भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Friday, May 08, 2009

नागेन्द्र झा

नागेन्द्र झा

नवरत्न हाता, पूर्णियाँ

स्व. पञ्जीकार मोदानन्द झासँ सुनल परुए महेन्द्रो मूलक पूर्णियाँ जिलाक शिवनगर ग्रामवासी छलाह। ई पञ्जी प्रबन्धक नीक ज्ञाता छलाह। महाराज दरभङ्गाक चलाओल धौत परीक्षोत्तीर्ण छलाह।


ई लेख पञ्जीकारक विषयक थिक। अतः पञ्जी शब्दक अर्थ की से बूझब आवश्यक। पञ्ज शब्द आएल अछि संस्कृतमे तथा भाषोमे पञ्च शब्दक प्रयोग ५ संख्याक अर्थमे भेटैछ। तैं पञ्ज शब्द ५ संख्यासँ सम्बद्ध अछि। भाषामे हाथक पाँचो आङ्गुर तथा ताशक ५ कैं पञ्जा कहल जाइछ।

पञ्जीमे ५ संख्याक कि प्रयोजन? उत्तर- हमरा लोकनि अर्थात् मैथिल ब्राह्मण “पञ्चदेवोपासक” छी। कोनो तरहक शुभ कार्यमे पूजा पञ्चदेवतैक पूजासँ आरम्भ होइछ। तहिना धर्मशास्त्रक अनुसारे कहल गेल अछि जे “मातृतः पञ्चमीं त्यक्त्वा पितृतः सप्तमीं भजेत्”। अर्थात् प्रकृति (माय)सँ पाँचम स्थान स्थिति कन्याक सङ्ग विवाह नहि करी। ई निषेध कयल गेल।

विवाह सृष्टि प्रयोजनार्थे होइछ आ सृष्टिमे प्रकृतिक प्रयोजन तैं मायसँ पाँचम स्थान स्थित कन्यासँ विवाह निषिद्ध भेल तथा एहि निषेधक कारणसँ सम्भव थिक जे एकर नाम “पञ्जी” राखल गेल हो अथवा कन्यादानमे वरक दू पक्ष, कन्याक दू पक्षक अर्थात् दुनू मिलाकेँ चारि पक्षक निःश्शेष व्याख्या जाहि पुस्तकमे लिखल जाय आओर पञ्जीकार ओकरा स्वीकार करथि अर्थात् हस्ताक्षर करथि ओऽ भेल पञ्जी।

संस्कृतमे पञ्जी (पञ्जिका) शब्दक अर्थ थिक जे पूर्णतः पदक व्याख्या जाहिमे लिखल गेल हो। अर्थात् ओऽ रजिस्टरो भऽ सकैछ, पुस्तकोक रूपमे भऽ सकैछ, हैन्डनोटोक रूपमे भऽ सकैछ। सरकारी रजिस्ट्री ऑफिसमे रजिस्टर रहैछ। हाटपर मवेशीक बिक्री भेलापर विक्रीनामा लिखल जाइछ। एकर निदान “याज्ञवल्क्य” साक्ष्य प्रकरणमे स्पष्ट कयने छथि जे बेचनिहार, खरीददार आ साक्षी सभक पूर्ण पता रहै जैसँ भविष्यमे कोनो तरहक विवाद नहि उठै।

ई अभिलेख (रेकर्ड) वस्तु विक्रयोमे तथा दानमे सेहो राखल जाय। ई तँ कन्यादान प्रकरणमे वर-कन्या दुनूक वंशक पूर्ण सपिण्डक अभिलेख जाहिमे लिखल जाय से भेल पञ्जी आ ओहि पञ्जीमे जे वर-कन्या सपिण्डक अभ्यनाट नहि छथि से लिखनिहार पञ्जीकार कहवैत छथि।

एहि स्थितिमे ईहो ज्ञात होबक चाही जे पञ्जी प्रथा कहियासँ चलल, कियैक चलल?

ई प्रथा हरिसिंह देवक समयसँ प्रचलित भेल अछि। कियैक आरम्भ भेल से कथा स्व. पञ्जीकारे मुहसँ सुनल अछि, जे निम्न थिक।

पञ्जी प्रबन्धक आरम्भक बीज- एक ब्राह्मणी रहथि। ओऽ जाहि गाममे रहथि ओऽ ब्राह्मण बहुल गाम छल। लोक कि पुरुष वा कि स्त्री बिनु पूजा-पाठ केने भोजन नहि करथि। ओहि गामक एक पोखरिपर एक शिवमन्दिर छल। उक्त ब्राह्मणीक नियम छल जे जाऽ धरि उक्त शिव-मन्दिरक महादेवक पूजा नहि करी ताऽ धरि जलग्रहण नहि करी। ई शिव पूजार्थ मन्दिर गेली ओहि समय एक चाण्डाल सेहो पूजार्थ गेल रहए। हिनका देखि हिनकासँ दुराचरणक आग्रह कएलक। ई परम पतिव्रता छलीह। ओकरा दुत्कारैत कहलनि जे ई मन्दिर थिकैक तू केहेन पापी छैं, जो भाग नहि तँ तोहर भला नहि हेतौ। ई कहिते छलीह की शिवलिङ्गसँ एक सर्प फुफकार करैत अवैत ई चाण्डाल भागल।

संयोगवश बाहरसँ एक ब्राह्मणी, ओहि दुनूक वार्तालाप सुनिते छलीह। गामपर आवि मिथ्या प्रचार ओहि चाण्डालक संग कऽ देलनि। गामक लोक हिनका बजाय कहलनि जे अहाँकँ प्रायश्चित करए पड़त। एहि लेल कि अहाँ चण्डालक सङ्गम कएल। ई कहि उठलीह जे के ई कहलक, हमरा तँ ओकरासँ स्पर्शो नहि भेल अछि। मुदा लोककेँ विश्वास नहि भेल। प्रायश्चित लिखल गेल (यदीयं चाण्डालगामिनी तदा अग्निस्तापं करोतु) ई लिखि हुनक दहिन हाथपर एक पिपरक पात राखि आ तैपर लह-लहानि आगि राखल गेल। ई पाकि गेलीह। तखन हिनका ग्राम निष्कासनक दण्ड देल गेल। कनैत-खिजैत लखिमा ठकुराइन नामक पण्डिताकेँ सब बात कहलनि। श्रीमती ठकुराइन प्रायश्चित्त लिखनिहार पण्डितकेँ बजाय कहल जे प्रायश्चित्त गलत लिखल गेल। हम प्रायश्चित्त लिखब। तखन ठकुराइन लिखल जे “यदीयं पतिभिन्न चाण्डाल गामिनी तदा अग्निस्तापं करोतु”। ई वाक्य पूर्ववत् दहिन हाथक पिपरक पातपर राखल गेल तँ ई नहि पकलीह। तखन ई वार्ता महाराज हरिसिंहदेवक ओतय गेल।

तखन उक्त महाराज पण्डित मण्डलीकँ आमन्त्रित कऽ पुछलनि जे उक्त स्त्रीक पति चण्डाल कोना? तखन विद्वतमण्डली उक्त स्त्रीक पतिक विवाहक शास्त्रानुकूल विचारि देखलनि तँ हुनक विवाह अनधिकृत कन्यासँ भेल तैँ हिनकर पति चण्डाल भेलाह। एकर बाद महाराजक आदेशसँ मैथिल ब्राह्मण लोकनिक विवाह पञ्जी बनल।

मैथिल ब्राह्मणमे १६ गोत्रक ब्राह्मण छथि। एकर बाद गाँव-गाँवमे उक्त गोत्रान्तर्गत जे जे लोक छलाह तनिका-तनिका गामक नाम देल गेल एवं मूल कहौलक। पञ्जी मूलक अनुसार बनल, गोत्रक अनुसार नहि। एक गोत्रमे अनेक मूल अछि। गोत्रक नामपर पञ्जी बनैत तँ गामक पता नहि लगैत।

हमर मतसँ पञ्जी-प्रबंध धर्मशास्त्रक अंग थिक। तैं एकर लिखनिहार, अभिलेख (रेकर्ड) रखनिहार एवं एक पढ़निहार व्यक्ति पञ्जीकार (रजिस्ट्रार वा धर्मशास्त्री) थिकाह। कलियुगानुकूल पूर्व समय जेकाँ पञ्जीकारक परामर्श बिनु लेनहुँ विवाहक निर्णय कऽ कन्यादान कऽ लैत छथि जे परम अनुचित थिक।

जे पञ्जीकार हमरा लोकनिक लोकान्तर प्राप्त पूर्व पुरुषक अभिलेख (रेकर्ड) राखि आ वैह विद्या पढ़ि अपन जीवनयापन करैत छथि हुनक आर्थिक स्रोत एक मात्र ईएह जे हमरा लोकनिक सन्तान (वर वा कन्याक) जखन समय आओत तखन हुनक परामर्श शुल्क दऽ ग्रहण करी। से वर्षमे कतेक होइछ। यदि ईएह रास्ता रहत तँ ई विद्या लुप्त भऽ जायत।

एहि पञ्जीक मूल्य सरकारोक न्यायालयमे कम नहि छैक जेकर निम्नांकित एक उदाहरण देखू-

उदाहरण- एक राजपरिवार वंशविहीन भऽ लुप्त भऽ गेल। हुनक सब सम्पत्तिमे सँ किछु सम्पत्ति महाराज दरभंगाकेँ भेल आ किछु सम्पत्ति बनैलीक राजामृत राजपरिवारक उत्तराधिकारीसँ कीनि लेल।

एकर बाद महाराज दरभंगा न्यायालय जाय बनैली राज्यपर ई कहि जे ओऽ (वनैली राज्य) अनधिकृत किनने छथि। मोकदमा बहुतो दिन चलल। दुनू पक्षसँ दिग्गज वकील लोकनि छलाह। उत्तराधिकारक हेतु दुनू पक्षकँ ई पञ्जी-प्रबन्ध मान्य भेल। जाहिमे बनैली राज्यक पञ्जीकारक रूपमे उक्त पञ्जीकार जनिक विषयमे ई लेख लिखल जाऽ रहल अछि, हिनक पूज्य स्व.पिता तथा ई, दुनू गोटें मोकदमाक बहसक लेल नियुक्त भऽ पञ्जी-प्रबन्ध पुस्तकक अभिलेख न्यायालयक जजकेँ देखओलनि। एकर बाद बनैली राज्य “डिग्री” पओलक त्तथा ई दुनू पिता-पुत्रक मान्य सम्मान कयलक।

एहिसँ सिद्ध भेल जे उक्त पञ्जीकारक पञ्जी सुरक्षित रहि पञ्जीकारक योग्यतोकेँ सिद्ध कएलक।

हिनक निर्लोभताक वर्णन सेहो देखू:-

एक राजदरबारमे कन्यादान उपस्थित छल। ताहिमे परामर्श (सिद्धान्त)क हेतु अनेक पञ्जीकार बजाओल गेल रहथि ताहिमे ईहो रहथि। राजदरबारक बात रहैक। राजाकँ अपन कन्याक हेतु ई वर पसिन्द रहथिन। ई पञ्जीकार अन्य पञ्जीकारसँ वार्तालापमे कहलथिन जे औ पञ्जीकारजी! ऐ वरक अधिकार तँ नहि होइत छैक। ओऽ उत्तर देलथिन जे अहाँ बताह भेलहुँ हेँ। राजाक बात थिकैक। राजाकेँ काज पसिन्द छनि। एहिमे अरङ्गा नहि लगबियौक। नीक पारश्रमिक भेटत। ई मोने-मोन विचारलन्हि जे ऐ पापक भागी (रुपैय्याक लोभमे पड़ि) हम कियैक होउ। किछु कालक बाद बाह्यभूमि (पैखाना) जेबाक बहाना बनाय ओतयसँ भागि अयलाह।

हिनक नैष्ठिकता सेहो तेहने छल। सब दिन स्नानोत्तर सन्ध्या, तर्पण, गायत्री जप, शालिग्रामक पूजा बिनु कएने विष्णु भगवानक चरणोदक तथा तुलसीपात बिनु खएने! अन्न-जल नहि करैत छलाह।

एकर अतिरिक्त कार्तिक मास जखन अबैक तखन भरि मास धात्रीयैक गाछतर हविष्यान्न भोजन करथि। ऐ सँ हुनक पूर्ण नैष्ठिकताक पता चलैत अछि।



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