भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Wednesday, July 08, 2009

मैथिली राम चरित मानस-मैथिली समालोचनाक विफलता

मैथिली साहित्यकेँ पढ़निहारक समक्ष मैथिलीमे रामचरित किंवा रामायण 1. श्री चंदा झा कृत मिथिला भाषा रामायण आऽ 2.श्री लालदासक रमेश्वर चरित मिथिला रामायण -एहि दू गोट ग्रंथक रूपमे प्राप्त होइत छन्हि।पाठ्यक्रमक अंतर्गत स्कूल,कॉलेज-विश्वविद्यालयक मैथिली विषयक पाठ हो किंवा सामान्य आलोचनग्रंथ आकि पत्र-पत्रिकामे छिड़ियायल लेख सभ एहि दू गोट रामायणक अतिरिक्त कोनो तेसर रामायणक अस्तित्वो धरि नहि स्वीकार कएल गेल अछि। एकर संग ईहो बुझि लियह जे जनमानस समालोचनाशास्त्रक आधार पर राखल विचारकेँ तखने स्वीकार करैत अछि जखन की ओऽ सत्यताक प्रतीक हो। आइयो मिथिलामे अखंड रामायण पाठ होइत अछि-बाल्मीकि रामायणक किंवा तुलसीक रामचरितमानसक। एकर कारण पर हम बहुत दिन धरि विचार करैत रहलहुँ।कैकटा चन्द्र रामायण आऽ लालदासकृत मिथिला रामायण रामायण अखंड पाठ केनिहार लोकनिकेँ बँटबो कएलहुँ, मुदा सबहक ईएह विचार छल, जे ई दुनू ग्रंथ मैथिली साहित्यक अमूल्य धरोहर अछि, मुदा अखंड पाठक सुर जे तुलसीक मानसमे अछि से दोसर भाषाक रहला उत्तरो संगीतमय अछि। शंकरदेव अपन मातृभाषा असमियाक बदला मैथिली भाषाक प्रयोग संगीतमय भाषा होयबाक द्वारे कएलन्हि ताहि भाषामे संगीतमय रामायणक रचना जे अखण्ड पाठमे प्रयोग भय सकय, केर निर्माण संभव नहि भय सकल अछि से हमर मोन मानबाक हेतु तैयार नहि छल। तखने एकटा लाइब्ररीमे हमरा श्री रामलोचनशरण-कृत यथासम्भव पूर्णभावरक्षित समश्लोकी मैथिली श्रीरामचरितमानसक दर्शन भेल । एहि ग्रंथकेँ पूर्णरूपेँ पढ़बाक मोह हम नहि त्यागि सकलहुँ आऽ



आब एहि पर एक गोट छोट-छीन समीक्षा लिखबाक पहिने हम समस्त मैथिल समाजसँ दुइ गोट प्रश्न पुछय चाहैत छी।
1.अपन समीक्षक लोकनि एहि मोतीकेँ चिन्हबामे सफल किएक नहि भय सकलाह,एकर चर्चो तक मैथिलीक उपरोक्त दुनू रामायणक समक्ष किएक नहि केल गेल। स्व.हरिमोहन झाक कोनो पोथी मैथिली अकादमी द्वारा हुनका जिबैत प्रकाशित नहि भेल आऽ साहित्य अकादमी पुरस्कार सेहो हुनका मृत्योपरांत देल गेलन्हि।आचार्य रामलोचन शरण मैथिलीक सभसँ पैघ महाकाव्यक रचयिता छथि आऽ हमरा विचारे सभसँ संपूर्ण मैथिली रामायणक सेहो। जखन हम एहि महाकाव्यक फोटोकॉपी लाइब्ररियनक विशेष अनुकंपासँ लेबामे सफल भेलहुँ आऽ एकर पूर्वाँचल मिथिलाक रामायण- अखंड- पाठक संस्थाकेँ देलहुँ, तँ ओ ऽ लोकनि एकरा देखि कय आश्चर्यचकित रहि गेलाह आऽ अगिला साल एहि रामायणक अखंड पाठक निर्णय कएलन्हि। एकरा मैथिलीक समालोचनाशास्त्रक विफलता मानल जाय, किएक तँ ई महाकाव्य तँ विफल भैये नहि सकैत अछि। आचार्यक मनोहरपोथीक चर्चा हम अपन बाल्येवस्थासँ सुनैत रही।
2. मैथिलीक सभसँ पैघ महाकाव्यक चर्चा मात्र सीतायन पर आबि किएक खतम भय जाइत अछि।आचार्य श्री रामलोचनशरणक मैथिली श्री रामचरितमानस सभसँ पैघ महाकाव्य अछि ई एकटा तथ्य अछि आऽ से समालोचनाकार किंवा मैथिली भाषाक इतिहासकार लोकनिक कृपाक वशीभूत नहि अछि।
अपन ग्रंथक किञ्चित् पूर्ववृत्तम् मे आचार्य लिखैत छथि- मिथिलाभाषायाः मूर्द्धन्या लेखकाः श्रीहरिमोहनझामहोदया निशम्यैतद् वृत्तं परमाह्लादं गता भूयो भूयश्च मामुत्साहितवन्तः। आँगाँ ओऽ लिखैत छथि-प्राध्यापकस्य श्री सुरेन्द्रझा ‘सुमन’ तथा सम्पादनविभागस्थ पण्डित श्री शिवशंकरझा-महोदयस्य हृदयेनाहं कृतज़्ज्ञोऽस्मि।

आचार्यजीक सुन्दरकाण्डक पारंभ देखू-
जामवंत केर वचन सोहाओल। सुनि हनुमंत हृदय अति भाओल॥1॥ ता धारि बाट देखब सहि सूले।
खा कय बंधु कंद फल मूले॥2॥
जाधरि आबी सीतहिँ देखी। होयत काज मन हरख विसेखी॥3॥ ई कहि सबहिँ झुकाकय माथे। चलल हरषि हिय धय रघुनाथे॥4॥
सिंधु तीर एक सुंदर भूधर। कौतुक कूदि चढ़ल तेहि ऊपर॥5॥ पुनु पुनि रघुवीरहिँ उर धारी। फनला पवनतनय बल भारी॥6॥ जहि गिरि चरन देथि हनुमंते। से चल जाय पताल तुरंते॥7॥ सर अमोघ रघुपति केर जहिना। चलला हनूमान झट तहिना॥8॥ जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। कह मैनाक हौ श्रम भारी॥9॥
आऽ आब देखू श्री रामचरित मानसक बानगी। तुलसी अकबरक समकालीन छलाह आऽ हुनकर भाषा आऽ अखुनका भाषामे किछु अंतर आबि गेल अछि, मुदा तुलसीक गेयता ओहिनाक ओहिना अछि। आचार्यजी तुलसीक गेयता उठओलन्हि अछि, आऽ दुरूहता खतम कय देने अछि। सभ काण्डक शुरूमे देल संस्कृत पद्य तुलसीक मानससँ लेलन्हि अछि। कवि चन्द्र आऽ लालदास दुनू गोटे अप्पन संस्कृत पद्य बनओलन्हि अछि। आचार्यजीक ई मैथिली रमचरितमानस तुलसीक मानसक रूपांतर तँ अछि,मुदा ई मैथिलीक मूल महाकाव्यक रूपमे परिगणित होयबाक अधिकारी अछि जेना कंबनक तमिल रामायण आऽ तुलसीक मानस अपन-अपन भाषामे केल जा रहल अछि। कंबन बाल्मीकी रामायणक रूपांतर तमिलमे कय रहल छलाह आऽ बाल्मीकि रामायणक विषयमे कहलन्हि जे- ई रामायण एकटा दूधक समुद्र छे आऽ हम छी एकटा बिलाड़ि जे मोनसूबा बना रहल अछि जे एहि सभटा दूधकेँ पीबि जाइ। ओना इइहो सत्य जे कंबन कहियो -आचार्यजी सेहो एहिना कएलन्हि- रामायण केँ अपन मौलिक कृति नहि कहलन्हि वरन बाल्मीकिक कृतिक रूपांतरे कहलन्हि,जखन कि ओ ऽ अपन कृतिमे रामकेँ भगवान बनाय देलन्हि।बाल्मीकि रामकेँ मर्यादा पुरुष अहि मानैत छलाह।बाल्मीकि सुग्रीवक विवाह बालीक पत्नीसँ बालीक मरबाक पश्चात होयबाक वर्णन करैत छथि मुदा कंबन बालीक पत्नीक आजीवन वैधव्यक वर्णन करैत छथि। आछर्यजीकेँ ई करबाक आवश्यकता नहि पड़लन्हि किएकतँ तुलसीक मानस लोकक कंठमे बसि गेल छल,आऽ ओऽ एकर निर्वाह कएलन्हि।
आब मानसक एकटा विवादास्पद पद्यक चर्चा करी। अर्थक अनर्थ कोना होइत अछि से देखू। आचार्यजी सुन्दरकाण्डक अंतमे लिखैत छथि जखन सिंधु (समुद्र)रामकेँ लंका जयबाक रस्ता नहि दैत छथि तखन राम कहैत छथि, लछुमन बान सरासन आनू। सोखब बारिधि बिसिख कृसानू॥1॥
तखन सिंधु कर जोरि बजैत छथि- ढोल गमार सुद्र पसु नारी। सब थिक ताड़न केर अधिकारी॥
एकर अर्थ ई सभ -ढोल गमार सुद्र पसु नारी- ई सभ शिक्षाकिंवा सबक देबा योग्य अछि,गमार सुद्र आऽ नारीमे शिक्षाक अभाव अछि तेँ आ ऽ पसुमे मनुष्यक अपेक्षा बुद्धि नहि छैक तेँ, ढोलक प्रयोग बिना शिक्षाक करब तँ संगीत नहि ध्वनि भय जायत। नीचाँ तुलसीक श्रीरामचरित मानसमे सेहो देखू-
फेर समुद्र ओहि स्थितिमे खलनायक बनि रहल छल आ ऽ ओकर वक्त्तव्य कविक आकि रचनाकारक वक्त्तव्य नहि भय सकैत अछि। रचनाकारक रचनामे नीक अधलाह सभ पात्र रहैत अछि, आ ऽ ओहि पात्रक मुँह सँ नीक आ ऽ अधलाह दुनू गप निकलत। रचनाकारक सफलता एहि पर निर्भर करैत अछि, जे ओ ऽ अपनाकेँ अपन पत्रसँ फराक कय पबैत अछि कि नहि।

एहि आलोचना निबंधक उद्देश्य चन्द्र कवि आकि कवि लालदासक रचनाकेँ छोट करब नहि अछि वरन् हुनकर रचनाक समकक्ष आचार्यक रचनाकेँ अनबा मात्र अछि जाहिसँ तुलसीक मानसक वर्चस्व आचार्यजीक रचना खतम कय सकय। तुलसीक प्रासंगिकता नहि वरण ओकर दुरूहताकेँ आचार्य खतम कएने छथि।

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