भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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Tuesday, September 16, 2008
कथा-कोसी/ अपराजिता - स्व.राजकमल चौधरी- प्रस्तुति गजेन्द्र ठाकुर
स्व. राजकमल (मणीन्द्र नारायण चौधरी) (१९२९-१९६७), महिषी, सहरसा। रचना:- आदि कथा, आन्दोलन, पाथर फूल (उपन्यास), स्वरगंधा (कविता संग्रह), ललका पाग (कथा संग्रह), कथा पराग (कथा संग्रह सम्पादन)। हिन्दीमे अनेक उपन्यास, कविताक रचना, चौरङ्गी (बङला उपन्यासक हिन्दी रूपान्तर) अत्यन्त प्रसिद्ध। मिथिलांचलक मध्य वर्गक आर्थिक एवं सामाजिक संघर्षमे बाधक सभ तरहक संस्कार पर प्रहार करब हिनक वैशिष्ट्य रहलन्हि अछि। कथा, कविता, उपन्यास सभ विधामे ई नवीन विचार धाराक छाप छोड़ि गेल छथि।
अपराजिता
(वैदेही, अक्टूबर १९५४ सँ साभार)
हमर अभिन्न मित्र नागदत्त अपन घरवाली केँ अपराजिता कहैछ। किएक, से कि सोचलो उत्तर एखन धरि बूझऽ मे आयल अछि?
हम धरि हुनका अन्नपूर्णा भौजी कहैत छियनि। जर्दा लेल बड्ड छिछिआयल रही आ ओ खास अवसर पर संकट-मोचन रहथि। ओहुना हमरा मैथिल-बाला सभ मे अन्नपूर्णाक रूप अधिक भेटैत अछि।
मुदा अपराजिता?
धुः! पत्नीक प्रति ई भाव तँ एक विदेशी भाव थिक। भारतीय सँ एकरा कोनो साम्य छैक? मिसियो भरि ने। भारतीया तँ बेचारी लाज, बन्धन, आवरण, नियम ओ उपनियम सँ तेना कऽ जकड़लि रहैछ जे ओ सर्वदा पराजित बनलि रहैछ।
एही सभ मे दहाइत-भसिआइत रही। खिड़की सँ बाहर मिथिलाक श्यामल, सोहागिन, सुहासिन धरती। ट्रेनक खिड़की सँ बाहर देखैत रही।
दिवानाथ धरि मूड़ी निहुड़ौने “गारंटी ऑफ पीस” मे ओझरायल छल। मुक्ती बाबू ट्रेनक हड़ड़-हड़ड़ मे ताल दैत विद्यापतिक पाँती गबैत रहथि, “सखि हे, हमर दुखक नहि ओर”।
नागदत्त अपना लगक मोसाफिर संगेँ जोर-जोर सँ बजैत रहय, “नइँ महाराज...आन देश मे ई हाल नइँ छैक...अही ठाँ रूस मे देखिऔक गऽ। विज्ञानक जोर सँ मनुक्ख नदीक धार केँ अपन इच्छानुसार मोड़ि देलक अछि”।
इन्टरक एहि डिब्बा मे आनो-आन यात्री सभ अपन-अपन गप्प सभ मे तल्लीन रहथि। एकटा बूढ़ दरोगा साहेब अपन सहगामी केँ कोनो रोमांचकारी डकैतीक खिस्सा कहैत रहथिन। एकटा सेठ अपन अधवयसू मुनीम केँ सोना-चानीक तेजी-मन्दीक कारण बुझा रहल छलाह, लगहि मे हुनक पत्नी घोघ तनने बैसलि! ट्रेन समस्तीपुर सँ फूजल। कैप्सटनक डिब्बासँ अन्तिम सिकरेट बहार कऽ दिवानाथ सुनगाबऽ चाहैत रहय...सलाइयो रहैक लगहि मे ...मुदा ओ तँ रहय अपन “गारंटी ऑफ पीस” मे ओझरायल। हमरा हँसी लागल। हम हँसऽ लगलहुँ। मुक्तीबाबू दोसर गीत गाबऽ लगलाह, “मानिनि आब उचित नहि मान”!
हठात् खिड़कीसँ हुलकि दिवानाथ चिचिआयल, “देख, मणि...देख...अपराजिताक ताण्डव”! सभ गोटा हुलकी मारऽ लागल। सभक आँखि विस्मय-विस्फारित!
“गारंटी ऑफ पीस” खतम छल...विद्यापतिक गीत खतम छल। रूसक कथा खतम छल। डकैतीक कथा थम्हि गेल...सोना-चानीक तेजी-मन्दी सेहो बन्द भऽ गेल रहय। सिकरेटक लगातार धुँआ रहि गेल आ रहि गेल अपराजिता!
सरिपहुँ... बागमती, कमला, बलान, गंडक आ खास कऽ कऽ कोसी तँ अपराजिता अछि ने! ककरो सामर्थ नहि जे एकरा पराजित कऽ सकय। सरकार आओत...चलि जायत..मिनिस्टरी बनत आ टूटत, मुदा ई कोसी...ई बागमती...ई कमला आ बलान...अपन एही प्रलयंकारी गति मे गाम केँ भसिअबैत, हरिअर-हरिअर खेत केँ उज्जर करैत, माल-जालकेँ नाश करैत, घर-द्वारक सत्यानाश करैत बहैत रहत आ बहैत रहत।
वेद मे नदी केँ मनुक्खक सेविका कहलकैक अछि...मनुक्खक पत्नी कहलकैक अछि...
मुदा,
बहुओ भऽ कऽ कोसी आ बागमती अपराजिता अछि...
अन्नपूर्णा कहाँ?
रेलवी-सड़कक दुहू कात कोसक कोस पसरल अबाध जल-प्रवाह! दुहू क्षितिज केँ छुबैत जलक धार!!
“लगैत अछि, हम सभ ट्रेनपर नहि, मने जहाजपर बैसल होइ। जेना चारू कात विशाल, विकराल, विराट समुद्र हो जे हमर अस्तित्व पर्यन्तकेँ डुबा देलक अछि!”, बाजल दिवानाथ। मुक्ती टिपलक, ’मणि भाइ, कते गामक तँ कोनो थाहो-पता ने लगैत छैक जे एतऽ कहिओ कोनो गामो रहैक। जतऽ ईंटाक पोख्ररापाटन हवेली रहैक ततऽ की छैक? महाविशाल मोइन आ कुण्ड! जतऽ खेत आ खरिहान रहैक ओहि ठाँ गण्डकी नंगटे नचैए...खरिहानक नाच नहि, श्मसानक नाच!”
हाथक “ब्लिज” केँ तह दैत एकटा सज्जन बजलाह, “आ बाबू...सरकार तँ पटना आ दिल्लीक सचिवालय मे बिजलीक पंखा आ स्प्रिंगदार सोफाक बीच सूतल अछि। मिथिला वा भोजपुर भसिआइए गेल तँ ओकरा की? कोसी सर्वनाशे करइए तँ ओकरा की? ओ तँ इण्डियाक “फारेन-पालिसी” सोचैत अछि। भीतर सँ भारत खुक्ख भऽ रहल अछि...कोकनि रहल अछि, मुदा ओ यू.एन.ओ.क कुर्सी बचाबक फिकिर मे अपस्याँत अछि”। दरोगाजी कनिएँ उकड़ू भऽ बैसि गेलाह आ कान पाथि हमरा लोकनिक गप्प सुनऽ लगलाह। सेठजी अपन धर्मपत्नी दिस व्यग्र भावेँ ताकि बजलाह, “रधिया की माँ...जरा इलायची तो देना...सर चकरा रहा है”।
दाँत कीचि दिवानाथ गुम्हड़ल- गारंटी ऑफ पीस!! हम सोचलहुँ, हमर देश मे जे “गारंटी ऑफ पीस” दऽ सकैछ से तँ लालकिलाक मुरेड़ा पर खजबा टोपी, करिया अचकन...चुननदार पैजामा पहिरने तिनरंगा छत्ता तनने आराम सँ पड़ल अछि! आ भगवान सँ स्वर्ग मे छथि तँ अबस्से दुनियाँ मे सभ वस्तु ठीक छैक।
यद्यपि देशक ई हालत किएक, से सभ जनैत अछि- हमहूँ..अहूँ...नेता आ जनतो! तइयो ई देश अपन दरिद्रा केँ सोनाक पानि चढ़ाओल डिब्बी मे बन्द कऽ कऽ विदेशक प्रदर्शनीक “शो-केस” मे सजबैत अछि। रीढ़क अपन हाड़ तोड़ि ताजक रूप मे उपस्थित करैत अछि। फाटल-चीटल केथड़ी जोड़ि आ सजा, भटरंग कऽ प्रति पन्द्रह अगस्त कऽ शाही महल सभ पर धर्मचक्र-सज्जित तिरंगा फहरबैत अछि।
गाड़ी ठाढ़ भऽ गेलैक।
पुल रहैक कोनो मने। फेर चुट्टीक चालि मे घुसकनियाँ काटऽ लागल। सभ मोसाफिर खिड़की आ फाटक पर मुड़िआरी देने बाहर हुलकी मारऽ लागल-
गण्डक, बागमती, कमला आ कोसीक भयानक रूप। समुद्रक ज्वारि जकाँ विकराल ढेहु उठैत। लगैक मने सौंसे ट्रेनकेँ गीड़ि जायत! लहरिक संगहि-संग कौखन कोनो पुरना नूआक फाटल पाढ़ियुक्त भाग...कौखन काठक सनुकचाक कोनो थौआ भेल भाग...कौखन जानवरक हाड़! घरक ठाठ बहल जा रहल छल...खाट आ चौकी भसिआयल जा रहल छल...इज्जति आ प्रतिष्ठा मिथिलाक नोर मे दहायल जा रहल छल। जीवन भसिआयल जा रहल छल। सीसो-सखुआ-आमक कलमबाग आ बँसबिट्टी डूबि गेल छल।
ऊपर रहैक केवल पीतवसना नागकन्या गण्डकी अपन अति विषाक्त फुफकार छोड़ैत।
मुक्तापुर आबि गेल।
स्टेशनक चारू कात पानिएँ पानि। स्टेशन पर असंख्य गरीब किसान-बोनिहार लहालोट होइत। ककरो एक मुट्ठी अन्न नहि...पाँच हाथ वस्त्र नहि...टाँग पसारि कऽ सूतक स्थान नहि। प्लाटफारम पर आकाशक ठाठ तर असंख्य किसान-परिवार! धीया-पूता भूखेँ चिकरैत...माय ओकरा घोघ तर मुँह नुकओने कनैत। एकटा कोनो कांग्रेसी सज्जन स्टेशन-मास्टर केँ जोर-जोर सँ कहैत रहथिन, “अरे, महाराज...एहि मे सरकारक कोन कसूर? भगवानक लीला छनि। सरकार की जानऽ गेलैक जे एहन विशाल बाढ़ि आबि रहल छैक। ताहू पर रिलीफ कमेटी बनि रहल छैक। अगिला हप्ता मिनिस्टर लोकनिक “टूर प्रोग्राम” छनि। आ अलाबे एकर मुख्यमन्त्री दरभंगा, मुजफ्फरपुर आ सहरसाक कलक्टर केँ तार देबे कयलथिन अछि जे ओ जते चाहथि रिलीफक हेतु खर्च करथि। से नहि आब की करौक?”
आ सरिपहुँ सरकार खर्च करैत रहैक से हम देखलिऐक! एकटा गृहस्थ बाजल, चारिम दिन अन्न भेटल छल...मूड़ पीछू दू सेर...ओकर पहिने तँ मात्र जले टा आधार होइक। आ दू सेर चाउर कक्खन धरि? स्त्रीगणकेँ पहिरक कोनो नूआ-फट्टा नइँ। मलेरियाग्रस्त लोक केँ लहालोट पुरिबा आ जाड़ सँ बचबऽक खातिर कम्बल नहि। रेलवे कर्मचारी हाता सँ एकटा ठहुरिओ नइँ काटऽ देनिहार। पूछक तँ बड़ इच्छा छल... मुदा गाड़ी फुजि गेलैक।
“ब्लिज” वला सज्जन बजलाह, “बाबू एखन की देखलिऐक अछि, आगाँ ने चलू...किसनपुर...हायाघाट....मोहम्मदपुर...जोगियार..कमतौल दिस आर प्रलय मचल छैक। एहन कोनो परिवार नहि छैक जकर कोनो समाङ कि कोनो बच्चा कि कोनो माल नहि दहा-भसिआ गेल होइक”।
हायाघाट स्टेशन! सूर्यास्तक समकाल।
डुबैत सूर्यक लालिमा प्रतीचीक जल केँ रक्त सन बनओने। लिधुराह पानि..खुनिञा धार!! मुक्ती बाबू सिकरेट ताकऽ चललाह। दिवानाथ प्लाटफारम पर अपने घर मे शरणार्थी बनल गृहविहीन सँ गप्प कऽ रहल छल। गाड़ीक इंजन मिझा गेल रहैक। लेहरियासराय सँ तार अओतैक तखन ने फुजतैक गाड़ी! हमहूँ उतरलहुँ। देखलिऐक, सौंसे प्लाटफारम पर चुट्टी ससरऽक दौर पर्यन्त नइँ। अँगनइ मे बाँसक पातर सट्टा गाड़ि-गाड़ि ओहि पर पातर पुरान नूआ कि धोती टाँगि कऽ तम्बू सन बनल। एहन-एहन सैकड़ो तम्बू एक पतिआनी सँ ठाढ़। स्त्रीगण सभ लोटे-लोटे स्टेशनक इनार सँ पानि अनैत रहथि आ धीया-पूता टुक-टुक ट्रेन दिस तकैत रहय। पानिक कछेड़ मे एकटा बुढ़िया बाढ़ि मे डूबल बेटाक शोक मे बताहि भेलि चिकरैत रहय। पानिक कछेड़ मे एकटा बुढ़िया बाढ़ि मे डूबल बेटाक शोक मे बताहि भेलि चिकरैत रहय। ओझरायल केश मुँह पर...नूआ-फट्टाक होस नहि...गाबि-गाबि कानय, हे गण्डक मैया...हे कमला मैया। कतऽ गेलइ हम्मर सुगवा, कतऽ गेलइ हमर लाल!
आ ओम्हर दिवानाथ बूढ़ा दरोगा साहेब केँ बुझा रहल छलनि...मनुक्ख जे चाहय से कऽ सकैत अछि। एही ठाँ चीन केँ देखिऔक...ओकर “ह्वांगहो” कोसिओ सँ भयानक रहैक। मुदा लाल क्रान्तिक दू बरखक बाद ओकरा सघन बान्ह सँ जकड़ि देलकैक, आइ ओ ह्वांगहो चीनक वरदान छैक, अभिशाप नहि। आ दिवानाथक आँखिमे लाल चिनगीक तीक्ष्ण प्रकाश आ ज्वाला। भेल जे अमृतपुत्रक एहि ज्वालामे कोसी भस्म भऽ जयतीह। मुदा एक जोड़ा आँखिक चिनगी सँ नहि। लक्ष-लक्ष जोड़ा आँखिक अंगोर सँ। हमरा एकर चतुर्दिक एहन रक्तिम दाहक चिनगीक जाल बूनऽ पड़त।
मुक्तीबाबू अधजरुआ सिकरेट हमरा दिस बढ़ा बजलाह, “मणिबाबू, प्लाटफारमक ओइ भाग तकिऔ तँ कने...कोना छागर-पाठी जकाँ लोक सभ अछि, मालगाड़ी मे कोंचल। हुँ! कोंढ़ उनटि जाइत अछि”।
ट्रेन पार कऽ ओइ पार गेलहुँ। एकटा पूर्ण मालगाड़ी रहैक ठाढ़। डिब्बा मे पुरुष, मौगी, धीआ-पूता, माल-जाल सभ भरल छल। डिब्बे मे चूल्हि सुनगि रहल छल। हाँड़ी सभ चढ़ाओल जा रहल छल। कोसी आ गण्डकी मैया केँ प्रार्थनाक “कोरस” सुनाओल जा रहल छलनि। हाहाकार आ रुदनक स्वर गूँजि रहल छल।
मालगाड़ीक डिब्बा सँ एकटा विद्यार्थी बहरायल...कोर मे चारि-पाँच बरखक कनटिरबी केँ रखने। ओ छौँड़ी बड़ी-बड़ी जोर सँ हिचकैत रहैक। नागदत्त पुछलकैक, “अहा-हा...किऐक औ...की भेलैक अछि...किऐक कनैत अछि”?
ओ नेनिया केँ ठोकैत बाजल, “एकर माय, बाबू साहेब, डूबि गेलैक एही बाढ़ि मे। कनतैक ने तँ...”? सभ गोटा निस्तब्ध भऽ गेल।
युवक बाजल, “विद्यार्थी छी अहाँ लोकनि...तेँ मन होइछ अहाँ लोकनि सँ गप्प करी। हम सभ एही स्टेशन सँ तीन मील पर रामपुर गामक बासी छी। आब तँ ओ बस्तिए नइँ रहलैक...। सौंसे गाम भसिया कऽ लऽ गेलैक...ई राक्षसी गण्डकी”।
मारिते रास लोक जमा भऽ गेल, ओकर गप्प सुनऽ लेल। दरोगा साहेब बजलाह, “की सौंसे गाम”?
“हँ औ। हठात राति मे आबि गेलैक बाढ़ि। छन-छन पानि बढ़ैत...कोनो तरहेँ स्त्रीगण लोकनि केँ नाह पर लदलहुँ...माल-जाल हँकओलहुँ...वस्तु-जात, अत्यन्त आवश्यक वस्तु सभ कनहा पर लदलहुँ, पड़यलहुँ, स्टेशनक दिस। कतहु भरि डाँड़...कतहु कच्छाछोप, कतहु चपोदण्ड। हेलैत-डुबैत एतऽ पहुँचलहुँ। कतेक नेना-भुटका डूबल। माल-जालक तँ कथे कोन। भसिआयल ठाठ पर हमरा लोकनि स्त्रीगण सभ केँ बैसा कऽ अनलहुँ एतऽ धरि। अयला पर पता लागल जे एहि कनटिरबीक माय डूबि गेलैक। ई हमर भतीजी थिक। मुदा आब की”? कने काल चुप भऽ गेल ओ। युवकक आँखि पनिआ गेलैक। फेर बाजल,”स्टेशन आबि देखल, ई पहिनहि सँ भरल छल। लगीचक पन्द्रह बीस गामक लोक सभ सँ भरल छल। एहि इलाका मे एकटा ई स्टेशन मात्र छैक ऊँच स्थान। खाली इएह मालगाड़ी रहैक ठाढ़। सभ गोटा एही मे शरण लेल। सम्पूर्ण डिब्बा खाली छल, सभ मे हम सभ भरि गेलहुँ।
दोसर दिन प्लेटफॉर्म पर सेहो पानि आबि गेलैक, तखन लोक सभ बोरा जकाँ एक दोसर पर गेंटल रही। युवक सभ ऊपर छत पर चढ़ि गेलाह, स्त्रीगण आ बूढ़, नेना सभ डिब्बे मे रहलाह।
स्टेशन मास्टर हमरा सभ केँ डेरओलनि, मालगाड़ी खाली कर दो।
अहीं लोकनि कहू से कोना होइतैक? हम सभ कतऽ जाइतहुँ? हमरा सभक संग मे पाइ-कौड़ी नहि छल, घर नहि छल, पहिरऽ लेल वस्त्र नहि छल”। एतेक कहि युवक फेर रुकि गेल। नहुँए सँ बाजल, “हमरा जऽर अछि। जाड़ भऽ रहल अछि, यदि अपने सभक मे एकटा बीड़ी हो तँ दिअऽ“।
मुक्तीबाबू ओकरा सिकरेट देलथिन आ दिवानाथ सलाइ। युवक बाजल, “ओ, ई तँ कैप्सटन अछि”। फेर बड़े तन्मय भऽ सिकरेटक कश खींचऽ लागल। (एलेक्शनक अवसर पर कैथोलिक पादरी सभ सम्पूर्ण तिरू-कोचीन मे मङनी मे सिकरेट आ चाहक पैकेट बँटने छलाह। पैकेट सभ पर लिखल छल, काँग्रेस को वोट दो।) नागदत्त पुछलथिन, “फेर की भेल”?
“फेर की हेतैक”? युवक गाड़ीक कम्पाट सँ ओंगठि कऽ बाजल, “फेर पुलिस आबि-आबि कऽ हमरा सभकेँ तंग करऽ लागल। जकरा संग पाइ-कौड़ी छलैक से पाइ-कौड़ी दऽ कऽ पुलिसक ठोकर सँ बचल रहल। रातिखन कऽ युवती सभ गाड़ीक डिब्बा सँ बिलाय लागलि। मुदा हम सभ मालगाड़ीक डिब्बा केँ छोड़लहुँ नहि। छोड़ि कऽ हम सभ कतऽ जैतहुँ? दोसरे दिन समस्तीपुर सँ एकटा बड़का इंजिन आयल।
स्टेशन मास्टर बाजल, “तुम लोग गाड़ी खाली कर दो, वरना इंजिन तुम लोगों को लेकर समस्तीपुर चला जाएगा। वहाँ तुम लोगों को जेल हो जायगा, सरकारी गाड़ी पर कब्जा जमाने के जुर्म मे”।
बूढ़ सभ कहलथिन जे नीके होयत, लऽ चलऽ। कम सँ कम भोजनो तँ भेटत जहल मे। मुदा स्त्रीगण कानऽ लगलीह। नेना सभ चीत्कार मारऽ लागल। मैथिल स्त्रीगण जे कहियो गामक बाहर पयर नहि रखलनि तनिका हम जेल कोना जाय दितहुँ। आ तखन हम सभ नारा लगओलहुँ, “मालगाड़ी नहीं जायगा, नहीं जायगा”।
पुलिसक लाठीक मदति सँ ड्राइवर मालगाड़ी मे इंजिन लगओलक। आ एम्हर हम सभ इंजिनक आगाँ आबि कऽ ठाढ़ भऽ गेलहुँ, “मालगाड़ी नहीं खुलेगा, नहीं खुलेगा”। पुरुष लोकनि छाती तानि कऽ ठाढ़ भऽ गेलाह। स्त्रीगण पड़ि रहलीह। नेना सभ बाँसक फट्ठी मे लाल वस्त्र बान्हि कऽ आगाँ मे ठाढ़ भऽ गेल।
बाँसक फट्ठी मे लाल चेन्ह!
गाड़ी रोकऽक चेन्ह।
अपन अधिकार लेबऽक चेन्ह।
युवकक गर्दनि तनि गेलनि, उत्साह सँ बाँहि फड़कऽ लगलनि, आँखि लाल भऽ गेलनि।
सेठजी अपन स्त्रीक कान मे कहलथिन, रधिया की माँ, सूटकेस पास ले आओ, कुछ हो जा सकता है”।
दरोगा साहेब गुनगुनयलाह, “ठीक कहइ छी”।
युवक कहब जारी रखलनि, “पुलिस तँ पहिने घबड़ा गेल, ड्राइवर इंजिन बन्द कऽ देलक। कतेक हजार लोकक रेड़ा पड़ऽ लागल। पुलिस “लाठी चार्ज” करऽ चाहलक, मुदा हम फरिछा कऽ कहि देलियनि, यदि एकोटा लाठी उठल तँ हम सभ एक-एकटा पुलिस केँ उठा-उठा कऽ गण्डक मे फेँकि देब। कहू तँ, पन्द्रह-बीस पुलिस के की चलितनि एहि क्रुद्ध जनसमुद्र मे?
आ, पुलिस सँ नाक रगड़ैत रहि गेल, मुदा मालगाड़ी नहि जा सकल। दोसर दिन भोरे नाव पर चाउरक बोरा गेंटने “स्टूडेंट्स-फेडरेशन” आ “नौजवान-संघ”क लोक सभ अयलाह आ ई हम सभ पहिल सहायता पओलहुँ।
आ आब तँ पानि कम भऽ रहल अछि। सरकारोक कुम्भकर्णी निन्न टूटि रहल छनि। ओहो दू-दू सेर चाउर बाँटि गेलाह अछि”। एतेक कहि युवक चुप्प भऽ गेलाह। वातावरण अशान्त छल, सभक मन युवकक दुःखपूर्ण कथा सुनि खिन्न छलैक। एतबे मे स्टेशनक एकटा कर्मचारी आबि कऽ बाजल-
“गाड़ी खुल रही है, डिब्बे मे बैठिए”।
अपन बिना मायक भतीजी केँ कोरा मे लऽ कऽ युवक प्लेटफॉर्म पर ठाढ़ रहल।
गाड़ी नहुँ-नहुँ चलऽ लागल, तखन ओ दिवानाथक बामा हाथ दबा कऽ बाजल, “मोन राखब बन्धु”! हठात् बूढ़ दरोगा साहेब अपन “सीट” पर सँ उठि अपन ऊनी चद्दरि युवकक कान्ह पर धऽ देलथिन आ फेर अवरुद्ध कंठ सँ कहलथिन, “अहाँ केँ तँ ज्वर अछि, ई चद्दरि लऽ लिअऽ। आ...”।
गाड़ी तेज भऽ गेल।
फेर तँ ओएह चारू कात अथाह अबाध समुद्र छल आ हिलकोरक घोर गर्जन।
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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biswas karahiye parat je rajkamal ke i rachna 1954 me likhal gel, lagaiye je ehi berka barhik charcha achi.
ReplyDeleteकथा क लेल धन्यवाद !
ReplyDeleteकोशीक बाढ़िक एतेक सजीव चित्रण केने छथि स्व. राजकमल।
ReplyDeleterajkamal alp vayas me bad kich likhi gelah.
ReplyDeleterajkamlak te javab nahi
ReplyDeleteee blog samanya aa gambhir dunu tarahak pathakak lel achhi, maithilik bahut paigh seva ahan lokani kay rahal chhi, takar jatek charchaa hoy se kam achhi.
ReplyDeletedr palan jha
bad nik katha
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