भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Tuesday, December 01, 2009

'विदेह' ४६ म अंक १५ नवम्बर २००९ (वर्ष २ मास २३ अंक ४६)-PART II

जगदीश मंडल
जगदीश प्रसाद मंडल (1947- )

गाम-बेरमा, तमुरिया, जिला-मधुबनी। एम.ए.।कथाकार (गामक जिनगी-कथा संग्रह), नाटककार(मिथिलाक बेटी-नाटक), उपन्यासकार(उत्थान-पतन- उपन्यास)। मार्क्सवादक गहन अध्ययन। मुदा सीलिंगसँ बचबाक लेल कम्युनिस्ट आन्दोलनमे गेनिहार लोक सभसँ भेँट भेने मोहभंग। हिनकर कथामे गामक लोकक जिजीविषाक वर्णन आ नव दृष्टिकोण दृष्टिगोचर होइत अछि।


मौलाइल
गाछक
फूल


उपन्यास






जगदीष प्रसाद मण्डल
बेरमा, मधुबनी, बिहार।
मौलाइल गाछक फुल:ः 1
दू साल रौदीक उपरान्तक अखाढ़। गरमी स जेहने दिन ओहने राति। भरि-भरि राति बीअनि हौंकि-हौंकि लोक बितबैत। सुतली राति मे उठि-उठि पाइन पीबै पड़ैत। भोर होइते पसीना अपन उग्र रुप पकड़ि लैत। जहिना कियो ककरो मारै ले लग पहुँच जाइत तहिना सुरुजो लग आबि गेलाह। रास्ता-पेराक माटि सिमेंट जेँका सक्कत भ गेल अछि। चलबा काल पाएर पिछरैत अछि। इनार-पोखरिक पानि, अपन अस्मिता बँचवैक लेल पातालक रास्ता पकड़ि लेलक। दू साल सँ एक्को बुन्न पानि धरती पर नहि पड़ने धरतीक सुन्दरता धीरे-धीरे नष्ट हुअए लगल। पियासे दूबि सभ पाण्डुरोगी जेँका पीअर भ’-भ’ परान तियागि रहल अछि। गाछ-पात बेदरंग भ’ गेल अछि। लताम, दारीम, नारिकेल इत्यादि अनेको तरहक फलक गाछ सूखि गेल। आम, जामुन, गमहाइर, शीषोक गाछक निच्चा पातक पथार लगि गेल। दसे बजे सँ बाध मे लू चलै लगैत अछि। नमहर-नमहर दरारि फाटि धरतीक रुपे बिगाड़ि देने अछि। की खायब? कोना जीबि? अपना मे सभ एक-दोसरा सँ बतिआइत अछि। घास-पानिक दुआरे मालो-जाल सूखिकेँ संठी जेँका भ’ गेल अछि। अनधुन मरबो कयल। अनुकूल समय पाबि रोगो-बियाधि बुतगर भ गेल। माल-जाल स’ ल’ क’ लोको सभहक जान अबग्रह मे पड़ि गेल अछि। खेती-बाड़ी चैपट्ट होइत देखि, थारी-लोटा बन्हकी लगा-लगा लोक मोरंग, दिनाजपुर, ढाका भगै लगल। जैह दषा किसानक ओइह दषा बोनिहारोक। कहिया इन्द्र भगवानक दया हेतनि, एहि आषा मे अनधुन कबूला-पाती लोक करै लगल।
तीनि दिन स अनुपक घर चुल्हि नहि पजड़ल। नल-दमयन्ती जेँका दुनू परानी अनुप दुखक पहाड़क तर मे पड़ल-पड़ल एक-दोसराक मुह देखैत। ककरो किछु बजैक साहसे नहि होइत। बारह बरखक बेटा वौएलाल, बोरा पर पड़ल माय केँ कहलक- ‘‘माए, भूखे परान निकलल जाइ अए। पेट मे बगहा लगै अए। आब नइ जीबौ!’’
वौएलालक बात सुनि दुनू परानी अनुप केँ आखि स नोर आवि गेलै। मुहक बोल बुताय लगलै। लग मे बैसल रधिया उठि क’ डोल-लोटा ल’, इनार दिषि विदा भेलि। इनारोक पानि निच्चा ससरि गेल अछि, जहि स डोलक उगहनियो छोट भ’ गेल। कतवो निहुड़ि-निहुड़ि रधिया पानि पबै चाहैत, तइयो डोल पानि स उपरे रहैत। रधियाक मन मे एलै जखन अधला होइवला होइ छै तखन एहिना कुसंयोग होइ छैक। वौएलाल नइ बँचत। एक त पाँच टा संतान मे एकटा पिहुआ बँचल सेहो आइ जाइ अए। हे भगवान कोन जनमक पापक बदला लइ छह। इनार स डोल निकालि, लहरे पर डोल-लोटा छोड़ि रधिया उगहनि जोड़ै ले डोरी अनै आंगन आइलि। रधियाक निराष मन देखि अनुप पूछलक- ‘‘की भेल?’’
टूटल मने रधिया उत्तर देलक- ‘‘की हैत, जखन दैवेक(दइबैक) डाँग लागल अछि तखन की हैत। उगहनि छोट भ गेल तेँ जोड़ै वला डोरी ले एलौ।’’
रधियाक बात सुनि अनुप घरेक(ओसारेक) बनहन खोलि रधिया केँ देलक। खड़ौआ जौर ल रधिया इनार पर जा उगहनि जोरलक। उगहनि जोड़ि पानि भरलक। पाइन भरि लोटा मे लए’ रधिया आंगन आबि बौएलाल केँ पीबै ले कहलक। पड़ल बौएलाल केँ उठिये ने होय। ओसार पर लोटा राखि रधिया वौएलालक बाँहि पकड़ि उठा केँ बैसौलक। अपने हाथे रधिया लोटा स चुरुक मे पानि ल’ वौएलालक आखि-मुह पोछलक। वौएलालक देह थर-थर कपैत। थरथरी देखि रधियोकेँ थरथरी पैसि गेलनि। लोटा उठा रधिया बौएलालक मुह मे लगवै लागलि कि थरथराइत हाथ स लोटा छुटि गेलैनि जहि स पानि बोरा पर पसरि गेल। दुनू हाथे छाती पीटैत रधिया जोर स बजै लागलि- ‘‘आब बौएलाल नै जीति, जे घड़ी जे पहर अछि।’’
रधियाक बोल सुनि अनुप जोर स कनै लगल। अनुपक कानब सुनि टोलक धियो-पूतो आ जनिजातियो एक्के-दुइये अबै लगल। सभहक मुह सुखाइले। के ककरा बोल-भरोस देत। सभहक एक्के गति। अनुपक कानब सुनि रुपनी अंगने से कनैत अबैत। रुपनी अनुपक ममिओत बहिन। अनुपक आंगन आबि रुपनी बौएलाल केँ देखि बाजलि- ‘‘भैया, बौआक परान छेबे करह। अखन मुइलह हेन नहि। किअए अनेरे दुनू परानी कनै छह। जाबे शरीर मे साँस रहतै ताबे जीवैक आषा। चुप हुअअ।’’ कहि रुपनी वौएलाल क’ समेटि कोरा मे बैसौलक। तरहत्थी स चाइन रगड़ै लागलि। वौएलाल आखि खोलि बाजल- ‘‘दीदी, भूख से पेट मे बगहा लगै अए।’’
वौएलालक बात सुनि रुपनी बाजलि- ‘‘रोटी खेमे।’’
‘‘हँ।’’
वौएलालक बात सुनि रधिया घर मे धयल फुलक लोटा, जे रधिया के दुरागमन मे बाप देने रहथि, निकालि अनुप केँ देलनि। लोटा नेने अनुप दोकान दिषि दौड़ल। लोटा बेचि गहूम कीनने आयल। अंगना अबिते रधिया हबड़-हबड़ केँ चुल्हि पजारि गहूम उलौलक। दुनू परानी रधिया जाँत मे गहूम पीसै लगल। एक रोटीक चिक्कस होइतहि रधिया समेटि क रोटी पकबै आवि गेलीह। अनुप गहूम पीसै लगल। रोटी पका रधिया वौएलाल लग ल गेल। अपने सँ रोटी तोड़ि खेवाक साहसे वौएलाल केँ नहि होयत। छाती, दाबि- दाबि रधिया वौएलाल केँ रोटी खुआवै लगली। सैाँसे रोटी वौएलाल खा लेलक। रोटी खायत-खायत वौएलालो केँ हूबा एलैक। अपने हाथे लोटा उठा पानि पीलक। पानि पीवितहि हाफी हाअए लगलैक। भुइँये मे ओंघरा गेल। जाँत लगक चिक्कस समेटि रधिया चुल्हि लग आनि सूप मे सानै लगलीह। जाँघ पर पड़ल चिक्कस अनुप तौनी स झाड़ि, लोटा-डोल नेने इनार दिषि बढ़ल। हाथ-पाएर धोय, लोटा मे पानि लए आंगन आबि खाइ ले बैसल। छिपली मे रोटी आ नोन-मेरिचाइ नेेने रधिया अनुपक आगू मे देलक। भुखे अनुप केँ होय जे सैाँसे रोटी मोड़ि-सोड़ि क एक्के बेरि मुह मे ल’ ली, मुदा से नहि कए तोड़ि-तोड़ि खाय लगल। छिपलिक रोटी सठितहि अनुप रधिया दिषि देखै लगल, मुदा तीनिये टा रोटी पका रधिया चिक्कसक पथिया कोठी पर रखि देने। रधिया क’ देखि अनुप चुपचाप दू लोटा पानि पीवि उठि गेल।
दिन अछैते नथुआ, दौड़ल आबि, हँसैत अनुप केँ कहलक- ‘‘गिरहत कक्का बड़की पोखरि उड़ाहथिन। काल्हि से हाथ लगतै। तोहूँ दुनू गोरे काज करै चलिहह।’’
नथुआक बात सुनितहि रधियाकेँ, जना अषर्फी भेटि गेल होय, तहिना भेलै। अनुपोक मुह सँ हँसी निकलल। अनुपक खुषी देखि नथुआ बाजल- ‘‘अपने मुसना कक्का मेटगिरी करत। ओइह जन सबहक हाजरी बनौत।’’
नथुआ, अनुप आ रधियाक बीच गप-सप होइतहि छल कि मुसनो धड़फड़ाइल आयल। मुसना दिषि देखि नथुआ बाजल- ‘‘मुसनो कक्का त आबिये गेला। आब सभ गप फरिछा केँ बुझबहक।’’
मेटगिरी भेटला सँ मुसनाक मन तरे-तर गदगद होयत। ओना कहियो मुसना मेटगिरी केने नहि, मुदा गामक बान्ह-सड़क मे मेट सबहक आमदनी आ रोब देखने, तेँ खुषी। मने-मन सोचैत जे जकरा(जहि जन) मन हैत तकरा जन मे राखब आ जकरा मन हैत तकरा नै राखब। इ त हमरे जुइतिक काज रहत की ने। जकरा मन हैत ओकरा बेसिये क हाजिरी बना देबैक। पावर त पावर होयत। जँ पावर भेटै आ ओकर उपयोग फाजिल क’ के नहि करी त ओहन पावरे ल क’ की हेतइ। जँ से नहि करब ते मुसना आ मेट मे अनतरे की हैत। लोक की बुझत। मुस्की दैत मुसना अनुप केँ कहलक- ‘‘भैया, काल्हि से बड़की पोखरि मे काज चलतै, तोहू चलिहह। दू सेर धान आ एक सेर मड़ुआ, भरि दिनक बोइन हेतह। तत्ते टा पोखरि अछि जे कहुना-कहुना रौदी खेपिये जेबह। सुनै छी जे आनो गामक जन सभ अबै ले अछि मुदा ओकरा सभकेँ माटि नहि काटै देबै।’’
मुसना बात सुनि वौएलाल फुड़फुड़ा क’ उठि कहलक- ‘‘कक्का हमरो गिनती क’ लिह’। हमहू माटि काटै जेबह।’’
-‘‘बेस वौआ, तीनू गोरे चलिहह। हमरे हाथक काज रहत। दुपहर मे भानस करै ले भौजी क’ पहिने छुट्टी द देवैइ।’’
कहि मुसनो आ नथुओ चलि गेल।
दोसर दिन भोरे, पोखरि मे हाथ लगै से पहिनहि चैगामाक जन कोदारि-टाला वा पथिया-कोदारि ल’ पोखरिक मोहार पर पहुँच थहाथहि करै लगल। मेला जेँका लोक। जते गामक जन तहि स कैक गुना बेसी आन गामक। जनक भीड़ देखि मुसनाक मन मे अहलदिल्ली पैसि गेलइ। तामसो आ डरो से देह थर-थर कपै लगलैक। मुसनाक मन मे एलै हमर बात के सुनत। माथ पर दुनू हाथ ल’ मुसना बैसि गेल। किछु फुरबे ने करैत। ठकमूरी लगि गेलैक। सैाँसे पोखरि, गैाँवा स अनगैाँआ धरि, जगह छेकि-छेकि कोदारि लगा टल्ला ठाढ़ केने। सोचैत-सोचैत मुसनाक मन मे एलै जे रमाकान्त बावू(गिरहत कक्का) केँ जा क सब बात कहिअनि। सैह केलक। उठि क’ रमाकान्त ऐठाम विदा भेलि।
तहि बीच गौँवा-अनगौँआ जन मे रक्का-टोकी शरु भेल। अनगौँवा सभ जोर-जोर से बजैत जे कोनो भीख मंगै ले एलहुँ। सुपत काज करब आ सुपत बोइन लेब। गौँवा जन सभ कहै जे हमरा गामक काज छी तेँ हम सभ अपने करब। सुखेतक भुटकुमरा आ गामक सिंहेसरा एक्के ठाम पोखरि(माटि) दफानने। दुनूक बीच गारि-गरौबलि हुअए लगलै। सभ हल्ला करैत तेँ ककरो बात कियो सुनबे नहि करैत। सभ अपने बजै मे बेहाल। गारि-गरौबलि करिते-करिते भुटकुमरो सिंहेसर दिषि बढ़ल आ सिंहेसरो भुटकुमरा दिषि। दुनूक बीच मुह स गारियो-गरौबलि होइत आ हाथ स पकड़ो-पकड़ा भ’ गेल। एक-दोसर केँ पटकि छाती पर बैइसै चाहैत। दुनू बुतगर। पहिने त भुटकुमरे सिंहेसराकेँ पटकलक किऐक त सिंहेसराक पाएर घुच्ची मे पड़ि गेलै, जहि स ओ धड़फड़ा क खसि पड़ल। मुदा सिंहेसरो हारि नहि मानलक। हिम्मत क उठि भुटकुमरा केँ, छिड़की लगा खसौलक।
दरबज्जा पर बैसि रमाकान्त बावू बखारीक धान, मड़ूआक हिसाव मिलबैत। हलचलाइत मुसनाकेँ देखि रमाकान्त पुछलखिन। मुसनाक बोली साफ-साफ निकलबे नहि करैत। मुदा तइयो मुसना कहै लगलनि- ‘‘काका, तत्ते अनगौँआ जन सब आबि गेल अछि जे गौँवा केँ जगहे ने हैत। कतबो मनाही केलियै कोई मानै ले तैयारे ने भेल। अपने से चलि केँ देखियौक।’’
कागज-कलम घर मे रखि रमाकान्त विदा भेलाह। आगू-आगू रमाकान्त आ पाछू-पाछू मुुसना। पोखरि सँ फड़िक्के रमाकान्त रहथि कि पोखरि मे हल्ला होइत सुनलखिन। मन चैंकि गेलनि। मन मे हुअए लगलनि जे अनगौँवा सभ बात मानत की नहि! अगर काज बन्न क’ देब त गौँओ कामै(कामए) हैत। जँ काज बन्न नहि करब ते अनगौँओ मानवे नहि करत। विचित्र स्थिति मे रमाकान्त। निअरलाहा गड़बड़ भ’ जायत। पोखरिक महार पर रमाकान्त केँ अबितहि चारु भर सेँ जन सभ घेरि लेलकनि। सभ हल्ला करैत जे जँ काज चलत त हमहू सब खटब। ततमत् मे पड़ि रमाकान्त अनगौँआ सभ केँ कहलखिन- ‘‘देखू रौदियाह समय अछि। सभ गाम मे काजो अछि अ करौनिहारो छथि। चलै चलू, अहाँ सभहक संगे हमहू चलै छी आ हुनको सभकेँ कहबनि जे अपना-अपना गामक बोनिहार केँ अपना-अपना गाम मे काज दिऔ।’’
आन सभ गामक लोक कोदारि, छिट्टा, टल्ला नेने विदा भेल। रमाकान्तो संगे विदा भेलाह। किछु दूर गेला पर रमाकान्त मुसनाकेँ कहि देलखिन जे जखन आन गामक लोक निकलि जायत तखन गौँआ जन केँ काज मे लगा दिहक। तहि बीच क्यो जा क’ सिंहेसरा घरवाली केँ कहि देलक जे पोखरि मे तोरा घरवला केँ ओंघरा-ओंघरा मारलकौ। घरवलाक मारिक नाम सुनितहि सिंहेसराक घरोवलाी आ धियो-पूतो गामे पर से गरिअबैत पोखरि लग आबि गेलि। मुदा तइसे पहिने अनगौँआ सभ चलि गेल छल।
पोखरिक काज शुरु भेल। तीनू गोटे अनुप एक्के ठाम खताक चेन्ह देलक। कोदारि स माटि काटि-काटि अनुप पथिया भरैत, रधिया आ वौएलाल माथ पर ल’ ल’ महार पर फेकए लगल। बारहक अमल भ’ गेल। रमाकान्त घुरि केँ आबि पोखरिक पछबरिया महार पर ठाढ़ भ’ देखै लगलथि। मुसनाक नजरि पड़ितहि दौड़ि क रमाकान्त लग पहुँचल। मुसनाकेँ पहुँचतहि रमाकान्त, आंगुरक इषारा स वौएलालकेँ देखबैत, पूछलखिन- ‘‘ओ(वौएलाल) के छी। ओकरा साँझ मे कहिहक भेटि करै ले।’’ कहि रमाकान्त घर दिसक रस्ता पकड़लनि। बारह बर्खक वौएलालक माटि उघब देखि सभकेँ छगुन्ता लगैत। जाबे दोसरो कियो एक बेरि माटि फेकैत ताबे वौएलाल तीनि बेरि फेकि दइत। वौएलालक काज देखि अनुप मने-मन सोचै लगल जे बोनिआती स नीक ठिक्का होइत। मुदा हमरे सोचला से की हेतैक। ताबे मुसनो रमाकान्त केँ अरिआति घुरि क’ अनुप लग आबि कहलक- ‘‘भैया, मालिक दुनू बापूत केँ साँझ मे भेंट करै ले कहलखुन हेँ।’’
मालिकक भेटि करैक सुनि अनुपक हृदय मे खुषीक हिलकोर उठै लगल। मुदा अपना क’ सम्हारि अनुप मुसना केँ कहलक- ‘‘जखन मालिक भेंट करै ले कहलनि ते जरुर जायब।’’
सुरुज पछिम दिस एकोषिया भ’ गेलाह। घुमैत-फिरैत मुसना अनुप लग आबि रधिया केँ कहलक- ‘‘भौजी, अहाँ जाउ। भरि दिनक हाजरी बना देने छी। भानसोक बेर उनहि जायत।’’
रधिया आंगन विदा भेलि। अनुप आ वौएलाल काज करिते रहल। चारि बजे सभ काज छोड़ि देलक। गाम पर आबि अनुप दुनू बापूत नहा क’ खेलक। कौल्हुके गहूमक चिक्कसक रोटी, आ अरिकंचन पातक पतौरा बना पकौने छलि, ओकर चटनी बनौने छलि। खा क’ तीनू गोटे(अनुप, वौएलाल आ रधिया) ओसार पर बैसि गप-सप करै लगल। अनुप रधिया केँ कहलक- ‘‘भगवान बड़ी गो छेथिन। सब पर हुनकर नजरि रहै छनि। देखियौ ऐहेन कहात समय मे कोन चक्कर लगा देलखिन।’’
गप-सप करितहि गोसाई डूबि गेल। झलफल होइतहि अनुप दुनू बापूत रमाकान्त ऐठाम विदा भेल। रस्ता मे दुनू बापुत केँ ढेरो तरहक विचार मन मे उठैत आ समाप्त होयत। ओना दुनू बापुतक मन गदगद।
दरबज्जा पर बैसि रमाकान्त मुसना से जनक हिसाब करैत रहथि। मुसना जनक गिनतियो केने आ नामो लिखने। मुदा अपन नाम छुटल तेँ हिसाव मिलवे नहि करैत। अही घो-घाँ मे दुनू गोटे। तहि बीच दुनू बापूत अनुप पहुँचल। फरिक्के स अनुप दुनू हाथ जोड़ि रमाकान्त केँ गोड़ लागि बिछान पर बैसल। वौएलालो गोड़ लगलकनि। वौएलाल केँ देखि रमाकान्त बिहुँसति अनुप केँ कहलखिन- ‘‘अनुप तोँ इ बेटा हमरा द’ दाय?’’
मने-मन अनुप सोचै लगल जे ई की कहलनि? कने काल गुम्म भ’ अनुप उत्तर देलकनि- ‘‘मालिक, वौएलाल की हमरे टा बेटा छी, समाजक छियै। जखन अपने केँ जरुरत हैत तखन ल’ लेब।’’
अनुपक उत्तर सुनि सभ छगुन्ता मे पड़ि गेलाह। मास्टर साहेव अनुप केँ निङहारि-निङहारि देखै लगलथि। एकटा युवक, जे दू दिन पहिने भाग्यक मारल आयल छल, ओहो आषा-निराषा मे डूबल। ओहि युवक केँ तीन बर्ख कृषि विज्ञानक पढ़ाई पूरा भेल छलैक, सिर्फ एक बर्ख बाकी छलैक। अपन सभ खेत बेचि पिताक बीमारीक इलाज करौलक, मुदा ठीक नहि भ’ मरि गेलखिन। कर्जा ल पिताक श्राद्ध-कर्म केलकनि। खरचा दुआरे पढ़ाइयो छुटि गेलनि आ जीवैक कोनो उपायो ने रहलनि। जिनगीक कठिन मोड़ पर आबि युवक निराष भ’ गेल छलाह। साल भरि पहिने विआहो भ’ गेल छलनि। एक दिस बूढ़ि माए आ स्त्रीक भार दोसर दिस जीवैक कोनो रास्ता नहि। सोग स माइयोक देह दिन व दिन निच्चे मुहे हहड़ल जाइत। रमाकान्क उदार विचार सुनि ओ युवक आयल छल।
सभ दिन रमाकान्त चारि बजे पिसुआ भाँग पीबैत छथि। दोसरि-तेसरि साँझ होयत-होयत रमाकान्त केँ भाँगक नसा(नषा) चढ़ि जाइत छनि। भाँगक आदत रमाकान्त केँ पिता स लागल छलनि। रमाकान्तक पिता न्याय शास्त्रक विद्वान्। ओना गाम मे कम्मे-काल रहैत छलाह, बेसी काल बाहरे-बाहर। हुनके प्रभाव रमाकान्तक उपर। तेँ रमाकान्त जेहने इमानदार तेहेन उदार विचारक। पोखरिक चर्चा करैत रमाकान्त मुसना केँ कहलखिन- ‘‘काल्हि से वौएलाल केँ दोबर बोइन दिहक।’’
दोबर बोइन सुनि, कने काल गुम्म भ’ मुसना कहलकनि- ‘‘मालिक, एक गोरे के बोइन बढ़ेबै ते दोसरो-तेसरो जन मांगत। एहि से झंझट शुरु भ’ जायत। झंझट भेने काजो बन्न भ जायत।’’
काज बन्न होइक सुनि रमाकान्त उत्तेजित भ’ कहलकखिन- ‘‘काज किअए बन्न हैत। जे जतेक काज करत ओकरा ओते बोइन देबैक।’’
रमाकान्तक विचार केँ सभ मूड़ी डोला समर्थन क देलकनि। समर्थन देखि गद्गद होइत रमाकान्त कहै लगलखिन- ‘‘अखन वौएलाल केँ बोइन बढ़ेलहुँ बाद मे दू बीघा खेतो देबैक। मास्टर सहायव, अहाँ राति केँ वौएलाल केँ पढ़ा दिऔ। सिलेट-कितावक खरच हम देवै।’’
खेतक चर्चा सुनि मुसना रमाकान्त केँ कहलकनि- ‘‘विपन्न(गरीब) त वौएलाले टा नहि अछि, गाम मे बहुतो अछि।’’
मुसनाक प्रष्न सुनि रमाकान्तक हृदय मे सतयुगक हरिष्चन्द्र पैसि गेलनि। उदार विचार, इमान मे गंभीरता, मनुक्खक प्रति सिनेह हुनक विवेक केँ घेरि लेलकनि। अखन धरि ने सुदिखोर महाजनक चालि, आ ने धन जमा करै वला जेँका अमानवीय व्यवहार प्रवेष केने छलनि। नीक समाज मे जहिना धन केँ जिनगी नहि बुझि, जिनगीक साधन बुझि उपयोग होइछ, तहिना रमाकान्तो परिवार मे रहलनि। जखन रमाकान्तक पिता गाम मे रहैत छेलथिन आ कियो किछु मंगै अबैत त खाली हाथ घुरए नहि दइत। जे रमाकान्तो देखथिन। सदिखन पिता कहथिन जे जँ किनको ऐठाम पाहुन-परक आवनि आ ओ किछु मांगै आवथि ते हुनका जरुर देबनि। किऐक त ओ गामक प्रतिष्ठा बँचाएव होयत। गामक प्रतिष्ठा व्यक्तिगत नहि सामुहिक होइछ। तहिठाम जँ क्यो सोचैत जे गाम सभहक छियैक हमरा ओहि स कोन मतलब? गलती हेतैक। गाम मे अधिकतर लोक गरीब आ मुर्ख अछि, ओ एहि प्रतिष्ठा केँ नहि बुझैत अछि। तेँ जे वुझिनिहार छथि हुनकर इ खास दायित्व बनि जाइत छनि। एहि धरती पर जतेक जीव-जन्तु स ल क’ मनुख धरि अछि सभकेँ जीबैक अधिकार छैक। तेँ, जे मनुख ककरो हक छिनै चाहै छैक ओ एहि भूमि पर सबसँ पैघ पापी छी। जनकक राज मिथिला थिकैक तेँ मिथिलावासी केँ जनकक कयल रास्ता केँ पकड़ि क’ चलक चाही। जहि स ओ प्रतिष्ठा सभदिन बरकरार रहतैक।
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मौलाइल गाछक फुल:ः 2
सुखि सम्पन्न रमाकान्त, जेहने उदार तेहने इमानदारक लेल समाज मे वुझल जायत छथि। मरौसी जमीन त अधिक नहि मुदा पिताक अमलदारी मे बहुत भेलन्हि। पितो कीनने त नहिये रहथि मुदा पुरस्कार स्वरुप पैघ-पैघ दरवार सब स भेटल छलनि। मधुकान्त(रमाकान्तक पिता) अध्यात्म, वैयाकरण आ न्यायषास्त्रक विद्वान छलथि। बच्चे स मधुकान्तक झुकाव अध्ययन दिषि देखि पिता बनारस पढ़ै ले पठौलकनि। वनारस मे अध्ययन क’ मधुकान्त तीनि बर्ख काषीक एकटा न्यायषास्त्रक पंडित एहिठाम अध्ययन केने रहथि। अध्ययनक उपरान्त ओ(मधुकान्त) पूर्ण रुपेण बदलि गेल रहथि। अध्ययन-अध्यापनक असुविधा दुआरे गाम मे मोन नहि लगनि। ने अपन मनोनुकूल लोक भेटनि आ ने क्रिया-कलाप मे सामंजस्य होइन। तेँ जिनगीक अधिक समय अनतै वितबैत रहथि। जेहने प्रतिष्ठा मधुकान्त केँ अपना राज मे तेहने आनो-आनो राज मे रहनि। भारतीय चिन्तन क’ बुनियादी ढंग स व्याख्या करब मधुकान्तक खास विषेषता रहनि। सामाजिक व्यवस्थाक गुण-अवगुनक चर्च अनेको लेख मे लिखने रहथि, जे असुविधाक चलैत अप्रकाषिते रहलनि। तगमा, प्रषस्ति पत्र टांगि दरवज्जाक शोभा बढ़ौने छलाह। जखन गाम मे रहैत छलाह तखन सभहक एहिठाम जा-जा सामाजिक व्यवस्थाक कुरीति बुझवथिन। खास क’ कर्मकाण्डक। तेँ समाज मे सभ चाहनि। अपनो जिनगीक बात दोसर केँ कहथिन आ दोसरोक जिनगीक अध्ययन करैत रहैत छलाह। छल-प्रपंचक मिसिओ भरि गंध जिनगी केँ नहि छुलकनि। समाज मे मनुक्ख कोना मनुक्खक जिनगी मे बाधा बनि ठाढ़ अछि आ ओहि स कोना छुटकारा भेटितै, नीक-नहाँति मधुकान्त बुझथिन। सत्तरि जाड़ एहि धरती पर कटलनि।
सभ दिन चारि बजे रमाकान्त भाँग पीवि पान खा टहलै ले निकलि दोसर साँझ धरि घुरि क’ घर पर अबैत छलाह। घर पर अबिते हाथ-पाएर धोय दरबज्जा पर बैसि दुनियादारीक गप-सप करैत छलाह। टोल-पड़ोसक लोक एका-एकी आबि-आबि बैसय। रंग-बिरंगक गप-सपक संग चाहो-पान आ हँसिओ- मजाक चलैत रहैत छलैक। हीरानन्द(मास्टर सहाएव) आ शषिषेखर(युवक) सेहो टहलि-बूलि क’ अयलाह। चाह पीवि रमाकान्त शषिषेखर केँ पूछलखिन- ‘‘बौआ, अहाँ की चाहै छी?’’
मजवूरीक स्वर मे शषिषेखर कहए लगलनि- ‘‘ऐहन दल-दल मे हम फँसि गेल छी जे एकटा पाएर निकालै छी त दोसर धँसि जाइत अछि। एहि स कोना निकलब?’’
कृषि कओलेज मे प्रवेषक प्रतियोगिता मे सफल होइतहि शषिषेखर केँ सुखद भविष्यक ज्योति भेटल। बेटाक सफलता सुनि पिताक उत्साह हजार गुना बढ़ि गेलनि, जते जिनगी मे कहिओ नहि भेल छलनि। जहिना काँटक गाछ मे बेल(अमरफल) फड़ैत, काँटक गाछ मे गुलाबक फुल फुलाइत अछि तहिना पछुआइल परिवार मे शषिषेखर भेलाह। शषिषेखरक पिता मन मे अरोपि लेलनि जे बीत-बीत क खेत किअए ने बीकि(बिक) जाय मुदा बेटा केँ कृषि वैज्ञानिक बना केँ छोड़ब। शषिषेखरोक मन मे पैघ-पैघ अरमान अबै लगलनि। कृषि वैज्ञानिक होएव, नीक नोकरी भेटत, माए-वापक सेहन्ता कमा क’ पूरा करब। सिर्फ परिवारेक नहि जहाँ धरि समाजोक भ’ सकत सेवा करब। मुदा बिचहि मे समय ऐहन मोड़ पर आनि देलकनि जे सभ अरमान हवा मे उड़ि गेलनि। जहिना बीच धार मे नाओ चलौनिहारक हाथ स करुआरि छुटि गेला पर नाओ मे यात्रा केनिहार आ चलौनिहार केँ होयत, तहिना शषिषेखरो क’ भेलनि। चारि सालक कोर्स मे तीनि साल पुरलाक बाद पिता दुखित पड़लखिन। चारिम सालक पढ़ाई छोड़ि शषिषेखर पिताक सेवा मे जुटि गेलाह। एक दिषि पिताक इलाज दोसर दिषि परिवारक बोझ पड़ि गेलनि। आमदनीक कोनो स्रोत नहि, सिर्फ खेते टा। खेतो बहुत अधिक नहि। तहू मे अधहा स बेसी बिकिये गेल छलनि। शषिक बचपनाक बुद्धि। जिनगी आ दुनिआ स भेटि नहि। छोट बुद्धि सँ पैघ समस्याक समाधाने नहि होयत छलनि। अंत मे निराष भ’ खेत बेचि-बेचि परिवारो आ पितोक इलाज करबै लगलाह। बीति-बीति केँ खेत बिक गेलनि। जहन कि दुनू समस्या(परिवार आ इलाज) बड़करारे रहलनि। बेबष भेल छलाह शषि। पितो मरि गेलखिन। कर्ज क’ केँ पिताक श्राद्ध-कर्म केलनि। दुनियाँ मे कतौ इजोत देखवे नहि करथि। सैाँसे दुनिया अन्हारे-अन्हार लगै लगलनि।
वेबस भेल शषि मने-मन सोचे लगलाह जे जँ हम ट्यूषनो पढ़ा क’ अपनो पढ़व तहन परिवारक की दषा हयत! ओतेक त ट्यूषनो सँ नहि कमा सकैत छी जहि सँ अपनो काज चलायब आ परिवारो चला लेब। अधिक कमाइक लेल अधिक समयो लगबै पड़त। जे संभव नहि अछि। अगर जँ सब समय ट्यूषने मे लगा देब त अपने कखन पढ़ब आ क्लाष कोनो करब। जहिया स पिता मुइलाह तहिया स माइयोक देह सोग स हहड़ले जा रहल छनि। एक त बूढ़ि छथि दोसर सोग स सोगाइल। मनुक्ख मे जन्म लेला पर क्यो माय-बापक सेवा नहि करै त ओ मनुक्खे की? मनुक्खक मात्र नकल छी। हम से नहि करब। चाहे दुनियाक लोक नीक कहै वा अधला, तेकर हमरा गम नहि अछि। डिग्री ल’ क’ हम नीक नोकरी करब। नीक दरमाहा भेटत। जहि स खाइ-पीवै, ओढ़ै-पहिरै आ रहैक सुबिधा भेटत, मुदा जिनगी त ओतवे टा नहि अछि। जिनगीक लेल ज्ञान, कर्म आ व्यवहारक जरुरत सेहो होइत अछि। जिनगी पाबि जँ मनुक्ख प्रतिष्ठित नहि बनि सकल त ओ जिनगिये की। आइ जँ हम माए केँ छोड़ि दिअनि आ हुनका कष्ट होइन, ओहि कष्टक भागी के बनत। दिन-राति हुनका सेवाक जरुरत छनि, उठौनाई-बैसोनाई स ल’ क’ खुऔनाई-पिऔनाई धरि। हम सब ओहि धरतीक सन्तान छी जहि ठाम श्रवणकुमार सन बेटा जन्म लए चुकल छथि। यैह विचार शषिषेखर केँ पढ़ाई छोड़ौलकनि। दुनिया मे कोनो सहारा नहि देखि शषि रमाकान्त ऐठाम अयलाह। अपन जीवनक सब बात शषि हीरानन्द केँ कहलखिन। शषिक बात स हीरानन्दक हृदय पधलि गेल छलनि। ओ(हीरानन्द) मने-मन सोचति रहथि जे जे नवयुवक देष सेवा मे एकटा खूँटाक काज करत ओ अपनहि नष्ट भ’ रहल अछि, तेँ, ओहन युवक केँ सोंगर लगा ठाढ़ करैक जरुरत अछि।
सोझमतिया रमाकान्त दोहरवैत शषि केँ पूछलखिन- ‘‘नीक जेँका अहाँक बात हम नहि बुझि सकलौ?’’
बिचहि मे मास्टर साहेव रमाकान्त केँ बुझवैत कहलखिन- ‘‘षषि महा संकट मे फँसि गेल छथि। हुनका अहींक मदतिक जरुरत छनि। तखने ओ उठि क’ ठाढ़ हेताह।’’
मास्टर साहेबक बात सुनि धाँय द’ रमाकान्त कहलखिन- ‘‘अगर हमरा मदति सँ शषि केँ कल्याण हेतनि त जरुर करबनि।’’
रमाकान्तक आष्वासन स शषिक हृदय मे भोरक सूर्य देखि दिनक आषा जगलनि। शषिक मुह स हँसी निकललनि। जिनगीक अमावष्या पूर्णिमा मे बदलैए लगलनि। गंभीर भ’ हीरानन्द शषि केँ कहै लगलखिन- ‘‘चिन्ता छोड़ँू। नव जिनगीक दिषा मे डेग उठाउ। ई कर्मभूमि थिकैक। एहिठाम कर्मनिष्टे लोक मनुष्यक जिनगी पाबि सकैत अछि।’’
हीरानन्दक विचार सुनि शषि उठि क’ ठाढ़ भ’ हुनक हाथ पकड़ि जिनगी भरिक मित्रताक व्रत लइत कहलखिन- ‘‘जहिना कोनो रोगाइल गाछ केँ माली तामि-कोड़ि, पानि द’ पुनः नव जिनगी दैत अछि तहिना अहाँ दुनू गोटे हमरा देलहुँ। तहि लेल हम ऋृणी छी। जहाँ धरि भ’ सकत सेवा करैत रहब।’’
शषिक विचार सुनितहि रमाकान्तक हृदय मे, कर्णक रुप सन्निहा गेलनि। खुषी सँ गद्गद् होइत कहलखिन- ‘‘बौआ, हम त पढ़ल-लिखल नहि छी। पिताजी गाम मे नहि रहैत छलाह तेँ परिवार सम्हारै पड़ैत छल। ओना कोनो वस्तुक अभाव जिनगी मे ने पहिने भेल आ ने अखन अछि। जहिया पिताजी गाम अवैत छलाह तहिया बुझा-बुझा क’ कहैत छलाह। अखनो मन मे ओइह विचार अछि।’’
रमाकान्त केँ दू गोट बेटा। दुनू डाॅक्टरी पढ़ि मद्रास मे नोकरी करैत छन्हि। कहियो काल दू-एक दिनक लेल गाम अबैत छन्हि। दुनू भाइ मद्रासे मे विआहो क’ नेने छथि। दुनू कनि´ो डाॅक्टरे छथिन। एक परिवार मे चारि डाॅक्टर, तेँ, आममदनियो नीक छनि। दस बर्खक नोकरी मे कमा क’ ढेर लगा लेने छथि। अपन तीनि मंजिला मकान मद्रासे मे बनौने छथि। चारि टा गाड़ी सेहो रखने छथि। अपन क्लीनिक सेहो बनौने छथि। बेटा लग जेबाक विचार रमाकान्त बहुत दिन सँ करैत छलाह मुदा दुरस्तक दुआरे नियारिये केँ रहि जाइत छलाह।
पुनः रमाकान्त बजलाह- ‘‘पोखरियोक काज सूढ़िआइये गेल अछि ओकरा सम्पन्न केँ मद्रास जायब। मद्रास सँ अयलाक बाद सब जोगार अहाँक कए देव। ताधरि अहाँ पत्निओ आ माइयो केँ एहिठाम लए अबिअनु। एतै रहू।’’
वेरु पहर हीरानन्द आ शषिषेखर टहलै निकललाह। दरबज्जाक सोझे पोखरिक महारक निच्चा मे, उत्तर पूव कोन मे एकटा भरिगर सरही आमक गाछ। दुनू गोटे ओहि गाछक निच्चा दुभि पर बैसि गप-सप करै लगलाह। हीरानन्द अपन खेरहा कहै लगलखिन। मैट्रिक पास केलाक उपरान्त मास्टरीक लेल इन्टर-भ्यू देइ ले गेलौ। जखन ओहि ठाम गेलहुँ, आ देखलिऐक त वुझि पड़ल जे इन्टर-भ्यू मात्र दिखावा अछि। मोल-जोल तेजी सँ चलैत छल। मुदा सोझे घुमिओ जायब उचित नहि बुझि, रुकि गेलहुँ। मन मे आइल जे मोल-जोलक विरोध करी। संगी भजिअवै लगलौ। मुदा मोल-जोलक पाछू सभ लागल। एकोटा संग देमएवला नहि देखि मन केँ असथिर केलहुँ। फेरि भेल जे विरोध कए हंगामा ठाढ़ कए दियैक। मुदा दुनू पक्ष एक दिषाहे, सिर्फ हमही टा कात मे। तामसे देह थर-थर कपैत छल। लाभ-हानिक हिसाब जोड़ी त हानिये बेसी बुझि पड़ैत छल। मुदा मन तइयो माने ले तैयार नहि हुअए। हुअए जे जे बहालीक उपरका सीढ़ी पर अछि ओकरा चारि धौल लगा दियै। दस दिन जहले मे रहब। फेरि हुअए जे जखन डिग्री आ योग्यता अछि, तखन ऐहेन-ऐहेन नोकरी कतेको औत आ जायत। फेरि हुअए जे हजारो नवयुवक देषक आजादीक लेल खून बहौलक। हमरा बुते एतबो ने हैत। समुद्रक लहड़ि जेँका मन मे संकल्प-विकल्प उठैत आ शान्त होयत रहल। सभ केयो चलि गेल। हम असकरे रहि गेलहुँ। अचता पचता केँ विदा भेलौ। डेगे ने उठैत छल मुदा तइयो घर पर एलहुँ। घर पर अबितहि पत्नी वुझि गेली। मुदा आषा जगबै दुआरे लोटा मे पानि नेेने आगू आबि कहलनि- ‘‘थाकि गेल होएब। हाथ-पाएर धोय लिअ, थाकनि कमि जायत। जलखै नेने अबै छी।’’ जाबे हम पाएर-हाथ धोलहुँ ताबे थारी नेने ऐलीह। पहिनहि जलखैयक ओरियान कए क’ रखने रहथि। जलखै खा, दरबज्जेक चैकी पर कुरता खोलि क’ रखि देलियै आ बाँहिक सिरमा बना पइर रहलौ। मुदा मन मे ढेरो रंगक विचार सभ उठै लगल। मुदा दू तरहक विचार सोझ मे आवि गेल। पहिल विचार जे कि षिक्षकेक बहाली टा मे घुसखोरी छैक आ कि सब विभाग मे छैक? आखि उठा-उठा सभ दिषि देखै लगलहुँ त बुझि पड़ल जे अहू(षिक्षा) स बेसी आन-आन मे अछि। जखन सब विभाग मे घुसखोरी अछि तखन देष आगू मुहे कोना ससरत? निच्चा स उपर धरि एक्के रोग सगतरि पकड़ने अछि। मन औना गेल। मन औनाइते छल कि दोसर विचार मन मे उपकल। मन केँ असथिर कए सोचए लगलहुँ। अनायास मन मे आयल जे जहिना पूरबा पछबा हवा धरती से अकास धरि बहैत अछि तहिना ई व्यवस्थाक हवा छियैक। तेँ एकरा बदलैक एक्के टा रास्ता अछि व्यवस्था बदलब। मुदा व्यवस्था बदलब छैाँड़-छैाँड़ीक खेल नहि छी। कठिन काज छी। व्यवस्था सिर्फ लोकक चालिये-ढालि धरि सीमित नहि अछि। ओ अछि मनुक्खक चालि-ढालि स ल’ क’ ओकर बुद्धि-विचार विवेक धरि। मनुष्य केँ जेहेन बुद्धि रहै छै ओहने विचार मन मे अबै छै। जेहेन विचार मन मे अवैत छैक तेहने ओ काज करैत अछि। तेँ जाधरि मनुक्खक बुद्धि नहि बदलत ताधरि ओकर क्रिया-कलाप नहि बदलि सकैत अछि। जाधरि-क्रिया-कलाप नहि बदलत ताधरि व्यवस्था बदलब मात्र बौद्धिक व्यायाम हैत। तेँ जरुरत अछि मनुक्ख मे नव बुद्धिक(बुइधिक) सृजन कए नव क्रिया-कलाप पैदा करब। नब क्रिया-कलाप अएला पर नव रास्ता बनत। नब रास्ता बनला पर कियो नव स्थान पर पहुँचत। नव जगह पहुँचला पर मनुक्ख मनुक्खक बराबरी मे आओत। आ छोट-पैघ, धनीक-गरीब, ऊँच-नीचक खाधि समतल हएत। तखन भक्क खुजल। भक्क खुजितहि हाई स्कूलक षिक्षक देवेन्द्र बाबू मन पड़लथि। देवेन्द्र बाबू, सदिखन छात्र सभ केँ कहथिन- ‘‘मनुख केँ कखनो निराष नहि हेबाक चाहिऐक। जखने मनुक्ख मे निराषा अवैत छैक तखने मृत्यु लग चलि अबै छैक। तेँ सदिखन आषावान भए जिनगी बितेबाक चाहिऐक। कठिन स कठिन समय किएक ने आबे मुदा विवेकक सहारा लए आगू डेग उठेवाक चाहिऐक।’’ देवेन्द्र बाबूक विचार मन पड़ितहि ओ संकल्प लेलनि जहन षिक्षक बनैक लेल डेग उठेलहुँ त षिक्षक बनि केँ रहब। चाहे जत्ते विघ्न-बाधा आगू मे उपस्थिति होअए।’’
जखन देवेन्द्र बाबू कओलेज मे पढ़ैत रहथि तखन आजादीक आन्दोलन देष मे उग्र रुप धेने छल। ओहो(देवेन्द्रवावू) पाँच-सात संगीक संग पोस्ट आॅफिस मे आगि लगा देलखिन। पोस्ट-आॅफिस जरि गेलै। तीनि दिनक बाद हुनका पुलिस पकड़ि लेलकनि। मारबो केलकनि आ जहलो लए गेलनि। जहल जाइ से पहिने कने डरो होइत छलनि। लोकक मुहे सुनने रहथिन जे जहल मे खाइ ले नहि दैत छैक। उपर स दुनू साँझ(साँझ-भिनसर) मारवो करै छै। मुदा जहलक भीतर गेला पर देखलखिन जे हजारो देष प्रेमी क्रान्तिकारी जहल मे छथि। हुनका सभहक लेल जेहने घर तेहने जहल। एक बर्ख ओहो जहल मे रहलाह। ओहि बर्ख दिन मे ओ बहुत सिखलनि। जिनगीये बदलि गेलनि। आब देबेन्द्र बावू सिर्फ अपने आ अपना परिवारे टा ले नहि सोचथि। बल्कि ओ बुझि गेलखिन जे देषक अंग समाज आ समाजक अंग व्यक्ति वा परिवार होइत अछि। तेँ, सभ केँ अपना से ल’ क’ देष धरिक सेवा करैक चाहिऐक। जहल से निकलि बी.एक फार्म भरलनि। बी.ए. पास केलाक पर हाई स्कूलक षिक्षक बनलाह।
हाई स्कूल मे बहूतो षिक्षक छलथि, मुदा हुनकर जिनगी भिन्न छलनि। खानगी पढ़ौनी(ट्यूषन) केँ पाप बुझि क्लास मे तेना पढ़बैत छलाह जे विद्यार्थी केँ टयूषन पढ़ैक जरुरते ने रहैत छलैक। स्कूलक पजरे मे टटघर बना असकरे रहैत छलाह। महिना मे एक दिन गाम जा बालो-बच्चा केँ देखथिन आ दरमहो परिवार मे द’ अवथिन।
चैकी पर हीरानन्द पड़ले रहथि कि एकटा अनठिया आदमी पहुँचलनि। ओ नहि चिन्हलखिन। मुदा दरवज्जाक लाज रखैक लेल आंगन स एक लोटा पानि आनि पाएर धोय बैइसे ले कहलखिन। पुनः आंगन जा पत्नी केँ कहलखिन- ‘‘एकटा अतिथि अयला हेन तेँ झब दे चाह बनाउ।’’कहि दरवज्जा पर आबि ओहि आदमी केँ नाम-गाम पूछै लगलखिन। नाम गाम पूछि काजक गप उठवितहि रहति कि आंगन स पत्नी हाथक इषारा स’ चाह लए जाइ ले कहलखिन। इषारा देखिते गप्प क’ विराम दइत आंगन चाह अनै गेलाह। आंगन जा दुनू हाथ मे दुनू चाहक गिलास लए दरबज्जा पर आबि दहिना हाथक गिलास अतिथि केँ देलखिन आ बामा हाथक गिलास दहिना हाथमे ल’ अपने पीबै लगलाह। गप्पो चलैत आ चाहो पीवैत रहथि तेँ पीवै मे देरी लगलनि। चाह सठलो नहि छलनि कि आंगन स पत्नी जलखइक इषारा देलखिन। पत्नीक इषारा देखि हाथेक इषारा स थोड़े काल बिलमि जाइ ले कहलखिन। चाह पीवि लगले जलखै करब नीक नहि होइत अछि। हँ, चाह पीबै से पहिने जलखै नीक होइत छैक। चाह पीबि पान खा दुनू गोटे गप-सप करै लगलाह। अतिथि केँ पूछलखिन- ‘‘किमहर-किमहर अहाँ एलहुँ?’’
अतिथि- ‘‘एकटा बूढ़ि हमरा गाम मे छथि। सामाजिक संबंध मे दादी हेतीह। बिधवा छथि। बेटो नहि छनि। हुनका विचार भेलनि जे बच्चा सभ केँ पढ़ै ले एकटा इस्कूल बनाबी। चारि बीघा खेत छनि। समाजोक सभ आग्रह केलकनि जे सम्पत्ति त राइ-छित्ती भइये जायत, तहि स नीक स्कूल बना दिऔक। अखन ओ दू बीघा खेत इस्कूल मे देथिन आ दू बीघा अपना ले रखतीह। जखन ओ(दादी) मरि जेतीह तखन चारु बीघा इस्कूलेक हेतै।’’
ध्यान स अतिथिक बात सुनि मुस्कुराइत हीरानन्द कहलखिन- ‘‘बडड् नीक विचार छनि।’’
‘‘ओहि इस्कूल केँ चलवै ले अहाँ से कहै एलहुँ।’’
‘जरुर जायब। राति एतै बीता लिअ। भोरे चलब।’
‘‘कोसे भरि अछि दोसर साँझ धरि पहुँच जायब।’’
‘एते अगुताइ किऐक छी। हमहू थाकल छी। भोरे चाह पीबि दुनू गोटे चलब।’’
हीरानन्दक आग्रह अतिथि मानि गेलाह। अंगनाक टाट लग स पत्नी दुनू गोटेक सब बात सुनैत रहथिन। दुनू गोटे तमाकू खा लोटा ल मैदान दिस विदा भेलाह। घुमैत-फिडै़त दुनू गोटे तेसरि साँझ मे घर पर अयलाह। घर पर आबि दुनू गोटे, दरबज्जा पर बैसी, गप-सप करै लगलाह। भानस भेल दुनू गोटे खा क’ सुति रहलथि।
चारि बजितहि दुनू गोटेक निन्न टूटि गेलनि। जाबे दुनू गोटे पैखाना स आवि दतमनि केलनि ताबे आरती(पत्नी) चाह बनौलनि। चाह पीवितहि रहति कि सूर्यक उदय भेल।
आजुक सुरुज मे एक विषेष रंगक आकर्षण बुझि पड़ैत छलनि। सूर्यक रोषनी मे विषेष आकर्षण छल आकि सभहक हृदय मे छलनि। आरतीक मन मे होइत छलनि जे पति नोकरी करै जा रहल छथि तेँ, विषेष आकर्षण। हीरानन्द क हृदय मे जिनगीक एक सीढ़ी बढ़ैक आकर्षण आ मटकनक(अतिथि) हृदय मे अपन बेटाक पढ़ैक आकर्षण छलनि।
चाह पीवि हीरानन्द झोरा मे धोती, तौनी लए दुनू गोटे गप-सप करैत विदा भेलाह। गप-सपक क्रम मे बुझि पड़लनि जे स्कूल बनवै मे रमाकान्तक विषेष हाथ छन्हि। तेँ गाम पहुँचतहि मटकन केँ कहलखिन- ‘‘पहिने रमाकान्त सँ भेटि क’ लेबनि तखन हुनका(दादी) ऐठाम जायब।’’
दुनू गोटे रमाकान्त ऐठाम पहुँचलाह। साठि वर्षीय रमाकान्त गायक नादि मे कुट्टी-सानी लगवैत रहथि। दलान पर दुनू गोटे केँ देखि रमाकान्त हाँइ-हाँइ हाथ धोए लग आबि बैइसै ले कहलखिन। हीरानन्द चैकी पर बैसलाह मुदा मटकन ठाढ़े रहल। मटकन केँ रमाकान्त कहलखिन- ‘‘तूँ आगू बढ़ि जाह। हम दुनू गोटे पाछू से अबैत छी। जहन मास्टर सहायब दुआर पर ऐला त बिना जलखए करौने कोना जाय देबनि।’’
मटकन आगू बढ़ि दादी केँ सभ समाचार सुना देलकनि। समाचार सुनि दादीक मन खुषी सँ नाचि उठलनि। दादीक मन मे हुअए लगलनि जे आब गामक बच्चा अन्हार स इजोत मुहे बढ़त।
जलखै कए चाह पीबि दुनू गोटे दादी ऐठाम चललथि। दादीक घर थोड़बे हटल। रस्ता मे रमाकान्त मन मे अबै लगलनि जे स्कूल त व्यक्तिगत संस्था नहि छी। सामाजिक छी। सामाजिक संस्था मे सभहक सहयोग हेवाक चाहिऐक। धन्यवाद हुनका(भौजी) केँ दैत छिअनि जे अपन सब सम्पत्ति समाज केँ द’ रहल छथि। मुदा हमरो सभहक त किछु दायित्व होइत अछि। तेँ एहि लेल किछु करब जिम्मा भ’ जाइत अछि। मास्टर साहेबक भोजन आ रहैक जोगार हम कए देवनि। दरमाहा रुप मे खेतक उपजा हेतनि आ समाज सभ मिलि केँ जँ स्कूलक घर बना दइ त सर्वोत्तम होयत। एतै बात मन मे नचितहि छलनि कि दादी ऐठाम पहुँच गेलाह। दादी केँ रमाकान्त भौजी कहथिन। किऐक त समाजिक संबंध मे दादीक पति स भैयारी रहनि। दादीयो मास्टर सहेवक रास्ता देखैत छलीह। भौजी ऐठाम पहुँचति रमाकान्त मटकन केँ कहलखिन- ‘‘मटकन, स्कूल गामक एकटा पैघ संस्था छी। तेँ समाजोक लोक केँ खबरि दहुन आ सब मिलि केँ विचारि आगूक डेग उठायब। ओना भौजीक तियागक(त्याग) प्रषंसा जते कयल जाय कम हएत। जहि सम्पत्तिक लेल लोक नीच स नीच काज करै ले उतड़ि जायत अछि, ओहि सम्पतिक तियाग भौजी कए रहल छथि। जखन मास्टर साहेब आबिये गेल छथि तखन हड़बड़ करैक जरुरत नहि। अखन सौंसे गाम मे सबकेँ कहि दहुन आ बेर मे सभ एकठाम बैसि विचारि लेब।’’
बेर टगि गेल। समाजक सभ एका-एकी अबै लगलाह। सभ केँ मन मे जिज्ञासा रहनि। तेँ विषेष उत्सुक सभ रहथि। सभहक बीच मे रमाकान्त कहलखिन- ‘‘समाजक सभ जनिते छी जे भौजी अपन सभ सम्पत्ति बच्चा सभहक लेल दए रहल छथि। जाहि स हमरे अहाँ केँ कल्याण होयत। मुदा हमरो अहाँक दायित्व होयत अछि जे हमहूँ सभ किछु भागीदार बनी। जाधरि हम जीबैत रहब ताधरि षिक्षक केँ रहैक आ भोजनक प्रबंध करैत रहबनि। अहाँ सभ स्कूलक घर बना दिऔक।’’
रमाकान्तक विचार केँ सभ थोपड़ी बजा समर्थन कए देलकनि। मुस्कुराइत हीरानन्द कहलखिन- ‘‘घर बनै मे किछु समय लगत, तहि बीच अहाँ सभ अपन-अपन बच्चा केँ पठाउ। हम पढ़ाई शुरु कए देव।’’
मास्टरो साहेबक विचार केँ सभ थोपड़ी बजा समर्थन कए देलकनि। थोपड़ी बन्न होइतहि दुखिया ठाढ़ भए अपन विचार रखैत बजै लगल- ‘‘खेती करै ले कते स हर-जन अनताह। जते बोनिहार छी सभ मिलि खेती कए देबनि। किऐक त जहिना मास्टर साहेव हमरा सभहक सेवा करताह तहिना त हमहूँ सभ मिलि केँ हुनकर सेवा करबनि।’’
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मौलाइल गाछक फुल:ः 3
छह मास से सोनेलालक स्त्री सुगिया अस्सक छथि। परोपट्टाक डाॅक्टर, वैदय, हकीम ओझा-गुनी थाकि गेल मुदा सुगियाक रोग एक्कैसे होइत गेलै जे उन्नैस नहि भेलैक। फेदरति-फेदरति मे सोनेलाल पड़ल। दिन-राति एक्को क्षण मन चैन नहि। कखनो डाॅक्टर एहिठाम जायत त कखनो दवाइ आनै बजार जायत छलाह। कखनो बच्चा ले दूध अनै जाइत त कखनो माल-जाल केँ खाइ-पीबै ले दइत छलाह। अपना खाइयो-पीवैक सुधि नहि रहैत छलनि। कखनो मनतरिया केँ बजा अनैत त कखनो साँढ़-पारा केँ रोमए ले खेत जाइत छलाह। स्त्री मरैक ओते चिन्ता नहि जते तीनि बेटी पर से भेल चारिम बेटाक। कोरैलै बेटा जनमै काल सुगिया केँ दुख पकड़ि लेलकनि। बच्चा जनमै काल तेहेन समय भ गेल छलैक जे सोनेलाल डाॅक्टर एहिठाम नहि जाय सकलाह। एक त जाड़क मास, दोसर अनहरिया राति। कनिये-कनिये पछबा सिहकी दइत आ बरखा बुन्न जेँका टप-टप गाछ सभ पर स पालाक बुन्न खसैत छलैक। समय देखि सोनेलाल बेवस भ’ गेलाह। पलहनिक घर लग मे रहितहुँ बजबै गेल नहि भेलनि। डरो होइन जे हम ओमहर जायब आ ऐम्हर किछु भ’ जाइन। गुप-गुप अन्हार। हाथ-हाथ नहि सुझैत छलैक। विचित्र संकट मे सोनेलाल पड़ि गेलाह।
जहिया से बच्चाक जन्म भेलै आ स्त्री बीमार पड़लनि तहिया स सोनेलाल केँ कोनो दषा बाकी नहि रहलनि। मुदा सोनेलालो हिम्मत नहि हारलनि। जे केयो जे दवाई वा प्रतिकारक कोनो वस्तुक नाम कहनि ओ आनि सोनेलाल स्त्री केँ देथिन। अंत मे पाँच कट्ठा खेत पाँच हजार मे भरना लगा सोनेलाल लहेरियासराय जाइक विचार क’ लेलक। बच्चो सभ छोट-छोट तेँ घरो आ बाहरो(लहेरियासराय) सम्हारैक लेल आदमीक जरुरत भेलनि। घर सम्हारै ले सारि आ लहेरियासराय जाइक लेल बहीनि केँ बजौलनि। स्त्रीक दूध सुखि गेलनि। तेँ बच्चा केँ बकरीक दूध उठौना केने रहथि। बहीनोक छोटका बच्चा नमहर भ’ गेल छलैक। तेँ ओकरो दूध सुखि गेल छलैक। मुदा बच्चाक दषा देखि बहीनि मसुरी दालिक झोरो खाय लगली आ बच्चो केँ छाती चटबै लगलीह जहि स कनी-कनी दूध पोनगै लगलनि।
लहेरियासराय जाइक तैयारी मे सोनेलाल लगि गेल। मालक घर मे टांगल खाट क’ उताड़ि झोल-झार झाड़ै लगला। खाटक झोलो साफ केलक आ कतौ-कतौ जे जौर टूटल रहै ओकरो जोड़ि-जोड़ि बन्हलनि। बहीनि केँ सोनेलाल कहलक- ‘‘दाय, नुआ बिस्तर आइये खीचि लाय, भोरके गाड़ी पकड़ि क’ चलैक छह। दस दिन जोकर चाउरो-दालि लइये लेब। चाउर त कोठिये मे छह, दालि दड़रै पड़तह। सब ओरियान आइये क क’ राखि लाय।’’
बहीनि- ‘‘भैया, तोहर कोन-कोन कपड़ा साफ कए देवह?’’
‘दाय, एक जोड़ धोती, अंगा आ चद्दरि हम्मर आ तू अपनो कपड़ा खीचि लीहह। अखन ते एकटा धोती पहिरनहि छी। अलगन्नी पर धोती छह, ओकरा अखने खीचि दहक जहि स नहाइ बेर तक मे सुखि जायत। नहा क’ ओकरा पहीर लेब आ पहिरलाहा धोती क’ खीचि लेब।’’
सोनेलालक साइरिये लगे मे ठाढ़। सारि केँ कहलखिन- ‘‘अहाँ दुआर-दरबज्जा से कतौ बाहर नै जायब। अंगने-दुआर मे बच्चो सभ केँ राखब आ मालो-जाल क’ खाइ-पीबै ले देवइ। समय साल खराब अछि, तोहू मे अइ गाम मे देखते छियै जे नव कबरिया छैाँड़ा सभ भाँग-गाँजा पीबि लेत आ अनेरो लोक केँ गरिअबैत रहत। जँ कियो उक्कठे क’ दिअए।’’
बहीनि कोठी स’ मसुरी आ चाउर निकालि, अंगने मे विछान पर सुखै देलक। नवकुट्टिये चाउर तेँ सुरा-फड़ा नहिये लागल छलैक। बहीनि कपड़ा खिचै गेलि आ सारि मसुरि दड़रै लगली। सोनेलाल खाट ठीक कए दू टा बरहा दुनू भागक पाइस मे बन्हलनि। कपड़ा खीचि बहिन सोनेलाल केँ पूछलक- ‘‘भैया, कत्ते चाउर-दालि ल’ जेबहक?’’
सोनेलाल- ‘‘दाय, दुइये गोरे खेनिहार रहब ने, तइ हिसाब से चाउरो आ दालियो ल लेब। तीमन-तरकारी ओतै कीनब।’’
बहीनि- ‘‘भैया, नून ते ओतउ कीनि लेब मुदा मिरचाइ, हरदी आ कड़ूतेल एतै(गामे) से नेने जायब। एकटा थारी एकटा लोटा आ दुनू छोटकी डेकची सेहो लइये लेब। डेकचिये मे सब समान ल लेब किऐक त फुट-फुट के लेला से अनेने नमहर मोटरी भ’ जायत। खाइयोक चीज-बौस रहत आ लतो-कपड़ा रहत, मुदा तइयो मोटरी नम्हरे भ जायत।’’
सोनेलाल- ‘‘मोटरी नम्हरे हैत ते की करबै। जखैन गाड़ा मे ढोल पड़ल अछि तखन की करबै।’’
लहेरियासराय जाइक बहीनि तैयारियो करै आ मने-मन सोचबो करै जे भगवान भारी बिपत्ति मे भैया केँ फँसा देलखिन। जँ कहीं भौजी मरि जेतइ त भैया फटो-फन्न मे पड़ि जायत। असकरे की करत? बच्चो सभ लेधुरिये छै। कना खेती सम्हारत, धिया-पूता के देखत आ माल-जाल केँ देखत। हे भगवान ऐहेन विपत्ति सात घर मुद्दइयो रहै ओकरो नइ दिहक। हमही की करबै? हमहू ते असकरुए छी। हमरो चारि टा धिया-पूता, माल-जाल अछि। छी अइठीन आ मन टांगल अछि गाम पर। मुदा ऐहेन बेर मे जँ भैइयो केँ नै देखबै ते लोक की कहत। लोके की कहत? अपने मन मे केहेन लागत।’’
साँझ परितहि सोनेलाल टीषन जाइ ले दू टा जन तकै गेल। ओना त अपनो दियाद-वाद अछि मुदा बेर पर ककर के होइछै। अचताइत-पचताइत सोनेलाल फुदिया ऐठाम पहुँचल। फुदियाक जेहने नाम तेहने काज। सोनेलाल केँ देखितहि फुदिया पूछलक- ‘‘किमहर-किमहर ऐलह, भाय?’’
‘तोरे से काज अछि।’
‘की?’
‘काल्हि, भोरका गाड़ी पकड़ब। रेखिया माए केँ लहेरियासराय लए जेबै। अपने से ते चलै-फिड़ै वाली नइ अछि। खाट पर ल’ जाय पड़त। तेँ दू गोटेक काज अछि।’’
‘‘तोरा जँ हमर खूनक काज हेतह, हम सेहो देवह। तोहर उपकार हम जिनगी भरि नइ बिसरब। हमरा ओहिना मन अछि जे बेटी विदागरी करै ले तीनि दिन से जमाइ बैसल रहथि आ कपड़ा दुआरे बिदागरी नइ करियैक। मगर जहिना आबि के तोरा कहलियह तहिना तोहूँ रुपैआ निकालि के देने रहह। ऐहेन उपकार हम बिसरि जायब।’’
‘‘समाज मे एहिना सबहक काज सबकेँ होइ छै आ होइत रहतै। जेँइ तोरा पर भरोस छल तेँ ने एलौ। भोरे मे गाड़ी छै। तेँ गाड़ी अबै से एक घंटा पहिने घर पर से बिदा हैब।’’
‘बड़बढ़िया!’ चारिये बजे मे हमरा सब दिन निन्न टुटि जाइ अए। समय पर हम दुनू भाइ चलिऐबह। तोहूँ अपन तैयारी मे रहिह। भ’ सकै अए जे कहीं समय पर निन्न नहि टूटए ते एक लपकन चलि अबिहह।’’
फुदी एहिठाम स आबि सोनेलाल बहीनि केँ पूछलक- ‘‘दाय, सब चीज एक ठीन सरिया के रखि लाय, नै ते जाइ काल हड़बड़ मे छुटि जेतह।’’
सोनेलालक बात सुनि बहिन मने-मन सोचै लगल जे कोनो चीज छुटि ते ने गेल। बहीनि भाइ केँ पूछलक- ‘‘भैया, एक बेरि फेरि से सब चीजक नाम कहि दाय। अखने मिला क’ सरिया लेब।’’
दुनू भाइ-बहीन एक-एक क’ क’ सब वस्तुक नाम लेलक। सब वस्तु देखि सोनेलाल बहीनि केँ कहलक- ‘‘दाय, चारि बजे उठैक अछि, जँ भानस भ गेलह ते अखने खाइ ले द’ दाय।’’
हाथ-पाएर धोय सोनेलाल खाइ ले बैसल। चिन्तित मन तेँ खाइले ने होय मुदा तइओ जी जाँति क’ कहुना-कहुना चारि कौर खेलक। खा क’ मालक घर गेल। माल-जाल केँ खाइ ले द’ आबि क’ सुति रहल। बहीनि खा क’ बच्चा केँ छाती लगा सुति रहल। सुतले-सुतल बहीनि भौजाई के पूछलक- ‘‘भौजी, मन नीक अछि की ने?’’
‘हँ।’
ओछाइन पर पड़ल सोनेलाल केँ निने ने होय। विचित्र द्वन्द्व मे पड़ल रहए। एक दिषि भोरे उठै दुआरे सुतै चाहैत त दोसर दिस पत्नीक चिन्ता नीन आबै ने दइत। कछ-मछ करैत। कनिये कालक उपरान्त हाँफी भेलनि। निन एलनि। निन्न आबितहि चहा क’ उठि बहीनि केँ पुछलखिन- ‘‘दाय, भोर भ’ गेलै?’’
बहीनो जगले छलि, बाजलि- ‘‘भैया, अखने त खा के कर देलहुँ हेन। लगले भोर कना भ’ जइतैक।’’
फेरि दुनू गोटे सुति रहल। तीनि बजे दुनू भाई-फुदिया आबि, डेढ़िया पर से सोर पाड़लक- ‘‘सोनेलाल भाइ, अखैन तक सुतले छह। उठह-उठह, भुरुकुवा उगि गेलै।’’
फुदियाक आवाज सुनि दुनू भाइ-बहीनि धड़फड़ा केँ उठल। आॅखि मिरितहि सोनेलाल बाहर निकलि फुद्दी केँ कहलक- ‘‘की कहिह, बड़ी राइत मे नीन भेल। भने तू आबि के जगा देलह। हम चीज-बौस निकालै छी आ तू खाट केँ सुढ़िआवह।’’
अन्हारक दुआरे बहीनि दू टा डिबिया लेसलक(नेसलक)। एकटा डिबिया ओसारक खुटा लग रखलक आ एकटा घर मे। खाट निकालि फुद्दी पासि मे बान्हल बरहा क’ अजमा केँ देखलक जे सक्कत अछि की नहि। दुनू कात पासि मे बान्हल बरहा क’ देखि फुद्दी सोनेलाल केँ कहलक- ‘‘भाइ, बरहा त ठीक अछि। बाँसक टोन कहाँ छह?’’
बाँसक टोन घरक पँजरे मे राखल। टोन क’ ओंगरी स देखबैत सोनेलाल कहलक- ‘‘होइबैह छह।’’
टोन आनि फुद्दी डिवियाक इजोत मे देखै लगल जे गिरह सब छीलल छै की नहि। छीलल छलै। खाट पर बिछवै ले सोनेलाल एक पाँज पुआर आनि फुद्दी केँ कहलक- ‘‘तोरा अटिअबैक लूरि छह एकरा(पुआर) सरिया क चैरस क’ क’ बिछा दहक।’’
पुआर के फुदी सरिया कहलक- ‘‘भाइ, अइपर बिछेबहक की?’’
सोनेलाल घर से शतरंजी आ सिरमा आनि फुद्दी केँ देलक। बिछान सरिया फुदी बाजल- ‘‘भाइ, रस्ता मे कान बदलै काल, कही भौजी गिरि-तिरि नहि परथि। तेँ पँजरो मे दुनू भाग से डोरी बान्हि देबह।’’
फुद्दीक विचार सोनेलाल केँ जँचल। कने गुम्म भ बाजल- ‘‘की कहिह फुदी दुख पड़ला पर मनो बौआ जाइ छै। तोहूँ की अनाड़ी छह जे नइ वुझबहक। जे नीक बुझि पड़ह से करह।’’
खाट पर रोगी क’ चढ़ा, दुनू भाइ फुद्दी कान पर उठौलक। कान पर उठवितहि सोनेलाल केँ मन पड़ल कहलक- ‘‘फुदी, घर मे ते धियो-पुते रहत, कियो चेतन नहिये अछि। साइरियो आइल अछि ओहो अनठिये अछि। तेँ, तूँ राति केँ एतै खैइहह आ सुतिहह।’’
‘बड़-बढ़िया’ कहि फुद्दी आगू बढ़ल। चाउर-दालि आ बरतन-बासनक मोटरी माथ पर ल’ सोनेलाल निकलल। बच्चा केँ छाती लगौने बहीनो निकललीह। डेढ़िया पर अबितहि सुगिया खाटे पर स बाजलि- ‘‘कनी अँटकि जाउ।’’
फुदी ठाढ़ भ’ पुछलक- ‘‘किअए रोकलहुँ?’’
खाटे पर से सुगिया बजलीह- ‘‘हे सौध-गुरु, अगर नीके ना घुरि के आयब ते पचास मुरतेक भनडारा करब।’’
फुदी खाट उठा विदा भेल। रास्ता मे केयो किछु नहि बजैति रहथि। मने-मन सभ रंगक बात सोचैत रहथि। फुद्दी सोचैत जे भगवानो केहेन बेइमान अछि जे सोनेलाल भाइ सन सुधा(षुद्ध) आदमी केँ ऐहेन विपत्ति देलखिन। सोनालाल सोचैत जे तीनि बेटी पर बेटा भेल जँ घरवाली मरि जाइत ते बेटो मरि जायत। चुमौन करब तहि स बेटाक कोन गारंटी हएत। जँ कहीं बेटिये भेल त खानदानोक अंत होयत आ जिनगी भरि अपनो विआहे दानक बनर-फाँस मे सोहो पड़ल रहब।
बहीनि सोचैत जे जँ कहीं भौजी मरि जेतीह ते जिनगी भरि भैया केँ दुखे-दुख होइत रहतै।
स्टेषन पहुँच सोनेलाल मोटरी रखि गाड़ीक भाँज लगवै गेल। टिकट कटैत देखि वुझलक जे गाड़ी अबै मे लगिचा गेल अछि। हमहूँ टिकट कटाइये लइ छी। टिकट कटौलक। कनिये कालक बाद गाड़ी आयल। तीनू गोटे(दु गोटे फुद्दी आ सोनेलाल) सुगिया केँ गाड़ी मे चढ़ौलनि। सोनेलाल उपरे मे(गाड़ी मे) रहलाह। मोटरी उठा केँ फुद्दी देलकनि। मोटरी रखि सोनेलाल बहीनिक कोरा स बच्चा केँ लेलनि। बहिनो चढ़लीह। गाड़ी खुजितहि दुनू गोटे फुद्दी खाट उठा घर दिषि विदा भेल।
गाड़ी दरभंगा पहुँचल। छोटी लाइन दरभंगे तक चलैत। तेँ गाड़ी दू घंटा उपरान्त फेरि घुरि क’ निरमलिये जायत। गाड़ी स यात्री सभ उतड़ै लगलाह। मगर सोनेलाल सबतुर बैसले रहलथि। मन मे कोनो हड़वड़ी नहिये रहनि जखन सभ उतड़ि गेलाह तखन सोनेलाल सीट पर स उठि बहीनि केँ कहलनि- ‘‘दाय, तू एतै रहह, हम कोनो सबारी भजिऔने अबै छी।’’
कहि सोनेलाल गाड़ी स उतड़ि, प्लेटफार्म से निकलि वाहर एकटा टेम्पू लग पहुँचलाह। ड्राइवर निच्चा मे ठाढ़ भ’ पसिन्जर सभकेँ देखैत रहति। सिरसिराइत सोनेलाल ड्राइवर केँ कहलखिन- ‘‘भाइ, हमरा डाकडर ऐठाम जेवाक अछि, चलबह?’’
सोनेलालक बोली स ड्रइवर बुझि गेल जे देहाती आदमी छी तेँ एना बजैत छथि। मुदा सोनेलालक प्रति ड्राइवरक आकर्षण बढ़ि गेलनि असथिर से ड्राइवर पुछलखिन रोगी कहाँ छथि।’’
‘‘गाड़िये मे।’’
‘‘बजौने अबिअनु।’’
‘‘अपने पाएरे अबै वाली नइ छथि। पकड़ि केँ आनै पड़त।’’
गाड़ी केँ सोझ क’ ड्राइवर सोनेलालक संग प्लेटफार्म पर आयल। गाड़ी लग पहुँच ड्राइवर रोगी आ समान देखि मने-मन विचारलनि जे एक आदमीक काज आरो पड़त। प्लेटफार्म दिषि उठा क’ हियाबै लगल। गाड़ी साफ करै ले दू गोटे केँ नेने अवैत देखि जोर से ड्राइवर बाजल- ‘भैया’
भैया सुनि झाड़ूवला आखि उठौलक ते ड्राइवर केँ देखलक। ड्राइवर केँ देखितहि लफड़ि कए ड्रइवर लग आयल। ड्राइवर कहलकै- ‘‘भाय एकटा दुखित महिला अई कोठली मे छथि, हुनका उताड़ि केँ टेम्पू मे बैसाय दिअनु।’’
झाड़ू राखि दुनू झाड़ूओवला आ ड्राइवरो सुगिया केँ उताड़ि टेम्पू दिषि बढ़लाह। सोनेलाल मोटरी लेलनि। आ बहीन बच्चा केँ कन्हा लगा चललीह। सुगिया केँ चढ़ा क झाूड़ूवला गाड़ी साफ करै ले घुरै लगल। दुनू झाड़ूवला केँ रोकि सोनेलाल दस टा रुपैआ निकालि दियए लगलखिन। रुपैआ देखि, अधवेयषु झाड़ूवला, बाजल- ‘‘भाइ हमहू सरकारी(रेलवे) नोकरी करै छी। दरमाहा पबै छी। अहाँक मदति केलहुँ। अखन जइ मुसीबत मे अहाँ छी ओहि मे हमरा देहो आ रुपैयो से मदति करक चाही। मुदा गरीब छी, कहुना-कहुना कमा क’ गुजर कए लइत छी। किऐक त ओहूँ बुझिते हेवइ जे सब दुख गरीवे केँ होइ छै। धनीक लोक सोनाक मंदिर मुरुत के खोआ-मलाई चढ़ा घरम करैत अछि। हमर भगवान यैह मरल-टूटल लोक छथि। हम सेवा केलहुँ। भगवान करथि जे हँसी-खुषी से अहाँ घर जाय।’’
झाड़ूवलाक बात सुनि सोनेलाल अचंभित भ’ गेलाह जे जकरा से लोक छुति मानैत अछि ओकर आत्मा कतेक पवित्र छै।
टेम्पू आगू बढ़ल। थोड़े दुर गेला पर सोनेलाल ड्राइवर केँ कहलखिन- ‘‘डरेबर सहाएव, हम अनभुआर छी। कहियो ऐठाम नइ आयल छी। अहाँ अइठीन रहै छी। सबटा बुझल-गमल अछि। तेहेन डाकडर लग चलू जे हमरा रोगी केँ छुटि जाय।’’
‘‘बड़वढ़िया।’’- ड्राइवर बाजल।
मने-मन ड्रइवर सोचै लगल जे अस्पताल मे भरती करौनाइ नीक नहि हेतनि। एक त अस्पताल मे बेवस्थो बढ़िया नहि छैक दोसर जेकरे लागि-भागि छै तेकरे सभ केँ सभ सुविधो भेटैत छैक। तेँ सबसे बढ़िया डाॅक्टर बनर्जी लग लए चलिएनि। डाॅक्टर बनर्जी रिटायर भए अपन घरो आ क्लीनिको बनौने।
बारह बजि गेल। डाॅ. बनर्जीक पहिल पाली आठ बजे भिनसर से बारह बजे होइत आ दोसर पाली चारि बजे से आठ बजे साँझ धरि होइत छलनि। सब रोगी केँ देखि डाॅ. बनर्जी डेरा जेबाक तैयारी करैति रहथि टेम्पू के ड्राइवर सोझे फाटक से भीतर ओसार लग लए गेल। टेम्पू देखि डाॅ. बनर्जी फेरि वैसि रहलाह। टेम्पू रोकि ड्राइवर उतरि क’ सोझे डाॅ. बनर्जी लग जा कहलकनि- ‘‘डाॅक्टर साहेव, रोगी अपने से चलै-फिड़ैवाली नइ छथि तेँ पहिने एकटा डेरा दिअनु।’’
आखिक इषारा से डाॅ. बनर्जी कम्पाउण्डर केँ कहलखिन। बगले मे अपने डेरा। कम्पाउण्डर जा क’ एकटा कोठरी खोलि कुन्जी सोनेलाल केँ द’ देलकनि। कम्पाउण्डर घुरि क’ आबि, नोकर केँ संग क, स्ट्रेचर पर सुगिया केँ ल’ जा सीट(दू जनिया चैकी) पर सुता देलकनि। स्ट्रेचर राखि कम्पाउण्डर डाॅ. बनर्जी केँ कहलकनि- ‘‘सब व्यवस्था कए देलिएनि।’’
डाॅ. बनर्जी आगू-आगू आ कम्पाउण्डर, ड्राइबर आ सोनेलाल पाछू-पाछू। सुगिया केँ देखितहि डाॅक्टर केँ रोग चिन्हा गेलनि। मुदा आरो मजबूतीक लेल सुगिया केँ पूछए लगलखिन। हताष मन सोनेलालक। मुह सुखायल। आखि नोरायल। बहीनिक आखि स नोरक ठोप खसैत। डाॅ. बनर्जी कम्पाउण्डर सूई लगबै ले कहलखिन। कम्पाउण्डर सूइ अनै गेल। सोनेलाल डाॅ. बनर्जी केँ पूछलखिन- ‘‘डागडर सहाएव, रोगीक दुख छुटतै की नै?’’
सोनेलालक प्रष्न सुनि डाॅ. बनर्जीक हृदय पधलि गेलनि। उत्साह दैत सोनेलाल केँ कहलखिन- ‘‘चैबीस घंटाक भीतर रोगी टहलै-बुलै लगतीह। अखन एकटा सूइयाँ दैत छियनि। पाँच बजे तक सुतल रहती। उठेबनि नहि। अपने निन्न टुटतनि। निन्न टुटला पर कुड़ड़ा-आचमन करा चाह बिस्कुट देबनि।’’
ताबे कम्पाउण्डर आबि सुगिया केँ सूई लगौलक। सूइ पड़ितहि सुगिया केँ निन्न आबि गेलनि। डाॅ. बनर्जी सोनेलाल केँ कहलखिन- ‘‘आब अहाँ सभ खाउ-पीबू।’’
डाॅक्टर चलि गेलाह। ड्राइवर सोनेलाल केँ वुझबै लगलखिन- ‘‘पानिक कल बगले मे अछि। भानस करै ले चुल्हियो अछिये। अपने भानस करब। बाहर चलू दोकान देखा दइ छी। अइ से बाहर नइ जायब। लुच्चा लम्पट बेसी अछि। जेबी से पाइ निकालि लेत। तेँ जतबे काज हुअए ततबे पाइ मुट्ठी मे नेने जायब आ सामान कीनि लेब। आव हम जाइ छी। ऐठाम कोनो चीजक डर नइ करब। सभ भार डाॅक्टर साहेब केँ छनि।’’
पाँच बजितहि सुगिया आखि खोललक। सुगियाक लगे मे सोनेलालो आ बच्चो केँ कोरा मे नेने बहीनों बैसलि। आखि खोलितहि सुगिया सुतले सुतल बाजलि- ‘‘किछु खाइक मन होइ अए।’’
सुगियाक बात सुनितहि सोनेलाल केँ मन पड़ल जे डाॅक्टरो सहाएव कहने रहथि। उठि के चाह-विस्कुट आनि सुगिया लग रखलक। कल पर से लोटा मे पानि आनि केँ कुड़्ड़ा करै ले देलखिन। वैसले-वैसल सुगिया कुड़्ड़ा कए चाहे मे डुबा-डुबा विस्कुट खेलनि। चाह-विस्कुट खा सुगिया मुह पोछलक। सुगिया के मुह पोछितहि सोनेलाल पूछलक- ‘‘मन केहेन लगै अए।’’
- ‘‘कनी हल्लुक लगै अए।’’
सोनेलालो आ बहिनोक मन मे खुषी आयल। मने-मन बहीन भगवान केँ कहै लगलनि जे हे भगवान कहुना भौजी केँ नीक कए दिअनु।’’
सुगिया केँ सुधार हुअए लगल। तेसरा दिन स सुगिया बुलै-टहलै लागलीह। दू बेरि दिन मे डाॅक्टरो साहेव आवि-आवि देखथि। सभ तरहक तरदुत सोनेलाल करै ले हरदम तैयार।
दसम दिन सुगिया केँ डाॅक्टर साहेव छुट्टी दए देलखिन। सोनेलाल कम्पाउण्डर से सभ हिसाब केलनि। जते हिसाब सोनेलाल केँ भेलनि तेहि सँ पाँच सय रुपैआ अधिक ल’ सोनेलाल डाॅक्टर साहेव क आगू मे रखि देलकनि। रुपैया गनि डाॅक्टर साहेव पाँच सय रुपैया घुमवैत कहलखिन- ‘‘जोड़ै मे पाँच सौ बेसी आबि गेल। इ पाँचो सय रखि लिअ।’’
डाॅक्टर साहेबक बात सुनि सोनेलाल कहलकनि- ‘‘गनै मे गलती नइ भेल। पाँच सय अहाँ केँ खुषनामा दइ छी।’’
खुषनामा सुनि डाॅ. बनर्जी गुम्म भ गेलाह। मन मे एलनि जे वेचाराक बगए-बानि कहैत अछि जे पैइच-उधार क-ए आयल होयत तखन देखू उद्गार। हमरा कोन चीजक कमी अछि जे एहि वेचाराक फाजिल पाइ हम छूबै। मन पड़लनि, जमीनदारीक समयक पुनाह। जमीनदार सभ साल मे एक बेरि पुनाह करैत छलाह। जमीनदारक कचहरी मे पुनाह होइत छलैक। पुनाह होइ स पनरह दिन पहिने रैयत सभ केँ जानकारी दए देल जाइत छलैक। जमीनदार दिषि स मोतीचूरक लड्डू बनाओल जायत छलैक। एक रुपैआ मे एक लड्डू हिसाव स देल जायत छलैक। रैयतो मे दू विचारक रैयत रहैत छल। एक तरहक ओ छल जकरा सिर्फ अन्नेक आमदनी छलैक। ओहि तरहक रैयतक हालत कमजोर छलैक। मगर दोसर तरहक जे रैयत होइत छल ओकरा अन्नक संग-संग नगदो आमदनी छलैक। जना कोना-कोनो जाति केँ दूध-दहीक, त कोनो-कोनो जाति केँ तीमन-तरकारीक। कोनो जाति केँ पानक त कोनो-जाति केँ छोट-छोट कोल्हु इत्यादि। पुनाह धर्म स जोड़ल शब्द अछि। धार्मिक भावना सभहक मन मे रहैत छलैक। तेँ, एक-दोसर केँ निच्चा देखबैक लेल मने-मन प्रतियोगिता करैत छल। एकटा लड्डूक दाम मुष्किल स दू पाइ होइत छल होयतैक। किऐक त आठ अने चीनी(चिन्नी) आ रुपैआ मे चारि सेर खेरही वा आन कोनो अन्न, जेकर लड्डू बनैत छलैक। प्रतियोगिता दू तरहक होइत छलैक। पहिल- व्यक्ति विषेष मे आ दोसर जाति-विषेष मे। लोक खुब खुषी रहैत छलै। गामे-गाम मलगुजारी से बेसी, पुनाह मे जमीनदार रुपैआ असुल कए लइत छलाएह। जहि समाज मे मलगुजारीक चलैत लोकक खेत निलाम होइत छलैक। ओहि समाज मे पुनाहक नाम पर लूट सेहो चलैत छलैक। वैह बात डाॅ. बनर्जी केँ मन पड़लनि। हँसैत डाॅ. बनर्जी सोनेलाल केँ कहलखिन- ‘‘अहाँ, खुषी भए ऐहिठाम सँ जाय रहल छी, यैह हमर खुषनामा भेल। भगवान करथि परिवार फड़ै-फुलाय।’’
तीनू गोटे गामक रास्ता धेलनि। बच्चा केँ सुगिया कोरा मे नेने आ बहीनि बरतनक मोटरी माथ पर नेने। खालिये देहे सोनेलाल दरभंगा स्टेषन आबि गाड़ी पकड़लनि।
अपना स्टेषन मे उतड़ि तीनू हँसी-खुषी सँ गाम दिसक रास्ता धेलक। रेलवे कम्पाउण्ड स निकलि सुगिया सोनेलाल केँ कहलनि- ‘‘जाइ काल पचास मुरते सौधक भनडारा कबुला केने रही। कबुला-पाती उधार नइ राखक चाही। काल्हि खन ओहो कवुला पुराइये लेब।’’
सोनेलालोक मन खुषी रहनि। चाउर-दाइल घरे मे रहनि। रुपैयो किछु उगड़ले रहनि। मुस्कुराइत सुगिया केँ कहलखिन- ‘‘काल्हि त भनडारा नहि सम्हरत। दही पौरैक अछि, हाट से तीमन-तरकारी, नोन-तेल आनै पड़त। चारि-पाँच दिन मे भनडारा कए लेब। अखन दाइयो आयले अछि।’’
दाइक नाम सुनि बहीनि बाजलि- ‘‘भैया, तेहने गड़ू मे पड़ि गेल छेलह तेँ अपन सब कुछ छोड़ि केँ छिअह। तूँ नै बुझै छहक जे हमरो कियो दोसर करताइत नै अछि? काल्हि हम चलि जेवह।’’
सोनेलालक मन गदगद्। जहिना चुल्हि पर चढ़ाओल पानि देल बरतन मे निच्चा स आगिक ताव लगितहि निचला पानि गर्म भ उपर मुहे उठैत, तहिना सोनेलालक मन खुषी स नचैत रहनि। स्टेषन से थोड़े दूर ऐला पर सोनेलाल कहलक- ‘‘अहाँ दुनू गोरे अइठाम बैसू। लगले हम चीज-बौस कीनने अबै छी।’’
सुगियो आ बहिनो, रस्ते कात मे आमक गाछक निच्चा मे बैसलीह। सोनेलाल स्टेषन दिषि विदा भेल। स्टेषने कात मे आठ-दस टा दोकान छलैक। एकटा दोकान माछक, दोसर मुरगी आ अण्डाक एकटा सुधा दूधक एकटा चाहक, एकटा पानक आ पान-छौ टा तरकारीक। सोनेलालक मन मे एलै जे पान-सात रंगक तरकारियो, दूधो आ राहड़िक दालियो कीनिये लेब। किऐक त छह मास से ने भरि पेट अनन खेलहुँ आ ने कहियो मन असथिर रहल। तेँ आइ राति अपनो सभ परिवार आ फुद्दियो दुनू भाँइ केँ न्योत(नौत) दए खुआ देवनि। रेलवेक कम्पाउण्ड मे जे दोकान(तरकारी, दूध, माछ इत्यादिक) छलैक ओ स्थायी नहि। साधारण छपड़ी टाँगि-टाँगि दोकान चलवैत अछि। क्यो दोकानदार रेलवे सँ दोकानक पट्टो नहि बनौने। स्टेषनेक स्टाफ, दोकानदार केँ दोकान लगबै देने अछि। जहि से बट्टीक बदला सभकेँ परिवार जोकर तरकारी सब दिन भए जायत छलैक। जहिया कहियो रेलवेक अफसरक आगमन होयत छलैक तहि से पहिनहि स्टाफ दोकानदार सभकेँ कहि दैत छलैक। अपन-अपन छपड़ी सभ हटा लइत छल।
मोड़(दोकान आ रेलवेक बीच) पर ठाढ़ भए सोनेलाल सोचै लगल जे दोकान मे जे राहड़िक दालि बिकायत ओ अरबा रहैत अछि। तेँ दालि के उलवै पड़त। घर मे ते लोक पहिनहि राहड़ि उला लैत अछि। बिनु उलौल(उलाओल) राहड़िक दालि त खेसारिये जेँका होइत अछि। मुदा उलौलाक बाद आमील देल राहड़िक दालि त दालिये होइत। सबसँ नीक। लटखेवा दोकान पहुँच सोनेलाल एक किलो राहड़िक दालि, आधा किलो चिन्नी कीनलक। दुनूक दाम दए तरकारीबला लग आबि सात-आठ रंगक तरकारी कीनिलक। तरै जोकर गोलका भाँटा(भाँटिन) गंगाकातक बड़का परोड़, हैदराबादी ओल टेबि केँ कीनलक। दू किलो सुधा दूध सेहो लेलक। सब समान के गमछा मे बान्हि, हाथ मे लटकौने घुरि के सुगिया लग आयल। गमछा मे बान्हल समान देखि बहीनि पूछलक- ‘‘भैया, की सब कीनि लेलहक?’’
बहीनिक मन मे भेलनि जे धिया-पूता ले भरिसक लाइ-मुरही कीनि लेलनि। मुदा मोटरी नमहर, तेँ पुछलकनि। बहीनिक बात सुनि सोनेलाल हँसैत बाजल- ‘‘दाय, खाय-पीबैक समान सब कीनलहुँ। आइ सभ परानी मिलि नीक-निकुत खायब। बेचारा फुदियो, नोकर जेँका राति के घरक ओगरबाही करैत हैत। तेँ ओकरो दुनू भाय केँ नौत दए खुआ देबइ। तेँ तीमन-तरकारी, दूध आ दालि कीनि लेलहुँ। भानस करै ले तोहूँ तीनि गोटे(बहीनि, स्त्री आ सारि) छेबे करह। एक्कोदिन ते तोरो सभक मेजमानी होय। दाय, जते अनका भाइयो से सुख नहि होइत छै तहि से बेसी तोरा से भेल। तोहर उपकार जिनगी मे नहि बिसरब। भगवान तोरा सन बहीनि सभकेँ देथुन।’’
सोनेलालक बात सुनि गद्-गद् होयत बहीनि उत्तर देलकनि- ‘‘भैया, हम अपन काज केलहुँ। तोहर उपकार की केलियह। ऐहेन वेर पर जे तोरा नै देखितियह ते हमरा सन बहीनि ककरो रहिये के की हेतइ।’’
बहीनिक बात सुनि सुगिया पति केँ कहलनि- ‘‘दाई ते औगुताइ छथि। कहै छथि जे काल्हि भोरे चलि जायब। एकोटा धराउ घर मे साड़ियो ने अछि जे देवनि। बिना साड़ी देने कोना जाय देबनि। केहेन हैत?’’
भौजाइक बात सुनि मुस्की दैत ननदि बाजलि- ‘‘भौजी, चारु बेटा-बेटीक वियाह मे ते हमरा चारि जोड़ साड़ी रखले अछि। मुदा ऐहेन बेरि मे साड़ीक कोन काज छै। अपने ते भैया पैंइच-उधार ल’ क’ काज चलौलक अछि। तइ पर से हमरो ले करजा करत। हमरा जँ दिऔ चाहत ते हम नै लेबै।’’
घर पर अबितहि परिवार स गाम धरि खुषीक बर्खा बरिसय लगल। तीनू बेटी सुगियाक गरदनि मे लटपटा गेलि। बहिन(सुगियाक) बच्चा केँ कोरा मे लए मुह चुमै लगल। जहिना जाड़क मास मे गाछ-बिरीछ पालाक मारि स ठिठुर जाइत, मुदा गरमी केँ धबितहि नव रुप धारण करैत अछि तहिना सबकेँ भेल। छह मासक तबाही, सोग, निराषा सोनेलाल केँ छोड़ि पड़ा गेल। पास-परोसक जनिजाति सभ आबि-आबि सुगिया केँ देखवो करैत आ बीमारीक समयक खिस्सो सुनैत छलीह। एक्के-दुइये सैाँसे अंगना धियो पूतोक आ जनिजातियो स लोकक भीड़ हटल। तीनू गोटे भानसक जोगार मे लागि गेलीह। कते दिन से सोनेलाल भरि मन नहायल नहि छल। साबुन लए केँ नहाय ले गेल।
भानस भेलैक। सभ कियो भरि मन खेलनि। खाइते सभकँे ओंघी अबै लगलनि। सभ जा-जा केँ सुति रहलाह।
पत्नीक संग सोनेलाल केँ लहेरियासराय जैतहि गाम मे चर्च चलै लगल। एक दिषि जनिजाति सभ सोनेलाल केँ बाहवाही करैत छलीह त दोसर दिषि मर्दा-मर्दीक बीच इलाजक खर्चक चर्च चलै लगल। सैाँसे गाम दुनू परानी सोनेलालेक चर्च चलैत रहए। सबेरे स्कूल मे छुट्टी दय खसल मने हीरानन्द चलि ऐलाह। सबेरे हीरानन्द केँ आयल देखि रमाकान्त पुछलखिन- ‘‘सबेरे स्कूल बन्न कए देलिऐक?’’
ओना रमाकान्तो केँ सोनेलालक संबंध मे बुझल छलनि मुदा जहि गंभीरता सँ हीरानन्द सोचैत रहति ओहि गंभीरता सँ ओ नहि सोचैत छलाह। तेँ मन मे कोनो तेहेन विचार नहि छलनि। हीरानन्द उत्तर देलखिन- ‘‘बच्चा सभ केँ पढ़बै मे मोन नहि लगैत छल, तेँ छुट्टी दए देलियैक।’’
‘किअए नहि पढ़वै मे मन लगैत छल।’’
चिन्तित भए हीरानन्द कहलखिन- ‘‘एक त बाढ़िक मारल बेचारा सोनेलाल ताहि पर सँ बीमारीक। तेहेन चपेट मे पड़ि गेला जे कोनो कर्म बाकी नहि छन्हि। यैह बात मन मे घुरिआय लगल। पढ़वै मे एक्को रत्ती नीके नहि लगैत छलै।’’
सोनेलालक बात सुनितहि रमाकान्तक मन मौलाय लगलनि। मौलायत-मौलायत जहिना हीरानन्दक मन रहनि तहिना भए गेलनि। पाएर मे ठेंस लगलापर जहिना केयो मुह भरे खसैत आ छाती मे चोट लगैत अछि तहिना रमाकान्तक हृदय मे मनक चोट लगला सँ भेलनि। मुदा जोर सँ नहि कुहरि चुप्पेचाप कुहरै लगलथि। मन मे एलनि जहि गाम मे चारि-चारि टा डाॅक्टर छथि ओहि गामक लोक रोग सँ कुहरै, कते दुखक बात छी। ऐहने डाॅक्टर केँ लोक भगवान बुझि पुजनि कहाँ धरि उचित छी। जाहि पढ़ल-लिखल लोक केँ अपना गाम सँ स्नेह नहि, अपन कुटुम्व परिवार सर-समाज सँ स्नेह नहि छन्हि, अपने सुख भोगक पाछू बेहाल छथि। हुनका अनेरे दाय-माय किअए छठियार दिन छाती मे लगा जीवैक असीरवाद देलकनि। फेरि मन मे एलनि जहिना माल-जाल केँ डकहा बीमारी होइ छै तहिना त मनुक्खो केँ चटपटिया बीमारी होइ छैक। जे छन मे छनाँक कए दैत छैक। चारि टा बेटा-पुतोहू डाॅक्टर हमरे छथि जँ कहीं अपने आ कि महेन्द्रक मइये केँ ओइह चटपटिया बीमारी भए जाइन ते कि करताह ओ सभ हमरा।
मन घोर-घोर, बाके बन्न भए गेलनि।
तीन दिनक बाद सोनेलाल भनडाराक कार्यक्रम बनौलनि। खाइ-पीवैक सब ओरियान दिल खोलि केँ केलनि। तुलसी फुलक अरबा चाउर, राहड़िक दालि, एगारह टा तरकारी दही-चिन्नीक नीक व्यवस्था केलनि।
गाम मे दू पंथक साधू। पहिल पंथक महंथ रमापति दास आ दोसर पंथक गंगा दास। राम-जानकीक मंदिर रमापति दास बनौने छथि। दुनू साँझ पूजा करैत छथि। मुदा गंगादास केँ किछु नहि। सेवकान दुनू गोटे केँ छन्हि। आन-आन गाम मे सेहो दुनू गोटे केँ सेवक छन्हि।
सोनेलालक मन मे, छल-प्रपंचक मिसिओ भरि लसि नहि, तेँ पच्चीस मुरते साघुक दल रमापति दास केँ देलकनि आ पच्चीस मुरतेक दल गंगादास केँ। दल देलाक बाद सोनेलाल दुआर-दरबज्जा चिक्कन-चुनमुन करै लगला। भानस करैक बरतन सब माँजि-मूजि तैयार केलनि। खाइक लेल केराक पात काटि, धो केँ सेहो रखलनि।
एक गाम मे रहितहुँ दुनू पंथक बीच अकास-पतालक अंतर छलनि। पहिल पंथ मे ऊँच जातिक बोलवाला जबकि दोसर पंथ मे ऊँच जाति कम मुदा निम्न जाति बेसी। छूत-अछूतक कोनो भेद नहि। दिनुके भनडारा।
दोसर पंथक साधु सभ सबेरे आबि, चरण पखारि भजन शुरु केलनि। भजन शुरु होइतहि टोल-परोसक जनिजातियो आ धियो-पूता आबि केँ सैाँसे खरिहान भरि देलकनि। खरिहाने मे बैसारो केने रहथि। तीन टा भजन समाप्त भेलाक बाद रमापति दास चेलाक संग पहुँचलथि। संग मे सभ साधु रहथि। फरिक्के सँ दोसर पंथक साधु देखि रमापतिदास मने-मन जरै लगलथि। मुदा क्रोध के दाबि दरबज्जा पर पहुँचलथि। दरबज्जा पर अबितहि रमापतिदास सोनेलाल केँ कहलखिन- ‘‘हमरा सभहक बैसार फुट मे करु।’’
रमापतिदास केँ प्रणाम क’ सोनेलाल दलान दिषि इषारा दैत कहलकनि- ‘‘अपने सभ दरवज्जे पर बैसिऔक।’’
सोनेलालक विचार सुनि रमापति दास मने-मन सोचै लगलथि जे जँ अखन दोसर ठाम बैसार बनवै ले कहबैक त धड़फड़ मे संभव नहि होयत। जँ झगड़ा करै छी त ककरा सँ करु। वेचारा घरबारी की करत? घरवारीक लेल त जहिना हम दल देलाक बाद एलहुँ तहिना त ओहो सभ छथि। तेँ जेहने हम सभ तेहने ओहो सभ। अगर ओही साधु सभ सँ कहा-कही करैत छी त दू धार्मिक पंथक बीच विवाद होयत। मुदा एहिठाम त भनडारा छी, पंथक नीक-अधलाक विवेचनक मंच नहि! इहो करब उचित नहि। जँ अपना केँ उन्नैस मानि लइत छी त कायरता होयत। विचित्र स्थिति मे रमापतिदास पड़ि गेलाह। गुम्म-सुम्म, दरवज्जा आ खरिहानक बीच ठाढ़। ने डेग आगू बढ़ैन आ ने पाछु होइन। जत्ते गोटे हमरा संग आयल छथि जँ हुनका सभ स विचार पुछवनि आ ओ लोकनि हमरा मनक विपरीत विचार दैथि तखन की करब? आइ धरि त सेहो नहि केलहुँ। करब उचितो नहि। गुरु-चेलाक अन्तर समाप्त भ जायत। रमापतिदासक मन औनाई लगलनि। चाइन पर पसीनाक रुप चमकलनि। ताबे कान पर रखनिहार हारमुनियमवलाक कान्ह अंगिया गेलैक ओ आगू बढ़ि ओसारक चैकी पर हारमुनियम रखि देलक। हारमुनियम रखैत देखि ढोलकियो ढोलक रखि देलक। एहिना एका-एकी सभ अपन-अपन लोटा-गिलास धरि रखि देलक। मुदा वैसल कियो नहि। तकर कारण बिना चरण पखारने बैसब कोना? आ जाबे गुरु महाराज नहि बैसताह ताबे हमसभ कोना वैसब। सभकेँ अपन-अपन सामान(बाजा, लोटा-गिलास) रखैत देखि अपन गिलास-कमंडल के सेहो राखल देखथि। रमापतिदास केँ गर भेटिलनि। ओ(रमापतिदास) विक्षिप्त मने कहलखिन- ‘‘जखन सभहक मन अछि तखन किऐक ने दरबज्जे पर बैसलि जाय। घरवारियो ते आदर करिते छथि।’’
एकदिषि रमापतिदास केँ मन जरैत दोसर इहो खुषी जे स्वागत(सुआगतक) संग घरवारी हमरे बेसी महत्व देलनि। सभ कियो चरण पखारि बैइसय लगलाह।
बिढ़नी जेँका सुगिया नचैत छलीह। कखनो घर जा दही देखि अबैत जे कहीं बिलाई ने आबि के खा लिअए। त लगले ओसार पर राखल सामान(चाउर-दालि, तरकारी) केँ देखैत जे कौआ ने आबि के छुता दिअए। फेरि लगले अंगना मे राखल टकुना, कराह, बालटीन केँ देखैत जे धिया-पूता ने गंदा कए दिअए। त लगले आबि दलानक पाछू मे ठाढ़ भ’ टाटक भुरकी देने देखैत, जे लोक सँ भरल दरबज्जा-खरिहान अछि, कहीं मारिये ने शुरुह भए जाय। सुगियाक मनमे अहलदिल्ली पैसि गेलनि। मगज पड़क पसीना सोनेलाल केँ केषक तर देने गरदनि पर होयत गंजी तर देने, धोती भिजबैत रहैक।
भजन सुनिनिहार मे धिया-पूता स’ ल’ क’ स्त्री-पुरुष धरि। मोतियाक माए पचास वर्खक बूढ़ि। भजन बन्न भेलि देखि बुचाईदास केँ कहलखिन- ‘‘हे यौ बुचाई दास, बिना भजन गौने जे पंगहति करबै ते पाप नै लिखत?’’
मोतिया मायक कड़ूआइल बात सुनि बुचाई दास उत्तर देलखिन- ‘‘बड़ी काल गाजा पीना भ’ गेल अछि, तेँ कने पीबि लइ छी। तखन नाचो देखा देब आ कबीर सहाएव की कहलखिन सेहो सुना देव। कनिये काल छुट्टी दिअ। होअए हौ रघूदास, जलदी गुल दहक।’’
बिना साज बजनहि घुन-घुना क’ कहै लगलखिन- ‘‘हटल रहियौ सन्तो बिलैइया मारे मटकी।’’
बुचाई दासक पाँती आ मुहक चमकी देखि धियो-पूतो आ जनिजातियो, खापरि मे देल जनेरक लाबा जहिना भर-भरा केँ फुटैत अछि तहिना सभ हँसै लगलाह।
दलानो मे आ खरियानो मे भजन शुरु भैल। दोसर पंथक बैसार मे ढोलक, झालि, खजुरीक संग थोपड़ियो बजै लगल। महिला पहिल पंथ दिषि पखाउज, झालर, हारमुनियाक संग सितार सेहो बजै लागल। एक सूर एक लय आ एक ताल मे भजन शुरु भेल- ‘‘केसव! कही न जाय का कहिये!’’ मुदा दोसर पंथ दिषि भजन तते जोर सँ होइत जे पहिल पंथक भजन सुनाइये ने पड़ैत छल। महंथ रमापतिदास बाहर निकलि घुमबो करैत आ भजनो सुनैत रहथि। रमाओत भजनक अवाज दलान क घर स बाहर निकलबे नहि करैत छल। रमापति दास तामसे माहुर होइत रहथि। मने-मन भनभनेबो करैत रहथि। सोनेलाल केँ सोर पाड़ि कहलखिन- ‘‘ई कोन बखेरा ठाढ़ कए देलिऐक?’’
थरथराइत दुनू हाथ जोड़ि सोनेलाल उत्तर देलखिन- ‘‘सरकार, हम अनाड़ी छी। नहि वुझलिऐक जे एना होइ छै। जे भ’ गेलैक से त भइये गेलैक। अपने तमसाइयौ नहि। जँ कनी गलतिये भ’ गेलै ते माफ क’ दिऔक। अपने समुद्र छियैक। नीक-अधला पचबैक सामथ्र्य अछि। अखन धरि भोजन बनवैक अहरियो नहि खुनल गेल अछि, आदेष दियौक।’’
तरंगि केँ रमापतिदास कहलखिन- ‘‘हमर जते साधु छथि ओ फुटे मे अहरियो खुनता आ भोजनो बनौताह। तेँ सभ किछु(बरतन स ल क’ चाउर-दालि, तरकारी धरि) हमरा फुटा दिअ।’’
‘बड़बढ़िया’ कहि सोनेलाल सभ किछु दू भाग क’ देलकनि। चारि-चारि गोटे भानसक जोगार मे लगि गेलाह। दूटा अहरी, हटि-हटि क, खुनल गेल। सोनेलाल सभ वरतनो आ चाउरो-दालि आनि दुनू अहरी लग रखि देलकनि।
दलानक भजन बन्न भ’ गेल। मुदा खरिहानक भजन चलिते रहल। बुचाई दास अगुआ मुरते। भजनिया सभ गोल-मोल भेल बैसल, तेँ बीच मे जगह खाली रहए। ओहि खाली जगह मे बुचाई दास ठाढ़ भ’ आगू-आगू भजनक पाँतिओ गवैत आ नचबो करैत। बीच-बीच मे पाँतीक अरथो कहैत रहथि।
रमापति दास सोनेलाल केँ, हाथक इषारा सँ सोर पाड़ि, कहलखिन- ‘‘बड्ड अनधोल होइत अछि। भजन बन्न करबा दिऔ।’’
बुचाई दास लग आबि सोनेलाल बाजल- ‘‘गोसाई सहाएब, भजन बन्न क’ दिऔ। महंथ जी केँ तकलीफ होइ छनि।’’
सोनेलालक आग्रह सुनितहि, के छोट के पैघ, सभ एक्के बात कहै लगलनि जे हमसभ बिना भजन गौने पंगहति नहि करब।’’
सोनेलाल अबाक भ’ गेलाह। सैाँसे देह सोनेलालक कपैत। मुदा की करैत? क्यो त बिन दले नहि आयल छलाह। तेँ, सभ साधुक महत्व बराबरि बुझथि।
अंगनाक टाट लग ठाढ़ सुगिया मने-मन सोचैत जे जँ कहीं सौध सभ अपना मे झगड़ा कए बिना भोजन केनहि चलि जेताह, तखन ते हमर कबूला पूरा नइ हैत। कबूला नइ भेने दुखो(रोगो) घुरि क’ आबि सकैत अछि। आब ज दुखित पड़ब ते जीवि की मरब, तेकर कोन ठेकान। हे भगवान सौध सभकेँ मति बदलि दिऔन जे असथिर भए जेताह। मने-मन सौध-सौध जपै लगलीह।
दू बजैत-बजैत निर्गुण पंथ दिषि भोजन बनिकेँ तैयार भए गेल। भोजन तैयार होइतहि गंगादास सोनेलाल केँ कहलखिन- ‘‘भोजन बनि गेल तेँ आब भोजनक जगह तैयार करु।’’
गंगादासक आदति सुनि सोनेलालक करेज आरो थरथर कपै लगल। ई केहेन हैत। एक दिषि साधु सभ भोजन करताह आ दोसर दिषि बनितहि अछि। एक त अखने से सौध सभ दरवज्जा पर ऐला तखने से झंझट होइ अए। कहुना-कहुना अखैन धरि पार लगल, मगर आब आखरी बेर मे ने कही झगड़ा फँसि जाइन। बाढ़नि आनै लाथे सोनेलाल आंगन गेल। आंगन मे जा बाढ़नि ताकै लाथे बैसि रहल। बैइसैक कारण रहैक समय लगायव। कनिये कालक बाद सुनलक जे हिनको सभहक भोजन तैयार भ’ गेलनि। बाढ़नि नेनहि सोनेलाल अंगना स निकलि खरिहान आवि बाहरै लगल। खरिहान बहारि सोनेलाल पानिक छिच्चा देलक। छिच्चा द’ खरही बिछौलक। खरही बिछबितहि साधु सभ हरे-हरे केँ उठि खरही पर बैसलाह। खरही पर बैसितहि पात उठल। पत्ताक बँटवारा शुरु होइतहि रमापति दास अपन सत्तरि मे घुमि-घुमि जय-जयकार करै लगलाह। दोसरि दिषि मंगल(भजन) शुरु भेल।
सभ साधु भोजन केलनि। भोजन कए सभ उठलाह। दोसर पंथ दिसक सत्तरि मे एक्को टा अन्न वा कोनो वस्तु पात पर छुतल नहि। जबकि दोसर सत्तरि मे, बरिआतीक भोजन जेँका, छुतल। सभकेँ उठितहि चारुभर से कौआ-कुकुड़ आवि-आबि खाय लगल।
भोजन कए दोसर पंथवला सब ढोलक-झालि लए विदा हुअए लगल। मुदा रमौत दिषि से दछिनाक तगेदा भेल। अनाड़ी सोनेलाल सिक्कीक चंगेरी मे पान-सुपारी लए बीच मे ठाढ़ रहथि। हाथक इषारा स’ रमापति दास सोनेलाल केँ सोर पाड़ि, कहलखिन- ‘‘आब हम सभ चलब, तेँ झव दे दछिना लाउ।’’
सोनेलाल- ‘‘कोना की दछिना.....।’’
रमापतिदास- ‘‘एक सय एकावन स्थानक चढ़ौआ, एक सय एक हमर, साधु सभकेँ एकावन-एकावन आ भोजन बनौनिहार केँ एकासी-एकासी द दिऔन।’’
भोजन बनौनिहारक आ महंथजीक दछिना त सोनेलाल केँ जँचल, मुदा.....।’’
गंगादास आ बुचाइ दास सेहो सभ देखैत आ सुनेत। आँखिक इषारा स’ गंगादास केँ बुचाई दास कहलखिन- ‘‘अधिकार अधिकार छी। जत्ते दछिना रमापति दास केँ हेतनि तहि सँ एक्को पाइ कम हमहूँ सभ नहि लेब।’’
हिसाब जोड़ि सोनेलाल आंगना स रुपैआ आनि आनि रमापति दासक हाथमे द’ देलकनि। रुपैआ ठीक स गनि रमापति दास सोेनेलाल केँ असिरबाद दैत उठि के विदा भेलाह। रमापति दासक पाछू-पाछू सोनेलालो अरिआतने किछु दूर धरि गेल। फेर घुरि के आबि गंगादास लग ठाढ़ भ’ पूछलकनि- ‘‘गोसाई सहाएब, अहाँकेँ दछिना कत्ते हयत?’’
सोनेलालक तड़पैत मनकेँ गंगादास आँकि लेलखिन। दया स हृदय बरफ स पानि बनै लगलनि। मुह सँ बोली नहि फुटनि। सोनेलाल केँ की कहथिन से फुरबे नहि करनि। बुचाई दास दिषि देखि पूछलखिन- ‘‘की यौ(अओ) बुचाई दास, अहूँ त अगुआ मुरते छी, बिना अहाँ सभहक विचार लेने हम कोना जबाब देबनि। किऐक त ऐठाम तीन टा प्रष्न अछि। पहिल- दू पंथक अधिकारक सवाल अछि, दोसर- पंथ के निच्चा मुहे जाएब हैत। आ तेसर, सोनेलाल कबुला पुरबैक लेल भनडारा केलनि। एक त बीमारीक फेरि मे पड़ि पस्त भेलि छथि, तइ पर सँ हमहूँ सभ भार दिअनि, इ हमरा नीक नहि वुझि पड़ैत अछि।’’
गंगादासक प्रष्न सुनि दोसर पंथक सभ साधु गुम्म भ’ मने-मन सोचै लगलाह जे की कएल जाय? मुदा सोचवोक रास्ता अलग-अलग होइत अछि। एक्के प्रष्नक उत्तर पेवाक लेल वैरागीक रास्ता अलग होइत अछि। जबकि रागीक विचार अलग। भले ही दुनू गोटे एक्के रंग विद्वान किऐक ने होथि। ततबे नहि, आध्यात्मिक चिन्तक आ भौतिकवादी चिन्तकक बीच सेहो होइत अछि। जबकि निष्पक्ष चिन्तकक अलग होइत अछि। पंथक बीच बँटल समाज मे निष्पक्ष चिन्तक होएव कठिन अछि। किऐक त पंथ सिर्फ वैचारिकते टा नहि होइत, व्यवहारिक सेहो होइत अछि। जे परिवार आ समाज से सेहो जोड़ल रहैत अछि। जहि स जिनगीक गाड़ी चलैत अछि।
कोनो विषय पर गंभीर चिन्तन करैक लेल एकटा आरो भारी उलझन अछि। ओ अछि- भुखल आ पेटभरल शरीरक मन। मनकेँ बहुत अधिक प्रभाबित करैत अछि शरीरक इन्द्रिय। इन्द्रिय केँ संचालित करैत अछि शरीरक उर्जा(षक्ति)। उर्जाक निर्माण करैत अछि उर्जा पैदा करैक वस्तु। ओ वस्तु अबैत भोजन स। मुदा सिर्फ भोजने टा से उर्जा पैदा नहि होइत? उर्जा पैदा करैक दोसरो वस्तु अछि, जेकर भोजन शरीरक भोजन स अलगो होइत अछि।
बीच-बचाव करैत बुचाई दास गंगादास केँ विचार देलखिन- ‘‘गोसाई सहाएव, हमहू सभ अपना धरमक सिपाही छी, तेँ मरैत दम तक पाछु हटब धोखावाजी हैत, मुदा पवित्र धरमक रक्षा करब सेहो हमरे सभ पर अछि। तेँ, सोनेलाल जते रुपैआ रमापति दास केँ देलखिन, तते हमरो सभकेँ द’ दोथु। छ मासक दुख-तकलीफ हम सभ सोनेलालक सुनबे केलहुँ तेँ हुनकर दुख मे हमहू सभ शामिल भ’ रुपैआ घुमा दिअनि।’’ सैह भेल। सभ कियो हँसी-खुषी स भनडारा सम्पन्न कए जय-जयकार करैत विदा भेलाह।
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मौलाइल गाछक फुल:ः 4
मद्रास स्टेषन गाड़ी पहुँचतहि रमाकान्त नमहर साँस छोड़नि। दू राति तीनि दिन सँ गाड़ी मे बैसल-बैसल तीनू गोटे(रमाकान्त, पत्नी श्यामा आ नोकर जुगेसर) केँ देह अकड़ि गेल छलनि। गाड़ी केँ रुकितहि रमाकान्त हुलकी मारि प्लेटफार्म दिस तकलनि ते दोसरि-तेसरि लाइन पर गाड़िये सभ केँ ठाढ़ भेल देखलखिन। अपना सभहक स्टेषन जेँका नहि जे कखनो काल क’ गाड़िओ अबैत आ भीड़-भाड़ नहि रहने पुलोक जरुरत नहि पड़ैत। सगतरि रस्ते। जेमहर मन हुअए तेमहर विदा भ’ जाउ। गाड़ीयो छोट आ लाइनो तहिना। गाड़ी मे रमाकान्तकेँ अनभुआर जेँका नहि बुझिपड़लनि किऐक त बिहारेक गाड़ी आ बिहारेक पसिन्जरो रहए।
गाड़ी सँ यात्री सभ उतड़ै लगलाह। तीनू गोटे रमाकान्तो अपन झोरा-मोटरीक संग उतड़ि, थोड़े आगू पुल पर चढ़ै लगलाह। पुल पर लोकक करमान लागल मुदा अपना सभ स्टेषन जेँका ऐँड़ी-दौड़ी नहि लगैत। जकरा हियासि केँ रमाकान्त अपनो चेत गेला आ श्यामो-जुगेसर केँ कहि देलखिन। अखन धरि स्टेषन मे दुनू कात गाड़िये देखथिन मुदा पुल पर जना-जना उपर चढ़ैत जायत छलाह तेना-तेना आनो-आनो चीज सभ देखै लगलखिन। पुलक सीढ़ी पर चलैत-चलैत श्यामो आ रमाकान्तोक जाँध चढ़ि गेलनि। पुलक उपर पहुँचतहि रमाकान्त जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘जुगे, मोटरी कतबाहि मे राखि दहक आ कने तमाकू लगबह। ताबे हमहू कनी बैसि लइ छी। चलैत-चलैत जाँघ चढ़ि गेल।’’
जुगेसर मोटरी भुइये मे रखि तमाकुल चुनवै लगल। गाड़ीक जते चिन्हार पसिन्जर रहनि, सभ हरा गेलनि। नव-नव लोक पुलो पर आ निच्चो मे देखए लगलखिन। सिर्फ लोके टा नव नहि, ओकर पहिरेबो आ बोलियो। तमाकुल खा झोरा-मोटरी उठा तीनू गोटे पुल पर स उतड़ि, हियाबै लगलथि जे ककरो सँ पूछि लियनि। मुदा ककरो बाजव बुझवे नहि करथि। रमाकान्तो लोक सभ केँ देखैत आ लोको सभ रमाकान्तकेँ देखनि। तमाषा दुनू बनल रहथि। रमाकान्त आ जुगेजसर केँ धोती पहिरब देखि ओहिठामक लोक निङहारि-निङहारि देखैत रहथि आ रमाकान्तो तीनू गोटे ओहिठामक मरदो आ मौगियोक कपड़ा पहिरब देखि मने-मन हँसवो करथि। अनुभवी लोक सभ त बुझि जाइत छलाह जे बिहारी छथि। मुदा जकरा नहि वुझल छलैक ओ सभ ठाढ़ भ’ भ’ तजबीज करनि। एक जेर मौगी रस्ता धेने गप-पस करैत जाइत छलीह ओ सभ अपने सभ(मर्द) जेँका ढेका खोंसने। मौगी सभकेँ ढेका देखि श्यामा मुस्की दैत रमाकान्त केँ कहलखिन- ‘‘देखियौ एहिठामक मौगी सभकेँ ढेका खोसने।’’
श्यामाक बात सुनि रमाकान्त हँसलनि मुदा किछु बजलथि नहि। रमाकान्त आँखि उठा-उठा चारु दिषि ताकि मने-मन सोचति जे वाह रे एहिठामक सरकार। कते सुन्दर आ चिक्कन-चुनमुन बनौने अछि। कतौ बैसि जाउ। कतौ सुति रहू। सरकार बनौने अछि अपना सभ दिस, जे कोनो स्टेषन ऐहेन नहि अछि जाहि ठाम भरि ठहुन केँ गंदगी नहि रहैत होअए। प्लेटफारमे पर केराक खोंइचा, पानक पीत, चिनिया बदामक खोंइचा, कागजक टुकड़ी छिड़ियाइल नहि रहैत अछि। ततबे नहि! जेरक-जेर भिखमंगा, पौकेटमार, उचक्का रेलवे स्टेषन सँ ल’ क’ बस स्टेण्ड धरि पसड़ल रहैत अछि। मुदा एहिठाम त एक्कोटा नजरिये नहि पड़ैत अछि।
गाड़ीक झमार से तीनू गोटेक देह भसिआइत छलनि। मुदा की करितथि। जुगेसर तमाकुल चुनबै लगल। मने-मन रमाकान्त सोचैत जे बड़का फेरा मे पड़ि गेल छी। की करब? मुदा किछु फुरबे नहि करैत छलनि। बड़ी काल धरि उगैत-डूबैत रहलाह। जहि गाड़ी स गेल रहथि ओहि गाड़ीक भीड़ छँटल। लोक पतड़ाइल। तहि बीच एक गोटे मोटर साइकिल स आबि रमाकान्तेक आगू मे गाड़ी लगौलक। रमाकान्त ओहि आदमी दिषि तकै लगलथि आ ओहो आदमी रमाकान्त दिस तकै लगलनि। जना नजरिये स दुनू गोटेक बीच चिन्हा-परिचय भ’ गेलहोनि। रमाकान्त उठि क ओहि आदमी लग जा, जेबी सँ पुरजी निकालि, देखै देलखिन। पुरजी मे पता लिखल छलनि। पुरजी देखि ओ आदमी एकटा टेम्पूवला केँ हाथक इषारा स सोर पाड़लनि। टेम्पूवला केँ अबिते पता बता, लए जाय ले कहलखिन। तीनू गोटे टेम्पू मे वैसि विदा भेलाह। मुदा ड्राइवर ने हिन्दी जनैत आ ने मैथिली। तेँ ड्राइवर संग कोनो गप-सप रास्ता मे नहि होइत छलनि। स्टेषनक हाता(कम्पाउण्ड) सँ निकलितहि रमाकान्त आखि उठा-उठा बजारो दिषि देखैत आ लोको सभ केँ देखैत छलाह। बाजार मे ओते अन्तर नहि बुझि पड़नि जते लोक आ बोली मे। मने-मन रमाकान्त अप्पन इलाका आ ओहि इलाका केँ मिलबै लगलाह। अपना ऐठाम पिण्डष्यामा आ गौर वर्ण एकरंगाह अछि मुदा एहिठाम पिण्डष्याम वर्णक लोक अधिक अछि।
लोकक बाजबो दोसरे रंगक। जना मधुमाछी भनभनाइत अछि, तहिना। मुदा अपना ऐठामक लोक जेँका ठक, ओहिठाम नहि। बजारक रास्ता स जाइत रहति त’ गरीबी-अमीरी मे अन्तर बुझिये नहि पड़नि। मुदा अपना इलाकाक बजार स ओहिठामक बजार बेसी चिक्कन चुनमुन आ सुन्दर। गंदगीक कतौ दरस नहि बुझि पड़नि।
मुख्य मार्ग स निकलि पूब मुहे एकटा रास्ता गेल छलैक। ओहि रास्ता मे डाॅक्टर महेन्द्रक घरो आ क्लीनिको। मुदा जहि अस्पताल मे महेन्द्र नोकरी करैत रहथि ओ मुख्य मार्ग मे छलैक। ओहि गलीक मोड़ पर टेप्पू ड्राइवर तीनू गोटे केँ उताड़ि भाड़ा ल’ आगू बढ़ि गेल। सड़कक दुनू भाग बड़का-बड़का मकान सभ अछि। ओहि मोड़ पर तीनू गोटे मोटरी रखि वैसि रहलथि। गाड़ीक झमार स तीनूक देह-हाथ बथैत छलनि। ठाढ़ रहले नहि होइत छलनि। जहिना अमावस्याक राति मे बादल पसरि आरो अन्हार कए दइत अछि तहिना रमाकान्तो केँ होइत छलनि। एक त अनभुआर जगह दोसर बोलिक भिन्नता। बोली(भाषा) मनुष्य मनुष्यक बीच कत्ते दूरी बनवैत अछि इ बात रमाकान्त आइये बुझलनि। श्यामा मने-मन सोचैत जे हे भगवान केहेन जगह अछि जे अछैते मनुक्खे हम सभ हराइल छी। तीनू गोटे निराषक समुद्र मे डूबल। मने-मन रमाकान्त सोचैत जे आब की करब? आइ धरि जिनगी मे ऐहेन फेड़ा नहि पड़ल छल। अपन सभ बुद्धि-अकील हरा गेल अछि। रमाकान्त जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘जुगेसर, मन घोर-घोर भ’ गेल अछि। कनी तमाकू लगावह?’’
जुगेसर तमाकुल चुनवै लगल। सभ सभहक मुह देखि पुनः नजरि निच्चा क’ लइत छलाह। तहि बीच डाॅक्टर महेन्द्र(रमाकान्तक जेठ बेटा) फियेट गाड़ी सँ अस्पताल से घर अबैत रहथि कि सड़कक कात मे तीनू गोटे केँ बैसल देखलनि। पहिने त थोड़े धखयलाह, मुदा चिन्हल चेहरा, तेँ मेन रोड से गाड़ी बढ़ा अपन रास्ता पर लगौलथि। गाड़ी ठाढ़ कए महेन्द्र उतड़ि रमाकान्त केँ गोड़ लगलनि। रमाकान्त केँ गोड़ लागि महेन्द्र माए केँ गोड़ लगलनि। गोड़ लागि महेन्द्र पिताक झोरा लए गाड़ी मे रखलनि। तीनू गोटे उठि गाड़ी दिस बढ़लाह। जुगेसर, मोटरी गाड़ी मे रखलक। चारु गोटे गाड़ी मे बैसि आगू बढ़लाह। महेन्द्र अपने ड्राइवरी करैत रहथि। महेन्द्र केँ गाड़ी चलबैत देखि माए पूछलकनि- ‘‘बच्चा, मोटर अपने हँकै छह?’’
‘हँ’
‘डरेबर नइ छह?’
माएक प्रष्न सुनि महेन्द्र मुस्कुराइत कहलकनि- ‘‘जखन गाड़ी मे रहैत छी तखन दोसर काजे कोन रहैत अछि जे डरेबर राखब। अनेरे खरचा बढ़त।’’
घरक आगू गाड़ी केँ पहुँचतहि महेन्द्र हार्न देलनि। गाड़ीक आवाज सुनि भीतर स नोकर आबि गेटक ताला खोलि देलकनि। महेन्द्र गाड़ी भीतर लए गेलाह। गाड़ी ठाढ़ क’ महेन्द्र उतड़ि गाड़ीक तीनू फाटक खोलि तीनू गोटे केँ उताड़लनि। गाड़ी से उतड़ितहि रमाकान्त मकान दिषि तकलनि। तीनि तल्ला बड़का मकान। आगूक फुलवाड़ी देखि रमाकान्त मने-मन सोचै लगलथि जे सम्पति त गामो मे बहुत अछि मुदा ऐहेन घर....। अप्पन कोन जे परोपट्टा मे ऐहेन मकान ककरो नहि छैक। मन मे उठलनि जे अपन कमाइ स महेन्द्र ऐहन घर बनौलक आ कि बैंक-तैंक स करजा ल’ के बनौलक आ कि भाड़ा मे नेने अछि। ओना कहने रहथि जे जमीन कीनि केँ मकान बनेलहुँ। मुदा ऐहेन घर बनबै मे बीसो लाख सँ उपरे खर्च भेल हेतैक। एतबे दिन मे कत्ते कमा लेलक।
आगू-आगू महेन्द्र आ तहि पाछू तीनू गोटे मकान मे प्रवेष केलनि। मकानक सिमेंट ऐहन जमाओल जे पाएर पिछड़ैत। सभसँ उपरका तल्ला मे लए जाए एकटा कोठरी रमाकान्त आ जुगेसर केँ दोसर माए केँ। सुमझा देलनि। ताबे नोकर जलखए आ पानि नेने पहुँच गेलनि। हाथो-पाएर नहि धोय रमाकान्त पलंग पर पड़ि रहलाह। पंखा चलैत रहए। दूटा पलंग कोठरी मे लगाओल रहए। दूटा टेबूल, एकटा नमहर अएना, रंग-बिरंगक देवी-देवताक फोटो देवाल मे सेहो छलैक। नील रंग स कोठरी रंगल। दूटा अलंगा सेहो देवाल दिस राखल। खूब मोटगर गद्दीदार ओछाइन पलंग पर विछौल। मसलन सेहो दुनू पलंग पर। पानिक टंकी सेहो कोठरीक मुहे पर, केबारक बगल मे छलैक।
पलंग स उठि रमाकान्त कुड़्ड़ा क’ जलखै करै लगलाह। दू कौर खा पानि पीबि रमाकान्त चाह पीवै लगलथि। जुगेसरो जलखै खा चाह पीबै लगल। महेन्द्र ठाढ़े-ठाढ़ चाह पीवै लगलाह। चाहक चुस्की लइत रमाकान्त महेन्द्र केँ पूछलखिन- ‘‘बौआ, मकान अपने छी?’’
‘हँ।’
‘बनवै मे कते खर्च भेल?’’
खर्चक नाम सुनि मुस्की दैत महेन्द्र कहलखिन- ‘‘बाबू, खर्च त डायरी मे लिखल अछि तेँ बिना देखने नीक-नाहाँति नहि कहि सकै छी मुदा तीन लाख मे जमीन कीनलहुँ से मन अछि। जखन जमीन भ’ गेल तखन चारु गोटे कमेबो करी आ घरो बनबी। तेँ ठीक सँ, बिना डायरी देखने, नहि कहि सकैत छी।’’
चाह पीबि, टेवुल पर कप रखि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘चारि दिन नहेला भ’ गेल। देह मे एक्को रत्ती लज्जति नहि बुझि पड़ै अए तेँ पहिने नहाएव, खाएब आ भरि मन सुतब।’’
‘बड़वढ़िया’ कहि महेन्द्र कोठरी स निकलि नोकर केँ कहलखिन- ‘‘तीनू गोटे,(भाइ, स्त्री आ भावो) केँ फोन से कहि दहक जे बुढ़हा-बुरही अएलाह अछि।’’
नोकर केँ कहि रमाकान्त लग आबि महेन्द्र कहलखिन- ‘‘चलू। नहाइक घर देखा दइ छी।’’
आगू-आगू महेन्द्र आ पाछू-पाछू रमाकान्त जुगेसर चललाह। स्नान घरक केवाड़ खोलि महेन्द्र कहलकनि- ‘‘दूटा जोड़ले कोठरी अछि, दुनू गोटे नहाउ।’’ कहि दुनू कोठरीक बौल जरा देलखिन।
कोठरी केँ निङहारि-निङहारि दुनू गोटे देखै लगलथि। पानिक झरना, टंकी, साबुन रखैक ताक कपड़ा रखैक अलगनी इत्यादि। रमाकान्त जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘जुगे, चाह पीलौ आ तमाकू खेबे ने केलहुँ। मन लुलुआइल अछि। जाह पहिने तमाकुल नेने आबह।’’
जुगेसर स्नान घर सँ निकलि कोठरी आबि तमाकुल-चून लए आबि तमाकुल चुनबै लगल। तमाकुल चुना जुगेसर रमाकान्तो केँ देलकनि आ अपनो ठोर मे लेलक। थूक फेकैत रमाकान्त बजलाह- ‘‘जुगे गाम मे हमहू सम्पतिवला लोक छी मुदा आइ धरि ऐहेन पैखाना कोठरी आ नहाइक घर नै देखने छेलिऐक। सभ दिन खुल्ला मैदान मे पैखाना जाइ छी आ पोखरि मे नहाइ छी।’’
‘कक्का, अपना सब गाम मे रहै छी ने। इ सब शहर-बजारक छियैक। जँ शहर-बजारक लोक गाम जेँका चाहबो करत से थोड़े हेतइ। ऐठाम लोक बेसी अछि आ जगह कम छै, तेँ लोक केँ एना बनबै पड़ै छै। मुदा पोखरि मे लोक पानि मे पैसि केँ नहाइत अछि आ ऐठाम पानि ढारि केँ नहाइत अछि। जहिना अपना सब कहियो काल लोटा स’ पाइन ढारि केँ नहाइत छी। मुदा पानि मे पैसि केँ नहेला स संतोख होइ छै, जे अइ मे नइ हेतइ।’’
‘‘ऐहेन जिनगी जीनिहार केँ गाम मे रहब पार लगतै?’’
‘से कोना लगतै।’
‘‘बाबू हमरा बेसी काल कहै छलाह जे मनुखक शरीर देखै मे एक रंग लगनहुँ, जीवैक जे ढंग छैक ओ दू रंग बना दइ छैक।’’
‘अहाँक गप हम नइ बुझलौ, काका।’’
‘‘देखहक, जे आदमी भरिगर काज(षारीरिक) सभ दिन करै अए ओकरा जहि दिन भरिगर काज नहि हेतइ ते देहो-हाथ दुखैतै आ अन्नो रुचिगर नहि लगतैक। तहिना जे आदमी हल्लुक काज करै अए आ जँ ओकरा कोनो दिन भरिगर काज करै पड़तै ते ओकरो देह-हाथ ओते दुखेतै जे अन्नो ने खा हेतइ।’’
‘हँ, से त होइ छै। हमरो कए दिन भेल अछि।’
‘‘तहिना गामक लोक जे शहर-बजार मे आबि जिनगी बदलि लइत अछि ओ फेरि गाम अही दुआरे नहि जााय चाहैत अछि।’’
‘गामक लोक गरीब अछि काका! खाय-पीबै से ल क’ ओढ़े-पीनहै, रहै, दवाइ-दारु, पढ़ै-लिखैक सब चीजक अभाव छैक, तेँ लोक नहि रहै चाहैत अछि।’
महेन्द्र पिता केँ स्नानघर पहुँचा घुमि के अपना कोठरी आबि भाय डाॅक्टर रविन्द्र, पत्नी डाॅ. जमुना भाबो डाॅक्टर सुजाता केँ फोन स कहि देलखिन जे गाम से माए-बावू आ जुगेसर अएलाह हेँ। तीनू गोटे केँ जानकारी द’ अपने भंसा घर जाय मने-मन सोचै लगलथि जे एहिठामक जे खान-पान अछि ओ हुनका सभकेँ पसिन्न हेतनि की नहि? तेँ गामक जे खान-पान अछि सैह बनाएब नीक हैत। मुदा भनसिया त ऐठामक छी तेँ बना सकत की नहि? तेँ अपने स बनाएब नीक रहत। ओना भात-दालि आ रसगर तरकारी त भनसियो बना सकैत अछि। सिर्फ तेतेरिक परहेज करैक अछि। तेतेरि के अलग स खटमिट्ठी बना लेब। जँ तरुआ तरकारी नहि बनाएव त ओ(पिता) अपमान बुझताह। ओना दूधो-दही जरुरी अछि। मुदा एक्कोटा चीज स काज चलि सकैत अछि। दहियो त घर मे नहिये अछि। लगक दोकान सभहक दही दब रहै छै तेँ रविन्द्र केँ कहि दिअनि जे दरभंगावला होटल सँ दही कीनने आबथि। ई बात मनमे अबितहि महेन्द्र मोबाइल स रबिन्द्र केँ कहलखिन। रविन्द्र अस्पताल से सोझे दरभंगावला होटल विदा भेलाह। महेन्द्र, अपने स तिलकोरक पात, परोड़, झिंगुनी, भाँटा आ आलू तड़ै लगलाह। गैस चुल्हि, तेँ लगले सब कुछ बनि गेलनि।
पैखाना जाइ स पहिनहि रमाकान्त हाथ मटिअबै ले माटि तकै लगलाह। मुदा माटिक कतौ पता नहि। नहाइ स ल’ क’ हाथ धोय धरि साबुने। रमाकान्त जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘जुगेसर, बिना माटिये हाथ कोना मटिआएब?’’
रमाकान्तक बात सुनि मुस्कुराइत जुगेसर कहलकनि- ‘‘कक्का, जेहन देष ओहन भेस बनबै पड़ैत छैक। गाममे त भरि दिन माटिये पर रहै छी मुदा ऐठाम त माटि स भेटो मष्किल अछि। किऐक ते देखते छिअए जे माटि तरमे पडि गेल अछि। ने माटिक घर अछि आ ने रस्ता पेरा। साबुनो ते गमकौए छी। की हेतइ साबुने से हाथ धो लेब।’’
कहलह ते ठीके जुगेसर मुदा हाथ धोअब आ मन केँ मानब दुनू दू बात अछि। हाथ धोइये लेब मुदा मन नहि मानत ते ओ हाथ धोअब कन्ना भेल?’’
‘हँ कक्का, इ बात ते हमहू मानै छी मुदा गंदगी साफ करैक सवाल छै की ने से त हैत। मन के बुद्धि ने चलबै छै तेँ मन के बुद्धि मना लेत।’’
‘‘तोहूँ त आब बच्चा नइ छह जे नहि बुझबहक। एकटा बात कहह जे लोक पेट मे खाइ अए। पेट भरै छैक, तखन लोक किअए कहै छै जे भरि मन खेलहुँ वा पेट भरलाक बादो कहै छै जे मन नहि भरल।’’
‘अपना सब कक्का मिथिला मे रहै छियै ने। मिथिलाक माटियो पवित्र छैक। मुदा इ त मद्रास छी ने तेँ ऐठामक लोक जे करैत हुअए, सैह करब उचित।’’
‘‘बड़बढ़िया।’’ कहि दुनू गोटे अपन क्रिया-कलाप मे लगि गेलाह।
रमाकान्त आ जुगेसर स्नाने घर मे रहति, तहि बीच तीनू गोटे (रविन्द्र, जमुना आ सुजाता) अपन-अपन गाड़ी स आबि गेलथि। सभकेँ मनमे अपन-अपन ढंगक जिज्ञासा रहनि। तेँ गाड़ी सँ उतड़ितहि सभ पिता रमाकान्त, ससुर रमाकान्त केँ देखैक लेल उताहुल। मुदा कोठरी अबितहि पता चललनि जे ओ नहाय छथि। नहाएब सुनि सभ अपन-अपन कपड़ा बदलै अपन-अपन कोठरी गेलथि। पेन्ट-षर्ट खोलि रविन्द्र लूँगी पहिरतहि मायक कोठरी दिस बढ़लाह। कोठरी मे पहुँचतहि रविन्द्र माए केँ गोड़ लागि आगू मे ठाढ़ भ गेला। रबिन्द्र केँ माए चिन्हलकनि नहि मुदा गोड़क जवाव बिना चिन्हनहि द’ देलखिन। रविन्द्र मुस्कुराइत रहथि। मुदा अनचिन्हार जेँका माए बेटाक मुह दिषि बकर-बकर देखैत रहति। तहि बीच जमुना आ सुजाता आबि माय केँ गोड़ लगलनि। दुनू पुतोहूओ केँ माय असिरवाद देलखिन। रविन्द्र बुझि गेलखिन जे माए नहि चिन्हलनि। मुस्कुराइत रविन्द्र माए केँ कहलखिन- ‘‘माय, हम रविन्द्र छी।’’
रविन्द्र नाम सुनितहि माए हक्का-बक्का भ’ गेलीह। अनायास मुह से निकललनि- ‘‘रविन्द्र।’’
चारि साल सँ रविन्द्र गाम नहि आयल छलाह। पहिने रविन्द्रक देह एकहारा छलनि। खिरकिट्टी जेँका। जे अखन मस्त-मौला भ’ गेलाह। पुष्ट देह भेने रविन्द्रक रुपे बदलि गेलनि। कोरैला बेटा होइक नाते माएक ममता बाइढ़िक पानि जेँका उमड़ि गेलनि। मुहक बोली पड़ा गेलनि। सिर्फ आखिये टा क्रियाषील रहलनि। जे अश्रुधारा स सिमसि गेलनि। आँचर स नोर पोछितहि ओ दिन मनमे नचै लगलनि जहि दिन रविन्द्र एहि आंचर मे नुकाइल रहैत छल। सौझुका तरेगण जेँका श्यामाक हृदय सुखद जिनगीक मनोरथ सभ चमकै लगलनि। हाथक इषारा सँ माय दुनू पुतोहू केँ बैइसै कहलखिन। दुनू पुतोहू माइक दुनू भाग बैसिलीह। दुनू कान्ह पर दुनू हाथ द सासु ओहि दुनियाँ मे बौआइ लगली जाहि दुनियाँ मे दुखक कोनो जगह नहि होइत छैक। मुदा सुखोक त दू टा दुनिया अछि। एक दुनिया श्यामाक आ दोसर रविन्द्रक। जे दुनियाँ श्यामा दुनू परानीक भेल जाइत छलनि ओ तियाग, करुणा दयाक सवारी स वैरागक मंजिल दिषि बढ़ैत जायत छलनि। जबकि दुनू भाय रविन्द्रक जिनगी अधिक स अधिक धन उर्पाजन क’ दैहिक सुख दिषि बढ़ल जायत छलनि।
रमाकान्त आ जुगेसर नहा क’ कोठरी अएलाह। नहेलाक उपरान्त दुनू गोटेक देहक थकान मेटा गेलनि। नव-नव सफूर्ति आ ताजगी आबि गेलनि। नव ताजगी अबितहि भूखो जगलनि। रविन्द्र कोठरी स निकलि पिताक कोठरी दिषि बढ़लाह। ताबे महेन्द्र सेहो पिता लग आबि भोजन करैक आग्रह केलकनि।
ऐम्हर सासु लग दुनू पुतोहू बैसि एक-दोसराक खानदान, परिवार आ मानवीय संबंध बनवैक लेल वस्तु-जात एकत्रित करै लगलीह। गामक जिनगी(देहाती) बितौनिहारि पचपन बर्खक माय आ बजारु जिनगी जीनिहारि दुनू दियादनी पुतोहू तीनूक मन अपन-अपन जिनगीक रास्ता स भ्रमण करैत रहनि। मुदा सासु-पुतोहूक रास्ता मे कतौ संबंध नहि रहनहुँ मानवीय संवेदना आ जिनगीक व्यवहारिक प्रक्रिया तीनू केँ लग आनि सटबैत रहनि। बीतल जिनगी त स्मृति आ इतिहास बनि जायत अछि मुदा अबैबला जिनगीक रुप-रेखा त अखने(बर्तमाने) निरधारित होएत। एक(सासु) जिनगीक पचपन बर्खक अनुभव त दोसरि-तेसरि आधुनिक षिक्षा सँ लैस। सोच मे दूरी रहनहुँ, सभ एक्के परिवारक छी, इ विचार सभकेँ बलजोरी खींचि क’ एकठाम सटबैत रहनि। सासुक मन मे प्रष्न उठैत छलनि जे हम हजारो कोस हटि क’ बेटा-पुतोहू स दूर रहैत छी, हमरा पुतोहूक सुख कत्ते हैत? समाज मे देखै छी जे अस्सी बर्खक बूढ़-पुरान स ल’ क’ पेटक बच्चा धरि एक-ठाम रहि हँसी-खुषी स जिनगी बितबैत अछि। खायब-पीबि कोनो वस्तु नहि थिक। किऐक त जकरा हम नीक वस्तु बुझै छियै ओहो भोज्य-पदार्थ छी आ जेकरा दब वस्तु बुझै छियै ओहो भोज्ये-पदार्थ छी। हँ, इ विषमता समाज मे जरुर छैक जे केयो नीक वस्तु थारी मे छुता क’ उठैत अछि। जे कुकूड़ खायत, आ कियो भुखल सुतैत अछि। मुदा हम देखै छी हजारो किस्मक भोज्य-वस्तु घरती पर पसरल अछि जेकरा ने सभ चिन्हैत अछि आ ने उद्यम क’ आनै चाहैत अछि। जबकि जमुना आ सुजाता सोचैत जे परिवार केँ आगू बढ़वैक लेल सन्तान जरुरी अछि। नोकर-दाइक सहारा स छोट बच्चाक पालन हैत(सेवा नहि) किऐक त माय अपन बच्चा केँ दूधो नहि पीआबै चाहैत। बच्चा जखन स्कूल जाय जोकर हैत तखन आवासीय विद्यालय मे भरती करा षिक्षा-दीक्षा होइत। षिक्षा प्राप्त केलाक बाद कमायक जिनगी मे प्रवेष करत। जिनगीक एक चक्र इहो थिक। जे जमुना आ सुजाताक मन मे चकभौर लइत छलनि। श्यामाक मन अपन पारिवारिक(खानदानीक) फुलवाड़ी मे औनायत छलनि। ने आगूक रास्ता देखैत छलीह आ ने पाछूक।
आगूक रास्ता कठिन अछि आ कि सघन आ कि संवेदन रहित वा सहित अछि। एक-दोसर मनुष्यक संबंध हेवाक चाहिये, ओ जरुरिये नहि अनिवार्य आ आवष्यक सेहो अछि। जे मनुष्य एहि धरती पर जन्म लेलक ओकरे ओतेक जीबैक अधिकार छैक जते दोसर केँ छैक। जँ से नहि अछि ते लड़ाई-दंगा केँ कोन शक्ति रोकि सकैत अछि? मुदा प्रष्न जटिल अछि, आइ धरिक जे दुनियाक मनुक्खक जिनगी बनि गेल अछि ओ एतेक विषम बनि गेल अछि जे सामूहिक मनुक्खक कोन बात जे दू सहोदरा भायक बीच समता रहब कठिन भ’ गेल अछि। तेँ की?
भोजनालय। नमगर-चैड़गर कोठरी। देबाल पर बहुरंगी फलक चित्र बनाओल अछि। सुन्दर हल्का गुलाबी रंग स कोठरी ढओरल एयरकंडीषन। गोलनुमा नमगर-चैड़गर खायक टेबुल। जकरा चारु कात खेनिहारक लेल कुरसी लागल। पनरहो सेे बेसिये। देवालक खोलिया मे साउण्ड बक्स। जहि स मधुर स्वर मे गीति होइत अछि।
भोजन करैक बाजारु व्यवस्था केँ महेन्द्र अपनौने। मुदा माता-पिता केँ अयला स आइ महेन्द्र धर्मसंकट मे पड़ि गेलाह। मने-मन सोचै लगलाह जे हम चारु गोटे(दुनू भाय आ दुनू दियादनी) त एक्के टेबुल पर खाइ छी मुदा माए त बाबूक सोझ मे नहि खेतीह। ततबे नहि हमरा दुनू भायक संगे त ओ खेताह मुदा दुनू पुतोहूक संग त नहि खेताह। अगर ज जोर करबनि त कहीं बिगड़ि नहि जाथि। जँ बिगड़ि जेताह तेँ आरो विचित्र भ’ जायत। तखन की करब नीक होयत? गुनधुन मे महेन्द्र। अनायास मन मे एलनि(आइल) जे माय सँ विचार पूछि लिअनि। माय लग जा पूछलखिन- माय, हमसब त एक्के टेबुल पर खाय छी मुदा....?’’
महेन्द्र बात सुनि माय बुझबति कहलखिन- ‘‘बौआ, हमरो उमेर पचास-साठि बर्खक भेल हयत। आइ धरि जहि काज केँ अधलाह बुझलिऐक, आब कोना करब? कते दिन आब जीबे करब! तइ ले किअए अपन बाप-दादाक बताओल रास्ता तोड़ब। ऐहन व्यवहार सिर्फ अपने टा परिवार मे त नहि अछि समाजो मे छैक। जाधरि ऐठाम छी ताधरि मुदा गाम गेला पर त फेर ओइह व्यवहार रहत। तइ ले ऐहेन काज करब उचित नहि। गामक जिनगीक अनुकूल चलनि अछि। कोनो चलनि समाज आ जिनगीक अनुकूल होइत अछि। जे जिनगीक लेल नीक होइत अछि। भले ही दोसर तरहक जिनगी जीनिहार केँ ओ अधलाह लगइ।’’
माइक विचार सुनि महेन्द्र दू तोर(बैच) बना क खायब नीक बुझलक। पहिल तोर मे अपने, जुगेसर आ पिता तथा दोसर तोर मे बाकी सभ कियो।
भोजन करितहि रमाकान्त हफुआय लगलाह। जुगेसर सेहो हफुआय लगल। हाथ-मुह धोय दुनू गोटे सुति रहलाह।
तीन रातिक जगड़ना। ताहि पर अन्नक निसां सेहो लागल रहनि। एक्के बेर चारि बजे रमाकान्त केँ निन्न टूटलनि। नीन टुटितहि, सुतले-सुतल रमाकान्त देवालक घड़ी पर आखि देलनि। चारि बजैत। भाँग पीवैक बेर भ’ गेल रहनि। भाँगक आदत रमाकान्त केँ पहिनहि स लागल रहनि। तेँ मद्रास अबैये काल झोरा मे भाँगक पत्ती ल’ लेने रहथि। श्यामा सेहो बुझि गेलीह जे हुनका भाँग पीबैक बेर भ’ गेलनि। भाँगक सब समान- मरीच, सोंफ अननहि छी। सिर्फ पीसेक जरुरत अछि। पलंग पर स उठि झोरा खोलि भाँगक सब समान निकालै लगलीह। तहि बीच सुजाता ब्राण्डीक किलोवला बोतल आ गिलास नेने सासु लग आबि ठाढ़ भ’ गेलीह। खाइये बेर मे सासु पुातोहू केँ कहि देने रहथिन जे बुढ़हा सब दिन चारि बजे पीसुआ भाँग पीबैत छथि। भाँगक संबंध मे सुजाता अनाड़ी रहथि। किछु नहि बुझल रहनि। मुदा ब्राण्डीक संबंध मे मे त बुझल रहनि। तेँ सभ(सुजाता, श्यामा आ रमाकान्त) अपन-अपन ढंग स साकांछ रहथि।
पलंग पर स उठि रमाकान्त जुगेसर केँ जगा, टंकी पर मुह-हाथ धोय ले गेलाह। खट-खुट अवाज सुनि श्यामा बुझि गेलीह। बोतल ल’ सुजाता तैयारे रहथि। मुदा सुजाताक मन केँ मिथिलाक संस्कृति झकझोड़ति रहनि। किऐक त मिथिलाक संस्कृतिक व्यवहारिक पक्ष जनैत नहि छलीह तेँ जहिना अनभुआर जंगल मे कोनो जानवर औनाइत रहैत तहिना सुजातो। मने-मन सोचति जे एहिठाम जहिना पुतोहू ससुरक बीच व्यवहाक होइत अछि, तहिना मिथिलो मे होइत आ कि नहि। दोसर प्रष्न उठैन जे पढ़ल-लिखल समाज मे त पुरान व्यवहारो बदलि नव रुप ल’ लइत अछि। तेँ सुजाता हाथ मे ब्राण्डीक बोतल आ गिलास रखने विचारक दुनिया मे बौआइत छलीह। रमाकान्त केँ भाँग पीवैक समय भ’ गेल छलनि तेँ विचार मे मधुरता आबि गेल छलनि। श्यामा आबि रमाकान्त केँ कहलकनि- ‘‘अखन भाँग नइ पीसिलहुँ हेन। पुतोहू जनी एकटा बोतल रखने छथि, से की कहै छियनि?’’
भाँग नहि पीसब सुनि रमाकान्त मन मे कने क्रोध अबै लगलनि मुदा बोतलक नाम सुनि दवि गेलनि। मुस्कुराइत रमाकान्त पत्नी केँ कहलखिन- ‘‘बेटी आ पुतोहू मे की अन्तर छैक। जहिना बेटी तहिना पुतोहू। ताहू मे छोटकी पुतोहू ओ त कोरैला बेटीक सदृष्य होइत। एक त दुनिया मे कोनो संबंध अधलाह नहि छैक मुदा जखन ओ सीमा मे रहैत अछि तखन। जखन सीमाक उल्लंधन लोक करै लगैत तखन लाज आ परदाक जरुरी भ’ जायत अछि। जे परम्परा बनि आगू मे ठाढ़ भ गेल अछि। मुदा ओहने(पैछला व्यवहार) निपुआंग मरि नहिये गेल अछि। तेँ नीक व्यवहार जिनगी मे धारण करब अधलाह त नहि।’’
रमाकान्तक बात सुजातो सुनैत छलथि। मने-मन खुषियो होइत छलीह जे ज्ञानवान ससुर छथि। मुदा बिना सासुक कहनहुँ त आगू बढ़ब उचित नहि। तेँ बोतल-गिलास नेने अढ़ मे ठाढ़ छलीह। रमाकान्तक विचार सुनि श्यामा सुजाता केँ कहै आगू बढ़लीह। पर्दाक अढ़ मे ओ ठाढ़। कहलखिन- ‘‘जाउ! भगवान अहाँ केँ भोलेनाथ ससुर देने छथि। मुदा ससुर जेँका नहि पिता जेँका व्यवहार करवनि।’’
बामा हाथमे बोतल आ दहिना दहिना हाथ मे गिलास नेने सुजाता ससुर लग आबि मुन्ना खोललनि कि सैाँसे कोठरी महकि पसरि गेल। गमक स हवो मे मस्ती आवि गेल। एक गिलास पीबि रमाकान्त जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘जुगेसर, तोहू एक गिलास पीबह।’’
जुगेसर- ‘‘कक्का, अहाँ लग बैसि कोना पीबि?’’
‘अखन ने तू छोट छह आ ने हम पैघ छी। सभ मनुक्ख छी। मनुक्ख त मनुक्खे लग मे रहि ने जिनगी बितौत।’
तहि बीच सुजाता गिलास जुगेसरो दिषि बढ़ौलनि। जुगेसर एक्के सूढ़ि मे सौंसे गिलास पीबि गेल। पेट मे ब्राण्डी पहुँचहि गुदगुदबै लगलै। दोसर गिलास पीबितहि रमाकान्त सुजाता केँ कहलखिन- ‘‘बेटी, किछु निमकी खाइ ले लाउ?’’
रमाकान्तक आढ़ति सुनि सुजाता गिलास-बोतल केँ टेबुल पर रखि कीचेन स मद्रासी भुजिया दूटा प्लेट मे नेने अएलीह। एकटा पलेट रमाकान्तक आगू मे आ दोसर जुगेसरक आगू मे देलनि। दू-चारि फक्का भुज्जा फाॅकि रमाकान्त फेरि दू गिलास ब्राण्डी चढ़ा लेलनि। ओना भाँगक निसां रमाकान्त केँ बुझल जे पीलाक उपरान्त घंटा-दू घंटाक बाद निसां अबैत अछि, मुदा ब्राण्डीक निसां त पीबितहि आबि गेलनि। ओना जुगेसर दुइये गिलास पीलक मुदा तेही मे मन उनटि गेलै। सैाँसे बोतल पीबि रमाकान्त ढकार केलनि। सुजाता केँ कहलखिन- ‘‘बेटी, इलाइची देल पान खुआउ?’’
सुजाता केँ बुझल। सासु पतिक खान-पानक संबंध मे सब बात कहि देहने छलखिन। दू खिल्ली पान, सुअदगर तेज जरदा डिब्बा, इलाइची, सेकल सुपारीक कतरा पलेट मे नेने सुजाता आबि रमाकान्तक आगू मे रखि देलनि। शराबक रंग मे जहिना रमाकान्त तहिना जुगेसर रंगि गेलाह। बजैक लेल दुनूक मन लुसफुसायत। पान मुह मे लइतहि रमाकान्त सुजाता केँ पूछलखिन- ‘‘बेटी, अहाँ डाक्टरी कोना पढ़लहुँ?’’
ससुरक सबाल सुनि सुजाता बगलक कुरसी पर बैसि, संकुचित भ’ कहै लगलनि- ‘‘बाबू जी, हमर पिता आ माय अपन महल्लाक कपड़ा साफ करैत छलथि। सभ दिना काज छलनि। एहि स जेना-तेना गुजर चलैत छलनि। एक्केटा घर छलनि। अनके कल पर नहेबो करै छलौ आ पानियो पीबै छलहुँ। पिता ताड़ी पीबथि। एक दिन साझू पहर केँ ताड़ी पीबि अबैत रहथि। बहुत बेसी निसां लागि गेल रहनि। रस्ता(सड़क) पर एकटा खाधि(गढ़ा) रहए। ओहि मे खाधि मे ओ खसि पड़लाह। ओहि समय एकटा ट्रक, बिना इजोतेक, पास करैत रहए। ट्रक हुनका उपरे देने टपि गेलै कुड़कुट-कुड़कुट सैाँसे शरीरक हड्डी भ’ गेलनि। हम सभ बुझवो ने केलिऐक। दोसर दिन भिनसर मे हल्ला भेलै। हमहू तीनू गोटे(माय,भाय) देखै गेलहुँ। देहक-दषा देखि चिन्हबो ने केलिएनि। मुदा कपड़ा आ चप्पल देखि मन खुट-खुट करै लगल। तीनू गोटे दुनू वस्तु केँ चिन्हि गेलिऐक। तखन हुनका उठा क’ आनि जरौलिएनि।
विचहि मे जुगेसर बाजि उठल- ‘‘अरे बाप रे।’’
जुगेसरक ‘अरे बाप’ सुनि सुजातक आखि मे आँसू आबि गेलैन्हि।
सुजाताक बात रमाकान्त आखि मूनि केँ सुनैत रहथि। जुगेसरक बात सुनितहि आखि खोललनि। हृदय पसीज गेल रहनि। ताड़ी पीआकक बात सुनि रमाकान्त मने-मन विचारति रहथि जे नषापान त हमहूँ करै छी मुदा ऐठामक जिनगी आ गामक जिनगी मे बहुत अन्तर छैक। ततबे नहि पेटबोनिया आदमीक सवाल सेहो अछि। हमरा सभहक जिनगी(ग्रामीण जिनगी) शान्तिपूर्ण अछि। अभाव(धनक) त जहिना एतौ छैक तहिना गामो मे छैक। एहिठाम किछु गनल-गूथल कारोवारी(उद्योग आ व्यापार) अछि जे समृद्धिषाली अछि। मुदा पेटबोनियो ओकरे देखाओेस(देखौस) करै चाहैत अछि जहि स ओकर जिनगी अषान्त भ’ जाइत छैक। ओहि अषान्ति केँ शान्ति करै दुआरे लोक सड़ल-गलल निसां पान करैत अछि। जहि स जिनगी बाटे मे टूटि जाइत छैक। एत्ते बात मन मे अबितहि रमाकान्त पलंग स उठि पीक फेकै निकललाह। बाहरक नाली मे पान थूकड़ि क’ फेकि, टंकी मे कुड़्ड़ा क’ कोठरी आबि सुजात केँ कहलखिन- ‘‘बेटा, चाह पिआउ?’’
आँचर स आखि पोछैत सुजाता चाह आनै निकलीह। रमाकान्तक हृदय मे सुजाताक प्रति विषेष आकर्षण बढ़ि गेलनि। जना हनुमानक हृदय मे राम-लक्ष्मण बैसल तहिना सुजातो रमाकान्तक हृदय मे एकटा छोट-छीन घर बना लेलनि। रमाकान्तक प्रति सुजातोक हृदय मे तस्वीर बनै लगलनि। आइ धरि जे बात सुजाता स क्यो ने पूछने छलनि से बात सुनि ससुरक हृदय पघलि गेलनि। जरुर रमाकान्तक हृदय मे सुजाता अपन जगह बना लेलनि। चाह आनि सुजाता रमाकान्तो केँ आ जुगेसरो केँ देलनि। हाथ मे चाह लैतहि रमाकान्त अपन अस्तित्व बिसरि गेलाह। सुजाताक आखि मे अपन आखि दए एक-टक सँ देखै लगलाह। आद्र भ रमाकान्त सुजाता केँ कहलखिन- ‘‘ओहि समयक जिनगी ओहिना मन अछि कि बिसरवो केलहुँ हेन?’’
‘बिसरब कोना! ओ समय आ घटना त हमर जिनगीक इतिहासक एक महत्वपूर्ण कालखंड छी।’’
‘‘तकर बाद की भेल?’’
‘हम, दू भाय-बहीन छी। एगारह बरखक हम रही आ आठ बर्खक भाय। दुनू गोरे इस्कूल जाइत रही। महल्ले मे स्कूल। भाइ त छोट रहै तेँ कोनो काज नइं करै मुदा हम माइक संग कपड़ो खींची, परती पर सुखेबो करी, लोहो दिअए आ माइयेक संग महल्ला से कपड़ा आनबो करी आ दाइयो अबियै। ओहि से जे कमाई हुअए तहि से गुजरो करी। पढ़ल-लिखल परिवार स ल क’ बनिया-बेकाल धरिक परिवार मे आवा-जाही रहए। पढ़ल-लिखल परिवार मे जखन जाइ ते फाटल-पुरान किताब मांगि ली। ओहि स पढ़ै ले किताब भ’ जाय। खायक जोगार कमाइये सँ भ’ जाय। एहि तरहे मैट्रिक फस्ट डिबीजन से पास केलहुँ। जखन मैट्रिकक रिजल्ट निकलल रहै तखन महल्ला भरिक लोक बाहबाही केलक। हमरो उत्साह बढ़ल। मन मे अरोपि लेलौ जे बी.एस.सी. करब। ओहि समय हमरा मन मे डाॅक्टर विचार रहबे ने करए। कोना उठैत? जतवे टा बुद्धि ततबे ने सोचितहुँ।
कओलेज मे एडमीषन शुरु भेल। भैयाक(महेन्द्र) कपड़ा दइ ले हम तीनू गोरे(माए-भाइ आ हम) भिनसुरके पहर केँ एलहुँ। भैया ताबे अस्पतालेक क्वाटर मे रहैत रहथि। ओसार पर बैसि दाढ़ी बनबैत रहथि। माए कपड़ाक मोटरी रखि दीदी(जमुना) केँ सोर पाड़ि कहलखिन- ‘‘मलिकाइन, कपड़ा लिअ।’’
हम-दुनू भाइ-बहीनि ठाढ़े रही। कोठरी से निकलितहि दीदीक नजरि हमरा पर पड़लनि। ओ(जमुना) माए केँ कहलखिन- ‘‘बेटी पास केलक, मिठाई खुआउ।’’
दीदीक(जमुना) बात सुनि भैया(महेन्द्र) दाढ़ी बनाएव छोड़ि हमरा दिषि मूड़ि उठा क’ तकलनि। बिना किछु बजनहि थोड़े काल देखि, फेरि हाँइ-हाँइ दाढ़ी कटै लगलाह। दाढ़ी काटि, सब समान(दाढ़ी कटैक) सैंति केँ राखि, हमरा सोर पाड़लनि। हमरा मनमे कोनो तरहक विचार उठबे ने कएल। किऐक त तेसरा-चारिम दिन पर बरोबरि अवैति छलहुँ। दीदी केँ भैया कहलखिन- ‘‘कने चाह बनाउ।’’ भैयाक बोली हम नइ बुझलिऐनि मुदा दीदी बुझि गेलखिन। ओ पाँच कप चाह बनौलनि। दू कप अपने दुनू परानी आ तीन कप हमरा तीनू गोरे केँ देलनि। पहिल दिन हम भैयाक डेरा मे चाह पीने रही। भैया, हमरा नाम पुछलनि। हम कहलिएनि। मैट्रिक रिजल्ट संबंध मे पुछलनि। सेहो कहलिएनि। ओ(भैया) नाम लिखवै स’ ल’ क’ किताब-कापी धरिक भार उठबैत माए केँ कहलखिन- ‘‘स्कूल-काओलेज त लगे(महल्ले) मे अछि तेँ बाहर जा पढ़ैक समस्ये नहि अछि। घरे पर रहि पढ़ि सकैत अछि। तखन स्कूल-कओलेजक खर्च स’ ल’ क’ पढै़क सामग्री धरिक खर्च दुनू भाय-बहीनिक हम देब।’’
भैयाक बात सुनि खुषी सँ हमर मन नाचि उठल। हम बकर-बकर भैयाक मुह, बड़ी काल धरि, देखिते रहि गेलहुँ। जाधरि डाॅक्टर बनलहुँ ताधरि भैया सब खर्च दइते रहलाह।’’
सुजाताक बात सुनि रमाकान्त केँ मन मे एलनि जे जँ कनियो मदति गरीब केँ कएल जाय त जिनगीक उद्धार भ’ सकैत अछि। पितो बहुत केलन्हि। बेटो केलक। बीच मे हम त किछु नहि केलहुँ। ओना दोसराक लेल रमाकान्तो बहुत-किछु केनहुँ रहथि आ करबो करथि। मुदा, सब केलहा बिसरि गेलाह।
रातिक आठ बजि गेल। एका-एकी तीनि टा गाड़ी आयल। महेन्द्रक अपन गाड़ी कोठरी मे रखि, कपड़ा बदलि, सोझे पिता लग अयलाह। महेन्द्र केँ देखितहि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बौआ, हम बेसी दिन नहि अँटकब। हम त दस गोटे मे समय बितवैवला छी। एहिठाम असकर मे नीक नहि लागत।’’
महेन्द्र- ‘‘गाड़ीक झमारल छी तेँ पहिने चारि दिन अराम करु। तकर बाद देखि-सुनि केँ जाइक विचार करब।’’


मौलाइल गाछक फुल:ः 5
मद्रास अयला रमाकान्त केँ दस दिन भ’ गेलनि। दस दिन कोना बीतिलनि से बुझवे नहि केलनि। एहि दस दिनक बीच महेन्द्र, अपने गाड़ी सँ तीनू गोटे केँ उदकमंडलम्, कोडाइकंनाल आ एकडि हिलस्टेषन सहित शुचीन्द्रम, रामेष्वरम्, तिरुचेंदूर, मदुराई, पलनी, तिरुचिरापल्ली, श्रीरंगम, तंजोर, कुम्बकोणम, नागोर, वेलांकण्णि, वैत्तीष्वरन कोइल, चिदम्वरम्, तिरुवण्णामलै, कांचीपुरम, तिरुत्तणि आओर कन्याकुमारी घुमा देलकनि। मुदा अपना सभ सँ भिन्न रीति रेवाज, वेवहार आ जीवैक ढंग ओहिठामक लोकक बुझि पड़लनि। एकटा बात जरुर देखल जे अपना सभ सँ ओ सभ अधिक मेहनतियो आ इमानदारो अछि।
भारतक आजादीक उपरान्त, राज्य पुनर्गठन अधिनियमक अन्तर्गत चैदह जनवरी उन्नैस सौ उनहत्तरि मे मद्रास राज्यक नाम तमिलनाडू राखल गेलैक। पुरना केरलक किछु हिस्सा आ आंध्रप्रदेषक किछु हिस्सा जोड़ि केँ एहि राज्यक निर्माण भेलैक।
तमिलनाडु द्रविड़ सभ्यताक केन्द्र अदौ सँ रहल अछि। ई. पू. चारिम शताब्दी मे चोल, पाण्ड्य आ चेर राजवंषक समय मे द्रविड़ सभ्यता अपन चरम सीमा पर फुलायल-फड़ल।
तेरहमी शताब्दीक आरंभ मे एहिठाम काकतीयेक शासन रहल। तेरह सौ तेइस ईस्वी मे दिल्लीक तुगलक सुल्तान काकतीय शासक केँ भगौलक। गोलकुंडाक कुतुबषाही सुल्तान अखनुका हैदराबादक न्यो लेलक। सम्राट औरंगजेब सुल्तान केँ हरा आसफ जा के गवर्नर बना देलक। मुगल शासनक आखिरी समय मे आसफ जा, अपनाकेँ निजामक उपाधि धारण कए, स्वतंत्र शासक घोषित कए लेलक।
सोलह सौ उनचालीस ईस्वी मे, ईस्ट इंडिया कम्पनीक पएर मद्रास मे जमि गेल ताधरि देषक अधिकांष भाग मे अंग्रेजक अधिकार भए गेल छलैक। तमिलनाडुक पूब मे बंगालक खाड़ी, दछिन मे हिन्द महासागर, पछिम मे केरल आ उत्तर मे कर्नाटक आ आन्ध्रप्रदेष अछि।
पैछला राति गप-सप करैत सभकेँ डेढ़ बजि गेलनि। गप्पक विषयो नमहर, सात दिनक देखल मद्रास छलनि।
ढाई बजे भोर मे, एकठाम गाड़ी दुर्धटना भए गेलैक। चारु गोटे(चारु डाॅक्टर) केँ फोन एलनि जे जलदी दुरघटनाक जगह पर अबियौक। फोन सुनि महेन्द्र तीनू गोटे रविन्द्र, जमुना आ सुजाता केँ जानकारी दैत कहलखिन- ‘‘जल्दी तैयार भए चलै चलू।’’
एकहि गाड़ी सँ चारु गोटे विदा भेलाह। दुर्घटनाक जगह पहुँच महेनद्र देखलखिन जे गाड़ी, एकटा पर राखल रौलर सँ टकरा गेल अछि। जहि स थौआ-थाकर भेल अछि। गाड़ी मे एक्के परिवारक आठ गोटे सवार रहथि। उद्योगपति परिवार। एकटा जवान आ एकटा बच्चाक मृत्यु भए गेल छलैक। एकटा बूढ़ केँ माथ फटि गेल रहनि, जहि सँ अड़-दर्ड़ बजैत रहथि। दोसर महिला केँ छाती टुटि गेल रहनि। मुदा वायु पर ओहो बजैत छलीह। एकटा जुआन पहिला केँ दुनू जाँघ टूटि गेल रहनि। दूटा ढेरबा बच्चिया केँ एक-एक आखि फुटि गेल रहनि आ एक-एक डेन टूटि गेल रहनि। अबोध बच्चा केँ किछु नहि भेल छलैक। महेन्द्र केँ पहुँचतहि धाँइ-धाँइ अस्पतालक आनो-आनो डाॅक्टर, नर्स आ स्टाफो सभ आयल छलाह। थाना पुलिस सँ ल’ क’ जिला पुलिस धरि पहुँच गेलैक। डाॅक्टर आयल छलाह सभ रोगी सभकेँ देखि विचार केलनि जे अस्पताले लए जायब नीक होएत। डाॅक्टर सभक संग मे सिर्फ अल्ले टा। ने कोनो दवाई आ ने कोनो औजार रहनि।
आठो गोटे केँ, थानोक पुलिस आ अस्पतालोक कर्मचारी, उठा-पुठा के असपताल अनलकनि। असपताल मे जाँच-पड़ताल होइतहि समय दू गोटेक मृत्यु भ’ गेलैक। वाकीक उपचार चलै लगलैक।
साँढ़े पाँच बजे, चारु गोटे महेन्द्र डेरा पहुँचलाह। गाड़ीक हड़हरेनाइ सुनि रमाकान्तोक निन्न टुटि गेलनि।
सुतैक समय नहि देखि चारु गोटे गाड़ी सँ उतड़ि अपन-अपन नित्य-कर्म मे लगि गेलाह। ओछाइने पर पड़ल-पड़ल रमाकान्त सोचै लगलथि जे आइ एगारहम दिन छी मुदा एक्को-टा पोता-पोती केँ मुँह नहि देखि सकलहुँ। जाहि परिवार मे पँच-पँच टा पोता-पोती रहत, ओहि परिवारक बच्चा सँ भेटि नहि होअए, कते दुखक बात छी? माए-बाप, दादा-दादीक स्नेह बच्चाक प्रति की होइत छैक, तेकर कोनो नामो-निषान नहि देखति। जहि बच्चाकेँ माए-बापक सिनेह नहि भेटितैक ओहि बच्चाकेँ माता-पिताक प्रति केेहेन धारणा बनतैक?
हँ, ई बात जरुर जे दुनियाँक सभ मनुष्य-मनुष्य छी, तेँ सभहक प्रति सभकेँ स्नेह हेबाक चाहिऐक। मुदा जाहि परिवेष मे हम सभ जीबि रहल छी, जाहि ठाम व्यक्तिगत सम्पत्ति आ जबाबदेहिक बीच मनुष्यक चलि रहल अछि। ताहि ठाम स्नेहो त खंडित होइत अछि। मनुष्यक जिनगी स्थायी नहि अस्था होइक अछि। उम्रक हिसाब स शरीर क्रियाषील रहैत अछि। जहिना बच्चाक उत्तरदायित्व माए-बाप पर रहैत छैक तहिना रोग स ग्रसित वा अधिक बयस भेला पर, जखन शरीरक अंग षिथिल होमए लगैत छैक तखन त दोसरेक सहाराक जरुरत होइत छैक। जँ से नहि होय त जिनगी कष्टमय हेबे करत। लोक, एक राज्य स दोसर राज्य, एक देष स दोसर देष, कमाइ ले जाइत अछि। किऐक? एहि लेल ने जे अपनो आ परिवारोक जिनगी चैन सँ चलत।
महेन्द्र केँ तीन आ रविन्द्र केँ दू सन्तान। दुनू मिला क’ पाँच भाय-बहीनि। महेन्द्रक जेठ बेटा हाई स्कूल मे पढ़ैत बाकी चारु नर्सरी मे रहति। रमेष(महेन्द्र जेठ बेटा) हाई स्कूलक होसटल मे रहैत अछि आ बाकी चारु आवाषीय स्कूलमे रहैत अछि। महीना दू महिना पर महेन्द्र जाय केँ खरचा पहुँचवैत छथि।
बाबा-दादीक जोर कयला पर, बच्चा सभ केँ भेटि करैक कार्यक्रम महेन्द्र बनौलनि। रवि दिन स्कूलो बन्न रहतैक, तेँ भेटि-घाॅट करै मे सुविधा सेहो होयतनि। सात बजे डेरा सँ चलबाक कार्यक्रम बनलनि। रमाकान्त, श्यामा आ जुगेसर समय सँ पहिनहि तैयार भ गेल छलाह मुदा भरि रातिक जगरना दुआरे महेन्द्र पछुआइल रहथि। ओंघी स देह भसिआइत रहनि। मुदा निन्न तोड़ैक दवाइ खाय रमाकान्त लग आबि कहलखिन- ‘‘बाबू, हम त भरि राति जगले रहि गेलहुँ। जखन ओछाइन पर गेलहुँ, निन्न पड़लो नहि रही कि फोन आवि गेल जे एकटा गाड़ीक दुरघटना भ’ गेलैक। जहि मे सबार एक्के परिवारक आठ गोटे छलाह ओ पैघ उद्योगपतिक परिवारक छलाह। हुनके सभकेँ देखैत-सुनैत भोर मे एलहुँ।’’
बिचहि मे जुगेसर बाजल- ‘‘मरबो केलई?’’
‘हँ। जे दुनू मुख्य कारोबारी छलाह ओ मरि गेलाह। एक गोटे के ब्रेन हेम्रेज भए गेलनि। ओ सभ दिन पगलायले रहती। एक गोटे कें छातीक हड्डी थकुचा-थकुचा भए गेल छनि, ओ दू-चारि मासक मेहमान छथि। तीनिटा अधमरु भए केँ जीविताह। एकटा, चारि सालक बच्चा टा सुरक्षित अछि।’’
रमाकान्त महेन्द्रक बातो सुनति आ मने-मन सोचवो करति जे अइह थिक जिनगी। अहीक लेल लोक एते नीच स नीच काज पर उतड़ि मनुख केँ मनुख नहि बुझैत अछि। अनका बुझवै ले धरमक नाटक रचि पूजा-पाठ, कीरतन-भजन करैत अछि। हजारो-लाखो रुपैआ खर्च कए पाथरक मूर्ति स्थापित करैत अछि। नीक-नीक प्रसाद चढ़बैत अछि। मुदा जाहि मनुष्य केँ पेट मे अन्न नहि, देह पर वस्त्र नहि, रहैक घर नहि आ जीवैक कोनो ठेकान नहि, ओकरा तँ देखिनिहारो क्यो नहि। यैह थिक कर्मकाण्डक आडम्बर आ चक्रव्यूह।
रमाकान्तकेँ गंभीर देखि मुस्की दइत महेन्द्र कहलकनि- ‘‘बावू, नोकरीक जिनगिये ऐहन होइत छैक। एक रातिक कोन बात जे एकलखाइत पाँचो राति जागल रहब तइयो किछु नहि वुझबैक। ऐहन-ऐहन दवाइ सब अछि जे खाइत देरी निन्न निपत्ता भ’ जायत अछि। जाबत अहाँ सभ चाह-पान करब ताबत हमहू तैयार भए जायत छी।’’
कहि महेन्द्र उठि क’ तैयार होइ गेलाह।
चारु गोटे कार मे बैसि विदा भेलाह। महेन्द्र, अपने ड्राइवरी करैत रहति। दुनू स्कूल एक्केठाम। एक दोसर सँ थोड़बे हटल रहै। चारु गोटे पहिने रमेषक होस्टल पहुँचलाह। छहर देवालीक बीच मे होस्टल अछि। अबै-जाइक एक्के टा दरवज्जा। जहि दरवज्जामे लोहाक फाटक लागल। एकटा चैकीदार बैसल। दरमान महेन्द्र केँ चिन्हैत रहनि। किऐक त मासे-मास ओ अबैत छथि। चारु गोटे भीतर गेलाह। भीतर मे, गारजन सभक लेल एकटा खुला घर बनल अछि। जाहि मे चारु कात कुरसी सजल। चारु गोटे ओहि घर मे बैसिलाह। महेन्द्र रमेष केँ समाद देलखिन। रमेष आबि पिता केँ गोड़ लगलकनि। पिता केँ गोड़ लागि रमेष ठकुआ क’ आगू मे ठाढ़ भ’ गेल। ने रमेष बाबा दादी केँ चिन्हैत आ ने बाबा-दादी रमेषकेँ चिन्हैत रहनि। ठकुआ केँ ठाढ़ देखि रमेषकेँ महेन्द्र कहलखिन- ‘‘बौआ, बाबा-दादी केँ गोड़ लगिअनु। महेन्द्रक कहला पर रमेष तीनू गोटे केँ गोड़ लगलकनि। षिष्टाचार निमाहैत त तीनू गोटे असिरवाद दए देलखिन। मुदा रमाकान्तक मनमे तूफान उठि गेलनि। सोचै लगलाह जे जे पोता चिन्हबो ने करै अए ओ सेवा की करत? पढ़नाइ-लिखनाइ, सभ मनुष्यक लेल जरुरी अछि। एहि स ज्ञान होइत छैक, जे जिनगी जीवैक ढंग सिखबैत छैक। मुदा जँ बच्चाकेँ परिवार सँ अलग जिनगी बना पढ़ाओल-लिखाओल जाय त ओ परिवार केँ कोना चिन्हत आ परिवारक दायित्वकेँ कोना बुझत? परिवारोक त सीमा छैक। एक परिवार पैछला पीढ़ी केँ जोड़ि बनैत जे संयुक्त परिवार कहबैत। जे मिथिलाक धरोहर छी। आ दोसर अपने लग सँ आगू बढ़ि बनैत अछि। जे एकल परिवार कहबैत अछि। जहि मे लोक बापो-माए केँ बीरान बुझि कुभेला करैत अछि। जँ एहि तरहक परिवारक संरचना होअए लगत तेँ बापो-माए केँ धिया-पूता सँ कोन मतलब रहतैक। तखन समाजक की दुर्दषा होयतैक? जँ से नहि होयतैइ तेँ मनुष्य आ जानवर मे अन्तरे की रहतैक? अखने देखि रहल छी जे अपन खून रहितहुँ, बुझि पड़ैत अछि जे जहिना हाट-बजार वा मेला-ठेला मे हजारो मनुक्ख केँ देखलो पर अनचिन्हारे-अनचिन्हार बुझि पड़ैत, तहिना त अखनो भए रहल अछि। एहि स नीक जे जहिना मनुष्यक समूह सँ परिवार बनैत आ परिवारक समूह स समाज बनैत त समाजेक सदस्यकेँ किऐक ने अंगीकार कयल जाय, जहि स जिनगी हँसैत-खेलैत बीतैत रहत। पिता केँ गुम्म देखि महेन्द्र कहलकनि- ‘‘बाबू, एहिठाम से चलू। एहिठाम सभ बच्चाक रुटिंग बनल छैक। अगर अपना सभ बेसी समय अँटकबै त बच्चाक रुटिंग गड़बड़ा जयतैक।
ममता भरल मनकेँ मारि रमाकान्त उठि केँ ठाढ़ होइत कहलखिन- ‘‘हँ, हँ, चलू। ओहू बच्चा सभकेँ देखैक अछि।’’
रमेषो चलि गेल आ इहो चारु गोटे गाड़ी मे बैसि बढ़लाह नर्सरी विद्यालय लगे मे रहै। महेन्द्र केँ दरमान चिन्हिते रहनि तेँ, कोनो रोक-राक नहिये भेलनि। चारु बच्चाकेँ दरमान बाजा अनलक। चारु बच्चा आबि महेन्द्रकेँ गोड़ लगलकनि। गोड़ लागि चारु बच्चा ठमकि गेल। हाथक इषारा से रमाकान्त आ श्यामा केँ देखवैत बच्चा सभकेँ महेन्द्र कहलखिन- ‘‘बौआ, बाबा-दादी छथुन। गोड़ लगहुन।’’
महेन्द्र केँ कहला पर चारु बच्चा तीनू गोटे केँ गोड़ लगलकनि। रमाकान्तो आ श्यामोक मन तरे-तर टूटै लगलनि। मुदा की करितथि? सोचै लगलथि जे की सोचि एहिठाम एलहुँ आ की देखि रहल छी। आब एक्को दिन एहिठाम रहब उचित नहि, मुदा जखन आबि गेलहुँ तखन ते बेटे-पुतोहूक विचार से ने गाम जायब। किछु देखैक लेल सेहो बाकी अछि। टूटल मने रमाकान्त महेन्द्र केँ कहलखिन- ‘‘बच्चा सभकेँ देखिये लेलहुँ आब ऐठाम से चलू। गामक सुरता खीचि रहल अछि। जल्दीये चलि जायब।’’
पिताक बात महेन्द्र नहि बुझि सकलाह। जाधरि महेन्द्र गाममे रहलाह विद्यार्थिये छलाह। डाॅक्टर बनला बाद मद्रासे चलि अयलाह। जाहि स मद्रासेक परिवेष मे ढलि गेलाह।
बेर टगितहि चारु गोटे ब्रह्मचारी आश्रम विदा भेलाह। बह्मचारी आश्रम मे मंदिर नहि। सिर्फ दू टा घर। एकटा घर धर्मषाला जेँका सार्वजनिक आ दोसर घर मे ब्रह्मचारी जी अपने रहैत छलाह। ओहि मे एक भाग सुतबो आ भानसो करैत छथि। बरतन-वासन सब एक भागमे सेहो ओहि घर मे रखने छथि। ब्रह्मचारी जी मिथिलेक। अद्वैत दर्षनक प्रकाण्ड पंडित छथि। नस-नस मे अद्वैत दर्षन समाइल छनि। ब्रह्मचारी आश्रम लग मे रहितहुँ महेन्द्र नहि जनैत छलाह। मुदा जखन रामेष्वरम् गेल रहथि ते ओतै एकटा पुजेगरी कहलकनि।
मुख्य मार्ग स ब्रह्मचारी आश्रम दस लग्गी पछिम। एकपेड़िया रास्ता तेँ महेन्द्र मुख्य मार्गक कतबाहि से गाड़ी लगा। चारु गोटे आश्रम दिषि बढ़लाह। आश्रमक सीमा पर पहुँचतहि रमाकान्तो आ महेन्द्रो आखि उठा-उठा तजबीज करै लगलथि। ने कोनो तरहक तड़क-भरक आ ने लोकक भीड़ आश्रममे देखथि। घर त ईंटाक बनल छैक मुदा धर्मस्थान जेँका नहि बुझि पड़ैत छैक। साधारण गृहस्तक घर जेँका आश्रम। मुदा नव चीज दुनू गोटे केँ बुझि पड़लनि। जे हम सभ मद्रासक जमीन छोड़ि मिथिला चल एलहुँ। ब्रह्चारी जी करजान मे कच्चिया हाँसू सँ केरा गाछक सुखल डपौर सब कटैत रहथि। केरा गाछक अढ़ मे रहथि। तेँ ने ब्रह्मचारी जी रमाकान्त सभ केँ देखलखिन आ ने रमाकान्त सभ ब्रह्मचारी जीकेँ। मुदा गाड़ीक आवाज ब्रह्मचारी जी सुनने रहथि। ओना गाड़ी त सदिखन चलिते रहैत अछि तेँ गाड़ीक आवाज पर ब्रह्मचारी जी धियाने नहि देलनि। अपन काज मे मस्त रहथि।
एक बीघा जमीन आश्रम मे। ओहि मे सभ किछु बनल रहैक। दू कट्ठा मे दुनू घर, आंगन आ गाइयक थैर रहनि। चारि कट्ठाक एकटा छोटबे टा पोखरि। पाँच कट्ठा मे गाछी-कलम। दू कट्ठामे गाइयक लेल घासक खेती आ सात कट्ठा मे अन्न उपजैत अछि।
सबसँ पहिने चारु गोटे पोखरिक घाट पर पहुँचलथि। पोखरिक घाट पजेबा-सिमटीक बनल। घाट पर ठाढ़ भए चारु गोटे पोखरि केँ हियासि-हियासि देखै लगलथि। पोखरिक किनछरि मे पान-सात टा मिथिलेक बगुला चरौर करैत रहए। एक टक सँ रमाकान्त बगुला केँ देखि सोचै लगलथि जे जहिया से ऐठाम एलहुँ आइये अपन इलाकाक बगुला देखलहुँ। ओना बगुला त एतहुँ अछि मुदा मिथिलाक बगुला त दोसरे चालि-ढालिक होइत अछि। बगुला पर स नजरि हटा पोखरि दिषि देलनि। पोखरि मे दस-बारह टा कुमहीक छोट-छोट समूह फूल जेँका छिड़ियाइल रहए। जे हवाक सिहकी मे नचैत रहए। तहिबीच दू टा पनिडूबी भुक दे जागल। जकरा अपना सभ पिहुओ कहै छियैक। पिहुआ केँ तजबीज करितहि रहति कि एक जेर सिल्ली उड़ैत आबि पोखरि मे बैसल। तहि बीच जुगेसर रमाकान्त केँ कहलकनि- ‘‘कक्का, इ त अपने इलाकाक पुरैनिक गाछ छी। फूलो ओहने बुझि पड़ै अए।’’
जुगेसरक बात सुनि रमाकान्त मूड़ी उठा पुरनि क’ देखि कहलखिन- ‘‘हँ, हौ जुगेसर। छी ते कमले।’’
हाथ-पाएर धोय चारु गोटे घाटक उपरका सीढ़ी पर आबि ब्रह्मचारी जी केँ हियाबै लगलथि। ब्रह्मचारी जी केँ नहि देखि रमाकान्त सोचै लगलथि जे भरिसक ब्रह्मचारी जी कतौ गेल छथि। तहि बीच जुगेसरक नजरि करजान दिषि गेल। करजान मे ब्रह्मचारी जी केँ देखि जुगेसर रमाकान्त केँ कहलकनि- ‘‘काका, एक गोटे करजान मे काज कए रहल अछि। हम जा क’ पूछि लइ छिअनि।’’
जुगेसरक बात सुनि रमाकान्तो आ महेन्द्रो आखि उठा क’ देखलनि। मुदा ब्रह्मचारी जीक छुछुन चेहरा देखि रमाकान्त केँ भेलनि जे कियो जौन मजदूर काज करैत अछि। तहि बीच ब्रह्मचारिये जीक कानमे रमाकान्तक आवाज पहुँचलनि कानमे आवाज पहुँचतहि ब्रह्मचारी जी हाथक हँसुआ नेनहि, पहुँचलथि।
ब्रह्मचारी जी अनेको भाषा आ बोलीक जानकार छथि। चारु गोटे केँ देखि ब्रह्मचारी जी बुझि गेलथि। ई लोकनि मिथिलेक छथि किऐक त जुगेसर आ रमाकान्तकेँ मिथिलेक ढंग स धोती पहिरने देखलनि। मुदा महेन्द्र केँ देखि तत्-मत् मे पड़ल रहथि। श्यामाक साड़ी पहिरब देखि ब्रह्मचारी जीक मन मानि गेलनि जे ई सभ मिथिलेक छथि। मुदा रमाकान्त ब्रह्मचारी जी केँ नहि चीन्हि, पूछलखिन- ‘‘ब्रह्मचारी जी कते छथि?’’
ब्रह्मचारी जी साधारण धोती पहिरने रहति। सेहो फाँड़ बन्हने। देह पर गमछा रहनि। ने बाबरी छटौने आ ने दाढ़ी रखने रहति। ने गरदनि मे कंठी-माला आ ने देह मे जनेउ। मुस्कुराइत ब्रह्मचारी जी उत्तर देलखिन- ‘‘अहाँ सभ मिथिला सँ एलहुँ अछि। ऐना-ठाढ़ किऐक छी। चलू बैसि क’ गप-सप करब। ब्रह्मचारी जी अपने आबि जयताह।’’
कहि ब्रह्मचारी जी पोखरिक घाट पर हाँसू रखि हाथ-पाएर धोय, अंगने मे मोथीक बिछान बिछौलनि। चारु गोटे केँ बैसाय, ब्रह्मचारी जी घर स एक घौड़ केरा निकालि अनलनि। केराक रंग-रुप देखि रमाकान्त बुझि गेलखिन जे इ त मिथिलेक गौड़िया-मालभोग छी। अँठियाहा नहि छी। घौउरो नमहर। गछपक्कू, आँठी-आँठी जुआइल छलैक। सुआदो नीक हेतइ, अपने सँ पूर्ण जुआ केँ पाकल अछि। धुकलाहा नहि छी। केराक घौड़ बीच मे राखल आ सभ किओ हाथ बगने। जुगेसर सोचैत जे खेने छी, पेट मे जगहे नहि अछि नइ ते सैाँसे घौड़ खा जइतियनि। रमाकान्त ब्रह्मचारी जी केँ कहलकनि- ‘‘अखने, एक घंटा पहिने, भोजन केलहुँ तेँ खाइक क्षुधा नहि अछि। मुदा ब्रह्चारी आश्रमक परसाद छी तेँ दू छीमी जरुर खाएब।’’
कहि दू छीमी उपरका हत्था स तोड़ि खेलनि।
रमाकान्त केँ देखि महेन्द्रो आ जुगेसरो दू-दू छीमी तोड़ि खेलनि। श्यामा हाथ बगने रहति। चुपचाप बैसल छलीह। श्यामा केँ हाथ बागब देखि ब्रह्मचारी जी कहलखिन- ‘‘बहीनि, अहाँ जाहि दुआरे हाथ बगने छी ओ हमहू बुझै छी। मुदा अपन मिथिला मे दुनू चलैन अछि। पतिक आगू मे पत्नी केँ नहि खायब आ विवाहक प्रकरण मे समाजक माय-बहीनि मिलि मौहक करैत छथि। जाहि मे पति-पत्नीकेँ संगे खुआओल जाइत अछि। तेँ अहूँ के लजेबाक नहि चाही। इ त सहजहि आश्रम छी। दोसर धर्मस्थानो छी।’’
ब्रह्मचारी जीक विचार सुनि श्यामाक मन डोललनि मगर व्यवहार मनकेँ रोकैत छलनि। असमंजस मे श्यामा केँ देखि जुगेसर फनकि केँ बाजल- ‘‘काकी, जब हमर घरनीक हाथ ढेकी मे कटि गेल रहनि तखन हम अपने हाथे खुआविअनि। अहाँ त सहजहि बृद्धि भेलहुँ।’’
जुगेसरक बात सुनि रमाकान्त मूड़ी झुका लेलनि। दू छीमी केरा श्यामो खेलनि। चारु गोटे केरा खा, पानि पीबि मुह पोछलनि।
ब्रह्मचारी जी रमाकान्त केँ पूछलखिन- ‘‘एहिठाम अपने कोना-कोना ऐलिऐक?’’
महेन्द्र केँ देखबैत रमाकान्त कहलखिन- ‘‘ई जेठ बेटा छथि। डाॅक्टरी पढ़ि, नोकरी करै एहिठाम चलि अएलाह। साल मे एक बेर अपनो गाम जायत छथि। बाल-बच्चा आ स्त्री आइ धरि गाम नहि गेलखिन अछि। तेँ दुनू परानीक मन मे आयल जे देषो-कोस आ बच्चो सभ केँ देखि आवी। तेँ एलहुँ?’’
महेन्द्र दिषि देखि ब्रह्मचारी जी पूछलखिन- ‘‘कते दिन सँ एहिठाम छी?’’
कनेक गुम्म भए समय मन पाड़ि महेन्द्र कहलकनि- ‘‘ई बाइसम बर्ख छी।’’
‘एते दिन से ऐहिठाम रहै छी, मुदा कहियो भेटि-घाँट नहि भेलहुँ।’
अपन विबसता देखबैत महेन्द्र उत्तर देलखिन- ‘‘एक त नोकरी करै छी तहि पर डाॅक्टरी ऐहन पेषा छी जे भरि मन कहियो अरामो नहि क’ पबैत छी। घुमनाइ-फीरिनाइक कोन बात। मुदा तइयो कहुना नहि कहुना समय निकालि ऐबो करितहुँ से बुझले नहि छल।’’
‘आइ कोना भाँज लागल?’
‘‘चारिम दिन रामेष्वरम् गेल रही, ओहिठाम एकटा पुजेगरी अपनेक संबंध मे कहलनि।’’
महेन्द्रक बात सुनि ब्रह्मचारी जी मुस्कुराइत कहए लगलखिन- ‘‘मास मे एक बेरि हमहुँ रामेष्वरम् जाइ छी। समुद्रक कात(समाजरुपी समुद्र) मे स्थापित रामेष्वर लग जाय समुद्र मे उठैत लहड़ि केँ धियान सँ देखबो करैत छी आ बिचारबो करैत छी। दुनू तरहक लहड़ि समुद्र मे उठैत अछि- नीको आ अधलो। नीक लहड़ि देखि मन प्रसन्न होयत अछि आ अधला देखि मन जरै लगैत अछि। मुदा तइओ सोचैत रहै छी जे अधला लहड़ि बेसी उग्र नहि हुअए। आ नीक लहड़ि सदिखन उठैत रहए।’’
ब्रह्मचारी जीक विचार जना महेन्द्रक सुतल बुद्धि केँ जगा देलकनि। अनायास महेन्द्र केँ बुझि पड़ै लगलनि जे अन्हार सँ इजोत मे आबि गेलहुँ, आ कि इजोते से अन्हार मे चलि गेलहुँ। विचित्र स्थिति मे महेन्द्र पड़ि गेलाह। जाहि रुप मे माय-बाप आ जुगेसर केँ अखन धरि देखैत छलाह ओ अनायास बदलै लगलनि। बीच स उठि महेन्द्र गाछी दिषि टहलै विदा भ’ गेलाह। ब्रह्मचारी जी बुझि गेलखिन।
रमाकान्त ब्रह्चारी जी केँ पूछलखिन- ‘‘अपने मिथिला छोड़ि एहिठाम किऐक आबि गेलहुँ? जबकि ई इलाका दोसर धर्म, संस्कृति आ जातिक छी?’’
मुस्कुराइत ब्रह्चारी जी कहै लगलखिन- ‘‘कोनो जाति पंथ आ संस्कृति क आधार होइत जिनगी। जिनगीक आधार होइत मुनुक्खक बुद्धि, विचार आ कर्म। जखने मनुक्ख अपन सुपत कर्म स जिनगी ठाढ़ करैत अछि तखने सभ किछु(धर्म, संस्कृति, विचार आ आचार) बदलि, सही मनुक्खक निर्माण करैत अछि। जकरा हम महामानव धर्मात्मा आ उच्च कोटिक मनुष्य बुझैत छी। जे मिथिलांचल मे क्षीण भ’ रहल अछि। सोलहन्नी मरल नहि अछि मुदा दबाइत-2 दुब्बर भ’ गेल अछि। ओहिठामक(मिथिलाक) जे मूल बासी छथि हुनका अभिजात वर्ण वा कही त परजीवी वर्ण वा बाहरी लोक आबि सभ किछ केँ बदलि, ऐहेन सामाजिक ढाँचा मे ढालि देलकनि। जहि स अदौ स अबैत संस्कृति केँ दाबि अभिजात संस्कृति केँ बढ़ा देने अछि। जिनगीक सच्चाई केँ दाबि बनौआ जिनगी मे बदलि देने अछि। जाहि स लोकक जिनगी वास्तविकता स हटि बौआ गेल अछि। ओना निर्मूल नष्ट नहि भेल अछि मुदा एतक क्षीण जरुर भए गेल अछि जे नीक-अधलाह केँ बेरायब कठिन भए गेल अछि। हम त सभ मनुष्य केँ मनुष्य बुझैत छी। ने कियो कारी अछि आ ने कियो गोर। मुदा जिनगीक ढाँचा ऐहन बनि गेल अछि जे स्पष्ट रुप मे एक-दोसर स पैघ आ छोट बनि गेल अछि। ओना देखबै त बुझि पड़त जे सभ, एक दोसर स पैघ आ एक-दोसर स छोट अछि। मगर मकड़ा जेँका अपने पेट स सुत निकालि, जाल बुनि, ओहिमे सभ ओझरा गेल अछि।’’
ब्रह्चारी जी आखि बन्न कए बजितहि रहति कि बिचहि मे रमाकान्त पूछि देलखिन- ‘‘अपने त प्रकाण्ड पंडित छी तखन मिथिला क’ किऐक छोड़ि एहिठाम चलि एलहुँ?’’
रमाकान्तक प्रष्न सुनि ब्रह्माचारी जी गंभीर होइत कहै लगलखिन- ‘‘अहाँक बात हम मानैत छी मुदा पढ़ल-लिखल सँ मुरुख धरिक विचार ऐहेन बनि गेल अछि जहि मे नीक विचार केँ सन्हिआइये नहि देल जायत अछि। कहलो गेल छैक जे ‘असकर वृहस्पतिओ फूसि।’ ततबे नहि जेकरा कल्याणक जरुरत अछि ओहो नीक रास्ता धरैक लेल तैयारे नहि अछि! जकरा लेल चोरि करीहुँ सइह कहै चोरा। की करबैक? जँ सिर्फ वैचारिके स्तर पर संघर्ष होय त संघर्ष कयल जा सकैत अछि मुदा ततबे नहि अछि? जिनगीक क्रिया मे उपद्रव जे करैत अछि से त करबे करैत अछि जे जानो सँ खेलबाड़ करै मे नहि चुकैत अछि! अभिजात वर्ग एते सषक्त बनि गेल अछि जे जहिना कोनो साँढ़-पारा पाँक मे चलैत काल फँसि जाइत अछि आ परोपट्टाक नढ़िया, कुकुड़क गीध, कौआ आबि-आबि जीविते मे आखि फोरि-फोरि खाय लगैत अछि, तहिना इमानदार मनुखोक संग होइत अछि। मुदा हारि मानै ले नै हम तैयार छी आ ने मानब? जहिना नव सुरजक संग नव दिन शुरु होइत तहिना नव मनुक्ख नव जिनगी बनबैक दिषा मे बढ़ैत अछि, तेँ संतोष अछि।’’
रमाकान्त- ‘‘अपनेक परिवार मे के सभ छथि?’’
ब्रह्मचारी- ‘‘पिता गिरहस्त छलाह। पनरह बीघा खेत छलनि। ओहि खेत केँ दुनू परानी(माता-पिता) उपजबै छलाह, जाहि सँ परिवार नीक जेँका चलैत छलनि। ओना रौदी-दाही होइते छलैक मुदा तइयो सहि-मरि क’ ओहि सँ गुजर करैत छलाह। हम दू भाइ छी। घरे लग नवानी विद्यालय मे हम पढ़लहुँ किछु दिन लोहना पाठषाला मे सेहो पढ़लहुँ। हमर छोट भाइ बच्चे स पिताजी क’ संग खेती करैत छलाह। नहि पढ़लनि। माइयो आ बावूओ मरि गेलाह। हम विआह नहि केलहुँ। भाइ केँ विआह करा सब किछु छोड़ि अपने घर स निकलि गेलहुँ। मनमे छल जे एहिठाम(मिथिला) जे कुरीति, कुव्यवस्था आ कुचालि मे समाज फँसल अछि ओकरा सुधारि सुरीति, सुव्यवस्था आ सुचालि दिषि लए चली। ताहि पाछू लगि गेलहुँ। मुदा वेबस भ’ छोड़ि चलि एलहुँ। कारण एहिठामक नियामक आ नियामकक पाछु पढ़ल-लिखल(जे अपना केँ पंडित बुझै छथि) लोक स’ ल’ क’ अभिजात लोकनि सब मनुक्खक साँच के ओहन बना देने छथि, जहि स कुपात्र छोड़ि सुपात्रक निर्माणे ने होइत। जकरा चलैत छीना-झपटी, बलात्कार चोरि, छिनरपन, जातीय उन्माद, धार्मिक अन्माद वा ई कहियौ जे मनुक्ख बनैक जते रास्ता अछि सब नष्ट भ’ गेल अछि। सभहक जड़ि मे सम्पत्ति धुरिक काज कए रहल अछि। जहि पाछू पड़ि सभ बताह भ’ गेल अछि। सबसँ दुखद बात त इ अछि जे नीक स नीक, पैघ स पैघ आ विद्वान स विद्वान धरि, बजताह किछु आ करताह किछु। जहि स समाजक बीच सत्य बजनाई(बाजब) मेटा गेल अछि। ऐहेन समाज मे नीक लोकक रहब कोना संभव हयत। तेँ छोड़ि केँ पड़ा गेलहुँ। देहक सुखक पाछू सभ आन्हर भ’ गेल अछि।’’
ब्रह्मचारी जीक सुनि रमाकान्त केँ धनक प्रति मोह भंग हुअए लगलनि। सोचै लगलाह जे हमरो दुइ सय बीघा जमीन अछि, ओते जमीनक कोन प्रयोजन अछि। जँ ओहि जमीन के गरीबक(निर्भूमिक) बीच बाँटि दियैक त कते परिवार आ कत्ते लोक सुख-चैन सँ जिनगी जीवै लगत। जकरा लेल जमीन रखने छी ओ त अपने तते कमाई छथि जे ढेरिऔने छथि। अदौ स मिथिला तियागी महापुरुषक राज रहल, किऐक ने हमहूँ ओहि परम्परा क’ अपना, परम्परा केँ पुनर्जिवित कए दियैक। एते बात रमाकान्त केँ मन मे अबितहि ब्रह्मचारी जी केँ पूछलखिन- ‘‘अपने एहि जिनगी सँ संतुष्ठ छी?’’
रमाकान्तक प्रष्न सुनि हँसैत ब्रह्मचारी जी उत्तर देलखिन- ‘‘हँ, बिल्कुल संतुष्ठ छी। एहि स नीक जिनगी की भए सकैत छैक। दुनियाक जते भाषा अछि ओहि भाषाक उद्भव, विकास आ साहित्यक सब पोथी पुस्तकालय मे रखने छी। ततबे नहि, दुनिया मे जते धार्मिक सम्प्रदाय अछि ओकरो पुस्तक रुप मे रखने छी आ अध्ययन करैत छी। वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, संहिता, ज्योतिष, पुराण, रमायणक संग वाइबिल, कुरान, गुरु ग्रन्थ सेहो रखने छी। सभ दर्षनक पोथी सेहो अछि। शरीर निरोग रखैक दुआरे किछु समय शारीरिक श्रम करैत छी बाकी समय अध्ययन, चिन्तन-मनन मे रमल रहै छी। मास मे एक दिन, सब धार्मिक सम्प्रदायिक पंडित सभकेँ बजा, अपन-अपन सम्प्रदाय पर व्याख्यान करबैत छी। एक दिन राजनीतिक व्याख्यान, एक दिन साहित्यिक व्याख्यान मास मे करवैत छी। एहि सबहक अतिरिक्त एक दिन किसान गोष्ठी, एक दिन चिकित्सा गोष्ठी, एक दिन विज्ञान गोष्ठीक संग आइक वैष्वीकरणक दुनिया मे विज्ञान स नीक-अधला पर विचार-विमर्ष करवैत छी। समय कोना बीति जाइत अछि से बुझवे ने करै छी।’’
ब्रह्मचारी जी बजितहि रहथि कि महेन्द्र सेहो आवि गेला। उन्मत्त पागले जेँका महेन्द्रक चेहरा बुझि पड़ेत छलनि। रमाकान्तो बाहरी दुनिया स निकलि भीतरी दुनियाँक बाट पकड़ि लेलनि।
चारु गोटे ब्रह्मचारी जी केँ पाएर छुबि गोड़ लागि चलैक विचार केलनि। चारु गोटे केँ अरिआति ब्रह्मचारी जी गाड़ी मे बैसाइ अपने घुरि गेलाह। गाड़ी मे कियो ककरो सँ गप-सप नहि करै चाहति। सभ अपने-आप मे डूबि गेलाह। डेरा अवितहि रमाकान्त महेन्द्र केँ कहलखिन- ‘‘बौआ, आब हम एक्को दिन नहि अँटकब। गामक सुरता खीचि लेलक हेँ तेँ जते जल्दी भए सकै विदा कए दिअ?’’
‘बड़बढ़िया।’ आइये टिकट बनबा लइ छी। एहिठाम से दरभंगाक गाड़ी साप्ताहिक अछि तेँ अपना धड़फड़ेने त नहि ने होयत। अगर टिकटो बनि जाइत तइओ पाँच दिन रहए पड़त।’’
आठ बजे राति मे सभ कियो एकठाम बैसि अपन गामक संबंध मे गप-सप करै लगलाह। गाम मे अप्पन बीतल दिनक चर्चा करैत महेन्द्र बजलाह- ‘‘की जिनगी छल आ अखन की अछि, एहि विषय पर अखन धरि विचारैक अवसरे नहि भेटल। जहिना आकास मे चिड़ै-चुनमुनी उन्मुक्त भए उड़ैत अछि तहिना बच्चा मे छल। ने कोनो चिन्ता आ ने फीकिर। जहिना मध्यम गति स गाड़ी-सवारी चलैत अछि, तहिना छल। ने कोनो प्रतियोगिता परीक्षाक लेल चिन्ता आ नोकरीक जिज्ञासा छल। साधारण गति स आई.एस.सी. पास केलहुँ आ मेडिल कओलेज मे नाम लिखा डाॅक्टर बनलौ। डाॅक्टर बनलाक बाद नोकरी आ पाइक भूख जगै लगल। जाहि स अपन गाम, अपन इलाका छोड़ि हजारो कोस दूर आबि गेल छी। एहिठाम आबि बजारु समाज आ संस्कृति मे फँसि अपन परिवार, समाज सब छुटि गेल। जते पाइ कमा सुख-भोगक कल्पना करै छी ओते काजक बोझ बढ़ल जाइत अछि। फेरि सुख-भोगक लेल समय कहाँ समयक एत्ते अभाव रहैत अछि जे कताक दिन अखबारो नहि पढ़ि पबैत छी। अखन धरिक जे विचार जिनगी संबंध मे छल आइ बुझै छी जे भ्रमक छल। एते दिन अपने सुख टा केँ सुख बुझैत छलहुँ मुदा आव बुझि पड़ैत अछि जे अपने सुख टा सुख नहि छी। हर मनुष्य केँ जिनगी चलैक जे आवष्यक वस्तु अछि ओ पूर्ति हेवाक चाहिऐक तखने ओ चैन स जिनगी बीता सकैत अछि। मनुष्य सँ परिवार बनैत छैक आ परिवार स समाज। मनुष्यो क कर्तव्य बनैत छैक जे सबसँ पहिने ओ अपना पाएर पर ठाढ़ भए परिवार केँ ठाढ़ करए। परिवार ठाढ़ भए जायत त समाज केँ स्वतः ठाढ़ भए आगू बढ़ै लगत। ओना सुख की थिक? सबसँ पहिने एहि बातक विचार क लेवाक चाही। पंचभौतिक शरीर आ आत्माक संयोग स मनुष्य बनैत अछि। सुख-दुख, नीक-अधला आत्माक अनुभूति थिक नहि कि शरीरक। ओना दुनियाँक जते मनुक्ख अछि सभकेँ एक स्तर सँ चलैक चाहिएक मुदा से त नहि अछि! दुनिया देष मे बँटल अछि आ देषक शासन व्यवस्था आ समाज खण्ड-पखण्ड भए भिन्न-भिन्न भाषा, भिन्न-भिन्न संस्कृति आ भिन्न-भिन्न जाति मे बँटल अछि जाहि स खान-पान, रीति-रेबाज, चालि-ढालि मे भिन्नता छैक। कहै ले त हमहूँ मनुक्खेक सेवा करैत छी मुदा पाइक दुआरे हम पाइवलाक सेवा करैत छी। बिनु पाइवलाक सेवा कहाँ भए पवैत अछि। जकरा सबसँ बेसी जरुरत छैक। अभाव मे ओ खेनाई-पीनाई स ल क’ घर-दुआर, कपड़ा-लत्ता, दवाई-दारु, सब स बंचित रहि जाइत अछि। जेकर चलैत गरीब लोकक जिनगी जानवरो स बदतर बनि गेल छैक। ओ सभ मनुक्खक शक्ल मे जानवर बनि जीवैत अछि। जहि मनुष्यक जरुरत ओकरा सभकेँ छैक ओ अपने पाछु तबाह अछि।’’
डाॅक्टर महेन्द्रक बात, सभ केयो धियान सँ, सुनलनि। रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बौआ, जइ गाम मे तोहर जन्म भेलह आ जहि माटि-पानि मे रहि डाॅक्टर बनलह, ओहि गामक लोक उचित इलाजक दुआरे मरि जाय, कते दुखक बात थिक?’’
रमाकान्तक प्रष्न सुनि सभ केयो गुम्म भए गेलाह। केयो किछु नहि बाजि पवैत रहति। सभक मुह देखैत छलाह। हजारो कोस पर गाम अछि। कोना एहिठाम से ओहिठाम इलाज भए सकैत छैक? सभक मनमे सवाल नचैत छलनि। बड़ी कालक बाद महेन्द्र मुह खोललनि- ‘‘बावू, सवाल त ऐहन भारी अछि जे जबावे नहि फुरैत अछि। मुदा एकटा उपाय मन मे अबैत अछि।’’
‘की?’
‘‘अहाँ गाम जायब त दू गोटे एकटा लड़का, एकटा लड़की जे कम्मो पढ़ल लिखल हुअए, केँ एहिठाम पठा दिअ। ओहि दुनू गोटे केँ ऐठाम राखि छह मास पढ़ा पठा देब। जे तत्काल इलाज करब शुरु कए देत। संगहि हम सभ चारि गोटे साल मे एक-एक मासक लेल जायत रहब आ जहाँ धरि भए सकत तहाँ धरि इलाज करैत रहब। तहि बीच जँ कोनो जरुरी रोग उपकि जाय त फोन से कहि सेहो बजा लेब। नहि त लहेरियासराय अछिये।
‘महेन्द्रक विचार रमाकान्त केँ जँचलनि। मुस्कुराइत कहलखिन- ‘‘बौआ, गामक लोक त गरीब अछि, ओ कोना इलाज करा सकत?’’
गरीबक नाम सुनि धाँय द रबिन्द्र उत्तर देलकनि- ‘‘बाबू, हम सभ बहुत कमाई छी। जते इलाज मे खर्च से देवई। ततबे नहि! अखन अहाँ जाउ, पहिने दू गोरे केँ पठा दिअ। अगिला मास मे आयब एकटा स्वास्थ्य केन्द्र बनायब। जहि मे सभहक इलाज हेतैक।’’
रबिन्द्रक विचार सँ सभक ठोर पर हँसी अएलनि। रमाकान्तक मन मे उठलनि- ‘‘हमरे दू सय बीघा जमीन अछि मुदा छी कैक गोटे? जँ इमनदारी सँ देखल जाय त की हमहीं चोर नहि। महाभारतो मे कहल गेल छैक जे जरुरत सँ बेसी सम्पत्ति रखने अछि ओ चोर अछि। जे पिता जी बरोवरि कहैत रहैत छलाह। ओना अनका जेँका हम बेइमानी कएकेँ खेत नहि अरजने छी मुदा ढेरिया के त रखनहि छी।
गप-सप करैत साढ़े दस बजि गेल। भानसो भए गेलैक। सभ केयो गप-सप छोड़ि खाइ ले गेलाह।
दोसर दिन स चारु गोटे विदाइक जोगार मे लगि गेलथि। कतेक गोटे स दोस्ती चारु गोटे केँ। जकरा सब केँ काज उद्यम मे इहो सभ नोत पुरने, तेँ सबकेँ जानकारी देव उचित बुझि चारु गोटे अपन-अपन अपेक्षित केँ जानकारी देमए लगलखिन। अपनो सब फुट-फुट माता-पिता क विदाई मे जुटि गेल।
एहि चारि दिनक बीच रमाकान्त टहलब-बुलब छोड़ि, दिन-राति आत्मनिष्ट भए, सोच मे डूबल रहै लगलाह। चाह पीबै बेरि चाह पीबि पान खा, भोजन बेरि भोजन कए, भरि दिन पलंग पर पड़ल-पड़ल जिनगीक संबंध मे सोचै लगलथि। अखन धरि एक्के टा दुनिया बुझै छेलिये जे आब दोसरो दुनिया देखै छियैक। एक दुनिया बाहरी, जकरा उपरका आखि स देखैत छी दोसर दुनिया शरीरक भीतर अछि। जहि दुनिया केँ अखन धरि नहि देखैत छलहुँ। बाहरी दुनिया स भीतरी दुनिया फुलवाड़ी जेँका सुन्दर अछि। जहि मे आषाक जंगल पसरल अछि।
पाँच बजे साँझ मे मद्रास स्टेषन स दरभंगाक गाड़ी खुजैत अछि। आरक्षित टिकट, मन मे बेसी हलचलो नहिये छलनि। गाड़ी पकड़ैक हलचल त ओहि यात्री केँ होयत जे साधारण बोगी मे टटका टिकट कटा सफर करैत अछि। मुदा आरक्षित बोगी मे त गनल सीट आ गनल टिकट होयत अछि। बाइली यात्री केँ त चढ़ै नहि देल जायत अछि। दुइये बजे स सभ समान एटैची, कार्टून मे सैंति तैयार केलनि। रास्तक लेल, फुट सँ, एकटा झोरा मे खाइक सभ सामान सेहो दए देलकनि। दस लिटरा गैलन मे पानि। थर्मस मे चाह। पनबट्टी मे पान। एक कार्टून विदेषी शराब जे डाॅक्टर सुजाता रमाकान्त केँ आखिक इषारा स कहि देने रहनि।
चारि बजे, परोठा-भुजिया खाय तीनू गोटे(रमाकान्त, श्यामा आ जुगेसर) नव वस्त्र पहीरि तैयार भए गेलाह। स्टेषनो लगे तेँ विदा हेबाक हड़बड़ियो नहिये। मुदा सामान बेसी तेँ गाड़ी खुजै सँ पहिनहि स्टेषन पहुँचब जरुरी छनि। ओना गाड़ी मद्रासे सँ बनि केँ चलैत तेँ सामानो रखै मे परेषानियो नहिये रहनि। सबा चारि बजे सभ डेरा स विदा भए गाड़ी पकड़ै चललाह।
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मौलाइल गाछक फुल:ः 6
छुट्टी दिन रहितहुँ हीरानन्द गाम नहि गेलाह। ओना लग मे गाम रहने शनि के गाम सोम के स्कूल स पहिने चलि अवैत छलाह। मुदा रमाकान्त केँ नहि रहने परिवारक सब भार देने गेल रहथिन। गोसाइक धाही दइते ओ नहा, चाह पीबि वौएलाल ऐठाम चललाह। मने-मन यैह होइन जे रमाकान्त कहने रहथि जे मद्रास जाइ छी, धिया-पूता केँ देखि-सुनि लगले घुमि जायब। मुदा आइ पनरहम दिन भ’ रहल छनि अखन धरि किऐक ने अएलाह। ओना दुरसो छैक आ परिवारोक सभ त ओतइ छनि ते जँ बिलंबो भेलनि त स्वभाविके छैक। रास्ता मे जे धिया-पूता देखनि हाथ जोड़ि-जोड़ि प्रणाम करनि। हीरोनन्द सभकेँ असिरवाद दइत आगू बढै़त जाइत रहति। वौएलालक घर स थोड़े पाछुए रहथि कि वौएलाल देखलकनि। देखितहि आगू बढ़ि, प्रणाम क’, संगे-संग अपना ऐठाम ल’ गेलनि। हीरानन्द केँ पाबि वौएलाल बहुत किछु सिखवो केलक आ सुधरबो कएल। अपन एकचारी बैसार मे बैसवैत पानि अनै आंगन गेल। आंगन स लोटा मे पानि नेने आबि पाएर धोय ले कहलकनि। लोटा मे पानि देखि हीरानन्दक मन मे मिथिलाक वेबहार नाचि उठलनि। सोचै लगलथि जे पूर्वज कते विचारवान छलाह जे एते चलौलनि। पाएर धोय हीरानन्द चैकी पर बैसिलाह। वौएलाल चाह बनबै आंगन गेल। माए केँ चाह बनवै नहि होइत छलैक। तहि बीच अनुपो बाड़िये मे खुरपी छोड़ि, मटिआयले हाथे आबि मास्टर साहब केँ प्रणाम कए चैकीक निच्चा मे एकचारीक खुँटा लगा बैसल। मटिआयल हाथ देखि मास्टर साहेव पूछलखिन- ‘‘कोन काज करै छलौ?’’
मटिआयल हाथ रहितहुँ अनुप केँ संकोच नहि होइत छलैक। निःसंकोच भ’ उत्तर देलकनि- ‘‘बाड़ी मे गेनहारी साग बौग केने छी, ओइ मे तते मोथा जनमि गेल अछि जे साग क’ झाँपि देने अछि, ओकरे कमठौन करै छलौ।’’
सागक कमठौन सुनि हीरानन्द कहलखिन- ‘‘चलू, जाबे वौएलाल अबै अए ताबे कनी हमहूँ देखि लिअए।’’
कहि उठि विदा भेला। मास्टर सहेव क’ ठाढ़ होइत देखि अनुपो ठाढ़ भ आगू-आगू विदा भेल। धुर दुइऐक मे साग बाओग छलैक। साग देखि हीरानन्द कहलखिन- ‘‘जिनगी मे आइये हम ऐहन गेनहारी देखलौ। ई त अद्भुत अछि। किऐक त एक रंग पत्ता वला गेनहारी त अपनो उपजबै छी मुदा ई त फूल जेँका लगै अए। अधा पात लाल आ अधा पात हरियर छैक। कत्ते स इ बीआ अनलौ?’’
मास्टर साहेवक जिज्ञासा देखि अनुप कहै लगलनि- ‘‘हम सढ़ूआड़य नोत पुरै गेल रही। ओतए देखलियै। देखि क’ मन हलसि गेल। ओतै से अनलौ। करीब दस बर्ख सँ सब साल करै छी। खाइत-खाइत जखन डाँट जुआ जाइ छै तखन छोड़ि दैत छियै। ओहि मे तत्ते बीआ भ’ जाइ अए जे अपनो बौग करै छी आ जे मंगलक तेकरो दइ छियै।’’
‘अइवेर हमरो थोड़े देब।’’
‘बड़वढ़िया।’
दुनू गोटे घुरि क’ आबि पुनः एकचारी मे बैसलाह। तहि बीच वौएलालो चाह बनौने आयल। दुनू गोटे केँ चाह दए आंगन जा अपनो लेलक आ माइयो केँ देलक। चाह पीबि, माय(रधिया) घोघ तनने दुआर पर आबि मास्टर सहेव केँ गोड़ लगलकनि। सूखल शरीर, केष पाकल आखि धसल रधियाक। रधियाक देह देखि मास्टर सहेबक मन तरे तर बाजि उठलनि- ‘‘हाय, हाय रे गरीबी आगियो स तेज धधड़ा गरीबिक होइत छैक। पेंइतिस-चालिस बर्खक शरीरक इ दषा बना दैत छैक।
मुस्की दैत एकटा आँखि उघारि रधिया बाजलि- ‘‘आइ हमर भाग जगि गेल जे मास्टर-सहाएव ऐलाह। बिनु खेने-पीने नइ जाय देबनि। जे कन-सागक उपाय आछि से बिनु खुऔने नइ जाय देवनि।’’
रधियाक स्नेह भरल शब्द सुनि हीरानन्दक आखि सिमसि गेलनि। दुनू तरहथी स दुनू आखि पोछैत बजलाह- ‘‘ओना त घुमैक विचार स आयल छलहुँ, मुदा अहाँ सभक स्नेह बिना खेने जाइ नहि दिअए चाहैत अछि। जरुर खायब।’’
घर मे सुपारी नहि रहने वौएलाल सुपारी आनै दोकान गेल। तहि बीच मास्टर साहेव अनुप के पूछलखिन- ‘‘अहाँक पूर्वज(पुरुखा) कते दिन स एहि गाम मे रहैत आयल छथि?’’
हीरानन्दक प्रष्न सुनि अनुप छगुन्ता मे पड़ि गेल। मने-मन सोचै लगल जे ऐहन बात त आइ घरि क्यो ने पूछने छलाह। मास्टर साहेव किऐक पुछलनि। मुदा मास्टर-साहेबक उपकार अनुपक हृदय मे एहि रुपे बैसल छलनि जे आत्माक दोसर रुप बुझैत छला। हुनके पाबि बेटा दू आखर पढ़बो केलक आ मनुक्खोक रस्ता सिखै अए। हँसैत अनुप कहै लगलनि- ‘‘मास्टर सहाएब, हमरा बौ के अपना घरारियो ने रहै। अनके जमीन मे घरो बन्हने रहै आ अनके हरो-फाड़ जोतए। अनके खेत मे रोपैन-कमठौन सेहो करै। हम धानोक सीस आ रब्बी मास मे खेसारियो-मौसरी लोढ़ी। अनके गाइयो पोसिया नेने रहै। साल मे जते पावनि-तिहार होय आ अनदिनो जे करजा बरजा लिअए ओ ओही गाइयक दूधो बेचि क’ आ लेरु जे होय, ओहो बेचि के करजा सठाबै। एक दिन वाउक मन खराप रहै। गिरहत आबि के भार बेटी ऐठाम दए अबै ले कहलकै। बाउक मन वेसी खराब रहै तेँ जाइ से नासकार गेल। तइ पर ओ बेटाकेँ सोर पड़लकै। बेटा एलै। दुनू बापूत। हमरा बाउ के गरिऐबो केलकै आ अंगनाक टाट-फड़क उजाड़ि के कहलकै जे हमर घरारी छोड़ि दे। हमर बौ कतेक गोरे के कहबो केलकै मुदा सब ओकरे दिस भ’ गेलै। तखन हमर बाउ की करैत ते माटिक तौला-कराही छोड़ि, थारी-लोटा, नुआ-बिस्तर, हाँसु-खुरपीक मोटरी बान्हि तीनू गोरे(बाउ, माए आ हम) ओइ गाम से भागि गोलौ। गाम से निकलि, बाघ मे एकटा आमक गाछ, रस्ते पर रहै, ओइठिन आबि के बैसलौ। बाउ के बुकौर लगै। दुनू आखि से दहो-बहो लोर खसै। माइयो कानए। थोड़े खान ओइठिन बैसलौ। तखन फेरि विदा भेलौ।’’
बजैत-बजैत अनुपक दुनू आखि मे नोर आवि गेलइ। अनुपक नोर देखि हीरोनन्दक आखि मे नोर आबि गेलनि। रुमाल से नोर पोछि पुनः पूछलखिन- ‘‘तब की भेल?’’
अनुपक हाथ मटिआयल रहै तेँ हाथ से नोर नहि पोछि गट्टा स नोर पोछि पुनः बाजै लगल- ‘‘ई मात्रिक छी। नाना जीबिते रहए। हुनका एक्के टा बेटी रहनि। हमरे माए टा। जखन तीनू गोरे ऐठाम एलो ते ननो आ नानियो अंगने मे रहए। नानी आ माए, दुनू बाँहि से दुनू गरदनि मे जोड़ि कानै लगल। बाउओ कनै लगल। नाना हमरा कोरा मे उठा नोर पोछैत अंगना से निकलि, डेढ़िया पर बुलबै लगल। थोड़े खान नानी कानि, मोटरी के घर मे राखि हाँइ-हाँइ चुल्हि पजारै लागलि। मुदा माए कनिते रहल।’’
बिचहि मे हीरानन्द पूछलखिन- ‘‘नाना गुजर कोना करैत छलाह?’’
‘अहाँ से लाथ कोन मासटर सैब। महिना मे आठ-दष साँझ भानसो ने होय। हम बच्चा रही तेँ नानी बाटी मे बसिया भात-रोटी राखि दिअए। सैह खाय छलौ।’’
अनुपक बात सुनि हीरानन्दक हृदय पघिलय लगलनि। अनुप केँ कहलखिन- ‘‘जाऊ, काजो देखिऔ। वौएलाल त आबिये गेल।’’
मास्टर साहेबक आदेष स अनुप फेरो साग कमाई ले चलि गेल। वौएलाल आ हीरानन्द, रमाकान्तक चर्चा करै लगलाह। वोएलाल बाजल- ‘‘करीब पनरह दिनक धक लगि गेल हएत, अखन धरि बाबा किऐक नहि अएलाह। बाजि क’ गेल रहथि जे आठ दिनक भीतरे चलि आयब। किछु भ’ नेते गेलनि।’’
हीरानन्द- ‘‘अखन धरि कोनो खबड़ियो नहि पठौलनि जे बुझितिअए।’’
दुनू गोटे उठि क’ बाड़ी दिषि टहलै विदा भेला। अनरनेवाक गाछ देखि हीरानन्द हिया-हिया क’ देखै लगलाह। पहिलखेपक फड़, तेँ नमहर-नमहर रहैक। गोर-दसेक फड़ नमहर आ जेना-जेना फड़ उपर होइत जायत तेना-तेना छोटो खिच्चो। पान-सात टा फड़ छिटकल। जहि मे एकटा क’ लाली पकड़ि नेने रहए। हीरानन्द बौएलाल केँ ओंगरी से देखवैत- ‘‘वौएलाल, ओ फड़ तोड़ि लाय। खूब त पाकल नहि अछि मुदा खाइ जोकर भ’ गेल आछि। हम सभ त दँतगर छी की ने।’’
गाछ बेसी नमहर नहि। हाथे से बौएलाल ओहि फड़ क’ तोड़ि, डंटी स’ बहैत दूध क’ माटि पर रगड़ि देलक। दुनू गोटे घुरि क’ आवि गेलाह। हीरानन्द चैकी पर वैसलथि आ वौएलाल अनरनेबा रखि आंगन गेल। आंगन स’ कत्ता आ एकटा छिपली नेने आयल। कत्ता से अनरनेबा क’ सोहि टुकड़ी-टुकड़ी कटलक। छिपली भरि गेल। भरलो छिपली बौएलाल हीरानन्दक आगू मे देलकनि। भरल छिपली देखि हीरानन्द बजलाह- ‘‘एत्ते, हमरे बुते खायल हएत। पान-सात टा खंडी खायब। बाकी आंगन ल’ जाह।’’
वौएलाल सैह केलक। अनरनेवा खा पानि पीबि हीराननद वौएलाल केँ कहलखिन- ‘‘चलू, थोड़े टहलि आबी?’’
दुनू गोटे रस्ते-रस्ते टहलै लगलथि।
जाधरि दुनू गोटे टहलि-बूलि केँ अयलाह ताधरि रधिया अरबा चाउरक भात माछक तीमन आ माछक तरुआ बनौलनि। भानस कए रधिया चिक्कनि माटि स ओसार नीपि, हाथ धोए कम्मल चैपेत क’ बिछौलक। थारी-बाटी, लोटा आ गिलास क’ छाउर स माँजि धोलक। लोटा-गिलास मे पनि भरि कम्मलक आगू मे रखि वौएलालकेँ बजौने आबै ले कहलक। आंगन आबि हीरानन्द कम्मल पर बैसि मने-मन सौचे लगलाह। भोजन से त पेट भरैत अछि मुदा मन त सिनेहे स भरैत अछि, जे भेटि रहल अछि। तहि बीच वौएलाल घर स थारी निकालि आगू मे देलकनि। गम-गम करैत भात तहि पर माछक नमहर-नमहर तड़ल कुटिया। जम्बीरी नेबोक खंड। बाटी मे तीमन। भोजन देखि, मुस्की दइत हीरानन्द रधिया केँ कहलखिन- ‘‘अलबत्त ढंग स भोजनक व्यवस्था केने छी। देखिये क’ पेट भरि गेल।’’
मास्टर साहेबक बात सुनि खुषी स रधिया क’ नहि रहल गेलै, बाजलि- ‘‘माहटर बाबू, अहाँ पैघ छी। देबता छी। हमर भाग जे हमरा सन गरीब लोकक ऐठाम भात खाई छी।’’
रधियाक बात सुनि बुझि गेलखिन जे भात क’ अषुद्ध बुझि कहलनि। मुदा ओहि विचार क’ झपैत कहलखिन- ‘‘वौएलाक केँ छोट भाइ बुझै छियै, आ परिवार केँ अपन परिवार बुझैत छी। तखन भात रोटी खाइ मे कोन संकोच।’’
हीरानन्दक विचार सुनि रधियाक हृदय साओनक मेघ जेँका उमड़ि पड़लनि। मन मे हुअए लगलनि जे अपन जिनगीक सभ बात कहि सुनबिअनि। उत्साहित भ’ बजै लगलीह- ‘‘माहटर बाबू, एहनो दुख कटने छी जे एक दिन ममिओत भाय आयल रहै। घर मे एक्को तम्मा चाउर नइ रहै। चिन्ता भ’ गेल जे भाइ केँ खाइ ले की देबैक। तीनि-चारि अंगना चाउर पैइच ले गेबो केलो मुदा सबहक हालति खराबे रहै। अपने ने रहैक ते हमरा की दइत। हारि के मड़ुआ रोटी आ सीम-भाँटाक तीमन रान्हि क’ भाइयो केँ खाइ ले देलिऐ आ अपनो सब खेलौ। मुदा अखन ते, रमाकान्त कक्का परसादे, सब कुछ अछि।’’
थारी मे बाटी स झोर ढारैत हीरानन्द पूछल- ‘‘पहिलुका आ अखुनका मे कते फर्क बुझि पड़ै अए?’’
‘माहटर बाबू, अहाँ स’ लाथ कोन! ओइ हिसाबे अखन राजा भ’ गेलौ। पहिने कल्लर छलौ। हरदम पेटेक चिन्ता धेने रहै छलै।’’
मुहक भात आ माछ चिबबैत रहति कि दाँतक गह मे एकटा, काँट गड़ि गेलनि। भात घोटि आंगुर स काँट निकालि, थारीक बगल मे रखि हीरानन्द पूछलखिन- ‘‘पहिने जत्ते खटै छलौ तइ स अखन बेसी खटै छी आ कि कम?’’
‘पहिने बेसी खटै छलौ। बोइन क क’ आबी तखन अंगनाक काज मे लगि जाय। अंगनाक ाकज सम्हारि भानस करी। भानस करैत-करैत बेर झुकि जाय। तखन खाइ।’’
ओसार पर बैसल अनुप रधिया केँ चोहटैत बाजल- ‘‘मास्टर सहाएव केँ भोजन करै देबहुन आ कि नहि?’’
अनुपक बात सुनि हीरानन्द बजलाह- ‘‘अहाँ तमसाई किऐक छिअनि। भोजनो करै छी आ गप्पो सुनै छी। जे बात काकी कहै छथि ओ बड़्ड़ नीक लगै अए।’’
मास्टर साहेवक समर्थन पाबि रधियाक मन मे आरो उत्साह जगि गेलैक। होइ जे जते बात पेट मे अछि, सब बात मास्टर साहेब केे सुना दिअनि। बाजलि- ‘‘माहटर बाबू बरख मे अधा से बेसी दिन सागेक तीमन खाइ छलौ। माघ-फागुन मे, जखन खेसारी, मसुरी उखाड़ै आ बोइन जे हुअए, दस-पाँच दिन दालि खाय। नइ ते बाड़ी-झाड़ी मे जे तीमन-तरकारी हुअए, से खाय। बेसी काल सागे खाइ। खेसारी मास मे महीना दिन दुनू साँझ चाहे खेसारी साग खाय नइ ते बथुआ।’’
खेसारी सागक नाम सुनि हीरानन्द पूछल- ‘‘खेसारी साग कोना बनवैत छी?’’
मास्टर साहेबक प्रष्न सुनि अनुपो केँ पैछला बात मन पड़ितहि खुषी एलैक। मुस्की दैत बाजल- ‘‘राड़िन बुते कतौ खेसारी साग रान्हल हुअए।’’
अनुपक बात केँ धोपैत हीरानन्द बजलाह- ‘‘खेसारी साग मे कँचका मिरचाई आ लसुनक फोरन द’ हमरो कनियाँ बनवैत छथि। हमरा बड़ सुन्दर खाय मे लगै अए।’’
व्यंग्यक टोन मे अनुप बाजल- ‘‘अहाँ सबहक कनियाँक पड़तर राड़िन केँ हेतइ। हमही छी जे ऐहेन लोकक गुजर चलै छै। नइ त......?’’
व्यंग्यक भाव बुझि हीरानन्द चुप्पे रहलाह। मुदा फनकि क’ रधिया एक लाड़नि चलबैत बाजलि- ‘‘नै ते, सासुर मे वास नइ होइते?’’
अनुप- ‘‘मन पाड़ू जे जइ दिन अइठिम आयल रही तइ दिन कोन-कोन लुरि रहै। जँ सासु नहि सिखवैत ते कोनो लुरियो होइत?’’
पासा बदलैत रधिया बाजलि- ‘‘माए आ सासु मे की अन्तर होइ छै। जहिना अपन माए तहिना घरवलाक माए। सिखलौ त।’’
रधिया अनुप दिषि तकैत अनुप रधिया दिस। मुदा दुनूक मन मे क्रोध नहि स्नेह रहैक। तेँ वातावरण मधुर रहैक। हीरानन्द सागक संबंध मे कहै लगलखिन- ‘‘अपना सभहक पूर्वज बहुत गरीब छलाह। अखुनका जेँका समयो नहि छल। बेसी काल ओ सभ सागे खायत छलाह।’’
जेहने भोजन बनल तेहने पवित्र बरतन छलनि। आ ताहू सँ नीक बैइसैक जगहक संग ऐतिहासिक गप-सप। जते वस्तु हीरानन्दक आगू मे आयल छलनि रसे-रसे सभ खा लेलनि। पानि नहि पीलनि, किऐक त ने गारा लगलनि आ ने बेसी कड़ू रहैक। भोजन कए बाटिये मे हाथ धोय, उठलाह। उठि क’ वौएलाल केँ कहलखिन- ‘‘एते कसि क’ आइ धरि भोजन नहि केने छलहुँ।’’
आंगन स निकलि एकचारी मे आबि सोझे पड़ि रहलाह। पड़ले-पड़ल अनुपो आ वौएलालो केँ कहलखिन- ‘‘आब अहूँ सभ भोजन करै जाउ। हमरा सुतैक मन होइ अए।’’
अस-बिस करैत हीरानन्द रहति। लगले-लगले करौट बदलैत रहति। मने-मन सोचै लगलथि जे एतबे दिन मे अनुप कते उन्नति कए गेल। उन्नतिक कारण भेलै सही ढंग से परिवार केँ बढ़ाएव। जे परिवार जते सही दिषा मे चलत ओ परिवार ओते तेजी स आगू बढ़त। मुदा जिनगीक रास्ता त बाँस जेँका सोझ नहि अछि। टेढ़-टूढ़ अछि। जहि स बौआ जायत अछि। जिनगीक रास्ता मे डेग-डेग पर तिनवट्टी-चैबट्टी अछि। जहि सँ लोक भटकि जायत अछि। तहूँ मे जकरा रास्ताक आदि-अंतक ठेकान नहि छैक ओ त आरो ओझरा जायत अछि। ऐहन-ऐहन ओझरी सभ जिनगीक रास्ता मे अछि जहि मे ओझरेला पर कियो बताह भए जाइत अछि त कियो घर-दुआरि छोड़ि चलि जायत अछि। क्षणिक सुखक खातिर स्थायी सुखक रास्ता छुटि जायत छैक। क्षुद्र सुख पैघ सुखक रास्ता स धकेलि ऐहन पहाड़ जेँका ठाढ़ भए जायत छैक जे पार करब मुष्किल भए जायत छैक। जिनगीक रास्ता एक नहि अनेक अछि मुदा पहुँचैक स्थान एक अछि। जते मनुख तते रास्ता अछि। एक मनुक्खक जिनगी दोसर स भिन्न होयत अछि। अनभुआरो आ बुझिनिहारो(अज्ञानियो आ ज्ञानियो) लगले(जिनगीक शुरुहे मे) नहि बुझि पबैत छथि। जे कोन रास्ता पकड़ला स सही जगह पर पहुँचब आ नहि पकड़ने छुटि जायब। मनुक्खक उद्धारक बात त सब सम्प्रदाय, किस्सा-पिहानी सब कहैत अछि, मुदा रास्ता मे घुच्ची कते छैक जहिठाम जा लोक खसैत अछि, से बुझिये ने अबैत छैक! मुदा इहो त सत्य छैक जे निस्सकलंक जिनगी बना ढेरो लोक ओहि स्थान पर पहुँच चुकल छथि आ ढेरो जा रहल छथि। जे जरुर पहुँचताह। भले ही हुनका भरि पेट अन्न आ भरि देह वस्त्र नहि भेटैत होनि। सुखल गाछ रुपी समाज केँ जाधरि गंगाजल सन पवित्र पानि स नहि पटाओल जायत ताधरि ओहि मे कोना कलष आ फूल फुलायत। अगर जँ समय पाबि कलषवो करत त किछुऐ दिन मे मोला जायत। दुखो थोड़ दिनक नहि, जड़िआयल रहैत अछि। अनेको महान् व्यक्ति, एहि दषिा केँ देखबैक रास्ता अदम्य साहस आ शक्ति लगा केलनि मुदा जड़ि सँ दुख कहाँ मेटाएल? हमहूँ-अहाँ एहि मातृभूमिक सन्तान छी, तेँ हमरो अहाँक दायित्व बनैत अछि जे मायक सेबा करी। छठिआरे राति समाजक माय-बहीनि कोरा मे लए छाती लगौलनि, मुदा ओकरा बिसरि कोना जाइ छी? की सभ बिराने छथि। अपन क्यो नहि?’’
बेर खसैत हीरानन्द चलैक विचार करै लगलाह। बौएलाल चाह पीबैक आग्रह केलकनि। मुदा भरिआयल पेट बुझि हीरानन्द चाहक इनकार करैत कहलखिन- ‘‘खाइ बेरि मे पानि नहि पीने छलहुँ, एक लोटा पानि पिआबह।’’
आंगन से लोटा मे पानि आनि वौएलाल देलकनि। लोटो भरि पानि पीबि हीरानन्द बाजलाह- ‘‘बुझि पड़ै अए जे अखने खा क’ उठलौ हेँ। चाह नहि पीवह, सिर्फ एक जूम तमाकू खुआ दाय।’’
अनुप तमाकुल चुनबै लगल। तहि बीच हीरानन्द बौएलाल केँ कहलखिन- ‘‘तू ते आब धुरझार किताब पढ़ै लगलह। आब तोहूँ पड़ोसिक बच्चा सभकेँ, जखन समय खाली भेटह, पढ़ावह। एहि सँ इ हेतह जे कखनो बेकारी सेहो नहि बुझि पड़तह आ थोड़-थाड़ बच्चो सभ पढ़ै दिस झुकत।’’
पढ़बैक नाम सुनि अनुप बाजल- ‘‘मासटर सहाएव, ककरा बच्चाकेँ वौएलाल पढ़ाओत! देखै छियै (ओंगरी स देखबैत) ओ तीन घर कुरमी छी। ओकरा से खनदानी दुष्मनी अछि। ने खेनाई-पीनाई अछि आ ने हकार-तिहार। तहिना (फेर ओंगरी से देखबैत) ओ घर मल्लाहक छी भरि दिन जाल ल’ क’ चर-चाचर से ल’ क’ पोखरि-झाखड़ि मे मछबारि करै अए। जकरा बेचि क’ गुजरो करै अए आ ताड़ी-दारु पीबि केँ औत आ झगड़ा-झाटी शुरु कए देत। तहिना ओ (ओंगरी स देखवैत) कुजरटोली छी। अछि त सबटा गरीबे, मुदा व्यवषायी अछि। स्त्रीगण सभ तरकारी बेचै छै आ पुरुख सभ पुरना लोहा-लक्करक कारोबार करै अए। जातिक नाम पर सदिखन अराड़िये करैत रहै अए। तहिना हम दस घर धानुक छी। हमही टा गरीब रहितौ बोनि करै छलौ। आब त अपनो दू बीधा खेत भ’ गेल (रमाकान्त देल) तेँ खेती करै लगलहुँ नहि त सभ खबासी करै अए। जुआन-जहान बेटी सभ केँ माथ पर चंगेरा दए आन-आन गाम पठबै अए। तेँ ओकरा सभहक एकटा पाटी छै आ हम असकरे छी। ने खेनाइ-पीनाइ अछि आ ने कोनो लेन-देन। आब अहीं कहू जे ककरा बच्चा केँ वौएलाल पढ़ाओत?’’
अनुपक बात सुनि हीरानन्द गुम्म भ’ गेलाह। मने-मन सोचै लगलथि जे समाजक विचित्र स्थिति छैक। ऐहेन समाज मे घुसब महा-मोसकिल अछि। कने काल गुम्म रहि हीरानन्द कहलखिन- ‘‘कहलहुँ त’ ठीके, मुदा ई सभ बीमारी पहिलुका समाज मे बेसी छलैक। ओना अखनो थोड़-थाड़ छइहे मुदा बदलि रहल छैक। आब लोक गाम छोड़ि शहर-बजार जा-जा कल-कारखाना मे काज करै लगल अछि। संगे गामो मे चाह-पानक दोकान खोलि-खोलि जिनगी बदलि रहल अछि। खेती-बाड़ी त मरले अछि तेँ एहि मे ने काज छेक आ ने लोक करै चाहैत अछि। करबो कोना करत? गोटे साल रौदी त गोटे साल बाढ़ि आबि, सबटा नष्ट कए दैत अछि। जहिना गरीब लोक मर-मर करैत अछि तहिना खेतोवला सभ। खेतोवला सभ केँ देखते छिऐक बेटीक विआह, बीमारी आ पढ़ौनाइ-लिखौनाइ बिना खेत बेचने नहि कए पबैत अछि। ओना सभहक जड़ि मे मुरुखपना छैक जे बिना पढ़ने-लिखने नहि मेटाएत। धिया-पूता केँ पढ़वैक इच्छा सभकेँ छैक मुदा ओ मने भरि छैक। बेवहार मे एकोपाइ नहि छैक। इहो बात छैक जे जकरा पेट मे अन्न नहि देह पर वस्त्र नहि रहतै ओ कोना पढ़त?’’
हीरानन्द आ अनुपक सभ गप, बाड़ी मे टाटक पुरना कड़ची उजाड़ैत, सुमित्रा सुनैत छलि। बारह-तेरह बरखक सुमित्रा। अनुपक घरक बगले मे ओकरो घर। तमाकुल खा हीरानन्द विदा भेलाह। हीरानन्द केँ अरिआतने पाछू-पाछू वौएलालो बढ़ैत छल। थोड़े दूर आगू बढ़ला पर हीरानन्द केँ छोड़ि वौएलाल घुमि गेल।
जाबे वौएलाल घुमि क’ घर पर आयल ताबे सुमित्रो जरनाक कड़ची आंगन मे रखि वौएलाल लग आइलि। ओना परिवारक झगड़ा स धिया-पूता केँ कोन मतलब। धिया-पूताक दुनियाँ अलग-होइत अछि। सुमित्रा वौएलाल केँ कहलक- ‘‘हमरा पढ़ा दे।’’
वौएलाल किछु कहै सँ पहिने मन-मन सोचै लगल जे हमर बावू आ सुमित्राक बाबूक(राम परसाद) बीच कते दिन स झगड़ा अछि, दुनूक बीच कताक दिन गरि-गरौबलि होइत देखै छी, तखन कोना पढ़ा देवई। मुदा हीरानन्दक विचार मन रहए तेँ गुनधुन कर लगल। कनी काल गुनधुन करैत सुमित्रा केँ कहलक- ‘‘पहिने ई माए स पूछि आ।’’
सुमित्रा दौड़ि क’ आंगन जा माए केँ पूछलक- ‘‘माए, हम पढ़व।’’
माए- ‘‘कते पढ़मे?’’
‘‘बोएलाल लग।’’
वौएलालक नाम सुनि माए मने-मन बिचारै लगली जे हमरा से ते कम्मो-सम्म, मुदा ओकरा(पति) से त वौएलालक बाप केँ झगड़ा छै। कने काल गुनधुुन कए माए कहलकै- ‘‘जँ वौएलाल पढ़ा देतौ(देतहु) त पढ़।’’
खानदानी घरक बेटी सुमित्राक माए। आन-आन घरक बेटियो आ पुतोहूओ चंगेरा उघैत अछि मुदा सुमित्राक माए कतौ नहि जाइत। अपने राम परसाद भार उघैत अछि। मुदा स्त्री नहि। जहिना कहियो अनुप आ रामपरसादक बीच एहि सवाल(भार उघैक) पर झगड़ा होयत त सुमित्रा मायक विचार अनुप दसि रहैत छल। मुदा मरदक झगड़ा मे कोना विरोध करैत। तेँ चुपचाप आंगन मे बैसि मने-मन अपने पति केँ गरिअवैत छलि जे कोन कुल-खनदान मे चलि एलौ।
घुमि क’ सुमित्रा आबि वौएलाल केँ कहलकै- ‘‘माइयो कहलक।’’
‘ठीक छै। मुदा पढ़मे कखन के। भरि दिन हमहू काजे उद्यम मे लगल रहै छी आ साझू पहर के अपने पढ़ै ले जाइ छी।’’
दुनू गोटे गर लगबैत तय केलक जे भोर मे(काजक बेर स पहिने) पढ़ब।
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