भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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Saturday, April 04, 2009
विदेह २७ म अंक ०१ फरबरी २००९ (वर्ष २ मास १४ अंक २७)-part-iii
३.पद्य
३.१.श्री गंगेश गुंजनक- राधा (नवम खेप)
३.२. गजेन्द्र ठाकुर- 15 टा पद्य
३.३. सतीश चन्द्र झा- दू टा कविता
३.४.ज्योति- पनभरनी
३.५. पंकज पराशर - सत्तनजीब
३.६. मिथिलाक लेल एक ओलम्पिक मेडल- बी.के कर्ण
डॉ. गंगेश गुंजन(१९४२- )। जन्म स्थान- पिलखबाड़, मधुबनी। एम.ए. (हिन्दी), रेडियो नाटक पर पी.एच.डी.। कवि, कथाकार, नाटककार आ' उपन्यासकार।१९६४-६५ मे पाँच गोटे कवि-लेखक “काल पुरुष”(कालपुरुष अर्थात् आब स्वर्गीय प्रभास कुमार चौधरी, श्री गंगेश गुन्जन, श्री साकेतानन्द, आब स्वर्गीय श्री बालेश्वर तथा गौरीकान्त चौधरीकान्त, आब स्वर्गीय) नामसँ सम्पादित करैत मैथिलीक प्रथम नवलेखनक अनियमितकालीन पत्रिका “अनामा”-जकर ई नाम साकेतानन्दजी द्वारा देल गेल छल आऽ बाकी चारू गोटे द्वारा अभिहित भेल छल- छपल छल। ओहि समयमे ई प्रयास ताहि समयक यथास्थितिवादी मैथिलीमे पैघ दुस्साहस मानल गेलैक। फणीश्वरनाथ “रेणु” जी अनामाक लोकार्पण करैत काल कहलन्हि, “ किछु छिनार छौरा सभक ई साहित्यिक प्रयास अनामा भावी मैथिली लेखनमे युगचेतनाक जरूरी अनुभवक बाट खोलत आऽ आधुनिक बनाओत”। “किछु छिनार छौरा सभक” रेणुजीक अपन अन्दाज छलन्हि बजबाक, जे हुनकर सन्सर्गमे रहल आऽ सुनने अछि, तकरा एकर व्यञ्जना आऽ रस बूझल हेतैक। ओना “अनामा”क कालपुरुष लोकनि कोनो रूपमे साहित्यिक मान्य मर्यादाक प्रति अवहेलना वा तिरस्कार नहि कएने रहथि। एकाध टिप्पणीमे मैथिलीक पुरानपंथी काव्यरुचिक प्रति कतिपय मुखर आविष्कारक स्वर अवश्य रहैक, जे सभ युगमे नव-पीढ़ीक स्वाभाविक व्यवहार होइछ। आओर जे पुरान पीढ़ीक लेखककेँ प्रिय नहि लगैत छनि आऽ सेहो स्वभाविके। मुदा अनामा केर तीन अंक मात्र निकलि सकलैक। सैह अनाम्मा बादमे “कथादिशा”क नामसँ स्व.श्री प्रभास कुमार चौधरी आऽ श्री गंगेश गुंजन दू गोटेक सम्पादनमे -तकनीकी-व्यवहारिक कारणसँ-छपैत रहल। कथा-दिशाक ऐतिहासिक कथा विशेषांक लोकक मानसमे एखनो ओहिना छन्हि। श्री गंगेश गुंजन मैथिलीक प्रथम चौबटिया नाटक बुधिबधियाक लेखक छथि आऽ हिनका उचितवक्ता (कथा संग्रह) क लेल साहित्य अकादमी पुरस्कार भेटल छन्हि। एकर अतिरिक्त्त मैथिलीमे हम एकटा मिथ्या परिचय, लोक सुनू (कविता संग्रह), अन्हार- इजोत (कथा संग्रह), पहिल लोक (उपन्यास), आइ भोर (नाटक)प्रकाशित। हिन्दीमे मिथिलांचल की लोक कथाएँ, मणिपद्मक नैका- बनिजाराक मैथिलीसँ हिन्दी अनुवाद आऽ शब्द तैयार है (कविता संग्रह)। प्रस्तुत अछि गुञ्जनजीक मैगनम ओपस "राधा" जे मैथिली साहित्यकेँ आबए बला दिनमे प्रेरणा तँ देबे करत सँगहि ई गद्य-पद्य-ब्रजबुली मिश्रित सभ दुःख सहए बाली- राधा शंकरदेवक परम्परामे एकटा नव-परम्पराक प्रारम्भ करत, से आशा अछि। पढ़ू पहिल बेर "विदेह"मे गुञ्जनजीक "राधा"। -सम्पादक.
गुंजन जी लिखित रचना सभ डाउनलोड करबाक लेल नीचाँक लिंककेँ क्लिक करू -
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गुंजनजीक राधा (नवम खेप)
विचार आ संवेदनाक एहि विदाइ युग भू- मंडलीकरणक बिहाड़िमे राधा-भावपर किछु-किछु मनोद्वेग, बड़ बेचैन कएने रहल।
अनवरत किछु कहबा लेल बाध्य करैत रहल। करहि पड़ल। आब तँ तकरो कतेक दिन भऽ गेलैक। बंद अछि। माने से मन एखन छोड़ि देने अछि। जे ओकर मर्जी। मुदा स्वतंत्र नहि कए देने अछि। मनुखदेवा सवारे अछि। करीब सए-सवा सए पात कहि चुकल छियैक। माने लिखाएल छैक ।
आइ-काल्हि मैथिलीक महांगन (महा+आंगन) घटना-दुर्घटना सभसँ डगमगाएल-
जगमगाएल अछि। सुस्वागतम!
लोक मानसकें अभिजन-बुद्धि फेर बेदखल कऽ रहल अछि। मजा केर बात ई जे से सब भऽ रहल अछि- मैथिलीयेक नाम पर शहीद बनवाक उपक्रम प्रदर्शन-विन्याससँ। मिथिला राज्यक मान्यताक आंदोलनसँ लऽ कतोक अन्यान्य लक्ष्याभासक एन.जी.ओ.यी उद्योग मार्गे सेहो। एखन हमरा एतवे कहवाक छल । से एहन कालमे हम ई विहन्नास लिखवा लेल विवश छी आऽ अहाँकेँ लोक धरि पठयवा लेल राधा कहि रहल छी। विचारी।
राधा (नवम खेप)
किछु ने उत्तर कतहुसँ सब किछु पड़ल अछि शान्त सब दिश रातुक अतल अन्हार आ निश्चिन्त निद्रालीन गामक लोक । सभ टा माल जाल, पंछी पखेरु चुप्प दबकल । अपन-अपन ठौर आ अपन ठेकान
समय स्वयं बनि गेल हो जेना सबहक कान एक मात्र,
एकमात्र, नाक आ एकहि मात्र आँखि सौंसे आबादीक भऽ गेल हो- जेना एकीकरण,
एकहि एक चेतना करण, एकहि बोध एकमात्र अस्तित्वक भास
सौंसे सब किछु भऽ गेल हो जेना आकाश
से बूझि मनुषकेँ अब्बल-दुब्बल
चुपचाप आकि सूति गेल हो स्वयं बनि पताल ! माने सब तारागण समेतक चन्द्रमा आ रंग, रसक
बसात लऽ कऽ आ सूतल आकाश अतल तल मे जा कऽ ओहि पताल
विलक्षण मनक ई प्रवाह आ बुद्धिक दिशा राधा, एहुक नहि कोनो टा अछि उत्तर,
भला सोचू जे ई आकाश जाऽ कऽ कोना भऽ जायत पताल
यदि सेहो तँ कतऽ जायत पताल, कोन बाटे उतरत ? वा चलि कऽ गेल होयत ? जँ भरि जायत एही अनन्त आकाशसँ ? दोसर जे, कोना आँटत एतेक टा आकाश ओतनी टाक पताल मे ? के अंटाओत आ फल की तकर !
हँ, से तं अछि ठीक मुदा हमरा लेल एकदम साफ
कहाँ कत्तहु देखाइए एकहु टुकड़ी मेघ
एक्कहु टा, एतय धरि जे कनियों लुकझुको तारा, कत्तहु कोनो कात ? कोनो कोन मे ?
कहाँ सब टा तँ अछि भेल अदृश्य - अंतर्धान,
सोझाँ जे विशाल विस्तारसँ पसरल महा अन्हार राति
कहाँ किछु अछि शेष कोनो ध्वनि कोनो ज्योति कोनो
स्पर्श कोनो बोध जे स्वाधीन, कहि आ बुझा सकय
अहाँक होयबाक अर्थ सेहो सदेह आ जीवन्त प्राणक ?
कहाँ किछु कतहु ? सब टा अछि बनि गेल समुद्र
कि योजन योजनक अन्हार पताल । ककरो किछु
ने सूझय, किछु ने भेटय, तथापि किछु ने किछु तकबे करी
से मनुक्खक लुतुक आ अभ्यास तेँ,
लागल अनेरे एहि अन्हारक सिन्धु सँ खसयबा मे
मनक जाल – बझवै लेल जानि ने माछ केहन ?
समस्त अस्तित्व फाटल पुर्जी सन उधिया रहल
कृष्णक प्रथम पत्रक पुर्जी, सौंसे भेल, भरि पृथ्वी,
अनन्त पताल धरि, चलि गेल,
छूटि गेल अपना हाथ सँ, उधिया रहल ई मन
स्वयं हुनकर प्रथम पत्रक फटल पुर्जी भेल,
यद्यपि शब्द अछि कंठस्थ सभ टा किन्तु
हुनक स्पन्दित उपस्थिति, हुनक होयवाक निरन्तर
अनुभूति आभास केर स्वरूप तँ टूटि गेल
ई की भेल ? हमरा संगे ई की भेल ?
बड़ रही उदास एक दिन अहाँ माधव,
कोनो टा ने करैत रही गप्प शप्प , खोंटैत मात्र दूभि हरियर,
ताहू पर करैत जेना स्वयं के मने मन गंजन आ पश्चात्तापी आघात,
-‘दूवि भेल तँ दूरि गेल ? अनेरे कियेक ओकर हो एना दुर्दशा
आ सेहो अहाँ सदृशक हाथ सँ ? ई तँ थिक हिंसा
एक प्रकारेँ हिंसा, अन्याय ! नहि ?’
भंगठल खेलौना ठीक भऽ गेलापर कोनो नेनाक आकृति पर जेहन,
अबैत छैक स्वर्गसँ चलल काल हर्षक आभा मृदुल नान्हि टा ठोढ़ पर आ आँखि मे चमक आनन्दक,
सएह अनमन सएह भऽ गेल रहय अहूंक समाचार ,मन अछि?
केहन दुर्लभ विहुंसी छल ओ ? सौंसे भुवनक सुखक सूत्र बिहुंसी ! अहाँक, अछि मन ?
ताहि दिव्य विहुंसी के देखिते हम ताकऽ लगलौँ अपन नूआक खूट
बड़े व्यग्र बड़ उताहुल ।
-“की भेलौ राधा?” अहाँक एहि प्रश्न मे रही बाजल जेना ।
- खूटमे सरिया कऽ एकरा बान्हि कऽ धऽ लैत छी, अहाँक ई मुस्की, माधव !
अनन्त कालक चुप्पीक उपरान्त ; सौंसे सृष्टि जेना
हम सत्ये लैत अहाँक ठोर सँ विहुंसी अपन आंजुर अभागल सब सँ
बान्हि लेने रही खूट मे विहुँसीक गीरह !
बन्हितहिं रही कि अहाँ अनचोकहि हमर
जुट्टी के घीचैत जोर सँ कहने बिना किछु-
कष्ट देबा धरि- जोरे हमर मूड़ी पाछाँ देलौं झुका
आ कृत्रिम क्रोध सँ कय गेलौं हमरे आँखि बाटे हमरे अभ्यंतर मे बलात् प्रवेश,
स्वागत !
कहाँ बाँचल रहल हमरा बोध । नहि बाँचल ।
अहाँक हाथें घीचल जाइत अपन दुखाइत केशक ।
मात्र एतबे तँ रही कहने आधा तामस आ पूरा स्नेह सँ
-‘करबें सैतानी फेर, हमरा संगे? बाज...बाज मोटकी?’
से पूछब बोल नहि छल - स्वयं छल अनंत प्रतिध्वनि – निनादित ब्रह्माण्ड
अपने आप अहाँक ओहि बोल सँ गुंजित अनुगुंजित प्रतिगुंजित
अनवरत एहि प्रक्रियामे बनि गेल छल
महानादक एक टा त्रिलोक व्यापी आवर्त ! प्रत्यावर्त’
गनगनाय लागल छल हमर सृष्टि !
बहुत किछु तँ अहिना अनेरे होइत अछि जीवन मे,
अनेरेक ओही आवृत्त पुनरावृत्त पड़ल पथार मे स सस्नेह आ श्रमपूर्वक
ताकय पड़ैत छैक मनुक्ख केँ । मनुक्ख, ताही प्रकृति प्रक्रिया
स मात्र तकबा लेल, जीवन-प्राण लेल उपयोगी,
तत्व तकबा लेल आयल
पृथ्वी पर । सएह कऽ रहल ।
तहिया सँ आइ धरि सएह क रहल । तहिया- तकर बादो
बहुत युग धरि कहियो नहि भेल विरत- विरक्त ने एकहु रती
उदासीन अपन एहि जीवन-गति सँ ।
लैत अपन एहि नियति केँ कौखन प्रेम, कौखन
आदर्श, नैतिकता कौखन धर्म धर्मादेश कौखन
आओर नहि तँ बेशी काल लोक लज्जा-मर्यादा ।
एतेक विस्तृत आ जटिल भेल चल जाइत
मनुक्ख जीवनक अनादि अनन्त पथार मे सँ
एतेक रास अकटा मिसिया बीछ कऽ करब
फराक आ अपना योग्य अन्न कऽ लेब अपना दिस
अपन पथिया- ढाकी- अर्थात्
अपन वासन मे- केहन मोश्किल आ कए
काल अकच्छाह सेहो तँ !
मनुक्ख भरि जन्म कि अन्नक पथारमे सँ इच्छित अकटा मिसिया बिछबाक लेल ! भेटल छैक लोककेँ एतबे लेल आयु ?
-एतबे लेल नहि अवश्ये, मुदा इहो छैक आवश्यक राधिका !
एहनो नहि बुझियौ एहि बातकेँ व्यर्थ । कए बेर सुनि गेलाक आ चुप रहलाक बाद, कृष्ण अहाँ स्वभाव सँ एकदम अप्रत्याशित धीर-गम्भीर स्वरमे एतवा कहि कऽ आँगुर सँ सरिया देने रही हमर तेल बिन भऽ गेल जट्टा जट्टा केशक । एकटा कपार पर लटकल लट।
-जेना ईहो तँ ! सौंसे ब्रजमे कतेक रास छैक लोक, कतेक रास गोपी सब । लोक गोपीक कतेक रास केश सुन्दर आ सुन्दर, बहुत रास.... तहिना
बात, घटना आ धान-पान-मखान संगहि जनमल अनेरेक दूभि निफल लत्ती-कर्मीक महाजाल ! आदि तकरा बीचहि सं त अपना लेल’ उपयुक्त आनऽ पड़ैत छैक मनुक्ख कें । एहि मे एकहु रत्ती नहि छैक उदास आ विरक्त होयबाक बात । बल्कि उन्टे एकरा जीवन कें आगाँ लऽ जयबा लेल, सुख कें आगाँ बढ़यवा वास्ते आ दुःख सबकें बीछि-बीछि कऽ फराक करैत अपना सुभीताक बाट करवाक वास्ते सृष्टिक देल एकटा अवसर होयवाक चाही, से एकर उपयोग । एकरे तं राखऽ पड़ैत छैक ध्यान ।
ध्यान बड़ मूल्यवान छैक मनुक्ख-देहक रक्त-प्रवाह मे राधा ! मुदा आश्चर्य जे सेहो नहि छैक अंतिम अनिवार्य । ओकरो छैक अपन आयु आ अपनहि अर्थ, सीमा । मनुक्ख-मनुक्खक मोताविक छैक तहिना उपयोगिता सेहो ओकर । छूटय नहि बुद्धिक ई सूत्र । सैह चेतवैत रहैत अछि हमरा विवेक । सुख तं सुख, जे आनन्द पर्यन्त नहि होइत अछि तेहन पोखरि-धार जाहि मे सतत निर्मल जले टा छल-छल करैत रहय । प्रवाहित होइत रहय । थम्हलो रहय तं नहि भऽ सकैत अछि ओ एकदम्मे सेमार-करमी बा अन्य दृय-अदृश्य वनस्पति सभ सं सर्वथा मुक्त, मात्र जल शीतल सर्वथा मनुष्येक उपयोग आवश्यकता भरि । तें आनन्द सन आनन्द ! तकरो मुदा एकटा काल सीमा पर, यथा समय झाड़ऽ–पोछऽ पड़ैत छैक । ओकरा आनन्द बनल रखवाक वास्ते समय पर ध्यान सं स्नान करबऽ पड़ैत छैक, नव धोआ वस्त्र पहिराबऽ पड़ैत छैक । यमुना पर्यंत सतत् यमुना नहि रहि पबैत छैक राधा । ओकरो नहाबऽ पड़ैत छैक । एकरो वस्त्र बदलऽ पड़ैत छैक-नव धोअल वस्त्र !
सब लोक तें अपने-अपने आनन्दक माय होइत अछि । आनन्द ओकर शिशु-संतान ! तकरो लेल करऽ पड़ैत छैक भरि प्राण ताकुत राधा ! पोसऽ पड़ैत छैक... से सत्य । मुदा नहि बना दी आनन्द कें जुआन, परिपक्व ! कथमपि नहि।
जनैत छें अपन आनन्दकें कदापि जुआन नहि होमऽ दी । रखने रही ओकरा कोरा-करेज आ बांहि धरि मे समेटि इच्छानुसार दुलार करबा लेल मोहक शिशु ! आनन्द बच्चे आनन्द ! जवान आनन्द, भऽ जाइत अछि किछु आन बात :
बुझबा लेल कहैत छी ई जे हमर मित्र अभिन्न छथि अप्पन । महान । हिनकर आनन्द भऽ गेलनिहेँ जवान ! तकरे टा आब ई सब उपद्रव छनि भरि जीवन जगत, निर्गुण-सगुणक ज्ञान-ध्यान । सएह बनल छनि हिनक सामर्थ्य तेँ सैह बनौने छनि निरानन्द । यद्यपि सभक अपन-अपन बाट होइत छैक ! अपन डेग, अपन-अपन गति !
हम तँ भऽ गेल रही हतप्रभ !
वाह रे कृष्ण ! वाह रे अहांक ज्ञान ! ई केहन गप्प आ सुझाव ?
आनन्द कें नेने रखने रही... जवान नहि होअ दी ...उद्धवक भऽ गेल छनि आनन्द जवान !
(२१.०४.०५)
(अगिला अंकमे जारी)
गजेन्द्र ठाकुर
15 टा पद्य
१.
देखैत दुन्दभीक तान
*शामिल बाजाक
सुनैत शून्यक दृश्य
प्रकृतिक कैनवासक
हहाइत समुद्रक चित्र
अन्हार खोहक चित्रकलाक पात्रक शब्द
क्यो देखत नहि हमर चित्र एहि अन्हारमे
तँ सुनबो तँ करत पात्रक आकांक्षाक स्वर
सागरक हिलकोरमे जाइत नाहक खेबाह
हिलकोर सुनबाक नहि अवकाश
देखैत अछि स्वरक आरोह अवरोह
हहाइत लहरिक नहि ओर-छोर
आकाशक असीमताक मुदा नहि कोनो अन्त
सागर तँ एक दोसरासँ मिलि करैत अछि
असीमताक मात्र छद्म।
घुमैत गोल पृथ्वीपर,
चक्रपर घुमैत अनन्तक छद्म।
मुदा मनुक्ख ताकि अछि लेने
एहि अनन्तक परिधि
परिधिकेँ नापि अछि लेने मनुक्ख।
ई आकाश छद्मक तँ नहि अछि विस्तार,
एहि अनन्तक सेहो तँ नहि अछि कोनो अन्त?
तावत एकर असीमतापर तँ करहि पड़त विश्वास!
स्वरकेँ देखबाक
चित्रकेँ सुनबाक
सागरकेँ नाँघबाक।
समय-काल-देशक गणनाक।
सोहमे छोड़ि देल देखब
अन्हार खोहक चित्र
सोहमे छोड़ल सुनब
हहाइत सागरक ध्वनि।
देखैत छी स्वर, सुनैत छी चित्र
केहन ई साधक
बनि गेल छथि शामिल बाजाक
दुन्दभी वादक।
*राजस्थानमे गाजा-बाजावलाक संग किछु तँ एहेन रहैत छथि जे लए-तालमे बजबैत छथि मुदा बेशी एहन रहैत छथि जे बाजा मुँह लग आनि मात्र बजेबाक अभिनय करैत छथि। हुनका ई निर्देश रहैत छन्हि जे गलतीयोसँ बाजामे फूक नहि मारथि। यैह छथि शामिल बाजा।
२.
ढहैत भावनाक देबाल
खाम्ह अदृढ़ताक ठाढ़
बालकोनीमे राखल गमलामे तुलसीक गाछ
प्रतीक मात्र सहृदयताक
आकांक्षाक बखाड़ी अछि भरल
घरमे राखल हिमाल-लकड़ीक छोट मन्दिर
प्रतीक बनि ठाढ़।
मोन पाड़ैत अछि इनार-पोखरिक महार,
स्विमिंगपूलक नील देबाल
बनबैत पानिकेँ नील रंगक
मोनक रंगक अदृश्य देबाल
ढहैत
खाम्ह अदृढ़ताक ठाढ़
बहैत।
३
बद्री विशाल केदारनाथ
अलकनन्दा मन्दाकिनीक मेल
हड़हराइत धार दुनू मिलैत
मेघसँ छाड़ल ई ककर निवास।
बदरी गेलाह मीत भाइ
नहि घुरलन्हि ओदरी हुनक ताहि,
आइ सड़क धरि एतए आओल
शीतल पवनक झोंक, खसि रहल भूमि,
स्खलन भेल जन्तु सबहिक,
हिम छाड़ल ई ककर वास।
हृदय स्तंभित देखि धार
पर्वत श्रेणीक नहि अन्त एतए
कटि एकर तीव्र, नीचाँ अछि धार
खसत जे क्यो की होएत तात
दुहू कात छाड़ल पर्वतसँ ई,
अलकनन्दे ई सौन्दर्य अहींक
मन्दाकिनी जे आकाश मध्य
देखल आइ पृथ्वीक ऊपर
हरहड़ाइत ई केहन फेनिल
स्वच्छ निर्मल मनुक्ख निवसित,
शीतल पवनक छाड़ल ई सृष्टि
नव दृष्टि देलक देखबाक आइ।
४
पक्काक जाठि
तबैत दुपहरियाक भीत पोखरिक महार,
पस्त गाछ-बृच्छ-केचली सुषुम पानि शिक्त,
जाठि लकड़ीक तँ सभ दैछ पक्काक जाठि ई पहिल,
कजरी जे लागल से पुरातनताक प्रतीक।
दोसर टोलक पोखरि नहि अछि डबरा वैह,
बिन जाठिक ओकर यज्ञोपवीत नहि भेल कारण सएह,
सुनैत छिऐक मालिक ओकर अद्विज छल,
पोखरिक यज्ञोपवीतसँ पूर्वहि प्रयाण कएल।
पाइ-भेने सख भेलन्हि पोखरि खुनाबी,
डबरा चभच्चा खुनेने कतए यश पाबी।
देखू अपन टोलक पक्काक जाठि ई,
कंक्रीट तँ सुनैत छी, पानियेमे रहने होइछ कठोर,
लकड़ीक जाठि नहि जकर जीवन होइछ थोड़।
५
निन्नक जीवन विचित्र
डैनियाही दुपहरियाक घामक बीच,
सपनाइत, सहस्रबाढ़निक दानवाकार आकृति,
प्रेयसीपर झपटैत ओकर कंठ मचोड़ैत,
प्रेमी पकड़ैत अछि सहस्रबाढ़निक झोंट,
पोखरिमे अछि खसैत प्रेमीक पएर बान्हि लेलक झोंटासँ,
डैनियाही दुपहरियामे पोखरिक झोंटाबला पनिडुब्बी।
तांत्रिक-सहस्रबाढ़निक झोँझसँ निकलि,
अपन प्राणान्त करैत प्रेयसीकेँ बचबैत,
प्रेमीक निन्न अछि खुजैत रौदसँ घमैत घामसँ नहाएल।
घोर निद्राक तृप्ति रहैछ मुदा हेराएल।
देखैत ओलम्पिक्समे देशवासीकेँ पछड़ैत,
मंत्र-तंत्रयुक्त दुपहरियामे जागल गुनधुनी बला स्वप्न,
बनैत अछि सभसँ तीव्र धावक, अखरहाक सभसँ फुर्तिगर पहलमान,
दमसाइत मालिकक स्वर तोड़ैत छैक ओकर एकान्त।
कारिख चित्रित रातिक निन्न,
टुटैत-अबैत-टुटैत निन्न आ स्वप्नक तारतम्य,
बनि राजनेता करैत देशक समस्याक अन्त,
बड्ड थोपड़ी अछि बजैत न्यायक डंका गुंजैत,
धर्म-जाति-आतंकवाद, समस्या-समझौता करैत,
प्राणघातक प्रहारकेँ छातीपर सहैत- जितइत,
निन्न अछि टुटैत, मुदा तकर अछैत,
घोर-निद्रा तृप्तिक अनुभूति अछि छुटैत।
निन्नकेँ आस्ते-आस्ते देलक माहुर् मित्र,
कएलक निन्नक जीवन विचित्र।
६
बंशी पाथि पकड़बाक प्रयास,
आकांक्षाक पंखयुक्त अश्वकेँ,
बोर देने सफलताक सूत्रक,
अनन्त प्रतीक्षा निस्बद्ध चुप्पीक।
पानिक तल स्थिर नियन्ताक रूप,
छोट कीड़ीक गमन उठबैत अछि सूक्ष्म हिलकोर,
आशाक विश्वासक प्रतिरूप।
बंशी पथने ठाढ़, पाथि पकड़बाक प्रयास,
अंधविश्वासक छोड़, विज्ञानक ओर,
बोर देने ज्ञानक पिण्ड,
प्रतीक्षाक अन्त! प्रशान्त शान्ति,
सोंस, काछु, हरकाछुसँ रिक्त पानि,
निर्माताक निर्मितिक अंत कएल व्याधि।
बीया-जीरा माछक रोपि,
बंशी पाथि पकड़बाक लेल हियाउ,
आकांक्षाक अश्व, सफलताक सूत्र,
ज्ञानक पिण्ड निर्माताक निर्मितिक साधांश,
ठाढ्च बिच अनन्त अकास,
यंत्रवत बिच अनन्त विस्तार,
शान्त-प्रशान्त-वाकहीन मनुक्ख।
सूक्ष्मतर भावनाक जखन आबए हिलकोर,
विह्वल करैत मनुक्खकेँ छल जे छुच्छ-रुक्ख।
७
सुरसराइत ग्वालक झुण्ड
कमलाक धारमे पिछड़ि हेलबाक द्वंद,
धारक विरुद्ध चलबाक क्रम,
ढेकरैत माल-जालक अबैए शब्द,
घुरि जाइछ गाम दिस झुण्डक-झुण्ड।
घरक वातावरण गारि-मारिक,
बकरीक नेरीक बीच जीवन साइत,
पलायन नगर दिस भेल आब ई दैव,
घृणा, विरक्ति, प्रदूषण आ ई एड्स।
कैक संगी मृत एड्सक भेँट,
नगरक चमक मोन पाड़ैछ गामक द्वैध।
अगिलही पहिने आब सुन्न अछि घर-द्वार,
कोठा-कोठामे भेल मुदा की सुखहाल?
गामक गाम सुड्डाह पलायनक अगिलहीमे,
नहि जानि की षडयंत्र ई अछि महीमे?
गाममे बेचने तरकारी लोक की कहत,
नगरमे के ई जाए देखत?
आह भेल नजरिक भेद लोकक एतहु,
चारू कात ताकी अपन जे भेटत कतहु।
अपन लोक सेहो अछि दैत अहम्,
अहमक मारि मरैत पुस्तक-पुस्त आगाँक।
आह ई खून-खुनाहनि असामक,
ई हाल की निचुलका पीढ़ीक होएत भरि भारत।
तखन कोन भयेँ छोड़ल अपन देस,
केकर षडयन्त्र किए नहि बुझि पाओल कियो?
छोड़ल धरती जड़ि नहि ताकि पाओल किएक।
तहिया मोन खराप भेने नहि डॉक्टर छल,
बाढ़ि अकालमे के ककर आसरा बनत,
जाति-पाति-धर्मक देबाल बिच,
पिचाएल जाइत मनुक्खक पलायन बाट छल।
मुदा जे आएल नहि रहल ओतहि सएह,
अछि समृद्ध, डॉक्टर वैद्य अछि,
जाति टूटल पाँति टूटल, टूटल धर्म-सम्प्रदाय की?
लोक समृद्ध भेल जनसंख्याक कम भेने आर बाट की?
मुदा दिअ हमरो अहाँ यश एहि समृद्धिक लेल,
सभ बहराएल ताहिं बोझ धरतीक कम भेल,
देस-कोस घर-द्वार आब हमर ईएह,
वेदना हमरामे अछि अगुलका पीढ़ीक,
तँ ई सम्बलो ने हएत।
८.
अभिनव भातखण्डे
( शास्त्रीय संगीतक शास्त्रकार आ गायक श्री रामाश्रय झा “रामरंग” जीक मृत्यु १ जनवरी २००९ केँ भऽ गेलन्हि। हमर रचित “मिथिलाक ध्वज गीत”क संगीत हुनके देल छन्हि। हुनकर स्नेहमे अनायासे किछु पाँती पद्य रूपमे बहराएल अछि।)
भातखण्डेक अमरत्वक,
पाश्चात्य संगीतक जे रहए षडयन्त्र,
भारतीयताक, भारतक संगीतक स्वाधीनताक अपहरण,
दृष्टिदोषक कारण जतए,
राजनैतिक नेतृत्व भेल पराजित,
स्वाधीनता भेल अपहृत,
मुदा भातखण्डेक चरित्र,
रोकि देलक संगीतक पराधीनता,
हे रामरंग, अहाँक अभिनव गीताञ्जलि,
पढ़लहुँ हम सम्पूर्ण आ
ठीके छी अहाँ अभिनव भातखण्डे,
मिथिलाक धरतीक रत्न,
कोनो मातवर, नामवरक नहि अधीन,
अहाँक पचासो बरखक साधना,
कंठसँ शास्त्रसँ स्वाधीनताक परिभाषा,
हनुमान-भक्त रामरंग अहाँक
सम्पूर्ण संगीत-रामायणक आस्वाद लेने,
मोन पड़लथि तुलसीदास,
हुनक स्त्री-शूद्रक प्रति दुर्भावपर,
अहाँक संगीत रामायणक विजय,
स्वाधीनतक नव-नव अर्थ दैत,
ठीके छी अहाँ अभिनव भातखण्डे,
राग वैदेही भैरव, राग तीर भुक्ति राग विद्यापति कल्याण मिथिलाकेँ देल,
राग भूपाली आ राग बिलावलमे मैथिली भाषाक रचना कएल,
राग विद्यापति कल्याणक द्रुत आ विलम्बित खयाल,
अहाँक देल संगीत मिथिला ध्वज गीतकेँ देलक नव अर्थ,
नव अनुभूति,
ध्वजक फहरएबाक अर्थ अछि स्वाधीनता,
स्वाधीनता मनसिक,
नाम खसि कए ठाढ़ होएबाक,
आ बैशाखी छोड़ि दौगबाक।
घृणाक आस्वाद कएनिहारक मस्तिष्कक,
प्रक्षालन करैत संगीत लहरीसँ,
हे सुखदेव झाक पुत्र खजुरा गामक लोक भेटताह तँ कहबन्हि,
रामरंगक मूर्ति गाममे लगबाए,
नहि होमए जाएब उऋण हे बहिन-भाए,
स्वाधीनताक शाखाक करए जाऊ विस्तार।
रामरंग रहि वाराणसी-प्रयागक गंगा तटपर,
कएल स्वाधीन संगीतकेँ ओ ऋषि,
स्व अधीन विचार-बात होएत,
तखने होएत श्रद्धांजलि रामरंगक हे खजुरावासी।
युगक अन्त भेल आइ, माँगनक स्वरमे गाबए छी,
माँगनक-रामरंगक नाम लिअ नहि लिअ,
मुदा मोन राखू स्वाधीनताकेँ,
विश्वाससँ निकलैत आत्मविश्वासकेँ,
नहि बान्हि राखू मस्तिष्ककेँ सिक्कड़िमे,
पएर भने बैशाखीपर रहए,
माथ रहए मुदा स्वाधीन।
९
शिल्पी
शिल्पी बलिराजगढ़क
हड़ाही पोखरिक,
पस्टनक अकौरक आ नाहर-भगवतीपुरक बौद्ध खोह,
अवलोकितेश्वर ताराक प्रतिरूप उच्चैठक मूर्ति,
स्त्रीगणक गीत सहस्राब्दि भरि सुनि-सुनि बनलीह काली-भगवती,
वैजयन्तीपुर-जनकपुर आ मिथिलानगरीक उत्थान,
अरि मर्दनक भूमि मथल जाइत अछि जतए शत्रुकेँ,
जन आ विश केर साम्राज्ञ जनक केर भूमि,
दलित शिल्पीक सभटा ई कृति,
मुदा आब के देत ओकर महत्व,
चरण रज धोबि पीबू हिनक पएर,
एतेक भेलोपर निष्कपट कएलन्हि मातुक सेवा,
कमलाक भगता बनि जनकपुरक प्रदिक्षणा,
मिथिलाक वृहत परिक्रमा गहबर सभकेँ गोहारिकेँ,
मुदा बनलाह अछूत,
गामसँ बाहर के पठेलकन्हि हुजूर,
तैयो संस्कृतिक ई शिल्पी,
नहि कएलन्हि पलायन,
अहांक बुद्ध अहींक शिव राम कृष्ण,
मन्दिरमे प्रवेश निषेधक अछैत,
नहि कएलन्हि पलायन,
धर्म-जातिक बोझ माथपर लेने रहलाह,
पूजन करू पएर रज पखारि कऽ,
बौद्ध मूर्तिक शिल्पी, ब्रह्मा विष्णुक मूर्तिक आधार,
कलाकृति भाँसि गेल, हेराएल
केलहुँ सभ मिलि ठाढ़ हिनका,
गामक बाहर,
तखन विनती
दीन भदरी, छेछन महाराज, गरीबन बाबा, लालमइन बाबा,
अमर बाबा, मोती दाइ, गांगो देवी, कृष्णाराम,सलहेसक मूर्ति बनाऊ,
चरण रज पूजि मुदा
१०
अहाँक आँखिक मिलन भेने,
दूर होइत अछि चिन्ता ओहिना,
सागर तटपर जेना लहरि लऽ जाइत अछि,
सभटा पात-खाद्य वस्तु करैछ साफ,
सभटा फिकिर, शान्त स्वच्छ तट मोनक।
अहाँक हँसीमे भऽ जाइत छी,
फेकैत अपन सभटा दुःख,
दुःखक संगे अपन सभटा महत्वाकांक्षा,
अहाँक प्रेरणा दैत अछि सम्भावना,
आत्मविश्वास अबैत अछि फुर्तिक संग,
अभिलाषाक पूर्तिक बढ़बैत आकांक्षा,
बिसरैत अपनाकेँ अहाँक आँखिमे,
अहाँक स्नेहसँ गप करब,
मात्र एतबे
अनैत अछि कतेक सम्भावना आ परिणाम,
मुदा एकर विपरीत...
११
आर्यभट्टक पाटलिपुत्रमे उद्घोष
आन विद्याक तँ होइत अछि भेद-विभेद,
मुदा विज्ञानक तँ अछि ई सूर्य-चन्द्र गबाह
चन्द्रायणक स्वप्न पूर्ण केलन्हि वाह,
लीलावती पढ़ि सूर्य-चन्द्र-तरेगणक दूरी नापलन्हि,
आइ पूर्ण सफल भेल परिश्रम जाए।
अग्नि-ब्रह्मोस पूर्ण कएल ई अर्थ,
ब्रह्मास्त्र-पाशुपतास्त्र केर अर्थ बुझलनि जाए आइ।
१२.
यौ शतानन्द पुरहित
अगहन शुक्ल विवाह पंचमी,
विवाहक सभसँ नीक दिन,
पुरहित शतानन्द,
राम सीताक विवाह कएल सम्पन्न,
खररख वाली काकीक विवाह,
सेहो विवाह पंचमीएकेँ भेल,
पुरहित सेहो कोनो पैघे पण्डित रहथि,
सीता दाइ कतेक कष्ट कटलन्हि,
मरबापर चित्रकला लिखल रहए मिथिलाक,
परिछन, नैना-जोगिन सभटा भेल,
ओहिना जेना भेल रहए सीता दाइक विवाहमे ।
बाल-विवाह तँ भेले रहन्हि खररख वाली काकीक,
विवाहोक दिन सभसँ नीक,
नैना जोगिन, जोगक गीत,
किछुओ कहाँ बचा सकल,
भऽ गेलीह विधवा।
कहैत छथि हमर संगी,
जहिया लऽ जाइत छथि ओ भौजीकेँ,
पेंशनक लेल दानापुर कैण्ट,
विधवा भौजीकेँ देखि,
भीतरे-भीतरे कनैत रहैत छथि,
बाबूकेँ कहलन्हि जे विधवा विवाह हेबाक चाही,
तँ मारि-मारिकेँ ओ उठलथि,
नेऊराक राजपूत बाबूसाहेबक ई खानदान,
बड़ काबिल भेलाह ई,
मुदा अछि बुझल हमरो,
कुहरैत रहैत छथि बापो,
मुदा बोझ उठेने छथि समाजक कुरीतिक,
उपाय नहि छनि कोनो दोसरो।
१३.मिथिला रत्न
जनक याज्ञवलक्य विदथ माथव,
मल्ल जगत्प्रकाश-जगतज्योतिर्र
माँगन खबास रामरंग यात्री हरिमोहन,
सुन्दर झा शास्त्रीक पएरमे सिकड़ि बान्हल जेलक चित्र,
सीरध्वज वेदवती मैथिली मैत्रेयी
जयमंगला-असुर-अलौली-कीचक-वरिजन-बेनू नौला गढ़ सभ
बलिराजपुरक
बुद्ध-महावीरक वस्सावसक भूमि,
शिल्पी कृषकक क्षेत्र,
खिखीर शाही नीलगाएक भ्रमण,
आँखि लागल सभटामे।
हजारक-हजार साल जे भूमि कएलक निर्वहण,
से अछि पलाएनक भूमि आब,
पचास सालमे की भेल जे
हजार सालमे नहि छल प्राप्त
लोचनक रागतरंगिणीक चर्च भातखण्डेमे
भातखण्डेक चर्च रामरंगमे,
गंगेश वाचस्पतिक तर्कक बीच
कुतर्की कहियासँ भेलहुँ जाए।
याज्ञवल्क्य द्वारा गुरुक शिक्षाक त्याग
शुक्ल यजुर्वेदक निर्माणक नव अध्याय,
मुदा पछातिक जाति-मंडित शास्त्र,
इतिहाससँ तैयो क्षमाक करैत आश!
तँ शुरु किएक नहि करैत छी
इतिहासक नव अध्याय।
१४. पिताक स्वप्न
पिताक छल आश
झूठ बजनाइ पाप,
गलत काजक सर्वदा त्याग,
सभ होए समृद्ध,
साधारण जीवन उत्तम विचारक बीच।
करैत पालन देखल जे,
बुरबक बुझैत अछि लोक
तँ की बदली? अपन शिक्षाक अर्थ
त्यागि रस्ता नुदा वैह लक्ष्य
जिदियाहवला।
मुदा बजने की बस करैत रहू
सोझाँवलाकेँ बुझए दोयौक,
जे छी हम बुरबक।
जावत बुझत तावत भऽ जएतैक हारि,
पिताक सत्यकेँ झुकैत देखने रही स्थितप्रज्ञतामे
तहिये बुझने रही जे
त्याग नहि कएल होएत
रस्ता जिदियाहवला।
१५
सरोजिनी नगर मार्केटक बम विस्फोट
डस्टबिनमे राखल बमक विस्फोट
उड़ैत लोक कार वस्तु-जात
खूनक धार, टटका निकलल लाल,
पुरनाएल गप, खून खरकटि गेल,
कारी स्याह बनल
आ एम्हर दिल्ली नगर फेर आबि गेल पटरीपर!
दिलवलाक छी ई नगर तेँ!
मुदा जिनका घरमे रोटी कमाएवलाक मृत्यु अछि भेल
हुनक जीवनक रेल
एक दू दिन की भरि जिनगीयो
की आबि सकत पटरीपर।
सतीश चन्द्र झा,राम जानकी नगर,मधुबनी,एम0 ए0 दर्शन शास्त्र
समप्रति मिथिला जनता इन्टर कालेन मे व्याख्याता पद पर 10 वर्ष सँ कार्यरत, संगे 15 साल सं अप्पन एकटा एन0जी0ओ0 क सेहो संचालन।
1. ई जीवन 2.‘‘ अप्पन भाषा ’’
1. ई जीवन
भेल व्यर्थ ई जीवन ले के जन्म जगत मे ।
नहिं केलहु किछु काज व्यथा ई रहल ह्रदय मे ।
बीतल बचपन उड़ल संग तितली के धेने।
कखनो मस्त मलंग खेल मे जोर लगेने।
आवि गेल चुप चाप उतरि के यौवन कहिया।
चैंक उठल मन भेल भविष्यक आहट जहिया।
लगा लेलहुं संपूर्ण जोर ताकत छल जतवा ।
अछि की कम संघर्ष करब परिवारक सेवा ।
अन्न, वस्त्र, भोजन के करिते उचित व्यवस्था ।
बीत गेल जीवन के सबटा नीक अवस्था ।
छै कर्मक ई खेल भाग्य के कोना मेटेबै ।
भाग्य प्रवल छै कहि के ककरा केना बुझेबै ।
किछु जीवन के दोष देवता छथि किछु दोषी।
करिते रहलहुं कर्म सतत् किछु कम आ बेसी।
भेटल किछु सम्मान, मान लय के अछि भूखल ।
होई छै एखनो सुनू, अर्थ सँ सबटा प्रतिफल ।
कहाँ शक्ति छनि सरोस्वती के असगर अपना।
सबसँ उपर ठाढ़ लक्ष्मी सबके सपना ।
जिनका जतवा अर्थ पैघ छथि जग मे नामी।
बिना अर्थ सब व्यर्थ, दुखक जीवन अनुगामी।
आब सोचि की करब उम्र उतरल अगुता के।
वाणप्रस्थ मे जायब किछु संताप उठा के।
हम रहलहुं अभिलाषी भव मे मोक्ष मार्ग के।
चलिते रहलहुं हम धिसियाक पथ सुमार्ग के।
की भेटल अभिमान करब जकरा ले के हम।
पेट पोसि के मात्र बीतेलहुं ई जीवन हम।
2.‘‘ अप्पन भाषा ’’
बनल मंच पर शब्द जोड़ि क’
जगा रहल छी झूठक आशा।
बिसरि मैथिली मृदुल कंठ सँ
चिकड़ि रहल छी आनक भाषा।
करब याद माईक कोरा मे
निकलल शब्द पहिल जे मुख सँ।
कतेक सुकोमल,मिठगर,रसगर,
ई भाषा अछि बाजू सुख सँ।
छी मैथिल संतान कथी लय
बाजि मैथिली शर्म करै छी ।
छोड़ि पियरगर शब्द अपन ई
अंग्रेजी के ओट धरै छी।
नहिं जीवन के नव प्रवाह मे
अछि भाषा कखनो अवरोधक।
नहिं बाजै छी तैं अछि लज्या
बना लेने छी दृष्टि अबोधक।
बाजब हम सब अप्पन भाषा
लिअ’ आई संकल्प हृद्य सँ।
पसरल जायत अपने दिन. दिन
भ’ जायत समृद्ध अभय सँ।
पनभरनी -ज्योति झा चौधरी
पनभरनी आयल भोरहरबामे
छल कनकनी सऽ भरल बसात
केवाड़क खटखटीसऽ नींद खुजल
मेघक आवरणमे प्रकाशहीन प्रात
बरतन बासन रखलक बाहर
भन्सा घरके निपलाक पश्चात
डोल सबके लटकेने विदा भेल
पानि भरै लेल इनारक कात
पानि उपछैत नहिं अघायल
काज लग सोहेलै नहिं कोनो बात
रोजी रोटीक प्रयोजन छल
फुर्ती सऽ जाड़के धांगैत लात
आवश्यकता उर्जा श्रम आभूषण
अपर्याप्तउ वस्त्र सहैत ऋतुक आघात
मृदुलता आऽ कोमलताक प्रतीक स्त्री
कर्त्तव्यपथ पर देलक प्रकृति के मात
पंकज पराशर,
डॉ पंकज पराशरश्री डॉ. पंकज पराशर (१९७६- )। मोहनपुर, बलवाहाट चपराँव कोठी, सहरसा। प्रारम्भिक शिक्षासँ स्नातक धरि गाम आऽ सहरसामे। फेर पटना विश्वविद्यालयसँ एम.ए. हिन्दीमे प्रथम श्रेणीमे प्रथम स्थान। जे.एन.यू.,दिल्लीसँ एम.फिल.। जामिया मिलिया इस्लामियासँ टी.वी.पत्रकारितामे स्नातकोत्तर डिप्लोमा। मैथिली आऽ हिन्दीक प्रतिष्ठित पत्रिका सभमे कविता, समीक्षा आऽ आलोचनात्मक निबंध प्रकाशित। अंग्रेजीसँ हिन्दीमे क्लॉद लेवी स्ट्रॉस, एबहार्ड फिशर, हकु शाह आ ब्रूस चैटविन आदिक शोध निबन्धक अनुवाद। ’गोवध और अंग्रेज’ नामसँ एकटा स्वतंत्र पोथीक अंग्रेजीसँ अनुवाद। जनसत्तामे ’दुनिया मेरे आगे’ स्तंभमे लेखन। रघुवीर सहायक साहित्यपर जे.एन.यू.सँ पी.एच.डी.।
सत्तनजीब
एहि अकादारुण कंक्रीटक बोनमे बौआइत तकैत छी एकटा कोर
एकटा स्नेहिल गाछ सन चतरल तरहत्थ
जतय बिसरि सकी जा कए भविष्यहीन समय केर सबटा संताप
एकटा अदद चाकरीकेँ सुरक्षित बचौनेँ रहबाक लेल
अव्यक्त आक्रोशकेँ चाँपैत-चाँपैत रक्तक भयंकर चापसँ चापित
एहि नव साम्राज्यवादी लोकतांत्रिक अभिशापित एक नागरिक
कथी लेल जीबैत छी
ककरा लेल जीबैत छी
जीबि कए की करैत छी?
डॉक्टरक बताओल पथ्य आ दवाइक सोंगरपर टिकल
एहि जीवनक कोन उपयोगिता, कोन सार्थकता
मैञा, किएक उकासियो लेल कहैत छलेँ सत्तनजीब
हमरा सन-सन सहस्रो लोकक मोनमे निरन्तर बढ़ल जाइत व्यर्थता-बोध
एक अदद चाकरीक लेल जीबैत लोकक मोनमे अपने प्रति घृणा आ विरोध
जे लोकनि अपस्याँत छथि जीवनोत्सवक समारोहमे
लहालोट छथि रागात्मक काव्यक उत्पादनमे
हुनकर आँखिक रेटिनापर खचित नहि भऽ सकैत छनि
आयकरदाताक सूचीसँ बाहर विशाल जनसमूह केर पिरौंछ मुंह
एहि समय केर विभिन्न तंत्र सबसँ बारंबार पुछैत अछि लोक
भिन्न-भिन्न परिभाषाक कोन व्याख्यामे निपत्ता भऽ जाइत अछि
हमर मैञाक सत्तनजीब
हमर पिताक देल दीर्घायु हेबाक आशीष?
लोक पुछैत अछि भिन्न-भिन्न तंत्र केर व्याख्याकार सबसँ ई प्रश्न
आ मारल जाइत अछि अचक्के राष्ट्रद्रोहक नामपर
जे किछु नहि पुछैत अछि
किछु नहि बजैत अछि
ओ एक अदद चाकरीक रक्षामे तिल-तिल कए मरैत
मृत्युक आवाहन करैत अछि।
मिथिलाक लेल एक ओलम्पिक मेडल- बी.के कर्ण
मुऱझाऽल अछि अपन व्यक्तित्व पर
सेनहता लगले रहल अपन काबिलियत पर
सफल खिलाड़ीक क्षेत्रक शान आ मान देखि कऽए
मोन होइया हमरो क्षेत्रक शान आ मान पर
भेटल रहिताऽ एकोटा मेडल मिथिलाक लेल
ढुढि रहल छी मिथिलाक लेल एक ओलम्पिक मेडल
अथक प्रयास करबे करब ककरा जकां
क्रिकेटमे गावस्कर आ तेंदुलकऱ
शतरंजमे आनन्द विश्वनाथन जकां
शुटिंगमे अभिनव बिन्द्रा आ टेनिसमे सानिया मिर्जा जकां
कते कहु ककरा ककरा जका़ चाहि एकटा मेडल
ढुढि रहल छी मिथिलाक लेल एक ओलम्पिक मेडल
के नैऽ जनैऽयैऽ मिथिलामे बाढि अभिशाप बनलयैऽ
माहिर भेल नेना भुटका सभ खुब हेलैयऽ
बाढिक वरदान तखने बुझब जखनैऽ
अगला ओलम्पिकमे मेडलिस्ट स्वीमर फेल्पस पर
कड़त प्रहार बाढि प्रताड़ित एक मैथिल
ढुढि रहल छी मिथिलाक लेल एक ओलम्पिक मेडल
बिहारक प्रहार मिथिला पर हिन्दीक प्रहार मैथिली पऱ
ताहु स पैघ मैथिलक प्रहार मैथिली पर
बिहार आ हिन्दी सॅं लगाव कोनो कम नहि
पर मिथिला वा मैथिलीक उपेक्षा अगज सॅं मगज तक
प्रहारो झेलब उपेक्षित रहब जखन क्यो मैथिल़
जीत कयऽ लयताह मिथिलाक लेल़ एक ओलम्पिक मेडल
कोशीक देल कष्टसॅं की की नैऽ गवेलहुँ
राहत काेष सॅं आहत भए अथाह टुअरक नाम कमेलहुँ
इतिहासमे बिलाऽल मिथिला महिमाके़
पुनरनिर्वाणक क्रान्ति सुनगि रहल
कहिया हैऽत से नहि जानि पर एकटा भरोसा अछि बनल
मैथिल जनसॅं मिथिलाक लेल एक ओलम्पिक मेडल
भरोसा दऽय रहल नवतुरिया मैथिल सब कहि रहल अछि
अथक प्रयास करबे करब मिथिलाक लेल एक ओलम्पिक मेडल लेबे करब़
कला आ संगीत शिक्षा
हृदय नारायण झा, आकाशवाणीक बी हाइग्रेड कलाकार। परम्परागत योगक शिक्षा प्राप्त।
मिथिलाक लुप्तप्राय गीत
गर्भ सॅ छठिहार धरि
सोहर आ खेलउना पर आधारित संस्कार गीतक बानगी
मिथिलाक गौरवमयी श्रेष्ठ संस्कृति एवं परम्परा केॅ सुरक्षित रखबाक श्रेय मैथिली लोकगीत कें अछि।
परम्पराक सूत्रधार पूर्वजलोकनि मैथिल समाजक जन सामान्य कें अपन मूल संस्कृति ओ परंपराक प्रति उदार बनाबए लेल तदनुकूल लोकगीतक परंपरा विकसित कएलनि । कालान्तर में अनेकों विद्वान गीतकार ने अपन कृति मे मैथिली लोकगीतक भण्डार के अत्यन्त समृ( बनओलनि । देश ,काल और परिस्थिति में परिवर्तनक संग संग लोकगीतक रचना में सेहो विविधता आएल । मुदा आदर्श आचार पर आधारित लोकगीतक परंपरा लोककण्ठ में स्थान पबइत रहल जे आइयो मिथिलाक आचार आदर्श सॅ परिचय करबइत अछि ।
सर्वविदित अछि जेे लोकगीतों में कृत्रिमतानहि होइत अछि । समाज मे प्रचलित सामान्य बेवहारक अभिव्यक्ति होइत अछि । मैथिली लोकगीतक अवलोकन सॅ मिथिलाक सभ्यता ,संस्कृति , रीति रिवाज ,पर्वत्योहार ,कला ,साहित्य सामाजिक उन्नति आ मानवीय आकांक्षाक यथार्थ रूप आइयो अनुभव करबा योग्य अछि । मिथिला में जन्म सॅ लऽ कऽ विवाह धरि सब बिध बेवहार गीतक संग सम्पन्न होइत अछि ।
बारहो मास मे प्रचलित पर्व त्योहार व्रत पूजन आदि परंपराक लेल अलग अलग गीत अछि । )तुक अनुसार मैथिली लोकगीतक अपन विशेषता रहल अछि मिथिला में । विवाह ओ उपनयन आदि संस्कारक गीत में खास प्रकार के रागक प्रयोग भेल अछि जे अन्य़त्र नहि देखल जाइछ । धर्म प्रधान क्षेत्र हेबाक कारणें मिथिला में प्रातः जागरण सेहो
पराती लोकगीत सॅ होइत रहल अछि । जहॉ तक मैथिली लोकगीतक प्रकारक प्रश्न अछि अनेकों प्रकारक लोकगीत आइयो लोककंठ में रचल बसलन अछि। पुत्रकामना ,जन्म सॅ संबंधित सामान्य व्यवहार एवं लोकाचारक सहज अभिव्यक्ति सोहर , खेलउना , छठिहार , पीपर पिलाई , आॅख अॅजाई , बधैया , आदि नाम सॅ प्रचलित लोकगीत सभ मे अछि । एहि मे लौकिक एवं भक्ति प्रधान विषय पर आधारित गीतक समावेश अछि । एक भक्त हृदय स्त्रीक पुत्रकामना व्यक्त करइत सोहर अछि -
पॉच गाछ रोपल आप पॉचे गाछे इमली रे । ललना तइयो ने सोभय बगीचबा एकहि चनन बिनु रे ।।
नहिरा में छथि पॉच भइया आओर पॉच भातिज रे । ललना तइयो ने भावए नइहरबा एकहि अमा बिनु रे ।।
ससुरा में छथि पॉच जाउत आओर पॉच जइधी रे । ललना एक नहि भाबए सासुरबा अपन होरिला बिनु रे ।।
गंगा पइसी नहइतहुॅ हरिवंश सुनितहुॅ रे । ललना सूति उठि लगितहुॅ गोर कि दैव सहाय हएत रे ।।
ललना एकहि पुत्र दैव दीतथि जिउरा जुड़बितहुॅ रे ।।
बच्चा जन्मक समय प्रसव पीड़ा सॅ विह्वल स्त्रीक मनोदशाक वर्णन सेहो स्वाभाविक लगइत अछि । एहि प्रसंगक सोहर अछि है इस प्रसंग के सोहर गीत में । प्रसव पीड़ाक वेदना मे स्त्री अपन सासु ,जेठानी आ ननदियो कें स्वार्थी आ कठोर बूझऽ लगैत अछि आओर पुत्र प्राप्तिक बाद सभ कष्ट कंे बिसरि जाइत अछि । पुत्र जन्मक खुशी मे ओकरा सभक बेवहार नीक लगइत अछि । एहि भाव कें व्यक्त करइत सोहर अछि -
अपन माए मोरा रहितइ , मुुंहवां निहारितइ ,दरद बॉटि लीतइ हो ।
ललना पिया जी के माए निरमोहिया होरिला होरिला करइ हो ।।
अपन भाउज मोरा रहितथि डॉड़ लागि बइसतथि हो ।
ललना पिया जी के भाउज निरमोहिया भानस भानस करइ हो ।।
आधा राति बीतल पहर राति आरो भिनसर राति हो ।
ललना होइते भिनसर पह फाटल होरिला जनम लेल रे ।।
ललना पुत्र फल पाओल से देखि सब दुःख बिसरल रे ।।
मिथिला मे जन्मक प्रथम उत्सव छठिहार होइत अछि । एहि उत्सव मे ननदि आ भाउजक बीच हास परिहासक जे स्वाभाविक रूप मिथिला मे अछि तकर अभिव्यक्ति खेलउना और बधइया गीत मे अछि । ननदि आ भाउजक बीच मधुर संबंध कें व्यक्त करइत एक खेलउना मे छठिहारक अवसर पर ननदि कंे बजाबऽ लेल पति सॅ आग्रह करइत भावव्यक्त होइत अछि -
पिया तोर गोर लागूॅ ननदी मॅगा दे ।
जब रे ननदिया नगर बीच आएल । पूरी मिठाई बड्र्र्र्ऱा मीठ लागे ।। पिया तोर गोर लागूॅ
जब रे ननदिया दुअरे बीच आएल । बिछिया बाजे बड़ा मीठ लागे ।। पिया तोर गोर लागूॅ
जब रे ननदिया आॅगन बीच आएल । ननदी के बोली बड़ा मीठ लागे ।। पिया तोर गोर लागूॅ
जब रे ननदिया सोइरी बीच आएल । बेसरि मॉगे बड़ा तीत लागे ।। पिया तोर गोर लागूॅ ननदी मॅगा दे ।।
आओर भाउज आ ननदिक बीच हास परिहास एहनो होइत अछि जाहि मे ननदि इनामक मांग करइत अछि आ भाउज ओहि मांग के अपना तर्क सॅ टारबाक कोशिश करइत अछि ।
ननदि- सब गहना में नथिया बड़ा महराजा हो राज ।।
भाउज- नथिया ने लेइ ननदिया हो महराजा हो राज ।।
;ननदि बच्चा कंे उठाकऽ चलि दैत अछि । तखन भाउज कहइत अछि द्ध
लय गेलइ बबुआ उठाय हो महराजा हो राज ।
दए जाहु ननदी बउआ हमार महराजा हो राज ।।
लए जाहु भइया उठाय हो महाराजा हो राज ।
ननदि- हम लेबइ भइया के राज हो महाराजा हो राज ।।
भाउज- जौं तोहें लेब ननदी भइया के राज महाराजा हो राज ।
की लेतइ बउआ हमार हो महाराजा हो राज ।।
भाउजक तर्कक समक्ष ननदि हारि जाइत अछि तखन ननदि बधैया गबइत अधिकार पूर्वक भाउज सॅ कहैत अछि -
बधइया हम लेबउ भउजी हे ।।
अॅउठी आ मुनरी हम नहि लेबइ। जड़ाउदार कंगना भउजी हे ।। बधइया
बाली आ कनफूल हम नहि लेबइ । मीनादार नथिया भउजी हे ।। बधइया
बाजू बिजउठा हम नहि लेबइ । घॅुघरूदार पायल भउजी हे ।। बधइया
रेसम के सरिया हम नहि लेबइ । लहरदार चुनरी भउजी हे ।। बधइया हम लेबइ भउजी हे ।।
मुदा आब एहि सब तरहक गीतक परंपरा लुप्त प्राय अछि तें इ गीत सभ सेहो लुप्त भऽ रहल अछि । एहि सभ गीतक परंपरा लुप्त भेला सॅ लौकिक परंपरागत संबंधक मधुरता कोन रूप मे प्रभावित भऽ रहल अछि विचारणीय अछि संगहि इहो विचारणीय अछि जे ओहि आदर्श कें बचाबऽ के विकल्प कोना खोजल जाय ।
विदेह
मैथिली साहित्य आन्दोलन
(c)२००८-०९. सर्वाधिकार लेखकाधीन आ’ जतय लेखकक नाम नहि अछि ततय संपादकाधीन। विदेह (पाक्षिक) संपादक- गजेन्द्र ठाकुर। एतय प्रकाशित रचना सभक कॉपीराइट लेखक लोकनिक लगमे रहतन्हि, मात्र एकर प्रथम प्रकाशनक/ आर्काइवक/ अंग्रेजी-संस्कृत अनुवादक ई-प्रकाशन/ आर्काइवक अधिकार एहि ई पत्रिकाकेँ छैक। रचनाकार अपन मौलिक आऽ अप्रकाशित रचना (जकर मौलिकताक संपूर्ण उत्तरदायित्व लेखक गणक मध्य छन्हि) ggajendra@yahoo.co.in आकि ggajendra@videha.com केँ मेल अटैचमेण्टक रूपमेँ .doc, .docx, .rtf वा .txt फॉर्मेटमे पठा सकैत छथि। रचनाक संग रचनाकार अपन संक्षिप्त परिचय आ’ अपन स्कैन कएल गेल फोटो पठेताह, से आशा करैत छी। रचनाक अंतमे टाइप रहय, जे ई रचना मौलिक अछि, आऽ पहिल प्रकाशनक हेतु विदेह (पाक्षिक) ई पत्रिकाकेँ देल जा रहल अछि। मेल प्राप्त होयबाक बाद यथासंभव शीघ्र ( सात दिनक भीतर) एकर प्रकाशनक अंकक सूचना देल जायत। एहि ई पत्रिकाकेँ श्रीमति लक्ष्मी ठाकुर द्वारा मासक 1 आ’ 15 तिथिकेँ ई प्रकाशित कएल जाइत अछि।(c) 2008 सर्वाधिकार सुरक्षित। विदेहमे प्रकाशित सभटा रचना आ' आर्काइवक सर्वाधिकार रचनाकार आ' संग्रहकर्त्ताक लगमे छन्हि। रचनाक अनुवाद आ' पुनः प्रकाशन किंवा आर्काइवक उपयोगक अधिकार किनबाक हेतु ggajendra@videha.co.in पर संपर्क करू। एहि साइटकेँ प्रीति झा ठाकुर, मधूलिका चौधरी आ' रश्मि प्रिया द्वारा डिजाइन कएल गेल। सिद्धिरस्तु
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खंजनि चलली बगढड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरली अपन वस्तुलक परित्याकग क’ आनक अनुकरण कयलापर अपनो व्यिवहार बिसरि गेलापर व्यंपग्यय। खइनी अछि दुइ मो...
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