भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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Friday, October 30, 2009
'विदेह' ४४ म अंक १५ अक्टूबर २००९ (वर्ष २ मास २२ अंक ४४)- PART III
३.१. गुंजन जीक राधा-तेरहम खेप
३.२. पंकज पराशर-वसीयत
३.३. सुबोध कुमार ठाकुर-सुन्न लागए गाम
३.४.उमेश मंडल (लोकगीत-संकलन)-आगाँ
३.५.कल्पना शरण-प्रतीक्षा सँ परिणाम तक-६
३.६. सतीश चन्द्र झा-मैथिल
३.७. रूपेश कुमार झा ’त्योंथ'-खेली सप्पत जा भुइयाँ थान
३.८. विनीत उत्पलक दू टा टटका कविता
गंगेश गुंजन
गुंजन जीक राधा- तेरहम खेप
केहन रंगक रमकनियां भौजीक दुःख, केहन रंगक बूझल से
अभावक एहि सं पहिने कहां छल बूझल हम स्त्री, ओ आ ओ
कतेको आन, कहां छल बूझल ई अनुभव जs चलि रहल देह मे
सब देह मे, छैक जकर संबंध मात्र देहे सं पहिने । तकरा बाद
मिलि जाइत अछि ओहि देह-गमन मे मन!
घर सं असकर विदा भेलाक बाद जेना बाट पर आगां रस्ता चलैत
कोनो एक ठां भेटि जाय अपनहि कोनो मित्र अनन्य आत्मीय।
मुदा प्रथम तं ई देह !
एकर गीतक, भास होइत अछि बड़य मनोहर बड्ड मार्मिक,
दुर्लभ स्वादक तेसरे स्वर्ग ! यद्यपि प्रतिदिन होइत अछि
घर मे तथापि नव आ नव रसक भोजनक विन्यास जकां बदलल
स्वादक एकटा अलगे स्वर्ग जकां।
करैत अछि सृष्टि स्वयं सभ बेर यैह देह,
एकर गाना ! मुदा तों एखन ओते नहि बुझि सकबें
एक रती आओर फुलयतौ ई सुन्दर काया-
बनबा लेल फल, देबा जोग गाछ !
सुगंधि उठतौक तं तकbत रहबें अपने पहरक पहर बौआइत !
कतहु ने कतहु अपनहि भीतर, कतेको ठाम
मुदा भेटतौ कहाँ¡। से त फेर
क्यो अपने कहतौ अनचोखे लग आबि-
‘ एना किए रहलेहें बौआइत रधिया !’
बिहुँ¡सतौ। जादू करतौ। मोहि लेतौ। मादक बना जेतौ।
सुखक छटपटी लगा देतौ। आकुलताक टटका कबाछु मलि देतौ-
अंग-अंग, कुरिआइयो ने सकबें लोक सभक बीच। तेहन सुख उत्सुक लाचारी!
भेल नहि छौक अनुभव।’
ई सब की भ रहलए ?
हमर मोन आ देह एना किएक क रहलए ?
पुछबहीक आकंठ विकलतें। ओ फेर बिहुंसतौ।
गाढ़ क देखतौ आंखि, तकर भाषा बेचैन
बड़ बुधियार रंग मे कहतौ-‘ प्रेम !’
यैह छियै एकर आवेग ,
देहक आओर फुलाएब, बनैत जाएब अंग सभक अत्तर-गुलाब!
बनबा वास्ते फलदार झमटगर गाछ।
एखन तं छौ तोहर कदम्बक दू टा टिकुला।
फूट’ दहीक होब’ पूरा-पुष्ट, प्रबल, पैघ !
सबटा वैह देतौ बुझा...अपने एकर रंग आ रस !’
चिहुंकि उठलि ओ, खोललक आंखि।
तं कि सुतलि छल निसभेर ?
मात्र मुनने आंखि नहि छल पड़लि एतबा काल ?
रमकनियां भौजी कोना जगा गेलि। एतेक बरखक बाद,
कोना क’ एहन दशा मे ?
उढ़ड़ि गेलि जे, लोकक बोली मे-लोकक की,
पुरुखक समाजक भाखा मे,
कए बर्ख ने बीति गेलै…। आन पुरुखक संग
बहुत दूर देस
जाक’ ओ फेर बसौलक अपन घर!
समाजक एहि गामक उढ़ड़ी रमकनियां भौजी !
कियेक देखलियै एना ई स्वप्न ओकर ? बा
आएलए वैह स्वयं क’ क’ हमरा पर स्नेह,
दया ?
हो जे मुदा, हम तं कहियो नहि सोचलियौ तोरा द’ एहन बात,
एत’ धरि जे बजैत जाइत गेलौ तोहर ब’र, सासु-ससुर-भाउज।
कहां माफ कएलकौ तोहर नैहरोक लोक-
माए-बाप-भाय ?
तों तं ने सासुर ने नैहरे बसलें।
कहां क्यो तोरा वास्ते भेलौ ठाढ़,
होइतौ सहाय, भरितौ तागति तोहर डेग मे।
कहां ? जे कएलें से अपने कएलें।
मुदा नीक कएलें!
अपन खराप अनसोहांत संसार कें त्यागि
मनक अप्पन प्रिय गाम बसौलें,
खूब नीक कएलें भौजी!
तहियो कहैत छलए हमर मन यैह।
आइ एते बरखक बादो मानैये मन यैह सत्य!
मुदा बड़ कचोट होइए मन पाड़ि क’ ओ दुपहरिया!
एकान्त मे बैसि तोरा संग गपसपक प्रसंग, भरिसक वैह
भेल अपना दुनू गोटेक अंतिम भेंट रमकनियां भौजी!
कहां देखने छलियौ आइ सं पहिने तोरा
ओना ओहन विकल गै भौजी!
-‘ आब त नहि होइत अछि सहल...’ बाजलि रहयं
करैत निष्करुण करुणाक अन्त।
-‘हम छोड़ि देबै ओकरा। रहय तोहर भाय अपन
जेना रहय।’
-‘ कथी? हम तं चिकरिये जकां उठल रही
की बजै छें भौजी ?’
-‘सत्ते कहि रहल छियौ-हिरदेक बात!’
-‘ एं से कोना छै संभव, कहतौ की लोक समाज ?’
-‘ ओकरो कहतै । कहौ। मुदा तें ई नहि बूझ जे हम छोड़बै ओकरा-
-छुच्छी देह लेल। अपन अइ देह वास्ते-नइं-
निर्लज्ज देखबैत दबैत अपन पुष्ट सुन्दर पुष्ट दलकैत दुनू छाती,
अपनहि दुनू हाथ! से नइं। तोहर सप्पत।’
कहैत, भेलि जेना बताहि।
हम त निर्वाक। बौक। घामे-पसेने त’र
लेने अपन मन बेचैन।
तकरा बादहु ओ आंगुर सं देखबैत डाँ¡ड़क नीचां
अपन सर्वाधिक लाज-अंग बाजलि-‘‘ एकरो दुआरे नइं।’
छोड़बै जे, मनसा मुरुख आ निर्लज्ज है। पुरुख के
आर किछुओ हो मुदा ई दुर्गुन नहि होना चाही, राधा!
हम त अचंभित लाजे कठौत भ’ गेलौं।
ओ कहैत रहलि आगां-‘ ई हमरा अपना काज मे नहि
होअ’ दैये संग। नै बनबैए बनिहारिक संगी जे लोक की कहत!
आ हम चाहने रही-एकर हर हमहूं जोती। हमहू ।
तामि दियै खेत, बीया बरु अपने छीटओ वैह,
पटfबयै बाड़ी , से एकरा नइ पसिन्न।
हमरा अछि बूझल बस अही बाटे-
मिलि जुलि क’ काज करबै तही रस्ते भेटतै
हमरा ओकर देह, पुरुखक सरीर !
हमरा बेसी काल चाही राधा, से सत्ये।
एखन तों नहि बुझबहीक। कहियो हेतौ एकर ज्ञान।
से, हमर देह -प्रान धधकैत रहय आ ई मनसा
फोंफ काट’ लागय। बड़ी-बडी़ काल देहक जातना सं
छोड़बैत मन बताह जेना कर’ लागए।
तही बतहपनी मे एक राति…
बड्ड जोर सं ओकरा झकझोरि क’ जगबैत उठौलियै
तं चिहुंकि क’ उठल तं अबस्स, मुदा
हमर ओहनो देह-मनक दशा मे रहल अनोन-बिसनोन।
ईZ नहि जे छै ओ अपरुख। नै-नै खाली देहक श्रम झमारल हालति
सेहे रहै कारन।-ओंघाएल पंजिया तं लेलक खूब गाढ़ क’क’ सक्कत सं हमरा
मुदा जेना कल जोड़ैत कह’ लागल-‘‘ अखनी सूति र’ह...’ आ
फेरो काट’ लागल फोंफ।
माया आबि गेल।
बड़ यतने अपने देह-छाती सं करैत अपने हाथे खेला
बदलैत रहलौं करौट
तहिना भेल भोर !
हमर सोचनाइ छल जे काज मे संग देबै तं
ओकरो थकनी रहतै आधा,
दोसर हमरो थाकत आधा देह।
ओना जे टटका-टटका फुलाएल गेना- देह लेने
दिन खेपैत रहि जाइ छी बिन मेहनति भरि दिन,
से नहि रहब, तं भ’ सकत देह मनक झिलहरि सेहो
एक रती दूर। मिलजुलि क’ चला सकब नाह मे करुआरि!
तैयो हम सप्पत खा कहै छियौ-छुच्छे देह नहि,
ओकरा लेल मास्चर्य आ अपना इज्जतिक रच्छा लेल।
आ अइ लेल जे पुरुखो बूझौ जे ओकर स्त्री
खाली ओछान पर सुतबे काल धरि नै,
बाध-बोन खेत ख्रिहान माने भरि दिन छैक ओकर संग।
से हमर दाबी हय। अधिकार। सास्त्र-पqरान की कहै है,
हमरा नै पता। हम ई मानै छियै।
हम तै दुआरे छोड़बै। बहरीयो जा काज करबा के
अधिकार लेल आ बांकी स्त्रीगन-गामक बेटी-पुतहु सबके
ई बात बुझाब’क लेल जे –तों
भानस करब , आंगने नीप’ लेल नहि छें।
तों ओहिना ओतबे छें पुरुख। ह’र जोतबा लेल,
कुरहड़ि सं जाड़नि चीरबाक जोग...
तोहूं छें। तै लेल छोड़बै।
हमर हक नै मिलतै त छोड़ि नै देबै ?
ई बात एत’ छै-सेहो पुरुखक छुच्छ ईड़ द्वारे जे
बिन बुझनहि बजैत रहैये,
तें।
(अगिला अंकमे…)
पंकज पराशर
वसीयत
कविता हमर हुनका देबनि
जे अपन माटि-पानिक गंध सँ
परिपूरित होथि कवितामय
ओ जँ बुझि सकताह हमरा
आ हमर अनुराग-विराग
तँ हुनका कहबनि
मोन राखथि मात्र रचना केँ
जे रहत तहियो जखन हम रहब
दुनिया मे अनुपस्थित!
2009
सुबोध कुमार ठाकुर
सुन्न लागए गाम
बुढ़िया माय कोनटा पर बैसल,
थाकल आँखिसँ निहारि रहल छलीह बाट,
काल्हि दिबाली छियैक दीप जरतए सगरे
हमरो अँगना आएत फेरसँ उल्लास,
बुढ़िया माय कोनटा पर बैसल,
थाकल आँखिसँ निहारि रहल छलीह बाट,
बैसले-बैसल मन सोचि रहल छल
पिछला दिनमे मन घुमि रहल छल
सगर टोल आओर गाम सुखमय लगैत छल
जखन सभ गामहि रहैत छल
मुदा आब ओ समए नहि रहल नहि रहल आब ओ बात
बुढ़िया माय कोनटा पर बैसल,
सोचिते मन परिजरित भय उठल
जेना हृदयमे सहजहिं प्रश्न उठल
किएक बनल सभ परदेशी, आ गाम बनल सुनसान
सोचिते कऽ रहल छल मोन विलाप
बुढ़िया माय कोनटा पर बैसल,
थाकल आँखिसँ निहारि रहल छलीह बाट,
केहन भेलइ ई मजबूरी
रोटी खातिर बनलय दूरी,
सभकेँ चाही खूब पाइ रुपैय्या
आओर चाही खूब भोग विलाश
बुढ़िया माय कोनटा पर बैसल...
एक बेर जेना कहलकहि,
कहि पठाबी ई समाद पुत्र सभकेँ,
तूँ पाय आब बड कमेलह
इहे पाइ तँ देश छोड़ेलकह
नहि चाही खूब पाइ रुपैय्या
घुरि आबह तूँ अपन देश बटोहिया
माँ मिथिले दोहराबए सेहो इहे बात
बुढ़िया माय कोनटा पर बैसल..
थाकल आँखिसँ निहारि रहल छलीह बाट।
उमेष मंडल
(1)
गरजह हे मेध गरजह गरजि सुनावह रे।
ललना रेश् ऊसर खेत पटाबह सारि उपजाबह रे।
जनमह आरे बाबू जनमह जनमि जुड़ाबह रे।
ललना रेश् बाबा सिर छत्र धराबह शत्रु देह आँकुष रे।
हम नहि जनमब ओहि कोखि अबला कोखि रे।
ललना रेश् भैलहि वसन सुतायत छौड़ा कहि बजायत रे।
जनमह आरे बाबू जनमह जनमि जुड़ाबह रे।
ललना रेश् पीयर वसन सुताबह बाबू कहि बजायब रे।
(2)
पलंगा सुतल तोहेँ पिया कि तोहें मोर साहेब रे।
ललना रेश् बगिया जँ एक लगबितहुँ टिकुला हम चखितहुँ रे।
भल नहि बोललिह धनी कि बोलहुँ न जानह रे।
ललना रेश् बेटबा जँ एक तोरा होइत सोहर हम सुनितहुँ रे।
भानस करैत तोहें गोतनी कि तोहें मोर हित बंधु रे।
ललना रेश् अपन बालक दिअ पैंच पिया सुनु सोहर रे।
नोन तेल पैंच उधार भेटय आर सभ किछु रे।
ललना रेश् कोखिआक जनमल पुत्र सेहो नहि भेटय रे।
मचिया बैसल तोरे सासु कि सासु सँ अरजि करु रे।
ललना रेश् कओनश्कओन तप केलहुँ पुत्र फल पेलहुँ रे।
गंगहि पैसि नहेलहुँ हरिवंष सुनलहुँ रे।
ललना रेश् देवलोक भेला सहाय कि पुत्र फल पयलहुँ रे।
आदित लगैत बिलम्ब भेल होरिला जनम लेल रे।
ललना रेश् लाल के पलंगा सुता देल पिया सुनु सोहर रे।
दषमासी सोहर
(3)
प्रथम मास जब आयल चित फरिआयल रे।
जानि गेल सासु हमार चढ़ल मास दोसर रे।
सासु मोर बसु नैहर ननदी बसु सासुर रे।
घर छथि देबर नदान चढ़ल मास तेसर रे।
बाट रे बटोहिया कि तोहि मोर भैया कि हित बंधु रे।
हमरो समाद लेने जाउ चढ़ल मास चारिम रे।
अन्न पानि किछु नहि भावय खटरस भावय रे।
कहब हम कओन उपय चढ़ल मास पाँचम रे।
रचिश्रचि पतिया लिखाओल नैहर पठाओल रे।
बिनु आमा नैहर विरान चढ़ल मास छट्ठम रे।
आगुश्आगु आवय दोलिया पाछु भैया आवय रे।
घुरिश्घुरि घर भैया जाउ चढ़ल मास सातम रे।
तन भेल सरिसब फूल देह भेल पीयर रे।
अब न बाँचत जीव मोर चढ़ल मास आठम रे।
घरश्घर बाजत बधावा कि भेल बड़ आन्नद रे।
अयोध्या मे जनमल राम चढ़ल मास नवम रे।
तुलसीदास सोहर गाओल गाबि सुनाओल रे।
भक्तवत्सल भगवान कि आजु प्रकट रे।
(4)
एक दिन छल बन झंझर आब बन हरियर रे।
बड़ रे सीता दाई तपसी कि गरम सँ रे।
के मोरा गरुअनि काटत खिनहरि बूनत रे।
ललना रे मन होय पियरी पहिरतहुँ गोद भरबितहुँ रे।
ललना रे राम दहिन भए बैसतथि कौषल्या चुमबितथि रे।
(5)
प्रथम समय नियराओल शुभ दिन पाओल रे।
ललना रे देवकी दरदे वयाकुल दगरिन आयल रे।
दोसरो वेदन जब आयल कृष्ण जन्म लेल रे।
ललना रे तेसर हरिक प्रवेष कलेष मेटायल रे।
दगरिन आबि जगाओल केओ नहि जागल रे।
ललना रे हरि देखि सभ मन अचरज सभ हित साधल रे।
सूरदास प्रभु हितकर कृष्ण जनम लेल रे।
बाजन बाजय सभ ठाम देव लोक हरखित रे।
(6)
उतरि सावन चढ़े भादव चहुँ दिस कादब रे।
ललना रे मेधवा झरी लगाबय दामिनि दमकय रे।
जनम लेल यदुनन्दन कंस निकन्दन रे।
ललना रे फुजि गेल वज्र केवाड़ पहरु सब सूतल रे।
शंख चक्र युक्त हरि जब देवकी देखल रे।
ललना रे आइ सुदिन दिन भेल कृष्ण अवतार लेल रे।
कोर लेल वसुदेव कि यमुना उछलि बहू रे।
ललना रे हरि देल पैर छुआय नन्द घर पहुँचल रे।
नन्द भवन आन्नद भेल यषुमति जागल रे।
ललना रे सूरदास बलि जाय कि सोहर गाओल रे।
(7)
घर से बहार भेली सुन्दरि, देहरि धय ठाढ़ भेली रे।
ललना रे ओलती धय धनि ठाढ़ि कि, दरदे व्याकुल रे।
कथि लय बाबा बिआहलनि, बलमु घर देलनि रे।
ललना रे रहितहुँ बारि कुमारी, दर्द नहि जनितहुँ रे।
अगाध राति बिराल पहर रति, बबुआ जनम लेल रे।
ललना रे बाजय लागल बधाबा, कि गाओल सोहर रे।
(8)
पहिल परन सिया ठानल सेहो विधि पूड़ाओल रे।
ललना रे भेटल अयोध्या राज ससुर राजा दषरथ रे।
दोसर परन सिया ठानल सेहो विधि पूराओल रे।
ललना रे भेटल कौषल्या सासु लखन सन देओर रे।
तेसर परन सिया ठानल सेहो विधि पूराओल रे।
ललना रे माँगल पति श्रीराम सेहो विधि पूरल रे।
(9)
गाँव के पछिम एक कुइयाँ सुन्दरि एक पानि भरु रे।
ललना रे घोड़बा चढ़ल एक कुमर पानि के पियासल रे।
पानि पीबू पानि पीबू कुमर सुरति नहि भुलह रे।
तोरो सँ सुन्दर हमर स्वामी जे तजि विदेष गेल रे।
कोन मास तोहरो वियाह भेल कोने गवन भेल रे।
कोने मास जोड़ल सिनेह कि तजि परदेष गेल रे।
फागुन हमरो विआह भेल कि चैत गवन भेल रे।
बैसाख जोड़ल सिनेह कि तेजि विदेष गेल रे।
(10)
जीर सन धनि पातरि फूल सन सुन्दरि रे।
ललना रे सुतल प्रेम पलंग पर दरदे व्याकुल रे।
सासु जे हुनका अलारनि बहिन दुलारनि रे।
ललना रे तिल एक दरद अंगेजह, होरिला जनम लेत रे।
जाहक हे ननदी जाहक, भइया के बजाबह हे।
ललना रे भइया ठाढ़ देहरि बीच कहु बात मनके रे।
(अगिला अंकमे)
कल्पना शरण
प्रतीक्षा सऽ परिणाम तक – 6
पितामहके मृत्युक बाद सऽ छल प्रारम्भ
श्रृंखला पाण्डवक एक पर एक जीतक
छल आ बल सॅ बढ़ि रहल छल युद्ध
कुरूक्षेत्रमे भाई भाई मे धर्म आ अधर्मक
भीष्म प्रणक रक्षामे प्राण त्यागला
कृष्ण तोड़ला प्रण नहिं शस्त्र उठाबक
अभिमन्युक मृत्यु पर अर्जुन लेला प्रतिज्ञा
अगिले दिन करब जयद्रथक अन्त लेल प्रहार
सुर्यास्तक भ्रम बनाबैलेल कृष्ण केला
अपन सुदर्शन सऽ सूर्यग्रहण सन अन्हार
जयद्रथक गर्दनि वृद्धकक्षत्र क कोरामे
अर्जुनक एकहि वारमे पिर्तापुत्रक संहार
राजसूय यज्ञके बाद छल ई दोसर
अभिमन्यु पुत्रक रक्षामे अश्वमेध यज्ञ
पहिलमे पिता भाग्यदत्तके अहिमे पुत्र
विध्नकर्ता वज्रदत्तके अर्जुन केला वध
दुनु छल नरकासुरक वंशज जकरा मुरारि
मारिकऽ केने छलैथ शुरू दिवालीक पर्व
सतीश चन्द्र झा
मैथिल
एहि देश प्रांत मे कोना हैत
सम्मान मैथिली भाषा के ।
दोषी छी हमहूँ सब अपने
छी दर्शक बनल तमाशा के।
किछु कतौ बरख दिन पर कहियो
विद्यापति पर्व मना रहलौं।
हम पाग माथ पर राखि कतौ
किछु कथा पिहानी बाँचि एलौं।
की हैत करै छी झूठ- मुठ
चढ़ि कतौ मंच सँ व्यथा पाठ।
दू चारि लोक के छोड़ि दिअ बाँकी
सभटा छी बनल काठ।
सभ मुँह नुकौने जड़ बैसल छी
कतय अपन भाषा भाषी।
पथ उतरि करत के शंखनाद
हम छी विद्रोहक अभिलाशी।
अछि अपन पत्रिका गिनल- चुनल
निष्प्राण भेल पाठक विहीन।
के कीनत सोचि रहल अछि ओ
टीशन पर टाँगल दीन हीन।
हम कोना बचायब एकर प्राण
ल’ जायब एकरा गाम- गाम।
देखत बच्चा उपहास करत
अंग्रेजी बाजब बढ़त नाम।
चुट्टी पिपरी सभ जीव जन्तु
अपना सँ राखत कतेक स्नेह।
छथि मुदा केहन मैथिल समाज
सभ समाघिस्थ, निश्चल, विदेह।
माइक कोरा मे पहिल बेर
जहि भाषा के छल भेल ज्ञान।
ओ पहिल चेतना भाव बोध छल
जीवन के आधार प्राण।
सभ बिसरि गेल छी तैं देखू !
अछि सुखा रहल गंगाक धार।
कहिया धरि रहब उपेक्षित
हम सभ करू फेर सँ किछु बिचार।
संकल्प लिअ उठि चलू आइ
आँजुर मे गंगा जल राखू।
दिनकर के साक्षी राखि फेर
नहि आइ कियो पाछाँ ताकू।
हरिमोहन झा जयकांत मिश्र
सभकंे साहित्यिक मान लेल।
छी कतय नीन्न मे एखनो धरि
जागू मैथिल सम्मान लेल।
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रूपेश कुमार झा ’त्योंथ' -पिता-श्री नवकान्त झा, ग्राम+पत्रालय-त्योंथा, भाया-खिरहर,थाना-बेनीपट्टी,जिला-मधुबनी सम्प्रति कोलकाता मे स्नातक (अन्तिम वर्ष) मे अध्यनरत, साहित्यिक गतिविधि मे सक्रिय, अनेक रचना विभिन्न पत्र-पत्रिकादि मे प्रकाशित।
खेली सप्पत जा भुइयाँ थान
बड रे जतन सँ हम पोसली पुता केँ,
भूखे सुतली अपने मर ओकरा सुतौली खुआ केँ।
अपने हम मूरुख मुदा बौआ केँ पढौली,
काटि कष्ट पोथी लेल ढौआ जुटौली।
देखिते हमर पूत भेल फूटि जुआन,
मोने बीतल हमर कष्ट मुख पसरल मुस्कान।
ओहि बेरा जिद कयलक गेल ओ असाम,
महिनो ने लगलै पठौलक ढौआ कऽ काम।
तंग छली पहिने आब उबार भेल जान,
तकलीफ भेल छू-मंतर भेल दिन हमर असान।
आयल एक दिन बेरा मे बौआ कयने लाल कान,
देखली ओकर कान आ कि उडल हमर प्राण।
कमाइ हइ लोक ढौआ ढेरी परदेश जा,
मुदा भागि आयल बौआ हमर मारि खा।
किछु दिनक बाद भेल ढौआ केर टान,
भऽ गेल हमर समैया फेरो पहिने समान।
फेर गेल बेटा बम्बई अपन पित्तीक संग,
छली हम ने हरखित मुदा ओकरा छलै नव उमंग।
एहि बेर कमायल बौआ हमर ढौआ ढेर,
आब ने गरीब रहली देलक दिन फेर।
देखल नहि गेलनि भगवान केँ हमर दिन,
लेला हमर मुखक मुसकी ओ छीन।
आयल फेर बौआ हमर मारि खा बम्बई सँ,
उपर सँ तऽ ठीके छल मुदा टूटि गेल मोन सँ।
ककरा ने लगै हइ नीक अपन गाम-घर,
पेटक खातिर परदेश जाय पडै हइ मर।
भुखले रहब मुदा देबै ने जाय ओकरा देश आन,
अखनिये हम खेली सप्पत जा भुइयाँ थान।
विनीत उत्पलक दू टा टटका कविता
सुतल अछि अनंतकाल स
ओ सुतल अछि अनंतकाल स
एहन नहि जे ओ बेसी थाकल अछि
एहनो नहि जे ओ राति भर जागल अछि
ओकरा घर वा दफ्तर में कलह नहि भेल अछि
ओ सुतल अछि अनंतकाल स
राति भर करट बदललाक बाद
राक्षसी खानपान केलाक बाद
देह में शिथिलता ए लाक बाद
दू टकाक लेल झूइठ-फूइस करलाक बाद
आधी दुनिया पर कुचेष्टा करलाक बाद
ओ सुतल अछि अनंतकाल स
कियाकि ओकर मामलाक सभटा गप फूइस अछि
सच कऽ फूइस वा फूइस कऽ सच
बना कऽ पेश करब छैक आसान
कियाकि ओकरा नींद नहि आबैत अछि
सच कऽ सामना करैत काल
ओकरा नींद नहि आबैक छैक कटु सच सुनला पर
ओ सुतल अछि अनंतकाल स
कियाकि ओ पढ़ि नहि सकल
कियाकि ओ एहन भक्त अछि जे
बस ‘जी हां, जी हां’ करैक अलावा
आआ॓र तरबा चटबा से आगू
नहि करि सकैत अछि कोनो काज
कियाकि सुनि नहि सकैत ओ जे ओ अछि
आस्था पर विश्वास कऽ सकत
मुदा नहि कऽ सकत बहस
तऽ आबि गेल अछि ओ समय
कुंभकर्णी नींद मे सुतल लोक कऽ जगैबाक
तथ्य आ तर्कक कसौटी पर कसबाक
अनपढ़ कऽ पढ़बाक
कियाकि बेवकूफ ज्ञानी
कखनो ककरो किछु नहि सुनि सकैत अछि।
मुर्दाघर
आब हड़ताल नहि होइत अछि
कार्यालय मे, फैक्ट्री मे
अपन मांग कऽ लऽ कऽ
कोनो शहर मे
आब धरना-प्रदर्शन नहि होइत अछि
मंत्रालय वा विभागक आगू
कोनो मुआवजा कऽ लऽ कऽ
कोनो भीड़भाड़ बाला सड़क पर
आब झगड़ा-फसाद नहि होइत अछि
चौक-चौराहा वा चौबटिया पर
अपन अधिकार कऽ लऽ कऽ
कोनो मोहल्ला में
जखन कि एखनो मांग अछि यथावत
नहि भेटल एखन धरि केकरो मुआवजा
अपन अधिकार स बेदखल केल जा रहल छथि लोक
सब दिश नजरि आबि रहल अछि मुद्दा-ए -मुद्दा
स्त्रीक मांग भऽ रहल अछि सून
समाजक तथाकथित सफेदपोश ठेकेदार
निकाल रहल छथि जनाजा
घुटि रहल छथि स्त्रीगण, घुटि रहल छथि पुरूष
बहरहाल, ओ देश,देश नहि
जतय मांग कऽ लऽ कऽ
मुआवजा कऽ लऽ कऽ
अधिकार कऽ लऽ कऽ
मुद्दा कऽ लऽ कऽ
आवाज नहि उठति अछि
छायल रहैत अछि खामोशी
ई लगैत अछि मुर्दाघर।
विदेह नूतन अंक गद्य-पद्य भारती
पाखलो
मूल उपन्यास : कोंकणी, लेखक : तुकाराम रामा शेट,
हिन्दी अनुवाद : डॉ. शंभु कुमार सिंह, श्री सेबी फर्नांडीस.मैथिली अनुवाद : डॉ. शंभु कुमार सिंह
पाखलो- भाग-७
(भाग-5)
शंभुक होटलमे रातिक भोजन कएलाक पश्चात् हम दीनाक घर दिस चलि देलहुँ। आइ बहुत काज केने रही तहि लेल सौंसे देहमे दरद छल। भूइयाँ पर पड़ितहि हमरा निन्न आबि जाइत, एहन बुझाइत छल।
बान्ह पर पहुँचबाक देरी नहुँ-नहुँ बसात सिहक’ लागल। आहा........ कतेक शीतल बसात छैक! बसात लगितहिं देहमे हरियरी आबि गेल। बगलमे एक दिस खेत-पथार आ दोसर दिस मांडवी नदी बहैत छलैक। बगलक नारियरक गाछसँ आवाज आबि रहल छलैक। चारू दिस अन्हारे-अन्हार छलैक। एहि अन्हारमे उपर भगजोगनी भुकभुक करैत छलैक। नदीक कारी पानिमे माछ सभ उछलैत छलैक आ ओकर लहरि भगजोगिनिएँ जकाँ दीप्यमान भ’ रहल छलैक। बान्हक बीचहि मे ब्रह्मबाबाक मंदिर नुकाएल रहैक। ओ मंदिर एकदम टूटि गेल रहैक। मंदिरक उपर चार नहि छलैक। मंदिरक चारू कातक देवाल सभमेसँ आगूक देवाल तँ एकदम्मे टूटि गेल रहैक। बाँकी तीनू देबाल पर सिम्मर, बर, अश्टीचे (गोवा प्रदेशक एकटा गाछ जाहिसँ लकड़ी प्राप्त होइत अछि) सन पैघ-पैघ गाछ सभ जनमि गेल छलैक। गोविन्दक विचारसँ ब्रह्मबाबाकेँ खुब पैघ खुलल मंदिर भेटल छनि।
ओ कहैत छल – एहि चारू गाछ पर आकास केर छत छैक आ एहि मंदिरमे ब्रह्मबाबा रहैत छथि।
चलैत – चलैत हम ब्रह्मबाबाक मंदिर लग पहुँच गेलहुँ आ एहि मंदिरमे हमरा एकबेर साँप नजरि आएल रहय, ओ स्मरण अबितहिं हमर सौंसे देह सिहरि गेल।
नेनपनमे एकबेर हम आ गोविन्द माछ मारबाक लेल नदी पर गेल छलहुँ। बहुत कालक बाद हमरा बंसीमे एकटा खर्चाणी (माछ) फंसल छल। ओकरा हम एकटा नारियरक सिक्कीमे गूथि लेलहुँ। बाटमे ब्रह्मबाबाक मंदिर भेटल। बंसी नीचाँ राखि हम दुनू ब्रह्मबाबाकेँ गोर लागबाक लेल गेलहुँ। ब्रह्मबाबाक कारी मूर्ति, मंदिरक टूटलका भागमे पाथरक ढेरक बीचमे छलनि। हम अपन हाथक माछ मंदिरक सीढी पर राखि देलहुँ। हम दुनू गोटे मूर्ति लग माथ टेकलहुँ। ने जानि कतएसँ ओहि मूर्ति लगक पाथर पर एकटा साँप आबि कए ठाढ़ भ’ गेलैक। हम दुनू गोटे बहुत डरि गेलहुँ आ पाछू हटि गेलहुँ। पछाति जा कए ओ साँप ओहि पाथरक ढेरमे ढूकि गेल। गोविन्द तँ डरक कारणेँ बुझू जे पाथरे बनि गेलाह। हम सभ भगवानक सीढी पर माछ रखने छलहुँ,एहिलेल हुनका खराप लागलनि की? हमरा मोनमे एहन भेल। हम आपस सीढी लग गेलहुँ आ ओतए राखल माछ उठाकए नदीमे फेकि देलहुँ। हमसभ पुनः ब्रह्मबाबाक पयर पर गिर कए हुनकासँ माफी माँगलियनि।
हम गोविन्दसँ पूछलियनि – माछ राखने छलहुँ एहिलेल ब्रह्मबाबाकेँ गोस्सा आबि गेलनि की? मंदिर भ्रष्ट भ’ गलैक की?
नहि यौ, एहन कतहुँ होइक? गामक लोकतँ हुनका माछो चढबैत छनि। गोविन्द जवाब देलक।
तखन साँप किएक देख’ मे आएल?
हम..............।
चुप रहू, पाखलो भेलहुँ तँ की भेल? पछिला बेर तँ हम इमली आ आँवला रखने छलहुँ,तखनहुँ मंदिर भ्रष्ट भेल छलैक की? नहि ने, अहाँ चुप रहू आ ककरो किछु नहि बतेबैक।
हम ब्रह्मबाबाक मंदिर लग पहुँचि गेलहुँ। मंदिरक चारू कात पहाड़ छलैक आ बीचमे मंदिर। रातुक अन्हारमे मंदिर कारी देखाइत रहैक। उपर तरेगणसँ भरल देहबला अकाश। घरक बीचला देबाल आ मठौत एहि दुनूक बीच दए इजोत अबैत रहैक। ओहने इजोत अकाश आ पहाड़क बीच पसरि रहल छलैक।
हम अपन जूता खोललहुँ आ ब्रह्मबाबाकेँ गोर लागलहुँ। रातिक अन्हारमे ब्रह्मबाबाक मूर्ति नहि देखा पड़ैत रहैक। हमरा भेल जे जेना ब्रह्मबाबा एतए अन्हारक एकटा बड़का टा रूप ल’ कए पूरा संसार पर पसरि गेल छथि।
ब्रह्मबाबा केर मंदिर बहुत सिद्ध छैक। मांडवी नदीक कछेर पर एहि गाम केँ बसौनिहार आदिपुरूख वैह छथि। पहिने ई गाम बाढ़िमे डूबि जाइत छलैक मुदा मांडवी नदी पर बान्ह बान्हि ओ एहि गामक सृष्टि केने रहथि। हुनका मरलाक उपरान्त एहि गामक लोक सभ हुनकर स्मरणमे ई मंदिर बनौने छल। एहि तरहेँ ई मंदिर आ ब्रह्मबाबाक द्वारा बनाओल गेल ई बान्ह दुनू बहुत पुरान अछि।
हम ब्रह्मबाबा द्वारा बनाओल गेल ओहि बान्ह दए चलि रहल छलहुँ। आ एहि बान्हक कारणेँ बसल गाममे हम, माने पाखलो रहैत रही।
दिनाक बैसकी घरमें सभ दिन जकाँ हम चटाय बिछा कए बैसि गेलहुँ। दिनाक बेटा एकटा चिट्ठी आनि हमरा हाथमे थमा देलक। ओ चिट्ठी गोविन्देक छलैक। बहुत दिनक बाद ओ हमरा चिट्ठी लिखने रहय। हमरा बड्ड प्रसन्नता भेल।
गोविन्दक संग घूमब-फिरब, केगदी मैदानक पोखरिमे नहाएब, हेलब ई सभ सोचैत-सोचैत हम चटाय पर सूति गेलहुँ। हम माथ धरि कंबल ओढ़ि लेलहुँ। बहुत राति बीति गेलैक मुदा हमरा निन्न नहि आबि रहल छल। हमरा मोनमे केगदी मैदानक पोखरिक चित्र बेरि-बेरि आबि जाइत छल। लील रंगक आकाश केर प्रतिबिंब पानिमे चमकैत छलैक। आकासक रंगीन मेघक पोखरिक लहरि पर हेलब। आकाश अपन रूप पोखरिक पानिमे देखि मोनहि-मोन खूब प्रसन्न होइत छल। ‘ई रूप नीक नहि अछि’ ई सोचि ओ अपन रूपकेँ नव रूपमे रंगैत छल आ मेघक वस्त्र पहिरैत छल।
पोखरिक लग केबड़ा झाड़ ओ केबड़ाक गाछ सभक बड़का टा जंगल रहैक, ओ पोखरिक महार केबड़ाक झाड़ीसँ भरल रहैक। केबड़ाक झाड़ पर फूल फूलाइत अछि। ओहि दिन हमसभ नहएबाक लेल गेल छलहुँ। केबड़ा फूला गेल छलैक। पीयर-पीयर केबड़ा हरियर-हरियर पातसँ बाहर आबि, अपन जी देखा-देखा कए कबदा रहल छलैक। पूरा वातावरण केबड़ाक सुगन्धसँ भरल रहैक। हम आ गोविन्द पोखरिमे कूदि गेलहुँ। दुनूगोटे हेलैत-हेलैत केबड़ाक द्वीप लग पहुँचलहुँ। द्वीप पर केबड़ाक बहुत घनगर जंगल रहैक। दुनू गोटे केबड़ाक झाड़क अंदर घूसि केबड़ाक फूल तोड़ए लागलहुँ। फूल तोड़ि पोखरि पार केलहुँ। ओ सभटा पोखरिक कछेर पर राखि देलियैक। बादमे बेंग जकाँ हमसभ पोखरिमे डुबकी लगौलहुँ। भरि दम साँस घीचि ओहिना पानिमे डूबि गेलहुँ, तँ ओहि साँसक संगे बाहर भेलहुँ। सौंसे देह डूबल छल, मुदा माथक केश हेलैत नारियर सदृश बुझाइत छल।
हमरा गाम क्षेत्रफल आन गामक अपेक्षा कने पैघ छैक। गाममे खेतक मैदान, जंगल ओ पहाड़ हमरा सभकेँ घूमबाक लेल कम्महि भेटैत छल। नाह ल’ कए नदीमे घूमैत-फिरैत रही। नदीमे नहएलाक पश्चात् हेलिकए नदी पार करैत रही। अज्ञातवासक कालमे पांडव लोकनि द्वारा बनाओल गेल पोखरिमे हमसभ नहएबाक लेल जाइत रही। ओ पोखरि बहुत सुन्नर रहैक। पैघ-पैघ पाथर पर पोखरिक चारू दिस नीक चित्रकारी कएल गेल रहैक। चारू दिससँ सीढी होइत लोक पोखरिमे ढूकैक छल। पोखरिक चारू दिस खोदल गेल मेहराब परक कलाकृति सभ। सभ मेहराबक भीतर दू-तीनटा कक्ष इजोतसँ भरल। एहि कक्ष सभक देबालक खाम्ह पर लेपटाएल लत्ती, चिड़ै-चुनमुनी द्वारा कएल गेल बीट (बिष्टा), विभिन्न प्रकारक आकृति बना नेने रहैक। एहन बुझाइत रहैक जेना मेहराबक सुन्नर कक्षक बीच पाषाण केर पोखरिमे शिलाखण्ड पर भगवान अमृत-कलश राखि देने होथि आर ओहि निर्मल पानिकेँ देखिकए जेना कौआक आँखि चंचल भ’ रहल हो, ओहिना ओकरा देखि ककरहुँ प्राण प्रसन्नतासँ भरि जाइक। एहने पानिमे हमसभ नहाइत छलहुँ। नहएलाक बाद गोविन्द मेहराबक कक्षमे जा कए कोनो ऋषि-मुनि जकाँ ध्यानस्थ भ’ बैसैत रहथि। तखन ओहि पाषाणकेँ देखि बुझा पड़ैक जे बुझू महाभारतक काल घुरि एलैक।
पछिला किछु सालक स्मृतिसँ हमर रोइयाँ ठाढ़ भ’ गेल। ओह......हमर माय! हमर साँस केओ बन्न क’ देलक, हमरा गरमे फंदा बान्हि देलक, हमरा एहने लागल। हम आ गोविन्द जखन एहि पोखरिमे नहा रहल छलहुँ तखनहिं भट बाबू ओहि बाटे जा रहल छलाह। हमरा पोखरिमे नहाइत देखि – पाखलो पोखरि भ्रष्ट केलक, पाखलो पोखरि भ्रष्ट केलक...... चिकर’ लागलाह। हुनकर चिकरब सुनि ओतए पाँच – छओ लोक जमा भ’ गेलाह। भट बाबू हुनका लोकनिकेँ आदेश देलथिन, जे ओ सभ हमर कान घीचि बाहर आनथि। ओ लोकनि हमर कान घीचैत हमरा बाहर आनलथि। बादमे भट बाबू अपन छड़ीसँ हमरा खूब मारलथि। ओ सभ हमरा मारैत-मारैत सांतेरी मंदिर धरि ल’गेलाह। भरि गामक लोक हमरा देखबाक लेल ओतए जमा भ’ गेलाह। ओ लोकनि हमरा सांतेरी मंदिरक सीढ़ी पर नाक रगड़बाक लेल बाध्य केलथि। हम अपन नाक रगड़लहुँ। माँफी माँगलहुँ। बादमे ओ हमरा पोखरिक लग बला स्तंभ (खाम्ह)सँ बान्हि देलनि। काल्हिए हम पीयर नारियर तोड़ने छलहुँ। सभक संग ढोल आ ताशा बजाकए शिगमो खेलने छलहुँ आर आइ हम स्वयं गामबलाक लेल एकटा तमाशा बनल रही।
क्रमशः
श्री तुकाराम रामा शेट (जन्म 1952) कोंकणी भाषामे ‘एक जुवो जिएता’—नाटक, ‘पर्यावरण गीतम’, ‘धर्तोरेचो स्पर्श’—लघु कथा, ‘मनमळब’—काव्य संग्रह केर रचनाक संगहि कैकटा पुस्तकक अनुवाद, संपादन आ प्रकाशनक काज कए प्रतिष्ठित साहित्यकारक रूपमे ख्याति अर्जित कएने छथि। प्रस्तुत कोंकणी उपन्यास—‘पाखलो’ पर हिनका वर्ष 1978 मे ‘गोवा कला अकादमी साहित्यिक पुरस्कार’ भेटि चुकल छनि।
डॉ शंभु कुमार सिंह
जन्म: 18 अप्रील 1965 सहरसा जिलाक महिषी प्रखंडक लहुआर गाममे। आरंभिक शिक्षा,गामहिसँ, आइ.ए., बी.ए. (मैथिली सम्मान) एम.ए. मैथिली (स्वर्णपदक प्राप्त) तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार सँ। BET [बिहार पात्रता परीक्षा (NET क समतुल्य) व्याख्याता हेतु उत्तीर्ण, 1995] “मैथिली नाटकक सामाजिक विवर्त्तन” विषय पर पी-एच.डी. वर्ष2008, तिलका माँ. भा.विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार सँ। मैथिलीक कतोक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिका सभमे कविता, कथा, निबंध आदि समय-समय पर प्रकाशित। वर्तमानमे शैक्षिक सलाहकार (मैथिली) राष्ट्रीय अनुवाद मिशन, केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर-6 मे कार्यरत।
सेबी फर्नांडीस
बालानां कृते-
१.देवांशु वत्सक मैथिली चित्र-श्रृंखला (कॉमिक्स)
२.कल्पना शरण: देवीजी
देवांशु वत्स, जन्म- तुलापट्टी, सुपौल। मास कम्युनिकेशनमे एम.ए., हिन्दी, अंग्रेजी आ मैथिलीक विभिन्न पत्र-पत्रिकामे कथा, लघुकथा, विज्ञान-कथा, चित्र-कथा, कार्टून, चित्र-प्रहेलिका इत्यादिक प्रकाशन।
विशेष: गुजरात राज्य शाला पाठ्य-पुस्तक मंडल द्वारा आठम कक्षाक लेल विज्ञान कथा “जंग”प्रकाशित (2004 ई.)
नताशा:
(नीचाँक कार्टूनकेँ क्लिक करू आ पढ़ू)
नताशा सत्ताइस
नताशा अट्ठाइस
कल्पना शरण:देवीजी:
देवीजी : परमाणु उर्जा
देवीजी पदार्थक संरचना पढ़ा रहल छलैथ। ताहि पर ओ बतेलखिन जे परमाणु मे बहुत उर्जा होयत छै।परमाणु बम अकर नकारात्मक आऽ विभत्स रूप छै।एक परमाणु बम विशाल शहर के समाप्त कऽ सकैत छै आ अकर असर आगॉं आबैवला पीढ़ी तक सेहो होयत छै।जापानके हिरोशिमा आ नागाशाकी शहर के जे दुर्दशा द्वितीय विश्वयुद्धमे भेल रहै तकर दर्दनाक यादक तस्वीर अखनो दुःखी कऽ दैत छै।परमाणु बम स सुरक्षा लेल परमाणु बम के जवाबी बम ह्यसेकेण्ड स्ट्राइक स्टेटसहृ राखनाई अनुचित नहिं मानल गेल छै परन्तु आब जँ कोनो देश हिरोशिमा आ नागाशाकीक इतिहास दुहरेता तऽ विश्वमे ओहि देशक मौलिक अस्तित्व तऽ निश्चित रूपे हमेशा के लेल समाप्त भऽ जेतैन।
युनाएटेड नेशन्स डे आबि रहल छल।देवीजी अपन शिक्षण मे आहि बतेलखिन जे अहि साल परमाणु हथियार के निष्काषण पर जोर देल गेल छै।परमाणु उर्जाके बहुत सकारात्मक प्रयोग कैल जा सकैत अछि।कहल जा रहल छै जे परमाणु शक्तिके सदुपयोगक के क्रान्ति युग आबऽ वला छै। परमाणु उर्जाक असामरिक आ मानविक प्रयोग सऽ पर्यावरण के तापमानक असंतुलन पर नियंत्रण पाबैके रस्ता भेटि रहल छै।तकर अतिरिक्त अकर उपयोग कृषि जगत एवम् अन्य उद्योग सबमे कैल जा सकै छै जाहिमे धातु विकिरण सऽ हुअ वला हानि. जल प्रदूषण. कोयला आ गैस के अत्याधिक उपयोग सऽ समाप्ति के आशंका आदि के कम कैल जाऽ सकैत छै।आधुनिक युगमे अकर सबसऽ बढ़िया उपयोग भऽ रहल छै कैंसर के ईलाज़ रेडियोथेरेपीे मे।
देवीजी कहलखिनजे कम सऽ कम मनुष्यके आपसमे एक दोसर के कष्ट पहुँचाबक प्रयास नहिं करबाक चाही।प्रकृति पर तऽ पूरा जोड़ नहिं छै। अक्टूबर के दोसर बुद्ध के इण्टरनेश्नल डे फॉर नैचुरल डिसेस्टर रिडक्सन के रूपमे मनाओल जा रहल छल। देवीजी कहलखिन जे युनाइटेड नेशन्स के दिस सऽ अहि क्षेत्रमे सेहो अनेकानेक कार्यक्रम चलैत रहै छै।जेनाकि इण्डोनेशिया मे भूकम्प पीड़ित के सहायता. भारत मे बाढ़ पीड़ित के मददि . केत्साना समुद्ी तूफान सऽ क्षतिग्रस्त जनजीवन के मददि इत्यादि।
बच्चा लोकनि द्वारा स्मरणीय श्लोक
१.प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त्त (सूर्योदयक एक घंटा पहिने) सर्वप्रथम अपन दुनू हाथ देखबाक चाही, आ’ ई श्लोक बजबाक चाही।
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती।
करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम्॥
करक आगाँ लक्ष्मी बसैत छथि, करक मध्यमे सरस्वती, करक मूलमे ब्रह्मा स्थित छथि। भोरमे ताहि द्वारे करक दर्शन करबाक थीक।
२.संध्या काल दीप लेसबाक काल-
दीपमूले स्थितो ब्रह्मा दीपमध्ये जनार्दनः।
दीपाग्रे शङ्करः प्रोक्त्तः सन्ध्याज्योतिर्नमोऽस्तुते॥
दीपक मूल भागमे ब्रह्मा, दीपक मध्यभागमे जनार्दन (विष्णु) आऽ दीपक अग्र भागमे शङ्कर स्थित छथि। हे संध्याज्योति! अहाँकेँ नमस्कार।
३.सुतबाक काल-
रामं स्कन्दं हनूमन्तं वैनतेयं वृकोदरम्।
शयने यः स्मरेन्नित्यं दुःस्वप्नस्तस्य नश्यति॥
जे सभ दिन सुतबासँ पहिने राम, कुमारस्वामी, हनूमान्, गरुड़ आऽ भीमक स्मरण करैत छथि, हुनकर दुःस्वप्न नष्ट भऽ जाइत छन्हि।
४. नहेबाक समय-
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरू॥
हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु आऽ कावेरी धार। एहि जलमे अपन सान्निध्य दिअ।
५.उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तत् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥
समुद्रक उत्तरमे आऽ हिमालयक दक्षिणमे भारत अछि आऽ ओतुका सन्तति भारती कहबैत छथि।
६.अहल्या द्रौपदी सीता तारा मण्डोदरी तथा।
पञ्चकं ना स्मरेन्नित्यं महापातकनाशकम्॥
जे सभ दिन अहल्या, द्रौपदी, सीता, तारा आऽ मण्दोदरी, एहि पाँच साध्वी-स्त्रीक स्मरण करैत छथि, हुनकर सभ पाप नष्ट भऽ जाइत छन्हि।
७.अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरञ्जीविनः॥
अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनूमान्, विभीषण, कृपाचार्य आऽ परशुराम- ई सात टा चिरञ्जीवी कहबैत छथि।
८.साते भवतु सुप्रीता देवी शिखर वासिनी
उग्रेन तपसा लब्धो यया पशुपतिः पतिः।
सिद्धिः साध्ये सतामस्तु प्रसादान्तस्य धूर्जटेः
जाह्नवीफेनलेखेव यन्यूधि शशिनः कला॥
९. बालोऽहं जगदानन्द न मे बाला सरस्वती।
अपूर्णे पंचमे वर्षे वर्णयामि जगत्त्रयम् ॥
१०. दूर्वाक्षत मंत्र(शुक्ल यजुर्वेद अध्याय २२, मंत्र २२)
आ ब्रह्मन्नित्यस्य प्रजापतिर्ॠषिः। लिंभोक्त्ता देवताः। स्वराडुत्कृतिश्छन्दः। षड्जः स्वरः॥
आ ब्रह्म॑न् ब्राह्म॒णो ब्र॑ह्मवर्च॒सी जा॑यता॒मा रा॒ष्ट्रे रा॑ज॒न्यः शुरे॑ऽइषव्यो॒ऽतिव्या॒धी म॑हार॒थो जा॑यतां॒ दोग्ध्रीं धे॒नुर्वोढा॑न॒ड्वाना॒शुः सप्तिः॒ पुर॑न्धि॒र्योवा॑ जि॒ष्णू र॑थे॒ष्ठाः स॒भेयो॒ युवास्य यज॑मानस्य वी॒रो जा॒यतां निका॒मे-नि॑कामे नः प॒र्जन्यों वर्षतु॒ फल॑वत्यो न॒ऽओष॑धयः पच्यन्तां योगेक्ष॒मो नः॑ कल्पताम्॥२२॥
मन्त्रार्थाः सिद्धयः सन्तु पूर्णाः सन्तु मनोरथाः। शत्रूणां बुद्धिनाशोऽस्तु मित्राणामुदयस्तव।
ॐ दीर्घायुर्भव। ॐ सौभाग्यवती भव।
हे भगवान्। अपन देशमे सुयोग्य आ’ सर्वज्ञ विद्यार्थी उत्पन्न होथि, आ’ शुत्रुकेँ नाश कएनिहार सैनिक उत्पन्न होथि। अपन देशक गाय खूब दूध दय बाली, बरद भार वहन करएमे सक्षम होथि आ’ घोड़ा त्वरित रूपेँ दौगय बला होए। स्त्रीगण नगरक नेतृत्व करबामे सक्षम होथि आ’ युवक सभामे ओजपूर्ण भाषण देबयबला आ’ नेतृत्व देबामे सक्षम होथि। अपन देशमे जखन आवश्यक होय वर्षा होए आ’ औषधिक-बूटी सर्वदा परिपक्व होइत रहए। एवं क्रमे सभ तरहेँ हमरा सभक कल्याण होए। शत्रुक बुद्धिक नाश होए आ’ मित्रक उदय होए॥
मनुष्यकें कोन वस्तुक इच्छा करबाक चाही तकर वर्णन एहि मंत्रमे कएल गेल अछि।
एहिमे वाचकलुप्तोपमालड़्कार अछि।
अन्वय-
ब्रह्म॑न् - विद्या आदि गुणसँ परिपूर्ण ब्रह्म
रा॒ष्ट्रे - देशमे
ब्र॑ह्मवर्च॒सी-ब्रह्म विद्याक तेजसँ युक्त्त
आ जा॑यतां॒- उत्पन्न होए
रा॑ज॒न्यः-राजा
शुरे॑ऽ–बिना डर बला
इषव्यो॒- बाण चलेबामे निपुण
ऽतिव्या॒धी-शत्रुकेँ तारण दय बला
म॑हार॒थो-पैघ रथ बला वीर
दोग्ध्रीं-कामना(दूध पूर्ण करए बाली)
धे॒नुर्वोढा॑न॒ड्वाना॒शुः धे॒नु-गौ वा वाणी र्वोढा॑न॒ड्वा- पैघ बरद ना॒शुः-आशुः-त्वरित
सप्तिः॒-घोड़ा
पुर॑न्धि॒र्योवा॑- पुर॑न्धि॒- व्यवहारकेँ धारण करए बाली र्योवा॑-स्त्री
जि॒ष्णू-शत्रुकेँ जीतए बला
र॑थे॒ष्ठाः-रथ पर स्थिर
स॒भेयो॒-उत्तम सभामे
युवास्य-युवा जेहन
यज॑मानस्य-राजाक राज्यमे
वी॒रो-शत्रुकेँ पराजित करएबला
निका॒मे-नि॑कामे-निश्चययुक्त्त कार्यमे
नः-हमर सभक
प॒र्जन्यों-मेघ
वर्षतु॒-वर्षा होए
फल॑वत्यो-उत्तम फल बला
ओष॑धयः-औषधिः
पच्यन्तां- पाकए
योगेक्ष॒मो-अलभ्य लभ्य करेबाक हेतु कएल गेल योगक रक्षा
नः॑-हमरा सभक हेतु
कल्पताम्-समर्थ होए
ग्रिफिथक अनुवाद- हे ब्रह्मण, हमर राज्यमे ब्राह्मण नीक धार्मिक विद्या बला, राजन्य-वीर,तीरंदाज, दूध दए बाली गाय, दौगय बला जन्तु, उद्यमी नारी होथि। पार्जन्य आवश्यकता पड़ला पर वर्षा देथि, फल देय बला गाछ पाकए, हम सभ संपत्ति अर्जित/संरक्षित करी।
Input: (कोष्ठकमे देवनागरी, मिथिलाक्षर किंवा फोनेटिक-रोमनमे टाइप करू। Input in Devanagari, Mithilakshara or Phonetic-Roman.)
Output: (परिणाम देवनागरी, मिथिलाक्षर आ फोनेटिक-रोमन/ रोमनमे। Result in Devanagari, Mithilakshara and Phonetic-Roman/ Roman.)
इंग्लिश-मैथिली-कोष / मैथिली-इंग्लिश-कोष प्रोजेक्टकेँ आगू बढ़ाऊ, अपन सुझाव आ योगदानई-मेल द्वारा ggajendra@videha.com पर पठाऊ।
विदेहक मैथिली-अंग्रेजी आ अंग्रेजी मैथिली कोष (इंटरनेटपर पहिल बेर सर्च-डिक्शनरी) एम.एस. एस.क्यू.एल. सर्वर आधारित -Based on ms-sql server Maithili-English and English-Maithili Dictionary.
नेपाल आ भारतक मैथिली भाषा-वैज्ञानिक लोकनि द्वारा बनाओल मानक शैली
1.नेपालक मैथिली भाषा वैज्ञानिक लोकनि द्वारा बनाओल मानक उच्चारण आ लेखन शैली
(भाषाशास्त्री डा. रामावतार यादवक धारणाकेँ पूर्ण रूपसँ सङ्ग लऽ निर्धारित)
मैथिलीमे उच्चारण तथा लेखन
१.पञ्चमाक्षर आ अनुस्वार: पञ्चमाक्षरान्तर्गत ङ, ञ, ण, न एवं म अबैत अछि। संस्कृत भाषाक अनुसार शब्दक अन्तमे जाहि वर्गक अक्षर रहैत अछि ओही वर्गक पञ्चमाक्षर अबैत अछि। जेना-
अङ्क (क वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे ङ् आएल अछि।)
पञ्च (च वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे ञ् आएल अछि।)
खण्ड (ट वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे ण् आएल अछि।)
सन्धि (त वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे न् आएल अछि।)
खम्भ (प वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे म् आएल अछि।)
उपर्युक्त बात मैथिलीमे कम देखल जाइत अछि। पञ्चमाक्षरक बदलामे अधिकांश जगहपर अनुस्वारक प्रयोग देखल जाइछ। जेना- अंक, पंच, खंड, संधि, खंभ आदि। व्याकरणविद पण्डित गोविन्द झाक कहब छनि जे कवर्ग, चवर्ग आ टवर्गसँ पूर्व अनुस्वार लिखल जाए तथा तवर्ग आ पवर्गसँ पूर्व पञ्चमाक्षरे लिखल जाए। जेना- अंक, चंचल, अंडा, अन्त तथा कम्पन। मुदा हिन्दीक निकट रहल आधुनिक लेखक एहि बातकेँ नहि मानैत छथि। ओलोकनि अन्त आ कम्पनक जगहपर सेहो अंत आ कंपन लिखैत देखल जाइत छथि।
नवीन पद्धति किछु सुविधाजनक अवश्य छैक। किएक तँ एहिमे समय आ स्थानक बचत होइत छैक। मुदा कतोकबेर हस्तलेखन वा मुद्रणमे अनुस्वारक छोटसन बिन्दु स्पष्ट नहि भेलासँ अर्थक अनर्थ होइत सेहो देखल जाइत अछि। अनुस्वारक प्रयोगमे उच्चारण-दोषक सम्भावना सेहो ततबए देखल जाइत अछि। एतदर्थ कसँ लऽकऽ पवर्गधरि पञ्चमाक्षरेक प्रयोग करब उचित अछि। यसँ लऽकऽ ज्ञधरिक अक्षरक सङ्ग अनुस्वारक प्रयोग करबामे कतहु कोनो विवाद नहि देखल जाइछ।
२.ढ आ ढ़ : ढ़क उच्चारण “र् ह”जकाँ होइत अछि। अतः जतऽ “र् ह”क उच्चारण हो ओतऽ मात्र ढ़ लिखल जाए। आनठाम खालि ढ लिखल जएबाक चाही। जेना-
ढ = ढाकी, ढेकी, ढीठ, ढेउआ, ढङ्ग, ढेरी, ढाकनि, ढाठ आदि।
ढ़ = पढ़ाइ, बढ़ब, गढ़ब, मढ़ब, बुढ़बा, साँढ़, गाढ़, रीढ़, चाँढ़, सीढ़ी, पीढ़ी आदि।
उपर्युक्त शब्दसभकेँ देखलासँ ई स्पष्ट होइत अछि जे साधारणतया शब्दक शुरूमे ढ आ मध्य तथा अन्तमे ढ़ अबैत अछि। इएह नियम ड आ ड़क सन्दर्भ सेहो लागू होइत अछि।
३.व आ ब : मैथिलीमे “व”क उच्चारण ब कएल जाइत अछि, मुदा ओकरा ब रूपमे नहि लिखल जएबाक चाही। जेना- उच्चारण : बैद्यनाथ, बिद्या, नब, देबता, बिष्णु, बंश,बन्दना आदि। एहिसभक स्थानपर क्रमशः वैद्यनाथ, विद्या, नव, देवता, विष्णु, वंश,वन्दना लिखबाक चाही। सामान्यतया व उच्चारणक लेल ओ प्रयोग कएल जाइत अछि। जेना- ओकील, ओजह आदि।
४.य आ ज : कतहु-कतहु “य”क उच्चारण “ज”जकाँ करैत देखल जाइत अछि, मुदा ओकरा ज नहि लिखबाक चाही। उच्चारणमे यज्ञ, जदि, जमुना, जुग, जाबत, जोगी,जदु, जम आदि कहल जाएवला शब्दसभकेँ क्रमशः यज्ञ, यदि, यमुना, युग, याबत,योगी, यदु, यम लिखबाक चाही।
५.ए आ य : मैथिलीक वर्तनीमे ए आ य दुनू लिखल जाइत अछि।
प्राचीन वर्तनी- कएल, जाए, होएत, माए, भाए, गाए आदि।
नवीन वर्तनी- कयल, जाय, होयत, माय, भाय, गाय आदि।
सामान्यतया शब्दक शुरूमे ए मात्र अबैत अछि। जेना एहि, एना, एकर, एहन आदि। एहि शब्दसभक स्थानपर यहि, यना, यकर, यहन आदिक प्रयोग नहि करबाक चाही। यद्यपि मैथिलीभाषी थारूसहित किछु जातिमे शब्दक आरम्भोमे “ए”केँ य कहि उच्चारण कएल जाइत अछि।
ए आ “य”क प्रयोगक प्रयोगक सन्दर्भमे प्राचीने पद्धतिक अनुसरण करब उपयुक्त मानि एहि पुस्तकमे ओकरे प्रयोग कएल गेल अछि। किएक तँ दुनूक लेखनमे कोनो सहजता आ दुरूहताक बात नहि अछि। आ मैथिलीक सर्वसाधारणक उच्चारण-शैली यक अपेक्षा एसँ बेसी निकट छैक। खास कऽ कएल, हएब आदि कतिपय शब्दकेँ कैल, हैब आदि रूपमे कतहु-कतहु लिखल जाएब सेहो “ए”क प्रयोगकेँ बेसी समीचीन प्रमाणित करैत अछि।
६.हि, हु तथा एकार, ओकार : मैथिलीक प्राचीन लेखन-परम्परामे कोनो बातपर बल दैत काल शब्दक पाछाँ हि, हु लगाओल जाइत छैक। जेना- हुनकहि, अपनहु, ओकरहु,तत्कालहि, चोट्टहि, आनहु आदि। मुदा आधुनिक लेखनमे हिक स्थानपर एकार एवं हुक स्थानपर ओकारक प्रयोग करैत देखल जाइत अछि। जेना- हुनके, अपनो, तत्काले,चोट्टे, आनो आदि।
७.ष तथा ख : मैथिली भाषामे अधिकांशतः षक उच्चारण ख होइत अछि। जेना- षड्यन्त्र (खड़यन्त्र), षोडशी (खोड़शी), षट्कोण (खटकोण), वृषेश (वृखेश), सन्तोष (सन्तोख) आदि।
८.ध्वनि-लोप : निम्नलिखित अवस्थामे शब्दसँ ध्वनि-लोप भऽ जाइत अछि:
(क)क्रियान्वयी प्रत्यय अयमे य वा ए लुप्त भऽ जाइत अछि। ओहिमेसँ पहिने अक उच्चारण दीर्घ भऽ जाइत अछि। ओकर आगाँ लोप-सूचक चिह्न वा विकारी (’ / ऽ) लगाओल जाइछ। जेना-
पूर्ण रूप : पढ़ए (पढ़य) गेलाह, कए (कय) लेल, उठए (उठय) पड़तौक।
अपूर्ण रूप : पढ़’ गेलाह, क’ लेल, उठ’ पड़तौक।
पढ़ऽ गेलाह, कऽ लेल, उठऽ पड़तौक।
(ख)पूर्वकालिक कृत आय (आए) प्रत्ययमे य (ए) लुप्त भऽ जाइछ, मुदा लोप-सूचक विकारी नहि लगाओल जाइछ। जेना-
पूर्ण रूप : खाए (य) गेल, पठाय (ए) देब, नहाए (य) अएलाह।
अपूर्ण रूप : खा गेल, पठा देब, नहा अएलाह।
(ग)स्त्री प्रत्यय इक उच्चारण क्रियापद, संज्ञा, ओ विशेषण तीनूमे लुप्त भऽ जाइत अछि। जेना-
पूर्ण रूप : दोसरि मालिनि चलि गेलि।
अपूर्ण रूप : दोसर मालिन चलि गेल।
(घ)वर्तमान कृदन्तक अन्तिम त लुप्त भऽ जाइत अछि। जेना-
पूर्ण रूप : पढ़ैत अछि, बजैत अछि, गबैत अछि।
अपूर्ण रूप : पढ़ै अछि, बजै अछि, गबै अछि।
(ङ)क्रियापदक अवसान इक, उक, ऐक तथा हीकमे लुप्त भऽ जाइत अछि। जेना-
पूर्ण रूप: छियौक, छियैक, छहीक, छौक, छैक, अबितैक, होइक।
अपूर्ण रूप : छियौ, छियै, छही, छौ, छै, अबितै, होइ।
(च)क्रियापदीय प्रत्यय न्ह, हु तथा हकारक लोप भऽ जाइछ। जेना-
पूर्ण रूप : छन्हि, कहलन्हि, कहलहुँ, गेलह, नहि।
अपूर्ण रूप : छनि, कहलनि, कहलौँ, गेलऽ, नइ, नञि, नै।
९.ध्वनि स्थानान्तरण : कोनो-कोनो स्वर-ध्वनि अपना जगहसँ हटिकऽ दोसरठाम चलि जाइत अछि। खास कऽ ह्रस्व इ आ उक सम्बन्धमे ई बात लागू होइत अछि। मैथिलीकरण भऽ गेल शब्दक मध्य वा अन्तमे जँ ह्रस्व इ वा उ आबए तँ ओकर ध्वनि स्थानान्तरित भऽ एक अक्षर आगाँ आबि जाइत अछि। जेना- शनि (शइन),पानि (पाइन), दालि ( दाइल), माटि (माइट), काछु (काउछ), मासु(माउस) आदि। मुदा तत्सम शब्दसभमे ई नियम लागू नहि होइत अछि। जेना- रश्मिकेँ रइश्म आ सुधांशुकेँ सुधाउंस नहि कहल जा सकैत अछि।
१०.हलन्त(्)क प्रयोग : मैथिली भाषामे सामान्यतया हलन्त (्)क आवश्यकता नहि होइत अछि। कारण जे शब्दक अन्तमे अ उच्चारण नहि होइत अछि। मुदा संस्कृत भाषासँ जहिनाक तहिना मैथिलीमे आएल (तत्सम) शब्दसभमे हलन्त प्रयोग कएल जाइत अछि। एहि पोथीमे सामान्यतया सम्पूर्ण शब्दकेँ मैथिली भाषासम्बन्धी नियमअनुसार हलन्तविहीन राखल गेल अछि। मुदा व्याकरणसम्बन्धी प्रयोजनक लेल अत्यावश्यक स्थानपर कतहु-कतहु हलन्त देल गेल अछि। प्रस्तुत पोथीमे मथिली लेखनक प्राचीन आ नवीन दुनू शैलीक सरल आ समीचीन पक्षसभकेँ समेटिकऽ वर्ण-विन्यास कएल गेल अछि। स्थान आ समयमे बचतक सङ्गहि हस्त-लेखन तथा तकनिकी दृष्टिसँ सेहो सरल होबऽवला हिसाबसँ वर्ण-विन्यास मिलाओल गेल अछि। वर्तमान समयमे मैथिली मातृभाषीपर्यन्तकेँ आन भाषाक माध्यमसँ मैथिलीक ज्ञान लेबऽ पड़िरहल परिप्रेक्ष्यमे लेखनमे सहजता तथा एकरूपतापर ध्यान देल गेल अछि। तखन मैथिली भाषाक मूल विशेषतासभ कुण्ठित नहि होइक, ताहूदिस लेखक-मण्डल सचेत अछि। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डा. रामावतार यादवक कहब छनि जे सरलताक अनुसन्धानमे एहन अवस्था किन्नहु ने आबऽ देबाक चाही जे भाषाक विशेषता छाँहमे पडि जाए।
-(भाषाशास्त्री डा. रामावतार यादवक धारणाकेँ पूर्ण रूपसँ सङ्ग लऽ निर्धारित)
2. मैथिली अकादमी, पटना द्वारा निर्धारित मैथिली लेखन-शैली
1. जे शब्द मैथिली-साहित्यक प्राचीन कालसँ आइ धरि जाहि वर्त्तनीमे प्रचलित अछि, से सामान्यतः ताहि वर्त्तनीमे लिखल जाय- उदाहरणार्थ-
ग्राह्य
एखन
ठाम
जकर,तकर
तनिकर
अछि
अग्राह्य
अखन,अखनि,एखेन,अखनी
ठिमा,ठिना,ठमा
जेकर, तेकर
तिनकर।(वैकल्पिक रूपेँ ग्राह्य)
ऐछ, अहि, ए।
2. निम्नलिखित तीन प्रकारक रूप वैक्लपिकतया अपनाओल जाय:भ गेल, भय गेल वा भए गेल। जा रहल अछि, जाय रहल अछि, जाए रहल अछि। कर’ गेलाह, वा करय गेलाह वा करए गेलाह।
3. प्राचीन मैथिलीक ‘न्ह’ ध्वनिक स्थानमे ‘न’ लिखल जाय सकैत अछि यथा कहलनि वा कहलन्हि।
4. ‘ऐ’ तथा ‘औ’ ततय लिखल जाय जत’ स्पष्टतः ‘अइ’ तथा ‘अउ’ सदृश उच्चारण इष्ट हो। यथा- देखैत, छलैक, बौआ, छौक इत्यादि।
5. मैथिलीक निम्नलिखित शब्द एहि रूपे प्रयुक्त होयत:जैह,सैह,इएह,ओऐह,लैह तथा दैह।
6. ह्र्स्व इकारांत शब्दमे ‘इ’ के लुप्त करब सामान्यतः अग्राह्य थिक। यथा- ग्राह्य देखि आबह, मालिनि गेलि (मनुष्य मात्रमे)।
7. स्वतंत्र ह्रस्व ‘ए’ वा ‘य’ प्राचीन मैथिलीक उद्धरण आदिमे तँ यथावत राखल जाय, किंतु आधुनिक प्रयोगमे वैकल्पिक रूपेँ ‘ए’ वा ‘य’ लिखल जाय। यथा:- कयल वा कएल, अयलाह वा अएलाह, जाय वा जाए इत्यादि।
8. उच्चारणमे दू स्वरक बीच जे ‘य’ ध्वनि स्वतः आबि जाइत अछि तकरा लेखमे स्थान वैकल्पिक रूपेँ देल जाय। यथा- धीआ, अढ़ैआ, विआह, वा धीया, अढ़ैया, बियाह।
9. सानुनासिक स्वतंत्र स्वरक स्थान यथासंभव ‘ञ’ लिखल जाय वा सानुनासिक स्वर। यथा:- मैञा, कनिञा, किरतनिञा वा मैआँ, कनिआँ, किरतनिआँ।
10. कारकक विभक्त्तिक निम्नलिखित रूप ग्राह्य:-हाथकेँ, हाथसँ, हाथेँ, हाथक, हाथमे। ’मे’ मे अनुस्वार सर्वथा त्याज्य थिक। ‘क’ क वैकल्पिक रूप ‘केर’ राखल जा सकैत अछि।
11. पूर्वकालिक क्रियापदक बाद ‘कय’ वा ‘कए’ अव्यय वैकल्पिक रूपेँ लगाओल जा सकैत अछि। यथा:- देखि कय वा देखि कए।
12. माँग, भाँग आदिक स्थानमे माङ, भाङ इत्यादि लिखल जाय।
13. अर्द्ध ‘न’ ओ अर्द्ध ‘म’ क बदला अनुसार नहि लिखल जाय, किंतु छापाक सुविधार्थ अर्द्ध ‘ङ’ , ‘ञ’, तथा ‘ण’ क बदला अनुस्वारो लिखल जा सकैत अछि। यथा:- अङ्क, वा अंक, अञ्चल वा अंचल, कण्ठ वा कंठ।
14. हलंत चिह्न नियमतः लगाओल जाय, किंतु विभक्तिक संग अकारांत प्रयोग कएल जाय। यथा:- श्रीमान्, किंतु श्रीमानक।
15. सभ एकल कारक चिह्न शब्दमे सटा क’ लिखल जाय, हटा क’ नहि, संयुक्त विभक्तिक हेतु फराक लिखल जाय, यथा घर परक।
16. अनुनासिककेँ चन्द्रबिन्दु द्वारा व्यक्त कयल जाय। परंतु मुद्रणक सुविधार्थ हि समान जटिल मात्रा पर अनुस्वारक प्रयोग चन्द्रबिन्दुक बदला कयल जा सकैत अछि। यथा- हिँ केर बदला हिं।
17. पूर्ण विराम पासीसँ ( । ) सूचित कयल जाय।
18. समस्त पद सटा क’ लिखल जाय, वा हाइफेनसँ जोड़ि क’ , हटा क’ नहि।
19. लिअ तथा दिअ शब्दमे बिकारी (ऽ) नहि लगाओल जाय।
20. अंक देवनागरी रूपमे राखल जाय।
21.किछु ध्वनिक लेल नवीन चिन्ह बनबाओल जाय। जा' ई नहि बनल अछि ताबत एहि दुनू ध्वनिक बदला पूर्ववत् अय/ आय/ अए/ आए/ आओ/ अओ लिखल जाय। आकि ऎ वा ऒ सँ व्यक्त कएल जाय।
ह./- गोविन्द झा ११/८/७६ श्रीकान्त ठाकुर ११/८/७६ सुरेन्द्र झा "सुमन" ११/०८/७६
VIDEHA FOR NON-RESIDENT MAITHILS(Festivals of Mithila date-list)
8.VIDEHA FOR NON RESIDENTS
8.1.Original poem in Maithili by Gajendra Thakur Translated into English by Lucy Gracy from New York
8.2. Original Maithili Poem by Sh.Ramlochan Thakur, translated by Gajendra Thakur
DATE-LIST (year- 2009-10)
(१४१७ साल)
Marriage Days:
Nov.2009- 19, 22, 23, 27
May 2010- 28, 30
June 2010- 2, 3, 6, 7, 9, 13, 17, 18, 20, 21,23, 24, 25, 27, 28, 30
July 2010- 1, 8, 9, 14
Upanayana Days: June 2010- 21,22
Dviragaman Din:
November 2009- 18, 19, 23, 27, 29
December 2009- 2, 4, 6
Feb 2010- 15, 18, 19, 21, 22, 24, 25
March 2010- 1, 4, 5
Mundan Din:
November 2009- 18, 19, 23
December 2009- 3
Jan 2010- 18, 22
Feb 2010- 3, 15, 25, 26
March 2010- 3, 5
June 2010- 2, 21
July 2010- 1
FESTIVALS OF MITHILA
Mauna Panchami-12 July
Madhushravani-24 July
Nag Panchami-26 Jul
Raksha Bandhan-5 Aug
Krishnastami-13-14 Aug
Kushi Amavasya- 20 August
Hartalika Teej- 23 Aug
ChauthChandra-23 Aug
Karma Dharma Ekadashi-31 August
Indra Pooja Aarambh- 1 September
Anant Caturdashi- 3 Sep
Pitri Paksha begins- 5 Sep
Jimootavahan Vrata/ Jitia-11 Sep
Matri Navami- 13 Sep
Vishwakarma Pooja-17Sep
Kalashsthapan-19 Sep
Belnauti- 24 September
Mahastami- 26 Sep
Maha Navami - 27 September
Vijaya Dashami- 28 September
Kojagara- 3 Oct
Dhanteras- 15 Oct
Chaturdashi-27 Oct
Diyabati/Deepavali/Shyama Pooja-17 Oct
Annakoota/ Govardhana Pooja-18 Oct
Bhratridwitiya/ Chitragupta Pooja-20 Oct
Chhathi- -24 Oct
Akshyay Navami- 27 Oct
Devotthan Ekadashi- 29 Oct
Kartik Poornima/ Sama Bisarjan- 2 Nov
Somvari Amavasya Vrata-16 Nov
Vivaha Panchami- 21 Nov
Ravi vrat arambh-22 Nov
Navanna Parvana-25 Nov
Naraknivaran chaturdashi-13 Jan
Makara/ Teela Sankranti-14 Jan
Basant Panchami/ Saraswati Pooja- 20 Jan
Mahashivaratri-12 Feb
Fagua-28 Feb
Holi-1 Mar
Ram Navami-24 March
Mesha Sankranti-Satuani-14 April
Jurishital-15 April
Ravi Brat Ant-25 April
Akshaya Tritiya-16 May
Janaki Navami- 22 May
Vat Savitri-barasait-12 June
Ganga Dashhara-21 June
Hari Sayan Ekadashi- 21 Jul
Guru Poornima-25 Jul
Original poem in Maithili by Gajendra Thakur
Translated into English by Lucy Gracy from New York
Gajendra Thakur (b. 1971) is the editor of Maithili ejournal “Videha” that can be viewed at http://www.videha.co.in/ . His poem, story, novel, research articles, epic – all in Maithili language are lying scattered and is in print in single volume by the title “KurukShetram.” He can be reached at his email: ggajendra@airtelmail.in
A Trial To Follow The Movements Of The Fishing Rod
The diving along the fishing rod was tried
With wings of reels of aspiration
The support by tackle to succeed
A pin drop silence of indefinite wait
The bottom of the still water so bleak
The insects passing bring movements
A light of faith and hope in creek
Stands holding the fishing rod to catch in the path
From an end of superstitions towards the science indeed
Hook attached with the food of knowledge
The waiting ended and a divine peace
The turtle are not present
Couldn’t see the hurdles He had made
The two forms of baby life
Could hold the rod only when fish increased
The reels of desire and tackle of success
The food of knowledge
In the middle of endless sky
The mechanics of life proceed
The peaceful speechless human
The waves of feelings touched
Filled his heart with sensitive feelings
Used to lack emotions always
In these Thirty Seven Years
(Original Maithili Poem by Sh.Ramlochan Thakur, translated by Gajendra Thakur)
And
He Sumbles
The tring-tring machine in his hand
is speechless
Beside
coming from shop
sound of Radio
President's speech
addressed to Nation
accounting of progress
of independence
on 37th anniversary
"thirty seven years!"
he exhales
From today
exactly 37 years
He came to Kolkata
He remembers exactly
like tape of Cinema
all events
in front of eye
dancing
one day
in darkness of night
when all the village was silent
came jostling
around forty policemen
surrounded
his house
broke wooden house gate
and
took his father away.
This talk although
he knew later on
that his father
was in Swarajya Party
and the landlord of his village
Satlaren Babu
had hand in his catch
who
was with police
and that
he saw with his eye
then
after around six months
one day he listened
'country has become independent
Swarajya Party has won'
and
that day he felt
ecstatic
People said that
his father would be freed from jail
he too
would come to village
but
day after day
month after month
passed
his father
did not return.
and Satlarem Babu
on that occasion
went to Delhi
people say
became minister
and in that very year
during Agham month
his maternal uncle
visited village
brought along
him
"Sister-fucker,
you have made this a Ricksaw-stand.."
and
instantly his leg is beaten
with a stick
he becomes uneasy
sees his leg
how thin it has become
in these thirty seven years-
in these thirty seven years-his bone
has become naked
in these thirty seven years-
in these thirty seven years-his waist has leaned so much,
in these thirty seven years-
in these thirty seven years
stick of policeman has become so particular
in these thirty seven years-
in these thirty seven years-his abuses has become so crude
and
his leg
moves subconsciously
tring-
tring
"where?
come here"
and
police pushes he almost fells
in front is policestation
that day when he came
to Kolkata
this policestation was not there
he was the only one from his village
now around forty
some with cart pulling
some with Ricksaw
and som like Coolie
this time
he visited his village
all the tola of Dusadh emptyno one male member there
likewise as happened that time
when
his father
was taken away
whole of Dusadhtoli
fled
although
this time
people
did not fear did not fled village
due to hunger of belly
fled to
Delhi
Punjab
he thinks
in these thirty seven years
so many Tolas
so many villages
became sort of people
in these thirty seven years so many young and bold
left their
own
their village-home
in these thirty seven years
in these thirty seven years bread has become dearer
in these thirty seven years
in these thirty seven years labour has become cheaper
in these thirty seven years
now in these thirty seven years policestations are in plenty
in these thirty seven years...
"sister-fucker, vomit five rupees"
"from where sir
from morning only two rupees i have earned,
I do have license.."
"License bastard.."
and
a powerful slap
on his temple
he feels drowsy
fells
darkness in front of his eyes
his purse around his waist
swings in policeman's hand
his hard-earned money
two rupees
swings in policeman's hand
Policeman laughs
beside
sound of Radio from shop
presidential address
addressed to nation
account of progress
of independence
on thirtysevent anniversary
Ricksawpuller
still senseless fallen
around him
is darkness
complete darkness.
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महत्त्वपूर्ण सूचना:(१) 'विदेह' द्वारा धारावाहिक रूपे ई-प्रकाशित कएल गेल गजेन्द्र ठाकुरक निबन्ध-प्रबन्ध-समीक्षा, उपन्यास (सहस्रबाढ़नि) , पद्य-संग्रह (सहस्राब्दीक चौपड़पर), कथा-गल्प (गल्प-गुच्छ), नाटक(संकर्षण), महाकाव्य (त्वञ्चाहञ्च आ असञ्जाति मन) आ बाल-किशोर साहित्य विदेहमे संपूर्ण ई-प्रकाशनक बाद प्रिंट फॉर्ममे। कुरुक्षेत्रम्–अन्तर्मनक खण्ड-१ सँ ७ Combined ISBN No.978-81-907729-7-6 विवरण एहि पृष्ठपर नीचाँमे आ प्रकाशकक साइटhttp://www.shruti-publication.com/ पर।
महत्त्वपूर्ण सूचना (२):सूचना: विदेहक मैथिली-अंग्रेजी आ अंग्रेजी मैथिली कोष (इंटरनेटपर पहिल बेर सर्च-डिक्शनरी) एम.एस. एस.क्यू.एल. सर्वर आधारित -Based on ms-sql server Maithili-English and English-Maithili Dictionary. विदेहक भाषापाक- रचनालेखन स्तंभमे।
कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक- गजेन्द्र ठाकुर
गजेन्द्र ठाकुरक निबन्ध-प्रबन्ध-समीक्षा, उपन्यास (सहस्रबाढ़नि) , पद्य-संग्रह (सहस्राब्दीक चौपड़पर), कथा-गल्प (गल्प गुच्छ), नाटक(संकर्षण), महाकाव्य (त्वञ्चाहञ्च आ असञ्जाति मन) आ बालमंडली-किशोरजगत विदेहमे संपूर्ण ई-प्रकाशनक बाद प्रिंट फॉर्ममे। कुरुक्षेत्रम्–अन्तर्मनक, खण्ड-१ सँ ७
Ist edition 2009 of Gajendra Thakur’s KuruKshetram-Antarmanak (Vol. I to VII)- essay-paper-criticism, novel, poems, story, play, epics and Children-grown-ups literature in single binding:
Language:Maithili
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विदेह: सदेह : १ : तिरहुता : देवनागरी
"विदेह" क २५म अंक १ जनवरी २००९, प्रिंट संस्करण :विदेह-ई-पत्रिकाक पहिल २५ अंकक चुनल रचना सम्मिलित।
विदेह: प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/
विदेह: वर्ष:2, मास:13, अंक:25 (विदेह:सदेह:१)
सम्पादक: गजेन्द्र ठाकुर; सहायक-सम्पादक: श्रीमती रश्मि रेखा सिन्हा
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इतिहास : संयोग और सार्थकता : सुरेन्द्र चौधरी
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हिंदी कहानी : रचना और परिस्थिति : सुरेन्द्र चौधरी
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साधारण की प्रतिज्ञा : अंधेरे से साक्षात्कार : सुरेन्द्र चौधरी
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बादल सरकार : जीवन और रंगमंच : अशोक भौमिक
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मोलारूज़ : पियैर ला मूर अनुवाद : सुनीता जैन
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धूँधली यादें और सिसकते ज़ख्म : निसार अहमद
जगधर की प्रेम कथा : हरिओम
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२. संदेश-
[ विदेह ई-पत्रिका, विदेह:सदेह मिथिलाक्षर आ देवनागरी आ गजेन्द्र ठाकुरक सात खण्डक- निबन्ध-प्रबन्ध-समीक्षा, उपन्यास (सहस्रबाढ़नि) , पद्य-संग्रह (सहस्राब्दीक चौपड़पर), कथा-गल्प (गल्प गुच्छ), नाटक (संकर्षण), महाकाव्य (त्वञ्चाहञ्च आ असञ्जाति मन) आ बाल-मंडली-किशोर जगत- संग्रह कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक मादेँ। ]
१.श्री गोविन्द झा- विदेहकेँ तरंगजालपर उतारि विश्वभरिमे मातृभाषा मैथिलीक लहरि जगाओल, खेद जे अपनेक एहि महाभियानमे हम एखन धरि संग नहि दए सकलहुँ। सुनैत छी अपनेकेँ सुझाओ आ रचनात्मक आलोचना प्रिय लगैत अछि तेँ किछु लिखक मोन भेल। हमर सहायता आ सहयोग अपनेकेँ सदा उपलब्ध रहत।
२.श्री रमानन्द रेणु- मैथिलीमे ई-पत्रिका पाक्षिक रूपेँ चला कऽ जे अपन मातृभाषाक प्रचार कऽ रहल छी, से धन्यवाद । आगाँ अपनेक समस्त मैथिलीक कार्यक हेतु हम हृदयसँ शुभकामना दऽ रहल छी।
३.श्री विद्यानाथ झा "विदित"- संचार आ प्रौद्योगिकीक एहि प्रतिस्पर्धी ग्लोबल युगमे अपन महिमामय "विदेह"कँु अपना देहमे प्रकट देखि जतबा प्रसन्नता आ संतोष भेल,तकरा कोनो उपलब्ध "मीटर"सँ नहि नापल जा सकैछ? ..एकर ऐतिहासिक मूल्यांकन आ सांस्कृतिक प्रतिफलन एहि शताब्दीक अंत धरि लोकक नजरिमे आश्चर्यजनक रूपसँ प्रकट हैत।
४. प्रो. उदय नारायण सिंह "नचिकेता"- जे काज अहाँ कए रहल छी तकर चरचा एक दिन मैथिली भाषाक इतिहासमे होएत। आनन्द भए रहल अछि, ई जानि कए जे एतेक गोट मैथिल "विदेह" ई जर्नलकेँ पढ़ि रहल छथि।...विदेहक चालीसम अंक पुरबाक लेल अभिनन्दन।
५. डॉ. गंगेश गुंजन- एहि विदेह-कर्ममे लागि रहल अहाँक सम्वेदनशील मन, मैथिलीक प्रति समर्पित मेहनतिक अमृत रंग, इतिहास मे एक टा विशिष्ट फराक अध्याय आरंभ करत, हमरा विश्वास अछि। अशेष शुभकामना आ बधाइक सङ्ग, सस्नेह...अहाँक पोथीकुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक प्रथम दृष्टया बहुत भव्य तथा उपयोगी बुझाइछ। मैथिलीमे तँ अपना स्वरूपक प्रायः ई पहिले एहन भव्य अवतारक पोथी थिक। हर्षपूर्ण हमर हार्दिक बधाई स्वीकार करी।
६. श्री रामाश्रय झा "रामरंग"(आब स्वर्गीय)- "अपना" मिथिलासँ संबंधित...विषय वस्तुसँ अवगत भेलहुँ।...शेष सभ कुशल अछि।
७. श्री ब्रजेन्द्र त्रिपाठी- साहित्य अकादमी- इंटरनेट पर प्रथम मैथिली पाक्षिक पत्रिका "विदेह" केर लेल बधाई आ शुभकामना स्वीकार करू।
८. श्री प्रफुल्लकुमार सिंह "मौन"- प्रथम मैथिली पाक्षिक पत्रिका "विदेह" क प्रकाशनक समाचार जानि कनेक चकित मुदा बेसी आह्लादित भेलहुँ। कालचक्रकेँ पकड़ि जाहि दूरदृष्टिक परिचय देलहुँ, ओहि लेल हमर मंगलकामना।
९.डॉ. शिवप्रसाद यादव- ई जानि अपार हर्ष भए रहल अछि, जे नव सूचना-क्रान्तिक क्षेत्रमे मैथिली पत्रकारिताकेँ प्रवेश दिअएबाक साहसिक कदम उठाओल अछि। पत्रकारितामे एहि प्रकारक नव प्रयोगक हम स्वागत करैत छी, संगहि "विदेह"क सफलताक शुभकामना।
१०. श्री आद्याचरण झा- कोनो पत्र-पत्रिकाक प्रकाशन- ताहूमे मैथिली पत्रिकाक प्रकाशनमे के कतेक सहयोग करताह- ई तऽ भविष्य कहत। ई हमर ८८ वर्षमे ७५ वर्षक अनुभव रहल। एतेक पैघ महान यज्ञमे हमर श्रद्धापूर्ण आहुति प्राप्त होयत- यावत ठीक-ठाक छी/ रहब।
११. श्री विजय ठाकुर- मिशिगन विश्वविद्यालय- "विदेह" पत्रिकाक अंक देखलहुँ, सम्पूर्ण टीम बधाईक पात्र अछि। पत्रिकाक मंगल भविष्य हेतु हमर शुभकामना स्वीकार कएल जाओ।
१२. श्री सुभाषचन्द्र यादव- ई-पत्रिका "विदेह" क बारेमे जानि प्रसन्नता भेल। ’विदेह’निरन्तर पल्लवित-पुष्पित हो आ चतुर्दिक अपन सुगंध पसारय से कामना अछि।
१३. श्री मैथिलीपुत्र प्रदीप- ई-पत्रिका "विदेह" केर सफलताक भगवतीसँ कामना। हमर पूर्ण सहयोग रहत।
१४. डॉ. श्री भीमनाथ झा- "विदेह" इन्टरनेट पर अछि तेँ "विदेह" नाम उचित आर कतेक रूपेँ एकर विवरण भए सकैत अछि। आइ-काल्हि मोनमे उद्वेग रहैत अछि, मुदा शीघ्र पूर्ण सहयोग देब।कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक देखि अति प्रसन्नता भेल। मैथिलीक लेल ई घटना छी।
१५. श्री रामभरोस कापड़ि "भ्रमर"- जनकपुरधाम- "विदेह" ऑनलाइन देखि रहल छी। मैथिलीकेँ अन्तर्राष्ट्रीय जगतमे पहुँचेलहुँ तकरा लेल हार्दिक बधाई। मिथिला रत्न सभक संकलन अपूर्व। नेपालोक सहयोग भेटत, से विश्वास करी।
१६. श्री राजनन्दन लालदास- "विदेह" ई-पत्रिकाक माध्यमसँ बड़ नीक काज कए रहल छी, नातिक अहिठाम देखलहुँ। एकर वार्षिक अंक जखन प्रिंट निकालब तँ हमरा पठायब। कलकत्तामे बहुत गोटेकेँ हम साइटक पता लिखाए देने छियन्हि। मोन तँ होइत अछि जे दिल्ली आबि कए आशीर्वाद दैतहुँ, मुदा उमर आब बेशी भए गेल। शुभकामना देश-विदेशक मैथिलकेँ जोड़बाक लेल।.. उत्कृष्ट प्रकाशन कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक लेल बधाई। अद्भुत काज कएल अछि, नीक प्रस्तुति अछि सात खण्डमे। ..सुभाष चन्द्र यादवक कथापर अहाँक आमुखक पहिल दस पं क्तिमे आ आगाँ हिन्दी, उर्दू तथा अंग्रेजी शब्द अछि (बेबाक, आद्योपान्त, फोकलोर..)..लोक नहि कहत जे चालनि दुशलनि बाढ़निकेँ जिनका अपना बहत्तरि टा भूर!..( स्पष्टीकरण- दास जी द्वारा उद्घृत अंश यादवजीक कथा संग्रह बनैत-बिगड़ैतक आमुख १ जे कैलास कुमार मिश्रजी द्वारा लिखल गेल अछि-हमरा द्वारा नहि- केँ संबोधित करैत अछि। मैथिलीमे उपरझपकी पढ़ि लिखबाक जे परम्परा रहल अछि तकर ई एकटा उदाहरण अछि। कैलासजीक सम्पूर्ण आमुख हम पढ़ने छी आ ओ अपन विषयक विशेषज्ञ छथि आ हुनका प्रति कएल अपशब्दक प्रयोगक हम भर्त्सना करैत छी-गजेन्द्र ठाकुर)...अहाँक मंतव्य क्यो चित्रगुप्त सभा खोलि मणिपद्मकेँ बेचि रहल छथि तँ क्यो मैथिल (ब्राह्मण) सभा खोलि सुमनजीक व्यापारमे लागल छथि-मणिपद्म आ सुमनजीक आरिमे अपन धंधा चमका रहल छथि आ मणिपद्म आ सुमनजीकेँ अपमानित कए रहल छथि।..तखन लोक तँ कहबे करत जेअपन घेघ नहि सुझैत छन्हि, लोकक टेटर आ से बिना देखनहि, अधलाह लागैत छनि..(स्पष्टीकरण-क्यो नाटक लिखथि आ ओहि नाटकक खलनायकसँ क्यो अपनाकेँ चिन्हित कए नाटककारकेँ गारि पढ़थि तँ तकरा की कहब। जे क्यो मराठीमे चितपावन ब्राह्मण समितिक पत्रिकामे-जकर भाषा अवश्ये मराठी रहत- ई लिखए जे ओ एहि पत्रिकाक माध्यमसँ मराठी भाषाक सेवा कए रहल छथि तँ ओ अपनाकेँ मराठीभाषी पाठक मध्य अपनाकेँ हास्यास्पदे बना लेत- कारण सभकेँ बुझल छैक जे ओ मुखपत्र एकटा वर्गक सेवाक लेल अछि। ओना मैथिलीमे एहि तरहक मैथिली सेवक लोकनिक अभाव नहि ओ लोकनि २१म शताब्दीमे रहितो एहि तरहक विचारधारासँ ग्रस्त छथि आ उनटे दोसराक मादेँ अपशब्दक प्रयोग करैत छथि-सम्पादक)...ओना अहाँ तँ अपनहुँ बड़ पैघ धंधा कऽ रहल छी। मात्र सेवा आ से निःस्वार्थ तखन बूझल जाइत जँ अहाँ द्वारा प्रकाशित पोथी सभपर दाम लिखल नहि रहितैक। ओहिना सभकेँ विलहि देल जइतैक।( स्पष्टीकरण- श्रीमान्, अहाँक सूचनार्थ- विदेह द्वारा ई-प्रकाशित कएल सभटा सामग्री आर्काइवमे http://www.videha.co.in/ पर बिना मूल्यक डाउनलोड लेल उपलब्ध छै आ भविष्यमे सेहो रहतैक। एहि आर्काइवकेँ जे कियो प्रकाशक अनुमति लऽ कऽ प्रिंट रूपमे प्रकाशित कएने छथि आ तकर ओ दाम रखने छथि आ किएक रखने छथि वा आगाँसँ दाम नहि राखथु- ई सभटा परामर्श अहाँ प्रकाशककेँ पत्र/ ई-पत्र द्वारा पठा सकै छियन्हि।- गजेन्द्र ठाकुर)... अहाँक प्रति अशेष शुभकामनाक संग।
१७. डॉ. प्रेमशंकर सिंह- अहाँ मैथिलीमे इंटरनेटपर पहिल पत्रिका "विदेह" प्रकाशित कए अपन अद्भुत मातृभाषानुरागक परिचय देल अछि, अहाँक निःस्वार्थ मातृभाषानुरागसँ प्रेरित छी, एकर निमित्त जे हमर सेवाक प्रयोजन हो, तँ सूचित करी। इंटरनेटपर आद्योपांत पत्रिका देखल, मन प्रफुल्लित भऽ गेल।
१८.श्रीमती शेफालिका वर्मा- विदेह ई-पत्रिका देखि मोन उल्लाससँ भरि गेल। विज्ञान कतेक प्रगति कऽ रहल अछि...अहाँ सभ अनन्त आकाशकेँ भेदि दियौ, समस्त विस्तारक रहस्यकेँ तार-तार कऽ दियौक...। अपनेक अद्भुत पुस्तक कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक विषयवस्तुक दृष्टिसँ गागरमे सागर अछि। बधाई।
१९.श्री हेतुकर झा, पटना-जाहि समर्पण भावसँ अपने मिथिला-मैथिलीक सेवामे तत्पर छी से स्तुत्य अछि। देशक राजधानीसँ भय रहल मैथिलीक शंखनाद मिथिलाक गाम-गाममे मैथिली चेतनाक विकास अवश्य करत।
२०. श्री योगानन्द झा, कबिलपुर, लहेरियासराय- कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक पोथीकेँ निकटसँ देखबाक अवसर भेटल अछि आ मैथिली जगतक एकटा उद्भट ओ समसामयिक दृष्टिसम्पन्न हस्ताक्षरक कलमबन्द परिचयसँ आह्लादित छी। "विदेह"क देवनागरी सँस्करण पटनामे रु. 80/- मे उपलब्ध भऽ सकल जे विभिन्न लेखक लोकनिक छायाचित्र, परिचय पत्रक ओ रचनावलीक सम्यक प्रकाशनसँ ऐतिहासिक कहल जा सकैछ।
२१. श्री किशोरीकान्त मिश्र- कोलकाता- जय मैथिली, विदेहमे बहुत रास कविता, कथा, रिपोर्ट आदिक सचित्र संग्रह देखि आ आर अधिक प्रसन्नता मिथिलाक्षर देखि- बधाई स्वीकार कएल जाओ।
२२.श्री जीवकान्त- विदेहक मुद्रित अंक पढ़ल- अद्भुत मेहनति। चाबस-चाबस। किछु समालोचना मरखाह..मुदा सत्य।
२३. श्री भालचन्द्र झा- अपनेक कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक देखि बुझाएल जेना हम अपने छपलहुँ अछि। एकर विशालकाय आकृति अपनेक सर्वसमावेशताक परिचायक अछि। अपनेक रचना सामर्थ्यमे उत्तरोत्तर वृद्धि हो, एहि शुभकामनाक संग हार्दिक बधाई।
२४.श्रीमती डॉ नीता झा- अहाँक कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक पढ़लहुँ। ज्योतिरीश्वर शब्दावली, कृषि मत्स्य शब्दावली आ सीत बसन्त आ सभ कथा, कविता, उपन्यास, बाल-किशोर साहित्य सभ उत्तम छल। मैथिलीक उत्तरोत्तर विकासक लक्ष्य दृष्टिगोचर होइत अछि।
२५.श्री मायानन्द मिश्र- कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक हमर उपन्यास स्त्रीधनक विरोधक हम विरोध करैत छी।... कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक पोथीक लेल शुभकामना।(श्रीमान् समालोचनाकेँ विरोधक रूपमे नहि लेल जाए। ओना अहाँक मंत्रपुत्र हिन्दीसँ मैथिलीमे अनूदित भेल, जे जीवकांत जी अपन आलेखमे कहै छथि। एहि अनूदित मंत्रपुत्रकेँ साहित्य अकादमी पुरस्कार देल गेल, सेहो अनुवाद पुरस्कार नहि मूल पुरस्कार, जे साहित्य अकादमीक निअमक विरुद्ध रहए। ओना मैथिली लेल ई एकमात्र उदाहरण नहि अछि। एकर अहाँ कोन रूपमे विरोध करब?)
२६.श्री महेन्द्र हजारी- सम्पादक श्रीमिथिला- कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक पढ़ि मोन हर्षित भऽ गेल..एखन पूरा पढ़यमे बहुत समय लागत, मुदा जतेक पढ़लहुँ से आह्लादित कएलक।
२७.श्री केदारनाथ चौधरी- कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक अद्भुत लागल, मैथिली साहित्य लेल ई पोथी एकटा प्रतिमान बनत।
२८.श्री सत्यानन्द पाठक- विदेहक हम नियमित पाठक छी। ओकर स्वरूपक प्रशंसक छलहुँ। एम्हर अहाँक लिखल - कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक देखलहुँ। मोन आह्लादित भऽ उठल। कोनो रचना तरा-उपरी।
२९.श्रीमती रमा झा-सम्पादक मिथिला दर्पण। कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक प्रिंट फॉर्म पढ़ि आ एकर गुणवत्ता देखि मोन प्रसन्न भऽ गेल, अद्भुत शब्द एकरा लेल प्रयुक्त कऽ रहल छी। विदेहक उत्तरोत्तर प्रगतिक शुभकामना।
३०.श्री नरेन्द्र झा, पटना- विदेह नियमित देखैत रहैत छी। मैथिली लेल अद्भुत काज कऽ रहल छी।
३१.श्री रामलोचन ठाकुर- कोलकाता- मिथिलाक्षर विदेह देखि मोन प्रसन्नतासँ भरि उठल, अंकक विशाल परिदृश्य आस्वस्तकारी अछि।
३२.श्री तारानन्द वियोगी- विदेह आ कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक देखि चकबिदोर लागि गेल। आश्चर्य। शुभकामना आ बधाई।
३३.श्रीमती प्रेमलता मिश्र “प्रेम”- कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक पढ़लहुँ। सभ रचना उच्चकोटिक लागल। बधाई।
३४.श्री कीर्तिनारायण मिश्र- बेगूसराय- कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक बड्ड नीक लागल, आगांक सभ काज लेल बधाई।
३५.श्री महाप्रकाश-सहरसा- कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक नीक लागल, विशालकाय संगहि उत्तमकोटिक।
३६.श्री अग्निपुष्प- मिथिलाक्षर आ देवाक्षर विदेह पढ़ल..ई प्रथम तँ अछि एकरा प्रशंसामे मुदा हम एकरा दुस्साहसिक कहब। मिथिला चित्रकलाक स्तम्भकेँ मुदा अगिला अंकमे आर विस्तृत बनाऊ।
३७.श्री मंजर सुलेमान-दरभंगा- विदेहक जतेक प्रशंसा कएल जाए कम होएत। सभ चीज उत्तम।
३८.श्रीमती प्रोफेसर वीणा ठाकुर- कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक उत्तम, पठनीय, विचारनीय। जे क्यो देखैत छथि पोथी प्राप्त करबाक उपाय पुछैत छथि। शुभकामना।
३९.श्री छत्रानन्द सिंह झा- कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक पढ़लहुँ, बड्ड नीक सभ तरहेँ।
४०.श्री ताराकान्त झा- सम्पादक मैथिली दैनिक मिथिला समाद- विदेह तँ कन्टेन्ट प्रोवाइडरक काज कऽ रहल अछि। कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक अद्भुत लागल।
४१.डॉ रवीन्द्र कुमार चौधरी- कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक बहुत नीक, बहुत मेहनतिक परिणाम। बधाई।
४२.श्री अमरनाथ- कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक आ विदेह दुनू स्मरणीय घटना अछि, मैथिली साहित्य मध्य।
४३.श्री पंचानन मिश्र- विदेहक वैविध्य आ निरन्तरता प्रभावित करैत अछि, शुभकामना।
४४.श्री केदार कानन- कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक लेल अनेक धन्यवाद, शुभकामना आ बधाइ स्वीकार करी। आ नचिकेताक भूमिका पढ़लहुँ। शुरूमे तँ लागल जेना कोनो उपन्यास अहाँ द्वारा सृजित भेल अछि मुदा पोथी उनटौला पर ज्ञात भेल जे एहिमे तँ सभ विधा समाहित अछि।
४५.श्री धनाकर ठाकुर- अहाँ नीक काज कऽ रहल छी। फोटो गैलरीमे चित्र एहि शताब्दीक जन्मतिथिक अनुसार रहैत तऽ नीक।
४६.श्री आशीष झा- अहाँक पुस्तकक संबंधमे एतबा लिखबा सँ अपना कए नहि रोकि सकलहुँ जे ई किताब मात्र किताब नहि थीक, ई एकटा उम्मीद छी जे मैथिली अहाँ सन पुत्रक सेवा सँ निरंतर समृद्ध होइत चिरजीवन कए प्राप्त करत।
४७.श्री शम्भु कुमार सिंह- विदेहक तत्परता आ क्रियाशीलता देखि आह्लादित भऽ रहल छी। निश्चितरूपेण कहल जा सकैछ जे समकालीन मैथिली पत्रिकाक इतिहासमे विदेहक नाम स्वर्णाक्षरमे लिखल जाएत। ओहि कुरुक्षेत्रक घटना सभ तँ अठारहे दिनमे खतम भऽ गेल रहए मुदा अहाँक कुरुक्षेत्रम् तँ अशेष अछि।
४८.डॉ. अजीत मिश्र- अपनेक प्रयासक कतबो प्रशंकसा कएल जाए कमे होएतैक। मैथिली साहित्यमे अहाँ द्वारा कएल गेल काज युग-युगान्तर धरि पूजनीय रहत।
४९.श्री बीरेन्द्र मल्लिक- अहाँक कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक आ विदेह:सदेह पढ़ि अति प्रसन्नता भेल। अहाँक स्वास्थ्य ठीक रहए आ उत्साह बनल रहए से कामना।
५०.श्री कुमार राधारमण- अहाँक दिशा-निर्देशमे विदेह पहिल मैथिली ई-जर्नल देखि अति प्रसन्नता भेल। हमर शुभकामना।
५१.श्री फूलचन्द्र झा प्रवीण-विदेह:सदेह पढ़ने रही मुदा कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक देखि बढ़ाई देबा लेल बाध्य भऽ गेलहुँ। आब विश्वास भऽ गेल जे मैथिली नहि मरत। अशेष शुभकामना।
५२.श्री विभूति आनन्द- विदेह:सदेह देखि, ओकर विस्तार देखि अति प्रसन्नता भेल।
५३.श्री मानेश्वर मनुज-कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक एकर भव्यता देखि अति प्रसन्नता भेल, एतेक विशाल ग्रन्थ मैथिलीमे आइ धरि नहि देखने रही। एहिना भविष्यमे काज करैत रही, शुभकामना।
५४.श्री विद्यानन्द झा- आइ.आइ.एम.कोलकाता- कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक विस्तार, छपाईक संग गुणवत्ता देखि अति प्रसन्नता भेल।
५५.श्री अरविन्द ठाकुर-कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक मैथिली साहित्यमे कएल गेल एहि तरहक पहिल प्रयोग अछि, शुभकामना।
५६.श्री कुमार पवन-कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक पढ़ि रहल छी। किछु लघुकथा पढ़ल अछि, बहुत मार्मिक छल।
५७. श्री प्रदीप बिहारी-कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक देखल, बधाई।
५८.डॉ मणिकान्त ठाकुर-कैलिफोर्निया- अपन विलक्षण नियमित सेवासँ हमरा लोकनिक हृदयमे विदेह सदेह भऽ गेल अछि।
५९.श्री धीरेन्द्र प्रेमर्षि- अहाँक समस्त प्रयास सराहनीय। दुख होइत अछि जखन अहाँक प्रयासमे अपेक्षित सहयोग नहि कऽ पबैत छी।
६०.श्री देवशंकर नवीन- विदेहक निरन्तरता आ विशाल स्वरूप- विशाल पाठक वर्ग, एकरा ऐतिहासिक बनबैत अछि।
६१.श्री मोहन भारद्वाज- अहाँक समस्त कार्य देखल, बहुत नीक। एखन किछु परेशानीमे छी, मुदा शीघ्र सहयोग देब।
६२.श्री फजलुर रहमान हाशमी-कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक मे एतेक मेहनतक लेल अहाँ साधुवादक अधिकारी छी।
६३.श्री लक्ष्मण झा "सागर"- मैथिलीमे चमत्कारिक रूपेँ अहाँक प्रवेश आह्लादकारी अछि।..अहाँकेँ एखन आर..दूर..बहुत दूरधरि जेबाक अछि। स्वस्थ आ प्रसन्न रही।
६४.श्री जगदीश प्रसाद मंडल-कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक पढ़लहुँ । कथा सभ आ उपन्याससहस्रबाढ़नि पूर्णरूपेँ पढ़ि गेल छी। गाम-घरक भौगोलिक विवरणक जे सूक्ष्म वर्णन सहस्रबाढ़निमे अछि से चकित कएलक, एहि संग्रहक कथा-उपन्यास मैथिली लेखनमे विविधता अनलक अछि।
६५.श्री अशोक झा-अध्यक्ष मिथिला विकास परिषद- कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक लेल बधाई आ आगाँ लेल शुभकामना।
६६.श्री ठाकुर प्रसाद मुर्मु- अद्भुत प्रयास। धन्यवादक संग प्रार्थना जे अपन माटि-पानिकेँ ध्यानमे राखि अंकक समायोजन कएल जाए। नव अंक धरि प्रयास सराहनीय। विदेहकेँ बहुत-बहुत धन्यवाद जे एहेन सुन्दर-सुन्दर सचार (आलेख) लगा रहल छथि। सभटा ग्रहणीय- पठनीय।
६७.बुद्धिनाथ मिश्र- प्रिय गजेन्द्र जी,अहाँक सम्पादन मे प्रकाशित ‘विदेह’आ ‘कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक’ विलक्षण पत्रिका आ विलक्षण पोथी! की नहि अछि अहाँक सम्पादनमे? एहि प्रयत्न सँ मैथिली क विकास होयत,निस्संदेह।
६८.श्री बृखेश चन्द्र लाल- गजेन्द्रजी, अपनेक पुस्तक कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक पढ़ि मोन गदगद भय गेल , हृदयसँ अनुगृहित छी । हार्दिक शुभकामना ।
६९.श्री परमेश्वर कापड़ि - श्री गजेन्द्र जी । कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनक पढ़ि गदगद आ नेहाल भेलहुँ।
७०.श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर- विदेह पढ़ैत रहैत छी। धीरेन्द्र प्रेमर्षिक मैथिली गजलपर आलेख पढ़लहुँ। मैथिली गजल कत्तऽ सँ कत्तऽ चलि गेलैक आ ओ अपन आलेखमे मात्र अपन जानल-पहिचानल लोकक चर्च कएने छथि। जेना मैथिलीमे मठक परम्परा रहल अछि। (स्पष्टीकरण- श्रीमान्, प्रेमर्षि जी ओहि आलेखमे ई स्पष्ट लिखने छथि जे किनको नाम जे छुटि गेल छन्हि तँ से मात्र आलेखक लेखकक जानकारी नहि रहबाक द्वारे, एहिमे आन कोनो कारण नहि देखल जाय। अहाँसँ एहि विषयपर विस्तृत आलेख सादर आमंत्रित अछि।-सम्पादक)
७१.श्री मंत्रेश्वर झा- विदेह पढ़ल आ संगहि अहाँक मैगनम ओपस कुरुक्षेत्रम् अंतर्मनकसेहो, अति उत्तम। मैथिलीक लेल कएल जा रहल अहाँक समस्त कार्य अतुलनीय अछि।
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पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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