भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति
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Thursday, July 17, 2008
पेटार ७
बाजार-कालमे मन
शब्दकें छुच्छे काने टा नहि
आँखि चाहिऐ
आँखिकें मन-मस्तिष्क।
मन-मस्तिष्ककें चाहिऐ जेना ज्ञान
तकरा लेल छठम इन्द्रिय।
अंगकें निरोग सम्वेदन-गुण,
गुणकें चाही अपन सहज प्राकृतिक सुगन्धि।
कोनो वस्तु बिलाइत-तिलाइत नहि छै
ब्रह्माण्डसँ बाहर तँ कथमपि नहि।
कखनो हेराइत, कखनो नुकाइत, आ कखनो बलात।
नुकाओल-चोराओल वा बेचि देल जाइ छै
हमर, अहाँक, अहाँक मित्राक वा सखी-बहिनपाक प्राण-वस्तु पर्यन्त बन्हकी।
मामूली लोटा किम्बा हाथ घड़ी वा पाँच-दस टाका
विभागीय परिचय फोटो-कार्ड, थोड़ेक टेलिफोन नम्बर वला फाटल मनीबैग
हेरा जाइत अछि, केहन विकल भेल दौड़ै छी पुलिस थाना--
एफ.आइ.आर. लिखेबा लेल?
एते रास शब्द, मन, गुण, गन्ध
एहन देखार बलजोरीसँ बेचल-बिकनल चल जा रहल’ए--
ई धूत्र्त बजार-काल,
तखनहुँ कोना छी एतेक निश्चिन्त, नहि जानि।
भने मैथिले होइ अहाँक मन किऐक नहि खदकै-बड़कै’ए
चूल्हि परक बासनक खिच्चड़ि, लोहियाक तीमन-तरकारी जकाँ?
आ कि गाएब अछि, आइ-काल्हि जेना बासन-लोहियासँ खदकब-बड़कबक शब्द
अहूँक हृदयसँ तहिना अनुभूति?
कोन आश्चर्य काल्हि खन स्नेह आ अनुरागो हेराएल वस्तु भ’ चलए। आ प्रेम?
प्रेमकें तँ ई डिजिटल युग, प्रतिदिन क’ लैत अछि अगवा,
आ पठा दैत अछि -- अमेरिका-इंगलैंड।
हाल हालक पछिला शताब्दीमे जेना कोंचि-काँचि क’ ल’ गेल जाइत रहए
भूखें असहाय यू.पी., बिहारक सए-हजार ज’न बनिहार
पानिक विशाल जहाजक जहाज -- माॅरिशस-फीजी-त्रिनिदाद?
-समुद्रे-समुद्र?
प्रेम लेल सब किछु
हम अहाकें प्रेम करैत रही
तें रोपलौं पहिल बेली फूलक गाछ
तंे घर बनौलौंे
तें लिखलौं पोथी
तें गेलौं खेत।
ओगरलौं खरिहान,
लड़लौं बनैआ सुग्गरसँ
भेलौं शोनिते शोनिताम
तें गढ़बा लेल व्याकुल रहै छी
निरापद जीवन यापन,
किएक तँ एकटा सन्तान चाही।
सन्ताने रचि रहल छी, तें
अहाँकें प्रेम करै छी!
रातिक पेट
कवितो होइछ वनस्पति जकाँ
सर्वहारा लोक।
रातिएमे बढ़ि पबैत अछि।
नुका-नुका क’ भ’ पबै’ए ठाढ़ आ पैघ।
दिनुका प्रकाश तँ
महावृक्ष सभक पैतृक सम्पत्ति थिकनि
नान्हि टा छोटछिन गाछ-पातकें
जीवित रहि क’ बढ़बा लेल
रातिए अछि निरापद।
सोचै छी,
राति नहि होइतै
तँ सर्वसाधारण कोना जीबितए
जी सकितए?
शब्द: एक
एखनहि तुरन्त जवान भेल
बेटे जकाँ बहतरा भ’ गेल शब्द।
अपने मनमौजी ढब आ मस्तीसँ
अपनहि ढंगें चलैत बहकैत जकाँ।
एम्हर हम शब्दकें आवाहन केलिऐ
सोर केलिऐ जेना बेटी-बेटाकें
मुदा ओ तेहन व्यस्त छल जे लग नहि आएल
जेना हमर बेटा प्रचण्ड रौद आ लू’मे
बड़ जोशसँ विदा भ’ गेल हो
काज करए। ड्यूटी।
शब्द: दू
लगै’ए, आमहि जकाँ शब्द फ’रै छै
अपन-अपन ऋतुमे
उपभोग क’ लेल गेलाक बाद फेर
मातृवृक्षमे ल’ लैत अछि
सम्भावना-आश्रय।
अगिला मौसममे फेेर
मजरैत छै गाछ
फेर उमगैत छै टिकुला
फेर होइत छै आम।
उनैस सय पचहत्तरि आ दू हजारक शब्द...
उनैस सय पचहत्तरि आ दू हजारक एकटि टा शब्द
अपन-अपन पुनर्जन्म लै’ए।
शब्दक पुनर्जन्म होइ छै
जेना मनुक्खक,
एकहि जीवनमे फेर-फेर
जन्म होइत छै
होइ छै अपन अपन घटनामे मृत्यु।
कोनो कविता अन्तिम नहि
जेना नहि कोनहुँ शब्द प्रथम।
छोट-छोट पैघ लोक
जे पहिने बनि जाइ छथि पैघ
बनले रहि जाइ छथि
तखनहुँ जखन हुनकासँ छोटका सभ
होब’ लागि जाइ छनि पैघ।
पहिनहिसँ एहि पैघक
पालकी उघैत इतिहास काल
ढील ढाल होब’ लागि जाइत अछि
समयक तरुण कहार भ’ चुकैत अछि--
घोकचल चामवला गदरनि
ढील-ढाल माँसपेशीक, लोहारक भाथी बनल छाती
कछमछाइत कान्ह आ झुलैत बाँहि
असोथकित डेगवला
तथापि,
उघबओताह ई पहिनेसँ पैघ
एकरहि सभसँ अपन सवारी
कथमपि नहि होब’ देब’ चाहताह
पैघ भ’ रहल सभकें ठाढ़।
पाछाँ,
पैघ होएबा लेल बेचैन
कनकनाइत हाथ पैरक चेष्टामे
कड़गर संघर्षक मध्य होइत छथि ई --पैघ।
उत्तराधिकारी, मुदा
पैघ नहि भ’,
यावत जीबैत अछि
रहि जाइ छथि पहिनेक पैघसँ--
केहन छोट-छोट?
स्वाधीनता
शब्द स्वाधीन नहि अछि,
रहए पडै़ छै ओकरो अर्थ पर निर्भर
अर्थ दै छै कखनो माटि, कखनो पानि
कखनो आगि-आकाश, जल जीवन
मनुक्ख शब्दकें अर्थ जीवन दै छै
समुद्रकें जल आ मेघमालाक अनवरतता
माटिकें जेना गाछ-वनस्पति
अत्यन्त कोमल शब्द कोना अर्थ द’ जाइत छै
कठोरतम-पाषाण जेना पाषाणकें अत्यन्त
तरल गतिशील गीत जकाँ
पर्वत-शृंखला, झरना
चिड़ैक चोंचकें अभिप्रायसँ भरैत छै उन्मुक्त विचरण
पिजड़ा नहि।
पिजड़ाकें अर्थ दै छै मनुक्खक, अशक्तता,
बुद्धि अन्धता आ
एकाकी स्वार्थयात्राीक सभ तरहें दरिद्र हृदय।
शब्दक स्वाधीनते तँ अछि असली समर
मनुक्ख पर्यन्तकें तथापि
ओकरे पर रहए पडै़ छै निर्भर
विजय पर्व: आॅपरेशन टेबुल पर
हारि गेल मैच पाकिस्तान
मना लेलक गौरव हिन्दुस्तान,
हर्ष वा स्पद्र्धाक नहि--
उन्मत्त आनन्दक--आनन्दोन्माद
पराजयक स्वाभाविक प्रतिस्पद्र्धी अनुभूति नहि,
मनाबए लागल गर्वाहत शोक-सन्ताप-ग्लानि
दोसर दिस मनुक्खक विशाल समाज।
सहज सुन्दर खेल-संसारकंें
कोन अदृश्य चमत्कारी हृदय-तन्त्रा
लगातार बनौने चल गेल’ए युद्धोत्तर रणभूमि
खुशी आ दुःख तँ सोझाँ-सोझी
बुझबा योग्य होइत अछि
मुदा खुशीक बतहपनी आ दुःखक गर्वोन्नत उन्माद!
ई केहन समुद्र थिक, जे दिल्लीयोमे
हुहुआ रहल’ए अपन विकराल विस्तार?
भरिये रातिमे ध्वस्त क’ देलक मनक रसपूर्ण संसार
राजधानीक ई अभगला प्रातः संस्करण अखबार
गुजरातमे पसरल साम्प्रदायिकता
अर्थात आरम्भ छिटपुट संहार
प्रभु!
काल्हि बन्द रहल रहितए प्रेस
शिवरातिएक उपलक्ष्यमे बन्द छपनाइ अखबार
देश आ दुनिया नहि पढ़ितए
एक दिन समाचार।
जुआएल लोकतन्त्रामे दादी-पोता
कैक बर्खसँ गतानल नहि गेल’ए ई खाट
नेवाड़ो नहि साबे-जौरीक अछि
झोल-झोल भेल
सुतनिहार मोटरी बनि जाइत अछि --
तेहन अछि ई खाट
ई खाट लोकतन्त्राक थिक।
लेाकतन्त्रा ककर थिक?
कम-सँ-कम ओहि उपन्यास वर्षक
पहाड़ी पौत्राक तँ नहिएँ टा
जकरा पीठ आ कान्ह पर धएल छै
तिरानवे वर्षक बूढ़ि दादी, फोटोमे।
आब किंचितो नहि होइत अछि खुशी वा उत्साह
विषय बूझियो क’ जे एना एहि यतन आ
चेतनासँ ल’ गेल जा रहल छै
एक टा तिरानवे वर्षक वृद्धकें भोट खसाब’ इलेक्शन-बूथ।
अखबारमे फेर छपल’ए एक बेर आर
हिमाचलक ओएह चुनावी समाचार
उत्सवी फोटो
देखि क’ एकहु रत्ती नहि होइत अछि खुशीक संचार
बुझाइ’ए अपमान।
अचार समाचार
फेर बड़का-बड़का कारीगर समूह
जुटि गेलाह अछि तैयार करबामे--
कीनबा-बिकिनबाक हेतु विचार
अघोषित निष्ठासँ क’ रहल छथि
योजना-संचार, देश भरिक स्वादक बाजारमे
लोकप्रिय बनएबाक किछु लोकतन्त्राभासी विचार
हएत तँ से मूलतः सामचार
बेचल परसल जाएत मुदा चहटगर
नव-व्यंजनक अचार।
पूरा मार्केटिंगक अछि सुचिन्तित प्रबन्ध
एहि टेक्नोलाॅजी सम्पन्न युगक गुणी विशेषज्ञ
किछु गनल गूथल महान
टटका कचैड़ी जिलेबी जकाँ कड़ाहीसँ छानि छानि,
निकालि रहल छथि समाचार,
जनसाधारणक सोझाँ पसरल सुखाएल
पुरैन पात पर परसि रहल छथि भोरे-भोर।
लोक,
पँचतारा होटलमे जनिक नहि सम्भव प्रवेश
वा तेहन धर्मनिष्ठ-अबोधक पैघ उपभोक्ता बाजार
खण्ड पखण्ड रक्त-रंजित मानव शिशु-स्त्राीक माँस-पिण्डक सुखौंत,
एक टा विराट विज्ञापनक चद्दरि पर
पसारि देल गेल’ए संचार माध्यमक रौदमे
जखन-जखन हैत प्रयोजन,
आवश्यकता भरि मनुखक सुखौंत निकालल जाएत
रान्हि लेल जाएत सुअदगर चहटगर तीमन
परसि देल जाएत जनसाधारणमे भरि संसार
लोको भने नापरबाहि, स्वादि स्वादि खाएत।
खाएत लोक ढेकरत नेतृवर्ग
भीम-शकुनि सम्बन्ध जकाँ।
आखिर हएत ओहि विशेषज्ञ दलक एकताक
सार्वजनिक फार्मूला तैयार।
रहत ई सर्वथा प्रजातन्त्राी नव स्वादक अचार
एहिमे पँचफोड़न, वा अन्यान्य हींग-हरदि, तेलक विन्यास नहि,
मिश्रित विचारधाराक मनुक्ख शोणितमे डूबल
हरियर पीयर उज्जर बुन्द पातक छिटका जकाँ
लाल रंग सेहो देखाएत अमीरी मिरचाइ जकाँ
तैयार अछि मनुक्ख माँसक खण्ड वला शोनित सोखल अचार
बिल्कुल पहिल बेर
पहिल स्वाद।
छपल’ए आजुक अखबारमे भव्यतासँ फेर
ई अचार समाचार।
मेघक गाछ
लग्गी लगा क’ झखबैत रही हम भरिपोख मेघ
लोक वेद बाल बच्चा सभ दकड़ैत रहए स्वच्छन्द
लताम
चोभैत रहए मौसिम मौसिम आम
एना नहि फेर कहियो चुकब’ पड़ै
जन्म लेबासँ पूर्वहि ओकरा अपन जन्मक दाम।
झखा-झखा क’ चाहै छी, भरि गाम लगा दी
पथार
निश्चिन्त सुख शान्ति।
पाँच टा पत्रिका, दस टा अखबारमे
छत्तीस टा विचार, बावन टा टी.वी. चैनेलमे
एक सय आठ टा अध्ययन-आकलन रिपोर्ट
माने साधारण लोकक सोझाँ दुविधा-द्वन्द्वक विस्तृत
महासमुद्र कोना हेलए?
तोतराइत बोलवला विकलांग योद्धा सभक सम्पूर्ण
युद्धानुभव
बुझाइत अछि -- कुटिल बेकार, मेघाच्छन्न दिनक
धोखा दैत ई इजोत जकाँ।
एहन उपस्थित अस्तित्त्व-माहुरक वोन!
कोनो नव रसायनक अनुसन्धानमे
पचीसमे वर्षसँ लागल छी--
पागल छी।
बीरेन्द्र मल्लिक
सावधान
लोक हल्ला करए वा सूतल रहए निसबद्द
व्यवस्थाक संग
जी-हजूरी करए वा चापलूसीक रेबड़ी बाँटए
मनुष्यताकें ताख पर राखि
निर्लज्जताक नाटक करए
किम्बा समझौताक शीश-महल उठाबए
नहि डरबाक अछि किन्नहुँ हमरालोकनिकें सरिपहुँ
मसिजीवीकें
हेबाक नहि अछि हताश--
कारण ओ जहिना अछि तहिना रहए चाहैछ
यथास्थितिकें कायम राखए चाहैछ
कुर्सी, शासन आ शक्तिक आगाँ
नहि चाहैछ जे लोकक जड़ता टूटै
मोह-भंग होइ
तैं कि हम अहिना चुप रहब? जाबने रहब मुँह?
बन्न कएने रहब कान
नहि, किन्नहुँ नहि--
हम लड़ब अपन रचनाकें प्रक्षेपास्त्रा बनाए
भाषाकें ब्रह्मास्त्रा बनाए
ध्वस्त करब धूमकेतु बनि जड़ताक संसार
‘मानव-बम’ बनि करब सुड्डाह
अरि-दलकें
सुप्रभातक लेल।
होशियार
घोटाला, अराजकता आ आतंकवादसँ आक्रान्त
हमर देश, हमर माटि, हमर पानि
मर्यादाक अतिक्रमणमे व्यस्त हमर सत्ताधारी तन्त्रा
जातीय हिंसा ओ हत्याक नग्न-प्रदर्शन
राजनीतिक अपराधीकरण
संसारक महान प्रजातान्त्रिाक देश आइ
अपराधी तत्वक संरक्षणमे अछि फँसल
नेता ओकरहि दैत अछि दोहाइ
आचार-संहिता रसातलमे अछि धँसल
एक नव वर्गक भेल अछि निर्माण
सर्वथा भिन्न, अराजक चुस्त ओ चालाक जे
देशक नब्बे प्रतिशत जनताकें लूटि रहल निर्बाध
तैं रहबाक अछि चैंचक अहर्निश
कोंढ़ी, फूल, जमीन, आसमान--किछुओ बेचि सकैछ नर-पिशाच
देशकें बन्हकी राखि सकैछ कौखन ई शैतान
अस्मिताक रक्षा लेल
रहबाक अछि सतत तैयार, सावधान, होशियार।
शून्य काल
अनिर्णयक एहि क्षणमे हम
ककर बाट ताकी, ककरा शोर पारी
ककरा पर करी विश्वास--जहन कि हम नहि जनै छी
जे कतए हेरा गेल अछि हमर पुरोधा कवि, कतए--
कतए चल गेल अछि युगचेता इतिहासकार, किऐ
पड़ल अछि बुद्धिजीवी निष्क्रियताक बाट पर
संज्ञा-शून्य
रोटी कपड़ाक ब्याज किऐ बेचि रहल इमान? लेखक
कोनो गाछक छाहरिमे जाएबा लेल परेशान, कोनो
झण्डा, कोनो कुर्सीकें हथिएबाक लेल अपस्याँत
हमर नेता, व्यक्तिगत स्वार्थक आगाँ
राष्ट्रीयताकें मारैत लात शीश-महल उठएबामे व्यस्त
हमर मन्त्राी -- काज सभ पड़ल जकथक, निरुपाय
जनता ठाढ़ कलबल नेताक भाषण खाइत, अखबारक पन्ना
चटैत, आश्वासनक पानि पिबैत -- चोरबाजारी
कारी धनक इन्क्वायरी। राजनीतिक प्रक्षेपास्त्रा --
लठैती, बैमानी, सीनाजोरी। दिन-दहाड़े भ’ रहल
डकैती आ चोरी। नेताक मोट चाम,
बिका रहल देशमे गुण्डासभक नाम
फीता आ फाइलमे बन्द देशक वत्र्तमान, भविष्य पर
खेला रहल फटक्का निमकहराम। गाममे चकबन्दी,
जमीन दाखिल करबाक उत्सवमे शामिल
अफसर, अमीन, मुखिया आ कर्मचारी -- घूस देबा लेल
बन्हकी लोक राखि रहल
लोटा आ थारी। खच्चर व्यवस्थाक महाजाल
यथास्थितिकें कायम रखबामे
व्यस्त दलाल। कहिया धरि ठनठनी,
कहिया धरि शान-गुमान --- उठब की तखन
जखन निकलि जाएत प्राण?
नक्सालइट
प्रातःकालीन सूर्यक लाल किरिन
आदेशित कएलक अछि हमरा प्रतिदिन
उठबाक लेल ललकारा पर ललकारा -- प्रदान केलक अछि
अन्धकारसँ लड़बा लेल चमचमाइत तरुआरि
आ स्वयं मिसाइल्स बम बनि
करैत रहल अछि विश्व-युद्धक घोषणा,
प्रत्युत्तरमे हमर हृदय भरि गेल अछि बेर-बेर
घृणा, दुःख आ नपुंसक क्रोधसँ
लाखक लाख सुग्गर
किकिया उठल अछि खोपसँ बहरएबाक मर्मान्तक यन्त्राणामे
थुथुनसँ एक-दोसरकें सुंघबाक प्रक्रिया,
जीहसँ देहकें चटबाक रति-क्रिया भ’ गेल अछि व्यर्थ
मदनोत्सव बनि गेल अछि, जुलूस प्रायः
सभ बेर काँचक चूड़ी जकाँ
चनचना कए टूटि गेल अछि माइ-बहीनक सम्बन्ध
आ हम
कोशिश कएलहुँ अछि सुरजा नक्सलाइटकें पराजित करबा लेल
कोनहुना महुआ रोटीसँ गँहीर खाधिकंे भरि
सूति रहलहुँ अछि आन्तरिक योनि-विवरमे
अनन्त कालक लेल निन्न भेर।
पत्नी-परिवार, लोक-वेद सभकें सूचित क’
हम चल गेल छलहुँ काशीवास करबा लेल
महा अन्धकारक बीच
दालमण्डीक गंगा-प्रवाहमे भेटल छलाह
पण्डितजी शिवलिंगक पूजा करैत। घाट पर वेश्याक साड़ी फिचैत
भेटल रमखेलौना ब्लीचिंग पाउडरसँ शोणितक दाग
छोड़बैत। दर्दससँ छटपटाइत, खूनसँ लथपथ भेटल छलीह
निवस्त्रा भेल पड़ल चाँदीक तोशक पर बिन्दा, सीता आ कमलमुखी
आ हम, हम गंगा-स्नानक पुण्य-फलक लोभमे
डूबैत चल गेल छलहुँ
अन्धकारक अन्तस्तलमे मेटा देने छलहुँ अपन अस्तित्व
मुदा किऐ हमरा उठाओल?
के थिकहुँ अपने? --आह!
बंगाल बन्द
बन्द अछि शहर
सर्द लाश जकाँ पसरल एतएसँ ओतए धरि
पाउज करैत जीवित मृत जनता --- गौ माता,
बन्द कोठरी सभक मध्य
ढाहि जाइछ कौखन कौआक काँव-काँव निस्संगताक भीत
गोली छुटबाक आवाज, बमक धमाका
चीरैत अछि कानक झिल्ली,
माने, आत्मा, प्राण! सड़क पर बिछाओल गेल जानवर,
जानवर आ लाल टहटह शोणित
करैत अछि युद्धक घोषणा
अलीपुर जेलमे आब जगह नहि,
सुइयो भरि स्थान नहि जे ठाढ़ कएल जाए मुर्दा शहरक लाशकें
जे ठूसल जाए बोरामे बन्द
आलू-भाटा जकाँ लोक-वेदकें,
नक्सलाइटक नाम पर एतुक्का जवान खूनकें। ... हल्ला जुनि कर,
राति नहि जा सकलहुँ बाजार,
... साली फिलिम भी बन्द है... बाजल कलुआ चमार
‘की करैत छें’ -- आइ एहि चैबीस घण्टाक भीतर
शहरक जनसंख्या बढ़ि कए भ’ जेतै लाखक ऊपर
करोड़ो टाकाक लगतै घाटा
आर की क’ सकतै ई सरकार?
‘बेस, बन्द कर आब ई बकबक’-- बजली ओकर आँगनसँ
होइत कबकब--बुझल नहि छै
शहरमे पी.डी.एक्ट लागू भ’ गेलै अछि आब
तें हे बुधुआक बाप!
कलबल सूति रहह, पीबि एक गिलास पानि
काल्हुक बात छोड़ह’--बाजल चतुरा चमाइन।
हे हमर अग्रज शान्त भ’ जाउ
अपने लोकनि भेलहुँ असफल मनुक्ख,
एक निश्चित स्वप्न-सीमाक मध्य जिनहार
एकटा पराजित पीढ़ी -- फड़फड़ाइत डिब्बीक बामरि
किछु नहि क’ सकलहुँ,
नहि क’ सकलहुँ डिब्बी भरि तेलोक ओरियाओन
एकटा सलाइक काठियो नहि राखि सकलहुँ -- जे डाहि लितहुँ
अपन देह, अपन स’ख, अपन आत्मा
मुदा सेहो नहि भेल। अपनहि घरमे बन्द, छटपटाइत
रहलीह मैथिली, आत्म-संघर्ष करैत
मुदा नहि होअ’ देलिअनि, हुनका बाहर। जीवन भरि करैत रहलहुँ
नौकरी, बनल रहलहुँ क्लर्क, पीउन, भनसिया
एकटा सुविधाक पाछाँ करैत रहलहुँ कटाउझ, जीवित-मृत बनल रहलहुँ
भिन्न, बिल्कुल भिन्न अपनहि मातृभाषासँ। आ
दिनभरि टें-टें करैत रहल-विद्यालयक प्राँगणमे,
कोनो कक्षमे, कोनो सभा-भवनमे। ताश, चैपड़ि, शतरंज
किम्बा पचीसीमे, तेलियाक बरद जकाँ
भिनसरकें साँझ बनबैत रहलहुँ, दोसराक निन्दामे प्रसन्न होइत रहलहुँ।
आनक घरमे लुत्ती लगा
घूर तपैत रहलहुँं -- व्यर्थ मन्दिरमे
पढ़ैत रहलहुँ अपने प्रार्थना-पत्रा
असफल व्यक्तिए टा
देवी-देवताक चिन्तन करैछ -- से नहि सोचलहुँ,
नहि सोचलहुँ किऐ जिबै छी? किऐ
जरदगब बनल नवतुरियाक बाटकें छेकने छी, कुर्सी हथियौने छी
आपसमे लड़ि-झगड़ि
आत्म-तुष्टिक चन्द्रोदक पिबै छी,
तृप्त-परितृप्त भ’, साले साल बच्चा सभक
पलटनकें ठाढ़ क’, पुरुषार्थक दम्भमे अपनाकें ठकै छी?
किऐ नहि शान्त भ’
रामनाम लै छी, विजयाक सेवन क’
आत्मलीन होइ छी? कर’ दिअ’ काज,
बीचमे टाँग जुनि अड़ाउ -- हे हमर अग्रज
शान्त भ’ जाउ!
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
परिचय
श्रनेजल लि
छन्द, करुणाक अपने घड़ारी थिकै
गीत अन्तर्मनक फुलवाड़ी थिकै।
आश, जीवाक हेतुक थिकै आसरा
साँस, जिनगीक गोटा-किनारी थिकै।
सायास भेल खेतीमे झंझटि हजार
गीत बाड़ीक, चतरा-गेन्हारी थिकै।
अहर्निश जतय शब्दसँ रस झरए
गीत, आनन्द-मंगल उधारी थिकै।
गुनगुनएबाक हेतु जे उत्प्रेरित करए
गीत, से नाद-बह्मक हुँकारी थिकै।
भावना, कामना, साधनासँ बनल
गीत जन-गण-मनक संचारी थिकै।
जे कविता करबैत हो क्रान्तिक नियार
से कविता सओ दाँत बला आरी थिकै।
बचू
आगि धुधुआ क’ पसरि गेल
पसाहीसँ बचू
हवा हुहुआ क’ चलल तेज
तबाहीसँ बचू।
भ्रष्ट भेल व्यवस्थामे विवशताक बहुलता
न्याय चाहैत छी त’ झूठ गबाहीसँ बचू।
भेल ध्वस्त-पस्त, सस्त सदाचार संहिता
चलाक चोर ओ शैतान सिपाहीसँ बचू।
ठाढ़ रौदीक रौद्र रसमे, सीझैत रह-रहाँ
सुखाड़ भोगि क’ बरसातमे दाहीसँ बचू।
क्रान्तिकें भ्रान्तिसँ बचाए अग्रसर रहियौ
बचैत उन्मादसँ, हिंसाक उछाहीसँ बचू।
चित्रा-दर्शन
फूसिकें सींघ नहि, नाँगड़ि नहि, पाँखि होइत छै
सत्यकेें हाथ नहि, पैर नहि, आँखि होइत छै।
बातकें देह छै, दिमाग छै, मिजाज अपन छै
मौनकेें मुँह, जीह, कण्ठ नहि, अन्दाज अपन छै।
मिलनकें रूप, रस गन्धसँ, सम्बन्ध अपन छै
विरहकें तापसँ, उत्तापसँ अनुबन्ध अपन छै।
प्रेमकें रंग नहि, रूप नहि, सुवास अपन छै
की जगैत, की सुतैत, उल्लास अपन छै।
समताकें ममता छै, क्षमता छै, इतिहास अपन छै
विषमताकें कटुता छै, कलुषता छै, उपहास-अपन छै।
यौवनकें ऊर्जा छै, ओज छै, विश्वास अपन छै
बुढ़ारीकें थकनी छै, बकनी छै, निसाँस अपन छै।
भोर भेल भोर...
राति भेलै जुआन त’
परान कछमछा उठल
बसात कसमसा उठल
त’ पात थर-थरा उठल
तार जनु सितार केर
तमकि तन-तना उठल
चिड़ै चुन-मुना उठल
त’ दूबि कन-कना उठल
त’ फूल कुन-मुना उठल
त’ देह झुनझुना उठल
भाग पर, सोहाग पर
भ्रमर गुन-गुना उठल
घटल-घटल अन्हार केर
सटल-सटल इजोर
भोर भेल, भोर भेल
भोर भेल, भोर।
दीप अछि मिझा गेल
घूड़ अछि पझा गेल
चार अछि सिता क’
पिठारसँ नहा गेल
बाँसकें, बबूरकें
तारकें, खजूरकें
आककंेे, धुथूरकें
कहू त’ के जगा गेल
फड़ीछ भेल, आँखिमे
प्रीत केर डोर
भोर भेल, भोर भेल
भोर भेल, भोर।
रामानुग्रह झा
एलेक्ट्रिक गर्ल
भारतक एकटा बुढ़बा जादूगर
अनने छल विश्वक मेलामे
सबकें देखयबाक हेतु फ्री
एकटा एलेक्ट्रिक गर्ल!
‘लोकतन्त्रात्मक’ मन्त्राद्रष्टा
लाठीसँ फोड़ि कपार
नादिरशाह आ हिटलरक
गाड़ि देने छल अहिंसाक कब्र तर
मुदा, ‘सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न’ लोक
उठा देलनि फ्री पास
आ लागू भेल अछि आब
एलेक्ट्रिक गर्लक देखबा लेल चमत्कार
केवल हाइ रेट आ स्टुडेन्ट्स कन्सेशन मात्रा।
अपूर्व अछि लागल मेला
लोक सभक ठेलम-ठेला
भरि रातिमे तीन बेर, तीन शो
तीन खेप बनैत अछि भरि राति
योजना, बजट आ सरकार
सब क्यो चानी काटि रहल अछि।
धन्य हे बुढ़बा जादूगर!
केहन अनलह तों एलेक्ट्रिक गर्ल!
मधुमाछीक खोता आ हम
हमरा सभक भाग्य-भवनमे
लागल अछि बड़की टा मधुमाछीक खोता
मधुमाछी सभ भनभनाइत अछि
संविधान, प्रजातन्त्रा, चुनाव आ वोट
घुमक्कड़ि रानी मधुमाछी भेल असोथकित
दिन-राति फ्लाइ करैत-करैत
समाजवादी सेज पर बैसल अछि
थाकल ठेहिआएल करोड़ियाक जर्जर काया
तिरंगाक बाँस नेने ताकि रहल
सतृष्ण आँखिएँ खोता, मधु आ मधुमाछी
आ ओम्हर पुबरिया बाधमे
उठल अछि भयंकर बिहाड़ि
हड़हड़ा रहल नारियरक गाछ दछिनबरिया बाड़ीक।
एह छोडू! फुर्सति नहि अछि--
उधारक लेल जा क’ बैसबाक अछि दोकनदार लग
पीबाक अछि दू-चारि टा बीड़ी वा सिगरेट
दोकानक भीड़ छँटबाक प्रतीक्षामे।
युद्ध आ शान्ति
सत्य बनल शक्तिक पुजारी
सेनाक मदति पर चलय विश्व-यारी
हे बन्धु हमर! शान्तिक माने
भीषण युद्धक तैयारी
आ युद्धक माने
शान्ति उत्पादक कारखाना
निरन्तर चालू
मन-मस्तिष्कमे, आ कि वियतनाममे।
मार्कण्डेय प्रवासी
दू-चारि दिनक ई यात्रा अछि
दू-चारि दिनक ई यात्रा अछि,
आपसमे हिलि-मिलि क’ रहि ली!
जिनगी अछि कहबा-योग्य कथा
जतबा चाही ततबा कहि ली!!
श्वासक पहरा--
बाहर-भीतर
जहिया धरि पड़तै, प्राण रहत
कायाक शब्द रहतै जा धरि
तावत धरि जागल गान रहत
पथ पर जँ उगि आबए पहाड़
साहस बटोरि आगाँ बढ़ि ली!
पाथर काटी, घाटी बनबी,
नूतनतर परिपाटी गढ़ि ली!!
ईष्र्या-द्वेषक पिल्ली-पिल्ला
पाही राही कहि-कहि भूकत
मुँह दूसि-दूसि अन्हरा बनरा
अनचोके माथा पर कूदत
मोन जखन-जखन थाकल लागए
हृदयक गुदगर रथ पर चढ़ि ली!
हँसि दी परिवेशक लघुता पर--
लक्ष्यक विशाल पोथा पढ़ि ली!!
जखने रामक प्रभुता जगतै’
रावणो जन्म लेबे करतै’
नायकक संग खलनायकोक
स्वाभाविक व्यथा-कथा बढ़तै
चलिते-चलिते थाकी जै ठाँ
ताही ठाँ निद्राकें गहि ली!
ई मही दही अछि, कर्म केर--
मथनीसँ महि-महि क’ महि ली!!
बौक अछि गाम हमर
बौक अछि गाम हमर
तें बहिरा नगर
कहबै ले’ बनल मठोमाठ अछि।
बाट पर रद्दी कागत जकाँ
फेकल अछि आइ सदाचार
अफवाहक उपनयन भ’ रहल
भिखहरि दै’ए समाचार
कोठी परसँ खसल
टिनही बाकसमे--
गड्ड-मड्ड जिनगी केर साँठ अछि।
गर्म दालिमे पड़ल घी’क छहछही-जकाँ
पोखरिमे उग्रवादिए जकाँ अलगल
पंकजे कहबै’ए पर्
िंजानि नहि किऐ
युगक नीति-पचीसीमे ग्राम-गोटिए टा उफाँटि अछि।
जें कि वृहस्पतियोकें शिष्य कहि
गुरुजी कहबै’ए भुसकौल
तें नहि आजुक विस्फियोकें
विद्यापति दै’ए कमतौल
चोट खएने उखड़ल अछि उक्खड़ि,
चोट कएने सम्हरल पातरो समाठ अछि।
आउ हम वसन्तकें बजाबी
आउ, हम वसन्तकें बजाबी!
फागुनमय एक गीत गाबी!!
मलयानिल कहबै’ए जे हवा
तकरे किरिया अहाँ नाचू!
पेटक उपरागकें बिसरि--
हृदयक अनुराग-राग बाँचू!!
आउ, समय-सालकें नचाबी!
फागुनमय एक गीत गाबी!!
उजरा गहुमक रोटी-जकाँ
नभमे चन्द्रमा चमकै’ए
वातावरण कण-कण आह!
माँसु-भात बनि गमकै’ए
आउ, दुःख-वेदना पचाबी!
फागुनमय एक गीत गाबी!!
कतबा दिन धरि भूखल देह
नेहकें भम्होरत-काटत?
रित्ती-रित्ती धोती पर--
के सभ दिन चिप्पी साटत?
आउ, हम नवीनता जगाबी!
फागुनमय एक गीत गाबी!!
कुर्सी-तुर्सीक मोह त्यागी
पटियाकें सेज कहब हम
आकुलता आ अभावसँ
सरिपहुँ परहेज करब हम
आउ, असन्तोषकें भगाबी!
फागुनमय एक गीत गाबी!!
सुविधा सीमा-विहीन अछि
इच्छा पाँखिएँ उड़ै’ए
गगनक आगुओ तँ गगन
अन्तरिक्ष बनि नमरै’ए
आउ, शान्ति-सागर लहराबी!
फागुनमय एक गीत गाबी!!
आमक मज्जर कहै’ए
मौसिम मधुमासक अछि ई
मनमे ऋतुराज जँ अँटए
द्वेष-क्लेश-नाशक अछि ई
आउ, सुधा-रस छलकाबी!
फागुनमय एक गीत गाबी!!
कुलानन्द मिश्र
ओना कहबा लेल बहुत किछु छल हमरा लग
ओना कहबा लेल बहुत किछु छल हमरा लग--
जेना जंगली फूलसँ टपकैत ओस
अहाँक सती देह
हमर थकुचल पौरुष
डीह डीहवारमे नहुँ-नहुँ पसरैत सान्ध्य-राग
उतरैत रातिक चिन्तामे
ब’रक गाछ तर
सिपहा लगाओल बैलगाड़ीक पाँति
पजेबाक चूल्हिसँ नमरैत धुआँ
ओना कहबा लेल बहुत किछु छल हमरा लग
जेना
हमरासँ अलग हमर चेतना
टूटल-भाँगल सपना जकाँ
हमरा सभक खण्डित एकान्त
रौदमे हकमैत कुकूर
केरवी आमक गाछ तर झटहा फेकैत टिंकू
बूथ दिस लपकैत जनतन्त्राी भीड़
ब्रेख्तक किरायेदारक युद्धविरोधी जत्था
एटमी लिपिमे अंकित शान्ति-प्रस्ताव
ओना कहबा लेल बहुत किछु छल हमरा लग
जेना
बरखासँ लद-फद भेल बँसबिट्टी
ओलतीसँ चानीक ओछार
नाभि लग गड़ैत काँट
ककरो नाम लैत हम आ डुबैत कपोत
दिन भरिक कमाइ -- उदासी
राति भरिक सेहन्ता -- पिआस
गामसँ ताजमहलक दूरी
सारामे जेबासँ पहिने तरुआरि उठेबाक विवशता
किछु करबा नहि करबा पर ओंगठल निर्णय
बढ़ैत हाथ पर शंकाक लाठी
फाँसमे बदलैत गरा-जोड़ी
ढहल घर
भखरल चबूतरा
ओना कहबा लेल बहुत किछु छल हमरा लग
जेना
भादवक अन्हरिया रातिमे हथोड़िया दैत कम्पित गात
अन्हार गुज्ज कोठरीमे काठी खड़रैत मृदुल गात
शाश्वत आलस्यसँ टूटैत राजसी गात
घन पिटनिहार सभक टभकैत राक्षसी गात
करतल-सुख आस्वादैत राग-रंजित मुख-मुद्रा
दुनू कान्हें भार उघैत श्रम-रंजित मुख मुद्रा
दुनू हाथें भीख बँटैत दर्प-रंजित मुख-मुद्रा
दुनू हाथें भीख मँगैत ग्लानि-रंजित मुख-मुद्रा
बिसरल निर्मोही दिस अपलक सजल दृष्टि
सहज हिंस्र भावसँ भोग्य दिस गड़ल दृष्टि
सहज दीन भावसँ पैरमे पड़ल दृष्टि
उपटैत धारक हृत-प्रकम्पी अट्टहास
भासल जाइत नावक सुपरिचित करुण रास
ओना कहबा लेल बहुत किछु छल हमरा लग
जेना
हट्ठासँ घुरैत हरबाह
दलानमे ताश फंेटैत गिरहत
भनसा घरक ओसारमे अँइठ फेरैत नौरिन
कोनिया घरमे बड़ी खोंटैत बड़की बहुरिया
स्कूलसँ दौगैत घुरैत अपस्याँत ककरो बच्चा
बस्ता नेने पछुअबैत अपस्याँत ककरो बच्चा
मोटर चलबैत गुन-गुनबैत कियो कोनो गीत
धान रोपैत झूमि गबैत कियो कोनो गीत
मीलक भोंपा संग बाहर उमड़ैत जनसमुद्र
समयक कुरूपता पर गरजैत-तरजैत कोनो प्रबुद्ध
दरवज्जा पर सलामी दैत नीम
बाड़ीमे पहरा दैत अनार
ओना कहबा लेल बहुत किछु छल हमरा लग
जेना
बैलगाड़ीक घण्टीक स्वरसँ टूटैत जाइत रातिक शान्ति
मन्दिरमे करौट फेरैत देवताक संग दैवी शान्ति
पुरोहितक चेहरा पर दीपैत कपटी कान्ति
जजिमानक चेहरा पर पसरल करुण कान्ति
मिस साहिबाक देह लागल मैक्सीक गोलाइ
रमुआ बेटीक साड़ी लागल चेफड़ीक लम्बाइ
घरसँ हाट जाइत बहुरियाक नखड़ा
सड़क कात बानर नचबैत मदारीक लफड़ा
साँझसँ पहाड़ा पढै़त बच्चाक थरथराइत स्वर
रहि-रहि क’ ल’ग अबैत दूर जाइत कोनो स्वर
बरखाक रातिमे झिंगुरक जारी प्रलाप
निभृत एकान्तमे सार्थक होइत प्रेमालाप
ओना कहबा लेल बहुत किछु छल हमरा लग
जेना
जिनगी लग जएबामे संकोच करैत कविता
नाँगटक गप्प करबामे संकोच करैत कविता
सत्यक पाट छोड़ि क’ असत्य बजैत कविता
लोकक बीच रहियो क’ विरोध करैत कविता
भाषाक छर् िंतोड़ि क’ निर्विकार होइत कविता
लघुताकें छोड़ि क’ विराट होइत कविता
अनचिन्हार चेहरासँ चिन्हार होइत कविता
नव परिधानमे स्वीकार होइत कविता
आस्थाक नव भूमि पर कामनाक गान
नीरव शिथिल रातिमे वंशीक तान
न’वे छारल घरमे दीपकक प्रकाश
स्नेहसँ आँखि खोलैत भोरक आकास
ओना कहबा लेल बहुत किछु छल हमरा लग।
ऊष्माक जोगाड़
जहिना हमर मुँहक स्वतन्त्राताक अर्थ
अहाँकें गारि पढ़ब नहि होइछ
तहिना अहाँक हाथक आजादीक मतलब
हमर गरदनि मोंकब
कथमपि नहि होएबाक चाही
यदि हमर काज तकबाक अर्थ
अहाँक कारखाना हथिआएब
कि अहाँक ‘फार्म’ बाँटब नहि होइछ
त’ अहाँक हाथ सेदबाक मतलब
हमर घर फूकब
कि हमर नारक टाल डाहब कोना भ’ सकैत अछि
ओना हम सभ
एकटा अजगुत कालखण्डक अतिरिक्त
एकटा अद्भुत भूखण्डोमे जीबै छी
एते शालीनताक अर्थ व्यक्तित्वहीनता
आ सह-अस्तित्वक बोध
सहवासी आगाँ समर्पण मानल जाइत अछि
मरा-मरा पढ़ि क’
वाल्मीकि रामकें पओने रहथि
हम सभ कसाइखाना खोलि
आ खाल उधेड़बाक अन्तर्राष्ट्रीय धन्धा बढ़ा क’
अहिंसा आ रामधुनि
चतुर्दिश पसारबा लेल
अहर्निश अपस्याँत रहै छी
इतिहास अपनाकें
प्रायः अही तरहें दोहरबैत आएल अछि
हम अपना देशक
जंगल-पहाड़ आ समुद्र
नदी-नद-झरना
फूल-फल-गाछ
ताजमहल-अजन्ता-एलोरा
सभ वस्तुसँ सिनेह कर’ चाहै छी
ओहन कोनो देशभक्त-सन
सिनेह कर’ चाहै छी
जे एहि देशक सभ वस्तु संग
सिनेह करबाक स्थितिमे
बाँचल अछि एखनो धरि
हम एहि देशक सभ वस्तु संग
सिनेह कर’ चाहै छी
मुदा हमर मनोरथ अछि
जे एहि सभ वस्तुक संयोगसँ
बनैत अपन देशमे
तीन दिस समुद्र आ एक दिस हिमालयक
अटूट शृंखलासँ बेढ़ल
एहि अपन विशाल देशमे
ई देखि ली पहिने
जे हमर अपन घर कत’ थीक
कत’ थीक ओ पचीस-पचास वर्ग गज जमीन
जत’ बैसि क’ निचेन
हमर पिता हुक्का गुड़गुड़ौताह
कि सूपमे चाउर राखि हमर माइ
सुचित मोन आँकड़ बिछतीह
कि टोल-पड़ोसमे बूलि क’
जमा कएल गोबरक चिपड़ी
सुस्ता-सुस्ता पथतीह हमर पत्नी
कि हमर बेटा
लाहक गोली रभसि-रभसि गुड़काओत
हम फैक्ट्रीसँ घुरलाक बाद
एहि देशक पहाड़ आ झरना
नद आ नदी संग
अन्तरतमसँ सिनेह कर’ चाहै छी
मुदा हमरा आगाँमे ठाढ़
नंग-धड़ंग हमर बेटा
माघक एहि ठिठुरैत साँझमे
पहिने आगि हेरबा लेल
क’ दैत अछि विवश हमरा
हम एहि देशसँ
अपन माइ-बाप भाइ-बहिनि
आ बहु बेटा जकाँ सिनेह कर’ चाहैत
एकरा माटिक संग
अपन पुरातन सम्बन्ध निबाह’ चाहै छी
हमर इच्छा अछि
जे बेटी लेल अँइठा कीनि
आ दर्जीक दोकानसँ
पत्नीक ब्लाउज ल’ क’ घुरलाक बाद
थोड़ेक आगि हम हेरी
कतौसँ बिलहियो क’ बरु आनी
आ अपन टोलक चारू कात पसरल
झाड़-झंखाड़कें लहका क’
अपन सन्तान आ परिवार संग अपना लेल
आ ठाढ़सँ ठिठुरल पड़ल अपन टोल लेल
जरूरी ऊष्माक जोगाड़ करी
राति भरि बरखा भेलै’ए
राति भरि बरखा भेलै’ए
हिम-स्नात पछबा थर-थरथराइत बहैत छै
शिमलामे जमि क’ हिमपात सुनै छी भेलै’ए
रेडियोक खबरि छै
मृत्युक सरकारी आँकड़ा
आ लोकक वास्तविक गिनती
स्वभावतः भिन्न-भिन्न छै
किछु गोटेकें ठण्डसँ
पक्षाघातो भेलै’ए
भोरेसँ दू-तीन कप गर्म चाह
सेरएबाक आंशकासँ
जल्दी-जल्दी सुरुकने होएब
डाकखाना त’ प्रायः फुजले हेतै आइ
एकटा लिफाफे अनबाक चाही
से कखनसँ विचारै छी
ककरो दू-दू टा चिट्ठीक उतारा देब
अनेरे कतेक दिनसँ अटकल अछि
बिसरल वसन्त शोर पाड़लक’ए
कोनो शिशिरक निशाशेषमे
प्रातक समीरक संग
एकटा चिन्हार स्पर्शक भ्रम
पिपनी हमर छूने छल
हम वसन्तक सम्बन्धमे
अपन बतहपनीमे
डाकपिउनसँ जिज्ञासा केलिऐ
गामक मोड़ल-मचोड़ल चिट्ठी एकटा
हाथमे नहुँए ओ धरा देलक
लागल प्रसूनी सुषमा बीच
हमर अपन बिसरल वसन्त
टभकब-पूर्व व्यथाक स्वरमे हमरा
अचक्के शोर पाड़लक’ए
शपथ छनि गौतम तापसकें
शरदक पूर्णिमा छैक आइ
राति दूधसँ नहाएल अछि
सिरकी हटा क’ के हँसि क’ तकलकै जे
चन्द्रमा पोखरिमे लाजें
डुबबा लेल प्रवृत्त अछि
सभ पुष्प-गन्ध प्राण-गन्ध पर पसरि रहल
अध्यादेश जारी छैक--
मर्यादाक सभ ओहारकें हटा देल जाए
शपथ छनि गौतम तापसकें
निशाशेषोमे निसभेरे रहिहथि
उद्दाम नारीत्वक लेल
कोनो अहिल्याकें शाप देब
खा-मखा हेतनि अनर्गल आइ
उत्तरक प्रतीक्षामे
निमूह सभक हत्याक नव ओरिआओनक संग
एकटा नव कथाक आरंभ होइछ
नव भंगिमा संग कहल जाइत
धमकी छाप शौर्यक कथा
ई कथा--
कोनो फोर्ड किंवा कोनो बिरलाक आँखिक चमक
कोनो जाॅन किंवा रामधारीक आँखिक अन्हारसँ
शुरू होइछ
बजारमे पट्टेदार सभ
एकटा नव खाता खोलैत अछि
दुनियाक भूगोलक किताबमे
थोड़ेक संशोधन होइ छै
घरमे कोनहुना सुखसँ जीबैत बहुमत
अल्पमतक कौशलसँ
सड़क पर आबि ढहनाए लगैछ
कतोक मड़इ धराशायी होइ छै
आ एकटा कोनो अटारी
गगनचुम्बी बनि ठाढ़ि होइछ
उतरैत रातिमे लोरी
आ भोरमे प्रातीक स्वर
अपनहि थर-थराए लगैछ
स्वप्न-बाधासँ खौंझ होइछ
क्षीर-सागर मथैत-मथैत
आ पुष्पक विमान पर सवारी करैत
लोकसभक प्रज्ञा सहजहि
एतेक स्फीत आ गगनचारी भ’ गेलै’ए
जे धरतीक खिस्सा आब
कोनो दुःखान्त नाटक जकाँ
त्रासद बुझाइ छै
ओना धरतीक खिस्सा सरिपहुँ
माटिक आखरमे अंकित
लौह-घटित त्रासदी होइछ
तखन लोककें ई आब बुझाइ छै
जे दुःखान्त नाटकक सभ अभिनेता
समय अएला पर आनो पार्ट
खूब दक्षता संग खेला सकैछ।
भीमनाथ झा
लंगूर
गोल-गोल करिया डिम्हाकें नचबैत
निराड़ि-निराड़ि क’ आँखि
चैचंग
टेल्हकें पेट लगौने
बिजली बनौने अपन अंग-प्रत्यंग
दुनू पंजा उठा
स्याह थुथुनकें फड़फड़बैत
हे लिअ’, लगा रहल’ए केहन डबल छरपान
ई चतुर-चलाक लंगूर!
कहियो अपनहुँ ई पेट लागल रहल होएत
सिखने होएत तहिए
अपन माइसँ--
छरपान मारब
लपकब, झपटब
खोंखिआएब
सुतारब हाथ
बचब-लोकक खेहारसँ!
आब ई भ’ गेल’ए अपनहुँ परिपक्व
छक्का-पंजामे पूरा माहिर
चतुर-चलाक!
कहि नइं
कतेक परसल थारीकें
लोकक आगाँसँ मारने हएत झपट्टा,
कतेक कपड़ा-लत्ताकें कएने हैत चिर्रीचोंत
कतेक थारी-बाटीकें पचका-पुचका क’
कतेक लोटकी-गिलासकें थौआ क’ क’ कए
यत्रा-तत्रा फेकि-फाकि देने हएत,
कतेक दूधक बासनकें ओंघरौने हएत,
कतेकक आहार पर खसौने हएत ई बज्र!
पड़ल हेतै कतोक खेप एकरो
--खेहार-पर-खेहार
नेना-भुटकाक हेंज
कहि नइं कतेक खेप मारने हेतै होहकारी
चैचंग भेल ई--
खन डोला क’ गरदनिकें
खन थुथुनकें फुला क’
खन खोखिया क’ नेना-भुटकाक हेंज पर
खन छरपान-पर-छरपान लगा क’
भगितो जाइत आ पाछाँ तकितो जाइत
खन बहादुरी देखबैत
खन अड़ैत, खन भगैत
ई देखौने हएत, कहि नइं, कतोक खेप
अपन कौतुक, अपन चातुरीपूर्ण खेल!
अरे! खुलि क’ खेला रहल अछि
एना भ’ क’ ई निद्र्वन्द्व
किएक तँ एकरा जानल छै
अपन ऐ कौतुकक परिणाम
तें कूदि रहल’ए स्वच्छन्द!
देहसँ तेबर नाम एकर नाँगड़ि
प्रतीक्षा क’ रहल छै ओहि दिनक
जहिया फेर एहिमे सोन-तेल लपेटल जेतै
आ खरड़ि देल जेतै सलाइक एक काठी
तहिया फेर एक बेर
लंका-दहन सन दृश्य ई देखौतै
प्रतीक्षा छै ओहि दिनक--
जहिया हमर बूड़ित्वक फल हमरे चिखौतै!
अरे! देखियौ तँ--
कतेक निर्दयतासँ नछोड़ि रहल छै ऐ नेनाक मुँह!
सोनित-सोनिताम क’ देलकै’ए
आ भ’ रहलै’ए लंक ल’ क’ पार!
अरे! केहन कारी-सियाह छै एकर थुथून
केहन भयाओन!
मुदा जीह केहन लाल!
लपलपाइत
कण्ठकें हबकि क’ पड़ाइत
नछोड़ छोड़ने जाइत!
एकर टेल्ह छै एकर पेटकंे बकुटने
सभ करतब देखैत
शिक्षा लैत
मुदा एखन किछु नहि करैत
केवल देखैत--देखि-देखि क’ सिखैत!
सिखैत--
जे कोना नोछड़ल जाइछ ककरो मुँहकें
कोना ककरो कण्ठकें हबकल जाइछ
कोना आंेघराओल जाइछ दूध-भरल बासनकें
कोना ककरो आहारकें आगाँसँ झपटल जाइछ
कोना अड़ल जाइछ, कोना ससरल जाइछ
कोना मचाओल जाइछ समाजकें तंग-तंग
कोना नचाओल जाइछ लोककें अपन संग-संग!
लंगूर अपन अगिलो पीढ़ीकें क’ रहल छै तैयार
एहने चतुर-चालाक, एहने छरपाह!
अपने नहि तँ एकर सन्ताने
करत सोन-सन समाजकें
एक-ने-एक दिन सुड्डाह!
इएह रहल हाल
तँ तहिया टुकुर-टुकुर देखबे टा नियति रहत, आह!
लंगूर तँ अपन करतब देखौने जाइछ
किछु झपटने जाइछ
किछु लपकने जाइछ
मुँहकें लहू-लहुआन कएने जाइछ
दूधक बासनकें आंेघरौने जाइछ
आहार पर बज्र खसौने जाइछ
टेल्हकें पेट लगौने
चैचंग
बिजली बनौने अपन अंग-प्रत्यंग
दुनू पंजा उठा
स्याह थुथूनकें फड़फड़बैत
हे लिअ’
लंगूर कोना छरपान-पर-छरपान लगौने जाइछ...
मुदा उड़लै कहाँ परबा?
वाह-वाह रे वाह!
आखिर सटाइए लेलक थुथून
अपन-अपन घेंट नमरा क’ दुनू ऊँटराट् आइसलैंडमे
मुदा उड़लै कहाँ परबा?...
मरुभूमि दुनू दिस--सपाट...
धीपल बालु टा उड़िआइत...
हहाइत-सनसनाइत वातावरण चैदिस...
संसारक समस्त जीवन-रस
अपन-अपन कुब्बड़मे भरने...
लेपटौने गरदनिमे परमाणु बमक जड़ीदार माला क्यो
स्टारवारक झालरि क्यो लटकौने पीठ पर
कर्जनी आँखिएँ थाहैत एक-दोसरकें
चाहितो-अनचाहितो
सकुचाइतो-अगराइतो
खिखियाइतो-खांेखियाइतो
सटा धरि लेलक थुथून...
एक बेर... दू बेर... तीन बेर...चारि बेर...
ऊँटराट् युगल आइसलैंडमे
टकटकी लगौने रहल सौंसे विश्व ओही दिस
मुदा उड़लै कहाँ परबा...
घुमा लेलक थुथून अपन
दुनू दिस दुनू ऊँट
पाजु करैत बढ़ि गेल...
लटकले रहलै स्टारवारक झालरि एकक पीठ पर...
परमाणु बमक जड़ीदार माला लपेटले रहलै
गरदनिमे दोसराक...
आबहु पुनि ओहिना मरुभूमि
दुनू दिस सपाट....
धीपल बालु टा उड़िआइत...
सनसनाइत-हहाइत
पकबैत-पकैत...
भरि संसार अछि तैयो
ओही दिस टुकुर-टुकुर तकैत...
समाचार दर्शन
ट्रेनक तूफानी गति
मिस पडै़त डिब्बामे
ट्रांजिस्टरसँ समाचारक स्वर पड़ल कानमे
अकानल--
एक बेरासी वर्षक
पू. मन्त्राीक असामयिक निधन पर
ठाम-ठामक शोकसभाक बज्रपाती विवरण
छोट-पैघ नेता सभक घटाटोपी शोकोद्गार
हुनक इलाकाक कोनो सड़क, कोनो कालेज, कोनो पुल
कोनो सरकारी भवनकें हुनक नामक संग जोड़ि
हुनक स्मृतिकें स्थायी करबाक समाचार...
सोचलहुँ--कत्ते हलतलबी !
कि लागल एक झटका
टेªन कएलक सों-सों ... आ थम्हि गेल
खिड़की बाटे असंख्य यात्राीक गरदनि
आगाँ नमरलै-- जिज्ञासार्थ!
--एक युवक कटि गेल’ए -- अएलै खबरि आगाँसँ!
इंजिन दिससँ सुस्तें अबैत एक प्रौढ़
बढ़ि गेल ल’गसँ
बजैत ई सुनलिऐ--
केहन हृष्ट-पुष्ट छल बेचारा!
शिक्षित लगै छल बगय-बानिसँ
हाथमे ओकरा ‘आर्यावत्र्त’ छलै...
घण्टा आधेक
रुकल रहल गाड़ी
लहासकें लगेज-भानमे ध’ देल गेलै
मारलक एक सीटी
आ टेªन पुनि ससरल
लगले पुनि पकड़ि लेलक गति अपन तूफानी
गलगुल पुनि पूर्ववते
पूर्ववते ट्रांजिस्टरक गड़गड़ी
एतबे टा अन्तर जे
वाॅल्यूम ओकर तेज छलै एहि बेर
छलै बीति गेल ता ‘समाचार’
कोनो फिल्मी धुन डिब्बाकें मादक बना रहल छल...
मन्त्रोश्वर झा
पूजा
मनुक्खक पूजा करैत करैत
जखन मनुक्ख थाकि जाइत अछि,
दुःख, दर्द, भूख, प्यास सहैत सहैत
बिसरि जाइत अछि तखन
अपन नाम, ध्यान, ज्ञान
तखन मनुक्खक आकृतिमे
बचि जाइ छै
केवल छाह आ व्यथा
छहोछीत विश्वासक कथा,
आ’ तखन ओहि विकृति आकृतिक
आडम्बरकें ओ उघारि दैत अछि
उजाड़ि दैत अछि सभटा नकाब,
सभटा आवरण,
आ’ भीतर पबैत अछि केवल
पाथर सन चुप्पी,
अपने सन आ’ अन्हार सन चुप्पी,
पूजए लगैत अछि मनुक्ख तखन
पाथर आ पहाड़कें
गाछकें कछाड़कें
आ पूजैत पूजैत
भ’ जाइत अछि
गत्रा गत्रा झमाड़ल
पाथर सन पाड़ल।
भूख तखन बजैत छै
केवल ओकर आँगसँ,
आ’ तखन ने ओ करैत
अछि पूजा,
आ ने रहैत अछि पूज्य।
अन्हराक लकड़ी
नहि किछु फुरैत अछि त’
गनू तरेगन
मुदा जाउ नहि खेत पर
कदबामे लेपा जाएत बी.ए.क डिग्री।
नहि किछु करैत छी त’
खेलाउ छकरी
लड़ाउ बकरी
मुदा चलाउ नहि करीन
चढ़ि जाएत जाँघ
भ’ जाएत फोंका,
अनेरे हैब अपस्याँत।
भुखले रहि जाउ वा
घोंटि लिअ’ भाँग
चास बिका जाए त’ बेचू घर दुआरि
मुदा कोड़ू नहि खेत तोडू़ नहि पाथर
खदान वा कारखानामे नहि करू परिश्रम
जुनि माँजू बरतन
मैल भ’ जाएत टी शर्ट
रहत की प्रेस्टीज?
पढ़ैत रहू माँगि चाँगि
नित्य अखबार केर वान्टेड कालम।
करैत रहू सप्लाइ
चढ़बैत रहू मिठाइ
आ लगबैत रहू सिफारिस
अन्हराक लकड़ी, कतहु लागिए जाए।
छिपकली
घात लगौने
ससरल जा रहल छिपकली
खण्डहर भेल देबाल पर
शान्त चित्त
साधना करैत
हम अनेरे अपस्याँत
चारू कात
तकैत रहैत छी
उकासी करैत
घात प्रतिघात सहैत
चाटि गेल
एहि देबालसँ
ओहि देबाल तक
सभटा कीड़ी मकोड़ी।
धारी लगौने जा रहल चुट्टी पिपरी, बिसपिपरी
ओहिना चल जा रहल अनवरत
एमहरसँ ओमहर
कोमहर पता नहि
की बाजि रहल चुट्टी
पता नहि
छिपकलीक ध्यान कोमहर
अपन शिकार पर टाँगल
चट केने जा रहल सभटा शिकार
कि कएने चुट्टीसँ अनाक्रमण सन्धि
भक्षक क’ रहल भक्ष्यक भोजन
मत्स्य न्याय
अबल दुबल पर सितुआक न्याय
ऊपर नील आकाशकें चाटने जा रहल
झिंुगर, दीमक, दिवार
आकाश धँसल जा रहल।
पिचकल जा रहल
पातालक माथक मुकुट बहुत।
गन्हा रहल छिपकलीक लाल जीह।
योगी अछि छिपकली,
साधु संन्यासी
केहन विलासी अछि छिपकली,
उकासी करैत रहब हम एहिना अनेरे
देवाले देवाल
लटकल जा रहल
छिपकली।
एकटा शून्य अछि
हम कोनो ऋतुक स्वागत किऐ करब--
जे बदलि जाइछ?
हम जीवनक स्वागत कोना करब--
जे बीतल जाइछ?
तखन हम कथीक स्वागत करब
की अछि जे नहि बदलैत अछि
के अछि जे नहि बदलैत अछि
नेनासँ जवान होएब स्वाभाविक प्रक्रिया थिकैक
मुदा नेनाकें जवान हेबामे,
प्रगतिवाद बुझाइत छैक।
बापकें लगैत छैक जे नेना
जवान बनि उच्छृंखल भ’ गेल अछि,
बापक दृष्टि बाप पर,
कोना बदलि जाइत छैक?
जबान भेला पर बेटीकें माइक जबानी
कमे सोहाइ छै।
बेटीक दृष्टि सेहो तहिना बदलि जाइ छै।
तखन हम कथीक स्वागत करब?
यथार्थक स्वागत तँ असम्भव अछि,
सूर्यक आँगमे जेना खाली धाह अछि,
ओकर किरणक उज्जर रंगमे
सात रंगक छाँह अछि,
चन्द्रमाक चमकी कतेक ओछाह अछि,
अनकर बलें कुदबामे कतेक व्यथा-आह अछि
गुलाबक सम्पूर्ण अस्तित्व कतेक कटाह अछि,
गंगामे डूबि मरब कतेक अधलाह अछि
उघारि क’ देखबामे
स्त्राी-पुरुष सभक देहमे कतेक अपन आ
अनकर गन्ध अछि।
कोना क’ स्वागत करब जकर संग
जकर जे जथीक आ जेहन सम्बन्ध अछि?
तखन कोन विचारक स्वागत करब?
कोन व्यवहारक स्वागत करब?
ठाम-ठामक सत्य कुठाम पड़ि जाइत अछि,
ताहि युगक सत्य अभिमान बनि जाइत अछि,
एक ठामक रक्तमे दोसर ठामक प्यास अछि,
एक लोकक शक्तिसँ दोसर लोक हतास अछि,
ओ चिकरैत छथि शान्ति-शान्ति
मुदा चिकरैत छथि
जे छथि शान्त से अशान्त भेल बोकरैत अछि
ककर छाती फाड़ि देखब जे के हम्मर छथि
हमरा अपने नहि ज्ञात अछि जे हम्मर हम ककर अछि,
ईश्वर छथि त’ कहाँ छथि से देखाउ तखन मानब,
ईश्वर नहि छथि त’ ई ज्ञान अहाँकें कोना भेल
से बुझाउ तखन जानब
भाँति-भाँतिक ईश्वरमे,
धर्म-धर्मक ईश्वरमे
के पैघ के छोट से पटाउ तखन मानब।
पीबी त’ की की पीबी की की नहि पीबी,
जीबी त’ की की जीबी की की नहि जीबी,
एकटा शून्य अछि जे केवल शून्य अछि,
अन्हार आ इजोतमे शून्य धरि शून्य अछि,
उनटा-पुनटा क’ शून्य केवल शून्य अछि
चारू भाग सुख-दुख अछि आ
फेर शून्य शून्य अछि,
तें हम शून्यमे शून्यसँ स्वागत करब शून्य केर।
नवका नवका सत्य
सत्य आ झूठमे
जखन जखन होइत अछि युद्ध
एकटा समझौता
होइत अछि आखिर,
सत्य आधा हारैत अछि,
झूठ आधा जीतैत अछि,
आ’ प्रत्येक समझौता
बनि जाइत अछि
एकटा नवका सत्य
एहिना जनमैत रहैत अछि
सत्य नवका नवका,
एहिना चलैत रहैत अछि
नवका नवका खेल,
थीसिस, एन्टीथिसिस, सिन्थेसिस।
जीवन जीबा लेल
चाही कोनो मजबूरी
ओकरा सरस बनएबा लेल
चाही कोनो सपना
कोनो भ्रान्ति।
जीवनक चक्का घुमैत छैक एहिना
कहियो ऊपर कहियो नीचाँ
कहियो गाड़ी पर नाव,
कहियो नाव पर गाड़ी।
पेटक सुख लेल करए पड़ैत छै लल्लो चप्पो
बनए पड़ै छै उल्लू लल्लू।
करए पडै़त छैक जी हुजूरी।
आत्माक सुखक लेल
ताकए पड़ै छै कोनो परमात्मा
झुकबए पड़ै छै मूड़ी
टेकए पड़ै छै माथा,
जाए पड़ै छै
शरण कोना ज्योतिपुंजक।
परमात्माक विराट रूप
देखबा लेल चाही अर्जुनक अरजल
अथवा कृष्णक सरजल दिव्य दृष्टि,
ककरो दुःख बुझबा लेल,
चाही विराट हृदय।
कखनो-कखनो त’
एना होइ छै
जे अहाँ सुतले रहि जाइत छी
आ’ ससरि जाइत अछि टेªन
अहाँक गन्तव्य स्टेशनसँ आगाँ।
आ’ कि अहाँ
पकड़ि लै छी कोनो उनटा पुनटा ट्रेन
आ’ कि बैसि जाइ छी
कोनो मालगाड़ीमे
भ’ जाइ छी माल जाल
कोनो मोटरी।
पेट आ’ परमात्मामे
मचल रहै छै अन्तद्र्वन्द्व एहिना।
सत्य
होइत रहैत अछि झूठ,
आ’ झूठ सत्य,
थीसिस एन्टीथीसिस।
उदय चन्द्र झा ‘विनोद’
यात्रासँ पूर्व
विदा होएबासँ पहिने
देखि लिअ’ सभ वस्तु-जात
पानिक बोतल, थरमस, बक्सा
थोड़ेक फल मँगबा लिअ’
फैलसँ बनबा लेब रोटी
सभ किछु बेडिंग इत्यादि
ठेकना लिअ’
मोन राखब जे यात्रा पर छी।
मन्टूकें खिड़कीसँ काते राखब
निसभेर भ’ सूतब नहि
रस्तामे किनबाक असरा नहि राखब
बगलवलासँ रहब होशियार
कतहु कोनो बहसमे नहि पड़ब
संगमे परिवार अछि
से मोन राखब।
रुपैया अधिक पैन्टक तरका
जेबीमे राखि लिअ’
बटखर्चा हेतु राखू फराक
कागज-पत्रा बचा क’ राखब
ल’ लिअ कोनो उपन्यास
जखन मोन हएत पढ़ब
ताहि अवलम्बे रहब जागल
अपन हैसियत मादे नहि बतिआएब
एहन-ओहन बात कोनो हेबो करए
त’ सक भरि अनठाएब।
बरोबरि मोन राखी जे संगक
सभ यात्राी दुश्मन अछि
ककरो किछु नहि खाएब
सभ ठाम भेटत चोर-उचक्का
एहना स्थितिमे यात्रा पर छी
से बूझि लिअ पक्का।
कनियाँ सेहो संगमे रहती
अस्तु नहि बढ़ाएब अनकासँ
बेसी मेल-जोल
चुप्पे चलबाक प्रयास करब
अगत्या पुछला पर कहै पड़ए
त’ कहि देबै छोट सनक नाम
गाम-ठामक अता-पता नइं देबै
जाति आ कि धर्म वा इलाका
केओ कथू पर बिगड़ि सकैत अछि
जोरसँ बजबै त’ जानि लिअ’
गोली चलि सकैत अछि।
एम्हर बढ़लै’ए बेस डकैती
अस्तु सावधान रहब
छी अहाँ जिद्दी बौआ
हमर बात कान धरू
कतहु अहाँ नहि अड़ब
अनेरे नहि लड़ब।
जाइ छी त’ जाउ
नहि गेने काज नहि चलत
मंगल करथि भगवान
गोसाउनिकें गोड़ लागि
प्रस्थान करू
मोन राखब जे भारतीय
रेलसँ यात्रा क’ रहल छी।
नीरव बालिका
बाबीक कोरमे खेलाइत
बाबाक संग बतिआइत
माँक सिनेहसँ सिंचित
पिताक अनुशासनमे मज्जित
नीरव बालिका
आब जुआनि भ’ रहल अछि
कन्यादानक चर्चा भ’ रहल छै।
परिचित लोकसँ अपरिचित होइत
सीधा तकबाक बदला नीचाँ तकैत
बजबाक काज लेल आँखिकें अढ़बैत
हाथक सिमान सीमित करैत
नीरव बालिका
आब नहि बहराइत अछि
डेउढ़ी-ढाठ नहि टपैत अछि।
जोरसँ बाजब आ कि भभा क’
हँसब बर्जित छै
सोझाँमे छै अर्जित
प्रतिष्ठाक पर्वतराज
परम्पराकंे देह लगा
भजारि रहल अछि
पीसी जकाँ होएबा लेल
अपनाकें मारि रहल अछि।
समस्त प्रयासक अछैत मुदा
नहि भ’ पबैत अछि
पीसी आ कि माइ जकाँ
विचित्रा ऊहापोहमे अछि
नीरव बालिका
देहक चिन्ता करैत अछि
एते सब भेलाक बादो
ई माथा दै छै धोखा
विचार आबिए जाइ छै
आ ओ भभा क’
हँसि दैत अछि।
ओकरा बूझल छै जे एना हँसब
आकि चलब
किम्बा बाजब मना छै
मुदा ओ चलैत अछि
आ आँगन-घर करैत
यौवन-गीत गबैत अछि
बड़की टटा धापसँ
दिनकंे नपैत अछि।
डाइन
जहिया कहियो ककरो
गाममे खोंखी भेलै
बुढ़ियाक माथ चनकि जाइ छलै
नेना ककरो दुखित पड़ै छलै
पराभव ओकरा भ’ जाइ छलै
एकेटा रंगमे भरि गाम
भ’ जाइ छलै कुण्डाबोर
रोगक कारण थीक बुढ़िया
सब उपाधिक कारण थीक ई डाइन।
बाटकें सद्यःस्नाता पत्नी जकाँ
आ कि मन्दिरक सीढ़ी जकाँ देखैत लोक
प्रत्येक दिबड़ा भीड़कें ब्रह्म पीड़ी बूझि पूजैत लोक
पीपरक पात जकाँ हरहराइत
आ केराक भालरि जकाँ कँपैत लोक
लोककें अनठा क’ जिबैत लोक
अनका केहुनिया क’ आगाँ बढ़ैत लोक
सगर गाम बुढ़ियासँ डेराइत रहल
एहि गामक आदिशक्ति थिक ई बुढ़िया।
ई बुढ़िया गाछ हँकै’ए
ई बुढ़िया काज करै’ए
हाथ पर हाथ ध’ क’ जिबैत
बिपत्तिभोगी एहि गामक लोक
औखद बिनु मरैत गेल
मन्त्रा पर चढै़त गेल
एहिना राइकें पर्वत
आ पर्वतकें राइ करैत रहत
आइ ओकरा डाइन
काल्हि ओकरा चुड़ैल कहैत रहत
एहि गामक धनीक सभक मादे
जिन्नक खिस्सा पसरल छै
सब बड़की पोखरिकें खुनौने अछि दैत
मनुक्खक असमाहि शक्तिकें
अनठबैत लोक
डाइनक बल पर
जीवनकें सपठियबैत लोक
नहि जानि कहिया धरि
एहि गामक रहतै ई हाल
नहि जानि कहिया धरि
विवेक बाबू रहता कंगाल
हे फेर ककरो खोंखी उठलै’ए
फेर लोक बुढ़ियाक
फट्टक ठकठकौतै
अज्ञानक उबरामे
माउग-पुरुष बोहिएते।
विकास
पीताम्बर पाठकक मड़ैयाकें
मकान बना देलकनि हुनकर बेटा
मकसूदन पाठक
आ मकसूदनक इंजीनियर सपूत
तकरा तोड़ि पँचमहला बना लेलनि
आ प्रत्येक तल्लाकें
भाड़ा पर लगा देलनि
स्त्राी
ठोर पर नूआ नेने
ठाढ़े-ठाढ़ अपन बात
बुझबैत बाबाकें
बाबी
नहुँए नहुँए समर्थन करैत
बाबाक अपन पुतोहु
आ घरमे जा क’
बैसबाक हुकुम करैत
पोताक कनियाँ
केदन तँ कहैत रहए
छथिन दुरगमनियाँ
उपेन्द्र दोषी
स्वागत हे...
घूराक भाग्य जकाँ
द्वादश पूर्तिक पूर्वे
घुरि आएल हमरा देहक घाव
हमरा गलिताँगक नोचनी,
ओत्तहि...ओही स्थान पर
जत’ ओ पहिने छल।
क’ ने दिअए क्यो हमर अन्त्येष्टि-क्रिया,
क’ ने दिअए क्यो हमरा
पैतृक सम्पत्ति
मरौसी जथासँ बेदखल
बूझि काल-कैकेयीक राजनीति
घुरि आएल हमरा देहक घाव, हमरा गलिताँगक नोचनी...
स्थितिक मन्थराकें की देतै उपाति
की देतैक सनेस
चिर-प्रवासी, परान्नभोगी, परमुखापेक्षी
हमर ई घाव-राम?
नीक लाग’ लागल’ए
अतीतज्ञ-वर्तमानभोगी-दसऐन्द्रिय
दशरथक मृत्यु-दुख।
नीक लाग’ लागल’ए
कुड़ियाएब अपन घाव
नोचब अपन नोचनी,
स्वागत-स्वागत हे हमर गलिताँगक नोचनी!
एहि देह-अयोध्यामे स्वागत हे हमरा टहकैत घाव!!
कोना चलत ई घर?
औ परदेशी! अहाँ रहै छी बाहर
छुट्टी नहि, कोना चलत ई घर...?
ननदि बसै छथि नैहर -- सासुक कथा कहब की?
वृद्धा छथि तें चाहिअनि झगड़ाक मसल्ला --
पीनी-चीलम आ’ आगि
(हुक्का रहै छनि हरदम हाथहिं)
‘मैंयाँ’ कहैत टुनटुन, बुचिया छनि जाइत ल’ग
बोलक मधुरसँ भ’ जाइछ चोट्टहिं कात --
दुर जो! जरलाहा धियापुता भ’ गेल काल
अन्न-तीमन तँ कात जाओ
जी भरि हुक्को नहि पीबि पबै छी
एहि छुच्छी सभ खातिर।
ननदि-भाउज केर झगड़ामे भैयाजी दै छथि संग
राँड़ी-बेटखौकी करबामे मोन लगै छनि हुनको
गाँजाक निशामे लाल-लाल छनि आँखि।
भेल रहै छी डरें तीतल बिलाड़ि
की बाजू-की बाजू? किछु बाजब त’
दौड़ताह डाँग ल’ एम्हरहि
छथि भैया बिनु मौगीक पुरुख
छुआछूति केर के रखैत अछि रोच?
बूड़ि गेल सभ खेती, घर परिवार
बूड़ि गेल अछि बिन कमठौनक पटुआ,
राशन-कार्ड त’ हेरा गेल
भरिसक मुसरी ल’ गेल
कोठीक अन्न त’ बिला गेल माघहिमे
के देखैत अछि ककरा...
बूढ़ भ’ गेला ससुर,
मुदा नाक छनि लगले
काटि लै छथि बिठुआ टुनटुन बुचियाकें
छीनि लैत छथि ओ पाकल आम सिनुरिया
चारिए दिनुका पाहुन--
पाकल आम बूढ़ा
की कहिअनु? की कहिअनु
जँ सिंह तोड़ि क’ अएला अछि
पुनि पड़रूमे मिझिराए।
हाथक छुट्टी एक्कहु क्षण नहि,
छौंड़ा-छौंड़ीक ‘टें-भों टें-भों’
एकहि घरमे उजगुज-उजगुज
मोन भेल अछि आजिज--
अछि अपन दूजीवा जान--
भैयाकें बजबा क’ जइतहुँ गाम
मुदा घर थीक इएह--तें देने छी कछुआ सन
अपना धरती तर पीठ।
हे शेषनाग केर फण परदेशी जुनि डोली
जुनि डोली हम्मर मोन प्राण-आधार
डोलि जाएब त’ डोलत धरती, गाम, घर जयवार
असह्य वेदना सहि-सहि-- तनसँ खेलि-खेलि क’
दिअनु आसरा नारायणकें!
जाड़क रौद
टटके सिनुराएल नवकी छौंड़ीक
सिंउथ सनक लागए पूर्वक आकाश।
अरे! ई लाल-लाल टेसूक फूल सन
कोना भेलइ उषाक गाल?
ई के’ चुमलक जे पूब दिशाकें?
दशन-दंशसँ उषा-ठोर अड़हूल बनल छइ,
ओकरे हासें झरि रहलै-- उज्जर शेफाली।
पीयर-पीयर रौद लगै’ए मधुर पिअरगर
नव कनियाँ सन
सटल देहमे पीयर-पीयर रौद, होइछ--
हमरे पत्नी थिकी -- नवविवाहिता
किम्बा, कोनो दुरगमनियाँ कनियाँ
जे हबकि नेने हो कोर माइ केर
महफा पर चढ़बासँ पहिने--
‘हम नइं जाएब गे माइ
कतए फेकै छें हमरा-केहेन भार भेलिअनि बाबूकें!’
जतए पड़ै’ए हाथ अंग केर कोनो कोनमे
मधुर चतुर्थिक राति सन लागए बड़ रुचिगर
अहिबातक पातिल सन दमकए देह
किछु-किछु अस्मत आ’ मिट्ठ
मोन करए अनुमान।
होइ’ए जोगा-जोगा राखी पौतीमे, बाकसमे
हाथीक पेट सन मुनहरमे
कि होइतहिं साँझ ने पड़ा जाए अनका अँगनामे
हो ने अनकर देह-वाहिनी, हो ने अनकर गेह गामिनी
काहि ने काटी राति-राति भरि जागि जागि हम।
आत्म-कथ्य
विदित अछि जे
भारतीय वांग्मयक विरंचि लोकनि
शाही महलक मोख लग नतमस्तक भ’
धुरखुड़मे थुथून रगड़ि
सुविधा भोगी भ’ गेल छथि।
आ, वैदिक ऋचाक स्थान
हुनक ‘कोंकिआएब’ ग्रहण कएलक अछि
तें, अहींक सप्पत भाइ !
हमर श्वान-प्रेम
साहित्य-प्रेमक अपेक्षा
तीव्र-तीव्रतर-तीव्रतम भ’ गेल अछि।
हमर कवि-कर्म बिला गेल अछि।
विदित अछि जे
मनुक्ख डेग-डेग पर
लाथ टेकबाक कष्टसँ बचबा लेल
माथे भरे चलब आरम्भ क’ देलक अछि।
आ, तें हम अपन गोसाउनिक
गहबरमे माथ टेकब
नतमस्तक होएब छोड़ि देल अछि।
प्रभु! एहि शीर्षासनसँ नीक थिक
जड़े (अचेतन) रहब।
सूँघि-सूँघि क’ चीन्हब आ’
फूकि-फूकि क’ चलब।
रामलोचन ठाकुर
लाख प्रश्न अनुत्तरित
बात बहुत पहिनेक थिक
तहिया हम नेन्ने रही
आ गामेक स्कूलमे पढै़त रही
कहने छला गुरुजी एक दिन
देबाल पर टाँगल एगो मानचित्रा देखबैत--
इएह थिक अपना लोकनिक देश--भारत
किन्तु श्रीमान
अपने त’ कहने रहिऐ
भारत गामक देश थिक
आ एहिठाम त’ शहरे शहर छै
गाम कहाँ छै, अपना सभक गाम...
हमरा बुझबैत बाजल छला श्रीमान --
--ई नक्शा छै ने कागत पर बनल...
--से किऐ श्रीमान् एना किऐ होइ छै
जे कोनो देश धरती पर नइं
कागतक टुकड़ी पर बनै छै
आ लाखक लाख गाम
मुट्ठी भरि शहरक पेटमे बिला जाइ छै
एना किऐ होइ छै?--
श्रीमान गुम पड़ि गेल छलाह आ निहारैत हमर मुँह बहरा गेल छलाह
बात ताही समयक थिक
एक दिन पढ़बै छला गुरुजी--
अपना देशक नाम थिक भारत
जनैत छह एकर ई नाम केना पड़ल?
--महाराजा दुष्यन्तक बालक भरतक नाम पर
पुछने छलिअनि हम--
--किए श्रीमान !
एकर नाम रामलाल बुढ़बा अथवा
ठकनी बुढ़ियाक नाम पर किऐ ने पड़लैक?
बिहँुसैत कहने छला श्रीमान --
--भरत राजा छलाह
चक्रवर्ती सम्राट...
--तखन ई देश हमरा सभक कोना भेल?
बीचहिमे बाजल रही हम आ
श्रीमान तमसा गेल छलाह--
--लबर लबर जुनि बाजी
जे पढ़बै छियह से सुनह
आ मोन राखह
बात ताही समयक थिक
एक दिन पुछले छला श्रीमान --
15 अगस्त हमरा लोकनिक लेल किऐ महत्त्वपूर्ण थिक ?
--किए श्रीमान? -- प्रतिप्रश्न छल हमर
--1947 क एही तिथिकें
अपना देशमे आजादी आएल...
--श्रीमान अपने आजादी देखने छिऐ?
हमरा नेनपन पर हँसैत कहले छला श्रीमान --
--बकलेल, आजादी की कोनो देखबाक वस्तु थिक ?
किन्तु जिज्ञासा हमर नइं भेल छल शान्त
स्कूलसँ फीरि --
टोलक किछु पढ़ुआ सभसँ पुछने छलिऐ
जे आजादी केहन होइ छै
ओ सभ कि सरिपहँु देखने अछि
परंच हमरा प्रश्नक उत्तरमे
ओहो सभ खाली हँसनहि टा छल
भभा भभा क’
अन्ततः एक दिन
हम रामलालकें घेरल
ओ हमर गाममे सभसँ बूढ़ छल, पुछलिऐ--
अएँ हौ बाबा, तों आजादी देखने छहक?
सत्त सत्त कहिह’
ओ बकर बकर ताकए लागल हमर मुँह--
...
--आजादी हौ, आजादी देखने छहक?--
हम ओकरा बुझबैत बाजल रही
आ एगो दीर्घ निसास छोड़ैत बाजल छल रामलाल
बौआ, एहि अस्सी बरखक बयसमे
हम त’ खाली बेरबादिए देखैत आएल छी
कहियो रौदी कहियो दाही
कहियो हैजा कहियो मैया पपियाही
कहियो जमीन्दारक जुलूस आ
आब त’ ओकर संग पुरै छै थानाक सिपाही
हे दिनकर दीनानाथ
आबो त उठा लैह
आर की देखेबह, बड़ देखली बौआ,
आब हमरो अरुदा ल’ क’ अह° सभ जीबू
भ’ सकैए जे देखि ली
किदन त’ नाम भने कहने छली
हँ रामसत्त
मोन पड़ल
--आजादी।
सौंदर्य-बोध
ताजमल हम नइं देखने छी
नइं देखने छी
अजन्ता
एलोरा
खजुराहो वा कोणार्कक सूर्य मन्दिर
स्थितिए तेहने होइत छै
किन्तु आइ
सामथ्र्य
सौन्दर्यबोधक पर्याय कहिया सँ भ’ गेल
ओना हम देखने छी
साँझक मेघाच्छन्न आकाश
आ घ’र घुरल जाइत कोनो सारस दम्पति
हम देखने छी
हम देखने छी
बैसाखक टहाटही दुपहरिया
आ गोठुल्लामे गुटरुं गूं करैत कपोत दम्पति
हम देखने छी
हम देखने छी
डबरी चभच्चामे
जलविहार करैत
कखनो डुबैत कखनो उगैत हंस दम्पति
हम देखने छी
हम देखने छी
भादवक अन्हरिया राति
आ पछुआरक बँसबिट्टी
करजानमे चकमक करैत
अगनित भगजोगनी
हम देखने छी
आ बेर बेर देखबा ले ओ दृश्य
एखनो चकुआइए हमर आँखि
मोन पडै़ए विद्यापति केर पाँति -
--जनम अवधि हम रूप निहारल...
इतिहासमे नइं छै
अपन निनानबे भाइक हत्याक पश्चात
मगधक सिंहासन पर बैसल छलाह चण्डाशोक
-चण्डाल अशोक
राज्य विस्तारक लिप्सासँ
कएने छलाह आक्रमण कलिंग पर
इतिहास कहैत अछि--
कलिंग युद्धमे एक लाख लोेक निहत
आ सवा लाख लोक आहत भेल छल
विजयी भेल छलाह सम्राट अशोक
शिलालेखसँ होइत अछि ज्ञात
अशोकक उपाधि--
देवानाम प्रिय
प्रियदर्शी
प्रश्न उठैत अछि
के देने छल ई उपाधि
कलिंग युद्धक
निहित लाखो योद्धाक
वृद्ध माइ-बाप
विधवा पत्नी
अनाथ शिशु
के देने छल
नइं, ई बात इतिहासमे नइं छै
अपन मातृभूमिक रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग केनिहार
ओइ लाखो योद्धाक नाम
इतिहासमे नइं छै।
नचिकेता
विरोध समुद्रसँ
तोहर आ हमर बीच
एक टा समुद्र
बैसि विचारि रहल अछि
ओकर अगिला चालि की हएत
दूर कतहु तट पर बैसि
केओ कानि रहल अछि अविराम
समुद्रक कोनो पछिला करतूतक परिणाम
भरिसक
बीच समुद्रमे डुबकी लैत माछ
सोचि रहल अछि
एहि बेर लहरि उठत कोन दिससँ
परदेस जाइत चीलक झुण्ड
बुझि नहि पबैत अछि
शब्दकोशक उपयोगिता की होइत अछि,
प्रेम कोना उगैत अछि मरुभूमिओ मे
कतहु ठाढ़
वरुणदेव सोचि रहल छलाह
हाथमे धएने सब टा ज्वारक शिखाकें--
एहि बेर समुद्रकें जीत’ देता
अथवा प्रेमकें--
तोहर आ हमर बीच
ऋतु-विशेष, पृथ्वी पर
पृथ्वी पर प्रेमक होइ छै एकटा ऋतु-विशेष
जे हमरे-अहाँ ले’ अछि बनल
एहन ऋतु जकर आरम्भमे
बरसातक बुन्न लागै छै सूखए, छत पर
आ हम रहै छी बैसल एत’
मछियारक जाली ल’ क’
शब्द-सभकें पकड़’
जादू-टोना कर’ ले’
वशमे कर’ सभकें
एहन सभ शब्द जे पगला उठै छै
खुशीसँ आनन्दसँ भागै दौगै छै
टोलीक सभ टा नेना-भुटका संगें
आ अन्तमे करै छै आत्म-समर्पण
कविताक संन्यासमे!
आ कि हम नदी कछेर दिस घुरि जाइ छी--
एखनहुँ भोरका मन्त्राक उच्चारण अइ बाँकी
एहन मन्त्रा जे जलकें अकास बना दै छै
आ तकर दर्द आ धीरज केर परीक्षा लै छै--
आ अहिना
आरम्भ होइ छै एक टा अपूर्व तीर्थयात्रा!
बंजर सूखल एहि देशमे
हम छी ओ रूमानी बरसातक देव
जे अकासोकें कना सकै छै बेहिसाब
एहि शताब्दीक करुणतम कथा कहि क’
जत’ भूत नचै छै लाठी बजारि बजारि
जत’ तरुण राजकुमार
उड़बै छै फुक्का ऊपर अकासमे
आ साम्यवादक सपना देखै छै
जत’ निरुपाय लोक-बेद
सीखै छै समझौता करब
तेहन सभ शब्दसँ, जकर चीत्कार तर
ओकर सभक आह डूबि जाइ छै
हमर कन्नाहट सुनू, औ अकास!
औ अहूँ कानू भोकारि पाड़ि पाड़ि
किऐ तँ हम ओहि वज्रपातक शब्द सुन’ चाहै छी
विश्वास कर’ ले’
जे साओन सचमुच आएल अइ धरती पर!
हम हुनका छूब’ चाहै छिअनि
अपन कपार पर टपकैत बुन्नक संगें
ता’कि पाढ़ि सकिअनि अपनहि लिखल पाँति कोनो
माँगि सकिअनि हुनक हाथक आँगुर कए टा
आ मोन पाड़ि सकिअनि ओहि सभ टा प्रतिश्रुति द’
जे हुनका पूरा करैक चाही छलनि हमरासँ
पछिल बेर, ऋतु विशेष!
एक अहीं छी
अपन कवितामे
कैक बेरि अहाँकें बजा क’ देखने छी
मुदा एक अहीं छी
जे किछु जवाबे नहि दै छी
नहि किछु
तँ अहिना किछु बजने होइतहुँ
अहीं छी
जे कखनहुँ घुरियहु क’ देखितो नहि छी
नहि तँ देखि सकै छलहुँ
हमर कविता
कोनो मामूली प्रेमक दस्तावेज नहि छल
जे लाभ-हानिक हिसाब रहत लिखल
तकर पहिलुका भाग मे;
कोनो साधारण निमन्त्राण नहि छल ई
जे तकरा सहजहिं टारल जा सकै छल;
ने छल कोनो आम लोकक भोज्य वस्तु
जे परसिते देरी कठुआ जाइत छल
हम तँ ई बात कए बेर अहाँकें बाजि चुकल छी
जे कवितामे हम अहाँकें
दोसरे एक टा नाम देने छी
एहन नाम
जे केवल कवितामे सम्भव होइत अछि
अथवा एहन
जकरा चिडै़-चुनमुनी सहजहि उचरि सकै छल
मुदा एहन नहि
जकरा पर सनसनाइत कथा बनि सकए कोनो
एहन नहि
जकरा झाँपि-तोपि क’ राखत ग’ केओ
जेबीमे अपन भीतुरका
एहनो नहि
जाहि पर किलकारी मारि उठत केओ
मित्राः मित्रौ मित्राः
अपन कवितामे
तेहने कोनो नामसँ बजा क’ देखने छी अहाँकें
मुदा एक अहीं छी जे किछु बजिते नहि छी
नामकरण
चानकें चन्द्रमा नाम देलिऐ
तरेगणकें निहारिका
कि रातुक अर्थे बदलि गेल हमरा ले’।
इजोतकें प्रत्यूष आ
सुरूजकें मार्तण्ड्य कहबाक देरी छल
कि प्रचण्ड आलोकसँ आँखि चोन्हिया उठल;
जगलकें उपवन
आ घास-फूसकें दूर्वाक्षत कहल
तँ आबि गेल मन्त्राक उच्चारण अपनहि;
अथक खटनीकें कहल गेल निरलस प्रयास
आ समास कहल बेजोड़ शब्दक जोड़ीकंे
तँ टूटल-भाँगल करेज गेल सेराय!
आब ठीक कएने छी जानल शब्द सभ टा
देब फेकि अँगनाक पछबरियामे
आ अहाँक नामे देब बदलि क’ ऋतुमती
कि भ’ सकैछ एहिसँ बदलत हमर भाग्यो!
ई जीवन मात्रा जीवितक थिक
जे जीयत आ बदलत अपन वेश आभूषण दाम
ई जीवन मात्रा जीवितक थिक
ई जीयत आ बदलत अपन दृष्टि भाव भंगिमा
ई जीवन मात्रा हमर अहाँक हएत
जे केओ रूप बदलि क’ जी रहल छी
प्रतिपल प्रतिपदा केर बदलैत राशिफल
और गणितक भरोसें
आउ, हमर नाम बदलि क’ रखै छी दुष्यन्त
अहाँ शकुन्तले!
कण्व कत’ गेला, मृगशिशु?
हमरा तँ इएह दुनूक फिकिर लागल रहत
बाकी सभ टा अंकमे!
भीतर उगैत शब्द
बहुत मोसकिलसँ बहराइत अछि
हमर भीतरसँ शब्दक स्तब्धक ध्वनि कोनो
भीतर लगैछ बहुत दूर गुफामे बैसि
केओ कानि रहल अछि,
भीतर पहाड़क शिखर पर
केओ मारि रहल अछि ठहाका,
भीतर दबले पैर ककरहु चलि जेबाक आहटि
भीतर लिफाफ खोलैक आवाज
पत्रा पर सर्वत्रा ककरहु सभ टा पाँतिसँ
एक संग सभ टा शब्द खलबलाइत, अछि
बहुत मोसकिलसँ बूझै छिऔ बहिन
तोहर बहैत नोरक टपकब
बनि नहि पबै छौ वाक्य कोनो टा शेष, समास
झहड़ि जाइछ सभटा, बहैत
लगमा धारक पगलाएल पानिमे बहैत
धान सन,
धनि सन
चुप्पी साधए, बाजए नहि किछुओ,
बहुत मोसकिलसँ बुझलिऔ तोहर
टूटल रीढ़क हड्डीक मर्मर
निन्नमे लैत करौटक दर्दर
मुदा जे किछु सुनल-जानल, बूझल जएह किछु
तकर आभास बनल अछि लिपिका हमर
कण्ठ पकड़ि क’ कठुआएल कविकें घिसिअबैत
आबि उपस्थित भेल अछि कवितामे हमर
कागत पर पैर धरिते देरी
बाजि उठल लिपि सरिता हमर
ई जे कछु लिखल अछि शब्दक गिरोहमे तकर
शतशत सम्मान करह
छओ अंग परनाम करह
अपनहि भीतरसँ बहराएल कागत पर अछि,
ताहिसँ की? एहि पर
आब नहि अछि अहाँक जोर कोनो!
प्रत्येक शब्दक आत्म-सम्मान होइ छै मूर्ख!
तकरा छूब’क टेाक’क बदल-फेर कर’क
के देलकह अछि तोरा अधिकार, कवि?
वाक्यक पाँजरि तर लखा दैत शब्दकें
मात्रा चूमि सकै छें तों,
तकरासँ क’ सकैत छह मैथुन, मात्रा प्रेम--
ने घृणा, ने क्रोध, ने हाक्रोश कोनो
ने विमर्श, वैमनस्य, अनठाएब कोनो
ने ऊबब, डूबब, हननक हिंछे कोनो!
मात्रा रमि सकै छह तों, नचिकेता
क’ सकै छह तों मन्थन, ग्रन्थन!
आब जे किछु ई बहार भेल अछि लिपिका
तकरा सजा सकै छह फूल-पातसँ तोहर
वेणी गूहि सकै छह रातुक पहर
सेंउथ पर चुमा सकै छह पहिल सुरूजक लाली
महकए गरा केर ललित सिंगरहार, आर
पहिरा सकै छह तरुण ऊष्म वृक्षक बल्कल कोनो
मुदा ई जे किछु
लिखित घटित भेल अछि शब्दक शरीर पर
तकर भ्रूणक गुणक धुनक सम्मान करू
शत शत परनाम करह
भावी प्रजन्मक कवयित्राी कविता
लिपिकाकें सेहो!
बुद्धिनाथ मिश्र
गरहाँक जीवाश्म
बाबू पढ़ने छलाह --
‘अ’सँ अदौड़ी
‘आ’सँ आमिल
तें ने दौड़ सकलाह
ने मिल सकलाह
सौराठक धवल-धार सँ।
जिनगी भरि करैत रहलाह
पुरहिताइ
खाइत रहलाह चूड़ा-दही
बान्हैत रहलाह
भोजनी, अगों आ सिदहाक पोटरी
पूजा वला अंगपोछामे।
हम पढ़लहुँ--
‘अ’सँ अनार
‘आ’सँ आम
तहिया नहि बुझना गेल
जे ई वर्णमाला पढ़िते
खाससँ आम भ’ जायब।
एहि देसक
आरक्षित शब्दकोशमे
फूलक सहस्रो पर्याय भेटत
मुदा फलक एकोटा नहि।
बून-बूनसँ
समुद्र बनबाक प्रक्रियामे फँसल
हम ओ भूतपूर्व बून छी
जकरा समुद्र कहएबाक अधिकारसँ
वंचित राखल गेल छै।
आब हमर नेना
पढ़ि रहल अछि --
‘ए’सँ एपुल
‘बी’सँ बैग, ‘सी’सँ कैट
आ धीरे-धीरे उतरि रहल अछि
हमर दू बीतक फ्लैटमे
बाइबिलक आदम, आदम क ईव
आ ईवक वर्जित फल।
हमरा परदेसकें मात करत
बौआक बिदेस
हमर लगाएल आमक गाछी
बाबुओ देखलनि, बौओ देखलथि
मुदा बौआक लगायल सेबक गाछ
समुद्र पारक ईडन गार्डेनमे फरत
जत’ ने हेतै आमक वास
ने हेतै अदौड़ीक विन्यास।
लिबर्टीक ईव पोति रहल अछि आस्ते-आस्ते
मधुबनीक चित्रित भीतकें।
देसी गुरुजीक एक्काँ-दुक्काँ
सबैया-अढ़ैया आ
गरहाँ जा रहल’ए भूगर्भमे
जीवाश्म बनबा लेल।
चलला गाम बजार
हम ओ कनहा कुकूर नहि
जे बाबू साहेबक फेकल
माँड़े पर तिरपित भ’ जाइ।
हमर आदर नहि करू
जुनि कहू पण्डित, जुनि कहू बाभन
हम सरकारक घूर पर
कुण्डली मारिकें बैसल
ओ कुकूर छी
जकरा महर्षि पाणिनी
युवा आ इन्द्रक पाँतिमे
सूत्राबद्ध केने छथि।
हमर परदादा जहिया
बाध-बोनमे रहै छलाह तहिया बाघ जकाँ
तैनि क’ चलै छलाह।
तहिया गाम छलै दलिद्दरे
मुदा छलै सारिल सीसो।
तहिया गामक माइ-धीकें
दोसरा आँगन जा क’ आगि मँगबामे
नहि छलै कोनो अशौकर्य।
तहिया परिवारसँ टोल, टोलसँ गाम
गामसँ जनपद, जनपदसँ राष्ट्र
आ राष्ट्र सँ विश्व--परिवार बनैत छलै।
बूढ़-बुढ़ानुस कहै छलाह--
यत्रा विश्वं भवत्येकनीडम्!
छाड़ू पुरना बातकें, बिसरि जाउ
ओ परतन्त्रा देसक कुदिन-सुदिन
बिसरि जाउ ओ अराँचीक खोइयामे
सैंतल परबल देल जनौ।
आब अहाँ छी परम स्वतन्त्रा
वैश्वीकरणक सुनामी
अहाँक चैरा पर साटि रहल अछि
विश्वग्रामक चुम्बकधर्मी विज्ञापन।
एकटा जानल-सुनल अदृश्य हाथ
चटियासँ भरल किलासमे
घुमा रहल छै, ग्लोबकें।
दुनू पैर धेनें टेबुल पर
ग्लोब पर बैसल छै कुण्डली मारि क’
पुरना क्लबक साहेब सभ
आ सहेब्बाक आगाँ बैसल छै
झुण्डक झुण्ड नँगरकट्टा कुकूर।
बदलि दियौ
नवका ‘हिज मास्टर्स वाॅयस’क प्रतीक-चिद्द
कुकूरकें एकवचनसँ बहुवचन बना दियौ।
लोकसभासँ शोकसभा धरि
महगू बाजल--
कते महगी आबि गेल छै!
दालि-चाउरमे तँ
आगि लागिए गेल छै।
कथीसँ डिबिया लेसी
मटियाक तेलो
उड़नखटोला भ’ गेल।
मुदा मन्त्राीजी नहि मानलनि।
लुंगी उठा-उठा क’ देखबै छथि--
एहि विकासशील अर्थव्यवस्थामे
कते सस्त भ’ गेल छै
लोकक जान-परान
महानुभावक चरित्रा
बेनंगन मौगीक शील।
कतेक सस्त भ’ गेल छै
पंडिज्जीक पोथी-पतरा
गोसाउनिक गीत
चिनबारक माटि
आ टीवी चैनलक मौसगर मनोरंजन।
मन्त्राीजी नहि देखा रहल छथि
ओ सुरंग जे लोकसभासँ शोकसभा धरि जाइ छै।
ओ नहि देखा रहल छथि
नीलामी घर
जाहिमे मैनोक पात बिकाइ छै
करोड़क करोड़मे!
ओ नहि देखा रहल छथि
बघनखा पहिरने हाथ
जे महानसँ महान योजनाक
मूड़ी पकड़ि क’ सौंसे चिबा जाइ छै।
कुसियारक रस बटैछ सदनमे
आ सिट्ठी फेकाइछ
गामक माल-जालक आगाँ।
लोक माल जकाँ
मरि रहल अछि
कि माल-जाल लोक जकाँ--
से कहब कठिन।
रेड रिबन एक्सप्रेस
रेड रिबन एक्सप्रेस
घूमि रहल अछि चारू दिस
अश्वमेधक घोड़ा जकाँ।
घराड़ी-बरारीक देवालकें
‘आखी’ लत्ती जकाँ छेकने
लाल तिकोनकें
धकिया रहल छै रेड रिबन।
साम्प्रदायिक रामायणक अन्त्येष्टि क’ क’
स्कूलक मास्टरजी चटिया सभकें
पढ़ा रहल छथिन --कामायन।
कोना सात फेराक लपेटसँ उन्मुक्त भ’
यौन-सुख प्राप्त करी--
नवका फुक्कासँ,
ज्ञान द’ रहल छथिन मास्टरजी।
बुझा रहल छथिन--डायग्रामसँ, थ्योरीसँ
नहि बुझला पर प्रैक्टिसँ।
मैकालेक बनाओल
स्कूलक चारू कात
कटि रहल छै मेहदीक वंश
बढ़ि रहल छै नागफेनीक बेढ़।
विषवृक्षक छाँहमे
योगक पटिया उनटा क’
यौन-शिक्षा देल जाइछ।
एकटा सांस्कृतिक धूर्ततासँ
कसल जा रहल अछि ब्रह्मचर्यक
समस्त ज्ञानतन्तु।
फगुआ-देबारीसँ बेसी
पुनीत पर्व अछि एड्स दिवस।
नवताक आवेशी डिप्टी साहेबक
वारण्टी आदेशसँ
केराबक अँकुरी-सन
नान्ह-नान्ह स्कूली छात्रा-छात्रा
कण्डोमक प्रचार करैत अछि।
मुँह बबैत बाबा-बाबी
सुनै छथि नव भिक्षु-भिक्षुणीक उपदेश।
एकटा कृत्रिम अदंकसँ
सुखएल-टटाएल बेंगों धरि
सन्त्रास्त अछि।
फुक्का बेच’वला
अपन आमदनीसँ
मस्त अछि।
जनी जाति
जनी जाति
आब साम-कौनी
आ गम्हरी धान
नहि रहि गेली’हे।
ओ भ’ गेली’हे
सतरिया चाउरक भात
जकर माँड़ो छै अनमोल।
जनी जाति छथि आब
गामक पंच-सरपंच
आ नगरक कमासुत नारि।
आब ओ पुरुखक
सोंगरि पर टिकल
दुअम्मा गाछक डारि नहि,
स्वतन्त्रा भोट बैंक छथि।
आब ओ बूढ़ बहिकिरनी नहि,
आँगनबाड़ीसँ ल’ क’
सरकारी न’र ज’र धरि
धाँगि सकै छथि
अपन दैहिक बुत्ता पर।
आ घर घूरि क’ बर्तन-बासन
भानस-भात, नजरि-गुजरि
सेहो सभ करबे करतीह।
महाप्रकाश
नंगटा नेना
ओ अपन घरक समस्त खिड़की
बन्न क’ लेलनि अछि
खूजल अछि मात्रा द्वारि
तमाशा देख’ लेल भीड़ अछि
ठाढ़ आगाँ आ आगाँ
ओ मक्खनमे डूबल अपन आँगुर
भीड़क मुँहमे द’ रहलाह अछि
भुखाएल भीड़ आँगुर चुसैत अछि
हुनका नहि बूझल छनि भीड़
एकटा नंगटा नेना होइत अछि
ओ कहियो आँगुर छोपि लेत
पन्द्रह अगस्त
पन्द्रह अगस्त
सन उन्नैस सय सैंतालिसकें
लालकिला पर फहराओल गेल तिरंगा
झण्डाक चक्र
प्रगतिक पथ पर जानि नहि
कतए टूटि गेल
भारत भूमि पर उगल
अपन चैबीसो टूटल शलाकासँ
बेधि रहल अछि लगातार
अर्द्धशताब्दी बीति गेल
हमर देह हमर अस्तित्व ऐतिहासिक खण्डहर भ’ गेल
समय असमय
भारतीय राष्ट्रीय संग्रहालयमे
हम प्रेत जकाँ
ओही झण्डाकें हेरि रहल छी
जे अकाल कवलित होइत
हमर स्वतन्त्राता हमर देह
हमर अस्तित्व लेल ओ
अन्तिम वस्त्रा तँ बनि जाए।
जूता हमर माथ पर सवार अछि
जूता हमर माथ पर सवार अछि
हमर नाँगट पैरक दरारि
शोणितक नदीकें
पैरमे बन्हने
काँटक अनन्त जंगलसँ लड़त
मरुभूमिमे पड़ल छी...
आँखिमे पानिक सतह पर
टुटैत हमर अर्जित स्वप्न-संगीतक
विद्रोही राग-रागिनी
उलहन उपराग अलापैत अछि...
हमर आस्थाक सार्थक शब्द
हमर संस्कारक आधारशिला
कोन आश्रम कोन ज्योति पिण्डकंे
हम देने रही हाक...
यात्रा पूर्व जत’ रोपने रही
संकल्पित पैर
जत’ भरने रही फेफड़ामे
सर्व मंगल मांगल्ये मन्त्रापूरित हवा
कोन गली कोन चैबटिया पर अनाम भेल...
हमर संगक साथी सम्बन्ध सर्वनाम
अपन विशेषण अपन सुरक्षाक
अन्वेषणमे फँसि गेल
जूताक आदिम गह्नरमे
बना लेलनि अपन-अपन घर दुर्निवार...
हे हमर हिस्साक ज्योति सखे!
देखू कत’ कत’सँ दरकि गेल अछि
हमर आस्थाक चित्रा-लोक
कत’ कत’सँ दरकि गेल अछि अंतरंग
हमर दर्द कहू...
कत’ कत’सँ टूटि गेल हमर शक्ति क्रम
हमर हाथ गहू...
जूता हमर माथ पर सवार अछि।
सूर्य महाकाल अछि
सूर्य ओकरा हाक देलकै
लगातार हाक दैत रहलै
ओ आँकुर बनि
आँखि खोललक
दुनू बाँहि पसारि
सूर्यक स्वागत लेल बढ़ल
ऋतु सभ मंगल गीत गौलक
मुदा, सूर्य नहि भेटलै
जेना बितलैक मन्वन्तर
आसमे पियासमे
सूखि क’ झमान भेल
खसल, अन्ततः धरती ओकरा
धारण क’ लेलकै--निर्विकल्प
मुदा, सूर्य पुनः-पुनः
ओकरा हाक दै छै
सूर्य फेर मुस्काइत अछि
(सूर्ये महाकाल अछि)
मृत्युक रंग
ओ एकटा शब्दातीत। अर्थातीत
भीमकाय जीव। अदृश्य
एकटा मूर्ति उठौलक
आ ओकरा रंगि देलक
हरियर-हरियर। जीवन्त
ओ हमरा आँखिक आगू
नचैत रहल।
ओ पुनः एकटा मूर्ति उठौलक
आ ओकरा रंगि देलक
केसरिया बानामे ओ
हमर आँखिक आगू नचैत रहल।
दिशा काल एहि नत्र्तनसँ जेना
अवरुद्ध भेल। ओ कएलक अट्टहास
धरती काँपल
घूर्णित अछि हमर मस्तिष्क
कहलिअनि - हमरा आतंकसँ बचाउ
हमरा शाश्वत उज्जर रंग देखाउ
कहलक - उज्जर किछु नहि भ्रम थिक
ओ मात्रा मृत्युक रंग थिक।
रंगसँ इतर की अछि?
रंग पहिने आकाशमे उतरल
जनम अवधि हम रंगक रूप
निहारल। रंग नहुँए-नहुँए
हमर आँखिमे सपना बनि
बसि गेल। एकटा सांगीतिक
लयकारीक संसार हमर श्वास
मे रचि गेल। रंग हमर इष्ट रंगसँ इतर की अछि?
पहाड़-समुद्र भेल जीवन
पहाड़े थिक हमर जीवन
दूर धरि पसरल
निस्सीमकंे आँकबाक हिम्मति मँगैत
अपन बाँहि पसारने क्षितिज धरि
पहाड़े थिक हमर जीवन
कतहु गह्नरित होइत सुरंग
प्रतिध्वनिक गंूज
आवृत्ति एक लेल जेना
पसरल हो कर्ण-पटलक सर्प-कुण्डली
पहाड़े थिक हमर जीवन
घाटीक निर्मम एकान्तिक यात्रा
उघैत पीठ पर समग्र पहाड़क भार
प्रार्थनामे झुकैत
पहाड़े थिक हमर जीवन
कोरामे उठौने
जंगलक सघनता
लपटल लताक अनगढ़ताकें
सार्थक करैत जेना कोनो फूल
पहाड़े थिक हमर जीवन
हिंस्र प्राणीक दहाड़सँ कँपैत
भागैत कातर
प्राणकें नासाग्र पर टिकौने
दण्ड-पल
क्षण-क्षण आगाँ
पहाड़ थिक हमर जीवन
आकाशक समस्त आभाकें निचोडै़त
कम्बल ओढ़ि निद्रामग्न होइत
चुपचाप
पहाड़े थिक हमर जीवन
आ हम
कोनो ऊँचाइक सीमाकें अवक्रमित करैत
हमर मस्तिष्क
अनादि कल्पवृक्ष थिक
वसन्तक पात
अनेक रंग-भावक गीत गबैत
रोम-रोमक साक्षी
ओ हमर मस्तिष्क
अनादि कल्पवृक्ष निर्विकल्प अछि
पहाड़ थिक हमर जीवन
एकटा प्रवहमान नीरव शान्ति अछि
आँखिमे उतरल भय केर भारी
झरनाक स्रोत कतए गेल
आसक पाखी
पहाड़े थिक हमर जीवन
हमरा आँखिएक सीमामे पसरल अछि समुद्र
पलक पर पहाड़
नीचाँ जलक विस्तार
समुदे्र थिक हमर जीवन
कतहु-कतहु
वाड़वाग्निक अखण्ड नदी
किन्तु कौखन शीतलता
जे प्रवाहमान भेल अछि हमर रोम-छिद्रमे
ओ समुद्र थिक हमर जीवन
डूबल अछि जतए शत-सहस्र नाह
मानिक रत्न सदृश मत्स्य-कन्या
समाधिस्थ भेल
नागक प्रदेशमे
ध्वजदण्डक सम्राट एतहि शेष भेल
समुदे्र थिक हमर जीवन
प्रबल ज्वार-भाटाक थाप सहैत
नदी सभक सामूहिक
विलापक प्रत्युत्तर थिक समुद्र
हमर जीवन
गर्म प्रवाहक वल्लिमे बान्हल
हिमशैल शान्त अछि
हमर आँखिमे हेलैत
समुद्रे थिक
पहाड़े थिक हमर जीवन
शब्द नहि होयत शिखण्डी
आरोपित नहि भ’ सकैत अछि अर्थ
ध्वनिक आकार-गर्भमे
होइत अछि अर्थ
व्यर्थ नहि होएत इतिहासक जंगलकें दाँगब
दिशा-काल थिक रत्नगर्भा
धरतीक ह’र-बड़’द
श्रम सीकर आ पौरुषक ज्योतिसँ
होइत रहल अछि उत्खनित
चराचर सदैव
अतएव शब्द नहि भ’ सकैत अछि शिखण्डी
जे गंगा-पुत्रा मोड़ि लैथि
अपन सन्धान
नव सदीक चेहरा
समाजशास्त्राक पोथी तमाम
संग्रहालयमे राखल जा चुकल अछि
अर्थशास्त्राक नव-नव ग्रन्थ
शेयर बाजारक कम्प्यूटर सभमे
भ’ रहल अछि आब आविष्कृत
व्यस्त छथि वैज्ञानिक लोकनि
समृद्धि केर क्लोन
ओ सभ तैयार करै जेताह
हमरा-अहाँक घ’रमे
वित्तमन्त्राीक मुदित मुखमण्डल
देशकें
आश्वस्तिसँ भरि रहल अछि
हठी पर्यावरण मुदा कहैत अछि
सरकार सरकार अछि
राष्ट्रहितमे एकरा
हमरा सभकें कौखन ठोस, कौखन तरल
कौखन वाष्पीकृत धरि क’ देबाक
संवैधानिक अधिकार अछि।
हुलसि क’ करब स्वागत
प्रायः प्रतिदिन अहल भोरे
निर्भीक निद्र्वन्द्व मैना सभक एक-झुण्ड
हमरा घर-आँगनमे
उतरि अबैत अछि कोलाहल रचैत
घाघ अफसर जकाँ
मुएना करैत अछि चैबगलीक
चक्कर पर चक्कर कटैत अछि
आ अन्ततः
ताकिए निकालैत अछि
अन्नक कोनो टुकड़ी
आँगनमे दुबकल कोनो कीट
बड़ी काल धरि खाइत अछि
आ बेधड़क उड़ि जाइत अछि
ओ सभ फेर आएत
फेर करत सम्पूर्ण कर्मकाण्ड
हमरा सोझेंमे
अकड़ि क’ चलत
आ विवश हम
हुलसि क’ करब स्वागत।
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"भालसरिक गाछ" Post edited multiple times to incorporate all Yahoo Geocities "भालसरिक गाछ" materials from 2000 onwards as...
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जेठक दुपहरि बारहो कलासँ उगिलि उगिलि भीषण ज्वाला आकाश चढ़ल दिनकर त्रिभुवन डाहथि जरि जरि पछबा प्रचण्ड बिरड़ो उदण्ड सन सन सन सन...
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खंजनि चलली बगढड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरली अपन वस्तुलक परित्याकग क’ आनक अनुकरण कयलापर अपनो व्यिवहार बिसरि गेलापर व्यंपग्यय। खइनी अछि दुइ मो...
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि।
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