भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

(c)२०००-२०२३. सर्वाधिकार लेखकाधीन आ जतऽ लेखकक नाम नै अछि ततऽ संपादकाधीन। विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA सम्पादक: गजेन्द्र ठाकुर। Editor: Gajendra Thakur

रचनाकार अपन मौलिक आ अप्रकाशित रचना (जकर मौलिकताक संपूर्ण उत्तरदायित्व लेखक गणक मध्य छन्हि) editorial.staff.videha@gmail.com केँ मेल अटैचमेण्टक रूपमेँ .doc, .docx, .rtf वा .txt फॉर्मेटमे पठा सकै छथि। एतऽ प्रकाशित रचना सभक कॉपीराइट लेखक/संग्रहकर्त्ता लोकनिक लगमे रहतन्हि। सम्पादक 'विदेह' प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका ऐ ई-पत्रिकामे ई-प्रकाशित/ प्रथम प्रकाशित रचनाक प्रिंट-वेब आर्काइवक/ आर्काइवक अनुवादक आ मूल आ अनूदित आर्काइवक ई-प्रकाशन/ प्रिंट-प्रकाशनक अधिकार रखैत छथि। (The Editor, Videha holds the right for print-web archive/ right to translate those archives and/ or e-publish/ print-publish the original/ translated archive).

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(c) २००-२०२ सर्वाधिकार सुरक्षित। विदेहमे प्रकाशित सभटा रचना आ आर्काइवक सर्वाधिकार रचनाकार आ संग्रहकर्त्ताक लगमे छन्हि।  भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल http://www.geocities.com/.../bhalsarik_gachh.htmlhttp://www.geocities.com/ggajendra  आदि लिंकपर  आ अखनो ५ जुलाइ २००४ क पोस्ट http://gajendrathakur.blogspot.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html  (किछु दिन लेल http://videha.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html  लिंकपर, स्रोत wayback machine of https://web.archive.org/web/*/videha  258 capture(s) from 2004 to 2016- http://videha.com/  भालसरिक गाछ-प्रथम मैथिली ब्लॉग / मैथिली ब्लॉगक एग्रीगेटर) केर रूपमे इन्टरनेटपर  मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितक रूपमे विद्यमान अछि। ई मैथिलीक पहिल इंटरनेट पत्रिका थिक जकर नाम बादमे १ जनवरी २००८ सँ "विदेह" पड़लै।इंटरनेटपर मैथिलीक प्रथम उपस्थितिक यात्रा विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,जे http://www.videha.co.in/  पर ई प्रकाशित होइत अछि। आब “भालसरिक गाछ” जालवृत्त 'विदेह' ई-पत्रिकाक प्रवक्ताक संग मैथिली भाषाक जालवृत्तक एग्रीगेटरक रूपमे प्रयुक्त भऽ रहल अछि। विदेह ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA

Sunday, July 19, 2009

प्रस्तावना

प्रस्तावना
देवनागरीक अतिरिक्त्त समस्त उत्तरभारतीय भाषा नेपाल आ दक्षिणमे (तमिलकेँ छोड़ि) सभ भाषा वर्णमालाक रूपमे स्वर आ कचटतप आ य, र ल व, श, स, ह केर वर्णमालाक उपयोग करैत अछि। ग्वाङ केर हेतु संस्कृतमे दोसर वर्ण छैक (छान्दोग्य परम्परामे एकर उच्चारण नहि होइत अछि छथि मुदा वाजसनेयी परम्परामे खूब होइत अछि- जेना छान्दोग्य उच्हारण सभूमि तँ वाजसनेयी उच्चारण सभूमीग्वंङ), ई ह्रस्व दीर्घ दुनू होइत अछि। सिद्धिरस्तु लेल सेहो कमसँ कम छह प्रकारक वर्ण मिथिलाक्षरमे प्रयुक्त होइत अछि। वैदिक संस्कृतमे उदात्त, अनुदात्त आ स्वरित (क्रमशः क॑ क॒ क॓) उपयोग तँ मराठीमे ळ आ अर्द्ध ऱ् केर सेहो प्रयोग होइत अछि। मैथिलीमे ऽ (बिकारी वा अवग्रह) केर प्रयोग संस्कृत जकाँ होइत अछि आ आइ काल्हि एकर बदलामे टाइपक सुविधानुसारे द’ (दऽ केर बदलामे) एहन प्रयोग सेहो होइत अछि मुदा ई प्रयोग ओहि फॉंटमे एकटा तकनीकी न्यूनताक परिचायक अछि। मुदा आकार केर बाद बिकारीक आवश्यकता नहि अछि।
जेना फारसीमे अलिफ बे से आ रोमनमे ए बी सी होइत अछि तहिना मोटा-मोटी सभ भारतीय भाषामे लिपिक भिन्नताक अछैत वर्णमालाक स्वरूप एके रङ अछि।
वर्णमालामे दू प्रकारक वर्ण अछि- स्वर आ व्यंजन। वर्णक संख्या अछि ६४ जाहिमे २२ टा स्वर आ ४२ टा व्यञ्जन अछि।
पहिने स्वरक वर्णन दैत छी- जाहि वर्णक उच्चारणमे दोसर वर्णक उच्चारणक अपेक्षा नहि रहैत अछि, से भेल स्वर।
स्वरक तीन टा भेद अछि- ह्रस्व, दीर्घ आ प्लुत। जाहिमे बाजयमे एक मात्राक समय लागय से भेल ह्रस्व, जाहिमे दू मात्रा समय लागल से भेल दीर्घ आ जाहिमे तीन मात्राक समय लागल से भेल प्लुत।

मूलभूत स्वर अछि- अ इ उ ऋ लृ
पाणिनिसँ पूर्वक आचार्य एकरा समानाक्षर कहैत छलाह।
दीर्घ मिश्र स्वर अछि- ए ऐ ओ औ
पाणिनिसँ पूर्वक आचार्य एकरा सन्ध्यक्षर कहैत छलाह।
लृ दीर्घ नहि होइत अछि आ सन्ध्यक्षर ह्रस्व नहि होइत अछि।
अ इ उ ऋ एहि सभक ह्रस्व, दीर्घ (आ ई ऊ ॠ) आ प्लुत (आ३ ई३ ऊ३ ॠ३) सभ मिला कए १२ वर्ण भेल। लृ केर ह्रस्व आ प्लुत दू भेद अछि (लॄ३) तँ २ टा ई भेल। ए ऐ ओ औ ई चारू दीर्घ मिश्रित स्वर अछि आ एहि चारूक प्लुत रूप सेहो (ए३ ऐ३ ओ३ औ३) होइत अछि, तँ ८ टा ई सेहो भेल। भऽ गेल सभटा मिला कए २२ टा स्वर।

एहि सभटा २२ स्वरक वैदिक रूप तीन तरहक होइत अछि, उदात्त, अनुदात्त आ स्वरित।
ऊँच भाग जेना तालुसँ उत्पन्न अकारादि वर्ण उदात्त गुणक होइत अछि आ तेँ उदात्त कहल जाइत अछि।
नीचाँ भागसँ उत्पन्न स्वर अनुदात्त आ जाहि अकारादि स्वरक प्रथम भागक उच्चारण उदात्त आ दोसर भागक उच्चारण अनुदात्त रूपेँ होइत अछि से भेल स्वरित।
स्वरक दू प्रकार आर अछि, सानुनासिक जेना अँ आ निरनुनासिक जेना अ।
दत्तेन निर्वृत्तः कूपो दात्तः। दत्त नाम्ना पुरुष द्वारा विपाट्- ब्यास धारक उतरबरिया तट पर बनबाओल, एतए इनार भेल दात्त। अञ प्रत्यान्त भेलासँ ’दात्त’ आद्युदात्त भेल, अण् प्रत्यायान्त होइत तँ प्रत्यय स्वरसँ अन्तोदात्त होइत। रूपमे भेद नहि भेलो पर स्वरमे भेद अछि। एहिसँ सिद्ध भेल जे सामान्य कृषक वर्ग सेहो शब्दक सस्वर उच्चारण करैत छलाह।
स्वरितकेँ दोसरो रूपमे बुझि सकैत छी- जेना एहिमे अन्तिम स्वरक तीव्रस्वरमे पुनरुच्चारण होइत अछि।
आब व्यञ्जन पर आऊ।
व्यञ्जन ४२ टा अछि।
क् ख् ग् घ् ङ्
च् छ् ज् झ् ञ्
ट् ठ् ड् ढ् ण्
त् थ् द् ध् न्
प् फ् ब् भ् म्
य् र् ल् व्
श् ष् स्
ह्
य् व् ल् सानुनासिक सेहो होइत अछि, यँ वँ लँ आ निरुनासिक सेहो।
एकर अतिरिक्त्त दू टा आर व्यञ्जन अछि- अनुस्वार आ विसर्जनीय वा विसर्ग।
ई दुनूटा स्वरक अनन्तर प्रयुक्त्त होइत अछि।
विसर्जनीय मूल वर्ण नहि अछि, वरन् स् वा र् केर विकार थीक। विसर्जनीय किछु ध्वनि भेद आ किछु रूपभेदसँ दू प्रकारक अछि- जिह्वामूलीय आ उपध्मानीय। जिह्वामूलीय मात्र क आ ख सँ पूर्व प्रयुक्त्त होइत अछि, दोसर मात्र प आ फ सँ पूर्व।
अनुस्वार, विसर्जनीय, जिह्वामूलीय आ उपध्मानीयकेँ अयोगवाह कहल जाइत अछि।
उपरोक्त्त वर्ण सभकेँ छोड़ि ४ टा आर वर्ण अछि, जकरा यम कहल गेल अछि।
कुँ खुँ गुँ घुँ (यथा- पलिक् क्नी, चख ख्न्नुतः, अग् ग्निः, घ् घ्नन्ति)
पञ्चम वर्ण आगाँ रहला पर पूर्व वर्ण सदृश जे वर्ण बीचमे उच्चारित होइत अछि से यम भेल।
यम सेहो अयोगवाह होइत अछि।
अ आ कवर्ग ह (असंयुक्त्त) आ विसर्जनीय केर उच्चारण कण्ठमे होइत अछि।
इ ई चवर्ग य श केर उच्चारण तालुमे होइत अछि।
ऋ ॠ टवर्ग र ष केर उच्चारण मूर्धामे होइत अछि।
लृ तवर्ग ल स केर उच्चारण दाँतसँ होइत अछि।
उ ऊ पवर्ग आ उपध्मानीय केर उच्चारण ओष्ठसँ होइत अछि।
व केर उच्चारण उपरका दाँतसँ अधर ओष्ठ केर सहायतासँ होइत अछि।
ए ऐ केर उच्चारण कण्ठ आ तालुसँ होइत अछि।
ओ औ केर उच्चारण कण्ठ आ ओष्ठसँ होइत अछि।
य र ल व अन्य व्यञ्जन जेकाँ उच्चारणमे जिह्वाक अग्रादि भाग ताल्वादि स्थानकेँ पूर्णतया स्पर्श नहि करैत अछि। श् ष् स् ह् जकाँ एहिमे तालु आदि स्थानसँ घर्षण सेहो नहि होइत अछि।
क सँ म धरि स्पर्श (वा स्फोटक कारण जिह्वाक अग्र द्वारा वायु प्रवाह रोकि कए छोड़ल जाइत अछि) वर्ण र सँ व अन्तःस्थ आ ष सँ ह घर्षक वर्ण भेल।
सभ वर्गक पाँचम वर्ण अनुनासिक कहबैत अछि कारण आन स्थान समान रहितो एकर सभक नासिकामे सेहो उच्चारण होइत अछि- उच्चारणमे वायु नासिका आ मुँह बाटे बहार होइत अछि।
अनुस्वार आ यम केर उच्चारण मात्र नासिकामे होइत अछि- आ ई सभ नासिक्य कहबैत अछि- कारण एहि सभमे मुखद्वार बन्द रहैत अछि आ नासिकासँ वायु बहार होइत अछि। अनुस्वारक स्थान पर न् वा म् केर उच्चारण नहि होयबाक चाही।
जखन हमरा सभकेँ गप करबाक इच्छा होइत अछि, तखन संकल्पसँ जठराग्नि प्रेरित होइत अछि। नाभि लगक वायु वेगसँ उठैत मूर्धा धरि पहुँचि, जिह्वाक अग्रादि भाग द्वारा निरोध भेलाक अनन्तर मुखक तालु आदि भागसँ घर्षित होइत अछि आ तखन वर्णक उत्पत्ति होइत अछि। कम्पन भेलासँ वायु नादवान आ यैह गूँजित होइत पहुँचैत अछि मुँहमे आ ओकरा कहल जाइत अछि घोषवान, नादरहित भए पहुँचैत अछि श्वासमे आ ओकरा कहल जाइत अछि अघोषवान्।
श्वास प्रकृतिक वर्ण भेल “अघोष” , आ नाद प्रकृतिक भेल “घोषवान्”। जाहि वर्णक उत्पत्तिमे प्राणवायुक अल्पता होइत अछि से अछि “अल्पप्राण” आ जकर उत्पत्तिमे प्राणवायुक बहुलता होइत अछि, से भेल “महाप्राण”।
कचटतप केर पहिल, तेसर आ पाँचम वर्ण भेल अल्पप्राण आ दोसर आ चारिम वर्ण भेल महाप्राण। संगहि कचटतप केर पहिल आ दोसर भेल अघोष आ तेसर, चारिम आ पाँचम भेल घोषवान्। य र ल व भेल अल्पप्राण घोष। श ष स भेल महाप्राण अघोष आ ह भेल महाप्राण घोष।स्वर होइछ अल्पप्राण, उदात्त, अनुदात्त आ स्वरित।
आब
1. नेपालक मैथिली भाषा वैज्ञानिक लोकनि द्वारा बनाओल मानक उच्चारण आ लेखन शैली आ 2.मैथिली अकादमी, पटना द्वारा निर्धारित मैथिली लेखन-शैली
1.नेपालक मैथिली भाषा वैज्ञानिक लोकनि द्वारा बनाओल मानक उच्चारण आ लेखन शैली

मैथिलीमे उच्चारण तथा लेखन

१. पञ्चमाक्षर आ अनुस्वार: पञ्चमाक्षरान्तर्गत ङ, ञ, ण, न एवं म अबैत अछि। संस्कृत भाषाक अनुसार शब्दक अन्तमे जाहि वर्गक अक्षर रहैत अछि ओही वर्गक पञ्चमाक्षर अबैत अछि। जेना-
अङ्क (क वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे ङ् आएल अछि।)
पञ्च (च वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे ञ् आएल अछि।)
खण्ड (ट वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे ण् आएल अछि।)
सन्धि (त वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे न् आएल अछि।)
खम्भ (प वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे म् आएल अछि।)
उपर्युक्त बात मैथिलीमे कम देखल जाइत अछि। पञ्चमाक्षरक बदलामे अधिकांश जगहपर अनुस्वारक प्रयोग देखल जाइछ। जेना- अंक, पंच, खंड, संधि, खंभ आदि। व्याकरणविद पण्डित गोविन्द झाक कहब छनि जे कवर्ग, चवर्ग आ टवर्गसँ पूर्व अनुस्वार लिखल जाए तथा तवर्ग आ पवर्गसँ पूर्व पञ्चमाक्षरे लिखल जाए। जेना- अंक, चंचल, अंडा, अन्त तथा कम्पन। मुदा हिन्दीक निकट रहल आधुनिक लेखक एहि बातकेँ नहि मानैत छथि। ओलोकनि अन्त आ कम्पनक जगहपर सेहो अंत आ कंपन लिखैत देखल जाइत छथि।
नवीन पद्धति किछु सुविधाजनक अवश्य छैक। किएक तँ एहिमे समय आ स्थानक बचत होइत छैक। मुदा कतोकबेर हस्तलेखन वा मुद्रणमे अनुस्वारक छोटसन बिन्दु स्पष्ट नहि भेलासँ अर्थक अनर्थ होइत सेहो देखल जाइत अछि। अनुस्वारक प्रयोगमे उच्चारण-दोषक सम्भावना सेहो ततबए देखल जाइत अछि। एतदर्थ कसँ लऽकऽ पवर्गधरि पञ्चमाक्षरेक प्रयोग करब उचित अछि। यसँ लऽकऽ ज्ञधरिक अक्षरक सङ्ग अनुस्वारक प्रयोग करबामे कतहु कोनो विवाद नहि देखल जाइछ।
२. ढ आ ढ़ : ढ़क उच्चारण “र् ह”जकाँ होइत अछि। अतः जतऽ “र् ह”क उच्चारण हो ओतऽ मात्र ढ़ लिखल जाए। आनठाम खालि ढ लिखल जएबाक चाही। जेना-
ढ = ढाकी, ढेकी, ढीठ, ढेउआ, ढङ्ग, ढेरी, ढाकनि, ढाठ आदि।
ढ़ = पढ़ाइ, बढ़ब, गढ़ब, मढ़ब, बुढ़बा, साँढ़, गाढ़, रीढ़, चाँढ़, सीढ़ी, पीढ़ी आदि।
उपर्युक्त शब्दसभकेँ देखलासँ ई स्पष्ट होइत अछि जे साधारणतया शब्दक शुरूमे ढ आ मध्य तथा अन्तमे ढ़ अबैत अछि। इएह नियम ड आ ड़क सन्दर्भ सेहो लागू होइत अछि।
३. व आ ब : मैथिलीमे “व”क उच्चारण ब कएल जाइत अछि, मुदा ओकरा ब रूपमे नहि लिखल जएबाक चाही। जेना- उच्चारण : बैद्यनाथ, बिद्या, नब, देबता, बिष्णु, बंश, बन्दना आदि। एहिसभक स्थानपर क्रमशः वैद्यनाथ, विद्या, नव, देवता, विष्णु, वंश, वन्दना लिखबाक चाही। सामान्यतया व उच्चारणक लेल ओ प्रयोग कएल जाइत अछि। जेना- ओकील, ओजह आदि।
४. य आ ज : कतहु-कतहु “य”क उच्चारण “ज”जकाँ करैत देखल जाइत अछि, मुदा ओकरा ज नहि लिखबाक चाही। उच्चारणमे यज्ञ, जदि, जमुना, जुग, जाबत, जोगी, जदु, जम आदि कहल जाएवला शब्दसभकेँ क्रमशः यज्ञ, यदि, यमुना, युग, याबत, योगी, यदु, यम लिखबाक चाही।
५. ए आ य : मैथिलीक वर्तनीमे ए आ य दुनू लिखल जाइत अछि।
प्राचीन वर्तनी- कएल, जाए, होएत, माए, भाए, गाए आदि।
नवीन वर्तनी- कयल, जाय, होयत, माय, भाय, गाय आदि।
सामान्यतया शब्दक शुरूमे ए मात्र अबैत अछि। जेना एहि, एना, एकर, एहन आदि। एहि शब्दसभक स्थानपर यहि, यना, यकर, यहन आदिक प्रयोग नहि करबाक चाही। यद्यपि मैथिलीभाषी थारूसहित किछु जातिमे शब्दक आरम्भोमे “ए”केँ य कहि उच्चारण कएल जाइत अछि।
ए आ “य”क प्रयोगक प्रयोगक सन्दर्भमे प्राचीने पद्धतिक अनुसरण करब उपयुक्त मानि एहि पुस्तकमे ओकरे प्रयोग कएल गेल अछि। किएक तँ दुनूक लेखनमे कोनो सहजता आ दुरूहताक बात नहि अछि। आ मैथिलीक सर्वसाधारणक उच्चारण-शैली यक अपेक्षा एसँ बेसी निकट छैक। खास कऽ कएल, हएब आदि कतिपय शब्दकेँ कैल, हैब आदि रूपमे कतहु-कतहु लिखल जाएब सेहो “ए”क प्रयोगकेँ बेसी समीचीन प्रमाणित करैत अछि।
६. हि, हु तथा एकार, ओकार : मैथिलीक प्राचीन लेखन-परम्परामे कोनो बातपर बल दैत काल शब्दक पाछाँ हि, हु लगाओल जाइत छैक। जेना- हुनकहि, अपनहु, ओकरहु, तत्कालहि, चोट्टहि, आनहु आदि। मुदा आधुनिक लेखनमे हिक स्थानपर एकार एवं हुक स्थानपर ओकारक प्रयोग करैत देखल जाइत अछि। जेना- हुनके, अपनो, तत्काले, चोट्टे, आनो आदि।

७. ष तथा ख : मैथिली भाषामे अधिकांशतः षक उच्चारण ख होइत अछि। जेना- षड्यन्त्र (खड़यन्त्र), षोडशी (खोड़शी), षट्कोण (खटकोण), वृषेश (वृखेश), सन्तोष (सन्तोख) आदि।
८. ध्वनि-लोप : निम्नलिखित अवस्थामे शब्दसँ ध्वनि-लोप भऽ जाइत अछि:
(क) क्रियान्वयी प्रत्यय अयमे य वा ए लुप्त भऽ जाइत अछि। ओहिमेसँ पहिने अक उच्चारण दीर्घ भऽ जाइत अछि। ओकर आगाँ लोप-सूचक चिह्न वा विकारी (’ / ऽ) लगाओल जाइछ। जेना-
पूर्ण रूप : पढ़ए (पढ़य) गेलाह, कए (कय) लेल, उठए (उठय) पड़तौक।
अपूर्ण रूप : पढ़’ गेलाह, क’ लेल, उठ’ पड़तौक।
पढ़ऽ गेलाह, कऽ लेल, उठऽ पड़तौक।
(ख) पूर्वकालिक कृत आय (आए) प्रत्ययमे य (ए) लुप्त भऽ जाइछ, मुदा लोप-सूचक विकारी नहि लगाओल जाइछ।
जेना-
पूर्ण रूप : खाए (य) गेल, पठाय (ए) देब, नहाए (य) अएलाह।
अपूर्ण रूप : खा गेल, पठा देब, नहा अएलाह।
(ग) स्त्री प्रत्यय इक उच्चारण क्रियापद, संज्ञा, ओ विशेषण तीनूमे लुप्त भऽ जाइत अछि। जेना-
पूर्ण रूप : दोसरि मालिनि चलि गेलि।
अपूर्ण रूप : दोसर मालिन चलि गेल।
(घ) वर्तमान कृदन्तक अन्तिम त लुप्त भऽ जाइत अछि। जेना-
पूर्ण रूप : पढ़ैत अछि, बजैत अछि, गबैत अछि।
अपूर्ण रूप : पढ़ै अछि, बजै अछि, गबै अछि।
(ङ) क्रियापदक अवसान इक, उक, ऐक तथा हीकमे लुप्त भऽ जाइत अछि। जेना-
पूर्ण रूप: छियौक, छियैक, छहीक, छौक, छैक, अबितैक, होइक।
अपूर्ण रूप : छियौ, छियै, छही, छौ, छै, अबितै, होइ।
(च) क्रियापदीय प्रत्यय न्ह, हु तथा हकारक लोप भऽ जाइछ। जेना-
पूर्ण रूप : छन्हि, कहलन्हि, कहलहुँ, गेलह, नहि।
अपूर्ण रूप : छनि, कहलनि, कहलौँ, गेलऽ, नइ, नञि, नै।

९. ध्वनि स्थानान्तरण : कोनो-कोनो स्वर-ध्वनि अपना जगहसँ हटिकऽ दोसरठाम चलि जाइत अछि। खास कऽ ह्रस्व इ आ उक सम्बन्धमे ई बात लागू होइत अछि। मैथिलीकरण भऽ गेल शब्दक मध्य वा अन्तमे जँ ह्रस्व इ वा उ आबए तँ ओकर ध्वनि स्थानान्तरित भऽ एक अक्षर आगाँ आबि जाइत अछि। जेना- शनि (शइन), पानि (पाइन), दालि ( दाइल), माटि (माइट), काछु (काउछ), मासु(माउस) आदि। मुदा तत्सम शब्दसभमे ई नियम लागू नहि होइत अछि। जेना- रश्मिकेँ रइश्म आ सुधांशुकेँ सुधाउंस नहि कहल जा सकैत अछि।
१०. हलन्त(्)क प्रयोग : मैथिली भाषामे सामान्यतया हलन्त (्)क आवश्यकता नहि होइत अछि। कारण जे शब्दक अन्तमे अ उच्चारण नहि होइत अछि। मुदा संस्कृत भाषासँ जहिनाक तहिना मैथिलीमे आएल (तत्सम) शब्दसभमे हलन्त प्रयोग कएल जाइत अछि। एहि पोथीमे सामान्यतया सम्पूर्ण शब्दकेँ मैथिली भाषासम्बन्धी नियमअनुसार हलन्तविहीन राखल गेल अछि। मुदा व्याकरणसम्बन्धी प्रयोजनक लेल अत्यावश्यक स्थानपर कतहु-कतहु हलन्त देल गेल अछि। प्रस्तुत पोथीमे मैथिली लेखनक प्राचीन आ नवीन दुनू शैलीक सरल आ समीचीन पक्षसभकेँ समेटिकऽ वर्ण-विन्यास कएल गेल अछि। स्थान आ समयमे बचतक सङ्गहि हस्त-लेखन तथा तकनिकी दृष्टिसँ सेहो सरल होबऽवला हिसाबसँ वर्ण-विन्यास मिलाओल गेल अछि। वर्तमान समयमे मैथिली मातृभाषीपर्यन्तकेँ आन भाषाक माध्यमसँ मैथिलीक ज्ञान लेबऽ पड़िरहल परिप्रेक्ष्यमे लेखनमे सहजता तथा एकरूपतापर ध्यान देल गेल अछि। तखन मैथिली भाषाक मूल विशेषतासभ कुण्ठित नहि होइक, ताहूदिस लेखक-मण्डल सचेत अछि। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डा. रामावतार यादवक कहब छनि जे सरलताक अनुसन्धानमे एहन अवस्था किन्नहु ने आबऽ देबाक चाही जे भाषाक विशेषता छाँहमे पडि जाए। हमसभ हुनक धारणाकेँ पूर्ण रूपसँ सङ्ग लऽ चलबाक प्रयास कएलहुँ अछि।
पोथीक वर्णविन्यास कक्षा ९ क पोथीसँ किछु मात्रामे भिन्न अछि। निरन्तर अध्ययन, अनुसन्धान आ विश्लेषणक कारणे ई सुधारात्मक भिन्नता आएल अछि। भविष्यमे आनहु पोथीकेँ परिमार्जित करैत मैथिली पाठ्यपुस्तकक वर्णविन्यासमे पूर्णरूपेण एकरूपता अनबाक हमरासभक प्रयत्न रहत।
कक्षा १० मैथिली लेखन तथा परिमार्जन महेन्द्र मलंगिया/ धीरेन्द्र प्रेमर्षि संयोजन- गणेशप्रसाद भट्टराई
प्रकाशक शिक्षा तथा खेलकूद मन्त्रालय, पाठ्यक्रम विकास केन्द्र,सानोठिमी, भक्तपुर सर्वाधिकार पाठ्यक्रम विकास केन्द्र एवं जनक शिक्षा सामग्री केन्द्र, सानोठिमी, भक्तपुर।
पहिल संस्करण २०५८ बैशाख (२००२ ई.)
योगदान: शिवप्रसाद सत्याल, जगन्नाथ अवा, गोरखबहादुर सिंह, गणेशप्रसाद भट्टराई, डा. रामावतार यादव, डा. राजेन्द्र विमल, डा. रामदयाल राकेश, धर्मेन्द्र विह्वल, रूपा धीरू, नीरज कर्ण, रमेश रञ्जन
भाषा सम्पादन- नीरज कर्ण, रूपा झा
2. मैथिली अकादमी, पटना द्वारा निर्धारित मैथिली लेखन-शैली
1. जे शब्द मैथिली-साहित्यक प्राचीन कालसँ आइ धरि जाहि वर्त्तनीमे प्रचलित अछि, से सामान्यतः ताहि वर्त्तनीमे लिखल जाय- उदाहरणार्थ-
ग्राह्य एखन
ठाम
जकर, तकर
तनिकर
अछि
अग्राह्य अखन, अखनि, एखेन, अखनी
ठिमा, ठिना, ठमा
जेकर, तेकर
तिनकर। (वैकल्पिक रूपेँ ग्राह्य)
ऐछ, अहि, ए।
2. निम्नलिखित तीन प्रकारक रूप वैकल्पिकतया अपनाओल जाय: भ गेल, भय गेल वा भए गेल। जा रहल अछि, जाय रहल अछि, जाए रहल अछि। कर’ गेलाह, वा करय गेलाह वा करए गेलाह।
3. प्राचीन मैथिलीक ‘न्ह’ ध्वनिक स्थानमे ‘न’ लिखल जाय सकैत अछि यथा कहलनि वा कहलन्हि।
4. ‘ऐ’ तथा ‘औ’ ततय लिखल जाय जत’ स्पष्टतः ‘अइ’ तथा ‘अउ’ सदृश उच्चारण इष्ट हो। यथा- देखैत, छलैक, बौआ, छौक इत्यादि।
5. मैथिलीक निम्नलिखित शब्द एहि रूपे प्रयुक्त होयत: जैह, सैह, इएह, ओऐह, लैह तथा दैह।
6. ह्र्स्व इकारांत शब्दमे ‘इ’ केँ लुप्त करब सामान्यतः अग्राह्य थिक। यथा- ग्राह्य देखि आबह, मालिनि गेलि (मनुष्य मात्रमे)।
7. स्वतंत्र ह्रस्व ‘ए’ वा ‘य’ प्राचीन मैथिलीक उद्धरण आदिमे तँ यथावत राखल जाय, किंतु आधुनिक प्रयोगमे वैकल्पिक रूपेँ ‘ए’ वा ‘य’ लिखल जाय। यथा:- कयल वा कएल, अयलाह वा अएलाह, जाय वा जाए इत्यादि।
8. उच्चारणमे दू स्वरक बीच जे ‘य’ ध्वनि स्वतः आबि जाइत अछि तकरा लेखमे स्थान वैकल्पिक रूपेँ देल जाय। यथा- धीआ, अढ़ैआ, विआह, वा धीया, अढ़ैया, बियाह।
9. सानुनासिक स्वतंत्र स्वरक स्थान यथासंभव ‘ञ’ लिखल जाय वा सानुनासिक स्वर। यथा:- मैञा, कनिञा, किरतनिञा वा मैआँ, कनिआँ, किरतनिआँ।
10. कारकक विभक्त्तिक निम्नलिखित रूप ग्राह्य:- हाथकेँ, हाथसँ, हाथेँ, हाथक, हाथमे। ’मे’ मे अनुस्वार सर्वथा त्याज्य थिक। ‘क’ क वैकल्पिक रूप ‘केर’ राखल जा सकैत अछि।
11. पूर्वकालिक क्रियापदक बाद ‘कय’ वा ‘कए’ अव्यय वैकल्पिक रूपेँ लगाओल जा सकैत अछि। यथा:- देखि कय वा देखि कए।
12. माँग, भाँग आदिक स्थानमे माङ, भाङ इत्यादि लिखल जाय।
13. अर्द्ध ‘न’ ओ अर्द्ध ‘म’ क बदला अनुसार नहि लिखल जाय, किंतु छापाक सुविधार्थ अर्द्ध ‘ङ’ , ‘ञ’, तथा ‘ण’ क बदला अनुस्वारो लिखल जा सकैत अछि। यथा:- अङ्क, वा अंक, अञ्चल वा अंचल, कण्ठ वा कंठ।
14. हलंत चिह्न नियमतः लगाओल जाय, किंतु विभक्तिक संग अकारांत प्रयोग कएल जाय। यथा:- श्रीमान्, किंतु श्रीमानक।
15. सभ एकल कारक चिह्न शब्दमे सटा क’ लिखल जाय, हटा क’ नहि, संयुक्त विभक्तिक हेतु फराक लिखल जाय, यथा घर परक।
16. अनुनासिककेँ चन्द्रबिन्दु द्वारा व्यक्त कयल जाय। परंतु मुद्रणक सुविधार्थ हि समान जटिल मात्रा पर अनुस्वारक प्रयोग चन्द्रबिन्दुक बदला कयल जा सकैत अछि। यथा- हिँ केर बदला हिं।
17. पूर्ण विराम पासीसँ ( । ) सूचित कयल जाय।
18. समस्त पद सटा क’ लिखल जाय, वा हाइफेनसँ जोड़ि क’ , हटा क’ नहि।
19. लिअ तथा दिअ शब्दमे बिकारी (ऽ) नहि लगाओल जाय।
20. अंक देवनागरी रूपमे राखल जाय।
21. किछु ध्वनिक लेल नवीन चिन्ह बनबाओल जाय। जा' ई नहि बनल अछि ताबत एहि दुनू ध्वनिक बदला पूर्ववत् अय/ आय/ अए/ आए/ आओ/ अओ लिखल जाय। आकि ऎ वा ऒ सँ व्यक्त कएल जाय।
ह./- गोविन्द झा ११/८/७६ श्रीकान्त ठाकुर ११/८/७६ सुरेन्द्र झा "सुमन" ११/०८/७६

International Phonetic Maithili (Alphabet)
अ , ə
आ , ɑː
इ , i
ई , iː
उ , u
ऊ , uː
ए , eː
ऐ , aːi
ओ , oː
औ , aːu
ऋ , ɹ̩
ॠ , ɹ̩ː
ऌ , l̩
ॡ , l̩ː
अं , ⁿ
अः , h
क , kə
क़ , qə
ख , kʰə
ख़ , xə
ग , gə
ग़ , ɣə
घ , gʰə
ङ , ŋə
च , cə
छ , cʰə
ज , ɟə
ज़ , zə
झ , ɟʰə
ञ , ɲə
ट , ʈə
ठ , ʈʰə
ड , ɖə
ड़ , ɽə
ढ , ɖʰə
ढ़ , ɽʱə
ण , ɳə
त , t̪ə
थ , t̪ʰə
द , d̪ə
ध , d̪ʰə
न , nə
प , pə
फ , pʰə
फ़ , fə
ब , bə
भ , bʰə
म , mə
य , jə
र , rə
ल , lə
व , və
श , ɕə
ष , ʂə
स , sə
ह , ɦə
क्ष , kʃə
त्र , t̪ɾə
ज्ञ , gjə
श्र , ɕcə
् , ्
ा , ɑː
ि , i
ी ' iː
ु , u
ू , uː
ृ , ɹ̩
े , eː
ै , aːi
ो , oː
ौ , aːu
ं , ⁿ
ँ , ⁿ
ं , ⁿ
ँ , ⁿ
ः , h

देवनागरी – मिथिलाक्षर
देवनागरी - मिथिलाक्षर
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ
ँ ं ऽ ॐ ़ ॒ ॑ ॓ ः ँ

क ख ग घ ङ क्त्य
क का कि की कु कू कृ कॄ क्लृ क्लॄ कॅ के कॆ कै कॉ को कॊ कौ कं कः

च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म

य र ल ळ ऴ व श ष स ह
ॐ अ॒ग्निमी॑

स॒हस्र॑ शीर्षा॒ पुरु॑षः। स॒ह॒स्रा॒क्षः सहस्र॑पात्। स भूमि॑ं वि॒श्वतो॑ वृ॒त्वा। अत्य॒तिष्ठद्दशांगु॒लम्। पुरु॑ष ए॒वेदग्ं सर्वम्॓।

अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ
ँ ं ऽ ॐ ़ ॒ ॑ ॓ ः ँ

क ख ग घ ङ
क का कि की कु कू कृ कॄ क्लृ क्लॄ कॅ के कॆ कै कॉ को कॊ कौ कं कः

च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म

य र ल ळ ऴ व श ष स ह
ॐ अ॒ग्निमी॑

स॒हस्र॑ शीर्षा॒ पुरु॑षः। स॒ह॒स्रा॒क्षः सहस्र॑पात्। स भूमि॑ं वि॒श्वतो॑ वृ॒त्वा। अत्य॒तिष्ठद्दशांगु॒लम्। पुरु॑ष ए॒वेदग्ं सर्वम्॓।
किछु आर संयुक्ताक्षर:-
क्त्य क्त्र क्त्र त्क त्क न्य न्य ल्व ल्व श्च श्च क्र क्र श्र श्र प्र प्र ल्व ल्व र्क र्क त् त् त्य त्य त्त्य त्त्य ङ्क्य ङ्क्य त्त्व त्त्व सु सु यु यु र्ग र्ग र्क र्क ष्ट ष्ट
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गजेन्द्र ठाकुर- अपन माता श्रीमति लक्ष्मी ठाकुर, पत्नी श्रीमति प्रीति ठाकुर आ दुनू बच्चा ओम (८ साल) आ आस्था (४ साल) क प्रति क्षमा याचनाक संग, पछिला ८-९ सालसँ हम शब्दकोष निर्माण कार्यमे लागल रहबाक कारणेँ एहि अवधिमे घरमे पर्याप्त समय नहि दऽ सकलहुँ।

नागेन्द्र कुमार झा- पिता श्री प्रद्युम्न कुमार झा, पितामह स्व. श्री सूर्य नारायण झा आ वृद्ध पितामह स्वर्गीय श्री मंगल झाक स्मृतिमे।

पञ्जीकार विद्यानन्द झा- एहि गुरुतर कार्यक सम्पादन धर्मपत्नी श्रीमति गीता झा द्वारा देल गेल मानसिक सम्बलक कारणेँ कऽ सकलहुँ। पञ्जीशास्त्र मार्तण्ड पञ्जीकार स्वर्गीय मोदानन्द झा आ माता स्वर्गीया श्रीमति रामेश्वरी देवीक प्रेरणा ओ आशीर्वादक बलेँ ई कार्य हमरासँ सम्भव भऽ सकल।

३१.१२.२००८ गजेन्द्र ठाकुर
नागेन्द्र कुमार झा
पञ्जीकार विद्यानन्द झा


पञ्जी-प्रबन्ध

पञ्जी प्रबन्ध पूर्व मध्य कालमे ब्राह्मण, कायस्थ आ क्षत्रिय वर्गक जाति शुद्धताक हेतु निर्मित कएल गेल । एहि अंकमे ब्राह्मणक पञ्जी-प्रबन्धक चर्च कएल जा रहल अछि। कोनो ब्राह्मणक जाति शुद्धताक हेतु उतेढ़ जानब आवश्यक छल।उतेढ़ छल सात पुरुषक परिचय जाहि हेतु एहि बत्तीस कुलक परिचय आवश्यक छल-पिता एवं माताक पितामह एवं पितामही आ मातामह एवं मातामही केर पितामह एवं पितामही आ माता एवं मातामही केर पिता। आ एहि बत्तीस पूर्वजसँ विवाहयोग्य व्यक्ति सातम पड़बाक चाही।

एहि क्रममे श्रोत्रिय,योग्य आपञ्जीबद्ध श्रेणी भय गेल। जे पञ्जीबद्ध नहि छलाह से जएबार भेलाह।

उतेढ़मे श्रोत्रिय मातृपक्षमे पाँच पीढ़ी आ पितृपक्षमे सात पीढ़ी त्यागि विवाह करैत छलाह।

योग्य मात्र श्रोत्रियसँ एहि अर्थमे भिन्न छलाह जे ओऽ लोकनि पितृ-पक्षमे सातम पीढ़ीक त्याग करैत छलाह मुदा योग्य नहि करैत छलाह। ई लोकनि पितृ पक्षमे छः पीढ़ी आ मातृ पक्षमे पाँच पीढ़ीक त्याह कय विवाह करैत छलाह।

पञ्जीबद्ध लोकनि जिनका वंशज सेहो कहल जाइत अछि,मातृ पक्षमे चारि आ पितृ-पक्षमे छः पीढ़ी त्यागि कय विवाह करैत छलाह।

१९ प्रकारक गोत्र ३४ प्रकारक मूल आ २४३ प्रकारक मूलग्राममे ई सभ विभक्त छल। पुनः कर्मकाण्डक आधार पर सामवेदी आ शुक्ल यजुर्वेदी ब्राह्मणक दू गोट उर्ध्वाधर विभाजन क्रमशः छन्दोग्य आ वाजसनेय ब्राह्मणक रूपमे बनले रहल।

१९ गोट गोत्र आ२४३ मूल ग्राममे मुख्य मूल ३४ टा निर्धारित कएल गेल। एहि २४३ ग्रामसँ सेहो ई सभ विभिन्न क्षेत्र आग्राममे पसरलाह।

१९ गोट गोत्र निम्न प्रकारे अछि: १. शाण्डिल्य २. वत्स ३. सावर्ण

. काश्यप ५. पराशर ६. भारद्वाज ७. कात्यायन ८. गर्ग ९. कौशिक १०. अलाम्बुकाक्ष ११. कृष्णात्रेय १२. गौतम १३. मौदगल्य १४. वशिष्ठ १५. कौण्डिन्य १६. उपमन्यु १७. कपिल १८. विष्णुवृद्धि १९. तण्डी

मुख्य ३४ मूल सेहो तीन श्रेणीमे विभक्त अछि।

श्रेष्ठ-प्रथम श्रेणीमे १. खड़ौरे, . खौआड़े, . बुधबाड़े, . मड़रे, . हरिहरे, . घसौते, . खिसौते, . कमहे, . नरौने, १०. वमनियामै, ११. हरिअम्मे, १२. सरिसवै, १३. सोदरपुरिये.

द्वितीय श्रेणीमे १. गंगोलिवार, . पगौलिवार, . कजौलिवार, . अड़ेवार, . वहड़िखाल, . सकड़िखार, . पलिवार, . विसेवार, . फनेवार, १०. उचितवार, ११. पडुलवार, १२. कटैवार, १३. तिलैवार.

मध्यम मूल- १. दिद्यवे, . बैलेचै, . एकहरे, . पंचोभे, . वलियासे, . जमजुआले, . टकवाले, . घड़ुए.

प्रवर

मैथिल ब्राह्मणक मध्य २ वर्गक प्रवर परिवार होइत अछि- त्रिप्रवर आपाँच प्रवर। जाहि गोत्रक तीन गोट पूर्वज ऋगवेदक सूक्तिक रचना कएल से त्रिप्रवर आजाहि गोत्रक पाँच गोट पूर्वज लोकनि ऋगवेदक सूक्तक रचना कएल से पाँच प्रवर कहबैत छथि।

एहि प्रकारेँ गोत्रानुसारे प्रवर निम्न प्रकार भेल:-

त्रिप्रवर- १.शाण्डिल्य, .काश्यप,. पराशर, . भारद्वाज, . कात्यायन, . कौशिक, . अलाम्बुकाक्ष, . कृष्णात्रेय, . गौतम, १०. मौदगल्य, ११. वशिष्ठ, १२. कौण्डिन्य, १३. उपमन्यु, १४. कपिल, १५.विष्णुवृद्धि,१६. तण्डी।

पंचप्रवर- १. वत्स, . सावर्ण, . गर्ग।

प्रवरक विस्तृत विवरण निम्न प्रकारेँ अछि- १. शाण्डिल्य- शाण्डिल्य, असित आदेवल. २. वत्स---] ओर्व, च्यवन,भार्गव,जामदगन्य आआप्लावन।

. सावर्ण--] ओर्व, च्यवन,भार्गव,जामदगन्य आआप्लावन।

. काश्यप-काश्यप, अवत्सार आनैघ्रूव. ५. पराशर-शक्ति, वशिष्ठ आपराशर. ६. भारद्वाज-भारद्वाज, आंगिरस आबार्ह्स्पत्य. ७. कात्यायन-कात्यायन, विष्णु आआंगिरस. ८. गर्ग-गार्ग्य, घृत, वैशम्पायन, कौशिक आमाण्डव्याथर्वन। ९. कौशिक- कौशिक, अत्रि आजमदग्नि. १०. अलाम्बुकाक्ष-गर्ग, गौतम आवशिष्ठ. ११. कृष्णात्रेय-कृष्णात्रेय, आप्ल्वान आसारस्वत. १२. गौतम-अंगिरा, वशिष्ठ आबार्हस्पत. १३. मौदगल्य-मौदगल्य, आंगिरस आबार्हस्पत्य. १४. वशिष्ठ-वशिष्ठ,अत्रि आसांकृति. १५. कौण्डिन्य-आस्तिक,कौशिक आ कौण्डिन्य. १६. उपमन्यु-उपमन्यु, आंगिरस आबार्हस्पत्य। १७. कपिल-शातातप, कौण्डिल्यआकपिल. १८. विष्णुवृद्धि-विष्णुवृद्धि, कौरपुच्छ आत्रसदस्य १९. तण्डी-तण्डी, सांख्य आअंगीरस.

एहिमे सावर्ण आवत्सक पूर्वज एके छथि ताहि हेतु दू गोत्र र्हितो हिनका बीच विवाह नहि होइत छन्हि। छानदोग्य आवाजसनेयक वैदिक युगीन उर्ध्वाधर विभाजन एकर संग रहबे कएल, यज्ञोपवीत मंत्र दुनूक भिन्न-भिन्न अछि। फेर यज्ञोपवीतमे तीन प्रवर आकि पाँच प्रवर देल जाय ताहि हेतु उपरका सूचीक प्रयोग कएल जाइछ। पञ्जी प्रबंध

भारतीय इतिहासक वेत्ता ओजातीय व्यवस्थाक मर्मज्ञ लोकनि जनैत छथि, जे भारतवर्षक ब्राह्मण लोकनि सर्वप्रथम वेदक आधार पर विभिन्न वर्गमे विभाजित रहथि। जेना- सामवेदी, यजुर्वेदी, आदि कहाबथि। मुदा समयक प्रभावमे भिन्न क्षेत्र-प्रक्षेत्रमे रहनिहार ब्राह्मण लोकनि भिन्न-भिन्न संस्कृतिसँ प्रभावित भए गेलाह। क्षेत्रीय संस्कृतिसँ प्रभावित होएबाक मुख्य कारण छल विशिष्ट क्षेत्रक विशिष्ट जलवायु, क्षेत्र विशेषक भाषा-विशेष, भिन्न-भिन्न क्षेत्रक भिन्न-भिन्न आहार एवम भेष-भूषा आएक क्षेत्र सँ दोसर क्षेत्र जयबाक हेतु आवागमनक असुविधा आदि। फलतः क्षेत्र-विशेषक ब्राह्मण समुदाय, क्षेत्र विशेषक आचार-विचार, खान-पान,वेश-भूषा ,भाव-भाषा ओसभ्यता संस्कृतिसँ प्रभवित भय गेलाह।

उपरोक्त कारणे पुरानक युग अबैत०-अबैत भारत वर्षक ब्राह्मण समाज भिन्न-भिन्न क्षेत्रक आधार पर विभिन्न वर्गमे विभाजित भए गेलाह। पुरानक सम्मतिये भारत-वर्षक समस्त ब्राह्मण समाजकेँ दस(१०) वर्गमे विभाजित कएल गेल रहय। ब्राह्मणक ई दसो वर्ग थीक-उत्कल,कान्यकुब्ज,गौड़,मैथिल,सारस्वत, कार्णाट,गुर्जर, तैलंग,द्रविड़ ओमहाराष्ट्रीय। स्थूल रूपेँ पूर्वोक्त पाँच केँ पञ्च गौड़ आअपर पाँचकेँ पञ्च द्रविड़ कहल जाइत अछि। एकर सीमांकन भेल विन्ध्याचल पर्वतक उत्तर पञ्च गौड़ ओ विन्ध्याचल पर्वतक दक्षिण पञ्च द्रविड़।

मैथिल ब्राह्मण

पञ्च गौड़ वर्गक मैथिल ब्राहमण लोकनि पुस्ति-दर-पुस्त सँ मिथिलामे रहबाक कारणेँ मिथिलाक विशिष्ट संस्कृतिसँ प्रभावित भए गेलाह, तँय अहि कारणेँ पुराणक युगमे मैथिल ब्राह्मण कहाए सुप्रसिद्ध भेलाह। मिथिला वस्तुतः प्राचीन राहवंशक राजधानी रहए। मुदा पश्चातक युगमे विदेह राजवंशक समस्त प्रशासित क्षेत्र अथवा जनपद मिथिला कहाए सुप्रसिद्ध भेल आएहि जनपदक रहनिहार ब्राह्मण लोकनि मैथिल ब्राह्मण कओलन्हि। ई मिथिला आइ नेपाल ओबंगलादेशक सीमा सँ सटैत अनुवर्त्तमान अछि, जे राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिसँ अपन एक विशिष्ट स्थान रखैत अछि।

मैथिल ब्राह्मण लोकनि मूलतः दुइए गोट वेदक अनुयायी थिकाह। एक वर्गक यजुर्वेदक माध्यान्दिन शाखाक अनुयायी थिकाह तँ दोसर सामवेदक कौथुम शाखाक अनुगमन करैत छथि। यजुर्वेदक माध्यन्दिन शाखाक अनुयायीवाजसनेयीकहबैत छथि, एहिना सामवेद्क कौथुम शाखाक अनुयायी छन्दोग कहबैत छथि।दुहुक संस्कारमे किछु स्थूलो अन्तर अछि। छन्दोग उपनयनमे चारि गोट संस्कार- नामकरण, चूड़ाकरण, उपनयन ओ समावर्त्तन मुदा वाजसनेयीक ई चारू संस्कार थिक, चूड़ाकरण, उपनयन, वेदारम्भ ओ समावर्त्तन। एहिना छन्दोग विवाह मुख्यतः दू खण्डमे सम्पन्न होइत अछि, पूर्व विवाह आओर उत्तर विवाह। उत्तर विवाह सूर्यास्तक बाद तारा देखि कए होइत अछि। मुदा वाजसनेयी विवाहमे एहन कोनो विभाजन नहि अछि। एकहि क्रममे दिन अथवा रातिमे कखनहुँ भए सकैत अछि। वाजसनेयी ओछन्दोगक धार्मिक संस्कारमे तँ सूक्ष्म अंतर कतौक अछि।

पुनश्च सप्तसिन्धु सँ प्राच्याभिमुखी यायावर ऋषि लोकनि गंगा ओहिमालयक मध्यक सुभूमि मिथिलामे जाहि आर्यसंस्कृतिक बीज-वपन कएल, तकर मूल छल धर्म, धर्मक मूल थिक जाति, ई जाति होयत एहि जन्मक विशुद्धिसँ, जन्मसँ विशुद्ध संतान होइत अछि तखन जखन विवाहक अधिकार जाहि कन्यासँ हो तकरहिसँ विवाह कएला उत्तर प्राप्त संतान आर्य जातिक विवाहक नियम सभ सर्वप्रथम निबंधित भेल विभिन्न स्मृति सभमे। महान स्मृतिकार मनु ओयाज्ञवल्क्यक अनुसार ओहि कन्यासँ विवाहक अधिकार हो जे- १. समान गोत्रक नहि होथि, . समान प्रवरक नहि होथि, . माइक सपिण्ड नहि होथि,

. पिताक सपिण्ड नहि होथि,

. पिताम अथवा मातामहक संतान नहि होथि, . कठमामक संतान नहि होथि।

एहि वैवाहिक अधिकारक निष्पादनार्थ कमसँ कम मनु ओयाज्ञवल्क्यक समयसँ त निश्चये लोक अपन यावतो परिचयस्वयं अपनहि रखैत आबि रहल छल, मुदा पश्चातक युगमे ई प्रवृत्ति समाप्तप्राय भगेल। विवाहक हेतु वर ओकन्याक सम्पूर्ण परिचय तँ आवश्यके छल, जे आनहु धार्मिक संस्कारक हेतु सपिण्डत्त्वक विचार विवाहक अतिरिक्त श्राद्ध ओअशौच प्रभृतिअहुमे आवश्यक होइत छल, एहि कारणेँ प्रागैतिहासिक कालहिसँ लोक अपन सांगोपांग परिचय रखैत छल। ओओकरहि अनुसार अपन धार्मिक क्रियाक निष्पादन करैत रहए। ई नियम सभ हमरा लोकनिक प्राचीनतम धर्मग्रंथ सभमे उपलब्ध अछि। स्मृति सभमे कहल गेल अछि, जे जनिकासँ विवाहक अधिकार नहि हो से स्वजना भेलीह। स्वजनासँ विवाहोपरांत प्राप्त संतान चाण्डाल बूझल जाइत छल। ओआर्यत्वक मर्यादासँ बहिष्कृत मानल जाइत छल। अतः विवाहक पहिल चरण अधिकारक निर्णय रहल होयत। वर पक्ष ओकन्या पक्षक लोक परस्पर बैसि अपन-अपन परिचयक आधार पर निर्णय करैत छल होएताह, जे अमुककन्यासँ अमुकवरक विवाह हो वा नहि। मुदा परिचय रखबाक प्रवृत्तिक ह्रासक कारणेँ अधिकार-निर्णयक हेतु प्रत्येक परिवारक सुयोग्य ओआस्थावान व्यक्ति अपन यावतो परिचय(३२ मूलक उल्लेख) लिखि कए राखय लगलाह। सातम शाब्दीसँ पूर्वहि ए लिखित कौलिक परिचय समूह लेख्यक उल्लेख सर्वप्रथम विद्वद्वैरैण्य कुमारिल भट्ट रचित तंत्र वार्त्तिकमे भेल अछि, जे मीमांसा दर्शनक जैमिनी सूत्रक शबर द्वारा कएल भाष्यक ग्द्यात्मक वार्त्तिकथीक। तंत्रवार्त्तिक दर्शनक ग्रंथ थीक जाहिमे यथार्थ वस्तुस्थितिक वर्णनसँ जातिक विशुद्धि सिद्ध कएल गेल अछि। जाहि आधार पर धर्मक निरूपण भए सकैत। कुमारिल भट्टक कहब छलन्हि जे बड़का कुलीन लोक बड़ विशेष प्रयत्नसँ अपन जातिक रक्षा करैत छथि। तैहि तक्षत्रिय ओब्राह्मण अपन पिता-पितामहादिक परम्परा बिसरि नहि जाए तेँ समूह-लेख्य चलौलन्हि। ओप्रत्येक कुलमे गुण आदोष देखि ओहि अनुरूप सम्बंध करबामे प्रवृत्त होइत छथि।

विशिष्टेनैव हि प्रयत्नेन महाकुलीनाः परिक्षन्ति आत्मानम् अनेनैव हि हेतुना राजाभिब्रह्मिणैश्च स्व पितृ-पितामहादि पारम्पर्यो विस्मणार्थं समूहलेख्यानिप्रवर्तितानि तथा च प्रतिकुलं गुण-दोष स्मर्णांतदनुरूपाः प्रभृति-निवृतयो दृश्यंते

(तंत्रवार्त्तिक, अध्याय १, पाद-२, सूत्र-२क वार्त्तिक)

मुदा तेरहम शताब्दीक उत्तरार्ध होइत-होइत साधारण लोकक कोन कथा पण्डित लोकनि समेत समूह लेख्य राखब छोड़ि देलन्हि। एकर परिणाम ई भेल जे पं हरिनाथ उपाध्याय(धर्म-शास्त्रक महान ज्ञाता) स्मृतिसारसन धर्मशास्त्रक विषयक ग्रंथकर्त्ता ओमहापंडित परिचयक अभावमे विवाह कए लेल, स्वजनमे अनधिकारमे अपन साक्षात पितयौत भाइक दौहित्रीमे। फलतः चौदहम शताब्दीक तृतीय दशक होइत-होइत एहि कौलिक परिचयकेँ विशिष्ट पण्डितक अधीन कए देबाक आवश्यकताक अनुभव कएल जे विवाहक समय अधिकारक निर्णय कए सकथि। मिथिलाक तत्कालीन शासक राजा हरिसिंहदेवक प्रेरणासँ मिथिलाक पण्डित लोकनि शाके १२४८ तदनुसार १३२६ ई. मे निर्णय कएलन्हि, जे परिचय राखब लोककेँ अपना पर नहि छोड़ल जाय, प्रत्युत ओकरा संगृहित कए विशिष्ट पण्डितजनक जिम्मा कए देल जाए, ई राजकीय एक गोट विभाग बना देल जाए जाहिसँ पण्डित राजाज्ञासँ नियुक्त होथि सैह संगृहित परिचय राखथि। प्रत्येक विवाह तखनहि स्थिर हो जखन नियुक्त पंडित(पञ्जीकार) अधिकार जाँचि कए लिखिके देथि, जे अमुक कन्या ओअमुक वर स्वजनानहि छथि। अर्थात् शास्त्रीयनियमानुसार कन्याक संग वरकेँ वैवाहिक अधिकार छन्हि। इयैह पत्र अस्वजन पत्रवा सिद्धांत पत्रकहौलक। आइयो कन्या वरक विवाह पूर्व अधिकार जँचाए सिद्धांत पत्र लेल आवश्यक बूझल जाइत अछि। पञ्जी-प्रबंधमे इएह सभसँ प्रधान नियम भेल जे बिनु सिद्धांत भेने विवाह अशास्त्रीय मानल जायत। अस्वजन पत्रदेनिहार राजाज्ञासँ नियुक्त इएह पण्डित पञ्जीकार कहओलाह। संगृहित परिचय जाहिमे प्रत्येक नव जन्म ओ विवाह जोड़ल जाय लागल से भेल पञ्जी। जिनकर पञ्जीमे आएल से भेलाह पञ्जीबद्ध।

महाराज हरिसिंहदेव ओतत्कालीन पण्डितक संयुक्त निर्णय अनुसार परिचेता लोकनिक नियुक्त्ति कए समस्त मैथिल ब्राह्मणक सम्पूर्ण परिचय संगृहित कएल गेल। परिचेता लोकनि घुमि-घुमि प्रत्येक परिवारक मुख्य व्यक्तिसँ हुनक परिचय पुछि लिखि लेल करथि। सामान्य रूँपे छओ पुरुषक परिचय सभ जनैत रहथि। किछु गोटा एहिसँ बहुतो अधिक परिचय जनैत रहथि। एहिना किछु गोटए मात्र दू वा तीन पुरुषाक ज्ञान रखैत छलाह। जे जतबा जनैत रहथि हुनकासँ ओतबहि संग्रह कए हुनकर पूरवजक वास-स्थान, गोत्र, प्रवर तथा हुनक वेद ओशाखाक सूचना लिखि लेल जाइत रहैए। एहि संग्रहसँ एकहि कुलक अनेक शाखा जे विभिन्ना ग्राममे बसैत छलाह, तकर परिचय एकत्र भए गेल। एहि रूपे गोत्रक अनुसार भिन्न-भिन्न कुलक सम्पूर्ण परिचय प्राप्त भए गेल। एहि परिचय संकलनक समय सभसँ प्रमुख मानल गेल बीजी पुरुष ओ मूल ग्रामकेँ। कारण कौलिक परिचयक हेतु सर्वाधिक उपयोगी इयैह सूत्र भेल। विभिन्न गाममे बसैत एकहि कुलक विभिन्न व्यक्तिक कौलिक परिचय एहि मूल ग्रामक आधार पर संगृहित कएल गेल रहए। एहि कारणे पञ्जीमे अनिवार्य रूपसँ मूल ग्रामक उल्लेख भेल अछि। पञ्जी-प्रबंधक समय जे व्यक्ति जतए बसैत रहथि से हुनक भावी संतानक ग्राम कहओलक ओ परिचय लिखौनिहार अपन पूर्वजक प्राचीनतम वास स्थानक जे नाम कहल से ओहि व्यक्तिक मूल भेल। एहिना प्रत्येक कुलक प्राचीनतम ज्ञात पूर्वज ओहि कुलक बीजी पुरुष कहाओल। एकर प्रमाणमे एक गोट उदाहरण देखल जाए सकैत अछि। काश्यप गोत्रीय एक महाकुल जकर शतावधि शाखा मिथिलामे अनुवर्त्तमान रहए, संगृहित परिचयक आधार पर मूलतः माण्डर ग्रामक वासी सिद्ध भेलाह। मुदा पञ्जी-प्रबंधसँ बहुत पहिनहि, एकर दू गोट शाखा स्पष्टतः प्रमाणित भए गेल। एक मँगरौनी गामक आदोसर गढ़-गामक। अतः पञ्जीमे आदिअहिसँ मण्डरक संग-संग गढ़ ओ मँगरौनी विशेषण जोड़ल जाए लागल। मुदा उपलब्ध परिचयक आधार पर दुनू एकहि कुलक दू शाखा सिद्ध भेल। तैय दुनू कुलक मूल एकहि भेल ओ बीजी पुरुष सेहो एकहि भेलाह।

गोत्र- कहल जाइत अछि जे सकल गोत्रक समस्त जन समुदाय एकहि प्राचीनतम ज्ञात महापुरुषक वंशज थिकाह। ईएह प्राचीनतम ज्ञात महापुरुष गोत्र कहाए सुविख्यात छथि। श्री एम.पी. चिंतालाल राव महोदय चारि हजार गोत्रक सूची तैयार कएने छथि। अमरकोषमे गोत्रक हेतु तीन अर्थ देल गेल अछि- पर्वत, वंश आनाम। वाचस्पत्यकोषमे गोत्रक एगारह अर्थ देल गेल अछि- पर्वत, नाम ,ज्ञान, जंगल,खेत,क्षत्र,संघ,धन, मार्ग, वृद्धि आमुनि लोकनिक वंश। प्राचीन संस्कृत साहित्यमे गोत्र शब्दक प्रयोग प्रायः वंश वा पिताक नामक लेल भेल अछि। छान्दोग्य उपनिषद (४/) मे जीवन गुरु सत्यकामसँ गोत्र पुछैत छथिन्ह तँ हुनक अभिप्राय सत्यकामक कुल अथ्वा पिताक नामसँ छन्हि, मुदा ऋगवेदमे गोत्रक उल्लेख चारि ठाम मेघ अथवा पहाड़क लेल आदू ठाम पशु समूह अथवा जनसमुदाय अथवा पशु रक्षक रूपमे भेल अछि। अंततः वंश अथवा परिवरक अर्थमे गोत्र शब्दक प्रयोग पश्चातक प्रयोग थिक। वंश अथवा परिवारक अर्थमे गोत्रक प्रयोग सर्वप्रथम छान्दोग्य उपनिषदमे भेल अछि।

मैथिल ब्राह्मण समाजमे गोत्र वंशा-बोधक थीक। मैथिल ब्राह्मणक समस्त गोत्र पितृ प्रधान थीक- अर्थात् प्रत्येक गोत्र अपन-अपन वंशक प्राचीनतम ज्ञात महापुरुषक नाम थीक। मैथिल ब्राह्मणमे सभ मिलाए २० गोट गोत्र अछि। मैथिल ब्राह्मणमे सात गोट गोत्रक कुल व्यवस्थित, सुपरिचित ओ बहुसंख्यक अछि। ई सात गोट गोत्र थीक- १.शाण्डिल्य २.वत्स ३.काश्यप ४.सावर्ण ५.पराशर ६.भारद्वाज ७.कात्यायन। शेष १३ गोट गोत्र थीक- १.गर्ग २.कौशिक ३.अलाम्बुकाक्ष

.कृष्णात्रेय ५.गौतम ६.मौद्गल्य ७.वशिष्ठ ८.कौण्डिन्य ९.उपमन्यु १०.कपिल ११.विष्णुवृद्धि १२.तण्डि १३.जातिकर्ण।

प्रत्येक गोत्रमे कतौक मूल्य अछि। मिथिलामे १५३ मूलक ब्राह्मणक परिच्अय प्राप्त होइत अछि। कतैक मूल एहन अछि, जे एकसँ अधिक गोत्रमे पाओल जाइत अछि।ब्रह्मपुराएकटा एहने मूल थिक। एहि मूलक ब्राह्मण- शाण्डिल्य,वत्स,काश्यप,अलाम्बुकाक्ष,गौतम ओ गर्ग गोत्रमे पाओल जाइत छथि। प्रवर- प्रवरक उल्लेख वैदिक युगमे दर्श ओ पौर्णमास नामक इष्टिमे भेटैत अछि। इ इष्टि सभ आन सभ प्रकारक यज्ञक आधार थीक। अतः एहिमे प्रवरक पाठ होइत अछि। एहि पाठक प्रयोजन तखनहि होइत अछि जाहि क्षण यज्ञाग्नि उद्दिप्त करएबाली(सामधेनी) ऋचाक पाठक अनंतर अध्वर्यु ओहि अग्नि पर आज्य(घृत) दैत छथिन्ह। एकर निहितार्थ अछि जे प्रवर, यज्ञमे अग्निकेँ बजएबाक प्रार्थना थीक। प्रवरकेँ बादमे आर्षेयसेहो कहल गेल अछि- जकर अर्थ थिक ऋषिसँ संबंधराखए बला(ऋग्वेद-०९/९७/५१)। शोनक ऋषिक सुविख्यात पूर्वज लोकनि मैथिल ब्राह्मण मध्य प्रवर कहबैत छथि अर्थात् ऋगवेदक ऋचाक प्रणेता लोकनि प्रवर थिकाह।

मैथिल ब्राह्मणक मध्य २ वर्गक प्रवर परिवार होइत अछि- त्रिप्रवर आपाँच प्रवर। जाहि गोत्रक तीन गोट पूर्वज ऋगवेदक सूक्तिक रचना कएल से त्रिप्रवर आजाहि गोत्रक पाँच गोट पूर्वज लोकनि ऋगवेदक सूक्तक रचना कएल से पाँच प्रवर कहबैत छथि।

. शाण्डिल्य- शाण्डिल्य, असित आदेवल. २. वत्स---] ओर्व, च्यवन,भार्गव,जामदगन्य आआप्लावन।

. सावर्ण--] ओर्व, च्यवन,भार्गव,जामदगन्य आआप्लावन।

. काश्यप-काश्यप, अवत्सार आनैघ्रूव. ५. पराशर-शक्ति, वशिष्ठ आपराशर. ६. भारद्वाज-भारद्वाज, आंगिरस आबार्ह्स्पत्य. ७. कात्यायन-कात्यायन, विष्णु आआंगिरस. ८. गर्ग-गार्ग्य, घृत, वैशम्पायन, कौशिक आमाण्डव्याथर्वन। ९. कौशिक- कौशिक, अत्रि आजमदग्नि. १०. अलाम्बुकाक्ष-गर्ग, गौतम आवशिष्ठ. ११. कृष्णात्रेय-कृष्णात्रेय, आप्ल्वान आसारस्वत. १२. गौतम-अंगिरा, वशिष्ठ आबार्हस्पत. १३. मौदगल्य-मौदगल्य, आंगिरस आबार्हस्पत्य. १४. वशिष्ठ-वशिष्ठ,अत्रि आसांकृति. १५. कौण्डिन्य-आस्तिक,कौशिक आ कौण्डिन्य. १६. उपमन्यु-उपमन्यु, आंगिरस आबार्हस्पत्य। १७. कपिल-शातातप, कौण्डिल्यआकपिल. १८. विष्णुवृद्धि-विष्णुवृद्धि, कौरपुच्छ आत्रसदस्य १९. तण्डी-तण्डी, सांख्य आअंगीरस.

गोत्र आमूल

शाण्डिल्य- दिर्धोष(दिघवे), सरिसब, महुआ, पर्वपल्ली(पवौली),खण्डबला, गंगोली, यमुशाम, करिअन, मोहरी, सझुआल, मड़ार, पण्डोली, जजिवाल, दहिसत, तिलय, माहब, सिम्मुआल, सिंहाश्रम, सोदरपुर, कड़रिया, अल्लारि, होइयार,तल्हनपुर,परिसरा,परसड़ा,वीरनाम, उत्तमपुर, कोदरिया, छतिमन, वरेवा, मधुआल, गंगौर, भटोर, बुधौरा, ब्रह्मपुरा, कोइआर, केटहिवार, गंगुआल, घोषियाम, छतौनी, भिगुआल, ननौती, तपनपुर।

वत्स- पल्ली(पाली), हरिअम्ब, तिसुरी, राउढ़, टकवाल, घुसौत, जजिवाल, पहद्दी, जल्लकी(जालय), भन्दवाल, कोइयार, केरहिवार, ननौर, डढ़ार, करमहा, बुधवाल, मड़ार, लाही, सौनी, सकौना, फनन्दह, मोहरी, वंठवाल, तिसउँत, बरुआली, पण्डौली, बहेटाढ़ी, बरैवा, अलय, भाप्रारिसमथ, बभनियाम, उचति, तपनपुर, विठुआल, नरवाल, चित्रपल्ली, जरहटिया, ब्रह्मपुरा,सरौनी।

काश्यप- ओइनि, खौआल, संकराढ़ी, जगति, दरिहरा, माण्डर, वलियास, पचाउर, कटाइ, सतलखा, पण्डुआ, मालिछ, मेरन्दी, नदुआल, पकलिया, बुधवाल, दिभू, मौरी, भूतहरी, छादन, विस्फी, थरिया, दोस्ती, भरेहा, कुसुम्बाल, नरवाल, लगुरदह।

सावर्ण- सोन्दपुर, पनिचोभ, बरेबा, नन्दोर, मेरन्दी। पराशर- नरौन, सुरगन, सकुरी, सुइरी, सम्मूआल, दिहवाल, नदाम, महेशारि, सकरहोन, सोइनि, तिलय, बरेबा। भारद्वाज- एकहरा, विल्वपञ्चक(बेलौँच), देयाम, कलिगाम, भूतहरी, गोढ़ार, गोधूलि। कात्यायन- कुजौली, ननौती, जल्लकी, वतिगाम। अलाम्बुकाक्ष- बसाम,कटाइ, ब्रह्मपुरा।

गार्ग्य बसहा, बसाम, ब्रह्मपुरा, सुरौर, विधौर, उरौर। कौशिक- निटेरति कृष्नात्रेय- लोहना, बुसवन, पोदौनी। मौद्गल्य- रतवाल, मालिछ, दिघौष, कपिञ्जल, जल्लकी। गौतम- ब्रह्मपुरा, उंतिमपुर, कोइयार। वशिष्ठ- कोथुआ। कौंडिल्य- एकहरा, परौन। जातुकर्ण- देवहार। तण्डि- कटाई।

मिथिलाधीश कार्णाट वंशीय क्षत्रिय महाराज हरिसिंहदेव जीक सभामे उपस्थित सभ्य लोकनि महिन्द्रपुर पण्डुआ मूलक सदुपाध्याय गुणाकर झाकेँ मैथिल ब्राह्मणक पञ्जी प्रबन्धक भार देलन्हि

नन्देहु शुन्यं शशि शाक वर्षे (१०९९ शाके) तच्छ्रावणस्य धवले मुनितिथ्यधस्तात। स्वाती शनैश्चर दिने सुपूजित लग्ने श्री नान्यदेव नृपतिढ़र्यधीत वास्तं॥१॥ शास्तानान्द पतिर्व्वभूव नृपतिः श्री गंगदेवो नृपस्तत् सूनू(पुत्र) नरसिंहदेव विजयी श्री शक्ति सिंह सुतः तत् सूनू खलू राम सिंह विजयी भूपालवंत सुतो जातः श्री हरिसिंह देव नृपतिः कार्णाट चूड़ामणि ॥२॥ श्रीमंतं गुणवन्त मुत्तम कुलस्नाया विशुद्धाशयँ सञ्जातानु गवेषणोत्सुक यातः सर्वानुव्यक्तिक्षमां चातुर्यश्चतुराननः प्रतिनिधिंकृत्वा च्च्तुर्द्धाकिमां पंचादित्यकुलांविता विवजया दित्यै ददौ पञ्जिकाम्॥३॥

भूपालवनि मौलि रत्न मुकुटोलंकार हिरांकुर ज्योत्सोज्वाल यटाल माल शशिनिः लीलञ्च चञ्चलम्तावः शोभा भाजि गुणाकरे गुणवतां मानन्द कन्दोदरे दृष्ट्वात्मा हरिसिंह देव नृपतिः पाणौ ददौ पञ्जिकाम॥४॥ दृष्ट्वा सभां श्री हरिसिंहदेव विचार्य चिंते गुणिणी सहिष्णौ॥ गुणाकरे मैथिल वंश जाते पञ्जी ददौ धर्म विवेचणार्थम॥

श्रोत्रिय ब्राह्मण सात श्रेणीमे क्रमबद्ध छथि, योग्य एवम् वंशज पन्द्रह श्रेणीमे। पञ्जीक संख्या २०९ अछि, जाहिमे ५६ पञ्जी श्रोत्रिय आ१५३ पञ्जी योग्य आवंशजक अछि।

पञ्जी-प्रबन्धक प्रारम्भ राजा हरसिंहदेवक कालमे शुरू भेल। ज्योतिरीश्वर ठाकुरक वर्ण-रत्नाकरमे हरसिंहदेव नायक आकि राजा छलाह।

आइ काल्हि पञ्जी-प्रबंध मात्र मैथिल ब्राह्मण आकर्ण-कायस्थक मध्य विद्यमान अछि। मुदा प्रारम्भमे ई क्षत्रिय(प्रयः गंधवरिया राजपूत)केर मध्य सेहो छल।

वर्णरत्नाकरमे ७२ राजपूत कुलक मध्य ६४ केर वर्णन अछि, जाहिमे बएस आपमार दोहराओल अछि। दोसर ठाम ३६ राजपूत कुलक वर्णन अछि। २० टा नामक पूर्वहुमे चर्च अछि। विद्यापतिक लिखनावलीमे, जे प्रायः हुनकर नेपाल प्रवासक क्रममे लिखल गेल छल, चन्देल आचौहानक वर्णन अछि। गाहनवार वा मिथिलाक गंधवरिया राजपूतक दू टा शखा मिथिलामे छल, भीठ भगवानपुर आपंचमहला(सहर्सा, पूर्णियाँ)। गंधवरिया,पमार,विशेवार,कंचिवाल, चौहान आदि मिथिलाक महत्त्वपूर्ण राजपूत छथि।मुदा गंधवरिया मिथिलामे महत्त्वपूर्ण छथि आएखनहु मधुबनीसँ सहरसा-पूर्णियाँ धरि छथि।

वर्णरत्नाकरक राजपूत कुलवर्णनक निम्न लगभग ६२ टा कुल अछि। सोमवंश,सूर्यवंश, डोडा, चौसी, चोला, सेन, पाल, यादव, पामार, नन्द, निकुम्भ, पुष्पभूति, श्रिंगार, अरहान, गुपझरझार, सुरुकि, शिखर, बायेकवार, गान्हवार,सुरवार, मेदा, महार, वात, कूल, कछवाह, वायेश, करम्बा, हेयाना, छेवारक, छुरियिज, भोन्ड, भीम, विन्हा, पुन्डीरयन, चौहान, छिन्द, छिकोर, चन्देल, चनुकी, कंचिवाल, रान्चकान्ट, मुंडौट, बिकौत, गुलहौत, चांगल, छहेला, भाटी, मनदत्ता, सिंहवीरभाह्मा, खाती,रघुवंश, पनिहार, सुरभांच, गुमात, गांधार, वर्धन, वह्होम, विशिश्ठ, गुटिया, भाद्र, खुरसाम, वहत्तरी आदि। एखनो गंगा दियारामे राजपूत आयादव दुनूक मध्य बनौतहोइत छथि, दुनूमे बहुत घनिष्ठता अछि।

पर्वतमे रहनिहार आवनमे रहनिहारक वर्णन सेहो अछि वर्ण रत्नाकरमे। जनक राजाक विरुद ज(कबीला) सँ बनल प्रतीत होइत अछि।

पछिला अंकमे देल गेल श्रोत्रियक सातक बदलामे आठ श्रेणीमे ओ लोकनि क्रमबद्ध छथि- आपञ्जीक कुल संख्या १८५ अछि, जाहिमे ३२ टा श्रोत्रिय आ१५३ टा आन ब्राह्मणक श्रेणी अछि। जातुकर्ण गोत्र त्रिप्रवर जातुकर्ण/आंगीरस/भारद्वाज छथि। पहिने सभ क्यो अपन-अपन पुरखाक, वैवाहिक संबंधक लेखा स्वयं रखैत रहथि। हरसिंहदेवजी एहि हेतु एक गोट संस्थाक प्रारम्भ कलन्हि। मैथिल ब्राह्मणक हेतु गुणाकर झा, कर्ण कायस्थक लेल शंकरदत्त, क्षत्रियक हेतु विजयदत्त एहि हेतु प्रथमतया नियुक्त्त भेलाह। हरसिंहदेवक पञ्जी वैज्ञानिक आधार बला छल आशुद्ध रूपेँ वंशावली परिचय छल। सभ ब्राह्मण कायस्थ आक्षत्रिय एहिमे बराबर छलाह। मुदा महाराज माधव सिंहक समयमे शाखा पञ्जीक प्रारम्भ भेल आश्रोत्रिय आदि विभाजन आक्रमानुसारे छोट-पैघक आओहिसँ उपजल सामाजिक कुरीतिक प्रारम्भ भेल।

कर्ण कायस्थमे एकेटा गोत्र काश्यप अछि। मात्र मूलक अनुसारेँ उतेढ़ होइत अछि, मझौला दर्जाक गृहस्थ कहल जाइत अछि।

मूलसँ गोत्र सामान्यतः पता चलि जाइत अछि। किछु अपवादो छैक। जेना: ब्रह्मपुरा मूल, काश्यप/गौतम/वत्स/वशिष्ठ।(७टा)

करमहा- शाण्डिल्य (गौल शाखा)/ बाकी सभ वत्स गोत्री।

दुनू करमहामे विवाह संभव।

चैतन्य महाप्रभु: रमापति उपाध्याय करमहे तरौनी मूलक छलाह। ओबंगाल चलि गेलाह, हुकर शिष्य रहथि चैतन्य महाप्रभु।

श्रोत्रियकेँ पुबारिपार आशेषकेँ पछ्बारिपार सेहो कहल जाइत अछि।श्रोत्रियक पाँजिकेँ चौगाला(श्रेणी) मे विभक्त्त अछि। श्रोत्रिय पंञ्जीकेँ लौकित कहल जाइत अछि। कुल ८ टा चौगोल श्रेणी अछि।३२ टा पञ्जी अछि। पञ्जी आपानि अधोगामी होइत अछि। विवाह संबंधक कारणे समय बीतला पर उच्च श्रेणी समाप्त होइत जाइत अछि। प्रथम श्रेणी ताहि कारणसँ समाप्त भगेल अछि।

शेष ब्राह्मण पछ्बारिपार कहबैत छथि। एहि मे १५ गोट श्रेणी अछि।१५३ टा पञ्जी अछि। एकरा नामसँ जेना महादेव झा पाँजि इत्यादि संबोधित कएल जाइत अछि।

कालक प्रभावे अत्रिय लोकनिमे पञ्जी समाप्त भए गेल आ ताहि द्वारे हुनका लोकनिमे पूरा गामेकेँ छोड़ि देल जाइत अछि, जाहिसँ सिद्धांतमे भाङठ नहि होए।

पञ्जी-पुस्तकक हेतु एकटा श्लोक अछि- जलात् रक्ष तैलात् रक्ष रक्ष स्थूल बन्धनात् माने पुस्तककेँ जलसँ तेलसँ आ स्थूल बन्धनसँ बचाऊ।संगहि सूर्य जखन सिंह राशिमे (मोटा-मोटी १६ अगस्त सँ १६ सितम्बर धरि) रहए तखन एकरा सुखाऊ- एहि समयमे सभसँ बेशी कड़गर रौद रहैत अछि।

उतेढ- सिद्धांत लिखबासँ पहिने वर ओऽ कन्या पक्षक अधिकार ताकल जाइत अछि।कन्याक विवाहक ५-१० वर्ष पूर्व कन्याक पिता पञ्जीकारसँ अधिकार माला बनबैत छथि, जाहिमे संभावित आ उपलब्ध वरक सूची रहैत छैक। पञ्जीकार एहि एतु उतेढ बनबैत छथि।वर कन्या दुनू पक्षक पितृ कुलक ६ पुस्त आ मातृकुलक ५ पुरखाक यावेता परिचय देल जाइत अछि।यावेता परिचयक अर्थ भेल ३२ मूलक उतेढ़ जे अधिकार तकबामे प्रयोजनीय थीक। कोनो कन्या मातृ वा पितृ पुरखा कुलमे १६ व्यक्त्तिसँ छठम स्थानमे रहैत छथि। एहि १६ मे सँ १६ वा एको व्यक्त्ति वरक पितृपक्षमे अओथिन्ह तँ ओहि कन्या वरक मध्य वैवाहिक अधिकार नहि होएत।जौँ ओऽ १६ व्यक्त्ति वा एको व्यक्त्ति मातृ पक्ष (वरक) मे अओथिन्ह तँ अधिकार भए जायत।

मुदा एहिमे ई सेहो देखबाक थीक जे वर कन्या समान गोत्र आ समान प्रवरक नहि होथि।संगहि ई सेहो देखबाक थीक जे वरक मातामह आ कन्याक मूल ओऽ मूलग्राम सहित एक होए तँ सात पुस्त धरि मातृसापिण्डयक कारणेँ अधिकार नहि होएत। ई सेहो देखए पड़त जे कन्या वरक विमाताक भाइक सन्तान नहि होए।

पञ्जी सात प्रकारक होइत आछि-मूल,शाखा,गोत्र,पत्र,दूषण उतेढ़ आ एकटा आर।

पञ्जीक प्रारम्भसँ पहिने सभ क्यो अपन-अपन वंशावली स्वयं राखैत छलाह। हरसिंह देव ताहि हेतु एकटा संस्थाक निर्माण कएलन्हि। मैथिल ब्राह्मणक हेतु गुणाकर झा, कर्ण कायस्थक हेतु शंकरदत्त आ क्षत्रियक हेतु विजयदत्त पञ्जीकार नियुक्त्त भेलाह।

दरभंगा नरेश माधव सिंह शाखा प्रणयन पुस्तकक आदेश देलन्हि।एहिसँ पहिने मूल पञ्जी सभक समान रूपेँ बनैत छल। आब सोति, जोग आ पञ्जीबद्धक हेतु फराक शाखा पञ्जी बनाओल जाए लागल।

गोत्र पञ्जीमे सभ गोत्र आ तकर प्राचीन मूल रहैत अछि।

पत्र पञ्जी लगभग ३०० वर्ष पूर्वसँ प्रचलनमे अछि। एहिमे मूलग्रामक उल्लेख रहए लागल।

दूषण पञ्जीमे वंशमे आएल क्षरणक उल्लेख रहैत अछि। ई गोपनीय पञ्जी थीक आ एकरा सार्वजनिक नहि कएल जाइत अछि। बहुत बादमे एकर चर्च संभव होइत अछि।

उतेढ़ पञ्जीमे सपिण्डक निवृत्ति होइत अछि- छह पुरखक प्राप्त होइत अछि। मात्र रसाढ़-अररियाक पञ्जीमे महिलाक पञ्जी भेटैत अछि।

महाराजाधिराज ५ मान् मिथिलेशक आज्ञानुसार पछबारिपारक लौकिक आ श्रेणिक व्यवस्था पञ्जीकार लोकनि जे स्थिर कएलन्हि से प्रकाशित भेल छल आ ईहो प्रार्थना छल जे ताहि मध्य जनिका किछु वक्त्तव्य होइन्ह से प्रार्थना पत्र द्वारा श्री ५ मान् मध्य निवेदन करथि, ततः निदान विशिष्ट सभा मध्य एकर परामर्श कए पुनः प्रकाशित कएल जायत।

एतएसँ १ सँ १५ धरि श्रेणी बना देल गेल। ढेर विवाद उठल जे पाइ लए कए उच्च श्रेणी देल गेल।

पछबारिपारक लौकिक नाममे कतहु लौकिक तँ कतहु असल नाम छल।

किछु उदाहरण अछि-

१. सिंहवाड़-मथुरेश ठाकुर

२. मनियारी- मधुपति मिश्र

३. अमौन-बालकराम पाठक

४. भराम- धीतरी

५. बसन्तपुर- माधव मिश्र

६. कोकडीही- रामेश्वर मिश्र

७. नित्यानन्द चौधरी- पिण्डारुछ

८. एडु- भैय्यो मिश्र

९. खुटौनियाँ- भवानीदत्त झा

१०. लक्षमीपति मिश्र- धगजरी

११. कन्त झा- चानपुरा

१२. टङ्कवाल महिधर झा-पेकपाड़

१३. विष्णुदत्तपुरचिकनौट (मुजफ्फरपुर)

१४. चान पाठक- गजहरा

१५. काकठाकुर- धमदाहा

१६. खाशी ध्यामी- रंगपुरा(पूर्णियाँ)

वैवाहिक अधिकार निर्णय

नियम १. कोनो कन्या अपन १६ पुरुषा (पितृकुल आ मातृकुल मिलाकेँ) सँ छठम स्थानमे रहैत छथि- जिनका छठि कहल जाइत छन्हि।

एहि छठिक निर्धारण निम्न प्रकारसँ होइत अछि।

१.क्न्याक प्रपितामहक पितामह प्रथम छठि

२.कन्याक प्रपितामहक मातामह द्वितीय छठि

३.कन्याक पितामहक मातामह तृतीय छठि

४.कन्याक प्रपितामहीक मातामह चतुर्थ छठि

५.कन्याक पितामहीक प्रपितामह पञ्चम छठि

६.कन्याक पिताक मातामहक मातामह छठम छठि

७.कन्याक पितामहीक प्रमातामह सातम छठि

८.कन्याक पितामहीक मातृमातामह आठम छठि

९.कन्याक मातामहक प्रपितामह नवम छठि

१०.कन्याक प्रमातामहक मातामह दसम छठि

११.कन्याक मातामहक प्रमातामह एगारहम छठि

१२.कन्याक मातामहीक मातृमातामह बारहम छठि

१३. कन्याक मातामहीक प्रपितामह तेरहम छठि

१४.कन्याक मातामहीक पितृ मातामह चौदहम छठि

१५.कन्याक मातामहीक प्रमातामह पन्द्रहम छठि

१६.कन्याक मातामहीक मातृ मातामह सोलहम छठि

उपरोक्त्त समस्त छठिक समान महत्त्व अछि। एहिमे सँ कोनो छठि वरक पितृ पक्षमे अएला पर उक्त्त वर कन्याक मध्य वैवाहिक अधिकार नहि होएत। ओऽ छठि यदि वरक मातृकुलमे अबैत छथि तँ अधिकार होएत।

नियम२. वर कन्याक गोत्र एक नहि होए।

नियम ३. वर कन्याक प्रवर एक नहि होए।

नियम ४. वरक मातामह ओऽ कन्याक मूल ओऽ मूलग्राम सहित एक होए तँ सात पुस्त धरि मातृ सापिण्ड्यक कारणेँ अधिकार नहि होएत।

नियम५.वरक विमाताक भायक सन्तान कन्या नहि होए।

मातृतः पञ्चमी त्यक्त्तवा पितृतः सप्तमीं भजेत्- मनुस्मृति

असपिण्डाय या मातुः असपिण्डा च या पितुः सा प्रशस्ता द्विजातीनां दार कर्मणि मैथुने।

पञ्चमात् सप्तमात् सप्तमात् उर्ढ्वं मात्रूतः पित्रूतस्थत।

सपिण्डा निवर्तेत कर्तुम् व्यतितिसम्।

संस्कृत श्लोकक अर्थ एवं प्रकारे अछि-

*वरक मातृकुलक पुरुषसँ कन्या पाँचम पीढ़ी धरिक सन्तान नहि होथि।वरक पितृकुलक छठम पीढ़ी धरिक सन्तान नहि होथि।

*जे कन्या वरक मातृ कुल ओऽ पितृकुलक सपिण्ड अहि होथि से द्विजाति वरक हेतु उद्वाह कर्मक लेल प्रशस्त।

*मातृकुलमे पाँच आ पितृकुलमे सात पीढ़ी धरि सपिण्ड रहैछ।

कोनो कन्याक छठिक अन्वेषण हेतु ३२ मूलक उतेढ बनाबए पड़ैत छैक। ताहिमे सर्वप्रथम उतेढ़क वाम भागमे कन्याक ग्राम, मूल ग्राम लिखल जाइत छैक। तहिसँ अव्यवहित दहिन भागमे मूल आ तकर नीचाँ कन्याक अति वृद्ध प्रपितामह, वृद्ध प्रपितामह, वृद्ध पितामह, प्रपितामह, पितामह आ तखन पिताक नामोल्लेख अवरोही क्रमसँ लिखल जाइत छैक। एहि मध्य वृद्ध प्रपितामह पहिल छठि कहओताह, जनिकासँ कन्या छठम स्थानमे पड़ैत छैक। प्रस्तुत उदाहरणमे करमहा मूलक बेहट मूलग्रामक विट्ठो ग्रामवासी (दरभंगा) पीताम्बर झाक पौत्री श्री शशिनाथ झाक पुत्री भौर ग्रामवासी खण्डबला मूलक भौर मूलग्रामक नारायणदत्त ठाकुरक दौहित्री- धरमपुर दरभंगा- क अधिकार दरिहरा मूलक रतौली मूलग्रामक लोहनावासी गोपीनन्द झाक पौत्र श्री कृष्णानन्द झाक बालक करमहा मूलक बेहट मूल ग्रामक बिट्ठो निवासी कन्हैय्या झाक दौहित्रसँ जँचबाक अछि।

द्वितीय छठि-

वृद्ध पितामह राधानाथ झाक श्वसुर माड़रि वलियास मूलक इन्द्रपति झाक बालक धनपति झा होएताह से एहि प्रकारे गणना धनपति-=१, जमाय=राधानाथ= २, तनिक बालक कंटीर=पीताम्बर=४, शशिनाथ-कन्या=६

तृतीय छठि

तृतीय छठि

कन्याक प्रपितामहक श्वसुरक जेना माण्डर मूलक सिहौली मूलग्रामक १.रघुबर झा पुत्र २.फेकू झा तनिक जमाए ३.कंटीर झा, तनिक पुत्र ४.पीताम्बर झा तनिक पुत्र ५.शशिनाथ झा ६.कन्या। एहि मध्य माण्डर सिहौली रघुवर झासँ कन्या छठि छथि

चारिम छठि- फेकू झाक श्वसुर- पाली महिषी मूलक हर्षी झा, यथा (१) हर्षी झा- (२)जामाता-फेकू झा (३) जामाता कंटीर झा (४)पुत्र-पीताम्बर (५) शशिनाथ (६) कन्या. एहि तरहेँ कन्या हर्षी झासँ छठम स्थानमे छथि तैय हेतु ई चारिम छठि भेल।

पाँचम छठि- कन्याक पितामहक श्वसुरक पितामहसँ कन्या छठम स्थान-जेना सकराढ़ी मूलक परहट मूलग्रामवाला (१) ब्रजनाथ झा (२) हुनक बालक हर्षनाथ झा (३) हिनक बालक सिद्धिनाथ झा (४) हिनक जमाय पीताम्बर झा (५) तनिक बालक शशिनाथ झा (६) हिनक कन्या- अस्तु, सकराढ़ी परहट ब्रजनाथ झा पाँचम छठि कहौताह।

तृतीय छठि

कन्याक प्रपितामहक श्वसुरक जेना माण्डर मूलक सिहौली मूलग्रामक १.रघुबर झा पुत्र २.फेकू झा तनिक जमाए ३.कंटीर झा, तनिक पुत्र ४.पीताम्बर झा तनिक पुत्र ५.शशिनाथ झा ६.कन्या। एहि मध्य माण्डर सिहौली रघुवर झासँ कन्या छठि छथि

चारिम छठि- फेकू झाक श्वसुर- पाली महिषी मूलक हर्षी झा, यथा (१) हर्षी झा- (२)जामाता-फेकू झा (३) जामाता कंटीर झा (४)पुत्र-पीताम्बर (५) शशिनाथ (६) कन्या. एहि तरहेँ कन्या हर्षी झासँ छठम स्थानमे छथि तैय हेतु ई चारिम छठि भेल।

पाँचम छठि- कन्याक पितामहक श्वसुरक पितामहसँ कन्या छठम स्थान-जेना सकराढ़ी मूलक परहट मूलग्रामवाला (१) ब्रजनाथ झा (२) हुनक बालक हर्षनाथ झा (३) हिनक बालक सिद्धिनाथ झा (४) हिनक जमाय पीताम्बर झा (५) तनिक बालक शशिनाथ झा (६) हिनक कन्या- अस्तु, सकराढ़ी परहट ब्रजनाथ झा पाँचम छठि कहौताह।

६म छठि परहट सकराढ़ी मूलक हर्षनाथ झाक श्वसुर खण्डबला भौर मूलक श्यामनाथ ठाकुरक बालक महेश्वर ठाकुरसँ कन्दा छठम स्थानमे छथि- तँ (१) महेश्वर ठाकुर (२) हर्षनाथ झा (३) सिद्धिनाथ झा (४) पीताम्बर झा (५) शशिनाथ झा (६) कन्या- एहि तरहेँ खण्डबला भौर मूलक महेश्वर ठाकुर छठम छठि कहौताह।

७म छठि- कन्याक पिताक मातामहीक पितामह- यथा हरिअम मूलक बलिराजपुर मूल ग्रामक सेवानाथ मिश्रक पौत्री, बालमुकुन्द मिश्रक पुत्री कन्याक पिता शशिनाथ झाक मातामही छथि, तँय (१) सेवानाथ मिश्र-पुत्र(२)बालमुकुन्द मिश्र (३)जामाता-सिद्धिनाथ झा (४) जामाता-पीताम्बर झा (५) पुत्र शशिनाथ झा (६) पुत्री-कन्या, अस्तु, हरिअम बलिराजपुर सेवानाथ मिश्र ७म छठि भेलाह।

८म छठि- कन्याक पितामहीक मातृ मातामह-यथा- सोदरपुर मूलक सरिसब मूल ग्राम वाला (१) गदाधर मिश्र-जामाता (२) बालमुकुन्द मिश्र-जामाता (३)सिद्धिनाथ झा(४)जामाता पीताम्बर झा- पुत्र(५) शशिनाथ झा (६) कन्या। ताहि हेतु सोदरपुर सरिसव गदाधर मिश्र आठम छठि छथि।

९म छठि- कन्याक मातामहक प्रपितामह- खण्डबला मूलक भौर मूलग्राम (१)धर्मनाथ ठाकुर-पुत्र (२) योगनाथ ठाकुर-पुत्र (३)दुर्गानाथ ठाकुर-पुत्र (४) नारायणदत्त ठाकुर-जामाता (५) शशिनाथ झा-तनिक (६) कन्या- अर्थात् धर्मनाथ ठाकुरसँ कन्या- ६म स्थानमे छथि। तँय धर्मनाथ ठाकुर नवम् छठि भेलाह।

१०म छठि- कन्याक प्रमातामह (दुर्गानाथ ठाकुरक) मातामह- बभनियाम मूलक कड़राइन मूलग्रामक सन्तलाल झासँ कन्या छठम स्थानमे छथि- यथा (१) सन्तलाल झा- हिनक जमाय, (२)योगनाथ ठाकुर (३)पुत्र दुर्गानाथ ठाकुर पुत्र(४) नारायणदत्त (५) जमाय- शशिनाथ झा तनिक पुत्री (६) कन्या। एहि हेतुए बभनियाम मूलक सन्तलाल झा १०म छठि।

११म छठि करमहा मूलक नड़ुआर मूलग्रामक बछरण झासँ कन्या- छठम् स्थानमे छथि- यथा

(१)बछरण- पुत्र (२)खेली- जमाय-(३)दुर्गानाथ ठाकुर (४)तनिक पुत्र- नारायणदत्त ठाकुर- जमाय (५)शशिनाथ (६) पुत्री-कन्या- अस्तु बछरण झा ११म छठि।

१२म छठि- कन्याक मातामहक मातृमातामह खण्डवला मूलक भौर मूलग्रामक जीख्खन ठाकुर-सँ कन्या छठम स्थानपर, क्रम- (१)जीख्खन ठाकुर (२) खेली झा जमाय (३) दुर्गानाथ ठाकुर (४) पुत्र- नारायणदत्त- जमाय (५) शशिनाथ-पुत्री (६) कन्या।

१३म छठि- कन्याक मातामहीक प्रपितामह हरिअम मूलक बलिराजपुर मूलग्रामक योगीलाल मिश्र। यथा- (१)योगीलाल पुत्र (२) कमलनाथ मिश्र (३) पुत्र- शक्तिनाथ मिश्र (४) जमाय- नारायणदत्त ठाकुर- जमाय (५) शशिनाथ-पुत्रे (६)कन्या।

१४म छठि- कन्याक मातामहीक पितृमातामह अर्थात् सोदापुर मूलक दिगउन्ध मूलग्रामक कौशिल्यानन्द मिश्र- यथा- (१) कौशिल्यानन्द मिश्र- तनिक जमाय (२) कमलनाथ मिश्र तनिक (३)पुत्र शक्तिनाथ मिश्र, तनिक जमाय (४) नारायण दत्त ठाकुर तनिक (५) जमाय शशिनाथ झा- तनिक पुत्री (६) कन्या।

१५म छठि- कन्याक मातामहीक प्रमातामह अर्थात् खण्डवला मूलक भौर मूलग्रामक महाराज कुमार बाबू गुणेश्वर सिंह यथा- (१) बाबू गुणेश्वर सिंह- पुत्र (२) बाबू ललितेश्वर सिंह (३) जमाय- शक्तिनाथ मिश्र- तनिक जमाय (४) नारायणदत्त ठाकुर (५) तनिक जमाय- शशिनाथ झा- तनिक पुत्री (६) कन्या।

१६म छठि- कन्याक मातामहीक मातृमहीक मातृमातामह अर्थात् खौआल मूलक सिमरवाड़ मूलग्रामक- पद्मनाथ झासँ कन्या छठम् स्थानमे छथि-

यथा- (१) पद्मनाथ-जमाय (२)बाबू ललितेश्वर सिंह (३)जमाय शक्तिनाथ (४) जमाय-नारायणदत्त (५) जमाय-शशिनाथ, (६) पुत्री-कन्या।

उपरोक्त प्रकारे कन्याक सोलह छठि प्राप्त भेल।

वरपक्ष: कन्यहिँ सदृश वरहुकेँ उत्तेढ़ (बत्तीस) मूलक बनाओल जाइत छैक। एहि मध्य दू-प्रकारक परिचय रहैत छैक- (१)वरक पिता-पितामहादि तथा हुनका लोकनिक मातृकुलक जे वरक हेतु पितृकुल भेल, दोसर दिस वरक मायक पितृकुलक जाहि मध्य वरक मातामहादि तथा हुनका लोकनिक मातृकुलक परिचय।

कोनहु कथा जँचबाक हेतु पञ्जीकार सभसँ पहिने कन्याक छठिक निर्धारण कए लैत छथि। ततःपर वरक उतेढ बनबैत छथि। तखन देखबाक रहैत छन्हि जे कन्या जिनकासँ छठि छथि से तऽ वरक परिचयमे नहि पवैत छथि। जँ से कोनो छठि भेट गेलाह, तँ देखबाक रहैछ जे वरक कोन पक्ष (पितृ-मातृ)के अएलाह। मातृ-पक्ष रहने अधिकार हो आओर पितृ-पक्षमे रहने नहि हो, से वचन पूर्वमे कहि आएल छी।

शाखा पञ्जीक विशेषता

शाखा पञ्जी एक अभूतपूर्व पुस्तक छी। एहि तरहक पुस्तक हमरा बुझने संसारक कोनो देश कोनो सम्प्रदाय वा कोनो वर्गमे नहि पाओल गेल अछि। यद्यपि ई वर्ग विशेषक पुस्तक थिक, परञ्च एहि प्रकारक पुस्तक कोनो सम्प्रदाय वा कोनो वर्गक लेल शुरू कएल जाऽ सकैत छैक। मिथिलाक ई अद्वितीय देन सिद्ध भऽ सकैछ, जाहिमे १००० वर्षसँ परिचयक जाल जकाँ निर्मित कएल गेल अछि। जेना कवि कोकिल विद्यापति ठाकुरक परिचय हुनक पुरुषाक उल्लेख ७ पीढ़ी पहिनेसँ लऽकेँ विद्यापतिक वंशधर वर्तमान धरि, सभक साङ्गोपाङ्ग (विद्या, उपाधि, विशिष्टता, कार्य परिवर्तन, मातृकुलक परिचय) परिचय भेटत। एहन परिचय मात्र विद्यापतिये नहि समस्त मैथिल ब्राह्मणक भेटत, एहि प्रकारक आधारपर विभिन्न विद्वान ब्राह्मणक काल निर्धारण सेहो कएल जाऽ सकैछ।

शाखा पञ्जीक मादे: हम पञ्जीकारक वंशज थिकहुँ। संगहि ग्यारह वर्ष धरि मैथिल पञ्जी प्रबंधक साङ्गोपाङ्ग अध्ययन कएलहुँ। गुरु छलाह स्वयं हमर पिता पञ्जीशास्त्र मार्त्तण्ड धौत परीक्षामे प्रथम श्रेणीमे प्रथम स्थान पाबि महाराजाधिराज कामेश्वर सिंहक हाथें दोशाला पओनिहार स्वनाम धन्य पञ्जीकार मोदानन्द झा- हुनक मौखिक परीक्षाक मुख्य परीक्षक छलाह महामहोपाध्याय डॉ सर गङ्गानाथ झा। पञ्जी प्र्बन्धक जे इतिहास अछि ताहिमे वर्णित अछि जे पञ्जी प्रबंधक वर्तमान स्वरूपक प्रणेता छलाह सदुपाध्याय गुणाकर झा, जनिक हम उन्नैसम पीढ़ीमे छी। आइसँ उन्नैस पुस्त पहिने जे मैथिलक वंशावलीक संकलन संवर्द्धन ओऽ संरक्षणक व्रत दृढ़ निष्ठासँ सदुपाध्याय गुणाकर झा लेलन्हि वा तत्कालीन विद्वत वर्ग द्वारा विश्वासपूर्वक देल गेलन्हि, से अद्यावधि निष्ठापूर्वक हमरा धरि सुरक्षित ओ संवर्द्धित अछि।

पञ्जीक समस्त पुस्तक मिथिलाक लिपि तिरहुतामे लिखित अछि/ लिखल जाऽ रहल अछि। आ बुझू तँ तिरहुता लिपिक प्राणाधार थिक पञ्जी प्रबन्ध।

परन्तु वर्तमान पञ्जीक कार्य करैत अनुभव कएल जे एहि शास्त्रसँ सम्बद्ध पक्ष एहि लिपिक ज्ञानक अभावमे सामने बैसियौकऽ विषय वस्तुसँ अनभिज्ञ रहि जाइत छथि। फलस्वरूप एकर संरक्षणक प्रति सहयोग घटल जाऽ रहल छैक।

एहिना स्थितिमे भेल जे कियैक नहि देवनागरीमे अनुवाद कएल जाए। सोचि तँ लेलहुँ मुदा कार्य बड्ड दुरूह। संगहि आबादीक विस्तार संग शाखाक विस्तार सेहो आवश्यक तँय ई एकटा पूर्णकालिक कार्य भेल लगभग ६-७ वर्ष धरि एहिना स्थितिमे पारिवारिक दायित्वक निर्वहन करैत एहि गुरुतर कार्यक सम्पादन करब एकटा असाध्य साधने भेल एहि युगमे।

पञ्जीमे उपलब्ध आधुनिक सामाजिक जीवन

पञ्जी कैक प्रकारक होइत आछि-मूल,शाखा,गोत्र,पत्र,दूषण उतेढ़ ।

पञ्जीक प्रारम्भसँ पहिने सभ क्यो अपन-अपन वंशावली स्वयं राखैत छलाह। हरसिंह देव ताहि हेतु एकटा संस्थाक निर्माण कएलन्हि। मैथिल ब्राह्मणक हेतु गुणाकर झा, कर्ण कायस्थक हेतु शंकरदत्त आऽ क्षत्रियक हेतु विजयदत्त पञ्जीकार नियुक्त्त भेलाह।

दरभंगा नरेश माधव सिंह शाखा प्रणयन पुस्तकक आदेश देलन्हि। एहिसँ पहिने मूल पञ्जी सभक समान रूपेँ बनैत छल। आब सोति, जोग आऽ पञ्जीबद्धक हेतु फराक शाखा पञ्जी बनाओल जाए लागल।

गोत्र पञ्जीमे सभ गोत्र आऽ तकर प्राचीन मूल रहैत अछि।

पत्र पञ्जी लगभग ३०० वर्ष पूर्वसँ प्रचलनमे अछि। एहिमे मूलग्रामक उल्लेख रहए लागल।

दूषण पञ्जीमे वंशमे आएल क्षरणक उल्लेख रहैत अछि। ई गोपनीय पञ्जी थीक आऽ एकरा सार्वजनिक नहि कएल जाइत अछि। बहुत बादमे एकर चर्च संभव होइत अछि।

उतेढ़ पञ्जीमे सपिण्डक निवृत्ति होइत अछि- छह पुरखक प्राप्त होइत अछि।

मात्र रसाढ़-अररियाक पञ्जीमे महिलाक पञ्जी भेटैत अछि।

.......महाराजाधिराज मान् मिथिलेशक आज्ञानुसार पछबारिपारक लौकिक आऽ श्रेणिक व्यवस्था पञ्जीकार लोकनि जे स्थिर कएलन्हि से प्रकाशित भेल छल आऽ ईहो प्रार्थना छल जे ताहि मध्य जनिका किछु वक्त्तव्य होइन्ह से प्रार्थना पत्र द्वारा श्री ५ मान् मध्य निवेदन करथि, ततः निदान विशिष्ट सभा मध्य एकर परामर्श कए पुनः प्रकाशित कएल जायत।

एतएसँ १ सँ १५ धरि श्रेणी बना देल गेल। ढेर विवाद उठल जे पाइ लए कए उच्च श्रेणी देल गेल।

पछबारिपारक लौकिक नाममे कतहु अलौकिक तँ कतहु असल नाम छल।

किछु उदाहरण अछि-

१. सिंहवाड़-मथुरेश ठाकुर

२. मनियारी- मधुपति मिश्र

३. अमौन-बालकराम पाठक

४. भराम- धीतरी

५. बसन्तपुर- माधव मिश्र

६. कोकडीही- रामेश्वर मिश्र

७. नित्यानन्द चौधरी- पिण्डारुछ

८. एडु- भैय्यो मिश्र

९. खुटौनियाँ- भवानीदत्त झा

१०. लक्षमीपति मिश्र- धगजरी

११. कन्त झा- चानपुरा

१२. टङ्कवाल महिधर झा-पेकपाड़

१३. विष्णुदत्तपुरचिकनौट (मुजफ्फरपुर)

१४. चान पाठक- गजहरा

१५. काकठाकुर- धमदाहा

१६. खाशी ध्यामी- रंगपुरा(पूर्णियाँ)

राजाक निहुछल लड़कीसँ बियाह केलापर राजा द्वारा पञ्जीकारकेँ बजाए हुनकर नाममे तस्कर उपाधि जोड़ब, नैय्यायिक गंगेश उपाध्यायक जन्म पिताक मृत्युक ५ सालक बाद होएब, महेशठाकुरक बहिनक विवाह कूच-बिहारक राजकुमारसँ होएब, कविशेखर ज्योतिरीश्वरक उपाधिक संग उल्लेख (हुनकर पाण्डुलिपि नेपालक पुस्तकालयसँ प्राप्त होएबासँ पूर्व), ओकर अतिरिक्त ढेर रास ढाकाकवि आ कवि शेखर लोकनिक विवरण, मुस्लिम आ चर्मकारसँ विवाहक विवरण आ समाजमे ओहिसँ भेल सन्ततिक प्रति कोनो दुराग्रहक अभाव, ई सभ पञ्जीमे वर्णित अछि।

शाखा पुस्तक देखबाक अवगति

शाखा पुस्तकमे सभसँ पहिने -वर्णाक्रमसँ अ सँ ऐ धरिक पातमे पत्र पञ्जी अछि। जकर विषय थिक कतेक गोत्र- गोत्रक अधीन कतेक मूल, मूलक विभेद मूलग्राम ओ तकर- ताहि मूलग्रामक अछि पुरुष। पृ. १ सँ ३३८ धरि शाखाक विस्तार अछि, प्रारम्भ भेल अछि शाण्डिल्य गोत्रक गंगोली मूलसँ आ जकर आदि पुरुष थिकाह गंगाधर। अगलहि पीढीमे हुनक एक विवाहक दू संतान १.वीर झा आ २.नारायण। वीरक सन्तान पर्व पल्ली/ पवौली मूलक बीजी। आ नारायणक संतान आगाँ संकर्षणसँ खण्डवला (खडौरे) मूलक संस्थापक भेलाह। एहिना क्रमे प्रायः प्रल्लित मूलक बीजी पुरुष ठाम-ठाम भेटताह-

यथा पृष्ठ-संख्या १/३- गंगोली बीजी गंगाधर

पृ.सं. १/१२- एकमा वलियारु वीजी धरनीधर

पृ.सं. १/१४- वरुआली मराढ़ वीजी- दिवाकर

पृ.सं.- १/१७- मंगरौनी माण्डर वीजी त्रिनयन भट्ट इत्यादि।

शाखा पुस्तकक मुख्य विशेषता अछि- प्रयोजनक अनुसार विस्तार, पूर्वापरक ज्ञान हेतु अंकनक व्यवस्था कएल गेल अछि।

यथा पृष्ठ संख्या- ८३/०६ (पञ्जीकार वाला अंक) १८१-६ (श्री ठाकुरजी वाला अंक) मे

कमल मणि ठाकुरक विवाहक उल्लेख अछि- हुनका एक बालक- कुलमणि प्रसिद्ध फेकन ठाकुर। कमलमणि ठाकुरक विवाह दरिहरा मूलक रतौली शाखामे अभयनाथ झाक बालक भीखर झाक पुत्रीसँ। आब पढ़निहारकेँ समस्या हेतन्हि जे ई अभयनाथ सुत भीखरक पूर्व परिचय की छन्हि तँ हम देखैत छी जे भीखरक आगाँ मे ३८/५ लिखिकऽ हरिनन्दन झाक पिता रामचन्द्र झा छथि, जिनकर विवाहक उल्लेख ३८ पत्रक पहिल पारमे ५म पंक्ति रामचन्द्र झाक विवाह लिखल छन्हि। रामचन्द्र झाक दू गोट बालक रघुनन्दन आ दोसर हरिनन्दन। ई दुनू भाय खण्डबला मूलक रतिनाथ ठाकुरक दौहित्र छथि। एहि रतिनाथक परिचयक हेतु ३३॥२ अर्थात् पात संख्या ३३क दोसर पृष्ठ पर तेसर पंक्तिमे जीवे छथि खण्डबला मूलक। एहि जीवेकेँ उठाकऽ ३८ पातक पहिल पारक पाँचम पंक्तिमे अनैत छियन्हि। एहि ठाम देखैत छी जे जीवेक बालक छथि रामनाथ आ पाँथू। एहि पाँथूक बालक छथि रतिनाथ। एहि रतिनाथक विवाह छन्हि महिषी बुधवाल मूलक डालूक पौत्री ओऽ श्रीदत्तक पुत्रीमे। रतिनाथक विवाहक वर्णन एहि ३८ पातक पहिल पारक आठम पंक्तिमे। अस्तु एहि प्रकारेँ सभटा अंकक सहारासँ परिचय आगाँ बढ़ैत अछि। जाहि ठामसँ उद्धरण लेल जाइत छथि। ताहि ठाम नामक ऊपरमे माथपर अंक लिखल जाइत अछि। ई अंक थिक, जतऽ नाम लए जएबाक अछि ओहि पातक संख्या ओऽ पंक्ति जतऽ नाम आनल जाएत अछि। ओहि ठाम नामसँ पहिने जतऽ सँ नाम आनल गेल ओहि पत्रक संख्या ओ पंक्ति।

यदि परिचय् पूर्ण अछि तऽ नाम अनबाक प्रयोजन नहि, मात्र जतऽ पूर्व परिचय लिखल अछि, ओहि पातक संख्या ओ पंक्तिक अंक मात्र लिखि देल जाइत अछि। जेना ११४ पातक पहिल पृष्ठपर चारिम पंक्तिमे अर्थात् ११४/४ मे वलियास मूलक राव शंकरक विवाहक उल्लेख भेल अछि। हुनक विवाह छल पवौली मूलक प्रितिनाथक कन्यामे। प्रितिनाथक विवाहक वर्णन १०३/२ मे भऽ चुकल अछि। हुनक विवाह छल कुजौली मूलक गोपीनाथक कन्यामे तँ मात्र १०३/०२ लिखि परिचय पूरा कऽ देल गेल, आब जिनका परिचय बुझबाक होएतन्हि तँ ओ १०३/०२ मे जाऽ कऽ देख लेताह, अस्तु।

बहुत ठाम पूर्ण परिचय नहि रहलासँ अंकक उपयोग नहि कएल गेल अछि। एहि प्रकारेँ अंक लिखबाक प्रयोजन सिद्ध होएत अछि।

किछि सांकेतिक शब्द:

दौ- अर्थात् मातामह (नानाक नाम)

सँ- मूलक परिचायक

दौहित्र दौ (द्दौ.) माइक (मायक) नाना मातृ मातामह

सदु.- सदुपाध्याय

म.म.उ.- महामहोपाध्याय

वैया.- वैयाकरण

वै.- वैदिक

ज्यो.- ज्योतिष शास्त्रक ज्ञाता

बीजी- अर्थात् कोनो मूलक प्रारम्भिक ज्ञात पुरुष

मिथिला पञ्जी-विज्ञान प्रोन्नयन संस्थान, पचही हाउस, मिर्जापुर रोड, दरभंगा द्वारा मैथिल ब्राह्मण आ कर्ण कायस्थक अतिरिक्त आन जाति मध्य सेहो पञ्जी व्यवस्था लागू कएल जएबाक गप छल (आचार्य भोलानाथ झा, १८.१०.१९८२), मुदा ई संस्थान स्वयं विलीन भऽ गेल। पञ्जीक उद्देश्य जे छल तकर विपरीत ई ब्राह्मण आ कायस्थ समुदायक मध्य आन्तरिक स्तरीकरण आनलक, मिथिलाक लोकतांत्रिक मूल्यमे कमी आनलक, पञ्जीकारक निःस्वार्थ सेवा, सत्यनिष्ठा, आ विश्वासी होएबामे कमी आएल, बिकौआ वर्गक उत्पत्ति भेल आ बाल-विवाहक प्रथा आएल, विधवाक संख्यामे अभूतपूर्व वृद्धि भेल आ आइ धरि समाज एहिसँ देखार भऽ रहल अछि कारण विधवा-विवाहक पक्षमे आ बाल-विवाहक विपक्षमे कोनो समाज-सुधार आन्दोलन मिथिलामे नहि दृष्टिगोचर भेल आ मैत्रेयी सन विदुषीक मिथिलामे उत्पत्ति पुरान गप भऽ गेल।

-गजेन्द्र ठाकुर/ नागेन्द्र कुमार झा/ पञ्जीकार विद्यानन्द झा

३१.१२.२००८

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7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।

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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि।
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