भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

(c)२०००-२०२३. सर्वाधिकार लेखकाधीन आ जतऽ लेखकक नाम नै अछि ततऽ संपादकाधीन। विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA सम्पादक: गजेन्द्र ठाकुर। Editor: Gajendra Thakur

रचनाकार अपन मौलिक आ अप्रकाशित रचना (जकर मौलिकताक संपूर्ण उत्तरदायित्व लेखक गणक मध्य छन्हि) editorial.staff.videha@gmail.com केँ मेल अटैचमेण्टक रूपमेँ .doc, .docx, .rtf वा .txt फॉर्मेटमे पठा सकै छथि। एतऽ प्रकाशित रचना सभक कॉपीराइट लेखक/संग्रहकर्त्ता लोकनिक लगमे रहतन्हि। सम्पादक 'विदेह' प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका ऐ ई-पत्रिकामे ई-प्रकाशित/ प्रथम प्रकाशित रचनाक प्रिंट-वेब आर्काइवक/ आर्काइवक अनुवादक आ मूल आ अनूदित आर्काइवक ई-प्रकाशन/ प्रिंट-प्रकाशनक अधिकार रखैत छथि। (The Editor, Videha holds the right for print-web archive/ right to translate those archives and/ or e-publish/ print-publish the original/ translated archive).

ऐ ई-पत्रिकामे कोनो रॊयल्टीक/ पारिश्रमिकक प्रावधान नै छै। तेँ रॉयल्टीक/ पारिश्रमिकक इच्छुक विदेहसँ नै जुड़थि, से आग्रह। रचनाक संग रचनाकार अपन संक्षिप्त परिचय आ अपन स्कैन कएल गेल फोटो पठेताह, से आशा करैत छी। रचनाक अंतमे टाइप रहय, जे ई रचना मौलिक अछि, आ पहिल प्रकाशनक हेतु विदेह (पाक्षिक) ई पत्रिकाकेँ देल जा रहल अछि। मेल प्राप्त होयबाक बाद यथासंभव शीघ्र ( सात दिनक भीतर) एकर प्रकाशनक अंकक सूचना देल जायत। एहि ई पत्रिकाकेँ मासक ०१ आ १५ तिथिकेँ ई प्रकाशित कएल जाइत अछि।

 

(c) २००-२०२ सर्वाधिकार सुरक्षित। विदेहमे प्रकाशित सभटा रचना आ आर्काइवक सर्वाधिकार रचनाकार आ संग्रहकर्त्ताक लगमे छन्हि।  भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल http://www.geocities.com/.../bhalsarik_gachh.htmlhttp://www.geocities.com/ggajendra  आदि लिंकपर  आ अखनो ५ जुलाइ २००४ क पोस्ट http://gajendrathakur.blogspot.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html  (किछु दिन लेल http://videha.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html  लिंकपर, स्रोत wayback machine of https://web.archive.org/web/*/videha  258 capture(s) from 2004 to 2016- http://videha.com/  भालसरिक गाछ-प्रथम मैथिली ब्लॉग / मैथिली ब्लॉगक एग्रीगेटर) केर रूपमे इन्टरनेटपर  मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितक रूपमे विद्यमान अछि। ई मैथिलीक पहिल इंटरनेट पत्रिका थिक जकर नाम बादमे १ जनवरी २००८ सँ "विदेह" पड़लै।इंटरनेटपर मैथिलीक प्रथम उपस्थितिक यात्रा विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,जे http://www.videha.co.in/  पर ई प्रकाशित होइत अछि। आब “भालसरिक गाछ” जालवृत्त 'विदेह' ई-पत्रिकाक प्रवक्ताक संग मैथिली भाषाक जालवृत्तक एग्रीगेटरक रूपमे प्रयुक्त भऽ रहल अछि। विदेह ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA

Tuesday, September 01, 2009

पेटार २१

रमानन्द झा "रमण"
कुमार गंगानन्द सिंहक कथा संवेदना




कुमार गंगानन्द सिंहक कथायात्रा सन् 1924 सँ सन् 1965 ई0 धरि अछि। हिनक
पहिल कथा "मनुष्यक मोल" 1924 ई0 मे प्रकाशित भेल तँ अन्तिम कथा "पंच परमे•ार" 1956
ई0 मे। एकर अतिरिक्त "विवाह", "बिहाड़ि" "आमक गाछी" "पंडितपुत्र" एवं "अगिलही" कथा
छनि। "मनिष्यक मोल" तथा "विवाह" कें

डा0 जयकान्त मिश्र एवं डा0 श्रीश भोलक रचना मानल अछि। डा0 मिश्र स्पष्टतः लिखने
छथि:- एण्दृथ्ठ्ठ ख्ण्ठ्ठ द्मण्दृध्र्द्म ठ्ठ डड्ढद्यद्यड्ढद्ध थ्र्दृद्यत्ध्ठ्ठद्यत्दृद दृढ ण्त्द्म द्रथ्दृद्यद्म. क्तत्द्म द्यध्र्दृ द्रद्वडथ्त्द्मण्ड्ढड्ड
द्मण्दृद्धद्य द्मद्यदृद्धत्ड्ढद्म ठ्ठद्धड्ढ "मनुष्यक मोल एवं "विवाह" परन्तु कालान्तर मे ई प्रमाणित भए गेल अछि
जे कुमार गंगानन्द सिंह भोल'क उपनामे ई दूनू रचना कएने छलाह।



दैनिक जीवनमे प्राप्त अनुभवक संग वौद्धिकताक समावेश कएला पर अनुभूतिक स्थिति
अबैछ। अनुभूतिक अभिव्यक्तिमे सत्यक सम्प्रेषण रहैछ। सत्यक सम्प्रेषणमे जीवन आ परिवेशक
यथार्थ व्यंजित रहैछ। जीवन आ परिवेशक इएह अभिव्यक्ति साहित्यक महान धरोहरि, काल
प्रवाहमे प्रमाणित भए जाइछ। जाहि यथार्थमे जीवनक यथार्थ आ अपन जीवन्त परिवेशक
जीवन्तता नहि रहैछ, समसामयिक चेतनाक निरन्तर प्रतिध्वनित होमएवाला संघनात्मक
गुणात्मकता नहि रहैछ, ओहि सँ रचनाक अपन आकर्षण आ गुणवता क्रमशः समाप्त होइत
जाइछ। एहि कोटिक रचनामे अपना अपना समय-परिवेशक इतिहास अवश्य रहैछ। परंच ओ
इतिहास बदलैत युगमे सान्दर्भिक महत्व सँ च्यूत भए जाइछ। कुमार गंगानन्द सिंहक रचनाक
आरम्भिक कालमे देशमे स्वाधीनता संग्रामक आगि प्रखरतर छल। कुमार साहेब राजनीतिसँ
सम्बद्ध छलाह। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीक नेतृत्वक प्रति सतर्क छलाह। ओहि समयक कालधर्म
छल जे लक्ष्य सिद्धि हेतु साहित्यक रचना कएल जाए। देश वा समाजक हित हेतु अनेको
प्रकारक नियम छल, आत्म संयम छल, कतेको कार्यक्रम छल। कार्यक्रमक कोनो सूत्र कें पकड़ि
कएल गेल रचनामे प्रचारात्मक कलात्मकता रहैछ। एहि प्रचारात्मक कलात्मकतामे युगकथार्थक
परिवेशक जीवन्तता आ दलित शोषितक ह्मदयक स्पन्दनक बदलामे अपन सम्प्रदायक मत
स्थापनाक प्रयास होइछ। ओ मत स्थापन आदर्शपरक भए जाइछ।



ओलोच्य कथाकारक रचना क अध्ययन विश्लेषणसँ स्पष्ट होइछ जे हिनक कथा
लक्ष्यमूलक अछि। प्रत्येक कथाक रचना लक्ष्य प्रतिपादन लेल भेल अछि। सर्वप्रथम लक्ष्य स्थिर
भेल, पुनः कथानक, घटना आ चरित्रक तानी-भरनी चलल अछि।



कुमार गंगानन्द सिंहक (1898-1970) प्रायः सभ कथा सामाजिक सुधारमूलक अछि।
राजा राममोहन रायसँ समाजक कलुषकें दूर करबाक जे प्रक्रिय चलल, महान उपन्यासकार
शरच्चन्द्र जाहि सामाजिक विकृतिकँ अपन रचनाक आत्मा बनाओल, समाजक विभिन्न अंग-
उपांग आ स्थितिक उद्घाटनसँ समाजक नव संस्कार करबामे सफल भेलाह, ओही भावभूमिपर
कुमार साहेब कथा लिखल। मनुष्यक मोल एवं विवाह वैवाहिक कुरीति कें प्रकट करैछ तँ
विहाड़ि अछूतोद्धार आन्दोलन कें लए कए लिखल गेल अछि। पंडितपुत्र क माध्यमे सत्य कार्यक
सुफल समक्ष आएल अछि। पूर्वहि लिखल अछि जे कुमार गंगानन्द सिंहक प्रवेश देशक


राजनीतिओ मे छलाह अपन किछु मान्यता छलनि। हुनक ई दृष्टि सामाजिक कल्पनाक
परिवत्र्तन शीर्षक निबन्धमे स्पष्ट भेल अछि। समाजक निर्माण खातिर तीन टा उपाय समक्ष
राखल अछि:- (1) स्वतन्त्र सद्विचार द्वारा सिद्धान्त तथा नीति निर्णय करब, (2) ओहि नीति
तथा सिद्धान्तपर काज कए दृष्टान्त बनब तथा (3) साहित्य तथा सद्व्याख्यान द्वारा नवीन नीति
आ सिद्धान्तक प्रचार करब। एही मान्यताक अभिव्यक्ति 'पंच परमे•ार' कथामे भेल अछि।



देशक सक्रिय राजनीतिमे प्रवेशी कुमार गंगानन्द सिंहक रचनाकारसँ ई अपेक्षा कएल
जाइछ जे ओ अपन राजनीतिक दृष्टिकोणक परिचय देथि। किन्तु से नहि भेल अछि। जाहि
प्रकारें ओ देशक सक्रिय राजनीतिमे छलाह तकर सम्यक् अनुगुंज हिनक कोनो कथामे नहि
अछि। परतंत्र भारतमे काहि कटैत, किंवा विदेशी सन्ताक क्रूरपाश मे आवद्ध, दमन-चक्रमे
फँसल, स्वतंत्रताकामी भारतवासीक मनः स्थितिक संकेतोधरि हिनक रचनामे नहि भेटैछ। हिनक
एकोटा चरित्र निर्माण एहन नहि अछि जे अमर कथाकार प्रेमचन्दक कतेको

कथानायक जकाँ स्वतंत्रता संग्राममे सम्मुख आबय। तात्पर्य जे आलोच्य कथाकारक
कथासाहित्यमे राजनीतिक चेतनाक सर्वथा अभाव अछि। संभव थिक जे हिनक सामंती संस्कार
किंवा तात्कालिक सामन्तवर्गक विदेशी सत्ताक प्रति नतमस्तक बनल रहबाक प्रवृति, बाधक भेल
होनि। आ, तें ओ अपन रचनात्मक संवेदनाक उपयोग सामाजिक कथा लिखि कए लैत छलाह।
स्वाधीनताक पूर्व विदेशी सत्ताक स्थानपर स्वदेशी शासनक स्थापना हेतु, किछु वर्गकें छोड़ि,
प्रबल संघर्ष छल। स्वाधीन भारतमे संभव छलैक जे पराधीन भारतक सुविधाभोगी वर्ग सुविधा
च्यूत भए जाए। किन्तु सामाजिक अथवा राजनीतिक सुविधा परिवर्तन सूर्योदय-सूर्यास्तक घटना
नहि थिक। अतएव, नव संविधान लागू भेलापर शोषित आ प्रताड़ित वर्ग लेल कतेको प्रकारक
सुविधाक प्रावधान भेल। कतेकोक सुविधा कपचल जएबाक स्थिति सेहो आबि गेल। एहिसँ
समाजक दू वर्ग-सुविधा भोगी आ सुविधा पयबालेल लालायित वर्गमे मूल्यगत संघर्ष असंभावी
छल। जँकि, सुविधा भोगी वर्गक हाथमे जोड़-घटावक क्षमता छलैक, तें ओ चाहलक जे समाज
मे यथास्थिति बनल रहय। कुमार गंगानन्द सिंह एहिसँ उपर नहि छलाह। हुनक
यथास्थितिवादी दृष्टि पंच परमे•ार कथामे आबि स्पष्ट भए गेल अछि। जे अमलदारीसँ चलि
आबि रहल अछि, ओहिमे व्यक्तित्वक्रम अधलाह थिक। ओहिमे खोर कएलापर समाजमे अशान्ति
मचि जाएत, कलह होएत से कुमार गंगानन्द सिंह मानैत छथि। "ग्राम सरकार कें उचित नहि
थिकैक जे अकारण ककरो आमोद-प्रमोद मे व्याघात करैक।" (पंच परमे•ार) अर्थात् ई सभ जे
राजा, सामान्त आ जमीन्दार, सामाजिक सम्पतिक उपयोग आमोद-प्रमोद निमित करैत छलाह,
से स्वाधीनताक वादो ओहिना करैत रहथु। संगहि, समाजमे शान्ति व्यवस्था लेल आवश्यक
समाजक सूत्र ओही वर्गक हाथमे रहय। पंच परमे•ार क घूटर झा आ मूटर झा द्वारा सामाजिक
सम्पतिक व्यक्तिगत स्वार्थ लेल उपयोग, ग्राम रक्षादलक प्रतिरोध, ग्राम पंचायतक सरपंच द्वारा
दूनू पक्षमे निर्णय आदि सामन्तीय संस्कार क प्रतिफल थिक। समाजक गनल-गूथल सुविधा
भोगीक अपरिमित स्वार्थ-प्रसार, एक आध भजार द्वारा समाजक लूटि, एवं माइनजनक संग वा
बटबाराक संग वहुसंख्यकक सुख-सुविधा आ आशा-आकांक्षाक प्रति साकांक्ष, एही खातिर नहि
रहब जे यथास्थितिकें समाप्त कएला पर समाजमे अशान्ति मचि जाएत, असंगत आ सामंती
चिन्तन धाराक सर्वथा अनुकूल अछि।




आलोच्य कथा सभमे समाज मे प्रचलित विविध संस्कार दिस ध्यान विशेष केन्द्रित
अछि। वाल-विवाह, अनमेल विवाह अथवा बहु-विवाह जन्य दुर्गुण पर प्रकाश अछि। परंच जखन
अछूतोद्वार आन्दोलनक आधार पर कथा लिखैत छथितँ पुनः कथाकारक कुलीन सामंतीय
संस्कार आरूढ़ भए जाइछ। परिणामतः बिहाड़ि महात्मा गाँधीक हरिजन-कल्याण आ अछूतोद्धार
पर आधारित रहितो विहाड़ि अनबामे असमर्थ अछि। ओ बिहाड़ि अथवा सामाजिक क्रान्ति नहि
थिक जे महात्मा गाँधी आनल। ओ जकरा हरिजन कहल, जकरा समाजमे अछूत देखि,
सामाजिक प्रतिष्ठा लेल प्रयास कएल, ओतय धरि कुमार साहेब नहि पहुँचि सकलाह अछि।
बदलामे ओ समाजक ओहिवर्ग द्वारा हड़ताल कराओल, जकर पानि पहिनहिसँ चलैत छलैक।
जे बाबू भैयाक बेगारी कए अपन जीवन गुजर करैत छल, कुमार गंगानन्द सिंह ओहि वर्गकें
तेरहा कराय युगक आदर्शो प्रस्तुत नहि कए सकलाह अछि। डा0 शैलेन्द्र मोहन झाक मान्यता
छनि जे पण्डित पुत्र मे शिक्षाक वत्र्तमान उद्देश्य पर मार्मिक व्यंग्य अछि। हमरा मते से तथ्यपूर्ण
नहि अछि। कथाकारक एक मात्र लक्ष्य छनि इमनदारीक फल देखाएब। एही हेतु सुन्दर झाक
जन्म होइछ, "घोखन्त विद्या" मे मन नहि लगैत छनि। ओ कतकत्ता पड़ा जाइत छथि। ट्राफिक
पुलिसक नौकरी पाबि धन संचय करैत छथि। एहि कोटिक युगक यथार्थ नहि अछि। युगक
यथार्थ छल स्वाधीनता संग्राम, युगक यथार्थ छल हरिजन उद्धार, युगक यथार्थ छल लोक
तांत्रिक शक्तिक प्रतिष्ठा, से सभ हिनक कथामे नहि अछि।



कुमार गंगानन्द सिंह अपन युगक यथार्थकें अभिव्यक्त कएल वा नहि ई भिन्न वात, किन्तु
एकटा धरि सत्य आ यथार्थ अछि जे ओ उपाख्यान लिखबाक परिपाटी कें तोड़ल। कथा वस्तु
कोनो पुरान अथवा धार्मिक

ग्रन्थसँ नहि उठाय, अपन समसामयिक परिवेशसँ लेल। देशमे समाज सुधारक आएल बाढ़ि सँ
अपन कथावस्तुक चयन कएल। उपाख्यान शैलीमे कथाक माध्यमसँ उपदेश देबाक परिपाटीक
स्थान पर अपनहि वीचक समाजक कलुष पर प्रहार कएल। ई कुमार गंगानन्द सिंहक कथाक
वैशिष्ठ्य थिक।



आलोच्य कथाकारक कथामे पुरुष पात्रक अपेक्षा, स्त्री पात्रक संख्या कम अछि।
स्त्रीपात्र मे प्रमुख मनोरमा (मनुष्यक मोल) रमा, कृष्मकान्तक माय, मनचनियाक माय (विवाह),
चपला (अगिलही) तथा पुरुष पात्रमे प्रमुख छथि हर्षनाथ (मनुष्यक मोल), चुम्बे, भागवत, आ
कृष्णकान्त (विवाह) द्वारिका, लुटकून बाबू (विहाड़ि) क अतिरिक्त अनेक गौण पात्र पंडितजी,
सुन्दर झा, सोमनाथ (पंडितपुत्र) घूटर-मूटर (पंच परमे•ार), मुसाई झा (आमक गाछी)।



मनोरमा (मनुष्यक मोल) तथाकथिन कुलीन ब्रााहृणक विकायलि कन्या छथि। शुद्ध-शिद्ध
लिखबाक योग्यता नहि छनि। सासुरक आर्थिक दुःस्थिति, पतिक नौकरीक हेतु कलकत्ता प्रवास,
सासु-ससुर द्वारा विदागरी तथा नैहरक अत्याचार, वाल विधवा कें आत्महत्या करबा लेल विवश
कए दैछ। रमा (विवाह) अपन जीवनक कटु अनुभव क प्रसंग विना एको शब्द बजने शान्त भए
जाइछ। कृष्णकान्तक माय आ मनचनियाक मायक चरित्र निर्माणमे कथाकारक कौशल टपकैछ।
कृष्णकान्तक माय एक टिपिकल सासुक रूपमे चित्रित छथि। हिनक प्रत्येक शब्दमे आत्म
प्रदर्शन आ समधिऔनक उपेक्षा ध्वनित छनि। भाइक अएबाक समाद पाबि पुतहु आनन्दित


होइछ किन्तु कृष्णकान्तक माय लोहछि उठैछ। पुतहुक नैहरिक खवासिनीओ कें नहि छोड़ैछ
"अयँ खवासिनी अरे धैर्य करू, एना नाचय की लगलहुँ? अहाँक बाबू की भैया अएलाह हे, तँ
की आब नटुआ मंगाउ? "मनचनियाक माय" कथाक-गौण पात्र अछि। किन्तु चरित्र प्रभावक
छैक। एक दिस जँ एकरामे ममता छैक तँ दोसर दिस प्रतिकार करबाक तत्परता सेहो छैक।
रमा पर लोहछल सासुकें देखि ओ कहैछ-"तमसाउ जुनि ओझाइन। हमहूँ लागि दैत छियनि,
तरकारी कटैत कोन देरी होएतैक?" अगिलहीक चपला वस्तुतः चपला थिकथि। चपलाक बाल
सुलभ चंचलता, नव वस्तु जनबाक उस्तुकतासँ चपलाक गुलाब मामा नाकोदम्म भए जाइत
छथि। पंडित पुत्र क पंडिताइन अशिक्षित माताक प्रतिनिधि छथि। सदिखन पुत्र आँखिक समक्षे
रहथि, सएह कामना छनि। "भगवान करथु जे एहुना भरि आँखि देखैत रहियैन। सब की पंडित
होइते छैक?"



कृष्णकान्त (विवाह) आ द्वारिका (विहाड़ि) क चरित्रमे कोनो गुणात्मक भेद नहि छैक।
दुनू कथा नायक समाजमे सुधारक पक्षपाती अछि, परंच समाजक मोकाबिला करबाक साहस
नहि छैक। कृष्णकान्त स्वीकारैछ-"हम वाल विवाहक विरोधी एखनहुँ छी कनेको कम नहि,
परन्तु एकसर की करू? आ "बिहाड़िक" द्वारिका समाजमे सुधारक आगि सुनगा ब्रााहृण वर्ग
द्वारा वारल गेलापर सिमरिया वास कए लैछ। कृष्णकान्त जतय वाल विवाहिक फल भोगि,
प्रायश्चित स्वरूप आत्महत्या कए लैछ, ततहि 'विहाड़ि' मे सुधारक आगि प्रज्जलित भेला पर
द्वारिकाकें आदर सत्कार भेटैछ। एहि दूनू कथामे कथाकारक जीवन दृष्टि निराशासँ आशा दिस
बढ़ल अछि, से स्पष्ट भए जाइछ।



कुमार गंगानन्द सिंहक कथाक फलक पैघ छनि। एहिसँ कथा सभ इतिवृत्तात्मक भए
गेल छनि। ई इतिवृतात्मकता कथाक तानी-भरनीकें फलका देलक अछि। जाहि कथाक आरम्भ
नाटकीय ढंग सँ कएने छथि एक पैघ कालखण्डक होएबाक कारणें प्रभाव छितरा गेल अछि।
शान्त पोखरि मे ढेप फेकला सँ उठल पानिक हिलकोर जकाँ विवाह कथा आरम्भ होइछ।
वातावरण निष्क्रिय छल, झटकासँ तोड़ि भगवतकें धकेलि वातावरण गतिशील बना देल जाइछ।
मुदाः पैघ कालखण्डक इतिवृति रहलाक कारणें अनेको मोड़ कथामे आबि गेले अछि। यथा,
भागवत द्वारा चुम्बेकें धकेलब, कृष्णकान्तक गारि सूनि अकवकाएब, सासुरक रंगल धोतीक प्रति
मोहक भत्र्सना, सासुरक हाल चाल सुनबा लेल आग्रह, चुम्बे द्वारा चारि विवाहक
रहस्योद्घाटन, बाल विवाहक

विरोधी कृष्णकान्त द्वारा समाजक डरें बाल-विवाहक जालमे फँसब, रमाकें कल्याणक योग्यताक
खबरि पाबि तीन वर्षक बाद नैहरक खोज-पूछारी, कृष्णकान्तक सारक एकसरे घूमब, मृत
बालकक जन्म, यथायोग्य चिकित्सा कएलो पर रमाक देहान्त, कृष्णकान्त द्वारा अपन दोष
कबूल करब, लोकक व्यवहारमे अन्तर आ आत्महत्या, कथामे ततेक मोड़ आएल अछि जाहिसँ
पाठक लेल किछु शेष नहि रहैछ।



बिहाड़ि कथा वाँचल जाइछ। तथा-'अपना गाम मे द्वारिका फनैत कहबैत छलाह'। वीच
मे वार्तालाप मे नाटकीयता सेहो अछि। कथाक कालखण्ड पैघ रहलाक कारणें कथाक तन्तुवाय


फलकि गेल अछि। आ तखन कथाक रचनात्मक शैथिल्यक कारणे बिहाड़ि कथा झूस भए
जाइछ।



पंडितपुत्र सेहो "एकटा पंडित रहथि" सँ आरम्भ होइछ। सुन्दर ढंगे कथा ससरैछ।
घात-प्रतिघात होइछ। कुतूहल बढ़ैछ। परंच पंडितजीक दुर्घनाक बाद सुन्दर झा द्वारा अपन
विगत वर्षक इतिवृतिक वखान कथाक चुसती कें समाप्त कए दैछ। बीच-बीचमे कथाकारक
लक्ष्य सेहो खोंसल लगैछ।



पंच परमे•ार कथा इतिवृत्तात्मक होइतहु एक छोट घटना पर चतरल अचि। अन्य
कथाक अपेक्षा तन्तुवाय गस्सल छैक। कथाक वातावरण आ कथोपकथन पाठकें आकर्षित कएने
रहैछ। "आमक गाछी" आलोच्य कथाकारक सभसँ छोट आ चुस्त कथा अछि। एहिमे
अनावश्यक मोड़ नहि छैक। कथोपकथन द्वारा वातावरण निर्माण भेल अछि। अन्त एक रहस्यक
संग होइछ जे पाठक क लेल किछु छोड़ि जाइछ। पाठकें सोचबालेल बिलमय पड़ैछ। आन
कथा जकाँ पाठकक हाथमे शून्य नहि बचैछ।



कुमार गंगानन्द सिंहक कथाक भाषा सरल आ विनोदपूर्ण अछि। भाषा सरल होएबाक
इहो कारण भए सकैछ जे कथा वस्तु अपनहि वीचक अछि। तें लोक भाषाक प्रयोग अछि।
अन्यदेशी लोक रहैत अथवा पुराणसभक पात्र रहैत तँ संभव थिक जे तदनुरूपे शब्दक प्रयोग
भेल रहैत। विवाह मे प्रयुक्त भाषाक बानगी प्रस्तुत अछि-"तखन हम जे नीक बुझैत छी से
लोककें कहबे करबैक, सैह ने हमर साध्य अछि। मानबाक विषयतें लोकक सामाजिक इच्छा पर
निर्भर करैछ। करैक बेरमे तँ जेहे दस करवाणि सेहे हमहु करवाणि।" एहिठाम "करवाणि"
शब्दक प्रयोग सटीक आ विनोदपूर्ण अछि। विहाड़ि कथामे पूर्वसँ कमा कए आएल रौदी
कामातिक काहे-कुहे बाजब "भाइयो ऐसे गोंगों करने से कुछ नहि होगा। हमको डर भर किसी
का नहीं है"-जँ एक दिस निम्न वर्गमे आएल आत्म सम्मान आ साहसक स्थितिकें प्रकट करैछ
तँ दोसर दिस अशिक्षित पर अन्य भाषाक प्रभाव कोना पड़ैछ से देखा कए कथाकार कथाक
विनोदपूर्ण अंत कएल अछि।



मि0 मि0 24-10-1976







कवी•ारी हरिलताक वैष्णवता



कवी•ारी हरिलता पं0 श्रीकृष्ण ठाकुरक दौहित्री, लालगंज निवासी पं0 श्री हेमपति झा
क जेठि कन्या तथा कविवर श्यामानन्द झाक अग्रजा छथि। हिनक जन्म सन 1390 साल
(1903 ई0) क भादव मे भेल। मात्र चारि वर्षक अवस्थाहिमे हिनक परिणिय राघवपुर डेउढ़ी
(सकरी, दरभंगा)क बाबू यदुनन्दन सिंहक पुत्र बाबू हरिनन्दन सिंह सँ भेल तथा ओही दिनसँ


नैहर छोड़ि सासुर बसय लगलीह। पति उन्माद रोगसँ पीड़ित

भए स्वर्गवासी भए गेलथिन्ह जखन हिनक अवस्था बड़ कम छल। हिनक एक सन्तान बाबू श्री
कृष्णनन्दन सिंह छथि। कवी•ारी हरिलताक प्रसंग श्रीमति अरुन्धती देवी लिखने छथि-"ई
स्वामीक शुश्रुषा बहुत तत्परतासँ करैत ग्रन्थक अध्यवसायमे अपन जीवन बितबैत छलीहि। स्वामी
ओ •ासुरक स्वर्गवासक बाद जमीन्दारीक कार्य सम्पादन बहुत चतुरतासँ कए रहल छथि।
हिनक कविता बहुत सुन्दर होइत अछि। श्रुति मधुरता ओ रस प्रचुरता हिनक कवितामे भेटैत
अछि। वि•ास्त सूत्रसॅ पता लागल अछि हिनक बनाओल गीतसभ शीघ्र काशीसँ प्रकाशित
होएत"।1



कवी•ारी हरिलताक टू टा गीत संग्रह-"भजनमालिका"क प्रकाशन 1937 ई0 क
लगपासमे भेल। तकरबाद लिखल गेल गीत सभ अप्ककाशित अछि। वादमे ओ हरिलता नामकें
छोड़ि मोदवतीक नामे भजन लिखय लगलीह। 'हरिनन्दन सिंह स्मारक निधि'क स्थापनाक
पृष्ठभूमि मे हिनकहि साहित्य साधना अछि।



हरिलता नैहरक सुखसँ वंचित छलीहे सासुरक सुखसँ सेहो वंचित भए गेलीह। एहि
सभसँ हिनक ध्यान ई•ारक दिस उन्मुख भए गेल। कातर भावे प्रार्थना करय लगलीह। भावना
छलनि, किन्तु अक्षर ज्ञान नहि छल। ओहि समय मे स्त्रीगण लेल पढ़ब निषिद्ध छलैक। तथापि
सासु आदिसँ चोरा कए अक्षर सिखलनि। एहि काज मे देवानजी लोकनि सहायक भेलथिन्ह।
ओ लोकनि छोट-छोट पोथी पहुँचवा देथिन्ह अध्यवसायक वले अक्षर ज्ञानसँ शास्त्र पुरान,
कर्मकाण्डक गंभीर अध्ययन धरि कए लेलनि। महान साधिका कवी•ारी हरिलताक देहावसना
12 सिनम्बर 1985 ई0 भए गेल।



ओना तँ मिथिला आदिए कालसँ सर्वदेवोपासक भए अपन धार्मिक सहिश्णुताक परिचय
दैत रहल अछि। परंच ई•ारक कोनो-कोनो स्वरूपक प्रति व्यक्ति विशेषक आस्था विशेष भए
जाइत अछि। कवि कोकिल विद्यापति जखन गबैत छथि। "कज्जल रूप तुअ काली कहिओ,
उज्जवलरूप तुअ वाणी" आदि तँ मिथिलाक ओही सांस्कृतिक उत्कर्षक स्वर बाजि उठैत अछि।
ओहिना कवियित्री मोदवतीक गीत साहित्यमे विभिन्न देवी-देवता आ अवतारक प्रति निवेदित
हुनक गीत सर्वदेवोपासनाकें व्यक्त करैत अछि। यथा-



गणेशक प्रति : "जय जय गणपति शुभकारी

शम्भु सुवण अरुण, वदन लालमालधारी"।

सुरसरिताक प्रति : "पद्मा •ोत पद्म दल वासिनी •ोताम्बर

जननी विमले।"

शिवक प्रति : "शिवशिव सुमिरहु मन अविनाशी।"

भगवतीक प्रति : "सुवरण सरिस शरीर सरित पति

तनया जय जगदम्बे।

श्रीरामक प्रति : "मनसोचत सब अनुखन सखिहे


राम आजु नहि आये।"



परंच, पतिक विक्षीप्तता आ वैधव्यक यातना मोदवतीक भक्ति कें लीला नटवर वृन्दा
विपिन बिहारी श्री कृष्णक प्रति अत्यन्त उन्मुख कए देलक, जाहि मे कवियित्रीक प्रगाढ़ भक्ति,
अनुराग, समर्पण आ ह्मदयक तादात्म्य परिलक्षित होइछ।



ई•ारक मूलरूप निर्गुण, निराकार, सर्वकालिक अछि, ई अमात्य नहि, परंच एहि रूपक
प्राप्ति सर्वसुलभो नहि, सेहो अमान्य नहि भए सकैछ। तें सहज-सुलभ भक्ति मार्ग, ई•ार कें
संसारक कल्याणक हेतु

अवतार ग्रहण करैत मानल अछि, जे भक्त कवियित्री मोदवती स्पष्टतः उद्धोष करैत छथि :-



"पतित-तरण तुआ नाम कन्हाई।

भक्त हेतु नर देह धरत महि, महिमा ध्रुवहि देखाई।"

एवं ओ आदि पुरुष ठुमकैत छथि, किलकैत छथि :-

"ठुमुक ठुमुक पगु उठल मृदुल-गति, बाजत नूपुर मन मोहित पुरन्दर।"

तथा भक्त एहि रूपक स्मरण-भजन करैछ, कारण भक्त कें वि•ाास रहैछ-भक्ति आ प्रेमक
बिना मुक्ति सम्भव नहि :-

"विना प्रेम औ भक्ति मुक्ति नहि, मोद भजहु घनश्याम"

तथापि मूलरूप मे ई•ार कें निराकार, निर्गुण मानिते अछि :-

"देखु सखि ! विपिन मारग मे

निर्गुण ब्राहृ सगुण बनि आयल, जपत रजाहि शिव नाम।"

वैष्णव भक्ति मे भक्तिक छओ अंग तथा सात भूमिका मानल गेल अछि। एहि छओ अंग
आ सातो भूमिकाक तीक्षण मानदण्ड पर सफल भेले पर भक्त कें पूर्ण मानल जाइछ। मोदवतीक
गीत मे भक्तिक छओ अंग आ सातो भूमिका सर्वसुलभ अछि।

(1) आनुकूल्य-संकल्प-भक्त सब प्रकारें अपन आराध्य देवक प्रति अनुकूल बनल रहबाक
संकल्प करैछ :-

"रे मन हरि गुन गाबहु ना

निरमाओल जे एहि काया कें विसरि देल तेहि ना।"

(2) प्रातिकूल्य वर्जन- भक्त ई•ारक इच्छाक प्रतिकूल किछु नहि करबाक शपथ लैछ आ
तें मोदवती एहि भवजाल सँ बचवा लेल वृन्दावन जएबाक तैयारी करैत छथि, कारण ओहि ठाम
ई•ारक प्रतिकूल किछु नहि अछि-

"चलू मन ! वृन्दावन सुख धाम।

जतै न मन दुख ताप सतावत मिलत मुरति अभिराम।"

(3) रक्षणवि•ाास-भक्त कें अपना भक्ति पर वि•ाास रहैछ जे आराध्य देव रक्षा अवश्य
करताह, दुःख सँ उवारि मुक्ति अवश्य देताह, कारण ओ अन्यो भक्त कें भवजाल सँ उबारि
देलनि अछि-


"खेबि लगावहु पार हो प्रभु।

केशव कृष्ण हरे मधुसूदन, सुनहु करुण पुकार।

अघ मोचन हरि नाम जगत भरि, आयल सूनि दरबार।

द्रुपद सुता सभा महि टेरल बढ़ल चीर अपार।

ग्राह-ग्रसित-गज टेरि सुनत ब्राभु, पैरहि आबि उबार।

कतै जाउ तुअ चरण कमल तजि, नाथ भसल मझधार।

क्षमहु मोद अनाथ नाथ हो, करहु कृपा करतार।"

(4) गोप्तृत्व वरण : भक्त कें अपन भक्ति पर वि•ाास रहैछ आ तें ओ मात्र अपन
आराध्य देव कें मुक्ति दाता तथा उद्धारक मानैछ-

"कहहि द्रौपदी विलखि नाथ अब हेरो।

अन्ध तनय अति पतित कुमति मति, नग्न करै तन मेरो।"

"हरि बिनु हमर हरत के पीर"।

(5) आत्मनिक्षेप-भक्त ई•ारक चरण कमल पर आत्म समर्पण कए दैछ :-

गहल चरण हम तोहर प्रभु हो।

सूनि विरद आबि करुणामय, सुनहुँ जगत बिहारी।

मोर पंख सन माल विराजै, पीताम्बर तनधारी।

ग्वाल बाल संग धेनु चराबै, व-न्दा विपिन विहारी।

इन्द्रमान हरल हरि पल मे, गोवद्र्धन नख धारी।

धरहु हाथ आब मोद केर, मोहन मुरली धारी।।"

(6) कार्पण्य-सदिखन भगवानक समक्ष दीनताक भाव प्रकट करब-

"कबहु न नाम लेल करुणामय, मोह पयोधि भुलाय।

क्षमहु दोष अब मोर दयामय, मोद चरण लेपटाय।।"

एहिना भक्तिक सातो भूमिका मोदवतीक गीत मे सहज उपलब्ध अछि



1, दीनता-अपना कें सब प्रकारें तुच्छ मानब :-

"विनय करत कर जोरि क्षमहु प्रभु।

दोष करै कत मोद कुमति नर।"

2. मानमर्षता-सब प्रकारें अभिमान त्यागि प्रभुक शरण मे आएब :-

(क) "हमरि वेरि विरत किये प्रभु, कहहु करुणा मय की कारण?

मोद आरत चरण भावत, सुनहु दुःख मोर पतित पावन।।"

(ख) "जपब नित नाम गिरधारी

बिनु गिरिधर रैन चैन नहि, नयन नीर वह भारी।।"

3. भत्र्सना-पछिला काज पर नजरि फेरि मन कें शासित करब तथा अपकर्मसँ निवारब
:-

"जानि अधम मोहि पुरुष उत्तम तिमि परिचय जनु विसराये।।

गिद्ध अजामिल वार-वधु कें पल मे प्रभु अपनाये।।"


4. भयदर्शन-माया मोह मे फँसला सँ उत्पन्न अधर्मक भय देखा कए मन कें शासित
करब-

"माया झूठ छारु अपनो भजु, निसि दिन राधा श्याम।

महिमा मोद वखानहु केहि विधि, जाहि पद सुख विश्राम।।"

5. अनुशासन-भगवानक भक्त वत्सलता मे वि•ाास कए, मन कें दृढ़ आओर निश्चित
करब :-

(क) "हम त ध्यान धरल उर अन्तर

मोद जगत निधि तरिया।"

(ख) "जहनु सुता जेहि पद सँ निकसल, नाशक जे कलि मल केर।

ओही चरणक मोद शरण गरि धन्य भाग्य जीवन केर।"

6. मनोराज्य-भगवन द्वारा अपन इच्छा पूर्त्तिक आशा राखब :-

"छन-छन विपति मृत्यु आकुल। सहि ने सकै दुख भार।

करुणा करहु दयामय हरि हो, मोद उतरे भव-धार।"

7. विचारणा:- संसारक माया जाल पर तर्कपूर्वक विचारब तथा मनकें ओहि सँ विरक्त
कए ई•ारोन्मुख करब :-

"मोद चेतकर अबहु अधम मन,

की यम-यातना सहबे अछि?"

एहि प्रकार सँ कवियित्री मोदवती (हरिलता) एक सफल वैष्णव भक्त छथि, जनिक कृति
मे वैष्णव परम्पराक अनुराप ई•ारक निराकार रूप कें अप्राप्त मानि, सगुण रूपक आराधना
भेटैछ। आ ओ सगुण रूप कखनहु पलना मे झूलैत छथि तथा अंगना मे ठुमुकि चलैत छथि तँ
कखनहुँ वृन्दावन मे गाय चरबैत छथि आ बटमारिओ करैत छथि। भक्तिक दोसर पक्ष मे
भक्तवत्सल श्रीकृष्ण अपन भक्तजन कें भवसागर सँ त्राण दैत

छथि। असामाजिक तत्व कें निर्मूल कए, पृथ्वीक भार हल्लुक करैत छथि। अन्ततः भक्तिक
आधार पर जोखि कहल जा सकैछ जे मोदवती एक सफल वैष्णव भक्त छथि तथा हुनक कृति
मे वैष्णव परम्पराक अनुरूप भक्तिक अभिव्यक्तिक प्रच्छन्न अछि।



मथिली प्रकाश-सितम्बर 1972



.. .. .. ..



कविवर श्यामानन्द झाक काव्य-वस्तु



जरि जाय जें जजाते करिते पटाय की हो :- "सन आक्रोशमय अभिव्यक्ति कविक
अन्तरसँ एकाएक नहि फूटि पड़ल अछि। एहि आक्रोशक पाछाँ तात्कालिक परिवेशक कारुणिक
स्थिति छैक, जकरा देखि, युगसचेत कवि विह्वल भए उठल अछि। अपन चारूकातक
निम्नगामी प्रवृतिक अनवरत प्रसार-विस्तारकविक अन्तस्तल कें कंपित खए दैछ। एहि कंपना आ


भावावेगक प्रबल आघातक झंकार शब्दक माध्यम सँ अनुगुंजित भए उठैछ। कविक भावक
अनुगुंज मे ताक्तालिक परिस्थितिक संग देशक राजनीतिक, सामाजिक आ सांस्कृतिक पतनक
प्रतिबिम्ब वर्तमान अछि।



अंग्रेजी शासन-व्यवस्थाक कर्कश आ क्रूर पाश सँ मुक्ति पएबा लेल राष्ट्रपिता महात्मा
गांधीक नेतृत्व मे प्रयास शीर्ष पर छल। परंच, जनिका लग जन छलनि, धन छलनि, सकल
सामथ्र्य छलनि, असंबद्ध छलाह। फराक छलाह। ओहि सामंती व्यवस्था आ प्रवृतिक पोषक लेल
धन सन- "कोउ नृप होहिं हंमे का हानी।" कोनो हाहि नहि बेगरता नहि। स्वतंत्र भारतक
स्वच्छन्द वायु मे साँस लेबाक कोनो चिन्ता नहि। अपन भौतिक सुखक समक्ष अधम सँ अधम
काज स्वीकार छनि। ओहने काज करैत छलाह। जमीन बेचि, पत्नीक गहना बन्धक राखि,
चाह-पानक खर्चा जुटएबा मे कोनो प्रकारक संकोचक अनुभव नहि होइत छलनि। अलाय-बलाय
खर्च करबाक समय अपन नियमित स्त्रोतक कोनो ध्यान नहि छलनि। परंच राष्ट्रक नामे सूनि,
मुँह बिचका लैत छलाह। देश सेवा हित छदामो बाहर होएव दुर्लभ, कोताहीक सीमा नहि-देश
सेवा बेरि मे तँ सोम होथि छदाम लय, बन्धकी गहना रखै छथि पान-जरदा चाय पर।



देशक राजनीतिक परतंत्रता आ विदेशी शासकक गनल-गूथल लगुआ भगुआक हाथ मे
देशक समस्त पूंजी, धन-सम्पादक केन्द्रीकरण, सामान्य लोकक आर्थिक स्थिति कें बिगाड़ि
निर्धनता क सीमा कें टपि गेल। एक दिश लोक शान-शौकतक अपव्ययी जीवन जीबैत छल तँ
दोसर दिस अन्न-वस्त्र लेल लोक बेलल्ल। धनक अमानवीय वितरण आ अमानवीय प्रवृतिक
पराकाष्ठा सामाजिकता आ अपनैती कें गीरि गेल। समाज व्यक्तिगत सुख-सुविधा प्रधान भए
गेल। एक दिश अपन लगीची व्यक्तियो कें देखबाक, हुनका विषय मे सोचबाक, वसुधा कें
कुटुम्बवत् बूझबाक परिपाटी तँ, दोसर दिशि हिन्दीक आक्रमक आ विस्तारवादी नीति, एहि बीच
मैथिल आ मैथिली अस्तित्व रक्षार्थ संघर्षरत भए उठलीह, बाहरी आ भीतरी शत्रु सँ लड़ए
लगलीह। मैथिलीक स्वतंत्र अस्तित्व रक्षार्थ संघर्षक समय अंग्रेजिया मौन रहल, परंच अपनहि
आंगन मे मैथिली कें विलखैत देखि, आत्र्तनाद सूनि संस्कृतक पंडित लोकनि चुप्प नहि रहि
सकलाह, पंडित कमलनाथ चौधरीक शब्दक माध्यम सँ वैदेहीक आकुल शब्द फूटि पड़ल-



"वैदेही अकुलाय कहथि की हम अबला नारी

हिन्दी आनि बसावथि घर, से जे छथि गोप बिहारी।"2



अपन मातृभाषाक अवहेलना देखि, ओकर स्थान पर विदेशी भाषा कें किछु व्यक्ति द्वारा
अरिआतैत देखि, तात्कालिक समाज मे कतेक आक्रोश छलैक, अंग्रेजी आ हिन्दी क
प्रतिष्ठापकक प्रति कतेक घृणाक भाव छलैक, एहि कविता मे व्यक्त भेल अछि। ई प्रवृति आगू
बढ़ल। फड़ल फूलाएल। परिणामतः पंड़ित केदार नाथ झा "मोद" मे हिन्दीक विरोध मे
धारावाहिक रूपमे लिखल। पंडित यदुवर द्वारा 1923 ई0 कविता संकलन "मिथिला
गीताञ्जलिक" प्रकाशन मातृभाषा मैथिली कें विदेशी भाषाक प्रभाव सँ मुक्त रखबा लेल नितान्त
आवश्यक भए गेल। यदुवरक "देश जाति भाषा विषय धनिक ह्मदय शुचि प्रीति, सैह महापण्डित
वैह विशारद नीति।" तथा छेदी झा द्विजवरक "कहु जन्म नेने कियेक छी अहाँ औ, स्वभाषा


उपेक्षा सहै छी सदा औ।" कविता एही स्थितिक द्योतक थिक। पं0 गणे•ार झा "गणेश" (मृ0
16 नवम्बर 1979) एक डेग औरो आगू बढ़ि "मिथिला भाषा" शीर्षक कविता मे मिथिला जनपद
कें पूजनीय आ मैथिली भाषाकें नैसर्गिक मानैत अग्रिमो जन्म मे मिथिले मे जनमि मैथिली
बजबाक अभिलाषा करैत छथि-

"पूजनीया मिथिला जनपद काँ नैसर्गिक ई भाषा

जौं जनमी, पुनि मिथिला बाजी मिथिला भाषा।" 3



जाहि प्रकार सँ पुरुष वर्ममे मिथिला मैथिल आ मैथिलीक उत्थान निमित्त साहित्य
सर्जना होइत छल, नारीवर्ग मे यद्यपि किछु बिलम्ब सँ, स्व0 अरुन्धती देवी 'विदुषी महिला'
(संवत् 1933) मे आदिकाल सँ प्रकाशन वर्ष धरिक मिथिला क विदूषी लोकनिक व्यक्तित्व आ
कृतित्वक परिचय दैत नारी समाज मे जागरण अनबाक प्रयास कयलनि। एहने समाजोहयोगी
आ उद्बोधनात्मक साहित्यिक पृष्ठभूमि मे कविवर श्यामानन्द झा (1906-1949) ओहि विद्वान
आ धनिक पर, मिथिला आ मैथिली क दुर्दशा कें दूर करबा योग्य होइतहुँ, अंगेजी आ हिन्दीक
प्रति नतमस्तक रहबाक कारणे असमर्थ देखि, एकहिसंग आक्रोश आ व्यंग्य बाण छोड़ैत अबैत
छथि-

"मिथिला क दुर्दशा जँ नहि दूर कय सकी तँ

विद्वान ओ धनिक भए, बाते बनाय की हो।

अपना बुतयँ होअय जे, कय जाउ बेरि मे से

जरि जाय जँ जजाते करिते पटाय की हो।'

कविवर श्यामानन्द झाक काव्यक, साहित्यक समुचित अध्ययन विश्लेषणक लेल
आवश्यक अछि, उपलब्ध काव्यकें विभिन्न विषयक अन्तर्गत बाँटि, अध्ययन करब। प्रथमतः एकरा
दू कोटि में बाँटब उचित बूझैत छी-वस्तु पक्ष आ कला पक्ष। परंच, एहिठाम हमर इष्ट केवल
वस्तु पक्षक अध्ययन करबाक अछि, तें वस्तुपक्ष कें पुनः राष्ट्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक आ
व्यवाहारिक कोटि मे बाँटि अध्ययन विश्लेषण करबाक प्रयास करैत छी।



राष्ट्रीयता-कविवर झाक उपलब्ध काव्यक लेखन वा प्रकाशन तृतीय दशकक उत्तराद्र्ध
आ चतुर्थ दशकक पूर्वाद्र्ध छनि। ई समय परतंत्रताक पाश सँ पीड़ित जनता कें उन्मुक्त, निर्मल,
परंच उत्तरदायित्वपूर्ण वायु मे साँस लेबाक प्रयासक काल थिक। अतएव, ओहि समयक प्रत्येक
सजग, संवेदनशील, सर्जनकत्र्ताक लेल राष्ट्रीय चेतनामूलक साहित्यक सर्जना करब आवश्यक
आ वांछनीय छलैक। आन मनोभावना पेटक ज्वाला सँ झरकल व्यक्तिक मनोदशाक समक्ष नहि
टिकि सकल-

"छथि परम लगीची भाय जे बन्धुसंगी

जनिक छल सदासँ आशा सेहो न जाने

कियेक मुँह घुराबै देखि शीघ्रता सँ

सभक अछि गरीबी दुःखटा के धनि छी।'



देशक परतंत्रता, ओहि सँ उत्पन्न धनक अमानवीय विभाजन, शासकक लगुआ-भगुआ


द्वारा भारतीय संस्कृति, सभ्यता आ भाषाक आनादर-"अछि जे अपन भूषण वसन दुसि देथि
तकरा देखिकय, कान लेथि छिपाय झच विद्यापतिक शुभ नाम सँ", परंच, विदेशी संस्कृत
सभ्यता आ भाषाक आदर-"लोट-पोट रहैत टा अछि टोप ओ नेक टाय पर"-देखि कवि आहत
भए जाइछ। एक दिश जँ बाड़ीक पटुआ तीतक दृष्टिकोण सँ कवि दुखी छथि तँ दोसर दिशि
"टोप ओ नेकटाय"। बाहरी तड़क-भड़कक अनुशरण कत्र्तापर व्यंग्य सेहो करैत छथि। जाहि
व्यक्ति कें अपन भाषा, संस्कृति आ सभ्यताक प्रति कनेको आदरभाव नहि छनि, हुनकहि मुँहे
कवि सुनैत छथि-"कहि देथि बहुतो व्यक्ति अवनति भेल जाइछ देशमे"। मुदा पश्चिमाभिमुख
व्यक्तिकें अतेक अवकाश कहाँ छैक जे ओकर कारण आ उपाय पर कनेको ध्यान देथि-"किन्तु
समुचित रूप सँ नहि ध्यान देखि उपाय पर।"



राजनीतिक, सामाजिक आ सांस्कृतिक पृष्ठभूमि जकाँ कविवर श्यामानन्द झाक
साहित्यिक पृष्ठभूमि सेहो विशेष उत्साह वर्धक नहि छलनि। यद्यपि कवी•ार चन्दा झा (1830-
1907) "तिरहुत सन नहि दोसरा देश" देखलनि, दशकन्धपुरी मे मैथिली कें आक्रोश करैत
सुनलनि, परंच, ओ महावन मे सिंहक त्राणे डरायल छलीह। अंग्रेजी आ हिन्दीक बाढ़िसँ
भयभीत छलीह। फल स्पष्ट अछि मैथिलीक पत्रिकामे हिन्दी कें स्थान, मिथिलाक्षरक स्थान पर
देवनागरी लिपिक प्रचार-प्रसार पर बल दए मैथिली क स्वतंत्र अस्तित्व कें गीड़ि रजएबाक
षड्यंत्र। देवनागरी लिपिक माध्यम सँ मैथिली कें अधिक व्यापक, बोधगम्य, सर्वजनीन बनेबाक
स्वांग रचि, मैथिली कें उखारि फेंकबाक प्रपंच। अंग्रेजी शिक्षाक प्रचार-प्रसार पर बल आ
सरकारक खरखाह द्वारा ओकरे प्रश्रय भेटल छलैक। तैं-आवश्यक छलैक लोक मे साहस आ
उत्साह अनबाक, अपन प्राचीन मर्यादा, स्वर्णिम गरिमाक ध्यान देआय, पुनः उत्कर्ष प्राप्त
करबाक लेल उत्प्रेरित करब।



कविवर झाक कविता मे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्रामक चेतना गुंजित अछि। कवि मानैत
छथि-आर्थिक दुःस्थित परतंत्रताक मूल कारण थिक। जावत धरि समाज दुःखि रहत, अन्न
वस्त्रक कष्ट रहतैक लोक, केवल अपने धोधरि भरबाक चिन्ता राखत, समाजक कल्याण नहि
होएतैक। अतएव आवश्यक अछि जाबत धरि समाज दुःखी अछि, देश परतंत्र अछि, धनक
एकदिशाह संचय नहि हो। दोसर, ई जे जँ सभ क्यो मनेमन गुड़ चाउर फँकैत रहत, राष्ट्र
सेवाक निमित अपस्याँतो रहत, मुदा प्रयास मे एकसूत्रता नहि रहतैक, तारतम्य नहि औतैक,
स्वतंत्रता संग्राम मे विजय पएबाक संभावना कम भए जाएत। तैं समाजक प्रत्येक वर्गक लोक मे
एकसूत्रता अनबाक प्रयास कविताक माध्यम सँ कएलनि अछि :-



"दुःखी समाज अछि जा, बान्ही बखार ने ता

काने कटाय ली तँ कुण्डल गढ़ाय की हो।

थिक व्यर्थ देश सेवा यदि होय एकते ने

अद्धी न हाथ पर तँ बटुए सिआय की हो।

नहि कय स्वजाति सेवा, नेता बनी कथीलय।

यदि आँखि ने रहय तँ चश्मे चढ़ाय की हो।"


आगू बढ़ि कवि सूतल आ डरपोक कें ललकारैत छथि-7

"घस मोड़ि की पड़ल छी माता क दुख दिन मे

घरमे घसिक रही तँ पैघे कहाय की हो



"मैथिल सन्देश"क सम्पादकीय मे कविवर श्यामानन्द झा लिखैत छथि-"खेद थिक
अतीतक महान व्यक्ति अपन भाषाक साहित्यक दिशि कनडेरियो ध्यान नहि देलनि। आधुनिक
विद्वान छिः सैह बुझैत छथि, एहि भाषा मे रचना करब अभिमानक विरुद्ध छन्हि।" एहि सँ स्पष्ट
अछि कविक समसामयिक विद्वानवर्ग मे मातृभाषा मैथिलीक प्रति घृणा आ उपेक्षापूर्ण दृष्टि
छलनि। ई देखि युवा वर्ग क्षुब्ध छल, दुखी छल। आ प्रायः एहि दुःख आक्रोश आ क्षोभक
सम्मिलित प्रयास "मैथिली सन्देश मे" आनन्द झाक (1914-88) "दीन दशा मे आबि कनै अछि
भाषा अहाँक बेचारी, उठू मैथिल भाइ वियारी"। उमेशचन्द्र झाक-"जननी समुचित नहि थिक
देरी, देखू दीन दशा मिथिला केर होइछ अनेक अन्हेरी। चन्द्रकान्त मिश्र 'मिश्रोल'क-" भेल
सभठां जागृतिक संचार एहि संसार मे किन्तु मैथिल छी अहीं आलस क भण्डार मे।" देव चन्द्र
झा चंदिरक-"अहाँ हँस केर राजा घोड़सार मे पड़त छी, अहाँ सिंहसँ वलि भै, पिंजड़ा मे हा !
सड़ै छी।" वामदेव मिश्र विमल क-"उठू मैथिल युवक जागू बनाउ मौलि मिथिला के। हटाऊ
द्वेष घर-घर सँ बढ़ाउ मान मिथिला कें", काञ्चीनाथ झा किरणक-"निज देश भाषाक सेवा निरत
ईश, हँसइत किरणके शुभमय निलय हो।" काशीकान्त मिश्र 'मधुप'क-"मिथिलाक पूर्व गौरव
नहि ध्यान टा धरै छी, सूनि मैथिली सुभाषा बिनु आगिये जरै छी।" "मुकुन्द झाक" शुभद थिक,
युवक जनक उल्लास, सुनू मैथिल मिथिला भाषा केर करू कविताक विकास" वैद्यनाथ वैदेह
(यात्री)क-"जग मे सभ सौं पछुआयल छी, मैथिल गण, आबहु बढ़ू निज अवनति खाधक बाधिक
सँ, मिलि उन्नति शिखरक उपर चढू" जागरण गीतक संकलन प्रकाशित करेबाक प्रेरणा भेल।
मिथिला, मैथिल आ मैथिलीक सर्वांगीण उत्थान लेल अनेक जागरण-गीतक रचना ओ कएने
छथि। 'कतहु-फेरि मिथिलाक कोड़ मे सीताक उदय हो', कामनाक संग देश मे सुख-शान्ति
और समृद्धि निचय हो,' क कामना करैत देखैत छिअनि। मात्र कामने नहि, अपितु पथहीन,
पथच्युत मैथिल कें दिशा निर्देश करबाक प्रार्थना सेहो अछि-



"हे मैथिली करुणा करू पथहीन मैथिल भाय पर

मिथिलाक गौरव छल जते से आब अछि, डूबि जाय पर।"



कवि अपना कें व्यक्तिगत लाभ सँ सभ प्रकारें निर्लिप्त मोह मुक्त रखने छथि-"मैथिली
नहि अभिलाषा ई अछि वनी नृपति बसुधा मे'।



सामाजिक-कविवर श्यामानन्द झाक कविता मे तात्कालिक समाजिक चित्र भेटैछ। एक
दिस समाज मे गरीबी छैक, तँ दोसर दिस आभिजात्य संस्कार। दूनूक लोक सकपंज भेल
अछि। निर्धनता लोकक रुचि मे परिवत्र्तन नहि आनि सकैत अछि। नीक निकुत खएबाक,


पहिरबाक सौख गरीब कें नहि पूर्ण होइत छैक। तखन पूरा नहि भेला पर मानसिक कष्ट
होइछ। ओहिपर सँ जँ पैघ परिवार मे एक अर्जन कत्र्ता, बाँकी सभ भोक्ता हो तँ स्थितिक
भयंकरताक अनुमान सहजँ कएल जा सकैछ।



"पहिरथि नहि बौआ भोटिया काढ़ि, धोती

अपन प्रति कहु की देह ने देख लती

हुकुम न अङनहुँ कम्म देखि कनिको

दुःखक घर गरीबी, की कहु व्यर्थ बाबू- "भोजन वस्त्र आ रुचिक समस्याक अतिरिक्त
समाज मे आवासक सेहो समस्या अछि-



"घर न अछि कनेको ठीक चारो चुबैछै पहिरक ककरौ ने छैन्हि नुआ एकोटा

अपन थिति कहू की लागि भारी अबैय, विपत्ति क अंगना मे हा मरैले जिबैछी !"



सांस्कृतिक-अपन शिक्षा विषयक विचारात्मक निबंध 'शिक्षा' मे कविवर झा लिखैत छथि-
कुशिक्षा जन्य हमरा लोकनिक सभ्यता बहुत किछु भ्रष्ट भए गेल अछि। तथापि राजनीतिक
मुक्ति जखन भेल अछि तखन यादृश आर्थिक मुक्ति अवश्य भए आर्य संस्कृतिक जीर्णोद्धार होएत
ओ एकरे प्रभाव सँ पाश्चात्य तथाकथिन सभ्यताक रूप बदलत"-कविवर झाक निबंध आ रचना
संग्रह कें देखला पर आर्य संस्कृतिक प्रति हुनक मान्यता स्पष्ट भए जाइछ। आ लगैछ जेना
हिनक समस्त कृति अपन संस्कृति कें बचा रखबाक निमित्त हो। कविवर अपन रचनाक
माध्यमसँ सांस्कृतिक विशिष्टता, वैविध्य आ उच्चताकें उपस्थित कएल अछि। एहिठामक
संस्कृति मे धर्मक विशेष महत्व छैक। विपतीक समय, शत्रुक दमनक हेतु, विधर्मीक नाश हेतु
ई•ार विभिन्न रूपमे अवतार लए त्राण दैत छथि। शक्तिक उपासना होइछ। घर-घर मे
गोसाउनिक पूजा होइछ। प्रत्येक सांस्कृतिक आ मांगलिक अवसर पर देवी-देवताक गुण कथन
आ आराधन होइछ। "मैथिली गीत-चन्द्रिका' मे गोसाउनि आ दशावतारक अतिरिक्त दशो
महाविद्याक अराधना अछि, जे परतंत्र देश में शत्रु-दमन हेतु शक्तिक कामना थिक। दक्षिण
कालिका क आराधना करैत कवि कहैत छथि-



"जय करुणा करि दक्षिण देवी शारद शिशु शशि शेखर सेवी।

रिपु गिरहर भयानक भेषा घोर वदन पुनि फुजल केशा।

चाहि भुजा अति पीन उरोजे, सृकथल बहय असृक अति ओजे

नीरद नील वरन तनु भासे दन्तुरदन्त मधुमुख हासे

दिशावसन लस शिव शव वासे चहु दिश फेरब खपरकाते

तीन नयन शव टुइ लस काने अरिकर निकर ललित परिधाने।

अभयवरद दक्षिण कर शोभी लहलह जीह मधुर मधु लोभी।

मंजुल खड्ग मुण्ड करवामे सदावास समशान ललामे।

विषम चरित अति विकट निनादे सुख अभिमुख मुख परम प्रसादे

फुरित वदन वह सोनित धारा करि कृपादृग त्रिभुवन तारा


श्यामानन्द बालकवि भाने। तात हेमपति सेवि सुजाते।"



व्यावहारिक-व्यवहारिक गीत मे कविवर प्रत्येक मांगलिक व्यवहार पर गीत लिखने
छथि। एहि मे सोहर, छठिहार, नन्ना-भैया, नामकरण, अन्नप्राशन, कुमारिक गौरीपूजा, होरिलाक
चुमाओन, कुमारिक महेशवाणी, उपनयन, परिछनि, कन्यादान, सिन्दूरदान, पसाहिन, देहरि,
छेकैक, गौरीपूजा, झिल्ली सम्हारैक,

मुट्ठी छोरबैक, लगहर भरैक, योग, जुआ खेलाइक, महुअक, घसकट्टी, चतुर्थी, दसाउति,
फूलतोरी, अभिसार, उचिती, वटगबनी, मलार, समदाओन, चीनी परसैक, नगनीपी, ओरझोर,
भरफोरी, मसनही, चुमाओन आदि मांगलिक अवसर पर गयबा लेल गीत अछि।



विवाह अथवा द्विरागमन मे बहिन अतिशय विभोर भए इनाम पएबा लेल देहरि छेकैछ,
परंच देहरि छेकबाकाल गोसाउनिक घर उचित लगन मे प्रवेश करबामे व्यवधान आनब इष्ट
नहि रहैछ-



"बिना इनाम देव नहि जाय, बहिन छेकल देहरि अगुआय।

गाओल पुरधनि मंगल बाढ़, सुमुख धनी संग रहला ठाढ़।।

उचित लगन नहि बीतय देल अभिमत पुरिगृह उपगत भेल।

श्यामानन्द बाल कविभान तात हेमपति चरन महान्।



कोबर मे कौतुकक लेल अनेक प्रकारक विधिक विधान अछि। जाहिसँ वातावरण
परिहासमय रहय।

एहि प्रकारक विधि व्यवहार मे मुट्ठी छोड़ाएब सेहो अछि। कनियाँ अपन मुट्ठी मे जनउ बन्द
करैछ आ वर कें एक्के हाथे खोलबाक लेल कहल जाइछ। कनियाँक सक्कत मुट्ठी कें खोलवा
मे असमर्थ वरकें देखि, हँसी होइछ, वातावरण कौतुकमय भए जाइछ-



"कोबर घर अति कौतुक विचरल कामिनी गोरि

सुमुख सोहागिनि कर सँ करथि नौआ चोरि

धनि लेल हाथ सक्कत कए दुलह विफल कए बेरि

हँसय लाग युवतीगन, सुपुरुष मुख छवि हेरि

आज जनौआ बिनु वरु भोजन करथु जमाय,

दय करताल कहय सब, कोबराक रीति सुनाय

श्यामानन्द बालकवि गाओल ह्मदय विचारि

तात हेमपति पद गहि अरज पदारथ चारि।

कृष्ण काव्यक परंपरा मे रासक विशेष महत्व छैक। कविवर श्यामानन्द झाक कापी मे
एकटा रास भेटल अछि। जे कविक भाव, कल्पना-कौशल, मंजुल शब्द विन्यास अलंकार योजना
आ गीतात्मकतो कें प्रकट करैछ-



"यमुना कुंज मंजु मोहन नव रास रचो।


कोकिल कलकूजित करलवकर कामिनि मन उन्माद

मलय पवन वन विरह निहुरि-हरि हरिन नयन परसाद

अलिक मुकुट कटि तट कछनी छवि

निकुंज रुचिर-रुचिवास

मधुमय अधर मधुर मुलीकर माधव माधव मास

परवस सुनि मुरली ता छन ललित वधू तजि गेह

मधुसूदन मिलि मदन मनोरथ परल अनुपम नेह

"श्यामानन्द" मधुर माधव मिलि फुटल अधरित नेह।



आत्माभिव्यक्ति-यौवनावस्थाजन्य अन्तरक उद्दाम विह्वलता, विचारक स्थिरता कविक
किछु कविता मे भेटैछ। की नीक, की अधलाह, कोन रुचिकर आ कोन अरुचिकर, कोन
समयोपयोगी आ कोन काल निरपेक्ष, तकर स्पष्ट विभाजक अभाव मे कवि मन बौआइत भेटैछ।
कवि ई स्थिर नहि कए पबैछ जे कोन मार्गक अनुसरण करी-कामलता मे ओझरा कए जीवन
काटी, की विद्याध्ययन मे रमी। कवि "दुर्निवार मनोरथ" आ "द्वैध" मे फँसल अछि-



"पूजापाठ क उचित समय अछि मञ्जन लय छथि देवसरी

'लक्ष्मीवती' दया रखै छथि शिवदर्शन हो कैक घरी।

कोठा अछि रहबाक हेतु, भलमानुस संगत कैल करी

तैओ मन होइछ अपने घर रहि कै वनिता पैर परी

धर्मोपार्जन करब उचित थिक प्राणक किछु नहि आशा

कामलता कयने छथि बहुतो श्रृंगार क प्रत्याशा

कविता लिखक मनोरथ आओर पढ़क अधिक अभिलाषा ।

एक करी तँ एक नष्ट हो, विषम विधिक परिभाषा।



काशीक लक्ष्मीवती छात्रावास मे रहि कविकें गंगास्नान आ शिवदर्शन क अतिरिक्त
विद्धत्जनक सामीप्य प्राप्त छनि। तथापि अपन मन कें कतहु अन्यत्र टांगल देखि व्यर्थताबोधसँ
ग्रस्त छथि-



"बड़ दुःख देल जनम दय जननी की भेल मन एहि बेरि

पिता वृद्ध छथि वनिता युवती छोड़ब थिक अनहेरि

पढ़ब रहत भरि जन्म अपन शक करब परिश्रम ढ़ेरि

एखन प्रवास उचित नहि हम तॅ गओले गायब केरि।



कवि ओहि कुसुम कें देखलनि अछि जे मुग्धा अछि। "मुग्ध कुसुम" कें देखब एक दिस
जँ कविक सौन्दर्य-प्रियताक द्योतक थिक तँ दोसर दिस द्वैध मे फँसि जएबाक मनोवैज्ञानिक
स्थितिक-चित्र अछि।



"मुग्ध कुसुम ! परिमल क व्यर्थ गर्व रखने छी।


याचक मधुप समाजक अनुचित अवहेला कयने छी।

जा धरि अछि नव वयस मनोहर ता नव पथ छयने छी-

चरण दलित कखनहुँ देखब धूलि मिलल अपने छी।



परंच, कविक विचार मे परिवत्र्तन अबैछ। सांसारिक रूप लावण्यक असारता देखि
धारणा बदलैछ। गरीबीक कारणे लगीची बन्धु संगीकें शीघ्रता सँ मुँह फेरैत देखि, याचक मधुप
समाजक अनुचित अवहेलना कए निहारि मुग्ध कुसुम कें अकालहि झड़ैत, सौरभ मधु सर्वस्व
लूटैत देखि कविक आँखि खूजि जाइछ, कौतुकक स्थान पर (कौतुक सँ उखरि मुँह देल, पड़ल
समाठ मांथ फूटि गेल)



वास्तविकताक ज्ञान होइते, आकाश सँ धरती पर अबितहि आक्रोश कए उठैछ-

हाय ! हाय ! करितहि रहि जायब फँसि जायब जम फाँस

चानी बूझि लोभ हम कयलहुँ, जचल अन्त मे कांस।





मिथिला मिहिर 23-11-1975



.. .. .. ..



बाबू लक्ष्मीपति सिंह आ मैथिली पत्रकारिता



बाबू लक्ष्मीपति सिंहक जन्म 15 फरवरी 1907 ई0 कें भेल तथा 6 मार्च 1972 कें 72
वर्षक अवस्थामे ओ इहलौकिक लीला समाप्त कएल। ई सत्य जे बाबू लक्ष्मीपति सिंहक पार्थिव
शरीर नहि अछि, मुदा अपन इष्ट अपेक्षितक बीच बाबूसाहेब क नामे ख्यात लक्ष्मीपति सिंह
विराजमान छथि। अपन विनोदी स्वभावें सभकें नेहपाशमे बान्हि रखनिहार, हुनक विहुँसैत
आकृति लोकक समक्ष नचिते अछि। सभ समस्या क समुचित उत्तरदैत बाबू साहेब क फोटो
लोकक मन प्राण पर तेना ने आच्छादित छैक, जकरा चाहिओ कए केओ पोति नहि सकैछ।



बाबू लक्ष्मीपति सिंहक आचार्य गुरु छलथिन ख्यातनामा पंडित मैथिलीक प्रथम कथा
संग्रह "चन्द्रप्रभा" क लेखक पं0 श्रीकृष्ण ठाकुर। गुरुसँ कौलिक मन्त्रक अतिरिक्त साहित्य
सर्जनाक मन्त्र सेहो भेटलनि। एहि मन्त्रकें ओ जीवन भरि जपैत रहलाह। मातृभाषाक मन्दिरमे
अपन सर्जनात्मक प्रतिभाक फूलपात जीवनक अन्तिम काल धरि चढ़बैत रहलाह।



बाबू लक्ष्मीपति सिंहक प्रतिभाक रुाोत असीमित छल। ओ ने तँ एक विधामे बान्हल
छलाह आ ने एक भाषे मे। ओ साहित्यक सभ विधामे समान प्रतिभा, व्युतपन्न तथा गम्भीरता सँ
लिखैत छलाह। भाषा कोनो रहौक एक समान सम्प्रेषणीयता हिनक रचनाक वैशिष्टय थिक। ई
वैशिष्टय साहित्य सर्जनाक अत्युच्च मर्यादाक अनुकूल अछि, संगहि मातृभाषाक उन्नयन आ
मिथिला, मैथिली एवं मैथिलक हितचिन्ता सँ लबालब भरल अछि।




बाबू साहेब मिथिलाक सांस्कृतिक सूत्रकें पकड़ि मिथिलाक भौगोलिक सीमासँ कोसो दूर
बसल प्रवासी मैथिल कें मिथिलाक नजदीक अनबाक चेष्टा जीवन भरि करैत रहलाह। सुदूर
प्रान्तक यात्रा कएल तथा अपन सहज आकर्षक स्वभावें प्रवासी मैथिलकें अनुकूल बनाओल।
मिथिलाक निकट अनबालेल कतेको ठामसँ पत्र-प्रकाशित कराओल। प्रवासी लोकनिकें मैथिलीक
शिक्षा देबा लेल "मौथिली हिन्दी शिक्षक" पोथी लिखल।



बाबूसाहेब अपन जीवन कालमे अनेक पत्र-पत्रिकाक सम्पादन-प्रकाशन कएल कथा
कतेको पत्र-पत्रिकाक प्रकाशन सम्पादन सँ सम्बद्ध रहलाह। एहि पत्रिका मे अछि मैथिलीबन्धु
आ मैथिल युवक (अजमेर), नीवन प्रभा (आगरा), मिथिला ज्योति, चौपाड़ि, मिथिला भारती
(पटना) आदि। कोशीक भीषण बाढ़िक विभीषिकाक चपेट पड़ला पर हिनक जीवनक क्रम मे
तेहन भए गेल जे जीवन-निर्वाह लेल "मिथिला मिहिर"क प्रकाशन संस्था-दि न्यूज पेपर्स एण्ड
पब्लिकेशन, पटना सँ सम्बद्ध भए गेलाह। एहिठाम ओ 27 नवम्बर 1947 सँ फरवरी 1977 धरि
विभिन्न पदपर प्रतिष्ठापूर्वक रहलाह। पत्र-पत्रिकाक प्रकाशनक दीर्घ साहचर्य सँ प्राप्त अनुभवक
कारणें बाबूसाहेब नीक जेकाँ बुझैत छलाह जे सफल पत्रकारिताक विकासक मार्ग मे कोन-कोन
बाधा अबैत रहलैक अछि। ओहि कारण सभक विवेचन आ निदानक विश्लेषण ओ खूब नीक
जकाँ कएने छथि। बाबूसाहेब बरमहल कहैत छलथिन जे "हम कतेको पत्र-पत्रिकाक अंकुरी
खयने छी" तँ सहजहि मानल जा सकैछ जे मैथिली पत्रकारिताक सन्दर्भमे हिनक विचार
कल्पना प्रसूत नहि, अनुभव सिद्ध अछि।



मैथिली पत्रकारिता गत अस्सी वर्षसँ यात्रा पर अछि। अस्सी वर्षक यात्रा कोनो भाषाक
पत्रकारिता लेल कम नहि होइछ। एतेक पैघ काल खण्ड मे अवश्य कोनो नीक ठेकान पर
पहुँचल जा सकैत छल। अपन पएर पर ठाढ़ कएल जा सकैत छल। किन्तु, से सब नहि भेल।
मैथिली पत्रकारिता अपन पएर पर नहि, उदार व्यक्ति वा संस्थाक वैसाखी पर ठाढ़ होइत
रहल। ओकरे मदति वा सहानुभूति पाबि रस्ता थाहि रहल अछि। मैथिली पत्रकारिताक एहि
दुःस्थितिकें देखि बाबूसाहेब कहैत छथि जे एकरा पर जन्म कालहिसॅ राजनीतिक डाइनि-
योगिनीक ओ ओझा-गुनी लोकनिक शनिक लोकनिक शनिक दृष्टि छनि। इएह शनिक दृष्टि
मैथिली पत्रकारिता कें अपन टांग पर ठाढ़ नहि होमय दैत छैक।" राजनीतिक डाइनि-योगिनी
अथवा ओझा-गुनीक शनिक दृष्टिसँ स्पष्ट तात्पर्य छनि जे मैथिली पत्रकारिताकें कहिओ
राज्याश्रय नहि भेटलैक। जे केओ राजा भेलाह, जे केओ नेता भेलाह अथवा जे कोनो
राजनीतिक दल सत्तामे आएल, मैथिल पत्रकारिताकें आत्मनिर्भर करबाक स्थानपर झटहे मारैत
रहलाह। मैथिली पत्रकारिताकें एहि ग्रहदशा सँ मुक्त कोनो सिद्धाचार्य कए सकैत छथि, से
बाबूसाहेबक मानब छनि। जाबत काल धरि एहन कोनो सिद्धाचार्य नहि अबैत छथि जे स्वतः
अथवा मिथिलांचलक लोकक चपेट मे पड़ि मैथिलीकें अपन राजनीतिक जीवनक अंग नहि बना
लैत छथि, ताबत काल धरि मैथिली पत्रकारिता आत्मनिर्भर नहि भए सकैछ। ओकर स्थिति आ
अस्तित्व संदिग्धे रहतैक।



पत्रकारिताक सफलता लेल दू टा मजबूत खुट्राक अवधारणा छनि-राजकीय सहयोग


तथा जनसहयोग। राजकीय सहयोगक तँ कथे नहि हो, जनसहयोग सेहो उत्साहवद्र्धक नहि
रहल अछि। पत्रकारिताक विकास लेल मूलधन लगौनिहार कतबो त्याग करथु सम्पादक नीकसँ
नीक रुचिकर चहटगर सामग्री परसबलेल राति-दिन एक करैत रहथि मुदा पत्र-पत्रकाक
स्थायित्व लेल राजकीय सुदिष्टिक अतिरिक्त जाहि तत्वक सर्वाधिक्य आवश्यकता छैक ओ थिक
पाठकवर्ग। पाठकवर्गक सहानुभूतिक विना कोनो पत्र-पत्रिकाक दीर्घायु होएब असंभव। ओ तँ
ठीके मानैत छथि जे राजकीय सहयोग तथा जन सहयोगक अभाव मे स्थायित्वक कल्पने
भावोन्माद सिद्ध भए जाइछ। व्यक्ति विशेष अथवा संस्थाविशेषक उदार संरक्षण किएक ने
ओकरा भेटैत रहौक।



पत्र-पत्रिकाक प्रकाशनक पृष्ठभूमि मे दू टा प्रेरणा तत्व कार्यशील रहैछ। कहिल थिक
साहित्यसेवा तथा दोसर थिक व्यवसायिक दृष्टि। मैथिली पत्रकारिताक उन्मेष साहित्य सेवाक
भावना सँ भेल अछि। अखनधरि जे पत्रपत्रिकाक प्रकाशन भेल अछि से कोनो व्यक्ति अथवा
संस्थाक उदारता आ मातृ भाषाक सेवाक भावना सँ। किछु व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूहक
गोसवारा प्रयासँ प्रकाशित पत्र-पत्रिका द्वारा अपनाकें परिचित करेबाक मनोकामना सेहो व्यक्त
होइत रहल अछि, कौखन पत्र-पत्रिका प्रकाशन प्रतिस्पर्धीक समक्ष ठाढ़ होएबा लेल सेहो भेल
अछि। जें कि उदारचेता द्वारा पत्र पत्रिकाक प्रकाशन मातृभाषाक सेवाजन्य अथवा अपन
साहित्यिक परिचय बनेबा लेल वा प्रतिस्पर्धीक समक्ष ठाढ़ होएबालेल प्रतिशोधात्मक मनःस्थिति
मे होइत रहल अछि। तें, कोनो पत्र-पत्रिकाक स्थायी रूपें प्रकाशित नहि भए अल्पायु भेल
अछि। किएक तँ, प्रकाशन व्यय आ नियमित प्रकाशनलेल आवश्यक व्यवस्थाक समक्ष ओ बम
बाजि जाइत रहलाह अछि। जे कोनो संस्था मैथिलीक पत्रपत्रिका प्रकाशित कएलक अछि,
तकरो मूलमे मातृभाषाक सेवा प्रथम लक्ष्य रहलैक अछि, पत्रकारिताकें व्यवसायिक रूप देब,
नहिए जकाँ। पत्र-पत्रिकाक प्रकाशन आ अकाले काल कवलित भए जएबाक जे कोनो कारण
रहल हो, किन्तु ई तँ निर्विवाद जे अल्पजीवी मैथिलीक पत्रिको मैथिली साहित्यकें भरैत रहबा
लेल अपना भरि खूब प्रयास कएलक अछि। मैथिली साहित्यकारक रचनात्मक क्रमहीन होएबासँ
बचौलक अछि।



किन्तु, बाबूसाहेबक विचार छनि जे आब अभिव-द्धिक संगे संग भाषाक प्रचार-प्रसार
लेल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया अंगीकार करब सेहो परमावश्यक। हुनक स्पष्ट संकेत छनि मैथिलीक
समाचार पत्रक प्रकाशन पर। ओ कहैत छथि जे 'आब ई समय आबि गेल अछि जखन हमरा
लोकनिकें उच्चस्तरीय सत्साहित्यक विकासक संगहि संग मैथिली समाचार पत्रक माध्यमसँ
भाषाक प्रचार ओ प्रसार मनोवैज्ञानिक दृष्टि अपनबैत कएल जाए। आब ने नव सूत्री योजनाक
मौलिक सामयिकता रहि गेल अछि आओर ने रहिगेल अछि साहित्यिक एकाधिकारिकताक
लोकिक मान्यता। बाबूसाहेबक एहि मतक अभिव्यक्तिक पाछू हुनक मातृभाषाक प्रेम अछि। ओ
एक घटनाक उल्लेख कएने छथि जखन पी. इ. एनक तत्वावधानमे 1947 ई. मे ओयोजित
वि•ालेखक सम्मेलनक अवसरपर स्वर्गीया सरोजिनी नायडू टिपने रहथि-हमरा विद्यापतिक भाषा
पर पूर्ण श्रद्धा अछि। पी. इ.एन. मैथिली कें मान्यता दैए चुकल अछि, किन्तु यदि अहाँ लोकनि
अपन पौने तीन कोटिक मातृभाषा मैथिलीक वास्तवीक सेवा करबाक हेतु कटिबद्ध होइ तँ,
कमसँ कम दुइयो-तीनियो गोट मैथिली दैनिक पत्रक प्रकाशन प्रारम्भ करैत जाए।' बाबू साहेब


कें अवश्य दुःख भेल होएतनि आ जीवन भरि कचोट मोन मे रहिए गेल होएतनि जे मैथिलीक
एक स्थायी दैनिक पत्रक मुँह देखी।



साहित्यिक पत्रिकाक पृष्ठभूमि मे भावना आ सर्जनात्मक उद्वेगक त्वरित अभिव्यक्तिक
चिन्ता विशेष रहैछ। तें साहित्यिक पत्रिकाक प्रकाशन सँ पूर्व ओतेक ओरिआओन करब
आवश्यक नहि रहैछ, जतेक कि एक समाचार-विचारक पत्रकें प्रकाशित करबासँ पहिने, सरंजाम
आवश्यक अछि।



ई रेडियो-टेलिप्रिन्टरक युग थिक। एक कोनक घटना दोसर कोन क्षणहिमे पहुँचि
जाइछ। समाचारक त्वरित संचरणक कारणे पत्र-पत्रिकाक पाठकक दृष्टि बदलि गेल अछि। ओ
टटका समाचारक संग स्फूर्त विचार सेहो पढ़य चाहैछ। विचार करए चाहैछ। लोकक एहि
मानसिक भूखक तुष्टि केवल भावनाक आधार पर संभव नहि छैक। तें पत्रिका पढ़ैत काल आब
ओ मातृभाषाक सेवाक संग मानसिक भूखक तुष्टि सेहो चाहैछ। संगहि, एहि भौतिक युगमे
कठिन परिश्रममे अर्जित राशिक प्रत्येक अंशक अनुपात मे तुष्टिक इच्छा लोक रखैत अछि। आ
दोसर भाषामे प्रकाशित होइत पत्र-पत्रिकासँ मनेमन तुलना करैत अछि। झुझुआन लगला पर
अनेरे पाठकक मन झूस भए जाइत छैक। एहि कारणें पत्रकारितामे स्थायित्व आएब सुलभ नहि
अछि। बाबूसाहेब लिखैत छथि जे केवल मातृभाषाक प्रति भावनात्मक स्नेह, सीमित प्रचारक
सिहन्ता तथा वैयक्तिक संकीर्ण प्रतिस्पद्र्धाक बलें मथिली पत्रकारिताक भविष्य ने समुज्ज्वले
बनाओल जाए सकैछ आओर ने आत्मानिर्भरे।'

पत्र-पत्रिकाक पाठकक बढ़ब अथवा बगदब भाषा आ कथ्य प्रतिपादन शैली पर सेहो
निर्भर करैछ। ई समस्या मैथिलीक पत्र-पत्रिकाक क भाषा-शैलीक संग विशेष रूपें लागू होइछ।
किछु पाठक वर्ग एक प्रकारक मानक भाषाक लेखन शैली पसीन करैछ, लिखैछ तथा चाहैछ जे
ओही लेखन शैली मे रचना प्रकाशित हो, तँ दोसर कोटिक पाठक वा लेखक दोसर लेखन
शैलीकें पसीन करैत छथि। एहिसँ पत्र-पत्रिकाक प्रति पाठक आ लेखकक मनमे लगाव अथवा
दुराव उत्पन्न भए जाइछ। एहन स्थिति नहि आबय, तें बाबू साहेब पत्र-पत्रिकाक स्वरूपकें देखि,
भाषा शैलीक प्रयोग आवश्यक मानैत छथि। तात्पर्य जे साहित्य प्रधान एवं शोध पत्रिका सभक
लेल उच्चस्तरीय भाषा शैलीक प्रयोग तथा समाचार प्रधान पत्र, चाहे ओ दैनिक हो, अथवा
अद्र्धसाप्ताहिक वा साप्ताहिक, लेल जकर लक्ष्य सर्वसाधारणक सेवा करब हो, सर्ववोधगम्य
भाषाशैलीक प्रयोग आवश्यक अछि। एहि कोटिक पत्र-पत्रिका लेल मैथिलीक आंचलिक
भेदोपभेदहुक प्रयोग करब पत्रकारिता लेल उचित बूझैत छथि। एहि प्रकारक प्रयोगसँ एक दिस
जँ बहुतो शब्द अलोपित होएबासँ बचैत अछि तँ दोसर दिस ओहि अंचल विशेषक पाठक
आकर्षित होइछ, जे अन्ततः पत्र-पत्रिकाक पाठक वर्गेकें आकर्षित कए, संख्या बढ़बैत अछि।



पत्र-पत्रिका सर्वप्रिया हो से सम्भव नहि अछि, तखन तें ई अवश्य सम्भव अछि जे
ओकरा अधिकाधिक सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावोत्पादक बना देल जाए। आ से निर्भर करैछ सम्पादक
पर। तें सम्पादक कें चाहियनि जे ओ पाठकवर्गक व्यापक मनोरुचिक समादर करथि। अपन
सिद्धान्त ओ जनभावनाक यथोचित सौमनस्य, स्वतंत्र, निर्भीक, निष्पक्ष एवं सशक्त तथा तर्कयुक्त
सम्पादकीय लिखथि तथा विनीत भावें कत्र्तव्य भावनासँ प्रेरित भए अपन उत्तरदायित्व निवाहबाक


उद्देश्यमे जनमानसक प्रहरी बनि, पाठकवर्गक समक्ष सत्यक प्रतिपादन करब परमावश्यक
मानथि। से सभ छोड़ि जँ ओ एकपक्षीय दृष्टि अपना लेथि अथवा कोनो एक दल, व्यक्ति अथवा
वर्गकें खेहारैत रहथि तँ पाठकक दृष्टिमे ओहि पत्र-पत्रिकाक खसब आरम्भ भए जाइछ।'



गत अस्सीवर्षक यात्रामे कतेको मैथिली पत्रिका आएल तथा लोककें आकर्षित कए
प्रस्फुटित होएबासँ पहिनहि झड़िअ शोधक विषयक बनि गेल। मैथिली पत्र-पत्रिकाक अल्पायु
होएबाक कारण कें तकैत बाबूसाहेब लिखैत छथि जे 'पारस्परिक कटु आलोचना, ध्वसंत्मक
उपेक्षा, संकीर्ण नीति, दलीय प्रशस्ति, दलगत संघर्ष, साम्प्रदायिक वैषम्य, संकुचित दुराग्रह,
व्यवसायिक दृष्टिकोणक अभाव, प्रचार प्रसारक अस्त-व्यस्त प्रक्रिया, समुदाय विशेषक प्रति
विशेष आसक्ति, आइ धरि मैथिली पत्रकारिताक हेतु अनिवार्य व्यवधान रहल अछि। हमहुँ एहि
अनुभवक स्वयं भुक्तभोगि रहि चुकल छी।' तथापि हुनक वि•ाास छनि जें यदि मिथिला एवं
मैथिलीक त्रिगुणात्मक शक्ति एकठाम मिलि जाए आ वैयक्तिक अथवा सहकारिताक स्तर पर
पर्याप्त मूल धन, प्रस्तावित समाचार पत्र विशेषक समयानुकूल निश्चित सिद्धान्तविशेष, विज्ञापन
प्राप्त करैत रहबाक व्यापक ओ अविरल अभियान, समाचार पत्रक प्रचार-प्रसारक हेतु
सुनियोजित ओ व्यापक व्यवस्था, संवाददाता लोकनिक समुचित

प्रतिनिधित्व, समाचार सभक संकलन सम्पादन ओ प्रतिपादनक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया, कलात्मक
रंगरूप, निर्भीक निष्पक्ष, स्वस्थ, संयत ओ मार्गदर्शक सम्पादक एवं संचालक लोकनिक
विवेकपूर्ण यथानुकूल उदारनीति रहैक तँ मैथिलीक कोनहुँ समाचार पत्रकें स्थायी, यथासंभव
लोकप्रिय एवं लोकोपकारी बनाओल जा सकैछ। एहि सभ व्यवस्थाक अछैतो जाबतकाल धरि
मैथिलीक समाचार पत्र समस्त मैथिली भाषाक्षेत्रक अनन्य संरक्षण प्राप्त नहि कए लैत अछि,
ताबत काल धरि सर्व साधारण मैथिलहुकें आने-आने भाषामे प्रकाशित समाचार पत्र-पत्रिका सभ
पर अनिवार्यतः निर्भर रहय पड़तैक।

बसात प्रवेशांक 1984

.. .. .. ..



कवि चूड़ामणि मधुपक गीति साहित्य



'विहग धर ज्योति नीड़ केर बाट 1। ई पांती थिक मैथिलीक महान गीतकार उपेन्द्र
ठाकुर "मोहन"क एक गीतक। गीतक माध्यमे विहगकें प्रतीक बनाय मनुष्यकें कहय चाहैत छथि
ज्योति नीड़ केर बाटक अनुसरण करबा लेल। एहिठाम सहजहि प्रश्न उठैछ जे गीतक माध्यम
आत्माकें ज्योति नीड़ दिस लए जएबाक हेतु कवि कियेक कहैत छथि? गीत भावाश्रित होइछ।
ह्मदयपर ओकर प्रभाव तत्काल पड़ैछ। रागात्मिका वृतिक तार झनझना उठैछ आ कवि ओ
श्रोताक मन-प्राण आनन्दित भए, ज्योति नीड़ केर बाटक अनुसरण करए लगैछ। गीतक प्रसंग
मोहनजी लिखैत छथि 'गीतनाद साधनाक मधुरमार्ग थिक, आनन्दक संग ज्योति जगएबालेल
ओकरा अपनौने रहल अछि! तँ, ई लोक जीवनक अत्याज्य अंग भए गेल अछि। आङन, दलान,
खेत 'खरिहान, गाछी, पोखरि सर्वत्र एकरा प्रति प्रीति देखल जाइत अछि। कोनो माँगलिक
काज होअए, मूड़न, उपनयन, विवाह, द्विरागमन होअए, गीतनाद भेलहि। कुलदेवता आ कि


इष्ट देवताक गीतक संग अनेक-अनेक देव-देवीक गीत होइत छनि, गामक मन्दिरमे आ ग्राम
देवताक निकट, सिमरिया घाट आदि तीर्थमे गीत, कोबर मे गीत कनियाँ-वरक संग बीच
आङनमे गीत, बाटमे गीत, लोक जीवनकें गछारि झँपने अछि, ऊँच-नीच वा दुखिया-सुखिया
सभक लोक जीवन कें गाछारि राखएवला गीतनाद साधनाक एक मधुर मार्ग थिक। ई साधना
सभकेओ करैत अछि। केओ राग तालक संग आलाप दैत तँ केओ दावले स्वरमे, गुनगुनाइत,
नादब्राहृ कें जगबैत अछि। गीत साधनाक मधुर मार्ग थिक तँ जीवनमे बिना कोनो तीक्ता अनने
'कान्तासम्मति उपदेश' जकाँ लक्ष्य प्राप्ति क हेतु गीत एकटा सुलभ रास्ता थिक। तात्पर्य जे
गीतक माध्यम सँ मन प्रफुल्लित होइते छैक अन्हार बाटकें पार करबा लेल दृष्टिओ भेटि
जाइछ- 'विहग धर ज्योति नीड़ केर बाट'।



गीत साधनाक मधुर मार्ग थिक। गीत आनन्द दैत अछि। गीत ज्योति नीड़क बाट
देखबैत अछि। तात्पर्य जे गीत आनन्दकसंग अन्हार कें चीड़ैत लक्ष्य संधान करैत अछि। ई
संधान दू प्रकारें भए सकैछ-आत्मगत आ वाह्यगत। आत्मगत गीत ओ भेल जाहिमे आत्मिक
सुख, आत्मोत्कर्ष, आत्माकें परमात्ममे एकाकार करबा हेतु कवि अहुँछिया कटैत भेटथि।
जाहिमे लोकक ह्मदयक राग-विराग, लोकक आशा-आकांक्षा, आत्म-समर्पण आदि भावनाक
गीतात्मक अभिव्यक्ति झलकैत रहय। तात्पर्य जे एहि कोटिक गीतमे स्थूलतासँ सूक्ष्मता दिस
प्रयाण रहैछ। दोसर प्रकारक गीतमे सांसारिक सुविधा, सामाजिक उत्कर्ष अथवा राष्ट्रीय
महत्वक विषय दिस गीतक माध्यमसँ ध्यान आकर्षित कराओल जाइछ। कौखन उद्वोधित कएल
जाइछ तँ कौखन व्यंग्यवाणसँ आहत कएल जाइछ आ कौखन सामाजिक विकृति कें दूर
करबालेल प्रेरित कएल जाइछ। एही दूनू तत्त्वक आधार पर कविचूड़ामणि मधुपक (1906-
1987) गीति साहित्यक विश्लेषणक प्रयास कएल अछि।



वाह्यगत गीत वाह्य जगत भेल कविक परिवेश, जाहि मे ओ जीवैत अछि, जन्मैत
अछि, बढ़ैत अछि

आ देह विसर्जन करैत अछि। कवि कें अपन परिवेशक अधलाह चीज वा स्थिति नीक नहि
लगैछ। ओ समाजकें कलुष विहीन करए चाहैछ। सूतलकें जगबय चाहैछ आ जागल कें सक्रिय
बनबए चाहैछ। ओकर एहि काजक माध्यम होइछ भाषा। भाषे ओकर अस्त्र-शस्त्र रहैछ, भाषे
ओकर मोहिनी मंत्र होइछ। एकरहि माध्यमसँ किछु राखय चाहैछ, किछु कहय चाहैछ। कविक
अपन व्यक्तित्वो एक निश्चित भाषेक माध्यमसँ स्पष्ट भए, आकर्षित करैछ। मधुपजी एहि तथ्यकें
प्रारम्भे मे बूझि गेल छलाह। ओ बूझिगेल छलाह जे चाबतधरि अपन संस्कृति नहि रहत, भाषा
नहि रहत, साहित्य नहि रहत, ताबत धरि अस्तित्व पर संकट बनले रहत। आ तें, जँ कही जे
मधुपजीक वाह्य गीतक कारण थिक भाषा रक्षा, समाज रक्षा, राष्ट्ररक्षा, संस्कृति रक्षा तँ
अत्युक्ति नहि होएत। अपन एक आरम्भिक गीतमे लिखने छथि-



"मिथिलाक पूर्व गौरव नहि ध्यान टा धरै छी,

सूनि मैथिली सुभाषा बिनु आगिये जरै छी।

सूगो जहाँक दर्शन सुनबैत छल, तहि ठां।

हा ! 'आइ गो' टा पढ़ि उच्चता करै छी।


हम कालिदास विद्यापति नाम छाड़ि मुंहमे

बाड़ीक तीत पटुता सभ बंकि मे धरै छी

भाषा तथा विभूषा अछि ठीक अन्यदेशी

देशीक गेल ठेसी ! की पांकमे पड़ैछी ?

औ यत्र तत्र देखू अछि पत्र सैकड़ो टा

अचि पत्र मैथिलीमे एको ने तें डरै छी 2



मधुपजीक ई गीत ओहि समयक थिक जखन ओ काशीमे विद्याध्ययन करैत छलाह।
एहिमे एकहिठाम कविक अनेक चिन्ता प्रकट भेल अछि। मिथिलाक अधोगति, मैथिलीक
अवहेलना, स्वदेशी वस्तुक अवहेलना, विदेशीक प्रति आसक्ति, मैथिलीक अस्तित्वक चिन्ता,
मिथिलाक पारंपरिक वैशिष्ट्यक रक्षा आदि व्यक्त भए गेल अछि।



मधुपजीक युवा कवि पूर्व अनुभव कए लेने छल-भारतीय संस्कृति पर खतरा संभावित
अछि, कालिदास ओ विद्यापति कें लोक बिसरय लागल अछि, जे चिन्ताक विषय थिक। कवि
कोकिलक गीत सँ जे सांस्कुतिक उत्कर्ष ध्वनित होइछ, से क्षीण होअए लागल तँ ओ व्यथित
भए उठलाह। जाहिठाम तिरहुत, बटगवनी, नचारी, महेशवाणी, सोहर, समदाउन होइत छल,
ततय सिनेमाक गीत पहुँचि गेल। ओकर तर्ज आ वाद्य-संगीत दिस युवावर्ग आकर्षित भए गेल।
बूढ़ो पुरान कें गुदगुदी लागय लगलन। वनितागणक कंठमेओ आश्रय पाबि गेल। सत्यनारायणक
पूजाक अवसर पर पारंपरिक भजन-कीर्तनक स्थानपर सिनेमाक भजन-कीर्तन होअए लागल।
सिनेमाक गीतक उद्दाम प्रवाह कें अथवा मिथिलाक कीत्र्तन मंडली नचुआवर्ग कें सिनेमाक
लहक-चहक गीत गयबासँ रोकब ओहिना असंभव भए भेल, जेना बान्ह तोड़ि आएल बाढ़िक
पानि कें रोकबा। एहि स्थिति पर कविक व्यथित स्वर फूटि पड़ल-



'फिल्मी भास लहरिमे भासल हरि ! हरि ! मैथिल तरुण समाज, गीतोपम पावन
विद्यापति, गीतो तजि रहला अछि आज ।"3



कविक दृष्टि सीमित नहि रहैछ। पाछू देखि प्रेरणा लैछ। भविष्यक लेल दृष्टि दैछ।
दिशा इंगित करैछ। कविक एहि कल्याणकारी दृष्टिक मधुपजीमे अभाव नहि छल। मैथिली भाषा
साहित्यकें लोक कण्ठ सँ

विलेबाक प्रवाह कें रोकबा लेल ओ किछु समझौना कए। ओ स्वर आ शब्दमे सामंजस्य स्थापित
कए देल। आवरण राखल सिनेमाक, परंच आत्मा रहल मैथिलीक। सिनेमाक आकर्षक गीतक
तर्ज पर अपन गीत लिखि-लिखि बाँटय लगलाह। नटुआ-गायक स्वाभिमान अनुभव कएलक, जे
महाकवि हमर अनुरोध पर चटपट गीत लिखि देल अछि। गयबामे सुविधो भेलैक, एकटा
रियाजल भास पर दोसर गीत तैयार भए गेलैक। श्रोताक फरमाइश पूरा कए देलापर गायककें
आत्म-सन्तोष होअए लगलैक आ सिनेमाक गीतक आवरणमे मैथिली गीत पसरय लागल 'सुगर
कोटेड' पिल जकाँ। कविक दृष्टि मैथिलीक अस्तित्व रक्षा करय लागल। एहि प्रसंग मधुपजी
स्पष्टतः लिखने छथि-




'गीत मञ्जु मैथिली मध्य हो, मुदा रहैक सिनेमा तर्ज

फरमाइस नटुआ गायककें, ओ सब अर्ज करथि दए तर्ज।'

मैथिलीक अस्तित्वपर खतरा अथवा स्वाभाविक प्रचार-प्रसार पर प्रतिबन्ध एक दोसरो
बिन्दु पर छल, मधुपजी तकरो समाधान कएल-



"कीत्र्तन, नाटक तथा रामलीलाक मंचपर औखन आबि

गायक हिन्दी गीत गबैत छथि, जनप्रिय सिनेमाक ध्वनि पाबि।'

कमरियाक थाकल आ श्रान्त क्लान्त मनः स्थिति कें, लक्ष्य धरि पहुँचेबालेल परिचित
भास मे गीत देल आ ओ सभ गबैत-गबैत लक्ष्य दिस बढ़ैत रहल। -



"काम लिंग कें करुण कथा कहबाक हेतु पथ क्लेशो घोंटि,

जाथि देवधर तनिको रुचि पद रुचिर लिखू क' फिल्मक ध्यान।'



सिनेमाक गीत आ तर्जक आक्रमण कें निरस्त करबा लेल कवि चूड़ामणि सिनेमाक तर्ज
मे मांगलिक अवसर विशेषक भाव निबद्ध कए देल-



"मुण्डन, मौजी बन्धन, परिणय, द्विरागमन वा हो सब काल,

नव धुनि विना-नवीना गाइनि, गीत गाबि सकती न रसाल।'



ई सभ कविक स्पष्टीकरण भेल जे ओ सिनेमाक तर्ज पर गीत कियेक लिखल। कविक
स्पष्टीकरणक प्रयोजन भए गेल छलैक। मधुपजी पर आरोप लागल छलनि जे ओ अपन प्रसिद्धि
लेल सस्तौआ आ क्षणिक मार्गक अनुसरण कए रहल छथि। किन्तु, वस्तु स्थिति ई छल जे
जनकण्ठमे मधुपजीकें विराजमान देखि अपना कें मैथिलीक एक मात्र महारथी आ हित चिन्तक
मानयवला कतेको मठाधीश आतंकित भए गेल छलाह आ तें ओसभ खौंझा-खौंझा मधुपजी पर
व्यंग्य-वाण छोड़ि-छोड़ि अपन तरकस कें खाली करैत गेलाह। सत्य तँ ई अछि जे 'फिल्मीभास
लहरि मे भासल मैथिल तरुण समाज' लेल जनप्रिय सिनेमाक गीतक तर्ज पर गात लिखबाक
कारण रहल छनि 'निज भाषाक प्रचार रोध-बोध सेहो हम दी अम्लान ।'



मैथिली ललनाक दाम्पत्य जीवन मे "वट सावित्री" पावनिक महत्व ओहिना छैक जेना
माथमे सिन्दूर। ओहि अवसर पर कथा होइछ। कथा एक गोटे कहैछ आ शेष सधवा सुनैत
रहैछ। किन्तु मधुपजी ओकरा गीतक स्वरूप देल अछि जाहिसँ सभ केओ एकहि संग अपनाकें
सहभागी बूझथि तथा कथाक निरसता समाप्त होअए। एहिसँ ई साभ भेल अछि जे कथाक
भावात्मकता गीतक रागात्मक तत्व सँ मिलि प्रभावक क्षिप्रता कें द्विगुणित कए देलक अछि।
"वटसावित्री" क कथाकें गीतक माध्यमसँ प्रस्तुत करबाक प्रसंग कविचूड़ामणि

लिखल अछि-




'तें किछु गीत लिखि तैं विषयक प्रकट करी ह्मदयक उद्गार।

गाबि बाल-वनिता कलकण्ठे सफल करौ मधुपक गुन्जार।

घर-घर साध्वी सती बनौ, सावित्री देवी केर स्वरूप

सदा सोहागिन गाइनि, राखौ भाल सिन्दूरी बिन्दु अनूप,

ई तँ भेल जे मधुपजी गीतक रचना कोन प्रेरणा सँ कएल। कोन लक्ष्यक प्राप्ति हेतु
कएल। आब विचारणीय अछि जे ओ गीतक माध्यमे की कहलनि अछि। हुनक कहब आजुक
लोक लेल कतेक सान्दर्भिक एवं महत्वक अछि। आ कि सिनेमाक गीत, जेना किछु दिन मे
लोक कण्ठ सँ विला जाइछ ओहिना ओहि भास पर लिखित मधुपक गीत सेहो वासि-तेवासि भए
जाइछ?



कवि चूड़ामणिक कवि ह्मदय अहर्निश जाग्रत अवस्थामे रहैत अछि। ओ अपन चारूकात
घटैत घटनाक प्रति आँखि खोलने रहैत छथि। समाजमे कतय की भए रहल अछि, देश-कालक
स्थिति की छैक से, बुझैत गमैत रहैत छथि। देश जखन पराधीन छल, देशक युवावर्ग
पराधीनताक बन्धन कें तोड़बा लेल आत्मोत्सर्ग कए रहल तँ कविचूड़ामणि लोकमे स्फूर्त्ति अनबा
लेल, विदेशीक पाश सँ भारतमाता कें मुक्त करबा लेल कतेको गीतक माध्यमसँ ललकारल।
सूतलो लोकक धमनीमे उष्ण धारा प्रवाहित करब गीत द्वारा सुलभ अछि, से ओ नीक जकाँ
बूझैत छलाह। आ, तें जे कवि स्वाधीनता संग्रामक पसाहिसँ अपनाकें सुरक्षित रखने छलाह,
मधुपजी आह्वान कएल।



"शीघ्र सुनादे एक तान टा कृपया

रुद्ध कण्ठ अचि हमहुँ क्रुद्ध भै गाबी युद्धक गाना

आज काज नहि भट्ठी माघक नैषधादिहुक

वा आषाढ़क प्रथम दिवस जे गान भेल कवि कण्ठे।

हो गीता उपदेश शिवा वावनी गान हो,

कृष्णक शिक्षा पाबि धनंजय शीघ्र प्रकट हो।

भूषण सँ जे मुग्ध छला से तान अहंक सुनि,

आबथु अमरावती छोड़ि खलदल कै मारथु !

घर-घर अमर प्रताप सन क्रान्तिक हो पूजक

एके वि•ाामित्र होथु पुनि भव परिवर्तक।



'भारतीय सब बनथु भगत सन फांसि प्रेमी, वलिवेदी तखता पर' लिखनाहर
कविचूड़ामणि स्वाधीनताक वादो जखन-जखन राष्ट्रपर संकट आएल देखल, अपन गीतसँ
श्रोताकें ओजस्वित कए देल। राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डताक रक्षा निमित्त कवि प्रचलित
सिनेमाक गीतक तर्ज पर ओज भरल गीतक संग प्रस्तुत भेलाह।



"एक इंच भूमिक हित शोणित सरिता सतत बहाबी,

चौ तर चाउ-माउ कें ल' क' पेंकिंग किला ढ़हाबी।


काटि मुण्ड 'भुट्टो' 'अयूब' केर माला अपन बनाबी

विजय वैजन्ती भारत केर हिमगिरि पर फहरा दी

मंदर-मथनी बना पाक आ चीन समुद्रो महू। काली कराली कहू।।"



एकदिस कवि दू पड़ोसी शत्रु देशकें मथबाक लेल उद्वोधन करैत छथि, मातृभूमिक
मान रक्षाक लेल लोकमे चेतना जगबैत छथि तँ दोसर दिस कवि अपन मातृभूमिक नैसर्गिकता
पर सेहो अपना कें अर्पित कएने भेटैत छथि। कृष्णक लीला धाम ब्राजमे रसखान कवि पुनः
बसबाक कामना कएने छलाह-'मानुष हौं तो वही रसखान वसौ ब्राज गोकुल गांवके ग्वालन' तँ
कवि चूड़ामणि व्यक्ति नहि क्षेत्रक प्रति अगाध प्रेम करैत भेटैत छथि आ ओहिं क्षेत्रक सागो पात
रोज भेटैत रहय, सएह कामना करैत छथि



'कमलाक काते-काते, कमलाक रहितहुँ काते,

भेटौ टा सागे पाते रोज, रे की।

तथा सब धाम सँ बढ़ि जनकपुर धामकें मानैत छथि।



गीतक माध्यमसँ जेना मातृभूमिक रक्षा निमित्त लोकमानस कें उद्वोधित कएल जाइछ,
ओहिना शिक्षा सेहो देल जा सकैछ। सासुर जाएवाली कन्याकें शिक्षा देबालेल कवि गाबि उठैछ



'ससुरामे जा क' धीया रहिए सम्हारि क'

बजिहह तहूँ नहूँ मनसँ विचारी क' ।



मिथिलाक समाज वाल विवाह, बृद्ध विवाह, अनमेल विवाह आदि सामाजिक कुरीतिसँ
आक्रान्त रहल अछि। मधुपजी सन तीक्षण दुष्टि वला कविक ध्यान एहि दिस जाएब असंभव
छल। वाल विवाह जन्य विकृतिक निदर्शना हेतु कवि चूड़ामणि लोक कंठमे बैसल सिनेमाक तर्ज
पर गीत लिखि बांठि देल। कन्याक मनोदशाक चित्र प्रस्तुत करैत कवि लिखल अछि-



'मोर आशा महल एकपलमे ढहल आब की कानि क'

धूर्त डाकू घटक केर केलियैक की ?

माय ओ बापकें कष्ट देलियैक की ?

छोट नादान वरसँ धरा देल कर, हाय की जानि क' ।



छोट नादान वरसँ विवाह करादेबा लेल कन्या, माय बाप ओ घटक कें उलहन दैछ
तथा मन होइछ जे ओहन वरकें तलाक दए दिअनि। किन्तु, क्षणहिमे मनक उत्ताल तरंग शान्त
भए जाइछ, ओ अपना कें असहाय पबैछ-



'होइछ मनमे सखी जे तलाके दिअनि

बाल व्याहक प्रथा पर डोला दी विअनि,


किन्तु, क्यो ने शरण हा ! मधुप तजि मरण व्यर्थ की कानि क ।'



समान्यतः इएह देखल-सुनल गेल अछि जे अनमेल विवाहक अन्तर्गत वर बूढ़ वा
अवस्थगर, किन्तु कनियाँ अवस्थे छोट ओ अबोध रहलि अछि। किन्तु एहि गीतमे कवि जाहि
कन्याक वर्णन कएल अछि ओ वोधगरि आ अवस्थगर अछि। परंच वरे छोट आ नादान छैक।
अवस्थाक हिसाबे एना प्रायः नहि होइत छैक। व्यंग्यार्थ सँ अर्थ ग्रहण करी तँ इएह निष्पन्न
होइछ जे पत्नी काम कलाक मर्मकें बुझैत अचि, परन्तु ओकर पति कामज्वर पीड़ित अथवा काम
कलाक बाट पर अत्यन्त अनभुआर अछि। गीतक पहिल पाती-' मोर आशा महल एक पलमे
ढ़हल' सँ कन्याक प्रति जागल सहानुभूति विला कए ओहिना हास्य रस उत्पन्न कए दैछ जेना
'पिया

मोर बालक हम तरुणी गे, कोन तप चुकलहुँ भेलहुँ जननी गे' गीतसँ भए जाइछ। गीतक
अन्तिम पांती सँ कन्याक मनमे उठल विद्रोहक सुगबुगी बूझाइछ, किन्तु कवि ओहि सुगवुगीकें
स्थिर होएबासँ पूर्वहि मरणकें एक मात्र शरण कहि, जागल आत्म वि•ाासक कारुणिक परिणति
प्रस्तुत कए दैछ। ई कारुणिक परिणति देखि कहि सकैत छी जे मधुपजीक अतिशय कारुण्य
प्रवाह, जे हुनक वैशिष्ट्य आ सीमा छनि, एहू गीत मे वत्र्तमान अछि।



मधुपजीक किछु गीत सिनेमाक कोनो प्रचलित तर्ज पर अछि ओकर शब्द ओ भाव,
सिनेमेक गीत जकाँ लहक चहक शब्दावली सँ युक्त सेहो अछि। एहि प्रकारक गीतक सफलता
एही लए कए अछि जे सिनेमाक गीतपर लट्टू भेल मैथिल युवा वर्गकें आकर्षित करैत रहल
अछि। सिनेमाक तर्ज आ कथ्यक मैथिली गीतसँ मनोरंजन करैत रहल। एहि कोटिक गीतमे
किछु प्रमुख गीत अछि-"हम जेवै कुशे•ार भोर रंग कै ठोर"



पहिरि क काड़ा, झनकाय झनाझन छाड़ा; ।'

"हिय लूटि एना न चली मचली रहते थिर यौवन राजन ई ।"

"कलवल कें भोरे-योरे ई कोमलांगी ओघैंले ऐली, चौंकि चुप्पे।'

"एहि मकर मे जेवै विदे•ार धाम गे बहिनया।"

कोनाके खेपबै सौनक राति अनहरिया देखि धन करिया ना।"

"हे देवी कहाबै वाली। की मेला घुम्मी बलजोरी, ऐ मेलामे,

लुच्चा आवारा करै चोरी सीनाजेरी',

'संगी ! कोना खेपबैक छाती तोड़ जवानी,

कहबैक ई ककरा अपन करुणाक कहानी ?' आदि।



ऊपर जाहि प्रकारक वाह्य गीतक चर्चा कएल गेल अछि, से सब फिल्मीभास पर तँ
आधारित अछिए, ओकर माध्यमसँ अधिकांश गीतमे जे कहल गेल अछि तकर विषयो
तात्कालिके अछि। अथवा ओकर रचनाक कोनो ने कोनो तात्कालिक कारण अवश्य अछि।
किन्तु, फिल्मी अथवा हिन्दी गीतक प्रवाहकें रोकि मैथिली भाषाकें लोक कण्ठसँ विलेबासँ रोकबा


लेल जे काज ओ गीतसय कएल अछि अथवा कए रहल अछि, तकर मोल नहि छैक। आ एहि
हिसाबें कहि सकैत छी फिल्मी भास लहरिमे भासल तरुण मैथिल समाज कें मातृभाषाक प्रति
अनुराग जगेबालेल मधुपजीक ओ गीत सभ पहरेदारक काज करैत रहल अछि।



'कविता केहन आ ककरा लेल होएबाक चाही, ओहि प्रसंग आचार्य सुरेन्द्र झा 'सुमन'
जि. 1910 लिखल अछि-' कविता केवल महलक टहल लगौनिहार नहि भै सकैछ। ओकरा
कुटीक पुछारी लेब आवश्यक छैक। आवश्यके नहि अनिवार्यो छैक। यदि कविता केवल सुखीक
सखी बनै, दुखीक संगगामिनी नहि बनै, तँ मानै पड़त जे ओ पक्षाघातसँ पीड़ित अछि। यदि
काव्य दृष्टि केवल इजोरियाक चकमक पर चकित रहै और ओ अन्हरियाक गम्भीर अन्धकारकें
देखबामे असमर्थ रहै, तँ कहै पड़त जे ओ कनाह अछि। वस्तुतः कवितातँ उत्तापमय अनुभूतिक
निदाघसँ पघिलल हिमजल थिक। यदि सुखक शिशिर मे ओ जमल रहै तँ ओ लोक
कल्याणकारिणी जान्हवीक पदकें नहि प्राप्त कै सकैछ। हर्ष अछि जे मधुपजी कविताकें
अपेक्षिताक उपेक्षा नहि करै देलन्हि अछि।16 'मधुपजी सरिपहुँ कविताकें उपेक्षितक उपेक्षा नहि
करै देलन्हि अछि। कविता हुनका लेल महलक टहल लगौनिहारि नहि थिक, कुटीक सदिखन
जिज्ञासा कएनिहारि, ओकर सुख-विषादमे संग पूरनिहारि सेहो अछि। तें एक दिस ओ 'परिपक्व
सेव सेवकें कोमल कपोल ई, ककरा नै दै छै कछमछा चन्ना अमोल ई', लिखैत भेटैत छथि तँ
दोसर दिस 'भूखल प्यासलि' बुचनीं 17 कें छओ मासक नेनाकें काँखतर दबने सेहो देखैत
छथि। एक दिस ओ मिथिलेश महाराजाधिराजा कामे•ार सिंहक 'कोवरगीत'-



'जय जयकार करैत सकल जन

अपन अपन घर गेल मुदित मन

'कोवर गीत' गाबि मिथिलेशक

मधुप सफलता लेल

मोटर बहुतो बढ़ि गेल ।' 5



गाबि सफलता लैत भेटैत छथि तँ दोसर दिस युग-युगसँ शोषित, अस्पृश्य आ
सामाजिक प्रतिष्ठासँ च्यूत 'छूतहर', 'पतित पीक', 'झखरल गाछी' आदि वस्तुओकें काव्यमे
प्रतिष्ठि कए रागात्मकता सेहो स्थापित कए लैत छथि। 'छूतहरक' मनोव्यथा कविक स्वर ओ
शब्द पाबि बाजि उठल अछि-



'अस्पृश्य भेलहुँ कै कोन पाप ?

मृतिका एक एके कुम्हार

ओ दण्ड चक्र चीवर, संभार

आकार एक क्यो मंगल घट

गोबरौड़ बनल हम सही ताप।" 6



कविचूड़ामणिक ई गीत ओहि समयक थिक जखन राष्ट्रीय मंचपर एक दिस राजनीतिक


स्वतंत्रता लेल लोक सक्रिय छल तँ दोसर दिस सामाजिक विषमता, भेदभाव, छूआछूत आदि
दुर्गुणकें दूर करबालेल समाज सुधारकलोकनि प्रयत्नशील छलाह। अछूतकें मन्दिर प्रवेशक
अधिकार देबाक मानसिक ओ क्रियात्मक सक्रियता बढ़ि गेल छल। सभ केओ मानय लागल
छल जे मनुष्य-मनुष्य मे जाति, वर्ण, धर्म आदिक आधार पर विभेद नहि होएबाक चाही। सभ
क्यो एकहि ई•ारक सन्तान थिक। किन्तु व्यवहारिक स्तरपर भेदभाव बना कए राखल जाइत
छल। अपन काज सुतारबा लेल औखन तरेतर जाति, धर्म, वर्ण, क्षेत्र, भाषा आदिक नाम पर
राजनीति कएले जाइछ। एहनहि राजनीतिक मारल 'छूतहर' अपन उद्धारक संभावनाकें असंभव
मानि, ह्मदयक कथा-व्यथा प्रकट करैछ-



'घटघटमे बासी ब्राह्म एक

हो भान अविद्यासँ अनेक

बुझितहुँ वेदान्ती हमर वारि

अपवित्र कहथि कए तें प्रलाप।

हो सदिखन संसारक सुधार

पतितौक बनथि क्यो कर्णधार

उद्धार सुधारक सँ न हमर

ई सभ्य समाजक थिक प्रताप।



'युगयुगसँ शासित, शोषित, प्रताड़ित, अस्पृश्य आदिकें प्रतिष्ठा देबाक कवि चूड़ामणिक
मान्यता भावावेशजन्य नहि, अपितु क्रान्तिदर्शी जीवन मूल्यपर आदारित अछि। कवि देखैत छथि,
आइ समाजमे जकरा अछूत बूझल जाइछ, जकरा जाति, धर्म वा वर्णक आधआर पर सामाजिक
प्रतिष्ठा नहि देल जाइछ, से अपन अधिकार आ उचित प्रतिष्ठा काल्हि बलपूर्वक प्राप्त कए
लेत। ओकर प्रवाहक समक्ष समस्त दार्शनिकता तथा भेदनीति भसिया जाएत। एहि तथ्यकें कवि
चूड़ामणि रागात्मक संवेदनाक चासनीमे पागि राहुक प्रतीकक

माध्यमे कहल अछि-



"अधिकार ने भेटत जोरि हाथ

जा चटपट नहि कटबैब माथ

कटि बक्रचक्रसँ से देखौल

पी सुधा साहसीमे अनन्य

जरि जौ, से जीवन ओ यौवन

ओ युवक यमक घर जाथु निधन

जनिकासँ सत्ता हो न लब्ध

से सिखा देल साहस शरण्य ।

ई क्रान्ति कुमारिक कण्ठहार

समता साम्राज्यक सूत्रधार

आक्रमण हिनके तैं देखि लोक

सोल्लास करै सब दान पुण्य।




आत्मगीत-विषयवस्तु वा शिल्पकें ध्यानमे राखि गीतक वर्गीकरण जाहि कोनो प्रकारें
करी, किन्तु वास्तविक अर्थमे होएबालेल ओहिमे किछु तेहन वैशिष्ट्य रहब परमावश्यक जे सोझे
अन्तः स्थलकें बेधैत रहए। ई बेधब तखनहि सम्भव अछि जँ गीतक सर्जना कविक अन्तः
स्थलकें बेधि भेल हो। त सुख-दुख जन्य भावावेशमयी अवस्था विशेषक परिसीमित शब्दमे स्वर
साधनक उपयुक्त शब्दाभिव्यक्ति थिक गीत। तात्पर्य जे गीतमे कविक आत्माभिव्यक्ति रहब
परमावश्यक। आत्माभिव्यक्ति थिक जीवनमे दुख जन्य प्राप्त अनुभूतिक अभिव्यक्ति। एहूमे दुखक
प्रभाव विशेष होइछ। विशेष स्थायी होइछ। इष्ट नाश अथवा अनिष्ट प्राप्तिसँ शोक होइछ। शोक
थिक करुण रसक स्थायीभाव। एहिमे दू विकल ह्मदयकें बन्हबाक ततेक शक्ति छैक जे मानवे
नहि मानवेतर प्राणियो कें अपन प्रभाव क्षेत्रमे बान्हि रखैछ। इएह करुणा समस्त चेतना पुञ्जकें
एकसूत्रमे बान्हि वि•ा बन्धुत्वक मंगलाचरण करैछ। इएह करुणा भगवान बुद्धकें चारि आर्यसत्य
दुःख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध तथा दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा-स्थापित कए वि•ाकें एक
सूत्र मे बन्हबाक प्रेरणा देने छनि। एही करुणाक रागात्मक अभिव्यक्ति क्रौंचवधकं उपरान्त
आदिकवि सं निःसृत होइछ। कोमल प्राण अथवा कठोर प्राण-दूनू प्रकारक व्यक्तिपर एकर प्रभाव
पड़ैछ। करुणा रसक प्रभाव विस्तारक चर्चा करैत भवभूति लिखल अछि-करुण रस सँ पाथरो
कानय लगैछ आ वज्र ह्मदय सेहो फाटि जाइछ आ तखन कहय पड़ैत, छनि-'एको रसः करुणः
एव, जँ कवि चूड़ामणि मधुपक साहित्यकें ध्यानमे राखि कही, जे ओ कारुण्य रसधाराक एक
शीर्षस्थ कवि छथि तँ अतिशयोक्ति नहि होएत। प्रत्येक व्यक्तिकें जीवनमे किछु आशा रहैछ।
अपन हित-अपेक्षितसँ किछु अपेक्षा रहैछ, किन्तु प्राप्त नहि भेला पर निराशा होइछ, दुख होइछ।
आ तखन करुणाक धारा फूटि पड़ैछ। एहनहि रागात्मक स्थितिक भावात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुत
आत्म गीत मे भेल अछि-



'जे छले सबटा गमओलहुँ किछु न पओलहुँ

क्षेत्र नहि भेटल, अमीनहुँ सँ नपौअलहुँ,

क्यो न अप्पन भेल, कीर्ति न ककर गओलहुँ

हे प्रकृति ! बानर जकाँ बहुतो नचओलहुँ,

'मधुप' तदपि बुझैछ कहुना समय ससरल जा रहल अछि

वायु वेगे चार आयुक यद्यपि उतरल जा रहल अछि।

कामना लतिका तदपि दिन-राति लतरल जा रहल अछि। 6



कवि चारूकात निहारैछ! अपन लोककें तकबामे सभटा गमा लैछ तथापि कामनाक
लतिका लतरिते जाइछ। अपनत्व स्थापित करबाक सभ प्रयास निष्फल होइछ-



'जानि रसाल विमल जल सींचल

फलक प्रीतक्षामे युग बीतल

आबि बिहाड़ि उपाड़ि देलक तरु

मजरल पड़ल पुनीत

सकल उद्योग बनल विपरीत ।'




कवि अपन रागात्मक भावावेशक अभिव्यक्तिक लेल प्रकृतिक उपकरणहुक उपयोग
मानवीयकरण द्वारा करैछ। एहि प्रयोग मे मधुपजी निपुण छथि। जड़हुमे चेतनाक संचार कए
मानव ह्मदयक ततेक ने समीप आबि जाइछ जे लोक ओहिमे अपनहि ह्मदयक राग-विराग,
आशा-निराशा, सुख-दुःख प्रतिबिम्बित देखय लगैछ।' झखरल गाछीक' प्रतीक क माध्यमसँ एक
रागमय बिम्ब ठाढ़ कएल अछि जे पाठक-श्रोताकें करुणाक धारामे भसियेबा लेल तँ विवश
करिते अछि, सहानुभूति जगेबासँ बाजो नहि अबैछ-



'के करुण कथा मम करत कान?

फल पाकि-पाकि खसि सठल सकल

बुझि रूसि चलल बगबारक दल

मचकीक मलार मकरन्द बन्द

पिक निकर मूक तजि देल तान ।

के करुण कथा मम करत कान ।



करुण कथा नहि कान देबाक स्थितिक बोध कविक अवसादकें प्रकट करैछ। ओ अनुभव
करैछ जे समान स्थितिमे रहितहुँ निस्सहाय छी। केओ अपन नहि अछि। केओ बोल-भरोस
देनिहार नहि, यद्यपि 'सेवक बनि वक सभ' ध्यान कएल अछि। जीवनक अतृप्ति गीतात्मक भए
उठल अछि-



'स्वातीक सलिलसँ चातक दल

नव नीरद देखि शिखी मण्डल

हो सुमन, सुमनकें देखि मधुप

हम मधुप विमन करितहुँ प्रयास

नहि ज्ञात फसौलक कोन पाश' ।



प्रेम कलह वश रूसल कृष्णक कलहताप शान्त होइतहि पुष्पित पुंजक पुंज कुसुमसँ
मण्डित निभृत निकुंजक माँझ बैसल विरह विकल कृष्ण थम्हि-थम्हि वेणु बजाकए राधाकें संकेत
करैछ-'नयनक आधाहुक आधासँ राधा वाधा देखह आबि,' राधाकें केवल अपनहि सुखसुविधा आ
राग विरागक चिन्ता नहि छैक। परिवारक दायित्व सेहो छैक। तें भानस-भात मे लागलि अछि।
किन्तु, ओही बीच मुरलीक मारुक ध्वनि ओकर कानमे पड़ैछ। सुनितहि आत्मा बिकल भए
उठैछ। आश्रमक चिन्ता आ आत्माक विकलताक द्विविधा मे पड़लि राधाक मनः स्थितिक
रागात्मक चित्र प्रस्तुत करैत कवि गाबि उठैछ-



'घनश्याम एना ने बेणु बजा कय वेरि तोरा हम कहने छी

भनसा न हेतै की लोक खेतै, बुझितहुँ से जिद्द पकड़ने छी।



जें की कनि ओ मुरली बजाबी सुखलो जारनि नहि लहरै,


पजरै ने अनल फुकि-फुकि थाकी बीअनिसँ बहुतो होंकने छी।



जों सूनि पौती यशोमती मैआ उखरि सँ पुनि बान्हल जैब

मधुपो ने एना जखने तखने गुन्जार करय हम सुनने छी।



कृष्णक अनुराग मे विकल विद्यापतिक राधाकें भानस भात सन आवश्यक आश्रमी
काजक चिन्ता नहि छनि। पानि भरबाक लाथे पहरक पहर पनिघट पर प्रतीक्षा मे समय व्यतीत
करबाक सुविधा छनि। परिवारक भारसँ ततेक मुक्त छथि जे विरहावस्थामे 'माधव माधव रटैत'
अपनेकें माधव मानि लेबाक भ्रम कए लैछ। कृष्णक प्रेममे बावरी बनलि मीराकें कहियो आश्रमक
चिन्ता नहि छलनि। किन्तु कवि चूड़ामणिक एहि राधाकें अपनो चिन्ता छनि आ परिवारक सेहो।
परिवारक प्रति अपन दायित्वकें छोड़ि ओ ने तँ पनिघट पर घड़ीक घड़ी आतुरतासँ कृष्णक
प्रतीक्षा करैत छथि, आने विरह विकल भए गिरहस्तीसँ पला यने करैत अछि। वेणु सुनि अवश्य
उद्धेलित भए उठैत छथि। ओही उद्वेगक कारणे सुखलो जारनि नहि पजरैत छनि। आ ओ फूकि
हौंकि थाकि जाइत छथि। एकहि गीत मे विरह विकल आत्माकें परमात्मामे एकाकार होएबाक
आतुरता तथा गार्हस्थ्य जीवनक दायित्व पालनक चिन्ता समज्जित भए जाएब मधुपेसन कुशल,
संवेदनशील आ अनुभूति -प्रवण कविक वशक बात थिक।



'मधुपजीक गीतात्मक व्यक्तित्वक उत्कर्षक चर्चा जे सुमनजी 'राधाविरह'क सन्दर्भ मे
कएने छथि मधुपजीक सम्पूर्ण रचनाक सन्दर्भ मे सत्य अछि। ओ लिखने छथि-एहि व्यस्त युगकें
महाकाव्यक युग नहि मानि, गीति काव्युक मानल जाइछ। ओहने व्यस्त भावुककें एकर
अंशवाचनसँ गीत रसक आनन्द उपलब्ध होएतनि। मधुपजीक कवि व्यक्तित्व सदा गीतात्मक
रहलनि अछि।' कवि चूड़ामणि काशीकान्त मिश्र 'मधुप' क गीति काव्यक विशेषताक प्रसंग जँ
संक्षेपमे कहबाक प्रयोजन हो तँ ब्राज किशोर वर्मा 'मणिपद्म' (1918-1986)क शब्दोमे कहल
जा सकैछ-



'घसल अठन्नी सोनाकें ओ घसि कए कएलनि हीरा

मधुपक स्वर ये बाजि उठइ छथि विद्यापति ओ मीरा।'



मिं. मि. अक्टूबर 1987



.. .. .. ..



भट्टीकाव्यक परम्परा आ मधुपजी



'जय जकार करैत सकल जन

अपन-अपन घर गेल मुदित मन

कोबर गीत गाबि मिथिलेशक


'मधुप' सफलता लेल

मोटर बहुतो बढ़ि गेल ।' 1



कवि चूड़ामणि मधुपक 'कोबर गीतक' एहि अन्तिम पद्यावलीसँ स्पष्ट अछि, जाहि
प्रयोजनवश मिथिलेशक 'कोबर गीत' गओने छलाह, सिद्ध भेलनि। प्रश्न अछि जे कवि चूड़ामणि
कें 'कोब गीत' लिखबाक कोन प्रयोजन पड़लनि?



कविता कथी लेल लिखल जाइत अछि? कोन विवशता रहैत छैक? जँ कविता, कवि
नहि लिखलाह तँ की भए जएतनि। माथ दुखेतनि, पेट मे दर्द करतनि आ कि कोनो आंतरिक
बेचैनी दम नहि लेमअय देतनि? किछु तँ होइते छनि, नहि तँ एक सर्जनाक बाद मानसिक
शान्ति आ तुष्टि नहि भेटतनि? परंच महत्वपूर्ण प्रश्न ई अछि जे दोसराकें की भेटैत छैक?
दोसरा लेल हुनक रचनाक की सार्थकता छैक, आदि प्रश्न पर खूब घमर्थन भेल अछि।
घमर्थनक परिणामे समक्ष आएल सत्य मे अछि 'यश' आ 'अर्थ'। एहि दूनू शर्तक सीमा सँ बाहर
एकोटा कवि नहि भेटैत छथि। ई दोसर बात जे मात्राक भेद भलहि हो। एक कविक प्रथम
लक्ष्य जँ अर्थक अर्जन हो तँ दोसर कविक प्रथम कविक प्रथम लक्ष्य यश प्राप्ति भए सकैत
अछि। किछु कविक काव्य रचनाक प्रयोजन यश आ अर्थक संगहि समाजक मंगल कामना सेहो
भए सकैत अछि।



कविकें यशस्वी के बनबैत अछि? अर्थलाभ कतय सँ होइत छनि? लक्ष्मीवानक कृपापात्र
कोना बनि जाइथ छथि? जतय धरि 'यश' क प्रश्न अछि अर्थहीन सह्मदय समुदाय एहि लेल
पूर्ण सक्षम अछि। किन्तु अर्थलाभ लेल तँ लम्क्षीपात्रे सक्षम भए सकैत छथि।



सत्ताधीश प्रायः दू कारणें कोनहुँ कविकें 'यश' आ 'अर्थ' लाभ करएबा लेल उत्सुक
होइत छथि। शासक वर्ग जखन जनसाधारणक ह्मदय पर पड़ल कविक अमिट छाप कें गमि लैत
अछि तँ अर्थसहित उपाधि प्रदान कए वाह-वाही लुटि, आ जनताक समक्ष अपनाकें साहित्य,
कला आदिक पोषकक रूपमे प्रचारित करबैत अछि। एहि विधिकें परिधि सँ केन्द्रक दिस प्रयाण
कहि सकैत छी। दोसर थिक केन्द्र सँ परिधिक दिसक यात्रा। शासक वर्ग किछु व्यक्तिकें अपन
यशोगान लेल अपन दरबार मे रखैत अछि। आश्रय दैत अछि, प्रतिपाल करैत अछि। ओ आश्रित
कवि अपन आश्रयदाता एवं प्रतिपालकक विरुदावली झूमि-झूमि गबैत रहैत छथि। 'सोनक गुल्ली
चानिक टालि' पबैत रहैत छथि। एहि कोटिक दरबारी कवि एहि बात पर ध्यान नहि दैत छथि
जे हुनक रचनामे जनसाधारणक आत्माक विकल निनाद अछि वा नहि? दीन दुःखी आ शोषित
प्रताड़ितकें प्रशस्त मार्गपर अनबा लेल प्रकाश पुञ्ज छैक वा नहि। प्रथम स्थिति मे अर्जित यश
स्थायी होइत अछि, सत्ता-परिवर्तनक कोनो प्रभाव नहि पड़ैत छैक। किन्तु, द्वितीय स्थिति मे
प्राप्त यश आरोपित रहलाक कारणें शासन परिवर्तनक संगे-संगे समाप्त भए जाइत अछि।



स्वाधीनताक प्राप्ति धरिक मैथिली साहित्यक बहुलांश राज दरबाक साहित्य थिक।
राजदरबारक साहित्यसँ तात्पर्य ओहि प्रकारक साहित्यसँ अछि जकर सर्जनाक प्रत्यक्ष उद्देश्य


अपन आश्रयदाताक मनोरंजन अछि। प्रतिपालककें प्रसन्न राखब अछि। किछु कविगण शा•ात
मूल्यक कलात्मक अभिव्यक्तिक संग

अपन आश्रयदाता आ प्रतिपालकक अपन रचनामे नाम जोड़ि, अमरत्व प्रदान कए देल अछि।
कविगणक ई एकटा विवशता छल। कला-साहित्यक संरक्षण आ सम्यक् विकासक आन कोनो
व्यवस्थो नहि छलैक, तखन की करथि? जाथि तँ कतय जाथि? एक राजाक राज-पाट कें
दोसर आबि तहस-तहस करैत छलाह, राज दरबार उजड़ैत छल आ बसैत छल। कविओ
लोकनि पोथी-पतराक संगे एक दरबार सँ दोस दरबार मे आश्रय लैत छलाह। इयह कारण
थिक जे राज्याश्रित कतेको कविक काल निर्धारिण मे आश्रयदाताक राज्य काले

निर्णायक सिद्ध भेल अछि। परंच, सबसँ विशेष द्रष्टव्य आ उल्लेखनीय तथ्य ई अछि जे
मैथिलीक कवि लोकनि अपन काव्य प्रतिभाक उपयोग अपन प्रतिपालकक राज्य विस्तार लेल
नहि कए, कलाप्रियताक लेल नामोल्लेख कएल अछि।



कविशेखर ज्योति•ार (1280-1340) अपन आश्रयदाताक कला निपुणता आ
कलाप्रियताक उल्लेख करैत लिखल अछि जे कविशेखर जोतिक एहु गावे राए हरसिंह बुझ
भावे। कवि कोकिल विद्यापति (1360-1448) तँ अपन सभ आश्रयदाता कें अपन गीत मे
नामोल्लेख कएल अछि। यशक संग अर्थक लाभ सेहो भेलनि। उमापतिक काल निर्धारण
आश्रयदाताक राज्य कालावधिए द्वारा सम्भव भए सकल अछि। कविवर हर्षनाथ झा (1847-98)
अपन आश्रयदाताक रसमर्मज्ञताक उल्लेख करैत लिखने छथि-



'रसमय हर्षनाथ कवि गावे

नृप लक्ष्मी•ार इहो रस जाने।'



सीताराम झा (1891-1975) अलंकार निरूपणक अतिरिक्त कतेको ठाम मिथिलेश आ
महारानीक नाम गुणक उल्लेख कएने छथि-



'जग प्रसिद्ध पावन परम' जा दृश मिथिला देश

ता दृश धर्म धुरीण छथि 'भूपति श्रील रमेश'

'मिथिला देश अधी•ारी, दीनक पालनि हारि

जीबथु श्रीलक्ष्मीवती कुशल सहित युग चारि।

एहिना पं0 श्यामानन्द झा अपन समकालीन मिथिलेशक नाम गुणक चर्चा रसोपम
अलंकार निरूपणेक क्रम मे कएने छथि-



'कुलसन शील शीलसन प्रज्ञा प्रज्ञासन अछि लोकाचार

श्री कामे•ार सिंह तृपतिवर हो अपनेक सुखद संसार।



तथा महाकवि यात्री (ज. 1911) महाराज रमे•ार सिंह, क उच्चज्ञान मे माँ मिथिलाक
वैशिष्ट्यक आभा देखैत छथि-




'नृप रमे•ारक उच्च ज्ञानमे आभा अमल अहाँक।



पराधीन भारत मे उच्च आदर्शक प्रतीक राजा छलाह, रानी छलीह। तँ जखनहि कोनहुँ
उच्च आदर्शक नमूना प्रस्तुत करबाक प्रयोजन भेल, एक व्यक्ति मे पूँजीभूत विशिष्ट मानवीय
गुण धर्मक आदर्शक उदाहरणक आवश्यकता पड़ल, कविगण राजा-रानीक नाम लए लैत
छलाह। किन्तु स्वाधीनताक बाद ओ आदर्श खण्डित भए गेलैक। आत्मरक्षाक अधिकार भेटलैक।
आ तँ गुणगानक परिपाटी समाप्त प्राय अवश्य भेल, निर्मूल नहि। जे आद्र्रता पबितहि अंकुरित
भए जाइत अछि। आपातकालक समय मे एहि प्रकारक प्रवृत्ति विशेष देखार भए गेल छल।
ओहि क्रम मे चन्द्रनाथ मिश्र 'अमर' (ज.2.3.1925) लिखने छथि-



बंचकता करब चीट बाट पर रोकि लेत

खसतै पहाड़ तँ बीस सूत्र ई लोकि लेत । 7



तथा आपात्कालक घोषणासँ पूर्व नुक्कड कविगोष्ठी मे अपन 'सत्यनारायणक पूजा'
कविताक माध्यमे घूसखोर व्यवस्था पर प्रहारकत्र्ता कवि भीमनाथ झाक (ज.17.2.1945) 'बीस
सूत्री कार्यक्रम' शीर्षक रचनाक टेप खूब प्रसारित होइत छल-



'नव एप्रेंटिशक योजना शुरु, भेल अछि सौंसे

बेकारी बैसाड़ी भागल लंक लेने मुँह झौंसे

अनुशासन प्रतिबद्ध राष्ट्रमे प्रगतिदीप हम नेसी

बीस सूत्री कार्यक्रम तखने सफल काज सँ वेसी'



एहि विवृत्तक तात्पर्य ई अछि जे परतंत्र भारत मे मैथिलीक अधिकांश कविगण अपन
आश्रयदाता अथवा समकालीन मिथिलेशक नामोल्लेख फूटसँ नहि कए गीत, अलंकार आदिक
क्रम मे कएने छथि तथा स्वाधीन भारत मे मात्र आपातकालक अवधि मे किछु कविगणक स्वर
सरकारी तंत्रक अनुरूप भए गेल छल।



संस्कृत काव्य साहित्य मे भट्टिकाव्यक सुदीर्घ परम्परा भेटैत अछि। किन्तु मैथिली मे
केवल टूटा पोथी भेटैत अछि जे भट्टिकाव्यक रूप मे परिगणित कएल जा सकैत अछि। पहिल
थिक पं0 ऋद्विनाथ झा (1891-1976)क 'अभिलाषा' (1940 ई0) तथा दोसर थिक कवि
चूड़ामणि काशीकान्त मिश्र 'मधुप'क 'कोबर गीत'। दूनू पोथी कृशिकाय अछि। 'कोबरगीत' मे
प्रकाशन वर्ष मुद्रित नहि अछि परंच एतबाधरि निश्चिते जे एकर प्रकाशन 'शतदल' (1944) क
बाद भेल अछि। अभिलाषाक, प्रयोजनाक प्रसंग पं0 ऋद्विनाथ झा लिखने छथि-'भट्टिकाव्यक
उक्तयानुसार अपन आश्रयदाताक कल्याण कामना करब हमर कत्र्तव्य थिक तँ तकर पूर्त्ति एहि
'अभिलाषा' द्वारा भगवतस्तुति रूपें कएल अछि।' एहि दूनू भट्टिकाव्यक विलक्षण साम्य अछि जे
दूनूक आश्रय छथि महाराज कामे•ार सिंह (1907-62)। 'अभिलाषा' मे मिथिलेशक मंगल
कामना हेतु विभिन्न देवी देवताक स्तुति अछि। ई स्तुति मैथिली आ संस्कृत मे अछि। परंच


'कोबरगीत' मे दरभंगा सँ सासुर मंगरौनी धरिक एक सए पद्य मे वर्णन अछि। वरियाती कोना
साजल गेल। के के ओहि मे छलाह। कोन-कोन साज-बाज छलैक आदिक विशद आ सुललित
वर्णन अछि।



पं0 ऋद्धिनाथ झाकें राजदरभंगा सँ पूर्ण सानिध्य छलनि। पिता म. म. हर्षनाथ झा
महाराज लक्ष्मी•ार सिंहक (1858-1898) दरबारक एक विशिष्ट व्यक्ति छलरह। तँ, पं0
ऋद्धिनाथ झा द्वारा महाराज कामे•ार सिंहक प्रति व्यक्त भाव अनन्वित नहि अछि। परंच कवि
चूड़ामणि कें एहि प्रकारक सम्पर्क आ सानिध्य प्रायः नहि छलनि। आ ने मधुपजीक काव्य यात्रे
मे एहि प्रकारक दृष्टि अछि। तखन 'शतदल'क कवि मधुप कोन विवशताक कारणें 'कोबर
गीत'क रचना कएल, अनुसन्धानक विषय भए जाइत अछि।



'प्रेरणापुंज'क अनुसार मधुपजीक परमवृद्ध पिताक अन्तिम मनोरथ छल काशीवास।
पिताक ई मनोरथ मधुपजीकें चिन्तामग्न कए देलक जे काशीवासक खर्च कोना जुटाओल जाए।
साधनहीन पुत्रकें चिन्तामग्न देखि वृद्ध पिता कलमक उपयोग करबाक बाट देखा देलथिन्ह-



'हमर काशीवास केर खर्चा

अहाँ सँ अछि न सम्भव

किन्तु जगदम्बाक कृपयें

कलम मात्र चलाय

'अहीं टा ई क' सकै छी

ते अहाँ

भागलपुर स्थित ख्यात

रानीसाहिबा चन्द्रावतिक किछु

जीवनी केर पद्य लिखि क'

हमर संगे जौं चलि तै ठाम

तै हमर सब काज होयत सिद्ध।'



'पूँजीपतिक दूषित दुआरिक दर्शनक नामो सँ द्रुत दुलित भए' गेनिहार मधुप जी अपन
आत्माक प्रतिकूल बाबूजीक काशीवासक आकांक्षाक पूत्र्ती हेतु मैथिलीक एकावन पद्य मे रानी
चन्द्रावतीक जीवनी लिखि पिताक संग भागलपुर गेलाह। अपन पद्यबद्ध जीवनी सूनि पानी
चन्द्रावती कानय लगलीह। किन्तु बाद मे एक सए एकावन टाका पुरस्कार देल तथा हुनक
पिता कें काशीवासक हेतु काशी स्थित अपन श्यामा मन्दिर मे रहबाक सभ व्यवस्था धराय देल।
पिताक वि•ाास-'कलम मात्र चलाय अहीं टा ई क' सकै छी'-सत्य भए गेल। काशी मे
पिताजीक सभ व्योंत कए मधुपजी विद्याध्ययन क हेतु पुनः देवधर घूमि अएलाह।



बहेड़ा मे जीविका पएबा धरि आशुकविक रूप मे मधुपजीक ख्याति पसरि गेल छल।
कतेको रचनात्मक स्पर्धा मे अपन कवित्वशक्तिक बलें विजय पाबि विद्वत मंडली कें अचंभित कए


देने छलाह। एक सरकारी दल द्वारा विद्यालयक निरीक्षण होएब निश्चित भेल। अनुकूल रिपोर्ट
लेल पैरवी आवश्यक बूझल गेल। एहि काज लेल सभ सँ वेसी प्रभावशाली कुमार गंगानन्द सिंह
छलाह। संयोगवश ओही बीच महाराज सामे•ार सिंहक कोबर वजरल। जाहि मे कुमार
गंगानन्द सिंह क सम्मिलित होएब निश्चित छल। मधुपजीक ख्याति आ परिचयकें देखि कुमार
गंगानन्द सिंह सँ पत्र अनबाक भार सचिव महोदय हुनके सौंपल। सचिवक आदेश पाबि मधुपजी
असंजस्य मे पड़ि गेलाह। अवज्ञाक स्पष्ट अर्थ होइत छल, अपना संग विद्यालयक छात्र वर्गहुक
भविष्यकें दूरि करब। ओहि दूनू दबाव मे पड़ि, आत्माक विरोध करितहुँ बिना बजौने मंगरौनी
जाए पड़लनि। मंगरौनी पहुँचि अपन अएबाक प्रयोजन राजपण्डित बलदेव मिश्र (1887-1965)
सँ निवेदित कएल। राजपण्डित पत्रक प्रति आ•ास्त करैत कहलथिन्ह-



'से काज तँ हेबे करत

पहिने उपस्थित जे हमर अछि काज

तकर सम्पादन करू ने !

आइ अढ़ाइ घंटा केर वादे

छै एतय दरबार

जाहि मे कोबरक वर्णन

सुनक इच्छुक छथि स्वयं मिथिलेश

कतेको दिनसँ कते कवि लोकनि

लिखि रहलाह अछि ताहि विषयपर

तें बरात केर चित्रण करू, अहाँ

हमर अछि वि•ाास

सफल कलम अहाँक हैत अवश्य'।



राजपण्डितक शत्र्त कविचूड़ामणिकें अवग्रह मे दए दलकनि। विरुदावली नहि लिखबाक
स्पष्ट अर्थ

छल कुमार साहेबक पत्र नहि भेटब आ तखन सचिवक कोपभाजन आ छात्रक अन्धकारमय
भविष्यक संभावना निश्चिते छल। फेर ओ अपन इच्छाक विरोध मे निर्णय करबा लेल विवश भए
गेलाह। राजपण्डितक कहब 'कतेको दिन सँ कतेको कवि लोकनि लिखि रहलाह अछि ताही
विषय पर'-संभव तिक मधुपजी कें जल्दी निर्णय लेबा मे सहायक भए गेल हो। एकरा ओ
रचनात्मक प्रतियोगिताक रूप मे ग्रहण कएने होएताह। किएक तँ कोनहुँ प्रतियोगिता मे
अद्यावधि द्वितीय स्थान पर नहि आएल छलाह। आ ओ 'कुमोने' कोबर गीत लिखबाक निर्णय
कएल :-



'भेल विषम स्थिति हमर

विरुदावली लिखनाइ

सिद्धान्तक विरोधी

किन्तु,


बिन तकर कएने न आब कुमार

साहिब केर भेटत पत्र

पूरा मनेमन सोचि

कहि वेश ।

पंडितजीक संकेतित नितान्त एकान्त

सुन्दर एक पटनिर्मित कुटी मे जाय

इष्ट देविक पद सुमिरि

शत पद्यावधि पद्य मे

बारात सहिते कोबरक विशद वर्णन

कवि कदम्बक कम्पीदीशन मध्य

प्रथम भय क'

पाँच सय सँ पुरस्कृत ।



कविता लिखब एक सर्जना थिक जे विध्वसंक विपरीत अर्थक बोध करबैत अछि। सर्जना
मे मंगल कामना सन्निहित अछि, परंच मंगल कामना ककर,? व्यक्ति वा समूहक मंगल? कामना
तँ सम्पूर्ण प्राणि मात्रहिक, किन्तु प्राथमिकता समाजक मंगल कामना कें प्राप्त छैक। मधुपजी
सबसँ पहिने वृद्ध पिताक आकांक्षाक पूर्त्ति हेतु रानी चन्द्रावतीक पद्यमय जीवनी लिखने छलाह।
अतिवृद्धक कथन आर्षवचन भए जाइत अछि। तकर पालन नहि करब अव्यवहारिक आ
अमंगलिक भए जा सकैछ। तकर बोध मधुपजी कें छलनि। कुमार साहेबक पत्र बिना स्कूलक
मंजूरी सम्भव नहि छल, पाँच सए छात्रक संग बहेरा परिसरकें प्राप्त शिक्षण संस्थाक सुविधा सँ
वंचित भए जएबाक खतरा छलैक, तें वाध्य भए 'कोबर गीतक' रचना करय पड़लनि। हुनक
कवित्व शकृए ततेक प्रखर छल जे अनिश्चित विषयोपर कलम उठा लेलपर दिव्य मार्मिकता
आबि जाइत छलैक। 'कोबरगीत' युगीन विवशताक द्योतक थिक। श्रीमन्त लोकनिकें बिनामुदित
कएने समाजक कोनहुँ काजक कल्पना असंभव छल। कविचूड़ामणि मधुप लेल व्यक्तिसँ पैघ
समाज छल, तें अपन आत्माक प्रतिकूल 'कोबरगीत' गाबि सकल छलाह। 'कोबरगीत' गाबि
मिथिलेशक मधुप सफलता लेल, तकर ओएह रहस्य थिक।

मि0 मि0

12/1987



.. .. .. ..





काञ्चीनाथ झा 'किरण'क कथा जगत



तृतीय दशकक उत्तराद्र्ध मैथिली साहित्यक संक्रान्ति काल जकाँ अछि। सामाजिक,
राजनीतिक अथवा साहित्यिक परिवेश नव संस्कार आ नव ज्योतिक पीड़ा सँ छटपटा रहल
छल। ओहि समय धरि साहित्यकार, कविकोकिलक 'देसिल वयना सभ जन मिट्ठा'- अर्थात्


अपन परिवेश मे उठैत छोट-पैघ तरंग कें निहारि लोकेक भाषा मे कहबाक प्रवृत्तिकें पूर्णरूपेण
ह्मदयंगम नहि कए सकल छलाह। अपितु विद्यापतिक अमलदारीक सामाजिक परिवेशक कल्पना
कए साहित्य-सर्जना मे संलग्न रहि, अपना कें धन्य मानैत छलाह। परिणामतः, एक दिस जँ
रजनी सजनी कें पराकाष्ठा भेटैछ तँ दोसर दिस समस्त जागतिक विकृति आ विडम्बना कें देवी
प्रकोप मानब। ओकर निराकरणक समस्त दायित्व अव्यक्त सत्ता पर थोपि स्वयं कोनो प्रेरणा
किंवा जागरण अनबाक बदला मे निष्क्रियताक प्रतिमूर्त्ति रहि जएबे सम्मानप्रद मानैत छलाह।
एहि कनिष्क्रियताक प्रतिमूर्त्ति अथवा संवेदनाहीन लेल अपन चारूकात उठैत बिहाड़ि आ
परिवत्र्तनक प्रक्रियाकें आत्म सात कए, प्रेरणादायक आ देश-भाषा साहित्यक सम्यक विकास
लेल साहित्य सर्जना करब असंभव छल। समाज मे की भए रहल छैक? लोकक डेग स्वाधीनता
संग्राम सँ अपना कें जोड़बा लेल अनायासे कोना बढ़ल जा रहल छैक? देश ओ परिवेशक
विचारधारा की छैक? अपन संस्कृति, सभ्यता आ भाषाकें गीड़ि जएबाक हेतु कोना प्रपंच रचल
जा रहल अछि? धर्म-कर्म, रीति-रेवाजक उपयोग सामंत, राजा-महाराजा आ विदेशी शासकक
अमला लोकनि कोना अपन स्वार्थ-सिद्धिक निमित्त कए रहल छथि, सामाजिक आ धार्मिक रूढ़ि
आ अन्धवि•ाासक अन्हार खोह मे लोक कें बलात् धँसा कए कोना अपन काज सुतारि मठोमाठ
बनल रहबाक षड्यंत्र रचल जाइछ, तकर निराकरण लेल अथवा एहि प्रकारक कुकृत्य आ
विसंगतिक उद्घाटन कए समाज कें नव जीवनदान, नव आलोक आ नव सम्मान देबा लेल
अपन काव्यात्मक प्रतिभाक उपयोग करबाक ऊहि नहि छलनि। निर्दय शासक क जाँत कर
पिसाइत-किकिआइत लोकक अन्तरक हाहाकार-चीत्कार कें व्यक्त करबाक आवश्यकता अनुभव
नहि करैत छलाह। जे किओ करितहुँ छलाह अथवा कएने छथि, संख्या कम अछि। इहो संभव
थिक जे सामाजिक जीवन मे पसरल विकृति आ विडम्बना अथवा देशक स्वाधीनता लेल
छटपटाइत लोकक आकांक्षा, शासक वर्गक विरुद्ध भए जएबाक कारणें अनुचित आ हेय बुझैत
छलाह। एहने साहित्य-सर्जनक परंपरा मे किरणक प्रसार नव ज्योति, नव-जीवन संचार आ
नव-प्रेरणा देबा लेल होइछ।



किरणक (1906-1989) परिसरक समाज कोला-कोला मे बाँटल छल। प्रत्येक छोट-पैघ
कोलाक अपन स्वार्थ छलैक। अपन जजात छलैक, जकर आरि पर ठाढ़ भए दोसर कोलाक
रखबार क आँखि बचा कए, किंवा जोरगर रहला पर औठो देखा खए सीस नोचि सगर्व फेरा
दैत छलाह तथा बटेर लड़बैत छलाह। मिथिलाक प्रत्येक छोट-पैघ गाम मे कमला, कोशी, आ
लखनदेइ उत्तर सँ दक्षिण दिस बहैत छलीह, जनिक पाट चाकर छल, पेट गंहीर छल आ धारा
तीव्र छलैक। ओहि पर सँ पार करबाक कोनो व्यवस्था नहि छल। जे केओ साहस करैत
छलाह, फल होइत छलनि कमला, कोशी आ लखनदेइ क तेज धारा मे भसिया जाएब। भसिया
कए कतहु करौट लागि जाएब एहन स्थिति मे कुशल क्षेम बूझि, घूमि आएब असंभव छल।
परिणामतः धारक पूबारी कातक लोक पछवारी कातक लोककें हेय मानैत छलाह तँ पछबारी
कातक बहुसंख्यक पूबारी कातक शासक कें सदिखन शंकक दृष्टिए देखैत छलाह। एक दोसरा
मे सामंजस्यक अभाव समस्त मिथिला जनपदक समस्या कें एकजुट भए समाधान करबाक
बेगरताक अनुभव नहि करए दैत छलैक।



अभिजात वर्गक हाथ मे सामाजिक व्यवस्थाक संचालन-सूत्र छल। विदेशी शासक


कमतिया लग शासनक भार छलैक, ओकरे जीरात कें सुरक्षित रखबाक चाँकि छलैक। ओकर
सुख-सुविधा लेल नियम आ

कानून छल। उल्लंघन कएनिहार कें तुरन्त दण्डित करबाक तत्परता छलैक। गुणीक अवहेलना
होइत छल, आ सर्वत्र धनक बोलबाला छल। म0 म0 डॉ0 गंगानाथ झाक निबंध 'मिथिलाक
अधोगति' (मिथिलांक) क उत्तर मे किरणक विचार एहि तथ्य कें पुष्टि कए दैछ-'सरिसब क
महासभा-(मैथिल महासभा) मे डॉ0 झा (म0 म0 डॉ0 गंगानाथ झा) सन व्यक्ति फरसे पर बैसल
छलाह आओर विद्या वयस कोनो दृष्टिए आदारस्पद नहि बबुआन मसनद पर औंगठल छलाह।'
1 तत्कालिक मिथिलाक व्यवस्था आ सत्ताधारीक परिचायक थिक। संगहि ओहि विकृतिक रूप
रेखा सेहो प्रस्तुत करैछ, जकर हथरा बाबू-भैया छलाह।



किरणक जन्म आर्थिक दृष्टिए लटल, सामाजिक आ आर्थिक रूढ़ि क आँखि मूनि पालन
करबा मे असमर्थ तथा देश आ भाषा साहित्यक उन्नति लेल सचेत एवं संघर्षशील परिवारमे भेल
अछि। समाज मे व्याप्त विसंगति आ विषमताक विरोधमे जाहि प्रकारक रूढ़ि सामाजिक
व्यवस्थाक संग सामंजस्य स्थापित नहि कए सकबाक एक कारणें हिनका सामाजिक यातना
भेटल। ई जीविकाक सुविधा सँ वंचित कए देल गेलाह। मिथिला छोड़ि काशीवास करए
पड़लनि। मुदा एहि सभ सँ आलोच्य साहित्यकारक संघर्षशीलता मे जरती नहि भेल, अपितु,
व्यवस्थाक विरोध मे अंकुरित विचारक स्वरूप गुणात्मक भए गेल। लोहना पाठशाला सँ 'हिन्दू
वि•ाविद्यालय' अएला पर माहामना मालवीयजी (1861-1946)क सान्निध्य, अखिल भारतीय
स्तरक विभिन्न स्वाधीनता संग्रामक नेताक अनुखन दर्शन आ श्रवण सँ लाभ होइत छलनि। अन्य
भारतीय भाषा साहित्यक समकक्ष मैथिलीकें नहि पाबि कहिओ हताश नहि भेलाह। अपितु,
प्रेरणा लैत रहलाह। परिणामतः एक दिस तँ हिनक जीवन-दृष्टि संघर्षशील, सुधारात्मक आ
रूढ़ि-भंजक भए गेल तँ दोसर दिस मैथिली कें 'वि•ाविद्यालयक' पाठ्यक्रम मे स्वीकृत
करएबाक प्रयासक संग, पत्र-पत्रिकाक प्रकाशनक योजना सेहो सफल होमए लागल।



किरणक चिंतना आचरण मे कोनो विरोध नहि भेटैछ। मंचक अनुरूप हिनक रूप नहि
बदलैछ। हिनक साहित्य 'शोकेश'क साहित्य नहि थिक ते मंच अथवा व्यवस्थाक तृप्ति लेल
तूरक फाहा मे लगा कए ओकरा तुरन्त उपस्थित नहि कएल जा सकैछ। ओकर अपन चरित्र
छैक, जाहि बल पर चीन्हल जा सकैछ। प्रगतिक निश्चित दिशा छैक जाहि पथ पर जन-
जीवनक संवेदना कें समाहित करैत सतत आगू पढ़ल जाइछ। भाषा-साहित्यक प्रचार-प्रसार
निमित्त आएल विचारकें दैनिक जीवन मे उतारैत रहलाह अछि। गामे-काम घूमि आयोजन कए
लोककें सचेत करब हिनक व्यक्तित्वक एक अंग बनि गेल अछि। अपन दैनिक जीवन मे कतेक
संघर्षशील आ प्रगतिशील छथि, सिद्धान्तक उपेक्षा आचरण मे कतेक दृढ़ छथि तकर प्रमाण
अछि हिनक दैनिक जीवन।



किरणजीक कथा-साहित्य पढ़ला पर तुरन्त स्पष्ट भए जाइछ जे ई कोनो कलाबाज
जकाँ साहित्य निर्मण नहि कएल अछि। शिल्प क फेरा मे पड़ि अपन अभिप्रेतकें अस्पष्ट नहि
कए देल अछि। जीवन समाज आ परिवेश मे जाहि प्रकारक विकृति वा विडम्बनाक अनुभूति
भेलनि, दीन-दुःखिकें विलखैत देखलनि, क्रूर-व्यवस्था आ ओकर हथराक क्रूर मनोवृत्तिक,


प्रभावशाली ढंग सँ भंडाफोड़ कएल अछि। धार्मिक रूढ़ि मे फँसल आ अन्धवि•ाासक खोह मे
जखन लोककें धँसल देखलनि तँ ओहि सँ उबारबाक प्रयास कएल। अन्धवि•ाास कें तोड़बा
लेल प्रतिवद्ध भए गेलाह। यथा-आलोच्य कथाकार 'चन्द्रग्रहण' मे एकहि संग धार्मिक
अन्धवि•ाास, सामाजिक एवं नैतिकताक अधःपतन सँ लोककें रोकबाक आ शिक्षित करबाक
प्रयास करैत छथि। संगहि, राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्रामक पसरैत चेतना सँ मिथिलांचलक सूतल
जनमानस कें जगएबाक प्रयास सेहो कएल अछि। 'धर्मरत्नाकर' तथा 'इहो चारि खुन किए'
कथा मे शोषणक विरोध मे ठाढ़ होएबाक साहस दैत भेटैत छथि। 'समाजक चित्र' मे वावाह मे
लेन-देनक पक्षधरक दुःस्थिति क चित्रण द्वारा समाजक आँखि खोलबाक हेतु तत्पर छथि। कथा
हो वा कविता एकांकी हो वा अन्य साहित्यिक विधा आलोच्य साहित्यकारक

कथ्य साफ रहैछ। दृष्टि फरिच्छ आ सामाजिक प्रतिबद्धताक संग सरल भाषा-शैली रहैछ।



किरणक साहित्य मे धार्मिक रूढ़ि आ साजामिक अन्धवि•ाास पर खूब प्रहार भेल अछि।
जगन्नियन्ताक आराधनाक नाम पर समाजक तथाकथित ठीकेदार द्वारा जखन स्वार्थक खातिर
विविध प्रकारक प्रपंच रचल जाइछ तँ धर्म मे, जे वि•ाबन्धुत्व क सन्देश रहैछ से स्वतः लोप
होमए लगैछ। अशिक्षित स्त्री-पुरुष कें परतारि व्योंत सुतारि माइनजन बनल रहबाक हेतु सभ
प्रकारक किरदानी कएल जाइछ।



विज्ञानक प्रभावें अनेक प्राचीन मान्यता खण्डित भए गेल। अन्धवि•ाासकें जड़ि सँ
उखाड़ि फेंकबाक सभ सरंजाम विज्ञान जुटा देलक। जाहि प्राकृतिक घटना पर धार्मिक रंग चढ़ा
कए, अशिक्षित कें ठकबाक व्यवस्था छलैक। तकरा विज्ञान छहोछित कए देलक। विज्ञानक एहि
करामात सँ प्रगतिशील कथाकार किरण प्रेरणा लए धार्मिक अन्धवि•ाासक खाधि मे खसल
मैथिलकें आँखि खोलि देबा लेल अपन लेखनी कें प्रच्छन्न छोड़ि देल। एही प्रच्छन्न रूपबंधक
परिणाम थिक 'चन्द्रग्रहण'। प्राकृतिक घटनाक अवसर पर गंगा डूब देबाक भेड़िया धसानी
प्रवृत्ति सँ लाभ पबैछ असामाजिक तत्त्व। धरम-करम लेल जाइत तरुणीक अपहरण, लूट-पाटि
गाड़ीक वीभत्सरूप तथा पुनः नव जागरणक चेतना सँ सम्पन्न रूढ़ि भंजक तरुणा द्वारा
व्यभिचारी-गिरोह पर आक्रमण, छोड़एबाक प्रयास से तरुण क आहत होएब तथा स्वयं सेवी
युवावर्गक प्रयासे सफलताक चित्र उपस्थित, कए किरण सत्य आ असत्य मे संघर्ष देखा कए,
प्रथमतः असत्यक विजय' मुदा अन्ततः सत्यक असत्यपर विजय, अनैतिक पर नैतिकक विजय,
पाप पर पुण्यक विजय तथा मानवीय प्रवृतिक अमानवीय प्रवृति पर विजय द्वारा धार्मिक रूढ़ि
आ अन्धवि•ाास सँ मुक्त होएबा लेल शंख फूंकल अछि।



सामाजिक जीवन मे पसरि गेल कुरीति पर किरणक कथा-साहित्य मे कसि कए प्रहार
भेल अछि। एहि निर्मम प्रहारक एक मात्र लक्ष्य छनि समाजकें कलुष विहीन करब, व्यक्ति-
व्यक्तिक बीच भ्रातृत्वक रुाोत प्रवाहित कए, 'बसुधैव कुटुमबकम्क स्थितिकें पुनः स्थापित कए
देब। विवाह मे टाका कें महत्व देलाक फल की होइछ? श्राद्ध आदिक अवसर पर भोजखौक
समाज कोना बटुआ खोलि कर्ज देबा लेल तैयार रहैछ आ काजक तुरन्ते बाद घर-घराड़ी
लिखा लेबा लेल ठोंठ पर कोना सवार भए जाइछ, तकर चित्र 'समाजक चित्र' कथा मे


प्रभावशाली ढंग सँ उपस्थित करैछ। बेटाक पढ़ाइक लेल प्राप्त समस्त टाका भोला बाबू अपना
कें जीवित रखबा लेल खर्च कए, कर्जक बोझ छोड़ि मरि जाइत छथि। भोजखौक समाज सुधीर
लेल परीक्षा फीस धरि नहि जुटा पबैछ, मुदा भोज भात लेल डीहो नीलाम करबा दैछ। ओम्हर
ससुरक डीह सेहो विवाहक कर्ज मे नीलाम भए जाइछ। एक भविष्णु युवकक समस्त संभावना
कें कोना समाजक प्रपंची लोक नाश कए, भविष्यहीन कए दैछ तकर चित्र उपस्थित कए
सामाजिक जीवनकें विकृति-विहीन करबाक प्रयास कएल अछि।



देश-विदेश सँ अनेक प्रकारक हवा चलैत रहैछ जाहि सँ कौखन गात डोलि जाइछ, तँ
कौखन मन सिहरि उठैछ। एहि देशी-विदेशी हवाक झोंक मे नारी जाति सेहो अलसाइत आ
भसिआइत रहल अछि। कौखन अपन अस्तित्व कें पृथक स्थापित करबा लेल पारिवारिक
सौमनस्य कें ताक पर राखि दैछ तँ कौखन ओकर आचरण समाज लेल बोझ सेहो भए जाइछ।
आजुक मशीनी जिनगी क कारणें भंग होइत पारिवारिक जीवन, शिक्षाक प्चार-प्रसार सँ प्राप्त
आत्मगौरब क बोधसँ किरणक कथा नायिका सर्वथा फराक छथि। तात्पर्यजे हिनक कथा
नायिका शहरुआ नहि गामक जन-बोनिहारि छनि जे बाबू भैयाक ओहिठाम टहल टिकोरा कए
गुड़ा-खुद्दी पाबि, परिबारक पालन करैछ। एहि वर्गक नारी पात्रक चित्रण द्वारा आलोच्य
कथाकार नारीक शा•ात गुण मातृत्व, मात्सर्य पारिवारिक सौमनस्य, सामाजिक दायित्वक
निर्वाह द्वारा शा•ात मूल्यक स्थापनाक प्रयास कएल अछि। चन्द्रग्रहणक अवसर पर गंगा डूब
देबा लेल जाइत अपह्मत युवतीक रक्षा मे आहत तरुण कें देखि, सुषमा मे दामपत्य जीवनक
प्रति जे आस्था जगैछ, क्रमशः बलवती होइत 'मधुरमनि' मे आबि चरम

बिन्दु पर पहुँचि गैल अछि। 'धरती कतहु काक बंज्ञ होथि' मैंया अपना-अपना लेल सभकें बेहाल
आ सामाजिकताक ह्यास देखि आक्रान्त अछि।



आर्थिक दृष्टि सँ लटल आ सामाजिक दृष्टि सँ त्याज्य कें छोड़ि प्रगतिशील साहित्यक
कल्पना करब असंभव अछि। आलोच्य कथाकार एहि तथ्य सँ परिचित छथि। तकरे परिणाम
थिक जे हिनक साहित्य शोषित आ प्रताड़ितक साहित्य भए गेल अछि। शोषित आ प्रताड़ितक
दयनीय स्थिति कें चित्रित कए ओकर आर्थिक आ सामाजिक स्थिति कें उठएबाक प्रयास हिनक
साहित्य मे सर्वत्र भेटैछ। हिनक कथावस्तु अभिजात वर्गक समस्या सँ लादल नहि अपितु
सामाजिक जीवनमे व्यस्त आ अपन कोंढ़ तोड़ि, परिवारक प्रतिपालन हेतु दिन-राति खटैत
समुदायक समस्याकें अपना संवेदनाक अत्याज्य अंग बनाओल अछि। ओकरे आशा-निराशा,
आक्रोश आ विद्रोहकें स्वर देल अछि। ओकर सामाजिक अस्तित्वकें अस्वीकारि, अपन सौख पूरा
कएनिहार तथाकथित धर्मरत्नाकरक पूँजीवादी मनोवृतिक उद्घाटन कएल अछि। अपन
परिश्रमक बोनि मँगबाक फल राम किसान कें भेटैछ जे ओकर डीह पर धर्म रत्नाकर बाबू
साहेब हर जोतबा दैत छथि। राम किसनक स्पष्टता-'हमरा लटर-पटर नै आबैए। हम दू वर्ष सँ
एकरा पोसने छी। कते दिक्कम-सिक्कम सहलौ मगर बेचलौं ने जँ शुद्ध औते तँ दाम देत। से
जें लेबाक हुए तँ जँ दू गोटे कहै से दाम दिय' खस्सी लए जाउ'7 रामकिसनक कथन
वाराहिलक मूँहे सूति बाबू साहेब कें लेसि दैत छनि। तात्कालिक व्यवस्था मे रैयत कोना तबाह
छल, मालगुजारी, चौकीदारी आ ओहि पर बहुबेटीक केहन दुर्गति होइत छलैक तकर यथार्थ
रूप 'धर्म रत्नाकर' मे उद्घाटित भेल अछि। शोषितक क नेता रामकृष्ण झा कें काटि आ


विरोधक प्रत्येक साक्ष्य कें नष्ट कए थानाकें मिला, कोना राज चलाओल जाइत छल तकरो रूप
स्पष्ट भए जाइछ। संगहि, रामकिसना आ रामकृष्ण झा क हत्या सँ तत्काल दबल विरोधक
आगि तरेतर कोना सुनगि रहल छल ताहू स्थितिक प्रभावी अभिव्यक्ति भेल भेटैछ। किरणक
सम्पूर्ण कथा साहित्य यथार्थक धरती पर सदृढ़ अछि। फलतः अपन चारूकात पसरल दीन-
दुखीक समस्याकें जन बोनिहारक समस्याकें ओकर अन्तरक हाहाकार कें आशा-निराशा कें आ
संघर्षशीलता कें अपन साहित्यक प्रेरणा रुाोत बनाओल अछि। चारूकात पसरल कथ्य कें अपन
विशिष्ट शैली मे दारल अछि। ऐही लेल कल्पनाक उड़ान आ विजातीय परिवेशक संस्कार
हिनक कथामे नहि भेटैछ। अपितु भेटैछ सदिखन अपने टोल-पड़ोसक मानवीय समस्याक
ब्राभावशाली अभिव्यक्ति आ अपने धरतीक सोहनगर महमही आ ओकरे आशा-आकांक्षाक संतुलित
टिपकारी।



तँ, जखने कल्पनाक मचकी पर आस लगैछ, यथार्थ सँ सरोकार छूटि जाइछ, एक
विस्फोट होइछ। परिवार आ समाजक दुख दैन्यक करुण रूप नाचि उठैछ। आँखि खूजि जाइछ
आ देखैछ जाड़क पाला मे ठिठुरैत नाङट नेना कें, लज्जा-झँपबा लेल व्याकुल तरुणी कें आ
भूखे अहुँछिया कटैत स्कूलक फीस लेल बाबू भैयाक दरबजा पर दौड़ करैत देशक भविष्य कें।
बेरहटक बेर मे थुर्री लताम चिबबैत पिताक प्रश्नक उत्तर मे पुत्रक विवशता 'पनपिआइ की
करितौं' कते यथार्थ अछि, कतेक आत्मीय संवेदनाक संग अछि देखल जा सकैछ। इएह थिक
किरणक साहित्यक मूल स्वर, इएह थिक किरणक जीवन मूल्य, इएह थिक किरण दैनिक
जीवन आ इएह थिक भूखल नाङटक प्रति किरणक संवेदना सन्देश।

मि मि0 मइ - 1977

.. .. .. ..


मैथिली उपन्यासक आलोक मे 'चन्द्रग्रहणक' नारी पात्र



काञ्चीनाथ झा 'किरणक' कथा साहित्यक नारी पात्रक अन्वेषण आ चरित्रगत
वैशिष्ठ्यक निर्धारण

लेल 'चन्द्रग्रहणक' अतिरिक्त 'कथा किरण' मे संगृहीत कथाक नारी पात्र आधारभूत सामग्रीक
रूपमे उपलब्ध होइत अछि। ओहि नारी पात्र मे प्रमुख अछि रजनी आ सुषमा (चन्द्रग्रहण-
1932), करुणा (करुणा-1937), राधा (काल ककरो नहि छोड़त, 1939), मधुरमनि (मधुरमनि-
1962), मैया (धरती कतहु काक बंझाहोथि-1964), मैलामवाली, समधिनि, पुतहु (अभिनव
उत्तरा-1988) रूपा, बूढ़ी पण्डिताइन, इंजिनियरक पत्नी (रूपा-1988)। प्रथम नारी पात्रक
सर्जना किरणजी 1932 मे कएलनि तँ अन्तिम नारीपात्रक सर्जना 1988 मे। किरणजीक
रचनात्मक सक्रियताक अवधि छह दशकक होइतहुँ, कारण जे कोनो रहल होइक, कथा
साहित्यक परिणामे अत्यल्प अछि। ओहूमे सभ कथामे नारी पात्र अछिओ नहि। ओही अत्यल्प
आ अतिक्षीण कथा साहित्यमे अछि 'चन्द्रग्रहण' जकर मुख्य नारी पात्र रजनी आ सुषमा थिक।
एहि दूनू पात्रक चरित्र निर्माण मे किरण जी अपन परिवेशकें कतेक गिलेवा लगाओल अछि,
किरणजीक जीवनदर्शक ओकतेक अनुरूप अछि, से विवेचनीय अछि। किन्तु ओहिठाम धरि


पहुँचबा लेल 'चन्द्रग्रहण'क पूर्वक उपन्यासक नारी पात्रक गुणात्मकताक अन्वेषण आ विश्लेषण
अपेक्षित अछि।



गत शताब्दीक पूर्वाद्र्धसँ अखिल भारतीय स्तर पर समाज सुधारक लोकनि भारतीय
चेतना मे नारी उद्धारक प्रति संचार अनबाक प्रयास शुरु कए देने छलाह। ओकर किछु-किछु
धाह मिथिलाक कठोर आ पारंपरिक समाज पर, जे गार्गी, मैत्रेयों, लखिमा आदि विदुषी महिला
लोकनिक नाम मात्र लेबे धरि अपन कत्र्तव्यक इतिश्री बूझि लेने छलाह, पड़य लागल। यद्यपि
समाजक पैघ वर्गक नारी कें शिक्षित करब सामाजिक, धार्मिक अंधवि•ाास सँ मुक्ति देब तथा
समाजमे प्रतिष्ठा देबाकें अपन पाण्डित्य आ प्रतिष्ठाक प्रतिकूल मानि लेने छलाह, किन्तु समाज
मे एक एहनो वर्ग छल जे देशक आन भाग मे चलैत समाज सुधारक प्रति संवेदनशील आ
साकांक्ष भए गेल छल। तें, समाज सुधारक धाह सँ बचबाक प्रयास कएलोपर मिथिलाक
समाजकें किछुने किछु धाह लगबे कएल। परिणामतः नारी उद्धारक समस्या समिति आ साहित्य
चिन्तन क विषय होमय लगाल।



सभसँ विषम समस्या छल शिक्षाक अभाव। ई सत्य जे स्त्री समाज अशिक्षित छल,
निरक्षर छल, तखन ओकर प्रसंग लिखल साहित्यक कोन प्रयोजन। जे पढ़ि नहि सकैछ तकरा
लेल पोथी पतराक कोन महत्व? की उपादेयता? किन्तु, ओहि लेखन आ विचारक प्रभाव पड़ल।
परिवार आ समाजक सूत्र छल पुरुष वर्गक हाथ मे। ओ जखन नारी शिक्षाक महत्वसँ परिचित
भेल तँ नारी समाजक उद्धारक प्रति पूर्वहि जकाँ असहिष्णु नहि रहल। ई बोध विकसित भेल जे
जाबत धरि अद्र्धांगिनी शिक्षित नहि होएतीह, सामाजिक एवं आर्थिक स्तर पर समृद्धिक
कामनाक पूर्त्ति असम्भव रहत।



'चन्द्रग्रहण'क पूर्वक चारिटा उपन्यास 'रामे•ार' (पंडित जीवछ मिश्र) 'निर्दयी सासु' एवं
'पुनर्विवाह' (जनार्दन झा 'जनसीदन') तथा 'सुमति' (रासबिहारी लाल देस) अछि। 'रामे•ारक'
पार्वती अशिक्षित आ पति परायणा अछि। जखन रामे•ार पुलिसक हाथ सँ पुत्र आ पत्नीक मोह
मे पड़ा कए घर अबैत अछि तथा पत्नी आ नायवक अनुचित संबंधक धारणा बनाय पार्वति कें
लांछित करैत पुनः बन्दी होएबा लेल चल जाइत अछि तँ ओ जीवन त्यागक उद्देश्य सँ नदी मे
कूदि पड़ैछ। ओ बिसरि जाइत अछि जे ओकर गरीबी ओकर पतिकें ओहन काज करबा लेल
वाध्य कए देलक अछि जे लोक सामान्य स्थितिमे नहि कए सकैत अछि। ओ इहो बिसरि जाइत
अछि जे एकटा छोट पुत्र सेहो छैक। पार्वती अपन पतिक आँखिमे अपनाकें ततेक गेल गुजरल
मानि लैत अछि जे संघर्षक बाट छोड़ि पलायनवादी बनि जाइत अछि। ई पलायनवादिता
अशिक्षाजन्य अछि। अपन दायित्वक प्रति सजगताक अभावक कारणें अछि। उपन्यासकार जीवछ
मिश्र अशिक्षित पार्वतीक एहि पलायनवादी प्रवृत्तिकें प्रायः मिथिलाक सभ नारी पात्र मे देखैत
छलाह। आ तें चारित्रिक दौर्बल्यकें समक्ष अनबा लेल पार्वती सन चरित्रक निर्माण कएने होथि,
से संभव प्रतीत होइत अछि।



'निर्दयी सासु' स्त्री प्रधान रचना थिक। अनूपरानी एक अशिक्षित क्रूर आ चिरचिराहि
सासु छथि। पति आ पुत्र पर पूर्ण अधिकार छनि। ओ सभ अनूपरानीक मनक प्रतिकूल ने किछु


वाजि सकैत छथि आने किछु कए सकैत छथि। अनूपरानीक अतिरिक्त आओरो पाँच गोटे छथि-
शारदा, शारदाक माय, सीतानाथ क पीसी, सीतानाथक बहिन आ विधकरी। एहि मे मात्र
शारदा पढ़लि अछि। 'पुनर्विवाह' मे आवेसरानी सुघर गृहणी छथि। किन्तु, अकारणहि काल
कवलित भए जाइत छथि। हुनक छोट दिआदनी जयनाथक पत्नी अरलूरि आ कंजूस छथि।
विशेषपानीक दबाइ विर्रो मे खर्च पर आँखि लगैत छनि। पत्नीक मृत्युक वाद भवनाथ
विशेषरानीक समक्ष लेने शपथकें विसरि पार्वतीक संग विवाह करैत छथि। पार्वती यद्यपि पढ़लि
अछि, किन्तु सतौतकें पढ़ाएब नहि चाहैत अछि। जनसदनजीक दूनू उपन्यासमे मात्र शारदा आ
पार्वती साक्षर अछि। किन्तु उपन्यासकार शिक्षाजन्म चरित्रक विकास नहि कएल अछि। शारदा
तँ एको शब्द वजितो नहि अछि। मौन भए सासु ननदिक अत्याचार सहैत रहैत अछि यदि
शारदा कौखन किछु पढ़ैत अछि तँ ननदि मायसँ सिकाइत करैत अछि। पार्वतीक चित्रण
पारंपरिक सतमायक रूपमे कएल अछि। ओकरा चिन्ता छैक जे सतौत कही मुद्दइ भए नहि ठाढ़
भए जाए। एहिसँ इएह स्पष्ट होइत अछि जे जनसदीनजीक दृष्टि शिक्षक महत्वकें देखायब नहि
छल। शिक्षासँ प्राप्त चारित्रिक गुणकें प्रकाशित कए समाजक समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करब नहि
छल। अपितु विवाह संबंधी जे दुर्गुणं समाजमे व्याप्त छल, तकरा प्रकाशमे आनब छल। वैवाहिक
समस्या दिस लोककें आकृष्ट करब छल।



कथ्य ओ उपन्यासकारक रचनाक दृष्टिक हिसावे सबसँ फूट अछि 'सुमति'। 'सुमति' मे
यद्यपि समस्या वैवाहिके अछि। विवाह आदिक अवसर पर होइत फाजूल खर्चक कारण होइत
पराभव चित्रित अछि। किन्तु शिक्षा सँ कोना समाजकँ दुर्गुण मुक्त कएल जा सकैछ, कोना
लसकल घरकें आर्थिक रूपे सुदृढ़ कएल जा सकैछ से उपन्यासकार बुझा देलनि अछि।'
'सुमति' मे सुमतिक अतिरिक्त जेठरानी (सुमतिक सासु) कौशल्या कुमारि (धांइ ठाकुरक पत्नी)
मृदु भाषिणी (सुमतिक देआदनी), हितबादनी देवी आ प्रियम्बदा पण्डाइनि (सुमतिक सखि),
कसमसिया (खवासिनी) अछि। सहलोला बाबूक पत्नी जेठरानी देवी अपन कोरपोच्छू बेटाक
विवाह खूब धूम धामसँ करए चाहैत छथि। यद्यपि टाका नहि छनि। आँ टाकाक रुाोत ऋणों
मानैत छथि। ओ एहि प्रसंग बजैत छथि-'ऋणदाता मित्र मौजूदे छथिन दश-पाँच हजार हुनकहि
सौं हथफेर वा ऋण लए लेथु। आगाँ पाछाँ, दश-पाँच सघैत वघैत रहतैन्ह। सोनमा हमर कोर
पोच्छू थिक। एकर विवाह सभसौं विशेष रूपें कय देथुन्ह। धन सम्पत्ति आब रखबे करताह कोन
दिन लेल।' धाँइ ठाकुरक पत्नी कौशल्या कुमारि पति कें चेतबैत अछि-'कागज पत्तर खूब
पक्का-शक्का करा लेब आ तखन रुपैया दोस्त कें देबैन्हि।'



मंजु भाषिणी सुमतिकें नारीधर्मक शिक्षा दैत छथि। आदर्श नारी बनबैत अछि। सुशिक्षिता
सुमति सासुर पहुँचितहि सासुरक खसैत घरकें अपन बुद्धि आ कौशल सँ थाम्हि लैत अछि।
बोहाएल सम्पति आपिस करा लैत अछि। पति कें दास वृत्ति सँ मुक्त करैत अछि। जौत आ
पुत्रकें पढ़बैत अछि। विवाह आदिक अवसर पर अपव्यय कें रोककालेल नियम बनबैत अछि।
एहि प्रकार कें सिशिक्षित सुमति परिवार आ समाजक हितमे अपन शिक्षक उपयोग करैत अछि।



रासविहारी लाल दास 'सुमति'क भूमिका मे अपन लक्ष्यकें स्पष्ट करैत लिखने छथि


'हमरा सभक आधुनिक सामाजिक दशा परम अधोगति कें प्राप्त भए चललि अछि तें एहि वेर
मिथिले भाषामे समाज सुधार पर कोनो एक उपन्यास रचू, जाहि सौं समाज पर प्रचुर प्रभाव
पड़ैक।' समाज पर 'सुमतिक' की प्रभाव पड़ल, से तँ अनुसंधानक विषय थिक किन्तु
उपन्यासकार क लक्ष्य उपन्यासमे निश्चित रूपें सुफलित भेल अछि।



तेसर दशकक अन्त-अन्त होइतरचनात्मक चेतना सामाजिक क्षेत्रहि धरि सीमित नहि
रहि राष्ट्रपिता

महात्मा गाँधीक नेतृत्व मे चलि रहल स्वाधीनता संग्रामक उष्णतासँ अभिभूत होमए लागल।
अंग्रेजी सरकारक विभेद-नीतिक प्रभाव सामान्य लोकक जीवनयापन, सामाजिक, धार्मिक
क्रियाकलाप पर पड़ब शुरु भए गेल। एही पृष्ठभूमि मे 'चन्द्रग्रहण' लिखाएल। 'चन्द्रग्रहण'
लिखबाक कारणकें स्पष्ट करैत किरण जी कहने छथि 'ओहि समय तक ब्रिाटिश सरकारक
डिवाइड एन्ड रूल'क नीति वेश सफल भए गेल छलै। मुस्लिम सम्प्रदाय कें खूब सनका देने
छल। जेना तेना अपन संख्या बढ़ाएब ओ सभ लक्ष्य बना लेने छल। अपहरण कए धर्म परिवत्र्तन
करबैत छैल। स्त्रीगणक अपहरण वेशी होइत छलैक। एहिसँ जल संख्या तँ बढ़ितें छलैक,
वासनाक तृप्तिओ होइत छलैक। मेला अथवा भीड़ आदिसँ अपहरण बेसी सुविधगर छलैक। ई
समस्या ततेक सामान्य आ दारुण छलैक जे हमरा आकर्षित कएलक। तें एहि समस्या सँ
परिचित आ प्रतिकार लेल 'चन्द्रग्रहणक' रचना हम "मैथिली सुधाकर" हेतु कएल।'1
'चन्द्रग्रहण' मे ओना मुख्यतः दू टा नारी पात्र अछि। किन्तु गप्प शुरु होइत अछि सोनमाक माय
सँ जे अपन ससुरक वरखीक दिन तकेबा लेल भुल्लूबाबूक ओहिठाम भोरे-भोरे पहुँचि जाइत
अछि। रजनी थिक भुल्लू बाबूक कन्या। ओएह अपन सखि गंगाजली अथवा सुषमा कें कहि
अबैत अछि जे एहि बेर देखबाक योग्य मेला होएतैक। रजनी चाहैछ मेला लेल संगी जाहिसँ
घाड़ाजोरी कए मेलाक आनन्द लए सकय। ओएह सुषमाकें सिखबैत अछि। विचार दैत छैक
जाहिसँ माय-बाप मेला लए चलबा लेल तैयार भए सकथि। अपहरणक कारण रजनीए बनैत
अछि। ओकर बाडस सासुरो मे नहि होइत छैक। मेला घूमबाक ततेक सौख छैक, जनकपुर
जएबा लेल पतिकें वाध्य कए, दैत अछि। ओतय कर्णफूलक संगे कानो फरा जाइत छैक।
स्वभावसँ अकच्छ भे रजनीकें पति नैहर विदा कए दोसर विवाह कए लैत छथि। एहि प्रकारे
रजनीक चरित्र कें नामक अनुरूप किरणजी गढ़ल अछि।



सुषमा देवन बाबूक एक मात्र कन्या आ हुनक समस्त स्नेह सम्पत्तिक अधिकारिणी
अछि। ओ शुद्धा अछि। स्वभावमे सरलता छैक। वचनमे सधुरता छैक। अन्तःकरणसँ निर्मल
अछि। किन्तु जिद्दी आ रूसनी सेहो अछि। तें जखन कथनानुसार ओ रूसि रहैत अछि तँ
देबनबाबू दुलारक समक्ष हारि सिमिरिया जएबा लेल तैयारी करए लगैत छथि। किन्तु ठेस
लगला पर ओकरा अपन गलतीक बोध होइत छैक आ सुखमय जीवनक मार्ग पर अग्रसर होइत
अछि।



प्रश्न उठैत अछि जे किरण जी चन्द्रग्रहणक अवसर पर गंगा डूब देबाक लोक मानस मे
बैसल महत्वकें किएक छूलनि तथा पंडितजीक बेटीक अपहरण किएक कराओल? हमरा जनैत


ई निरुद्देश्य नहि अछि। एहन धार्मिक वि•ाास जनमानस मे पसरल अछि जे सर्वग्रासक अवसर
पर गंगा नहेला पर लोक पुण्यक भागी होइछ। ओकर पाप विमोचन भए जाइत छैक। किन्तु,
ओहि अवसर पर जे लूटपाट होइत अछि तकरा धर्महिक फेर कहि लोक मोन मारि लैत अछि।
एहि प्रकारक अवसर पर लागल मेला मे असामाजिक तत्व, धर्मार्थी महिला लोकनिक अपहरण
नहि करय एवं हुनक अभिभावक लोकनि सतर्क रहथि संगहि धार्मिक अन्धवि•ाास पर चोट
करबाक, उद्देश्य सँ चन्द्रग्रहणक अवसरक उपयोग कएने होथि। ग्रहण लागब, नीक अर्थक बोधो
नहि करबैत अछि।



एकटा और प्रश्न अछि-उपन्यासकारकें नारीक अपहरण द्वारा जखनि समाजकें शिक्षित
करबाक छलनि तखन ओ पंडितेजीक बेटीक अपहरण विधर्मीक हाथें किएक कराओल। ओ
ककरो बेटी भए सकैत छलि? इहो नियोजन सोद्देश्यपूर्ण अछि। धार्मिक अंधवि•ाासक जड़ि
थिकथि दक्षिणा कामी पंडित वर्ग। ओ लोकनि सामान्य सँ सामान्य प्राकृतिक घटना पर धार्मिक
लेप चढ़ाय अपन काजसुतारैत अएलाह अछि। ओ वर्ग नहि चाहैत अछि जे धार्मिक
अन्धवि•ाासक खंडन होअए। चन्द्रग्रहण मे सभक नहि भूल्लर बाबूक उद्गार थिक। ओएह
कहैत छथि जे एहि वेर देखैक योग्य मेला होएत। जँ ओही क्षण भुल्लरबाबू मेला आदिक
अवसर पर होइत दुराचारसँ सतर्क कए देने रहितथि तँ हुनक बेटी अतेक कूद-फान नहि
करैत। तें पंडितक बेटीक अपहरण

कराएब आवश्यक छल जाहिसँ पंडित वर्ग धार्मिक अंधवि•ाासक कुपरिणामसँ स्वयं परिचित भए
सकथि।



किरणजी एहि उपन्यासमे ओहि दूनू स्थिति पर प्रहार कएने छलाह। विड़नीक छत्ता कें
खोंचारने छलाह। से बिना बिन्हने कोना रहैत? परंच ओ ओकर डंक सहैत रहलाह। तथापि
अपन विचार नहि बदलल। 'चन्द्रग्रहण' क प्रकाशनक वाद किरणजीकें कोना गोलिएबाक प्रयास
पंडित वर्ग द्वारा भेल तकर स्पष्ट करैत ओ कहने छथि-"प्रतिक्रिया तेहन छलैक जे एक व्यक्ति,
आब मैथिलीक प्रतिष्ठित ओ साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत साहित्यकार कहलथिन जे ई
घटना किरणजीक संग घटल अछिह्ल। एहि प्रतिक्रिया मे निर्मूल करबाक लेल 'चन्द्रग्रहण' कें
हम जेना-तेना छपबा देल। प्रकाशनक वाद तँ पण्डित लोकनि नराज भए गेलाह। हमरा धर्म-
विरोधी घोषित कए जाति वहिष्कृत करबाक धमकी देल गेल अन्तमे हमरा सफाइ देबय पड़ल
जे 'चन्द्रग्रहण' धर्म विरोधी नहि विधर्मी द्वारा हिन्दू नारीक कएल जाइत अपहरणकें रोकबाक
प्रयास थिक।' 2



महत्वपूर्ण ई नहि अछि जे किरण जी पण्डित वर्गक समक्ष किएक सफाइ देलनि।
महत्वपूर्ण ई अछि जे ओ पंडितक घरसँ एक ओहन नारी पात्रकें तकलनि जे मेला-ठेला मे जाए
अपह्मत भे गेलो पर शिक्षा नहि पबैत अछि। ई ओहन पंडित वर्ग थिक जकर समस्त उपदेश
अनके लेल होइक छैक। एहन चरित्रक निर्माण मे रचनाकारक व्यक्तित्वक आक्रामकता सहजहि
देखल जा सकैत अछि।



वर्णित पाँचो उपन्यासक नारीपात्रक विश्लेषण सँ इहो स्पष्ट भए जाइत अछि जे जेना-


जेना परिवेशमे विभिन्न प्रकारक सुधारात्मक आन्दोलनात्मक चेतना प्रखर होइत गेल उपन्यासक
चरित्र निर्माण मे तकर प्रभाव पड़ैत रहल। 'चन्द्रग्रहण' मे आबि नारी पात्र नव रूप ग्रहण कए
लैत अछि।



आ0 भा0 मै0 सा0 प्र0 1989



.. .. .. ..



प्रो0 हरिमोहन झा एवं हुनक 'चर्चरी'



'चर्चरी' नामेसँ स्पष्ट अछि जे ओ कोनो एक विधाक पोथी नहि थिक। जेना चर्चरी
एकहि संग विभिन्न व्यञ्जनक सम्मिलित रूप रहितो एकटा फूटे स्वाद दैछ ओहिना प्रो0
हरिमोहन झा (1908-1984) द्वारा विभिन्न विधामे लिखल गेल रचनाक संग्रह 'चर्चरी' सेहो
एकटा फूटे स्वाद पाठककें दैछ। 'चर्चरी' मे प्रो0 झाक उत्कृष्ट रचना संगृहीत अछि।



'चर्चरी' मे विभिन्न उपखण्ड अछि। कथा उपखण्ड मे 'ग्रेजुएट पुतोहु' मर्यादाक भंग,
'ग्राम सेविका', 'परिवत्र्तन', 'युगक धर्म', 'महारानीक रहस्य' 'पाँच पात्र', सातरंगक देवी', नौ
लाखक गप्प, तिरहुताम, ब्राहृाक श्राप, आ तीर्थयात्रा अछि। द्वितीय उपखण्ड मे आचाची मिश्र
एवं मंडन मिश्र एकांकी अछि। तेसर उपखण्ड अछि छायारूपक, जाहि मे अछि-एहि बाटें अबै
छथि सुरसरि धार, चारिम उपखण्ड अछि झाजीक चिट्ठी जाहि मे अछि संगठनक समस्या।
पांचम उपखण्ड भोलाबाबाक गप्प 'दलान परक गप्प' चौपाड़ि परक गप्प आ' पोखरि परक
गप्प' अछि। प्रहसन उपखण्ड मे रेलक झगड़ा अछिह्ल। खट्टरककाक तरंग उपखण्ड मे 'पाचीन
सभ्यता', दर्शन शास्त्रक रहस्य 'आ' मिथिलाक संस्कृति' अछिह्ल।



प्रो0 झा गप्प लिखल की कथा, एहि पर वेस विचार आ खण्डन मण्डन होइत रहल
अछि। किछु गोटे प्रो0 झाकें कथाकार रूपमे मानैत छथि तँ किछु गोटे विधाक प्रणेता एवं
आचार्यक रूपमे। सुधांशु 'शेखर' चौधरी (1922-1990) प्रो0 झा कें गप्प साहित्यक प्रणेता एवं
आचार्य मानि लिखैत छथि 'जाहि वस्तुक आधार पर प्रो0 झा पूज्य छथि, जीवित छथि
चिरकालक हेतु अमर रहताह ओ थिक हिनक गप्प साहित्य' प्रो0 श्रीकृष्ण मिश्र प्रो0 झाक
रचना मे कथातत्वक अभाव देखि गप्प साहित्यक अन्तर्गत मानैत लिखल अछि-'प्रो0 झा
लिखलनि 'प्रणम्यदेवता', 'खट्टर ककाक तरंग', 'चर्चरी', 'रंगशाला', एहि सभ मे कथाक अंश
बड़ कम अछि। हमरा जनैत ई सभ ने कथा थिक आ ने निबन्ध। ई वास्तव मे गप्प थिक जकरा
हरिमोहन बाबू अपन प्रतिभा क वले एक नव साहित्य विद्या (ढ़ड्ढदद्धड्ढ) रूप मे प्रचलित कयलनि।
हिनक 'चूड़ा दही चीनी' वा अलंकार शिक्षाकें कथा कहब समुचित नहि बूझना जाइछ। ई
रोचक गप्प थिक। ओना जं किछु लिखब सँ ओहि मे सूक्ष्मो रूप मे कथावस्तु, चरित्र चित्रण,


घटना वार्तालाप विचार सभ रहबे करतैक, किन्तु 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' एहि नियम सँ
हरिमोहन बाबूक अधिकांश रचना गप्प प्रधान अछि।2 प्रो0 आनन्द मिश्र सेहो प्रो0 हरिमोहन
झाक कथाकें कथा सँ बेशी गप्प मानल अछि-'हुनक कथा कथा सँ वेशी गप्प अछि वेस
चहटकार तिक्त, कषाय आदि सभसँ युक्त, कोनो चरित्र जावत धरि अतिशय नहि करताह तावत
संतोषे नहि होइनि'।3



परंच डा0 जयकान्त मिश्र चर्चरीक एहि कोटिक रचनाकें कथा मानैत छथि :-
'क्ठ्ठद्धड़ठ्ठद्धत् द्धड्ढध्ड्ढठ्ठथ्ड्ढड्ड ण्त्थ्र् द्यदृ डड्ढ ड्ढध्ड्ढद थ्र्दृद्धड्ढ द्मद्वड़ड़ड्ढद्मद्मढद्वथ् ठ्ठद्म ठ्ठ द्मण्दृद्धद्य द्मद्यदृद्धन्र् ध्र्द्धत्द्यड्ढद्ध
द्यण्ठ्ठद ठ्ठद्म ठ्ठ ददृध्ड्ढथ्त्द्मद्य.



प्रो0 झा एहि रचना सभकें कथा साहित्यक अन्तर्गत मानैत लिखत छथि जे हमर कथा
साहित्यक तेसर मोड़ 'खट्टर ककासँ प्रारम्भ होइछ।" परंच कथा विद्या लेल आवश्यक तत्व
जखन प्रो0 झाक रचना मे तकैत छी जकरा ओ कथा साहित्यक अन्तर्गत मानल अचि तँ ओ
कथाक अनुरूप नहि भेटैछ। ओहि दृष्टिसँ बड़ कम रचना अछि जकरा कथाक रुपमे अलोचि
विश्लेषित कए जा सकैछ। इएह स्थिति 'चर्चरी' क रचनाक संग अछि। किछु कें बेराक
"कथाक रूप मे आ शेष कें गप्प साहित्यक रुपमे देखबे विशेष श्रेयस्कर होएत।



प्रो0 झा भारतीय वाङमयक प्रखर सर्जनात्मक क्षमता सम्पन्न रचनाकार छथि। एहन
प्रखर क्षमता सम्पन्न रचनाकार लेल बहुत स्वाभाविक छैक जे ओकर अभिव्यक्तिक वहन करबाक
क्षमता कोनो प्रचलित विधाकें नहि होअए। तखन ओ जे लिखैछ से कालक्रमे स्वतः एकटा नव
विद्याक जन्म दए दैछ। ई तँ निर्विवाद अछि जे प्रो0 झा पहिल मैथिल रचनाकार थिकहु ओ
अपन रचना सँ अधिकाधिक पाठकक निर्माण कएल। हिनक रचनाक पाठकक एकटा पैघ
समुदाय तैयार भए गेल जे सदिखन प्रो0 झाक रचना पढ़बा लेल उनमुनाइत रहैत छल। एकटा
इहो विशेषता प्रो0 झा मे छल जे ओ हास्यव्यंग्य प्रिय मैथिल संस्कारक अनुरूप अपन रचनाक
धारा कें प्रवाहित राखल अपन पाठकक प्रवाहकें अवाधित रखबा लेल हास्य रसक वर्षा करैत
रहलाह, पाठककें गुदगुदी लगबैत रहलाह, जाहि सँ एक स्वतंत्र विधाक, गप्प साहित्यक निर्माण
भए गेल।



पूर्वहि लिखल अछि मैथिल संस्कारतः हास्य-व्यंग्य प्रिय होइछ। ओकरा ओहन कोनो
सामाजिक स्थितिक मोकाविला नहि करय पड़लैक जे लोककें संघर्षशील बना दैछ।
संघर्षशीलताक अभाव आ पेटक चिन्तासँ निफिकिर लोक मे गप्पक खेती वेशी होइते छैक। एही
स्थितिक प्रतिफल थिक जे एक सँ एक गप्पी मैथिल समाज मे होइत रहलाह अछि एहन
गप्पीक उपस्थितिए सँ वातावरणक जड़ता समाप्त भए जाइछ। लोक कान खोलि गप्पक आनन्द
लिअ लगैछ। एहन एहन गप्प सूनि दुखियाक मन बहटारल जाइछ तँ वैसल लोकक हँसी खुशी
मे समय कटि जाइछ। ओ आनन्दित भए कौखन द्विगुणित उत्साह सँ अपन अपन काजो करए
लगैछ। मनोरंजक क्षणक उपयोग सँ थाकल ठेहीआएल मन उत्फुल्ल भए जाइछ। प्रो0 झाक
गप्प साहित्य मैथिली साहित्यक पाठककें एही प्रकारक आनन्द देलक अछि। स्फूर्ति प्रदान
कएलक अछि। समय


कटबाक एकटा माध्यम देलक अछि।



प्रो0 झाक गप्प साहित्यक एक खास विशेषता अछि। ई ततेक रोचक आ प्रवाहपूर्ण अछि
जे पाठक बिना समाप्त कयने छोड़बा लेल प्रस्तुते नहि रहैछ। हिनक गप्प परीदेशक गप्पन नहि
थिक, जे गप्प ओ कहैत छथि ओ रहैछ मैथिल संस्कृतिक, मिथिलाक समाजक आ शास्त्र
पुराणक। पाठकक चारू कात पसरल, अथवा घटैत घटनाक संयोजनपूर्ण विनोद आ हास्य
व्यंग्ययुक्त प्रभावक शैलीमे रहैत छैक। 'चर्चरी' मे संगृहीत 'दलान परक गप्प' चौपाड़िपरक
गप्प, 'घूर परक गप्प', 'पोखरि परक गप्प', प्राचीन सभ्यता "दर्शनशास्त्रक रहस्य", "मिथिलाक
संस्कृति" सात रंगक देवी, 'नौ लाखक गप्प' 'महारानीक रहस्य' आदि एही शैली मे अछि।



एहि सभ गप्पक माध्यम सँ हरिमोहन बाबू पाठक-समुदायकें हँसबैत छथि। कौखन तँ ई
हँसी ह्मदय विदारक भए जाइछ। एहि संदर्भ मे प्रो0 जयदेव मिश्र (1911-1991) लिखैत छथि
जे समाजक जाहि अंग पर श्री हरिमोहन बाबू देखैबाक हेतु हँसैत हँसैत प्रहार करैत छथिन्ह।
ओतय फोंका धरि बहार भए जाइत छैक। एही कारणें हिनक हास्य रचना समान रूपसँ सभक
हेतु प्रिय नहि बनि सकलन्हि अछि। ई रचना सभ बहुत स्थल पर जीवन विषयक विषमता एवं
विद्रूपताक विनोदपूर्ण अध्ययन होएबाक अपेक्षा विद्रूपता अतिरंजन मात्र प्रतीत होइत छनि। प्रो0
हरिमोहन झाक हेतु सभसँ उपर्युक्त प्रसंग तखन अबैत छनि, जखन ओ भोजन अथवा
धर्मचरणक प्रसंगकें लए कए लेखनी चलतैक छथि।"4 डा0 जयकान्त मिश्रक मत सेहो एही
प्रकारक अछि। डा0 मिश्रक मते प्रो0 झाक कथा साहित्यमे हँसी तँ उड़ाओल गेल अछि किन्तु
ओहि हँसीक माध्यम सँ कोनो बाट देखाइत छैक से नहि-क्तठ्ठद्धत्थ्र्दृण्ठ्ठद ख्ण्ठ्ठ'द्म द्मद्यदृद्धत्ड्ढद्म ठ्ठद्धड्ढ
थ्र्ठ्ठद्धद्धड्ढड्ड डन्र् ण्त्द्म दृडड्ढद्मद्मत्दृद दृढ ढत्दड्डत्दढ़ ढठ्ठद्वथ्द्य ध्र्त्द्यण् ड्ढध्ड्ढद द्मदृथ्र्ड्ढ दृढ द्यण्दृद्मड्ढ द्यण्त्दढ़द्म
ध्र्ण्त्ड़ण् ढदृद्धथ्र् द्यण्ड्ढ द्धड्ढठ्ठथ्थ्न्र् ददृडथ्ड्ढ द्मद्वडथ्त्थ्र्ड्ढ ठ्ठदड्ड ढ़दृदृड्ड त्द दृध्ड्ढद्ध ड़द्वथ्द्यद्वद्धड्ढ. ज़्ण्त्थ्ड्ढ ण्ड्ढ
द्मड्ढड्ढत्त्द्म द्यदृ द्मण्ठ्ठत्त्ड्ढ दृद्वद्ध ड़दृदढत्ड्डड्ढदड़ड्ढ त्द द्यण्ड्ढत्द्ध ध्ठ्ठथ्द्वड्ढद्म, ण्ड्ढ ड्डदृड्ढद्म ददृद्य ठ्ठथ्ध्र्ठ्ठन्र्द्म द्मद्वड़ड़ड्ढड्ढड्ड
त्द दृढढड्ढद्धत्दढ़ ध्र्त्द्यण् ठ्ठदन्र् ढदृद्धड़ड्ढ दृद्यण्ड्ढद्ध ठ्ठथ्द्यड्ढद्धदठ्ठद्यत्ध्ड्ढ ध्ठ्ठथ्द्वड्ढद्म दृढ थ्त्ढड्ढ.5 मे प्रो0 हरिमोहन झाक
सर्वोत्कृष्ट कथा 'पाँच पत्र' एहीमे संगृहीत अछि। पाँच दशकक पति-पत्नीक रागात्मक सम्न्ध,
क्रमशः परिवर्तित होइत दृष्टि आ परिवारिक दायित्व बोधक जीवन्त कथा थिक 'पाँच पत्र'। ई
पाँच-पत्र प्रो0 झाक नहि, अपितु मैथिली कथा साहित्येक एकटा सर्वोत्तम कथा थिक। एहि 'पाँच
पत्रक प्रसंग कुलानन्द मिश्र (ज0 1940) लिखने छथि जे 'अखनोधरि एकटा कोमल आ धड़कैत
आ मधुर चेतना कथा करुण आ उदास नियति बोधक कथाक रूप मे मैथिलीक अन्यतम सफल
कथा थिक। एकर अन्तिम पत्रक अन्त मे पुनश्च कहिक छोड़ल पाँती जे देवकुष्ण पत्नीकें इंगित
कए बेटा के लिखने छथि। अद्भुत करुणा आ व्यंग्यक बोध-मोन मे उत्पन्न कए दैछ।' 6



'चर्चरी' मे प्रो0 दू टा एकांकी संगृहीत अछि आयाश्री मिश्र एवं मंडल मिश्र। छओ दृश्य
मे समाप्त 'आयाची मिश्र' एकांकी मे म0 म0 भवनाथ मिश्र प्रसिद्ध आयाची मिश्रक जीवन दृष्टि,
शंकर मिश्रक विद्वता, अतिथि सत्कार, निर्लोभता आदिक दृश्यांकन भेल अछि। दोसर एकांकी
'मंडल मिश्र' मे शंकराचार्यक मिथिला आगमन, मंडन मिश्र सँ शास्त्रार्थ, विदूषी सरस्वती द्वारा
मध्यस्थता, शंकराचार्यक सात वर्षक वाद आबि विदुषी सरस्वतीक प्रश्नक समाधान, मंडन


मिश्रक संन्यास ग्रहण करब, पत्नी द्वारा सुरे•ााराचार्य तामकरण एवं कर्ण फूल उतारि प्रथम
भिक्षा देब आदि स्थितिक दृश्यांकन कएने छथि। एहि दूनू एकांकीक माध्यम सँ प्रो0 झा
मिथिलाक प्राचीन सांस्कृतिक उत्कर्षकें प्रस्तुत कए समाजमे उद्बोधन अनबाक प्रयास कएल
अछि।



प्रो0 हरिमोहन झाक एहि दूनू एकांकीक ऐतिहासिक महत्व एहू लेल अछि जे मैथिली
रंगमंचक इतिहास मे स्वर्गीया सुभद्रा झा मंच पर उतरलीह तथा प्रथम मैथिल महिला रंगकर्मीक
रूपमे ख्याति पाओल।



'चर्चरी' मे एकटा प्रहसन संगृहीत अचि' रेलक झगड़ा?' रेलगाड़ी मे बैसवा लेल कोना
कराउझ होइछ तकर एहिमे विनोदपूर्ण अछि। किन्तु, जखन पोल खुजैछ, परिचय होइछ तँ
संभावित सिमाधानि आ संभावित सासु पुतहु पश्चात्ताप करैछ। सम्बन्ध स्थापित होइछ। 'रेलक
झगड़ा'क प्रसंग डा0 वासुकीनाथ झा लिखैत अछि जे 'रेलक झगड़ा' मे आधुनिक शिक्षाक
वायुसँ कनेक सिहकल दू टा परिवारक विवाह सम्बन्ध स्थिर करबाक क्रम मे आकस्मिता कें
हास्यपूर्ण अभिव्यक्ति देल गेल अछि। कन्या देखय-देखयबाक हेतु दूनू भावी समधिन एवं भावी
सासु-पुतहुक बीच रेलगाड़ी मे विशिष्ट मैथिल पद्धति सँ झगड़ा होइत अछि। दूनू पक्षक परिचय
खुजैत अछि। पश्चाताप प्रकट कएल जाइछ। अन्त मे वरक माए कन्या कें अंगीकार करैत
छथि। विषयक दृष्टि सँ एहि मे प्रगतिशीलताक भेटैत अछि आ शिल्पक दृष्टि सँ हास्य शँ
अधिक फैंटसीक तत्व विद्यामान अछि।' 7



'झाजीक चिट्ठी' उपखण्ड मे 'संगठनक समस्या' पर सम्पादक कें पत्र लिखल गेल
अछि। काज दिस कम किन्तु संस्थाक नामकरण पर विशेष घमर्थन होइछ। ओहि पर व्यंग्य
कएल अछि। प्रतिकूल विचारधाराक व्यक्ति संगठनक काज मे कोना बाधा उत्पन्न करैत छथि
देखाओल अछि।



'छायारूपक उपखण्ड मे' एहि बाटे अबै छथि सुरसरि धार' संगृहीत अछि। एहि
छायारूपक केन्द्र थिक 'सौराठ सभा' । तिलक-दहेजक उन्मूलन करबा लेल महिला लोकनिक
सक्रियताक वर्णन पाँच रील मे कएल गेल अछि। प्रथम रील मे तिलक दहेजक विरोध
कएनिहार महिला उपहास्य बनैत छथि। किन्तु क्रमशः जागृति अवेत जाइछ आ पाँचम रील मे
आबि स्वयंवर होइछ। तिलक दहेजक घृणित प्रथा समाप्त होइछ। प्रो0 हरिमोहन झा केहन
भविष्य द्रष्टा छलाह हिनक दृष्टि नारी जागरण एवं कल्याण लेल कतेक तत्पर छल, तकर
ज्वलंत प्रमाण थिक' एहि वाटें अबैत सुरसरि धार, जहिया ई रूपक लिखल गेल ओहि समय मे
ई असंगत छल छे 'सौराठ सभा' मे महिला लोकनिक पैर दए सकतीह। किन्तु गत किछु वर्ष मे
एहि छायापूरकक पहिल रील सदस्य रहल अछि। महिल संगठन सभा मे जाए दहेजक विरोध
मे बाजए लगलीह अछि। नारी जागरणक अग्रदूत प्रो0 हरिमोहन झाक एहि रचनाक अन्तिम
रील कहिया सत्य होएत तकर प्रतीक्षा छैक। तिलक विनाशिनी सुरसरि सौराठ मार्ग सँ तिलक
दहेजक प्रथा कें कहिआ आत्मसात कए लाखो कन्याक बाप कें वलि होएबा सँ बचबैत छथि,
तकर प्रतीक्षा छैक। एहि छायारूपककें कथ्य धुहिना सामाजिक एवं सभसामयिक अछि ओहिना


प्रस्तुति सेहो आकर्षक। एकर अन्त संगीतमय अछि। जे लोकक मन प्राण कें आच्छादित कएने
रहैछ :-



'भागू दूर घटक पंजियार

होउ बरागत आब होशियार

आब नहि चलत तिलक रोजगार

नहि केओ टाका गनत हजार

समटू अपन हाट बाजार

एहि बाटे अबै छथि सुरसरि धार ।'



प्रो0 हरिमोहन झाक कतेको उत्कृष्ट रचना 'चर्चरी' मे संगृहीत अछि। एहि उत्कृष्ट
रचना कें जँ फूट सँ पढ़ल जाइछ तँ ओकर उत्कृष्टता प्रभावित करैत छैक। किन्तु 'चर्चरी' मे
पड़ि ओ 'भोला वाबाक गप्प' मे तेना ने स्पंदनहीन भए गेल अचि जे ओकर स्वादक पत्ता
तकलासँ लगैछ। 'चर्चरी' क प्रसंग प्रो0 निगमानन्द कुमरक कहब छनि जे आइ जँ मैथिली
पाठकगणक बीच 'चर्चरी' कें सेहो लोकप्रियता भेटि रहल अछि तँ ई हमरा सभक हीन दृष्टि
कोणक प्रमाण दए रहल अछि। जे स्वस्थ व्यंग्य लए श्री हरिमोहन बाबू 'कन्यादान' सँ

यात्रा प्रारम्भ कएलैनि बुझाइत अचि जे रस्ते मे साँझ भेल देखि दिक्भ्रमित भए गेलाह। 'प्रणम्य
देवता' सन उत्कष्ट व्यंग्य ओ हास्यक खट्टमिठी दोसर नहि भेटल, मुदा 'खट्टर कका'क संग
पड़ि हुनका शास्त्रार्थ मे श्रीहरिमोहन बाबू तेना ने ओझारा गेलाह जे 'चर्चरी' धरि अबैत एवा
लगैत अछि जेना डुमराँव मे ट्रेनक दुर्घटना कएगेल हो, जाहि मे मात्र हल्ला अर्थात गप्प आर
ठहाकाक किछ वूझाइत अछिये नहि साहित्य सँ दूर रहि साहित्य कें समय कटबाक साधन बूझि
जे लोकनिक 'भोलाबाबाक' चौपाड़िक सक्रिय सदस्य छथि, तनिके मन मोहिनी छथिन्ह
'चर्चरीदाइ'।8



प्रो0 हरिमोहन झाक रचनाक मूलस्वर समाजोन्मुख आ उद्वोधनात्मक अछि। परंच ई
समाजोन्मुखता व्यापक नहि अछि। किछु निश्चित निर्धारित क्षेत्र अछि, जाहि पर कलम उठबैत
रहलाह अछि। प्रवरकए हँसबैत रहलाह अछि। तें प्रो0 झाक समाजोन्मुखताक तात्पर्य ई नहि जे
समाज मे व्याप्त विषमता आ शोषणपर प्रहार कएल अछि। समाजोन्मुखताक मतलब ई नहि, जे
समाज मे व्याप्त आर्थिक दुःस्थिति जन्य विसंगतिक अभिव्यक्ति कएल अछि, प्रो0 हरिमोहन
झाक समाजोन्मुखताक मतलब नहि जे ओ समाजक ओहि वर्गक समाजिक स्थिति अथवा
राजनीतिक स्थितिकें स्वर देल अछि धन जे युग-युग सँ सुविधाभोगी वर्ग आ धान्य पूर्ण व्यक्तिक
पैर तर पिचातल रहल अछि। समाजोन्मुखताक मतलताई नहि जे हिनक रचना ओहि सामाजिक
चेतनाक अभिव्यक्ति थिक जाहि मे भूखक ज्वाला मे झरकल, शोषण, उत्पीड़न, सम्बन्धवाद,
राजनीतिक सुतार नीतिक जाल मे फसल लोक किछु कए जयबा लेल विवश भए जाइछ।
अपितु हरिमोहन बाबूक रचना मे विधि-व्यवहार, शास्त्रीय मान्यता, मैथिली भाषा आ संसस्कृतिक
मैथिले द्वारा उपेक्षा अथवा ओकर विकासक प्रति अन्यमनस्कताक अभिव्यक्ति विशेष रुचिपूर्णक
भेल अछि। तें अधिकांश रचना पढ़ला पर विचारक उन्मेष नहि होइछ। पाठक अभिप्रेत पर


सोचबा लेल प्रेरित नहि होइछ। वैचारिक मंथन नहि होइछ। अपितु अधिकांश रचना पढला पर
गुदगुदी लगैछ। कौखन व्यंग्यास्पद पर दया सेहो होइछ, परंच एक बेर हँसा गेलापर ओकर
प्रभाव बिला जाइछ।

मै. अ. पत्रिका-मार्च'84



.. .. .. ..



कविवर यात्रीक स्तम्भ लेखन



मैथिलीमे पत्र-पत्रिका प्रकाशनक टू टा मूल लक्ष्य छल - मातृभाषाक सेवा तथा
सामाजिक कुरीतिक निदानक लेल लोक कें अनुकाल बनाएब। एहि हेतु संबंधित विषय पर
विभिन्न विद्वानक लेख, विचार अदि प्रकाशित कारओल जाइत छल। सुधी आ विचारवान
पाठकक तर्क ओ टीकाटिप्पणी आमंत्रित कए, प्रकाशित होइत छल। एहि सँ लेखक आ
पाठकक बीच संवाद सूत्र स्थापनाक श्रीगणेश भेल। एकहि विषय पर अनेक व्यक्तिक विचार
अएलासँ रोचकता आ संलग्नता बढ़ल। ई पत्र-पत्रिकाक प्रचार-प्रसार मे सहायक भेलैक। एहिसँ
एकटा आओरो लाभ भेल कतेको पत्र लेखक पाठक बाद मे लेखक भए गेलाह। पाठकक
प्रतिक्रिया छपबा लेल सम्पादक लोकनि अपन पत्रमे स्थान सुरक्षित कएल। एकटा शीर्षक देल।
जाहि शीर्षकक अन्तर्गत लेखक आ पाठकक बीच संवाद-सूत्र स्थापित भेल नाम पड़ल.....
'फल्लाँ बाबूक पत्र (आरम्भ मे पत्र लेखकक नाम शीर्षक रूप मे भेटल अछि)', चिट्ठी-पत्री
'पाठकीय मंच', 'पाठकीय प्रतिक्रिया', अथवा 'पाठकीय स्तम्भ'। एहि प्रकारें पत्र-पत्रिकामे शुरु
भेल पहिल स्तम्भ 'पाठकीय स्तम्भ' मानल जा सकैछ।



पाठकीय स्तम्भक माध्यमे विविध व्यंजन परसबाक अनुरोध होमय लागल। पाठकक रुचि
विकसित

भेल। युग जीवनक प्रयोजन बढ़ल आ बदलल। सम्पादक अनुभव कएल पाठकक रूचि बदलि
रहल अछि, विकसित भए रहल अछि। पत्र-पत्रिकाक आधार पाठके थिकाह तें वेशीसँ वेशी
पाठक वर्गकें अपन पत्रिका दिस आकृष्ट करब, विभिन्न रूचिक आ रोचक सामग्री छापब,
आवश्यक।'



शिक्षाक विकासक संग अक्षर ज्ञाताक संख्या बढ़ल। पाठकक संख्या बढ़ल। गुणात्मक
परिवर्तन आएल। गैर साहित्यिक पत्रिका प्रकाशनक आवश्यकता भेल। पत्र-पत्रिका केवल
साहित्यिक अभिव्यक्ति आ ज्ञान वृद्धिए लेल नहि शुद्ध मनोरंजनक हेतु सेहो छपय लागल।
अर्थात् जाहि पाठकक रूचि जेहने हो, ओ ओही प्रकारक सामग्री पढ़थि। एहिसँ एक 'चलता
पाठक'क निर्माण भेल। अहिवर्गक पाठक समय कटबा लेल, किछु पढय चाहैछ, भलहि
पत्रिकामे प्रकाशित तारिकाक अंग दर्शने। बाट गुजरि जाइत होनि। तात्पर्य जे जहिना पाठकक
संख्या पढ़ल अछि, ओहिना रूचि भिन्नता सेहो। ई सभ देखि, विभिन्न रूचिक पाठकक रूचि कें
देखि, पत्र-पत्रिकामे ओहना स्तम्भ देल जाए लागल जकर महत्त्व तात्कालिक वा क्षणिक रहैत


अछि।



प्रकाशनक आवधिकता पर स्तम्भक विषय वस्तु सेहो निर्भर करैत अछि। दैनिक पत्रक
स्तम्भ आ वार्षिक अद्र्धवार्षिक अथवा मासिक पत्रिकाक स्तम्भमे गुणात्मक अन्तर अछि। तें, पत्र-
पत्रिकाक स्तम्भ आ विषय वस्तुक चयन ओकर आवधिकता पर सेहो निर्णर करैत अछि।



स्तम्भक स्वरूप निर्धारित करबामे पत्र-पत्रिकाक स्वरूप अर्थात् ओकर, दृष्टि की छैक,
कोन प्रकारक विषय वस्तु छपैत अछि पर निर्भर करैछ। राजनीतिक पत्र-पत्रिका मे साहित्यिक-
सांस्कृतिक स्तम्भक कोनो औचित्य नहि छैक। ओहिना जँ धार्मिक-आध्यात्मिक पत्रमे राजनीतिक
गतिविधि आ नेताक छल प्रपंचक प्रसंग स्तम्भ हो तँ ओ एकदम्मे अरूचिकार होएत। तें, पत्र-
पत्रिकाक स्तम्भ आ विषय चयन प्रकाशनक आवधिकता, सम्पादकक दृष्टि, पत्र-पत्रिकाक
स्वरूप ओ उद्देश्य पर आधारित अछि। पत्र-पत्रिका लेल स्थायी स्तम्भ कतेक प्रयोजनीय भए
गेल अछि, से एही सँ देखल जा सकैछ जे खेल धूपसँ पूआ-पकवान धरि स्थायी-अस्थायी स्तम्भ
पत्रिकामे भेटैत रहत। सम्पादक वा प्रकाशकक व्यावसायिक दृष्टि अपन प्रकाशन कें एकरस
बनाएब अव्यवहारिक मानैछ। तें, जाहिपाठक कें जेहन वस्तु रूचनि-पचनि सएह पढ़बा लेल
पत्रिका कीनथि। अनेक प्रकारक स्तम्भक पाछू प्रायः दृष्टि रहैछ। पत्र-पत्रिकाक प्रकाशन अवधि
कें ध्यानमे राखि स्तम्भ निर्धारित करबासँ कम महत्वपूर्ण, विषय आ स्तम्भ लेखकक चयन नहि
अछि। तात्पर्य जे निर्धारित स्तम्भ लेल ओहने व्यक्तिक चयन होएबाक चाही, जाहि व्यक्ति मे
ओहि स्तम्भक विषय मे रूचि होनि, नवीनतम स्थितिसँ परिचि रहथि तथा प्रतिपादन शैली ओ
भाषा ललितगर हो। जेना केओ खेलकूद वा क्रीड़ा जगतक स्तम्भ लेल लिखथि तँ ई नितान्त
आवश्यक जे स्तम्भकार क्रीड़ा जगतक अद्यतन स्थितिसँ भिज्ञ रहथि। ओहिना दैनिक पत्रक
स्तंभकार कें देश-विदेशक प्रत्येक क्षणक स्थितिक लेखा-जोखाक टटका ज्ञान रहब आवश्यक
अछि। अन्यथा ओहि स्तंभक प्रति पाठककें अरूचि भए जएतैक।



पत्र-पत्रिकाक प्रकाशन सांघातिक रूप सँ व्यावसायिक भेल जा रहल अछि। एहि
व्यवसायिकता कारणें स्तम्भ लेखकक चयन मे विषयजन्य प्रवीणता नहि देखि, खोरिस देबाक
नीति सेहो काज करैत छैक। परंच, एहि वर्गक व्यक्तिसँ लिखाएल स्तंभ पाठकवर्ग कें मात्र एक
खानापूर्तिसन लगैत छैक।



स्तम्भ लेखनक प्रसंग पूर्व कथिन स्थितिसँ भिन्नो स्थिति संभावित अछि। जखन कोनो
पत्र वा पत्रिका अपन प्रकाशन लेल अपना क्षेत्रक ख्यातनाम विद्वान अथवा लेखक कें एक
स्तम्भक अन्तर्गत नियमित रूप सँ लिखैत रहबालेल मना लैत अछि। एहि सँ पत्र-पत्रिकाक प्रति
पाठक वर्ग आकृष्ट होइछ। ओकर तत्काल प्रभाव पत्रिकाक प्रचार-प्रसार पर पड़ैत छैक।
वैध्यनाथ मिश्र 'यात्री' (ज0 1911) मैथिलीक एही कोटिक स्तम्भ

लेखक छथि। जाहि कोनो पत्रिका मे यात्रीजी स्तम्भलेखन कएने छथि गरिमा बढ़ि गेल छैक।



लेखकक अनुसार स्तम्भलेखन दू प्रकारक भए सकैछ-एकजना आ बहुजना। एकजना
स्तम्भ ओ भेल जकर अन्तर्गत एकहि व्यक्त नियमित रूपसँ लिखैत छथि। एहि मे दृष्टिक


समानता रहैछ। बहुजना स्तम्भक अन्तर्गत भिन्न-भिन्न लेखक एकहि शीर्षकक अन्तर्गत लिखैत
छथि। 'माटि-पानि' पत्रिका मे एक स्तम्भ छल 'अछि सलाई मे आगि' जाहि मे विभिन्न लेखक
अपन-अपन विचार व्यक्त करैत छलाह। एहि प्रकारक स्तम्भ मे विचारक विविधता देखल
जाइछ। स्थायित्वक आधार पर स्तंभ के स्थायी आ अस्थायी मे विभाजित कएल जा सकैछ।
स्थानक अनुसार देस कोस आ देश देशांतर भए सकैछ। वय वर्ग तथा लिंग भेदक अनुसार
बाल जगत 'नेता-भुटकाक चौपाड़ि', 'बाल--गोपाल', 'नारी-जगत', 'घर-आंगन' अथवा 'स्त्रीगण
समाज' में स्तम्भ लेखन बाँटल जा सकैछ। सूचनात्मक वा समाचार मूलक स्तम्भ कें बाजार
भाव, खेलकूद, फिल्म लोक, राशिफल, टाइम-टेबुल आदि मे विभाजित कए सकैत ही। विषयक
दृष्टि सँ सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि मे बांटल जा सकैछ। ओहिना
प्रभावोत्पादनक दृष्टि सँ स्तम्भ लेखन हास्य-व्यंग्य प्रधान तथा विचारोत्तेजक भए सकैछ।



मैथिली मे स्तम्भ लेखनक परम्परा



पत्र-पत्रिकाक स्वरूप आ पाठकक रूचिक परिवर्तनक प्रभाव मैथिली स्तम्भ लेखन पर
पड़ल अछि। पाठकीय स्तम्भसँ शुरु भए नाना प्रकारक डारिपात सँ सम्प्रति भरल पूरल देखल
जा सकैछ। ओहि स्तम्भक लेखा-जोखा आ विश्लेषण आब फूट अध्ययनक विषय भए गेल
अछि। तथापि पत्र-पत्रिका मे प्रकाशित सूचनात्मक स्तम्भकें जँ बेरादी तँ ओहनो ओहनो स्तम्भक
संख्या कम नहि छैक, जकर स्थायी आ दीर्घकालिक महत्व नहि हो। मैथिलीक विभिन्न पत्र-
पत्रिकामे प्रकाशित स्तम्भक किछु नाम एहि प्रकारें अछि-'झाजीक पत्र' (भारती) 'किमाश्चर्यमतः
परम' (विभूति) 'हमरो किछु कह दिअ तथा 'उचितरामक उचिती' (स्वदेश), बल
धकेलानन्दजीक बलधिङरो, गोनू झाक चटिसार, 'बहिरा नाचय अपने तालें, ओझा लेखें गाम
बताह', 'रूचय तँ सत्य नेतँफूसि' (मिथिला मिहिर), नगर रणनीति' (अग्निपत्र), 'छिटकी'
(चाङुर), 'तिरपेच्छन' (फराक), धयल उसारल (हिलकोर), 'नव हस्ताक्षर' (मिथिला सौरभ),
'कहलनि पीसी (स्वाती)', प्रश् अहाँक अन्तर श्री......क' (कोसी कुसुम), 'पावनि तिहार'
'मैथिली जगत', नन्हकी परदा (भाखा) 'पैट घाटक रेडियो' (धीयापूता) आदि। मिथिला मिहिर
(साप्ताहिक)कें छोड़ि अधिकांश पत्र-पत्रिका मे स्तम्भ कारक नाम अथवा छद्यनाम मुद्रित अछि।
परंच, 'मिहिर'मे स्तम्भकारक असली नामक अनुसंधानक क्रममे चन्द्रनाथ मिश्र 'अमर', हीरानन्द
शास्त्री, मार्कण्डेय प्रवासी आदि मैथिलीक ख्यातनामा लेखक वा व्यंग्यकार होइत छथि। अथवा
हुनक कोनो सरोकारीक नाम रहैत अछि। 'ई नहि उचित विचार 'स्तम्भक (मिथिला मिहिर-
साप्ताहिक)क अन्तर्गत श्री हीरा (हंसराज) पुस्तक समीक्षा लिखैत छलाह।



यात्रीजीक स्तम्भ लेखन



यात्रीजी (ज0 1911) कविता लिखलनि, कथा लिखलनि अथवा उपन्यास लिखलनि, से
तँ सर्वज्ञात अछि। परंच, यात्रीजी कोनो कोनो पत्रिका लेल नियमित रूप सँ स्तम्भ लेखन
कएल, अवश्य विस्मयकारी अछि। पर्याप्त अनुसंधानक उपरान्त तीन शीर्षकक अन्तर्गत
यात्रीजीक स्तम्भ लेखन भेटल अछि। ओ थिक-'यत्र तत्र सर्वत्र' यÏत्कचित 'आ चिन्तन


अनुचिन्तन'। एहिमे प्रथम वैदेही मे अन्तिम दूनू मिथिला दर्शन' मे अछि।



'यत्र तत्र सर्वत्र' वैदेहीक 1957 क अंकसँ किछु अंक धरि प्रकाशित होइत रहल। एहि
स्तम्भ कें शुरू करबाक प्रसंग 'वैदेहीक' सम्पादक लिखने छथि-'यात्रीजीक इच्छा छन्हि जे
प्रतिमास एक प्रकारक टिप्पणी लिखि पठावी, तकरा हम सभ हार्दिक स्वागत करैत छी। आशा
अछि पाठकके नवीन स्तम्भ प्रिय लगतन्हि।'



'यत्र तत्र सर्वत्र' क पहिल टुकड़ीक रूपमे यात्रीजी लिखने छथि-'साहित्य अकादेमीक
अधिकारी लोकनि मैथिली संबंध मे एम्हर वेश उत्सुक भए गेल छथि। सङहि राजस्थानी ओ
सिन्धी भाखाक दिस सेहो ओतबे तत्परतापूर्वक जिज्ञासा छइन्ह। हमरा वि•ास्त सूत्रे ज्ञात भेल
अछि जे डॉ. सुनीति कुमार चटर्जीकें अकाडेमीक मंत्री मैथिलीक मन्यता लए पूछने छथिन्ह।
(आइ 12 मार्च थीक) 16 मार्च कें एतद्विषयक मीटिंग थिकइ) एहि तीनू भाखाक ओ साहित्यक
एकहकटा इतिहास तइआर करबाकें अकादमी तकरा फेर प्रमुख भारतीय भाखा समहिये
अनूदित करा लेत। ई काज अकादमीक छओ मासक भीतरे हेबालए छइ। ईभारी शुभ लक्षण
थीक, हमरा लोकनिक लेल-मैथिली साहित्य परिषद, वैदेही समिति कें आब एहि दिशामे
अधिकाधिक सचेष्ट हेबाक चाहिअइक...........पारस्परिक मनोमालिन्य छाड़ि साहित्यिक
उपलब्धिक एकटा निष्पक्ष लेखा जोखा हमरा लोकनि कें समग्र भारतक समक्ष उपस्थित करक
हैत। ई काज अब अनिवार्ये।'



'यत् किंचित' मिथिलादर्शनक जून 1959 क अंकसँ प्रारम्भ भेल तथा (यत्र तत्र सर्वत्रहि
जकाँ किछु अंक धरि चलल)। एहि स्तम्भकें प्रारम्भ करबाक प्रसंग मिथिलादर्शन क सम्पादक
लिखने छथि-('ई स्तम्भ पहिने 'वैदेही') मे चालू रहइ। आब यात्रीजी कलकत्तामे छथि आ
रहताह। 'मिथिला दर्शन'मे प्रतिमास ई स्तम्भ रहत। एहि स्तम्भक मतामतक लेल सम्पादक
कोनो प्रकारक उत्तरदायित्व नहि लेताह।' सम्पादक टिप्पणी स्तम्भक नामक प्रसंग ठीक नहि
अछि। 'वैदेहीक स्तम्भक नाम छल' 'यत्र तत्र सर्वत्र' । ई भिन्नवात जे दूनूक स्तम्भाकार
यात्रीजी छथि। परंच वैदेहीक ओ स्तम्भ लोककें रूचैत-पचैत छलैक से धरि आवश्य सिद्ध भए
जाइत अछि। आ ओही लोकप्रियतासँ 'दर्शन' क सम्पादक लोभाएल होएताह तकर पूर्ण
सम्भावना अछि। एकटा और तथ्य स्पष्ट अछि-'वैदेही' आ 'मिथिलादर्शन' क सम्पादकीय दृष्टि
मे अन्तर।



'यत् किंचित' स्तम्भ प्रारम्भ करैत यात्रीजी लिखैत छथि' सउराठक सभागाछी मे
सभईता लोकनिः सौकर्यक लेल बिजुली पहुँछि गेल अछि। पीच रोड से हो मधुबनी स्टेशन सँ
सउराठ धरि बनि गेल अछि।.......जय हो सरकार बहादुरक !'



'आब कने रेलवे बोर्ड सेहो अपन उदारता देखबइत ! सभाक अबइत-अबइत ततेक ने
रेड़म रेड़ भए जाइ छइ, लोकक प्राण अवग्रह मे पड़ि जाइत छइ। बिहार सरकार जँ चाहथि त


सभइता लोकनिक सुविधार्थ अंततः तिनियो दिनुक खातिर दरभंगा-जयनगर-निर्मली दिशिसँ दू-
दू घंटा पर शटल ट्रेन मधुबनी धरि करबा सकइ छथि। हानिक तँ कथे कोन, रेलवे बोर्जकें
लाभे होइतइ। प्रदेशक मुख्य मंत्री (डा. श्रीकृष्ण सिंह) जँ एकोरत्ती अइ दिश ध्यान दितथिन !'



कविवर यात्रीक लिखल तेसर स्तम्भ 'चिन्तन-अनुचिन्तन' 'मिथिल दर्शनक' जनवरी-
फरवरी 1969 क अंकसँ प्रारम्भ भेल अछि। एहिमे कोनो सम्पादकीय टिप्पणी नहि अछि। किन्तु
एहिठाम लिखल अछि-यात्री-नागार्जुन। एहि स्तम्भकें प्रारम्भ करैत लिखल अछि सुनबामे आएल
अछि जे मिथिला अंचल (विशेषतः जिला दरभंगा) क मतदाता लोकनिक जागरूकता देखि
प्रायःसभ राजनीतिक दल एहिबेर मैथिलीक माध्यमे अपना-अपना पक्षक प्रचार कए रहलाह
अछि। एकरा हम बड्ड पैघ शुभ लक्षण बुझइ ही।'



'सत्ता संघर्षक हुलिमालिमे मिथिलाक न भाषा मैथिल मतदाता लोकनिकें साफ-साप
हुझबामे अओतइत,

आन-आन भाषा दुर्बल ओ अक्षम प्रमाणित होएत राजनीतिक महत्त्वाकांक्षीगण एहि वस्तु स्थितिकें
आब नीक जकाँ मानि लेलइन ताहिमे मिसियो भरि संशय नहि।'



यत्र तत्र सर्वत्र, यत् किंचित एवं 'चिन्तिन अनुचिन्तन' मिथिला मैथिल एवं मैथिलीक
गम्भीर, आ ज्वलंत समस्याक पेटसँ जनमल अछि। जखन साहित्य अकादमी द्वारा मैथिली
मान्यता नहि पओने छल तँ विभिन्न प्लेटफार्म सँ मान्यताक प्रयास होइत छल। मैथिलीक हित
चिन्तक प्रयत्नशील छलाह। परंच ओहिमे समन्वय नहि छलैक। यात्रीजीकें ई खटकैत छलनि।
मैथिलीकें सरकारी मान्यता आ विभिन्न मैथिली सेवीसंस्थामे समन्वय ओएकसूत्रताक अभावक
पीड़ासँ 'यत्र तत्र सर्वत्र' स्तम्भ प्रारम्भ भेल।



मिथिलाक सामाजिक आर्थिक दुःस्थितिक चिन्ता प्रायः सभ संवेदनशील मैथिल कें हौड़ैत
रहल अछि, यात्रीजी तकर अपवाद कोना होएताह। परंच सरकारी तंत्र लेल धनसन। ई विशेष
चिन्ताक विषय थिकजे बिहारक नेतालोकनि मिथिलांचलक विकास कें गतिहीन राखल अछि।
विकासक पहिल सोपान थिक आवागमनक सुविधा। परंच औहि दिस ककरो ध्यान अद्यावधि
नहि अछि। मिथिलांचलक जन्नभावनाक कतेक निष्ठुरतासँ तिरस्कार भेल अछि, तकर ज्वलंत
उदाहरण थिक रेलमार्गक स्वीकृत योजनाकें स्थगित करबाक उच्चस्तरीय षड्यंत्रक सफलता।
भाषा, व्यक्ति आ क्षेत्रक अस्मिताक रक्षक आग्योतक थिक तँ आवागमन सुविधा ओकर आर्थिक
मेरुदण्ड कें सुदृढ़ करैत छैक। यात्रीजीक दोसर स्तम्भ 'यत किंचित' मिथिलांचलक एही
समस्या सँ शुरु होइत अछि।



क्षेत्र विशेषक भाषाकें राजनीतिक मान्यता भेटरला सँ ओहि क्षेत्रक लोककें मान्यता आ
प्रतिष्ठा भेटैत छैक। एहिसँ कतेको समस्याक समाधानक मार्ग स्वतः उन्मोचित भए जाइत अछि।
प्रजातांत्रिक युगमे जनप्रतिनिधिक बाजाब सूनल आ बूझल जाइछ। आ ई सभ होइत अछि
राजनीतिक चेतनाक कारणें। कतेको राजनीतक दल कतेको बेरसँ अपन प्रचार लेल मैथिलीक


उपयोग करब शुरू कए देल अछि। यात्री एकरा शुभ लक्षण मानल अछि आ तेसर स्तम्भ
'चिन्तन अनुचिन्तन,' एही प्रारम्भ होइत अछि। परंच यात्री जी जहिया ई शुभ लक्षण अनुभव
कएल तकर कतेको वर्ष बीति गेल। स्थिति यथावत अछि। जन नेता लोकनि एहितथ्यकें
स्वीकारि मिथिलांचलक विकास हेतु एक मंच पर नहि अबैत छथि। आ इएह कारण थिक जे
विकासक बदलामे मिथिलांचल मे भूख, रोग-शोक दिनानुदिन बढ़िते जा रहल अछि।



यात्रीक स्तम्भ लेखनक प्रकार



यात्रीक स्तम्भ लेखन कें विषय वस्तुक अनुसार सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक,
धार्मिक आदिमे विभाजित कएल जा सकैछ। स्तम्भ लेखनकें प्रभावक दृष्टिएँ हास्यव्यंग्य प्रधान
तथा विचारोत्तेजक मे बांटल जा सकैछ। परंच, हिनक स्तम्भ लेखनक सभ कड़ीमे एकटा
विशेषता अछि जे कोनो ने कोनो समाचारसँ उद्भूत भए यात्रीक शिल्प कौशल पाबि आकर्षक
बनि गेल अछि।



मिथिलांचल मे प्रत्येक साल कोनो ने कोनो प्रकारक विदा अबिते रहल अछि। कोनो
साल बाढ़ि तँ कोनो साल अकाल। लोकक स्थिति वदतर होइत गेल अछि। परंच सरकार लेल
धनसन। जे किछु खराँत क्षुधार्थी लेल सरकारी गोदामसँ बाहर होइत अछि, लोक धरि पहुँछबा
सँ पूर्वहि सोखिलेल जाइछ। जनताक निरीहता आ सरकारी व्यवस्थाक प्रसंग यात्रीजी लिखल
अछि 'दरिभङ्गा जिलाक मधुबनी ओ सदर सबडिविजन मे अन्न संकट पराकाष्ठा पर पहुँचि
गेल छइक। बिहार सरकार सहायताक नाम पर ओही प्रकारें अन्न वितरण अभिनय कए रहल
अछि जाहि प्रकारें उताहुल पूजेगरी उपेक्षित प्रतिमा पर अक्षत फेंकइ छइ।' 1



शासन व्यवस्थाक भ्रष्टभेला पर विधि व्यवस्था खराब होइत छैक। जान-माल असुरक्षित
भए जाइत अछि। एहिसँ एक दिस विकास कार्य ठमकैत अछि तँ दोसर दिस समाजक
प्रतिष्ठित आ गणमान्य व्यक्तिकें अपन आखेट बनाय वातावरण कें हिंसक एवं असुरक्षित बनाकए
अपन काज सुतारल जाइछ। विधि व्यवस्थाक एहनहि दुर्गतिकक स्थिति मे पंडित शिरोमणि
त्रिलोक नाथ मिश्रक देहान्त भेल छलनि। एहि प्रसंग यात्रीजीक मन्तव्य दूष्टव्य अछि-'पंडित
शिरोमणि त्रिलोक नाथ मिश्रक देहवसान सँ (1900-1960) समग्र मिथिलाक सुधी समाज
शोकमग्न आ विक्षुब्ध छथि। दरिभङ्मा बरउनीक बीच ट्रेनक प्रथम श्रेणीवला कम्पार्टमेंट मे कोनो
आततायी हुनका ठोंठ दवाकें मारि देलकइन। रेलवेक अधिकारी लोकनि तथा बिहारक शासक
लोकनि एहि दुर्घटनाक प्रसंग एखन धरि दम सधने छथि। बलिहारी एहि लूरिमुँह कें। मैथिली
जनिक मातृभाषा थिकइन ओहि विधायक लोकनिक विवेक भऽ गेल छइन?' 2



राजनीतिक



सिद्धान्त आ मान्यता पर आधारित राजनीतिक चेतना देशक वहुविधि विकासमे साधक
होइछ तँ जाति, वर्ण, धर्म आ सम्प्रजायक प्रति जागल चेतना, विकासक मार्गकें अवरूद्ध करैत
अछि। सामूहिक विकासक लक्ष्यकें छोड़ि सभकेओ अपन-अपन जातीय शक्ति आ संतुलनक
आधार पर प्रजातांत्रिक व्यवस्थामे प्रतिनिधित्व चाहैछ। एही दृष्टिकोणक कुफल थिक जे कोनो


एक जातिक मंत्री वा विधायकक स्थान खाली होइताई ओही जातिक लोककें वैसाओल जाइत
अछि। सम्प्रति स्थिति एक डेग औरो आगू बढ़ि जातिए नहि परिवार धरि सीमित भए गेल अछि।
एहि प्रकारक राजनीतिक बंटवाराक प्रसंग यात्री लिखैत छथि-'अनुग्रह बाबू निर्वाण लाभ
कएलइन आ तत्काले दीप बाबू फेर मिनिश्टर भऽ गेलाह। बीचमे तीन मास बेचारे कोना खेपने
होएताह, जानथि भगवान ! अस्मिन कर्मणि त्वं मे ब्राहृा भव, ओंम् वृतोऽस्मि ओंम् वृतोऽस्मि! एह
! धन्य कही वाधाताक एहि फूर्ती कें ।' 3



नवजात स्वाधीन राष्ट्क प्रशासन तंत्रकें अपना अधिकार मे रखवा लेल महाशक्ति सभक
बीच शीत युद्ध चलल छल। एहि गीत युद्धक परिणामे छोटका-छोटका देश लड़ैत रहल। आ जे
नहि पड़ल लोड़फोड़ हत्याक लक्ष्य बनल। कतेको देशक लोकप्रिय नेताक बलि पड़ि गेल।
महाशक्ति सभ गुप्तरूपें प्रत्येक देशमे वलिवेदीक निर्माण कए तरहरा खून बबैत रहल। एही
वि•ाख्यापी षड्यंत्रक चपेटमे एशियाक कतेको नेताक हत्या कएल गेल/हत्याक चलैत राजनीति
पर प्रतिक्रिया व्यक्त करैत यात्री लिखल :-'महाप्राण भंडार नायक कें एक गोट आततायी गोली
मारि देलकनि। हत्याकारी कोनो सामान्य व्यक्ति नहि बौद्ध संन्यासी थीक। कहल जाइछ जे
श्रीलंकाक बौद्धजनता कें भंडारनायक सँ जतबा आशा रहए, से पूर्ण नहि भेलइ। तकरे
प्रतिक्रिया थिक ई दुर्घटना। गाँधी क हत्या, लियाकत अली मारल गेलाह, वर्माक औंग सान
सेहो मारल गेलाह। आब श्रीलंकाक प्रधानमंत्री सेहो सरगोली हाट पहुँचओल गेल छथि।
एशियाक प्रमुख देशनायक लोकनिक ई बलिपरम्परा कोनो पइछ अनिष्टक सूचना छीक।' 4
एशियाक देशक प्रमुख देशक नायक लोकनिक वलि परम्पराक अन्त नहि भेल अछि। बंगबन्धु
आ राष्ट्रपिता मुजिकुर रहमान मारल गेला तथा जुल्फिकार अली भुट्टोकें अपने लोक फांसी
दए देलकनि। यात्रीक भविष्यवाणी क प्रायः पचीस वर्षक बाद एशियाक कोन कथा वि•ाक
सबसँ पँध प्चजातंत्र भारतक प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी अपनहि अंग रक्षकक हाथे भूजा
गेलीह। ई क्रम थम्हल नहि अछि भारतक दोसरो जन नेता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी चुनाव
सभाकें संबोधित करबाक क्रममे चिथरा-चिथरा भए गेलाह। लगैछ जेना यात्री आँखि
बलिपइंपराक विनाशकारी परिणति कें देखि लेने छल।



आर्थिक



देशक अर्थतंत्रक नियंत्रण भलहि केन्द्राभिमुख हो। परंच ओकर प्रभाव परिधि धरि व्याप्त
रहैत अछि। ओहिना देशक कर्जक फल, नीति निर्धारके नहि निर्धन आ साधनहीन सेहो भोगैत
अहि। कर्ज पर आश्रित देशक अर्थतंत्र यात्रीजी कें सोचबा लेल विवश करैत अछि। एहन कोनो
क्षेत्र नहि जे विना पँच-उधारक चलि सकय। देशक एहि प्रकारक अर्थनीति पर यात्री मन्तव्य
बड़ यथार्थ अछिः 'कर्ज.....कर्ज.....कर्ज.....आओर ऋण....आओर पइच.....आओर
उधार.......करोड़क करोड़क डालर चाही ! अरब अरब डालर चाही.....पाउन्ड सेहो
चाही.....रूवल सेहो.....नेहरूजी दोहाइ सरकार ! आबहुँ तँ भाभट समेटू......एना कहिया घरि
खेपबइ मालिक! अपना देशमे सरिपहुक की कोनो साधन छइहे नई।'5



प्रभावक अनुसार स्तम्भ लेखनक प्रकार




यात्रीक स्तम्भ लेखनक विषय जे किछु हो किन्तु आधार कोनो ने कोनो समाचार होइत
अछि तथा ओहि समाचार कें अपने विचारक संग जाहि प्रकारें प्रस्तुत करैत छथि, व्यंग्य करैत
पाठकक मनके मथम लगैत अछि। देशमे सर्वत्र अभाव अछि आ शासनक असफलता स्पष्ट
अछि। परन्तु, ओहि असफलता कें झांपि तेहन रूप ठाढ़ करबाक प्रयास कएल जाइछ ओहि
वाक्जाल मे सामान्यजन हेरा जाइछ। नेता लोकनिक एहि वाणी विलास पर यात्री व्यंग्य करैत
प्रहार कएल अछि 'महाप्रभु लोकनिक वाणी विलास, ईह वाप्परे ! बप्प !! नेहरू पंत देसाई तँ
सहजहि ढ़ाकीक ढ़ाकी नीक बात लोककें परतारक लेल जेतहि रहल छथि-आब संजीव रेड्डी
(कांग्रेस प्रेसिडेंट) सएह किये एहि विधि मे पछु आएल रहताह?' 6 "जय प्रकाश नारायण,
श्रीकृष्ण सिंह, कृष्णवल्लभ सहाय-तीनू गोटे हालहिमे जनताक समक्ष नेती धोती कएने छथि,
मुदा एहि त्वंचाहंच् सँ रउदिएँ झरकइत धनहर बाधकें की ?' 7 नेता लोकनिक बीच कटाउज
आ झूठक ढ़ोल पीटबाक प्रवृति पर यात्री व्यंग्य करैत छथि-'दुष्कालक लक्षण एहि वर्ख व्यक्ति-
व्यक्ति कें आतंकित कए रहल अछि। इन्फ्लुएंजाक सार्वभौम आक्रमण, अतिवृष्टि, अनावृष्टि
अवृष्टिक नग्न नृत्य अन्नक महगी.........कोना अइसाल लोक काल यापन करत? देशक विधाता
लोकनि असली हालतिकें वकृव्यक रंगीन रेशमीसँ झांपि-तोपि कहिया धरि एना कृतकुत्य होइत
रहताह।' 8 नेता-लोकनिक आपसी कटाउज आ योजनाक असफलताकें झेपबालेल कएल जाइत
रंगारंग आयोजन पर व्यंग्य करैत नागार्जुन 'चीलों की चली बरात' शीर्षक कवितामे लिखने
छथि-



'फूँकते पेट्रोल नाहक, उड़ रहे फिर व्यर्थ बीस विमान

उन्हीं के हो सलामत उनका धरम-ईमान

सलामत कुर्सी सलामत रहे उनकी जान

हमारे ही बेट पाकर डींग मारें और झाड़ें शान

बाढ़ तो है यहां की खातिर महा वरदान

नेहरूसे पिला अवकी यही अद्भुत ज्ञान !!



यात्रीक स्तम्भ लेखनक टुकड़ी सभ प्रायः घटनाजनित अछि। किन्तु, किछु हुनक
आन्तरिक पीड़ाकें व्यक्त करैछ। ई आन्तरिक पीड़ा लोकक दुःस्थिति देखि फूटैत अछि।
मैथिलीक अवहेलना पर व्यक्त हुनक टिप्पणी एकटा वैचारिक क्रियाकें जन्म दैत अछि। ओ
लिखैत छथि-बिहार राज्यकेर शासन कत्र्ता-धत्र्ता लोकनि एवं शिक्षा नीतिक निर्देशक लोकनि
चिरकालसँ मैथिलीक प्रति अवहेलनाक परिचय दइत आएल छथि। जनिक मातृभाषा ओ संस्कार
भाषा मैथिली, ओहो लोकनि उच्च पदासीन होइतहि मैथिलीक प्रति दुष्टबुद्धि अथवा जड़ताक
शिकार भए जाइत छथि। ने जानि ई कोन तरहक दुर्भाग्य हमरा सबहिकें ग्रसित कएने अछि !
एहि दुर्योगक अंत कहिआ धरि होएत ?



हिन्दीक साम्राज्यवादीक प्रति




यात्री जी सदासँ साम्राज्यवादक खिलाफ रहलाह अहि। चाहे राजनीतिक साम्राज्यवाद
हो अथवा बाषायिक साम्राज्यवाद । यात्रीजीकें जहिना अपन मातृभाषा मैथिलीक प्रति ममता
छनि ओहिना राष्ट्र भाषा हिन्दीक प्रति सम्मान। आ तें जखन राष्ट्रभाषा हिन्दीक माध्यमे केओ
साम्राज्यवादी लिप्सा लए कए चलैत छथि तए ओहि प्रयाणसँ परिणामकें राष्ट्रभाषा हिन्दीक
प्रतिकूल होइत यात्री अनुभव करैत छथि। हिन्दीक प्रचार प्रसार लेल कएल जाइत एहि प्रकारक
योजनाक प्रसंग यात्री लिखल अछि-'सेठ गोविन्द दासे सम्प्रति 'हिन्दीक हेतु सर्वाधिक उताहुल
महानुभाव' बूझि पड़इ छथि हमरा। संयोग एहन जे अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मोलनक
(प्रयाग) अध्यक्ष सेहो आइ-काल्हि इएह थिकाह। शीघ्रातिशीघ्र राष्ट्रभाषा हिन्दी अपने
पूर्णाधिकार प्राप्त करओ, से हमरा लोकनिक अभीष्ट। परञ्च, से अभीष्ट लाभ, 'हिन्दी सेवक
संघ' वा 'हिन्दी सेना'क द्वारा राता राती नहि भए सकइत धइन। सेठजी 'करेंगे या मरेंगे' वला
नीतिक अवलम्बनकरबा लए छथि। से वेश मुदा हमरा आशंका होइत अछि जे हिन्दीक हेतु ओ
मार्ग 'अति आसुरी' 'अतिवाम मार्ग' प्रमाणित हेतइन।' भाषा अ साहित्य लोकके नजदीक अनैत
अछि। समाजमे भ्रातृत्व उत्पन्न करैत अछि लोकक बीच संबंध सूत्रक भाषे सेवाहिका थिक।
तखन जँ एक बाषा दोसर भाषाकें उदरस्थ वा अधिकार च्यूत करबाक षड्यंत्र करैछ तँ
निश्चितरूपे ई प्रयास द्वेषक कारण बनैत अछि।



यात्रीजीक स्तम्भ लेखनक भाषा आ शिल्प मे सभ विशेषता वर्तमान अछि जे हुनक अन्य
रचनाने सुलभ अछि। स्तम्भ लेखनकें आओरो आकर्षक बनेबालेल कोनो कोनो खण्ड मे विविध
पात्रक अवतारणा कएने छथि। एक पात्र समाचार पर अथवा घटना पर टिप्पणी करैत अछि तँ
दोसर वा तेसर पात्र ओहि चर्चाकें आगू ससारैत अछि। तखन अबैत छथि, चोआ काका। ओ
हास्य व्यंग्यक प्रहारकें तीव्र कए दैत छथि। किन्तु तृतीय पुरुष द्वारा कमे ठाम टिपाओल अछि।
अधिकांश ठाम प्रतिक्रिया प्रथम पुरुष व्यक्त करैत अछि।



यात्रीजी स्तम्भ लेखन तीनवेर मुदा कम अवधि लेल भेल अछि। किन्तु, ओ एकहिठाम
देश-विदेशक राजनीतिक, सामाजिक आ आर्थिक स्थिति पर प्रतिक्रिया व्यक्त करैत अछि। आ
पाठक तात्कालिक परिवेशक हास्य व्यंग्यक माध्यमसँ परिचय पाबि जाइछ। एहि प्रतिक्रियाक
क्षेत्र व्यापक अछि। विषय विस्तृत अछि। छोटसँ छोट घटना यात्रीक तेज दृष्टिक सीमा रेखा सँ
बाहर नहि रहि पबैत अछि।



.. .. .. ..

No comments:

Post a Comment

"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका http://www.videha.co.in/:-
सम्पादक/ लेखककेँ अपन रचनात्मक सुझाव आ टीका-टिप्पणीसँ अवगत कराऊ, जेना:-
1. रचना/ प्रस्तुतिमे की तथ्यगत कमी अछि:- (स्पष्ट करैत लिखू)|
2. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो सम्पादकीय परिमार्जन आवश्यक अछि: (सङ्केत दिअ)|
3. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो भाषागत, तकनीकी वा टंकन सम्बन्धी अस्पष्टता अछि: (निर्दिष्ट करू कतए-कतए आ कोन पाँतीमे वा कोन ठाम)|
4. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो आर त्रुटि भेटल ।
5. रचना/ प्रस्तुतिपर अहाँक कोनो आर सुझाव ।
6. रचना/ प्रस्तुतिक उज्जवल पक्ष/ विशेषता|
7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।

अपन टीका-टिप्पणीमे रचना आ रचनाकार/ प्रस्तुतकर्ताक नाम अवश्य लिखी, से आग्रह, जाहिसँ हुनका लोकनिकेँ त्वरित संदेश प्रेषण कएल जा सकय। अहाँ अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर सेहो पठा सकैत छी।

"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि।
अपन टीका-टिप्पणी एतए पोस्ट करू वा अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर पठाऊ।