?
बाजारी : (गरा सँ गरा मिला कए) सबटा फूसि ?
भद्र-व्यक्ति 1 : की कहै छी ?
भद्र-व्यक्ति 2 : माने बटुआ त’ भेटल, मुदा भीतर ढन–ढन !
रद्दी-बला : से हम कत’ कहलहुँ ? बटुओ अहींक आ पाइयो
छैहे! मुदा एखन ने बटुआक कोनो काज रहत’ आ
ने पाइयेक!
बीमा-बाबू : माने ?
रद्दी-बला : माने नञि बुझलियैक ? औ बाबू ! आयल छी सब
गोटे यमालय... ठाढ़ छी बन्द दरबज्जाक सामने...
कतार सँ... एक–दोसरा सँ जूझि रहल छी जे के
पहिल ठाम मे रहत आ के रहत तकर बाद...?
तखन ई पाइ आ बटुआक कोन काज ?
भद्र-व्यक्ति1 : सत्ये त’! भीतर गेलहुँ तखन त’ ई पाइ कोनो काज
मे नहि लागत !
बाजारी : आँय ?
भद्र-व्यक्ति2 : नहि बुझिलियैक ? दोसर देस मे जाइ छी त’ थोड़े
चलैत छैक अपन रुपैया ? (आन लोग सँ
सहमतिक अपेक्षा मे-) छै कि नञि ?
रमणी-मोहन : (जेना दीर्घ मौनता के तोड़ैत पहिल बेरि किछु ढंग
केर बात बाजि रहल छथि एहन भंगिमा मे... एहि
सँ पहिने ओ कखनहु प्रेमी-युगलक लग जाय
प्रेमिका केँ पियासल नजरि द’ रहल छलाह त’
कखनहु भिख-मंगनिये लग आबि आँखि सँ तकर
शरीर केँ जेना पीबि रहल छलाह...) अपन प्रेमिका
जखन अनकर बियाहल पत्नी बनि जाइत छथि
तखन तकरा सँ कोन लाभ ? (कहैत दीर्घ-श्वास
त्याग करैत छथि।)
बीमा-बाबू : (डाँटैत) हे...अहाँ चुप्प रहू! क’ रहल छी बात
रुपैयाक, आ ई कहै छथि रूप दय...!
रमणी-मोहन : हाय! हम त’ कहै छलहुँ रूपा दय! (भिख-मंगनी
रमणी-मोहन लग सटल चलि आबै छैक।)
भिख-मंगनी : हाय! के थिकी रूपा ?
रमणी-मोहन : “कानि-कानि प्रवक्ष्यामि रूपक्यानि रमणी च... !
बाजारी : माने ?
रमणी-मोहन : एकर अर्थ अनेक गंभीर होइत छैक... अहाँ सन
बाजारी नहि बूझत!
भिख-मंगनी : [लास्य करैत] हमरा बुझाउ ने!
[तावत भिख-मंगनीक भंगिमा देखि कने-कने बिहुँसैत’ पॉकिट–मार लग आबि जाइत अछि।]
भिख-मंगनी : [कपट क्रोधेँ] हँसै कियै छें ? हे... (कोरा सँ पुतलाकेँ
पॉकिट-मारकेँ थम्हबैत) हे पकड़ू त’ एकरा... (कहैत
रमणी-मोहन लग जा कए) औ मोहन जी! अहाँ की
ने कहलहुँ, एखनहु धरि भीतर मे एकटा छटपटी
मचल यै’! रमणी-धमनी कोन बात’ कहलहुँ ?
रमणी-मोहन : धूर मूर्ख! हम त’ करै छलहुँ शकुन्तलाक गप्प,
मन्दोदरीक व्यथा... तोँ की बुझबेँ ?
भिख-मंगनी : सबटा व्यथा केर गप बुझै छी हम... भीख मांगि-
मांगि खाइ छी, तकर माने ई थोड़े, जे ने हमर शरीर
अछि आ ने कोनो व्यथा... ?
रमणी-मोहन : धुत् तोरी ! अपन व्यथा–तथा छोड़, आ भीतर की
छैक, ताहि दय सोच ! (कहैत बंद दरबज्जा दिसि
देखबैत छथि-)
पॉकिट-मार : (अवाक् भ’ कए दरबज्जा दिसि देखैत) भीतर ? की
छइ भीतरमे... ?
रमणी-मोहन : (नृत्यक भंगिमा करैत ताल ठोकि- ठोकि कए) भीतर?
“धा–धिन–धिन्ना... भरल तमन्ना !
तेरे-केरे-धिन-ता... आब नञि चिन्ता !”
भिख-मंगनी : (आश्चर्य भए) माने ? की छैक ई ?
रमणी-मोहन : (गर्व सँ) ‘की’ नञि... ‘की’ नञि... ‘के’ बोल !
बोल- भीतर ‘के’ छथि ? के, के छथि?
पॉकिट-मार : के, के छथि?
रमणी-मोहन : एक बेरि अहि द्वारकेँ पार कयलेँ त’ भीतर भेटती
एक सँ एक सुर–नारी,उर्वशी–मेनका–रम्भा... (बाजैत- बाजैत जेना मुँहमे पानि आबि जाइत छनि--)
भिख-मंगनी : ईः! रंभा...मेनका... ! (मुँह दूसैत) मुँह-झरकी
सब... बज्जर खसौ सबटा पर!
रमणी-मोहन : (हँसैत) कोना खसतैक बज्जर ? बज्र त’ छनि देवराज
इन्द्र लग ! आ अप्सरा त’ सबटा छथि हुनकहि
नृत्यांगना।
[भिख-मंगनीक प्रतिक्रिया देखि कैक गोटे हँस’ लगैत छथि]
पॉकिट-मार : हे....एकटा बात हम कहि दैत छी – ई नहि बूझू जे
दरबज्जा खोलितहि आनंदे आनंद !
बाजारी : तखन ?
बीमा-बाबू : अहू ठाम छै अशांति, तोड़-फोड़, बाढ़ि आ सूखार ?
आ कि चारू दिसि छइ हरियर, अकाससँ झहरैत
खुशी केर लहर आ माटिसँ उगलैत सोना ?
पॉकिट-मार : किएक ? जँ अशांति, तोड़-फोड़ होइत त’ नीक... की
बूझै छी, एत्तहु अहाँ जीवन–बीमा चलाब’ चाहै छी की ?
चोर : (एतबा काल उचक्का सँ फुसुर-फुसुर क’ रहल
छल आ ओत्तहि, दरबज्जा लग ठाढ़ छल– एहि
बात पर हँसैत आगाँ आबि जाइत अछि) स्वर्गमे
जीवन-बीमा ? वाह ! ई त’ बड्ड नीक गप्प !
पॉकिट-मार : देवराज इंद्रक बज्र.. बोलू कतेक बोली लगबै छी?
उचक्का : पन्द्रह करोड़!
चोर : सोलह!
पॉकिट-मार : साढे-बाईस!
बीमा-बाबू : पच्चीस करोड़!
रमणी-मोहन : हे हौ! तोँ सब बताह भेलह ? स्वर्गक राजा केर बज्र,
तकर बीमा हेतैक एक सय करोड़ सँ कम मे ? [कतहु सँ एकटा स्टूलक जोगाड़ क’ कए ताहि पर चट दय ठाढ़ भ’ कए-]
पॉकिट-मार : बोलू, बोलू भाई-सब ! सौ करोड़ !
बीमा-बाबू : सौ करोड़ एक !
चोर : सौ करोड़ दू –
रमणी-मोहन : एक सौ दस !
भिख-मंगनी : सवा सौ करोड़ !
चोर : डेढ़सौ करोड़...
भिख-मंगनी : पचपन –
चोर : साठि –
भिख-मंगनी : एकसठि –
[दूनूक आँखि–मुँह पर ‘टेनशन’ क छाप स्पष्ट भ’ जाइत छैक। ]
चोर : (खौंझैत) एक सौ नब्बै...
[एतेक बड़का बोली पर भिख-मंगनी चुप भ’ जाइत अछि।]
पॉकिट-मार : त’ भाई-सब ! आब अंतिम घड़ी आबि गेल अछि –
190 एक, 190 दू, 190...
[ठहक्का पाड़ि कए हँस’ लगलाह बाजारी, दूनू भद्र व्यक्ति आ रद्दी-बला-]
पॉकिट-मार : की भेल ?
चोर : हँस्सीक मतलब ?
बाजारी : (हँसैते कहैत छथि) हौ बाबू ! एहन मजेदार मोल-
नीलामी हम कतहु नञि देखने छी !
भद्र-व्यक्ति 1 : एकटा चोर...
भद्र-व्यक्ति 2 : त’ दोसर भिख-मंगनी...
बाजारी : आ चलबै बला पॉकिट-मार...
[कहैत तीनू गोटे हँस’ लागै छथि]
बीमा-बाबू : त’ एहि मे कोन अचरज?
भद्र-व्यक्ति 1 : आ कोन चीजक बीमाक मोल लागि रहल अछि–
त’ बज्र केर !
भद्र-व्यक्ति 2 : बज्जर खसौ एहन नीलामी पर !
बाजारी : (गीत गाब’ लागै’ छथि)
चोर सिखाबय बीमा–महिमा,
पॉकिट-मारो करै बयान !
मार उचक्का झाड़ि लेलक अछि,
पाट कपाट त’ जय सियाराम !
दुनू भद्र-व्यक्ति : (एक्कहि संगे) जय सियाराम !
[पहिल खेप मे तीनू गोटे नाच’-गाब’ लागै छथि। तकर बाद धीरे-धीरे बीमा बाबू आ रद्दी-बला सेहो संग दैत छथि।]
बाजारी : कौआ बजबै हंसक बाजा
भद्र-व्यक्ति 1 : हंस गबै अछि मोरक गीत
भद्र-व्यक्ति 2 : गीत की गाओत ? छल बदनाम !
बाजारी : नाट-विराटल जय सियाराम !
समवेत : मार उचक्का झाड़ि लेलक अछि।
पाट-कपाटक जय सियाराम !
[तावत् नचैत नंदी-भृंगीक प्रवेश होइत छैक। दुनूक नृत्य छलनि शास्त्रीय तथा मुँहमे बोलो तबलेक-]
नंदी : घर-घर–घरणी
भृंगी : मर-झर जरनी
नंदी : डाहक छाँह मे
भृंगी : स्याह विशेष
नंदी : कपटक छट-फट
भृंगी : बगलक दल-दल
नंदी : हुलकि-दुलकि कए
भृंगी : भेल अवशेष !
दुनू गोटे : [एक्कहि संग गबैत-नचैत तरुआरि सँ चहुँदिसि
लड़ैत, अगणित मुदा अदृश्य योद्धाक गर काटैत- ]
चाम-चकित छी, भान-भ्रमित छी
बेरि-बेरि बदनाम कूपित छी
गड़-गड़ निगड़ ई हर-पर्वत पर
तीन लोक चहुँ धाम कथित छी
कपटक छट-फट त्रिकट विकट कट
नट जट लट-कय अट-पट संशय
नर-जर देहक बात निशेष !
डाहक छाँह मे स्याह विशेष !
[जखन गीत-नाद आ नृत्य समाप्त भ’ जाइत अछि तखन नंदी एकटा टूल पर ठाढ़ भ’ कए सब केँ संबोधित कर’ लागै छथि।]
नंदी : [सभक दृष्टि-आकर्षण करैत]
सुनू सुनू सभटा भाइ-बहीन! नीक जकाँ सुनि लिय’ आ जँ किछु जिज्ञासा हो त’ सेहो पूछि लिय’ [सब गोटे गोल भ’ कए ठाढ़ भ’ जाइत छथि।]
भृंगी : हम सब जे किछु कहब से अहि लेल कहब
जरूरी अछि, जे आब दरबज्जा खोलितहि ओहि पार जैबाक मौका भेटत सबकेँ। मुदा ई जानब जरूरी अछि जे ओहि पार अहाँ लेल की अछि प्रतीक्षा करैत! (बाजैत सभक दिसि देखि लैत छथि।) अहाँ सब जनै छी ,की छैक ओहि पार?
चोर : स्वर्ग!
पॉकिट-मार : नरक!
भिख-मंगनी : अकास!
रद्दी-बला : पाताल!
नंदी : ने क्यो पूरापूरी ठीके बाजल... आ ने क्यो गलते
बात कहल !
भृंगी : ई सबटा छैक ओहि पार– एक्कहि ठाम, एक्कहि
स्थान पर...
नंदी : आब ई त’ अहाँ सभक अपन-अपन कृतकर्मक फल
भेटबाक बात थिक... ककरा भागमे की अछि...
बाजारी : (टोकैत) से के कहत ?
नंदी : महाकाल!
भृंगी : ककरहु भेटत ढेर रास काज त’ ककरहु लेल रहत
कतेको स्पर्धा...! क्यो समय बीताओत नृत्य-गीत,
काव्य-कलाक सङे, आ क्यो एहि सबसँ दूर
रहत गंभीर शोध मे लागल !
नंदी : ककरहु लेल रहत पुष्प–शय्या...त’ ककरहु
एखनहुँ चलबाक अछि काँट पर दय... !
बीमा-बाबू : से कोना?
नंदी : देखू ! ई त’ अपन-अपन भाग्य जे एत’ अहाँ-लोकनिमे
बहुत कम्मे गोटे एहन छी जे संपूर्ण उमरि
जीबाक बाद तखन एत’ हाजिर भेल छी। क्यो बजार सँ घुरैत काल गाड़ी तर कुचलल गेल छी (बाजारी हाथ उठबैत आ कहैत “हम...हम...” ) त’ क्यो चोरि करै काल पकड़ा गेलहुँ आ गाम-घरक लोग पीटि-पीटि कए पठा देलक एत’! (चोर ई प्रसंगक आरंभ होइतहि ससरि कए पड़यबाक चेष्टा क’ रहल छल त’ ओकरा दू-तीन गोटे पकड़ि कए “हे ई थिक ...इयैह... !” आदि बजलाह) क्यो अतिरिक्त व्यस्तता आ काजक टेनशन मे अस्वस्थ भेल छलहुँ (दुनू भद्र व्यक्ति मात्र हाथ उठबैत छथि जेना स्कूली छात्र सब कक्षामे हाजिरी लगबैत अछि), त’ क्यो रेलक पटरी पर अपन अंतिम क्षण मे आबि पहुँचल छलहुँ (रद्दी बला आ भिख-मंगनी बाजल “जेना कि हम!” अथवा “हमरो त’ सैह भेल छल”। कतेको कारण भ’ सकैत छल।
[बाजैत बाजैत चारिटा मृत सैनिक मुइलो पर विचित्र जकाँ मार्च करैत करैत मंच पर आबि जाइत छथि।]
बीमा-बाबू : (चारू गोटे केँ देखबैत) आ ई सब ?
नंदी : समय सँ पहिनहि, कोनो ने कोनो सीमामे....
घुसपैठीक हाथेँ नहि त’ लड़ाई केर मैदानमे... !
मृत सैनिक : (समवेत स्वरेँ) लड़ाईक मैदानमे... !
बीमा-बाबू : बुझलहुँ ! मुदा...
नंदी : मुदा ई नहि बुझलहुँ जे बीमाक काजकेँ छोड़ि कए
अहाँ एत’ किएक आयल छी?
बीमा-बाबू : हम सब त’ सदिखन नव-नव मार्केटक खोजमे
कतहु पहुँचिये जाइ छी, एतहु तहिना बूझू... !
भृंगी : बुझलहुँ नहि...आब एतेक रास ने बीमा कंपनी आबि
गेल अछि जे ई बेचारे...
[तावत् नंदी-भृंगीक चारू कात जमा भेल भीड़ ओहि पार पाछाँ दिसि सँ एकटा खलबली जकाँ मचि गेल। पता चलल दुनू प्रेमी आपस मे झगड़ा क’ रहल छल। रास्ता बनाओल गेल त’ ओ दुनू सामने आबि गेल।]
नंदी : (जेना मध्यस्थता क’ रहल छथि) की बात थिक ?
हमरो सब केँ त’ बूझ’ दियह!
प्रेमिका : देखू ने... जखन दुनू गोटेक परिवार बिल्कुल मान’
लेल तैयार नञि छल हमरा दुनूक संबंध तखन...
प्रेमी : तखन मिलि कए विचार कैने छलहुँ जे संगहिसंग
जान द’ देब...
प्रेमिका : सैह भेल, मुदा….
नंदी : मुदा ?
प्रेमिका : मुदा आब ई कहि रहल छथि...हिनका घुरि जैबाक
छनि...
प्रेमी : हँ...हम चाहै छी एक बेर आर जीबाक प्रयास करी।
मुदा ई नहि घुर’ चाहै छथि।
प्रेमिका : हँ, हम नञि चाहै छी जे धुरि जाइ... !
रमणी-मोहन : (अगुआ कए प्रेमिका लग आबि कए) नञि जाय
चाहै छथि त’ रह दियौक ने... हम त’ छीहे ! (कहैत
आर आगाँ बढ़बाक प्रयास करैत’ छथि।)
भृंगी : धत् ! (रमणी-मोहन केँ तिरस्कार करैत) अहाँ हँटू
त’... ! आ चुप रहू !
नंदी : मुदा ई त’ अहाँ दुनू गोटे हमरा दुनू केँ धर्म-संकट
मे पहुँचा देलहुँ।
भृंगी : आ घुरबे कियै’ करब ?
प्रेमी : एक बेर आर प्रयास करी, जँ हमर दुनूक विवाहक
लेल ओ लोकनि राजी भ’ जाथि।
भृंगी : ओ– ई बात ?
नंदी : त’ एकर निदान त’ सहजेँ क’ सकै छी हम सब?
प्रेमिका : से कोना ?
भृंगी : किछुओ नहि...बस, छोट-छीन- ‘ऐक्सिडेंटे’ करबा
दिय आ ल’ आनू दुनू जोड़ी माय-बाप केँ
एतहि...यमालय मे...
प्रेमी : नहि-नहि !
प्रेमिका : से कोना भ’ सकै छइ ?
प्रेमी : हम सब नञि चाहब जे हमरा सभक लेल हुनको
लोकनिक प्राण हरल जाइन।
नंदी : तखन त’ एकहि टा उपाय भ’ सकैत अछि।
प्रेमी-प्रेमिका : (एक्कहि संगेँ) की ? कोन उपाय ?
भृंगी : इयैह...जे अहाँ दुनूक विवाह...
नंदी : एतहि क’ देल जाय...
[सब प्रसन्न भ’ जाइत छथि – स्पष्टतः सभक दुश्चिन्ता दूर भ’ जाइत छनि। प्रेमिका लजा’ जाइत छथि, प्रेमी सेहो प्रसन्न, मुदा कनेक शंकित सेहो-]
भृंगी : खाली इयैह सोच’ पड़त’ जे कन्यादान के करत...?
बाजारी : (आगाँ बढ़ि कए) आ हम त’ छी ने ! (कहैत
प्रेमिकाक माथ पर हाथ रखैत छथि; स्नेहक
आभास– प्रेमिका झुकि कए हुनक पैर धूबैत
छथि।)
भृंगी : बस आब दरकार खाली ढोल-पिपही आ बाजा–
गाजा... !
नंदी : सेहो भ’ जेतैक... !
[दुनू हाथ सँ तीन बेर ताली दैत छथि। एकटा कतार सँ ढोल–पिपही-बाजा बजौनिहार सब आबैत छथि आ बाजा-बजब’ लागै छथि। सबटा पात्र हुनके सभक पाछाँ-पाछाँ एकटा पंक्ति मे चलैत-नाचैत, आनन्द करैत बाहर चलि जाइत छथि।]
[मंच पर रहि जाइत छैक मात्र बंद विशाल स्वर्ग-द्वार ! स्पॉट-लाईट दरबज्जा पर पड़ैत अछि आ अन्हार भ’ कए प्रथम कल्लोलक समाप्तिक घोषणा करैत अछि।]
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(क्रमश:)
(क्रमश:)
c)२००८. सर्वाधिकार लेखकाधीन आ’ जतय लेखकक नाम नहि अछि ततय संपादकाधीन।
विदेह (पाक्षिक) संपादक- गजेन्द्र ठाकुर। एतय प्रकाशित रचना सभक कॉपीराइट लेखक लोकनिक लगमे रहतन्हि, मात्र एकर प्रथम प्रकाशनक/ आर्काइवक/ अंग्रेजी-संस्कृत अनुवादक ई-प्रकाशन/ आर्काइवक अधिकार एहि ई पत्रिकाकेँ छैक। रचनाकार अपन मौलिक आऽ अप्रकाशित रचना (जकर मौलिकताक संपूर्ण उत्तरदायित्व लेखक गणक मध्य छन्हि) ggajendra@yahoo.co.in आकि ggajendra@videha.co.in केँ मेल अटैचमेण्टक रूपमेँ .doc, .docx आ’ .txt फॉर्मेटमे पठा सकैत छथि। रचनाक संग रचनाकार अपन संक्षिप्त परिचय आ’ अपन स्कैन कएल गेल फोटो पठेताह, से आशा करैत छी। रचनाक अंतमे टाइप रहय, जे ई रचना मौलिक अछि, आऽ पहिल प्रकाशनक हेतु विदेह (पाक्षिक) ई पत्रिकाकेँ देल जा रहल अछि। मेल प्राप्त होयबाक बाद यथासंभव शीघ्र ( सात दिनक भीतर) एकर प्रकाशनक अंकक सूचना देल जायत। एहि ई पत्रिकाकेँ श्रीमति लक्ष्मी ठाकुर द्वारा मासक 1 आ’ 15 तिथिकेँ ई प्रकाशित कएल जाइत अछि।
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"भालसरिक गाछ" Post edited multiple times to incorporate all Yahoo Geocities "भालसरिक गाछ" materials from 2000 onwards as...
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जेठक दुपहरि बारहो कलासँ उगिलि उगिलि भीषण ज्वाला आकाश चढ़ल दिनकर त्रिभुवन डाहथि जरि जरि पछबा प्रचण्ड बिरड़ो उदण्ड सन सन सन सन...
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खंजनि चलली बगढड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरली अपन वस्तुलक परित्याकग क’ आनक अनुकरण कयलापर अपनो व्यिवहार बिसरि गेलापर व्यंपग्यय। खइनी अछि दुइ मो...
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