भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Tuesday, September 01, 2009

पेटार १४

रमानाथ झा



..

1

प्राचीन मैथिली-साहित्यक

रूपरेखा



मैथिलीक साहित्याकाशमे विद्यापति सत्ये तीव्र तिग्मांशुक सदृश देदीप्यमान छथि जनिक
प्रखर काव्य-प्रतिभाक तेजमे अन्यान्य हुनक पुर्ववर्ती, समकालीन, ओ कतहु कतहु तँ परवर्ती
सेहो, कविलोकनिक कृति ग्रह-नक्षत्र-तारा जकाँ विलीन भए गेल। तँ बहुत दिन धरि इएह बुझल
जाइत छल जे मैथिली साहित्यक आदि प्रवत्र्तक विद्यापति थिक रो रत्नाकरक खण्ड सभ जखन
भेटल ओ प्रकाशित भेल तखन कविशेखराचार्य ज्योतिरी•ार विद्यापतिक पितामह-भ्राता कहाए
मैथिली-साहित्यक आदि प्रवत्र्तकक रूपमे प्रतिष्ठित भेलाह। बहुत दिन धरि हुनक परिचय
भ्रमहिमे भोतिआइत रहल। भाग्यसँ हमरा हुनक परिचय पञ्जीमे भेटि गेल जाहि आधार पर
आब सिद्ध अछि जे ज्योतिरी•ार ठाकुर, पालीमूलक अबरझट्टा शाखामे संभूत, विद्यापतिक
प्रपितामह धीरे•ारक समकालीन, महाराज हरिसिंहदेवक आश्रित, तेरहम शक शताब्दीक
आदिमे, विद्यापतिसँ गोटेक सए वर्ष पूर्व प्रादुर्भूत भेल छलाह। परन्तु हुनक वर्णरत्नाकरक
पर्यालोचनासँ जँ किछु स्पष्ट प्रतीत होइत अछि तँ इएह जे मैथिली-साहित्यक आदि ग्रन्थ ओ
नहि भए सकैत अछि, ज्योतिरी•ार एकर आदि प्रवत्र्तक नहि थिकाह। एहि साहित्यक प्रभात
भलहिं विद्यापतिक उदयसँ भेल हो, एकर अरुणोदय भलहिं वर्णरत्नाकरक निबन्धनकें कही,
परन्तु ताहिसँ पूर्वहुँ एहि साहित्यक एक गोट दीर्घकालव्यापी युग छल जकरा हमरा लोकनि
विस्मृतिक अन्धकारमे डूबल रातिक आख्या दए सकैत छिऐक। परन्तु एहू रातिमे छोट पैघ
अनेक ज्योतिष्मान् नक्षत्र उदित होइत रहलाह अछि जनिक क्षीण आलोक ओहि अन्धकारकें
चीरि-चीरि हमरा लोकनिकें उपलब्ध होइत अछि। ओहि विस्मृत युगक किछु क्षीण रश्मिकें ताकि
ताकिकें चीन्हब ओ चीन्हि चीन्हि मैथिली-साहित्यक जिज्ञासु प्रेमीकें चीन्हएब हमरा एतए लक्ष्य
अछि। प्राचीन मैथिली-साहित्यसँ एतए हमरा ज्योतिरी•ारसँ पूर्वक मैथिली-साहित्य अभिप्रेत
अछि।



साहित्यक शरीर थिक भाषा। संवेगात्मक अनुभूति, जकरा साहित्य-शास्त्रमे रसक
आख्या अछि, भाषाक माध्यमसँ अभिव्यक्त होइत अछि ओ तें कोनहु साहित्यक इतिहास ओहि
भाषाक इतिहाससँ संशिलष्ट रहैत अछि जाहि भाषामे ओ साहित्य उपनिबद्ध रहैत अछि। परन्तु
भाषाक स्वरूप स्थिर नहि रहैत अछि। वि•ाक इतिहासमे संस्कृते टा एहन भाषा अछि जे
भगवान् पाणिनि द्वारा "संस्कृत" भए तेना प्रतिष्टित भेल अछि जे अद्यापि अपन स्वरूप सब ठाम
सब समयमे एक रूपक स्थिर रखने अछि। तकर कारण ई भेल जे संस्कृत नामक जे भाषा
पाणिनिद्वारा सुसंस्कृत भेल से एहि रूपमे कतहु बाजल नहि जाइत छल। ओ वर्ग-विशेषक भाषा
छल, शिष्टक भाषा, द्विजातिक भाषा, पणिडतक भाषा। जनसाधारणक जँ ओ भाषा रहैत तँ


ओहूमे समय-भेदें वा देश-भेदें भेद होइतहिं रहैत। अन्यान्य भाषामात्रमे, जे वस्तुतः भाषा रहल
अछि अर्थात् जनसाधारण द्वारा बाजल जाइत रहल अछि, ई परिलक्षित होइत अछि जे कालभेदें
ओ देशभेदें ओहिमे थोड़ बहुत परिवत्र्तन होइत रहल अछि ! मैथिली साहित्यसँ मिथिला देशमे
रचित साहित्य, किंवा मिथिला देशक वासीक रचित साहित्य नहि, किन्तु मिथिला देशमे बाजल
जाइत भाषामे उपनिषद्ध साहित्य बुझल जाइत अछि ओ से भाषा आइ काल्हि जाहि रूपमे
व्यवह्यत अछि तेहन पूर्व समयमे नहि छल। विद्यापतिक भाषा आजुक मिथिलाभाषासँ कतेक भिन्न
छल, वर्णरत्नाकरक भाषा ताहूसँ भिन्न छल, परन्तु मिथिलाभाषा ओ सब थिक, कारण, तत्तत्
समयमे

मिथिलादेशमे जे भाषा व्यवहारमे छल तकर ओ लिखित रूप थिक। एखनहु मुजफ्फरपुर-
चम्पारन दिशुक भाषा अथवा भागलपुर-मुङ्रेर दिशुक भाषा दड़िभङ्गा-सहरसाक भाषासँ कतोक
अंशमे भिन्न अछि ओ तें कतेको जन ओकर नामकरण पर्यन्त कएल अछि "बज्जिका" ओ
"अज़्#िका"। परन्तु ओ सब मूलतः मिथिलाक भाषा थिक, मिथिलाक तत्तत् अञ्चलमे व्यवह्यत
भाषा थिक, ओ जे भेद भेटैत अछि से थिक देशभेदमूलक। कालभेदें अथवा देशभेदें जे भाषाक
स्वरूपमे भेद होइत अछि सएह थिक भाषा-विज्ञानक विषय। भाषा होइत अछि विकासोन्मुख,
ओकर स्वरूप स्थिर नहि रहए पबैत अछि। परन्तु तें भाषाक मूल स्वरूपमें संदेहक अवकाश
नहि रहैत अछि जँ ओहिमे कालभेदें अथवा देशभेदें भेदभाषा--विज्ञानक नियमक अनुकूल हो।
देशविशेषक मिथिलाभाषा लिखित रूपमे नहि भेटैत अछि परन्तु कालविशेषक मिथिलाभाषा बड़
प्राचीन कालसँ लिखित रूपमे आबि रहल अछि। एकर वत्र्तमान स्वरूप जाहि स्थिति सब होइत
एखन विकसित रूपमे व्यवह्यत अछि से भाषा-विज्ञानक विषय थिक। एतए जिज्ञास्य अछि
वर्णरत्नाकरसँ पूर्व मिथिला-भाषाक स्वरूप।



भारतीय भाषाक पूर्व समयमे केहन स्वरूप छल तकर सबसँ प्राचीन वर्णन ओ विश्लेषण
हमरा महर्षि वाल्मीकिक आदि-काव्यमे भेटैत अछि। प्रसज़् अछि अशोक-वाटिकामे सीता-
हनुमानक संलाप। जखन हनुमान अपनाकें सीताक समक्ष पबैत छथि तखन हुनका वितर्क होइत
छैन्हि जे हिनका कोन भाषामे टोकिऐन्हि; ओ निश्चय करैत छथि जे



वीचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्।।

यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिध संस्कृतम्।

रावणं मन्यमाना सा सीता भीता भविष्यति।

वानरस्य विशेषेण कथं स्यादभिभाषणम्।।

अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत्।

(सुन्दरकाण्ड, सर्ग 10, श्लोक 17-19)



हनुमानजी विचारलैन्हि जे जँ हम संस्कृतमे बजैत छी तँ संस्कृत तँ केवल द्विजाति बजैत छथि,
वानर भए हम संस्कृत बाजब तँ सीता बुझतोह जे ई ब्रााहृणकुलमे उत्पन्न वि•ााक पुत्र रावण
थिक, वानरक रूप धएकें आएल अछि, डरि जइतीह। तें मानुषी भाषा, मुदा संस्कृत, बाजी।
अवश्ये प्रशस्त अर्थसँ युक्त वाक्य, मुदा मानुषी भाषामे, सएह बजबाक चाही।




हमरा लोकनि तँ महर्षि वाल्मीकिकें त्रेतायुगहिक मानैत छिऐन्हि परन्तु यदि हुनका
कलियुगहिक राम-कथा-कार मानि ली तथापि हुनक स्वारस्य स्पष्ट अछि जे ताहि समयमे दू
गोट भाषा देशमे प्रचलित छल, संस्कृत जे एखनहु ओही नामसँ अभिहित अछि, परिचित अछि,
ओ मानुष जकरा हमरा लोकनि लोक-भाषा कहैत छिऐक। संस्कृत केवल द्विजाति बजैत छलाह
परन्तु मानुषी भाषा सब बजैत छल, द्विजाति ओ ताहिसँ भिन्नो, जनसाधारण। एहि मानुषी
भाषाक सेहो दू गोट रूप छल, "संस्कृत" जकर अर्थ तिलक-नामक सुप्रसिद्ध टीकामे अछि
"व्याकरणसंस्कारवती" अर्थात् संस्कृत भेल ओ जकर संस्कार भेल होइक ओ से संस्कार
तिलकक अनुसार व्याकरणक संस्कार थिक। गोविन्दराज नामक दोसर टीकाकार एकर अर्थ
करैत छथि "प्रयोगसौष्टवलक्षणसंस्कारयुक्ता।" अर्थात् हुनक विचारें संस्कारक लक्षण थिक प्रयोग
सौष्टव। ऊपरक अन्तिम पंक्तिक "अर्थवत् वाक्यं" तकरो स्वारस्य एहने "अर्थवत्"मे मतुप् प्रत्यय
प्राशास्त्य अर्थमे अछि ओ ओकर अर्थ भेल प्रशस्त अर्थसँ युक्त। अतएव हनुमानक ई निर्णय जे
प्रयोगमे सुष्ठु एवं प्रशस्त अर्थसँ युक्त मानुषी भाषा बाजी इएह द्योतित करैत अछि जे मानुषी
भाषाक ताधरि ततबा विकास भए गेल छल जे ओकरो संस्कृत ओ असंस्कृत दू गोट रूप छल,
साहित्यिक ओ प्राकृत। एहू मानुषी भाषाक व्याकरण छल जाहिसँ भाषाक साधुता

निर्णीत होइत छल, अपशब्दक प्रयोग नहि होइत छल।



से "संस्कृत" मानुषी भाषा कोन छल जाहिमे हनुमानजी सीतासँ वात्र्तालाप कएल?
रामचन्द्रसँ हनुमान संस्कृतमे वात्र्तालाप करथि तथा हुनक भाषाक प्रशंसा रामचन्द्र मुक्तकण्ठसँ
कएने छथि। वस्तुतः हनुमानक भाषाक प्रशंसा भाषाक गुणक विस्तृत ओ चमत्कारक वर्णन अछि
जे मनन करबाक योग्य अछि। आनहु ठाम आदि कवि हनुमानकें बड़ पैघ भाषाविद्ध कहल
अछि। संस्कृतक अतिरिक्त ओ आनो आनो मानुषी भाषा जनैत छलाह, परन्तु गोविन्दराज कहैत
छथि जे हनुमान कोसल-जनपदक भाषामे वात्र्तालाप कएल, कारण दैत छथि "तस्या एव
देवीपरिचितत्वात्"। कोसल जनपदक भाषा सीताक सासुरक भाषा छल ओ तें ओहि भाषासँ
सीता अवश्ये परिचित छलीह। परन्तु गोविन्दराज जे "एव" कहि ई सूचित करैत छथि जे सीता
ओएहटा भा जनैत छलीह से असज़्त। सीता विदेह-जनपदक कन्या छलीह ओ नेहरक भाषा जे
हुनक मातृभाषा छल ताहिसँ ओ परिचित नहि छलीह से कोना कहल जाए। तखन कोसल-
नरेशक दूत भए हनुमान गेल छलाह तें ओ अपन प्रभुक मातृभाषामे बाजल होथि से सङ्त
परन्तु इहो तँ ओहने सङ्त जे अनेक भाषाविद् हनुमान जखन वितर्क कए, विचारिकें, अपन
बजबाक भाषाक निर्णय कएने छलाह तखन ओ सीताक मातृभाषामे हुनकासँ वात्र्तालाप कएने
होथि।



परन्तु एहिसँ विशेष अन्तरक संभावना नहि। ताहि दिन भारतीय जनपद सबहिक भाषामे
बड़ विशेष अन्तर नहि छल, व्याकरणक नियमादि तँ प्रायः सबमे समाने जकाँ छल। अन्तर छल
उच्चारणमे ओ कतिपय शब्दमे जे जनपद-विशेषमे व्यवह्मत छल। ताहूमे "संस्कृत" जे मानुषी
भाषा छल से समीपस्थ अनेक जनपदहुमे प्रायः सदृशे छल। कोसल ओ विदेह दूनू जनपदकें
एकहि ठाम छल, वेदहिक समयसँ सदानीरा एहि दूनू जनपद पृथक् करैत छल। विदेहकें
मगधक अपेक्षया बड़ विशेष घनिष्ठ सम्बन्ध छल कोसलसँ, ओ से अत्यन्त प्राचीन कालसँ, तथा


राम तथा सीताक विवाह ओही प्राचीन सम्बन्धक एक गोट ज्वलन्त दृष्ठान्त बुझबाक थिक। तें ई
अनुमान कएल जाए सकैत अछि जे कोसल-जनपदक भाषा तथा विदेह-जनपदक भाषा-दूहूक
"संस्कृत" स्वरूप यदि एके नहि तँ अत्यन्त सदृश छल। तखन इहो कहब अत्युक्ति नहि होएत
जे अशोक-वाटिकामे सीता-हनुमानक वात्र्तालाप जँ विदेह-जनपदक संस्कृत मानुषी भाषामे नहि
तँ तकर अत्यन्त सदृश कोसल जनपदक संस्कृत मानुषी भाषामे भेल छल। खेद अछि जे एहि
संवादक वर्णन महर्षि वाल्मीकि शब्दतः; आनुपूर्वी, नहि कएल अछि, ओकर अनुवाद संस्कृत
भाषामे कएकें देल अछि। नही तँ मैथिली-साहित्यक आदितम स्वरूप हमरा लोकनिकें एही
संवादमे भेटैत।



परन्तु जे प्राचीन साहित्य उपलब्ध अछि ताहिमे विदेह जनपदक संस्कृत मानुषी भाषा
अथवा ओकर अत्यन्त सदृश भाषाक आदितम स्वरूप हमरालोकनिकें भेटैत अछि बुद्धवचनमे ओ
महावीर-वचनमे। गौतम बुद्ध कोसल-जनपदक छलाह तथा हुनक मातृभाषा ओहि जनपदक
भाषा छल। कोसलक शाक्य ओ विदेहक लिच्छवीकें घनिष्ठ सम्बन्ध छल, बुद्धक कार्यक्षेत्र
मुख्यतः मगधमे छल परन्तु कोसल ओ विदेहमे हुनक प्रभाव कम नहि छल। महावंशक अनुसार
बुद्धक अत्यन्त प्रिय ओ अन्तिम समय धरि सज़् रहनिहार शिष्य, आनन्द, विदेहक ब्रााहृणकुलमे
उत्पन्न छलाह। विनयपिटकक चुल्लग्गपे कथा अछि जे जखन कतोक जन सम्यक्सम्बुद्ध
भगवान् गौतमक ओतए प्रस्ताव कएल थिन्ह जे अपन वचन ओ छान्दस भाषामे केवल बुद्धहिक
वचनमे नहि प्रत्युत पाणिनिअहुक अष्टाध्यायीमे ई छान्दस भाषा ओ भाषा छल जकरा हमरा
लोकनि संस्कृत कहैत छिऐक। उपनिषद्ध कएलेथि, कारण, भिन्न भिन्न लोक हुनक वचनकें भिन्न
भिन्न भाषामे बाजि दृषित करैत अछि तँ बुद्ध हुनका लोकनिकें खिसिअएलथिन्ह ओ अनुज्ञा
देलथिन्ह जे हुनक वचन स्वकीय भाषामे प्रख्यापित कएल जाए। स्वकीय भाषासँ बुद्धक
शिष्यलोकनिक अपन अपन भाषा सेहो बुझल जाए सकैत अछि परन्तु से अर्थ प्रसज़्मे समीचीन
नहि बैसैत अछि ओ बौद्ध सम्प्रदायमे एकर अर्थ बुद्धक अपन भाषा बुझल जाइत अछि तथा
बुद्धघोष

अपन प्रसिद्ध अट्ठकथामे एकर सएह अर्थ कएने छथि। बुद्धवचन जाहि भाषामे उपलब्ध अछि से
एमहर आबि पाली कहबैत अछि तथा एहि सए वर्षमे कतोक महापणिडतगण एहि भाषाक प्रसज़्
नाना प्रकारक मत प्रकाशित कएने छथि। एहि सभक निष्कर्ष इएह होइत अछि जे पाली कोनहु
जनपदक भाषा नहि छल। ओ एक गोट कृत्रिम भाषा छल, विशुद्ध साहित्यिक भाषा, जकर
निर्माण जाहि जाहि जनपदमें भगवान् बुद्धक कार्य-क्षेत्र छलैन्हि ताहि सबहिक भाषाक समन्वयसँ
भेल छल जे कोनहु जनपदक भाषासँ आनुपूर्वी मिलैत नहि छल परन्तु जाहिमे ओहि सब
जनपदीय भाषाक किछु किछु अंश छल। कालक्रमें इएह कृत्रिम भाषा बौद्धधर्मक भाषा भए
एशिया महाद्वीपक सुदूर भाग धरि पसरि गेल। डाक्टर सुनीतिकुमार चटर्जीक मत छैन्हि जे मूल
बुद्ध-वचन पालीमे नहि छल, ओ छल मगधजनपदक भाषामे, जकरा बुद्धघोष अपन अट्टखथामे
मागधी कहल परन्तु जे मागधी नामक प्राकृतसँ भिन्न छल, बहुत प्राचीन छल। चटर्जी महाशयक
विचारें बुद्ध-वचनक पाली-भाषामे निबन्धन बहुत दिनुक बाद, सम्राट् अशोकक समयमे, भेल।
अशोक कालीन जनपदीय भाषा सबहिक स्वरूप हमरालोकनिकें तत्तत् जनपदक अशोक-स्तम्भ-
लेख सबसँ प्राप्त होइत अछि, ओ जें एहि सब जनपदीय भाषासँ पाली भिन्न अछि तें ई अनुमान
बलवत्तर भए जाइत अछि जे पाली कोनहु जनपदक भाषा नहि थिक। सम्भव थिक एहिमे


कोसल- जनपदीय भाषाक प्रधानता हो, भए सकैत अछि एहिमे मगध-जनपदीय भाषाक प्रधानता
हो, परन्तु किछु हो, विदेह-जनपदीय भाषासँ ई विशेष भिन्न नहि छल होएत, वदेह-जनपदीय
भाषाक सेहो किछु अंश एहिमे अवश्य छल होएत। बुद्धक जीवनकालमे, ओ तकर पश्चातहुँ,
हुनक धर्मक प्रसार कोनहु जनपदसँ कम विदेह-जनपदमे नहि भेल; वैशाली ओ कपिलवस्तु ओ
वारंवार अबइत जाइत रहलाह; लिच्छवी लोकनि सामूहिक रूपें हुनक अनुमान कएने छलाह;
वैदेह मुनि आनन्द हुनक परोक्ष भेलाक पर धर्मक संगीति कएलैन्हि ओ प्रायः चालीस वर्ष धरि
संघक सञ्चालन कएलैन्हि। ई कथमपि सज़्त नहि प्रतीत होइत अछि जे भगवान् अपना वचनमे
एहि जनपदक भाषाकें समुचित सम्मान नहि कएने होथि।



तथापि शाक्यमुनि कोसलक छलाह, हुनक मातृभाषा प्राचीन अवधी छल, कोसल
जनपदक भाषा। परन्तु जैनधर्मक प्रमुख प्रवत्र्तक महावीर तँ वैदेह छलाह ओ हुनक मातृभाषा
विदेह-जनपदक भाषा, मिथिलाभाषा, छल। बुद्धहि जकाँ महावीर सेहो अपन उपदेश जनपदीय
भाषामे कएल। छान्दस भाषा, जकरा हमरा-लोकनि आब संस्कृत कहैत छिऐक, वैदिक
द्विजातिक भाषा छल, जनपदीय भाषा नहि, ओ जें एहि दुहू धर्मसंस्थापककें अपन अपन धर्मक
प्रचार वैदिक धर्मक विरुद्ध जनतामे कत्र्तव्य छलैन्हि तें ओ लोकनि वैदिक धर्मक भाषाकें त्यागि
विशुद्ध जनपदीय भाषामे से कएल। जहिना बुद्ध-वचनक भाषा पाली कहाए प्रख्यात अछि तहिना
जैनक आदि-ग्रन्थ सबहिक भाषा "अर्धमागधी" कहबैत अछि। पालीक सृष्ठि जँ अशोकक समयमे
भेल अछि तखन अर्धमागधी पालीसँ प्राचीन सिद्ध होएत, कारण, महावीरक मूलवचन एही
अर्धमागधीमे अछि। बुद्धघोषक कथा जँ सत्य ओ मूल बुद्धवचन जँ मागधी छल, जकरे परिष्कृत
रूप पाली भेल हो, तखन अर्धमागधी नाम अन्वर्थक प्रतीत होइत अछि। बुद्धक मूल-वचनक
भाषा "मागधी", जकरा हम कोसल जनपदक भाषा परन्तु मगधमे "संस्कृत" मानैत छी; ओ
महावीरक मूल वचनक भाषा, विदेह जनपदक भाषा, मागधीसँ बहुत किछु मिलैत परन्तु भिन्न, तें
अर्धमागधी। कोसल, मगध, ओ विदेह तीनू जनपद परस्पर सन्निहित छल ओ तीनूक भाषामे
भेदक अछैतहुँ साम्य स्वाभाविक। तें भाषातत्त्वविद् लोकनि जे कहथु, इतिहासक दृष्टिसँ इएह
सज़्त प्रतीत होइत अछि जे वैदेह महावीरक मातृभाषा अर्ध-मागधी छल, विदेह-जनपदीय भाषा
अर्ध-मागधी नामसँ प्रख्यात भेल, मैथिलीक प्राचीनतम स्वरूप हमरा लोकनिकें महावीरक
मूलवचन अर्धमागधीमे भेटैत अछि।



परन्तु मूल बुद्ध-वचनक मागधी, प्रचलित बुद्ध-वचनक पाली, एवं महावीर-वचनक अर्ध-
मागधी सब छल ओएह भाषा जकरा वाल्मीकि "संस्कृत मानुषी भाषा" कहने छथि। ई दुहू
धर्मप्रवत्र्तक आओर तँ जे कएलैन्हि, भारतीय भाषाक विकासक दिशामे अमूल्य ओ अमर कीर्त्ति
कए गेलाह। जनपदीय भाषाकें प्रयोग-सौष्ठवक संस्कार देब ओ प्रयोग-सौष्ठवक हेतु
व्याकरणादिक नियम--सब किछु हुनकहि लोकनिक "बहुजनहिताय

बहुजनसुखाय" --नीतिक परिणाम भेल। बौद्ध ओ जैन धर्मक ग्रन्थरत्नमे जनपदीय भाषा
साहित्यिक स्वरूप प्राप्त कएल। परन्तु जे भाषाक विकासक धर्म थिकैक, साहित्यिक भाषाक
स्वरूप स्थिर होइत गेल मुदा जनपदीय भाषा, यथार्थ लोकभाषा, व्याकरणादिक नियमकें छौड़ैत
आगाँ बढ़ैत गेल। मूल बुद्ध-वचनक मागधी बुद्धवचनहिमे रहि गेल, पाली बौद्ध धर्मक साहित्यिक
भाषा भए संसार भरि पसरि गेल, अर्धमागधी जैन लोकनिक धार्मिक भाषा भए रहि गेल, मुदा


जनपदीय भाषा परिस्थितिक नवीनता प्रयुक्त क्रमशः नव नव प्रभावसँ, विकार कही अथवा
विकास कही, तकरा ग्रहण करैत, नव नव शब्द लैत, नव शैलीमे, नव रीतिसँ, नवीन रूप धारण
करैत आधुनिक भाषाक दिशामे अग्रसर होइत गेल। विकासक एहि क्रममे कोनहु समयमे यदि
जनपदीय भाषा विशेष समृद्ध भेल, विशिष्ट साहित्यिक रचनासँ प्रसिद्ध पाओल, ओकर
व्याकरणादिक निर्माण भेल तँ ओ संस्कृत भेल ओ तखन ओहि भाषाक तत्कालीन स्वरूप
"संस्कृत" भए ओहि रूपमे रूपायित रहल। परन्तु तें ई कहब जे एना जनपदीय भाषा
स्वरूपायित भए गेल से असङ्त होएत। एक तँ जनपदीय भाषाक विकासक गति कहिओ
अवरुद्ध नहि रहल अछि, दोसर, साहित्यिक स्वरूप प्रयोग-सौष्ठव एवं व्याकरणादि संस्कारसँ
युक्त होएत किन्तु साधारण लोकभाषामे संस्कार नहि रहने ओकर लोक-भेदें अथवा देश-भेदें
भिन्न भिन्न रूप होएब अनिवार्य अछि। अशोकक समयक मगध-कोसल-जनपदक भाषाक
"संस्कृत" रूप पाली अद्यापि ओही रूपमे अछि, मागधी प्राकृत मूल बुद्धवचनक मागधीसँ बहुत
दूर हटि नाटकादिमे रूपायित भेल ओ एखनहु ओकर स्वरुप स्थिर आछि, परन्तु मगध-
जनपदक भाषा किंवा कोसल-जनपदक भाषा क्रमशः विकसित होइत गेल ओ सम्प्रति मगही ओ
अवधी कहाए प्रसिद्ध अछि। तहिना विदेह-जनपदक भाषा सेहो विकासक दिशामे बढ़ैत गेल।
महावीरक मूल-वचनक भाषा अर्धमागधी जैनधर्मक साहित्यिक भाषाक रूपमे स्वरूपायित रहल
परन्तु ओ जैन धर्मक सज़् बहराए देश भरि पसरि गेल। लोक क्रमशः बिसरि गेल जे ओ विदेह-
जनपदक भाषा थिक, तथा ओ जैनधर्मक भाषाक प्रसिद्धि पाबि परिचित अछि।



विदेह-जनपदक भाषाक विकासक की क्रम भेल तकर केवल अनुमान कए सकैत छी,
विदेह-जनपदक कहि लोकभाषाक स्वरूप कोनहु साहित्यिक रचनामे रूपायित उपलब्ध नहि
होइत अछि। द्विजलोकनि जे आदिमे छान्दस भाषाकें धएल से संस्कृतक रूपमे वैदिक धर्मक
अनुयायी द्विजातिक साहित्यिक भाषा भए गेल ओ वत्र्तमान धरि यथाकथञ्चित् अनुवत्र्तमान अछि।
संस्कृतक प्रभाव ततेक व्यापक भए गेल, प्रयोगक सुष्ठुता एवं व्याकरणादिक नियमनसँ ओकर
स्वरूप ततेक स्थिर भए गेल जे ओ समस्त ओर्यावत्र्त ओ सुदूर दक्षिण धरि एक रूपमे पसरि
गेल। जनपदीय भाषा सब जनपदभेदें भिन्न भिन्न छल परन्तु संस्कृत तँ देश भरिमे, आर्यावत्र्तहिमे
नहि प्रत्युत दक्षिणापथहुमे, आर्यजातिक सज़्, वैदिक धर्मक सज़्, शास्त्रीय विद्याक सज़्, प्रसृत
होइत गेल। जाहि लेखककें ई अभिलाषा होइन्ह जे हमर कृतिक प्रचार हो--तथा एहि
अभिलाषासँ रहित के लेखक होएताह--ओ संस्कृतहिमे लिखथि। आदिमे संस्कृत छाड़ि केवल
पाली ओ अर्धमागधी एहन भाषा भेल जकर प्रचार क्रमशः बौद्ध ओ जैन धर्मक सज़् भेल छल।
भाषाक विकासक क्रम इएह अछि जे जखन कोनहु समयमे कोनहु देशक भाषामे साहित्यक
रचना होअए लागल ओ व्याकरणादिक नियम बनल तँ ओहो भाषा "संस्कृत" भए जाइत अछि
मुदा जनभाषा असंस्कृत रूपमे विकासक दिशामे आगाँ बढ़ि जाइत अछि। जे संस्कृत भेल से
लिखल जाए सकैत अछि, पढ़ल भए सकैत अछि, मुदा जनभाषाक स्वरूप तादृश नहि होइत
अछि। तहिना पाली ओ अर्धमागधी जेना संस्कृत छल तेहने भए गेल ओ जनपदीय भाषासँ दूर
भए गेल। भेद एतबए जे पाली ओ अर्धमागधी तत्तत् धर्मक अनुयायी मात्रक अध्ययन वा प्रयोगक
भाषा रहल किन्तु संस्कृत सब पढ़ि सकैत छल, लीखि सकैत छल। पश्चात् तँ बौद्ध ओ जैन
लोकनि सेहो संस्कृतहिक प्रयोग करए लगलाह; हँ, ओ लोकनि ब्रााहृणक भाषा संस्कृतसँ भेद
जनएबाक हेतु शुद्धता पर ओतेक ध्यान नहि देथि। बौद्धक महायान सम्प्रदाय, जकर विकास


बुद्धक प्रधान कार्यक्षेत्रसँ प्रारम्भ भेल तकर साहित्यिक भाषा एही रूपक, व्याकरणक बन्धनसँ
मुक्त संस्कृत भए गेल। जनपदक भाषाकें जे महत्त्व बुद्ध ओ महावीर देने छलाह से क्रमशः लुप्त
होइत गेल। एकर एक गोट कारण इहो भेल जे पूर्वमे जनपदीय भाषा सबहिमे परस्पर ओतेक
भेद

नहि छल मुदा जँ जँ समय बितल गेल, जनसंख्या बढ़ल गेल, बहारसँ भिन्न भिन्न प्रकारक प्रभाव
बढ़ैत गेल तँ तँ तत्तत् देशभेदें लोकभाषा सबहिक विकास ताहि रूपें होइत गेल जे ओहि सबमे
परस्पद भेद बढ़ैत गेल ओ केवल आर्यावत्र्तहुमे कए गोट भाषा भए गेल। एहना स्थितिमे समस्त
भारतवर्षक एक गोट भाषा जे सब ठाम प्रचलित हो, जकर स्वरूप स्थिर हो जाहिसँ ओकरा
सब लिखि सकए, सब बूझि सकए, सब बाजि सकए से भए गेल संस्कृत। तें संस्कृत
भारतवर्षक साहित्यिक भाषा भए गेल। ई स्थिति आइसँ दू अढ़ाइ सए वर्ष पूर्व धरि, अङरेजक
समय धरि, अनुवत्र्तमान छल।



परन्तु एक दृष्टिसँ संस्कृत यदि व्यापक होइत गेल तँ दोसर दृष्टिसँ ओहिमे सङ्कोच
सेहो कम नहि होइत गेल। संस्कृतक स्वरूप स्थिर छल ओ ओकर विकासक क्रम सर्वथा
अवरुद्ध छल मुदा लोकभाषा तँ क्रम क्रम आगाँ बढ़ैत गेल। लोकभाषाक जतेक विकास होइत
गेल संस्कृत ततेक लोकभाषासँ दूर होइत गेल। आदि कविक समयमे जे संस्कृत द्विजातिक
भाषा छल से क्रमशः ब्रााहृण मात्रक भाषा भए रहल, अथवा ई कहू जे जे केओ ओकर अध्ययन
करथि, पण्डित होथि तनिक मात्र साहित्यिक भाषा भएकें रहल। जनपदीय भाषा जनपदक
सबहुँक भाषा छल मुदा संस्कृत जे केओ विद्वान् होथि तनिक मात्र, विशेषतः ब्रााहृणक, भाषा
भए गेल। एवंक्रमें संस्कृत जनजीवनसँ दूर हटि एकवर्गीय भए गेल, ओ केवल एक वर्गमे,
पण्डितवर्ग मात्रमे सीमित भए रहल, परन्तु से भए गेल ओ भारतवर्षक समस्तक, ओकर कोनहु
एक भूभागक नहि। भूभागभेदें भिन्न भिन्न भए गेल जनपदीय भाषा जकरा ओहि भूभागक समस्त
जनता, ब्रााहृणसँ चाण्डाल धरि, पुरुष ओ स्त्री, आबालवृद्ध, जानए।



विदेह-जनपदक भाषामे महावीरक पश्चात् साहित्यिक रचनाक प्रभाव आश्चर्यजनक
अछि। मागधी एवं शौरसेनी, गौड़ी एवं महाराष्ट्री प्राकृतक रूपमे अनेक ग्रन्थमे रूपायित भेटैत
अछि ओ नाटकमे स्त्रीगण ओ नीच पात्रक भाषा तँ प्राकृते रहैत आएल अछि। परन्तु मिथिलाक
भाषाक की स्वरूप छल से कोनहु साहित्यिक रचनामे नहि उपलब्ध अछि। आत्माभिव्यक्तिक
भावना, जे सब साहित्यक जड़ि थिक, से तँ एतहुक लोककें अवश्य छलैक ओ ई भूभाग तँ सब
दिनसँ विद्याक आगार रहैत आएल अछि। एतए ग्रन्थक रचना नहि भेल से नहि परन्तु ओ सब
ग्रन्थ संस्कृतमे अछि, धर्मविषयक अथवा शास्त्रविषयक, सब महत्त्वपूर्ण, ओ से सब ब्रााहृणक
निर्मित। लोकभाषामे जनमनोरञ्जनार्थ काव्यनाटकादि कोनो ग्रन्थ नहि अछि। एकर दू गोट
कारण भए सकैत अछि। प्रथम कारण तँ छल लिखबाक कठिनता। पूर्वमे ततबे वस्तु लिखल
जाइत छल जे अत्यन्त आवश्यक होइत छल, अतिशय महत्त्वपूर्ण होइत छल। दोसर कारण
छल एहि भूभागमे पैघ राजाक अभाव। कार्णाट क्षत्रियक राज्य जे एतए एगारहम शकशताब्दीक
अन्तमे स्थापित भेल तहिआसँ पूर्व मिथिलामे अपन केओ राजा छलाह से इतिहासमे नहि भेटैत
अछि, ओ मैथिल कालिदासमिश्र पाटलिपुत्रक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यक आश्रित भए हुनकहि सज़्
पाटलिपुत्रसँ साकेत ओ तत्पश्चात् हुनकहि सज़् उज्जयिनी गेलाह। लोकसाहित्यक रचना सब
दिन राजाश्रिते होइत आएल अछि ओ तकरा अभावमे, राजनीतिक स्वतन्त्रतासँ रहित,


मिथिलाकें यदि अपन भाषामे रचित किछु नहि छैक तँ से कोनो आश्चर्यक बात नहि। भारत-
साम्राज्यक केन्द्र मगधक भाषा नाटकमे प्रतिष्ठित भेल तकर कारण जे नाटकक विकास मगध-
सम्राट्क आश्रयमे विशेष भेल। सातवाहनक आश्रयमे गाथासप्तशती एवं बृहत्कथाक निर्माण वा
संग्रह भेल ओ तें महाराष्ट्री एवं पैशाची प्राकृतक स्वरूप प्रसिद्धि प्राप्त कएल। मिथिलहुमे
कार्णाट राजवंशक स्थापना होइतहिं देशी भाषाक महत्त्व बढ़ि गेल ओ जाधरि मिथिलामे
मैथिलक आधिपत्य छल मैथिली उन्नतिक पथ पर पूर्ण अग्रसर होइत गेल। अङरेजक शासन
कालमे मिथिला पुनः दबि गेल ओ तें हमर भाषाकें जे कठिनता भेलैक एवं विरोध सहए पड़लैक
से ककरहुसँ अविदित नहि अछि। तें ई स्पष्ट अछि जे राजनीतिक स्वतन्त्रताक अभावमे
मिथिलाक भाषा साहित्यिक दृष्टिएँ उपेक्षित रहल।



परन्तु तें ई नहि बुझबाक थिक जे मिथिलाक लोक आत्माभिव्यक्तिक दिशामे मूक बैसल
रहल। आश्चर्य तँ ई जे राजाश्रय नहिओ छलैक, स्वतन्त्रता अपह्मत रहलैक, सुदृढ़ शासनक
बराबरि अभाव रहलैक, एवं बहुधा तँ अराजकता सएह छलैक, तथापि मिथिलाक लोक अपन
जनपदीय भाषाकें ताहि रूपें सुरक्षित राखल, सुसंस्कृत कए राखल, जे अवसर होइतहिं एहिमे
साहित्यिक रचना होअए लागल। एतेक दिन साहित्यिक रचना नहि भए सकल होउक--ओ से
नहि भेलैक एहि कारणें नहि जे एतएक लोक साहित्यिक नहि छल, अथवा साहित्यक महत्त्व
नहि बुझैत छल, अथवा एहि भाषामे आत्माभिव्यक्तिक योग्यता नहि छलैक प्रत्युत एहि कारणें जे
मैथिल कलाकारकें जतए आश्रय भेटैन्हि, पोषण होइन्ह, ततए एहि भाषाक प्रचार नहि छलैक--
परन्तु भाषाक विकासक गति कहिओ अवरुद्ध नहि छल। जे रचना भेल से मैखिक रूपमे प्रसृत
होइत रहल, ओकरा लिपिबद्ध कए सुरक्षित करबाक आयास असाध्य नहि तँ दुस्साध्य अवश्य
छल। परन्तु भाषामे भावाभिव्यक्तिक क्षमता क्रमशः सञ्चित होइत रहल। विद्वानक ई देश,
भाषाक पाटव तँ एतए प्रचुर छल परन्तु तकर प्रयोग होइत छल संस्कृतमे। तथापि भाषाक
पाटव एके वस्तु थिक; संस्कृतमे वाक्पटुता भेलहिं से पटुता व्यवहारहुक भाषामे अवश्यम्भावी।
ओ तें भाषामे जे सब गुण अपेक्षित छैक, यथा श्लेष, लक्षण अथवा व्यञ्जनासँ अर्थोपलब्धि,
भिन्न भिन्न पदक समभिव्याहारमे एकहु शब्दक अनेक अर्थमे शक्तिग्रह, केवल मुखसुखावहे नहि
अपितु श्रुतिसुखावहो शब्दक चयन, निर्माण ओ प्रयोगबाहुल्य इत्यादि, से सब मिथिलाभाषामे
प्रचुरतया परिलक्षित होइत अछि। ई सब गुण सहसा नहि भए सकैत अछि, विशेषत
व्यञ्जनावृत्तिसँ पदविशेषमे शक्तिग्रह विनु दीर्घ साहचर्यें सम्भव नहि, तदर्थ कालक अपेक्षा छैक।
भाषामे प्रयोगसौष्ठव एवं व्याकरणक नियमन इत्यादि देखि प्रतीत होइत अछि जे
सुदीर्घकालहिसँ एहि भाषाक संस्कार होइत छल जकर परिणाम-स्वरूप एहिमे उन्नत भाषाक
गुण सब अबैत गेलैक जे एखनहु एहिमे छैक। भाषा तँ छल ई एतए समस्त जन-समुदायक,
परन्तु विद्या, आचार, एवं संस्कार आदि कारणें सामाजिक सत्तामे परस्पर भेद ततेक स्पष्ट ओ
अधिक छल जे तकर प्रभाव एतएक लोकभाषा पर बड़ व्यापक दृश्य होइत अछि, तथा आदर
ओ अनादरक विवक्षासँ केवल सर्वनामहिमे नहि, क्रियापदसमेतहुमे जे भेद मिथिलाभाषामे अछि
से प्रायः थोड़ भाषामे भेटत। एहिमे उच्चवर्गीय जनसमुदाय जे समाजक नेतृत्व करैत छलाह से
सब प्रायः संस्कृतभाषाक विज्ञ; ओ लोकनिस्वभावतः जनपदीय भाषाक सेहो संस्कृते रूपक
प्रयोग करैत छलाह। अन्य लोक जँ से नहि कए सकैत छल तँ तकरा अपन हीनता मानैत छल
ओ भाषाक जे संस्कृत स्वरूप छलैक तकर श्रेष्ठता स्वीकार करैत छल। भाषाक संस्कृत ओ


असंस्कृत दुहू रूपक चालि तें एतए बड़ निकट काल धरि वत्र्तमान छल ओ दक्षिण भागलपुर
अथवा पश्चिम चम्पारण प्रभृतिक लोक आधुनिक समय धरि जाहि रूपें अपन भाषा घरमे बजैत
छल तेना दश लोकक मध्यमे, विशेषतः मध्य मिथिलाक शिष्ट समाजक समक्ष, बजबामे जेना
हीनताक बोध करैत छल। हालहिमे एकर प्रतिक्रिया-स्वरूप लोकमे भाषा-विषयक एक गोट
स्वच्छन्दता आबि गेल अछि, जाहिसँ भाषाक संस्कृत ओ असंस्कृत रूप, जकर अस्तित्व
आदिकवि वाल्मीकिहिक समयसँ आबि रहल अछि ओ जे सब जनपदीय भाषाक स्वभावसिद्ध
धर्म थिकैक, तकर उपेक्षा, अवहेलना समेत कहि सकैत छी, दृष्टिगोचर भए रहल अछि। परन्तु
यदि एहि भाषाक अतीतक अनुसन्धान करब तँ स्पष्ट होएत जे मिथिलाभाषाक एक गोट
सुसंस्कृत स्वरूप सब दिन छलैक जकरा महाभाष्यकार पतञ्डलिक शब्दमे "शिष्टक भाषा" कहि
सकैत छी जकर प्रयोग साधारणतया मिथिलाक केन्द्रमे ओ अन्यत्रहु शिष्टवर्गमे होइत रहल।
परन्तु तें असंस्कृत रूप नहि छलैक से नहि कहि सकैत छी ओ एही असंस्कृत रूपसँ प्रभावित
होइत भाषाक स्वरूपमे परिवत्र्तन होइत रहल। सम्प्रति भाषाक असंस्कृत रूपकें "बोली" ओ
संस्कृत रूपकें "भाषा" क संज्ञा देल जाइत अछि।



मिथिला-जनपदक भाषा सुदीर्घ कालसँ विकासक क्रममे उन्नतिक दिशामे अग्रसर अछि
तकर पुष्टि एतएक स्वतन्त्र लिपिक प्राचीनता एवं प्रचारसँ सेहो होइत अछि। एहि लिपिक
मिथिलाक्षर नाम नवीन थिक; एकर आदि नाम, ओ तें यथार्थ नाम, थिक तिरहुता। एही नामसँ
एकर विकासक कालहुक सूचना भए जाइत अछि। एहि जनपदक तीरभुक्तिनाम
गुप्तसाम्राज्यकालक थिक, कारण, गुप्तलोकनि अपन राज्यक विभागकें

"भुक्ति" कहथि। तीरभुक्तिक विकृत रूप थिक तिरहुति। गुप्तलिपिसँ विकासकें पओने प्राच्यदेशक
ई लिपि गुप्तोत्तरकालमे तिरहुताक नामसँ प्रसिद्ध भेल। सातम ईशबीय शताब्दीक आदित्यसेनक
शिलालेख भागलपुर जिलाक मन्दारमे पाओल गेल ओ ई, एहि लिपिक प्राचीनतम स्वरूप
उपलब्ध अछि। ईशाक एगारहम शताब्दी पर्यन्त पश्चिममे गया धरि ई लिपि प्रचलित छल जकर
प्रमाण गयाक अनेक शिलालेख वत्र्तमान अछि। भारतक पूर्वाञ्चलक सब लिपिक, यथा बङला,
असमिया, उड़िया ओ अंशतः नेबारीक, समता एहि सब जनपदक भाषाक समता सेहो संसूचिता
करैत अछि, मिथिलाक सज़् एहि सबहिक सांस्कृतिक एकरूपताक सूचना दैत अछि।



तें ई कहब असज़्त नहि होएत जे साहित्यिक रचना सेहो एहि जनपदीय भाषामे बराबरि
होइत आएल अछि; से यदि उपलब्ध नहि अछि तँ ताहिसँ ओकर अभाव मानब उचित नहि
होएत। अनुपलब्धि अभावक प्रमाण नहि मानल जाए सकैत अछि। अनुपलब्धिक समाधान अन्यथा
करए पड़त। एहि अनुपलब्धिक प्रथम कारण भए सकैत अछि लिखबाक कठिनता। पूर्व समयमे
लिखब बहुधा असाध्य नहि तँ दुस्साध्य अवश्य छल। वैदिक साहित्यक "श्रुति" संज्ञा इएह
द्योतित करैत अछि जे ओ मैखिक रूपमे अभ्यास कएल जाइत छल, ग्रन्थक रूपमे पठित नहि
होइत छल। जखन लिखब आवश्यक भेलैक तखनहु सूत्ररूपें लिखबाक परिपाटी चलल जाहिमे
थोड़ लिखए पड़ए। बौद्ध जैनादि साहित्यहुक रचना आरम्भमे मैखिके भेल छल। तें एहि भाषामे
सेहो जे रचना पूर्वकालमे भेल से सबटा लिखले गेल से नहि अधिकांश रचना मैखिक रूपहिमे
भेल होएत। कतेक रचना तँ एहनो व्यक्तिक द्वारा भेल होएत जे लिखए जनितहुँ नहि चलाह
होएत। लिखल तँ ओएह वस्तु जाइत छल जे आवश्यक होइत छल, जकर प्रचार देश-


देशान्तरमे अभिप्रेत होइत छल। जनपदभाषाक रचना तँ जनपदहि धरि प्रचरित होइत ओ ताहि
हेति लिखबाक श्रम के उठबितए, ओतेक आयास के करितए? विद्यापतिहुक लिखल तँ भगवते
उपलब्ध होइत अछि, एको गोट गीत हुनक अपन लिखल कहाँ भेटल अछि ओ हमर तँ वि•ाास
अछि जे ओ एको गोट गीत प्रायः लिखलैन्हि नहि, रचिकें ककरहु सिखाए देलैन्हि अथवा स्वयं
गाबिकें सुनाए देलैन्हि जे लोक सीखि लेलक। प्रतिलिपि सेहो पैघे पैघ ग्रन्थक, विशेषतः
संस्कृतक, होइत छल। मैथिली ग्रन्थक प्रतिलिपि केहन लोक करैत छल तकर दृष्टान्त नेपालमे
प्राप्त कीर्तिपताकाक पुस्तक अछि अथवा कलकत्ताक संस्कृत कालेजमे भूपरिक्रमाक पुस्तक अछि
जाहिमे चारिओ गोट अक्षर शुद्ध लिखल नहि अछि। ई तँ विद्यापति वा हुनक परवर्ती कालक
समाचार अछि। ओहिसँ हजार वर्ष पूर्व की स्थिति छल होएत तकर अनुमान केओ कए सकैत
छी।



दोसर, एतएक जलवायु तेहन अछि जे कोनो पुस्तक बहुत दिन धरि रहि नहि सकैत
अछि। पूर्वमे पुस्तक लिखल जाइत छल तालपत्र पर ओ मिथिलामे हजारो वर्षक कोनो तालपत्र
उपलब्ध नहि अछि। मिथिलाभाषाक जे कोनो प्राचीन पुस्तक प्राप्त भेल अछि सब नेपालसँ।
मिथिलामे एक प्रति मात्र खण्डित वर्णरत्नाकर उपलब्ध भेल ओ विद्यापतिक संस्कृतसँ भिन्न ग्रन्थ
नहि भेटैत अछि। लिखनावली जेना लुप्त भए गेल ओ कीर्तिपताकाक तीनि गोट पात मात्र
हमरा उपलब्ध अछि। तें सम्भव थिक जे प्राचीन लेक जँ कोनहु ग्रन्थक छलो तँ से नष्ट भए
गेल, ओ आब उपलब्धि नहि अछि।



अतएव निश्चित रूपसँ एहि जनपदक भाषामे रचित कहि कोनो कृति उपलब्ध नहिओ
अछि तथापि भाषाक विकास तथा एहि जनपदमे विद्याक व्ययसायकें दृष्टिमे राखि ई कल्पना
असङ्त नहि प्रतीत होइत अछि जे एहि जनपदक भाषाक संस्कृत रूप आदि-अहिसँ अनुवत्र्तमान
अछि ओ ताहि भाषामे साहित्यिक रचना सेहो अवश्ये भेल होएत। तकर कोन प्रकार छल
होएतैक, कोन कोन जातिक साहित्यक एतए सृष्टि भेल होएत, तकर अनुमान किछु तँ मानव
जातिक स्वभावज प्रवृत्तिसँ कए सकैत छी, किछु अन्यान्य जनपदक भाषासाहित्यक उपलब्ध
कृतिसँ कए सकैत छी, ओ किछु परवत्र्ती साहित्यकारक रचनामे पूर्वक कृतिक

उल्लेखँस सेहो कए सकैत छी, परन्तु सबसँ विशेष तँ ओहि परम्परासँ ओकर कल्पना कए
सकैत छी जाहि परम्पराक अनुकूल रचना एतए अविच्छिन्न रूपसँ होइत आएल अछि। हम ई
मानैत छी जे ई हमर काल्पनिक चित्र थिक परन्तु कल्पना निराधार नहि अछि ओ कतहु कतहु
जे कोनहु कृतिक परिचय साक्षात् वा परम्परया उपलब्ध अछि ताहिसँ एहि चित्रक सामञ्जस्य
कल्पनाक चित्रणकें प्रामाणिकता प्रदान कए ह्यदयकें वलित करैत अछि, वि•ाास उत्पन्न करैत
अछि।



मानव जातिक भावाभिव्यक्तिक प्रथम साधन होइत अछि संगीत तथा कर्णसुखद संगीतसँ
ओकर चित्तकें शान्ति भेटैत छैक। संगीतक प्रभाव तँ ज्ञानाविहीन पशु-पक्षी समेतकें मुग्ध कए
दैत अछि ओ हरिनकें गीतरसलम्पट कहल गेल अछि। अबोध नेनाकें माए वा धाए गीत गाबि
गाबि सुनबैत अछि। वि•ामे जतए देखब भावाभिव्यक्ति सबसँ पूर्व गीत द्वारा भेल अछि, सर्वप्रथम
सर्वत्र संगीतमूलके काव्यक सृष्टि भेल अछि। ओ कविताक पश्चात् स्थान अछि कथाक। नेनाकें


बोध होइतहिं कथा सुनबाक उत्सुकता होइत छैक। तहिना मानव-जातिक विकासक आरम्भहिसँ
कथाक प्रति औसुक्य परिलक्षित होइत अछि। इएह दू गोट साधन प्रारम्भमे भावाभिव्यक्तिक हेतु
सर्वत्र दृश्य होइत अछि जाहिमे बहुधा दुनू मीलिकें प्रबन्ध काव्यक स्वरूप धारण कए लैत अछि
जे अनेक ठाम महाकाव्य कहबैत अछि, भारतवर्षहुमे रामायण ओ महाभारत एवं अन्यान्य गाथा
सब एकरे दृष्ठान्त थिक। मिथिलाक जनपद-भाषामे इएह दुहू प्रकारक साहित्यिक रचना
आरम्भमे लोकानुरञ्जनार्थ भेल होएत। भारतवर्षक अन्यान्यो जनपदभाषाक साहित्य एही दू
रूपमे उपलब्ध होइत अछि। गाथासप्तशती ओ बृहत्कथा एही कथाक पुष्टि करैत अछि ओ
जातकक कथा सबसँ यदि बौद्धधर्मक सम्बन्ध हटाए दिऐक तँ ओ देशमे प्रसृत कथासाहित्यक
प्रायः सर्वप्रथम संग्रह सिद्ध होएत। बृहत्कथा सेहो ओहि कथाक साहित्यिक स्वरूप प्रदर्शित
करैत अछि जे देशमे प्रचरित छल ओ जाहि परम्पराक अनुसरणमे मिथिलामे आधुनिक समय
धरि कथाक प्रचार छल। ई कथा सब मौखिक रूपें कथाकारसँ लोक सिखैत छल; नव नव
कथाकार नव नव कथाक सृष्टि करैत रहैत छलाह, अथवा पुराणहु कथाकें नव कथाकार अपन
व्युत्पत्तिसँ पल्लवित करैत रहैत छलाह। भेद एतबए जे बौद्ध कथाकार लोकनि ओहि
कथासमूहमे बुद्धक सम्बन्ध जोड़ि जातक-कथाक स्वरूप देल; गुणाढ¬ ओही कथा सबकें
काव्यक शैली पर अलङ्कृत कए रचल। परन्तु मूलतः ई सब देशमे लोकविषय प्रसृत कथाक
भण्डारसँ संगृहीत छल। एहि प्रकारक भण्डार एहू जनपदमे आरम्भहिसँ छल होएत ओ से छल
होएत एहि जनपदक भाषामे, अथवा ई कहू जे एतएक लोकविषय कहल जाइत छल होएत
एतएक जनपद-भाषामे। तहिना जतेक पर्व अछि अथवा पाबनि होइत अछि सबमे ओकर कथाक
चालि एहि जातिक साहित्यक परम्परा सूचित करैत अछि; कारण, कथा सब तत्तत् पर्व वा
पाबनिक सम्पन्न अज़् बुझल जाइत अछि जाहि विना ओ पर्व वा पाबनि सम्पन्न नहि होएत।
कोनहु पाबनिक कथाकें लए यदि ओकर साहित्यिक मूल्याङ्कन करब तँ पता लागत जे कथाक
सबटा गुण ओहिमे छैक ओ यदि सब पाबनिक प्रचलित कथाक सग्रंह कएल जाए तँ ओ हमरा
लोकनिक साहित्यक एक गोट निधि भए जाएत। एहिमे जे पाबनि केवल मिथिलामे नहि, अनेक
जनपदमे प्रचलित छल तकर कथा कोनहु जनपद-विशेषक भाषामे नहि, प्रत्युत सब जनपदमे
प्रचलित भाषा, संस्कृतमे, अछि यथा शिवरात्रि वा कृष्णाष्टमी परन्तु जे पाबनि एही जनपदमे
प्रचलित छल अथवा आन जनपदसँ किछु नवीनताक संग प्रसृत छल तकर कथा एही जनपदक
भाषामे अछि, यथा मधुश्रावणी, सपता-बिपता।



एहि कथा सबहिक भाषा आधुनिक प्रतीत होइत अछि परन्तु एहि प्रसज़् ध्यान देबाक
विषय थिक जे ई सब मौखिक रूपें परस्परया आबि रहल अछि; प्रत्येक पुश्तिक लोक एकरा
अपनासँ पूर्व पुश्तिक लोकसँ सिखैत आएल अछि, ओ एहना स्थितिमे जे स्वभाविक थिकैक,
प्रत्येक पुश्तिमे एकर भाषामे किछु ने किछु परिवर्तन होइत आएल अछि। एक वा दुइ पुश्तिमे ई
अन्तर परिलक्षित नहि हो परन्तु अधिक दिनुक अन्तर भेला पर प्रत्यक्ष भए जाएत जे कालभेदें
एकहि कथामे भाषा कतेक भिन्न भए जाइत अछि। जाहि व्यक्तिकें नित्य देखैत

छिऐक तकर स्वरूपमे दैनिक अन्तर लक्षित नहि होइत अछि परन्तुजाहि व्यक्तिकें अधिक दिन
पर देखिऔक तकरा स्वरूपमे यदि अन्तर होइक तँ से लोक लगले लक्षित कए लैत अछि। एक
गोट चिन्हार शिशुकें यदि बीस वर्षक उत्तर युवक देखबैक तँ ओकरा चीन्हि सकबैक? परन्तु जे
ओही शिशुकें बीस वर्ष धरि नित्य देखैत छैक तकरा हेतु ओहि शिशुकें चिन्हबामे की कोनो


विलम्ब भए सकैत छैक? इएह पर्व अछि भाषाक सम्बन्धमे। जहिना मनुष्य, तहिना भाषा सेहो,
प्रतिदिन परिवत्र्तनशील थिक। जे कथा वा फकड़ा वा गीत आइ सहरुा वर्षसँ मौखिक रूपें आबि
रहल अछि तकर सहरुा वर्ष पूर्वक राप ओ आजुक रूपमे ओहिना अन्तर परिलक्षित होएत जेना
एक शिशुक ओ ओकर युवावस्थाक रूपमे होइत अछि। परन्तु ओहि कथा, फकड़ा अथवा गीतक
स्वरूप यदि प्रत्येक पुश्तिक उपलब्ध होइत तँ स्पष्ट होइत जे प्रत्येक पुश्तिमे ओहिमे कतेक
सूक्ष्म अन्तर होइत अएलैक अछि जकरा तत्काल लक्षित करब कठिन होएत परन्तु ओएह सूक्ष्म
अन्तर सब अनेक पुश्ति धरि होइत होइत अन्तमे एतेक स्थूल भए जाइत अछि जे दुहूकें एक
कहब कठिन भए जाइत अछि। हमरा वि•ाास अछि जे जे कथा सब मिथिला-जनपदक भाषामे
परम्परया आबि रहल अछि तकर वत्र्तमान स्वरूप पूर्वक विकसित रूप मात्र थिक। छओ सए वर्ष
पूर्व वर्णरत्नाकरक रचना भेल परन्तु ओकर भाषा, जे ताहि समयक प्रचलित भाषाक संस्कृत
स्वरूप थिक, ओहि रचनामे स्वरूपायित भए स्थिर रहल परन्तु भाषाक विकास अवाध गतिसँ
चलैत रहल जकर फलस्वरूप वर्णरत्नाकरक भाषा एखनुक भाषासँ एतेक भिन्न प्रतीत होइत
अछि; परन्तु डाकक वचन, लोरिककगीत, उपनयनाक गीत अथवा मधुश्रावणीक कथा जे सम्प्रति
उपलब्ध अछि तकर भाषाक वत्र्तमान स्वरूप ओकर विकसित रूप थिक परन्तु से विकास प्रत्येक
पुश्तिमे होइत आएल आछि। एहि सबहिक प्रचार केवल मौखिक रुपें होइत रहल तें कोनहु
कालक ओकर भाषाक स्वरूप उपलब्ध नहि अछि। परन्तु आइ जँ लोरिकक गीतक ओ स्वरूप
उपलब्ध होइत जे ज्योतिरी•ारक समयमे छल तँ देखि सकितहुँ जे ओहि गीतक भाषाक
तखनुक स्वरूप ओ एखनुक स्वरूपमे कतेक अन्तर अछि--ओतबे अन्तर अछि जतेक
वर्णरत्नाकरक भाषा ओ एखनुक भाषामे अछि। श्रीतन्त्रनाथबाबू स्वदेशमे कीर्त्तिलताक प्रथम
पल्लवकें आधुनिक मैथिलीमे रूपान्तरित कए प्रकाशित करओने छथि जाहिसँ हमर एहि उक्तिक
पुष्टि होइत अछि, जे हमर एहि कल्पनाक आधार अछि, जे हमर जनपदीय भाषाक
परिवत्र्तनशीलताक विलक्षण दृष्टान्त थिक।



परन्तु निश्चित रूपसँ एतबए कहल जाए सकैत अछि जे मिथिला-जनपदक भाषामे
कथाक परम्परा सुदीर्घकालसँ आबि रहल अछि। कोन कथा कतेक दिनक थिक, अथवा कोन
कालमे कोन कथा प्रचलित छल इत्यादि किछु कहब कठिने नहि, असम्भव अछि। पाबनिओ
सबहिक मूल तँ बुझल नहि अछि। आब तँ पुरान कथाक चालिओ उठल जाइत अछि परन्तु
जातकमे जे कथा सब अछि अथवा कथासरित्सागरमे कथा सबहिक जे रूप सुरक्षित अछि ताही
प्रकारक कथा सब एतहु प्रचलित छल होएत से कल्पना कए सकैत छी। दू गोट कथा
श्रीतन्त्रनाथबाबू "योगक इआर" ओ "जिबितहिं स्वर्ग"क नामसँ लीखि प्रकाशित करओने छथि
जाहिसँ ओहि परम्पराक दिग्दर्शन भए सकैत अछि। वर्णरत्नाकरमे चतुःषष्ठि कलाक वर्णनमे
कथाकौशलक उल्लेख एही परम्पराकें प्रमाणित करैत अछि।



ओ जे कथासाहित्यक प्रसज़् कहल अछि से ओहूसँ कत बड़ विशेष सङ्गीतक प्रसज़्
उपलब्ध होइत अछि। ओना तँ समस्त आर्यावत्र्तक सामाजिक जीवनमे सङ्गीतक बड़ उच्च
स्थान अछि, नृत्य ओ गीत प्रायः प्रत्येक उत्सवक हेतु आवश्यक कहल अछि, परन्तु मिथिलाक
जनजीवन तँ संगीतमय अछि। मृत्यु छोड़ि जनजीवनक कोनो घटना नहि अछि जाहि हेतु
उपयुक्त गीत नहि हो, ओकर उपयुक्त भास नहि हो। प्रत्येक पर्व ओ पाबनिक अपन


अपनाभासक भिन्न भिन्न गीत अछि। समयक उपयुक्त अपन भिन्ने गीत अछि। कतेक प्रकारक
गीतक प्रचार अछि तकर अनुसन्धान ओ संग्रह एकन पर्यन्त नहि भए सकल अछि, आब तँ
बहुतो लुप्त भेल जाइत अछि। कतेक प्रकारक भास अछि तकर तँ आब केवल कल्पना कए
सकैत छी, कारण, ओकर संग्रह तँ आओरो श्रमसाध्य अछि, व्ययसाध्य अछि। परन्तु मिथिलाक
जनजीवनसँ जे जन परिचित छथि से सबहुँ

मुक्तकण्ठसँ स्वीकार करताह जे मिथिलाक सामाजिक जीवनमे, जनजीवनमे संगीत एक गोट
एहन अभिन्न अज़् अछि जाहि विना ओहि जीवनक-कल्पना समेत नहि कए सकैत छि। ई संगीत
पुरुषहुक हेतु अछि परन्तु एहि संगीतक मुख्य संरक्षिका रहैत आइलि छथि महिलागण। तावतैब
सिद्ध अछि जे ई संगीत लोकभाषा मध्य छल जेना ओ एखनहु अछि। संस्कृतमे राग-ताल-
लयाश्रित गीतकाव्यक रचना आइसँ सहरुाावधि वर्ष पूर्व जयदेव गीतगोविन्दमे कएल। परन्तु
जयदेव एहि गीतक रचनामे देशमे प्रसृत गीतकाव्यसँ प्रभावित भेल छलाह, ओकरे अनुकरण कए
ओ संस्कृतमे गीत रचल। एकर प्रमाण सहजयानक सिद्ध लोकनिक रचना उपलब्ध अछि जकर
प्रकाशन चर्यापदक नामसँ भेल अछि। ओहिमे रागादिक नाम ओहिना उपलब्ध होइत अछि जेना
गीतगोविन्दमे अछि; ओ जयदेव जे भनिताक व्यवहार चलाओल, जे विद्यापतिक समयसँ लए
मैथिली गीतक एक प्रमुख अज़् भए गेल, तकरो मूल ओही सिद्ध लोकनिक चर्यापदमे उपलब्ध
अछि। चर्यापदक गीत नेपालमे भेटि गेल, ओ सब नष्ट होएबासँ बाँचि गेल, मुदा ओहीसँ
अनुमान कए सकैत छी जे जयदेवसँ पूर्वक युगमे कोन प्रकारक गीत होइत छल, कोन रीतिएँ
गीतक रचना होइत छल। अतएव लोकभाषामे गीतक परम्परा सुदीर्घ कालसँ जे एहि जनपदमे,
समीपवर्ती जनपद सबमे, छल तकर पुष्टि जयदेवहिक एहि नवीन कृत्तिसँ होइत अछि जे
संस्कृतक हेतु नवीन छल परन्तु लोकभाषामे ततबा प्राचीन छल, ततबा लोकप्रिय छल, ततबा
प्रभावोत्पादक छल जे संस्कृत समेतमे ओकर अनुकरण भेल।



एहि प्रसज़् ई विषय स्मरणीय थिक जे आदि अवस्थामे संगीत ओ कविता एकहि रूपमे
रहैत आएल अछि। वि•ाक सब साहित्यमे ई कथा परिलक्षित होइत अछि। वेदक गान होइत
छल ओ पछाति वेदक ओ ऋचासब जे विशेष गानोपयोगी सिद्ध भेल सामवेदक रूपमे संगृहीत
कएल गेल। वाल्मीकि एक गोट नव छन्दक सृष्टि कएल जे श्लोक कहाओल ओ ओहि छन्दमे
उपनिषद्ध रामकथा गाओल जाइत छल जकर प्रथम गाता छलाह लव ओ कुश। संस्कृतमे नव
नव छन्दक सृष्टि संगीतहिक दृष्टिसँ भेल अछि। नाटकमे श्लोक संगीतक काज करैत छल ओ
पश्चात् मिथिलामे गीतक लोकप्रिय सिद्ध भेला उत्तर श्लोकक संग संग गीतक व्यवहार प्रारम्भ
भेल जे लोकभाषामे रचित होअए लागल। कविता ओ संगीतक पृथक्त्व पश्चात् भेल अछि।
मिथिलामे तँ कवी•ारक समय धरि कविता ओ संगीत एके छल कविताक छन्द ओ गीतक राग
एहि नामसँ प्रसिद्ध छल अथवा ई कहू जे गीतक रागहिक नाम कविताक छन्दहुक नाम छल।
अतएव प्राक्ज्योतिरी•ार-युगक संगीत-समृद्धि ओकर काव्य-समृद्धिक ज्ञापक थिक। यदि ओ
गीत सब उपलब्ध नहि अछि तँ तकर कारण ओएह जे कथाक प्रसज़्मे कहि आएल छी।
विद्यापतिक प्रतिभाक प्राखर्यमे ओ सब बहुतो लुप्त भए गेल; बहुतो भाषाक अंशमे रूपान्तरित
होइत होइत अद्यपर्यन्त यत्रकुत्र प्रसृत होएत, हमरा लोकनि भाषामे परिवत्र्तनक कारणें चीन्हि
नहि सकैत छिऐक। परन्तु जे कथा हमरा प्रतिपाद्य अछि, मिथिलाक जनपद-भाषामे संगीतक
परम्परा अत्यन्त प्राचीन कालसँ आबि रहल अछि, मिथिलाक जनजीवनक एक गोट अभिन्न अज़्


रहलैक अछि ओकर संगीत, मिथिलाक संस्कृति गीतमय अछि, ओ एही गीत सबहिक द्वारा
मैथिल जातिक भावाभिव्यक्ति आदिअहिसँ होइत आएल अछि। जहिना विद्यापतिक पश्चात्
तहिना ओहिसँ पूर्वहुँ मिथिलाक देशी साहित्य गीतमय छल।



एकर पुष्टि वर्णरत्नाकरसँ सेहो विलक्षण जकाँ होइत अछि। ओ ग्रन्थ सम्पूर्ण तँ उपलब्ध
नहि अछि परन्तु जतबा ओ प्रकाशमे आएल अछि ताहिमे एक गोट विषय जकर वर्णन आन
कोनहु विषयक वर्णनसँ अधिक अछि, अधिक ठाम अछि, अधिक विन्यास ओ अधिक विस्तारसँ
अछि से थिक सङ्गीत। नृत्य, वादित्र ओ गीत--ई तीनू जाहि विस्तारसँ वर्णित अछि ताहि
विस्तारसँ आओर किछु नहि। सम्पूर्ण छठम कल्लोलमे मल्लयुद्ध-वर्णना छाड़ि केवल एही तीनि
वस्तुक वर्णन अछि। चनुःषष्ठि-कलावर्णनमे गणना आरम्भे होइत अछि नृत्य, गीत ओ वादित्रसँ।
छठम कल्लोमले नृत्यक साधारण वर्णन कए ज्योतिरी•ार पुरुषनृत्य ओ स्त्रीनृत्यक वर्णन
प्रेरणनृत्य ओ पात्रनृत्य कहि कएल अछि। विद्यावन्त, जकरा लौकिक भाषामे विदाञोत कहल
अछि, दुइ

विदञोतनीक सज़् गान ओ वादनपूर्वक जे नृत्य करथि तकर बड़े विन्यास वर्णन अछि। हमरा
जनैत एही नाचक परम्पराकें पछाति आबि किरतनिञा नाम देल गेल ओ जकरा वर्णरत्नाकरमे
विद्यावन्त वा विदाञोत कहल अछि सएह आगाँ जाए नायक कहाओल। नृत्यक प्रसज़् विस्तार
बड़े चमत्कारक अछि। दशो स्थायीभावक अनुयायी, तैंतीसो व्यभिचारीभावक आश्रय, आठो
सात्त्विक भावक मिलापक, आठो स्थानक शिष्यें पात्रक प्रवेश वर्णित अछि जाहिमे पात्र होथि
बारहो दृष्टिक अभिनेता, बत्तीसो चारीक साभ्यास, छबो भज़्क व्युत्पन्न, चारु तज़्क कुशल,
बत्तीस कुलक तत्त्वज्ञ, छबो नृत्यक कुशल। ओ पुनि अठारहो प्रबन्ध नाचि रेखानृत्य करथि
जाहिमे तेरह प्रकारक मथाकम्प, छत्तीस प्रकारक दृष्टिकम्प, हस्तकम्प दश प्रकारक बाहुनृत्य,
छ प्रकारक चालकनृत्य, चौसठि हस्तकर्म इत्यादि हो।



बाजाक प्रसज़् पन्द्रह प्रभेद नगरवर्णनामे अछि; मुरजक बारह प्रकार वर्णित अछि,
वीणाक सत्ताइस भेद गनाओल अछि; प्रयाणक-वर्णनमे चौदह प्रकारक बाजाक नाम अछि।



गीतक प्रसज़् वर्णित अछि जे सातो स्वरें संयुक्त, सातो गमकसँ सम्पूर्ण, आठारहो
जातिसँ अलंकृत, बाइसो श्रुतिसँ सम्पूर्ण, एकैसो मूच्र्छनासँ अलंकृत, बीसो गेयधर्मसँ संयुक्त,
सातो गायनसँ परित्यक्त एवं चौदहो

गीतदोषसँ परित्यक्त अनेक प्रबन्ध गीत, अनेक गीतप्रपञ्च, अनेक रागक गायन हो। एहि सभमे
संख्यामात्र हम एतए देल अछि, नाम सब विस्तारक भयसँ छोड़ि देल अछि। नगरवर्णनमे अनेक
प्रकारक-गीतक वर्णन अछि जाहिमे डफिला, लोरि, बिरहा, चाँचड़ि, चउपइ, लगनी ओ लोरिक
नाच एखन पर्यन्त सुनलाँ जाइत अछि। अत्यन्त खेदक विषय थिक जे वर्णरत्नाकरक जे
तालपत्रक पुस्तक उपलब्ध भेल ताहिमे एगारहम ओ बारहम पद्य त्रुटित छैक ओ दसम पत्रक
अन्तमे इएह वर्णन अपूर्ण रहि गेल अछि।



नृत्य गीत ओ वादित्र अर्थात् सङ्गीतक एहि विन्यस्त एवं विस्तृत वर्णनसँ स्पष्ट अछि जे
ताहि समयमे एहि कलाक एतए केहन प्रचार छल। सङ्गीत विषयमे कार्णाट लोकनि आचार्य


छलाह ओ मिथिलामे कार्णाट राजकुलक संस्थापक नान्यदेव एकर विशेष ज्ञाता छलाह। तें
सम्भव थिक जे कार्णाटिक राजत्वकालमे, शाके 1019सँ, एहि प्रसज़् विशेष अनुशीलन भेल हो।
परञ्च जाहि विन्याससँ ओ विस्तारसँ सङ्गीतक सर्वाङ्गीण विकासक चित्र ज्योतिरी•ार
अङ्कित कएने छथि ताहिसँ स्पष्ट अछि जे नृत्य गीत ओ वादित्रक शास्त्रीय अध्ययन, अभ्यास
ओ अनुशीलन एतए बड़ प्रचीन कालहिसँ होइत आएल छल। एकर प्रमाण हमरा लोकनिकें
बौद्धगानमे भेटैत अछि। वर्णरत्नाकरमे छेआलीस गोट रागक नाम गनाए ज्योतिरी•ार ओकरा
अन्त नहि कए देल अछि प्रत्युत अन्तमे "आदि" जोड़ि सूचित कए देल अछि जे एहिसँ भिन्नो
रागक प्रचार छल। एहि छेआलीसमे पन्द्रह गोट अर्थात् पटमञ्जरी, गौड़ (वर्णरत्नाकरमे अछि
गौल), गुर्जरी (वर्णरत्नाकरमे गुञ्जरी), देवकरी, देसाख, भैरवी, कामोद, धनछी, रामकरी,
बराड़ी, सबरी, बलाड्डि (वर्णरत्नाकरमे वलार), मलारी, मानसी, ओ बङ्गाल--एतेक रागक गीत
चर्याचर्य-विनिश्चयमे उपलब्ध होइत अछि परन्तु चर्याचर्यविनिश्चयमे जतेक रागक गीत अछि से
सब वर्णरत्नाकरमे परिगणित अछि ओ गीतगोविन्दमे चौबीसो गीत जाहि एगारह गोट रागक
नामें उल्लिखित अछि ताहिमे एक गोट विभास छाड़ि आओर सब वर्णरत्नाकरमे गानाओल
अछि। वर्णरत्नाकरमे एहि सबसँ भिन्नो अनेक रागक नाम अछि परन्तु तकर गीत ने
चर्याचर्यविनिश्चियमे अछि ने गीतगोविन्दमे। एहि प्रसज़् स्मरण रहए जे चर्याचर्यविनिश्चयमे जे
पचास गोट गीत अछि से सब सहजयानक सिद्धान्तक, जकरा हमरा लोकनि तन्त्रमार्गक
अविकासावस्था कहि सकैत छी, तकरे टा गीत थिक ओ से एतबे तँ रचित नहि भेल होएत।
एक गोट संग्रहमे जे पचास गोट गीत लिखल चल से भाग्यसँ हमरा लोकनिकें उपलब्ध भए
गेल, नष्ट होएबासँ बाँचि गेल। एही विषयक आओर कतेक गीत छल से के जानए? ओ एतबहि
विषय लएकें गीतक रचना भेल होएत सेहो तँ नहि कहि सकैत छी। अनुपलब्धि तँ अभावक
प्रमाण नहि थिक! वर्णरत्नाकरमे जखन एतेक रागक नाम दए ज्योतिरी•ार अन्तमे "आदि" कहि
वर्णन समाप्त कएल अछि तखन

तँ स्पष्ट अछि जे एतेक राग तँ ताहि दिन प्रचलित अवश्ये छल, एहिसँ भिन्नो कतोक रागक
प्रचार छल होएत जे विस्मरणवशात् वा जानल नहि रहने ज्योतिरी•ार गनाए नहि सकलाह।
एहिमे कतोक राग शास्त्रीय अछि, कतोक देशी अछि, ओ कतोक मिश्र। एहि प्रसज़् विशेष
विचार सङ्गीतक विषय भए जाएत ओ से सङ्गीतक आचार्ये कए सकैत छथि। परञ्च ई कथा
तँ स्पष्ट अछि जे एतेक रागक विकासमे समय थोड़ नहि लागल होएत! कार्णाटक छत्रच्छायामे
सङ्गीतक विशेष विकास ओ प्रचार भेल छल से अवश्य परन्तु एहि राग सबहिक प्रयोग तँ
सहजिआ सिद्ध लोकनि सेहो कएने छथि तें एहि रागाश्रित सङ्गीतक परम्परा वर्णरत्नाकरसँ
कतोक सए वर्ष पुर्वहिसँ मानए पड़त। एगारहम शक शताब्दीमे एहि सङ्गीतक ततबा प्रचार भए
गेल छल, ततेक विकास भए गेल छल, जे जयदेव एकर प्रयोग प्रथमहि प्रथम संस्कृतमे कएल।
एहि सब कारणें ई कल्पना पूर्ण सज़्त प्रतीत होइत अछि जे मिथिला ओ मिथिलाक सन्निहित
जनपदमे सङ्गीतक शास्त्रीय पद्धतिसँ अध्ययन, अनुशीलन ओ अभ्यास बड़ प्राचीन समयसँ
आबि रहल अछि। सङ्गीतक आधार भेल गीत, ओ से गीत जनपदीय भाषामे रचित होइत छल,
जकर प्रमाण बौद्धगान। अतएव गीत-रचनाक परम्परा सङ्गीतहुसँ प्राचीन नहि तँ समकालीन तँ
अवश्ये मानए पड़त।



रागसँ भिन्न दू गोट आओर वस्तु वर्णरत्नाकरमे वर्णित अछि जकर प्रयोग सङ्गीतमे


होइत छल ओ जाहिसँ साहित्यक स्वरूपहुक सूचना भेटैत अछि। छठम कल्लोलमे गीतदोषक
वर्णन कए, ज्योतिरी•ार गोट बीसेक नाम गनाए, तखन पुनः "प्रभृति" जोड़ि, अनेक प्रबन्ध-
गीतक उल्लेख करैत छथि। ई नाम सब परिचित नहि अछि; केवल दू गोट नाम, गद्य ओ
दण्डक, बुझल होइत अछि ओ झुमुला प्रायः झुमुराक नामसँ प्रसिद्ध अछि। तदुत्तर पुनि गोट
पन्द्रहेक प्रकारक गीतप्रपञ्चक वर्णन कए कहैत छथि जे "से बोलहि नहि पारिआइ", जे कहल
नहि जाए। एहि प्रपञ्चमे एको गोट नाम परिचित नहि अछि। प्रबन्धगीत ओ गीतप्रपञ्च
सङ्गीतक वस्तु थिक; सङ्गीत शास्त्रमे एहि सबहिक वर्णन अछि; ओ तें एकर परिचय
सङ्गीत-शास्त्री दए सकैत छथि। परन्तु एतबा धरि तँ एहिसँ स्पष्ट अछि जे आगाँ जाए जे गोट
छेआलिसेक रागक उल्लेख अछि तकर गानमे जाति, श्रुति, ओ मूच्र्छना इत्यादिक सज़्
प्रबन्धगीत ओ गीतप्रपञ्च सेहो होइत छल, ओ जें एहि सङ्गीतक आधार गीत देशीभाषामे छल
तें एकर प्रबन्ध अथवा प्रपञ्च तकरो आश्रय ओएह देशीभाषा होइत छल तकर कल्पना करब
असज़्त नहि होएत। आधुनिक समयमे आबि तँ नव नव सड्गीतक ताहि रुपक व्यापक
प्रभाव सर्वत्र पसरि गेल अछि जे प्राचीन वस्तुक लोप भेल जाइत अछि ओ प्राचीनो वस्तु नव
नामसँ परिचित होइत अछि, परन्तु गद्य ओ दण्डक एहि दू प्रकारक प्रबन्धगीतक जे उल्लेख
ज्योतिरी•ार कएने छथि ताहिमे गद्य तँ गीतमे बुझल नहि होइत अछि मुदा दण्डकक प्रबन्धन तँ
एखनहु धरि कए जातिक गीतमे भेटैत अछि। कहबाक अभिप्राय जे गीतमे गद्य ओ दण्डकक
समावेश होइत छल ओ तहिना आनो आनो प्रबन्धक समावेश होइत छल तकर कल्पना करब
सुगम अछि। अतएव ई सब प्रभेद सङ्गीतक सज़् सज़् साहित्यिक समृद्धिक सूचक थिक।



ई तँ भेल ओ सङ्गीत जकरा शास्त्रीय कहब, जकर नियमन शास्त्रीय पद्धतिसँ हो।
एहिसँ भिन्नो गीतक चर्चा वर्णरत्नाकरमे भेटैत अछि। प्रथमहि कल्लोलमे नगर-वर्णनामे
ज्योतिरी•ार पन्द्रह गोट बाजाक नाम गनाए ई सब "बजाबइतें" पन्द्रह गोट नाम कहैत छथि जे
भिन्न भिन्न प्रकारक लोक-गीत बुझना जाइत अछि। सोड़हम नामक प्रथम अक्षर "जि" सँ दशम
पत्रक अन्त भए जाइत अछि ओ एगारहम पत्र त्रुटित अछि तें ई वर्णन अपूर्णे रहि गेल अछि।
परन्तु ओहि पन्द्रह गोट नाममे कमसँ कम पाँच गोट नाम चिन्हार लगैत अछि, बिरहा, चउपइ,
चाञ्चलि जकरा आब चाँचड़ि कहैत छिऐक, लोरिक नाचो, नगनी जे प्रायः लगनी थिक। ई सब
तँ एखन पर्यन्त उपलब्ध अछि। आइसँ पचास वर्ष पूर्व म0 म0 परमे•ार झा अपन सीमन्तिनी-
आख्यायिकामे बरिआतक वर्णन करैत शास्त्रीय सङ्गीतक चर्चा कए लिखैत छथि जे "गाछी
पोखरि दिश कहार बेगार प्रभृति नीच वर्ग दोसरहि तरहें विनोद करए लागल अर्थात् सीता-
स्वयंवर, प्रभावतीहरण, रम्भाभिसार एहि विषय सभक

गमैआ भासक गीतसँ आरम्भ कए बिरहा चाँचरि पर्यन्त गाबए लागल।" वर्णरत्नाकरसँ
सीमन्तिनी-आख्यायिका धरि कमसँ कम बिरहा ओ चाँचरिक परम्परा तँ अविच्छिन्न अछि ओ
सीता-स्वयंवरादि विषय सभक प्रसज़् के कहि सकैत अछि जे वर्णरत्नाकरक पन्द्रह जे प्रभेद
परिगणित अछि ताहिमे ई सब वा एतादृशे आन विषय नहि अछि, अथवा जे अंश त्रुटित अछि
ताहिमे ई सब नहि हो। गमैआ भासक ई सब गीत छोट लोकमे प्रचलित छल ई कथा
सीमन्तिनी-आख्यायिकासँ स्पष्ट अछि। के कहि सकैत अछि जे एहि प्रकारक लोकगीतक जे
परम्परा आइछओ सए वर्षसँ अबैत अछि ओ वर्णरत्नाकरहुसँ छओ सए वर्ष पूर्वसँ नहि छल?


लोरिकक गीत ओ नाच तँ एखनहु होइत अछि; लगनी आइ धरि स्त्रीगण जाँत पिसबाक श्रमकें
दूर करबाक हेतु जाँतक हाथर चलबैत गबैत छथि; चौपाइ तँ एमहर आबि आओर प्रसिद्धि
पओलक अछि ओ एखनहु भास लगाए गओल जाइत अछि। प्राचीन साहित्यिक परम्पराक एहन
प्रामाणिक वर्णनक मध्यहिमे एहि ग्रन्थक ई त्रुटि अत्यन्त खेदक विषय थिक परन्तु पन्द्रह गोट
प्रभेदक उल्लेख अछि जाहिमे पाँच गोट एखन धरि चिन्हार अछि इहो कम सन्तोषक विषय नहि
थिक। विरहा, चाँचड़ि लोरिकक नाच, लगनी, चउपाइक रचना वर्णरत्नाकरक समयमे छल
एतबा तँ प्रमाणित भए जाइत अछि। शेष दश गोट प्रभेद, उलोरि (जे प्रायः लोरि थिक जे
विद्यापति, "गाबहु हे सखि लोरिझुमरि मदन अराधए जाउँ" मे कहने छथि), बेलि अथवा वेणि
जकर चर्चा अनुपदहिं करब, विरह देइ मन्त्रणा, भिषना, सिरिआ देशह, ठमरण, चेङ्गा, मऐना
ओ बढ़नी तथा डाफिला (जे सम्प्रति एक गोट बाजाक नाम थिक जे बाँसुरीक सज़् बजाओल
जाइत अछि) एहि दश प्रभेदक परिचय उपलब्ध नहि अछि परन्तु ई सब अन्यान्य वस्तुक
समभिव्याहारक बलसँ तत्तद् नामसँ प्रसिद्ध लोकगीतक भेद थिक ई मानबामे कोनो सन्देह नहि
रहैत अछि।



ओहीनगर-वर्णनक अन्तमे अछि--"तदनन्तर वेणि (जे पूर्वक सूचीक बेलि थिक, ल ओ ण
क समतासँ कोनहु एकठाम अशुद्ध लिखल अछि) विरहा, हुलुक, चुटुकुल, प्रतिगीत, वाद्य, ताल,
नृत्य होइतें छल।" ई सब मनोरञ्जनक प्रकार थिक ओ वाद्य ताल तथा नृत्यकें छोड़ि प्रथम
पाँचो शाब्दिक प्रतीत होइत अछि। एहिमे बेलि वा वेणि तथा विरहा तँ लोकगीतक प्रभेदमे पूर्वहु
आएल अछि; शेष हुलुक, चुटुकुल एवं प्रतिगीत नवीन अछि। चुटुकुल तँ प्रायः एखन जकरा
चुटकुला कहैत छिऐक सएह थिक। एकर आशय भेल छोट मनोरञ्जनक गप्प वा फकड़ा।
प्रतिगीत तँ-प्रतीत होइत अछि गीतमे उत्तर-प्रत्त्युत्तर, जेना सम्प्रति जटा-जटिनक खेड़िमे होइत
अछि जे एक गीतमे जटाक उक्ति रहत जकरा एक जेड़ि गाओत ओ तखन जटिनक उक्ति गीत
दोसर जेड़ि। कहबाक आशय जे एहि पाँच प्रकारक खेड़िमे आधार शाब्दिक अवश्य छलैक ओ
तावतैव सिद्ध अछि जे एकर रचना होइत छल, एहि सबहिक प्रचार व्यापक रूपें छल जे
मौखिक रूपें उत्तरोत्तर अबैत छल, ओ आब यद्यपि ई सब अनचिन्हार लगैत अछि परन्तु एक
समय छल जखन लोक विषय साहित्यमूलक मनोरञ्जनक ई सब प्रसिद्ध साधन छल।



वर्णरत्नाकर सम्पूर्ण उपलब्ध नहि अछि; जेहो अंश उपलब्ध अछि ताहिमे ततेक
लेखाशुद्धि अछि जे बहुत स्थलमे संदेह अनिवार्य भए जाइत अछि; ताहि परसँ ततेक प्राचीन ई
ग्रन्थ अछि जे बहुतो वर्णित वस्तुकें लुप्त भेलाँ बहुत दिन भए गेल ओ तें अधिकांश वस्तु
अनचिन्हार भए गेल अछि। परन्तु तैओ जतबे बुझबाक योग्य होइत अछि ताहि आधार पर जे
विचार हम एतए उपस्थित कएल अछि ताहिसँ ई कथा स्पष्ट अछि जे मिथिलाक भाषामे जे
ताहि दिन अवहट्ट कहबैत छल, साहित्यिक रचनाक परम्परा ओहू दिन पुरान छल, व्यवस्थित
छल, व्यापक रूपसँ प्रचलित छल, लोकप्रिय छल। विशेष रूपसँ पद्यक प्रचार छल जे तत्कालीन
सङ्गीतक आधार छल परन्तु गद्यक सेहो रचना होइत छल जे गाओलो जाइत छल ओ कथामे
व्यवह्मत होइत छल। वर्णरत्नाकरक रचना ताहूसँ इएह सिद्ध होइत अछि। वि•ाक साहित्यिक
विकासक क्रममे सर्वत्र इएह देखना जाइत अछि जे साहित्यिक रचनामे गद्यसँ पूर्व पद्यक


विकास होइत अछि ओ वर्णरत्नाकरक सदृश प्रौढ़ गद्यक ग्रन्थ स्वतः प्रमाण अछि जे ताधरि
मिथिलाक भाषामे साहित्यिक अभिव्यक्तिक सामथ्र्य पूर्णरूपें भए गेल

छल। दोसर, सब ग्रन्थक कोनो उद्देश्य होइत छैक; सब ग्रन्थक अधिकारी होइत अछि जकरा
हेतु ओहि ग्रन्थक निर्माण होइत अछि। वर्णरत्नाकरक उद्देश्य वर्णनक चमत्कार प्रदर्शन छल तथा
ओकर निर्माण भेल छल भाषाक कवि लोकनिक हेतु, भाट लोकनिक हेतु, कथक लोकनिक हेतु;
कहबाक तात्पर्य जे जे केओ साहित्यिक रचनामे संलग्न छलाह वा संलग्न होअए चाहैत छलाह
तनिका लोकनिकें वर्णनक चमत्कारक मार्ग प्रदर्शनक हेतु एहि ग्रन्थक रचना ज्योतिरी•ार
कएल। ई छोड़ि आओर कोन उद्देश्य एहि रूपक आकर ग्रन्थक हेतु भए सकैत अछि, कारण,
एहिमे जनताक मनोरञ्जनक सामर्गी नहि अछि, साहित्यकार लोकनिक उपकारक सामग्री
संकलित अछि। एहिसँ मिथिलाक जनपदमे मिथिलाक भाषामे साहित्यिक रचनाक एक गोट
सुदीर्घकालीन परम्पराक जे कल्पना कएल अछि तकरे पुष्टि होइत अछि।



परन्तु एहि प्रसज़् ई कथा स्मरण रहए जे ई रचना सब साधारण जन-हित होइत छल।
एकर रसास्वादन एहि भाषाक सब भाषी करैत छल सेहो सत्य, परन्तु पण्डितवर्गक मनोरञ्जनक
साहित्य छल मुख्यतः संस्कृत। जे जन संस्कृतसँ अनभिज्ञ छल अथवा संस्कृतमे साहित्यक मर्म
नहि बूझि सकैत छल तकर साहित्यिक मनोरञ्जनक साधन इएह कथा, गीत, चुटकुला इत्यादि
छल। अतएव ई सब मौखिक रूपें प्रचारमे छल; एकरा सबहिक-लेखनक प्रयोजने नहि छल,
कारण, जकरा हेतु ई छल तकरामे साक्षरता अत्यन्त विरल छल। तँहि, ई सब क्रमशः लुप्तो
होइत गेल। गाथासप्तशती अथवा बृहत्कथा किंवा जातक जकाँ ई सब संगृहीत ओ लिपिबद्ध
नहि भेल तकर कारण स्पष्ट अछि। एतए ने सातवाहन जकाँ केओ साहित्यिकक पोषक छलाह
ने धार्मिक प्रचार लक्ष्य छल। से जँ भेल अथवा जाहि कालमे भेल ताहि कालमे एतहु किछु
संग्रह अवश्य भेल ओ से सब उपलब्धो अछि जकर चर्चा अनुपदे करैत छी। वास्तवमे अबहट्ट
भाषाक साहित्य एतावन्मात्रे उपलब्ध अछि यद्यपि इहो कथा सत्य जे ओहि भाषाकें विशुद्ध
मिथिला-जनपदक भाषा कहब ओतेक स्पष्ट ओ निर्विवाद नहि अछि, कारण ओहि समयमे
मिथिलाक भाषाक स्वरूप ओना स्थिर नहि भेल छल। ओ भाषा ज्योतिरी•ारक भाषा जकाँ
मैथिली नहि परन्तु मैथिलीक प्राग्रूप छल जाहिमे कतोक लक्षण भेटैत अछि जे आब मैथिलीमे
नहि, बंगलामे, असमिआमे, ओड़ियामे, वा हिन्दीमे भेटैत अछि। हमरा लोकनि ओकरा तैओ
मैथिली अबहट्ट अथवा मैथिलीक प्राग्रूप मानैत छी, कारणा, ओहिमे सबसँ अधिक लक्षण
मैथिलीक अछि; ओकर सबसँ अधिक समता मैथिलीसँ अछि, ओकर छाया जतेक सदृश
मैथिलीमे होइत अछि ततेक आन आधुनिक भाषामे नहि।



एहि प्रसज़् सबसँ पूर्व हम कालिदासक एक गोट दोहा उपस्थित करैत छी।
विक्रमोर्वशीय-त्रोटकक चतुर्थ अङ्क गीतनाट¬ थिक ओ ओहिमे जे नृत्य अछि से अपभ्रंशक
गीतक संग अछि। ओहिमे पावसक वर्णनमे एक गोट दोहा अछि :-



मइँ जाणिअ मिअलोअणि णिसिअरु कोइ हरेइ।

जाव णु अवतड़िसामलि धाराहरु बरिसेइ।।




एकर मैथिली-छाया देखू :-

मोञे जानिअ मृगलोचनी निशिचर कोइ हरेइ।

जाब न नवतड़िश्यामली धाराधर बरिसेइ।।



एहिमे "मइँ" जकरा हिन्दीमे "मैं" कहब मैथिलीक उच्चारणक अनुकूल अछि। हलन्त
शब्दक अन्तिम हल्क लोप कए "जाब" ओ "तड़ि" "यावत्" ओ "तड़ित्" थिक ओ से मैथिल
सम्प्रदायक अनुकूल अछि। "जानिअ", "हरेइ" "बरिसेइ" तीनू क्रियापद शुद्ध मैथिलीक थिक।

दोसर दृष्टान्त हम प्राकृतपिज़्लसँ दैत छी। धवल नामक वर्णवृत्त्क उदाहरणमे जे
कविता अछि से थिक--



तरुण तरुणि तबइ धरणि, पवण बह खरा।

लग णहि जल बड़ मरुथल जनजिवण हरा।।

दिसइ चलइ हिअअ डुलइ हम इकलि बहू।

घर णहि पिअ सुणहि पहिअ मन इछइ कहू।



एकर मैथिली-छाया देखू--



तरुण तरुणि तबइ धरणि, पवन बह खरा।

लग नहि जल बड़ मरु-थल जनजीवन हरा।।

दिशो चलइ हिअअ डोलइ हम एकलि बहू।

घर नहि पिअ सुनिअ पथिक मन इछइ कहू।।



एहिमे क्रियापद प्रायः सब मैथिलीक अनुरूप अछि, केवल "इछइ" क प्रयोग आब ऊठल
अछि तथा "सुनहि"क संग "कहू"नहि बैसैत अछि। तबइ, खरा, लग, बड़, डुलइ, बहू, घर, ओ
कहू विशुद्ध मैथिली थिक। केवल 'इकलि' बंगलामे होइत अछि। सबसँ विशेष एहिमे "हम" रूप
अछि। एहि पद्यकें यदि मैथिली नहि तँ की कहब? एहि प्रकारसँ प्राकृतपैज़्लम् प्रभृति प्राकृत ओ
अपभ्रंशक संग्रह-काव्यक यदि अध्ययन कएल जाए तँ बहुत रास एहन रचना भेटत जे मैथिलीक
प्राग्रूप प्रतीत होएत। एहि हेतु बड़ कठिन परिश्रमक अपेक्षा छैक ओ ताहूसँ अधिक अपेक्षा छैक
भाषा-विज्ञानसँ स्फीत दृष्टिक। एहि दिशि कार्य प्रायः प्रारम्भो नहि भेल अछि।



मिथिला-जनपदक प्राचीन भाषामे, मैथिली अवहट्ट वा मैथिलीक प्राग्रूप भाषामे, जे रचना
सबसँ अधिक उपलब्ध भेल अछि से थिक सहजपन्थी सिद्ध लोकनिक कृति जे नेपालमे भेटल
अछि आठम-नवम शताब्दीमे एहि मार्गक विकास भेल श्री एमहर आबि जे तन्त्र कहाए मिथिलाक
जन-जीवनमे मिझराए गेल से एही सहजमार्गक परिष्कृत रूप थिक। आसाम, बङ्गाल ओ
नेपालक सज़् सज़् मिथिला तन्त्रक एक गोट प्रमुख केन्द्र रहैत आएल अछि। लोक-विषय
प्रचारक दृष्टिसँ एहि मार्गक सिद्ध लोकनि अपन मतक प्रचार देशी भाषामे कएल ओ
वर्णरत्नाकरमे चौरासी सिद्धक नाम परिगणित अछि ताहिमे ओहि सब सिद्धक नाम अछि जनिक


कृतिउपलब्ध भेल अछि। हिनका लोकनिकें तिब्बतसँ सम्पर्क छलैन्हि ओ तन्त्रमे जे चीनाचार
कहल जाइत अचि तकर अभिप्राय इएह जे तत्तद् विषयमे तिब्बतक प्रभावसँ एतएक क्रियाकलाप
नियमित होइत अछि। कामरूप एहि मार्गक विकासक प्रधान केन्द्र छल। एमहर विक्रमशिला
वि•ाविद्यालय ओकर प्रचारक केन्द्र छल। विक्रमशिला उजड़ि गेल किन्तु ओकर भग्नावशेष आब
भागलपुरक निकटमे बहराए रहल अछि। एही विक्रमशिलामे कामरूपक मार्गें तिब्बत धरि एहि
सिद्ध लोकनिक क्षेत्र छल। अतएव तिब्बतमें सेहो एहि सिद्ध लोकनिक बहुत रास रचना भेटल
अछि जे अधिकांश तिब्बतक भाषामे अनुवाद अछि परन्तु कतेको मूलभाषामे सेहो अछि जे
मिथिलाक्षरमे लिखल अचि। नेपालमे जे अंश सुरक्षित अछि से म0 म0 हरप्रसाद शास्त्री
प्रकाशित कराओल; तिब्बतमे जे भेटि सकल तकर प्रकाशन महापण्डित राहुल सांकृत्यायनजी
कराओल। एहि प्रसज़् ने ऐकमत्य अछि ने ऐकमत्य भए सकैत अछि जे एकर भाषा कोन थिक।
आठम नवम शताब्दीक ई भाषा भारतक पूर्वाञ्चलक देशीभाषा छल जकरा भाषाविज्ञानमे अपभ्रंश
कहल जाइत अछि। मिथिलामे व्यवह्मत अपभ्रंशकें ज्योतिरी•ार ओ विद्यापति समेत अबहट्ट कहैत
छथि परन्तु ई बुझल नहि होइत अछि जे अवहट्ट केवल मिथिलहिक देशीभाषा कहबैत छल
अथवा एहि अञ्चलक सब भाषा एही नामसँ अभिहित छल। एतबा निश्चयक

जे एहि भाषा सबमे ताहि दिन बड़ विशेष अन्तर नहि छल ओ जेना एहि अञ्चलक सब लिपि
मूलतः एके लिपि थिक तहिना एहि अञ्चलक सब जनपदक भाषा मूलतः एके अपभ्रंश छल
अथवा परस्पर अत्यन्त सदृश छल इहो कल्पना सर्वथा असज़्त नहि प्रतीत होइत अछि। मूलभूत
ओहि अपभ्रंश भाषाक कतोक लक्षण आधुनिक कोनहु एक भाषामे तँ अन्यान्य लक्षण अपर
भाषामे लक्षित होइत अछि। तहिना सिद्ध लोकनिक रचनामे एहि अञ्चलक सब भाषाक किछु ने
किछु लक्षण लक्षित होइत अछि। फलतः सब भाषाभाषी इएह कहैत छथि जे ई बौद्धगान ओ
दोहा हमरहि भाषाक प्राचीन साहित्य थिक। एकर निर्णय होएब कठिन अछि ओ से कए सकैत
छथि भाषातत्त्वविद्। हम भाषातत्त्वक विशेषज्ञ नहि छी ओ तें एहि प्रसज़् अधिकारपूर्वक किछु
कहब हमरा हेतु कठिन अछि परन्तु ऐतिहासिकक दृष्टिसँ विचार कएलासँ हमरा स्पष्ट प्रतीत
होइत अछि जे सब सिद्धक कृति' एक रूपें तँ नहि परन्तु न्यूनाधिकरूपें यदि मिथिला-जनपदक
भाषामे नहि तँ ओकर अत्यन्त सदृश भाषामे अवश्य अछि।



सहजयानक सिद्ध लोकनिक ई कृति जे बौद्धगान ओ दोहाक नामें प्रसिद्ध अछि एक
गोटाक रचना नहि थिक। एहिमे अधिकांश रचना सरह-पादक थिक परन्तु आओरो कतोक
सिद्धक कतोक रचना अछि। ज्योतिरी•ार चौरासी गोट सिद्धक नाम गनओने छथि ओ इहो
कहब असज़्त नहि होएत जे ओहि चौरासिओ सिद्धक रचना छल होएतैन्हि। परन्तु केओ सिद्ध
जे देशीभाषामे रचना कएल से भाषा की तँ हुनक अपन भाषा छल होएत अथवा ओहि क्षेत्रक
भाषा छल होएत जतए ओहि सिद्धक कार्यक्षेत्र छल जतए ओ अपन मार्गक प्रचार करए चाहैत
छलाह। ई सिद्ध लोकनि कोन जनपदक छलाह से बुझल नहि होइत अछि। एक तँ ताहि दिन
देशभेदें व्यक्तिक परिचय नहि होइत छल; दोसर, ई सिद्ध लोकनि एक प्रकारें संन्यासी होइत
छलाह ओ एहि मार्गमे प्रवेश करितहिं अपन नाम नव राखि लैत छलाह। तें के सिद्ध कोन
जनपदक छलाह, कोन भाषा बजैत छलाह, से बुझब असम्भव अछि। परन्तु कार्यक्षेत्र छल
हिनका लोकनिक केन्द्रित मुख्यतः विक्रमशिलामे। ई स्थान गङ्गाक ओहि पार, मिथिलाक
सीमासँ बहिर्भूत, अवश्य-अछि। परन्तु बड़ प्राचीन समयसँ ई भाग मिथिलाक सांस्कृतिक क्षेत्रमे


पड़ैत अछि, ओ एखनहु केवल भागलपुरे टा नहि, सन्ताल-परगन्ना पर्यन्तमे मिथिलाक संस्कृति
मान्य अछि, मिथिलाभाषा बाजल जाइत अछि। मिथिलाक्षरक प्राचीनतम लेख हमरा लोकनिकें
सातम शताब्दीक आदित्यसेनक शिलालेखमे भेटैत अछि जे मन्दारमे उपलब्ध भेल ओ आब
देवघरमे अछि। तिब्बतमे एकर लेख मिथिलाक्षरमे अछि से राहुलजी लिखैत छथि; नेपालमे लेख
कोन लिपिमे अछि से म0 म0 हरप्रसाद शास्त्री नहि लिखैत छथि परन्तु प्राचीन बंगला-लिपि तँ
तिरहुता लिपिक ततेक सदृश छल जे दूनूमे भेद लक्षित करब असम्भव जकाँ अछि। भाषाक
दृष्टिसँ, जे कथा हम पहिनहु कहल अछि, सब सिद्धक रचना समान नहि छैन्हि परन्तु
दोहाकोषसँ सरहक किछु पद एतए उद्धृत करैत छी जे विशुद्ध मैथिली प्रतीत होइत अछि।



1. कज्जे विरहिअ हुअवह होमें

अक्खि डद्दाविअ कड़ुए धृमें।।

2. घरही बइसी दीआ जाली।

कोणहिं बइसी घणटा चाली।।

3. किन्तह तित्थ तपोवण जाइ।

मोक्ख कि लब्भइ पाणी ह्नाइ।।

4. पणिडअ सअल सत्थ वक्खाणाइ।

देहहिं बुद्ध बसन्त णा जाणइ।।

अवणागमण ण तेण विखणिडअ।

तोबि णिलज भणइ हउ पणिडअ।।

5. मन्तह मन्ते स्सन्ति ण होइ।

पड़िल भित्ति कि उट्ठिअ होइ।।

तरुफल दरिसणे णउ अघ्घाइ।

बेज्ज देक्खि कि रोग पलाइ।।

तहिना चर्यापदक गीतसँ किछु पंक्ति एतए दैत छी जे ध्यानसँ द्रष्टव्य थिक।



1) सरहपादक--

काअ णावड़िखाँटि मण केडुआल।

सद्गुरुवअणे धर पतबाल।।

चीअ थिर करि धरहु रे नाइ।

आन उपाये पार न जाइ।। (गीत 38)

नाद न विन्दु न रवि शशिमण्डल

चिअराअ सहाबे मूकल।

उजु रे उजु छाड़ि मा लेहु रे वंक।

निअरि बोहि मा जाहु रे लंक।।32।।

अपणे रचि रचि भवनिर्वाणा।

मिछें लोअ बन्धाबए अपणा।।

अम्हे ण जाणहु अचिन्त जोइ।

जाम मरण भव कइसण होइ।।22।।


भुसुकपादक-- निसि अन्धारी मूसा अचारा।

अमिअ भखअ मूसा करअ अहारा।

मार रे जोइआ मूसा पवणा।

जेण तूटअ अवणागवणा ।।21।।

.....हाक पड़अ चौदीस।

अपणा मांसें हरिणा वैरी।

खनह न छाड़अ भुसुक अहेरी।

तिन न छुपइ हरिणा पिबइ न पाणी।

हरिणा हरिणीर निलअ न जाणी।।9।।

कान्हूपादक-- जे जे आइला ते ते गेला।

अवणागवणे कान्हु विमन भइला।।

हेरि से कान्हि निअरि जिन उर बट्टइ।

भणइ कान्हु मो हिअहि न पइसइ।।7।।

मन तरु पाञ्च इन्दि तसु साहा।

आसा बहल पात फल बाहा।

वरगुरुवअणे कुठारे छिजअ।

कान्ह भणइ तरु पुण न उइजअ।।

सुण तरुवर गअण कुठार।

छेबइ सो तरु मूल न डाल।।45।।

एहि उद्धरण सबहिक तँ आधुनिक मैथिलीमे रूपान्तर करब सुगम अछि परन्तु एहिसँ भिन्नो
बौद्धगान ओ दोहामे सर्वत्र अनेक नाम अछि जकर प्रयोग मैथिलीमे होइत अछि, अनेक धातु
अछि जकर अर्थ मिथिलाभाषामे भेटैत

अछि, सर्वनाम ओ अव्यय मिथिलाभाषाक सदृश अछि, सबसँ अधिक धातुक रूप सब
मिथिलाभाषाक अनुरूप अछि। प्रयोजन अछि एहि संग्रहक प्रत्येक पदक भाषा-विज्ञानक दृष्टिसँ
विचार करबाक, ओ से कएला उत्तर हमर अनुमान अछि जे आधासँ अधिक पद, विशेषतः
क्रियापद, एहन भेटत जे एहि सहरुा वर्षसँ मिथिला-भाषामे आबि रहल अछि। हम वारंवार
कहल अछि जे पूर्वमे एक अञ्चलक भाषा सबहुँक मध्य परस्पर ओतेक अन्तर नहि छलैक
जतेक आइ छैक, ओ तें सहरुा वर्षसँ प्राचीन एहि सिद्ध लोकनिक साहित्यिक भाषामे ओहन पद,
रूप वा लक्षण भेटब अस्वाभाबिक नहि जे मैथिलीमे नहि, भाषान्तरमे भेटैत अछि। दोसर, सब
सिद्धक भाषा समान रूपसँ मिथिलाजनपदीय भाषाक सदृश नहि अछि, सरहपादक भाषा सबसँ
विशेष मैथिली सन अछि तँ कृष्णवज्र अथवा चाटिल्लक थोड़ यद्यपि सादृश्य न्यूनाधिक रूपें
सबमे अछि। रचना सबहिक भेल अछि मिथिलाक सांस्कृतिक क्षेत्रमे जकर बड़का प्रमाण
मिथिलाक्षरमे एकर लेख जे राहुलजी कहैत छथि, ओ तें क्षेत्रीय भाषाक प्रभाव अनिवार्य, परन्तु
केओ सिद्ध यदि मिथिला जनपदक छलाह तखन हुनक रचना मिथिला जनपदक भाषामे होएब
स्वाभाविक ओ ताहिमे यदि भाषान्तरक लक्षण अछि तँ तकर समाधान प्रचारार्थ भाषान्तर-क्षेत्रक
प्रभाव मानब। तथापि ई केवल कल्पना थिक। कल्पना साधार अछि, निराधार नहि, परन्तु तैओ
दृढ़तासँ ई कहब जे इएह तत्कालीन मिथिलाक भाषा छल तखने सम्भव होइत जँ कोनहु
सिद्धकें हमरा लोकनि मैथिल चीन्हि सकितहुँ अथवा मिथिला-जनपदक भाषा कहि तत्कालीन
भाषाक स्वरूप उपलब्ध रहैत। तें केवल भाषाक आधार पर एकरा मैथिलीक तत्कालीन स्वरूप


कहब निर्विवाद नहि अछि, परन्तु एहिमे कोनो विवाद नहि जे ई मैथिलीक प्राग्रूप थिक जाहिसँ
एहि अञ्चलक सब भाषा तत्तद्देशभेदें भिन्न रूपें विकसित भेल अछि।



परन्तु सहजपन्थी सिद्धलोकनिक रचनामे जे सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अङ्कित अछि तकरा
हमरालोकनि विशेष दृढ़तासँ मिथिला-जनपदीय कहि सकैत छी। सरहपाद कहैत छथि,



"सिद्धिरत्थु मइ पढ़मे पढ़िअउ।

मण्ड पिबन्तें विसरअ एमइउ।।



मिथिलामे अक्षरारम्भ एखनहु एही चारि अक्षरसँ होइत अछि--सिद्धिरस्तु; केवल एक गोट यन्त्र
जकरा आँजी कहैत छिऐक पहिने लिखाए तखन ई चारू अक्षर लिखाओल जाइत अछि। बहुत
अन्वेषण कएलहु उत्तर पता नहि लागल अछि जे मिथिला छाड़ि अन्यत्र कतहु अक्षरारम्भक ई
क्रम अनुवत्र्तमान अछि। तहिना मिथिलामे एखन धरि लोकक वि•ाास छैक जे माँड़ पीलासँ
मेघाशक्तिक ह्यास होइत अछि, लोक पढ़ल वस्तु बिसरि जाइत अछि। सरहपादक एहि दूहू
पाँतिमे जे सांस्कृतिक चित्र अङ्कित अछि से मिथिलाक थिक। तहिना कुक्कुरीपादक एकटा पद
अछि--

दिवसइ बहुड़ी कागडरें भाअ।

राति भइले कामरु जाअ।।

एखनहु मिथिलामे एकटा कहबी प्रसिद्ध अछि जे "दिनकें" धनि कागें डेराथि, राति भेलें धनी
कामरु जाथि"। एके कहबी थिक जे कुक्कुरीपाद अपना गीतमे गओने छथि ओ जे आइ धरि
मिथिलामे प्रचलित अछि। कहबीक ई आनुपूव्र्य सिद्ध करैत अछि जे कुक्कुरीपाद मिथिलाक
विचारसरणि ओ वाग्धारासँ परिचित छलाह। एहू दृष्टिसँ बौद्धगान ओ दोहाक सूक्ष्म अध्ययनक
प्रयोजन अछि, परन्तु जें हेतु विषय अछि रहस्यमय, भाषा अछि अत्यन्त प्राचीन, ओ सम्पादित
भेल अछि ई अन्य अन्य भाषाक भाषी द्वारा जे लोकनि एकरा अपन अपन भाषाक प्राचीन स्वरूप
बुझैत रहलाह, तें एकर अध्ययन अत्यन्त सुगम नहि अछि।



परन्तु सहजपन्थी सिद्ध लोकनिक रचनाक ई भाषा मिथिलाक भाषा छल तकर एक गोट
प्रबल प्रमाण ई अछि जे मिथिलामे एहि प्राच्य अपभ्रंश भाषामे, जकरा ज्योतिरी•ार अबहट्ट कहैत
छथि, रचनाक परम्परा

अन्यथहुँ उपलब्ध होइत अचि। बौद्ध गान ओ दोहासँ भिन्नो एक प्रकारक रचना प्रचुरतया
उपलब्ध होइत अछि जे एही अबहट्ट भाषामे रचित अछि ओ जे मिथिलहिटामे भेटैत अछि। ई
थिक ग्रामीण जन-जीवनसँ सम्बद्ध यात्रा, कृषि, शकुन प्रभृति व्यावहारिक ज्योतिष-विषयक।
अत्यन्त प्राचीन कालहिसँ एहि विषय सब पर अबहट्ट भाषाक वचन सब प्रचुरतया प्रचलित अछि,
तथा एखनहु धरि ग्रामीण जनता मध्य, विशेषतः कृषक समाज मध्य, एहि वचन सबहिक बड़
आदर अछि। एहिमे सबसँ विशेष प्रसिद्ध छथि ड़ाक। ओना तँ डाकक वचनक समस्त उत्तर
भारतवर्षमे प्रचार अछि, ओ भिन्न भिन्न जनपदमे हुनक नाम भिन्न कहल जाइत अछि, यथा डाक,
घाघ, भड्डरी इत्यादि, ओ सब जनपदमे हुनक वचनक भाषा तत्तत् जनपदक भाषा अछि।
मिथिलहुमे एखन जे डाकक वचन सुनल जाइत अछि से बहुत अंशमे आधुनिक मैथिली अछि,


पुरान अवहट्टमे नहि। परन्तु मिथिलामे बड़ प्राचीन कालसँ डाकक बचन सब लिखल भेटैत
अछि। कतहु नामोल्लेखपूर्वक यथा, "अथ सिद्धयोगविचारे डाकः" "अथ सुखरात्रिविचारे डाकः"
इत्यादि, ओ कतहु कतहु केवल "तथा च भाषा" एतबए कहि वचन उद्धृत अछि। एहि प्रसज़्
हमर मित्र, ताहि समयक दरभंगा-राजक संस्कृत लाइब्रोरीक पण्डित श्री जीवानन्द ठाकुरजी
"मैथिल डाक" नामक एक गोट पोथी लिखने छथि, जकर प्रकाशन मैथिली-साहित्य-परिषदसँ
भेल अछि ओ "डाकके सम्बन्धमे किछु और वातें" शीर्षकक एक गोट प्रामाणिक निबन्ध तेरहम
अखिल-भारत-प्राच्य-विद्या-महासम्मेलनक नागपुर अधिवेशनमे हिन्दी विभागमे पढ़ने छथि जे
ओकर निबन्ध मालामे प्रकाशित अछि। तीन सए चारि सए वर्ष पुरान अनेको तालपत्रक लेखमे
डाकक वचन उल्लिखित भेटैत अछि। विद्यापति ठाकुरक बालक मुद्राहस्तक हरपति ठाकुरक
एक गोट ग्रन्थ अछि व्यवहार दीपक जे अद्यापि अप्रकाशित अछि। एहिमे डाकक अनेक वचन
प्रमाण रूपें उद्धृत अछि। यथा, राशिस्वभावविचारमे

मेष मीन तिअ दण्डा दीस।

ता उप्परि दिअ पल अठतीस।।

वृष कुम्भा चौदण्डा मान।

पल एगारह भृगु तिस मान।। इत्यादि

महाराज शुभङ्कर ठाकुर अपन तिथिद्धैधनिर्णयमे सुखरात्रिक प्रसज़् डाकक वचन उद्धृत करैत
छथि जे

स्वाती दीआ जँ बरए विसखा खेलए गाय।

अवसओ नरवर जुज्झए अन्न महग्घा जाय।।

ओ से केवल डाकहिक नहि। सप्तरत्नाकरकार चण्डे•ार ठाकुर अपन ज्योतिष-सम्बन्धी ग्रन्थ
कृत्यचिन्तामणिमे क्षपणाक-जातक, भृगुसंहिता ओ कापालिक-जातक सबसँ प्रमाण-रूपें वचन सब
उद्धृत कएने छथि जकर भाषा विशुद्ध अबहट्ट थिक, यथा :-

अस्सिन रवि सोमह चित्ती। पूवाषाढ़ महीसुत युत्ती।।

होइ जइछह सरना मङ्गो। सवाती होइ बेहप्पइ अङ्गो।। इत्यादि।

हरिसिंहदेवक सान्धिविग्रहिक चण्डे•ार ठाकुरक सदृश महापण्डित अथवा ओहिसँ डेढ़ दू सए
वर्ष नवीन हरपति ठाकुर अपन संस्कृतक ग्रन्थमे प्रमाण-रूपें भाषाक वचन उद्धृत करथि ई थोड़
आश्चर्यक विषय नहि थिक, ओ एहीसँ ओहि वचन सबहिक महत्त्व सूचित होइत अछि। निश्चय
ओ वचन सब ताबत धरि ततबा प्रचलित भए गेल छल, ओकर सत्यता ताहिरूपें सिद्ध भए गेल
छल, ओकर प्रसिद्धि ताहि व्यापकतासँ प्रसृत छल, जे तेरहम शक शताब्दी धरि ओकर आर्षत्व
सर्वमान्य छल, ओ चण्डे•ारहुकें जखन तत्तत् विषयक प्रमाणक प्रयोजन भेलैन्हि तँ सबसँ
उपयुक्त हुनका इएह सब भेटलैन्हि। ओना डाक समस्त आर्यावत्र्तमे प्रसिद्ध छथि परन्तु मिथिला
छोड़ि अन्य कोनहु जनपदमे शास्त्रीय ग्रन्थमे हुनक वचन प्रमाण-रुपें उद्धृत अछि से सुनल नहि
थिक। क्षपणक जातक, कापालिक जातक प्रभृति ग्रन्थ सबहिक नामो सुनल नहि थिक ओ
उपलब्ध तँ ओ आब बहुतो दिनसँ नहि अछि, परन्तु कृत्यचिन्तामणिक सद्दश विशिट ग्रन्थमे
प्रमाणत्वेन उद्धृत एहि सबहिक वचन केवल ओहि ग्रन्थ सबहिटाकें अमर नहि कएने अछि,
केवल ओहि ग्रन्थ सबहिक विषयहिटाकें सूचित नहि करैत अछि, अपितु मैथिलीक प्राग्रूप,
अबहट्ट भाषाक दृष्ठान्त उपस्थित कए एहि भाषामे साहित्यिक रचनाक परम्पराकें सेहो

प्रमाणित करैत अछि। सबसँ चमत्कारक विषय अछि जे कृत्य चिन्तामणिमे एहि ग्रन्थ सबहिक


जे वचन उद्धृत अछि से केवल अबहट्टहिटामे नहि, संस्कृतहुमे अछि, ओ तखन शड़ाक होइत
अछि जे ई अबहट्ट रचना तत्तत् ग्रन्थकारक थिकैन्हि अथवा ओहो लोकनि अबहट्टक वचन सब
अन्यत्रसँ उद्धृत कएने छथि। एहि पोथी सबहिक नामसँ सन्देह होइत अछि जे क्षपणक,
कापालिक अथवा भृगु ओही वर्गक सिद्ध लोकनि ने होथि जाहि वर्गक सिद्धक रचना बौद्ध गान
ओ दोहा थिक। भुसुकक गीत मे हिनक नामक संग संग राउत विशेषण अछि ओ राउत उपाधि
मिथिलामे सम्प्रति कतोक सए वर्षसँ गोआरक थिक। मिथिलामे प्रवाद अछि जे डाक गोआरक
कन्यामे उत्पन्न वराहमिहिरक बालक छलाह ओ से यदि सत्य तँ डाक गुप्तोत्तरकालीन भेलाह
ओ गोआर प्रभृति जातिक साहित्य-सेवा अत्यन्त प्राचीन कालसँ सिद्ध होइत अछि। डाकक वचन
सम्प्रति जाहि रूपमे प्रचलित अछि ताहिसँ ओकर भाषाक एतेक प्राचीनता लक्षित नहि होइत
अछि, परन्तु एहि प्रसज़् ई स्मरण रखबाक थिक जे पुश्ति पुश्ति मौखिक रूपें अबैत अबैत एकर
भाषा विकृत होइत गेल अछि ओ यदि एकर लेखो अचि तँ ओहि लेखक स्वरूप लेखनकालमे
ओ जाहि रूपें जानल छल तकर रूप थिक, ओ रूप नहि जाहि रूपमे डाक ओकरा रचने
छलाह। डाकक अनेक वचनमे नामक सज़् सज़् गोआर वा अहीर शब्द विशेषण रूपें प्रयुक्त भेल
अछि यथा डाक गोआर वा डाक अहीर। सहजपन्थी सिद्ध लोकनि कोन जातिक छलाह से तँ
ज्ञात नहि अछि, केवल भुसुक अपनाकें राउत कहैत छथि। परन्तु एतबा निश्चय जे ओहि
सिद्धलोकनिमे ब्रााहृण थोड़ व्यक्ति छलाह, विशेषतः ई सिद्धलोकनि ब्रााहृणेतर छलाह। ई यदि
सत्य तँ मिथिला-जनभाषाक साहित्यक आरम्भ मुख्यतः ब्रााहृणेत्तर व्यक्तिक द्वारहि भेल अछि।
ब्रााहृण लोकनि ब्रााहृणत्वक गौरवसँ संस्कृतेतर भाषामे रचना ताहि दिन प्रायः नहिए करैत
छलाह। अतएव एमहर आबि जे प्रवाद कतिधा सुनलामे अबैत अछि जे मैथिली ब्रााहृणलोकनिक
भाषा थिक, एकर साहित्य ब्रााहृणक साहित्य थिक से ऐतिहासिक दृष्टिसँ कतेक असत्य से
सबहुँ सह्यदय व्यक्ति बूझि सकैत छथि। अबहट्टक रूपमे एहि भाषाक जे कोनो रचना उपलब्ध
अछि से सब मुख्यतः पण्डितक रचना नहि, ब्रााहृणक रचना नहि, साधारण जनसमाजक
साहित्य थिक, यथार्थ अर्थमे लोक-साहित्य थिक जकर रचना प्रायः डाक गोआर अथवा भुसुक
राउत ब्रााहृणेत्तर जातिक कएल थिक।



डाकक वचन अथवा कृत्यचिन्तामणिमे उद्घृत अबहट्ट भाषाक वचन मिथिलाक जनपदक
भाषामे अछि तकर प्रबल प्रमाण इएह जे केवल मिथिलहिक पण्डित लोकनि एहि वचन सबकें
प्रमाणरूपें उद्घृत कएने छथि, आन कोनहु जनपदक पण्डितवर्गमे एकर जेना प्रचारे नहि छल,
ओ विशेष प्रसिद्ध भेलाक कारणें डाकक प्रचार समस्त आर्यावर्तमे भेल परन्तु ओतहु हुनक
प्रसिद्धि ग्रामीणजनता मध्य भेल, पण्डितवर्गमे नहि, ओ तें डाकक भाषा तत्तत् जनपदक भाषाक
प्रभावसँ तत्तत् भाषाक सदृश भए गेल, ओकर मौलिक रूप नष्ट भए गेल। आन आन व्यक्तिक
रचना जे ओतेक प्रसिद्ध नहि भेल से मिथिलाक अञ्चलसँ बहार प्रसृत नहि भेल। मिथिलहुमे
एहि वचन सबहिक प्रामाणिकता एहि रूपें सिद्ध होएबामे, जाहिसँ बड़का बड़का पण्डित ओकरा
अपन अपन ग्रन्थमे उद्घृत करथि, कतेक समय लागल होएत तकर अनुमान सुगमतया कएल
जाए सकैत अछि। तें डाक प्रभृतिक वचन भाषाक दृष्टिसँ ओही कालक रचना प्रतीत होइत
अछि जाहि कालमे सहजपन्थी सिद्धलोकनि जनता मध्य अपन अपन मतक प्रचारार्थ जनताक
भाषामे गीत ओ दोहा रचैत छलाह। दुहूक भाषा समाने अछि ओ से थिक जनपदीय भाषा
जकरा अपभ्रंश कहब ओ जें मिथिला-जनपदक भाषा अबहट्ट कहबैत छल तें ओकरा अबहट्टक
रचना कहबामे क्षति नहि बुझना जाइत अछि।




ओ एहि अबहट्ट भाषामे रचनाक परम्परा मिथिलामे बहुत पछाति धरि छल। विद्यापतिक
कमसँ कम तीनि गोट गीत एही भाषामे अछि, हुनक कीर्त्तिलता ओ कीर्त्तिपताका दुहू एही
भाषामे अछि। एकरहि ओ संस्कृतसँ भिन्न 'देसिल वयना" कहैत छथि, इएह मिथिला-जनपदक
भाषा कमसँ कम ज्योतिरी•ारक समयसँ अबहट्ट नामें अभिहित होइत छल, चिन्हल जाइत छल,
परिचित छल। एहिमे कोनो संदेह नहि जे विद्यापतिक अबहट्ट ओ बौद्ध गान ओ दोहाक
अबहट्टमे अथवा डाकक अबहट्टमे अन्तर अछि। विद्यापतिक अबहट्टमे

भाषान्तरक प्रभाव अछि जेना कतोक पैघो पैघो प्राकृतक ग्रन्थमे भिन्न भिन्न प्राकृतक सङ्कर
अछि। विद्यापतिक अबहट्टमे तें कृत्रिमता अछि, नवीनता अछि जे मातृभाषाक रचनामे नहि
होएबाक चाही। परन्तु एहि प्रसज़् विचारणीय थिक जे ई अबहट्ट मिथिला-जनपदक "देसिल
वयना" रहओ मुदा विद्यापतिक युगक 'देसिल वयना' ओ नहि छल। ओ छल विद्यापतिक पूर्व
युगक 'देसिल वयना'। 'देसिल वयना' ओ वाणी भेल, ओ लोकभाषा भेल, जे ओहि जनपदक
साधारण जनता बाजए तथा विद्यापतिक समय धरि मिथिला-जनपदक भाषाक रुाोत अबहट्टक
स्थितिसँ बहुत दूर आगाँ बढ़ि गेल छल। वर्णरत्नाकरक भाषा समेत विद्यापतिक युगक लोक-
भाषासँ, देसिल वयनासँ, प्राचीन अछि, परन्तु कीत्र्तीलताक अबहट्ट कतोक अंशमे वर्णरत्नाकरहुक
भाषासँ पुरान अछि। विद्यापतिक युगक "देसिल वयना" हुनक शत शत गीतमे प्रयुक्त उपलब्ध
अछि ओ ताहि समक्ष कीर्त्तिलताक भाषा कतेक प्राचीन अछि से प्रत्यक्ष देखि सकैत छी। तखन
विद्यापति अबहट्टकें अपन "देसिल वयना" कहि ओहिमे जे कीर्त्तिलताक रचना कएलैन्हि से
स्पष्ट ओखरा मिथिला-जनपदक प्राचीन भाषा बूझि; अपन "देसिल वयना" क स्वरूप ओ तकरा
लेलैन्हि जे डाकक रचनामे, सहजपन्थी सिद्धलोकनिक रचनामे, मिथिला-जनपदक प्राचीन
साहित्यिक रचनामे रूपायित छल। वर्णरत्नाकरहुक भाषाकें जनु ओ नवीने बुझलैन्हि ओ अपन
रचनाक भाषाके निर्णय करबामे ओ ज्योतिरी•ारहुसँ पाछाँ चल गेलाह। परन्तु ओ तँ हुनक
बजबाक भाषा छल नहि; ओहि भाषामे रचना करबाक हेतु हुनका ओतबे आयास करए पड़लैन्हि
जतबा कोनहु प्राकृतभाषामे काव्य करबामे करए पड़ितैन्हि ओ तथापि ओहिमे ओ सौष्ठव, ओ
रोचकता, ओ स्वाभाविकता नहि आबि सकल जाहि कारणें "देसिल वयना" "सब जन मिट्ठा"
होइत अछि. फलतः कीर्त्तिलता लोकप्रिय नहि भेल। विद्यापति देखलैन्हि जे जहिना "पाउअ
रसको मम्म न जानहि" तहिना इहो अबहट्ट भए गेल अछि जकर रसक मर्म सब केओ नहि
बूझि सकैत अछि। अतएव ओ अबहट्ट छोड़ि यथार्थ जे हुनक देसिल वयना छल, हुनक मातृ-
भाषा छल, मिथिला-जनपदक लोक-भाषा छल ताहिमे अपन अनेकानेक गीत रचलैन्हि जे
वस्तुतः "सब जन मिट्टा" भेल, ब्रााहृणसँ अन्त्यज धरि, राजासँ रङ्क धरि, पुरुष ओ स्त्री सबकें
समानरूपें आनन्दाधायक भेल। तथापि जे किछु रचना पश्चातहुँ अबहट्टमे ओ कएल से ओहिना
जेना संस्कृतहुमे ओ रचना कएल, ओहने ओहने विषयपर अथवा अवसर पर जकर गौरव हुनका
दृष्टिमे लोकानुरञ्जनक साधन लोक-भाषा द्वारा व्यक्त नहि होइत, यथा शिवसिंहक
राजसिंहासनाधिरोहण, शिवसिंहक विजय, शिवसिंहक कीर्तिपताका इत्यादि। परन्तु सब जन
मिट्ठा देसिल वयना कहि अबहट्टमे हुनक रचना ओहि परम्पराक द्योतक थिक जे तहिआसँ प्रायः
सहरुावर्ष पूर्व कालिदासक विक्रमोर्वशीय गीतरूपें आरम्भ भए गुप्तकाल ओ गुप्तोत्तर-कालमे
मिथिला-जनपदमे लोकानुरञ्जनक साहित्यमे अनुवत्र्तमान छल, जे सहजपन्थी सिद्ध लोकनिक


गान ओ दोहामे सुरक्षित अछि, डाकक ओ तत्सदृशे अन्यान्य महाजनक लोकोपयोगी कृतिमे
यथाकथंचित् आइ धरि वत्र्तमान अछि। गुप्तोत्तरकालमे मगधसँ पूर्व अञ्चलक भाषा प्राच्य अपभ्रंश
नामें अभिहित होइत छल तथा जनपदभेदें ओहिमे थोड़ बहुत भेद होइत गेल हो परन्तु मूलतः
ओहि सब जनपदक भाषा एकहि रूपक छल जेना ओहि सब जनपदक लिपि एकहि रुपक
छल। आठम शक शताब्दि धरि मिथिला-जनपदक भाषा अबहट्ट कहबए लागल जे
ज्योतिरी•ारक समय धरि ओही नामे परिचित छल। ज्योतिरी•ारक भाषा हुनक गद्यमे रूपायित
अछि जकरा हमरालोकनि मैथिलीक आदि स्वरूप कहि सकैत छी परन्तु अबहट्टमे रचनाक
परिपाटी ज्योतिरी•ारसँ सए वर्ष पछाति विद्यापतिक समय धरि अनुवत्र्तमान छल। एहि परम्परामे
साहित्यिक रचना कहिओ नहि छूटल ओ सबटा नहि भेटैत अछि, सब युगक साहित्यक स्वरूप
उपलब्ध नहि होइत अछि, परन्तु जएह किछु उपलब्ध होइत अछि सएह एक सुदीर्घ पथ परक
स्मृतिचिह्न जकाँ हमरालोकनिकें अपन प्राचीन साहित्यिक परम्पराक दिग्दर्शन कराए आनन्द,
गौरव ओ उत्साह प्रदान कए नवयुगक हेतु पथप्रदर्शन करैत अछि।



इएह थिक मोटामोटी प्राचीन मैथिली-साहित्यक राप-रेखा। मैथिली रूपायित भेल
ज्योतिरी•ारक कृति वर्णरत्नाकरमे ओ ई चित्र ताहिसँ पूर्वहिक थिक। अतएव प्राचीन मैथिली-
साहित्यक क्षीण रश्मिकें चिह्नबामे ओ चीह्नि चीह्नि अङ्कित करबामे दृष्टि चाही भारतीय-
भाषा-विज्ञानक विशेषज्ञक । ओ से हम नहि छी। हम तँ

एक गोट ऐतिहासिकक दृष्टिसँ अपन प्राचीन साहित्यक केवल पर्यालोचना कएल अछि !



हमरा वि•ाास अछि जे ई जे रूप-रेखा हम स्थूलरूपें अङ्कित करबाक आयास मात्र
कएल अछि तकर सूक्ष्मरूपें विवेचना कए केओ भाषातत्त्वविद् एहिमे रज़् भरि चित्रकें दर्शनीय
बनाए सकैत छथि जाहिसँ मैथिली-साहित्यक परम्परा मिथिला-देश-वासीक जातीय परम्पराक
अनुरूप सिद्ध होएत। तावत् हम मिथिलाक इतिहासक जे परम्परा बूझि सकलहुँ अछि ताहि
आधार पर इएह कहि सकैत छी जे

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। हमर मित्र भाषातत्त्वक विशेषज्ञ भारतीयभाषा-विज्ञानक पण्डित श्रीसुभद्र झाजी अपन
मिथिलाभाषाक

इतिहास, क़दृद्धथ्र्ठ्ठद्यत्दृद दृढ ग्ठ्ठत्द्यण्त्थ्त् ख्र्ठ्ठदढ़द्वठ्ठढ़ड्ढ मे बौद्धगान ओ दोहाक पर्यालोचना
कएने छथि

से द्रष्टव्य।

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(1) आदिअहिसँ मिथिला-जनपदक एक गोट अपन भाषा छल जे पूर्वमे द्विजातिसँ
भिन्न लोक बजैत छल। क्रमशः द्विजाति सेहो ई भाषा बाजए लगलाह।



(2) वाल्मीकिसँ पूर्वहुँ जनपदीय भाषाक प्रयोग-सौष्ठव ध्येय रहैत छल तथा


व्याकरणक संस्कार होइत छल।



(3) एहि जनपदक भाषाक प्राचीनतम स्वरूप महावीरक मूलवचनमे भेटत मुदा
बुद्धहुक मूलवचन ओहिसँ अधिक भिन्न नहि छल।



(4) अपभ्रंश कालसँ पूर्वक साहित्यिक रचना अनचिन्हार भए गेल अछि, अपभ्रंश
कालसँ मिथिलामे साहित्यिक परम्परा अविच्छिन्न रूपें आबि रहल अछि परञ्च से अछि विशेष
अनुसन्धान-सापेक्ष।



(5) प्राच्य अपभ्रंश एहि अञ्चलक तत्कालीन स्वरूप छल; मिथिलाक अपभ्रंश भाषा
पछाति अबहट्ट कहबए लागल।



(6) एहि भाषामे जे रचना भेल से सब जनताक हेतु ओ एकर प्रचार पण्डितसँ भिन्न
जनतामे भेल ओ वर्णरत्नाकरसँ पूर्व प्रायः एहिमे रचना सेहो पण्डितसँ भिन्ने लोक करथि।



(7) एहि भाषाक साहित्य तें मौखिक रूपें प्रचलित होइत रहल। राजाक आश्रय नहि
रहलें कोनो पैघ ग्रन्थक निर्माण नहि भेल। कार्णाट राजवंशक छत्रच्छाया एहि भाषामे ताद्दश
साहित्यिक रचना प्रारम्भ भेल :



(8) वर्णरत्नाकरसँ प्राचीन निम्नलिखित कोटिक रचना भेल होएत--



(अ) जनमनोरञ्जनक

(क) गीत--व्यावहारिक, सामयिक, भक्तिक, नृत्यक मुक्तक।

(ख) वीर गाथा--भाट, दशञुधी प्रभृतिक रचना।

(ग) तत्तत् जातिक वीर लोकनिक गाथा।

(घ) तत्तत् जातिक देवता लोकनिक अपराधनाक।

(ङ) प्रबन्ध-काव्य, गद्यमे वा पद्यमे।

(च) कथा-गद्यमे, पाबनि सबहिक तथा प्रमोदार्थ।



(आ) जनजीवनक उपकारी

(क) कृषि, यात्रा, शकुन प्रभृतिक।

(ख) धर्मोपदेशक।

(ग) धर्मप्रचारक।

(घ) भजन।



.. .. .. ..



2


मैथिली-नाटक

(1)



विगत पचीस वर्षसँ मिथिलाक इतिहास, संस्कृति, ओ साहित्याराधनाक अध्ययन ओ
अनुसन्धानक क्रममे एक गोट कथा जे हमरा दिनानुदिन दृढ़ भेल गेल अछि से थिक मिथिलामे
नाटकक परम्पराक अभाव। नाटक काव्यक एक भेद थिक जकर समुचित रसास्वादन सूनिकें
अथवा पढ़िकें नहि, किन्तु देखिकें होइत अछि। अतएव नाटकक शास्त्रोक्त लक्षणसँ लक्षित
कोनहु काव्यक रचना मात्रहिसँ हम ओहि नाटककें सफल कृति नहि बुझब। नाटकक
सफलताक हेतु कवि-कर्मसँ भिन्नो अनेक वस्तुक प्रयोजन अछि यथा, नट ओ नटी, रज़्भूमि,
नेपथ्य ओ यवनिका, उपकरणादि तथा प्रेक्षकवृन्द। तें 'नाटकक परम्परा'सँ हमर आशय अछि
'नाटकक अभिनयक परम्परा'। हम ई नहि कहैत छी जे मिथिलामे नाटक लिखले नहि गेल,
से के कहि सकैत अछि? हमर अभिप्राय अछि जे मिथिलामे नाटकक अभिनय होइत छल तकर
कोनो प्रमाण हमरालोकनिकें नहि भेटैत अछि। तहिना मैथिली-नाटकसँ हमर आशय मिथिलामे
रचित नाटक नहि अछि, ने मिथिलाक कविक रचित नाटक; हम तँ मैथिली-नाटकसँ बुझंत छी
ओ नाटक जे मिथिलाक जनभाषामे रचित हो, मैथिलीमे हो। एहन नाटक हमरा एहि बीसम
शताब्दीसँ पूर्वक नहि भेटैत अछि मुदा से जँ भेटबो करैत तँ हम ओकर नाटकीयता ताधरि
स्वीकार नहि करितहुँ जाधरि ओकर सफल अभिनयक प्रमाण हमरा नहि भेटैत।



साहित्यशास्त्रमे नाटककें "दृश्य काव्य" कहल गेल अछि ओ ओकर प्रदर्शन अभिनय
कहबैत अछि। मनुष्य अनुकरण-प्रिय होइत अछि ओ एही अनुकरण-प्रियतासँ नाटकक सृष्टि
भेल अछि। "अवस्थाक अनुकरण कए पदार्थकें अभिमुख आनब" अभिनय थिक। अभिनय होइत
अछि नाटकीय पात्रक, नट ओ नटीक द्वारा । ओकर चारि गोट भेद कहल गेल अछि:-- (1)
आङ्गिक अर्थात् नाटकीय पात्रक सद्दश अज़्दिक चेष्टा कएल जाए; (2) वाचिक अर्थात्
नाटकीय पात्रक सदृश वचन बाजल जाए; (3) आहार्य अर्थात् नाटकीय पात्रक अनुरूप वेश-
रचनादि कएल जाए; (4) सात्त्विक अर्थात् नाटकीय पात्रकें अवस्था विशेषमे जेना कम्पस्वेदादि
होएबाक चाही तहिना नट ओ नटी प्रदर्शित करए। कहबाक अभिप्राय जे कवि जाहिरुपें कोनहु
पात्रक चेष्टा, वचन, वेषभूषा एवं सात्त्विक भावादिक निर्देश नाटकमे कएने छथि, ताहिपात्रक
भूमिका धारण कए, नट ओ नटी ओहने वेशभूषादिमे रज़्मञ्च पर ताहीरूपें चेष्टा करथि,
बाजथि, भाव देखाबथि तँ से ओहि पात्रक अभिनय भेल। यदि केओ नट राजाक भूमिका धए
रज़्मञ्च पर आएल अछि तँ ओ राजाक सद्दश वेश ओ भूषा धारण कए राजाक सद्दश चेष्टा
करत, राजा जकाँ बाजत, राजा जकाँ सात्त्विक भाव देखाओत, जाहिसँ सामाजिक

अर्थात् प्रेक्षकगण ओतबा काल ओकरा राजा बुझत ओ ओकरा राजा बूझि अवस्थानुसार हर्ष-
शोकादिक अभिनयसँ स्वयं हर्ष-शोकादिक अनुभव करत। ओ जें एहिमे नट ओ नटी तत्तत्
पात्रक रूप ग्रहण करैत अछि, भूमिका धारण करैत अछि, अपनाकें ओ बनाए लैत अछि ओ
सएह अपनाकें देखबैत अछि, तें नाटककें "रूपक" सेहो कहल गेल अछि।




पुनः नाटकमे सबटा कथा पात्रहिक मुहसँ कहाओल जाइत अछि अन्यपुरुषकें अर्थात्
नाटकीय पात्रसँ भिन्न व्यक्तिकें एहिमे किछु कहबाक अवसर नहि रहैत अछि। ग्रीसक नाटकमे
"कोरस" कहि मध्य मध्यमे गीत गाओल जाइत छल अथवा कथावस्तुक सूचना रहैत छल;
संस्कृत नाटकमे एहि वस्तुक सर्वथा अभाव अछि। ओना तँ ग्रीसहुक नाटकमे "कोरस" क गणना
पात्रहिमे होइत अछि परन्तु संस्कृतमे तथा यूरोपीय भाषामे नाटकीय इतिवृत्तिक उपस्थान केवल
कथोपकथन द्वारहिं होइत अछि। ई कथन वात्र्तालाप हो, स्वगत हो, जनान्तिक हो, अपवारित
हो, परन्तु कथावस्तुकें उपस्थित करबाक नाटकमे एक मात्र साधन होइत अछि कथोपकथन। तें
नाटकमे मुख्य वस्तु थिक कथोपकथन जाहि विना नाटक भैए नहि सकैत अछि। मूक अभिनय
होइत अछि परन्तु ओकरा नाटक नहि कहल जाइत अछि। तें वाचिक अभिनय नाटकक शरीर
थिक जाहि बेत्रेक ओकर स्थितिए नहि भए सकैत अछि।



नाटकक अभिनय श्रम-साध्य ओ तें व्ययसाध्य सेहो होइत अछि। केवल नाटक
लिखनहिटा ओकर अभिनय सम्पन्न नहि भए सकत। नाटकक लेख तँ अभिनयक आधार मात्र
भेल। एहि हेतु जतेक पात्र अछि ततेक नट ओ नटीक प्रयोजन अछि ओ यदि स्त्रीगण मञ्चपर
नहि जाथि तँ पुरुषहिकें स्त्रीक सद्दश वेषभूषादि रचि जाए पड़तैन्हि। एको नट यदि दू वा तीनि
पात्रक अभिनय करत तँ तदर्थ ओकरा तत्तत् पात्रक अनुरूप वेषभूषादि धारण करए पड़त,
अन्यथा सामाजिक अर्थात् दर्शकगणकें ओकरा चिन्हबामे भ्रम होएतैन्हि। वाचिक अभिनय
करबाक हेतु प्रत्येक नटकें ओहि पात्रक वाच्यांश कण्ठस्थ चाही जकर भूमिका ओ ग्रहण करत
ओ से कण्ठस्थ कएनहि तँ अभिनय सफल नहि भए सकत। ओहि वाच्यांशक अर्थहुक ओकरा
ज्ञान होइक जे तदनुरूप आङ्गिक अभिनय कए सकए, अवस्थानुरूप भाव प्रदर्शित कए
सात्त्विक अभिनय कए सकए। एहि सबहिक हेतु प्रत्येक नट ओ नटीकें पूर्ण अभ्यासक अपेक्षा
छैक। पात्रक प्रवेश होइत अछि ओ निष्क्रमण। मध्य मध्यमे गीत ओ नृत्य सेहो आवश्यक छैक
जाहिसँ सामाजिककें मनोरञ्जन होइक। रज़्भूमि, यवनिका ओ नेपथ्य, तथा प्रेक्षकक हेतु स्थान
प्रभृति अनेक विषय अछि जकर प्रबन्ध सबठाम सुगम नहि अछि। ग्रीसमे तीस हजार प्रेक्षकक
हेतु स्थान बनाए रज़्भूमिक निर्माण कएल गेल छल। यूरोपीय देशमे नाटकक भिन्न भिन्न आयले
अछि। ओ तखन पात्र सबहिक हेतु वस्त्राभरणादि तथा अन्यान्य उपकरणक संघटन चाही।
अतएव सूत्रधार कही, स्थापक कही, प्रबन्धक कही, मनेजर कही, प्रत्येक मण्डलीक हेतु
आवश्यक अछि, कारण, केहनो सुन्दर नाटक अछि, कतबओ पटु नट ओ नटी अछि, परन्तु
यदि उपकरणक अभाव हो, प्रबन्ध नीक नहि हो तँ अभिनय सफल नहि होएत नाटकक
अभिनयक सफलताक हेतु अपेक्षित एहि भिन्न भिन्न साधनकें दृष्टिमे राखि श्रीहर्ष अपन सुप्रसिद्ध
नाटिका, रत्नावलीक प्रस्तावनामे सूत्रधारक मुहसँ कहओने छथि :-



श्रीहर्षे निपुणः कविः परिषदप्येषा गुणग्राहिणी

लोके हारि च वत्सराजचरितं नाट¬ेषु दक्षा वयम्। इत्यादि

परन्तु नाटकक सम्यक् रसास्वादनक हेतु ओकर अभिनय आवश्यक छैक। यदि
अवस्थानुकार रूप जे चतुर्विध अभिनय कहल अछि ताहिसँ नाटकक प्रदर्शन नहि भेल तखन तँ
ओहिमे दृश्यत्व नहि भेल ओ तखन ओहिमे नाटकत्व सएह नहि घटित भेल। अभिनय वस्तुतः
अत्यन्त प्रभावोत्पादक होइत अछि ओ रसक परिपाकक जे प्रक्रिया वा प्रकार अलङ्कार-शास्त्रमे


वर्णित अछि से जाहिरूपें नाटकक अभिनयमे होइत अछि तेना आन जातिक काव्यमे नहि। तँहि
तँ कहल गेल अछि जे 'काव्येषु नाटकं रम्यम्।' परञ्च अभिनय-रहित

नाटक श्रव्य काव्य भेल अथवा पाठ¬। ताहिसँ वाचिक अभिनयक यथाकथाञ्चित् आभास भेटए
परन्तु आङ्गिक अभिनय, आहार्य अभिनय, किंवा सात्त्विक अभिनयक तँ केवल कल्पना करए
पड़त। केवल अभिनयक कौशलसँ नाटकक एहन महत्त्व छैक ओ भरतसँ लए धनञ्जय धरि
नाट¬शास्त्र अथवा दशविध रूपकक तेहन विशद अथ च सूक्ष्म विचार अछि जेहन काव्यक
कोनहु अन्य भेदक कमसँ कम संस्कृत साहित्यमे नहि अछि। एहि सबहिक लक्ष्य एक गोट मात्र
छैक, अभिनयक कौशल, ओकर चारुता। तें विनु अभिनयें नाटक ओहने अपूर्ण, ओहने नीरस,
ओहने शुष्क प्रतीत होएत जेहन स्वर विनु संगीत अथवा वर्ण विनु चित्र। प्रत्येक नाटकक
प्रस्तावनामे अभिनयहिक संकल्प रहैत अछि। तें हम आदिअहिमे कहल अछि जे नाटकक
परम्परासँ हमरा अभिप्रेत अछि नाटक जे दृश्य काव्य थिक तकर परम्परा, नाटकक अभिनयक
परम्परा, ओ ताहि परम्पराक मिथिलामे अभाव देखलाँ जाइत अछि।



(2)



साहित्य थिक जीवनक प्रतिबिम्ब। जहिना जातीय जीवनक बाह्र विकास इतिहासमे
चित्रित रहैत अछि, तहिना ओहि जीवनक आभ्यान्तरीण विकासक चित्रण साहित्यमे निहित रहैत
अछि। यदनुरूप जातीय जीवन रहत तदनुरूप ओहि जातिक साहित्यक निर्माण होएत। जातीय
आदर्श ओ आकाङ्क्षा, उत्साह ओ उद्योग, संस्कार ओ विचार, सुख ओ दुःख, साध्य ओ
साधना--एही सबसँ अनुप्राणित तँ ओहि जातिक साहित्य होइत अछि। ओना कहबाक हेतु तँ
साहित्य होइत अछि व्यक्तिक अनुभूति, ओकर संवेदनाक अभिव्यक्ति; परन्तु व्यक्ति थिक
समष्टिक अज़्, ओ वैयक्तिक जीवन सदैव सामाजिक जीवनसँ नियमित, नियन्त्रित, निर्धारित
रहैत अछि। मिथिलाक जातीय जीवन तँ अत्यन्त पुरातन कालहिसँ, इतिहासक आदिअहिसँ,
विलक्षण रहैत आएल अछि ओ सम्प्रति एकर सबसँ विशेष वैलक्षण्य इएह प्रतीत होइत अछि जे
हमरा लोकनिक जातीय जीवनक वत्र्तमान जे परम्परा अछि से एक निश्चित युगसँ आबि रहल
अछि, जाहि युगमे विदेशी ओ विधर्मी मुसलमान विजेतृगणक आतङ्कसँ हमरा लोकनिक पूर्वज
अपन जीवनक नवीन संघटन कएल, जीवनकें नव नव मान्यता प्रदान कएल, सांस्कृतिक
जीवनक एक गोट अभिनव रूपरेखा प्रस्तुत कएल तथा ओही आदर्श पर धर्म ओ कर्म, आचार
ओ विचार, विधि ओ व्यवहार, सब कथूक नवीन नियमन कएल जे यथाकथाश्चित् एखन पर्यन्त
अनुवत्र्तमान अछि, कतोक अंशमे लुप्तो भेल जाइत अछि तथापि एखन पर्यन्त चिन्हल जाए
सकैत अछि। कार्णाट क्षत्रिय लोकनिक राजत्वकालक अन्तिम समयसँ लए ओइनिबार
राजकुलक मध्यकाल धरि, तेरहम शकशताब्दीक आदिसँ लए चौदहम शक शताब्दीक अन्त
धरि--ई दू सए वर्षक अवधि मिथिलाक इतिहासमे ओकर सामाजिक ओ सांस्कृतिक जीबनक
क्रममे, अभिनव स्वर्ण-युग थिक। एही युगमे मिथिलाक ओहि बहुविध विभूतिक प्रादुर्भाव भेल
जकर शुभ्रयश दिग्दिगन्तमे प्रसृत अछि, जकर गौरवसँ हमरा लोकनि एखनहु धरि किछुओ
आत्माभिमानक अनुभव करैत छी, जकरहि प्रसादात् हमरा लोकनि एखन पर्यन्त जीवित छी।
एहि युगसँ पूर्वक सबटा कथा जेना हमरा लोकनि बिसरि गेलहुँ ओ जेहो किछु मन पड़ैत अछि
से त्रेता-द्वापरादि युगान्तरक कथा जकाँ पुराणक रूपमे। मैथिलत्वक परिचायक एखनहु जे किछु


बचल अछि से सब एही युगक सम्पादित थिक, एकरे देल थिक। हमरा लोकनिक वत्र्तमान
सांस्कृतिक जीवनक सूत्रपात एही युगमे भेल अछि, हमरा लोकनिक जातीय जीवनक नवीन
परम्परा एतहिसँ प्रारम्भ होइत अछि; वस्तुतः वत्र्तमान मिथिलाक इतिहास एही युगसँ प्रारम्भ
होइत अछि।

भाग्यसँ हमरा लोकनिकें एहि स्वर्ण-युगक सुप्रभातक एक महा-जनक कृति उपलब्ध
अछि जकर महत्त्व केवल हमरहि लोकनिक हेतु नहि, अपितु समस्त पूर्वोत्तर भारतवर्षक हेतु
अपरिमेय अछि। अन्तिम कार्णाट महाराज हरिसिंहदेवक आश्रित कविशेखर ज्योतिरी•ार
ठाकुरक वर्णरत्नाकर एक गोट अपूर्व ग्रन्थरत्न अछि। गद्यमे निर्मित ई रत्नाकर मैथिलीक प्रथम
ग्रन्थ थिक ओ मिथिलाक ई गौरव थिक जे एहिसँ केवल मिथिलहिक तात्कालिक जातीय
जीवनक विलक्षण परिचय नहि भेटैत अछि प्रत्युत भारतक एहि अञ्चलहिक जातीय जीवनक

ई चित्र थिक। सम्पूर्ण वर्णरत्नाकर तँ उपलब्ध नहि भेल अछि; जे प्रकाशित अछि से ओकर
खण्डित रूप थिक; परन्तु जतबा वर्णरत्नाकर प्रकाशित अछि ताहिमे नाटकक अभिनयक कोनो
वर्णन नहि अछि। कविशेखर नाटकसँ अथवा नाटकक अभिनयसँ परिचित नहि छलाह से नहि
कहि सकैत छी। हुनक रचित धूर्तसमागम नामक संस्कृतमे एक गोट बड़े चमत्कारक प्रहसन
प्रचुरतया उपलब्ध अछि तथा हालहिमे ओकर दोसरो रूप प्रकाशित भेल अछि जाहिमे मध्य
मध्यमे संस्कृत श्लोकक रूपान्तर मैथिलीमे गीतो सब अछि। यदि मिथिलामे ताहि दिन नाटकक
अभिनयक चालि रहैत, नाटकक अभिनय होइत रहैत, नाटकक रज़्मञ्च रहैत तँ एहन सुन्दर
वस्तुक वर्णन ज्योतिरी•ार छोड़ि दितथि? एकर षष्ठ कल्लोलमे एतत्सजातीय विषयवर्गक वर्णन
अछि। भाटक वर्णनसँ ई कल्लोल आरम्भ होइत अछि ओ आगाँ जाए विद्यावन्तक वर्णनसँ गानक
वर्णन प्रारम्भ होइत अछि। "विद्यावन्त" जकर अपभ्रंश रूप "विदाञोत" देल अछि दुइ चित्रिणी-
जाति नायिकाक सज़् आस्थानमे प्रवेश कए, "यन्त्रक गायन" भेला उत्तर, सातो स्वरसँ संयुक्त,
सातो "गामक" सँ सम्पूर्ण, अठारहो "जाति" सँ अलङ्कृत, बाइसो "श्रुति"सँ सम्पूर्ण, एकैसो
"मूर्छना"सँ अलङ्कृत, "गेयधर्म" सँ संयुक्त, चौदहो "गीतदोष"सँ परित्यक्त, प्रबन्धगीत,
गीतप्रपञ्च रागादि"गायन" करैत छथि। एहि वर्णनक "विदाञोतक सज़् दुइ संवाहिका नायिकाक
प्रवेश" हमरा लोकनिकें किरतनिञा नाचमे भेटैत अछि जाहिमे नायकक सज़् दुइ गोट स्त्री-
वेषधारी नर्तक मीलि गीत गबैत अछि ओ नाच करैत अछि।



तदुत्तर नृत्यवर्णन आरम्भ होइत अछि। एतए नेपथ्यक रचना, रज़्भूमिक स्थापन,
वाद्यभाण्डक विचरण, नटीक श्रृङ्गार प्रभृति कए, वादकक हाथमे वाद्य दए, दशगुण सम्पन्न
मुरजि अर्थात् मिरदङ्गिआक वर्णन अछि। ओ बारहो मुरज वाद्य ठोकैत अछि; कंशतालसँ
तालक मेल होइत अछि। तखन शिष्य पात्रक प्रवेश अछि जे बारहो "दृष्टिक" अभिनेता, बत्तीसो
"चारी"क साभ्यास, छबो "भज़्"क व्युत्पन्न, बतीसो "कुल"क तत्त्वज्ञ, ओ षड्विध नृत्यक कुशल
अछि तथा अनेक गुणाविशिष्ट नृत्य करैत अछि। तदनन्तर "पात्रनृत्य-वर्णना" अछि जाहिमे पात्र
थिकि सर्वकलाकुशल लता-जाति नायिका; अठारहो "प्रबन्ध" नाचि ओ "रेखानृत्य" करैत अछि।
तेरह प्रकारक "मथा-कम्प" छत्तीस प्रकारक "दृष्टिकम्प", "हस्तकम्प", दश प्रकारक "बाहुनृत्य",
छओ प्रकारक "चानक नृत्य", चौंसठि "हस्तकर्म", पाँच प्रकारें "ह्यदयप्रदर्शन" कए सोलह


गुणविशिष्ट नृत्य करैत अछि। पुरुषक नृत्य प्रेरणनृत्य कहि वर्णित अछि।



एतेक वित्याससँ नृत्यक वर्णन कए, रज़्भूमि, नेपथ्य, नटी ओ पात्र सबहिक चर्चा कए,
ज्योतिरी•ार नाटकक अभिनयक कतहु उल्लेखो नहि कएल, एहिसँ ओहि वस्तुक अभाव सूचित
होइत अछि। ई कल्लोल सम्पूर्ण उपलब्ध अछि, त्रुटित नहि अछि। मध्यमे मल्लयुद्धवर्णना सेहो
आबि गेल अछि। आनहु ठाम यथा नगरवर्णनमे, राज्यवर्णनमे, अथवा नायक-वर्णनमे, वा
नायिका-वर्णनमे किंवा चतुःषष्ठिकलावर्णनमे अनेकधा गीत नृत्य ओ वादित्र प्रभृति अनेको कलाक
समावेश अछि, मनोविनोदक अनेको साधनक विन्यस्त वर्णन अछि; चतुःषष्ठिकलामे स्त्रीभूमिका
अर्थात् स्त्रीक वेष बनाएब समेत अछि--तथापि नाटकक अभिनयक कतहु चर्चा नहि अछि।
कविशेखर स्वयं प्रहसन लिखल किन्तु एहि प्रहसनकें पढ़ि कल्पनो नहि कए सकैत छी जे एहन
अश्लील नाटकक रज़्मञ्च पर प्रदर्शन भेल होएत, ओकर अभिनय भए सकल होएत, ओ तकर
कोनो संकेतो नहि अछि। द्यूतसँ लए श्मशान धरिक एतेक विस्तृत वर्णन दए नाटकक अभिनयक
कतहु चर्चा नहि कएल अछि, नृत्यक एहन साङ्गोपाज़् वर्णन अछि, गीतक एहन मार्मिक चित्रण
अछि, मुरज ओ वीणा प्रभृति वाद्यभाण्ड ओ वाद्ययन्त्रक एहन विशद वर्णन अछि। नाटकीय
कतिपय साधन यथा नेपथ्य, रज़्भूमि, नटी प्रभृतिक जे वर्णन अछि से सबटा गीत ओ नृत्यक
प्रसगड़्। नाटकक अभिनयक कतहु उल्लेख नहि भेटल अछि। एहिसँ हमरा तँ स्पष्ट प्रतीत
होइत अछि जे नाटक ओ नाटकक भेद तथा ओकर साधन ओ उपकरण प्रभृति वस्तुक मार्मिक
ज्ञाता भैओकें कविशेखर जे नाटकक अभिनयक वर्णन नहि कएल तकर एकमात्र कारण इएह जे
ई वस्तु ताहि दिन मिथिलामे नहि छल, एकर परम्पराक एतए अभाव छल।



एहिमे कोनो सन्देह नहि जे संस्कृत नाट¬शास्त्रमे नृत्य नाटकक एक गोट अभिन्न अज़्
थिक परन्तु नाटक ओ नृत्य एके नहि थिक। दुहूक प्रक्रियामे अन्तर छैक। नाटकमे चारू
प्रकारक अभिनय आवश्यक छैक ओ कथोपकथन सेहो रहबाक चाही। कतोक नाटकमे गोटेक
अङ्क नृत्यप्रधान होइत अछि यथा भवभूतिक उत्तररामचरितमे छाया नामक तेसर अङ्क, अथवा
कालिदासक विक्रमोर्वशीयमे चारिम अङ्क। वर्णरत्नाकरसँ सए वर्ष पछाति विद्यापति अपन पुरुष
परीक्षामे नृत्यविद्य-कथामे नाटकक वर्णन कएने छथि। ओहिमे गन्धर्व नामक नटक कथा अछि जे
जिद्द पर भवभूतिक उत्तररामचरितक छाया नामक अङ्कक अभिनय करए लागल। रामक
भूमिका धारण कए ओ नृत्य आरम्भ कएलक ओ सीताक स्पर्श नहि पाबि जे पृथिवी पर खसल
से खसले रहि गेल, पुनि उठल नहि, प्राणवियोग भए गेलैक। एहि कथामे अभिनय अछि, ओ से
अछि नृत्यात्मक, परन्तु ओ अङ्के अछि नृत्यात्मक। सब नाटक एहने नहि होइत अछि। दोसर,
इहो कथा मिथिलाक नहि गौड़देशक थिक, गन्धर्व छल लक्ष्मणसेनक दरवारक नट। एहूसँ इएह
सूचित होइत अछि जे नाटकक अभिनयक परम्परा भारतमे अवश्य छल ओ ताहिमे नृत्यक प्रयोग
विशेष रूपसँ होइत छल परन्तु मिथिलामे एहि अभिनयक परम्परा छल से एहिसँ सूचित नहि
होइत अछि।



(3)



परन्तु हम पूर्वहुँ सूचित कएने छी जे वर्णरत्नाकर समस्त उपलब्ध नहि भेल अछि ओ तें


सम्भव थिक जे अभिनयक वर्णन ओहि अंशमे हो जे एहिमे त्रुटित अछि, एखन पर्यन्त जे
अनुपलब्ध अछि। अथवा अनुपलब्धि किंवा अनुल्लेखहिटासँ ओकर अभाव तँ सिद्ध नहि होइत
अछि। परन्तु यदि नाटकक अभिनयक परम्परा ताहि दिन छल तँ ओकर लोप किएक भेल,
कोना भेल? नाटकक रचनाक परम्परा तँ एतए बराबरि अनुवत्र्तमान अछि। पुरुषपरीक्षामे
नाटकक बड़ उत्कट प्रशंसा अछि। धूत्र्तसमागमक रचना यदि 1300 ईशवीयमे मानि ली ओ
पारिजातहरणक 1700 मे तँ एहि चारि सए वर्षक मध्यमे कतेको नाटकक रचना भेटत।
अभिनव-जयदेवक गोरक्ष-विजय, मुरारि मिश्रक अनर्घराघव, पीयूषवर्ष जयदेवक प्रसन्नराघव,
शङ्करमिश्रक गौरीदिगम्बर, गोविन्दठाकुरक नलचरित, रामदासझाक आनन्दविजय,
देवानन्दझाक उषाहरण, कृष्णदत्तझाक पुरञ्जनचरित, श्रीकृष्णमिश्रक प्रबोधचन्द्रोदय,
रमापतिझाक रुक्मिणीहरण, गोकुलनाथझाक अमृतोदय अनेको विशिष्ट नाटक एतए रचित भेल
अछि यद्यपि हम केवल मुख्य मुख्य किछु नाटकक नाम गनाओल अछि। परन्तु नाटकक
अभिनय होइत छल वा भेल अछि तकर ने कतहु चर्चा अछि ने अभिनयक कतहु उल्लेख अछि
जाहिसँ हमर अभिप्राय अछि नाटकीय मण्डली, रगंड्भुमि, अभिनयक हेतु आवश्यक सामग्री,
तदर्थ शिक्षाक प्रबन्ध इत्यादि। अभिनयक हेतु ततबा साधन अपेक्षित छैक जे कतहु जँ ई सब
रहैत तँ कोनहु रजबाड़ामे, राज-दरबारमे। मिथिलेशक दरबार तँ महाराज हरिसिंहदेवहिक
समयसँ आबि रहल अछि ओ मिथिलेश-पदक लोप तँ महाराजाधिराज कामे•ार सिंह बहादुरक
देहावसान पर भेल अछि। तावत् दरभङ्गा-नरेशकें राजनीतिक क्षेत्रमे जे कोनो सत्ताक ह्यास भेल
हो परन्तु मिथिलाक सांस्कृतिक क्षेत्रमे हुनक सता पूर्ववत् छल। मध्य मध्यमे पश्चिममे बेतिआक,
पूर्वमे पसराहा, सौरिआ, फड़किआक, ओ पछाति बनैलीक राज्य छल। ई तँ पैघ राज्यक नाम
कहल अछि। छोटो छोटराज्य सभ मिथिलामे अनेक छल जे समयसमय पर बड़ प्रसिद्धि प्राप्त
कएने छल, यथा नरहनि, सोनबरसा, मधुवन, भगवानपुर ओ दड़िभङ्गा राज्यक बबुआना सब।
कलाक ओ कलाकारक पोषण सब दिन एही राजा लोकनिसँ होइत आएल अछि। एही राजा
लोकनिक आश्रयमे काव्यक रचना भेल, गीत ओ नृत्यक विकास ओ प्रचार भेल। परन्तु कोनहु
रजबाड़ामे नाटकक मण्डली छल से अद्यपि सुलन नहि अछि, कतहु एकर उल्लेखो नहि भेटल
अछि। नाटकक अभिनयक यदि परम्परा रहैत, नाटकक मण्डली कतहु रहैत तँ ई तँ तेहन वस्तु
नहि थिक जे सहसा लुप्त भए जाइत? उदाहरणार्थ दरभङ्गा राज्यकें लिअ। एतए नाटकक
अभिनय हमरहि लोकनिक ज्ञानमे आइसँ चालीस-पँएतालीस वर्ष पूर्व होअए लागल। प्रथम
मैथिल

नाटक-कम्पनी छल श्रीपुरक उमाकान्तक ओ से पारसी ष्टेजक अनुकरण मात्र, ओ सबटा
नाटक हिन्दी मे होइत छल। स्वर्गीय राजर्षि महाराज रमे•ार सिंह बहादुर मिथिलाभाषामे दू
चारि नाटकक रचना करबाए ओकर अभिनय कराओल परन्तु ओ सब धार्मिक नाटक छल,
शक्तिक उपासनाक प्सज़् लए निर्मित भेल छल, ओ सेहो दरबारहि मध्य खेलाएल जाइत छल।
विशुद्ध मैथिली-नाटकक अभिनय कोनहु व्यवसायी मण्डलीक द्वारा केवल मिथिला नाटकक भेल
जकर रचना हमरा लोकनिक साहित्यरत्नाकर स्वर्गीय मुन्शी रघुनन्दन दास एही पारसी-ष्टेजक
हेतु वर्ष चालिसेक भेल होएत कएलैन्हि। एहन एहन नाटकक मण्डली एमहर आबि देशमे अनेक
भेल अछि, रहल अछि, मुदा सब पश्चिमक देखाउसिमे, सब हिन्दीक नाटक, ताहूमे उर्दू-मिश्रित
हिन्दीक नाटक खेलाइत रहल अछि। केवल मिथिलाभाषामे नाटक खेलाएत एहन मण्डली आइ
धरि मिथिलामे नहि भेल अछि। व्यवसायक दृष्टिसँ नहि, मनोरञ्जनक दृष्टिसँ नवयुवकक


कतेको मण्डली एमहर आबि यत्र तत्र मैथिलिओ नाटक सब खेलाइत रहल अछि परन्तु एहिमे
स्थायित्व नहि छैक ने तदनुरूप मैथिलीमे नाटके भेटैत अछि। उमाकान्तक नाटक-मण्डलीसँ
पूर्व, ओ बेरि बेरि पर पछातिअहुँ, दड़िभङ्गा राजमे ओ आनो आनो बबूआनामे रासलीला होइत
छल मुदा ओ रास ब्राजक मण्डली सब करैत छल ब्राजभाषामे ओ ब्राजसँ अबैत छल। एही ब्राजक
मण्डलीक हेतु स्वर्गीय हर्षनाथ झा राधाकृष्णमिलन नामक रासलीला ब्राजभाषामे लिखल जे
वारंवार शुभङ्करपुरमे खेलाएल गेल। देशमे यत्र तत्र रामलीलाक चालि छल जे
रामचरितमानसक आधार पर देहातमे वा शहरहु मध्य भेल करए ओ ठाम ठाम एकनहु होइत
अछि परन्तु इहो पाश्चिमहिक देखाउसि छल ओ सर्वत्र हिन्दीमे होइत छल, एखनहु होइत
अछि। एही रामलीलाकें दृष्टिमे राखि रत्नपाणि झा अपन उषाहरणक रचना कएलैन्हि परन्तु ओ
नहि चलल। मिथिलामे यदि कोनो अपन स्वतन्त्र परम्परा रहैत, संस्कृतक किंवा मैथिलीक
नाटकक अभिनयक पूर्वापरसँ रीति रहैत तँ ओकर कोनो चिन्ह तँ अवशिष्ट रहैत परञ्च तकर
हमरा जनैत कोनो प्रमाण नहि भेटैत अछि।



(4)

किछु दिन भेलैक अछि जे हमर श्रद्धेय मित्र डाक्टर श्रीजयकान्त मिश्रजी मैथिली-
नाटकक प्रसङ्क एक गोट नव कथाक उत्थान कएल अछि। मैथिली-साहित्यक इतिहासक
अनुसन्धानक क्रममे हुनका किरतनिञाक पता लगलैन्हि जे मिथिलाक प्राचीन परम्पराक अनुसार
नाच करैत छ, गान करैत छल। हुनका इहो ज्ञात भेलैन्हि जे उमापतिक पारिजातहरण ओ
लालकविक गौरीस्वयंवर ई दुहू नाटक किरतनिञा खेलाइत छल। किरतनिञा हुनका स्वयं
देखल नहि, नाटक की खेलाइत छल से तँ सहजहिं नहि। ओ मानि लेल जे अत्यन्त प्राचीन
कालसँ मिथिलामे जे नाटक सबहिक रचना होइत आएल अछि, जाहिमे संस्कृत-नाटक जकाँ
भाषा अछि संस्कृत ओ प्राकृत मुदा मध्य मध्यमे मैथिलीमे गीत अछि जे गीत सब किरतनिञा
गबैत छल--ताहि नाटक सबहिक अभिनय किरतनिञा करैत छल तथा ओहि सबहिकरचने भेल
किरतनिञाक अभिनयक उद्देश्यसँ। एना सुनल कथाक आधार पर अपन कल्पनाक बलें ओ
"किरतनिञा"-नाटकक अभिनव सृष्टि कएल, किरतनिञाक गरोहिकें नाटकक मण्डली मानि
लेल; मैथिली गीतमिश्रित संस्कृत नाटककें मैथिलीक नाटक कहए लगलाह। ई कहि जे एहि
नाटक सबहिक अभिनय बराबरि किरतनिञा करैत छल ओ एही अभिनयक हेतु एहि नाटक
सबहिक रचने भेल, मिथिलामे किरतनिञा-नाटकक परम्परा स्थापित कएल। हुनकासँ किछु
पूर्वहुँ स्वर्गीय भुवनजी सेहो अपन सम्पादित आनन्दविजयनाटिकाक भूमिकामे एही प्रकारक
विचार व्यक्त कएने छलाह परन्तु श्रीजयकान्तबाबू किरतनिञा नाटकक परम्पराकें बड़ यत्नसँ
बड़े विस्तारसँ उपस्थित कएल। हुनक इतिहासमे सबसँ मौलिक इएह अंश भेल ओ ताहिआसँ
एहि वस्तुक प्रसार बढ़ए लागल। हालहिमे ओ जे रुक्मिणी-स्वयंवर प्रभृति कतेको नाटकक
सम्पादन कएल अछि ताहि सबमे, विशेषतः रुक्मिणी-स्वयंवरक विस्तृत भूमिकामे, ओ अपन
इतिहासक एहि अध्यायकें आओर विन्याससँ दोहरओलैन्हि अछि। फलतः पटना वि•ाविद्यालयक
हिन्दी विभागक प्राध्यापक श्रीकृष्णानन्दन पीयूष जे 1961 मे दिल्लीसँ उमापतिक
पारिजातहरणक समीक्षा, मूल, ओ भाषानुवादक सज़् संस्करण प्रकाशित कराओल अछि तकर

प्रस्तावनामे श्रीजयकान्त बाबूक स्थापित किरतनिञा-नाटकक बड़े रोचक वर्णन देल अछि ओ
ओकर भूमिकामे काशी हिन्दू-वि•ाविद्यालयक हिन्दी विभागक अध्यक्ष डा0 श्रीवासुदेवशरण


अग्रवालजी सेहो एहि कथाकें दोहराओल अछि।



परञ्च वस्तु-स्थिति यथार्थतः किछु भिन्ने अछि ओ अत्यन्त खेदक विषय थिक जे ई
एकगोट प्रवाद जकाँ पसरि गेल अछि, पसरल जाइत अछि, जाहिसँ सत्य कथा कल्पनाक
बोझसँ दबल जाइत अछि। एतए हम किरतनिञाक यथार्थ परिचय उपस्थित करैत छी,
किरतनिञाक अभिनयक आँखि देखल समाचार कहैत छी, तथाकथित किरतनिञा-नाटक
सबहिक विश्लेषण कए श्रीजयकान्तबाबूक मतक त्रुटि प्रदर्शित करबाक यत्न करैत छी ओ हमरा
पूर्ण वि•ाास अछि जे एहिसँ ई कथा सिद्ध भए जाएत जे किरतनिञा नाटकक अभिनय नहि
करैत छल तथा किरतनिञा-नाटकक जे आख्या देल जाइत अछि से निर्मूल, शिद्ध कए कपोल
कल्पित।



(5)



किरतनिञा नटुआक गरोहिक नाम छल जे विशुद्ध मैथिल परम्पराक नाच करैत छल,
विशुद्ध मैथिल रीतिसँ मैथिलीक गीतक गान करैत छल। आब तँ किरतनिञा प्रायः लुप्त भए
गेल किन्तु हम स्वयं किरतनिञाक नाच देखने छी एक बेरि नहि, अनेक बेरि, नीक जकाँ देखने
छी। एखनहु बहुत जन छथि जे एहि नाचकें हमरहि जकाँ देखने छथि। सब दिन इएह जानल
थिक जे किरतनिञा नटुआक गरोहि छल, नटकिञाक मण्डली नहि; किरतनिआक अभिनय
नाच कहबैत छल, नाटक नहि। हमरा ज्ञानमे दू जोड़ किरतनिञाक गरोहि प्रसिद्ध छल; एक
गोट हमर मातृमात्रिक गन्धबारिक, जकर स्थापना हमर मातृ-मातामह महाराजकुमार बाबू
बासुदेव सिंहक डेउढ़ी गन्धबारिमे स्थिर भेला पर ईशवीय 1850 क प्रान्तमे भेल होएत। हमर
मात्रिक पाहीटोलमे स्वर्गीय महामहोपाध्याय सर गङ्गानाथ झाक बृहत् परिवारमे छोटहुसँ छोट
शुभकार्यमे गन्धबारिक किरतनिञा अबितहिं टा छल ओ स्वर्गीय डा0 झाक जेठ भए स्वर्गीय
गणनाथ बाबू किरतनिञा नाचक मर्मज्ञ ज्ञाता छलाह, स्वयं कवि छलाह ओ बड़ उल्लाससँ ई
नाच देखथि। तें अत्यन्त शैशवसँ, जहिअहिसँ ज्ञान अछि तहिअहिसँ, किरतनिञा नाच देखबाक
अवसर भेटल अचि। दोसर गरोहि छल हाटीक, बड़ पुरान, जकर अन्तिम नायक, बबुजन
नायक, एहि नाचहिकटा नहि अपितु मैथिल-सङ्गीतहुक आचार्य बुझल जाइत छल। दरभङ्गा
राजमे इएह किरतनिञा अबैत छल ओ हमरा ज्ञानमे इन्द्रपूजामे जे अबैत छल से कोजागरा
सम्पन्न कएकें जाइत छल। पारिजातहरण ओ गौरीस्वयंवर जे दुहू नाटक कहल जाइत अछि जे
किरतनिञा खेलाइत छल से दुहू हमरा नीक जकाँ देखल अछि परन्तु से देखल ताहि दिन
जाहि दिन ई नाटक सब पढ़ल नहि छल। जखन एहि नाटक सबकें पढ़ल ओ किरतनिञाक
खेड़िकें मन पाड़ल तखन बुझबाक योग्य भेल जे ओ सब की करैत छल। वस्तुतः किरतनिञाकें
ने से योग्यता रहैक ओ ने से साधन रहैक जे संस्कृत-प्राकृतमे लिखल एहि नाटक सबहिक ओ
अभिनय करैत। अन्यान्य नाटक सब जकरा किरतनिञा-नाटकक आख्या देल गेल अछि यथा
आनन्दविजय अथवा रुक्मिणी-स्वयंवर तकर अभिनय तँ ने कहिओ देखल थिक ने गुरुजनहिक
मुहसँ सुनल थिक।



किरतनिञाक गरोहिमे सब मिलाए नओसँ एगारह धरि जन रहैत छल, ने नओसँ कम,


ने एगारहसँ बेशी। ओ सब अछोप रहैत छल, ताहूमे विशेषतःचमार। मिथिलामे नृत्य ओ वाद्य
चमारक वृत्ति छलैक अछि। मिथिलाक संस्कृतिमे नाचब एखनहु गारि बुझल जाइत अछि। एहि
नओमे केवल तीनि गायक रहैत छल। प्रधान गायक जे वर्णरत्नाकरक शब्दमे "गायन, साभ्यास,
वादी तालज्ञ, मानकुशल, सुवेष, प्रगल्भ, विभूति लबले, घाघर कछने, कछनी पहिरने", "चतुःसमे
अज़्राग कएने सफर उच्च पाढ़ि समेत तारामण्डलक निसह पछेओरा एक दोबर कइ उण्ड उपर
कइ चलओले", माथ पर पाग पहिरने, हाथमे बाँसुरीक आकारक रंगीन फुलहरा

लेने रहैत छल। पुरुषक वेषमे रहैत छल ओ नायक कहबैत छल। गरोहि नायकहिक कहबैक।
सब गीत उठबैत छल ओएह नायक। शेष दू गोट नायक स्त्रीक वेषमे नायकक दुहू दिशि भए
ठाढ़ सब गीतमे नायकक सज़् दैत छलैक। जहिना वर्णरत्नाकरमे विद्यावन्तक वर्णनमे
"बिदञोतिनी दुइ" "जइसे प्रयागक्षेत्र सरस्वतीकें गङ्गायमुना संवाहिका हो तइसे ता विदाञोतकें
दुअओ संवाहिका" कहल अछि तहिना ई दुहू स्त्रीवेषधारी गायक रहैत छल। एहि दुहूमे एक
नायिकाक अभिनय करैत छल दोसर सखीक। नायक तँ सहजहिं नायकक भाव प्रशित्रणक हेतु
सज़् रहैत छल। सब गीत तीनू अथवा यदि नवसिखुआ सेहो सज़् रहैक तँ चारू सज़्हिं गबैत
छल। मैथिल-सङ्गीतक इएह रीति थिकैक ओ वर्णरत्नाकरक "संवाहिका"सँ सेहो सएह सूचित
होइत अछि। मैथिल-सङ्गीतमे सबगीत "सहगान" होइत अछि, "कोरस"। एखनहु जतए कतहु
"नारदीय" संङ्गीतक मण्डली अछि ततए इएह देखब जे गीत उठाओल एक गोटए, गीतक
भास ओएह नियमित करत, मुदा सज़् देतैक ओकर जे केओ मण्डलीमे रहत सब; स्त्रीगण जे
सम्प्रति हमरा लोकनिक सङ्गीतक शुद्ध प्राचीन परम्पराक रक्षा करैत आइलि छथि एहिना गबैत
छथि; किरतनिञा नटुआ तहिना कमसँ कम तीनि गोटे सङ्क मीलि गबैत छल। परन्तु गबैत
छल तीनू नाचि नाचि, आङ्गिक अभिनय करैत, भाव देखाए, जेना वर्णरत्नाकरमे अछि
प्रबन्धनृत्य, रेखानृत्य, बाहुनृत्य, चानकनृत्य(?), मथाकम्प, दृष्टिकम्प, हस्तकम्प, हस्तकर्म,
ह्यदयप्रदर्शन प्रभृति सोड़ह गुणसम्पन्न नृत्य करैत। मैथिलीक श्रृङ्गारक प्रायः सब गीतमे नायक,
नायिका किंवा सखी, एही तीनूमे ककरो मनोभावक संसूचन रहैत अछि तें एहि नृत्यक
अभिनयक हेतु तीनि गोट मात्र नर्तक पर्याप्त छल। एहिसँ ई नहि बुझबाक थिक जे नायकक
उक्ति नायक गबैत छल, नायिकाक एक जन स्त्री-वेषधारी ओ सखीक दोसर। यदि से होइत
तखन ई रासलीला जकाँ गीति-नाट¬ होइत। परन्तु से ई नहि होइत छल। एहिमे गबैत छल
सब केओ सब गीत सज़्हिं; भावो देखबैत छल थोड़ बहुत सब एके रज़्; केवल जकर उक्ति गीत
रहैत छल से नायक, नायिका वा सखी प्रधान भए आगाँ आबि विस्तारसँ अभिनय करैत छल,
यावतो भाव देखबैत छल। अतएव एहि अभिनयपूर्ण सङ्गीतकें गीत-नृत्य कहि सकैत छी।
स्मरण रहए जे जखन नाच आरम्भ होइत चल तखन सँ अन्त धरि सम्पूर्ण मण्डली एकत्र रहैत
छल, एक वेषमे, एक भूषामे। वेषभूषा सेहो सब राति प्रायः समाने रहैत छल। विशेष विशेष
अवसर पर नायक पाग पर चानीक मुकुट सेहो पहीरि लैत छल परन्तु से सब नायककें नहि
होइक। एहने विशिष्ट नायककें कोनहु राजा वा पैघ लोकसँ मुकुट इनाममे भेटैक। मुदा वेषृ-
भूषाक आडम्बर तँ नायक ओ दुहू स्त्रीवेषधारी नर्तक मात्रकें रहैक अथवा यदि तेसरो रहैक तँ
तकरहु। शेष जन तँ अपन साधारण वेषमे रहए। पात्रक ने प्रवेश होइक ने निष्क्रमण।



एहि तीनि वा चारि गायकसँ भिन्न तीन गोट बजनिआँ रहैत छल, एक मृदज़् बजबैत


छल ओ दू गोटाए झालि। किरतनिञामे इएह दू टा वाद्य रहैत छल। नारदीय सङ्गीतमे सेहो
इएह दू टा वाद्य रहैत अछि। बङ्गालहुक कीत्र्तनमे इएह दू टा वाद्य रहैत अछि। वर्णरत्नाकरमे
सेहो मुरज ओ कंशताल इएह दू टा वाद्य कहल अछि तथा मुरजक बारह भेद ओ मुरजि अर्थात्
मृदङ्गिआक दश गोट गुण गनाओल अछि। गरोहिक समस्त उपकरण लत्ता-कपड़ा, साज-
सामान, पाकपात्र-जलपात्र, प्रभृति आवश्यक वस्तुजात जे बाँसक बड़का झप्पामे रहैत छलैक से
लेने दे गोट भरिआ गरोहिक सज़् रहैत छल तथा कए बेरि एहिसँ भिन्न एक गोट भनसिआ सेहो
रहैत छल। परन्तु भरिआ किंवा भनसिआ गरोहिक सङ्क अवश्य रहए किन्तु नाचमे नहि रहए।
नाचमे तीन बजनिआँ ओ तीनि वा चारि गबैआ इएह छवा सात गोटए रहैत छल।

तखन गरोहिमे रहैत छल एक व्यक्ति आओर, मण्डलीक विदूषक, जकरा बिपटा कहैक।
एहि शब्दक व्युत्पत्ति नहि भेटैत अछि यद्यपि मिथिलाभाषामे ई शब्द बड़ व्यापक अछि ओ
किरतनिञाक देखाउसिसँ आनो आनो नाचमे बिपटा आवश्यक बुझल जाइत छल। वर्णरत्नाकरमे
ई शब्द नहि अछि अथवा एकर सजातीय अथवा एतदर्थक दोसर कोनो शब्द अछि वा नहि से
बुझल नहि होइत अछि। दू गीतक मध्यमे गायक सबकें सुस्तएबाक अवसर होइक तें गीत
समाप्त होइतहिं बिपटा पातर बाँसक एक पोरक झरनी हाथमें लेने फानिकें आगाँ अबैत छल ओ
रंगविरंगक फकड़ा सब भास लगाए लगाए गबैत, कहुखन मिरदङिआक संग हास-परिहास

करैत, कहुखन उपहासात्मक अभिनय करैत, कहुखन जातिविशेषक, कहुखन व्यवसाय-विशेषक,
कहुखन गाम-विशेषक उपहास करैत, कहुखन सामयिक कोनहु प्रसज़्-विशेषक व्यङ्ग्यात्मक
कुचेष्टा करैत, दर्शकगणक मनोरञ्जन करए। बिपटाक हेतु किछु लिखित अथवा निर्धारित नहि
रहैत छल। ओ सब किछु स्वयं फुरबैत छल ओ फकड़ा सब खूब सिखने रहैत छल, ककरहुसँ
बनबाएकें अथवा स्वयं बनाएकें से जानल नहि थिक परन्तु स्वयं बनाए बनाए जोड़ैत जाइत छल
से निश्चय। अभिनयमे, अज्ञ पुरोहित ब्रााहृणक, गुड़गुड़ी पिबैत मीयाँक, सासुर जएबाक काल
घोना करैत कनियाँक, ताहि दिन नव आएल रहैक बेण्डबाजा जकरा अङरेजी-बाजा कहैत
छियैक तकर, ओ हजामक अभिनय एकनहु धरि स्मरण अछि। हजामक उपहास तँ
धूत्र्तसमागमहुमे ज्योतिरी•ार कएने छथि परञ्च ओ अत्यन्त अश्लील। बिपटा अश्लील वा वीभत्स
कथा किछु नहि बाजए, कारण, दर्शकगणमे स्त्रीगण सेहो रहबे करथि, मुदा ओकर सब कथा
हास्य-रससँ ओतप्रोत होइक। गोटेक गोटेक बिपटा तँ सत्ये अत्यन्त गुणी होइत छल, खूब
कटगर फकड़ा सब जानए, खूब चमत्कारसँ व्यङ्ग्य सब बाजए, खूब फुरैक, खूब फकड़ा
जोड़ए, खुब हँसबैत रहए। अत्यन्त खेदक विषय थिक जे ई फकड़ा सब अथवा बिपटाक
हास्यक कथा सब, कुकाव्य सब, उपहासक प्रसज़् सब--सब किछु लुप्त भए गेल ओ आब तँ
यत्नो कएला उत्तर ओकर संग्रह नहि भए सकैत अछि। नहि तँ ई संग्रह हास्य-रसक एहन
विलक्षण साहित्य होइत जकर जोड़ा थोड़ ठाम भेटैत ओ जाहि प्रसादात् हमरा लोकनिक
साहित्य एहू अंशमे वि•ाक कोनहु साहित्यसँ न्यून नहि रहैत। मैथिली-साहित्यक बहुतो वस्तु
एहिना मौखिक रूपें प्रचलित रहलें क्रमशः लुप्त भए गेल। भाषा-साहित्य लिखबाक विषय बुझते
नहि जाए ओ साक्षरताक क्षेत्र अत्यन्त सीमित छल। कतेक, कुकाव्य सुनल थिक जे आब
अङरेजीक उतमो सेटाएर (च्ठ्ठद्यत्द्धड्ढ) सँ चमत्कारक प्रतीत होइत अछि। परन्तु बिपटाक फकड़ा
सब ओहिना लुप्त भए गेल जेना कुकाव्य सब अथवा हमरा लोकनिक पुरना खीसा सब।
मैथिली-गद्यक एहन सुन्दर, सरस ओ सरल दृष्टान्त, कथा-साहित्यक एहि सुन्दर निदर्शन,
केवल हमरा लोकनिक अनास्थासँ, आलस्यासँ, उपेज्ञासँ सदाक हेतु नष्ट भए गेल।




इएह बिपटा पारिजातहरणमे ओ गौरीस्वयंवरमे नारद कहाबए परन्तु ओतहु ओ नाटकमे
नारदक हेतु जे वाक्य सब अछि से नहि बाजए; ओ सब तँ संस्कृतमे छैक ओ बिपटा संस्कृत
बाजिए नहि सकैत छल। जाहि राति पारिजातहरण किंवा गौरी-स्वयंवर होइक ओहू राति
बिपटाक खेड़ि ओहने होइत छल जेहन आन राति। केवल प्रसङ्गानुसार बिपटा नारदक उक्ति
कतहु कतहु अपनहि भाषामे स्वयं जोड़ि बाजए। हँ, नायक वा मिरदङिआ ओहि राति ओकरा
"अओनारद" कहि सम्बोधन करैक परन्तु नारद कहओनहि मानि लेब जे ओ नारदक अभिनय
करैत छल अयुक्त होएत। ताहि हेतु तँ देखबाक थिक जे नारदक अभिनय, विश्षतः वाचिक
अभिनय, करबाक योग्यता वा क्षमता बिपटाकें रहैक?



किरतनिञाक गरोहिमे नायक अवश्य गुणी रहैत छल; ओ सङ्गीतक, मिथिलाक
सङ्गीतक, आचार्य रहैत छल ओ नृत्य-विषय कुशल। ओना एकर शिक्षण तँ व्यावसायिक रहैक,
एक नायक कए गोटाकें सिखाबए, परन्तु प्रतिभासम्पन्न जे रहए से रसिक पण्डितसँ सीखए,
विशेषतः गीतक भाव, ओ कतोक नायक किछु किछु संस्कृत सेहो सीखि लेने रहए। ओकर संग
देनिहार जे दुहू गायक रहैक सेहो सङ्गीत-विशारद हो, नृत्य-कुशल, ओ ओएह आगाँ जाए
नायक हो। साक्षर प्रायः एहने एक आध नायक वा गायक रहए। बस, इएह तीनू गोटए जे किछु
गीत वा नृत्यक विषय जानए ! मिरदङिआ केवल अपन मृदज़्क वादनमे कुशल रहए।
झलिबज्जाकें योग्यताक कोनो प्रयोजने नहि रहैक। बिपटा जे पुरान रहए से तँ किछु सिखनहु
रहए परन्तु जे नव रहए तकरामे शिक्षाक सर्वथा अभावे कहबाक चाही। फकड़ा जानए, फुरैक,
प्रगल्भ हो। शास्त्र सँ कोनो प्रयोजने नहि रहैक। हँ, गोटेक गोटेक बिपटा जे अधिक दिन
कोनहु गरोहिमे रहि गेल, सिखबाक इच्छुक भेल, से अवश्य पण्डित ओ रसिकक समाजमे जाए
जाए भिन्न भिन्न प्रकारक फकड़ा बनबाए सीखल करए, हँसीक गप्प सब बूझल करए, काकु,
श्लेष वा व्यङ्ग्यक मर्म जानि लेल करए। मुदा ओकर सब आयास हास्य-रसक

पुष्टिक उद्देश्यसँ भेल करैक। इएह तँ भेल किरतनिञाक गरोहि। आब केओ जिज्ञासु व्यक्ति
विचार कए सकैत छी जे एहन मण्डलीक द्वारा संस्कृत प्राकृतक नाटकक अभिनय भए सकैत
छैक?



(6)



आरम्भहिमे हम नाटकक अभिनय केहन कर्म छैक से कहल अछि वाचिक अभिनयक
हेतु ओहि भाषाक ज्ञान अपेक्षित छैक जाहि भाषामे नाटक रचित अछि; आहार्य अभिनयक हेतु
भिन्न भिन्न साधनक अपेक्षा छैक; आङ्गिक ओ सात्त्विक अभिनय विनु पूर्ण अभ्यासँ सम्भव नहि
छैक। ताहि परसँ रज़्मञ्च, यवनिका प्रभृति उपकरणक झंझटि। किरतनिञाकें की साधन रहैक,
कतेक योग्यता रहैक, कतबा क्षमता रहैक से हम एखनहि कहि अएलहुँ अछि। एहि दुहू विषयकें
दृष्टिमे राखि कोनहु तथाकथित किरतनिञा-नाटककें पढ़ल जाए तँ स्वतः स्पष्ट भए जाएत जे
किरतनिञासँ एहि नाटकक अभिनयक आशा करब व्यर्थ। भरिआ समेत मिलाए नओ गोटए तँ
गरोहिमे लोक भेल, जाहिमे अभिनय कएनिहार भेल केवल तीनि वा चारि व्यक्ति; बिपटहुकें


मिलाए ली तँ अधिकसँ अधिक पाँच। पाँच गोट नट-नटीसँ कोन नाटकक अभिनय भए सकत?
एक बेरि मञ्च पर जतबा पात्र एकत्र होइत छथि कमसँ कम ततबो नट-नटीक होएब
परमावश्यक। वेषभूषा नाटकोचित केवल तीनि चारि गोटाकें रहैक, बिपटा तँ ओहिना रहए।
तथापि ओएह नायक एक ठाम कृष्ण ओ दोसर ठाम ओही वेषमे, ओही भूषामे, शिव कोना
होइत? एहिमे ने प्रवेश होइक ने निष्क्रमण, तखन नाटक कोना होइत? वाचिक अभिनय ई
नटुआ सब कोना करैत? सब नाटकक भाषा तँ संस्कृत ओ प्राकृत। ओ से करैत ककरा
निमित्त?



रुक्मिणी-परिणय नाटककें देखल जाए। एहिमे एगारह गोट प्रधान पात्र अछि जाहिमे
चारि गोट स्त्री-पात्र। जतए कतहु रुक्मिणीक प्रवेश अछि, हुनका सज़् हुनक दुहू सखी
सुदक्षिणा ओ सुशोभना छथि ओ दुहू वात्र्तालापमे भाग लैत छथि। ठाम ठाम ताहि सज़्
रुक्मिणीक माए सेहो अबैत छथिन्ह। एकर अभिनय करत ततके लोक किरतनिञाकें रहैक
कहाँ? एहिमे आधासँ अधिक संस्कृत-प्राकृत अछि। पँएतालीस गोट श्लोक अछि; पाँच छ
पाँतीक संस्कृत वा प्राकृतक गद्य अनेक ठाम अछि। मैथिलीमे चौंसठि गोट गीत अछि। एक
रातिमे एकर अभिनव सम्भव छैक? पारिजातहरण अपेक्षया छोट अछि परन्तु ओहूमे एकैस गोट
गीत अछि, उन्ने से गोट श्लोक संस्कृतमे अछि ओ आधा तँ ओहूमे संस्कृत ओ प्राकृत अछि।
एहि नाटक सबहिक सम्यक् अभिनयक हेतु संस्कृत बजबाक क्षमता धरि आवश्यक परन्तु से
अभिनय ककरा हेतु होइत? किरतनिञाक दर्शक तँ भेल किछु रसिक जन जाहिमे किछु
संस्कृतज्ञो होथी, स्त्रीगण ओ ग्रामीण लोक जकरा गीतमे रस रहैक, नाचसँ प्रेम छलैक,
विपटाक खेड़िमे मनोरञ्जन भेटैक। हमरा तँ पूर्ण सन्देह अछि जे मिथिलामे कहिओ जनताकें
संस्कृतक नाटक बुझबाक क्षमता छलैक वा नहि, तथा एमहर तीनि चारि सए वर्षसँ संस्कृत
बुझनिहार लोक द्विजातिक कोन कथा ब्रााहृणहुमे परिमिते छलाह। संस्कृत-प्राकृत नाटक जे
होइतहुँ छल तँ राज-सभामे, कचित् पण्डित-सभामे, ओ ताहि हेतु किरतनिञा, जकर वृत्ति
छलैक नाचब, एतेक व्ययसँ साधनक संग्रह कए, एतेक श्रमसँ नाटककें प्रस्तृत कए, खेलाइत से
सर्वथा असज़्त प्रतीत होइत अछि। अतएव ई कहब जे मैथिली-गीत-मिश्रित संस्कृत-प्राकृतक
नटक जे मैथिल पण्डित लोकनि रचलैन्हि तकर किरतनिञा अभिनय करैत छल युक्तिसज़्त नहि
प्रतीत होइत अछि ओ एही किरतनिञाक अभिनयकें दृष्टिमे राखि एकरा सभक रचना भेल ई
बुझब तँ सर्वथा असज़्त। एहि प्रसज़् पारिजातहरणक भरतवाक्यक अन्तिम चरण "अशूद्रान्तं
कवीनां भ्रमतु भगवती भारती भङ्गिभेदै:" हमरा अत्यन्त मार्मिक प्रतीत होइत अछि। संस्कृतक
अनधिकारी शूद्रधरि कविक वाणी मैथिली-गीतरूपहिं प्रचारित भए सकैत छल; सएह होइत रहए
इएह हम "भज़्#िभेदै:" पदक आशय बुझैत छी ओ ताहि दृष्टिसँ उमापति एहि पदमे
वस्तुस्थितिक दिशि संकेत कएल अछि जकर विचार हम अनुपदहिं कए रहल छी।



मुदा एहिमे कोनो संदेह नहि जे परिजातहरण एवं गौरीस्वयंवरक खेड़ि किरतनिञा
करैत छल। एही दू गोट नाटकक तथा-कथित अभिनय ओ सब करए ओ से दुहू हमरा सम्पूर्ण
अपना आँखिक देखल थिक। किन्तु तेसर ने कहिओ देखल ने कोनहु गुरुजनहिक मुहसँ
सुनलहुँ अछि। तेसर जँ कोनो नाटक खेलाएल जाइत तँ एहि जातिक नाटकक अन्तिम रचयिता


छलाह पण्डित-प्रवर हर्षनाथझा जे महाराज लक्ष्मीश्र्वरसिंहक दरवारक रत्न छालह ओ हुनके
प्रीत्यर्थ अपन उषाहरण रचल, ओही महाराजक पितिऔत भाए बरहगोड़िआक बाबु
एकरदेक्ष्वरसिंहक प्रीत्यर्थ अपन नवीन रुपक माधवानन्द रचल; हुनके नाटक खेलाएल जाइत।
परन्तु पण्डित-प्रवरक पुत्र पण्डित श्रीऋद्धिनाथ झा जिबितहिं छथि तथा कहि सकैत छथि जे
एहि दुहूमे कोनहु नाटकक अभिनय कहिओ नहि भेल। ओएह पण्डितप्रवर ओही महाराजक
पित्ती बाबू गुणे•ारसिंह साहेबक आदेशसँ व्रजभाषामे राधाकृष्णमिलन नामक रासलीलाक रचना
कएल जे मुद्रित अछि; एकर अभिनय व्रजक रासमण्डली शुभङ्करपुरक विशाल मन्दिर पर
कतेक बेरि कएलक। उषाहरण ओ माधवानन्दक गीत सब अत्यन्त सरस अछि, बड़ लोकप्रिय
भेल, किरतनिञा सब खूब गाबए, प्रायः नित्य गाबए; परन्तु अभिनय ओहि नाटक सबहिक
कहिओ भेल से जानल नहि थिक।



परन्तु एहू पारिजातहरण ओ गौरीस्वयंवरक अभिनय की हो से तँ तखन बुझल जखन
वयस्क भेला उत्तर ओहि नाटक सबकें पढ़ल। वस्तुतः नाटकक अभिनय नहि होइत छल,
सम्पूर्ण नाटक जेना ओ लिखल अछि तेना नहि। खेलाएल जाइत छल; केवल ओहि रातुक
गीत-नृत्य ओहि नाटक पर आधारित रहैत छल; ओहि राति सबटा गीत एक क्रमसँ ओही
नाटकक गाओल जाइत छल। नायक मात्रकें मज़्ल-श्लोक अभ्यास रहैक; मज़्लाचरणक प्रयोजन
जे नैयायिकक भाषामे मज़्लवाद कहबैत अछि तकर विचारक किछु खाढ़ी ओ सिखने रहैत छल;
तथा प्रस्तावनाक ओ वाक्य जाहिमे नाटक-कारक परिचय अछि से नायककें थोड़ बहुत अभ्यास
रहैक। जाहि नायककें एतबा अभ्यास रहैक, सीखल रहैक, तथा नाटकक सबटा गीत एक
क्रमसँ राग-तालक सज़् गाबए अबैक सएहटा एतबो अभिनयक साहस करए। बस, अभिनय
प्रारम्भ होइतहिं मज़्ल-श्लोक सस्वर पाठ कए नायक बड़े टोपहङ्कारसँ मज़्लवादक विचारक
जे अंश ओकरा अभ्यास रहैक सुनाए मज़्लगीत गाबए जाहिमे दुहू स्त्री-वेषधारी गायक ओकर
सज़् दैक। तदुत्तर प्रस्तावनाक वाक्य जेना अशुद्ध फशुद्ध अभ्यास रहैक पढ़िकें गीत-नृत्य आरम्भ
करए, एक दिशिसँ सबटा गीत आदिसँ अन्त धरि नाचि नाचि गबैत जाए। सबटा गीत उठाबए
नायक, ओ गीत नायकक उक्ति रहौक, नायिकाक, वा सखीक, ओ ओकर सज़् शेष दुहू गायक
दैत जाइक। ऐरावत ओ गरुड़ जे बनैत छल से हम देखने छी, बनितहुँ देखने छी। बाँसक
बातीकें मोड़िजौड़सँ बान्हि गाँजक सूँढ़ बनाए कारी कम्बलसँ झाँपि देलकैक ओ भरिआ ओहिमे
ताहि हेतु छोड़ल भूरमे पैसि ओकरा लेने कुदैत रहए। तहिना उज्जर कम्बलसँ झाँपि गरुड़
बनाबए। परन्तु ई सब कतबा काल, जतबा काल "ऐरावत असबार पुरन्दर" इत्यादि गीत
गाओल जाए। पारिजातहरणमे बीच बीचमे प्रचुर कथोपकथन अछि ओ हास्य-रस तँ ओही
कथोपकथनमे अछि। ओहि राति बिपटा नारद कहाबए, परन्तु नारदक उक्ति जे वाक्य अछि से
तँ संस्कृतमे अछि, से तँ ओकरा बाजि होइक नहि। हँ, पटु जँ बिपटा रहए तँ ओहि वात्र्तालापक
सारांश ओ अपना शब्दमे किछु किछु बाजए मुदा परिहास मुख्यतः ओहू राति आनहि रातिजकाँ
हो। पारिजातहरणमे एतेक रासश्लोक संस्कृतमे अछि ताहिमे ककरो पाठ नहि हो। हँ, दर्शक-
मण्डलमे गण्य मान्य पण्डित रसिक जनकें देखि बबुजन नायककें "अरुण पुरुव दिशि" इत्यादि
गीतक प्रति पदक अर्थक जे श्लोक सब अछि तकरा गबैत हम सुननेछी परन्तु साधारणतया ओ
संस्कृतकें छोड़िए दैक। आरम्भहिमे एकहि बेरि मञ्च पर कृष्ण, रुक्मिणी ओ हुनक सखी


मित्रसेना, सत्यभामा, ओ हुनक सखी सुमुखी, नारद ओ दौवारिक एकत्र होइत छथि। चारि गोट
स्त्री पात्र किरतनिञाकें कहाँ रहैक जे एकर अभिनय करैत? गीत सेहो रुक्मिणी, सत्यभामा ओ
सुमुखी तीनुक अछि। यदि सत्ये अभिनय होइत तँ ई तीनि गीत तीनि गोटए गबैत मुदा तीनि
गोट स्त्री पात्र तँ साधारणतया किरतनिञाकें रहैक नहि। सब गीत तँ सब सज़्हिं गाबए।



तथापि एतबा कौशल पारिजातहरणमे अवश्य अछि जे केवल गीतहुसँ एहि नाटकक
समस्त कथा-वस्तु बुझल भए जाइत अछि। केवल एहिमे हास्य-रस संस्कृत-प्राकृतमे अछि ओ
गीतमे तकर पुष्टि नहि होअए पबैत अछि। अन्यथा एकर रचना एहि रूपें भेल अछि जे गीत-
नृत्यसँ एहि नाटकक प्रयोजन सिद्ध भए जाए। कवी•ार चन्दाझाक अनुसार किरतनिञा नाचक
विकासमे, ओकर प्रचारमे उमापतिक पूर्ण योगदान अछि। से कथा हम विस्तारसँ अपन
उमापति-प्रसज़् निबन्धमे कहल अछि। एतए एतबे कहब पर्याप्त होएत जे किरतनिञा नाचक
प्रचार उमापतिहिक युगमे आरम्भ भेल छल; पारिजातहरणक रचना ओ निश्चय किरतनिञा
गीतनृत्यकें दृष्टिमे राखि कएल। पण्डित-समाजक अनुरोधें ओ संस्कृत-प्राकृत त्यागि नहि
सकलाह मुदा समस्त जनता एकर आनन्द लए सकए तें ओ गीतक एहि चतुरतासँ विन्यास
कएल। सएह हुनक भरतवाक्यक अन्तिम चरणक स्वारस्य कमसँ कम हमरा व्यक्त होइत अछि।
एहिमे गीतो ततबे अछि जतबा एक रातिमे गाओल भए जाए ओ हमरा खूब स्मरण अछि जे
पारिजातहरणक खेड़िमे छओ घण्टा समय लगैक। मुदा तैओ पारिजातहरण जे केओ पढ़ने छी
से कहि सकैत छी जे एहि गीतनृत्यकें की नाटकक अभिनय कहब। जे कथा हम पूर्वहुँ कहि
आएल छी, पारिजातहरणमे हास्य रस श्रृङ्गारहि जकाँ एक गोट प्रधान अज़् अछि परन्तु गीत-
नृत्यमे तँ ओ एकदम छूटिए जाइक जकर पूर्त्ति बिपटा अपन हास-परिहासक कथासँ करए
परन्तु नाटकक अभिनय धरि तँ से नहिए भेल !



अभिनयक दृष्टिसँ पारिजातहरणसँ बहुत नीक जकाँ गौरी-स्वयंवर खेलाएल जाए।
पारिजातहरणमे संस्कृतक अंश, वात्र्तालाप ओ श्लोक दुहू, प्रचुर अछि--अन्य नाटक यथा
रुक्मिणीपरिणय जकाँ ओहूमे नहि अछि--तथापि पर्याप्त अछि ओ एक गोट अज़् हास्य-रस तँ
सबटा संस्कृतहिमे अछि। गौरीस्वयंवरमे वात्र्तालाप बड़ विरल अछि, दू तीनिठाम मात्र, जे
छोड़नहु नाटकक कथावस्तुमे कोनो विशेष त्रुटि नहि होएत। ई नाटक सम्पूर्ण गीतमय अछि ओ
सबटा गीत गओला उत्तर नाटक सम्पूर्ण भए जाइत अछि। मुदा तैओ नाटक तँ तखन ने कहल
जाइत जँ महादेवक उक्ति नायक गबैत, पार्वतीक एक स्त्री-वेषधारी गायक ओ मेनाक दोसर।
अथवा नट-नटीक वेषभूषामे किछुओ पात्रक साद्दश्य रहैत। परन्तु से तँ हो नहि। ओएह
बेषभुषा रहैक जे सबदिन ओ राखए ओ सबटा गीत सब सज़्हिं मीलि गाबए। दोसर, एहि
नाटिकामे सबटा गीत नाटकीय पात्रहिक उक्ति नहि अछि; कए गोट गीत तँ ग्रीक कोरस जकाँ
अन्यपुरुषक उक्ति थिक। ई तँ नाटकक रीति नहि थिकैक। ओ तँहि किरतनिञा एकर अभिनय
नीक जकाँ करए, कारण, अभिनय भेल किरतनिञाक आङ्गिक मात्र तथा किछु सात्त्विक, नाचि
नाचि गाएब, भाव देखाए देखाए गीत सब गाएब ओ जें सबटा गीत शिव-विवाहक अछि तथा
गीतहिमे सबटा कथा सेहो कहल भए जाइत अछि तें विवाहक अवसर पर गोटेक राति गौरी-
स्वयंवर अवश्य भेल करए। हम मानि सकैत छी जे कविलाल प्रायः किरतनिञाकें दृष्टिमे राखि
एहि नाटकक रचना कएल परन्तु नाटक ई नामहिटासँ अछि। विषयकें उपस्थापित करबाक


शैली नाटकक नहि थिक तथा स्वयं कविलाल एकर प्रस्तावनाक अन्तमे "नत्र्तनारम्भ" करए
कहैत छथि, नाच आरम्भ करए कहैत छथि, नाटक नहि, अभिनय नहि। तथापि एहूमे दू तीनि
ठाम कथोपकथन अछिए तथा प्रायः दू ठाम ततबा पात्रक समावेश भैए गेल अछि जे
किरतनिञाक हेतु जुटाएब सम्भव नहि छल। यदि एकरा नाटक कही तँ हमरा दृष्टिएँ
एकरहिटा यथाकथञ्चित् किरतनिञा-नाटकक आख्या देल जाए सकैत अछि। आओर जे नाटक
सब अछि-श्रीजयकान्त बाबूक इतिहासमे उन्नैस गोट किरतनिञा-नाटक-कारक नाम अछि--
तकरा तँ किरतनिञा-नाटक कहबे निराधार, प्रमाण-विरुद्ध।



दू गोट नाटक हम देखल अछि जे किरतनिञाक हेतु रचल गेल। एहि दूनूमे संस्कृतक
छूति नहि अछि, वात्र्तालाप नहि अछि, केवल गीत अछि। एक गोट थिक स्वर्गीय वि•ानाथझाक
उषाहरण ओ दोसर थिक शिवदत्तक पारिजातहरण। एहिमे कोनो प्रकाशित नहि अछ। प्रथमक
लेख सरसकवि श्रीईशनाथझाक सज़् अछि,

दोसरक लालगञ्जनिवासी श्रीहरिनाथझाक सज़् अछि। परन्तु एकरा सबकें नाटक कहबे अयुक्त।
ई सब तँ नृत्योपयोगी प्रबन्ध-गीत थिक। परन्तु किरतनिञा तँ करए सएह, गीत-नृत्य ओ तें
ओकरा हेतु लिखल गेल वस्तुओ तँ सएह होएत। नाटक ने ओ करए, ने ओकरा हेतु कोनो
नाटक लिखल गेल, ने जे नाटक लिखल गेल से ओ कए सकैत छल।



(7)



किरतनिञा नामहुसँ हमर मतक पुष्टि होइत अछि। वर्णरत्नाकरमे ई शब्द नहि अछि
मुदा नाचक ओहिमे साङ्गोपाज़् वर्णन अछि तथा किरतनिञाक नायकक सदृश नृत्यक प्रधानकें
ओतए विद्यावन्त कहल अछि। तथापि व्युत्पत्तिक बलसँ किरतनिञा शब्दक आशय स्पष्ट भए
जाइत अछि। भजनिञा जकाँ ई शब्द ओहि व्यक्ति वा व्यक्तिसमूहक हेतु व्यवह्मत होइत अचि जे
कीर्तन-प्रभेदक गीत गाबए जेना भजनिञा भजन-प्रभेदक।



भगवानक नाम, गुण, ओ लीलाक वर्णन कीर्तन थिक ओ से कीर्तन ओना तँ बड़ प्राचीन
वस्तु थिक तथा नवधा भक्तिमे बड़ प्राचीन समयसँ परिगणित अछि। परन्तु गौराज़् महाप्रभु
चैतन्यदेव एकरा नव रूप देल। विद्यापति, चण्डीदास प्रभृति पूर्वक कविक गीत महाप्रभु नाचि
नाचि गाबथि ओ एकरहि ओ कीर्तन कहल। चैतन्योत्तर-कालमे नवद्वीप कोन रूपें सहिं सज़्
कीर्तन ओ नव्यन्यायक हेतु प्रसिद्ध भए गेल ओ तकर प्रभाव मिथिला पर कोन रूपें पड़ल तकर
वर्णन हम अपन गोविन्ददासझाक प्रसज़् निबन्धमे कएने छी। हमरा वि•ाास अछि जे जहिना
एहिसँ पूर्वक युगमे बङ्गाली विद्यार्थी लोकनि मिथिलासँ विद्यापतिक गीत सीखि सीखि बङ्गाल
आपस जाए ओतए ब्राजबूलीक सृष्टि कएल तहिना एहि युगमे मिथिलाक विद्यार्थी लोकनि
नवद्वीपसँ कीर्तन सीखि सीखि स्वदेश प्रत्यावृत्त भए किरतनिञा नोचक चालि चलाओल।
मिथिलाक संस्कृतिमे ओ लोकनि स्वयं तँ नाचब वृत्ति ग्रहण नहि कएल, परन्तु नटुआकें
सिखाओल तथा ओहि नटुआकें किरतनिञा नाम देल। रागतरङ्गिणीमे लोचन जे कायस्थसूनु
जयतक प्रसज़् लिखने छथि ताहिसँ स्पष्ट होइत अछि जे एहिसँ पूर्वक युगमे मिथिलामे
विद्यापतिक गीतक गान मात्र होइत छल, नाच नहि। बङ्गालमे विद्यापतिक गीत नाचिकें


गाओल जाए तथा से कीर्तन कहाबए। मिथिलामे गानक स्वतन्त्र परिपाटी छल, नाचक सेहो
परिपाटी छल। नवद्वीपक कीर्तनक अनुकरणमे दुहू मिश्रित कए देल गेल। परञ्च एहि
अनुकरणमे ओ लोकनि अपन प्राचीन परिपाटीकें नहि त्यागल। नवद्वीपमे कीर्तनक स्वर ओ ताल
भिन्न छैक ओ सब गीत कीर्तन कहबैत अछि वा कीर्तनक पद। मिथिलामे अपन स्वतन्त्र गान-
पद्धति छल, गीतक राग ओ ताल, स्वर ओ भास सब पूर्वहिसँ आबि रहल छल। नवीन नाचहुमे
सब पूर्ववत् रहल; गीतक नाम सेहो मान ओ बटगमनी, लगनी ओ मलार प्रभृति पूर्ववते रहल।
केवल ओहि नाचक नाम, एहि गीत-नृत्यक नाम धरि, पड़ि गेल किरतनिञा। पूर्वहि जकाँ आबहुँ
वाद्य रहल ओएह दूटा मृदज़् ओ झालि। जनसाधारणक मनोरञ्जनक निमित्त विपटाक समावेश
कए देल गेल जकर ने कोनो चर्चा ने प्रसज़् सएह नवद्वीपक कीर्तनमे छल। वस्तुतः नवद्वीपक
कीर्तन भक्तिमूलक छल परन्तु मिथिलामे किरतनिञा आदिअहिसँ मनोरञ्जनक हेतु भेल ओ
किरतनिञा भक्तिहुक गीत गाबए परन्तु सेहो मैथिल पद्धतिसँ। विद्यापतिक गीतक जे अर्थ
नवद्वीपमे लगाओल जाए से अर्थ तँ मिथिलामे कहिओ लगाओल गेल नहि। एहि रूपें एहि गीत-
नृत्यक प्रचार भेल जे क्रमशः मिथिलाक अपन स्वतन्त्र नाचक रूपमे कमसँ कम अढ़ाइ सए वर्ष
धरि देशक रसिक-समाजमे अत्यन्त लोकप्रिय रहल। हमर अनुमान अछि जे गोविन्ददासझाक
नवद्वीपसँ फिरला उत्तर सत्रहम शताब्दीक आदिमे एकर प्रचार आरम्भ भेल होएत। कवीक्ष्वर
चन्दाझा लिखैत छथि जे उमापति मकमानीक राजाक आश्रयमे एहि नाचकें प्रचारित कएल। तें
एकर समय मोटामोटी 1650 ई0 मानल जाए सकैत अछि, किरतनिञा-नाचक सृष्टि सत्रहम
शताब्दीक द्वितीय चरणमे भेल होएत।



परन्तु जाहि जातिक नाटककें किरतनिञा-नाटकक आख्या देल जाइत अछि तकर
परम्परा तँ 1650 ई0 सँ बहुत पूर्वहिसँ मिथिलामे आबि रहल अछि। किरतनिञा-नाटकक लक्षण
तँ कतहु कहल नहि गेल अछि

परन्तु किरतनिञा-नाटकक प्रसज़् जे किछु एमहर लिखल गेल अछि तकर आशय हमरा एहने
सन प्रीतत होइत अछि जे मैथिल पण्डित-कवि लोकनि जे संस्कृतमे नव नव नाटक लिखलैन्हि
जाहिमे मध्य मध्यमे मैथिली-गीत अछि सएह भेल किरतनिञा-नाटक, कारण, किरतनिञा नटुआ
एहि गीत सबकें गबैत छल। हालहिमे ज्योतिरी•ार ठाकुरक धूत्र्तसमागम-प्रहसनक एक गोट
संस्करण प्रकाशित भेल अछि जाहिमे संस्कृतक श्लोकक अर्थ लएकें मैथिलीमे गीत सब अछि;
परन्तु एकरा यदि छोड़िओ दी तथापि विद्यापतिक गोरक्षविजय, गोविन्द ठाकुरक नलचरित ओ
वंशमणिझाक ओ सब नाटक जकर रचना नेपालक मल्ल राजा लोकनिक प्रीत्यर्थ भेल ओ जे
एखनहु नेपालमे भेटैत अछि से सब किरतनिञा-नाटकक श्रेणीमे आबि जाएत। परन्तु ताहि
समयमे तँ किरतनिञाक नामो नहि छल तखन ओ किरतनिञा-नाटक कोना भेल? मुख्यतः
गौरीस्वयंवर ओ यथाकथञ्चित् पारिजातहरणक गीतनृत्य किरतनिञा नटुआ करैत छल, तकरा
अभिनय मानि ली ओ एतत्सजातीय मैथिली-गीत-मिश्रित संस्कृत नाटककें किरतनिञा-नाटकक
आख्या दए दी, एकरा प्रचार छाड़ि आओर की कहि सकैत छी. मैथिलीमे गीत दए दए संस्कृत
नाटकक रचनाक परम्परा मिथिलामे बड़ प्राचीन थिक हमरा जनैत विद्यापति ठाकुरहिक
चलाओल थिक। ई चालि बड़ लोकप्रिय भेल, कारण, नाटकक तँ अभिनय होइक नहि जे
ओकर प्रचार होइत परन्तु गीतक गान तँ होइक ओ पछाति गीत-नृत्य सेहो होइक, ताहि द्वारा
एहि गीत सबहिक प्रचार सुगम छल। तखन केवल नटुआक हेतु गीत लिखबामे पण्डित-कवि


लोकनिकें जेना हीनताक बोध होइन्ह तें ओ लोकनि लिखथि संस्कृतमे नाटक ओ ताहिमे मिश्रित
कए देथि मैथिलीक गीत। एहि परम्पराक अनुसरण उन्नैसम शताब्दीक अन्त धरि, पण्डितप्रवर
हर्षनाथ झा धरि, मैथिल पण्डित-कवि लोकनि करैत अएलाह। अतएव जाहि दृष्टिसँ विचार
करब, किरतनिञा-नाटकक कल्पना प्रमाण-विरुद्ध सिद्ध होएत। वस्तुतः किरतनिञाक नाचकें
नाटकक अभिनय कहबे उचित नहि थिक।



(8)



किरतनिञा नाटकक कल्पना उपलब्ध प्रमाणक ततेक विरिद्ध अछि ओ से तेना स्पष्ट
अछि जे ओहिमे ककरहु विप्रतिपत्ति होएतैन्हि तकर हमरा सन्देहो नहि अछि। परञ्च हमरा
एतए विचारणीय किरतनिञा-नाटक नहि अछि। हमरा जिज्ञास्य अछि मिथिलामे नाटकक
परम्परा ओ ताहि प्रसज़् मैथिल पण्डित-कवि लोकनिक रचित जे मैथिली-गीतमिश्रित संस्कृत-
प्राकृतक नाटक अछि, जकरा एमहर आबि किरतनिञा-नाटकक आख्या देल गेल अछि, तकरा
की बुझबाक चाही। एकरा मैथिलीक नाटक कहबाक हमरा युक्ति नहि भेटैत अछि। हमरा
दृष्टिएँ तँ ई संस्कृतक नाटक थिक। एहि प्रसज़् सबसँ पूर्व ई विचारणीय थिक जे नाटकमे मुख्य
वस्तु की थिक? नाटक थिक दृश्य काव्य ओ सब काव्य जकाँ नाटकहुमे कथा-वस्तु रहैत अछि।
से कथा नाटकमे परस्पर कथोपकथन द्वारा एवं पात्रक क्रिया द्वारा प्रदर्शित होइत अछि। क्रियामे
तँ भाषाक प्रयोजन नहि छैक परन्तु कथोपकथन-से कथोपकथन संवाद हो, आत्मगत हो,
जनान्तिक हो अथवा अपवारित हो--कोनहु रूपमे हो परन्तु होएत कोनहु भाषाक द्वारा अतएव
अमुक नाटक कोन भाषाक थिक एकर निर्णयक ओहि नाटकक कथोपकथनक भाषा थिक।
उचित तँ इएह ने थिक जे जाहि भाषामे नाटकक मुख्य वस्तु उपनिषद्ध हो, जाहि भाषा द्वारा
नाटकीय कथा-वस्तु उपस्थापित हो सएह ओहि नाटकक भाषा बुझल जाए।संस्कृत नाटकमे दू
गोट भाषाक प्रयोग तँ आदिअहिसँ देखालाँमे अबैत अछि; एखन धरि एहन नाटक नहि भेटल
अछि जाहिमे केवल संस्कृत हो। यदि से भेटत तँ भरत-प्रभृति आचार्यक मतें ओ विशुद्ध नाटक,
सर्वलक्षणोपेत नाटक नहि कहाओत। परन्तु प्राकृत रहनहि कोनहु नाटककें प्राकृतक नाटक कहाँ
कहल जाइत अछि? यदि से नहि तँ मध्य मध्यमे गीत मात्र मैथिलीमे रहने कोनहु नाटककें
मैथिली-नाटक कोना कहब जखन संस्कृत-नाटकक लक्षणक अनुरूप संस्कृत ओ प्राकृत एहूमे
अछि। कालिदासक विक्रमोर्वशीयमे संस्कृत ओ प्राकृत तँ अछिए,

चारिम अङ्कमे एहि दुहूसँ भिन्न अपभ्रंश सेहो अछि परन्तु तें की बिक्रमोर्वशीय अपभ्रंशक नाटक
कहल जाइत अछि अथवा से कहब सज़्त होएत? गौरीस्वयंवरकें छोड़ि प्रायः एतत्सजातीय
कोनो दोसर नाटक नहि अछि जाहिमे संस्कृतक अंश आधासँ थोड़ हो। कतोकमे मैथिलीक
'अंश तँ तृतीयांश मात्र अछि। परन्तु गीत कतबओ रहओ, ओ तँ नाटकक मुख्य वस्तु नहि
थिक। पारिजातहरणमे ई कौशल अवश्य अछि जे गीतहिसँ कथा-वस्तुक परिचय भए जाइत
अछि परन्तु से केवल परिचय; हास्यरसक जे ओहिमे अंश अछि, जे ओकर एक गोट प्रधान
अङ्क थिकैक, से गीत-भागसँ व्यक्त नहिए होइत अछि। आओर आओर नाटक सबमे यथा
आनन्दविजय किंवा रुक्मिणीपरिणय अथवा उषाहरण, ताहिमे गीतक अंश हटाइओ दिऐक तँ
ओतेक ह्यद्य तँ नाटक नहि रहए पाओत परन्तु नाटकक कथा-वस्तुमे कोनो विशेष हानि नहि
होएत। उदाहरणार्थ एहि जातिक सबसँ पुरान नाटककें देखल जाए। ज्योतिरी•ारक


धूत्र्तसमागम-प्रहसन आइ धरि संस्कृतक नाटक बुझल जाइत छल जेना शङ्करमिश्रक
गौरीदिगम्बर प्रहसन। हालहिमे धूत्र्तसमागमक एक गोट संस्करण प्रकाशित भेल अछि जाहिमे
मध्य मध्यमे गोट बीसेक गीत मैथिलीमे अछि, नव नहि किन्तु संस्कृतमे जे श्लोक अछि ताही
अर्थपरक। यदि एहि सब गीतकें हटाए दिऐक तँ नाटकक स्वरूप ओएह रहैत अछि जे एतेक
दिन उपलब्ध छल। आब ओहि किछु गीतक भेटलहिसँ ई प्रहसन संस्कृतक प्रहसन छूटि गेल,
मैथिलीक प्रहसन भए गेल? ई कहब हमरा जनैत आग्रह मात्र थिक। मैथिली नाटकक
परम्पराकें छओ सए वर्षसँ प्राचीन सिद्ध करबाक लोभसँ से भलहिं कएल जाओ परन्तु ई
ऐतिहासिक सत्य थिक नहि, प्रचार मात्र भेल। सत्य तँ थिक ई जे एहिसँ हमर भाषा-साहित्यमे
सङ्गीतक परम्परा, गीत-रचनाक परम्परा, छओं सए वर्षसँ पुरान प्रमाणित होइत अछि,
नाटकक नहि। नाटकक परम्परा हमरा ओहिठाम अछिए नहि।



मुदा तखन प्रश्न रहैत अछि जे संस्कृतक नाटकमे मैथिलीक गीत देबाक प्रयोजन कोन
तथा ई कहाँ धरि युक्तियुक्त? एहि प्रसज़् हम पूर्वहुँ संकेत कएने छी, पुनः कहब, जे नाटक
मनोरञ्जनक साधन थिक, एकर उद्देश्य थिकैक आनन्द प्रदान करब। तदर्थ सब नाटकमे नृत्य
ओ गीत रहैत अछि। नाटकीय वस्तुसँ गीतकें थोड़ सम्बन्ध रहैत अछि; ओ तँ मनोरञ्जनार्थ
मध्यमे सन्निविष्ट रहैत अछि। ई वस्तु संस्कृतहिमे अछि से नहि, पाश्चात्य देशहुक नाटकमे ई
भेटैत अछि। संस्कृतमे तँ प्रायः सब नाटकमे प्रस्तावनाक मध्यहिमे नटी एकटा गान करितहिं
अछि। अभिज्ञानशकुन्तलमे से गीत प्राकृतमे ग्रीष्मसमयक वर्णन अछि। वस्तुतः संस्कृत नाटकमे
श्लोक सङ्गीतहिक हेतु देल जाए लागल जखन श्लोकक गान होइत छल, ओकर पाठ नहि।
जयदेव संस्कृतक प्रथम महाकवि भेलाह जे देशी भाषामे प्रचलित रागताललयाश्रित गीतक
अनुकरणसँ पूर्वक श्लोककें तदुपयुक्त नहि बूझि संस्कृतहिमे रागताललयाश्रित गीतक रचना
कएलैन्हि। अतएव स्पष्ट अछि जे मैथिल कविलोकनि से सङ्गीत संस्कृतमे नहि दए मैथिलीमे
देब आरम्भ कए देल। मैथिलीमे सङ्गीतक परम्परा पूर्वहिसँ छल ओ से लोक-प्रिय छल। केओ
मैथिल कवि एहि उद्देश्यसँ तँ नाटक रचलैन्हि नहि जे ओकर अभिनय होएत। ओ लोकनि तँ
नाटक रचथि काव्यजकाँ, नाटक-विषय अपन पाण्डित्यप्रदर्शनार्थ, ओकरा पढ़बाक हेतु। यदि
अभिनयो होइत तँ से बुझनिहार केवल संस्कृतज्ञे धरि होइतथि, ओकर प्रचार केवल ओही वर्गमे
सीमित रहैत। परन्तु प्रचारक अभिलाषा तँ सब लेखककें रहैत छैक, स्वाभाविक थिकैक।
नाटकक जँ प्रचारो होएत तँ केवल पण्डित-समाज धरि किन्तु गीत जँ नीक भेल तँ आशूद्रान्त,
स्त्रीगण ओ पुरुष, समस्त देशमे ओकर प्रचार होएत, आदर होएत, तें ओ लोकनि मैथिलीमे
गीत लिखथि। पारिजातहरणक भरतवाक्यक अन्तिम चरणसँ उमापतिक इएह आशय ध्वनित
होइत अछि। ज्योतिरी•ारसँ हर्षनाथ धरि बराबरि इएह क्रम रहल। जेना स्त्रीपात्र अथवा नीच
पात्रक भाषा नाटकमे प्राकृत, तहिना गीतक भाषा मैथिली। दू गोट भाषाक प्रयोग जखन
होइतहिं अछि तखन तीन गोट भाषाक किएक नहि? मिथिलाक ओहि स्वर्णयुगक पण्डितगणकें
से साहस रहैन्हि, आत्मबल रहैन्हि, वि•ाास रहैन्हि जे नव वस्तु चलाए ली। "यदि पथि विपथे
वा वत्र्तयामः स पन्थाः" कहनिहार ओ मनीषीगण संस्कृत-नाटकमे ई नवीन कए देल, दु गोट
भाषाक स्थानमे तीनि गोट भाषा चलाए देल। इतिहास साक्षी अछि जे कर देब स्वीकार कए
दिल्लीक तुगलक सम्राट्सँ जखन मिथिलाक राज्य

ओइनिबार ठाकुर लोकनि प्राप्त कएल तखन हुनका समक्ष इएह प्रश्न छल जे हमरा देश राजा


स्वीकार करत की नहि, कारण, कर देलें तँ राजत्वक हानि होइत अछि ओ अनभिषिक्त तँ राजा
नहि हो तथा ब्रााहृण भए ओलोकनि राज्याभिषेक कोना लितथि। एहना स्थितिमे सिद्धकामे•ारक
कनिष्ठ पुत्र राजा भवे•ार ताहि समयमे वृद्ध रत्नाकरकार चण्डे•ारकें बजाए हुनकासँ राजनीति-
रत्नाकरक रचना कराओल जाहिमे चण्डे•ार व्यवस्था देल जे राजा दू प्रकारक होथि, अकर ओ
सकर, तथा कर देलहिटासँ राजत्वक हानि नहि हो। ओ इहो व्यवस्था देल जे अभिषेक राजाक
हेतु आवश्यक नहि छैक तें ब्रााहृण किवा शूद्र केओ राजा भए सकैत छथि। चण्डे•ारक एहि
व्यवस्था पर ओइनिबारक राज्य सुस्थिर भेल तथा ओलोकनि सर्वमान्य भेलाह। तहिना ताहि
समयमे यदि केओ मैथिल पण्डित नाट¬शास्त्र पर ग्रन्थ लिखितथि तँ ओ निश्चय ई व्यवस्था
कए देने रहितथि जे नाटकमे गीतक भाषा देशी हो यदि ओहि देशी भाषामे गीतक परम्परा
रहैक। परन्तु लक्षण-ग्रन्थमे नहिओ अछि तथापि वस्तुस्थितिसँ तँ सएह सिद्ध होइत अछि ओ
लक्षण सेहो दृष्टान्तहिसँ बनैत अछि। एहि मैथिल संस्कृत-नाटक सबहिक अभिनय तँ देखल
नहि थिक, सुनलो नहि थिक, परञ्च एहि नाटक सबहिक गीत सब गोटेक गोटेक तँ एतेक
प्रसिद्ध अछि जे प्रायः सर्वत्र गाओल जाइत अछि ओ किरतनिञा तँ प्रायः सब नाटकक गीत
गाबि गाबि नाच करए। गोविन्द ओ देवानन्द, उमापति ओ सरस-राम, रमापति ओ नन्दीपति,
भानुनाथ ओ हर्षनाथ--हिनका लोकनिक ख्याति कथीक आधार पर, कोन बल पर? ओही नाटक
सबहिक गीतसब पर ने। आ' ओ गीत सब की थिक? मान, बटगमनी, स्वरूपवर्णन, तिरहुति,
चुमाओनक, परिछनिक, गोआलरी, ऋतुवर्णन, इत्यादि जकरा नाटकीय वस्तुसँ कोनो सम्बन्ध
नहि, कोनो गीत कोनहु नाटकमे गाओल जाए सकैत अछि। एहि प्रसज़् इहो कहब असज़्त नहि
होएत जे कवि पहिने गीत रचि लैत छलाह तखन नाटक लिखैत छलाह जाहिमे ओहि गीत
सवहिक क्रमशः समावेश कए दैत छलाह। गीतक प्रचार छल स्त्रीगण-समाजमे, गायकमे,
नटुआमे, किछु पण्डित रसिक जनमे, परन्तु ताहिमे नाटक कतेक गोटाकें बोधगम्य होइत।
अतएव गीतक अस्तित्व नाटकसँ पृथक् मानि लेब, नाटकहुमे गीतक पृथक्त्व मानि लेब, विशेष
युक्तियुक्त होएत। जेना संस्कृत नाटकमे भाषा दू गोट प्रयुक्त होइत अछि तहिना मानि ली जे
मिथिलाक कतोक संस्कृत-नाटकमे तीनि गोट भाषाक प्रयोग होइत अछि। ओ तखन एहि नाटक
सबकें किरतनिञा-नाटक नहि कहि मैथिल-संस्कृत-नाटक कहब विशेष सज़्त नाटक थिक।



लोकभाषामे नाटकक रचना आसाममे, अङ्किता नाट; ओ नेपालमे जे "नेपाले बाज़्ला
नाटक" कहि प्रकाशित अछि। ओतए रज़्मञ्च छल, अभिनयक परम्परा छल, अभिनयक साधनकें
दृष्टिमे राखि नाटक रचल गेल, ओकर अभिनय भेल। मिथिलामे ने रज़्मञ्च छल, ने नाटकक
अभिनयक परम्परा छल, ने नाटकक अभिनय होइत छल, ने अभिनयकें दृष्टिमे राखि नाटकक
रचना भेल। गीत गानक वस्तु थिक जे नाटकसँ पृथकहुँ गाओल जाए सकैत अछि ओ एहि गीत
सबहिक रचना सत्ये नाटकसँ पृथक गाओल जएबाक हेतु भेल।



आसाम ओ नेपालक रचना छोड़ि मैथिली-नाटकक रचना सर्वप्रथम कविवर जीवनझा
कएल ओ हुनक नाटक मैथिली साहित्यक हेतु नव वस्तु भेल। परन्तु ओहू नाटकक अभिनय
नहि कतहु सुनल थिक। मैथिलीमे प्रथम नाटक जकर अभिनय भेल, ओ खूब लोकप्रिय भेल, से
थिक साहित्यरत्नाकर मुन्शी रघुनन्दनदास जीक मिथिला नाटक। ताधरि मिथिलामे जकरा
पारसी ष्टेज कहैत छिऐक तकर पूर्ण प्रचार भए गेल छल ओ मिथिलामे कए गोट नाटकक


मण्डली बनि गेल छल। ओही मण्डली सबकें दृष्टिमे राखि, ओही ष्टेजक हेतु, मुन्शीजी अपन
नाटक रचलैन्हि।

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