भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

(c)२०००-२०२३. सर्वाधिकार लेखकाधीन आ जतऽ लेखकक नाम नै अछि ततऽ संपादकाधीन। विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA सम्पादक: गजेन्द्र ठाकुर। Editor: Gajendra Thakur

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Wednesday, July 08, 2009

साक्षात्कार

रामाश्रय झा “रामरग” (१९२८- ) विद्वान, वागयकार, शिक्षक आऽ मंच सम्पादक छथि।
रामरगजीसँ गप शप। (६ जुलाई २००८)

गजेन्द्र ठाकुर: गोर लगैत छी। स्वास्थ्य केहन अछि।
रामरंग: ८० बरख पार केलहुँ। संगीतमे बहटरल रहैत छी।
गजेन्द्र ठाकुर: संगीतक तँ अपन फराक भाषा होइत छैक। मैथिली संगीत विद्यापति आऽ लोचन सँ शुरू भए अहाँ धरि अबैत अछि। मैथिलीमे अहाँ लिखनहिओ छी।
रामरंग: अपन मिथिलासँ सम्बन्धित हम तीन रागक रचना केलहुँ अछि, जकर नाम ऐ प्रकारसँ अच्हि।
१.राग तीरभुक्ति, राग विद्यापति कल्याण तथा राग वैदेही भैरव। ऐ तीनू रागमेसँ तीरभुक्ति आर विद्यापति कल्याणमे मैथिली भाषामे खयाल बनल अछि। हमर संगीत रामायणक बालकाण्डमे रागभूपाली आर बिलावलमे सेहो मैथिली भाषामे खयाल छैक। आर सन्गीत रामायणक पृष्ठ ३ पर बिलावलमे श्री गणेशजीक वन्दना तथा पृष्ठ २० पर राग भूपालीमे श्री शंकरजीक वन्दना अछि। पृष्ठ ८७ पर राग तीरभुक्तिमे मिथिला प्रदेशक वन्दना अछि आर पृष्ठ १२० पर राग वैदेही भैरवक (हिन्दीमे) रचना अछि। “अभिनव गीताञ्जलीक पंचम भागमे २६५ आर २६६ पृष्ठ पर विद्यापति कल्याण रागमे विलम्बित एवं द्रुत खयाल मैथिली भाषामे अछि। मिथिला आऽ मैथिलीमे हम उपरोक्त सामग्री बनओने छी।

गजेन्द्र ठाकुर: मुदा पूर्ण रागशास्त्र विद्यापति कल्याणक, तीरभुक्तिक वा वैदेही भैरवक नञि अछि। मैथिलीमे आरो रचना अहाँ...
रामरंग: बहुत रचना मोन अछि, मुदा के सीखत आऽ के लीखत। हाथ थरथराइत अछि आब हमर।
गजेन्द्र ठाकुर: कमसँ कम ओहि तीनू रागक रचना शास्त्र लिखि दैतियैक तँ हम पुस्तकाकार छापि सकितहुँ।
रामरंग: जे रचना सभ हम देने छी ओकरा छापि दिऔक। हाथ थरथराइत अछि , तैयो हम तीनूक विस्ट्रुत विवरण पठायब, लिखैत छी।
गजेन्द्र ठाकुर: प्रणाम।
रामरंग: निकेना रहू।
रामाश्रय झा “रामरग” (१९२८- ) विद्वान, वागयकार, शिक्षक आऽ मंच सम्पादक छथि।
राग विद्यापति कल्याण- एकताल (विलम्बित)

मैथिली भाषामे श्री रामाश्रय झा “रामरंग” केर रचना।
स्थाई- कतेक कहब गुण अहांके सुवन गणेश विद्यापति विद्या गुण निधान।
अन्तरा- मिथिला कोकिला किर्ति पताका “रामरंग” अहां शिव भगत सुजान॥

स्थायी
- - रेग॒म॑प ग॒रेसा
ऽऽ क ते ऽऽ क क ऽ

रे सा (सा) नि॒ध निसा – रे नि॒ध प धनि सा सारे ग॒रे रेग॒म॑ओअ - म॑
ह ब ऽ ऽ ऽ गु न ऽ अ हां, ऽऽ के ऽ ऽ सुव नऽ ऽऽऽऽ ऽ ग

प प धनि॒ धप धनिसां - - रें सां नि धप (प)ग॒ रे सा रे ग॒म॑प ग॒ रेसा
ने स विऽ द्याप ति ऽऽ ऽ ऽवि द्या गुन निधा न, क ते ऽऽऽ क, कऽ

अन्तरा

पप नि॒ध निसां सांरें
मिथि लाऽ ऽऽ कोकि

सां – निसांरेंगं॒ रें सां रें नि सांरे नि॒ धप प (प) ग॒ रेसा
लाऽ की ऽऽऽ ति प ता ऽ ऽऽ का ऽऽ रा म रं ग अ

रे सासा धनि॒प ध निसा -सा रे ग॒म॑प -ग॒ सारे सा,सा रेग॒म॑प ग॒, रेसा
हां शिव भऽ, ग तऽ ऽसु जाऽऽऽ ऽ ऽ न ऽ, क ते ऽऽऽ क,कऽ

*गंधार कोमल, मध्यम तीव्र, निषाद दुनू आऽ अन्य स्वर शुद्ध।
रामाश्रय झा “रामरग” (१९२८- ) विद्वान, वागयकार, शिक्षक आऽ मंच सम्पादक छथि।
राग विद्यापति कल्याण- एकताल (विलम्बित)

मैथिली भाषामे श्री रामाश्रय झा “रामरंग” केर रचना।
स्थाई- कतेक कहब गुण अहांके सुवन गणेश विद्यापति विद्या गुण निधान।
अन्तरा- मिथिला कोकिला किर्ति पताका “रामरंग” अहां शिव भगत सुजान॥

स्थायी
- - रेग॒म॑प ग॒रेसा
ऽऽ क ते ऽऽ क क ऽ

रे सा (सा) नि॒ध निसा – रे नि॒ध प धनि सा सारे ग॒रे रेग॒म॑ओअ - म॑
ह ब ऽ ऽ ऽ गु न ऽ अ हां, ऽऽ के ऽ ऽ सुव नऽ ऽऽऽऽ ऽ ग

प प धनि॒ धप धनिसां - - रें सां नि धप (प)ग॒ रे सा रे ग॒म॑प ग॒ रेसा
ने स विऽ द्याप ति ऽऽ ऽ ऽवि द्या गुन निधा न, क ते ऽऽऽ क, कऽ

अन्तरा

पप नि॒ध निसां सांरें
मिथि लाऽ ऽऽ कोकि

सां – निसांरेंगं॒ रें सां रें नि सांरे नि॒ धप प (प) ग॒ रेसा
लाऽ की ऽऽऽ ति प ता ऽ ऽऽ का ऽऽ रा म रं ग अ

रे सासा धनि॒प ध निसा -सा रे ग॒म॑प -ग॒ सारे सा,सा रेग॒म॑प ग॒, रेसा
हां शिव भऽ, ग तऽ ऽसु जाऽऽऽ ऽ ऽ न ऽ, क ते ऽऽऽ क,कऽ

रामाश्रय झा “रामरग” (१९२८- ) विद्वान, वागयकार, शिक्षक आऽ मंच सम्पादक छथि।
२.राग विद्यापति कल्याण – त्रिताल (मध्य लय)

स्थाई- भगति वश भेला शिव जिनका घर एला शिव, डमरु त्रिशूल बसहा बिसरि उगना भेष करथि चाकरी।
अन्तरा- जननी जनक धन, “रामरंग” पावल पूत एहन, मिथिलाक केलन्हि ऊँच पागड़ी॥

स्थाई- रे

सा गम॑ प म॑ प - - म॑ग॒ - रे सा सारे नि सा -, नि
ग तिऽऽ व श ऽ ऽ भे ऽ ला ऽ शि ऽ व ऽ ऽ जि

ध़ नि सा रे सा नि॒ – प़ ध़ नि॒ ध़ प़ – नि सा - - सा
न का ऽ घ र ऽ ऽ ए ऽ ला ऽ शि व ऽ ऽ ड

रे ग॒ म॑ प प – प नि॒ ध प म॑ प धनि सां सां गं॒
म रु ऽ त्रि शू ऽ ल ब स हा ऽ बि सऽ ऽऽ रि उ

रें सां नि रें सां नि॒ ध प म॑ प पनि॒ ध प - -ग -- रे
ग ना ऽ ऽ भे ऽ ष क र थि चाऽ ऽ कऽ ऽरी ऽऽ, भ

अन्तरा प


प नि सां सां सां - - ध नि - ध नि नि सां रें सां -, नि
न नी ऽ ज न ऽ ऽ ऽ ऽ क ध न ध न ऽ, रा

नि सां – गं॒ रें सां सां नि – ध नि सां नि॒ ध प ग॒

म॑ प नि सां सां नि॒ ध प म॑ प पनि॒ ध प- -ग – रे
थि ला ऽ क के ल न्हि ऊँ ऽ च पाऽऽ गऽ ऽड़ी ऽऽ,भ
***गंधार कोमल, मध्यम तीव्र, निषाद दोनों व अन्य स्वर शुद्ध।

राग विद्यापति कल्याण- एकताल (विलम्बित)

मैथिली भाषामे श्री रामाश्रय झा “रामरंग” केर रचना।
स्थाई- कतेक कहब गुण अहांके सुवन गणेश विद्यापति विद्या गुण निधान।
अन्तरा- मिथिला कोकिला किर्ति पताका “रामरंग” अहां शिव भगत सुजान॥

स्थायी
- - रेग॒म॑प ग॒रेसा
ऽऽ क ते ऽऽ क क ऽ

रे सा (सा) नि॒ध निसा – रे नि॒ध प धनि सा सारे ग॒रे रेग॒म॑ओअ - म॑
ह ब ऽ ऽ ऽ गु न ऽ अ हां, ऽऽ के ऽ ऽ सुव नऽ ऽऽऽऽ ऽ ग

प प धनि॒ धप धनिसां - - रें सां नि धप (प)ग॒ रे सा रे ग॒म॑प ग॒ रेसा
ने स विऽ द्याप ति ऽऽ ऽ ऽवि द्या गुन निधा न, क ते ऽऽऽ क, कऽ

अन्तरा

पप नि॒ध निसां सांरें
मिथि लाऽ ऽऽ कोकि

सां – निसांरेंगं॒ रें सां रें नि सांरे नि॒ धप प (प) ग॒ रेसा
लाऽ की ऽऽऽ ति प ता ऽ ऽऽ का ऽऽ रा म रं ग अ

रे सासा धनि॒प ध निसा -सा रे ग॒म॑प -ग॒ सारे सा,सा रेग॒म॑प ग॒, रेसा
हां शिव भऽ, ग तऽ ऽसु जाऽऽऽ ऽ ऽ न ऽ, क ते ऽऽऽ क,कऽ

*गंधार कोमल, मध्यम तीव्र, निषाद दुनू आऽ अन्य स्वर शुद्ध।

३.श्री गणेश जीक वन्दना
राग बिलावल त्रिताल (मध्य लय)
स्थाई: विघन हरन गज बदन दया करु, हरु हमर दुःख-ताप-संताप।
अन्तरा: कतेक कहब हम अपन अवगुन, अधम आयल “रामरंग” अहाँ शरण।
आशुतोष सुत गण नायक बरदायक, सब विधि टारु पाप।

स्थाई
नि
ग प ध नि सा नि ध प ध नि॒ ध प म ग म रे
वि ध न ह र न ग ज ब द न द या ऽ क रु

ग ग म नि॒ ध प म ग ग प म ग म रे स सा
ग रु ऽ ह म र दु ख ता ऽ प सं ता ऽ प ऽ

अन्तरा
नि रें
प प ध नि सां सां सां सां सां गं गं मं गं रें सां –
क ते क क ह ब ह म अ प न अ व गु न ऽ
रे
सां सां सां सां ध नि॒ ध प ध ग प म ग ग प प
अ ध म आ य ल रा म रे ऽ ग अ हां श र ण

ध प म ग म रे सा सा सा सा ध - ध नि॒ ध प
आ ऽ शु तो ऽ ष सु त ग ण ना ऽ य क व र
धनि संरें नि सां ध नि॒ ध प पध नि॒ ध प म ग म रे
दाऽ ऽऽ य क स ब बि ध टाऽ ऽ रु ऽ पा ऽ ऽ प

४.मिथिलाक वन्दना
राग तीरभुक्ति झपताल

स्थाई: गंग बागमती कोशी के जहँ धार, एहेन भूमि कय नमन करूँ बार-बार।
अन्तरा: जनक याग्यवल्क जहँ सन्त विद्वान, “रामरंग” जय मिथिला नमन तोहे बार-बार॥

स्थाई

रे – ग म प म ग रे – सा
गं ऽ ग ऽ बा ऽ ग म ऽ ती


सा नि ध़ – प़ नि नि सा रे सा
को ऽ शी ऽ के ज हं धा ऽ र

सा
म ग रेग रे प ध म पनि सां सां
ए हे नऽ ऽ भू ऽ मि कऽ ऽ य


सां नि प ध (ध) म ग रे सा सा
न म न क रुँ बा ऽ र बा र

अन्तरा
प पध म – प नि नि सां – सां
ज नऽ क ऽ ऽ या ग्य व ऽ ल्क

रें रें गं – मं मं गं रें – सां
ज हं सं ऽ त वि ऽ द्वा ऽ न
ध प
सां नि प ध म प नि सां सां सां
रा म रं ऽ ग ज य मि थि ला

सां नि प ध (ध) म ग रे सा सा
न म न तो हे बा ऽ र बा र
५.श्री शंकर जीक वन्दना
राग भूपाली त्रिताल (मध्य लय)

स्थाई: कतेक कहब दुःख अहाँ कय अपन शिव अहूँ रहब चुप साधि।
अन्तरा: चिंता विथा तरह तरह क अछि, तन लागल अछि व्याधि,
“रामरंग” कोन कोन गनब सब एक सय एक असाध्य॥

स्थाई
प ग ध प ग रे स रे स ध सा रे ग रे ग ग
क ते क क ह ब दुः ख अ हाँ कय अ प न शि व

ग ग – रे ग प ध सां पध सां ध प ग रे सा –
अ हूँ ऽ र ह ब चु प साऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ धि ऽ

अन्तरा

प ग प ध सां सां – सां सां ध सां सां सां रें सां सां
चिं ऽ ता ऽ वि था ऽ त र ह त र ह क अ छि

सां सां ध - सां सां रें रें सं रे गं रें सां – ध प
त न ला ऽ ग ल अ छि व्या ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ धि ऽ

सां – ध प ग रे स रे सा ध स रे ग रे ग ग
रा ऽ म रं ऽ ग को न को ऽ न ग न ब स ब

ग ग ग रे ग प ध सां पध सां ध प ग रे सा –
ए क स य ए ऽ क अ साऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ध्य ऽ
राजमोहन झासँ गजेन्द्र ठाकुरक साक्षात्कार
गजेन्द्र ठाकुर:मैथिलीक जन सामान्यसँ दूर भऽ मैथिली साहित्यकार सभ मैथिलीकेँ प्रदर्शनक वस्तु बना देलखिन्ह, साहित्यसँ लोक किएक दूर होइत गेल?
राजमोहन झा:एहि लेल अहाँ साहित्यकारकेँ कोना दोषी कहैत छियन्हि?
गजेन्द्र ठाकुर:ओ साहित्य धरि सीमित रहलाह? समाजसँ कोनो मतलब नहि रहलन्हि? अपन लिखलथि आ गोष्ठी आ कवि सम्मेलन धरि सीमित रहलाह? गाम-घर छोड़ि देलन्हि। मैथिली साहित्यकार समाज आ राजनीतिसँ दूर रहलाह। फैशन जेकाँ साहित्य लिखल गेलै, पढ़ल गेलै आ सुनल गेलै?
राजमोहन झा:से तँ आब भऽ रहल छै। पहिनुका साहित्यकार तँ एना नञि करथि।
गजेन्द्र ठाकुर: एकटा हरिमोहन झाकेँ छोड़ि कऽ गाममे लोक कोनो दोसरक रचनाकेँ नहि पढ़ने-सुनने छथि। मिथिला मिहिर गाम-गाम जाइत छलै , बन्द भऽ गेलै, । हरिमोहन झाकेँ छोड़ि कऽ गामक लोक कोनो दोसर साहित्यकारक नामो नहि सुनने छथि। दोसर साहित्यकार हरिमोहन झा जेकाँ काज किएक नहि कऽ सकलाह?
राजमोहन झा:ई तँ एकटा मिस्ट्री जेकाँ छैक। हरिमोहन झाक साहित्य एतेक पोपुलर कोन कारणसँ भेलन्हि आ दोसर साहित्यकारक किएक नहि भेलन्हि। ओ गुण दोसर साहित्यकार सभमे किएक नहि अओलन्हि। एकर ओनो रेडीमेड सोल्युशन नहि भेटल अछि। जखन कि हरिमोहन झाक साहित्यक सेहो आलोचना होइत छैक जे साहित्यमे जै समाजकेँ ओ पेन्ट केलन्हि से सम्पूर्ण समाज नहि छै।एकटा विशेष वर्गकेँ लऽ कए ओ साहित्य रचलन्हि। दलित समाज हुनकर साहित्यसँ वंचिते जेकाँ छन्हि। तकर बावजूद एतेक पोपुलर कोना रहथि आ छथि से एखनो धरि नीक जेकाँ एक्सप्लेन नहि भेल छैक। कहल जाइत छैक जे हुनके साहित्यसँ पाठक वर्ग तैयार भेलैक पाठक रूप मे जे वर्ग एग्जिसटेन्समे आएल से हुनके साहित्यसँ।
गजेन्द्र ठाकुर:साहित्य उद्देश्यपूर्ण होएबाक चाही वा एकर उद्देश्य मात्र मनोरंजन होएबाक चाही।
राजमोहन झा:सैह सेल्फ एनेलाइज करबाक छै। मनोरंजन तँ रहबाके चाही नहि तँ क्यो पढ़बे नहि करत मुदा अन्तिम उद्देश्य मनोरंजन नहि होएबाक चाही। विभिन्न स्तरक लोकक लेल विभिन्न स्तरक साहित्य, जकर जे आवश्यकता छै तकर पूर्ति होएबाक चाही।
गजेन्द्र ठाकुर:बेर-बेर सुनबामे आबए छै जे मैथिली भाषा मरि रहल अछि। माइग्रेशन नीक चीज छियैक मुदा एक जेनेरेशनमे जाहि समाजक नब्बे प्रतिशत जनसंख्या माइग्रेट कए गेल ओहिमे तँ एहि प्रकारक वस्तु तँ अवश्य आएत। भारतसँ बाहर जे जाइत छथि हुनकर भाषा अंग्रेजी आ जे भारतमे दोसर ठाम जाइत छथि अदहा गोटे हिन्दी बाजए लगैत छथि।
राजमोहन झा:लोक मे भाषा प्रेम घटल अछि। पहिने ई नहि रहैक।लोक मैथिली छोड़ि रहल अछि।
गजेन्द्र ठाकुर: ई भारतक मैथिली भाषी प्रदेशक विषयमे तँ सत्य अछि मुदा नेपालमे हिन्दी विरोधक कारण अप्रत्यक्ष रूपसँ मैथिलीकेँ लाभ भेल छै।
राजमोहन झा:भारतमे स्थिति खराप छै।पहिलुका लोक जेना समर्पण आब लोकमे नहि छै।
गजेन्द्र ठाकुर:बबुआ जी झा “अज्ञात”केँ साहित्य अकादमी पुरस्कार देबाक अहाँ विरोध कएने रहियन्हि...
राजमोहन झा:हम विरोध नहि कएने रहियन्हि। दिल्लीमे आन-आन सभ कएने रहथि।
गजेन्द्र ठाकुर:आरम्भक तीसम अंकमे अहाँक सामूहिक वक्तव्य आएल छल। ओहिमे २००१क साहित्य अकादमी पुरस्कार बबुआजी झा “अज्ञात”क “प्रतिज्ञा पाण्डव” आ अनुवाद पुरस्कार सुरेश्वर झाकेँ देल जएबाक विरोध भेल छल। आरम्भ तँ आब लगैए बन्द भऽ गेल अछि।
राजमोहन झा:हँ।.....आरम्भ बन्द नहि भेल अछि स्थगित अछि।
गजेन्द्र ठाकुर:भालचन्द्र झाक “बीछल बेराएल मराठी”एकांकी जे मूलभाषासँ सोझे अनूदित छल, सुभाष चन्द्र यादव जीक बिहाड़ि आउ (बंगला सँ मैथिली अनुवाद) सेहो एहि तरहक सोझे अनूदित कृति छल तकरा पुरस्कार नहि भेटल। ओहि समय मे कोनो विरोध नहि भेल। मुदा अनचोक्के सभ क्यो बबुआजी झा “अज्ञात”क पाछाँ पड़ि जाइ गेलाह, हुनका बिनु पढ़ने ककरो इशारापर आ क्षुद्र उद्देश्य पूर्तिक लेल तँ ई नहि कएल गेल? जखन कि मूल समस्या मैथिलीक अछिये, पाठक शून्यता आ साहित्यक जनसँ दूर होएब आ भाषाक मृत होएबाक खतरा, तकर विरोध किएक नहि कहियो भेल?
राजमोहन झा:शैलेन्द्र कुमार झाक अनूदित संस्कार सेहो सोझे अनुवाद छल तकरो पुरस्कार नहि भेटलैक। विरोध तँ होइत अछि, मुदा लोक परवाह नहि करैत छथि।
गजेन्द्र ठाकुर:तकर कारण पाठकक कमी तँ नहि अछि? जूरी आ साहित्यकारो जखन दोसराक अनूदित आ लिखित रचनाकेँ नहि पढ़ैत छथि? सिद्धार्थ राईक नेपाली कविता संग्रहक मैथिली अनुवाद “ओ लोकनि जे नहि घुरलाह” मेनका मल्लिक द्वारा कएल गेल, २००६ ई. मे प्रकाशित भेल, मनप्रसाद सुब्बाक नेपाली कविता संग्रहक अनुवाद“अक्षर आर्केष्ट्रा” नामसँ प्रदीप बिहारी कएलन्हि, ई २००७ ई.मे प्रकाशित भेल। मुदा जे जूरी एहि पोथी सभकेँ देखबे नहि करताह तँ फेर अपन लगुआ-भिरुआकेँ अनुवाद पुरस्कार दिअओताह, भने सोझे कएल अनुवाद रहए वा नहि। ओना अकादमी द्वारा२००७ मे अनन्त बिहारी लाल दास “इन्दु” (युद्ध आ योद्धा-अगम सिंह गिरि, नेपाली) केँ अनुवाद पुरस्कार देबाक प्रशंसा होएबाक चाही। मुदा चयन प्रक्रियामे नीक चीजक निरन्तरता किएक नहि रहैत अछि?
राजमोहन झा:नञि विरोध तँ होइत रहैत छैक, होएबाक चाही। सोझे अनुवाद कएल पोथी पुरस्कारक पात्र अछि।
गजेन्द्र ठाकुर:मुदा जूरीमे तँ सभटा पुरने लोक सभ छथि । पुरना लोकमे पहिल कथा, पहिल कविता, पहिल नाटक, पहिल पत्र-पत्रिका आदिक उपधि लेल घमासान होइत रहैत अछि। कोनो पत्र-पत्रिका जे छपलक सएह पढ़लक ताहिसँ कोनो मतलब नहि। पुरना लोकमे अहाँक हिसाबे भाषा प्रेम बेशी रहए।
राजमोहन झा:नञि एहि तरहक जूरीक विरोध होइत रहल छैक। आइ काल्हिक साहित्यकारमे गुटबन्दी बेशी भेल अछि। पहिने नहि रहए।
गजेन्द्र ठाकुर:एहि बेर फ्रेंच भाषाक जीन मेरी गुस्ताव ली क्लाजियोकेँ नोबल पुरस्कार भेटलन्हि। मेरिकाक न्यू जर्सीक फिलिप रॉथ पिछड़ि गेलाह। कहल गेल जे अमेरिकामे जे आत्ममुग्धताक स्थिति अछि ताहि कारणसँ ओतए अनुवादपर ध्यान नहि देल जाइत अछि आ ताहि कारणसँ ओकर साहित्य पाछाँ भए गेल अछि। ई आत्ममुग्धता मैथिलीक सम्दर्भमे कतेक अछि।
राजमोहन झा:टांशलेशन तँ बहुत जरूरी छैक। तखने तँ कम्पेरीजन कए सकब।जीवनानुभवसँ लोक लिखैत अछि, जरूरी छै, तकरा अनुवाद आर विस्तार प्रदान करत।

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पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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