भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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(c) २०००-२०२२ सर्वाधिकार सुरक्षित। विदेहमे प्रकाशित सभटा रचना आ आर्काइवक सर्वाधिकार रचनाकार आ संग्रहकर्त्ताक लगमे छन्हि। भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल http://www.geocities.com/.../bhalsarik_gachh.html, http://www.geocities.com/ggajendra आदि लिंकपर आ अखनो ५ जुलाइ २००४ क पोस्ट http://gajendrathakur.blogspot.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html (किछु दिन लेल http://videha.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html लिंकपर, स्रोत wayback machine of https://web.archive.org/web/*/videha 258 capture(s) from 2004 to 2016- http://videha.com/ भालसरिक गाछ-प्रथम मैथिली ब्लॉग / मैथिली ब्लॉगक एग्रीगेटर) केर रूपमे इन्टरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितक रूपमे विद्यमान अछि। ई मैथिलीक पहिल इंटरनेट पत्रिका थिक जकर नाम बादमे १ जनवरी २००८ सँ "विदेह" पड़लै।इंटरनेटपर मैथिलीक प्रथम उपस्थितिक यात्रा विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,जे http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि। आब “भालसरिक गाछ” जालवृत्त 'विदेह' ई-पत्रिकाक प्रवक्ताक संग मैथिली भाषाक जालवृत्तक एग्रीगेटरक रूपमे प्रयुक्त भऽ रहल अछि। विदेह ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA
Saturday, April 04, 2009
विदेह २७ म अंक ०१ फरबरी २००९ (वर्ष २ मास १४ अंक २७)-part-ii
भाग रौ
(संपूर्ण मैथिली नाटक)- (आगाँ)
अंक 1 दृश्य : 3
लेखिका - विभा रानी
पात्र - परिचय
मंगतू
भिखारी बच्चा 1
भिखारी बच्चा 2
भिखारी बच्चा 3
पुलिस
यात्री 1
यात्री 2
यात्री 3
छात्र 1
छात्र 2
छात्र 3
पत्रकार युवक
पत्रकार युवती
गणपत क्क्का
राजू - गणपतक बेटा
गणपतक बेटी
गुंडा 1
गुंडा 2
गुंडा 3
हिज़ड़ा 1
हिज़ड़ा 2
किसुनदेव
रामआसरे
दर्शक 1
दर्शक 2
आदमी
तांबे
स्त्री - मंगतूक माय
पुरुष - मंगतूक पिता
भाग रौ
(संपूर्ण मैथिली नाटक)
अंक 1
दृश्य : 3
(प्रकाश मंगतू पर। ओ अखबार पढ़ि रहल अछि। पढ़ैत-पढ़ैत पसेने पसेने भ' जाइत अछि। ओ मुंह पोछैत, एम्हर-ओम्हर देखै छै.. फेर अटकि-अटकि क' पढ़ैत अछि..)
मंगतू : नवयुवती के साथ बलात्.. चार युवक.. नशे में.. भाई भी.. दो गिफ्तार.. दो अभी भी फरार.. (पसेना पोछैत अछि। हकला क' घबड़ाहटि मे बजैत अछि) माने.. काल्हि.. कविता.. गणपत कक्का.. राजू.. (माथ पकड़ि लेइत अछि) बहीनक रखवार अपने स' ओकरा परोसि देलकै गिद्घक सोझा.. (चिकरैत अछि) .. कक्का, गणपत कक्का..
(आवाज सुनि किछु छात्र, किछु यात्री ओम्हर अबैत अछि सभ पूछैत अछि -- की भेलौ रौ? सपना देखै छही की? दिने मे सपना.. हँ, एकरा करैये के की छै? चौबीसो घंटा, आठो पहर सूतल रहौ,.. हमरा आओर जकाँ नञि छै ने.. छिछियाइत फिरू।)
(मंगतू कानि रहलए। कखनो अखबार स' माथ पीटैत अछि, कखनो बेबसी मे अपन केस नोचैत अछि।)
मरियो नञि जाइ छी हम। एहेन देह, एहेन जिनगी, एहेन समाज.. मरि कियै नञि जाइ छी हम। रे दैब.. आह रे दैब! कक्का यौ, गणपत कक्का..?
(भीड़ के काटैत गणपत बहिराइत अछि। मंगतू ओकरा देखतही भरि पांज ध' लेइत अछि आ कनैत अछि। कक्का पीठ-माथ सोहरबैत ओकरा भरोस दियबैत अछि।)
मंगतू : कक्का.. काल्हि.. काल्हि..
गणपत : की भेलौ बेटा?
मंगतू : कक्का.. कविता.. काल्हि..
गणपत : कत्त' घुरलौ बाऊ। दुनू मे स' किओ नञि। आँखिए मे राति कटलए।
मंगतू : कविता आब नञि आओत कक्का..
(गणपत प्रश्नवाची दृष्टि स' ओकरा देखैत अछि.. मंगतू अखबार ओकरा दिस बढ़ा देइत छै। गणपत अनपढ़क मुद्रा मे अखबार उनटैत-पुनटैत अछि.. एकटा यात्री अखबार ल' क' पढ़ैत अछि.. खबरि सुनि गणपत थहराक' खसैत अछि.. मंगतू फेर भरि पाँजि ओकरा ध' लइत अछि।)
गणपत : (विक्षिप्त जकाँ) रौ दैब रौ दैब.. मौगत द' दे रो दैब.. आब हम जीबि क' की करब.. (मंगतू के झोरि क') कहै छले ने तों जे हम सभ घर-दुआर, बाल-बच्चेदार, परिवारबला आदमी सभ छी। देख लेले नें? ईहे अछि घर आ ईहे अछि धिया-पुता। गै कविता गै.. हमर सोन सन बेटी गै.. रौ रजुआ.. रौ तोरा नरको मे ठौर नञि भेटतौ रौ..
(पुलिसक सायरन बजै छै.. सभ यात्री ओत' स' हटि क' बस स्टैंड लग ठाढ़ भ' जाइत अछि। किओ घड़ी देखैत अछि, किओ मोबाइल करैत अछि, किओ चोर नजरि स' मंगतू-गणपत दिस देखैत अछि, किओ अखबार स' पंखा करैत अछि.. छात्रक एक गोट टोली मे खुसर-फुसर करैत अछि।)
(पहिला दृश्यबला पुलिस अबैत अछि.. डंडा डोलबैत..)
पुलिस : रौ, गणपत तोंही छें?
गणपत : जी हुजूर।
पुलिस : चल थाना..
गणपत : हमर कसूर हुज़ूर।
पुलिस सार नहिंतन! बेटी स' धंधा आ बेटा स' भड़ुआगिरी, आ पूछै छें.. चल थाना.. पता चलतौ जे की छौ तोहर कसूर..
(पकड़ि क' ठेलैत- ठालैत ल' जाइत अछि।)
मंगतू : साब! साब, हिनका छोड़ि देल जाओ। ई निर्दोख छथि।
पुलिस : (मंगतू के लात लगबैत) त' तोंही चल। रौ डाँड़ मे छौ बूता छौंड़ी सभ लेल! हट सार!
(मंगतू फेर बीच-बचावक प्रयास करैत अछि। पुलिस डंडा बरसाबइत ओकरा ठेलि देइत अछि। मंगतू मुंहक भरे खसल रहि जाइत अछि। पुलिस गणपत काका के पकड़ि क' ल' जाइत अछि। यात्री, जाहि मे किछु छात्र सभ सेहो छथि, बिटर-बिटर तकैत रहैत छथि। पुलिस के गेलाक बाद)
यात्री 1 : बाप रौ बाप! एहेन कलजुग! बापे बेटीबेच्चा।
यात्री 2 : अहूँ त'! जे पुलिसबाला कहि देलकै, पतिया लेलहुँ ने!
यात्री 3 : पुलिसक बात आ चूल्हिक पाद एक सन!
छात्र 1 : एतेक घमर्थन क' रहल छी। जहन पुलिस बुढ़बा के पकड़ि क' ल' गेलै, एकरा (मंगतू दिस) एतेक मारलकै, तहन त' नञि फ़ूटल बकार॥ पुलिस के जाइते देरी कि सभक लोल एक-एक हाथ नमगर भ' गेलै।
यात्री 1 : रौ, पुलिसक सोझा बाजक कोनो मतलब छै।
छात्र 2 : त' एखनि बाजबाक कोन अर्थ?
यात्री 2 : हे रौ, बूझल जे हम सभ किछु नञि बाजल। तों सभ त' छलें, युवा शक्ति, छात्र शक्ति! तोहें सभ कियैक ने बाजलें रे!
यात्री 1 : (मंगतू दिस) हम सभ त' बाउ रौ, जिनगीक दोग मे फँसल बूँट छी। सेठ साहूकार कैंचीक मध्य फँसल कापड़ि। पुलिस-दारोगा करबाक समय कत'?
छात्र 2 : जहन अपना पर आओत तहन?
यात्री 3 : तहन देखल जेतै।
छात्र 3 : माने अपना पर पड़ल मोसीबत पहाड़, आ आनक फूसि-फासि?
यात्री 1 : तैं ने कहलियौ रौ भाय जे तों आओर त' छें छुट्टा बरदि। ने घर गिरस्थीक चक्करि ने नौकरी पातीक झंझटि, ने बाल-बच्चाक पिरसानी। ऊपर स' नेता बनबाक मोका फ्री-फंड मे। (बस देखैत.. हे हमर बस आबि गेल' कहैत चढ़बाक अभिनय करैत अछि। चढ़ि गेलाक बाद सोर पारिक' छात्र के कहैत अछि -) रौ, मोन राखिहें हमर गप्प। की ठेकान, छात्र नेता स' मुख्य मंत्री आ फेर केंद्रीय मंत्री भ' जेबें। घरोवालीक निस्तार भ' जेतौ। हे ले (पाइ फेंकैत अछि..) ऊ भिखमंगाक दबाई करबा दिहें।
(छात्र सभ तमतमाएल ठाढ रहैत छथि, अन्य यात्री सभी हंसैत अछि। किओ ठहाका पारि क', किओ मुंह तोपिक! किओ मुसिकियाइत पेपर पढ़बाक त' किओ समय देखबाक अभिनय करैत अछि। सभक बस एकाएकी अबैत छै, सभ ओहि मे सवार भ' भ' चलि जाइत अछि। जाए स' पहिले सभ किओ चवन्नी, अठन्नी, सिक्का मंगतू दिस फेंकैत अछि आ छात्र आओर के इलाज क तगेदा करैत अछि।)
छात्र 1 : ओह! रहब मोश्किल भ' रहल छै! मोन उजबुजाइय ई सभ देखि क'।
छात्र 2 : सपना देखै छी, देखैत रहै छी। कहियो किओ सपना देखल त' आइ देश आजाद भेल। आजाद देश लेल सपना देखल जे सभके जीबाक, रहबाक, काज करबाक समान अधिकार अछि। किओ भूखल-पियासल, बेरोजगार नञि रहत। पढ़ाई रोटीए जकाँ अनिवार्य रहतै। मुदा भेटलै की? आजादीक एतेक बरखक बादो वएह भूख, गरीबी, बेरोजगारी..
छात्रा 1 : भ्रष्टाचार, बेईमानी, सत्ताक अपराधीकरण। जिनगी जीबाक विवश्ता..
मंगतू : (कने जोरगर आवाज मे, जाहि स' छात्र सभ सुन सकथि।) रौ हाथ-गोर रहितहु कियैक एना बाजि रहल छें।
(छात्रक ध्यान ओकरा दिस जाइत छै। ओ सभ ओकरा ल'ग अबैत अछि)
छात्र 1 : भाई, हाथे-गोर रहला स' समस्याक समाधान नञि भ' जाइ छै।
छात्र 2 : सभ ठाँ पाई चाही, पैरवी चाही। देख भाई, लोक आओर हमरा सभ के कहै छथि जे हम सभ युवा शक्ति छी, देशक भविष्य छी।
छात्र 3 : रौ, वास्तविकता त' अछि जे हमरा आओर के अपने नञि बूझल अछि अपन भविष्य।
छात्र 1 : माय-बाप सपना काढ़ै छथि जे बेटा सभ पढ़ि-लिख क' हमर दुख दूर करत।
छात्र 2 : हम सभ त' हुनकर दुखक भीजल चिपरी मे चिनगी लगाक' आबि जाई छी, रसे-रसे सुनगैइत रहू।
छात्र 3 : करैत रहै छी - अपन अरमानक खून, माय-बापक सपनाक हत्या। रौ, तों त' खाली देहे स' अपाहिज छें। ई व्यवस्थाक हाथे हम सभ त' तन-मन दुनू स' अपाहिज छी।
मंगतू : मुदा भाई, ई व्यवस्था की छै। ककर छै, के बदलत?
छात्र 1 : (रोब स') हे, नेता जुनि बन। दू अच्छर अखबार पढ़िक' अपना के प्रधानमंत्री नञि बूझ।
(पहिलुका पत्रकार युवक-युवतीक प्रवेश)
युवक : अरे वाह, आई त' एकरा लग छात्र सभ सेहो अछि। गुड। चलू, एकरो आओर के कवर क' लेइत छी।
युवती : हम त' आइ काल्हि रोजे देखै छी, किओ न किओ एकरा लग बनले रहैत छै।
युवक : ई छैहे तेहेन कमालक चीज। हाथ नञि, पएर नञि, घर-परिवार नञि, शिक्षा-संस्कार नञि । तइयो पढुआ छै, अखबार पढ़ै छै। चिट्टी-पत्री लिखै-पढ़ै छै।
(दुनू सटि क' ओकरा आओरक गप्प सुनैत छथि। छात्र सभ मंगतू लग स' हटि क' बस स्टॉप दिस बढ़ैत छथि।)
छात्र 1 : कह' लेल जे कही। भने ओकरा झलकारि दही। हमर गप्प मे सेहो तों सभ दर्शन ताक' लाग। मुदा, कखनो लगैत अछि जे एकरे जकाँ हम आओर सेहो भेल जाइ छी। लोक आओर भेल जाइत अछि, देश-दुनिया बनल जाइत अछि।
छात्र 2 : रौ बाप, हे, पहिनहीं परीक्षा खराब भ' गेल अछि। आब ई दर्शन-तरसन छाँटि क' माथ नञि खराब कर।
छात्र 1 : सुन त'! एकरा देखिक' तोरा नञि बुझाइ छौ जे एकर देह-देह नञि, ई समाज आ ओकर व्यवस्था छै। ई समाज, ई व्यवस्थाक माथ छै, माथ मे दिमागो छै, जे सोचैत त' छै, मुदा किुछ करै नञि छै। करबाक लेल सक्रियताक हाथ-गोर चाही, जे एकरे जकाँ ओकरो नञि छै। तैं एकरे जकाँ पड़ल रहै छै - लोथ भेल।
छात्र 3 : (छात्र 2 आ 3 माथ ठोकैत छथि।)
गेलौ रौ गेलौ। पूरमपूर गलौ। आब ई हमरा आओर के त' पकेबे करतौ, तोरो आओर के नञि छोड़तौ। (युवक-युवती के देख) नीक भेल। आबि गेलहुँ। सुनू आब अरस्तूक गप्प। (दुनू तेजी स' निकलि जाइत अछि। छात्र 1 ओही ठाँ अछि।)
युवक : देखू! पत्रकार छी हम आओर आ पत्रकार जकाँ बतियाइत छथि ई आओर।
युवती : हमरा आओर त' छात्र सभक संगे ओकरा कवर कर' चाहै छलहुँ।
युवक : से त' रहिए गेल।
युवती : ई एकटा अछि ने! एकरे कवर क' लेइत छी।
युवक : (चिढ़िक') त' निकालू साड़ी आ क' लिय' कवर।
युवती : शटअप! फालतू गप्प नञि करी। हमर संग साथ नञि नीक लगैत अछि त' अहाँ जा सकै छी। हम अपन काज क' लेब।
युवक : ककरा संगे? ऊ लोथक संगे की ई देशक भविष्यक संगे।
युवती : (चिकरैत) बंद करू ई बकवास। अहाँ जर्नलिस्ट छी। बूझै छी जर्नलिस्टक माने? (ओही उत्तेजना मे) जर्नलिस्ट माने उन्नत विचारक स्वामी, खुलल दिल आ दिमागवाला व्यक्ति, जनताक विचार वहन कर' बला, व्यवस्थाक छेद मे आंगुर द' क' देखाब' बाला। मुदा अहाँ त' ईर्ष्या आ द्वेष स' जरैत संठी छी मात्र। दुर्गंध स' भरल तौला। दुनियाक चौथा आवाजक नाम पर भड़ुआगिरी कर' बला। छि:।
(युवक नाराज भ' क' यवती दिस घूरैत अछि। युवतीक चिकरब सुनि बाहर गेल दुनू छात्र घूरि अबैत अछि। छात्र 1 पहिनही स' अकबकाएल बेरी-बेरी स' दुनू युवक-युवती के देखैत अछि। युवक-युवतीक हाथ घीचि क' मंच क दहिना भाग मे ल' जाइत अछि। छात्र सभ मंचक बाम दिस छथि आ मंगतू बीच मे। मंच पर अत्यन्त मद्घम प्रकाश। अचानक युवक-युवती पर हाथ उठबैत छै। सभ चौंकि उठैत अछि। युवती खसल अछि। मंगतू हड़बड़ाक' ओम्हर बढ़बाक प्रयास करैत अछि, मुदा खसि पड़ैत अछि। छात्र सभ युवकक चेहरा देखि ओहि ठाँ थकमकाएल रहि जाइत छथि। पार्श्र्व स' समवेत स्वर में ईको साउन्ड इफेक्ट मे ई पंक्ति चलैत अछि।)
किओ किछु नञि क' सकैत अछि।
किओ किछु नञि कहि सकैत अछि।
बिकाएल बजार मे मानवताक मूल्य
बंधक अछि माथ
हाथ गोर भांगल, धड़ शिथिल
जागू, जागू, तखने होएत विहान
नव सूरज रचत इतिहासक नव काल खंड।
(प्रकाश शनै: शनै: फेडआउट होइत अछि।)
(मध्यांतर)
(अगिला अंकमे जारी)
डॉ. देवशंकर नवीन (१९६२- ), ओ ना मा सी (गद्य-पद्य मिश्रित हिन्दी-मैथिलीक प्रारम्भिक सर्जना), चानन-काजर (मैथिली कविता संग्रह), आधुनिक (मैथिली) साहित्यक परिदृश्य, गीतिकाव्य के रूप में विद्यापति पदावली, राजकमल चौधरी का रचनाकर्म (आलोचना), जमाना बदल गया, सोना बाबू का यार, पहचान (हिन्दी कहानी), अभिधा (हिन्दी कविता-संग्रह), हाथी चलए बजार (कथा-संग्रह)।
सम्पादन: प्रतिनिधि कहानियाँ: राजकमल चौधरी, अग्निस्नान एवं अन्य उपन्यास (राजकमल चौधरी), पत्थर के नीचे दबे हुए हाथ (राजकमल की कहानियाँ), विचित्रा (राजकमल चौधरी की अप्रकाशित कविताएँ), साँझक गाछ (राजकमल चौधरी की मैथिली कहानियाँ), राजकमल चौधरी की चुनी हुई कहानियाँ, बन्द कमरे में कब्रगाह (राजकमल की कहानियाँ), शवयात्रा के बाद देहशुद्धि, ऑडिट रिपोर्ट (राजकमल चौधरी की कविताएँ), बर्फ और सफेद कब्र पर एक फूल, उत्तर आधुनिकता कुछ विचार, सद्भाव मिशन (पत्रिका)क किछि अंकक सम्पादन, उदाहरण (मैथिली कथा संग्रह संपादन)।
बटुआमे बिहाड़ि आ बिर्ड़ो
(राजकमल चौधरीक उपन्यास)
वस्तुतः अपन रचनामे कोनो पात्राक सृजन केलाक बाद जँ रचनाकार ओकर स्वामी बनि जाइ छथि, चरित्राक सहज विकास नहि होअए दै छथि, तँ ओ रचना सामान्यतया असफल भ' जाइत अछि, अपना समयक यथार्थसँ पृथक रहि जाइत अछि, रचनाक सत्य आ नायकक आचरण समाज सापेक्ष नहि भ' पबैत अछि। मुदा राजकमल चौधरीक रचनाक नायक-नायिका आ तकर सहयोगी पूर्ण रूपें स्वतन्त्रा रहैत अछि, स्वेच्छाचारी नहि। ओकर चारित्रिाक विकासमे राजकमल चौधरीक नियन्त्राण ओतबे रहैत अछि, जतबा घूमैत चाक पर राखल माटि पर कुम्हार नियन्त्राण रखैत अछि। अपन ब्रह्माक मात्रा एतबहि टा नियन्त्राण पाबि ओ पात्रा आ रचना महान भ' जाइत अछि। जेना आदिकथा आ आन्दोलन महान भेल अछि; आदिकथाक देवकान्त आ सोना मामी; आन्दोलनक कमलजी, भुवनजी, नीलू, निर्मला, सुशीला महान भेल छथि।
आन्दोलनक प्रमुख पुरुष पात्रा छथि--विष्णुदेव ठाकुर, मोदनारायण जी, नरेन्द्र झा, चन्द्रशेखर बाबू, हेम बाबू, सुदर्शन जी, भुवनजी, कमलजी आदि। किछु अनाम-सुनाम सामूहिक पात्रा सेहो छथि, जे अवसर-बेअवसर अपन वक्तव्यसँ, आ अपन क्रिया-कलापसँ अपन चरित्रा आ मानसिक स्तरक परिचय दै छथि। विष्णुदेव ठाकुर, मोदनारायण जी आ चन्द्रशेखर बाबूक उपस्थिति कथा विस्तारमे ठाम-ठीम होइ छनि, मैथिलोचित प्रवृत्ति आ दुष्टतासँ परिपूर्ण छथि, एकर अलावा कोनो विशेष उल्लेखनीय योगदान हिनका लोकनिक नहि छनि। हेम बाबू सेहो तेहने प्रासंगिक पात्रा छथि, मुदा निर्मला सन उद्धत यौवना बेटीक पिता छथि, विधुर छथि। आत्म-प्रशंसासँ ग्रस्त छथि, अपन बौद्विकता पर अपनहि गर्वित रहै छथि, बेटीक उग्र-आधुनिकाक छवि कोनो बेजाए नहि लगै छनि, दोसरक नीको काल अधलाह लगै छनि, सुझाव आ उपदेश देबामे अपनाकें दक्ष बुझै छथि, छिद्रान्वेषी छथि। मैथिल समितिक आयोजनमे पचीस टाका चन्दा द' कए एना मोन बनबै छथि, जेना भुवनजीकें कीनि लेलनि (पृष्ठ-३४)।
नरेन्द्र झा मैथिल समितिक सक्रिय कार्यकर्त्ता छथि, भुवनजीक संग रहै छथि, मुदा परोक्षमे निन्दा करब स्वभाव छनि। निर्मलाक बासा पर जएबामे मोन लगै छनि, मुदा हुनका दुष्चरित्रा कहबामे रस लगै छनि (पृ. ३९-४०)। मैथिल जातिक आम वृत्ति--चुगलखोरी आ दुष्टाचरण पर एहि उपन्यासमे पर्याप्त दृष्टि देल गेल अछि (पृ.१७)। पात्राक वक्तव्य आ आचरणसँ चरित्राक सम्पूर्ण छवि अंकित करबाक महारत राजकमल चौधरीक लेखनमे सगरो देखाइत रहैत अछि।
सुदर्शनजी सन मातृभाषानुरागीक अवतारणा उपन्यासमे थोड़बे काल लेल भेल, मुदा ओतबहि कालमे उपन्यासकार हुनकर विराट छवि ठाढ़ क' देलनि। परम उत्साही, क्रियाशील आ विद्रोही व्यक्तित्वक एहि युवक द्वारा स्कूलमे भाषा सम्बन्धी रीति पर वक्तव्य जारी करब, प्रतिक्रिया देखाएब, एकटा विराट परिदृश्य दिश इशारा करब थिक। स्कूली शिक्षाक भाषा माध्यम आ शिक्षक-शिक्षार्थीक वार्तालापक भाषा माध्यम बड़ पैघ महत्व रखैत अछि। स्कूलमे शिक्षक लोकनि जखन मैथिलीमे गप करनि, तँ हुनका ओ अपन पिता, पितृव्य, भाइ सन लगैत रहनि। मुदा जखनहि आन बोली-बानीक लोक अध्यापक बनि स्कूल अएलनि आ ओ हिन्दीमे गप करए लगलनि, हठात् ओ अदना बुझाए लगलनि, मातृभाषा विरोधी लागए लगलनि (पृ. ५४-५५)। मातृभाषा लेल बुनियादी क्रान्तिक संकेत एहि अंशमे देल गेल अछि। सुदर्शनजीक हृदयमे क्रान्तिक आगिएना धधकै छनि जे बीचहि सभामे निर्मलाजीसँ बहस क' लेलनि--नइं निरमल दीदी!...शान्तिक कविता नइं, मात्रा क्रान्ति हमरा सभकें चाही, आन्दोलन चाही(पृ. ५३)।... एहि छोट सन उपन्यासमे ततेक बातक
संकेत देल गेल अछि, जे सूइक नोक बराबरि फाँक कतहु नहि देखाइत अछि। वस्तुतः सन् १९४७सँ १९६७ धरिक समय मिथिला लेल विचित्रा सन छल। स्वातन्त्रयोत्तर कालक भारतीय परिदृश्यमे मैथिल, मैथिली आ मिथिला ठकमूड़ी लगा क' बैसल छल। मिथिलाक जे सेनानी, सब किछु छोड़ि संग्रामक सिपाही बनल छल, तकरा पमरियाक तेसर बूझल जाए लागल, ओकर कोनो मानि-मोजर नहि देल जाइ छल। मिथिलाक जे व्यक्ति शासनमे गेल, से नंगरडोलाओन धन भ' गेल। ओकरा लेल मातृभाषा मैथिलीक उपेक्षा कोनो अर्थें उद्वेलनक विषय नहि छल। भाषाक महत्वसँ ओ परिचित नहि छल। ओहेन आत्मकेन्द्रित जन प्रतिनिधि मातृभाषा आ जनपदीय संस्कृति लेल कोन संघर्ष करितए?... स्वातन्त्रयोत्तर कालीन तीन दशकक मैथिली रचनाकारकें ई सब किछु भारी बोझ जकाँ निमाहए आ सँवारए पड़लनि। स्थानीय रूढ़ि निपटानक जटिल दायित्वसँ संघर्ष करैत भाषाई जागरूकता उत्पन्न करबामे, आ आन्दोलनक छद्मसँ सर्वसाधारणकें सावधान करबामे...तल्लीन रहब बड़ दुर्वह काज छल। आन्दोलन उपन्यास ताहि क्रममे महत्वपूर्ण भूमिका निमाहने अछि।
भुवनजी एहि उपन्यासक अत्यन्त उदार, निविष्ट आ सहज चरित्राक पात्रा छथि। उपन्यासक मुखर पक्ष थिक आन्दोलन, तकर नायक इएह छथि। मुदा, जें कि आत्मकथात्मक शैलीमे ई उपन्यास लिखल गेल आ कथावाचक कमलजी भ' गेलाह, भुवनजी गौण पड़ि गेल छथि।
बहुत रोचक ढंगें उपन्यासकार भुवनजीक चरित्रा ठाढ़ केने छथि--धीर, गम्भीर, शान्त, उदार।... कलकत्ताक पैघ कम्पनीमे कानूनी सहायक आ व्यापार संचालक छथि। मुदा मातृभाषाक प्रति प्रबल अनुराग छनि। मैथिल समिति आ मैथिली पत्रिाका लेल समर्पित व्यक्ति छथि, परोपकारी छथि, मैथिल लोकनि लेल बेस सहायक लोक छथि। ट्राम, बस, फैक्ट्रीमे सय-दू सय मैथिलकें नौकरी दिऔने छथि (पृ. ३४)। नीलू सन अनाथ बालिकाकें बेटी जकाँ रखने छथि (पृ. १४)। बेस बुझनुक, चिन्तनशील, युगीन परिस्थितिसँ आ परिस्थितिजन्य क्रिया-कलापसँ नीक जकाँ परिचित छथि। कमलजी जखन कोनो बात पर प्रतिवाद करै छथिन, तँ भुवन जी कहै छथि -- ई राजनीति थिकै कमलजी, एहिमे उचित-अनुचितक कोनो गप नहि कएल जा सकइए। मिथिला-आन्दोलनक लेल एखन एकटा नेता हमरा सबकें चाही, नामक नेता। जे सभामे गरजि सकए, शासक वर्गक आगाँ धुरझाड़ अंग्रेजी, हिन्दी, बंग्ला, फारसी चिकरि सकए। लोककें आतंकित क' सकए, एकटा बिहाड़ि सौंसे देशमे उठा सकए।... असली काज त' हम सब करबइ।... बिहाड़िमे उड़ैत ख'ढ़मे चिनगी त' हम सब लगेबइ (पृ. १५)। मातृभाषा आ जन्मभूमिक प्रति एहि तरहें समर्पित लोक, आन्दोलनकें सफल करबा लेल सफल मार्गक ज्ञाता, नीति-कुशल लोक, भुवनजीक नजरिमे कोनो पैघ काज लेल योजनापूर्वक काज करबाक परिदृश्य एना रचल जाइत अछि। एहेन निविष्ट आ नीतिज्ञ पुरुषक पत्नी महान कुरूपा, नितान्त अव्यवहारिक छथिन। समस्त भव्य छविक अछैत जीवन-परिदृश्यक एक खण्ड बेरंग छनि, मलीन छनि, श्रीहीन छनि। एहेन पत्नी संग कोनो सभा सोसाइटीमे नहि जा सकै छथि। कोनो सभ्य व्यक्तिक चौपालमे नहि बैसि सकै छथि...। भुवनजी सन विशिष्ट आ विराट व्यक्तित्व संग उठबा-बैसबाक लिलसा निर्मला सन सुशिक्षित, सुदर्शन, उद्धत यौवना स्त्रीकें होइ छनि। एहेन उदार देह आ उदार मोनक जवान स्त्रीक प्रति जँ भुवनजी सन परिस्थितिक लोक अनुरक्त होइ छथि, तँ से सहज सम्भाव्य थिक। मुदा अही बीच निर्मलाजीक परिचय कमलजीसँ होइ छनि आ निर्मला आब पुरान गाछक डारिसँ उड़ि कए नव डारि पर बैसए चाहै छथि, कमलजी दिश हुनकर अनुरक्ति बढ़ि जाइ छनि। भुवनजीकें ई बात पसिन नहि छनि, मुदा से व्यक्त नहि करए चाहै छथि। नहि चाहै छथि, मुदा व्यक्त भ' जाइ छनि (पृ. ४५)। वार्तालापक ई चमत्कार रोचक अछि।... वस्तुतः प्रेम, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्यक मार्गमे प्रतिद्वन्द्वी ठाढ़ हैब बड़ दुखदायी होइत अछि। एहि दृश्यक विकट-जटिल मनोविज्ञानक ओझराहटिकें जाहि सहजतासँ राजकमल चौधरी टिपने छथि, से रोमांचक अछि।
सकल मैथिल समाजमे चर्चा अछि, जे निर्मलाजी भुवनजीक प्रेयसी छथिन, ताही आकर्षणमे भुवनजी हुनकर बासा पर जाएब आएब करै छथि। मुदा भुवनजी ई व्यक्त नहि होअए देताह, प्रतिष्ठाक प्रश्न अछि। लोकक मुँह बन्द करबा लेल भुवनजी निर्मलासँ दूरी बढ़ा लेताह, से नहि हेतनि। स्त्री देहक उदार छाहरिक प्रश्न अछि। कोनो आन पुरुखक संगति निर्मलाकें भेटनि, से भुवनजीकें पसिन नहि, मुदा कोना रोकथिन, ओ हुनकर पत्नी नहि छथिन, घोषित प्रेमिको नहि। कमलजीक सोझाँ, जे हुनकर बड़ सम्मान करै छथिन, नांगट कोना हेताह?
अइ उपन्यासमे सर्वाधिक जटिल व्यवस्था हिनकहि चरित्रा-चित्राणमे अछि। विवाद, तनाव, दाम्पत्य, प्रतिष्ठा, प्रभुत्व, भय, उदारता, वैराट्य... सब किछु मिला कए विचित्रा सन स्थिति बनैत अछि। एक दिशा पकड़ि कए जाइत रहू, हुनका नीक आ कि बेजाए साबित करैत रहू, जाइत-जाइत ओहिमे दोसर दृश्य आबि कए पहिलुक सूत्रा ओकरा देत। आन पात्राक संग से स्थिति नहि होइत अछि। कने-मने नीलूक चरित्रा-चित्राणमे सेहो इएह बात अछि।
कमलजी अइ उपन्यासक नस-नसमे समाएल छथि। कथावाचक हेबाक कारणें आन पात्रा लोकनिक चरित्रा पर टिप्पणियो करैत गेलाह अछि, मुदा हिनका सम्बन्धमे हिनकर टिप्पणी, उद्घोषणा, वक्तव्य, वार्तालाप आ आचरणे टा विश्लेषण आ मूल्यांकनक आधार बनि सकैत अछि। बेस पढ़ल-लिखल, आधुनिक विचारधारा, स्वच्छन्द चिन्तन पद्धति, प्रचुर प्रतिभा सम्पन्न बेरोजगार मैथिल युवक छथि। साहित्यिक संस्कारक सृजनशील आ सांसारिक युग चक्रक सूक्ष्मतासँ परिचित व्यक्ति छथि। छद्म, पाखण्ड, द्वेष-दुविधासँ परहेज छनि। क्षुधा, यौन-पिपासा आ आत्मसुरक्षाकें मनुष्यक मूल प्रवृत्ति मानै छथि। बुझनुक, वाक्चतुर आ जिम्मेदार लोक छथि। ट्यूशन क' कए भाउज, भतीजीक जीवन-यापन, लालन-पालनक चिन्ता रखै छथि। सामाजिक रीति-कुरीति, द्वेष-दुविधा, लोभ-ईर्ष्या, जीह-जाँघ-पेटक कामनासँ परिचित छथि। प्रतिभा आ वाक्चातुर्यक बलें महानगरमे अधिकांश लोकक नजरिमे सम्मानपूर्वक बसल छथि। निर्मला सन कामातुरा युवती हुनका पर लहालोट होइ छथि, नीलू सन किशोरी समर्पित हेबा लेल तत्पर छनि, मुदा उचितानुचितक ज्ञानसँ परिपूर्ण कमलजी नीलूक कौमार्य भंग नहि करै छथि। स्त्री-पुरुषक अतिरिक्त निकटता कखनहुँ कोनो परिस्थितिमे परिणत भ' जा सकैत अछि--ताहि अन्देशासँ कमलजी परिचित छथि, तें नीलू आ अपना बीच भाइ-बहिनक लक्ष्मण रेखा घीचि दै छथि।
नारी शोषणक प्रति रोष छनि, स्त्री दमनक प्रति आक्रोश छनि, देह व्यापार क' कए गुजर-बसर करै वाली सुशीला सन स्त्रीक अन्तर्कथा सुनि कए मोन घोर भ' जाइ छनि। कामेच्छा तृप्त करबा लेल अनेक पुरुख कोरमे नांगट होइत अर्थ-सम्पन्न स्त्री निर्मला, आ पारिवारिक भरण-पोषण हेतु असंख्य कामुक राक्षसक उत्तेजना शान्त करैवाली विपन्न स्त्री सुशीलाक तुलनात्मक विश्लेषण करए लगै छथि (पृ. ३७-३९)।
छोट वयसमे, जखन विवाहक अर्थो नहि बूझै छलाह, स्त्री पुरुष सम्बन्धक ज्ञानो नहि छलनि, तखनहि अपन भाउजक बहिन गुलाबसँ विवाह करबाक इच्छा व्यक्त केलनि (पृ २८); सम्पूर्ण उपन्यासक जीवनमे भुवनजी सन निविष्ट, प्रतिष्ठित आ गम्भीर लोकक प्रति कोनहु आक्षेप अथवा आधार नहिओ रहैत, निर्मलाजी सन पथभ्रमित स्त्रीक प्रति हुनकर अनुरक्ति (पृ. ४५); स्वकीया होइतहु अनेक परिस्थितिवश निर्मलाजी परकीया बनि जएबाक घटना (पृ. ३८-४०), नीलू पर विष्णुदेव ठाकुरक वासनात्मक दृष्टि (पृ. १६)...अइ तरहक कतोक प्रकरणसँ उपन्यासमे कथावाचक स्पष्ट करै छथि जे भूख, वासना आ सुरक्षाभाव मानव जीवनक अपरिहार्य आवश्यकता थिक, अइ अपरिहार्यताक अपवाद कमलजी स्वयं सेहो नहि छथि, जकर संकेत अपन वक्तव्य आ आचरणसँ दैत रहलाह। ई परिदृश्य एक दिश उपन्यासक आधार कथ्यकें मजगुत करैत अछि तँ दोसर दिश कमलजीक वैचारिक दुनियाँ आ दृढ़ मान्यताक प्रमाण दैत अछि।
आन्दोलनक स्त्री पात्राक कैक कोटि अछि-- समय-चक्र आ समाज व्यवस्थाक चाँगुरमे विवश; कामोन्मादमे मातल, मदोन्मत्त; किशोरकालीन उद्वेगमे बहकल, मुदा किछु-किछु सावधान। एहिमे एक वर्गक स्त्री छथि बनगाम वाली आ सुशीला। बनगामवाली जीवन संग्रामसँ लड़बा लेल स्त्री देहक सौदा करै छथि, सौदाक प्रबन्धन, दलाली; दस पाँच स्त्री रखै छथि, अपना घरमे जगह, सुविधा, सुरक्षा दै छथिन, व्यापार चलै छनि, तकर कमीशनसँ हुनकर जीवन-यापन होइ छनि; दुनियाँक आन कोनहुँ परिस्थिति, परिवेश, आर्थिक-सामजिक-राजनीतिक-नैतिक घटना-कुघटनासँ हुनका कोनहुँ सरोकार नहि छनि। गँहिकी अबैत रहए, पाइ लेल परपुरुष गमन हेतु सहर्ष तैयार स्त्रीक संख्या हुनका ओतए बढ़ैत रहए, एहिसँ पैघ बात, प्रसन्नताक बात हुनका लेल किछु नहि थिक। सुशीला रोजगारक अनुसन्धानमे बौआइत पिताक सन्तान थिकीह, जिनका अपन माइए अइ काज लेल प्रेरित केलकनि आ माइ संगे ओ विभिन्न वेश्यालयमे जाए लगलीह। जीवन-यापन हेतु आओर कोनो आधार बचल नहि छलनि (पृ. ३६-३९)।
दोसर वर्गक प्रतिनिधित्व करै छथि-- निर्मलाजी। जेना कि कहल भेल जे कोनहु व्यक्तिक आचारण, ओकर मनोवेगसँ संचालित होइत अछि, आ मनोवेगक मानसिक अवस्थिति व्यक्तिकें प्रदत्त सर्वांगीण वातावरणमे निर्मित आ निर्देशित होइत अछि। निर्मला, हेम बाबूक पुत्री छथि, हेम बाबू कमाऊ लोक छथि, महिनबारी दरमाहा अबै छनि, ओहि दरमाहाक लार-चार, संचय-निस्तार करबाक दायित्व अथवा अधिकार निर्मलाजीकें छनि--कोनो तरहक सामाजिक आँकुश अथवा आर्थिक दबावमे नहि रहै छथि। अन्न-वस्त्रा आ सामाजिक सुरक्षाक कोनो समस्या नहि छनि। मुदा दैहिक उत्ताप छनि, जगजियार बनल रहबाक आकांक्षा छनि, सबहक आँखिमे बसल रहबाक लिप्सा छनि। विधुर पिताक दरमाहा, आ परदेशी पति द्वारा पठाओल मनीयाडरक महाबलसँ निर्मलाजी मैथिल समिति द्वारा आयोजित जनसभामे अपनाकें शो-केसक मूर्त्ति जकाँ सजा क' प्रस्तुत करै छथि। अपन भाषण, भू्र-विलास, अधरक लाली, कुटिल कटाक्ष, रति-सुरति, अंग-संचालनसँ लोकक मोन मोहैत रहै छथि आ लोकक प्रशंसाक पात्रा बनल रहै छथि। हिनका सुशीला जकाँ बनगाम बालीक
खोलीमे खाट नहि ओछब' पडै छनि, नित्य प्रति आ अनेक बेर अनेक कामुक पुरुष संग व्याभिचार नहि करए पड़ै छनि। काज दुनू एके रंग करै छथि, मुदा, जें कि सुशीला लेल देह पूँजी छनि, तें हुनकर करतब व्यभिचार कहल गेल आ जें कि निर्मला लेल देह प्रसाद छनि, तें हुनकर करतब आचार भेल। सुशीला जकाँ जँ निर्मलोजी बेरोजगार पिताक बेटी रहितथि, दायित्वक बोझ तर दाबल रहितथि, दू साँझक नोन रोटी जुटएबा लेल, दू बीत वस्त्राखण्ड अनबा लेल देहक अलावा आन कोनो बाट नहि रहितनि, तँ निर्मला जीक चटक-मटक कतए जइतनि?... ओना आजुक स्त्री विमर्शमे छान-पगहा तोड़निहार वक्तव्यवीर लोकनि एहि चरित्राक प्रति, आ तकर एहि तरहक मूल्यांकनक प्रति अनघोल अवश्य करताह, जे स्त्री, देहसँ बाहरो बहुत किछु होइत अछि।...अवश्य होइत अछि, मुदा कोनो मादक संगीत सुनि पोन पर तबला बजाएब, आ तबला पर तबला बजाएब, दुनू दू बात होइत अछि। निर्मलाजी आ सुशीला जीक चारित्रिाक विश्लेषणमे एहि उपन्यासमे कामुकताक इएह विरोधी स्वरूप, वासनाक इएह विरोधाभास, नारी समुदायक इएह रूप वैविध्य आन्दोलन उपन्यासमे भावककें आन्दोलित करैत अछि।
(अगिला अंकमे जारी)
डॉ.शंभु कुमार सिंह
जन्म : 18 अप्रील 1965 सहरसा जिलाक महिषी प्रखंडक लहुआर गाममे। आरंभिक शिक्षा, गामहिसँ, आइ.ए., बी.ए. (मैथिली सम्मान) एम.ए. मैथिली (स्वर्णपदक प्राप्त) तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार सँ। BET [बिहार पात्रता परीक्षा (NET क समतुल्य) व्याख्याता हेतु उत्तीर्ण, 1995] “मैथिली नाटकक सामाजिक विवर्त्तन” विषय पर पी-एच.डी. वर्ष 2008, तिलका माँ. भा.विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार सँ। मैथिलीक कतोक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिका सभमे कविता, कथा, निबंध आदि समय-समय पर प्रकाशित। वर्तमानमे शैक्षिक सलाहकार (मैथिली) राष्ट्रीय अनुवाद मिशन, केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर-6 मे कार्यरत।
आलेख:
आधुनिक मैथिली नाटकमे चित्रित : निर्धनताक समस्या
भारत गरीबक देश थिक। एतुका अधिकांश जनता एखनहुँ गाममे रहैत छथि जे कि कृषि कार्य पर निर्भर छथि आ बरखा पर। फलस्वरुप अनियमित बरखा सरकारी उपेक्षा ओ अशिक्षा तथा पिछड़ापनक कारणेँ गामक लोक गरीबीक जीवन बिता रहल छथि। यैह गरीब किसान ओ गामक लोक जखन कमयबा हेतु शहर जाइत छथि तँ मजदूर वा बोनिहार कहबैत छथि। ओतहु हुनका सभकेँ नारकीय जीवन जीवाक लेल बाध्य होम’ पड़ैत छैक। भारतक कुल आबादीक पैंतीस प्रतिशतक लगपास लोक एहन छथि जे जीवनोपयोगी न्यूनतम आवश्यकताक पूर्ति करबामे अक्षम छथि।
निर्धनता मनुक्खकेँ बेवस लाचार आ शक्तिहीन बना दैत अछि। निर्धन मनुक्ख पिछड़ल, दीन-हीन बाधाग्रस्त आ सदैव दोसरक दयारपर जीब’ क लेल बाध्य भ’ जाइत अछि। मानव जीवनक भयंकर अभिशाप थिक निर्धनता वा गरीबी। जाहि मनुक्खकेँ दू-साँझक रोटी नहि, पहिर’ क लेल शरीर पर वस्त्र नहि, रहक लेल घर नहि, बीमार भेलापर दवाय-दारूक पाय नहि, ओ जँ आत्माक उच्चताक दावा करत त’ ओ मिथ्याक सिवाय किछु नहि भ’ सकैत अछि। ओ स्वतंत्र कोना भ’ सकैत अछि ? ओ कोनहुँ बड़का काज कोना क’ सकैत अछि ? ओ अपन विचारकेँ स्वतंत्र रूपसँ कोना प्रकट क’ सकैत अछि ? निर्धनताक कारणेँ मनुष्य तंगदिल, तुच्छ, ओछ, कमजोर आ अपन ईच्छाक मार’वला बनि जाइत अछि।
मैथिली नाट्य साहित्य मध्य एहि समस्याक विश्लेषण निम्नस्थ नाटकमे भेल अछि। जीवनाथ झाक ‘वीर –वीरेन्द्र’ (1956) भाग्य नारायण झाक ‘मनोरथ’ (1966) बाबूसाहेब चौधरीक ‘कुहेस’ (1967) गुणनाथ झाक ‘कनियाँ – पुतरा’ (1967) महेन्द्र मलंगियाक ‘ओकरा आँगनक बारहमासा’ (1980) नचिकेताक ‘नायकक नाम जीवन’ (1971) अरविन्द कुमार ‘अक्कू’ क ‘आगि धधकि रहल छै’ (1981) गोविन्द झाक ‘अन्तिम प्रणाम’ (1982) गंगेश गुंजनक ‘बुधिबधिया’ (1982) आदि।
मनोरथ मे लक्ष्मीनाथ अपन निर्घनताकेँ कोसैत छथि। ओ कहैत छथि---- “हमर नाम तँ दरिद्रनाथ होमक चाही ने कि लक्ष्मीनाथ। एकठाम नाट्यकार गरीबक धीया-पुताक संबधमे कहने छथि जे ओ कोनो काज सोचि समझि कए करैत अछि ओ अपन सुख-सुविधाकेँ त्यागि दैत अछि। एहि परिप्रेस्थमे मैथिली नाट्यालोचक डॉ. प्रेम शंकर सिंहक कथन छनि--- “आर्थिक दशाक क्षीणताक कारणेँ मनुष्यकेँ केहन संकटापन्न समस्याक सामना करय पड़ैछ तकरे दिग्दर्शन एहि नाटकमे होइत अछि।”1
गरीबीक ई पराकाष्ठा छैक जे क्यो खाइत-खाइत मरैत अछि तँ क्यो कमाइत-कमाइत। एतय समुचित व्यवस्थाक आभाव अछि। एतय अधिकांश नेनाक स्थिति एहने अछि जे जन्मोपरान्त रोजी-रोटीक जोगाड़मे लागि जाइत अछि। ‘नाटकक लेल’ मे एहि समस्याकेँ उजागर कयल गेल अछि---- “कतेको लोक एक किनारमे पड़ल कूड़ाक ढेरसँ की सबने बीछि रहल छल, क्यो दू एकटा रोगायल बच्चाकेँ डेंगा रहल छल”2 निम्नवर्गक यर्थाथ चित्रणक दृष्टिसँ ‘ओकरा आँगनक बारहमासा’ मैथिली नाट्य साहित्यमे अद्वितीय स्थान राखैत अछि। एहि नाटकक केन्द्रबिन्दु थिक सर्वहारा वर्गक यातनापूर्ण जीवन, वासन्ती पवन, ग्रीष्मीय निदाध, बर्षाक रिमझिम हेमन्तक शीत आ शिशिरक सिहकी समटा गरीबक हेतु, फुसि थिक। एहिमे एकटा गरीब एरिवारक बारहो मासक दुर्दैन्य स्थितिक चित्रण कयल गेल अछि, जाहिमे कातिक मासक एकटा बानगी प्रस्तुत अछि-----
“कातिक हे सखि बोनियो ने लागै छै,
अन्नक नहि कोनो बाट यौ।
पेटक ज्वाला राम सहलो ने जाइ छै,
घर-घर हुलकय राड़ यौ।”3
वस्तुत: कातिक मास खेतिहर मजदूरक लेल दुखक मास होइत अछि। एहि समयमे अन्नाभाव भ’ जाइत छैक एहन स्थितिमे निम्नवर्ग स्थिति दयनीय भ’ जाइत छैक – “दू गोट कोकड़ा पकबिति पियास लागल हय।”4गरीब लोकक लेल खयबाक हेतु भरिपेट अन्न वस्त्र आ आवासक एकटा जटिल समस्या भ’ गेल अछि एहि समस्या दिस नाटकारक ध्यान जाति छनि--- “अन्न बिना पेट जरिते हय, बस्तर बिना ठिठुरबे केली आ घर त’ दखते छी”5 प्रो. प्रेमशंकर सिंह एहि नाटककेँ “मिथिलाक निम्नवर्गीय समाजक अलबम कहने छथि।”6 “जाहि आँगनक बारहमासा एहिमे टेरल गेल अदि तकर ध्वनि खाली ओहि आँगनसँ नहि आबि रहल अछि, प्रत्युत मिथिलाक लाख-लाख आँगनसँ उठैत ओकर रोस, हाहाकार करैत सोझे मर्मकेँ बेधि देमयवला अछि।”7
आर तँ आर आइ समाजमे एहन गरीबी व्याप्त छैक जे गरीबकेँ मुइलाक उपरान्त कफन किनबाक लेल टका नहि रहैत छैक। “अंतिम प्रणाम” मे समाजक एहन दुर्दैन्य स्थितिक चित्रण द्रष्टव्य थिक--- “ठीके त’ कहै छिऐ। हमरा आरू गरीब छी मुदा आनि पर दस गोटय मिलि जाय तँ की ने क’ सकैत छी।”8
‘बुधिबधिया’ मे सेहो गरीबीक दृष्टान्त भेटैत अछि। देश मे कतेको व्यक्तिक स्थिति सोचनीच अछि। किछु व्यक्ति अपन जीवन-यापन विलासितापूर्वक ढगसँ व्यतीत करैत छथि, मुदा सरकारक ध्यान गरीब लोकक दिस नहि जाइत छैक। जँ सरकार द्वारा किछु व्यवस्था कयलो जाइछ तँ ओकर लाभ गरीब लोक घरि नहि पहुँचि सकैत अछि--- “एकरा देह पर एक बीत वस्त्र नहि, एकर अंग-2 उघार अछि।”9
समाजक अधिकांश लोक गरीबी रेखाक नीचाँ अछि। महगी अकाश छुबि रहल अछि। सामान्य लोक अपन परिवारक हेतु भोजन, वस्त्र आवास जुटएबामे परेशान अछि। ‘अंतिम प्रणाम’ मे मुरारीक कथन अछि--- “तीन-तीन टा बच्चोकेँ भुखले सुतैत देखैत रहैत छी----घरवालीकेँ फाटल वस्त्रमे देखैत छी---अहू सँ बेसी किछु अशुभ भ’ सकैत अछि।”10
वर्तमान युगमे सामाजिक चेतनाक निरन्तर बढ़ैत गतिशीलता ओ परंपरागत रूढ़ि व्यवस्थाक जड़ताक बीच एकटा भयंकर संघर्ष आ तनावक स्थिति बनल अछि। आधुनिक सामाजिक मैथिली नाटकक मूल-स्वर एहि प्रकारक विभिन्न संघर्ष, तनाव आ अनेक सामाजिक समस्या आदिसँ भरल अछि। सामाजिक जीवनक यथार्थक अभिव्यक्ति नाटककारक सामाजिक दृष्टि आ रचना दृष्टि पर आधारित होइत अछि। मिथिलांचलक समाजमे आर्थिक विपन्न जीवनक अस्तव्यस्तता स्वाभाविकतामे परिवर्तित भए गेल अछि।
संदर्भ
1. मैथिली नाटक परिचय, डॉ. प्रेम शंकर सिंह, पृष्ठ—96
2. नाटकक लेल, नचिकेता, पृष्ठ—54
3. ओकरा आँगनक बारहमासा, महेन्द्र मलंगिया,पृष्ठ--1
4. वएह, पृष्ठ—2
5. वएह, पृष्ठ--46
6. मैथिली नवीन साहित्य, सं. डॉ. बासुकीनाथ झा, पृष्ठ--28
7. वएह, पृष्ठ—28
8. अंतिम प्रणाम, गोविन्द झा,
9. बुधिबधिया, डॉ. गंगेश गुंजन
10. अंतिम प्रणाम, गोविन्द झा,
रामाश्रय झा "रामरंग" प्रसिद्ध अभिनव भातखण्डे जीक १ जनवरी २००९ केँ निधन भऽ गेलन्हि। डॊ. गगेेश गुजन मृत्यु पूर्व हुनकासं साक्षात्कार लेने छलाह। प्रस्तुत अछि ओ अमूल्य साक्षात्कार- पहिल बेर विदेहमे।
पं0 रामाश्रय झाक इन्टरव्यू ।
प्रश्ननः1. अपनेक दृष्टि सं विद्यापति गीत-संगीत परंपरा कें कोन रूप मे देखल-बूझल जयवाक चाही? विद्यापति-संगीत परिभाषित कोना कएल जयवाक चाही? एतत्संबंधी कोनो स्वर-लिपि उपलब्ध अछि ?
उत्तर ः हमरा विचार सँ विद्यापतिक अधिकांश गीत पद; भजनबद्धगायन शैली एवं किछु गीत ग्रामीण गीत शैलीक अंतर्गत् बूझल जयवाक चाही। उदाहरण स्वरूप पद-गायन शैली मे-
1. नन्दक नन्दन कदम्बक तरुतर
धिरे धिरे मुरली बजाव ।
2. जय जय भैरवि असुर भयाउनि।
एवं अन्य श्रृंगार रस सँ सम्बन्धित पद। जेना-
क. कामिनी करय असनाने
ख. सुतलि छलौं हम घरवा रे
ग. अम्बर बदन झपाबह गोरी
घ. ससन परस खसु अम्बर रे, इत्यादि ।
टइ तरहक पद व गीत मिथिला प्रदेश मे लगभग 60 व 70 वर्ष सं जे गाओल जाइत अछि एकर धुन अर्धांशस्त्रीय संगीतक अंतर्गत् एवाक चाही। परन्तु अइ पदक जे मिथिला मे गायन शैली छैक ओकर एक अलग स्वरूप छैक। जेकरा प्रादेशिक संगीत कहवाक चाही। जहांतक लोक संगीत तथा ग्रामीण संगीत सं संबंधित विद्यापतिक गीत अछि, जेना-
क. आगे माइ हम नहि आजु रहब एहि आंगन जो। बुढ़ होयता जमाय,
ख. हे भोलानाथ कखन हरब दुख मोर,
ग. उगना रे मोर कतय गेलाह,
घ. आज नाथ एक व्रत मोहि सुख लागत हे, इत्यादि ।
ई गीत सब लोक संगीतक धुनक अंतर्गत गाओल जाइत अछि। यद्यपि अहू लोकधुन मे रागक दर्शन छैक मगर राग शास्त्र केर अभाव छैक। तें हेतु ई सब गीत लोक संगीत शैली मे अयवाक चाही।
उत्तर-1-ए. विद्यापति संगीतक कोनो भिन्न स्वरूप नहि अछि, केवल विद्यापति गीत मिथिला प्रादेशिक संगीत शैलीक अंतर्गत गाओल जाइत अछि। राग आओर ई अर्धांशस्त्रीय एवं धुन प्रधान लोक संगीत राग गारा,राग पीलू, राग काफी, राग देस, राग तिलक कामोद इत्यादि राग सं सम्बन्धित अछि। अभिप्राय ई जे जेना सूर, तुलसी, कबीर इत्यादि संत कविक पद भिन्न-भिन्न तरह सं गाओल जाइत अछि अइसंत कवि सबहक कोनो खास अपन संगीत नहि छैन्हि जे कहल जाय जे ई सूर व तुलसी तथा कबीरक संगीत थीक, एही रूप सं विद्यापति संगीतक रूप मे बुझवाक चाही।
प्रश्नन-2. विद्यापति संगीत-परंपराक विषय मे आइध्रिक स्थिति पर अपनेक की विचार-विश्लेषण अछि ?
उत्तर-2. विद्यापति पदक सम्बन्ध मे हमर ई विचार अछि जे विद्यापतिक पद मैथिली भाषा मे अछि तें हेतु केवल मिथिला प्रदेश मे अइ पदक गायन प्रादेशिक संगीतक माध्यम सं होइत अछि। हॅं, यदा कदा बंगाल प्रदेश मे बंगला कीर्तन मे अवश्य प्रयोग हाइत अछि। कहवाक अभिप्राय ई जे कोनो प्रादेशिक भाषा मे लिखल काव्य केर गुणवत्ताक आकलन ओइ काव्यक श्रृंब्द व साहित्य तथा भाव पर निर्भर करैत छैक। संगीत आकइ काव्य के रसमय एवं सौंदर्यवर्धन करइक हेतु परम आवश्यक तत्व अवश्य थिक परन्तु प्राथमिकता पदक थिकइ। मैथिली भाषा अत्यन्त सुकोमल भाषा अछि एवं अइ मे लालित्य अछि ।आर संगीत सुकोमल भाषा मे अधिक आनन्द दायक होइत छैक।अही हेतु विद्यापति पद संगीतक माध्यम सं मिथिलाक संस्कृति मे विद्वान जन सं ल’ क’ जनसाधारण तकक मानस के प्रभावित क’ क’ अपन एक सुदृढ़ परम्परा बनौने अछि एवं मिथिलावासीक हेतु परिचय पत्र समान अछि। तें हेतु समस्त मैथिल समाजक ई परम कर्तव्य थीक जे अइ अमूल्य धन कें धरोहर जकां जोगा क’ राखी।
प्रश्न-3. विद्यापति-संगीत आओर विद्यापति-गीत कें एकहि संग बूझल जयवाक चाही बा फराक क’? यदि हं तं किएक आ कोना ?
उत्तर : एहि प्रश्नक उत्तर उपरोक्त पहिल तथा दोसर क्रमांक मे लिखल गेल अछि।कृपया देखल जाय।
प्रश्नन-4. विद्यापति-संगीतक प्रतिनिधि गायक रूप मे अपने कें कोन-कोन कलाकार स्मरण छथि आ किएक ?
उत्तर : विद्यापति पदक गायक आइ सं किछु वर्ष पूर्व बहुत नीक नीक छलाह, जेना पंचोभक पं0 रामचन्द्र झा,पंचगछियाक श्री मांगन, तीरथनाथ झा, बलियाक पं0गणेश झा, लगमाक पं0 अवध पाठक, श्री दरबारी ; नटुआ द्ध श्री अनुठिया ; नटुआद्ध पं0 गंगा झा बलवा, श्री बटुक जी, आर पं0 चन्द्रशेखर खांॅ, अमताक पं0 रामचतुर मलिक, पं0 विदुर मलिक, लहटाक पं0 रामस्वरूप झा, खजुराक पं0 मधुसूदन झा एवं नागेश्वर चैधरी, बड़ा गांवक पं0 बालगोविन्द झा, लखनौरक पं0बैद्यनाथ झा इत्यादि। वर्तमान मे जे गायक छथि हुनका सबहक नाम अइ प्रकार छनि-पं0 दिनेश झा पंचोभ, श्री उपेन्द्र यादव, अमताक पं0 अभयनारायण मलिक, पं0 प्रेमकुमार मलिक इत्यादि। उपरोक्त जतेक गायकक हम नाम लिखल अछि ई सब गायक अधिकारपूर्वक विद्यापतिक पद कें गबै वला छलाह एवं वर्तमान मे छथि। कियेक तं ई सब मिथिलावासी छथि। विद्यापति पदक अर्थ भाव पूर्ण रूप सं बूझि क’ तहन प्रश्नकरैत छलाह व वर्तमान मे करैत छथि। तें हेतु ई सब गायक स्मरण करवा योग छथि।
प्रश्नन-5. पं0 रामचतुर मल्लिक, प्रो0 आनन्द मिश्र प्रभृत्ति तं इतिहास उल्लेखनीय छथिहे । किछु अन्यो गायकक नाम अपने कह’ चाहब ?ओना मल्लिकजी तथा आनन्द बाबूक विद्यापति-गीत गायकी मे की किछु विशेष लगैत अछि जे अन्य गायक मे नहि ?
उत्तर ः हम जतेक गायक क नाम लिखल अछि सब अपना-अपना स्तर सं नीक छलाह एवं नीक छथि। विद्यापतिक पद गायन मे राग गायकीक जेना बड़का बड़का आलाप व तान तें गाओल नहि जाइत छैक। विद्यापति पद गायन मे पदक अर्थ भाव ध्यान मे राखि सरसतापूर्वक गाओल जाइत छैक। अइ सम्इन्ध मे एक सं दोसर गायकक तुलना करइक आवश्यकता नहि। तथापि पं0रामचन्द्र झा व श्री मांगनजी तथा पं0 रामचतुर मलिकजी,श्री बटुक जी,पं0 रामस्वरूप् झा,श्री दरबारी इत्यादि गायक बहुत प्रसिद्ध छलाह।
चूंकि प्रोफेसर आनन्द मिश्रजीकें हम कहियो गायन नहि सुनल तथा मिथिलाक गायक पंक्ति मे हुनक नाम हम नहि सुनल तें हेतु हुनका संबंध मे किछु लिखइ सं असमर्थ छी।
प्रश्न-6. विद्यापति-गीत मैथिली लोकगीत ध्रि कोना पहुंचल हेतैक ?एहि विषय मे अपनेक विश्लेषण की अछि?
उत्तर ः विद्यापति गीत मैथिलीक दू तरहक भाषा मे रचल गेल अछि।एकटा मैथिलीक परिष्कृत भाषा
मे रचल गेल अछि जेना-
1.नन्दक नन्दन कदम्बक तरुतर
2.अम्बर बदन झंपावह गोरी
3. उधसल केस कुसुम छिड़िआयल खण्डित अधरे । इत्यादि। अइ तरहक
मैथिलीक परिष्कृत भाषा मे जे गीत छैक से लोकगीत ;ग्रामीण अंचलद्धधरि बहुत कम पहुँचलै।
जे गीत ग्रामीण भाषाक माध्यम सं रचल गेल छैक।जेना-
1. आ गे माइ हम नहि आजु रहब एहि आंगन जं बुढ़ होयता जमाय....
2. हे भोलानाथ कखन हरब दुख मोर
3. जोगिया भंगिया खाइत भेल रंगिया हो भोला बउड़हवा.
4. उगना रे मोर मोरा कतय गेलाह.
इत्यादि।
अइ तरहक जे गीत छैक से लोकगीत;ग्रामीण अंचलद्धधरि अधिक सं अधिक पहुँचलए।एक बात आर ई जे लोकभषाक अधिक समकक्ष छैक तकरा जनाना सब अधिक गबैत छथि। हमरा बुझने विद्यापति गीत कें लोकगीत ;ग्रामीण अंचलद्धधरि पहुँचइके यैह कारण थीक। दोसर बात ई जे अपन मातृभाषा स्वभावतः बहुत प्रिय होइत छैक आर अपना मातृभाषाक माध्यम
सं जे काव्य रचल जाइत छैक आर ओइ मे लालित्य आ आकर्षण छैक तं ओ अपनहि आप विद्वान जन सं ल’ क’जनसाधारण तक प्रचारित भ’ जाइत छैक। आर विद्यापति पद तं लौकिक व पारलौकिक दुनू ृदृष्टिसं अत्यन्त उच्च कोटिक रचल गेल अछि, तथा सब तरहक गीत रचल गेल अछि जेना-भक्ति, भक्ति श्रृंगार, लौकिक श्रृंगार, श्री राधाकृष्णकें विलासक अत्यन्त मधुर गीत, भगवान श्रृंंकरक विवाह सं सम्बंधित जनसाधारण भाषाकके गीत एवं नचारी, समदाउनि,
बटगवनी,तिरहुत इत्यादि तरहक गीतक रचना केने छथि जे लोकरंजनके हेतु उच्चकोटिक एवं गायन के वास्ते बनल छैक। ई तंे बिना प्रयासहिं लोक मानस एवं लोकगीत धरि पहुँचि गेल गेल हेतैक।
प्रश्न-7.विद्यापति पदक मैथिली व्यवहार-गीत मे विलय होयवाक प्रक्रिया अपनेक दृष्टियें कोना आ की रहल हेतैक ?
उत्तर ः हमरा बुझने इहो प्रश्न 6ठमे प्रश्न सं संबंधित अछि। तें ओही पर विचार कएल जाय।
प्रश्न-8. विद्यापतिक पद यदि मिथिलाक सर्वजातीय माने-सभ वर्ग आ समाजक लोक मे स्वीकृत छैक ? तं तकर कारण विद्यापति-पदक साहित्यिक गुण बा ओकर सांगीतिकता छैक आकि एकरा मे निहित कोनो आन तत्व आ विशेषता छैक ?
उत्तर ः विद्यापति पद जे मिथिला समाजक सब वर्ग मे स्वीकृत छैक तकर मुख्य कारण विद्यापति पदक साहित्यिक गुण एवं सांगीतिक गुण दुनू छैक।मिथिला मे कवि विद्यापतिक पहिनहुं तथा बादहु मे बहुत कवि भेलाह मगर जनसाधारण मे तं हुनकर क्यो नाम तक नहि जनैत अछि। परंतु विद्यापति एवं विद्यापति गीत के तं एहेन क्यो अभागल मिथिलावासी हेताह जे नहि जनइत हेताह। विद्यापति पदक प्रचार-प्रसार मे साहित्यिक व संगीतक गुण के अतिरिक्त आन कोनो तत्व व कारणक जे अपने चर्चा कएल अछि, अइ सम्बन्ध मे हम ई कहब जे कवि विद्यापति भगवान के परम भक्त छलाहं हुनका भक्ति सं प्रभावित भ’ क’ भगवान शंकर जिनका घर मे नौकर के काज करैत रहथिन एहेन भक्त कविक कावय मे तं प्रचार-प्रसार हेबाक सब सं महत्वपुर्ण तत्व एवं कारण हुनका आराध्यदेवक कृपा बुझवाक चाही। भगवानक भक्ति सं हुनकर हृदय ओतप्रोत छलन्हि तें ओ अपन काव्य मे लिखैत छथि-
क. बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे ,
ख. हे भोलानाथ ;बाबाद्धकखन हरब दुख मोर , इत्यादि ।
ग. खास क’ भगवान राधाकृष्णक भक्ति व भक्ति-श्ाृंगार रस जे ओ अपना काव्य मे दरसओ
-लन्हि अछि ओ अत्यन्त हृदयस्पशर््ाी तथा संगीतमय अछि।
प्रश्न-9.लोकगीत एवं व्यवहार-गीत मे तत्वतः की-की भेद मानल जयवाक चाही ?
उत्तर ः लोकभाषा एवं लोकधुन मे जे गीत गाओल जाइत छैक तकरा लोकगीत कहल जाइत छैक। आर व्यवहार गीत क जे अपने चर्चा कएल अछि इउ सम्बन्ध मे हमर कहब ई जे एकरा अंतर्गत संगीतक सब शैली आबि जाइत छैक।परंतु हमरा बुझना जाइत अछि जे व्यवहा गीत सं अपनेक अभिप्राय संस्कार गीत सं अछि। हमरा विचार सं लोकगीत एवं व्यवहार गीत दुनू
के लोकसंगीत कहल जाइत छैक, अइ मे कोनो विशेष अंतर नइ छैक।
प्रश्न- 10.विद्यापति-संगीतक वर्तमान जे निश्चिते निराश कयनिहार अतः खेदजनक अछि। अपने कें तकर कारण की सब लगैत अछि ?
जखन कि बंगालक रवीन्द्र-संगीत-कला मे विद्यापति संगीत जकां कोनो प्रकारक पतनोन्मु -खता आइ पर्यन्त देखवा मे नहि अबैत अछि । तकरो कारण की आजुक उपभोक्तावाद, ब्जारवाद भू-मण्डलीकरण मात्रकें मानल जयवाक चाही बा आनो आन ऐतिहासिक, समाजा -आर्थिक परिस्थि ति आ सामाजिक कारण आ परिवर्तन कें ?
उत्तर ःअइ सम्बन्ध मे हम ई कहब जे संपूर्ण भारत मे अपना संस्कृति के छोड़ै मे जतेक मैथिल अगुआयल छथि तेना अन्य कोनो प्रदेश नहि। जे मैथिल मिथिला सं बाहर अन्य प्रदेश मे आबि गेलाहय सब सं पहिने ओ अपन मातृभाषाक प्रति उदासीन भ’ जाइत छथि आ अत्यंत हर्षपूर्वक ई कहैत छथि जे हमरा बच्चा के तं मैथिली बाजहि नहि अबैत छैक। अपना घर मे मैथिली नहि बजैत छथि। जखन अपना मातृभाषाक प्रति एहेन उदासीन छथि तहन अपना संस्कृति सं अपनहि आप दूर भ’ जेताह। अपना मॉं-बा पके डैडी व
मम्मी अन्य के अन्टी व अंकल कहैक रेवाज भ’ गेलै अछि तं हिनका सब सं की आश कयल जाय जे ई अपना संस्कृतिक रक्षा करताह। बंगाली,मद्रासी,पंजाबी,मराठी इत्यादि प्रदेशक लोक सब अपना संस्कृति के एखनहुं धरि संजोय क’ रखने अछि। मगर पश्चिमी सभ्यताक प्रभाव सब सं अधिक मैथिल पर छन्हि ते हेतु मिथिला संस्कृति मे एहेन हानिकारक परिवर्तन देखाय पड़ैत अछि।
प्रश्न-11.अपनेक स्मृति मे कोनो गायकक गायन बा अन्य कोनो संदर्भ हो जेकर वर्णन अपने कर’ चाही? हुनक विषय मे किछु सुनयवाक इच्छा हो।वर्तमान समेत आगां पीढ़ीक लाभ हेतैक। संगहि अपनेक किछु विशेष अभिमत जे देब’-कह’ चाही।
उत्तर ःहम शास्त्रीय संगीतक उपासक छी आर अत्यंत उदासीन भ‘ कहि रहल छी जे अपन मिथिला वर्तमान समय मे शास्त्रीय संगीत सं शून्य भ’ रहल अछि। वर्तमान समय सं पहिने पं0रामचतुर मलिक, पं0 बिदुर मलिक, पं0सियाराम तिवारी,;चूंकि पं0 सियाराम तिवारीक शिक्षा अमता गाम मे भेलन्हि तें हेतु हुनका मैथिल मानइ छियनि। पं0 चन्द्र शेखर खां,पं0 रघू झा, ई सब बहुत उच्च स्तरक गायक छलाह। खास क’क’ पं0 रामचतुर मलिक, व पं0 सियाराम तिवारी तं इतिहासिक गायक छलाह ध्रुवपद शैलीक गायन मे।
भावी पीढ़ीक शिक्षार्थी एवं जिज्ञासु के अइ गायक सबके जानइ के प्रयास व हिनका गायन व कार्यक सम्बंघ मे श्रृंोध करवाक चाही ताकि भावी पीढ़ी लाभान्वित एव धु्रुवपद शैली गायनक विशेषता सं परिचित होथि।
जय मिथिला जय मैथिली, जय जय जानकी अम्ब ।
जेहि रज मे मन्डन भेला, हरलन्हि शिव के दम्भ ।।
आशीष अनचिन्हार-
अन्हार पर इजोतक कहिऒ विजय नहि (आलोचना)
शीर्षक पढैते देरी पाठक लोकनि एकर रचियता के निराशावादी घोषित कए देताह आ फतवा देताह जे समाज के एहन -एहन वकतव्य सँ दूर रहबाक चाही।मुदा हमरा बुझने पाठक लोकनि अगुता गेल छथि,आ हम कहबनि जे अगुताथि जुनि। मुदा इहो एकटा सुपरिचित तथ्य थिक जे लोक के जतेक उपदेश दिऔक ओ ओतबे तागति सँ ओकर उन्टा काज करत।मुदा तैओ हम कहबनि जे अगुताथि जुनि आ ता धरि नहि अगुताथि जा धरि शीर्षक पूर्ण वाक्य नहि भए जाए।आब अहाँ सभ टाँग अड़ाएब जे शीर्षक त अपना आप मे पूर्ण छैहे तखन अहाँ एकरा अपूर्ण कोना कहैत छिऐक ? मुदा नहि, कोनो वस्तु बाहर सँ पूर्ण होइतो भीतर सँ अपूर्ण होइत छैक। इहए गप्प एहि शीर्षकक संग छैक। अच्छा आब हम अपन विद्वताक दाबी छोड़ी आ आ अहाँ सभ के पूर्ण वाक्य के दर्शन कराबी - "अन्हार पर इजोतक कहिऒ विजय नहि, सरकार पर जनताक कोनो धाख नहि"।
मैथिली साहित्य मे बहुत रास बिडंबना छैक, प्रवंचना छैक, वंदना छैक अर्थात सभ किछु छैक मुदा तीन गोट वस्तु के छोड़ि--
१) मैथिली मे व्यंग प्रचुर मात्रा (गुण एवं परिमाण) मे नहि लिखाइत अछि,
२) जँ झोंक- झाँक मे लिखाइतो छैक त स्तरीय आलोचना नहि होइत छैक ,
३) आ जँ भगवान भरोसे स्तरीय आलोचना अबितो छैक त हरिमोहन झा के शिखर मानि सभ के भुट्टा बना देल जाइत छैक ।
एहि तीन टा के छोड़ि एकटा आर महान बिडंबना छैक जे आलोचक आलोचना करताह फल्लाँ बाबूक अथवा हुनक कृति के मुदा समुच्चा मैथिली अलोचना मे हरिमोहन बाबू तेना ने घोसिआएल रहता जे पाठक एहन आलोचना के हरिमोहने बाबूक आलोचना बूझैत छथि।
आलोचनाक स्तर पर मैथिली व्यंग मे रुपकांत ठाकुर एकटा बिसरल नाम थिक। एकर पुष्टि 2003 मे साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित पोथी "ली कथाक विकास" मे प्रो. विद्यापति झा द्वारा लिखित लेख "मैथिली कथा साहित्य मे हास्य-व्यंग" पढ़ि होइत अछि। प्रो.झा पृष्ठ 168 पर 1963 सँ 1967क मध्य प्रकाशित हास्य-व्यंगक व्यौरा दैत रुपकांत ठाकुरक मात्र 6 गोट कथाक चर्च कएलथि अछि ( किछु आलोचक मात्र इएह लीखि कात भए गेलाह जे रुपकांत ठाकुर सेहो नीक व्यंग लिखैत छथि ) ।एहि के अतिरिक्त ने 1963 सँ पहिनेक मे हुनक व्यौरा मे हुनक नाम छन्हि ने 1967क पछाति। अर्थात रुपकांत ठाकुर मात्र 6 गोट हास्य-व्यंगक रचना कए सकलाह। जखन की वास्तविकता अछि जे रुपकांत ठाकुर 1930 मे जन्म-ग्रहण कए 1960क लगीच रचनारत भेलाह एवं 1972 मे मृत्यु के प्राप्त भेलाह। कुल मिला कए ठाकुरजी मात्र बारह बर्ख मे अनेक असंकलित कथा एवं लेख के छोड़ि हुनक पाँच गोट पोथी प्रकाशित छन्हि--1) मोमक नाक (कथा संग्रह)
2) धूकल केरा (कथा संग्रह)
3) लगाम (नाटक)
4) वचन वैष्णव (नाटक)
5) नहला पर दहला (उपन्यास)। मात्र बारह बर्ख मे एतेक रचना आ उल्लेख मात्र 6 गोट कथाक।
आब अहाँ सभ के थोड़ेक-थोड़ शीर्षकक अर्थ लागए लागल हएत। मुदा अहाँ सभ घबराउ जुनि । इ शीर्षक ठाकुरेजीक रचना सँ लेल गेल अछि। मतलब जे भविष्यक संकेत कए गेल छथि।
आब किछु गप्प करी मैथली व्यंग मे राजनीतिक व्यंग पर। कोन चिड़ियाक नाम छैक राजनीतिक व्यंगइ हमरा जनैत मैथिली व्यंगकार नहि जनैत छथि। ओना व्यंग केकरा कहल जाइत छैक सेहो बूझब कठिन। हमरा जनैत मैथिली मे 93% व्यंग लिखल जाइत छैक मुदा 93% आलोचक ओकरा हास्य मानि आलोचना करैत छथि। सभ व्यंगकार ओहीक मारल छथि, चाहे शिखर-पुरुष हरिमोहन बाबू होथि वा रुपकांत ठाकुर। सुच्चा व्यंग लिखला पछातिओ हरिमोहन बाबू कहेलाह हास्य-व्यंग सम्राट। अर्थात हास्यकार पहिने आ व्यंगकार बाद मे। बाद बाँकी 7% हास्य लिखाइत अछि जकर प्रतिनिधि छथि पं. चन्द्रनाथ मिश्र "अमर" ।
हँ त फेर आबी हम राजनीतिक व्यंग पर। हमरा जनैत जाहि व्यंग मे अपन समकालीन अथवा पूर्वकालिक राजनीति, शासन-व्यवस्था, ओकर संचालक आदि पर निशाना साधल गेल हो ओकरा राजनीतिक व्यंग कहाल जाइए। ओना इ अकादमिक परिभाषा नहि अछि।
त फेर हम अहाँ सभ के रुपकांत ठाकुर लग लए चली, आ हुनक एक गोट पोथीक परिचय करा हुनक राजनीतिक चेतना के देखाबी। जाहि पोथी सँ हम अहाँ के परिचय कराएब ओकर नाम छैक "मोमक नाक"। एहि व्यंग-संग्रह मे नौ गोट कथा थिक। परिचय शुरु करेबा सँ पहिनहि कहि दी जे इ कोनो जरुरी नहि छैक जे हम अहाँ के नओ कथा कहब आ ने जरूरी छैक जे संग्रहक पहिल कथा सँ हम शुरू करी। इ निर्णय हमर व्यत्तिगत अछि आ अहाँ एहि सँ सहमत भइओ सकैत छी आ नहिओ भए सकैत छी। हँ त हम शुरू करी संग्रहक अंतिम कथा "मर्द माने की" सँ। जेना की शीर्षके सँ बुझाइत छैक लेखक अवस्स एहि मे मर्दक परिभाषा देने हेथिन्ह। से सत्ते, लेखक जखन शुरुए मे कहैत छथिन्ह जे " लोटा ल' क' घरवालीक लहटगर देह पर गदागद ढोल बजौनिहार एहन सुपुरुष कत' भेटत?"। त सभ अर्थ स्पष्ट भए जाइत छैक। मुदा लेखक एतबे सँ संतुष्ट नहि भए आगू कहैत छथि " मर्द माने कमौआ, आ कमौआ माने वियाहल,आ वियाहल माने बुड़िबक आ बुड़िबक माने बड़द"। सुच्चा मैथिल अभिव्यत्ति। एखनो अर्थात 2009 धरि मैथिल समाजक इ धारणा छैक जे कमौए मर्द होइत अछि, आ जहाँ कहीं कोनो मर्द देखाइ पड़ल लोक ओकर विआह करबाइए कए छोरैए। आ जहाँ धरि गप्प रहल बियाहल माने बुड़िबक से त हम नहि कहब मुदा बुड़िबक माने बड़द अवश्य होइत छैक। खाली खटनाइ सँ मतलब। अधिकारक प्रति निरपेक्ष। आब हम एहि सँ बेसी नहि कहब एहि कथाक प्रसंग। बस एतबे सँ लेखकक चेतनाक अनुमान कए लिअ।
"ठोकल ठक्क" मे लेखक ओहन भातिज आ जमाएक दर्शन कराबैत छथि जनिकर काजे छन्हि कमीशन खाएब आ एहि लेल ओ अपन पित्ती एवं ससुरो के नहि छोड़ैत छथिन्ह। आ जँ एही कथाक माध्यमे अहाँ तात्कालीन रजनीतिक देखए चाहब त रुपकांत एना देखेताह-"सरकार पर जनताक कोनो धाख नहि"। अर्थात बेशर्म, निर्लज्ज, हेहर,थेथर सरकार।
भारतक समकालीन विकास जँ अहाँ देखबाक इच्छा होइत हो त रुपकांत ओहो देखेताह। कनेक पढ़ू "जय गंगा जी" जतए रेलगाड़ी के बढैत देखि लेखक टिप्पणी करैत छथि-"कांग्रेसी नेता जकाँ लोक के अपन पेट मे राखि क' ओकर सुख-दुख अथवा उन्नति-अवनति के बिसरि गाड़ी मात्र आगू बढब जनैत छल। अपना बले नहि कोइला आ पानिक बलें। परन्तु पवदान पर चढ़ल यात्री कतऽ छलाह?" ई सवाल जतेक भयावह लेखकक समय मे छल ततबे भयावह एखनो अछि। लेखक सरकारक डपोरशंखी योजनाक लतखुर्दन एही कथा मे करैत छथि-" कोन टीसन केखन बितलैक से मोन राखब पंचवर्षीय योजना सभ मे उन्नतिक कागजी आकड़ा मोन राखब थिक"।
बेसी प्रशंसात्मक उद्धरण देब हमरा अभीष्ट नहि मुदा तैओ एकटा उद्धरण देबा सँ हम अपना के रोकि नहि पाबि रहल छी। एही संग्रहक दोसर कथा थिक "फूजल ऊक"।बेसी अपन वक्तव्य नहि कहि उद्धरण सुनाबी-"मात्र सुधारवादी दृष्टि रखला मात्र सँ सुधार कथमपि नहि भए सकैछ"। जँ लेखकक भावना के बचबैत हम लिखी जे "प्रगतिशील विचार लिखला मात्र सँ प्रगतिशीलता कथमपि नहि आबि सकैछ" त इ स्पष्ट भए जाएत जे रुपकांत कतए व्यंग कए रहल छथिन्ह आ केकरा पर कए रहल छथिन्ह।
ठाकुर जी एकपक्षीय व्यंगकार नहि छथि। ओ दूनू पक्ष के हूट सँ मानसिक आ बूट सँ शारिरिक प्रताड़ाना दैत छथिन्ह। तकर प्रमाण ओ एहि संग्रहक पहिल कथा जे पोथीक नामो छैक अर्थात " मोमक नाक" मे देखेलैन्ह अछि। हुनकहिं शब्द मे " आजुक युग मे भला आदमीक परिभाषा उनटि गेल छैक। जनता जनता अछि जे से सभ मोमक नाक जकाँ लुजबुज। जखन जाहि दिस नफगर रहै छैक तिम्हरे लोक घूमि जाइछ" स्वतंत्रे भारत नहि हमरा विचारे जम्बूदीपक जनता सँ लए कए एखुनका भारतीय जनताक चारित्रिक विशेषता ई उद्धरण देखबैत अछि। आ एतेक देखेलाक पछातिओ आलोचक रुपकांतक नाम बिसरि गेल छथि।
भने आलोचक नाम बिसरि गेलखिन्ह मुदा पाठकक मोन मे एखनो धरि रुपकांत ठाकुरक रचना खचित छैन्ह। हमरा जनैत कोनो प्रथम आ अंतिम सफलता इएह छैक। आ रुपकांत इ सफलता अपन रचनाक माध्यमें प्राप्त केलन्हि ताहि मे संदेह नहि।
विदेह
मैथिली साहित्य आन्दोलन
(c)२००८-०९. सर्वाधिकार लेखकाधीन आ’ जतय लेखकक नाम नहि अछि ततय संपादकाधीन। विदेह (पाक्षिक) संपादक- गजेन्द्र ठाकुर। एतय प्रकाशित रचना सभक कॉपीराइट लेखक लोकनिक लगमे रहतन्हि, मात्र एकर प्रथम प्रकाशनक/ आर्काइवक/ अंग्रेजी-संस्कृत अनुवादक ई-प्रकाशन/ आर्काइवक अधिकार एहि ई पत्रिकाकेँ छैक। रचनाकार अपन मौलिक आऽ अप्रकाशित रचना (जकर मौलिकताक संपूर्ण उत्तरदायित्व लेखक गणक मध्य छन्हि) ggajendra@yahoo.co.in आकि ggajendra@videha.com केँ मेल अटैचमेण्टक रूपमेँ .doc, .docx, .rtf वा .txt फॉर्मेटमे पठा सकैत छथि। रचनाक संग रचनाकार अपन संक्षिप्त परिचय आ’ अपन स्कैन कएल गेल फोटो पठेताह, से आशा करैत छी। रचनाक अंतमे टाइप रहय, जे ई रचना मौलिक अछि, आऽ पहिल प्रकाशनक हेतु विदेह (पाक्षिक) ई पत्रिकाकेँ देल जा रहल अछि। मेल प्राप्त होयबाक बाद यथासंभव शीघ्र ( सात दिनक भीतर) एकर प्रकाशनक अंकक सूचना देल जायत। एहि ई पत्रिकाकेँ श्रीमति लक्ष्मी ठाकुर द्वारा मासक 1 आ’ 15 तिथिकेँ ई प्रकाशित कएल जाइत अछि।(c) 2008 सर्वाधिकार सुरक्षित। विदेहमे प्रकाशित सभटा रचना आ' आर्काइवक सर्वाधिकार रचनाकार आ' संग्रहकर्त्ताक लगमे छन्हि। रचनाक अनुवाद आ' पुनः प्रकाशन किंवा आर्काइवक उपयोगक अधिकार किनबाक हेतु ggajendra@videha.co.in पर संपर्क करू। एहि साइटकेँ प्रीति झा ठाकुर, मधूलिका चौधरी आ' रश्मि प्रिया द्वारा डिजाइन कएल गेल। सिद्धिरस्तु
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"भालसरिक गाछ" Post edited multiple times to incorporate all Yahoo Geocities "भालसरिक गाछ" materials from 2000 onwards as...
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जेठक दुपहरि बारहो कलासँ उगिलि उगिलि भीषण ज्वाला आकाश चढ़ल दिनकर त्रिभुवन डाहथि जरि जरि पछबा प्रचण्ड बिरड़ो उदण्ड सन सन सन सन...
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खंजनि चलली बगढड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरली अपन वस्तुलक परित्याकग क’ आनक अनुकरण कयलापर अपनो व्यिवहार बिसरि गेलापर व्यंपग्यय। खइनी अछि दुइ मो...
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पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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