श्री आद्याचरण झा (१९२०- )।
मंगरौनी। संस्कृतक महान विद्वान। मैथिलीमे मिहिर, बटुक, वैदेहीमे रचना प्रकाशित।
दरभंगा संस्कृत वि.वि. केर प्रतिकुलपति। राष्ट्रपतिसँ सम्मान प्राप्त।
भगवत्याः सीतायाः संरक्षकोजनकः- “विदेह”- एकं महनीयं विवरणम्
१. मिथिला राजधान्यां जनकपुरे एकदा महर्षिः अष्टावक्रः समायातः। तेषां वकू शरीरं दृष्ट्वा तत्र समुपस्थिताः जनाः हसितवन्तः। तं दृष्ट्वा महर्षिः उक्तवान्- अत्रत्याः जनाः केवलं व्आह्य रूपं शरीरं पश्यन्ति।आत्मानं न जानन्ति। एतेषां नागारिकाणां भवान् कथं “विदेहः” इति ज्ञातुं न शक्नोति।
२. महाराजः जनकः उक्तवान्- यथार्थता इयं नास्ति। केवलं वक्र शरीरम् अवलोक्य विद्वांसः हसितवन्तः, किन्तु सर्वे महान्तः ज्ञानिनः सन्ति।
३. ”विदेह” उक्तवान्- भवन्तां मस्तके जटायां एकस्मिन् पात्रे जलं प्रपूर्य स्थापयामि। भवता सह एकः मनीषी गच्छति। भवन्तः सम्पूर्णं राजभवनं भ्रमन्तु (पश्यन्तु)। किन्तु पात्रस्थं जलं यदि एकं विन्दुं यत्र पतिष्यति ततः एव परावर्तयिष्यति स विद्वान्।
४. महर्षिः अष्टावक्रः समग्रं राजप्रासादं पश्यन्-भ्रमन् परावर्तितः। महाराजेन जनकेन पृष्टम्। किं राजभवनं दृष्टवन्तः भवन्तः? महर्षिणा कथितम्- ’राजभवनं न भ्रमितं, किन्तु मम ध्यानं जलविन्दु पतने आसीत्, न किमपि दृष्टम्।
५. विदेहः जनकः कथितवान्- ’भवन्तः जिज्ञासायाः समाधानं तु जातम्। भवन्तः समग्रं राजभवनं भ्रमन्तः न किमपि दृष्टवन्तः। तर्थेवाहं सर्वाणि कार्याणि कुर्वन् न तत्र मनसा- आत्मना च संलग्नः अस्मि।
महर्षिः समायाचनां कृत्वा परावर्तितवान्। उपर्युक्त घटनाचक्रं प्रमाणयति यत् मनः एव सर्वं करोमि। ’मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः”- श्रीमदभगवद्गीता..”
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