भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Tuesday, September 01, 2009

पेटार २०

रमानन्द झा "रमण"

मैथिलिक पहिल कथाकार

पं0 श्रीकृष्ण ठाकुर आ 'चन्द्रप्रभा'



मैथिली कथा साहित्यक विकास, संस्कुतक आख्यान, उपाख्यान अथवा आख्यायिकाक
प्रभावें, वर्तमान उत्कर्ष धरि पहुंचल अछि। परंच, कथा विकासक मार्ग पर सर्वप्रथम कोन
मैथिली सेवी अग्रसर भेलाह, तकर अनुसंधान कएलासँ प्रथम यात्रीक रूप मे पं0 श्रीकृषणा
ठाकुरक नाम अबैछ तथा 'चन्द्रप्रभा' कें प्रथम रचना होएबाक सौभाग्य प्राप्त छैक।



पं0 श्रीकृष्ण ठाकुरक जन्म सन् 1257 साल (1750 ई0) मे खण्डवलकुलमे भेल। ओ
प्रकाण्ड तान्त्रिक, सर्वसीमा (लोहनारोड, मधुबनी) निवासी पं0 महे•ार ठाकुरक पुत्र तथा म0
म0 मणिनाथ ठाकुरक पौत्र छलाह। पं0 श्रीकृष्ण ठाकुर आठ भाइ-बहीन छलाह। हिनक ज्येष्ठा
सहोदराक विवाह म.म. कविवर हर्षनाथ झासँ छल।



पं0 श्रीकृष्ण ठाकुर देखबामे पिण्डश्याम छलाह। देह दोहरा एवं नमछर छल। शिक्षा-
दीक्षा नदिया (बंगाल) मे भेल। तीन विवाह छलनि। पहिल विवाह भट्टपुरा छल। एहि पक्ष मे एक
कन्या भेलथिन्ह। प्रथम पत्नीक देहावसानक उपरान्त दोसर विवाह शारदापुर कएल। द्वितीय
पक्ष मे तीन बालक पं0 उमाकान्त ठाकुर, पं0 चन्द्रकान्त ठाकुर आ पं0 गंगाकान्त ठाकुर। तेसर
पक्षमे सन्तान नहि भेलनी। पं0 ठाकुरक एक मात्र कन्या परमे•ारी देवीक विवाह मांडर
वंशावतंस, उजान ग्राम वास्तव्य पं0 गिरिधारी झाक बालक 'शब्द प्रदीपकार' पं0 हेमपति झा
प्रसिद्ध 'विकल झा' सँ छल। मैथिलीक ख्यातनामा साहित्यकार ओ वैयाकरण पं0 श्यामानन्द
झा एवं कवियित्री मोदवती (हरिलता) हिनहि दोहित्र एवं दौहित्री छलथिन्ह। प्रो0 गंगापति सिंह,
पं0 लक्ष्मीपति सिंह आदिक पं0 श्रीकृष्ण ठाकुर आचार्यगुरु छलाह।



पं0 श्रीकृष्ण ठाकुरक दुखमय छल। विचारसँ उदारवादी छलाह, अन्धवि•ाासक विरोधी
छलाह तथा ओकर विपक्षमे लेखनी चलैत छल। ओ सधिखन एहि चेष्टा मे रहैत छलाह जे
समाज अपन कत्र्तव्याकत्र्तव्यसँ परिचित हो, स्त्री-समाजमे कत्र्तव्यशीलताक भाव जागृत हो तथा
विद्धत् समाज अपन सामाजिक तथा धार्मिक आचार-विचारक वैज्ञानिक महत्व जानबाक चेष्टा
करथि। एहि लेल ओ निरन्तर प्रयत्नशील रहैत छलाह। हिनक एहि प्रयत्नक, मठाधीश लोकनि
विरोध करैत छलाह। अपमानित करबाक षड्यंत्र रचल जाइत छल। परंच, पं0 श्रीकृष्ण ठाकुर
नीडर भए अपन विचार रखैत जाइत छलाह। लोकक धमकीसँ अप्रभावित रही अपन कत्र्तव्यपथ
पर ओ अग्रसर होइत रहलाह। मुदा, एकटा विषय ध्यातव्य जे जीवन-यापन कंटकाकीर्ण रहितहु
पं0 ठाकुर लेखनीसँ विमुख कहियो नहि रहलाह। सन् 1329 साल (1922)मे कतेको
अमरग्रंथक रचना कए पं0 श्रीकृष्ण ठाकुर सुरपुरक शोभा बढ़ेबाक हेतु विदा भए गेलाह।




पं0 श्रीकृष्ण ठाकुरक अमूल्य ग्रंथमे अछि-- (1) मिथिला तीर्थप्रकाश (मिथिला यन्त्रोद्धार
सहित), (2) नारी धर्मप्रकाश (हिन्दी टीका सहित) (3) शूद्र विवाह पद्धति (हिन्दी भाषा टीका
सहित) (4) वैतरणीदानम् (पिण्डदान पर्यन्त भाषा टीका सहित) (5) गृहोत्सर्ग पद्धति (सटीक),
(6) कुलदेवता स्थापना विधि (7) शुद्ध

निर्णय, (8) सामा कथा, (9) गंगापत्तलकम्, (10) ध्वजारोपण विधि एवं (11) शिवपूजा
प्रदीपिका। एहि पोथीक अतिर्कितो किछु अप्रकाशित पोथीक चर्चा अछि, जाहिमे प्रमुख अछि
"माला विवेक'। मुदा जहिना कवि कोकिल विद्यापति कें हमरा लोकनि संस्कृत रचनाक
आधारपर नहि, पदावलीक आधार पर विशेष रूपें जनैत छी, ओहिना पं0 श्रीकृष्ण ठाकुर अपन
मैथिली कथा संग्रह 'चन्द्रप्रभाक' हेतु मैथिली साहित्यमे पूज्य छथि।



'चन्द्रप्रभाक' प्रकाशन पं0 श्रीकृष्ण ठाकुरक मुत्युपरान्त कतेको वर्षक वाद विक्रम सम्वत्
1996 (1939 ई0) मे भेल। सम्पादन कएल पं0 लक्ष्मीपति सिंह तथा पं0 रघुनाथ प्रसाद मिश्र
'पुरोहित' मैथिली बन्धु कार्यालय, अजमेर प्रकाशित कएल। प्रथम संस्करण 500 प्रतिक छल
तथा मूल्य छल एक आना।



'चन्द्रप्रभाक' पाण्डुलिपिक प्रसंग सम्पादक पं0 सक्ष्मीपति सिंह लिखने छथि जे ई
कथावस्तु लेखक महोदयक अमर साहित्यिक कृतिक किछु अंश मात्र कहल जा सकैछ। एकर
पाण्डुलिपि बहुतो वर्ष पूर्व हमरा अपन पूज्यपाद पितृव्य प्रो0 गंगापति सिंह (1894-1969) जी
साहब सँ अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण कागतपर लिखल प्राप्त भेल छल, जे समुचित समावेशक अभावे
गतवर्ष धरि हमरा ओहिठाम अप्रकाशित पड़ल छल। 'चन्द्रप्रभाक' भाषा शैलीक आधारपर
रचनाकालक प्रसंग लिखल अछि "कहबाक आवश्यकता नहि कि 'चन्दप्रभा' उन्नैसम शताब्दीक
मैथिली गद्य रचनाक एक नमूने थिक"



'चन्द्रप्रभाक' प्रकाशक पं0 रघुनाथ मिश्र 'पुरोहित' एकर महत्वक प्रसंग लिखल अछि--
"प्राचीन मैथिल विद्वान लोकनिक पद्यरचनाक अपेक्ष गद्य रचना बहुत कम प्राप्त होइछ, तें एहि
कथामाला कें पुस्तकाकारहु प्रकाशित कए देब, प्राचीन साहित्योद्धारक दृष्टिमे अपन इष्ट कत्र्तव्य
बुझना गेल। एकर अतिरिक्त 'चन्द्रप्रभाक' रचना कालक प्रसंग सेहो लिखल अछि--'चन्द्रप्रभा'
आइसँ (1939 ई0 सँ) 60-70 वर्ष पूर्वक लिखल अछि। तें एहिवात पर ध्यान राखिए
"चन्द्रप्रभाक" वास्तविक महत्व बोधगम्य भए सकैछ। म.म.उमेश मिश्र (1895-1967)
'चन्द्रप्रभाक' उपादेयताक प्रसंग लिखल अछि--"एहिमे अनेक कथाक संग्रह अछि। ई सभ रोचक
कथा शिक्षाप्रद अछि। ई ग्रंथ साहित्यिक होइतहुँ कथाक साहित्यिक लक्षण सँ आक्रान्त नहि
अछि।



मैथिली कथाक विकासक दृष्टिएँ 'चन्द्रप्रभा' पहिल कथा संग्रह थिक। तथापि एकर
प्रचार-प्रसार आ व्यापक अध्ययन नहि भए सकल। मिथिलाञ्चल वा मैथिलीक अध्ययन केन्द्रहु


पर प्रकाशित पोथीक प्रचार-प्रसार जखन नहि भए पबैत अछि, तखन मिथिलाञ्चलसँ कोसो दूर
प्रकाशित पोथीक प्रचार-प्रसार कोना भए पबैत?



डा0 जयकान्त मिश्रक (ज 19 नवम्बर 1922) परवत्र्ती इतिहासकार लोकनि
"चन्द्रप्रभाक" नामक मुद्रणजन्य त्रुटिक परिमार्जन नहि कए सकैत गेलाह। ओहि पोथीक प्रसंग
किछुओ लिंखब तँ सर्वथा असम्भवे छल। एकर साफ मतलब भेल, 'चन्द्रप्रभा' पाठक धरि नहि
पहुँछि सकल।



'चन्द्रप्रभाक' आरम्भ एक श्लोक सँ होइछ आ तकर वाद कथाक स्त्रोत फूटि पड़ैछ।
एक कथासँ दोसर कथा बाहर होइत जाइछ। मुदा सभ अपना मे एक दोसरासँ पृथक् आ
स्वतंत्र मुदा रूपमे साम्य अछि रोचकताक। चूँकि, गुरु आ शिष्याक संवादसँ कथा आरम्भ होइछ
नें (प्रत्येक कथा शिक्षाप्रद अछि। आजुक दृष्टिसँ अलौकिक सेहो लगैछ। कथा सभ
इतिवृत्तात्मक अछि। कथाकारक ध्यान चरित्र चित्रणसँ वेशी महत्वपूर्ण घटनाक विवरण पर
छनि। किछु शब्दक प्रयोग ओहि रूपमे अछि जे 'चन्द्रप्रभाक' लेखनशैलीकें गतशताब्दीक
प्रमाणित करैछ। जेना लिखल अछि, 'बिगड़ल प्रजा नहि साहित्य करइन्ह।' एहिठाम 'साहित्य'
शब्दक प्रयोग सहयोग किंवा सहायताक अर्थमे अछि, ई प्रयोग वेश प्राचीन अछि।



"चन्द्रप्रभाक" प्रसंग डा0 जयकान्त मिश्र लिखैत छथि' - च्ण्द्धत्त्त्द्धत्द्मण्दठ्ठ च्र्ण्ठ्ठत्त्द्वद्ध'द्म
क्ण्ठ्ठदड्डद्धठ्ठद्रद्धठ्ठडण्ठ्ठढ़ठ्ठ त्द्म ठ्ठ द्मथ्र्ठ्ठथ्थ् ध्र्दृद्धत्त् त्द द्यण्ड्ढ दृथ्ड्ड थ्र्ठ्ठददड्ढद्ध दृढ द्यठ्ठथ्ड्ढद्म ढदृद्वदड्ड त्द
च्ठ्ठदद्मत्त्द्धत्द्य ड़दृथ्थ्ड्ढड़द्यत्दृद दृढ क़ठ्ठडथ्ड्ढद्म. क्ष्द्य डड्ढढ़त्दद्म ध्र्त्द्यण् ठ्ठ च्ठ्ठदद्मत्त्द्धत्द्य ध्ड्ढद्धद्मड्ढ ध्र्ण्त्ड़ण् ठ्ठ
द्रद्धत्दड़ड्ढद्मद्म त्द्म द्यदृद्वढ़ण्द्य द्यदृ द्वदड्डड्ढद्धद्मद्यठ्ठदड्ड ध्र्त्द्यण् द्यण्ड्ढ ण्ड्ढथ्द्र दृढ द्मड्ढध्ड्ढद्धठ्ठथ् त्थ्थ्द्वद्मद्यद्धठ्ठद्यत्ध्ड्ढ द्मद्यदृद्धत्ड्ढद्म.
च्र्ण्ड्ढद्मड्ढ द्मद्यदृद्धत्ड्ढद्म ठ्ठद्धड्ढ त्थ्र्ठ्ठढ़त्दठ्ठद्धन्र्, द्यण्दृद्वढ़ण् द्यण्ड्ढन्र् ठ्ठद्धड्ढ ढद्वथ्थ् दृढ ठ्ठद्रद्रठ्ठद्धड्ढदद्य ध्र्दृद्धड्डथ्न्र्
ध्र्त्द्मड्डदृथ्र्. च्र्ण्ड्ढन्र् ठ्ठद्धड्ढ द्मद्वडद्मद्यठ्ठदद्यत्ठ्ठथ्थ्न्र् ध्ड्ढद्धन्र् थ्र्द्वड़ण् थ्त्त्त्ड्ढ द्यण्ड्ढ ङदृथ्र्ठ्ठदद्यत्ड़ ग्ठ्ठत्द्यण्त्थ्त् ढदृथ्त्त्
द्यठ्ठथ्ड्ढद्म--



मैथिली कथाक विकास रेखा कें स्पष्ट करैत प्रो0 आनन्द मिश्र (1926) लिखल अछि जे
पंचतंत्रक शैली विद्यापतिक 'पुरुष परीक्षा' सँ होइत मैथिलीक प्रारम्भिक कथा शैली धरि आएल
अछि। उदाहरण- प्रत्यूदाहरणसँ कोनो नीतिवचनक समर्थन एहि कथाशैलीक विशेषता थिक।
एहि कोटिक कथा सभ उन्नैसम शताब्दीक अन्तिम चरणमे अबैत-अबैत लिखल जाए लागल।
श्रीकृष्ण ठाकुरक 'चन्द्रप्रभा' (एकरा श्री जयकान्त बाबू 'चन्द्रभागा' लिखने छथि, परन्तु सत्य
एहिसँ भिन्न अछि एवं एहि भ्रमक, कारणें आनो इतिहासक पोथीमे एहि भ्रमक लसरि लागल
अछि) ओहि परम्पराक रचना थिक।



मैथिलीक पहिल कथासंग्रह 'चन्द्रप्रभाक' अध्ययन विश्लेषण, नीक जकाँ नहि कएल जा
सकल अछि। एकर प्रमुख कारण थिक अनुपलब्धता। आजुक पाठक पुरनो वस्तुकें देखय चाहैत
अछि। ओहि पर फेरसँ विचार करए चाहैत अछि। आ से सब सर्वसुलभ भेले पर माथिलीक
आरम्भिक कथा आ गद्यपर विशेष प्रकाश पड़ि सकत।




मिथिला मिहिर 18 अगस्त 1985

.. .. .. ..



मैथिलीक प्रथम उपन्यासकार

पं0 जीवछ मिश्र आ 'रामे•ार



पुस्तक मे प्रकाशित "रामे•ार" मैथीलीक प्रथम उपन्यास थिक। एकर प्रकाशन मिथिला
पिं्रटिंग वक्र्स, मधुबनी द्वारा 1916 ई0 मे भेल। "रामे•ार" उपन्यासक लेखक छथि ग्राम
नवटोल, पत्रालय सरिसब पाही, जिला मधुबनीक निवासी सौदर पुरिएदिगौन मूलक पं0 रामदत्त
मिश्रक पुत्र पं0 जीवछ मिश्र। हिनक जन्म माघ 1271 साल (फसली) तदनिसार जनवरी 1863
ई0 काशीलाभ भादव 1330 साल, तदनुसार अगस्त 1923 मे भेल।



पं0 जीवछ मिश्रक शिक्षा सखबार (मधुबनी) क पं0 जुरौन ढा द्वारा आरंभ कारओल
गेल। मुदा जखन मात्र तेरह वर्षक कि पिताक अकस्मात देहान्त भए गेलाक कारणें पारिवारक
दायित्व सँ पं0 जीवछ मिश्र आक्रान्त भए गेलाह। शिक्षक क्रम टूटि गेलनि। मुदा अध्यवसायी
प्रवृत्ति एवं लगनशीलताक कारणें अध्ययन सँ पूर्णतः विरत नहि भए, जेना-तेना लगले रहलाह।
संस्कृत, मैथिली आ हिन्दीक अतिरिक्त उर्दूक ज्ञान सेहो प्राप्त कएल। उर्दू भाषा-साहित्यिक
ज्ञान नजिरा (सकरी, दरभंगा) क एक मौलवी सँ प्राप्त कएल।



विभिन्न साहित्यक अध्ययन आ मनन सँ साहित्य सर्जनाक सुप्त रुचि जागि गेल।
संगहि, अपना

समयक प्रमुख साहित्यकार आ सर्जनात्मक साहित्य मे रुचि रखनिहार व्यक्ति, यथा--महाराज
कुमार रामदीन सिंह, अम्बिका दत्त व्यास, देवकीनन्दन खत्री, खेमराज कृष्णदास, महावीर
प्रसाद द्विवेदी तथा जार्ज ग्रियर्सन सँ प्रेरणा आ प्रोत्साहन भेटैत रहल।



पुस्तक मे प्रकाशित "किछु अपन विषय" सँ स्पष्ट होइछ जे पं0 जीवछ मिश्र पहिने
हिन्दी मे लिखब आरंभ कएल। हिन्दी पत्रिका "सरस्वती" एवं 'माधुरी' मे लेखादि बरमहल
छपए लागल। पं0 अम्बिकादत्त व्यासक प्रेरणासँ दू पोथीक सर्जना सेहो कएल। मुदा, दुर्भाग्य सँ
दूनू पोथीक पाण्डुलिपि ओहिठाम सँ घूमि नहि सकल। अपन दूनू कृति कें बोहाएल देखि
आक्रोश भेलनि। एही बीच मिथिलाक्षरकें गीरी, मैथिली कें उदरस्थ कए लेबाक जे षड्यंत्र चलि
रहल छल, तकरा बूझि ओ सचेत भए गेलाह। 'हिन्दी साहित्य परिषदक' भागलपुर अधिनेशनमे
एक मैथिल पं0 गिरीन्द्र मोहन मिश्र (1890-1983) द्वारा मैथिली भाषा साहित्यक सभ प्रकारें
वहिष्कारक प्रस्ताव पारित कराओल गेला पर ओ अत्यन्त दुःखी भेलाह। आ प्रतिज्ञा कएल--
"एहि प्रकार हिन्दी मध्य किछुओ लिखबा सौं नहि लिखबे श्रेयस्कर बूझल।" म0 म0 मुरलीधर
झाक (1869-1929) आशीर्वाद भेटलनि। पं0 जीवन झाक (1856-1920) एकान्तनिष्ठा आ
सर्जनात्मकता कें परम्परानुरागी पंडितवर्ग द्वारा अवहेलना होइत देखि, मातृभाषाक प्रति अनुराग


और प्रगाढ़ होइत गेल। "मिहिर" आ "मोद" मे मैथिली आन्दोलनक सम्बन्ध मे जखन-तखन
विचार छपए लागल।



पं0 जीवछ मिश्रक लेखनी सँ श्रीनगरक राजा कमलानन्द सिंह 'सरोज' आकृष्ट भेलाह।
सरोज जीक प्रेरणा सँ ओ तीन टा उपन्यास लिखल। परन्तु, एहि उपन्यासक पाण्डुलिपि
"सरोज" जी क देहावसानक संग आलोपित भए गेल। एहि घटना सँ "सरोज" जीक अनुज
राजा कालिकानन्द सिंह मर्माहत भए पुनः जीवछ मिश्र सँ मैथिली मे उपन्यास लिखबाक आग्रह
कएल। एही आग्रहक प्रतिफल थिक 'रामे•ार'।



'रामे•ार' पढ़ला सँ अथवा सुनला सँ सेतुबन्ध रामे•ार अथवा समकालीन मिथिलेशक
भ्रम भए जा सकैछ। मुदा, एहि उपन्यासक कथ्य एहि सभ सँ कोसो दूर मिथिला आ नेपालक
सामाजिक जीवन मे पसरल विकृति आ विडम्बन, वाहृ आडम्बर, अनाचार, व्यभिचार आ शोषण
करबाक प्रवृत्ति कें देखार करब अछि। भूखक आगिमे हेराएल विवेकक चित्रण अछि। स्वार्थी
समाजक कुकृत्यक भंडाफोर करब अछि।



"रामे•ार" क कथा वस्तु भोजखौक समाजक किरदानीसँ जन्म लैत अछि। ई भोजखौक
समाज एक सुखी सम्पन्न पिताक परोक्ष होइतहि पुत्र आ पौत्र कें भूखे अहुँछिया कटबा लेल
विवश कए दैछ। तीन वर्षक बालकक भूखे आसमर्द सुनबा मे असमर्थ रामे•ार बापक श्राद्धमे
कर्ज देनिहार क्रूर पिशाचक नजरि सँ बचि, घर-घड़ाड़ी कें बेचि,गौरीपुर चल जाइछ। गौरीपुरक
थोनेदार रामे•ारक उपयोग थाना सँ पड़ाएल एक चोरक रूप मे करैछ। ओ अपन अक्षमताक
दोष सँ बचि लाभ पएबालेल ओकर उपयोग करैछ। जमीनदारी छीना जएबाक डर सेहो एहि
बेर भए गेल छैक--"चोरी क आसामी बनाय नहि पठाओल जायत तँ" संभव जे एहि बेरि दण्डै
मात्र जमीन्दार कें नहि भए, कदाच जमीन्दारी छीनि लेल जाइन्हि। "एहि लेल पचास रुपैया
रामे•ारक परिवारक प्रतिपालन लेल, जहल काटि घूमि आएबा धरि देब स्वीकारैछ। थानाक
नायब अपन केस कें मजगूत करबा लेल रामे•ार कें चलान कएलाक बाद निशाभाग राति मे
चोरीक एक पनबट्टी गाड़बा लेल रामे•ारक घर जाइछ। पुत्रक विछोह कें सहबा मे असमर्थ,
सिपाही कें चकमा दए भागल, रामे•ार नायबकें घरमे आनि, केबारी बन्द करैत पत्नी कें कोनटा
सँ देखि लैछ तथा अवैध संबंधक अनुमान कए, पत्नीकें जोर सँ लांछित करैत शेष जीवनक प्रति
निरश भए, पुलिसक समक्ष पुनः स्वयं उपस्थित भए जाइछ।

सभ अपराध कें कबूलि बीस वर्षक जहल पबैछ। पतिरायणा पार्वती पति द्वारा लांछित भेला पर
आत्महत्या करबा लेल कमलामे कूदि जाइछ। मुदा, प्रातः स्नान निमित गेल एक बाबाजी द्वारा
छानि अपन कुटी मे राखि

लेल जाइछ। एहि दूनू घटनाक समस्त उत्तरदाइत्व नायब अपना पर लए रामे•ारक पुत्र आनन्द
मोहनक पालन-पोषण आ अध्ययनक व्यवस्था अपन पुत्र जकाँ करैछ। पढ़ि-लिखि आनन्दमोहन
डाक्टर बनि जाइछ। बीस वर्ष जहल काटि घूमला पर आनन्दमोहन कें नहि पाबि, रामे•ार
परोपट्टा कें आतंकित करयबला गिरोहक सरदार बनि जाइछ। डकैतीक क्रम मे आहत भेला पर
आनन्दमोहने ओकर चिकित्सा करैछ। मुदा ओ चिन्हि नहि सकल। रामे•ारकें स्वस्थ भए गेल


देखि, गिरोह पुनः उठा कए लए जाइछ आ डकैतीमे लीन भए जाइछ। एक दिन ओही
डाकटरक ओहिठाम रामे•ार अपन दलबलसँ डकैती करबा लेल जाइछ। मुदा डाकटरकें चिन्हि
गेला पर गिरोहसँ फराक भए विचार करैछ। रामे•ारक विगत बीस वर्षक घटनावली डाकटरक
समक्ष उपस्थित भेलापर डाकटर आनन्दमोहन पिताक पैर पर खसि, परिचय दैछ। पार्वतीसँ भेंट
होइछ। बाबाजीकें सेहो रामे•ार चिन्हि जाइछ जे पार्वतीक ग्रहकें शान्त करबा लेल विवाहक
तुरंत वादे घर आंगन छोड़ि जंगलमे चल गेल छलाह। आ आनन्दमोहनक शाखापातकें देखि
रामे•ार तथा पार्वती काशीबास करबा लेल चलि जाइछ।



एहि उपन्यासक माध्यमसँ उपन्यासकार सामाजिक जीवनमे व्याप्त कुरीति पर प्रकाश
देल अछि। परिस्थितक ठेकफेरीमे विवाकीओक विवेक कोना डोलि जाइछ, कत्र्तव्य-अकत्र्तव्यक
विचार छोड़ि कोना कुमार्गक यात्री जाइछ, तकर ज्वलन्त प्रमाण रामे•ार थिक। ई समाजक
प्रपंचक प्रतिफल थिक जे रामे•ार सन सोझ लोक फंसि जाइछ। रामे•ारक कथन--"पेट क
ज्वाला सँ कातर मनुष्य सँ किछु असाध्य नहि होइत छैक।" एकहि संग मानसिक स्थिति आ
कातरता कें व्यक्त करैछ। रामे•ारक चरित्रकें उपस्थित करबामे उपन्यासकार पूर्ण कुशलता
देखाओल अछि। ओकर चरित्र ओहिखन चरमबिन्दु पर पहुँचि जाइछ, जखन परोपट्टारकें
आक्रान्त कएनिहार डाकू सरदार रामे•ार डाक्टरक ओहिठाम डकैती करबा लेल जाइछ आ
ओकर समस्त क्रूरता क्षणहि मे निपत्ता भए जाइछ। नायबक चित्रणमे उपन्यासकार अपन पटुता
निखारल अछि। नायब, जे किछु गलती करैछ तकर ओ प्रायश्चितो करैछ। प्रायश्चिते स्वरूप
आनन्दमोहनक भार उठबैछ आ बाद मे अपन धन सम्पत्ति दैछ। एकर पूर्ण संभावना छलैक जे
पुत्र प्रेम मे बताह रामे•ारआनन्द मोहनकें एहि उच्चता धरि नहि पहुँचा पबैत।



जतय धरि "रामे•ार" क वर्णन शैलीक प्रश्न अछि, पूर्ण प्रभावक अछि। आरम्भे मे
उपन्यासकार वातावरणक निर्माण कए सामाजिक विसंगतिक उद्घाटन करैत छथि, जाहिसँ
पाठक स्तब्ध रहि जाइछ। "दरबाजा पर सुखाएल पात सभक ढेरी ओ फूटल माटिक वासन जे
श्राद्धक भोजमे बाहर फेंकल गेल छलैक, ओहि मध्य गामक कुकूर सभ अपनामे कटाउझि कए,
सड़ल-पचल एेंठ खाइत छलैक, बालक ओहि दिस टकटकी लगौने देखैत छलैक।" एक सुखी
सम्पन्न पितामहक पौत्रक, पितामहक श्राद्धकर्मक प्राते, कर्मक फेंकल सुखाएल-पात आ फूटल
माटिक वासन दिस क्षुधार्त भए, टकटकी लगा कए देखब, एक कारुणिक दृश्य उत्पन्न कए
दैछ। मासाजिक प्रपंचक उद्घाटन करैछ। सिपाहीक बीचसँ हथकड़ी पहीरने पड़ाएल रामे•ार
जखन अपन घरमे प्रवेश करैत नायब कें देखि लैछ तँ रामे•ार कें पत्नीक चरित्रक
वि•ासनीयता पर शंका होइछ आ उपन्यासक वातावरणमे नाटकीय परिवर्तन भए जाइछ।
उपन्यासकार पात्र सभक मानसिक स्थितिक चित्रण रोचक ढंगे कएल अछि।



"रामे•ार" मे दू प्रकारक भाषाक प्रयोग अछि। वार्तालापक भाषा सरल एवं स्वाभाविक
अछि। स्थिति चित्रणक भाषा आलंकारिक अछि। दूनू प्रकारक भाषाक प्रयोग "रामे•ार" क
भाषाकें मैथिली गद्य साहित्यक अमूल्य निधि बनादैत अछि।




म.म. डा0 गंगानाथ झा (1872-1941) "रामे•ार"क विशेषताक प्रसंग लिखल अछि जे
उपन्यास रोचक ओ शिक्षाप्रद, भाषा सरल ओ सरस छैन्हि, पढ़निहार कें सर्वथा उपकारक
संभव। एहिना जार्ज ग्रियर्सन

(1851-1941) कें "रामे•ार" पढ़ि मैथिली सँ संबंध पुनः नव भए जाइत छनि-'च्र्ण्दृद्मड्ढ दृढ द्वद्म,
ध्र्ण्दृ थ्र्ठ्ठन्र् ध्र्त्द्मण् द्यदृ द्मद्यद्वड्डन्र् ग्दृड्डड्ढद्धद ग्ठ्ठत्द्यण्त्थ्त्, ध्र्त्थ्थ् डड्ढ त्दद्यड्ढद्धड्ढद्मद्यड्ढड्ड द्यदृ त्त्ददृध्र् दृढ ठ्ठ
डदृदृत्त् थ्ठ्ठद्यड्ढथ्न्र् द्रद्वडथ्त्द्मण्ड्ढड्ड त्द द्यण्ठ्ठद्य ढदृद्धथ्र् दृढ द्मद्रड्ढड्ढड़ण्. क्ष्द्य त्द्म ठ्ठ द्मण्दृद्धद्य ददृध्ड्ढथ् ड़ठ्ठथ्थ्ड्ढड्ड
'ङठ्ठथ्र्ड्ढद्मण्ध्ठ्ठद्धठ्ठ' ठ्ठदड्ड त्द्म ठ्ठद ड्ढन्ड़ड्ढथ्थ्ड्ढदद्य ड्ढन्ठ्ठथ्र्द्रथ्ड्ढ दृढ द्यण्ड्ढ थ्ठ्ठदढ़द्वठ्ठढ़ड्ढ. ग्ठ्ठत्द्यण्त्थ्त्, द्यण्ड्ढ
द्रद्धत्दड़त्द्रठ्ठथ् ड्डत्ठ्ठथ्ड्ढड़द्य दृढ 'एत्ण्ठ्ठद्धत्' त्द्म ठ्ठद्य द्रद्धड्ढद्मड्ढदद्य दृध्ड्ढद्ध द्मण्ठ्ठड्डदृध्र्ड्ढड्ड डन्र् त्द्यद्म ढ़द्धड्ढठ्ठद्य
दड्ढत्ढ़ण्डदृद्वद्ध क्तत्दड्डत् ठ्ठदड्ड द्धठ्ठद्धड्ढथ्न्र् ठ्ठद्यद्यठ्ठत्दद्म द्यण्ड्ढ ण्दृददृद्वद्ध दृढ द्रद्धत्दद्य. क्ष् ठ्ठथ्र् ड्डड्ढद्रदृद्मत्द्यत्दढ़ ठ्ठ
ड़दृद्रन्र् दृढ द्यण्ड्ढ डदृदृत्त् त्द द्यण्ड्ढ थ्त्डद्धठ्ठद्धन्र् दृढ द्यण्ड्ढ द्मदृड़त्ड्ढद्यन्र्. च्र्ण्दृद्मड्ढ ध्र्ण्दृ ध्र्त्द्मण् द्यदृ द्रद्वद्धड़ण्ठ्ठद्मड्ढ
त्द्य, ड़ठ्ठद दृडद्यठ्ठत्द त्द्य ढद्धदृथ्र् द्यण्ड्ढ ठ्ठद्वद्यण्दृद्ध.'



डा0 जयकान्त मिश्र (19-11-1922), डा0 दुर्गानाथ झा, श्रीश (1921) प्रभृति मैथिलीक
इतिहासकार "रामे•ार"कें अनुवादक कोटिमे राखल अछि। यद्यपि कोन उपन्यासक अनुवाद
थिक तकर नाम केओ नहि लिखैत छथि। हमरा जनैत ई भ्रामक अछि। उपन्यासकार लिखने
छथि जे कतेको उपन्यास लिखल आ हेरा गेल। कतेको उपन्यास ओ पढ़ैत छलाह। तें भए
सकैछ जे प्रभावित भए "रामे•ार" लिखने होएताह। कथाक प्रभाव आ अनुवाद दू भिन्न वस्तु
थिक। जँ कोनो आन भाषाक उपन्यासक अनुवाद रहितैक, ओ ई नहि लिखतथि जे पूर्व जाहि
उपन्यास उल्लेख कएल अछि, ओही कथाक आधार पर जेना भए सकल। सत्य त ई अछि जे
कोनो पूर्वलिखित उपन्यासक कथावस्तु, जे बीज रूपमे उपन्यासकारक अन्तरतम मे रहल
होएत, समय पाबि पल्लवित ओ पुष्पित भए मैथिली साहित्यक उपवनकें गमगमा देलक।



पं0 जीवछ मिश्र मैथिलीमे ओहि समय उपन्यास लिखल आ प्रकाशित कएल जखन
आन-आन भाषामे उपन्यास तँ लिखा रहल छल, किन्तु मैथिल लोकनि डेराइत छलाह।
उपन्यासक अर्थ, एक विधाक रूपमे नहि, कोनो स्थिति वा घटनाकें लगसँ देखबाक हेतु, लगबैत
छलाह। एहि प्रसंग लेखक स्वयं लिखने छथि--"मिथिला भाषामे उपन्यास? मैथिल समाजमे
तेहन भयावह छल जे अनेक सुलेखको लोकनि थोड़ेक थोड़ेक लिखि ओकरा समाप्त करब
"हौआ" बुझैत छलाह। एहना स्थितिमे हमरा जेना लिखै आएल तहिना "रामे•ार" नामक
उपन्यास लिखि समाजक आगू राखल। ताहि हेतु "सन्तोषार्थी" सभासँ कोनो-कोनो कथा प्रकाश
कएल जाइत वा कोनो विवेचकसँ यथार्थ समालोचना "मैथिल समाज" काँ "दृष्टिगोचर"
होइतन्हि त गद्य लिखबाक बहुतो व्यक्ति काँ उत्साह तथा समाजक मनोभाव अवगत होइत, से
नहि भेने सामाजिक हानि वा लाभ की होइछ, एकरा एक उदाहरणसँ प्रवीण पाठककाँ बुझबैक
प्रयासी होइत छी।2



पं0 जीवछ मिश्रक एहि कथनसँ स्पष्ट होइछ जे 'संतोषार्थी सभा' अर्थात् मैथिल
महासभा तथा मैथिल विद्वान लोकनि मैथिलीक प्रति सचेष्ट नहि छलाह। हुनक तात्पर्य छनि जँ
विद्वान लोकनि "रामे•ार" पढ़ि समालोचन करबाक परिपाटी चलौने रहितथितँ 'सुमति'


लिखबाक समय उपन्यासकार रासबिहारी लाल दास एहि बात पर अवश्य ध्यान रखितथि जे
उपन्यासक विषय वस्तु आ उद्देश्य मात्र एक जातिक नहि हो तथा मैथिली उपन्यासमे हिन्दी
कविताक प्रयोग नहि करितथि। पं0 जीवछ मिश्रक मते एहि सँ मैथिलीक असामान्य हानि भेलैक
अछि किएक तँ आनभाषा भाषी इएह निष्कर्ष बाहर करैछ जे मैथिलीमे पद्य नहि अछि। पद्य
लेखक नहि छथि, तें आनभाषाक पद्यक प्रयोग कएल गेल अछि।



पं0 जीवछ मिश्र 'मैथिल महासभाक' केन्द्र बिन्दु मानैत छलाह वर्ण विशेषक हित रक्षा।
इएह वर्ण विशेष मैथिल मानल जाइत छल तथा मिथिलाक शेष व्यक्ति में अमैथिल बूझैत
छलाह। एहि विचारधाराक प्रगतिगामी प्रभाव मिथिला आ मैथिलीक समस्याक समाधान पर
पड़ल। "मैथिल महासभाक" मन्दार अधिवेशन मे वि•ाविद्यालयमे मैथिलीक स्वीकृतिक विषयक
पारित प्रस्तावक विरुद्ध "भागलपुर गोपजातीय सभा" द्वारा सरकारक ओतय अर्जी पड़ल। ई
"महासभा"क उक्त नीतिहिक परिणाम छल। पं0 जीवछ मिश्र समस्त

मिथिलावासीकें मैथिल मानबाक पक्षधर छलाह। मिथिलाकें किछु व्यक्ति आ परिवारक मरौसी
सम्पत्ति मानबाक ओ विरोध करैत छलाह 3 । एहि विरोधक स्पष्ट अर्थ होइत छल "मैथिल
महासभा"क वंशानुगत सभापति तथा हुनक लगुआ-भगुआक विरोध करब आ कोपभाजन बनब।
एहि प्रसंग पं0 जीवछ मिश्रक विचार द्रष्टव्य अछि-"पैघ सँ छोट धरि अनेको महानुभावकाँ
जखन ई एकान्त इच्छा छलनि जे एहि "मैथिल महासभा"द्वारा मैथिल समुदाय पर संभवतः
(थोड़ बहुत) एहि चातुर्यसँ प्रभाव जमाए स्वार्थ-साधन करी तखन

समाजक उत्कर्ष वा पतित समाजक उन्नति, ओपतितक उत्थान के देखत, यदि क्यो तुच्छो
मैथिल समाजोपकारी नियमक चर्चा वा संशोधनक चर्चा मात्रो कएलन्हि कि लगले हुनका लाल
आँखि देखाए नाम मात्रक मिथिला भाषाक पत्रमे एक दिशाह आस्फालन वा हुँकार आरम्भ कै
एम्हर-ओम्हर धवलाधारी लोकनिक निन्दा मे पागल खटमधुर गप्प आरम्भ होइछ। मध्य-मध्यमे
धमकीक सेचन पड़ै लगैछ।4 परंच, लोकक लाल-लाल आँखि आ धमकीक सेचन सँ पं0 जीवछ
मिश्र निफिकर रहलाह। निर्भीकता पूर्वक मठाधीशक षड्यंत्री मनोवृतिक भंडोफोर करैत
रहलाह। इएह निर्भीकता एवं समाजक असली निदानक चिन्ता "रामे•ार" क माध्यमे व्यक्त भए
गेल अछि।



मि0 मि0 मार्च, 1977

.. .. .. ..





रासबिहारी लाल दास आ उपन्यास 'सुमति'



मैथिलीक तीन आरम्भिक उपन्यासकार जीवछ मिश्र, जनार्दन झा "जनसीदन" तथा
रासबिहारी लाल दासमे अन्तिमक अपन फूट महत्व छनि। रासबिहारी लाल दासक वैयक्तिक
अथवा पारिवारिक परिचयक प्रसंग कतहु विशेष लिखल नहि भेटैछ, परंच डा0 जयकान्त मिश्र


ई1 धरि अवश्य लिखने छथि जे रासबिहारी लाल दास दुलार सिंह दासक पुत्र छलाह तथा
भच्छी' (मधुबनी) क निवासी छथि। भच्छी गामक एकटा विशेषता अछि जे मैथिलीक आधुनिक
कालक साहित्यकें भरबा लेल कालीकुमार दास, (1902-1948) गुणवन्त लाल दास, हरिनन्दन
ठाकुर "सरोज" (1908-1945) सन् साहित्यकार कें जन्म देलक अछि।



'सुमति' क प्रकाशन लेखक रासबिहारी लाल दास, द्वारा अगस्त 1918 ई0 मे भेल। ई
पोथी समर्पित अछि महाराजा रामे•ार सिंह (1860-1929) कें। ई समर्पण प्रमाणित करैछ जे
रासबिहारी लाल दासक सम्पर्क आ सान्निध्य "राज दरभंगा" सँ अवश्य रहल होएतनि। एहि
सम्पर्कक दोसर साक्ष्य अछि सिद्धान्तपूर्व दूनू पक्ष द्वारा कएल गेल ओरिआओनक विशद वर्णन।



"सुमति"क अतिरिक्त रासबिहारी लाल दासक "मिथिला दर्पण"क विशेष चर्चा भेटैत
अछि। "मिथिला दर्पण" हिन्दीमे अछि तथा लेखकक प्रथम कृति थिक। एहि पोथीक समीक्षा
करैत लिखल गेल अछि-"मिथिला का प्राचीन तथा आधुनिक इतिहास, भूगोल तथा अन्यान्य
विषयों को प्रदर्शित करनेवाला 275 पृष्ठों का यह ग्रन्थ छप गया है।"2



एकटा विचित्र संयोगे कही जे मैथिलीक तीनू आरम्भिक उपन्यासकार मैथिलीमे
लिखबासँ पूर्व हिन्दी मे लिखि ख्याति पाबि गेल छलाह। मैथिलीक विरुद्ध चलि रहल षड्यंत्रसँ
परिचित भेला पर जीबछ मिश्र हिन्दीमे लिखब छोड़ि देने छलाह तथा जनसीदन जीक मांजल
हाथक लाभ मैथिली पबैत रहल। ओहिना "मिथिला

दर्पण" प्रकाशित भेलाक बाद रासबिहारी लाल दास कें मातृभाषाक प्रति विशेष प्रेम जागल तथा
"सुमति" क रचना एवं प्रकाशन कएल।



"सुमति"क रचना ओ प्रकाशनक प्रसंग लिखने छथि "हिन्दी भाषानुरागी रसिक तथा
प्रेमी पाठकक प्रोत्साहनसौं हिन्दी भाषाक अनन्य ग्रन्थक रचनाक परमाभिलाषी भेलहुँ, किन्तु
मैथिली भाषाक रसिक कतिपय विवुध मित्र महाशय अनुरोध करय लगताह जे निज मातृभाषाक
उन्नतिये सभ उन्नतिक मूल होइत अछि। अतएव, येहि बेरि मिथिला भाषाक साहित्येक सेवा
करब परमावश्यक थीक।"3



अनुभूतिक अभिव्यक्ति लेल साहित्यक कतेको विधा प्रचलित अछि, परंच लेखक कोन
विधाक चयन करैत अछि तथा अपन अनुभूति कें कोना स्वरूपायित करैत अछि, से निर्भर अछि
कथ्य तथा ओहि कथ्य कें वहन करबाक क्षमतासँ परिपूरित विधाक। तें कोनो लेखक कोनो
खास विधाकें भावाभिव्यक्ति ले किएक चयन करैत अछि, विशेष भावक भए जाइछ। रासबिहारी
लाल दासक समक्ष एकटा व्यापक सामाजिक विषय-वस्तु छल, जकरा ओ समाजक समक्ष
आनय चाहैत छलाह तथा अन्य विधाक सीमाक परिचय छलनि। उपन्यासक अर्थ ओ से नहि
मानैत छलाह जे बाबू तुलापति सिंह (1859-1914) "मदनराज चरित उपन्यास" सँ बूझैत
छलाह। ई भिन्न बात जे उपन्यास विधाक मानदण्ड पर आब "सुमति" कतेक ठठैत अछि।




उपन्यास विधा कें अभिव्यक्तिक माध्यमक रूपमे स्वीकार करबाक प्रसंग अपन विचार
व्यक्त करैत रासबिहारी लाल दास भूमिकामे लिखने छथि--"नभ मण्डलस्थ नक्षत्रादिक दर्शन तौं
सहज मे चक्षुपातहि सौं भै सकैत अछि, परन्तु भूमण्डल समाजाकाशस्थ चरित्ररूपी नक्षत्रक
निरीक्षण तौं उपन्यास रूपी आइग्लासहीक (चश्माक)अवलम्बन सौं समाजगत गुप्त प्रकट,
खानि-खानिक चरित्ररूपी नक्षत्र सूझय लागल, तैं कहि सकैत छी जे समाजरूपी फोनोग्रामक
रेकर्ड, समाजरूपी फोटो कमराक लेंस, समाजगत चरित्रक चित्राधार अर्थात् अलबम, समाज
सुधार तथा चरित्र गठनक आदर्श आधार उपन्यासे थिक। अतएव, सामाजिक उपन्यासक पठन
सौं मनुष्य सहजमे अपन दूषित चरित्र कैं सुविचार सौं परित्याग कय सकैत अछि।"4



साहित्याकार एक दिस जँ समाजकें प्रभावित करैत अछि तँ दोसर दिस प्रभावित सेहो
होइछ। ई प्रक्रिया समाज आ साहित्यकारक मध्य निरन्तर चलैत रहैछ, कौखन तरे तर तँ
कौखन देखा कए। परंच परिवेशसँ प्रभावित होएब तथा परिवेश कें प्रभावित करब दू-स्थितिक
प्रतिफल थिक। अपन परिवेषक प्रति रचनाकार कतेक सजग अछि तथा परिवेधस छोट-पैघ
घटना रचनाकारक भोक्ता मनकें कतेक दूर धरि प्रभावित कए सकैछ, से रचनाकारक
संवेदनशीलता पर निर्भर करैछ। परिवेश तखनहि प्रभावित भए सकैछ जँ रचनाकारक व्यक्तित्व
प्रखर रहैक। समाजक असंख्य विसंगति आ विडम्बना कें आत्म सात करैत, रचनाकार एकटा
बिम्ब गढ़ैछ एवं आदर्श प्रस्तुत करैछ अपन संकल्पात्मक अनुभूतिक बलपर। लेखकक एही
संकल्पात्मक अनुभूतिक साहित्यमे अभिव्यक्ति भेला पर ओ एकटा नव जीवन मूल्य बोधक
निर्माण करैछ, हासशील जीवन आ सामाजिक मूल्यक स्थान पर, समाजोन्मुखी मूल्य स्थापित
करैछ।



"सुमति"क रचनाकाल अथवा उपन्यासकार रासबिहारी लाल दासक जीवनकाल
सुधारवादी आन्दोलनक काल थिक। ओहि कालमे कतेको सुधारक सामाजिक मंच पर अएलाह
तथा सुधारवादी आन्दोलनक श्रीगणेश कए, सामाजिक विकृतिक निराकरण लेल जनमानसकें
आन्दोलित कएल। एही सुधारवादी आन्दोलनक परिणामस्वरूप मिथिला मे "मैथिल कनफोरेन्स"
अथवा "मैथिल महासभा"क स्थापना भेल जकर मूल लक्ष्य छल कोला-कोलामे बाँटल मिथिलाकें
सामाजिक विकृति सँ मुक्त करब। ओहि सुधारवादी आन्दोलनक दूटा प्रमुख केन्द्र बिन्दु छल-
स्त्री मे शिक्षाक प्रचार-प्रसार करब तथा वैवाहिक समस्या। ई दूनू

समस्या तेहन विकराल छल जे प्रत्येक सजग रचनाकार कें कोने-ने-कोनो रूपमे बिना प्रभावित
कएने ओ नहि छोड़ैत छल। आ ओही सुधारवादी प्रभावें रासबिहारी लाल दास "सुमति"क रचना
कएने छथि। लेखनक लक्ष्य कें स्पष्टत करैत लिखल अछि-"हमरा सभक आधुनिक सामाजिक
दशा परम अधोगति कें प्राप्ति भे चललि अछि तैं येहि वेरि मिथिले भाषामे समाज सुधार पर
कोनो एक उपन्यासक रचना रचू, जाहिसौं समाज पर प्रचुर प्रभाव पड़ैक।"5 लेखकक एहि
मन्तव्यसँ स्पष्ट भए जाइछ जे हुनक उद्देश्य समाजो द्वारक छनि।



"सुमति"क कथावस्तु मिथिलाक कायस्थ परिवारमे विवाह आदिक अवसर पर होइत
अपव्ययक कुपरिणाम देखेबाक निमित्त गढ़ल गेल अछि। सहलोला बाबू एक समृद्धिशाली आ
मातवर पुरुखाक संतति थिकाह। किन्तु, आब आर्थिक स्थिति सोचनीय भए गेल छनि। आठम


संतान छथिन सोनेलाल, जनिक स्द्धान्त-विवाह खूब धूम-धामसँ आ अपन ओकाति कें बिना
तौलने करेबाक छनि। फरीक सभ उसकेबासँ बाज नहि होइत छनि। कन्याप्रद मनोरथ लाभ
कतहु पटबारी छथि। ओहो गतविभव छथि, किन्तु मनोरथ कम नहि छनि। समधिक तैयारी सूनि
लज्जित होइत छथि आ बराबरी लेल कर्ज लैत छथि। वरियातीक स्वागत लेल नाना प्रकारक
चीजवस्तु आ सजावटिक सामान महाराजाधिराज सँ मंगनी करैत छथि। हरिसिंह देवी व्यवस्था
सँ सिद्धान्त होइत अछि। एहि अवसर पर बनल पंडाल आ अंग्रेजी बाजाक तान सूनि कए
सभक मन प्रसन्न भए जाइत छैक। पटवारी मनोरथ लाभ कें होइत छनि जे प्रतिष्ठा रहि गेल।
किन्तु जखन महाराजी चीजवस्तुक संग आएल साइस-महाउथ बिल छैत छनि तँ ओ आकाश सँ
धरती पर खसैत छथि एवं सिद्धान्तपूर्ब लेल हजार टाकाक कर्ज, कम भए जाइत छनि। पाइ
देबामे आनाकानी करबाक कारणें डहकनो खूब सुनैत छथि। करीब एक वर्षक उपरान्त
कन्यादानक दिन स्थिर होइछ। दूनू पक्ष अपना-अपनी कें कर्ज लैत छथि। कार्यकत्र्ता आ
विचारक छथिन गिरहकट्ट सभ। जे-सदिखन अधिकाधिक नफा कमयबाक ताकमे रहैत अछि।
निर्णयक प्रतिकूल परियातीक संख्या होइछ। वरियाती लोकनि रस्तामे मद्यपान कए ओंघरा
जाइत छथि। कन्यादानक समय कोनो विधि व्यवहार पर मत वैभिन्न सँ स्थिति बिस्फोटक भए
जाइछ। वरियातीक कोन कथा, वरो कें वेदी पर सँ उठा लए जएबाक ओकालति होमए लगैछ।
वर 'जी-जाँति' चतुर्थी धरि रहैत छथि, किन्तु चतुर्थीक प्रातहि सासुरक परित्याग करैत छथि।
वरकें बौंसबा लेल साल भरि मनोरथ लाभ भार-दौड़ि पठबैत रहैत छथि। विधि-व्यवहारक
ओरियाओनमे साल बीति जाइछ। ऋण सँ मुक्त होएबाक स्वाच्छन्ने नहि भेटैत छनि। कर्जदाता
लोकनि समधि द्वय पर सवार भए जाइत अछि। ऋण ओसूली लेल मोकदमा होइछ। वारंट
होइछ। अपार अपव्ययक परिणामक आघात कें सहलोला बाबू सहि नहि पबैत छथि आ पुत्रक
दुरागमन सँ पूर्वहि प्राण-पखेरू उड़ि जाइत छनि। हिनक पुत्र लोकनि जतहि जाइत छथि,
अपेक्षित संबंधी सभ धूतकारि दैत छनि। सहानुभूतिक एको शब्द सुनबाक अवसर नहि भेटैत
छनि।



पाँचम वर्षमे सुमतिक दुरागमन होइत अछि। ओही मध्य सुमति कें पूर्णरूपें स्त्री-शिक्षा
देल जाइछ। सासुर अबितहि आश्रमक भार उठा लैछ। समस्त गहना-गुड़िया बेचि आश्रममे लगा
दैत अछि। स्वामीक जे किछु कमाइ होइत छनि, ओही पर गुजर करैत अछि। सुमतिक सुप्रबन्ध
सँ आश्रमक स्थिति सुधरए लगैत छैक। बोहायल सम्पत्ति आपिस आबि जाइत छैक। जौतक
शिक्षाक उचित प्रबन्ध करैत अछि। सुमतिक प्रयासें अर्जित सम्पत्तिक कारणें सोनेलाल दासवृत्ति
सँ मुक्त होइत छथि। सुशील पर घटक अबैत छनि। किन्तु, सुमति आ सोनेलाल दूनू मिलि एक
नियमावाली बनबैत छथि आ शत्र्त रखैत छथि, जे केओ कन्यागत एहि नियमावलीक पालन
करताह, ताहीठाम सुशील आ सुबोधक सिद्धान्त विवाह कराएब।



"सुमति" स्त्री पात्र प्रधान रचना थिक। किन्तु पुरुष पात्र गौण नहि छथि। नायक छथि
सोनेलाल जनिक विवाह सुमतिक संग होइत छथि। अन्य पुरुष पात्रमे प्रमुख छथि सहलोला
बाबू। सहलोला बाबू सोनेलालक पिता छथि। परम समृद्धशाली पिताक पुत्र सहलोला बाबू कें
आब मनोरथ टा रहि गेलछनि।

मनोरथ लाभ छथि सुमतिक पिता। पटवारीगिरी जीविका छनि। एकर अतिरिक्त ऋणदेवसाहु,


सरदारी मल्लिक, घाँइठाकुर (सहलोला बाबूक मित्र आ ऋणदाता) गिरहकट्टा मल (कपड़ावला)
दिनमणि झा (ज्योतिषी), चैयाँ (नौकर), प्रपंची ठाकुर (सिपाही), पलटू ठाकुर आ मोचन ठाकुर
(नौआ), जवाहिर लाल (सहलोला बाबूक जेठ बालक), सुशील (जवाहिर लालक पुत्र), सुबोध
(सुमतिक बालक), हड़पुआ (सोनार), रजिस्ट्रार, भोलानाथ।



स्त्रीपात्रमे सुमतिक अतिरिक्ति अछि जेठरानी (सुमतिक सासु) कौशल्या कुमारि (घाँइ
ठाकुरक पत्नी), मन्जुभाषिणी (सुमतिक देआदनी), हितवादिनी देवी आ प्रियम्बदा पण्डाइनि
(सुमतिक सखि), कंसमसिया (खवासिनी) आदि। एहिसभ पात्रक अतिरिक्त एकटा उचित वक्ता
छथि जे पात्रक काज एवं वक्तव्य पर टिप्पणी कैरत जाइत छथि।



उपन्यासकारकें अपव्ययीक स्थिति दयनीय देखेबाक छनि, तें स्त्री-पात्र हो वा पुरुष-
पात्र, चरित्रक विकास पर ध्यान नहि देल अछि। एक समृद्धशाली पिताक पुत्र सहलोला बाबू
आब साधनहीन भए गेल छथि। किन्तु, मनोरथ छनि जे खूब धूम धामसँ अन्तिम सन्तानक
विवाह कराबी। सिद्धान्त सँ कर्ज करबाक रजे सूढ़ि लगैत छनि विवाहक एक वर्ष धरि चलिते
रहैछ। एही पाछू सभ अचल सम्पत्ति बोहा जाइत छनि। तगेदा सहि नहि पबैत छथि आ बेटा
लोकनिपर कर्जक बोझ छोड़ि देह त्यागि दैत छथि। सहलोला बाबू ओहि वर्गक प्रतिनिधित्व
करैत छथि जे अपन विभवकें विना जोखने खर्च करैत जाइछ। सुमतिक पिता सेहो वैभवशाली
नहि छथि किन्तु, समधिक देखाऊँसमे कर्ज लेबासँ बाज नहि अबैत छथि। ओहिपर सँ मालि क
ओहिठाम खानि खसैत छनि आ जहल जाइत छथि। नायक सोनेलाल पर बड़ कम प्रकाश
पड़ल अछि। पिताक परोक्ष भेला पर जेठ भाइ जखन सासुरक द्वितीय यात्रा लेल कर्ज लैत
छथि तँ ओ सासुर सँ सभ रुपैया साते दिन मे फूंकि आबि जाइत अछि आ जखन सुमति घरक
सुप्रबन्ध कए लैत अछि तँ दासवृत्ति सँ मुक्त होइत छथि। "सुमति"क छोट-छोट पात्रक चरित्र
निर्माणमे उपन्यासकार विशेष सफल भेल लगैत छथि। घाँइ ठाकुरक व्यक्तित्वक निर्माणमे ओ
कतेक सफल भेलाह अछि से एकहि उक्ति सँ स्पष्ट भए जाइछ। ओ पत्नीसँ कहैत छथि--
"प्रियतमे ! अहाँक अपन कोशलिया रुपैया किछु अछि, बालकक विवाह निमित्त दोस्त अपन
मांस बेचबा पर उद्धृत छथि। हमर बहरुआ रुपैया सभ कर्जखोरक घरमे फंसि गेल अछि।
रुपैया बाहर नहि कएला सौं येहन बढ़िया मांस अनके हाथ लगतैक"।



पुरुष पात्रमे जेना सहलोला बाबू "ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत"क सिद्धान्तक अनुसरण करैत
छथि, हुनक पत्नी जेठरानीदावी सेहो ओही विचारक छथि। जेठरानी देवी स्पष्टतः कहैत छथि-
"जे किछु देने छलाह से सभ तौं विवाहे दान करैत-करैत निघटि गेल। सए दू सए होएबो करत
तौं ताहि सौं कि ऊँटक मुँह मे जीरक फोड़न होएतैक? ऋणदाता मित्र मौजूद छथीह दश पांच
हजार हुनकहि सौं हथफेर वा ऋण लेथु। आगाँ-पाछाँ सधैत-बधैत रहतैन्ह। सोनमा हमर
कोरपोच्छू थीक एकर विवाह सभसौं विशेष रूपें कय देथून्ह। धन सम्पत्ति आब रखबे करताह
कोन दिन लय।" सहए हाल घांइ ठाकुरक पत्नी कौशल्या कुमरिक अछि। ओ पतिसँ एक डिग्री
आगूए छथि। कहैत छथिन्ह-"कागज पत्तर खूब पक्का-शक्का कराय लेब तखन रुपैया दोस्त कें
देबैन्ह"। हितवादिनी देवी आ मन्जु भाषिणीक अवतरण सुमतिकें नारी धर्मक शिक्षा देबा लेल


कएल गेल अछि। ओ सभ मिलि सुमतिकें ताहि रूपें शिक्षित कए दैत छनि जे सुमति सासुर
अवितहि घरकें सम्हारि लैछ। बोहाएल सम्पत्ति आपिस आबि जाइछ। पतिकें दासवृत्त सँ मुक्त
कए दैछ। आ तखन सुमति एक आदर्श नारीक रूपमे ठाढ़ भए जाइछ। ओकर आदर्श भाव
परिवारे लेल नहि, समाज लेल भए जाइत छैक। समाजकें सुधारब ओकर लक्ष्य बनि जाइति
अछि।



'निर्दयीसासु' (1914) आ 'सुमति' (1918) एकहि युगक प्रतिफल थिक। दूनू गोटे स्त्री
शिक्षाक प्रचार-प्रसार पर जोड़ देल अछि। किन्तु जनसीदनजी आ रासबिहारी लाल दासक
चरित्र निर्माणक दृष्टिमे वैभिन्न स्पष्ट अछि। यशोदा किछु बजैछ नहि। अन्त-अन्त धरि सासु आ
ननदिक यातना सहैत रहैछ। किन्तु सुमति घरकें सुधारि कए देखा दैछ। एकटा लटल-बूड़ल
परिवारकें सम्हारि उक्तर्षक शिखर पर पहुँचा दैत अछि। विवाह आदिक अवसरपर अपव्ययकें
रोकबालेल एक नियमावली बनबैत अछि। अपने तँ ओहिपर अछिए दोसरो कें ओकर पालन
करबालेल प्रेरित करैत अछि।



मूल पोथी बिना देखने ऐतिहासिक भ्रान्ति कोना पसरैत जाइछ तकर एकटा उदाहरण
थिक "सुमति"क प्रसंग प्रो0 राधाकृष्ण चौधरीक लिखब। सुमति थिकथि मनोरथ लाभक कन्या
आ सहलोला बाबूक पुतहु। किन्तु डॉ0 जयकान्त मश्रकें सहलोला बाबूक स्थान पर मनोरथ
लाभ लिखा गेल। ओ लिखैत छथि-ज़्ण्ड्ढद द्यण्ड्ढ ण्ड्ढद्धदृत्दड्ढ च्द्वथ्र्ठ्ठद्यत्, द्यण्ड्ढ ड्डठ्ठद्वढ़ण्द्यड्ढद्ध-त्द-थ्ठ्ठध्र्
दृढ ग्ठ्ठददृद्धठ्ठद्यण् ख्र्ठ्ठडण् ठ्ठद्धद्धत्ध्ड्ढद्म, द्मण्ड्ढ थ्र्ठ्ठदठ्ठढ़ड्ढद्म द्यण्त्दढ़द्म द्मदृ ध्र्ड्ढथ्थ् द्यण्ठ्ठद्य ण्त्द्म ढदृद्धद्यद्वदड्ढ द्यद्वद्धदद्म
ढदृद्ध द्यण्ड्ढ डड्ढद्यद्यड्ढद्ध, द्यण्ड्ढ ड्ढड्डद्वड़ठ्ठद्यत्दृद ठ्ठदड्ड द्यण्ड्ढ डद्धत्दढ़त्दढ़ द्वद्र दृढ द्यण्ड्ढ ड़ण्त्थ्ड्ड ठ्ठद्धड्ढ ड्डदृदड्ढ त्द
द्यण्ड्ढ द्रद्धदृद्रड्ढद्ध द्मड़त्ड्ढदद्यत्ढत्ड़ थ्र्ठ्ठददड्ढद्ध ठ्ठदड्ड ठ्ठथ्थ् ड्ढदड्डद्म ण्ठ्ठद्रद्रत्थ्न्र्6 एही गलतीकें दोहरबैत प्रो0
राधाकृष्ण चौधरी (1924-1985) लिखैत छथि :-"ज़्ण्ड्ढद द्यण्ड्ढ ण्ड्ढद्धदृत्दड्ढ, च्द्वथ्र्ठ्ठद्यत्,
ड्डठ्ठद्वढ़ण्द्यड्ढद्ध-त्द-थ्ठ्ठध्र् दृढ ग्ठ्ठददृद्धठ्ठद्यण् ख्र्ठ्ठडण् ठ्ठद्धद्धत्ध्ड्ढद्म, द्मण्ड्ढ थ्र्ठ्ठदठ्ठढ़ड्ढद्म द्यण्त्दढ़द्म द्मदृ ध्र्ड्ढथ्थ् द्यण्ठ्ठद्य
द्यण्ड्ढ ढदृद्धद्यद्वदड्ढद्म दृढ द्यण्ड्ढ ढठ्ठथ्र्त्थ्न्र् द्यठ्ठत्त्ड्ढद्म ठ्ठ डड्ढद्यद्यड्ढद्ध द्यद्वद्धद.7



'सुमति' मैथिलीक आरम्भिक उपन्यास थिक आ एहि कोटिक रचना पर विचार करबाक
समय कमसँ कम दू बिन्दु पर अवश्य ध्यान राखल जाएबाक चाही। पहिल ई जे ओ कोन
कालक रचना थिक आ ओहि समय मे एहि विधाक की स्थिति छलैक। तें जखन "सुमति"क
औपन्यासिकताक चर्चा करैत छी तँ भेटैछ जे ओहि समय मे उपन्यास विधा आइ-काल्हि जकाँ
प्रचलित नहि छल। दोसर भाषा मे उपन्यास लिखा रहल छल। से देखि मैथिलीक साहित्यकार
प्रेरित भेलाह आ अपन मातृभाषा मे ओहि विधाक अभाव देखि उपन्यास रचना कएल। एकटा
साहित्यिक आभावकें पूर्ण करबाक दायित्वक निर्वाह कएल। आ एही अभाव एवं मानसिकताक
स्थितिमे "सुमति" सेहो लिखाएल अछि। सुमतिक औपन्यासिकताक प्रसंग डॉ0 जयकान्त मिश्र
लिखने छथि-'एद्वद्य द्यण्ड्ढद्धड्ढ त्द्म ण्ठ्ठद्धड्डथ्न्र् ठ्ठदन्र् द्मत्त्त्थ्थ् ड्डत्द्मद्रथ्ठ्ठन्र्ड्ढड्ड त्द दठ्ठद्धद्धठ्ठद्यत्दढ़ द्यण्ड्ढ द्मद्यदृद्धन्र् दृद्ध त्द
ध्र्ड्ढठ्ठध्त्दढ़ द्यण्ड्ढ द्रथ्दृद्य. क्ण्ठ्ठद्धठ्ठड़द्यड्ढद्धत्न्न्ठ्ठद्यत्दृद त्द्म ध्ड्ढद्धन्र् ध्दृढ़द्वड्ढ ठ्ठदड्ड त्दड्डत्द्मद्यत्दड़द्य. क्ष्दड्डड्ढड्ढड्ड द्यण्ड्ढ
ध्र्दृद्धत्त् त्द्म ठ्ठ द्यन्र्द्रत्ड़ठ्ठथ् ड्ढन्ठ्ठथ्र्द्रथ्ड्ढ दृढ त्थ्र्थ्र्ठ्ठद्यद्वद्धड्ढ ददृध्ड्ढथ् ध्र्द्धत्द्यत्दढ़ त्द ग्ठ्ठत्द्यण्त्थ्त्. च्र्ण्ड्ढ
द्मत्द्यद्वठ्ठद्यत्दृद त्द ग्त्द्यण्त्थ्ठ्ठ ठ्ठदड्ड द्यण्ड्ढ त्ड्डड्ढठ्ठ ध्र्दृद्धद्यण्न्र् दृढ डड्ढत्दढ़ द्यण्ड्ढ द्मद्वडत्र्ड्ढड़द्य थ्र्ठ्ठद्यद्यड्ढद्ध दृढ ठ्ठ


ग्ठ्ठत्द्यण्त्थ्त् ददृध्ड्ढथ् डद्वद्य द्यण्ड्ढ ण्ठ्ठदड्डत्दढ़ त्द्म ड़द्धद्वड्डड्ढ'.



डॉ0 जयकान्त मिश्रक एहि मत सँ सहमत प्रो0 राधाकृष्ण चौधरी लिखैत छथि-
"क्ष्दद्मद्रत्द्यड्ढ दृढ त्द्यद्म ड़द्धद्वड्डड्ढ ण्ठ्ठदड्डथ्त्दढ़ ठ्ठदड्ड थ्ठ्ठड़त्त् दृढ त्दद्यड्ढद्धड्ढद्मद्यत्दढ़ द्मत्त्त्थ्थ् त्द दठ्ठद्धद्धठ्ठद्यत्दढ़ द्यण्ड्ढ
द्मद्यदृद्धन्र् 'द्मद्वथ्र्ठ्ठद्यत्' थ्र्ठ्ठन्र् डड्ढ द्धड्ढढ़ठ्ठद्धड्डड्ढड्ड ठ्ठद्म द्यण्ड्ढ ढत्द्धद्मद्य द्मद्वड़ड़ड्ढद्मद्मढद्वथ्, ठ्ठद्यद्यड्ढथ्र्द्रद्य ठ्ठद्य ध्र्द्धत्द्यत्दढ़ ठ्ठ
थ्र्दृड्डड्ढद्धद ददृध्ड्ढथ् त्द ग्ठ्ठत्द्यण्त्थ्त्." एहि सँ पहिने प्रो0 चौधरी लिखने छथि-"द्यण्ड्ढ कद्धठ्ठ दृढ ग़्दृध्ड्ढथ्
ध्र्द्धत्द्यत्दढ़ ध्र्ठ्ठद्म ढदृद्धथ्र्ठ्ठथ्थ्न्र् त्दठ्ठद्वढ़द्वद्धठ्ठद्यड्ढड्ड डन्र् ङठ्ठद्म एत्ण्ठ्ठद्धत् ख्र्ठ्ठथ् क़्ठ्ठद्म (ठ्ठद्वद्यण्दृद्ध दृढ 'ग्ठ्ठत्द्यण्त्थ्त्
क़्ठ्ठद्धद्रठ्ठद') ध्र्ण्दृद्मड्ढ ग़्दृध्ड्ढथ् "च्द्वथ्र्ठ्ठद्यत्" ड्डत्ड्ड ठ्ठ द्यद्धड्ढथ्र्ड्ढदड्डदृद्वद्म द्मड्ढद्धध्त्ड़ड्ढ".



प्रो0 चौधरीक उक्त विचार सँ दू टा निष्कर्ष निकाल जा सकैछ-मैथिलीमे उपन्यास
लेखनक विधिवत् उद्घाटन 'सुमति' सँ भेल तथा आधुनिक उपन्यास लेखन मे "सुमति" प्रथम
सफल प्रयास थिक। प्रो0 चौधरीक एहि मान्यतासँ सहमत नहि भेल जा सकैछ। हमर स्पष्ट
धारणा अछि जे प्रो0 चौधरी कें "सुमति" पढ़ल नहि छलनि किएक तँ ओही भ्रान्ति कें ओहो नहि
दोहरा दैतथि जे डॉ0 मिश्रक लेखनसँ पसरल। 'सुमति' पढ़ितहि स्पष्ट भए जाइछ जे सुमति के
थिकीह। ककर बेटी आ ककर पुतहु। "सुमति" मनोरथ

लाभक कन्या थिकीह, पुतहु नहि।



"सुमतिक" प्रकाशन अगस्त 1918 ई0 मे अछि। एहि सँ पूर्वहि जीवछ मिश्रक
"राममे•ार" (1916) पुस्तकाकार प्रकाशित भए चर्चित भए गेल छल तथा 1914 ई0 मे जनार्दन
झा "जनसीदनक" उपन्यास "निर्दयीसासु"क धारावाहिक प्रकाशन 'मिथिला मिहिर' मे भए गेल
छल। तें, ई मानब ऐतिहासिक नहि होएत जे 'सुमति'क प्रकाशनसँ मैथिली मे आधुनिक
उपन्यास लेखनक उद्घाटन भेल। जतय धरि मैथिलीक प्रथम सफल उपन्यास मानबाक प्रश्न
अछि, से विवादक विषय भए सकैछ। रामे•ार (1916) तथा निर्दयीसासु (1914) पुनर्मुद्रित भए
सर्वसुलभ भए गेल अछि। ओहि सभ पर विचार आरम्भ भए गेलैक अछि।



हमरा ई मानबामे किंचितो तारतम्य नहि भए रहल अछि जे सुमतिक क्षेत्र निर्दयीसासु
अथवा रामे•ार सँ विस्तृत नहि छैक। एहिमे स्थिति अथवा पात्रक जतेक विविधता अछि वा
विस्तार अछि से उक्त दूनू उपन्यासमे नहि। किन्तु, रासबिहारी लाल दास, जीवछ मिश्र अथवा
जनार्दन झा 'जनसीदन' सँ कलात्मक स्तर पर पछड़ि जाइत छथि, आ तें 'सुमति' मे ओ
सौन्दर्य नहि आबि सकल अछि जाहि सँ पाठक बन्हाएल रहि सकथि। 'रामे•ार' अथवा
"निर्दयीसासु" मे उपन्यासकार पाठककें अन्त-अन्त धरि बन्हने रहैछ किन्तु "सुमति"क ई स्थिति
नहि छैक। "सुमति" मे उचित वक्ताक अवतरण अथवा लेखकक द्वारा प्रत्यक्ष रूपें पाठककें
सम्बोधित करब, अरुचि उत्पन्न कए दैत अछि। पाठक कें सम्बोधित करैत लेखक कहैत छथि-
"जिज्ञासु पाठक? येहि अवधकाण्ड मे श्रीमान् सहलोला बाबू कें सहरुााधिक मुद्रा दातव्य भेलैन्ह।
अस्तु! वरप्रदक जिज्ञासा भै गेलि, आब कनेक कन्योप्रदक खोजपूछारी करब उचित थीक।
कन्याप्रद मनोरथ लाभ जे हजार टाका सिद्धान्ततीर्थक निमित ऋण लेलैन्ह ताहि सौं ओहो कोन


रूपें सुफल लेलैन्ह, से सुनू।" एहि शैलीक प्रसंग डॉ0 दुर्गानाथ झा "श्रीश" लिखने छथि-एहिमे
उंचित वक्ता पात्रक सृष्टि कए लेखक कथावाचकक शैलीमे स्थान, स्थान पर उपन्यासक
उद्देश्यक दिशि पाठकक ध्यान आकृष्ट करबैत चलैत छथि। मुदा ई उपन्यास कलाक कसौटी
पर बड़ निर्बल सिद्ध होइत अछि।2 उड़ियाक आदि उपन्यासकार फकीर मोहन सेनापति
(1843-1918) 'छमन आठ गुण्ठ'क अध्ययन ई साबित करैछ जे ओहि समय उचित वक्ताक
अवतरण स्वीकृत शैली छल।



"सुमति"क भाषा "सुमति"क आस्वादन मे पर्याप्त वाधा उत्पन्न करैत अछि। एकर भाषा
उपन्यास वा कथाक भाषाक अपेक्षा निबन्धक भाषाक विशेष निकट छैक। लेखक अपन कथ्यक
समर्थनमे जँहिं-तहिं तुलसीदासक चौपाइ ठूँसने छथि। डॉ0 जयकान्त मिश्रक कहब-च्र्ण्ड्ढ
ध्र्ण्दृथ्ड्ढ ध्र्दृद्धत्त् थ्दृदृत्त्द्म थ्त्त्त्ड्ढ ठ्ठद ठ्ठथ्थ्ड्ढढ़दृद्धन्र् दृद द्यण्ड्ढ ढदृथ्थ्दृध्र्त्दढ़ ध्ड्ढद्धद्मड्ढ दृढ च्र्द्वथ्द्मत् क़्ठ्ठद्म.



"जहँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना",

जहँ कुमति तहँ विपत निदाना ।।



सर्वथा ठीक लगैछ। जाहिछाम उपन्यासकार निबन्धात्मक भाषाक, प्रयोग नहि कएल
अछि, वेश रोचक भए गेल अछि। जेना कसमसिया खवासिनि हजाम ठाकुर कें कहैत अछि-"औ
हजाम ठाकुर? हम तौं अहाँक बहिनि पिउसीक दाखिल छी। छिः छिः हुनकहुँ सभ पर अहाँ कें
ओहने भाव भक्ति रहैत अछि।" 'सुमति'क विषयवस्तु एक जातीय अछि तथा भाषामे हिन्दीओ
कविता ठाम ठाम अछि। समकालीन उपन्यासकार पं0 जीवछ मिश्र एहि दूमू स्थितिक आलोचना
कएने छथि। मैथिली उपन्यास मे हिन्दी कविताक प्रयोगकें ओ सामान्य हानि मानने छथि।
हुनका मतें ई प्रवृत्ति मैथिलीभाषा आ कविक अक्षमताक द्योतक थिक। भाषा ओ शैलीजन्य
शिथिलताक अछैतो 'सुमति' एक महत्वपूर्ण रचना थिक। जकर मूल लक्ष्य अहि सामाजिक
जागरण।

युगक एहि मूल स्वर कें व्यक्त करबामे उपन्यासकार सफल छथि।



-हालचाल 1/1986

.. .. .. ..



जनार्दन झा 'जनसीदन' आ निर्दयी सासु



जनार्दन झा 'जनसीदन' (1872-1951) क रचना तीन विधामे उपलब्ध अछि-उपन्यास,
कविता तथा निबंध। डा0 जयकान्त मिश्रक मतानुसार "निर्दयी सासु" शशिकला; "कलियुगी
संन्यासी", "पुनर्विवाह" तथा "द्विरागम रहस्य" उपन्यास थिक। एहिमे "पुनर्विवाह"कें छोड़ि शेष
सभ टा मिथिला मिहिरमे धारावाहिक रूपमे प्रकाशित लिखल अछि। "कलियुगी संन्यासी उर्फ


ढ़कोसलानन्द" कें डा0 मिश्र, डा0 दुर्गानाथ झा "श्रीश" तथा डा0 अमरेश पाठक (ज.1936)
उपन्यास लिखने छथि किन्तु प्रो0 हरिमोहन झा1 प्रहसन कहल अछि। पद्य रचनामे
"नीतिपद्यावली" प्रकाशित अछि। तकर अतिरिक्त किछु कविता पत्र-पत्रिकामे छिड़िआएल अछि।
निबंधक रूपमे 'मिथिलाक महत्व'2 तथा "प्रेम विवेचन"3 सुलभ अछि।



पुरना "मिथिला मिहिर" देखला सँ ज्ञात भेल अछि जे जनसीदनजी पहिने हिन्दीमे
लिखब आरम्भ कएल तथा तकर बाद मैथिली दिस अएलाह। जखन कि हिनक समकालीन
मैथिल रचनाकार यथा यदुनाथ झा "यदुवर" त्रिलोचन झा, कालीचरण झा, मुंशी रघुनन्दन दास
आदि हिन्दीप्रधान "मिथिला मिहिर" मे मैथिलीए मे लिखैत छलाह। मातृभाषा दिस कोना उन्मुख
भेलाह तकर उल्लेख तँ नहि देखबामे आएल अछि, किन्तु हमर अनुमान अछि जे निम्न तीन
कारणें जनसीदनजी मैथिलीमे लिखब शुरु कएने होएताह-(1) हिन्दीक विस्तारवादी मोनिमे
मातृभाषा मैथिलीकें गरगोटिया देबाक चक्रचालिसँ आघात लागल होएतनि।(2) प्रचुर मात्रामे
मौलिक आ अनुवाद साहित्य सँ हिन्दीक भंडारकें भरलो पर ओहन सम्मान नहि अनुभव कएने
होएताह जे मोजर बिहारक बाहरक हिन्दीक साहित्यकारकें भेटैत छलनि।(3) जनसीदनजी तथा
महावीर प्रसाद 'द्विवेदी' क बीच भेल पत्राचार सँ स्पष्ट होइछ जे द्विवेदी जी मैथिल
राजदरवारसँ अपन पत्रिका 'सरस्वती'क लेल चन्दा प्राप्त करबाक निमित जनसीदनजीक
परिचयकें भजबैत छलाह। जकर भान जनसीदनजीकें भए गेल होनि। आ से सब मिलि
जनसीदनजीकें मैथिली दिस उन्मुख कए देलक। हमर एहि निष्कर्षक आधार थिक पं0 जीवछ
मिश्रक कटु अनुभव। पं0 जीवछ मिश्र सेहो पहिने हिन्दी मे लिखैत छलाह। उपेक्षा भेला पर
"सरस्वती" एवं "माधुरी"क बहिष्कारक घोषणा कएल। एहि प्रसंग जीवछ मिश्र स्पष्टतः लिखने
छथि-"एहि प्रकार हिन्दी मध्य किछुओ लिखबासँ नहि लिखबे श्रेयष्कर बूझल ('रामे•ार') एहि
स्थितिक पुष्टि डा0 ग्रियर्सन द्वारा कएल गेल 'रामे•ार' पुस्तकक समीक्षा सँ सेहो होइछ। पं0
जीवछ मिश्र जकाँ जनसीदनजी हिन्दीमे रचना नहि करबाक शपथ लेल वा नहि, से तँ ज्ञात
नहि अछि, किन्तु मैथिलीमे रचना करबा लेल प्रवृत्त भेलाह तथा विभिन्न भाषा साहित्यिक
परिचयसँ प्राप्त अनुभव सँ मैथिली भाषा साहित्यकें लाभान्वित कएल। एही प्रवृत्तिक परिणति
थिक "निर्दयी सासु" जकर धारावाहिक प्रकाशन "मिथिला मिहिर"क 17 अक्टूबर 1914 सँ भेल
तथा 28 नवम्बर 1914 क अंक में समाप्त भेल। (आब पुस्तकाकार प्रकाशित-निर्दयी सासु एवं
पुनर्विवाह सं0 डा0 रमानन्द झा "रमण", वर्ष-1984)



निर्दयी सासुक कथावस्तु



'निर्दयी सासु' शब्द सुनलहिसँ बूझा जाइछ जे पुतहुपर अत्याचार कएनिहारि कोनो
पराक्रमी सासुक

एहिमे कथा होएत। से सरिपहुँ पं0 अयोध्यानाथ मिश्रक पत्नी अनूपरानी ओही कोटिक एक सासु
छथि।



शिव नगरक ज्योतिषी चिन्तामणि झा कतेको वर्षधरि पश्चिमक कोनो राजधानी मे


रहलाक बाद गाम घूमैत छथि। ज्योतिशीजी सुधारवादी आन्दोलनसँ नीक जकाँ परिचित छथि
तथा स्त्री शिक्षाक मर्म बुझैत छथि। अपन कन्या शारदाकें पढ़ेबा लिखेबामे खूब रुचि लैत छथि।
शारदा मन लगा कए मिथिललाक्षर आ देवाक्षर सीखि लैछ। माय तथा पितामहीक संग टोल-
पड़ोसक बूढ़ी लोकनि कें बैसा कए रामायण सस्वर पाठ कए लैत अछि।



शारदाक नओ वर्ष होइतहि, ज्योतिषीजी कें कन्यादानक चिन्ता भए जाइत छनि। अपन
शारदाक हेतु योग्यवर तकबा लेल ओ खूब प्रयास करैत छथि। मुदा एकोटा कथा चित्त मे बैसैत
नहि छनि। कतहु बर नीक तँ जाति नहि, जाति तँ, आस्थापात नहि। पत्नीक उपराग सुनैत
छथि। अन्तमे हारिथाकि सहबाजपुरक पिसिऔत लक्ष्मीदत्त झाक संग सभ जाइत छथि। ओतहु
खूब प्रयास करैत छथि। परंच एकहिठाम वरगुण, जाति आ धन नहि भेटैत छनि। एही बीच
वसुहामक एकटा घटक घूटर झा उपस्थित होइत छथि। हिनकहि प्रयासँ वैरमपुरक अयोध्यानाथ
मिश्रक अंग्रेजी पढ़ैत बालक सीतानाथ मिश्र मे बिना कोनो लेन-देनक कथा उपस्थित होइछ।
अपंजीवद्ध रहलाक कारणें पिसिऔतक विरोध होइछ। ओ कथा भङठेबाक अपना भरि खूब
प्रयास करैत छथि तथापि वरगुण देखि ज्योतिषी कथा स्थिर कए लैत छथि। एहिपर पिसिऔत
तमसा कए चल जाइत छथिन। वर आ वरियातीक संग ज्योतिषी गाम आबि कन्यादान सम्पन्न
करैत छथि।



पढ़लि-लिखलि पुतहु पाबि अयोध्यानाथ मिश्रकें खूब प्रसन्नता होइत छनि। पुतहुक रूप
गुण सूनि प्रसन्नता तँ अनूप रानीकें सेहो होइत छनि, मुदा बेटाक विवाहमे टाका हाथ नहि
अएबाक पर्याप्त दुख छनि। तीन वर्षक बाद दुरगमन भेला पर मन माफिक भार नहि अएलाक
कारणें शारदाक प्रति सासुक व्यवहार रुच्छ भए जाइछ। बेटा-पुतहु कें गप्प करैत सूनि अथवा
एकट्ठामे देखि लोहछि उठैत छथि। सदिखन चिन्ता रहैत छनि जे बेटा किनसाइत पुतहुक वशमे
नहि भए जाए। पढ़ाइ समाप्त कए सीतानाथ नौकरी लेल बाहर जाइत छथि। सीतानाथक
अनुपस्थितिमे सासु आ ननदिक अत्याचार शारदा पर बढ़ि जाइत छैक।



शारदाक नैहरिमे लोक पढ़ल-लिखल छल। पढ़बा-लिखबाकें नीक बूझैत छल। मुदा,
सासुर मे स्थिति प्रतिकूल छैक। पढ़ब-लिखब वर्जित कए देल गेलैक। पोथी बढ़बालेल बाहर
करए तँ ननदि उपद्रव करैक आ सासुकें शंका होइक। एक दिन किछु लिखैत देखि लेलापर
शारदा कें सासु दुरगंजन कए छोड़ल। अपन अस्वस्थताक कारणें एक राति नहि जाँति सकल
तँ सासु तूरपीन भए गेलीह। दुरागमनक तीन वर्ष बीतलोपर कल्याणक योग्यता नहि देखि,
सासु बाँझ आदि शब्दसँ सम्बोधन करैछ। बेटाकें दोसर विवाहक लेल मनबैछ। शारदाक पुत्र
होइछ। परिवारमे प्रसन्नता अबैछ। पौत्र पाबि अनूपरानी गद्गद् भए जाइत छथि। किन्तु,
शारदाक प्रति व्यवहार नरम नहि होइत छनि। दुखित पड़ला पर दवाइ उपचार आदिक व्यवस्था
नहि होमय दैत छथि। सीतानाथकें बजाओल जाइछ। उपचार चलैछ। शारदा नीके होइछ।



"निर्दयी सासु"क रचनाकालमे सुधारवादी आन्दोलन चरम पर छल। आ तकर स्पष्ट
प्रभाव "निर्दयी सासु" मे अछि। ज्योतिषी चिन्तामणि झाक अवतारणा ओही आन्दोलनक परिणाम
थिक। शारदाकें शिक्षित करब, स्त्री शिक्षाक महत्वक प्रतिपादन थिक। हरिसिंह देवी भूत समाज


कें कोला-कोलामे बटने जाइत छल, जाहिसँ कतेको प्रकारक सामाजिक कुरीति पसरि रहल
छलैक। ओहि कुरीतिकें रोकबा लेल जनसीदनजी घटक सँ कहबाओल अछि........हरिसिंह देवी
कतय लेने फिरैछी, कन्या जाहिसँ सुखमे रहय से कत्र्तव्य थिक। परन्तु, हमरो मेहनति मोन
राखब" घटकक एहि उक्ति मे हरिसिंह देवी व्यवस्थाक विरोध तँ अछिए घटकक आन्तरिक

इच्छा-"हमर मेहनति मोन राखब"-अत्यन्त सहज रूपमे व्यक्त भए गेल अछि।



"निर्दयी सासु"क कथा वस्तुक निर्माण सामाजिक घटनाक आधार पर संयोजित अछि।
एहि घटनाक चित्रण ततेक कौशलपूर्ण अछि जे समक्षहिमे घटित होइत प्रतीत होइछ। तात्पर्य
जे स्वाभाविकता एवं वि•ासनीयताक विर्वाह सर्वत्र अछि। कन्यादान लेल पिताक फिफिआएब,
पाँजिक रक्षाक चिन्ता, कन्याक सुख-सुविधाक चिन्ता क बीच झुलैत कन्यागतक मन स्थिति,
बेटाकें विवाहमे पर्याप्त चीजवस्तु नहि भेटलापर वरक मायक खौझाएब, सासु द्वारा पुतहुक
पुरखाकें उकटब, आदि स्थितिक चित्रण कुशलता एवं प्रभावक शैली मे अछि। गाममे हकार
पड़ल अछि। गीतहारि सभ जूमि, रहलीह अछि। एहि कालक स्थितिक चित्रणक स्वाभाविकता
एवं सजीवता देखनुक अछि-"दू घड़ीक बाद एकाएकी सभ जमा होमय लगलीह। आबय मे
जनिका विलम्ब भेलनि, हुनका ओतए झोटहा पेआदा छूटलि, पकड़ि, अनलक। कतेक कालधरि
हँसी मसखरी भेल। सीतानाथक मायकें ननदिक डहकन, कते कोन ठेकान नहि रखलकैन्हि।
ओहो कियेक चुकितीह। जे फुरलैन्हि, तानि कय-कय सत्कार लोकक कयलथिन्ह।"



"निर्दयी सासु" स्त्री प्रधान रचना थिक। अनूपरानीक चारूकात घटना चक्र घूमैत रहैछ।
अनूपरानीक अतिरिक्त आओरो पाँच नारी पात्र छथि-शारदा, शारदाक माय, सीतानाथक पीसी,
सीतानाथक बहीन आ विधिकरी। पुरुष पात्रमे ज्योतिषी चिन्तामणि झा, लक्ष्मीदत्त झा, घटक
घूटर झा, अयोध्यानाथ मिश्र, सीतानाथ मिश्र आ खब्बास आदि।



अनूपरानीक चित्रण क्रूर आ चिड़िचिड़ाहि सासुक रूपमे भेल अछि। पति आ पुत्र पर
पूर्ण अधिकार छनि। अनूपरानीक मनक इच्छाक प्रतिकूल ककरो कल्ला नहि अलगि पबैछ।
समाधिऔर सँ खूब चीज वस्तु आबय तकर उत्क्रृष्ट इच्छा छनि। अपूर्ण मनोकामनाक जनित
समस्त रोष आतामसक केन्द्र शारदाकें बना लैत छथि। पढ़बा-लिखबासँ जन्मी शत्रुता छनि।
बेटा-पुतहुक मेल अखरैत छनि। बेटाक सासुर जाएकबें, कनियाँक वशीभूत भए जाएब मानैत
छथि। ज्योतिषीजी द्वारा शारदाकें देल गेल गहना मे बेटाक कमाइक शंका होइत छनि।
सन्तानमे विलम्ब भेलाक कारणें पुतहुकें बाँझ-चूड़ैत आदि कहि, दोसर विवाह लेल बेटाकें
मनबैत छथि। शारदाक मृत्युक कामना छनि तें औषधि आदिक व्यवस्थामे विलम्ब करबैत अछि।
पौत्रक जन्म भेलो पर पुतहुक प्रति क्रूर भावना मे नरमी नहि अबैत अछि। शारदाक ननदि सेहो
माइए पर गेलि अछि। लूत्ती लगएबामे पारंगत अछि। अयोध्यानाथ मिश्रक वहीनक क्षणिक
उपस्थितिसँ रोचकता आबि गेल अछि। विधिकरीक चरित्र-चित्रण मे सेहो स्वाभाविकता अछि।
दोसर दिस ज्योतिषीक पत्नी कन्या आ जमायक हित चिन्ता मे सदिखन लागल रहैछ। अपन
आन कोनो संतान नहि, तें आकर्षण आ ममत्वक केन्द्र जमाइये छथिन्ह। सामथ्र्य भरि सां ठबा
मे कोताही नहि करैत छथि। किन्तु सभसँ भिन्न स्थिति अछि शारदाक। सम्पूर्ण "निर्दयी सासु"मे
शारदा एको शब्द बजै तक नहि अछि। सासु आ ननदिक यातना मूक बनि सहैत रहैछ। पढ़बा


लिखबाक सौख छैक। किन्तु, सासु आ ननदि मिलि प्रतिबन्ध लगा दैने छैक। शारदा खटैत
अछि, अनुभव करैत अछि किन्तु अपन मुँह नहि खोलैत अछि। शारदाक चरित्र निर्माणमे
उपन्यासकार धैर्य आ साहसक रुाोत भरि देल अछि।



पुरुष पात्रमे प्रमुख छथि ज्योतिषी चिन्तामणि झा। समाज सुधारक प्रति सजग छथि।
हिनक ई सजगता वैचारिके नहि, कार्यरूप मे प्रकट होइत अछि। स्त्री शिक्षाक महत्वक प्रति
सजग छथि। कन्याक सुख सुविधा लेल हरि सिंह देवी भूतकें झाड़ि लैत छथि। हिनक
पिसिऔत लक्ष्मीदत्त झाक चित्रण एक पुरानपंथीक रूपमे कएल अछि। घटकक चरित्रांकन
विलक्षण अछि। हिनके विचारक कार्यान्वयन कए ज्योतिषी सामाजिक कुरीतिकें तोड़बामे सफल
होइत छथि। अयोध्यानाथ मिश्र एक ततेक शुद्ध लोक छथि जे पत्नीक प्रकृतिसँ

परिचित भइओ कए मौनव्रत भंग नहि करैत छथि। सएह हाल सीतानाथक अछि। यद्यपि पढ़ल-
लिखल छथि, पत्नी पर होइत अत्याचारसँ परिचित छथि। किन्तु, माइक प्रतिकूल एको शब्द
बाजि नहि पबैत छथि। मुदा अतेक धरि अवश्य करैत छथि जे माइक चढ़ौलो पर दोसर विवाह
लेल तैयार नहि होइत छथि। चरित्रक ई गम्भीर्य आ एक पत्नीक अछैतो दोसर विवाह नहि
करबाक आन्तरिक निर्णय विशेष महत्वक अछि।



औपन्यासिकताक दृष्टि सँ "निर्दयी सासु"क अध्ययन कएला पर ओ झुझुआन लगैछ।
एहिमे औपन्यासिक विविधताक अभाव अछि। किन्तु रचना ओहि समयक थिक जखन मैथिलीमे
उपन्यास लिखबाक प्रति जागृति नहि आएल छलैक। एहि विधाक परिचय मैथिली जगतकें बड़
कम छलैक। आ तें जेना चन्द्रलोकपर पड़ल पहिल मानव अन्तरिक्षा यात्री आर्मस्ट्रांगक डेग
महत्वपूर्ण अछि, ओहिना मैथिली उपन्यासक इतिहासमे जनसीदनजीक "निर्दयी सासुक" महत्व
अछि।



निर्दयी सासु आ रामे•ार



जनसीदनजीक "निर्दयी सासु" धारावाहिक रूपमे प्रकाशित मैथिलीक प्रथम उपन्यास
थिक तँ पं0 जीवछ मिश्रक "रामे•ार" मैथिलीक प्रथम पुस्तकाकार उपन्यास अछि। दूनू
रचनाकार हिन्दी मे चर्चित भए, मैथिलीमे आएल छलाह। दूनूक उपन्यासक रचनाकालो प्रायः
समाने अछि। "निर्दयी सासु" (1914) क अन्तमे प्रकाशित भेल तथा "रामे•ार" 1916 ई0 मे
पुस्तकाकार। "रामे•ार" लिखितहि पुस्तकाकार भए गेल होएत तकर संभावना कम अछि।
जखन मैथिलीकें आइयो ओहन सुविधा प्राप्त नहि छैक तखन ओहि समयमे रहल होएत, तकर
कोनो संभावना अछि? तें इहो संभव अछि जे "रामे•ार" पुस्तकाकार होएबा लेल प्रेसक प्रतीक्षा
मे होअए। एहना स्थितिमे पहिने ककर रचना भेल से निर्णीत नहि भए सकैछ। जे से, दूनू कृति
मैथिलीक आरम्भिक उपन्यास थिक। जाहिठामसँ बाट चलि मैथिली उपन्यास वर्तमान युग धरि
पहुँचि सकल अछि।



दूनू उपन्यासकार एकहि युगमे छलाह। किन्तु दृष्टिकोणमे अन्तर अछि। "निर्दयी सासु"


वैवाहिक समस्या पर अछि। किन्तु "रामे•ार" क समस्या शोषण आ भूखक थिक। ई शोषणा
आर्थिक आ सामाजिक दूनू प्रकारक अछि। पिताक श्राद्धमे रामे•ार घर-आङन बेचि, साकिन भए
जाइत अछि। परिवारक पालन हेतु अनिच्छा पूर्वक अपराध वृति अपना लैछ, डकैती करैछ।
सम्पन्न व्यक्तिकें लूटैछ आ अन्त मे ह्मदय परिवत्र्तन होइत छैक। पाशविक प्रवृत्ति पर मानवीय
प्रवृतिक विजय पताका फहराइछ।



"निर्दयी सासु" मे औपन्यासिकताक अभाव खटकैछ। जखनि "रामे•ार" मे औपन्यासिक
विविधता अछि। घटना संयोजन आ चरित्र मे विविधा अछि। विभिन्न संदर्भ आ घटना प्रवाह
पाठककें अन्तधरि परिणतिक भान नहि होमए दैछ। किन्तु "निर्दयी सासु" क प्रारंभहि अन्तक
संकेत दए दैछ। 'रामे•ार'क घटना सभ पाठककें बन्हने रहैछ, तँ "निर्दयी सासुक" भाषा आ
परिचित स्थितिक वर्णन। मुदा, जेना कोनो घटना अथवा छोटसँ छोट स्थितिक चित्रण "निर्दयी
सासु" मे भेटैछ से "रामे•ार" मे नहि अछि। "निर्दयी सासु" मे आएल पात्र सभक व्यक्तित्व
निरूपण सोझ साझ अछि, पात्रक मानसिक स्थितिक आ जटिलताक चित्रण नहि भए सकल
अछि। किन्तु "रामे•ार" मे मानसिक द्वन्द्व आ संघर्ष पर वेश प्रकाश पड़ल अछि। दूनू
उपन्यासकारक भाषामे सेहो अन्तर अछि। "निर्दयी सासुमे" फुदकैत भाषाक प्रयोग अछि, जे
अत्यन्त स्वाभाविक अछि। ओहन फुदकैत भाषाक अभाव "रामे•ार" मे अछि।



जनसीदनजीक युग आ व्यक्तित्व-जनसीदनजी जखन रचना दिस प्रवृत भेलाह, विदेशी
शासनक

विरोधक सक्रियता सर्वत्र व्याप्त छल। ओ सक्रियता प्रकट आ सुप्त दूनू प्रकारक छल। केओ
धन आ मनसँ संग छलाह तँ केओ तन-मन आ धन तीनूक संग। युगसचेत साहित्यकार जन
मानसक ओहि आगि कें फल प्रिप्ति धरि प्रज्वलित रखबालेल रचनात्मक सहयोग करैत छलाह।
ई सहयोग प्रच्छन्न आ प्रतीकात्मक दूनू प्रकारक होइत छल। बंगला साहित्यमे "आनन्द मठ"
सन क्रान्तिकारी उपन्यास लिखा गेल छल। हिन्दी साहित्यमे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र "भारत दुर्दशा"
आदि तथा मैथिली शरण गुप्तक "भारत भारती"क खूब प्रचार-प्रसार भए गेल छल। मैथिलीमे
कवी•ार चन्दा झा अंग्रेजी शासनक विसंगति आ अन्यायक विरोधमे लिखि गेल छलाह।
जनसीदन जीक समकालीन कवि मुंशी रघुनन्दन दास, (1860-1945) बदुनाथ झा "यदुवर"
आदि स्वाधीनता संग्रामक अनुकूल रचना कए, जनमानसकें प्रेरित कए रहल छलाह। किन्तु,
बंगला, हिन्दी तथा मथिलीक साहित्यिक गतिविधिसँ परिचित साहित्यकार जनार्दन झा
"जनसीदन" ओहिसँ सर्वथा अप्रभावित रहलाह। तात्पर्य जे राष्ट्र पिता बापूक नेतृत्वमे विदेशी
शासन व्यवस्थाकें छाउर करबालेल जेना चारू कात आगि धधकि रहल छल, तकर कनिको
उष्णता जनसीदनजीक रचनामे नहि भेटैछ।



ई सत्य जे प्रत्येक साहित्यकारक संवेदना क्षेत्र भिन्न होइछ। अनुभूतिक क्षेत्र फराक
होइछ। कोन घटना आ परिस्थिति कतेक दूर धरि आ कोना ग्रहण करैछ, से रचनाकारक
संवेदनाशीलता आ मानसिकता पर निर्भर करैछ। किन्तु, किछु घटना आ स्थिति तेहन अवश्य
होइछ, जकर प्रभाव क्षेत्रसँ फराक रहि जाएब, युग सचेत रचनाकारक लेल सर्वथा असंभव


अछि। तथापि जँ कोनो स्थिति अथवा घटना कतहुसँ प्रभावित नहि कए पबैछ तँ ई मानि लेबाक
रचाही जे कोनो ने कोनो व्यक्तिगत कारणें ओहि दिस ओ प्रवृति नहि भेल होएताह। एहना
स्थितिमे रचनाकारक व्यक्तित्वक विश्लेषण आवश्यक भए जाइछ, सम्पर्क आ सानिध्य कें बूझब
आवश्यक भए जाइछ।



ई सर्वज्ञात अछि जे जनसीदनजीक पालन पोषण मातृत्वमे भेलनि। हिनक मातामह एक
प्रभावशाली जमीन्दार छलाह। पैघ भेलापर जनसीदनजीक सम्पर्क पैघ-पैघ राज दरबार सँ
भेलनि। ओहिठाम हिनक सम्मान होइत छल। ओहिकाल राजा-महाराज अथवा जमीन्दार अपन
प्रभु अंग्रेज सरकारक प्रति कतेक दासोदास रहैत छलाह, से छपित नहि अछि। जनसीदनजीक
रचनाकार ओहि फँदा कें तोड़ि छिन्न-भिन्न नहि कए सकल। आ प्रायः तें अंग्रेजी शासन
व्यवस्थाकें भस्मीभूत करबा लेल एकोटा काठी जनसीदनजी नहि जुटा सकलाह। जनसीदनजीक
कविता-"श्रीमान् भारत सम्राट का स्वागताष्टक" हमर एहि निष्कर्षमे सहायक भेल अछि।



जय ब्रिाटिश नायक जार्ज पंचम भारताधिभूपति

जय श्रीमती मेरी महरानी दयामती सुव्रते

हम भारतीय प्रजा सभी स्वागत मनावे आपके।" 3



आ एहि सिद्धान्तक अनुकूल जनसीदनजी ओही प्रजाकें सुप्रजा मानल जे शोषण तथा
अत्याचारक वर्षामे भीजलोपर राजक नहि करैछ-



प्रजा प्रशंसा योग्य वैह जे करथि न राज विरोध

राजा रूष्टो होथि कदाचित प्रजा करथि नहि क्रोध।' 4



जनसीदनजीक सान्निध्य आ एहि प्रकारक रचना सभकें देखि स्पष्ट भए जाइछ जे
जनसीदनजीक व्यक्तित्वमे ओ प्रखरता नहि छल जाहिसँ शासन-व्यवस्थाक विरोधमे ठाढ़ भए
सकथि। आ तें जनसीदनजी

अपन सम्पर्क एवं सान्निध्यकें ध्यानमे रखैत साहित्य सर्जना लेल सामाजिक क्षेत्रकें अपनाओल।
ओही पर कलम उठाओल, ई तँ देशक समसामयिक राष्ट्रीय चेतनाकें ध्यानमे राखि
जनसीदनजीकव्यक्तित्वक मूल्यांकन भेल। जँ सामाजिक आ सुधारवादी चेतनाकें ध्यानमे राखि
जनसीदनजीक उपलब्ध साहित्यक माध्यमसँ व्यक्तित्वक विश्लेषण करैत छी तँ व्यक्तित्व प्रखर
भेटैछ। सामाजिक विकृतिकें दूर करबालेल तत्पर देखैत छी। जे सामाजिक व्यवस्था मिथिलाक
समाजकें कोला-कोलामे बांटि शोषण करैत छल, तकर विरोधमे शंखनाद करैत पबैत छी।
उपन्यासकारक प्रखर सामाजिक चेतनाक ई प्रतिफल थिक जे घोर मानसिक संघर्षक वाद
ज्योतिषी चिन्तामणि झा ओहि परिपाटीक विरोधमे कन्यादान करैत छथि जे मिथिलाक
सामाजिक जीवन मे विभेद उत्पन्न करबाक हेतु ठाढ़ कएल गेल छल।



मि0 मि0 जून 1982

.. .. .. ..




पं0 जनार्दन झा-एक बिसरल साहित्यसेवी



एहन नहि भेल होएतैक जे महाकवि विद्यापतिक समयमे केवल महाकवि विद्यापतिए
रचना करैत छल होएताह। मुदा, सामान्यतः लोक जनैत अछि हुनके। विद्यापतिक समकालीन
आन जाहि कोनो कविक रचना थोड़ बहुत भेटैछ, से लोकक जीभ पर नहि छथि। ओहिना की
मनबोध, की कवी•ार चन्दा झा अथवा हर्षनाथ झा क समयमे ओएह लोकनि साहित्य साधनामे
लागल छलाह आ कि आओरो लोक छल? वस्तु स्थिति तँ ई अछि जे हिनका लोकनिक
अतिरिक्तो कविलोकनिक रचना पर्याप्त अछि, मुदा तैयो लोक नाम बरोवरि उचारैत रहैछ हिनके
सभक। साहित्येतिहासक एहि स्थितिसँ एकटा निष्कर्ष अवश्य बाहर कएल जा सकैछ जे प्रत्येक
कालखण्ड मे दू प्रकारक साहित्यकार अवश्य होइत छथि। पहिल कोटिक साहित्यकारक रचना
ततेक व्यापक होइछ, व्यक्तित्व ततेक विशद होइछ जे दोसर कोटिक साहित्यकारक रचना
किंवा व्यक्तित्वकें ओ आच्छादित कएने रहैत छथि। लोक जखन-तखन अथवा जतय ततय ओही
महान साहित्यकारक नाम लैत रहैत अछि। आ कालान्तरमे दोसर कोटिक साहित्यसेवीक नाम
लोक विसरि जाइछ। हुनक नाम शोध ग्रन्थ मे सम्पुटित भए, रहि जाइत अछि।



लोक भलहि द्वितीय कोटिक साहित्यकारक नाम विसरि जाए, किन्तु भाषा-साहित्य कें
व्यापक बनेबामे हुनका लोकनिक योगदान कम अछि, मानब अनुचित होएत। ई सत्यजे गंगा
आ कोशीक जल सँ वेशी खेत पटाओल जा सकैछ। मुदा एक गामकें दोसर गामसँ जोड़ैत
छोटो-छोट धारक तँ अपन स्थानीय महत्व छैके। करीन अथवा दमकलोसँ तँ खेत पटाओल
जाइते छैक। एहनहि स्थिति दोसर कोटिक साहित्यकारक अछि। स्थानीय मंच पर ओ
साहित्यकें प्रवहमान रखवा लेल अथवा भाषा साहित्यकें व्यापक बनेबा लेल सदिखन प्रयत्नशील
रहिते छथि। इएह कवि लोकनि ओहि वातावरणक सर्जना करैत छथि जाहिसँ कालान्तरमे एक
महान साहित्यकार राष्ट्रीयमंच पर अवतरित भए जाइत छथि। आ भाषा साहित्यिक प्रभाव-
विस्तार होइछ।



मैथिलीमे प्रकाशनक सुविधा कहिओ नहि रहल आने अखने अछि। तखन अनयमित आ
अनियतकालीन पत्रिके एक मात्र माध्यम रहलैक, जाहि सँ साहित्यकार प्रचारित-प्रसारित भए
सकथि। एकर फल भेज जे बहुतो रचना आ रचनाकार प्रकाशमे अएबासँ वंचित भए गेलाह।
पत्र-पत्रिको मे जे रचना प्रकाशित भेल होएत, आब सर्वसुलभ नहि अछि। एहना स्थितिमे विगत
युगक साहित्यसेवीक प्रसंग जानब, हुनक रचनाकें पढ़ब आ तखन ओहिपर प्रकाश देब एक
विकराल समस्या अछि। एहि समस्याक कारणें विसरल साहित्यसेवी आओरो

विसराएल जाइत छथि। एहनहि विसरल साहित्य सेवी मे पं0 जनार्दन झाक नाम अबैत अछि।
पं0 जनार्दन झा "जनसीदनक" नाम तँ लोक पहिनेसँ जनैत अछि, मुदा0 पं0 जनार्दन झा पूर्णतः
बिसरा गेल छथि। हिनक नामोल्लेख कोनो इतिहास ग्रन्थ मे नहि भेटैत अछि। जखन कि अपना
समय आ परोपट्टामे ओ आदरक पात्र छलाह। पं0 जनार्दन झा ठाढ़ी, (मधुबनि) क निवासी
छलाह। ज्ञात भेल अछि जे ओ निष्णात् वैयाकरण तथा अपराजेय शास्त्रार्थी छलाह। हुनक
व्यक्तित्वमे एकटा विशेषता छलजे, ओ नीडर छलाह आ सत्य सँ हुनका केओ डिगा नहि सकैत
छल।




पं0 जनार्दन झा लिखित एकटा खण्ड काव्य "जानकी परिणय" अछि। ई "मिथिलामोद"
(1910 ई0) मे धारावाहिक रूपे प्रकाशित अछि। "जानकी परिणय" क कथा मिथिलामे भीषण
अकालसँ कोवर धरिक अछि। एही बीच कवि कतेको स्थितिक वर्णन कएल अछि। जनक द्वारा
हर जोतब, जानकी अवतरण, जलककें कन्यादानक चिन्ता, गुरुक आज्ञा पाबि राम लक्ष्मण द्वारा
पूजा लेल फूल तोड़ब, सखि संग जनकतनयाक गौरी पूजनार्थ जाएब, फूलवाड़ी मे देखि
पूर्वरागक स्थिति प्रगाढ़ होएब, शिवधनु तोड़बा लेल बलगर-गलगल राजा लोकनिक आएब, राम
द्वारा शिवधनु तोड़ब, धनुष भंगसँ उत्पन्न टंकार सूनि त्रिभुवनक दलमलित होएब, परशुरामक
आएव, परशुराम आ लक्ष्मणमे संवाद, परशुरामक परीक्षा मे रामकें उत्तीर्ण भेलापर मुनिवरक
प्रसन्नतापूर्वक घूमि जाएब, कन्यादान, महुअक तथा वर-कनियाँक कोवर जाएब, धरिक घटना
आ स्थितिक वर्णन अछि। एहि स्थितिक वर्णन करबामे कवि पूर्ण सफल छथि।



मिथिलामे अकाल पड़ला पर राज्यक स्थितिक प्रसंग जनक पण्डित वर्गसँ जिज्ञासा
करैत छथि-



"तनिका राजमे भेल उत्पात, बारह वर्ष वृष्टि नहि पात

तखन पुछल पंडित सँ जाय, कहु सब जन वर्षाक उपाय।"1



शिवधनु तोड़बा लेल राजा-राजकुमार जूमल छथि। सभकें होइत छनि जे पहिने हमही
धनुष भंग करी, नहि तँ पछताइत रहि जाएब। "तोड़ब धनुष हमहि अगुआए, पाँछा रहब मरब
पछताए, किन्तु धनुष टस्ससँ मस्स नहि होइत छनि-"बड़बड़-बलगर-गलगर जाथि उठैने धनुष
महि पछताथि"। धनुष भंग भेलापर महाशब्द होइछ-"महाशब्द गर्जन घनघोर त्रिभुवन गृह जनि
पैसल चोर"। से टँकार सूनि परशुराम अबैत छथि। सभ थरथर काँपय लगैछ-"क्रोधवान मुनि
पहुँचल जखन, भभरल गोल जनकपुर तखन"। धनुष भंगकत्र्ताक नाम सूनि परशुराम एहि लेल
विशेष तमसाइत छथि जे परशुरामक अछैतहि दोसर राम के कहा सकैछ-



"परशुराम जीवतहि के आन, राम कहाओत धरि अभिमान

राम राम कें पड़ल विवाद लछुमन किछु कैलन्हि संवाद।"2

एहि विवादमे लक्ष्मण साफ-साफ कहैत छथिन-

'छुबइत धनु अपनहि टूटि गेल, तैं कहु अहाँ काँ की कत भेल

एहन एहन लछुमन कहि बात, मुनि कैं धूसि कैल तहुँ कात।'

कन्यादान तथा कन्यादानक उपरान्त मिथिलामे प्रचलित विविध विधि-व्यवहारक वर्णन
खूब बिटिआएल अछि। महुअक कालक वर्णन करैत कवि लिखने छथि-

"झूण्ड-झूण्ड आबथि मिथिलानी, गाबथि गीत अनूप सयानी,

गौरि पूजाथि सिअ दूवधान लय, विविध नैवेद्य पान दय

माङथि भाग सोहाग अशीष, नाथ जिवथु मम लाख वरीस।

स्नान ध्यान दतमनि नहि राम, घरहि चारि दिन करु विश्राम,


दूध छोहोड़ा मिसरी खाथि, महुअक वेरिमे बड़ै लजाथि।

तेल फुलोल अङ्ग उमराव, पान मसाला वारंवार

सियाराम दूनू अनुपम जोड़ि, कोवरहिमे हम देलिएन्हि छोड़ि।"3



पं0 जनार्दन झाक बड़ कम रचना उपलब्ध अछि, परंच जे किछु उपलब्ध अछि। हुनक
काव्य प्रतिभा आ मौलिकताकें प्रकट करैत अछि। भाषा आ शिल्पक निपुणता प्रकट करैत अछि।



-मि0 मि0, दैनिक 29-7-85

.. .. .. ..



पं0 त्रिलोचन झा, (बेतिया) बिसरल मातृभाषानुरागी



पं0 त्रिलोचन झा (1878-3 फरवरी 1938) क प्रसंग जागल जिज्ञासाकें शान्त करबाक
बड़ कम सामग्री उपलब्ध अछि। लिखित सामग्री कही वा साहित्यिक सक्रियताक सूचनाक एक
मात्र आधार अछि डा0.जयकान्त मिश्रक 'हिस्ट्री आफ मैथिली लिटरेचर'। ओकर वादक
इतिहासकार पं0 त्रिलोचन झाक प्रसंग एको शब्द वेशीक गोन कथा कम्मे लिखलनि अछि।
आदित्य सामवेदीक एक लेख 'साहित्य तपस्वी पं0 त्रिलोचन झा' प्रकाशित भेल अछि।1 ओहि
मध्य पं0 त्रिलोचनक व्यक्तित्व आ कृतित्वक विस्तारसँ परिचय अछि। दोसर आधार अछि ओहि
व्यक्तिक संस्मरण रजे पं0 त्रिलोचन झा कें देखने छलाह। हुनक सक्रियता सँ परिचय पओने
छलाह। हिनक रचनाक प्रसंग लोकक अनभिज्ञताक पहिल ओएह कारण अछि, जे ओहि कालक
आन रचनाकारकें नहि जानि सकबाक अछि। तात्पर्य जे पं0 त्रिलोचन झाक प्रायः अधिकांश
रचना 'मिथिला मिहिर', "मिथिलामोद" आदि पत्रिकामे प्रकाशित भेल अछि। जे आब सर्वसुलभ
नहि अछि।



डा0 मिश्रक2 अनुसार पं0 त्रिलोचन झा अनुवादक छलाह-कवि छलाह, आख्यान लेखक
छलाह। जीवनी लेखक छलाह। निबन्धकार छलाह। सामाजिक कार्यकत्र्ता छलाह। मिथिला आ
मैथिलीक प्रबल हित चिन्तक छलाह। पं0 त्रिलोचन झाक दृढ़ मान्यता जे अपन भाषा साहित्यक
उन्नतिए सँ शेष क्षेत्रमे उन्नति कएल जा सकैछ। ओएह सभ उन्नतिक प्रस्थान बिन्दु थिक।



पं0 त्रिलोचन झा, मे अपूर्व संगटन शक्ति छल। ओ कतेको स्वयंसेवी संस्थाक संगठन
कए मैथिलीक आन्दोलनकें प्रखर ओ मुखर कएल। पंडित त्रिलोचन झाक संगठनात्मक क्षमताक
प्रसंग बाबू गंगापति सिंह लिखने छथि जे पं0 त्रिलोचन झीक उद्योगसँ स्थापित "सुवोधिनी
सभा"क मैथिली विभागसँ बहुत किछु आशा अछि। एही तरहें सब प्रान्तमे एकरा हेतु (मैथिलीक
विकासक हेतु) केन्द्र स्थापित करबाक चाही।"3



पं0 त्रिलोचन झा, मात्र मैथिली भाषा ओ साहित्यक लेल सक्रिय नहि रहैत छलाह,
अपितु क्षेत्रक विकास लेल सेहो सक्रिय छलाह। सुख ओ समृद्धि हेतु घूमि-घूमि लोककें जगबैत
छलाह। अवनतिक कारणकें स्पष्ट करैत छलाह। अभीष्ट प्राप्ति हेतु जनमानस तैयार करैत


छलाह। पं0 त्रिलोचन झाक एहि सक्रियता ओ वैशिष्ठ्यक प्रसंग पं0 यदुनाथ झा "यदुवर"क
विचार अछि जे मिथिलाक सम्प्रतिक अवस्थाक प्रसंग पं0 त्रिलोचन झाक 'वक्तृता पुस्तकाकार
पढ़ै योग्य अछि।'4 यदुवरक एहि कथन सँ प्रतीत होइछ जे ओ कोनो पोथीक चर्चा करैत
छथि। परंच कोन पोथी छल तकर कोनो सूचना उपलब्ध नहि अछि।



मैथिलीक सक्रियताक मंच ओहि समयमे "मैथिल महासभा" छल। पं0 त्रिलोचन झा
"मैथिल महासभाक" एक सबल स्तम्भ छलाह। प्रत्येक क्रिया-कलापक भागीदार छलाह। ओ
एहि विचारक छलाह जे "मैथिल महासभाक" कार्यक्षेत्र व्यापक हो। संगठन व्यापक हो। "मैथिल
महासभा" मे पं0 त्रिलोचन झाक संलग्नताक प्रसंग अपन संस्मरण सुनबैत बाबू श्री कृष्णनन्दन
सिंह (ज.20 जुलाई 1918) कहलनि अछि जे ओ एकटा नीक वक्ता छलाह। हुनक ओजस्वी
धारा-प्रवाह एवं आलंकारिक भाषण सूनि श्रोतागण मन्त्र मुग्ध भए जाइत छल। आ एही वाक्
पटुताक कारणें "महासभा"क प्रत्येक अधिवेशन मे धन्यवाद ज्ञापनक भार पं0 त्रिलोचन झा कें
देल जाइत छल। एहिसँ एकटा लोकोक्ति वनि गेल छल। अन्यो कार्यक्रमक अवसर पर,
जाहिठाम त्रिलोचन बाबू नहिओ रहैत छलाह, धन्यवाद ज्ञापनकत्र्ता अन्तमे कहि दैत छलथिन
त्रिलोचन बाबूओक दिससँ धन्यवाद दैत छी। एहि संस्मरणसँ एकटा तथ्य अवश्य समक्ष आबि
जाइछ जे पं0 त्रिलोचन झा अपना समयमे बड़ लोकप्रिय छलाह तथा मिथिला, मैथिल एवं
मैथिलीक लेल आयोजित होइत प्रत्येक कार्यक्रममे अवश्य सहभागी रहैत छलाह।



पं0 त्रिलोचन झाक जन्म (1878 ई0) ओहि समयमे भेल जखन प्रथम स्वाधीनता
संग्रामक असफलताक कारण कें देखि, भारतीय चेतना आत्म निरीक्षण कए, देशवासीकें
सुशिक्षित करबा लेल प्रयत्नशील भए गेल छल। एकसँ एक समाज सुधारक भारतीय मंच पर
उपस्थित भए रहल छलाह। सुधारवादी आन्दोलन क्रमशः तीव्र भए रहल छल। अपन भाषा-
संस्कृति, आचार-व्यवहार दिस लोकक ध्यान आकर्षित भए गल छलैक। समाजमे व्याप्त दुर्गुण,
विशेष कए वैवाहिक समस्या सँ आक्रान्त समाज प्राचीन गैरव गाथाक गान दिस विशेष रूपें
उन्मुख, भए गेल छल। तात्पर्य जे अपन विकृतिपूर्ण वत्र्तमान सँ मुक्त होएबालेल प्रत्येक व्यक्ति
साकांक्ष भए गेल छल। आ इएह दृष्टि साहित्यकारोक छलनि, जाहिसँ परिचित भए ओ लोकनि
साहित्य सर्जना करैत छलाह। कविलोकनिक दृष्टि उद्वोधनात्मक होएबाक एक दोसरो प्रमुख
कारण छल जे श्रृंगार, ज्ञान, भक्ति इत्यादि सँ संबंधित कविताक रसास्वादन ई देश नीक जेकाँ
कए चुकल छल। विलासादिक समय छलैक नहि तें भक्ति व, ज्ञान वैराण्य ओ श्रृंगार विषयक
काव्यमे लोकक रुचि नहि छलैक। तात्कालिक साहित्यिक दृष्टि ओ लोक रुचिक तथ्यपूर्ण
विवेचन करैत यदुनाथ झा "यदुवर" लिखने छथि जे 'सभक सभ राष्ट्रीय धुनमे मस्त छथि।
देशकें, जातिकें अथवा समाजकें ऊपर उठेबाक प्रयत्न सभ कए रहल छथि। राष्ट्रीय भावसँ
सभक ह्मदय भरल छलैक जे किछु करैत अछि केवल राष्ट्रीय उद्देश्य सँ। पं0 त्रिलोचन झाक
कृतिक चर्चा करैत डा0 जयकान्त मिश्र लिखैत छथि जे ओ भगवत गीताक पद्य और गद्य मे
अनुवाद कएल, महाभारतक उद्योगपर्वक अनुवाद कएल, 'शकुन्तलोपाख्यान' ओ अपन भाए
हरिमोहन झा वकिलक रजीवनी लिखल तथा छिट-फुट निबंध टिप्पणी तथा उद्वोधनात्मक
कविता लिखल। किन्तु पं0 त्रिलोचन झाक चर्चा ओहि सभ रचनाक आधार पर हम करब जे


हमरा पत्र पत्रिकामे छिड़िआयल भेटल अछि। पूर्वहि लिखल अछि जे पं0 त्रिलोचन झाक
समयमे सुधारवादी आन्दोलन तीव्र भए रहल छल। मातृभूमि वन्दना आ अतीत गान मुख्य काव्य
प्रवृति छलैक। ओहि धाराक अमुरूप पं0 त्रिलोचन झा 'मातृभूमि वन्दना' मिथालक प्राकृतिक,
सांस्कृतिक और वैचारिक उत्कर्षक वर्णन कएल अछि। प्राचीन गाथा प्रस्तुत करैत वत्र्तमानक
कलुष और पराधीनताजन्य विकारकें दूर करबा लेल लोकमानस तैयार कएल अछि। 'मिथिलाक
वन्दना' करैत लिखल अछि-



"जय जय जयति मैथिल जाति।

निगम आगम कर्मरत जे मध्य भारत ख्याति

विविध विद्या विभव बुधिबल विनय नयमय जाति

भूमि पावन अति सुहावन सुखद सुरपुर भाति।

सुफल सुजला बहुत सरिता वायु सुरभित गात।"5



अपन सामथ्र्यक बाहरक उचित वस्तु प्राप्त करबालेल लोक ऊ•ारक शारणापन्न होइछ।
कविकें वि•ाास छनि जे शत्रुकें पराजित करबालेल चाही शक्ति। शक्ति लेल ओ चण्डीक
आह्वान करैछ:- जानकीक विशेषरूप, अरिदल नाशक चण्डीकें उपालम्भ दैत कवि लिखैछ-



"चण्डि तोहर मिथीला देश'।

जकर सुपच्छिम भाग भैसलि धरि सुन्दर वेश

जाहि भूमिसँ जन्म लेलहुँ भै सुता मिथिलेश।"6



पं0 त्रिलोचन झा अनुभव करैत छथि जे मैथिल आलस्यक पाँक मे फंसि गेल छथि।
जीवनक समस्त लक्ष्य स्वार्थसाधन मे केन्द्रित छनि। अतएव, ओ समस्त मिथिलावासीसँ
मिथिलाक गत विभव ओ प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कए लेबालेल ललकारैत छथि। मिथिलाक प्रतिष्ठा-
रक्षाक दायित्व-बोध सँ पिरिचित करबैत छथि। कविक ई ललकार अथवा अनुरोध कोनो एक
व्यक्तिक नहि, अपितु ओहि वर्गक विचारक प्रतिनिधित्व करैछ जे मिथिलाकें उत्कर्षमय देखय
चाहैछ-



"भैया मैथिल मान बचाऊ, जुन जग नाम हँसाउ,

भाषा भेष भाव भसिआएल ककरा जाय सुनाउ

क्यो नहि सुननिहार छथि एकरा हाय ! कतै हम जाउ

कहुना स्वारथ साधन आपन पैघ-छोट सब ठाँउ।

चरण शरण लोचन मन राखू, दुर्गति सकल मेटाउ।7



मैथिलक जीवनधारामे रागात्मकता अपेक्षाकृत विशेष रहल अछि। एहि रागात्मकताक
अभिव्यक्ति काव्य सर्जना तथा विभिन्न अवसर पर गाओल जाइत समसामयिक गीतक श्रवण शँ
स्वतः स्पष्ट भए जाइछ। आ प्रायः संस्कारजन्य एहि रागात्मकताक कारणें काव्य रचना विशेष
कए गीत राग तालाश्रित होइत छल एवं ऋतु साम्य एहि गीत गएबाक परिपाटी जीवित अछि।


एहनहि ऋतु साम्य गीतक श्रेणीमे फागु, चैत आदि अबैत अछि। ऋतु साम्य एहि गीतक
विशेषता होइछ जे विशेष प्रकारक भासक लहरि पर मनुष्यक किछु मूल प्रवृत्ति कें प्रज्वलित
करैछ। अपन समसामयिक अन्ये कवि जेकाँ पं0 त्रिलोचन झा प्रचलित भास, आदिक लहरि पर
नव कथ्य भासय लेल छोड़ि देल। ओकर माध्यमसँ भत्र्सना उद्वोदन, त्याग, मातृभूमि ओ
मातृभाषाक महत्वकें प्रस्तुत करए लगलाह। एहि प्रकारक रचना एक दिस जँ अवसर विशेषपर
गाओल जाएवला गीतक भासक आनन्द दैत छल, तँ दोसर दिस अर्थक बोधसँ श्रोताकें
आत्मबोधक संभावना रहैत छलैक। जकर लय, निश्चित रूपे सामाजिक दायित्वबोधक
परिपालनक होइत छलैक। चैतक भास पर त्रिलोचन झा लिखल अछि



'मैथिल गण जागू अपन काजमे लागू, हो रामा............

देश देश सब उन्नति कै कै जाइत बढ़ल आगू, हो रामा

विद्या विभव विवेक बढ़ाउ, द्वेष परस्पर त्यागू, हो रामा।8



पं0 त्रिलोचन झाक सामाजिक बोध आ समाजकें सुधारबाक चिन्ता तीव्र छल। तें, जतय
कतहु ओ अनुभव करैत छलाह मिथिला, मैथिल एवं मैथिली पर आघात होइत अछि, चुप्प नहि
रही सकैत छलाह। हुनक प्रहार तत्काल होइत छल आ आरोपकत्र्ता धाराशायी भए जाइत
छलाह। हिन्दी पत्रिका 'सरस्वतीक' अक्टूबर 1909क अंकमे, जनार्दन झा 'जनसीदनक' लेख
"मैथिलों की वैवाहिक परिपाटी" प्रकाशित भेल जे पं0 त्रिलोचन झाक मते मैथिल जाति पर
आक्षेप छल। "मोद"क माध्यमे दूनू गोटे मे पत्राचार भेल। अन्तमे

त्रिलोचन झाक तर्कक समक्ष जनसीदनजी पराभूत भेलाह आ अपन गलती स्वीकार कएल।
जनसीदनजीक प्रसंग त्रिलोचन झा लिखैत छथि-"मैं आपकें प्रखर विद्वतासे पूर्ण परिचित हूँ,
किन्तु आपके यथार्थ कूर्मग्रीव शील स्वभाव का पता इसी वार लगा है।"



पं0 त्रिलोचन झा कें जहिना मिथिला आ मैथिली सँ अगाध प्रेम छलनि यशस्वी मैथिलक
प्रति हुनकर ह्मदयमे अपार सम्मान छल। एकर एकटा ज्वलंत उदाहरण भेटल अछि। पं0
विंध्यनाथ झा (1887-1912) असामयिक निधनसँ समस्त मैथिल समाज शोक संतप्त भए गेल
छल। पं0 त्रिलोचन झाक श्रद्धाञ्जलि "विन्धनाथ बाबूक शोक" शीर्षक ह्मदयक मर्मकें वेधि, फूटि
पड़ल अछि-



"हा ! हा !! मिथिला रत्न कतै दा गेल हेड़ाए

हा ! हा !! सद्गुणमूर्त्ति गेला कत लोक विहाए

हा ! हा !! बाबू विन्ध्यनाथ झा कतै पधारल

करुणा सिन्ध निमग्न जाति मैथिल न निहारल

प्रथम ग्रैजुएट हाय ! जाति मथिल मे भेलहुँ

तत्परताक स्वरूप अहाँ मिथिलाकें देलहुँ।"9



पं0 त्रिलोचन झा गीताक मैथिली अनुवाद "श्रीमद्भगवत्गीतादर्श" नामे कएने छथि।


ओहिमे अपन परिचय निम्न प्रकारे लिखल अछि-



'नाम हमर त्रिलोचन झा थिक वानू छपरा वासे।

मध्य जिला चम्पारणहिक जे वेतिया नगरक पासे।।

मिथिला देशहि पश्चिम दक्षिण योजन मात्र प्रमाणे।

नारायणि तट सौं अछि शोभित जानू विज्ञ सुजाने।।

कैशाल स्थित कूमर झाहिक ज्येष्ठ पुत्र हमही छी।

भूषण झाक पौत्र हम थिकहुँ मूल गौत्र मधही छी।।

भारद्वाजक वंश बेलोंचय सुदइ मूले रजानू।

महादेव झा पाँजि ख्यात अछि पंजीकारहि मानू।

श्रीकपिले•ार झा सुयोग्यवर पलीबाड़ रजमदौली।

थिकहुँ हुनक दौहित्र थिकथि जे वेतिया प्रान्तक मौली।।

बेतियाधीशक सचिव पितामह पिता बनैली राजे।

संबंधी भेलाह रहै छी, हुनके आब समाजे।।"10



"जाति देश हेतु सब किछु अहाँ मिथिला कें देलहुँ।" स्वीकार कएनिहार पं0 त्रिलोचन
झा, बेतियाक प्रसंग बड़ कम सामग्री सम्प्रति उपलब्ध-अछि। किन्तु जे किछु उपलब्ध अछि
तकरा आधार पर निश्चिन्त रूपें कहल जा सकैछ जे ओ अपन समसामयिक परिवेशक प्रति पूर्ण
जागरूक छलाह, समाज, देश आ भाषा-संस्कृतिक रक्षाक निमित्त अपन कत्र्तव्यसँ ओ पूर्ण
परिचित छलाह तथा तदनुरूपे जीवन मूल्य छलनि। वात आ व्यवहारमे समानता-पं0 त्रिलोचन
झा, वेतियाकें युग युग धरि मोन रखबा लेल पर्याप्त अछि। परंच ईहो सर्वथा आवश्यक अछि जे
हुनक छिड़िआएल रचनाकें ताकि प्रकाशमे आनल जाए। हुनक अवदानक चर्चा आ विवेचन
कएल।



भाखा, सितम्बर 1987

.. .. .. ..





राष्ट्रीय चेतनाक पुरोधा कवि यदुनाथ झा 'यदुवर'



यदुनाथ झा 'यदुवर' (1888-1935 ई0) क रचना जतेक उपलब्ध होइत अछि, तकर
अनुपात मे परिचय आ व्यक्तित्व बड़ कम बूझल भए सकल अछि। यदुवरक उपलब्ध रचनामे
प्रमुख अछि "मिथिला गीताञ्जलि" (सं-यदुवर) मे संगृहीत 44 टा गीत, लघु मैथिली गद्य-पद्य
संग्रह (सं0-प्रो0 आचार्य रमानाथ झा) मे एक-एकटा गीत तथा 'मिथिलामोद', 'मिथिला मिहिर'
आदि पत्र-पत्रिका मे समय-समय पर प्रकाशित रचना। डा0 करुणाकान्त झा (मैथिल साहित्यमे
सहर्षा जिलाक अवदान, पटना वि0 वि0 द्वारा स्वीकृत किन्तु अप्रकाशित शोध प्रबन्ध) यदुवरक
किछु आओर प्रकाशित-अप्रकाशित रचनाक उल्लेख कएने छथि, जाहिमे अछि "वासन्ती विलास"


(प्रकाशित), "यदुवर विनोद 6 भाग," अन्योक्तिशतक", "मिथिला संगीत रत्नमाला" "संकीर्तनसार
संग्रह," 'अन्योक्ति पुष्पावली', भजनावली (मैथिली) एवं "साहित्य सरोरुह" (हिन्दी-अप्रकाशित)।



यदुवरजीक साहित्यक चर्चा डा0 जयकान्त मिश्रक अतिरिक्त डा0 करुणाकान्त झा,
रामकृष्ण झा "किसुन" (रमानाथ झा अभिनन्दन ग्रंथ), प्रो0 आनन्द मिश्र (मैथिली साहित्यिक
रूप रेखा), प्रो0 मायानन्द मिश्र (सांस्कृतिकवाद-अखिल भारतीय' मैथिली साहित्य सम्मेलन,
वैदेही समिति) आदि कएने छथि। एहिमे डा0 करुणाकान्त झाकें छोड़ि प्रायः सभक विचार आ
सामग्रीक सीमा डा0 जयकान्त मिश्रक इतिहासे अछि। डा0 करुणाकान्त झा, किछु अतिरिक्त
सूचना अवश्य एकत्र कएल, किन्तु प्राप्त सूचनाक आधारपर सामग्री संकलन आ मूल्यांकनक
काज अद्यावधि शेष अछि। यदुवरजीक गद्य रचना मे उपलब्ध अछि "मैथिली साहित्य दिग्दर्शन"
("मिथिला मोद" आ "मिथिला मिहिर" 1914) तथा "मिथिला गीताञ्जलि"क विस्तृत भूमिका।



पं0 छेदी झा "द्विजवर"क प्रसंग लिखबाक क्रममे ललितेश मिश्र1 ई0 प्रमाणित करबाक
चेष्टा कएने छथि जे यदुनाथ झा 'यदुवर' अपन अनुज साहित्यकार पं0 छेदी झा 'द्विजवर'
(1893-1972 ई0) सँ प्रभावित भए कविता लिखल। ललितेश मिश्रक एहि विचारक उन्मेष हमर
एक पूर्व प्रकाशित लेख "यदुवरक" काव्यमे राष्ट्रीय चेतना क प्रतिक्रिया अछि। एहि विचारक
समीचीनता तथा ऐतिहासिकताक विवेचन पछाति करब।



यदुवरजीक पारिवारिक-सामाजिक परिचय बड़ कम उपलब्ध अछि। डा0 जयकान्त
मिश्रक अनुसार ओ बेसी पढ़ल-लिखल नहि छलाह तथा मुरहो, जिला-भागलपुर (सम्प्रति
मधेपुरा) मे ब्राांच पोस्टमास्टर छलाह। हिनक मैथिली सेवाक प्रसंग श्री परमेश (श्री जनार्दन
मिश्र, सनौर) लिखल अछि-"सह्मदय पंडित श्री यदुनाथ झा "यदुवर" महाशयक मथिली साहित्य
प्रेम सरिपौं स्तुत्य तथा अनुकरणीय छनि। हमरा प्रायः पन्द्रह-सोलह बरख लए कए हिन
महाशयक संग साहित्यिक मैत्री अछि अथच हम हिनक साहित्यिक सेवासँ विशेष, प्रकारें
परिचित छी। आइ शारीरिक अस्वस्थता रहलहुँ सन्ता हिनक अदम्य उत्साह मे केनको भांङठ
बुझना नहि जाइत छन्हि मानू जे मैथिली साहित्य सेवा मात्र हिनक जीवनक प्रधान विषय भए
गेलन्हि अछि।"3



यदुनाथ झा 'यदुवर' आ श्यामानन्द झाक किछु उपलब्ध रचनाक आधार पर हमर पूर्व
चर्चित लेख मे मैथिली काव्यमे राष्ट्रीय चेतना कें तकबाक, प्रयास कएल गेल अछि, से ललितेश
मिश्र लिखने छथि। किन्तु, तथ्य ई अछि जे - "यदुवर" आ श्यामानन्द झा क राष्ट्रीय चेतना-
मूलक गीतक दूटा संग्रहकें सम्पादिक कए

प्रकाशित कराओल। डा0 जयकान्त मिश्रक कहब एहि प्रसंग स्पष्ट अछि-च्र्ध्र्दृ द्धड्ढथ्र्ठ्ठद्धत्त्ठ्ठडथ्ड्ढ
ठ्ठदद्यण्दृथ्दृढ़त्ड्ढद्म--'मिथिला जीताञ्जलि' "ड्ढड्डत्द्यड्ढड्ड डन्र् ज्ञ्ठ्ठड्डद्वदठ्ठद्यण् ख्ण्ठ्ठ 'ज्ञ्ठ्ठड्डद्वध्ठ्ठद्धठ्ठ ठ्ठदड्ड
'मैथिली संदेश' ड्ढड्डत्द्यड्ढड्ड डन्र् च्ण्न्र्ठ्ठथ्र्ठ्ठदठ्ठदड्ड ख्ण्ठ्ठ ध्र्ड्ढद्धड्ढ द्रद्वडथ्त्द्मण्ड्ढड्ड त्द द्यण्ड्ढ द्यध्र्ड्ढदद्यत्ड्ढद्म
ध्र्ण्त्ड़ण् ड्ढन्द्रद्धड्ढद्मद्मड्ढड्डथ्न्र् ठ्ठदददृद्वदड़ड्ढड्ड द्यण्ड्ढ डत्द्धद्यण् दृढ द्यण्ड्ढद्मड्ढ द्मद्रत्द्धत्द्य.




पं0 यदुनाथ झा 'यदुवर' कें छेदी झा 'द्विजवर' सँ प्रेरित प्रभावित सिद्ध करबाक लेल
अपन अनुमान कें ओ तीन बिन्दु पर केन्द्रित कएल अछि। ओ थिक-(1) 'द्विजवर'क 'मैथिली
गीत कुसुम' नामक राष्ट्रीय चेतना मूलक गीतक संग्रह, जकर प्रकाशन 1911 ई0 मे जीवन प्रेस
कलकत्ता नँ भेल। तकर बारह वर्षक बाद 'यदुवर' मिथिला गीताञ्जलि प्रकाशित कएल। (2)
"द्विजवर" सह सा क्षेत्र मे स्वतंत्रता सेनानीक रूप मे ख्यात छलाह। तथा लोकमे आदर छलनि।
"यदुवर" बेसी काल वनगाम (वेटीक ओहिठाम) जाथि आ द्विजवरसँ सम्पर्क कए, सरकारी सेवा
मे रहितो राष्ट्र प्रेमक अभिव्यक्ति हेतु अभिमुख भेल छलाह। (3) मैथिली गीत 'कुसुम'क शैली,
वण्र्य-विषय, चित्रण-निरुपणक अनुरूपहि यदुवरक शैली छनि।



डा0 मनोरंजन झा अपन शोध प्रबन्ध "पं0 छेदी झा "द्विजवर" आ हिनक 'रचना'
(अप्रकाशित) मे "मैथिली गीत कुसुम'कें प्रकाशित रचनाक कोटिमे अवश्य रखने छथि। किन्तु ई
नहि लिखने छथि जे प्रकाशन 1911 ई0 भेल। ललितेश जीक ओहि लेख मे' द्विजवरक 'एक
गित' "किये सूतल छी मैथिल वृन्द, भेल प्रभात प्रभा के देखू, छाड़ि पिसाचिनी निन्द-" उत्धृत
अछि। द्विजवरक ई गीत 'मिथिला मिहिर'क दिनांक 18 नवम्बर 1916क अंक मे "मैथिली गीत
कुसुम" शीर्षक अन्तर्गत छपल अछि।



यदुवर अपन विस्तृत शोध लेख "मैथिली साहित्यिक दिग्दर्शन, मे लिखने छथि-
"वनगामक प्रियवर छेदी झी "द्विजवर" कादम्बरीक अनुवाद कएने छथि। अपन भाषा मे कतेको
उपन्यास तथा पाठ्य पुस्तक लिखि चुकल छथि।' 'यदुवरक' ई लेख जून 1914 ई- थिक तथा
एहिमे ओहि समय धरिक मैथिली साहित्यक पूर्ण गतिविधिक चर्चा अछि। किन्तु "मैथिलीक गीत
कुसुम, जकर प्रकाशन 1911 ई0 मे भेल, लिखल गेल अछि, चर्चा नहि अछि। ललितेशक मते
यदुवर कें अपन प्रेरणा-पुरुषक साहित्यिक गतिविध आ उपलब्धिक परिचय नहि छलनि।



"मैथिली पत्रकारिताक इतिहास" (पं0 चन्द्रनाथ मिश्र "अमर") तथा 'हिस्ट्री ऑफ मैथिली
लिटरेचर' (डा0 जयकान्त मिश्र) मे ई तथ्य उल्लिखित अछि जे 'यदुवर' मैथिलीक प्रथम
पत्रिका "मैथिल हितसाधन" मे छपैत छलाह, किन्तु "द्विजवर"क प्रसंग चर्चा नहि अछि। डा0
मिश्रक अनुसार "द्विजवर"क प्रथम कविता थिक "वसन्तोत्सव गीत" (मोद 1321 साल) तथा
पहिल गद्यरचना थिक 'मिथिला भाषा कुठार' (मिथिला मोद, उद्गार 89 फाल्गुन शाके 1935,
सन 1321 साल 1914 ई0)। जयकान्त बाबू तँ स्पष्टतः लिखने छथि जे छेदी झा "द्विजवर"
मधेपुरा हाई स्कूलमे अएलाक बाद यदुवरक प्रभावमे मैथिली रचना आरंभ कएल।



रामकृष्म झा "किसुन" (1921-1970) एहि प्रसंग मे लिखने छथि-यदुवरजी मे लोक
चेतना तथा राष्ट्रीय चेतनाक भावना बड़ उग्र रूप मे छल। पुरान परंपराकें तोड़ि राष्ट्रीय कार्यक
सूत्रपात करबाक संगहि संगीतक रागपाश सँ मैथिली कविताकें सर्वप्रथम यदुवरेजी मुक्त कएने
छलाह। ललितेश "मिथिला गीताञ्जलि"क प्रकाशन मैथिली गीत कुसुम सँ बारह वर्षक बाद


मानल अछि। "मिथिला गीताञ्जलि"क भूमिकाक अनुसार यदुवरजीक अस्वस्थता तथा आर्थिक
समस्याक कारणे उक्त पोथी चारि वर्ष भागलपुरक एक प्रेस मे छल। "मिथिला गीताञ्जलि"
विभिन्न कविक रचनाक संग्रह थिक। एहि सँ ई नहि प्रमाणित होइछ जे यदुवरजी "द्विजवर" सँ
प्रभावित प्रेरित भए रजना दिस उन्मुख भेलाह। आइयो-काल्हि कतेको नव लेखकक

पोथी पहिने प्रकाशित भए जाइछ, आ नीक ओ प्रतिष्ठित रचनाकार अर्थक असौकर्यक कारणें
अथवा सरकारी गैर-सरकारी संस्था मे गतात सूत्र नहि रहलाक कारणें पोथी प्रकाशित नहि
कए पबैत छथि।



पं0 छैदी झा "द्विजवर" प्रथम कोटिक स्वतंत्रता सेनानी छलाह। हुनक ख्याति
धेमुरांचलक सीमा टपि गेल छल, एहिमे किञ्चितों शंकाक गुंजाइश नहि अछि। किन्तु, स्वतंत्रता
सेनानी कहिया सँ भेलाह? गाँधीवादी कहिया भेलाह। उत्तर स्पष्ट अछि-महात्मा गाँधी कें
भारतीय राजनीति मे अएलाक बादे गाँधीवादी बनल होएताह। शोधकत्र्ताक सूचना अछि जे
द्विजवर नौकरी छोड़ि स्वाधीनता संग्राम मे कूदि पड़लाह। किन्तु हीरालाल झा "हेम" "द्विजवरक
समकालीने नहि, सहकर्मि सेहो छलथिन, किछु भिन्न सूचना देल अछि। ओ लिखैत छथि 4 -
"बनगॉव निवासी पं0 छेदी झा "द्विजवर" मधेपुरा हाई स्कूल मे मैट्रिक परीक्षातीर्ण भए वीरवना
मिडिल इंगलिश स्कूलमे द्वितीय अंग्रेजी अध्यापक रूपें नियुक्त भेलाह। किछु काल रहलाक
उत्तर एक सेकेण्ड पंडित बनगॉव निवासी अध्यापक नियुक्त भेलाह। दूनू बनगॉव निवासी युद्ध
करथि तॅ वीरवन्ना स्कूलक मालिक "द्विजवर" कें हटा देलथिन्ह। यदुवर पहिने जनमि, कमे
अवस्था (1988-1935 ई0) मे कीर्ति ध्वज फहराय स्वर्गवासी भए गेलाह।' "द्विजवर" पाँच वर्ष
पाछू जनमि दीर्घ जीवन (1893-1972) प्राप्त कएल। "द्विजवरक व्यक्तित्वकें बुझबाक अवसर
कतेको पीढ़ी कें भेटलैक अछि। किन्तु, यदुवरक संबंध मे ई सुविधा प्राप्त नहि छैक। एहना
स्थितिमे बादक बहुतो बातकें पहिलुकें मानि लेबाक भ्रमक सम्भावना रहैत छैक। एहिठाम पं0
हीरालाल झा "हेम" (1891-1984) कें उद्धृत करब अप्रसांगिक नहि होएत। ओ लिखने छथि-
'ओहि समयमे (1912-1918 ई0 के बीच) मुरहो निवासी श्री यदुनाथ झा "यदुवर" एवं श्री
पुलकित लाल दास "मधुर" (1893-1943 ई0) आदि सँ संपर्क भेल। श्री यदुवरजी "मिथिला
गीताञ्जलि" लिखि हमरा देखाबथि आओर मधुरजी फुटकर लेख रचना आदि। हमहुँ ओहि
समय मे फुटकर कविता लिखैत रही।"



हेमजीक एहि कथनसँ ई मानि ली जे यदुवरजी अपन गीत कें ठीक करएबाक हेतु
हेमजीकें रचना देखबैत छलाह, अनुचित होएत। एकर स्पष्ट अर्थ होइछ जे हीरालाल झा 'हेम'
यदुवरजीक रचनाक श्रोता छलाह। ओहिना ललितेशजी द्वारा ई मानि लेब जे सहरसा परिसर मे
द्विजवरक बड़ ख्याति छलनि, तें यदुवर हुनकहिसँ प्रभावित भए स्वाधीनतामूलक गीतक रचना
करैत छलाह, उचित नहि होएत।



यदुनाथ झा "यदुवर" क साहित्यपर "द्विजवरक" भाषा-शैलीक प्रभावक प्रसंग ललितेश
लिखने छथि। 'मैथिली गीत कुसुम" के संकलित रचना सभक पर्यावलोचनसॅ कोनो अध्येताकें


स्पष्ट भए जयतनि जे "यदुवर" जे काव्यक रचना कएलनि अछि तकर शैली, तकर वण्र्य-विषय,
तकर चित्रण-निरूपण ओएह अछि जे द्विजवरक छनि।' जाहि रचनाक आधार पर "यदुवर" कें
द्विजवर सॅ प्रेरित-प्राभावित मानल अछि, तकर एकोटा बानगी प्रस्तुत नहि कएल अछि। एहि
प्रकारक विषय सर्वप्रथम ललितेश मिश्र लिखल अछि। तें अपन मतक समर्थन मे चाहैत छलनि
जे तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत करितथि। यद्यपि उक्त लेख मे द्विजवर"क कतेको पाँती उद्धृत
अछि। किन्तु एकोटाक श्रोत अंकित नहि अछि एक गीतक प्रसंग मे पहिनहि लिखने छी से 18
नवम्बर 1916 ई0 'मिथिला मिहिर' मे "मैथिली गीत कुसुम" शीर्षक सँ प्रकाशित अछि। जतय
धरि रचनाक विषय वस्तुक प्रश्न अछि ओहि कालक मूल स्वर उद्बोधनात्मकता-सभ रचना मे
विद्यमान अछि। तखन एतबा धरि अवश्य जे "द्विजवर" क भाषा "यदुवर"क काव्य भाषाक अपेक्षा
विशेष खराजल अछि।



विभिन्न ऐतिहासिक साक्ष्यक आलोक मे ललितेश मिश्रक कथनक सत्यताक परीक्षा
कएलापर हम पुनः अपनहि पूर्व निष्कर्ष पर अबैत छी जे यदुनाथ झा 'यदुवर' पं0 छेदी झा
"द्विजवर" क संसर्ग आ प्रभावहि लिखब आरंभ नहि कएलनि। मैथिलीमे राष्ट्रीय चेतना मूलक
कविताक उद्घोष "यदुवर" कएल तथा विभिन्न कविक राष्ट्रीय चेतनामूलक कविताक प्रथम
संग्रह "मिथिला-गीताञ्जलि" अछि। मैथिली साहित्यक विकासमे

"यदुवर"क योगदान कविते धरि सीमित नहि अछि। ओ मैथिलीक अनुसंधानपरक साहित्य
लेखनक श्री गणेश सेहो कएल। ओहि सँ पूर्व म. म. परमे•ार झा (1856-1924) "मिथिला तत्व
विमर्श लिखने छलाह, किन्तु ओकर प्रतिपाद्य साहित्यिक नहि, राजनीतिक-सामाजिक अछि।
"यदुवर"क अनुसंधानपरक ओ लेख थिक "मैथिली साहित्य दिग्दर्शन"। एहि दिशामे "यदुवर"क
बाद मुंशी रघुनन्दन दास, शशिनाथ चौधरी (1900-80) म0 म0 उमेश मिश्र, भोलालाल दास
(1897-1977) गंगापति सिंह प्रवृत भेलाह। डा0 जयकान्त मिश्र "यदुवर"क एहि अवदानक
प्रसंग विस्तारसॅ लिखने छथि।



पं0 चन्द्रनाथ मिश्र "अमर" यदुवरक एहि कालक उल्लेख करैत लिखने छथि-"मोद" मे
पं0 यदुनाथ झा "यदुवर" "मैथिली साहित्यिक दिग्दर्शन" शीर्षक मे ओहि समय धरिक मैथिलीक
विविध पुस्तक सभक परिचय प्रस्तुत कएने छथि। "मिथिला" मे ओकर अनुगमन करैत "साहित्य
रत्नाकार" मुंशी रघुनन्दन दास (1860-1945) जी मैथिली साहित्यक दिग्दर्शन करौने छथि।
(मै0 पत्रकारिताक इतिहास)

हमर ई मान्यता ओओरो पुष्ट भए गेल अछि जे मैथिली साहित्यकें अपन देश काल सँ
जोड़बाक जे प्रवृत्ति कवी•ार चन्दा झासँ चलल ओहि पर सँ धार्मिक लेप पोछि राष्ट्रीय आ
देशोत्थान विषयक रचनाक सुदृढ़ परिपाटी यदुनाथ झा "यदुवर"क रचनेसँ प्रारम्भ भेल अछि।
राष्ट्रीय चेतनामूलक स्वर कम्पनकें एक सबल रूप प्रदान करबाक गारिमा "यदुवर" कें प्राप्त
छनि। किन्तु, यदुवरक प्रसंग अद्यावधि बड़ कम अनुसंधान भेल अछि। धेमुराञ्चलक जिज्ञासु
लोकनिक ई कत्र्तव्य होइत छनि जें "यदुवर"क जीवन आ साहित्यक प्रसंग अनुसंधान करथि।
हुनक समग्र कृति ओ व्यक्तित्वकें समक्ष अनबाक प्रयास हो। ओहिसँ पूर्व जे किछु कहल जाएत


वा लिखल जाएत अपूर्णें रहत।

भाखा-1988

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कवि सेनानी छेदी झा "द्विजवर"



मैथिली साहित्य आ साहित्यकारक प्रसंग सामान्य धारणा अछि जे ओ लोकनि राष्ट्रीय
चेतना आ स्वाधीनता संग्रामसँ असम्पृक्त छलाह। सर्जनात्मक प्रतिभाक अभिव्यक्ति लेल ओ
वैवाहिक समस्याकें महत्व देल। मुदा, हमरा जनैत मैथिलीक साहित्य किंवा साहित्यकार पर ई
आरोप तथ्यमूलक नहि अछि। सर्वप्रथम कारण ई अछि जे अधिकांश रचना पत्र पत्रिकामे
छिड़िआएल अछि, जे लोककें सुलभ नहि छैक, दोसर कारण इहो अछि जे राष्ट्रीय चेतनासँ
सम्पन्न रचनाकारक रचनाक प्रचार-प्रसार ओतेक नहि भेलैक जतेक प्रचार-प्रसार हास्य-व्यंग्य
रचनाक भेल।



मैथिली मे राष्ट्रीय चेतना अथवा स्वाधीनतामूलक रचना आ रचनाकारक अन्वेषण कएला
पर धेमुराञ्चलक दू कविक कविता विशेष आकर्षित करैछ। ओ थिकथि-यदुनाथ झा "यदुवर"
(1888 सँ 1935 ई0) आ छेदी झा "द्विजवर"। किन्तु एहू दूनू गोटेमे अन्तर अछि। "यदुवर"
पोस्ट आफिस मे काज करैत छलाह। सरकारी सेवक छलाह तें यदुवरक सक्रियता आ योगदान
साहित्यिक स्तरेधरि अछि, राजनीतिक स्तर पर नहि। किन्तु "द्विजवर" सरकारी सेवाकें लात
मारि बाहर भए गेलाह। तें स्वाधीनता संग्राममे द्विजवरक सक्रियता राजनीति आ साहित्य दूनू
स्तर पर अछि। तात्पर्य जे द्विजवर जँ एक दिस राष्ट्रीय चेतना मूलक साहित्यक निर्माण आ
प्रयार-प्रसार करैत छलाह तँ दोसर दिस धेमुराञ्चलक हजारक हजार स्वाधीनताकामी लोककें
अंग्रेजी साम्राज्यक विरुद्ध नेतृत्व करैत काल लाठीक प्रहार सेहो सहैत छलाह। एकहि व्यक्तिमे
सर्जनात्मक प्रतिभा आ आन्दोलनात्मक क्षमता संगमित भए जाएब, मैथिलीए लेल नहि, आनो
साहित्य लेल

बिरल घटना थिक।



छेदी झा "द्विजवर" अथवा छेदी झा "मधुप"क जन्म कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा सन 1300
साल (1893 ई0) कें सहरसा जिलाक वनगाँवमे भेलनि। हिनक पिता छलथिन पं0 बबूआ झा
तथा माताक नाम छल बौआ देवी। प्रथम पत्नीक अल्प वयसहिमे निःसन्तान स्वर्गवासी भए
गेलाक वाद "द्विजवर" द्वितीय विवाह गामहिमे कएल। द्वितीय पक्षमे तीन सन्तान-दू पुत्र माहे•ार
झा, उग्रसेन झा तथा एक कन्या रामे•ारी देवी भेलनि।



द्विजवरक शिक्षा गामाहक पाठशाला सँ आरम्भ भेल। 1910 ई0 मे माध्यमिक विद्यालय
परीक्षोतीर्ण भेलाह तथा 1915 ई0 मे उच्च विद्यालय मधेपुरा सँ उच्च माध्यमिक परीक्षा पास
कएल। द्विजवरक पिताक आर्थिक स्थिति तेहन नहि छल जे ओ पुत्रकें उच्च शिक्षा हेतु आनठाम
पठा सकतथि। बीरबना मिडिल इंगलिश स्कूल मे अंग्रेजीक द्वितीय अध्यापक नियुक्त होएबामे ओ


सफल भेलाह। ओहिठाम करीब सात वर्ष धरि रहलाह। ओही बीच द्विजवर क पिता स्वर्गवासी
भए गेलथिन तँ नौकरी छोड़ि द्विजवर गाम पर आबि गेलाह।



द्विजवरक सर्जनात्मक प्रतिभा आ आन्दोलनात्मक क्षमता समान रूपे छल। साहित्य
सर्जना आ राष्ट्रपिता बापूक आह्वान पर स्वाधीनता संग्रामे मे कूदि, राष्ट्रीय चेतना जागृत करब
एकहिंसग चलैत छल। स्वाधीनता संग्राम मे द्विजवरक भूमिकाक प्रसंग डा0 मनोरंजन झा
लिखने छथि जे द्विजवर प्रथम दर्जाक स्वतंत्रता सेनानी छलाह। हिनक नेतृत्वमे हजार क हजार
ग्रामवासी स्वाधीनता आन्दोलनमे अपनाकें झों कय लागल। तुरन्तहि अंग्रेजक आँखि द्विजवर पर
गेलैक। कतेको वेर हिनक घर जरौलक। सामानक कुर्की-जप्ती भेल। किन्तु 'द्विजवर' एहि गाम
सँ ओहिगाम नुकाइत, विचार-गोष्ठी करैत आ भोर होइत थाना, आफिस, स्टेशन आदिकें जरा
फेर नुका जाइत छलाह। 1930 ई0 क 2 फरवरी कें पाँच हजारक जुलूसक नेतृत्व करैत
छलैह, अंग्रेज सिपाही हूलि गेल। सभ भागल। किन्तु एकटा व्यक्ति ठाढ़ रहि गेल। ओहिकालक
हुनक रूपछल, त्रिपुण्ड चाननक नीचा सिन्दूरक ठोप आ तकर नीचा लहलह करैत अङोरसन
युगल आँखि। धमधमाइत डाङक मध्य ओहि युवकक मुँहसँ अनवरत उद्घोषित भए रहल छल,
ओएह मूल मन्त्र-भारत माताक जय भारत माता क जय।"1 स्वाधीनता आन्दोलनक क्रममे कवि
सेनानी "द्विजवर" चारि बेर (1930, 1932, 1940 आ. 1942) जहल गेलाह आ आततायीक
यातना सहल। कोशीक प्रलंयकारी बाढ़िसँ बिगड़ैत हुनक आर्थिक स्थितिकें अंग्रेजी शासनक
कुदृष्टि आओरो बिगाड़ि देलक। किन्तु द्विजवर कहिओ किंचितो विचलित नहि भेलाह।



पं0 छेदी झा "द्विजवर" एकटा प्रतिभाशाली कवि छलाह। हिनक साहित्यिक प्रतिभा
मैथिली, हिन्दी, अंग्रेजी तथा उर्दूक माध्यमसँ समय-समय पर व्यक्त भेल अछि। किछु पोथीक
अनुवाद सेहो कएने छथि। डा0 मनोरंजन झा क मोताविक हिनक चौंतीस टा पोथी अछि।
मैथिलीक अछि--(1) सीतायन (महाकाव्य) (2) द्विजवरशती, (3) कोयलीदूत (4) ऊर्मिला
(उपन्यास) (5) स्वानुभूति आ जीवन दर्शन (6) साहित्य शतदल (7) मैथिली व्याकरण (8)
मैथिली गीत कुसुम (9) नरसिंह पद्यावली (10) वन्दी विनोद एवं (11) अमर संगीत। अनुवाद मे
अछि (12) वैदेही वनवास (बंगलासँ मैथिली) (13) वैशेषिक दर्शन (संस्कृतसँ मैथिली) (14)
पातञ्जलि योगसूत्र (संस्कृतसँ मैथिली टीका) (15) सत्यनारायण कथा (संस्कृतसँ मैथिली)।
किन्तु दुर्योग अछि जे अतेक राश प्रकाशित-अप्रकाशित पोथीक लेखक कवि सेनानी पं0 छेदी
झा "द्विजवर" मैथिलीक सामान्य पाठक लग नहि पहुँच सकल छथि। जे प्रकाशित अछि,
अलोपित अछि, आ जे हुनक संततिक घरमे होनि संभव थिक देबारक आहार होइत हो।



कवि सेनानी पं0 छेदी झा "द्विजवर"क देहावसान उनासीवर्षक अवस्थामे 30 अगस्त
1972 कें भए

गेल।



द्विजवरक साहित्यिक प्रतिभा ओहि समय प्रकाशमे आएल जखन ओ मात्र एगारह वर्षक
छलाह। सर्वप्रथम ओ "सत्य नारायण कथा" क मैथिली अनुवाद 1905 ई0 में कएल। आ


अन्तिम थिक संस्कृतमे 'प्रधान प्रशस्ति' (1966 ई0) इ। चीनी आक्रमण एवं पं0 जवाहर लाल
नेहरू पर अछि-हिनक प्रथम आ अन्तिम पोथीसँ स्पष्ट होइछ जे द्विजवरक साहित्ययात्रा
संस्कृतसँ संस्कृत धरि भेल अछि। परंच, साहित्य यात्राक केन्द्रबिन्दु रहल अछि राष्ट्रीय चेतना,
राष्ट्रीयता।



स्वतंत्रता संग्रामसँ असम्पृक्त देहधारी लोककें जगबैत "द्विजवर" ललकारैत छथि-



"करू देशक उपकार किछु दृढ़ शरीरकें पाबि

भेटत ने अवसर एहन, पछताएब ई गाबि

पछताएब ई गाबि गेल मम जन्म निरर्थक

प्रतिदिन पेटक हेतु कएल सब छल बल व्यर्थक

भन छेदी तजु द्वेष सुगुण साहस निज उर धरू

तन धन कैं उत्सर्गि, भला तँ किछु देशक करू।"2



देशक उपकार कए, अपन तन मन धनकें सार्थक करबाक हेतु द्विजवर मैथिलगणक
आह्वान करैत छथि-

"करू सूतल छी मैथिल वृन्द

भेल प्रभात प्रभा कै देखू छारि पिशाचिनि निन्द।

सकल जाति निजकार्य अराधल छारि अभागल हिन्द।"3



मिथिलाक कथा, देशक पराधीनता लोकक स्वातंत्र्य विमुखता तथा स्वार्थ लिप्सा
"द्विजवर" कें आहत करैत छलनि। कविमे ई भाव हुनक "अनुताप" शीर्षक कविता मे अछि-



'ने हम भाषा भाव भेष लय, केलहुँ किछु अवधान

जाति-धर्म ओ देश हेतु नहि, अरपल आपन प्राण।

निशि दिन पेटक हेतु अनेको कयलहुँ कर्म निदान

द्रव्य लोभ सेहो गम कैलहुँ भाय बन्धु वलिदान

खरखाही लुटबाक हेतु हम भिन्न भै कैल प्रयाण

पड़ल-पड़ल शय्यापर छेदी, गाबथि शोकक गान।'4



"द्विजवर" भारत वर्षमे वसन्तक स्वागत लेल प्रस्तुत छथि जाहिसँ एहिठामक लोकक
दीनदशा समाप्त होअए, ओकर मुखमण्डल पर प्रसन्नता अबैक आ वि•ा मे ओकर आदर सत्कार
होइक-



"आऊ आऊ ऋतुराज करू भारत शुभ आगम

अति उत्कंठित वि•ा करै लै छथि तव संगम"।5



द्विजवर मे स्वाधीन भारतमे जीवाक लालसा कूटि-कूटि कए भरल छल। हुनक ई


स्वाधीनता मात्र

राजनीतिक नहि छल, आर्थिक स्वतंत्रताक अवधारणा विशेष महत्वपूर्ण छल। स्वदेशी
आन्दोलनक प्रभाव हिनक "चरखा चौमासा" कविता मे स्पष्ट अछि।



"अहाँ मन दए बाँटू, सूत काटू देसिया

देशक सब धन बाँचत, अरि डर, थरथर काँपत

..............................................

बारि बाती धरू चरखा, करू बरखा आखरी

मधुप विपत्ति सब बीतत, देश कठिन रण जीतत।"



द्विजवरक स्पष्ट मान्यता छलनि जे भारत कोनो अमूर्त वस्तु नहि थिक। राष्ट्र कोनो
वायवीय पदार्थ नहि थिक, देश थिक लोकक गामघर, लोकक आशा-आकांक्षा आ सरिता प्रवाह,
चिड़ै-चुनमुनीक कल-कूंजन। गामक प्राकृतिक सौन्दर्यमे बसल अपन आत्मक प्रसंग लिखल
अछि-

"सिनेही मन बसि गेल धेमुराक तीर

की कल-कल जलनाद करै अछि

सुनि-सुनि आगम धीरे हो।

कात-कात करमी लत शोभित

मोहित देखि फकीर हो।

कूल समीप धान तरु झूलत,

भूतल लखि नर पीर हो।'



छेदी जा "द्विजवरक" रचनात्मक आ सामाजिक राजनीतिक-सक्रियताकें समाजक समक्ष
आएबामे विलम्ब नहि भेलैक। अल्प कालहिमे हिनक ख्याति पसरए लागल छल। एहि प्रसंग
यदुनाथ झा "यदुवर" मैथिली साहित्यिक दिग्दर्शन करबैत लिखने छथि जे "वनगामक पं0 छेदी
झा अपन भाषामे कतेको उपन्यास तथा पाठ्य पुस्तक चुकल छथि।



छेदी झा "द्विजवर"क रचनात्मक जीवन आ सामाजिक, सांस्कृतिक अथवा राजनीतिक
सक्रियताक अवलोकनसँ निर्विवाद रूपे कहल जा सकैछ जे "द्विजवर" राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम
क अनुकूल लोकके जगेबामे सबसँ आगू छलाह। हिनक रचना, कविक ओहि वैशिष्ट्य कें इंगित
करैछ जे कोनो भाषा-साहित्य आ राष्ट्र लेल गौरवक विषय बूझल जाइछ।



मि0 मि0, दैनिक, अगस्त 1985



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