भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति
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Thursday, July 17, 2008
पेटार ८
निषेधाज्ञा
हे हमर मालिक परवरदिगार।
अहाँक आज्ञाक अक्षरशः पालन करैत
डिगडिगिया पीटबा दैलिऐ’ए
बसन्त आबि गेलै’ए। सभकें
सामूहिक वसन्तोत्सवमे अनिवार्यतः भाग लेबहि टा पड़तै
सरकारक हुक्मउदूली कर’बलाकें
एकेटा बस एकेटा उपहार भेटतै
ई ओकर अन्तिम बसन्तोत्सव हेतै
मालिक, अपनेक आदेश आ पालन नहि हो। ई
आठम आश्चर्य हेतै, तैं त’
लोककें बुझा देल गेलै’ए
सभकें मस्तीमे झूमि-झूमि
फाग आ जोगीड़ा गएबाक छै
घ’र-आँगनमे नहि, शहर आ बाजारमे
राजपथ पर टोलीमे बँटि क’
रंग-अबीर खेलएबाक छै, कि
सरकारक रथ बहराइत त’ ओकर चक्का
रंग-अबीरक दलदलिमे
दच द’ फँसि जाइक
सरकारक ठोर पर मुस्की लहरा जाइक...
श्रीमान्, अपनेक आदेश
ककरा अनसोहाँत लगतै
जान छै, जहान छै
एखनो जीवन भार नहि भेलै’ए
कथीक कमी छै? जँ
दू पाइ बेसिये लगलै त’ की भेलै
एखनो दूध-दही भेटिए जाइ छै
घी’क बदला डालडासँ काज चलिए जाइ छै...
सत्ते कहै छी, सरकार
अपनेक कृपा छै। एक बेर जँ
कनडेरियो देखि लेबै
जीवन धन्य भ’ जेतै!
मालिक, विश्वास कएल जाए
ई मुँहदेखल बात नहि, कि
अहाँ मुस्काइ छी: चाउरमे आगि लागि जाइ छै
अहाँ मुस्काइ छी: गहूमक लहलहाइत खेत झरकि जाइ छै
अहाँ मुस्काइ छी: सरिसो की रैंची की तीसी अकास चढ़ि जाइ छै
अहाँ मुस्काइ छी: मटिया तेल अपनहि लहकि जाइ छै
अहाँ मुस्काइ छी: बाँगक खेती सुड्डाह भ’ जाइ छै
अहाँ मुस्काइ छी: गाड़ीक पहिया जाम भ’ जाइ छै
अहाँ मुस्काइ छी: हमर दाम्पत्यमे दरारि फाटि जाइ’ए
सरकार, अहाँक एकटा मुस्की
अरब-खरबसँ बेसी महत्त्वपूर्ण अछि
सरकार, अहाँक एकटा मुस्की
अखबारक सुर्खी बनै’ए
सरकार, अहाँक एकटा मुस्की पर
कुर्बान अछि करोड़ोक देश-दुनियाँ...
गरीबनवाज, मुदा, माफ कएल जाए
एकटा खानगी बात
कठोर आ चिन्तनीय बात जे
कहितहुँ नहि बनै’ए आ
नहि कहनाइयो अपराधी बनबै’ए
आइ-काल्हि एना बताह जकाँ
पछबा किऐ लपटै छै?
आर किछु नहि त’
खढ़-पात खराइ छै
नाँगट गाछक सुखाएल ठारि सभ
एक दोसरसँ टकराइ छै
सत्ते कहै छी मौसमक एहि अक्खड़पनीक
किछु लोक लाभ उठा सकै’ए
से दियासलाइ किनबाक साहस क’ सकै’ए
मालिक, हम नमकहराम नहि छी
एकटा निवेदन
अपने आदेश जारी कएल जाए
पछबाक लपटब पर प्रतिबन्ध लगा देल जाए
मालिक, परवरदिगार! बस
इएह टा उपाय रहि गेल’ए आब
एक्के टा, इएह टा।
आगिक बेगरता
ओहि दिन की भ’ गेल रहै, की ने!
अहाँ बियनि हौंकैत रहि गेल रही
चूल्हिकें ऊपर-नीचाँसँ फुकैत रहि गेल रही
गोइठा-खुहरी कोंचैत रहि गेल रही...
अहाँ अपस्याँत भ’ गेल रही।
आगि पजारबाक अपन अगुताइमे
बेहाल अहाँ अँगनासँ बहरा क’
भरि गाम बौआएल रही। मुदा,
एकटा बात कहू
एहनो त’ होइ छै जे
पझाएल छाउरमे
करचीक कने टा टुकड़ी किम्बा
गोइठाक मिसिया भरिक खण्ड
जरिते रहि जाइ छै
एकटा जीवित अग्नि-पिण्ड...
अहाँ से कहाँ तकने रहिऐ?
चूल्हिमे भरल छाउर कहाँ उधेसने रहिऐ??
सत्ते कहै छी
अहाँक अगुताइ आ भरि गाम फिफिआएब
हमरा कनियों नहि सोहाएल रहए। ओना,
एहनो त’ होइ छै जे कतेको बेर
ककरोसँ माँगि क’ आनल आगि
चूल्हि धरि जाइत-जाइत मिझा जाइ छै, आ तखन
कते दुख आ तामस उठै छै! सत्ते
आगि त’ आगिये थिकै आ
आगिक बेगरता आन कोनो विकल्पसँ
कोना पूरा भ’ सकै छै!
निज संवाददाता द्वारा
1
सेवामे श्रीमान् सम्पादक महोदय, हुजूर!
एम्हर त’ बरोबरि इलाकाक खबरि छपिते रहलैक अछि
राम बाबूक गाछीक नहि मजरबाक समाचार
बाबू साहेबक महीसकें एक्के संग सात गोट पड़रू होएबाक
दरोगा साहेबक तुलसी सुखएबाक समाचार...
सभटा छपैत रहलैक अछि हुजूर!
रेलवेसँ सोलह आ सड़कसँ बारह मील दूर
नदी आ पहाड़ीक बीच बसल एहि इलाकाक
एहि गरीब संवाददाता पर अपनेक विशेष कृपाक
कोना बखान करी-- अवगतिए की?
मुदा, आजुक समाचार त’
अद्भुत अछि अजगुत अछि। एहन खिस्सा
ने कहियो देखल ने सुनल अछि
श्रीमान् कृपा करबै
एहि समाचारकें पहिले पन्ना पर स्थान देबै
नीक जकाँ देखि सुनि
दू काॅलम की तीन काॅलममे
मोटका-मोटका पैघ-पैघ अक्षरमे एकर शीर्षक देबै।
हुजूर, एहि समाचार पर
अपने गाम-घरक
जिला जयबारक बुझि ध्यान देबै!
2
तहिया सौंसे इलाकामे खलबली मचि गेल रहै
एहन विशाल हाथी आइ धरि ने क्यो देखने रहए, ने सुनने रहए
बूढ़-बूढ़ानुसक कहब छनि
रामपुरक बाबू साहेब किम्बा राजपुरक राजा किम्बा
हमरा लोकनिक महाराजोक हथिसारमे
एहन ऐरावत-सन हाथी नहि छलनि। मुदा
से त’ खिस्साक पेनी थिक! बात शुरू होइ छै कि
रजोखरिक पहाड़ सन महार पर ई हाथी
कहिया आ कोना अएलै आ अबिते तुरन्ते किऐ मरियो गेलै
इएह त’ प्रश्न छै जकर थाह-पता ककरो नहि छै
मामिला गम्भीर छै! सत्ते रहस्यक पर्दा बड़ मोट छै।
मुदा, हुजूर सम्पादक महोदय!
एकरा बाद बात आरो बढ़ै छै
प्रेत-लोकक खिस्सा जकाँ रहस्य-दर-रहस्य बनै छै।
हाथीक लहास पर
पहिने एकटा गिद्ध फेर अगिला दिन दोसर गिद्ध खसल रहै। से
पहिलकें दोसर आ दोसरका कें पहिल एकदम्मे नइं सोहाएल रहै, कि
अपन-अपन पाँखि सम्हारि लोल आ चाँगुर पिजबैत
एक दोसरा पर टूटि पड़लै! आ तै खन
देश भरिक गिद्ध दू दलमे बँटि क’
रजोखरिक पहाड़ सन मोहार पर आबि गेल।
युद्ध घमासान रूप लेलक
गिद्ध सभ मरैत रहल-मारैत रहल
मुइल हाथीक देह पर एक लोल मारि
अपन-अपन प्रतिद्वन्द्वी पर टूटैत रहल।
एकटा रहस्यक पर्दा उठैत नहि छै कि दोसर रहस्य जनमैत छै। आ
एहने समयमे एकटा बुढ़िया रजोखरिक पहाड़ सन मोहार पर
पहुँचल, श्रीमान्! आ,
जे बात ने देखल छल ने जानल
ने बूझल छल ने सूनल से इएह थिक कि
बुढ़ियाक मुँहमे तीने टा दाँत छलै
तीनू सुल्फा सन मुँहसँ एक बीत बाहर धरि लटकल
लोकक पैरमे जेना बगुलबा काँट गड़ै छै, तहिना
कोनो वस्तुमे धँसै छलै
दू टा दाँत दुनू गलफरसँ आ
एकटा सोझाँसँ बहराएल छलै। से,
हुजूर, श्रीमान् देखि-देखि लोककें त्राटक लगै छै
बुढ़ियाक आगमनसँ दुनू बुढ़बा गिद्धक चेहरा पर मुस्कान अएलै
ओकर अगवानीमे किछु काल लड़ाइ रोकि देल गेलै।
गिद्ध सभ बाट देलकै। बुढ़िया हाथी धरि गेल
हाथीक लहासमे अपन सुल्फा सन दाँत गड़ौलक
बु़िढ़याक आकृति हरियर भ’ अएलै, कि तै खन
गिद्ध-संघर्ष फेर शुरू भ’ गेलै।
3
बस! एखन त’ एतबे समाचार अछि, आगू
गिद्ध सभक आपसी संघर्ष जारी छै, हुजूर!
गलती-सलती माफ करबै
अशुद्धकें सुधारि क’
समाचारकें बड़का-बड़का मोटका शीर्षक द’
पहिले पन्ना पर सजा क’
छापि देबै, श्रीमान्
रहस्यकें सार्वजनिक बहसक विषय बना
समाधानक सार्वजनिक उद्योगक दिशामे
इलाकाक जनताक उपकार कएल जाए, श्रीमान्! जत’
गिद्धक संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़िते जा रहल छै, हुजूर!
एकटा युद्धक तैयारी
पिता, हम घुरि आएल छी। हमरा
कतहु किछु नहि भेटल। एक हाथमे
ह’रक लागनि आ दोसरमे पेना नेने
नासिकाग्र पर जमल पसेना बुन्नवला
अहाँक आकृति नहि बिसरि सकलहुँ। नहि बिसरि सकलहुँ
मेघडम्बर तर बिताओल गेल जेठक दुपहरिया।
मोने अछि आहिना
कोना कोना अहाँ बबूरक गाछ कटैत गेलहुँ आ
फेर कोना कोना ओ उगैत रहलै। बगुलबा काँटसँ घेरल
गाम स्वतन्त्रा नहि भेलै।
गामक मुखियाक चाँगुर बड़ चोखगर छलै आ अहाँक
आकृतिकें कैक ठाम ने छीलि देने रहए। तहिया
हम नेना रही आ
हमर तामसकें नेनपनीक संज्ञा द’ देल गेल रहए।
मोने अछि
पच्चीस वर्ष पहिने अहाँ बाजल रही
ई सपना हमर नहि थिक। ई आकास हमर नहि भ’ सकै’ए आ
मुखियाक समधानल चाट अहाँक गलफर पर बजरल रहए कि
छट द’ बारह टा दाँत मुँहसँ छिटकि गेल रहए।
ओलतीमे पसरल खून पर माछी भिनकैत रहलै।
सत्ते कहै छी
जमल आ सुखाएल खूनक कारी रंग नहि बिसरल छी। मुदा ओ रंग
हमर कवितामे नहि आएल। नहि आएल हमर कवितामे
अहाँक दाँतविहीन मुँहसँ बहराएल चीत्कार। अहाँक मसकूरसँ
उठैत रक्तक फब्बाराक एक्कोटा बुन्न
हमर कविताक कापी पर नहि खसल।
तैयो, अहाँ कें बड़ आशा रहए
हुनक माँसल तरहत्थीक स्पर्श हमरा सुख देत। मुदा
से नहि भेलै। हुनक
एकटा हाथ कोमल आ दोसर बघनखा बला रहनि।
हुनक स्नेहक गवाही हमर पीठ पर भेटत अहाँकें। हमर
आँतकें ओ ताँति बना क’ छोड़ि देने छथि, पिता!
मुदा, तैयो
हमर आँखिसँ लुत्ती नहि बहराएल। हमरा सोझाँ
अहाँक दाँतविहीन मुँहसँ बहराएल चीत्कार नचैत रहल। ई
हमर सभसँ पैघ गलती रहए, पिता!
आ, आब किछु नहि चाही, मात्रा
भूमिस्थ भेल अहाँक ओ बारहो टा दाँत आ कंकाल भेल आकृति।
अहाँक नरकंकालकें पीठ पर लादि बारहो टा दाँतकें हथियार बना
एकटा युद्ध आरम्भ करब, कि
मृत्युक उपत्यका ई देश हमर नहि भ’ सकैछ
महा-श्मशान बनल ई देश हमर नहि भ’ सकैछ
जल्लाद सभक ई देश हमर नहि भ’ सकैछ
जोआन आकृतिकें तेजाबसँ जरा देब’वला ई देश हमर
नहि भ’ सकैछ
ई देश हमर नहि भ’ सकैछ, पिता!
पूर्णेन्दु चैधरी
चारि गोट कविता
1
हमर अहाँक पाँच बर्खक
प्रेमक उपलब्धि --
अहाँ दू बच्चाक
माइ बनि गेलहुँ
आ, हमर सभटा केश पाकि गेल।
2
गाल पसेनासँ छनि भीजल,
जेना, शीतसँ
गुलाब फूल रहैत अछि तीतल
3
खुलल केश आ
पसेनासँ भरल चेहराक बीच
ठोप चमकि रहल छनि
जेना भोरुकबा उगि आएल हो
4
सम्भव जे आइ ककरो पर ठनका खसैक
ओ पान खा क’
जा रहलि छथि साँझ देब’
शिव मन्दिर।
स्वार्थक शुभ-लाभ
कोन-कोन झाड़ि-बहारि क’
घरकें करै छी साफ
बाहरक अन्हारकें भगब’ लेल
जरबै छी दीपमालिका
शुभ-लाभक लेल करै छी अर्चना
मुदा,
हम सभ अपन हृदयमे
लागल रह’ दै छी झोल-झंखार
मोनमे रहैत अछि गुज्ज-अन्हार
स्वार्थक शुभ-लाभक करै छी सर्जना।
महेन्द्र
बहुत अछि अपना लेल...
ओरिया क’ राखू
पा भरि दूध/एक कनमा घी
थोड़बो मूंगक दारिम
सरिया लिअ’...
अपना लेल तँ नून आ
पियाजुक फाँके बहुत अछि
जीवन खेप’ लेल
एहिसँ फाजिल आर की चाही
आर की चाही
पसिन्जर ट्रेनक टिकटक दाम
बटखर्चामे थोड़ेक सातु आ नोन
आ तकर बाद...
घण्टा-घण्टी पीबा लेल पानि
पानि आ पानि बस...
पानिक स्वाद जँ नीक नहि लागए मीत!
तँ पुनः कण्ठ तर उतारि लेब
चुटकी मरि सातुक घोर
आ पहुँचि जाएब
अपना देशक कोनो नगर वा महानगरमे
जत’ मजूरी करैत अछि
अहाँक आँखि/अहाँक लाठी
माइक ममता आ पुतहुक सोहाग...
तें फेर कहै छी मीत!
ओरिया क’ राखि लिअ’
पा भरि दूध/एक कनमा घी
थोड़बो तोड़ी-सरिसबक साग बस...
अपना लेल तँ
नून आ पियाजुक फाँके बहुत अछि
बाट अछि निस्तब्ध...
एहि बाटें आएल रहथि कहियो
सुरम्य घाटीक एकटा प्रफुल्लित राजकुमार
माथ पर मौर कानमे कुण्डल
राजसी पोसाकसँ गतानल/चमकैत
सौंसे देह
गर्दनिमे झुलैत रंग-विरंगक
चिन्हार-अनचिन्हार मणि माणिक्यक माला
आपादमस्तक टप-टप चुबैत कान्तिक कलाकार
एही बाटंे
एहि दूभि पर बाटें चल गेल रहथि ओहि दिस
आ बसातक संग पसरि गेल रहए
नाना प्रकारक इत्राक सुगन्धि
अप्रत्याशित अलौकिक
एही बाट पर धरोहि लागल हाँजक हाँज गामक लोक
पछोर धएने रहए
लाल पीयर हरियर पताका चमकबैत
अन्हरिया-इजोरियाक
बिनु परवाहि कएने चलैत रहए
राजकुमारक देहमे औंसल
इत्रा-फुलेलक सुगन्धिक पाछाँ
कोसक कोस दुलकैत रहल
एही बाटें
आ ई बाट पड़ल-पड़ल सुनैत रहल
दुलकल जाइत लोकक पग-ध्वनि
सतुआक सोन्हगर गन्धक संग
फुटहाक चर्वणी चिन्हैत रहल
ई बाट!
सुरम्य घाटीक कान्तिमय राजकुमारक प्रतीक्षामे
पड़ल-पड़ल घटा लेलक अपन ओजन
निस्तब्ध, निरुत्तर
ई बाट
आ ई बाट
अनुभवैत अछि राजमहलक खालीपन
पिताक निस्तेज आँखि
माइक ममताक सुखाएल खेत-खरिहान
तृषित तकैत अछि
अभिसप्त दरबज्जा
बिनु बाहरल आँगनक कोन-कोनमे जनमल
अनेरुआ घासक जंगल
ई बाट
प्रतीक्षा करैत-करैत सुटका लेलक अछि
अपन काया
तथापि निरास नहि अछि बाट
स्तब्ध अछि
खाली स्तब्ध...
समय
समयक बसातमे
पसरि रहल अछि एकटा अप्रत्याशित गंध
बिर्रो जकाँ घनीभूत भ’ रहल अछि
रंगक समय
दरकि रहल-ए लगातार
अपन ‘रेकार्ड’ कएल भाषण पर
प्रतिबन्ध लगाउ
गीत अप्रासंगिक अछि
कतेक घोसब ओएह पुरनके शब्द
पुरनके वाक्यकें कहिया धरि उघैत रहब
कहिया धरि मठाधीशक पाँतिमे रहब ठाढ़
विराम लगाउ। आब’ दियौ नवजीवनकें आब
समुद्रक लहरि अपन मूड़ी उठौने
कड़गर बरखाक संग
ल’ क’ आबि रहल अछि
अस्त-व्यस्तताक सनेस
कोकनल गाछक टूटल डारिसँ
कहिया धरि बचब मीत!
चेतू...! आब’ दियौ नवका समयकें...
नखदर्पण में नित्तह
लाल कका भोरे भोर
वक्रतुण्ड महाकाय... आ
कराग्रे बसते लक्ष्मी.... क मन्त्रासँ
वातावरणकें सिक्त करैत
देखै छलाह दुनू हाथक रेखामे
अपन गामक चैहद्दी
खेतक आरि। लाल कका
आरिसँ घेरल अपन चासक उपजाक
स्मरणार्थ पसारैत छलाह तरहत्थी
हाथकें निहारैत
उठि जाइ छलाह ओछाओनसँ--
लाल कका नखदर्पणमे
अपन भूत, भविष्य, वत्र्तमानकें
देखैत प्रसन्न भ’ उठै छलाह भोरे भोर
लाल कका
चैंकि उठै छलाह
आन्दोलित आँगनक अधोखी लग ठाढ़ि
पुतहुक मुँहसँ बहराइत अवाच्य कथा
तीर जकाँ आहत मोनकें
लाल कका सम्हारैत
हाथकें झाँपि लै छलाह ओढ़ना तर
आ मेटा दै छलाह हाथक रेखा
बिसरि जाइत रहथि वक्रतुण्ड... आ
कराग्रे... सन सन समृद्धिक मन्त्रा
बिसरि जाइ छलाह
अपन अतीत
अपन भविष्य
आ वत्र्तामानक संग समझौतामे
जुटि जाइ छलाह
बेचारे लाल कका नित्तह
अन्हारक अन्हार...
सेहन्ताक
लाल सुरुज
उगिते
अन्हार घरक
फाँक बाटे
पैसि गेलै
लालरंग आ
निर्वस्त्रा
क’ दैलकै
नुकाएल
मोनक अहिबात
ओकर दीपकें
देखार करैत
चढ़ि गेलै
माथ पर
सेहन्ताक जीवन
डूबि गेलै
अन्हारक अन्हार
आब ओकरा
खूब
सोहाइ छै।
ललितेश मिश्र
एकटा जारज युद्ध
महाशक्ति, महिषासुरमर्दिनी ठाढ़ि छथि!
अप्रतिभ, खलखल हँसैत,
हाथमे तरुआरि नेने
महाशक्ति ठाढ़ि छथि!
आ’ हमरा लोकनिक पूर्वज
बिलखि रहलाह अछि अनवरत
अपन सभटा राग-विराग
नीक अधलाहकें मोनहि मोन समेटने
क’ रहलाह अछि गोहारि...
--रूपं देहि, जयं देहि, यशो देहि, द्विषो जहि ...
भगवती -- महामाया छथि क्षुब्ध
होम’ लगैत अछि बरखा
शीत ताप नियन्त्रिात बालु पर
जयन्ती बढ़’ लगैत अछि।
आ हमर पूर्वज लोकनि, आबालवृद्ध
क’ रहलाह अछि अश्रुपात।
क्षुब्ध आ विस्मित
हाथमे तरुआरि नेने ठाढ़ि छथि
आदिशक्तिक भग्नावशेष!
विस्फारित नेत्रासँ तकैत महामाता
सँ मधु-कैटभक जारज पुत्रा--
हमरालोकनि, भोग-लालसासँ
माँगि रहल छी
सत्ता, राशन आ बलात्कारी बल
अणु आयुध आ छल...
महाशक्ति-आद्या ठाढ़ि छथि
क्षुब्ध आ विस्मित
हमरा लोकनि पुनः पुनः चिकरैत रहि
जाइत छी--
--या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मी... निद्रा... शक्ति रूपेण संस्थिता...
नहि झहरैत अछि आब बरखा
अविश्वस्त जारज सन्तान,
हमरा लोकनि सदलबल तोड़’ लगैत छी
खण्ड-पहण्ड!
नियति
आब हमरा आँगनमे
नहि झहरैत अछि सिंगरहारक फूल
डबरिआएल भदबरिया मेघ...
नहि पसरैछ
भनसाघरक चूल्हिसँ बहराइत
कोनो सोन्हगर गन्ध
कोनो सृजनरत स्त्राीक आँखिसँ
कोनो अर्थ, कोनो संगीत--
वयसक एहि दुर्गम पहाड़ पर
चढ़ैत-चढ़ैत हम भ’ गेल छी
सर्वथा क्लान्त
जीवन सन्ध्यामे हम
भेल छी झूर-झमान!
अनायासहि प्रारम्भ भेल
एहि जीवनयात्रामे हमरा लोकनि
प्रत्येक क्षण तकैत रहलहुँ अछि
कोनो सार्थक नाम
कोसिकाक दर्द, अन्हारमे डूबल अपन
गाम ओ खरिहान...
भ्रान्त इच्छा ओ आकांक्षाक
एकटा समुद्र बनल एहि जीवनमे
नहि भेटल अछि कहियो कोनो अर्थमय संगीत
अनिश्चिततासँ त्राण
कालजयी जीवन प्राप्ति हेतु
अनावश्यक ओ सार्थक वितान
भ’ गेल अछि साँझ!
एकटा भ्रान्त संकल्प
कतोक बर्खसँ
अपन पीठ पर
दुःसाध्य व्रणक पीड़ा भोगैत
हेंजक हेंज लोक लेल
आब के करतै ओगरबाही
के देतै आहुति?
दूइ धूर घराड़ी आ
थोड़ेक आन कोनो ‘आफियत’ लेल
आब तँ हमरे घर पैसल अछि हाहुति...
नित्य प्रति हम आँखि-कान बन्न कएने,
पढै़त छी अखबारमे भूख आ ठण्डसँ मृत्यु
रोग आ आण्विक युद्धक समाचार
उद्वेलित आ चिन्तित नहि भ’
कोनो निसाँमे मातल
हम चलि पडै़ छी धारक कात
मन्द धारक प्रवाह
आ कुन्द भेल हमर गतिशीलता
उपस्थापित करैछ एक गोट वैचारिक द्वन्द्व
जे थोड़बे रास स्वच्छ बसातक अन्वेषणमे,
अपन दीन-दुनियाँ ठीक करबा लेल
हम ढाह’ चाहै छी छत आ देबाल
मुदा, निष्क्रियता आ
उद्देश्यहीनताक दबावमे जकड़ल
प्रतीक्षारत रहि जाइत अछि हाथ
ओना, आँखि-कान मुनने
हम पढै़ जरूर छी,
सभटा समाचार!
मिथ्या परिचय
हमरा लोकनि
आन्हर नहि होएबाक भ्रमकें
सत्यापित करबा लेल
पीढ़ी-दर पीढ़ी
चूसैत जाइत छी
एक दोसराक रक्त ओ चाम
फल लोकैत छी हम
जाहि लेल बहैछ
दोसराक ऊष्ण भेल शरीरक
पसेना वा घाम...
अन्ध होएबाक अनिवार्य नियतिकें
खण्डित-विलोपित करबा लेल
एकटा मिथ्या परिचय प्रस्तुति लेल,
डूबैत-उतराइत छी
पोथी-पतराक शब्द-जालमे
तीर्थ-दान-व्रतक अनन्त
सिलसिलामे...
कठिन बनल ई सत्यापन अछि मुदा विभ्राट
सत्य अछि एतबे
जे अर्थ, स्वार्थ संकुल
हमर मनुष्यताक
भ’ गेल अछि उच्चाट
कामना गीत
रोगग्रस्त भेल हमर शब्दसँ
नहि निकलैत अछि आब
कोनो अर्थमय संगीत
नहि ध्वनित होइछ निर्झरिणीसँ
राग भरल गीत
पटल अछि ई दुनियाँ
अनेक प्रकृतिक लोकसँ
हिंस्र बनल लोकक दुनियाँमे
जत’ कतहु बाँचल अछि
ऊर्वर, शस्य श्यामल धरती
ओतहि संग्रहित होइछ ‘पावडर केग’
संयमित करबा लेल
अपन जीवन डेग
हम अपन आँगुरसँ कौखन
लिखै छी
‘मन्दाकिनी’क पारदर्शी वक्ष पर
एक गोट कामना गीत...
अस्तांगत ओ निस्तेज होइत
ताराक मध्य
स्खलित ओ रिक्त भेल रातिक पश्चात
कखन होएत प्रात
सूर्य पिण्डक आलोकसँ
ऊष्णित होएत कहिया
जीवन-प्रकृतिक गात।
विभूति आनन्द
एहि तरहें अबैत अछि भोर
सिरमामे आबि क’
बैसि गेल अछि उजास
खिड़की पर फुदकि रहल अछि फुद्दी
आ हम
भोरका सपनाक संग मस्त छी
सिरमामे बैसल उजास
उबिया क’ बजा अनलक अछि रौदकें
ओ हमर दिनचर्यामे
सेन्ह मार’ चाहि रहल अछि
आ हम
अपना भीतर अनुभव कर’ लागल छी
कोनो तेज बरछीक प्रहारकें
सिरमामे बैसल
उजासक संग रौद आब
ठीके बरछी सन भ’ गेल अछि
आ हम
अपन रोगग्रस्त पिता जकाँ
कछमछ कर’ लागल छी
ठीक एही कालमे
चोर-पैर संगंे अबैत अछि
हमर छोटका बेटा गप्पू
आ हाथमे रखने सलाइक काठीसँ
दिक करब शुरू कर दैत अछि
हमर कानकें...।
अन्ततः हमर आँखिक पल
फुजि जाइत अछि, आ ओ
भभा क’ हँसैत पड़ा जाइत अछि
हम अपन आँखिक कडु़आहटिकें
तरहत्थीसँ दुलारैत छी
आ खिड़की पर बैसल रौद आ चिड़ैसँ
गप कर’ लेल बढ़’ लगैत छी
नीचाँमे बैसलि माँ
चूल्हि महक छाउरसँ
चिनगी बीछि रहल छथि
आ कुमारि बसात
हमर त्वचाकें दुलरा रहल अछि
धनछूहा
आवश्यक अछि जीहमे स्वाद
आँखिमे दृष्टि, आ
मोनमे उत्साह
मुदा आवश्यक अछि
ताहि लेल ओकरा पढ़ब
पढ़ि क’ गूनब
गूनि क’ किछु डेग उठाएब
ताहिसँ पहिने, कि
हम सभ बन्हकी बना लेल जाइ--
आवश्यक अछि
दुनियाँ भरिक तमाम सियासी माथापच्चीकें
परखि क’ तय करब एक सुगठित सोच
एहि लेल
आवश्यक अछि इंधन
कम्प्यूटरीकृत आँकड़ा
आ उदार ग्लोबल अर्थव्यवस्थाक बीच
मिझा ने जाए ई इंधन
आवश्यक अछि एकरा पजारि क’ राखब
धनछूहा इंधन ल’ क’ आबि रहल अछि
इंधन ल’ क’ भागि रहल अछि धनछूहा
विडम्बना
हम अपनहि भीतर दौगि रहल छी --
गाममे पहिल बेर आएल
पेट्रोल-गन्ध सुँघबा लेल
दलानसँ अबैत
दादाक कण्ठसँ प्राती छनबा लेल
एकक आह पर तबाह
पूरा गामक प्रवाह देखबा लेल
सोहरसँ निर्गुण धरिक
सम्पूर्ण यात्रा गुनबा लेल
बहुत नीक लागल रहए
गाममे चरिपहिया गाड़ीक आएब
नीक लागल रहए जे
आस्ते-आस्ते गाममे पक्की सड़क
पहुँचि रहल अछि भीतर धरि
मुदा ई नहि बुझि सकल रही, जे
एक दिन एही सड़क द’ क’
हमर अपन गामसँ गाम भागि जाएत
ल’ जाएत भगा क’ हमरो, आ
बहुत सहजतासँ
स्मृतिमे सिहरबा लेल छोड़ि जाएत
तैयार अछि पृथ्वी
बहुत दिनुक बाद
भरल मेघ नीचा आएल अछि
रभसल अछि पृथ्वी
‘स्टेपिंग’ लेब आरम्भ क’ देलक अछि
एहि सोन्हगर सुगन्धित संसारमे
नृत्यक पाहुन भाव
ग’ब बनबा लेल आतुर अछि
ह’र-बरद कोदारिक संग
बालिग भेल धानक खरुहनि
पानिक संग फाड़ आ खूढ़क संगति
बिलह’ लागल अछि ‘छप-छप’ संगीत
संस्कार-पर्व पर पुलकित अछि
सुखाएल-सिरसिराएल हरियरी
ग’बक आतुरता देखि
डेराएल खेत सिहरि रहल अछि
तथापि, नहि जानि किऐ
जननी हेबा लेल
विकल लागि रहल अछि पृथ्वी
बहुत दिनुक बाद
भरल मेघ नीचा आएल अछि
उदासमना पृथ्वी
फेर मदिराएल अछि...
इच्छा
चाहैत छी
जाड़क एहि लजकोटर रौदकें
आँखिमे पकड़ने रही एहिना
जिह्ना पर आर किछु नहि रहए
अतृप्त पियासक अतिरिक्त
चाहैत छी
भाफ छोड़ैत चाह आ
मुँहसँ बहराइत गर्म साँस--
दुनू मिलि सिरजय
उत्तमसँ उत्तम कोनो स्वाद
मुड़ेर पर बैसल परबाक जोड़ा
स्पर्श करैत एक-दोसरक शरीर
बतियाबए
अपन-अपन लयमे सुख-दुख राग
आ हम
निन्न बेचि क’ स्वप्न कीनैत भेटी अनवरत
चाहैत छी
जखन-जखन बाबी गाबथि प्राती
आ साँझ पूजथि दीदी
तखन-तखन
हुनका लोकनिक एहि विश्वास पर
फेकी भोरक ई आँजुर भरि रौद
आ बुझाबी, जे
जाड़क चन्द्रमा नहि थिक अहाँ सभक जिनगी
आ नहि तँ
एकर सर्द इजोरिये थिक अहाँ सभक नियति
चाहैत छी
खूब-खूब नहि कानए सूर्य
सूर्य तपैत भेटए बसात
धुनियाँ जेना धुनि-धुनि क’ उड़ाओल करैए रूइ
जत’ तत’ थम्हल-उड़ैत देखी कुहेस
दाँतसँ कटकट संगीत बहराए
घरे-घर अगियासीक लिलसा होइ
आ हम
आकाशसँ सहयोगक अपेक्षा करैत भेटी--
भरि देह रौद...
देह भरि रौद...
रौदे-रौद
हाक
गजपट भ’ रहल अछि जीवन-शिल्प
प्रमाद आ अवसादमे
शक्ति-परीक्षण भ’ रहल अछि
क्यो हमरा जेना हाक द’ रहल अछि
हाट-बजारक गहमागहमी अछि
कतहु कलम बिका रहल अछि
कतहु मरौसीक नीलामी चलि रहल अछि
क्यो हमरा जेना हाक द’ रहल अछि
हमरा एकटा बान्ह चाही
हमर आँजुरमे रौदी अछि
बाहर
दाहिए-दाही अछि
आँखि-आँखिमे रोपल जा रहल अछि सपना
आ कलबले तितली-वंशक
पाँखि छपटल जा रहल अछि
क्यो हमरा जेना हाक द’ रहल अछि
गाछ-गाछसँ
पीयर पात सभ तूब’ लागल अछि
पलकक नीचाँ
अचरज गुजगुजा रहल अछि
ढलान पर उड़ियाए लागल अछि
योजना सभक फाहा
तथापि, वसन्त आबि रहल अछि
क्यो हमरा जेना हाक द’ रहल अछि
खुट्टासँ बान्हल बरद
कौआसँ खोधबा रहल अछि रीढ़
मुनहरमे सूड़ा,
आ खेतमे कीड़ा पोसा रहल अछि
क्यो ड्योढ़ीसँ हुलकि क’
माँगि रहल अछि आँगन
आ हम एक अजाएब सन
पदचाप अनुमानि रहल छी
क्यो हमरा जेना हाक द’ रहल अछि
शताब्दी आइ
मुँह लटकौने ठाढ़ अछि
विलुप्त होएबा लेल तत्पर अछि
अपेक्षाक संस्कृति
बहुत मश्किल भ’ रहल अछि
मित्राक स्नेहकें बुझनाइ
शत्राुक प्रार्थनाकें समझनाइ
संगहि संग
इमानदारीमे बुधियारीकें परखनाइ
मोहक त्याग केनाइ तँ
किछु एहन सहज भ’ रहल अछि
जे नोर खसएबाक
पलखतिए नहि भेटि रहल अछि
हास्यास्पद ढंगसँ
बिलख’ लागल अछि निर्भीकता...
तथापि कनी बिलमि जाउ प्राण!
मोनक आँगनमे
निरन्तर शेष रहि रहल अछि
जीवनक संगीत
क्यो हमरा जेना हाक द’ रहल अछि
हरे कृष्ण झा
जिमूतवाहन
अपना डीह परसँ निकली हमरा लोकनि
कि बहराइ अपन गामक सिमानसँ,
तखनहि टा मूड़ी हमरा सभक कटि क’
झाँपल रहल लाल पीयर साड़ी तर
जितियाक डाला पर,
से कोनो जरूरी नहि छै
कोनो टा जरूरी नहि छै से।
कोठलीमे रहितो,
जागल कि सूतलमे,
नहाइत कि खाइत काल,
कि अपन बच्चाकें कोरामे खेलबैत काल
से भ’ सकैत अछि।
बसातमे भाला चलैत रहैत अछि सदरि काल,
रौदमे फरसा चमकैत रहैत अछि,
अन्हारमे अंगोर बरसैत रहैत अछि।
भादबक राति
हमर अहाँक माइ
आँखियेमे काटि दै छथि...
मुदा डाला परहक जाहीजूही
भगवतीक सीरेमे झरकि जाइत अछि,
एकरंगा कपड़ा खकस्याह
भ’ जाइत अछि।
एक चुरू पानियो धरि
पिबै नहि छथि हमर अहाँक माइ
चैबीस कि छत्तीस घण्टा धरि;
मुदा जे भँगै छी डाला परहक नारिकेर
हमरा सभ अगिला दिन,
से उजरा फ’रक बदलामे
बहराइत अछि तेलिया साँप
ओहिमेसँ।
कतए छथि जिमूतवाहन,
कतए छथि?
अकाजक काज
चोरा क’ देखै छी गेनाक फूल
पूस मासक रौदमे!
चैदिस चकुआइत,
अधे-छिधे,
अझक्के,
कहुना क’ बस
देखि टा लै छी
हजारी गेनाक
सन्तोला रंगक फूल!
छाउर
छिटबाक अछि
गहुमक खेतमे;
अहगर क’ पटेबाक अछि आलू
कमठानक बाद;
माघ चढ़बासँ पहिनहि
अँटियेबाक अछि नार
टालक लेल।
तुराइक लेल
जुगता क’ राखल टाकासँ
हुनका लेल दम्माक दवाइ
किनबाक अछि;
कण्टिरबीक गरम कपड़ा
कें अनठा क’
दरोगाक हाथ गरमेबाक अछि,
दियादी कुन्नहमे भेल मोकदमा
कें हलुकेबा लेल।
सन्तोलाक रस
मेह धरि उछलैत अछि
खरिहानमे
माथ आ पाँखुर पर दने बहैतः
सन्तोलाक रस
छिलक’ चाहै अछि चैदिस
कानोकान करैत प्रानकें!
सन्तोलाक रसक दहाबोह
धरती पर
पूस मासक रौदमे!
गेनाक नमहर थोका सभ
चुभकैत अछि
एहि पमारमे:
खुशीसँ उभचुभ करैत
उझकैत अछि
नीलाकाशमे!
चैचंग भेल
एक छनक निकालै छी
पलखति,
मुदा सुगन्धिक खुशफैल
मे डूमि क’ नहि
निधोख भ’ क’ नहि
निरखैत धन्य
भ’ क’ नहि;
धड़कैत छाती
सँ धड़धड़मे
देखै छी गेनाक फूल,
जे कहीं केओ देखि ने लिअए
देखैत,
आ हँसि ने दिअए
पिहकारी दैत,
एहि अकाजक काज पर!
छपकि क’ देखै छी
गेनाक फूल
पूस मासक रौदमे!
छागदान
ठीक सोझाँमे भगवतीक
होइत अछि छागदान,
पूर भेल अछि
मनकामना कोनो भक्तक।
आखिर की होइ छै एहेन
छागरक शोणितमे
जाहिसँ तृप्त
होइ छथि भगवती
रहै छथि सहाय
सदति अपन भक्त पर?
ठीक सोझाँमे ठाढ़ भगवतीक
डुकरैत अछि प्राण:
की अछि हमर शोणितमे,
की हमर प्लाज्मामे?
यदि बात ई धँसि जानि
हमर बान्धवक मोनमे,
जे हमर शोणितसँ
कतोक बेसी तृप्त
हेतीह भगवती,
पूर करथिन
कुल्लम मनोकामना हुनक:
यदि बात ई किनसाइत
ध’ लैन हमर हीत-मीतक मोनकें!
किऐ एना सोचना जाइत अछि
आइ-काल्हि
रहरहाँ
अपन कि आन लोकक बीचमे?
एना त नहि जे
हमर अहाँक तानल मुट्ठी
महकारिक फ’र
कोना भ’ गेल:
सोचने त’ रही
जे सिनुरिया लिच्चीक
घौरछा सभ
बहराएत एहिमे सँ
अमारक अमार!
हमरा अहाँक बीच
अनगिनित मोनि
कोना फुटि गेल,
जाहिमे सोनित
अपने लोकक
चकभाउर दैत
रहैत अछि:
सोचने त’ रही
जे लाल टुहटुह चंगेरा
हरिनकेर धानसँ उमटाम
साजल रहत
दीया-बातीक दीपक
पाँत जकाँ
निरसल लोक सभक लेल!
हमर अहाँक
हृदय आ माथ
अपन अपन तानल मुट्ठीमे
सुन्न कोना
भ’ गेल:
सोचने त’ रही
जे एहिमे सँ
बहराएत गनगन करैत
खनहन भोर
अभिनव वसन्तक!
खाहे कतबो अनूप होथि सुर्ज आनक,
आखिर कतेक दूर धरि
काजक हेताह ओ
हमरा सभक लेल:
एना त’ नहि जे
अपन माटि-पानि
अपन सुधि-बुधिसँ
अपन सुर्ज रचबाक
कनियों चेत नहि भेल,
कहियो चेत नहि भेल।
अनेरे
कोनो सभ किछु
अनेरे
अबूह
भ’ जाइत अछि!
माघक झपसी
मे लाधल टिपटिपक बीच,
पछबाक हेमाल हलफी
रोम-रोम होइत
बहैत रहैत अछि
जेना कोनो उजड़ल एकचारी होइत,
आ कोना साँस लेब
पर्यन्त
अबूह भ’
जाइत अछि:
आत्मा कोना
जलफाँफी
भ’ जाइत अछि-
दीन
आ अर्थसँ
विहीन!
आकाश
मुदा साफ होइत अछि,
सुर्जक धाहीसँ
पतनुकान
लैत अछि हलफी,
आ गुलाबी ऊनक पोला जकाँ
भ’ जाइत अछि दिन!
बेर चढ़ला पर
नहुएँ बहैत बसात
उघारि क’
छितरा दैत अछि
एहि पोलाकें,
जाहिमे मिझरा क’
गुड्डी जकाँ
पताए लगैत अछि
मोन-प्रान
गाछ-बिरिछक फुनगी
चिड़इ चुनमुनीक संग
तैयार भ’ क’
जे बहराइ छी
काज पर जएबा लेल,
त’ एकटा सुसुम पुलक
अनेेरे
प्रानमे
उमक’ लगैत अछि
आत्मा
गुलाबी हवा-मिठाइक
मर्तबान
भ’ जाइत अछि,
जाहिमे सँ
एकेक साँसक संग
मिठौंस निसाँस
रोम-रोम होइत
निकस’ लगैत अछि...
आ कोना-कोना!
सभ किछु अनेरे
सहल भ’ जाइत अछि
जिनगी दहिना हाथक खेल
भ’ जाइत अछि
आत्मा जीवनसँ गाढ़
अर्थसँ
नेहाल भ’ जाइत अछि!
अग्निपुष्प
इजोतक लेल
अन्हार गुज्ज गाम दिस
आस्ते-आस्ते
बढ़ल आबि रहल अछि
कोनो हमर संगी
इजोतक लेल
लतरल जाइत हो जेना
कजरी लागल देबाल पर
कोनो मुक्तिकामी अपराजिता
फूलक लत्ती।
गाम जत’ अनघोल होइ
जत’ रीलीफक रोटी
फाँसीक फन्ना सन बुझाएल होइ
सामन्त, मुखिया आ पुलिसक
एकटा छुट्टा गोल होइ
गाम अनघोल होइ
अन्हार घरक डिबियाक
ममरी लागल बत्तीकें
कने आर उसका देलकै’ए
हमर संगी -- इजोतक लेल
हमर घरक इजोत पसरि गेलै’ए
सौंसे गाममे।
गाम जत’ युवककें
पकड़ि लेलकै’ए कोतबाल
देबाल पर नारा लिखबाक अपराधमे
आ अपराधी बसल हो
पुलिस-कैम्पक देखभालमे
गाम जत’ आब सिंगरहारक
फूल नइं झड़ैत होइ
सब टोल बबूरबोनी बुझाइत होइ
कतौ बाढ़ि होइ
कतौ दरारि होइ।
बाबू साहेबक डरें आब
लोक गाम छोड़ि नइं पड़ाइए
अन्हारोमे एक-दोसराक
बाँहि पकड़ि आगू बढ़ि जाइए
एक गामसँ दोसर गाम धरि
बढ़ि जाइए हमर संगी
इजोतक लेल
हमर संगी जे हमर विचार अछि
हमर संघर्ष अछि
अन्हार गुज्ज गाम दिस।
भोर
बाजल कौआ भेल सिनुरिया भोर
सिंगरहारक सुगन्धिसँ माँतल कन कन ओस
गाम जागल
मजूर-किसान जागल
भागल अन्हरिया आ कुहेस
किला जकाँ ठाढ़ छै पुलिस
गामक चारू ओर।
उड़ल चिड़इ चोंच भरि दाना लेल
खेतहिमे सुखाएल कुसियार दिस
आँखिमे फाटल धरती
भूखें कनैत बच्चाक नोर।
कोठी भरल
उमरल छल दलान
मालिकक आँगनमे
आइ नाचत
सोलहो कलासँ इन्द्रधनुषी भोर
केहन ई भोर
गुड्डी जकाँ कतबो ओ
उड़ए आकाश
हमरे सक्कत हाथमे छै अनन्त डोर
उमड़ल बलान सन
बढ़ल जा रहल’ए लोक
अही माटि पर खसल छल
घाम हमर इनहोर।
अपन साम्राज्य बढ़ेबाक
चारू कात छै होड़़
हमरे सोणितसँ सुग्गा सन छै
रूसी आ अमरीकी शासकक ठोर
हमरे गाम सन छै एल-साल्वाडोर
की चुनू
रातुक शृंगार चुनू
आ कि भोरक सिंगरहार
आकाशमे छिड़िआएल तरेगन
चुनू आ कि टूटल सितार
ऊँच गाछ तारक चुनू
आ कि काँट लुबधल खजूर
कुसियारक काँप चुनू
आ कि सघन बोन बबूर
खढ़-पतवार चुनू आ कि
तिजोरीक खूजल ताला
सगरो घोटाला चुनू
आ कि षड्यन्त्राक हवाला
स्वप्नमे फुलाएल
पारिजात चुनू आ कि
धूरामे लेढ़ाएल निर्माल
उफनैत नदीक कछेर चुनू
आ कि टूटल नाहमे मझधार
फेर अपन अलच्छ हाथ चुनू
आ कि हथलग्गू हथियार
सदानीराक स्नेह
एतेक गँहीर आ विशाल
समुद्रक पानि
आखिर खाड़ किऐक होइ छै
हमर श्रम आ संघर्ष
अहाँक अस्तित्व लेल
आखिर नारा किऐक होइ छै
डेग-डेग पर उखडै़त
हमर साँस आ पिसाइत हड्डी
एहि महानगरक सम्पदा नहि
आखिर चारा किऐक होइ छै
एहि ठाम एक टा लेल रातुक चकाचैंध
हमरा लेल कनाॅट प्लेसक भुलभुलैया
आ दिनमे तारा किऐक होइ छै
सरनरियाक एहि शहरमे
एकटा निरापद ऊँच फुनगी
ताकब कतेक मुश्किल अछि
सदानीराक स्नेह पाएब
कतेक मुश्किल अछि
निर्गन्ध यमुनाक कछेरमे
बसल एहि महानगरमे
दादागिरी
अपन धरती पर
अपने फसिल हम
आइ काटल अछि
अहाँ अनेरे तमतमाएल छी
हम एकरा खातिर
दिन-राति बितौने छी
चान नहि रुकै छै
आकाशमे
लहरि नहि रुकै छै
समुद्रमे
नव पल्लव होएब
नहि रुकै छै
कोनो गाछ पर
कोनो प्रतिबन्धसँ
बारुदक ढेर पर बैसि क’
शान्तिक लेल अहाँक
ई केहन दादागिरी अछि
ई केहन साझी बिरादरी अछि
स्नेहक समस्त सुर
अहाँक नाम नागफनीक
दुर्लभ फूल
अहाँक एकान्त प्रतीक्षामे
हम बिनु बसातक धूल
अहाँक नाम सांगह बिनु
लतरैत अपराजिताक लता
हम बरिसातोमे अतृप्त
झोझरिक पात
अहाँक नाम निर्जन वनमे
अविरल बहैत अमृत धार
आतुर आकांक्षाक संग
कछेरमे हम ठाढ़
अहाँक नाम मन्दिरमे
आराध्य भव्य मूर्ति
हम कोनो कातमे फेकल निर्माल
अहाँक नाम उगैत सूर्यक
विस्तृत लाल क्षितिज
हम चहुँ दिस पसरल
अन्हार गुज्ज अन्हरिया
अहाँक नाम स्नेहक समस्त सुर
चारू पहरक समस्त राग
अहाँक नाम साधल
वीणाक तार
हम असमय हहाइत
बाँसक बेसुरा स्वर
ज्ञात-अज्ञात गन्ध
हम इन्द्रधनुष सन
सतत बदलैत अपन रंग
अहाँक नाम शाश्वत
चतरल वटवृक्ष
हम जेना नदी छोड़ि
देने हो अपन मूल कूल
अशोक
मोछ
काल्हि हमर डेरा पर
आबि ओ
अपन नवका विदेशी
पिस्तौल देखा गेलाह।
गना गेलाह एक-एक क’
ओकर विशेषता
मारक क्षमता।
छोट-छीन टुनमुनियाँ
कारी चमकैत पिस्तौल
देखबामे लगैत छल
हिलसगर।
ओ गद्गद् भ’
सुनबैत रहलाह
पिस्तौल प्राप्तिक खिस्सा।
मैथिलक बदलैत
प्रकृति, आवश्यकता--
आ, विकासक संगक
अस्त्राक अनिवार्यता पर
दैत रहलाह भाषण।
--ई व्यक्ति जे काल्हि
हमरा पिस्तौल देखा गेलाह
कहियो क’ अबैत
रहै छथि।
आ’ अयाची मिसरक विरुद्ध
तर्क करैत
कहियो क’ अपन गाछक
एक झोरा लताम
अपन बाड़ीक एक हत्था केरा
अपन पोखरिक
एक फड़ी माछ
हमरा लेल अनैत रहै छथि।
किछु कहला पर
लगै छथि देब’ उपदेश,
बड़का भैया संग
स्कूलमे छलाह पढ़ने
तैं अपने मोने हमरा
अपन अनुज मानै छथि।
अपने मोने सुनबैत
रहै छथि
के, कोना कमाइ’ए तकर गप्प!
आ’ अग्रज तुल्य
अधिकारक संग
खराब होइत दुनियाँ
दिल्लीसँ पटना धरिक
चलैत व्यापार
दुख कटैत परिवार आ
सामाजिक सरोकारक
उदाहरण द’
किछु-किछु चलब’ लेल
उकसबैत रहै छथि।
अपने मोछ नहि
रखने छथि
तैं हमर मोछक
रहै छनि बड़ चिन्ता।
ओना त’ कहैत रहै छथि
जे कटा लिअ’ मोछ,
अनेरे किऐ छी रखने,
पैघ लोक कतहु मोछ राखए?
देखा दिअ’ कोनो पैघ लोककंे
जे मोछ रखने हो।
ओ जमाना चल गेलै
जहिया मोछ पुरुषत्वक
चेन्ह रहए,
आब त’ पुरुषत्वे
पैघ लोक हेबाक
मार्गमे अछि
बड़का बाधक।
तैं कहैत रहै छथि
हमरा अनुज बुझनिहार,
पैघ लोक हेबाक अछि त’
मोछ कटा लिअ’
अथवा एना क’ काज
करू, कमाउ
जे मोछमे नहि लागए।
दाँत
कहने रहै माँकें
दुरागमन काल
हमर नानी
मुँहमे रखने रहिहें पानि
सासुरमे।
हमर माँ ई बात
कहियो नइं बिसरल।
ककरो, कतबो गन्जन पर
कोंचला पर, टोकला पर
मान आ अपमान पर
उपेक्षा आ अपेक्षा पर
नैहरोक खिधांश पर
मुँह सँ नहि टघरलै पानि
रखनहि रहल मुँहमे पानि।
कहलक हमरो
दुरागमन काल
हमर माँ
मुँहमे रखने रहिहें पानि
सासुरमे।
हमरो ई बात,
बिसरल नहि होइ’ए।
पानि रखलासँ
मँुह त’ दूरि नहि होइये,
मुदा दाँत--
कमजोर भेल जाइ’ए।
हम दन्तहीन नहि
हुअ’ चाहै छी
माँ जकाँ।
ठीक छै जे--
हमर माँ
दाँतक उपयोग नहि केलक
अथवा हमर माँक
दाँतक उपयोग नहि भ’ सकलै।
मुदा हमहूँ उपयोग
नहि करब
अथवा हमरा दाँतक उपयोग
नहि हैत से--
कोना कहि सकै छी।
बुधियार
रहरहाँक रस्ता छोड़ि
दोगे-दोग निकसैत
बनल-विराट
नट-सम्राट
तों बड़ बुधियार छह कक्का!
लेबल-मुनल घरमे रहनिहार
नाककें तौनीसँ झाँपि क’
चलनिहार
हरेक सुन्दर मुँह पर
आँखि गड़ौनिहार
धतपत्-धतपत्
हरिओम तत्सत्
तों बड़ बुधियार छह कक्का!
बिजुरी सन छिटकि क’
अनकर आँगनकें उघार करैत
ब’ड़ आ पीपर सन
घरे-घर दरारि तकैत
चाहक चुस्की
चैअनियाँ मुसकी
तों बड़ बुधियार छह कक्का!
शुभ-लाभ हेरैत
वंशी टेरैत
विवशताक बोर द’
तरेरा छिपैत
बिलगबैत
पनिअबैत
तों बड़ बुधियार छह कक्का!
कक्का हौ,
बूड़ि तोहर भातिज सभ
सिक्का चढ़ौने तोरा
बापक भाइ मानै छह
बपहारि काटै छह
दुख स्रष्टा
चिर विपटा
तोँ बड़ बुधियार छह कक्का!
ई के सोर करै’ए?
ई कोन बाघ
घात लगौने
पैर मारने
आबि रहल’ए
सहटल-सहटल
ई कोन मृगशावक
निश्चिन्त, मचैने अछि
उछल-कूद?
ई कोन नदी
बहि रहल’ए
शान्त, मन्थर
अविराम!
ई कोन गाछ
फुला रहल’ए?
ई के अपन टाँग
झुला रहलए?
अकस्मात ई के सोर करै’ए?
भीतरसँ बाहर
अएबाक लेल
ई के
जोर करै’ए?
ई के सोर करै’ए?
फेरसँ
फेरसँ हमर
छोटका बेटा
भ’ गेल अछि
दुखीत।
फेर कारी मेघ
कर’ लागल अछि
टण्डैली।
अवारा, लुच्चा
कारी मेघकें देखि
हम दूनू परानी
फेरसँ डेराए लागल छी
फेरसँ हमर
दुखीत बेटाक
गाल पर
पसरि गेल’ए
आँखिक काजर
फेरसँ हम
लिख’ लागल छी
एक नब कविता
शिवशंकर श्रीनिवास
लाठी
कतेको दिनसँ
ताकि रहल छी
लोक कहै’ए--
नहि भेटत
आब नहि भेटत
की पहिने भेटै छलै?
तखने तँ हमरा मोनमे
जागल इच्छा
आ हम ओकरा अपन वेगरता बूझि--
ताकि रहल छी
एक टा सहारा
एक टा सुरेगबर लाठी
कने उठि क’ ठाढ़ होएबाक लेल
कने पैर रोपबा लेल।
लोक पुछला पर हँस’ लगै’ए
जेना हम पुरान जमानाक लोक होइ
तेना देखि, किछु टोन’ लगै’ए।
तकै छी भरोससँ मित्रा सभ दिश,
हम एते कमजोर
किऐ भेलहँु जे लाठीक काज भ’ गेल
तै लेल देब’ लगै छथि हुतबाहि हमर मित्रा बन्धु।
हम हताश होइ छी
ओ अपनाकें अ’ढ़ क’ लै छथि।
हम बढ़ै छी
ठाढ़ होइ छथि साहु जीक दोकानक आगू
ओ हमर गप्प पर हँसैत कहै छथि--
लाठीसँ त’ महींस हाँकल जाइ छै
वा, ‘रैली’ मनाओल जाइ छै
अहाँकें मोंछ नहि अछि
तैयो लाठीसँ अपन मोछ देखाओल
जाइ छै।--साहु जी माने महाजन
अपन अनुभवसँ हमरा चेतबैत ज्ञान दै छथि
हम अर्थक बुत्ता पर ठाढ़ भ’ सकै छी
ओ बुत्ता अछि त’ एक टा नहि
हजार टा लाठी सुरक्षामे आगू-आगू नचैत चलत
हवाबाजी, विज्ञापन आ कलाबाजीसँ
मिथ्याके सत्यक कैप्सूल बना बेचि सकै छी
फेर लाठीकें तकबाक कोन प्रयोजन?
लाठी हमरा तकैत रहत।
आ, फेर हम जखन लाठीकंे तकैत
पाछू बढ़ै छी गामक सीमानसँ कने आगू--
तकै छी वाँस-काठ दिश,
गाछ-वृक्ष दिश
त’ लगै’ए जे ओ सभ हमरा
देखि हँसै’ए।
ओ सभ जेना हँसैत कहै’ए
जे आब लाठी ओकरा सभ’सँ
नहि बनै छै।
हँ, आब लाठी ओकर राजनीतिसँ
बनि सकै छै
ओ सभ सुखा रहल’ए।
ओ सभ कटा रहल’ए।
तकरा हम राजनीति बना सकै छी
तखन अपने किऐ?
बहुतोकंे टिका सकै छी।
एहिना हम चारू कात तकै छी
हमरा लगैत अछि
एहिना जँ हम, लाठी तकैत रहब
त’ हमरामे सँ जीवन बहार भ’ जाएत
आ, हम बनि जाएब
ककरो हाथक मात्रा एक टा लाठी
बाढ़िक पानि घटि रहलै’ए
जेना पीठिया घा बहि गेल होइ
तहिना भ’ रहलै’ए उग्रास
बाढ़िक पानि घटि रहलै’ए।
गायक सद्यः प्रसूत टुन्ना जकाँ
टाँग सोझ करबाक
घटन्ती बोध क’
मोन कुदकि रहलै’ए।
बाढ़िक पानि घटि रहलै’ए।
उछाल भेल गोसाँइ पोखरिमे
पसरल पुरैनिक पात पर
वर्षाक बुन्द जकाँ
चारू कात सम्वाद छिहलि रहलै’ए
बाढ़िक पानि घटि रहलै’ए।
पसरि रहलै’ए ई समाचार
ई समाचार पूरा गाममे
फहरा रहलै’ए
देखि रहल’ए भरि गाम
सुनि रहल’ए भरि गाम
जेना कारगिलमे
भारतीय सेना जीति रहलै’ए।
जेना भारतीय सेनाकें
शत्राुक शिविर पर कब्जा भ’ रहलै’ए
बाढ़िक पानि घटि रहलै’ए
मिथिलाक गामक रेडियो
एखन इएह टा बाजि रहलै’ए
बाढ़िक पानि घटि रहलै’ए।
कनेक काल लेल
बाढ़ि आएल छै
डूबि गेलै खेत-पथार
आँगन भेल पोखरि
हुुहुआ रहलीहे
घरमे कमलादेवी।
दिन
राकस बुझाइ’ए
रातिमे
जेना हुराड़ पैसि गेल होअए
सुरसाक मुँह भेल अछि
एक-एक घड़ी
एहि साँझमे
आइ-माइ लोकनि
देखा रहलीहे दीप
गाबि रहलीहे साँझ--
‘जय हे कमला मैया
भगवती तोहर हम आरती उतारी....।’
बलचनमा कहै’ए
डेराएल छथि दाइ-माइ लोकनि
तँ क’ रहलीहे आरती
मुदा पण्डित विसेसर मिसर कहै छथि
ई थिक एहि माटिक संस्कृति
डाकिनी रहथु वा देवी
घर औती त’ स्वागत हेबे करतनि...।
...ऊँचका महार पर
छप्पर-छप्पर पानिमे रेेंकैत
उमकैत किलकिला रहल’ए बाल-गोपाल
एक दोसरा पर माटि फेकि रहल’ए
एक दोसरा पर पानि फेकि रहल’ए
आ, सभ एक्के बेर
ततेक जोरसँ मारै’ए किलकारी
जे, पानिक हुहुआएब त’र पड़ि जाइ छै
कने कालक लेल।
बाढ़ि आएल छै।
रामधन राम चैठी पासवान
ओहि कोनमे बिलाड़ि
एकदमसँ दम सधने अछि
चुप्प अछि
किन्तु, ओकरा चुप्प कहबै?
ओ अपन मूसकें देख’ैए
ओ अपन चुप्पी सँ ओकरा ठक’ चाहै’ए
ओकर शिकार कर’ चाहै’ए
अप्पन दूरा पर सोचैत अछि
रामधन राम चैठी पासवान।
जे बोल सभ दिन जुत्ता-लाठी चलौलक
ओहि बोल सँ चुबैत अछि जिलेबीक रस
रामधन रसकें टपकैत देखैत अछि
ओहि रसक भीतर दानासँ लदल
देखैत अछि चिड़ैक लेल फन्ना
रामधन चैंकेैत अछि
रामधन रस्ता चलैत अछि।
रामधनकें मोन पड़ै छै मायामे घेरलि जमुना
पराशरक मोहनी बोल, इजोरियाक भ्रम
सुरक्षाक नाम पर कुहेसक देवाल
आ फलमे फल गुल्लरिक फल
वेद भगवान, बासन भगवान।
आइ, ओ सभ अथ इतिकें मोन पाडै़त
इतिहासकें चैबटिया पर ठाढ़ करैत अछि
चारू पौआकेें छोड़बैत
वर्तमान गढै़त, सोचैत
आगू बढै़’ए रामधन राम चैठी पासवान।
रामधन मौसम पढै़’ए
मधुमे मिलाएल बिक्खक रंग चिन्है’ए
(किऐ ने चीन्हत? भरि जन्म त’ बिक्खे पीबैत आएल’ए)
आ बुझै’ए जखन मधु पीबि ने मरत, ने रुकत
तखन एक बेर चैपायाक मगजसँ फूटत
भयंकर नाश फटक्का
ओ बीचो-बीच फुटै छै
ओकरा सभटा गमल छै
एखन बहुत चीज तोडै़’ए, बहुत चीज फुटै’ए
कैक ठाम भ’ जाइ छै खत्ता
कैक ठाम फुटि जाइ छै मोनि
कैक ठाम भ’ जाइ छै ढिमका
रचनाक प्रक्रिया देखार भ’ रहलै’ए
शिशु जन्म ल’ रहलै’ए
ओ कहाँ रुकै’ए?
ओ आगू बढै’ए।
रस्ता चलै’ए रामधन राम चैठी पासवान।
अहाँक नहि आएब
जखन हम फँसल रही
खसल रही, रही घायल
पीड़ाकें थोड़ करबाक प्रयासमे
लागल रही
तखन हम अहाँक प्रतीक्षा करैत रही।
मानल हमर दैहिक पीड़ा
मात्रा हमर छल
मुदा, हम त’ अहाँक रही?
हम नहि जनैत रही
ओहि समयमे अहाँ कत’ छलहुँ।
हम त’ दर्दक भीतर बन्द भ’ गेल रही
बाहर कत्तौ ने देखी
हम सीमित भ’ गेल रही
हम अहाँक प्रतीक्षा करैत रही।
नीक कएल अहाँ नहि अएलहुँ।
अहाँक अनुपस्थिति हमरा अपना दिश तकौलक।
हम त’ अहाँक संग-सुखसँ
अपन पीड़ाकें तोप’ चाहैत रही।
अहाँकें अपनामे लेपटा क’
पीड़ित जीवनकें बिसर’ चाहैत रही
सत्ते, कते हम संकीर्ण भ’ गेल रही।
हम बहुत कमजोर वा हताश भ’ गेल रही
हम अहाँमे अपनाकेें आरोपित क’
अपन खाधिकें भर’ चाहैत रही
ठीके, कोनो स्थितिमे हारल रही।
से केओ कहि सकै अछि
अहूँ, कहि सकै छी, हमहूँ कहै छी।
मुदा, नीक केलहुँ अहाँ नहि अएलहुँ
अहाँक नहि आएब
हमरा अपना पर काबू करौलक।
नीक कएलहुँ अहाँ नहि अएलहुँ
अहाँक नहि आएब हमरा हारबसँ बचैलक
पीड़ासँ बहरेबाक अवगति सिखौलक
नीक कएलहुँ अहाँ नहि अएलहुँ।
तारानन्द वियोगी
मीता, अहाँक हँसी
जिनगी
बहुत अदगोइ-बदगोइ भेल जाइत अछि।
साँझकें डुबैत जे अछि सुरुज
उगैत नहि अछि भोरकें नित्तह
रातुक कालिमा किछु आर घटाटोप भेल जाइछ।
सुनू मीता!
एहिना खिलखिलाइत रहियौ
एहिना खण्ड-खण्ड बाँटू कालक शाश्वतता
सुनू मीता!
अहाँक हँसी अन्हारक एक-एक कपाट
तोड़ि खबसैत अछि।
अहाँक हँसीक इजोतमे
बहुत साफ देखाइत अछि--
एक-एक टा बाट। लक्ष्य-बिन्दु।
किन्नहु कठिन नहि अछि जीवन
जँ एहिमे अहाँक हँसी हो
अहाँक उपस्थिति हो आलोकमय
सुनू मीता!
किन्नहु अन्हार नहि रहत राति
जँ हाथमे मशाल हो
किन्नहु भयप्रद होयत नहि नदी
जँ मजगूत नाह हो संग।
बहुत तँ प्रयास केलक अछि अन्हार
बहुत-बहुत बेर तँ आक्रमण केलक अछि
जानि नहि कतोक बेर
त्राहि-त्राहि मचा देलक अछि अन्हार
मुदा तैयो
कहाँ उकन्नन क’ सकल प्रकाशक वंश?
सुनू मीता!
एहि सुरक्षित प्रकाश-वंशक
सम्बल थिक अहाँक हँसी
सुनू मीता!
एहिना खिलखिलाइत रहियौ
एहिना खण्ड-खण्ड बाँटू कालक शाश्वतता।
सुनू मीता!
अहाँक हँसी अन्हारक एक-एक कपाट
तोड़ि खसबैत अछि
अहाँक हँसीक इजोतमे
बहुत साफ देखाइत अछि
एक-एक टा बाट
लक्ष्य-बिन्दु।
पितामहसँ
हे, हम अपन श्रमहि
सन्तुष्ट छी पितामह!
कनियों नहि भरमबैत अछि हमरा
उपलब्धिक मोह
पुरस्कारक आसक्ति
छूबि नहि पबैछ चेतनाकें।
अपन रक्तक एक-एक बुन्नसँ
गोहरबैत छी --
स्वतन्त्राता! स्वतन्त्राता!!
श्वासक एक-एक धुन
हमर कत्र्तव्यकें मोन पाडै़त अछि।
ई अहाँ की कहैत छी पितामह!
नहि नहि
कहियो नहि हम त्यागब अपन ज्वलन्त विचार
कहियो नहि लगतै कजरी विवेक पर!
मूल्यांकन तँ हम अवश्श करै छी अपन कर्मक
मुदा, एकर असली निर्णायक होएत -- समय
समय -- जे एखन नहि आएल अछि!
अहाँ विश्वास राखू पितामह !
अपन उपलब्धिसँ परितृप्त होएबाक अवकाश
नहि अछि हमरा
हम अपन श्रमहिसँ सन्तुष्ट छी पितामह !
बागडोरामे भिनुसरबा
तोहर बनाओल चाह
अक्कत लगैत अछि हौ बाउ होरीपोदो राय,
टूटल नहि अछि एखन धरि निशाँ
झम्फ एखनो बाँकी अछि, लगैत अछि--
वातावरणेमे बेसी नमी अछि अथवा हमरहिमे
ग्रहण-शक्तिक कमी अछि।
तोहूँ बरु बलेलक बलेले रहि गेलें प्रदीप
ने जानि कते बेर अएलें-गेलें अइ इलाका
मुदा अनभुआरे रहि गेलौ मौसमक मिजाज --
अन्हरियासँ जे बनै छै बिम्ब सभ रौ बच्चा
से सभटा मृत्युएक प्रतीक नहि होइछ।
अमलतासक नबका सुपुष्ट पात सभ पर
झूला झूलए लागल अछि बसात,
नीमक गाछ पर चुनमुनीक बसेरा अकुलाए लागल अछि।
ओहि फुदकी चिडै़याकें देखही
कोना अतत्तह क’ रहल अछि!
दौड़ि एत्तय भागि ओत्तए
हमरा तँ लगै’ए एक तोड़
आह्लादें जान बहरा जएतैक एहि बतहियाक!
हँ कौआ नहि बाजल अछि एखन धरि!
मुदा कौआ करए उद्घोषणा, तखनहि मानी भोर--
एहि कुबोधसँ जनमैए
क्रान्तिमे चिल्होर!
देख-देख प्रदीप तोहूँ देख
प’ह फटबाक संकेत द’ रहल अछि क्षितिज-सीमान्त,
आब लाइन होटलक एहि खाट परसँ, उठ प्रदीप
फड़िच्छ होब’ लागल अछि, देख
चल आब हम सभ चली
नक्सलबाड़ी थोड़बे दूर बचल छौ आब!
बाबा
अहाँ तँ आब बूढ़ भेलहुँ बाबा!
अपन एहि दाँत सभसँ
रोटी चिबा होइए?
रातिकें सुझै’ए बाबा?
बाबा, बिना चश्माक तँ नहि देखि पबैत हेबै
अपन पौत्रा सभक मुँह?
रातिकें भरि पोख निन्न होइए?
पाचन-शक्ति तँ ठीक नहिएँ रहैत हएत?
दुखाइत रहैत हएत हड्डीक पोर-पोर,
कोस भरि पैदल चलबाक साहस तँ
नहिएँ जुटा पबैत हेबै की ने?
की करबै बाबा!
अहाँक तँ आब उमेर भेल
जुग बीतल
की करबै!
मुदा, धन्न छी अहूँ बाबा!
एत्ते संघर्ष!
एत्ते प्रतिकार!!
एहन प्रतिहिंसा!
एत्ते धधरा!!
ओह!
अहीं ठीक कहै छी बाबा
अन्यायक विरुद्ध लड़बाक उमेर
कहियो नहि बीतै छै
प्रभु राग
एहने-एहने चिन्ता दिअ’ प्रभु हमरा
एहने-एहने फिरिशानी।
थोड़े आर दुख दिअ’ हमरा प्रभु
थोड़े आर तकलीफ।
एहने-एहने यन्त्राणा दिअ’ प्रभु हमरा
एहने-एहने सन्त्रास
एहने-एहने पीड़ा एहने-एहने क्लेश
विह्नलता दिअ’ तँ एहने-एहने प्रभु
एहिना मारैत रहू डाँग
आर तँ अहाँ द’ की सकब एहि मूत्र्तिभंजक-आकारकें
देने चलू देने चलू अनन्त जनमक वनवास
मुदा, स्मरण राखब हमर प्रभु!
हमर बाट एतहिसँ निकसत।
एतहिसँ प्रारम्भ हएत विजय-यात्रा
एहि दुनियाँसँ नीक दुनिया बनेबाक संकल्प
एहि ठाम जन्म लेत। जनमताह विश्वामित्रा।
अहाँ चाही तँ
हमरा थोड़े आर दुख दिअ’ प्रभु
थोड़े आर यन्त्राणा।
संलग्न
परदेशमे छी निपट एकसरुआ। ने माइ ने बाप। सखा-
सन्तान नहि। ने गाम ने समाज। हर्ख भेल तँ बरु नाचि
सकै छी सड़को पर मुदा दुख भेल तँ कान’ पड़त
भीतरे-भीतर। मर’ जँ चाहथि मियाँ एत्त’ तँ अपनहि
सँ खूनि लेब’ पड़तनि अपन कब्बर। ओफ् ... ई
परदेश थिक की काल-कोठली?
मुदा पड़ि जखन गेल छी बेराम
माथ पर हाथ राखि आशीष देब’ एलीह माइ
सिरमा दिस ठाढ़ भ’ पिता समझा रहल छथि
सदति स्वस्थ रहबाक भाँज। पत्नी बेर-बेर ठानि
रहल छथि जिद्द कि हम सौंसे गिलास दूध पीबि ली।
नहुँए-नहुँए बुधियार होइत बेटा हमरा ललाट
कें हाथसँ छूबि करैए प्रश्न-- बाबूजी, कोसीक पानि
तँ कहियो बेराम नहि पडै़ छै कि ने?
गामसँ हज्जार कोस दूर एहि अपरिचित शहरमे --
दुमहला-चैमहलाक एहि जंगलमे --
बेराम जखन पड़ै छी हम, ततेक लोेक अबै’ए जिज्ञासामे
अकच्छ रहै छी हम। जते तरहक लोक, तते तरहक
उपचार। मना कका पीसि अनै छथि बरियारक सीड़।
सरजुग कका वैद्य बजौने अबै छथि। नबकी काकी बना
लबै छथि काढ़ा। रघुनाथ भैया भगवती थानक भभूत
नेने जुटै छथि। साइकिल सम्हारने मुँहथरि पर ठाढ़
देखाइत अछि भगवानजी। वाह जी वाह, अजगुत
फजगज अछि सौंसे कोठलीमे।
आ, निपट एकसरुआ एहि काल-कोठलीमे किऐ
हमरा एक्को बेर लागत कि हम बेराम छी।
अद्वैत
स्वपाकी छी तें करै’ए पड़त भानस, माँजै’ए पड़त बासन अहल भोरे
से मुदा एखन एहि सोहारी बेलैत काल
अचानक हम अतिशय-अनन्त ममत्वपूर्ण भ’ गेल छी।
नहुएँ-नहुएँ बहुत आस्तेसँ
सानल आटाक लोइया पर चलबै छी बेलना
बहुत ममता अछि हमरा हाथमे। लगै’ए जेना
अपन नान्हि-सन बेटाक कपोल सहलाबैत होइ
अत्यन्त प्रिय पोथीक कोनो प्रियतर पृष्ठ सहेजैत होइ जेना।
आस्तेसँ चलबै छी बेलना, जेना सोहारीक चाम
छिला जएबाक आशंका हो। किऐ अछि हमरा हाथमे एते ममता?
वैदिक ऋषि होइतहुँ कोनो... नहि विश्वामित्रा तँं गृत्समद
तँ मन्त्रा उचारितहुँ--
अन्न! हमरा बुभुक्षा-द्वार द’ क’ पैसि क’ जाउ हमरा
रक्तमे। परिनिष्ठित करू संस्कार। अमोघ आतुरता
दिअ’ हमरा; अजस्त्रा सन्ताप। मुदा अन्न, मजगूत करू
हमर मोन कि ई फूल, ई वनस्पति, बह्म-तन्त्राी केर ई
अनुराग-तन्त्रा हमरासँ होअए विभूति-सम्पन्न!
अन्न! बुभुक्षा-मार्ग द’ क’ पैसू भीतर आ परिनिष्ठित
करू संस्कार!
वैदिक ऋषि तँ नहि छी हम मुदा, हमरो हाथमे भरल
अछि अमोघ-अजस्त्रा ममता। हमर कायामे अजगुत-अजगुत
बिम्ब-स्फोट। हमरो आत्मा झुलैए झूला चोंचाक खोतामे
ताड़क गाछ पर लटकल अण्डाक संग हौले-हौले! यद्यपि
कि वैदिक ऋषि किन्नहु छी नहि हम।
स्टोव पर चढ़ाओल तवा तपि गेल अछि मुदा हमरा लेल
धनि-सन। सिनेहसँ थपथपाओल कोमल कपोलबला
ई सोहारी चढ़ा नहि पाबि रहल छी तवा पर। केहन
भयाओन अछि ई भावुकता! एकरे कहै छै माया?
ई अग्नि आ ई अन्न जँ करत नहि संयोग
कतए सँ आनि पाओत परिनिष्ठित संस्कार?
वैदिक ऋषि जें कि छी नहि हम असलमे
हमर ममता बेर-बेर बनि जाइए माया।
वैदिक ऋषि जें कि हम भेलहुँ नहि,
कोना भ’ पाएब कवि?
मिथिलाक लेल एक शोक-गीत
हमरे चेतनाक दोमटसँ जनमल छल
ई छाँहदार वृक्ष सभ
जकर एक-एक डारि पात काटि-काटि
हम अपना पशु-वर्गकें खुआएल अछि।
राजा शिवसिंहक पगड़ीकें हम
लंुंगी बना क’ पहिरल अछि अपन एकान्तमे।
अपन एकान्तमे हम
कहियो नहि सुन’ चाहलहुँ अछि अपने आवाज।
मिथिला बिराजै तँ छली हमरा तन-मनमे सम्पृक्त
मुदा व्यसनी हम तेहन
जे अपने तन-मन खखोड़ि-खखोड़ि
समिधा जकाँ झोकलहुँ अछि
बेहोशीक कुण्डमे।
सौंसे पृथ्वी, सम्पूर्ण देश, समस्त समाज
हमर बेहोशीक केलक अछि अभ्यर्थना
मुदा विडम्बना एहि समयक!
लटुआएल झूर-झमान मिथिला
हमरे आत्मामे थरथराइत रहल छथि
पीपरक पात जकाँ पूरे समय।
एहि भूमण्डलीकृत समयमे
सभ क्यो क’ रहल अछि
हमर बेहोशीक अभ्यर्थना
जखन कि देखू
अपने दुनू पैरक
सिन्दूरकाभिषिक्त अरिपन बना क’
टाँगि जँ लितहुँ कोठलीमे चैबगली,
सेहो बनि सकै छल
हमर जागरणक कारण।
बुद्धक दुख
पैंतीस बरस पर घुरलाह अछि बुद्ध
रहलाह एहि बीच पटना संग्रहालयक कारागारमे।
पैंतीस बरस पहिने मनुआँ धारमे बासा छलनि
आब बसै छथि कारू संग्रहालयक धमनभट्ठीमे
देह लगा क’ टाँगल छनि साइनबोर्ड
जे ओ मनुआँ धारसँ बरामद भेलाह।
संस्कृति, जाहिमे झुमका बरामद होइत हो दुमकामे
आ कनबाली काशीमे,
बुद्ध बरामद होथि मनुआँ धारमे, कोन आश्चर्य?
तरह-तरहें लोक व्यक्त क’ जाइए अपन ओछपन
आ बुद्ध आँखि मुनने
निश्चेष्ठ बैसल रहै छथि।
बुद्धकें एखन आर बहुत
दुख भोगबाक छनि बुझाइ’ए!
पण्डित-पण्डा लोकनि, केलनि अछि प्रयास
बुद्ध फेरसँ मनुआँ नदी-तट पहुँचथि।
ओ लोकनि महामान्यगणकें क’ रहलाह अछि प्रभावित
ब्राह्मण-ब्राह्मणक दैत दोहाइ।
मनुआँ-कातमे पहिने बनतनि मन्दिर
जतए बुद्ध कालभैरव वा शीतला माइ
कहि क’ पूजल जेताह।
जहिया कहियो फेर
कएले उद्घाटनकें उद्घाटित करै जेताह
इतिहासकार लोकनि
जे ओ शीतला माइ नहि, गौतम बुद्ध थिकाह,
एक बेर फेर मनुआँ धारमे गोड़ल जेताह बुद्ध।
जानि नहि फेर कहिया
बहरेेताह मनुआँ धारसँ
आ फेर पहुँचताह
कहिया पटना संग्रहालय?
केदार कानन
हमर भावी पीढ़ी
एखनेसँ लदने अछि
अपनो ओजनसँ भारी
अपन-अपन पीठ पर पोथी
ई नेना सभ
एखनेसँ झुकि क’ चलैत अछि
एहि देशक भावी पीढ़ी
माथक नस एखनेसँ तनल छै
चेहरा पर एखनेसँ
पसरल छै एकटा अगुताहटि
हम जनै छी
डाँड़ झुकएबाक
ऊब पसारबाक आ
नेनु जकाँ कोमल-प्राण चेहरा पर
तेजाब छिटबाक भ’ रहल अछि
षड्यन्त्रा निरन्तर
हमर भावी पीढ़ी पर
हम एखनेसँ एहि नेना सभक
मोन-प्राणमे भरि देबए चाहै छी
षड्यन्त्राक सूचना
सूत्राधारक सभटा योजना
हम करए चाहै छी नेतृत्व
जे हम नहि क’ सकलहुँ
भ’ सकैछ
हमर अनुभवक जोगसँ क’ सकए ओ सभ किच्छु
हमर भावी पीढ़ी...
हम चाहै छी
जे ई नवका फसिल तनि क’ चलए
माथक नस घिचाएल नहि रहैक
अगुताहटिक जगह पर
खिलखिल प्रसन्नता औन्हल रहए
एहि एक-एक फसिल पर
एक-एक नेनामे भरल रहल आत्मविश्वास
एकर सभक प्रत्येक डेग
उठए आस्थाक संग
हम चाहै छी
कहियो झुकए नहि
रुकए नहि कहियो
हमर भावी पीढ़ी
लहलहाइत रहए
ई फसिल सदिखन
हमरा चाही ओ हाथ एक बेर
हमरा चाही ओ हाथ
जे बरखाक बाद
उखाड़ैत अछि बिराड़
करैत अछि रोपनी-डोभनी
हमरा चाही ओ हाथ एक बेर
चुम्बनक लेल
हमरा चाही ओ हाथ
जे खेतकें तमैत अछि
फसिलक कमौनी करैत अछि
गाडै़त अछि मेह
करैत अछि दाउन
खरिहानमे ओसबैत अछि अन्न
हमरा चाही ओ हाथ एक बेर
चुम्बनक लेल
हमरा चाही ओ हाथ
जे बनबैत अछि देबाल
सानैत अछि चिक्कनि माटि
बनबैत अछि कोठी
काटैत अछि बाँस करची आ छिपाठी
बनबैत अछि टाट-फरक
दैत अछि बन्हन
करैत अछि छौनी
ठाढ़ करैत अछि घर बेर-बेर
हमरा चाही ओ हाथ एक बेर
चुम्बनक लेल
हमरा चाही ओ हाथ
जे खरड़ैत अछि थड़ि
उठबैत अछि गोबर-करसी
करैत अछि घूर
पथैत अछि भीत पर चिपड़ी
निपैत अछि आँगन
दैत अछि अरिपन
जरबैत अछि काँच माटिक दीप
तुलसी चैड़ा पर नित्तह
हमरा चाही ओ हाथ एक बेर
चुम्बनक लेल
हमरा चाही ओ हाथ
जे काटैत अछि चरखा
बुनैत अछि सूत
तैयार करैत अछि कपड़ा
तुनैत आ धुनैत अछि रूइ
भरैत अछि सीड़क
हमरा चाही ओ हाथ एक बेर
चुम्बनक लेल
हमरा चाही ओ हाथ
जे खुनैत अछि खदान
तोड़ैत अछि पाथर
बहार करैत अछि कोयला
घर-घर जकर श्रम-स्वेद गन्ध
पसरैत अछि धुआँक संग
उठौने रहैत अछि छेनी हथौड़ा आ बेलचा
ओकरे थकानसँ थकित ई धरती
ओकरे उल्लाससँ उल्लसित ई धरती
श्रमक धमकसँ रक्ताभ हाथ
हमरा चाही ओ हाथ एक बेर
चुम्बनक लेल
हमरा चाही ओ हाथ
जे उठबैत अछि बोझ
सहैत अछि जेठक दुपहरिया
भादवक अजस्त्रा बरखा
भोगैत अछि चिन्ता-दुश्चिन्ता
हमरा चाही ओ माथ एक बेर
चुम्बनक लेल
हमरा चाही ओ आँखि
जे देखैत अछि हरियर फसिल
माल जाल, हुँकरैत पड़रू
धान गहूम ओ मकइक बालिक देखैत अछि स्वप्न
निन्न टूटलाक बाद
अजोह मकइक बालिक गाढ़ दूध
भोरका ओसक संग
सद्यः उतरि जाइत अछि जाहि आँखिमे
हमरा चाही हलसि क’ ओ आँखि एक बेर
चुम्बनक लेल
जनताक कवि
एते तँ भेलै बरखा
अछोह
सूपक-सूप
जा नहि सकलहुँ खेतमे
देख नहि सकलहुंँ
भरैत छै कोना
अतृप्त पृथ्वी
अपन कोखि
अदृश्य रहि गेल हमरासँ
जखन कि
हमर बाट जोहैत रहल होएत
नान्हि-नान्हि टा फसिल
अँकुराइत बीया
लगातार जोतल बड़द
कहाँ जा सकलहुँ हम
केहन कवि
कहै टा लेल
जनता केर
राति भरि
बेचैनीमे आँखि थपकबैत रहल निन्न
एकटा भयानक स्वप्न जकाँ
बीच-बीचमे हमर कवि
धिक्कारैत रहल हमरा
भोरमे अवश्ये जाएब
खेतमे
धँसब भीतर धरि
जा धरि माटिसँ
जुड़ा नहि जाएत आत्मा
सिंचित नहि भ’ जाएत
घामसँ खेत
चैन नहि आओत
ठीके चैन नहि आओत हमरा
भरि घर भोरका हवा
हम खोलए चाहै छी खिड़की
बन्न दरबज्जा
राति भरि
निमुन्न घरमे सूतल प्राण
कटैत रहैत अछि अहुँछिया
कखन खोलब खिड़की
कखन खोलब ई दरबज्जा
सूति क’ उठिते
सभसँ पहिने देखए चाहै छी ओस
देखए चाहै छी रौद
भरए चाहै छी भरि घर
भोरका हवा
औनाइत प्राण-आँगनमे
भरए चाहै छी
जीवनक उष्मा आ उत्ताप
भरि गाम
पसारि देबए चाहै छी भोर
भरि गाम
पसारि देबए चाहै छी हरियरी
पसर खोलैत महिसबारक परातीमे
मिलबए चाहै छी अपन स्वर
भिनसरेसँ अकानैत रहै छी
सन्धानैत रहै छी
मोने-मोन उचारैत रहै छी
परातीक शब्द-संगीत
ताल लय ध्वनि
हम खोलए चाहै छी
खिड़की
सभटा बन्न दरबज्जा
बिझाएल ह’रक फार
नच्चूक आँखिमे
नचैत बिस्कुट
तोषीक आँखिमे पावरोटी
टुस्सीक ठोर पर
पापा-पापा
हम परती खेत जकाँ निस्पन्द
पत्नीक आँखिमे
अनेक इच्छा-आकांक्षा
कतेक तृषित पिआस
केतक अनकहल प्रसंग
हम बौक-बहीर जकाँ निस्पृह
टनकैत घाओ
माइक कुहरब
अनेक बेमारीक एकटा लहास
अपन माथ पर उघैत
हम कहाँ कतहु छी, मीत!
हम अनुर्वर खेतमे
अनेरुआ जिम्मर जकाँ
गड़ल छी एकसर
उपेक्षित
हम कोनो किसानक
एकचारीक ओलतीमे खोंसल
उपेक्षित
बिझिआएल ह’रक फार छी
जोतल नहि जा सकैछ
जाहिसँ
ई वसुन्धरा
मुदा दीपित अछि
हमरा भीतरक विश्वास
जे कहियो
लहलहाएब हमहूँ
तनब हमहूँ
उन्मुक्त ब्योमसँ
आँखि मिलबैत
शीश जकाँ झुकब कहियो
अन्नसँ लदल
धरतीकें चुमबाक लेल
व्याकुल-उताहुल
आइ ने तँ काल्हि
हम छी प्रतीक्षा-निमग्न
तनबाक लेल
झुकबाक लेल
मीत!
एतएसँ ओतए धरि
एखन तँ शुरुहे भेल अछि
यात्रा
आ अहाँ ताकए लागल छी
सुरक्षित स्थान
कोनो खोह
जाहिमे बचा सकी स्वयंकें
ककरा-ककरासँ बचाएब
कोना-कोना बाँचब
कतेक चाही सुरक्षा
कतेक बनाएब खोल
आइ ने तँ काल्हि
बहार तँ होब’ पड़त
तिक्ख रौदमे
अजस्त्रा बरखामे
अन्हड़-तूफानमे
मीत!
अहाँ अनेरे खिया लेब
अपन शरीरकें
अपन मोनकें
एहि बखेरासँ नीक
जे उठू आ बहरा जाउ
सभटा बाट
अहींक प्रतीक्षामे पसरल अछि
एतएसँ ओतए धरि
रमेश
कोसी सरकार
घोड़ा टैक्स असुलै’ए कोसी-पेटमे।
कमीशन फड़िछाबै’ए घोड़ा दरोगासँ कोसी-पेटमे।
कोसी पेटमे विधि-व्यवस्था देखै’ए,
राइफलधारी
अपहरण-विशेषज्ञ घोड़ा निचैनसँ।
घोड़ा खम-खम करै’ए थाना लग।
नाल नइं ठोकल छै खूरमे।
मलेटरीवला जुत्ता छै घोड़ाक पैरमे।
एक्के वर्दी थाना आ घोड़ा दुनू पहिरै’ए--कोसी पेटमे।
आइ घोड़ा लेल घी डुबौल लिट्टी बनतै।
गोइठाक क’ह-क’ह आगि पर।
काल्हि भोट छै।
घोड़ाक नाकमे लगाम गाँथ’वला सूआ
हेरा गेलै’ए बकुनियाँ ओ.पी. प्रभारीक हाथें।
तेॅं कैफियैत देब’ गेल छथि
प्रभारी महोदय एस.पी. लग।
तें हुनको बखराक लिट्टी आइ खाएत घोड़े।
आ तखन निकलत विधि-व्यवस्था डुइटीमे
‘बिहार सरकार’ फल्लाँ-गिरोहक घोड़ा
वायरलेससँ छूटल हवा गन्हाइत गण्डौलमे-
पुइं...पुइं...कुइं...पुट्...पुट्...पुट्...
आदि कथा
पानि आ माँछ छिड़िया जाइ छलै इलाकाक बहियारमे
कोसीक साम्यवादी बाढ़ि
सकठे नाह पसरि जाइ छलै--जीवनक संचार लेल,
बाढ़ि अबै छलै लोकक मोनमे/भावनाक,
सम्वेदना लग्गा ल’ क’ खेबै छलै पड़ोसिनक बिन खेवा के,
जीवनमे रसभंग नइं क’ पबै छलै कोसी आ सौमनस्यता
छलै जगजियार कोसिकनहामे
मगर डकूबा इन्जीनियर आ चोरनियाँ सरकार बान्हि देलकै
जीवनक तटबन्धक जुन्नामे ऐंठि क’ सकठे,
कोसी-लोकक जीवनकें गति-हत क’ देलकै
पोथी-पण्डित/नेता मिलि क’,
कोसी-देसक मोन आ हृदय भ’ गेलै दू फाड़
कोसीक आर-पार कमला-बलानक मार
आ धेमुरा-तिलयुगाक पहाड़, कोसीक आर-पार
अपना कन इन्जीनियर भ’ गेलै अँगरेज आ नेता
भ’ गेलै तुरुक। हीनी कोट सिया लेलकै, हूनी कुरता,
हम्में ओइ पार रहि गेलिऐ, तुहें अइ पार,
तोंहें केन्ने जेबहो, हम्मे केकरे बोलबै?
ओइ पार अइ पार
तोरा कन जेल, हमरा कन फाँसी।
तूहें कहियो-काल जेलसँ निकलबो करबही,
हम्मे कोसी-बान्ह टुटलै त’ फाँसी रे फाँसी।
तोरा पूस मासक दिनमे तरेगन लखा जाइ छौ
मोरा बारहो महीनामे तेरहम महिनमा
कतिका मास लखा दै छै भैय्या मोरे!
मोरा बान्ह टूटै के आदंक फा’मे देलकै सरकार
तोरा हमरा नामे ईर्खा फा’मे देलकै सरकार।
तोंहे रिलीफ के ओस चाटहो बिला गेलौ
मेहनति के संस्कार, हमरा बैंक लोन नइं देलकौ,
जिनगी भेलै पहाड़।
हौ बाबा कारू खिड़हरि हौ बाबा सोखा।
हौ बाबा लछमी गोसाँइ!
ल’ जाहो कोसी, ल’ जाहो बान्ह के
हमरा ने जिनगी पड़ै छै पोसाय।
मरसीया
तीन दिन भ’ गेलै नाह पर।
भावहु-बेटी-वेदराक लाजें
नद्दी नइं फीड़ल जाइ छै।
डीह-डाबर डूबि गेलै
घर-माल भासि गेलै
सरकारी खड़ाँतक एक लप चूड़ा गूड़...
नइं गीड़ल जाइ छै।
धैन पनिजाब जे मुरगा-बकरी
अपने मेथला कसाइ छै
केतना दिन पर एलै जमैया
पिलही-बेटी झमाइ छै।
टक-टक ताकै पंजबिया बेटा
पुतहुआकें किछु ने फुराइ छै
केकरे घर के लक्षमी पुतुहआ
नँगटे भासल जाइ छै।
कोसीकें सेवि क’ किछुओ नइं भेलै
बुढ़िया किच्छु नइं खाइ छै
सुन्न-मशान भकोभन फरकिया
गामक गाम बिलाइ छै।
धँसना धँसि क’ खेत बिलाइ छै
जुआनी भूत खेलाइ छै
सकठे भाइ कोसियाइटिस फड़लै
मनुखक मासु बिकाइ छै।
कोसीकनहाक आम बात
कोसिकनहाक खास बात
कोसीमे उतरै छथि सूर्ज त’
आठ मास कोसिकनहा राजस्थान बनि जाइए।
आ कोसीमे उतरै
छथि हिमालय त’ चारि मास
सम्पूर्ण कोसिकनहा बनि जाइ’ए हिन्द महासागर।
कोसिकनहा छी बालुक हिमालय।
मटमैल पीरा पानिक हिन्द महासागर छी कोसिकनहा,
जतए आदमी नामक जीवकें बालु भकोसै’ए आ पानि ढकोसै’ए।
असलमे बाढ़ि कोनो घटना नइं छी।
मनुक्ख नामक जीवकें लहास बनेबाक
इन्तजाम वा औजार छी बाढ़ि।
होइ छै एना जे हिमालयसँ
कोसीमे उतरल ग्लेशियर
तटबन्धक रिंग-बान्हक दराड़िमे
गहा जाइ’ए आ रिंग-बान्हक दराड़िसँ
निकलि-निकलि मूस-साँप-चुट्टीक थोका,
कोसी तटबन्धक प्रमण्डलक आइ.वी.मे पड़ा जाइ’ए।
तखन फेर सूर्ज कुरता-धोती पहिरि क’
सर्किट हाउसमे उतरै छथि त’
सम्पूर्ण सर्किट हाउसमे शिमलाक
हरियरी आबि जाइ’ए। आ शेष
कोसिकनहामे ओहिनाक ओहिना
राजस्थाने राजस्थान रहि जाइए।
तें कोसीमे सूर्जक उतरब आम बात छी।
हिमालयक उतरब आम बात छी कोसीमे।
कोसिकनहाक राजस्थान बनब आम बात छी।
आम बात छी तटबन्धक दराड़िमे
ग्लेशियरक गहा जाएब। रिंग-बान्हक दराड़िमे
आदमी नामक जीवक डम्फ भेल
लहासक गहा जाएब आम बात छी।
मुदा खास बात छी सर्किट हाउसक
शिमला बनब। आइ.वी.मे उज्जर
दप-दप सूर्जक उतरब खास बात छी।
खास बात छी अनन्त।
अनन्त...अनन्त आम बात,
मात्रा एकटा खास बात छी।
मात्रा एकटा खास बात छी-
अनन्त...अनन्त...आम बात
--कोसिकनहामे।
गाम
खेतमे अन्न, पेटमे जुन्ना।
मनुक्खपना पर आस्था, कसाइपनाक भोग।
बाधमे राग मल्हार, बस्तीमे समदाउन।
पोखरी मोहार पर करजन्नी,
करजन्नी सन-सन आँखिमे पोखरि।
कलममे आम, बरखपाछुक सेहन्ता।
कुसियारक राटन धनीक,
हाफक जेबी गरीब।
एक टोनी लेल दँतखिसरी, कोला-कोलाक पुर्जी।
एक बुन्द दूध, मखानक पात आ मुँह।
घूर त’र पंच-न्याय, पलंग पर मत्स्य-न्याय।
सम्बन्धमे आड़ि-धूर, बाधमे दुष्टताक कोदारि।
दिनमे ‘हरे-हरे’ राति क’ घ’रे-घ’रे।
मोनमे काट आ ऊपरसँ हीया फाट।
भावहु पर घात आ
एक सय एगारह नम्मर वला तिनफट्टा चानन,
ठोर पर सूदिक हिसाब आ झक-झक वैष्णवी आनन।
बजार
सोन-चानीक उपजा,
लोह सन हृदय।
रुपैयाक मिसिल,
भावनाक राजस्थान।
बजार समितिक वधस्थल
अपस्याँत अभिमन्यु यादव।
लाल फित्ताक चक्रव्यूहमे किसान,
सात जनमक पियासल सूरा।
धर्म-काँटाक, पाप-पासंग।
मिसरीक व्यवसायी मिसरी दास,
चिरैताक ग्राहक।
जय मातादी, राधे-राधे।
घी’मे डालडा,आधे-आधे।
जय श्याम बाबा, जय श्याम बाबा,
पेस्तौल-बुलेट के दूध आ लावा।
विवेकानन्द ठाकुर
गिद्ध बैसल मन्दिर
सौंसे इलाका गनगना गेल
गिद्ध बैसल मन्दिर छुआ गेल
कोनो पुरखाक बनबाओल मन्दिर
बड्ड पुरान/ने छोट/ने पैघ/घुटमुटार
लखुरिया पजेबाक चारू देबाल
जाहि पर औन्हल गोल गुम्बर
बीच मे गाड़ल बीझ लागल त्रिशूल
शीत-ताप पानि पाथर
झक्कड़-धक्कड़ सहैत-सहैत/कारी सिआह भेल
जेना अगबे छाउरसँ/हो ढौरल
मन्दिर बनल रहल ओंगठन-छाहरि
अनेक लोक लेल अनेक बर्ख धरि
एक्केटा शहसँ मुदा, सभ भ’ गेल मात
मन्दिर पर भ’ गेल पैघ वज्रपात
पपिआहाक बात सभ पतिया गेल
गिद्ध बैसल मन्दिर छुआ गेल
सौंसे इलाका गनगना गेल
गिद्ध बैसल मन्दिर छुआ गेल
मन्दिर छुआ गेल ओंगठन छुआ गेल
छाहरि छुआ गेल
देवता जे छलाह जागन्त
आब भ’ गेलाह आदंक
लोक सभ डेरा गेल पुजेगरी पड़ा गेल
चोरबा सभ कें फबलइ राता-राती
लोहक सिक्कड़ काटि चोरा लेलक
बड़का पितरिया घण्टा, दीप, घण्टी, घड़ी-घण्टा
सभकें बेच आएल ओजनसँ ठठेरी बजारमे
ने बेचनिहारके कोनो ग्लानि
ने किननिहारकें कोनो दुविधा
इलाका भरिक श्रद्धा आ विश्वास
ओजनसँ बिका गेल ठठेरी बजारमे
रहि गेला पाथरक देवता
हुनका नहि पुछलक चोरबा
अन्हार घुप्प मन्दिरमे आब भम पड़इए
केओ ओम्हर कखनो घूरि नहि तकइए
एकटा प्रश्नक मुदा, नहि भेटइए उत्तर
पाथरक देवता फेर भ’ गेला पाथर?
सत्ते भ’ गेला पाथर, सत्ते भ’ गेला पाथर
भूख आ पियासक अर्थ
पण्डितजीक प्रवचन घण्टा भरि चललनि
जे-जे छलाह सुद्धा-बुद्धा
से-से गपियाइत-गपियाइत लगला हफिआए
पण्डितजी प्रवचनक समापन एना कएलनि
कहबाक तात्पर्य ई...
घण्टा भरिमे तात्पर्यक खुलासा नहि भ’ सकलनि
जाबे ओ तात्पर्यक खुलासा करथि-करथि
ताबे सुद्धा-बुद्धा अपन-अपन गामक आधा रास्ता लगचिऔने
चन्द्रविन्दु-अनुस्वार अर्द्धविराम-पूर्णविराम
आओर किछु चिन्हार किछु अनचिन्हार
संकेत एहि सभक बीच शब्द-समूह ओझराएल
पहिने बूझू शब्दार्थ तखन बूझब भावार्थ
शब्दार्थ बुझब कठिन नहि
मुदा, भावार्थ बूझब जेना पहाड़ पर चढ़ब
कतेको सुद्धा-बुद्धा पढ़बाक प्रयत्न कएलनि
बुझबाक प्रयत्न कएलनि एही दुआरे
मुदा, बीचहिमे उलार भ’ जाइ गेला
ओ दिन कहिया आओत
जखन भूखक अर्थ हैत सोझ क’ भूख
क्षुधा नहि
पियासक अर्थ हैत सोझ क’ पियास
तृष्णा नहि
ओहिना, जेना जखन कोनो भुखाएल नेना
कोनो पियासल नेना, मायके कहै छै
माय गे...भूख लागल
माय गे...पियास लागल
माय तखन भूख आ पियासक
जे अर्थ बुझै छै सैह अर्थ
सोझ क’ सैह अर्थ
जकर ने कोनो शब्दार्थ ने कोनो भावार्थ
ने कोनो शब्दार्थ ने कोनो भावार्थ
सियाराम सरस
एक आँखि कमल दोसर अढूल
जकरा घरमे दीप ने जरलै तकर कुशलता डुमरिक फूल
तकरा पूछबै हाल-चाल तँ गत्रा-गत्रामे गड़तै शूल
बासगीत केर परचा भेटलै मुखमन्त्राीसँ तेसरे साल
असलो घ’र उजड़लै तै ले’ अड़खिसमे ढोढ़बा कंगाल
अहिना तन्त्राक थेथड़पनीमे कलुआ भोगै कष्ट फजूल
मासमे कए-कए टा हरिवासल बरमहल हो हमरे टोल
बिसुखल एतहि जमाहिर जोजना की सोहाओन छल दूरक ढोल
आँत ऐंठि क’ मुइलै मधुरी से की हेहरी करत कबूल
जकरा नै छै चास बीत भरि जकरा घर नै होइ लवान
जकरा दू कौड़ी नै आमद मरन छोड़ि की आर निदान
दोहरी मानदण्डिका हाथें कते दिन चलतै ई रूल
की बुझबैक अहाँ, खटनी पर लवड़ी सेरक बोनि-ब्यथा
की बुझबै जे श्रम-सीकर केर केहेन धार आ मोनि-कथा
की बुझबै जे नयन-कमल पर किए फुलाएल लाल अढूल
सत्यसँ साक्षात्कार
सात भाग नोरक सागरमे एक भाग मुसकान जिन्दगी
अनचिन्हार सन चैबटिया पर हेरए ठ’र ठेकान जिन्दगी
नित-नित नूतन सपनक खेती खन जापानी खने विलेंती
संगहि सपनक ओवा-मरकी अपनहि बूनी टाटी-फरकी
ईंच-ईंच पर सारा-गाड़ा सपनक कबरिस्तान जिन्दगी
लगइछ चोट-मचोड़ पडै़ए अनगिन खोंच नछोड़ लगैए
मोड़ लैछ घटना-दर-घटना पल-पल लाख-लाख दुर्घटना
कत’ कत’ हो मलहम-पट्टी सगरो लहू-लुहान जिन्दगी
चण्ठ बनैए लण्ठ बनैए पैर घिचैए कण्ठ दबैए
सदिखन उक्खी-बिक्खी लागल छिच्छा जेना साफ हो पागल
क्वीण्टल भरि बदमाशीक पाछाँ रत्ती भरि इनसान जिन्दगी
हरेक प्रीति पहिने रसगुल्ला हरेक प्रीति पाछाँ बुलबुल्ला
तट पर लहरिक आबाजाही जन्मक बरखा मृत्यु-पसाही
हरेक मिलनमे गर्भित विरहक आतपसँ अनजान जिन्दगी
कहाँ देखै छी शिमला घाटी कहाँ कतौ बम्मइ चैपाटी
कहाँ कतौ गुलमोहर फुलाएल अन्हड़-झक्खड़-पतझड़ आएल
एक पाइ भरि काश्मीर आ बाँकी राजस्थान जिन्दगी
देवशंकर नवीन
माइक कथा
अइ सादा कागत पर
कोनो श्रान्त-क्लान्त आँखिक नोेर जकाँ
उगि आएल शब्दकें अहाँ कोनो कथा कहबै?
आ कि कहि देबै हमर व्यथाक गीत?
माइक गर्भ दादीक कोर, बापक हथझूलासँ
सासुक लेहाज, ससुरसँ परदा, पतिक आदेश धरिक यात्रामे
हमर माइ
कोना ध्वस्त केने हएत अपन स्वप्न महल
कोना हमरा छ’हर बनब’मे
अपनाकें खाधि बनौने हएत ओ
अपना मादे सोचबाक कामनाकें
कोना बिसारि देने हएत माइ
हमरामे एक-एक कनोजरि निकलैत देखबा लेल
कोना निर्निमेष तकैत आ जगैत रहल होएत माइ--
हमरा किछु बूझल नइं अछि
आन्दाजो करब हमर स’क नइं अछि
बूझल अछि मात्रा एतबे
जे गाढ़ नीनमे सूतल सन्तानक मुखमण्डल पर मुस्कीक कोनो रेख
बड़ दीब लगै छै माइकें
माइकें सुखकर लगै छै
सन्तानक बलशाली आ वैभवशाली हेबाक कल्पना
ओकरा नीक नइं लगै छै
अपन प्रशंसा, अपन परिचय
ओ अपन पतिक पत्नी आ सन्तानक माइ हेबाक तथ्येकें
अपन परिचय बूझैत अछि
एक जीवनक अद्र्धांश बिता कए
आइ धरि हम इएह बूझि सकलहुँ अछि
जे कनियाँ-पुतराक खेल कहिया ने उड़न छू भ’ गेल माइक जीवनसँ
आब थाकि गेला पर हाफी आ अंगेठी-मोड़ जकाँ मोन रखैत अछि माइ
सासुरक चूल्हा-चिनवार
माइक स्मरण-शक्ति बड़ तीक्ष्ण अछि
के.जी.क्लासक नेना जकाँ राइम्स रटैत माइ
मोन रखैत अछि
सासुक भक्ति, ससुरक सेवा
पति देवताक पूजा, सन्तानादिक लालन-पालन
माइ, पल-पल अस्वस्थ रहैत अछि
माइ, अपनाकें एको पल अस्वस्थ नइं कहैत अछि
अपनाकें धूपकाठी जकाँ जड़बैत माइ कहैत अछि--
बेटीसँ पत्नी आ पत्नीसँ माइ बनबाक सार्थकता
तों नइं बुझि सकबहक बाउ !
मजूर
अगबे फूहीसँ हमर काज नइं चलत मेघ !
कने जमि कए बरसू !
ई फूही तँ महल-अटारीक अलस-भाव ओछाओन
आ पार्क-विलासी जोड़ी लेल सुखकर भ’ सकै’ए
हमरा तँ मूसलाधार बरखा चाही
मेघ! बरसू ने
ई आत्मा
ई शरीर
ईट्टाक छाहरिमे नइं
अहाँक थपकीसँ तृप्त होइत अछि
तन, मन, प्राण आ पेट धरिक तृप्ति तँ
हमरा अह° द’ पबै छी
रोपनीक मौसिम छै
कने जमि कए बरसू ने !
उखड़ल गाछ
विश्वग्रामक धारणा,
वसुधैव कुटुम्बकमसँ उन्नत लगै अछि अइ देशमे
चूल्हा, चिनवार, खेत, खरिहान,
ह’र, फाड़, ढोइस, करीन
दलान-चैपाल, घूर-धुआँ, गोबर-करसी
भदेस आचरण थिक अइ देशमे
संग्रहालयमे बन्न भ’ गेल लोक-कला
एहनामे
ईस्ट इण्डिया कम्पनी जँ एक बेर फेरसँ आबिए गेल अइ देशमे--
त’ की करबै अहाँ
1857 अथवा 1942 क स्मरण ठीक होएत
मुदा मोन राखू
विद्रोहक आधार भाषा आ संस्कृति होइत अछि
से अहाँ बिसरि चुकल छी
कने रोकि लिअनु हुनकर मृत्यु
हे दाता दीनानाथ !
अहाँ कतहु छी ?
जँ छी, तँ एना करब अइ अनाथ सब लेल
हमरा देशक मन्त्राी, प्रधानमन्त्राी आब बदलए नइं देब
जँ बदलिओ जाथि
हुनकर बदलब जँ अहाँ रोकि नइं पाबी
तँ क’ल जोडै़ छी
दोहाइ हे दाता दीनानाथ !
हुनका मरए नइं देबनि
हुनकर मृत्यु रोकि सकै छी अहाँ--
से सुनल अछि हमरा लोकनि
हुनकर मृत्यु हमरा सब सन निस्सहाय लेल अनिष्टकारी होएत भगवन!
कित्ताक कित्ता जगह फेर घेरा जाएत हुनकर समाधिमे
आ जँ अहिना होइत रहल
तँ कत’ बैसती हमर घरनी
चूल्हा-चिनवार लेल
कत’ गुरकुनियाँ काटत देशक बच्चा
कतए लागत ओकरा देहमे देशक माटि
आ, फेर ओ पैघ भ’ कए कोना कहत
जे अइ देशक माटिसँ पुष्ट भेल अछि हमर शरीर
झरना
अपना दलान पर मजमा लगा कए
अहाँक कुमारि कन्याँकें नोत देब
मंच पर ल’ जा कए ओकर स्तुति गान करब
मनवांछित अवस्थामे ओकर फोटो घीचब
फोटो सहित ओकर समाचार छापब...
ई स’बो टा आचरण ओकर व्यापार थिकै
आब घोषणा हएत--
ई कन्या महाबलीक नजरिमे भगवती आ भागवती छथि...
आ दुनियाँ मानि लेत
लाज लेहाज आ कपड़ा बस्तर उतारि
दूरदर्शन पर आबि ओ भागवती अहाँकें कहती--
महाबलीक कम्पनीमे बनल टायर सस्त आ टिकाउ होइत अछि
अहाँ इएह टा कीनू, आन नइं--
अहाँकें अनर्गल किऐ लागत?
अखबार, दूरदर्शन
आ अहाँक कुमारि कन्याँ लेल
अहाँक नोन सागक ओरिआओन निरर्थक अछि
भागवती घोषित भेलाक बाद कोनो कन्याँ
साग-वतीक सन्तान नइं
उपदेशक बनि जाइत अछि
दुनियाँ-दारी
दाही-जारीक कारणें
हमरा गामक किसान आत्महत्या क’ लेलक
बेतला वनखण्डमे कोनो अवर्ण, सवर्ण स्त्राी संग दुराचार भ’ गेल
थानामे रपट लिखैत पुलिस ओकर ‘अनुभव’ बढ़ौलक
गामक सरपंच अपन पुतौहकें जरा देलनि
दहेज दंशमे किछु युवती आत्महत्या क’ लेलक
बेटी नइं बियाहि सकबाक सन्तापसँ कोनो नागरिक बताह भ’ गेल
ई स’बो टा समचार निरर्थक छल
बिकाऊ नइं छल
रेडियो, दूरदर्शन, अखबार, पत्रिका
एखन पुनीत काजमे लागल अछि
महाबलीक वैवाहिक आ व्यापारिक चिन्तासँ बेसी पुनीत काज
आन किछु नइं
भूख, बोझ, रोग, शोकसँ हत, आहत, मर्माहत
आदिवासी स्त्राीक निस्ेतज चित्रा
अखबार, दूरदर्शनकें की देत
मुख्य मन्त्राीक चरणामृत लैत, आदिवासी स्त्राीक मुस्कान
अहँूकें रमणगर लगैए
अइमे अखबारक कोन दोख?
समाचार
निर्णय लेल गेल अछि
जे पिपरक एकटा पात पहिरि कए
मात्रा एकटा पात, आन किछु नइं
निर्णय लेल गेल अछि
जे पीपरक मात्रा एकटा पात पहिरि कए
भारत देशक शीलवती युवती
महाबलीक संग मंच पर नाचती
महाबली आ दर्शक लोकनि तकर रस लेताह
महाबली ओहि युवतीकें चुम्मा लेताह
आ युवतीक नक्षत्रा जागि जाएत
युवती, सामान्य कन्याँसँ नगर-कन्याँ
फेर राज-कन्याँ आ ब्रह्माण्ड-कन्याँ भ’ जेतीह
अखबार, रेडियो, दूरदर्शन पर युवतीक इन्टरव्यू लेल जाएत
ओ विशिष्ट युवती अहाँ लोकनिकें
आ देशक सामान्य कन्याँकें अकादमिक उपदेश देतीह
एक पातसँ झाँपल दैहिक भूगोल
आब शील-सभ्यताक सीमा निर्धारित करत
आ संस्कृति मन्त्राी दूरदर्शन पर ई दृश्य देखैत
कृत्-कृत् हेताह
बिज्जू स्त्राीवाद
इजलास पर जज बैसल छथि
कठघरामे एक दिश राम
आ एक दिश जानकी ठाढ़ि छथि
ऋषिक कुटीमे सम्मन पहुँचल रहनि
जानकीकें मोआबजा दिअएबा लेल
कोनो नारीवादी ओकील मोकदमा केने छलखिन्ह
जिरह भ’ चुकल अछि
जानकी चैंकि उठलीह
बजलीह --
नइं श्रीमान
हमरा अइ पुरुषसँ नइं चाही मोआबजा
हिनकासँ मोआबजा ल’ कए हम हिनकर अहंकें आओर ऊँच नइं करए
चाहै छी
हिनकर कमाइ खा कए हम अपन आत्मा आ सम्मानकें
आहत नइं करए चाहै छी...
परित्यक्त छी, परित्यागी छी
मुदा सम्मान बचा कए राखए चाहै छी
रामराज्यक कत्र्तापुरुष आ दुनियाँ भरिक मर्दकें
देखा देब’ चाहै छी
जे कोनो स्त्राी
धन, सुरक्षा, सेना आ राज-पाटक बलें पैघ नइं होइत अछि
ओ पैघ होइत अछि अपन सृजनसँ
लव-कुश सन वीर सन्तानक जननी बड़ पैघ होइत अछि
रामराज्यक राजा रामसँ बड़ पैघ
दुनियाँकें ई बूझ’क चाही जे
जानि नइं कते हजार बर्ख धरि वंश परम्पराक टेमी उत्पन्न कर’वाली
आ तकर लालन पालन कर’वाली
स्त्राीक परीक्षा लेब’ काल हरेक पुरुष
ओहिसँ पैघ परीक्षा स्वयं दैत रहैत अछि
हुनका बूझल रह’क चाही जे
विवाहसँ पूर्व कोनो पुरुष एसगर रहैत अछि
आ विवाहक बाद आधा भ’ जाइत अछि
मुदा स्त्राी?
ओ तँ सर्वदा पूर्ण रहैत’छि
परित्यागक बाद पुरुखक पितृत्व छिना जाइत अछि
मुदा स्त्राीक मतृत्व आ ममता ओकर संग रहैत छै
हजूर
अहाँ हिनकासँ मुआवजा हमरा जुनि दिआउ!
तराजू
आँखि आ कान
अतिशय सुविधाभोगी होइए
अतिशय सौन्दर्यवादी
जे बात वा चीज ओकरा नीक नइं लगै छै
तकरा ओ नइं देखत, अथवा नइं सूनत
मुदा माथ?
माथ से नइं करैए
आँखि वा कान द्वारा असुन्दर घोषित कएल प्रसंगोकें
ओ गीजैत रहैए
बिसरै नइं ए
जेना, अहाँ जमशेदपुर आ भागलपुरक दंगा
नइं बिसरल हएब
गोधरा, निठारी नइं बिसरल हएब
नन्दीग्राम नइं बिसरब
मुदा उत्तर-आधुनिक विमर्शमे
ई सब टेक्स्ट भेल--सम्वेदना नइं
ई सब पाठ भेल
अर्थात् आब अइ पर विचार हएत
हमरा लगै’ए
हम सब एके संग आदिम आ उत्तर-आधुनिक युगमे जीबै छी
छागर-पाठी, हरिण, खढ़िया, मूस-बेंग, साँप, आॅक्टोपस,
गाय-महीस, सुग्गर, कुकूर, तीतिर-बटेर, मुर्गा पड़बा, बगुला खा क’
मौज मार’बला हमरा लोकनि
मानव आ मानव-अंगक व्यापार त’ क’ए रहल छी
फेर खएबामे कोन हर्ज
नारायणजी
निर्बल भोगत जीव-सुख भुवनमे
अरना पाड़ाक कोन कथा
हाथी लंक ल’ पड़ाइत अछि
सिंहक प्रकट होइतहि जंगलमे
जैवशास्त्राी लोकनि कहै छथि--
सिंहक संख्या निरन्तर घटि रहल अछि धरती पर
भयानक डायनासोरक हम कल्पना धरि नहि कएने रही
‘जुरासिक पार्क’ फिल्म देखलासँ पहिने
जे एहनो प्राणी सम्भव भ’ सकैत अछि जगतमे
से लुप्त भ’ गेल करोड़ों बर्ख पहिने
आद्र्राक पहिल बर्खामे
खेतमे बुलैत अछि डोका
ठाम-ठाम ओ सभ एना घोदिआएल अछि
लगैत अछि,
पीबि रहल अछि एक-दोसराक माझक विभाजक रेखा
ससरैत अछि
नहुँ-नहुँ
घास पर
घासक जड़िमे
भोरुका रौदमे देखाइत अछि दिव्य
आद्र्राक फूहीमे
हम सभ बर्ख देखै छी
नाँगट-उघार खढुआनक उत्सव--
मासु लेल जोहि-जोहि खोंचड़िमे बिछैत डोका
सभ बर्ख देखै छी डोकाक पथार
घास पर, घासक जड़िमे
थालमे, करीनक प’टमे धरती पर ससरैत
धरतीकें जनबैत जीव-ताप
नहुँ-नहुँु ससरैत
बचबैत धरतीकें भोगैत अत्यल्प
सदैव रहत
सहज सौन्दर्य संग
निर्बल
भोगत जीव-सुख भुवनमे
कत’ चलि गेल भयानक डायनासोर?
जंगलक राजा सिंह कत’ जा रहल छथि?
कोसी
कोसी सभ बर्ख अबैत रहए
हमर गाममे
हमर घर-अँगनामे हूलि जाए
कोसी रहए
जाति आ जातिमे भेद नहि करए
ओकर प्रहारमे रहैक मात्रा प्रान-रेख
गामसँ हटि
आब बान्ह भ’ गेल अछि
कोसी
गामसँ हटि गेलीह अछि
कोसीसँ सुरक्षित भ’ गेल अछि गाम
अभेद्य भ’ गेल अछि सीमा
भय-मुक्त भ’ गेलहुँ अछि हम
हम भय-मुक्त भ’ गेलहुँ अछि
हम बाभन भ’ गेलहुँ अछि
हम जादब भ’ गेलहुँ अछि
पैंजाब हमर अँगनाक गीतनाद छी
पैंजाबमे
सूर्ज जे जगै छै
से सूर्जकें जगबै छै भैया
भैयाकें
पैंजाबमे सभ भैया कहै छै
सरदारजी सेहो
भैया संग काज करै छै
पैंजाबमे
भैया कटै छै जीरी
जीरी नहि
बोनिमे पाइ भेटै छै
नोकरिहारा जकाँ
पैंजाबमे
गुरु गोसाँइ रछिया करौ भैयाक
भैया संगमे रहौ कारू बाबा
हमर अँगनामे
एखन शुरू करै जाओ भजन
गबै जाओ गीतनाद
हँ हओ रामटहल!
पैंजाब
हमर अँगनाक भजन-भाव छी
पैंजाब हमर अँगनाक गीतनाद छी
जल, धरतीक अनुरागमे बसैत अछि
जल
धरतीक अनुरागमे बसैत अछि
बसैत नहि अछि
शिखरक दर्पमे
शिखरक पराक्रममे आ उत्कर्षमे
बसैत नहि अछि
शिखरक स्वर्गमे
एकटा भकरार दिन
जलक माथ पर बिहुँस’ लगैत अछि
रुधिर संग बह’ लगैत अछि शिरामे
अपना लेल मानैत नहि अछि
जल
कोनो लक्ष्मण-रेखा
अपन असहाय क्षणोमे
जीबाक सम्भावना थोड़ रहि गेल रहैत अछि शेष
शेष रहैत शिखरक कामनोमे
जलक कामनामे जन्म नहि लैत अछि कोनो शिखर
बनैत नहि अछि
कोनो प्रार्थना वा प्रस्तुति वा प्रादर्श
शिखरसँ हेठ होइत जल
चाहैत नहि अछि
अपना लेल कोनो आर शिखर
दौगैत अछि धरती पर
बेकल पीबा लेल हीक भरि
धरती
प्रस्तुत रहैत अछि जल लेल
बेकल
जल धरतीक
सर्वाधिक पतित धरतीक
अनुरोध थिक
लोटाइत अछि धरती पर
उत्सवित
जल, धरतीक अनुरागमे
बसैत अछि।
पृथ्वी मोन रखैत अछि प्रेम
पृथ्वी
पृथ्वी होइत अछि
हम जखन चलैत रहै छी रस्ता पर
अपन धुनिमे मस्त
अपन ठाम पर रहैत अछि
माँ कहैत अछि --
जखन बेटीक जन्म होइत अछि
पृथ्वी सवा हाथ धँसि जाइत छथि नीचाँ
हम से कहियो नहि पाओल
हम देखल अछि
एक गोटेकें
जे क्रोधमे रहथि
पराजयक धार बीच डुबैत
निरन्तर पैर पटकि रहल रहथि पृथ्वी पर
अपन विस्मृतिमे
अपन जीतसँ क’ रहल छलाह आश्वस्त स्वयंकें
पृथ्वी काठ बनि गेलि रहए
हम देखल अछि
काठ बनल पृथ्वी
जनैत अछि मनुक्खक कोप आ आघात
मुदा, मोन नहि रखैत अछि
के फेकलक अछि थूक पृथ्वी पर?
एहि दुश्चिन्तामे कहियो नहि पड़ल
जे क्यो ओकरा मलिन क’ रहल छै
हम देखल अछि
एक राति जखन आकाशमे चान नहि छल
आ हवा अपन दायित्वमे बाझल छल
बिहुँसैत हम
कने आग्रह संग पृथ्वीसँ भेंट कएल
आ पाओल
पृथ्वी मोन रखैत अछि प्रेम
अपन कोखिमे निःशब्द खसाओल
बीज
मोन रखैत अछि स्नेह आ दुलार
अभिभूत होइत
जनमा लैत अछि गाछ अपन छाती पर
अपन अस्थि आ माँस आ मज्जाक मन्थनसँ
पृथ्वीमे हाथसँ अर्पित करैत अभिलाषा
माथ पर उठबितहि बोझ
बोझ उघ’ लगै छी
सुतै छी
त’ सुतै छी भरिपोख
सोचै नहि छी
फुद्दी भ’ जाइ
नाँघि आबी कैलाश
सूतलमे
हम सूतल रही
आ खरहोरिमे लागि जाए कलम-बाँस
लुबुधि जाए पसिनक फूल भरि गाछ
अँगनामे अपनहि
से सभ सोचलासँ की लाभ?
चालीस बर्ख पूर्व घर त्यागल
बताह बाप घुरि आबथि धरतीक अपरिचित विस्तारसँ
देखा जाथि घराड़ीक सीमा
आब सपना नहि अछि
सपनामे भरल-पुरल चास अछि
अन्न-धन लक्ष्मी
श्रद्धासँ झुकि जाइ छी पृथ्वीक आगू
किछु फौड़ै छी
तोड़ै छी
कटै छी किछु सपनाक ठाँओ लेल
स्मृतिसँ बिछै छी इच्छा
टोभै छी परिचितिक संसारमे
चाहै छी
एखन बर्खा नहि होइ
बाँचल रहि जाए हमर कामना
चिन्तासँ
पैघ विश्वास रहैत अछि
पृथ्वीमे हाथसँ अर्पित करैत अभिलाषा
फसिलक सपनामे भ’ जाइ छी निमग्न
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"भालसरिक गाछ" Post edited multiple times to incorporate all Yahoo Geocities "भालसरिक गाछ" materials from 2000 onwards as...
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जेठक दुपहरि बारहो कलासँ उगिलि उगिलि भीषण ज्वाला आकाश चढ़ल दिनकर त्रिभुवन डाहथि जरि जरि पछबा प्रचण्ड बिरड़ो उदण्ड सन सन सन सन...
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खंजनि चलली बगढड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरली अपन वस्तुलक परित्याकग क’ आनक अनुकरण कयलापर अपनो व्यिवहार बिसरि गेलापर व्यंपग्यय। खइनी अछि दुइ मो...
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अपन टीका-टिप्पणीमे रचना आ रचनाकार/ प्रस्तुतकर्ताक नाम अवश्य लिखी, से आग्रह, जाहिसँ हुनका लोकनिकेँ त्वरित संदेश प्रेषण कएल जा सकय। अहाँ अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर सेहो पठा सकैत छी।
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