भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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Tuesday, December 01, 2009
'विदेह' ४६ म अंक १५ नवम्बर २००९ (वर्ष २ मास २३ अंक ४६)-PART III
तीन बजे भोर मे हीरानन्दक निन्न टुटिलनि। निन्न टुटितहि बाहर निकललथि ते झल-अन्हार देखि पुनः ओछाइन पर आवि गेलाह। अनुपक बात हीरानन्दक मन केँ झकझोड़ैत छलनि। जे समाज मे एहि रुपे कटुता, विषमता पसरि गेल अछि जे घर-घर, जाति-जाति, टोल-टोल मे भैंसा-भैंसीक कनारि पकड़ि नेने अछि। एहना स्थिति मे, कोना समाज आगू बढ़त? समाज केँ आगू बढ़ैक लेल एक-दोसरक बीच आत्मीय प्रेम हेबाक चाहिऐक। से कोना होयत? एहि प्रष्न केँ जते सोझरबै चाहै छलाह तते ओझराइत छल। विचित्र स्थिति मे पड़ल हीरानन्द। अपने मन मे प्रष्न उठा, तर्क-वितर्क करति आ अंत होइत-होइत प्रष्न पुनः ओझरा क’ रहि जायत। विबेक काजे नहि करैत छलनि। तहि बीच भाग चिड़ैक चहचहेनाइ सुनलनि। चिड़ैक चहचहेनाइ सुनि फेरि कोठरी स निकलि पूब दिस तकलनि। मेघ ललिआयल बुझि पड़लनि। घड़ी पर नजरि देलनि त पाँच बजैत छलैक। पुनः कोठरी आवि लोटा लए मैदान दिषि विदा भेलाह। मुदा मनकेँ ऐहेन गछाड़ि केँ सवाल पकड़ने रहनि जे चलैक सुधिये नहि रहलनि। जायत-जायत बहुत दूर चलि गेलाह। खुला मैदान देखि, लोटा राखि टहलवो करैत आ प्रष्नो सोझरबैक कोषिष करैत रहति। मुदा तइयो निष्कर्ष पर नहि पहुँच सकलाह। पुनः घुरि कए घर पर आबि, दतमनि कए मुह हाथ धोय, चाह बनवै लगलाह। ओना चाहक सब समान चुल्हिऐक उपर चक्का पर राखल रहैत अछि। सिर्फ केतली पखारब, गिलास धोअब आ ठहुरी जारन डेढ़िया पर स आनै पड़लनि। सब कुछ सरिया हीरानन्द चाह बनवै वैसिहाल मुदा मन बौआइत छलनि। असथिरे नहि होयत छलनि। असकरे चाह पीनिहार मुदा भरि केतली पानि दए चुल्हि पर चढ़ा देलनि। जखन चाह खोलए लगलनि तखन मन मे एलनि जे अनेेरे एते। चाह किअए बनवै छी। फेरि केतली चुल्हि पर स उताड़ि दू गिलास दूध मिलाओल पानि कात(बगल) मे राखल गिलास मे रखि, बाकी दूध मिलाओल पानि दू गिलास केतली मे दए देलनि।
मन बौआइते छलनि। आँच लगबैत गेला मुदा चाह पत्ती केतली मे देवे नहि केलनि। आगिक ताव पर दुनू गिलास पानि जरि गेला पर मन पड़लनि जे चाह पत्ती केतली मे देबे ने केलिऐक। हाँइ-हाँइ क’ डिब्वा मे से हाथ पर चाह पत्ती लय केतलीक झप्पा उठौलनि कि नजरि केतली क भीतर गेलनि त पानिये नहि छलैक। सबटा पानि जरि गेल छलैक। तरहत्थी परक चाह पत्ती डिब्बा मे रखि पुनः केतली मे पानि देलनि। चाह बनल। भिनसुरका समय दू गिलास पीलनि। एक त ओहिना मन समाजक समस्या मे ओझड़ालय छलनि तहि पर सँ चाह आरो ओझरी लगा देलकनि।
चाह पीबि दरबज्जा पर बैसि बिचारै लगलाह। मुदा चाहक गर्मी पावि मन आरो बेसी बौआइ लगलनि। जहिना ककरो कोनो वस्तु हरा जायत छैक आ ओ खोजए लगैत अछि तहिना हीरानन्द समाजक ओहि समस्याक समाघान खोजै लगलाह जे समस्या समाज केँ टुकडा़-टुकड़ा कए देने अछि। दोसर कियो नहि छलनि। जनिका सँ तर्क-वितर्क करितथि। असकरे ओझराएल रहथि। अपने मन मे सवालो उठनि जबाबो खोजथि। अध्ययनो बहुत अधिक नहिये। छलनि। सिर्फ मैट्रिके पास छलाह। मुदा तइओ समस्याक समाधान तकितहि(खोजितहि) रहलाह, छोड़लनि नहि। जहिना पथिक केँ, बिनु देखलो पथ, हराइत-भोथिआइत भेटिये जायत छैक तहिना हीरानन्दो केँ भेटलनि। अनायास मन मे मिथिलाक चिन्तनधारा आ मिथिला समाजक बुनाबटिक ढाँचा पर गेलनि। दुनू(चिन्तनोधारा आ सामाजिक ढँचो) पर नजरि पड़ितहि मन मे एकटा नव ज्योतिक उदय भेलनि। बिजलोका इजोत जेँका मन मे चमकलनि। विछान सँ उठि ओसारे पर टहलै लगलथि। अनायास मुह स’ निकललनि- ‘‘वाह रे मिथिलाक चिन्तक! दुनियाँक गुरु। जे ज्ञान, हजारो बर्ख पहिनहि मिथिलाक धरती पर आबि गेल छल। ओइह ज्ञान उन्नैसम शताब्दी मे माक्र्स कठिन संधर्ष कए केँ अनलनि। जहि स दुनियाँक चिन्तनधारा बदलल। मुदा मिथिलाक दुर्भाग्य भेलैइ जे समाजक नियामक धूर्तइ केलक। जे चिन्तक, मनुष्य केँ एक रुप (सभ मनुक्ख मनुक्ख छी) मे देखलनि, ओहि रुप केँ, नियामक(षासन कर्ता) टुकड़ी-टुकड़ी कए काटि देलनि। आइ जरुरत अछि ओहि सभ टुकड़ी केँ जोड़ि कए एक रुप बनवैक। जे नान्हि टा समस्या नहि अछि। ततबे नहि! अखनो टुकड़ी बनौनिहारक कमी नहि अछि। जहन कि भेलि टुकड़ी केँ स्वयं ओ चेतना नहि छैक। जे टुकड़ी भेल कात मे पड़ल छी आ कौआ-कुकुड़ खायत अछि।
ई ऐहन विचार हीरानन्दकेँ उपकितहि मन असथिर भेलनि। मन मे नव स्फूर्ति, नव चेतना आ नव उत्साह जगलनि। नव ढंग(नजरि) सँ सभ वस्तु केँ देखै लगलथि। तहि बीच शषिषेखर सेहो टहलि-बूलि क’ अयलाह।
हीरानन्द पर नजरि पड़ितहि शषिषेखर केँ बुझि पड़लनि जे जना क्यो नहा क’ पोखरि स उपर भेल होअए, तहिना। मुदा हीरानन्दक मन विचार मे डूबले रहलनि। मने-मन सोचैत जे जहिना पटुआ सोन वा सनईक सोन वा रुइक रेषा महीन होइत, मुदा कारीगर ओहि रेषा केँ टेरुआ वा टौकरीक सहारा स समेटि क सूत वा सुतरी बना, कपड़ा वा बोरा वा मोटगर रस्सा बनवैत अछि। तहिना समाजोक टुटल(खंडित) मनुक्ख केँ जोड़ि समाज बनवै पड़त। तखने नव समाजक निर्माण होयत। जे अद्दी-गुद्दी काज नहि कठिन काज छी। कठिन काजक लेल कठिन मेहनतक जरुरत पड़ैत अछि। सिर्फ कठिन मेहनते कयला टा स सभ कठिन काज नहि भए सकैत अछि। कठिन मेहनतक संग, सही समझ आ सही रास्ताक बोध सेहो जरुरी अछि। तेँ कठिन मेहनत, गंभीर चिन्तन आ आगू बढ़ैक(काज करैक) अदम्य साहस सेहो सभमे हेबाक चाहिऐक। एहिक संग मजबूत संकल्प सेहो होयब जरुरी अछि। विचारक संग-संग हीरानन्दक मन मे कठिन कार्यक संकल्प सेहो अपन जगह बनबै लगलनि। भिनसुरका समय तेँ लाल सूर्य मे ठंढ़ापन सेहो देखए लगलथि। एक टक स सूर्य दिषि देखैत अपन विचार केँ संकल्प लग ल’ जाय दुनू केँ हाथ पकड़ि दोस्ती करौलनि। दुनूक बीच दोस्ती होइतहि मनक नव उत्साह शरीर मे तेजी अनै लगलनि।
दरबज्जाक आगुऐ देने उत्तरे-दछिने रास्ता। हीरानन्द शषिषेखर केँ कहलखिन- ‘‘चलू, कने बुलिये-टहलि लेब आ एकटा गप्पो कए लेब।’’
दुनू गोटे दरवज्जा पर स उठि आगू बढ़लाह कि, उत्तर से दछिन मुहे, तीन टा ढेरबा बच्चा केँ जायत देखलनि। तीनूक देह कारी खटखट। केष उड़िआयत। डोरीवला फाटल-कारी झामर पेन्ट तीनू पहिरने रहए। देह मे ककरो कोनो दोसर वस्त्र नहि। तीनूक हाथ मे पुरना साड़ीक टुकड़ा क’ चारु कोण बान्हल झोरा। तीनू गप-सप करैत उत्तर से दछिन मुहे जायत रहए। तीनू केँ एक टक स हीरानन्द देखि, तीनूक गप-सप सुनैक लेल कान पाथि देलनि। मुस्की दैत बेङबा बाजल- ‘‘रौतुका बसिया रोटी आ डोका तीमन तते ने खेलियौ जे चललो ने होइ अए। पेट ढब-ढ़ब करै अए। (दहिना हाथ दबैत) हे सुंगही हमर हाथ केहेन गमकै छै। जना बुझि पड़तौ जे कटुक-मसल्ला लागल छै। (हाथ समेटि) तू की खेलै गइ(गै) रोगही?’’
सिरसिरायल रोगही बाजलि- ‘‘हमरा माए कहलक जे जो डोका बीछि के ला गे। ताबे हमहू मड़ूआ उला, पीसि के रोटी पका क’ रखबौ। डोका चटनी(साना) आ रोटी खइहें।’’
रोगहीक बात सुनि बेङबा कबूतरीकेँ पूछलक- ‘‘तू गै कबूतरी?’’
‘काइल(काल्हि) जे माए डोका बेचै गेल रहै, ओम्हरे से मुरही कीनने आयल। सैह खेलौ।’’
कबूतरी बात सुनि बेङबा पनचैती केलक जे तोहर जतरा सबसे नीक छौ। आइ तोरा सबसे बेसी डोका हेतौ। सबसे बेसी तोरा तइ से कम हमरा आ सबसे कम रोगही के हेतइ।’’
बेङबाक पनचैतीक विरोध करैत रोगही बाजलि- ‘‘बड़ तू पंडित बनै छै। तोरे कहने हमरा कम हैत आ तोरा सब के बेसी। हमरा जेँका तोरा दुनू गोरे के डोका बिछैक लूरि छौ। घौंदिआयल डोका कते रहै छै से बुझै छीही?’’
मुह सकुचबैत बेङबा पुछलक- ‘‘कते रहै छै, से तूही कह?’’
‘किअए कहबौ। तू खेलै से हमरा बाँटि देलै।’’
बेङबा- ‘‘बाटि दितिओ, से हम अगरजानी जननिहार भगवान छी। तू कहले हेन अखनी आ बाँटि दैतियौ अंगने मे।’’
बेङबाक बात सुनि रोगही निरुत्तर भ’ गेलि। हीरानन्द आ शषिषेखर तीनूक बात, चुपचाप ठाढ़ भ’ सुनलनि। ताधरि तीनू गोटे हीरानन्दक लग पहुँचि गेल। हाथक इषारा स तीनू गोटे केँ हीरानन्द सोर पाड़ि पूछलखिन- ‘‘बौआ, तू सभ कते जाइ छह?’’
हीरानन्दक प्रष्न सुनि बेङबा धाँय दए उत्तर देलकनि- ‘‘डोका बिछै ले।’’
‘डोका बीछि क’ की करै छहक?’’
‘अपनो सब तुर खाइ छी आ माय बेचबो करै अए। बाउ कहने अछि जे डोका बेचि क’ पाइ हेतौ, तइ स अंगा-पेन्ट कीनि देबौ। घुरना विआह मे पीहीन के बरिआती जइहें।’’
बेङबाक बात सुनि हीरानन्द रोगही केँ पूछलखिन- ‘‘बच्चा तू?’’
रोगही उत्तर दैत कहलकनि- ‘‘हमहू डोके बीछै ले जाइ छी। माए कहलक जे डोका से जे पाइ हेतौ, तइ स षिवरातिक मेला मे महकौआ तेल, महकौआ साबुन, केष बन्है ले फीता आ किलीप कीनि देबौ।’’
मुस्कुराइत हीरानन्द, बातक समर्थन मे मूड़िओ डोलबैत आ मने-मन विचारबो करति जे कते आषा स गरीबोक बच्चा जीवैत अछि। शषिषेखर दिषि देखि, आखिक इषारा स कहलखिन, जे एकरा सभहक बगए देखिऔ आ आषा देखियौक। तेसर बच्चिया-कबूतरी केँ पूछलखिन- ‘‘बौआ, तू?’’
हीरानन्दक आखि मे आखि गड़ा कबूतरी कहै लगलनि- ‘‘हमरा माए कहने अछि जे डोका पाइ से सल्बार-फराक कीनि देबौ।’’
काजक समय नष्ट होइत देखि हीरानन्द तीनू केँ कहलखिन- ‘‘जाइ जाह।’’
हीरानन्द आ शषिषेखर घुरि क’ दरबज्जा पर अएलाह। ओ तीनू बच्चा गप-सप करैत आगू बढ़ल। थोड़े आगू बढ़ला पर कबूतरी बेङबा केँ पूछलक- ‘‘बेङबा, तू विआह कहिया करमे?’’
विआह सुनि बेङबाक मन मे खुषी भेलैक। ओ हॅसैत उत्तर देलक- ‘‘अखनी विआह नइ करबै। मामा गाम गेल रहियै ते भैया कहलक- ‘‘जे कनी आउर बढ़मे ते तोरा भेबन्डी(भिबन्डी) नेने जेबउ। ओतै नोकरी करबै। जखैन बहुत रुपैआ हेतै तब ईंटाक घरो बनेबइ आ बिआहो करबै।’’
विचहि मे रोगही कहलकै- ‘‘तोरा सनक ढहलेल बुते बोहू सम्हारल हेतउ?’’
बोहूक नाम सुनि बेङवाक हृदय खुषी स गदगद भए गेलैक। हँसैत कहलक- ‘‘आँई गै रोगही, तू हमरा पुरुख नइ बुझै छेँ। हम ते ओहन पुरुख छी जे एगो के, कहै जे तीन गो बहू केँ सम्हारि लेब।’’
कबुतरी- ‘‘खाइ ले बहू के की देबही?’’
बेङबा- ‘‘भेबन्डी मे जब नोकरी करबै तब बुझै छीही जे कते कमेबै। दू हजार रुपैआ एक्के महीना मे हेतइ।’’
हँसैत रोगही बिचहि मे टिपकल- ‘‘दू हजार रुपैआ गनलो हेतउ?’’
बेङबा- ‘‘बीस-बीस के गनवै। रुपैआ हेतइ ते फुलपेन्ट सियेबै, खूब चिक्कन अंगा कीनवै, घड़ी कीनवै, रेडी कीनवै, मोबाइल कीनवै, डोरी वला जुत्ता कीनबै। तब देखिऐहै जे बेङबा केहेन लगै छै।’’
कबूतरी- ‘‘तोरा नोकरी के रखतौ?’’
बेङबा- ‘‘ गामवला भैया नोकरी रखा देतइ। उ कहलक जे जेही मालिक अइठीन हम रहै छियै तेही मालिक अइठीन तोरो रखा देवउ। बड़ धनीक मालिक छै। मारिते नोकर छै। हम जे मामा गाम गेल रहियै ते भइयो गाम आइल रहै। ओ कहै जे हम मालिकक कोठी मे रहै छियै। दरमाहा छोड़ि के बाइलियो खूब कमाइ छै। मालिक के एकटा बेटी छै। उ बड़का इस्कूल(कालैज) मे पढ़ै छै। अपने स हवागाड़ी चलबै छै। सब दिन, हमर भैया ओकरा इस्कूल संगे जाइ छै। उ पढ़ै छै आ हमर भैया गाड़ी ओगरै छै। जखनी छुट्टी भ’ जाइ छै तखनी दुनू गोरे संगे अवैछै। उ मलिकाइन हमरा भैया केँ मानबो खूम करै छै। संगे-संग सिलेमा देखै ले जाइ छै। बजार घुमै ले जाइ छै। बड़का दोकान(होटल) मे दुनू गोरे खूम लड़ू खाइ अए। अन्ना ते बड़का मालिक सब नोकर के दीयाबत्ती(दिवाली) मे चिक्कनका नुआ देइ छै, हमरो भैया के दै छै। छोटकी मलिकाइन अपने दिसन से नीकहा-नीकहा फुलपेन्ट, नीकहा-नीकहा अंगा कीनि-कीनि देइ छै। रुपैयो खूम देइ छै।’’
तीनू गोटे बाध पहुँच गेल। बाध पहुँचहि तीनू गोटे तीन दिषि भए गेल। तीन दिस भए तीनू गोटे डोका बीछै लगल। उपरे सब मे डोका चराओर करै ले निकलल रहए। डोका बीछि तीनू गोटे घुरि गेल।
दरबज्जा पर आबि हीरान्द शषिषेखर केँ पूछल- ‘‘षषि, की सभ ओहि बच्चा सभ मे देखलिऐक?’’
मुह बिजकबैत शषि उत्तर देलनि- ‘‘भाय, ओहि बच्चा सभकेँ देखि छुब्द छलहुँ। ओकरा सभहक बगए देखए छलिऐक आ मनक खुषी देखै छलिऐक। जना दुनियादारी स कोनो मतलब नहि। निर्विकार। अपने-आप मे मग्न छल।’’
हीरानन्द- ‘‘कहलहुँ त ठीके, मुदा एकटा बात तर्कक छल। अपना सभहक समाज तते नमहर अछि जाहि मे भिखमंगा सँ राजा धरि बसैत अछि। एक दिस बड़का-बड़का कोठा अछि त दोसर दिस खोपड़ी। एक दिस आजुक विकसित मनुक्ख अछि त दोसर दिस आदिम युगक मनुुक्ख सेहो अछि। एते पैघ इतिहास समाज अपना पेट मे रखने अछि ने ओहि इतिहास केँ कियो पढ़निहार अछि आ ने बुझनिहार।’’
‘ठीके कहलहुँ भाय।’’
‘‘आइ धरि, हम सभ समाजक जाहि रुप केँ देखैत छी ओ उपरे-झापरे देखै छी। मुदा देखैक जरुरत अछि ओकर भीतरी ढाँचा केँ। जहिना समुद्रक उपरका पानि आ लहरि त सभ देखैत अछि, मुदा ओहिक भीतर की सभ अछि से देखनिहार कैक गोटे अछि।’’
भोर केँ वौएलाल अपनो पढ़ैत आ सुमित्रो केँ पढ़ा दइत। जाधरि टोल-पड़ोसक लोक सुति क’ उठै ताधरि वौएलाल आ सुमित्रा एक-डेढ़ घंटा पढ़ि लिअए। एक त चफलगर दोसर पढ़ैक जिज्ञासा सुमित्रा मे तेँ एक्के दिन मे अ, आ से य,र,ल,व तक सीखि गेल। कब्बीरकाने सीखि सुमित्रा बाल-पोथी आ खाँत सिखब शुरु केलक।
सुमित्रा केँ पढ़ैत देखि माय-बाप केँ खुषी होइ। ओना माइयो केँ आ बापोक मनमे शुरुहे सँ रहए जे बच्चा सभ केँ पढ़ाएब, मुदा समयक फेरि आ परिवारक विपन्नताक चलैत, मनक सभ मनोरथ मने मे गलि क’ विलीन भए गेलैक। मुदा जहिया सँ सुमित्रा पढ़ै लागलि तहिया स पुनः ओ मनोरथ अंकुरित होअए लगलैक। मनुक्खक जिनगीक गति मनुक्खक विचार आ व्यवहार केँ सेहो बदलैत अछि। अनुपक प्रति जे कटुता आ दुर्विचार रामप्रसादक मन केँ गहिया क’ धेने छलैक ओ नहुँए-नहुँए पघिलए लगलैक। रामप्रसादक स्त्री(सुमित्राक माय) अनुपक आंगन अबैत जायत छलीह। तीमन-तरकारीक लेन-देन पति सँ चोरा क’ सेहो करैत छलीह। मुदा तइयो रामप्रसादक मन मे पैछला दुष्मनी नीक-नहाँति नहि मेटाएल छलैक। जहिना सुखायल धार मे(बरसात मे) पानि अबितहि जीवित धारक रुप-रेखा पकड़ि लइत तहिना विद्याक प्रवेष स रामप्रसादोक परिवारक रुप-रेषा बदलै लगलैक। भैंसा-भैसीक दुष्मनी भाय-भैयारी मे बदलैै लगलैक।
मिरचाई, तरकारी आ चून कीनै ले अनुप हाट गेल रहए। कोसे भरि पर कछुआ हाट अछि। तहि बीच रामप्रसाद कताक बेरि अनुपक डेढ़िया पर आबि-आबि अनुपक खोज केलक। रामप्रसादक अधला विचार केँ धिक्कारि क’ भगा नीक-विचार अपन जगह बना लेलक। दोसरि साँझ मे अनुप हाट स घुरि क’ रस्ते मे अबैत छल कि रामप्रसाद फेरि तकै ले पहुँचल। अनुप पर नजरि पड़ितहि रामप्रसाद कठहँसी हँसि कहलक- ‘‘बहुत दिन जीवह भैया। बेरुए पहर से कत्ते हरा गेल छेलह?’’
रामप्रसादक बदलल चेहरा आ विचार सुनि अनुप मने-मन तारतम्य करै लगल। जे आइ सुर्ज किमहर उगलाह। जिनगी भरिक दुष्मनी एकाएक ऐना बदलि कोना गेलैक? पैछला गप अनुप केँ मन पड़लै। अखन धरि रमपसदबा संग हमरा दुष्मनी ओकर अधले (खवासी) काजक दुआरे ने छल। मुदा ताराकान्त केँ धन्यवाद दियै(दिअए) जे बेचारा मारिओ खा, जहलो जा गाम मे खबासी प्रथा मेटौलक। जाबे रमपरसदबा अधलाह काज करै छल ताबे जँ दुष्मनी छल ते ओहो नीके छल। किऐक त हमहूँ अपना डारि पर छलौ। आब जँ ओ ओहि काज केँ छोड़ि देलक ते हमरो मिलान करै मे हरज की? कालोक गति त प्रबल होइत छैक। समयो बदलि रहल अछि। एक त पहिलुका जेँका भारो-दौर लोक नहि दइत अछि, दोसर पहिने लोक कान्ह पर भार उघैत छल आब गाड़ी-सवारी मे लए जायत अछि। ततबे नहि, आब सभहक समांग परदेष सेहो खटै लगल अछि। गामक मालिको-मलिकाना केँ पहिलुका रुतबा कमले जायत छैक।
रामप्रसादक बात सुनि अनुप कहलक- ‘‘हाट जायब जरुरी छल। घर मे ने मिरचाई छल आ ने चून। जे चूनवाली चून बेचए अबै छलि ओकर सासु मरि गेलै। अईसाल एक्को दिन कटहरक आँठी देल खेरही दालि सेहो नै खेने छलौ, तेँ मन लगल छले।’’
कहि अनुप सोझे आंगन जाय ओसार पर आँठी आ मेरिचाइक मोटरी रखि, कोही मे चून रखलक। एकचारी मे बैसि रामप्रसाद तमाकुल चुनबैत। खोलिया पर रखि चूनक कोही अनुप बाहर आबि रामप्रसाद केँ कहलक- ‘‘ताबे तमाकुल लगबह कने हाथ-पाएर धोय लइ छी। एक त कच्चाी रस्ता तहू मे तते टेक्टर सब चलै छै जे भरि ठहुन के गरदा रस्ता मे भ’ गेल अछि। जहिना लोकक पएर थाल-पानि मे धँसै छै तहिना गरदो मे धसै अए।’’
कहि अनुप इनार पर जा हाथ-पाएर धोय क’ आबि, रामप्रसाद लग बैसल। अनुपकेँ तमाकुल दइत रामप्रसाद कहलकै- ‘‘भैया, दुपहरे से मन मे आयल जे तोरो बड़दक भजैती आन टोल मे छह आ हमरो अछि। दुनू गोरे ओकरा छोड़ा के अपने मे लगा लाय। जइ से दुनू गोरे के सुविधा हैत’।’’
थूक फेकि अनुप उत्तर देलकै- ‘‘ई बात त कत्ते दिन से वौएलाल कहै छलै जे जते काल बड़द अनै मे लगै छह ओते काल मे एकटा काज भ’ जेतह।’’
मूड़ी डोलबैत रामप्रसाद बाजल- ‘‘काल्हि जा क’ तोहूँ अपन भजैत केँ कहि दहक आ हमहूँ कहि देवइ। परसू से दुनू गोरे एक्के ठीन जोतब।’’
आंगन बहरनाई छोड़ि रधिया सेहो आबि क’ टाटक कात मे, ठाढ़ भ’ गेलि। किऐक त बहुतो दिनक उपरान्त दुनू गोटेक मुहा-मुही गप करैत देखलनि। बड़दक भजैतीक गप कए अनुप रामप्रसाद केँ कहलक- ‘‘अबेर भ’ गेल। अखन तोहूँ जाह हमहूँ पर-पाखाना दिस जायब।’’
जहिना सड़ल सँ सड़ल पानि मे कमल फुलेला सँ भगवान माथ पर चढ़ैक अधिकारी भए जायत अछि तहिना वौएलाक सेवा सभहक लेल होअए लगल। जहि स गाम मे बौएलाल चर्चक विषय बनि गेल। हीरानन्दक आसरा पाबि वौएलाल रामायण, महाभारत, कहानी कविता पढ़ब सीखि लेलक। जहि गाममे लोक भरि-भरि दिन ताष खेलैत, जुआ खेलैत तहि गाम मे वौएलालक दिनचार्या सबसँ अलग बीतए लगलैक। जहि स वौएलालक जिनगीक रास्ता बदलि गेल। अधिककाल हीरानन्द वौएलाल केँ कहथिन- ‘‘बौएलाल, गरीबक सबसँ पैघ दोस्त मेहनत छी। जे कियो मेहनत केँ दोस्त बना चलत ओइह गरीबी रुपी दुष्ट केँ पछाड़ि सकैत अछि। तेँ सदिखन समय केँ पकड़ि, सही रास्ता सँ मेहनत केनिहार जे अछि ओइह एहि धरती आ दुनियाँक सुख भोगि सकैत छथि।’’
मौलाइल गाछक फुल:ः 8
रौतुके गाड़ी सँ रमाकान्त, तीनू गोटे, अपना टीषन मे उतड़लाह। अन्हार राति। भकोभन स्टेषन। सिर्फ दुइये गोटे, स्टेषन मास्टर आ पैटमेन, स्टेषनक घर मे केबाड़ बन्न कए जगल रहए। लेम्प जरैत। ने एक्को टा इजोत प्लेटफार्म पर आ ने मुसाफिर खना मे। अन्हारे मे तीनू गोटे अपन सब समान मुसाफिर खाना मे रखि, जाजीम विछा वैसि रहलाह। गाड़ी झमारक संग दू रातिक जगरना सँ तीनू गोटेक देह, ओंघी स भसिआइत रहनि। प्लेटफार्मक बगल मे ने एक्कोटा चाहक दोकान खुजल आ ने एक्को टा दोाकनदार जगल रहए। ने कोनो दोकान मे इजोत होयत छलैक आ ने गाड़ी से एक्कोटा दोसर पसिंजर(यात्री) उतड़ल। निन्न तोड़ै दुआरे रमाकान्त चाह पीबै चाहति मुदा कोनो जोगार नहि देखि कखनो समान लग बैसथि त कखनो उठि केँ टहलै लगति। जुगेसर आ श्यामा सुति रहल। मुदा रमाकान्त मन मे होइन जे जँ कहीं सुति रहब आ सब समान चोरि भए जाय तखन त भारी जुलुम हएत। निन्न तोड़ैक एकटा नीक उपाय छलनि जे ढाकीक-ढ़ाकी मच्छर रहए। जुगेसरो आ श्यामो चद्दरि ओढ़ि, मुह झाँपि सुतल रहथि।
प्लेटफार्म पर पनरह-बीस टा अनेरुआ कुकुड़ ऐम्हर स ओमहर करैत रहए। प्लेटफार्मक पछबारि भाग माल-जालक हड्डीक ढेरी स गंध अवैत सकरीक एकटा व्यापारी हड्डीक कारोबार करैत अछि। गाम-घर मे जे माल-जाल मरैत ओकर हड्डी गामे-घरक छोटका व्यापारी, भार पर उघि-उघि अनैत अछि ओहि व्यापारी ऐठाम बेचि-बेचि गुजर करैत अछि। जखन बेसी हड्डी जमा भए जायत छैक तखन ओ मालगाड़ीक डिब्बा मे लादि बाहर पठबैत अछि। जाधरि हड्डी प्लेटफार्मक बगल मे रहैत अछि ताधरि अनेरुआ कुत्ता सब ओहि हड्डी केँ चिबबैक पाछू तबाह रहैत अछि। दिन रहौ कि राति, जते टीषनक कातक कुकुड़ अछि सब ओहिक इर्द-गिर्द मड़राइत रहैत अछि। ओना आनो-आनो गामक कुकुड़ गाम छोड़ि ओतए रहैत अछि। एकटा पिल्ला एकटा पिल्लीक संग, प्लेटफार्मक पूबारि भाग से अबिते छल कि एकटा दोसर कुत्ताक नजरि पड़लैक। बिना बोली देनहि ओ कुकुड़ दौड़ि क’ ओहि जोड़ि(पिल्ला-पिल्लीक) लग पहुँच गेल। आगू-आगू पिल्ली आ पाछू-पाछू पिल्ला नाङरि डोलबैत ओ दोसर कुकुड़ पिल्लीक मुह सूँघलक। मुह सुघितहि पिल्ली, मुह चियारि केँ, ओहि कुत्ता पर टूटलि। पिल्ली केँ टूटितहि पैछला पिल्ला जोर से भुकल। कुत्ताक अवाज सुनितहि, जते अनेरुआ कुकुड़ प्लेटफार्म पर रहए, सभ भुकैत दौड़ि केँ, ओहि पिल्ली केँ घेरि लेलक। सभ सभपर भूकै लगल। मुदा पिल्ली डरायल नहि। रानी बनि हस्तिनीक चालि मे पछिम मुहे चललि। अबैत-अबैत टिकट घरक सोझे बैसि रहलि। पिल्ली केँ बैसितहि सभ पिल्ला पटका-पटकी करै लगल।
प्लेटफार्मक पछवारि भाग, कदमक गाछक निच्चा मे मघैया डोम सभ डेरा खसौने रहए। ओहि काल एकटा छैाँड़ा एकटा छैाँड़ीक संग, डेरा स थोड़े पछिम जाय, लट्टा-पट्टी करैत रहए। कुत्ताक अवाज सुनि एक गोटे केँ निन्न टूटलै। निन्न टुटितहि आखि तकलक कि पछवारि भाग दुनू गोटे केँ लट्टा-पट्टी करैत देखलक। ओ ककरो उठौलक नहि! असकरे उठि क’ ओहि दुनू लग पहुँचल। ओहो दुनू देखलकै। छैाँड़ा ससरि केँ झाड़ा फीड़ै ले कात मे वैसि गेल। मुदा छैाँड़ी चलाक। फरिक्के से ओहि आदमी केँ छैाँड़ी कहलकै- ‘‘कक्का।’’
कक्का सुनि ओ किछु बाजल नहि मुदा घुरबो नहि कयल। आगुए मुहे ससरैत बढ़ल। छैाँड़ियो ओकरे दिस ससरलि। लग मे पहुँचतहि छैाँड़ी कन्हा पर दहिना हाथ दइत फुसफुसा क’ कहलकै- ‘‘कक्का....।’’
कान्ह पर हाथ पड़ितहि कक्काक मन बदलै लगलनि। जहिना षिकारी केँ दोसराक षिकार हाथ लगला पर खुषी होइत तहिना कक्को केँ भेलनि। ओहो अपन दहिना हाथ क’ छैाँड़ीक देह पर देलखिन। देह पर हाथ पड़ितहि छैाँड़ी हल्ला केलक। छैाँउड़ो देखैत। उठि क’ ओहो हल्ला करै लगल। हल्ला सुनि सभ मघैया उठि-उठि दौड़ल।
टिकटघर (स्टेषन) मे टिकट मास्टर पैटमेन केँ कहलक- ‘‘रघू, प्लेटफार्म पर बड़ हल्ला होइ छैक। जा केँ देखहक ते।’’
पैटमेन जवाब देलकनि- ‘‘टीषन छियै। सभ रंगक लोक ऐठाम अबै-जाय अए। जँ हम ओमहर देखै ले जाय आ ऐम्हर(स्टेषन घर मे) चोर चलि आबेए ते असकरे अहाँ बुते सम्हारल हएत। भने केबाड़ बन्न छै। दुनू गोटे जागल टा रहूँ। नहि त सरकारी समान चोरि भेने दुनू गोरेक नोकरी जायत। कोनो कि सुरक्षा गार्ड अछि जे चोरिक दोख ओकरा लगतै।’’
पैटमेनक बात स्टेषन मास्टर केँ नीक बुझि पड़लनि पैटमेन केँ कहलखिन- ‘‘ठीके कहलह।’’
दुनू गोटे गप-सप करै लगला। लेम्प जरिते रहै। केवाड़क दोग देने पैटमेन प्लेटफार्म दिस तकलक ते देखलक जे कुत्ता सभ पटका-पटकी करै अए। अन्हार दुआरे मघैया सभ केँ देखबे नहि केलक।
एक दिस कुत्ता सबहक झौहड़ि आ पटका-पटकी, दोसर दिस मघैया सभहक गारि-गरौबलि स प्लेटफार्म गदमिषान हुअए। मने-मन रमाकान्त सोचति जे भने भए रहल अछि। लोकक हल्ला सँ हमर समान तँ सुरक्षित अछि। जुगेसर केँ उठवैत कहलखिन- ‘‘कने आगू बढ़ि क’ जा के देखहक ते कथीक हल्ला होइ छै?’’
जुगेसर उठि क’ कहलकनि- ‘‘कक्का, कोन फेरा मे पड़ै छीबस स्टेण्ड आ रेलवे स्टेषन मे एहिना सदिखन, झूठि-फूसि लय हल्ला होइते रहै छै। अपन जान बचाउ। अनेरे कते जायब।’’
भोर होइतहि टमटमवला सभ अवै लगल। उत्तरवारि भाग (थोड़े हटि क’) ठकुरबाड़ी मे घड़ीघंट बजै लगल। घड़ीघंटक आबाज सुनि रमाकान्त नमहर साँस छोड़लनि। जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘ओंघी से मन भकुआएल अछि। चाहो दोकान पर लोक सभ के गल-गुल करैत सुनै छियै। कने चाह पीने अबै छी। ताबे तू समान सब देखैत रहह।’’
कहि रमाकान्त उठि क’ कल पर जाय कुड़ुड़ केलनि। पानि पीलनि। पानि पीवि चाहक दोकान पर जाय चाह पीलनि। चाह पीबि पान खाय घुरि क’ आबि जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘आब तोहू जाह। चाह पीवि दू टा टमटम सेहो केने अविहह।’’
जुगेसर उठि के कल पर जाय कुड़्ड़ा केलक। कुड़्ड़ा केलाक बाद सोचलक जे अखैन भिनसुरका पहर छै। तोहू मे तीनिये-चारि टा टमटमवला आयल अछि। जँ कहीं चाह पीबै ले चलि जाय आ इमहर टमटमवला दोसर गोरे के गछि लै, तखन त पहपटि भ’ जायत। तइ से नीक जे पहिने टमटमे वला केँ कहि दिअए। सैह केलक। टमटमवला लग पहुँच क’ पूछलकै- ‘‘भाइ, टमटम खाली छह।’’
‘हँ।’
‘चलबह।’
‘हँ, चलब।’
पहिल टमटमवला जे छल, ओकर घरबाली दुखित छलैक। दस बजे मे डाॅक्टर ऐठाम जेबाक छलैक। एक्को टा पाइ नहि रहने भोरे स्टेषन पहुँच गेल जे एक्को-दू टा भाड़ा कमा लेब ते औझुका जोगार भ’ जायत। किएक त कम से कम पचास रुपैआ दवाई-दारु, तकर बाद घरक बुतात, घोड़ाक खरचा आ दस रुपैआ बैंकवला केँ सेहो देवाक अछि।
जुगेसर केँ पुछितहि टमटमवला मने-मन सोचै लगल जे भिनसुरका बोहनि छी तेँ एकरा छोड़ैक नहि अछि। साला टमटमवला सभ जे अछि ओ उपरौज करैत रहैत अछि। कहै ले अपना मे युनियन बनौने अछि मुदा बान्ह कोनो छइहें नहि। लगले बैसार क क’ विचारि लेत आ जहाँ दस रुपैआ जेबी मे एलै आ ताड़ी पीलक कि मनमाना करै लगैत अछि। अपना मे सभ विचारने अछि जे बर-बीमारी मे सभ चंदा देवइ मुदा हमरे कए टा पैसा चंदा देलक। पनरह दिन से घरवाली दुखित अछि जहि पाछु रेजानिस-रेजानिस भ’ गेल छी। ने एक्को मुट्ठी घोड़ा केँ बदाम दइ दियै आ ने अपने भरि पेट खाइ छी। धिया-पूता सभ अन्न बेतरे टउआइत(टौउआइत) रहै अए। तखन ते धन्यवाद ओही बच्चा सभ के दिअए जे भुखलो माए केँ सेवा-टहल करै अए। अपनो घोड़ाक संग-संग टमटम धिचै छी। जँ से नइ करब आ सोलहो अन्ना घोड़े भरोसे रहब ते ओहो मरि जायत। ओइह त, हमर लछमी छी। ओकरे परसादे दू पाइ देखै छी। ओकरा कन्ना छोड़ि देबइ। जिनगी भरि त ओकरे संग सुखो केलौ छोट-छोट बच्चो केँ त ओइह थतमारि केँ रखलक। हम त भरि दिन बोनाइले रहै छी। घर त ओहि वेचारीक परसादे चलै अए।
तहि बीच जुगेसर पूछलकै- ‘‘कते भाड़ा लेबहक?’’
भाड़ाक नाम सुनि टमटमवला सोचै लगल- एक त भिनसुरका बोहनि छी, दोसर डाकडरो अइठीन जाइ के अछि। जँ भाड़ा कहबै आ ओते नइ दिअए तखन ते बक-झक हैत। जँ कहीं दोसर टमटम पकड़ि लिअए तखन ते ओहिना मुह तकैत रहि जायब। तइ से नीक हैत जे पहिने समानो आ पसिनजरो चढ़ा ली। एते बात मन मे अबितहि टमटमवला कहलकै- ‘‘जे उचित भाड़ा हैत सैह ने लेब। हम तोरा एक हजार कहि देवह तेँ कि तू दइये देबह।’’
टमटमवलाक बात सुनि जुगेसर कहलकै- ‘‘अच्छा ठीक छै। पहिने चाह पीबि लाए।’’
दुनू टमटमोवला आ जुगेसरो चाहक दोकान पर जाय चाह पीलक। चाह पीबि तीनू गोटे तमाकुल खेलक। चाहवला केँ जुगेसरे पाइ देलकै। तीनू गोटे रमाकान्त लग आबि समान सब उठा-उठा टमटम पर लदलक। एकटा टमटम पर श्यामा, जुगेसर चढ़ल आ दोसर पर असकरे रमाकान्त समानक संग चढ़लनि। किछु दूर आगू बढ़ला पर रमाकान्त टमटमवला केँ कहलखिन- ‘‘घोड़ा एते लटल छह, खाइ ले नइ दइ छहक?’’
रमाकान्तक बात सुनि टमटमवला बेवषीक आखि उठा रमाकान्त दिषि देखि उत्तर देमए चाहैत मुदा कनैत हृदय मुह से बकारे नहि निकलै दैत। टमटमवलाक आखि पर आखि दए रमाकान्त पढ़ै लगलथि। तहि बीच टमटमवलाक आखि मे नोर ढवढ़बा गेलै। कान्ह परक तौनी स आखि पोछि टमटमवला कहै लगलनि- ‘‘सरकार यैह टमटम आ घोड़ा हमर जिनगी छी। अही पर परिवार चलै अए। जइ दिन से भनसिया दुखित पड़ल तइ दिन से जे कमाइ छी से दबाइये-दारु मे खरचा भ’ जाइ अए। अपनो वाल-बच्चाकेँ आ घोड़ो के खाइक तकलीफ भ’ गेलै अए। की करबै! कहुना परान बचैने छियै। परान बँचतै ते माउस हेबे करतै।’’
टमटमवलाक धैर्य आ बेवषी देखि रमाकान्तक हृदय पघिल क’ इनहोर पानि जेँका पातर भ’ गेलनि। बिना किछु बजनहि मने-मन सोचै लगलथि जे एक तरहक मजबुर ओ अछि जे किछु करबे(कमेबे) नहि करैत अछि आ दोसर तरहक ओ अछि जे दिन-राति खटैत अछि मुदा ओकरा प्राकृति स’ ल’ केँ मनुक्ख धरि एहि रुपे संकट पैदा करैत अछि जहि स ओ मजवूर होइत अछि। इ(टमटमवला) दोसर श्रेणीक मजवूर अछि तेँ ऐहेन लोक केँ मदति करब धरमक श्रेणी मे अबैत अछि। जरुर ऐहेन लोकक मदति करैक चाहिऐक। मुदा मेहनतकष आदमीक मोन एत्ते सक्कत होइत अछि जे दोसर सँ हथउठाइ नहि लेमए चाहैत अछि। जँ हम किछु मदति करै चाहिऐक आ ओ लइ स नासकार जाय तखन त मन मे कचोट हैत। एहि असमंजस मे रमाकान्त पड़ि गेला। फेरि सोचै लगलथि जे कोन रुपे एकरा मदति कयल जाय? सोचैत-सोचैत सोचलनि जे हम नहि किछु कहि एकरे सँ पूछिऐक जे अखन तू जहि संकट मे पड़ल छह ओहि मे कते सहयोग भए गेला स तोरा पाड़ लगि जेतह। इ विचार मन मे अबितहि पूछलखिन- ‘‘अखन तोरा कते मदति भए गेला सँ पार लगि जेतह।’’
रमाकान्तक बात सुनि टमटमवलाक मन मे संतोषक छोट-छीन लकीर खिंचा गेल। मने-मन सब हिसाब बैसवैत बाजल- ‘‘सरकार, अगर अखन पाँच दिनक बुतात (परिवारोक आ घोड़ोक) आ एक सय रुपैआ भए जाय त हम अपन जिनगी केँ पटरी पर आनि लेब। जखने जिनगी पटरी पर आबि जायत तखने जिनगीक सरपट चालि पकड़ि लेब। तीनू काज(स्त्रीक इलाज, परिवार आ कारोवार) ऐहेन अछि जे एक्को टा छोड़ैवला नहि अछि।’’
टमटमवलाक बोली मे रमाकान्त केँ मदतिक आषा बुझि पड़लनि। आषा देखि खुषी भेलनि। खुषी अबितहि विचारलथि जे अगर पाँच दिनक बदला दस दिनक बुतात आ सय रुपैआक बदला दू साय रुपैया जँ मदति कए देवइ त विरोध नहि करत। संगे, जखने समस्या सँ निकलैक आषा जगि जेतइ ते काजो करैक साहस बढ़ि जेतइ। मुदा असकरे त नहि अछि दू गोटे(दू टा टमटमवला) अछि। कि दुनू गोटे केँ मदति करवैक आ कि एकरे टा?’’
पुनः एहि सवाल पर सोचै लगलथि। मन मे एलनि जे मुसीबत त एहि वेचारे टा केँ छैक। ओकरा(दोसर टमटमवाला) से त गप नहि भेल जे बुझितियैक। मुदा एकर त बुझलिऐक। तेँ एकरे टा मदति करबैक। ओकरा(दोसर टमटमवला) से पुछि लेवइ जे तोहर भाड़ा कते भेलह? जेते कहत तते दए देवइ। मुदा एक ठाम (सोझामे) कम-बेसी देवो उचित नहि। तेँ पहिने ओकरा भाड़ा दए विदा कए देवइ आ एकरा रोकि, पाछू केँ सभ किछु दए विदा कए देवइ। गरीबक हृदय केँ जुराइब, बड़ पैघ काज होयत। एते सोचैत-सोचैत रमाकान्त घर पर पहुँच गेलाह।
घर मे ताला लगा हीरानन्द पैखाना गेल रहथि। दुनू टमटम पहुँच दलानक आगू मे ठाढ़ भेल। टमटम ठाढ़ होइतहि सभ कियो उतड़लाह। टमटमोवला आ जुगेसरो, सब सामान केँ उताड़ि दावज्जाक ओसार पर रखलक। ताबे हीरानन्दो बाध दिषि स आबि पोखरिक पूबरिया महार लग पहुँचलाह। महार लग अबितहि दरवज्जा पर टमटम लगल देखलनि। टमटम देखि हीरानन्द बुझि गेल जे रमाकान्त आबि गेलाह। हाँइ-हाँइ क’ दतमनि, कुड़ुड़ कए लफरल दरवज्जा पर आबि घरक ताला खोलि देलखिन। हाथे-पाथे तीनू गोटे सभ सामान केँ कोठरी मे रखि देलकनि। दोसर टमटमवला केँ भाड़ा पूछि रमाकान्त दए देलखिन। पहिल टमटमवला केँ आँखिक इषारा सँ रुकै ले कहलखिन। दोसर टमटमबला चलि गेल। पहिल टमटमवला केँ दू सय रुपैया आ दस दिनक बुतात(दू पसेरी बदाम आ तीन पसेरी चाउर) दए विदा केलनि। टमटम पर चढ़ि, मने-मन गद-गद होइत टमटमवला गीति सभक सुधि अहाँ लइ छी यौ बावा हमरा किअए विसरल छी यौ। गुनगुनाइत विदा भेल।
पसीना स गंध करैत कुरता-गंजी निकालि रमाकान्त चैकी पर रखलनि। भकुआइल मन रहनि। मुदा नीके-ना घर पहुँचला स मन खुषी होइत रहनि। हीरानन्दकेँ पूछै स पहिनहि रमाकान्त पूछलखिन- ‘‘गाम-घरक हाल-चाल बढ़िया अछि की ने?’’
‘हँ’ कहि हीरानन्द पूछलखिन- ‘‘यात्रा बढ़ियाँ रहल की ने?’
‘‘येह, यात्राक संबंध मे की कहू! अखन त मनो भकुआयल अछि आ तीनि दिन से नहेबो ने केलहुँ हेन। तेँ पहिने नहा लिअए दिअ। तखन निचेन से यात्राक संबंध मे कहब।’’
जुगेसर केँ जे बिदाइ मद्रास मे भेटल रहै, ओ चारि टा कार्टून मे रहै । चारु कार्टून जुगेसर फुटा क’ ओसारे पर रखने रहए। जुगेसरक घरवाली आ धिया-पूता सेहो आबि गेलैक। चारु कार्टून जुगेसर अपना घरवाली केँ देखबैत कहलक- ‘‘ई अप्पन छी। अंगना नेने चलू।’’
अप्पन सुनि घरोवली आ धियो-पूतो चपचपा गेल। चारु कार्टून लए आंगन विदा भेल।
रमाकान्त अबैक समाचार गाम मे बिहाड़ि जेँका पसरि गेल। धिया-पूता स ल’ क’ चेतन धरि देखै ले अबै लगलनि। दरबज्जा पर लोकक भीड़ बढै़ लागल। रमाकान्त नहाएब छोड़ि जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘जुगे, सनेसवला कार्टून एतै नेने आबह।’’
सनेस मे डाॅ. महेन्द्र दू कार्टून नारियल(टुकड़ी बनााओल) देने रहनि। जुगेसर कोठरी जा एकटा कार्टून उठौने आयल। जहिया स रमाकान्त ब्रह्मचारी जीक आश्रम गेलथि तहिया स विचारे बदलि गेलनि। अपन सुख-दुख केँ ओते महत्व नहि दिअए लगलथि जते दोसराक। दरबज्जा पर लोक थहा-थही करै लगल। जना लोकक हृदय रमाकान्त क हृदय मे मिझराय लगलनि आ रमाकान्तक हृदय लोक मे। अपन नहाएव, दतमनि करब आ आँखि पर लटकल ओघी सभ बिसरि जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘चेतन केँ दू टा टुकड़ी आ बाल-बोध केँ एक-एक टा टुकड़ी बाँटि दहक। दरवज्जा पर आयल एक्को गोटे इ नहि कहए जे हमरा नहि भेल।’’
कार्टून खोलि जुगेसर नारियलक टुकड़ी बिलहै लगल। हाथ मे पड़ितहि, की चेतन की धिया-पूता, नारियल खाय लगैत। एक कार्टून सठि गेल मुदा देखिनिहार, जिज्ञासा केनिहार नहि सठल। दोसरो कार्टून जुगेसर अनलक। दोसर कार्टून सठैत-सठैत लोको पतरा गेल। लोकक भीड़ हटल देखि रमाकान्त नमहर साँस छोड़ैत जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘आब तोहूँ जा के खा-पीअह गे। हमहूँ जाइ छी।’’
आंगन आबि जुगेसर अपन चारु कार्टून खोललक। मद्रास मे कार्टूनक भीतरका समान नहि देखने छल तेँ देखैक उत्सुकता रहै। एक-एक टा कार्टून चारु गोटे- महेन्द्र, रविन्द्र, जमुना आ सुजाता- देने रहै। पहिल कार्टून, महेन्द्रवला, मे एक जोड़ धोती, एक जोड़ साड़ी, एकटा कुरता कपड़ाक पीस(टुकड़ा) एकटा आङीक पीस, एकटा चद्दरि, एकटा गमछा, एक जोड़ जुत्ता(जुगेसर ले) आ एक जोड़ चप्पल, (घरवली ले) दुनू बच्चा ले पेन्ट-षर्टक संग तीनि सय रुपैआ रहैक। एहिना तीनू कार्टून मे सेहो रहैक। चारु कार्टूनक समान देखि जुगेसरक परिवार केँ खुसीक बिहाड़ि मन मे उठि गेलैक। दुनू बच्चा अपन कपड़ा देखि खुषी स एक-एक टा पहीरि आंगन मे नचै लगल। किऐक त कपड़ाक ऐहन सुख जिनगी मे पहिल दिन भेटल छलैक। दुनू परानी जुगेसर केँ सेहो खुषी स मन गद-गद भए गेलैक। जुगेसर हिसाब जोड़ै लगल जे जँ ओरिया केँ पहिरब ते दुनू गोरेक जिनगी पाड़ लगि जायत ऐहन चिक्कन कपड़ा आइ धरि नसीब नहि भेल छल। एक आखि जुगेसर समान पर देने आ दोसर आखि घरवालीक आखि पर देलक।
दुनू गोटेक आखि मे जिनगीक बसन्त अवै लगलैक। अपन विआह मन पड़लै। जुगेसर केँ होय जे घरवालीकेँ दुनू बाँहि स पजिया क’ छाती मे लगा ली आ घरवाली केँ होय जे घरवला केँ कोरा मे बैसि एकाकार भए जाय। मुदा तीन दिनक गाड़ीक झमार सँ जुगेसरक देहो भसिआइ आ ओंघियो आखिक पीपनी केँ झलफलबैत रहए। जुगेसर घरवाली केँ कहलक- ‘‘पहिरै ले एक-एक जोड़ कपड़ो आ जुत्तो बहार रखू आ बाकी केँ खूब सरिया क’ रखि लिअ जे दुरि नहि हुअए।’’
बेर टगि गेल। जुगेसर नवका धोती, गंजी पहीरि कान्ह पर गमछा नेने रमाकान्त ऐठाम पहुँचल। रमाकान्त सुतले रहथि। आंगन जाय श्यामा केँ देखलक ते ओहो सुति उठि के मुह-हाथ धोइत छलीह। जुगेसर केँ देखि, श्यामा एक टक स निङहारि, मुस्की दैत कहलखिन- ‘‘आइ त अहाँ दुरगमनिया बर जेँका लगै छी, जुगेसर।’’
हँसैत जुगेसर उत्तर देलकनि- ‘‘काकी, महिन्दर भाय देलहा छी।’’
महिन्दरक नाम सुनि श्यामा कहलखिन- ‘‘भगवान भोग देथि। की सब बच्चा देलनि?’’
जुगेसर- ‘‘अहाँ से लाथ कोन काकी, तते कपड़ा-लत्ता आ जुत्ता-चप्पल चारु गोरे केँ देलनि जे जिनगी भरि कतबो धाँगि क’ पहीरब तइयो ने सठत।’’
बेटा-पूतोहूक बड़ाई सुनि श्यामाक हृदय उमड़ि पड़लनि। आह्लादित भए पूछलखिन- ‘‘पाइयो-कौड़ी देलनि कि कपड़े-लत्ता टा?’’
‘रुपैआ त गनलिऐ नहि, मुदा बुझि पड़ल जे दस-पनरह टा नमरी अछि।’
‘बाह। मालिक देखलनि की नहि?’
‘ओ त सुतले छथि। हुनके देखबै ले पहीर के एलौ।’
‘हम ताबे चाह बनबै छी। दरवज्जा पर जाय क’ हुनको उठा दिऔन।’
‘बड़बढ़िया’ कहि जुगेसर दरबज्जा पर आबि रमाकान्त केँ उठवै लगलनि। आखि खोलि रमाकान्त देवालक घड़ी पर नजरि देलनि। चारि बजैत। पड़ले-पड़ल सुतैक हिसाब जोड़लनि। हिसाब जोड़ि घुनघुना क’ बजलाह- ‘‘ऐहेन निन्न त जुआनियो मे नहि अबैत छल।’ ओछाइन पर स उठि जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘कने चाह बनौने आबह। अखनो बुझि पड़ै अए जे निन्न आँखिये पर लटकल अछि। ताबे हमहूँ कुड़ुड़ कए लइत छी।’’
कहि रमाकान्त पहिने लघी करै गेलाह। लघी करै काल बुझि पड़नि जे चाहो से धीपल लघी होइ अए। ततवे नहि जते लघी चारि बेरि मे करैत छी। तोहू स बेसी भए रहल अछि। लघी कए कल पर आबि आखि-कान पोछि, कुड़ुड़ कए दमसा क’ भरि पेट पानि पीलनि। पानि पीबितहि बुझि पड़लनि जे अधा निन्न पड़ा गेल। जुगेसर चाह अनलक। रमाकान्त चाह पीवितहि रहथि कि हीरानन्दो स्कूल से आबि गेला। शषिषेखर आबि गेल। हीरानन्द जुगेसर केँ पूछलखिन- ‘‘जात्रा(यात्रा) बढ़िया रहल की ने?’’
हँसैत जुगेसर बाजल- ‘‘जाइ काल टेन मे बड़ भीड़ भेल। जाबे गाड़ी मे रही ताबे ने एक्को बेर झाड़ा भेल आ ने सुतलौ। किऐक ते रिजफ सीट रहबे ने करै। जइ डिब्बा मे बैसल रही ओहि मे लोकक करमान लागल रहै। तइ पर से सब टीषन(जइ स्टेषन मे गाड़ी रुकै) मे एगो-दूगो लोक उतड़ै आ दस-बीस गोरे चढ़ि जाय। मुदा भगवानक दया से कहुना-कहुना पहुँच गेलौ। जखन मद्रास टीषन पर उतड़लौ ते दोसरे रंगक लोक दखियै। अपना सब दिस अछि किने जे सब रंग लोक मिलल-जुलल अछि। से नइ देखियै। बेसी लोक कारिये रहै। गोटे-गोटे लोक उज्जर बुझि पड़ै। जखन डेरा पर पहुँचलौ ते मकान देखि बिसबासे ने हुअए जे अपन छिअनि। बड़का भारी मकान। तइ मे कोठलीक कमी नहि।’’
‘भरि मोन देखलौ की ने?’
‘‘ऐह, की कहू मासटर सैब, महिन्दर भाय अपने मोटर से भरि-भरि दिन बुलबैत रहथि। मोटरो तेहेन जे जहाँ बैइसी आ खुगै कि ओंघी लगि जाय। कतए की देखलौ से मनो ने अछि।’’
रमाकान्त केँ मद्रास सँ अयवाक समाचार सुनि महेन्द्रक स्कूलक संगी, सुबुध सेहो अएलाह। ओ हाई स्कूल मे षिक्षक छथि। महेन्द्र आ सुबुध, हाई स्कूल धरि, संगे-संग पढ़ने रहथि। महेन्द्र साइंसक विद्यार्थी आ सुबुध आर्टक। बी.ए. पास केला पर सुवुध षिक्षक भेलाह आ महेन्द्र डाॅक्टरी पढ़ि, डाॅक्टर बनलाह। महेन्द्रक कुषल-क्षेम पूछि सुवुध रमाकान्त केँ पूछलखिन- ‘‘अपना एहिठामक लोक आ मद्रासक लोक मे की अंतर देखलिऐक?’’
दुनू ठामक लोकक तुलना करैत रमाकान्त कहै लगलखिन- ‘‘ओत्तुका आ अपना ऐठामक लोक मे अकास-पतालक अन्तर अछि। ओहिठामक लोक अपना एहिठामक लोक सँ अधिक मेहनती आ इमानदार अछि।’’
बिचहि मे शषिषेखर प्रष्न केलकनि- ‘की मेहनती?’
‘मनुक्खक तुलना करै सँ पहिने अपन इलाका आ मद्रासक माटि-पानिक तुलना सुनि लिअ। जेहेन सुन्नर माटि अपना सभक अछि देखते छियै जे कते मुलायम आ उपजाऊ माटि अछि। पानियो कते बढ़ियाँ अछि, ऐहन मद्रास मे नहि अछि। अपना सभ सँ बेसी गरमियो पड़ैत छैक। जहाँ धरि लोकक सवाल अछि, अपना ऐठामक लोक अधिक आलसी अछि। समय केँ कोनो महत्व नहि दइत अछि। वा इ कहियौक जे एहिठामक लोक समयक महत्व बुझवे नहि करैत अछि। कियो बुझबो करैत अछि त ओ परजीवी बनि जिनगी वितबै चाहैत अछि। हँ, किछु गोटे ऐहेन जरुर छथि जे मर्यादित मनुष्य बनि जिनगी जीवि रहल छथि। जे पूजनीय छथि, मुदा सामाजिक व्यवस्था सदिखन हुनको झकझोड़ितहि रहैत छन्हि। ओहिठामक लोक समयक संग चलैत छथि। जहि सँ कमजोर इलाका रहितहुँ नीक-नहाँति जिनगी बितवैत अछि। ओहिठामक लोक भीख केँ अधला बुझि नहि मंगैत अछि, मुदा अपना ऐठाम लोक उपार्जनक स्रोत बुझैत अछि।’’
बिचहि मे सुबुध पूछलकनि- ‘पढ़ाई-लिखाई केहेन छैक?’
‘स्कूल, कओलेज, युनिवर्सिटी सभ देखलहुँ। लड़का-लड़कीक स्कूल शुरुहे से अलग-अलग अछि। मुदा तइयो दुनू केँ संगे-संग पढ़ैत सेहो देखलहुँ। अपना ऐठाम सँ बेसी लड़की ओहिठाम पढ़ैत अछि। अपना ऐठाम लड़के पछुआयल अछि त लड़कीक कोन हिसाब। गाड़ी(ट्रेन) बस मे सेहो अलग-अलग व्यवस्था छैक। जहन कि अपना ऐठाम सभ संगे-संग चलैत अछि।’’
सुबुध- ‘‘खाई-पीबैक केहेन व्यवस्था छैक?’’
‘गरीब लोकक खान-पान दब होइतहि छेक। मुदा एक हिसाव सँ देखल जाय त अपना सभक नीक अछि। कपड़ो-लत्ता पहिरब अपना ऐठाम नीक अछि।’’
रमाकान्त केँ छोटकी पुतोहू सुजाता, एक पेटी(कार्टून) फलक बनल शराब सेहो देने रहनि। आँखिक इषारा सँ रमाकान्त जुगेसर केँ एक बोतल ब्राण्डी अनै ले कहलखिन। जुगेसर उठि क’ भीतर गेल आ एकटा बोतल ब्राण्डी नेने आयल। दरवज्जा पर आबि चाहेक गिलास केँ धोय, सभमे शराब दए सभहक आगू मे देलकनि। आगू मे पड़ितहि रमाकान्त घट दए पीबि गेलाह। मुदा हीरानन्दो, शषिषेखरो आ सुबुधो केँ डर होइत छलनि। कहियो पीने नहि। दोहरी गिलास पीबैत रमाकान्त सभकेँ कहलखिन- ‘‘पीबै जाइ जाउ, फलक रस छियैक। कोनो अपकार नहि करत।’’
मुदा तइयो सभ-सभहक मुह तकैत रहति। दोहरा केँ फेरि रमाकान्त सभकेँ कहलखिन- ‘‘मने-मन सुबुध सोचलनि जे कोनो जहर-माहूर थोड़े छियैक जे मरि जायब। अगर मरबो करब ते पहिने कक्के ने मरताह। बुझल जयतैक। आगू मे राखल गिलास उठा आस्ते स दू घोट पीवि, गिलास रखि, हीरानन्दक केँ कहलखिन- ‘‘पीवू, पीबू मास्टर सहाएब। सुआद त कोनो अधला नहिये बुझि पड़ैत अछि।’’
सुबुधक बात सुनि हीरानन्दो आ शषिषेखरो गिलास उठा केँ पीलनि। तेसरो गिलास रमाकान्त चढ़ा देलखिन। तेसर गिलास पीवितहि आखि मे लाली अबै लगलनि। मन हल्लुक सेहो हुअए लगलनि। बजैक ताब सेहो अबै लगलनि। जहिना आगि पर चढ़ल पाइनिक वरतन मे, ताव लगला पर निच्चाँक पानि गर्म भए उपर आबै चाहैत अछि, तहिना रमाकान्तो केँ हुअए लगलनि। धीरे-धीरे रंग चढ़ैत नीक जेँका चढ़ि गेलनि। अहू तीनू गोटे- हीरानन्द, सुवुध आ शषिषेखर- केँ आँखि तेज हुअए लगलनि। तेज होइत नजरि सँ सुबुध पूछलखिन- ‘‘कक्का, महेन्द्र भाय मस्ती मे रहै छथि की ने?’’
बजैक वेग रमाकान्त केँ रहबे करनि, तहि पर सँ महेन्द्रक मस्ती सुनि कहै लगलखिन- ‘‘महेनद्रक मेहनत आ कमाई देखि क्षुब्द भ गेलहुँ। अप्पन बड़का मकान, चारि टा गाड़ी, बजार मे अइल-फइलिक बास तहि पर सँ बैंको मे ढेरी रुपैआ जमा केने अछि। अइठामक सम्पत्तिक ओकरा कोनो जरुरी नहि छैक। किऐक रहतैक? जेकरा अपने कमाई अम्बोह छै।’’
बिचहि मे सुवुुध टोकि देलकनि- ‘‘तखन ऐठामक खेत-पथार गरीब-गुरबा केँ दए दिऔक?’’
बिना किछु आगू-पाछू सोचनहि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बड़ सुन्नर बात अहाँ कहलहुँ। अनेेरे हम एत्ते खेत-पथार रखने छी। अइह(यैह) खेत जे गरीबक हाथ मे जेतइ ते उपजबो बेसी करतै आ ओकर जिनगीयो सुधरि जेतई।’’
जहिना धधकल आगि मे हवा सहायक होइत, तहिना रमाकान्तो केँ भेलनि। एक त ब्राण्डीक नषा, दोसर परिवार मे चारि-चारि टा डाॅक्टरक कमाई, तहि पर सँ अपार सम्पत्ति देखि मन उधिआयत छलनि। समाजक स्नेह सेहो बढ़ि गेल छलनि। ततबे नहि, अद्वेत दर्षन हृदय केँ पैघ(विषाल) बना देलकनि।
हँसैत रमाकान्त, सभहक बीच, कहलखिन- ‘‘अखन धरि हम गुलरीक कीड़ा बनल छलहुँ, मुदा आब दुनियाँ केँ देखलिऐक। दू सय बीधा जमीन अछि। किऐक हम एत्ते रखने छी। एकटा जमीनदारक खेत स सैकड़ो गरीब परिवार हँसी-खुषी सँ गुजर कए सकैत अछि। जबकि ओतेक सम्पत्तिक सुख एकटा परिवार करैत अछि। इ कते भारी अनुचित थिक। सभ मनुक्ख मनुख छी। सभकेँ सुख-दुखक अनुभव होइत छैक। केयो अन्न बेतरे काहि कटैत अछि त ककरो अन्न सड़ैत छैक। घोर अन्याय मनुक्ख-मनुक्खक संग करैत अछि।’’
कहि जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘जुगे, चाह बनौने आबह?’’
जुगेसर चाह बनबै गेल। तहि बीच वौएलाल सेहो आयल। रमाकान्त केँ गोड़ लागि कात मे बैसल। वौएलाल केँ बैसितहि रमाकान्त हीरानन्द केँ कहलखिन- ‘‘मास्टर सहाएव, महेन्द्र कहने छल जे दू गोरे(एकटा लड़का एकटा लड़की) केँ एहिठाम(मद्रास) पठा दिअ। ओहि दुनू गोटे केँ अपना संग रखि छोट-छोट बीमारीक इलाज केनाइ सिखा देबैक। गाम मे इलाजक बड़ असुविधा अछि। ततबे नहि, गरीबीक चलैत लोक रोग-व्याधि स मरि जाइत अछि मुदा इलाज नहि करा पबैत अछि। तेँ एकटा छोट-छीन अस्पताल सेहो बना देव। जहि मे मुफ्त इलाज लोकक हेतैक। तहि लेल जते दवाई-दारु मे खर्च हैत से हम देब। हम सभ चारि गोटे छी। बेरा-बेरी चारु गोटे, साल मे एक-एक मास गाम मे रहब आ लोकक इलाज करब। तहि बीच छोट-छोट बीमारीक लेल सेहो दू आदमी केँ तैयार क’ देवाक अछि। जँ कहीं बीच मे नमहर बीमारी ककरो हेतैक ते ओकर इलाजक खर्च सेहो देवइ। तेँ दू आदमी केँ पद्रास पठा दिऔ ओकर जेवाक खर्च देवई।’’
रमाकान्तक बात सुनि, सभ कियो बौएलाल आ सुमित्रा केँ मद्रास पठबैक विचार केलनि। वौएलाल केँ हीरानन्द कहलखिन- ‘‘वौएलाल सभहक विचार त तू सुनिये लेलह। काल्हि दुनू गोरे मद्रास चलि जाह।’’
मौलाइल गाछक फुल:ः 9
कछ-मछ करैत हीरानन्द भरि राति जगले रहि गेलाह। मन मे कखनो होइन जे रमाकान्त देल जमीन समाजक बीच कोना बाँटल जाय त कखनो हुनक उदार विचार नचैत रहनि। कखनो होइन जे निसांक(नषाक) झोक मे बजलाह मुदा निसां टुटला पर, जँ कहीं नठि जाथि। विचित्र स्थिति मे हीरानन्द रहथि। बात बदलब धनीक लोकक जन्मजात आदत छी। मुदा हम त षिक्षक छी षिक्षकक प्रति आदर आ निष्ठा, सभ दिन सँ, समाज मे रहलैक आ रहतैक। एहि विचारक बीच जते गोटे छलहुँ ओहि मे हम आ सुवुध षिक्षक छी। तेँ आन क्यो त कम्मो मुदा हम दुनू गोटे तँ बेसी घिनाएब। कोन मुह लए केँ समाजक बीच रहब। फेरि अपने पर शंका भेलनि जे हमहूँ ते शराबेक निषां मे ने ते बौआइ छी। इ बात मन मे उठितहि उठि कए बाहर निकलि चारु भर तकलनि। अन्हार गुप-गुप रहए। सन-सन करैत राति छलैक। हाथ-हाथ नहि सुझैत छलैक। मुदा मेघ साफ। सिंगहारक फूल जेँका तरेगण चकचक करैत रहए। हवा त कोनो नहिये बहैत रहै मुदा राति ठंढ़ाइल रहए। पुनः बाहर स कोठरी आबि विछान पर पइर रहला। मुदा निन्नक कतौ पता नहि! मन सँ जमीन हटबे नहि करैत रहनि। पुनः उठि केँ कोठरी स निकलि लघी(लघुषंका) करै कात मे बैसलाह। भरिपोख पेषाव भेलनि। पेषाव होइतहि मन हल्लुक भेलनि। मन हल्लुक होइतहि ओछाइन पर आबि पड़ि रहलाह। ओछाइन पर पड़ितहि निन्न आबि गेलनि।
सुबुध सेहो भरि राति जगले बितौलनि। मुदा हीरानन्द जेँका ओ ओझरी मे नहि ओझराइल रहथि। समाज शास्त्रक षिक्षक होइक नाते स्पष्ट सोच आ समाज चलैक स्पष्ट दिषा छलनि, तेँ मन दृढ़ संकल्प आ सक्कत विचार स भरल छलनि। सबसँ पहिने मन मे उठलनि जे जहिना आर्थिक दृष्टि स टूटल समाज केँ रमाकान्त कक्काक सहयोग स मजबूत बल भेटितैक तहिना त ओहि बल केँ चलबैक(उपयोग) सेहो मजबूत रास्ता भेटैक चाही! जे रमाकान्त कक्का बुते नहि हेतनि। इमानदारी आ उदार स्वभावक चलैत त ओ सम्पत्तिक त्याग केलनि। मुदा ओ सम्पत्ति आगू मुहे कोना बढ़तैक? जहिना मनुक्खक परिवार दोबर, तेबर, चारिबरक रफ्तार स आगू मुहे बढ़ैत अछि तहिना त सम्पत्तियोब गति हेवाक चाहिऐक। मुदा सम्पत्ति मे ओ गति तखने आओत जखन कि ओहि मे श्रमक इंजिन लगाओल जायत। ओना श्रमक इंजन लगौनिहार(श्रमिक) सेहो पर्याप्त अछि मुदा ओकरा श्रम केँ कोन रुप मे बढ़ाओल जाय। एक रुपक इ होइत जे सोझे-सोझी ओकरा नव कार्यक ढाँचा मे ढालल जाय। (नव काज देल जाय) जे संभव नहि अछि! किऐक त नव औजार, नव तरीका बिना नव ज्ञान संभव नहि अछि। जे नहि अछि। दोसर जे तरीका(लूरि) आ औजार अछि, ओकरे धारदार बना आगू बढ़ाओल जाय। जे संभवो अछि आ उपयुक्तो होयत। मुदा ओहू लेल पथ-प्रदर्षकक जरुर होएत। जेकर अभाव अछि। हमहूँ त नोकरीये करै छी। सात दनि मे एक दिन(रवि) गाम मे रहै छी, बाकी छह दिन अनतै रहैछी। तहि स काज कोना चलि सकै अए? किऐक त समाजो नमहर अछि आ समस्यो ढेर अछि। हर समस्याक समाधानक रस्तो फराक-फराक होयत। जना बुद्धदेव कहने छथि जे दुष्मन केँ सूइयाक नोक भरि जँ सुराक भेटि जायत त ओहि होइत हाथी सन विकराल जानवर प्रवेष कए जायत। समाजक समस्यो त ओहने अछि। अनायास मन मे उपकलनि जे जहिना रमाकान्त कक्का अपन सभ सम्पत्ति समाज केँ दइ ले तैयार छथि तहिना हमहूँ नोकरी छोड़ि अपन ज्ञान समाज केँ दए देबैक। सभ किछु बुझितहुँ सड़ल-गलल रास्ता, अपन अरामक दुआरे, धेने चलि रहल छी। सात बीघा जमीन, एकटा पोखरि, दस कट्ठा गाछी-कलम आ खढ़होरि अछि। जाहि सँ पिताजी नीक-नाहाँति गुजरो करैत छलाह आ हमरो पढ़ौलनि। मुदा हम नोकरीयो करैत छी, खेतो-पथार ओहिना अछि मुदा कते आगू मुहे बढ़लहुँ। हँ, एते जरुर भेल अछि जे घरोवाली केँ आ बेदरो-बुदरी कें, धनिकक मंदिरक मुरती जेँका, नीक-नीक परसाद, नीक-नीक सजावट सँ सजा काहिल बनौने छी। की हम इ नहि देखैत छी जे झक-झक करैत छातीक हाड़वला रिक्षा खिंचैत अछि, साठि बरखक महिला चिमनी मे पजेबा उघैत अछि, मरैबला पुरुख बड़दक संग हर खिंचैत अछि। अन्नक बोझ उघैत अछि। की ओकर देह लोहाक बनल छैक आ हमरा सभहक कोढ़िलाक बनल अछि। इ सभ धन आ बुद्धिक करामात छी। आइ धरिक समाज आ समाजक नियामक एकरे पोषक रहलाह जे सुधारक अछि। नहि त मनुक्ख आ जानवर मे की अन्तर रहतैक? जहि समाज मे मनुक्ख जानवरक जिनगी जीबए ओहि समाजक प्रबुद्ध लोक केँ चुरुक भरि पानि मे डूबि केँ नहि मरि जेवाक चाहिएनि। एते बात मन मे अबितहि सुबुध तय केलनि जे सभसँ पहिने काल्हि स्कूल मे त्यागपत्र दए देब। आइ धरि जे जिनगी जीविलहुँ, जीविलहुँ मुदा काल्हि सँ नव जिनगीक सूत्रपात करब। एहि संकल्प-विकल्पक बीच मन घुरिआयत।
भोर होइतहि सुबुध ओछाइन पर सँ उठि मैदान दिषि विदा भेला। हाथ मे लोटा, मुदा मन ओहि विचार मे डूवल छलनि। थोड़े दूर गेला पर गाम मे गल्ल-गुल होइत सुनलनि। रस्ते पर ठाढ़ भए अकानै लगलाह। जे कथीक गल्ल-गुल भए रहल अछि। सोझा मे ककरो नहि देखैत जे पूछियो लइतथि मने-मन अनुमान करै लगलाह जे भरिसक राति मे कतौ कोनो घटना घटि गेलैक। या त ककरो साप-ताप काटि लेलकै वा कतौ चोरि भए गेलैक। मुदा से सभ नहि छलैक। साँझ मे जे विचार रमाकान्त व्यक्त केने रहथि ओ राता-राती बिहाड़ि जेँका सगरे गाम पसरि गेलैक। रस्ते सँ घूरि सुबुध कड़चीक दतमनि तोड़ि, तदमनि करैत घर पर आयला। घर पर अबितहि देखलनि जे सुकना बैसल अछि। मुदा सुकनाक नजरि सुवुध पर नहि पड़लैक, किऐक त ओ अंगनाक दुुआरि दिषि तकैत रहए। सुबुध सुकना केँ पुछलखिन- ‘‘भोरे-भोर किमहर सुकन।’’
सुबुधक बात सुनि अकचकाइत सुकन चैकी पर सँ उठि, दुनू हाथ जोड़ि बाजल- ‘‘मालिक, अहाँ त जनिते छी जे कोनो काज-उद्दम मे सब तूर मिलि सम्हारि दइ छी। गरीबो पर नजरि रखवै।
सुकनक बात केँ, कोनो अर्थे ने सुबुध केँ लगलनि। पूछलखिन- ‘‘सुकनभाय, तोहर बात हम नहि बुझलिअह।’’
‘लोक सब कहलक हेँ जे रमाकान्त कक्का अपन सब खेत गरीब-गुरबा केँ दए देथिन, जे अहीं बँटबै।’’
सुकनक बात सुनि सुबुध मने-मन सोचै लगलथि जे जमीन-जयदादक सवाल अछि। धड़फड़ा क’ कोना हेतैक। जँ आम लोकक विच विचार कएल जायत त हो-हल्ला हेतइ। हो-हल्ला भेने काजो बिगड़ि जयतैक। तेँ असथिर सँ विचार करैक जरुरत अछि। मुदा अखन जँ सुकन केँ इ बात कहबै ते दुख हेतैक। तेँ आषक बात कहब अछि। कहलखिन- ‘‘सुकन भाय, जखन गरीबक बीच खेतक बँटवारा हैत ते तोहूँ गरीबे छह। तखन तोरा किऐक ने हेतह। अखन जाहह।’’
सुकन विदा भेल। कलक आगू मे ठाढ़ भए सुबुध सोचै लगलाह। अजीव स्थिति भए गेल। एक दिषि गरीबक सबाल अछि। जँ किनयो चूक हैत त जिनगी भरि बदनामीक मोटरी माथ पर चढ़ि जायत। तेँ इमानदारीक जरुरत अछि। मुदा इमानदारी दिषि तकै छी ते अपनो मे बेइमानी घुसल अछि। परिवारो मे तहिना देखै छी आ समाजो मे ते अछिये। गरीबो मे देखै छी जे जे मेहनती अछि ओ बहुत किछु कमा क’ बनाइयो नेने अछि। जना रहैक घर, पानि पीवैक कल, जीबैक लेल बटाई खेतीक संग पोसिया मालो-जाल खूँटा पर रखने अछि। जहन कि जे आलसी अछि ओकरा सब कथूक अभावे छैक। ततबे नहि, जँ हम इमनदारियो से विचार रखै चाहब तइयो उलझन होयत हमही टा त नहि छी। आरो गोटे रहताह। सभक नेत सभक प्रति एक्के रंग हेतनि, सेहो बात नहि अछि। जँ कियो मुह देखि मंूगबा बँटताह, सेहो भए सकै अछि। ओहि ठाम जँ हुनका कहबनि त हमरे बात मानि लेता, सेहो संभव नहि अछि। जँ रमाकान्त कक्का ककरो बेसी दिअए चाहथिन ते कि कहबनि, सम्पत्ति त हुनके छिअनि। एहि सभ विचारक जंगल मे सुबुध बौआय लगलथि। दतमनिक घुस्सा कखनो चलैत आ कखनो बन्न भए जाइत छलनि। एक त भरि रातिक जगरना तहि पर सँ अमरलत्ती जेँका ओझरी क’ सोझरायब असान नहि वुझि पड़नि कनियो किम्हरो जोर पड़त त टन दे टुटि जायत। तेँ समाजक मूल रोग केँ जड़ि सँ नहि पकड़ल जायत त सभ गूड़ गोबर भए जायत। तहि बीच मुनमा डाबा मे दूध नेने आंगन (सुबुधक) जाय डाबा रखि, सुबुध लग आबि दुनू हाथ जोड़ि कहलकनि- ‘‘भाय, अबलो पर दया करबै?’’
एक त सुबुधक मन अपने घोर-घोर भेल, तहि पर स लोकक पैरबी। मन मसोसि केँ सुबुध कहलखिन- ‘‘अखन जाह। जखन जमीनक बँटवारा हुअए लगतै त तोरो बजा लेबह।’’
दतमनि कय सुबुध आंगन जाय पत्नीकेँ पूछलखिन- ‘‘डावा मे मुनमा की नेने आयल छल?’’
‘दूध’
‘दाम देलियै।’
‘नहि।’
‘किऐक?’
‘हमरा भेल जे अहीं पठेलौ, तेँ।
पत्नीक जबाव सुनि सुवुधक मन मे आगि लगि गेलनि। खिसिया क’ पत्नी केँ कहलखिन- ‘‘झब दे चाह बनाउ। स्कूल जायब।’
पत्नी- ‘‘अखने किअए जायब? आन दिन खा केँ जाइ छलौ आ आइ भोरे किअए जायब?’
‘रौतुका खेलहा ओहिना कंठ लग अछि। तेँ नहि खायब।’
कहि सुबुध लूँगी बदलि धोति पहिरए लगला कि पत्नी चाह नेने एलखिन। कुरता पहीरि चाह पीबि सुवुध विदा भेलाह।
जिनगी भरि मे रमाकान्त केँ ऐहन निन्न कहियो नहि भेल छलनि जेहन राति भेलनि। समयक अन्दाज सँ जुगेसर आबि खिड़की देने हुलकी देलक ते देखलक जे रमाकान्त ठर्र पाड़ैत छथि। रमाकान्त केँ सुतल देखि जुगेसर जोर सँ केबाड़ ढकढ़कौलक। केवाड़क अवाज सुनि रमाकान्त आखि मलैत उठलाह। जुगेसर रमाकान्त केँ उठा चाह अनै आंगन गेल। रमाकान्तो उठि क’ कल पर जा कुड़ुड़ केलनि। ताबे जुगेसरो चाह नेने आबि गेलनि। रमाकान्त चाह पीबितहि रहति कि मन मे एलनि जे बाबा चाणक्य ठीके कहने छथि जे धन ककरा रक्खी हमरो त पितेजीक अरजल छिअनि। जाधरि ओ जीबैत छलाह, हमरा कोनो मतलब नहि छल। मुदा हुनका मुइने त सबटा हमरे भेल। दुनू बेटा तते कमाइत अछि जे अई धनक ओकरा जरुरते नहि छैक। हम कते दिन जीवे करब। तहन ते सभ धन ओहिना नष्ट भए जायत। कौआ-कुक़ुड़ लूझि-लूझि खायत। तहि स नीक जे समाजक गरीब-गुरबा केँ दए दिअए। तिब्बतक राजकुमार चेन पो (8बीं 9वीं शदी) अपन सभ सम्पति जहिना लोकक बीच बाँटि देलखिन तहिना हमहूँ बाँटि देबई। तहि स समाज मे भाइ-भैयारिक संबंध सेहो मजबुत बनतैक। आइ जँ व्यास बाबा जीबैत रहितथि त ओ जरुर बिना कहनहुँ आबि केँ असिरवाद दइतथि। अगर स्वर्ग जेबाक रस्ता तियागो होय त हमहूँ किएक ने जायब। धन्यवाद सुबुध आ मास्टर सहाएव केँ दिअनि जे हमर अज्ञानताक केबाड़ खोललनि। सभ जखन सुनत ते मने-मन खुब खुषी हैत। की हमर कयल धरम ओकरा नहि हेतैक?
चाह पीबि, पान खा लोटा लए रमाकान्त गाछी दिषि चललाह। कृष्णभोग(किसुनभोग) आमक गाछ तर लोटा रखि, टहलि-टहलि गाछ सभकेँ निङहारि-निङहारि देखै लगलाह। गाछक जे रुप आइ रमाकान्त देखथि ओ आइ धरि कहियो नहि देखने रहथि। गाछ देखि बुझि पड़नि जे सभ हँसि रहल अछि। धरतीक श्क्ति पाबि ऐष्वर्यवान बनल अछि। दोसराक सेवा लेल उत्साहित अछि। एक टक स गाछक रुप देखि रमाकान्तक हृदय सेहो गद-गद भ’ गेलनि। सभकेँ देखि लोटा उठा पाखाना दिषि बढ़लाह। तहि बीच जय-जय कारक आवाज सुनलखिन। आवाज दूर मे रहै तेँ स्पष्ट नहि बुझति, मुदा सुनतिहिन। रसे-रसे आवाज लग अबैत गेलनि। पैखाना स उठि ओ आवाज केँ अकानए लगलथि। जय-जय कारक संग अपनो नाम सुनतिहिन। अपन नाम सुनि आरो चैकन्ना भए कानक पाछू मे हाथक तरहत्थी रखि अवाज अकानै लगलथि। लोकक समूह जते लग अबैत जायत, तते अवाज स्पष्ट होइत जाइत छलैक। हाँइ-हाँइ क’, लोटा नेने पोखरिक घाट पर आबि, कुड़ुड़ कए घर दिषि विदा भेलाह। अपन नामक संग जय-जयकार सुनि सोचै लगलाह जे कि बात छियैक? किऐक लोक जय-जयकार कए रहल अछि। दिलक धड़कन सेहो तेज हुअए लगलनि। मन मे गुदगुदी सेहो लगनि। उत्साह सँ छाती सेहो फुलैत जाइनि। जाबे लोकक जुलूस घर लग पहुँचल, तहि स पहिनहि दरवज्जा पर आबि, देखै लगलथि। हीरानन्द आ शषिषेखर सेहो दलानक आगू मे ठाढ़ भए देखैत छलाह। की बूढ़, की जुआन, की बच्चा सभ एक्के सुर मे। सभ मस्त। सभ उत्साहित। सभ नचैत। सभहक मुह मे हँसी छिटकैत छलैक।
दरवज्जाक आगू मे जुलूस आबि केँ रुकल। आगू-आगू घोड़ाक नाच। पाँच गोरे, वाँसक बत्ती क’ ललका कपड़ा स सजा, घोड़ा बनौनेह। पाँचो घोड़े जेँका दौड़ैत। कखनो हीं-हीं करैत त कखनो पाछू सँ चैतार फेकैत। तहि पाछू डफरा-वाँसुरीक धुन। वसन्तक वहार छिड़िअवैत रहए। तहि पाछू लोक नचबो करैत आ जय-जयकारा करैत रहए। रमाकान्त अपन उत्साह क’ रोकि नहि सकलाह। दलानक ओसार सँ उतड़ि सोझे जुलूस मे सन्हिया नचै लगलाह। के छोट, के पैघ, के बूढ़, के जवान, सभ बाइढ़िक पानि जेँका उधिआइत रहए। घर-घर सँ स्त्रीगण सेहो आबि चारु कात पसरि गेलीह।
आंगन सँ श्यामा आबि दरबज्जाक आगू मे ठाढ़ भए नाचो देखैत आ रमाकान्तो पर आखि गरौने छलीह। रमाकान्तोकेँ नचैत देखि ओ मने-मन सोचै लगलीह जे ऐना किऐक भए रहल अछि। लोक सभ केँ कोनो चीजक खुषी हेतइ तेँ नचैत अछि। मुदा हुनका की भेटलनि जे ऐना बुढ़ाढ़ी मे कुदैत छथि। छोट बुद्धि श्यामाक, तेँ बुझवे नहि करति जे नदी(धार) जखन समुद्र मे मिलै लगैत अछि तखन दुनूक पाइन एहिना नचैत अछि। एक दिषि नदीक पानि गतिषील होइत, त दोसर दिषि समुद्रक असथिर होयत अछि। ओहि मे सिर्फ लहरि उठैत अछि।
अखन धरिक जुलूस आ नाच गामक उत्तरवारि टोल सँ आयल छलैक। दछिनबारि टोल सँ दोसर जुलूस, मोर-मोरनीक नाचक संग सेहो पहुँचल। दुनू नाचक बीच सौंसे गामक लोक हृदय खोलि केँ नचैत। कात मे ठाढ़ भेल हीरानन्द, शषिषेखर केँ कहलखिन- ‘‘अखन जे आनन्द अछि ओ समाज मे सब दिन कोना बनल रहत?’’
हीरानन्दक प्रष्नक उत्तर शषिषेखर क’ नहि फुरलनि। मुदा प्रष्नक पाछू मन जरुर दौड़लनि। गंभीर प्रष्न। तेँ धाँय द’ उत्तरो देब शषिषेखर उचित नहि बुझि चुप्पे रहलाह। मुदा एते बात जरुर मन मे अवैत रहनि जे जँ सुकर्मक रास्ता सँ मनुष्य उत्साहित भए चलैत रहत त जरुर ऐहने आनन्द जिनगी भरि चलैत रहतैक।
जुलूसक बीच रमाकान्त नचैत-नचैत घामे-पसीने तर-बत्तर भए गेल रहति। मुदा तइयो मन नचै ले उधकैत रहनि। एकटा छौंड़ा, जे अखरहो देखने, नचैत-नचैत रमाकान्त लग आवि दुनू हाथे पजिया केँ रमाकान्त के उठा कन्हा पर लए नचै लगल। सभ कियो दुनू हाथे थोपड़ी बजवैत जय-जयकार करै लगल। कात मे ठाढ़ भेल हीरानन्द केँ भेलनि जे कहीं ओ खसि-तसि नहि पड़ति तेँ लफड़ि केँ बीच मे जाय रमाकान्त क डाँड़ पकड़ि निच्चा केलकनि। निच्चा उतड़ितहि रमाकान्त दुनू हाथे थोपड़ी बजबैत फेरि नचै लगलथि। दुनू हाथ उठा क’ हीरानन्द सभकेँ शान्त होइ लेल कहलखिन। हाथक इषारा देखि सभ शान्त भए गेल। धोतीक खूँट स रमाकान्त पसीना पोछि कहै लगलखिन- ‘‘अहाँ सभक बीच कहै छी जे जे खेत-पथार आइ धरि हम्मर छल, अखन से ओ अहाँ सभहक भए गेल।’’
रमाकान्तक बात सुनि सभहक मुह स धानक लावा जेँका हँसी भरभरा गेल। जे समाज आर्थिक विपण्णताक चलैत अखन धरि मौलाइल छल ओहि मे खुषीक नव फुल फुलाय लगल। सभ केयो हँसी-चैल करैत अपन-अपन घर दिस विदा भेल।
घर स निकलि सुवुध सोझे अपन डेरा गेलाह। डेरा मे पहुँच त्याग-पत्र लिखलनि। मेसवला केँ सब हिसाब फड़िछा स्कूल जाय प्रध्यानाध्यापक केँ त्याग पत्र दैत कहलखिन- ‘‘मास्टर साहेव, आइ सँ सेवा मे सहयोग नहि कए सकब।’’
कहि आॅफिस स निकलै लगलाह। आॅफिस सँ निकलैत देखि कुरसी सँ उठि प्रध्यानाध्यापक कहलखिन- ‘‘सुबुध बावू, कने सुनि लिय।’’
हेडमास्टरक आग्रह सनि सुबुध रुकि गेलाह। मुस्की दैत कहलखिन- ‘‘की कहलौ मास्साहेब?’’
हेडमास्टरक छातीक धड़कन तेज होइत जाइत छलनि। तेँ बोलीक गति तेज हुअए लगलनि। कहलखिन- ‘‘सुबुधबावू, अहाँ जल्दीवाजी मे निर्णय कए लेलहुँ। अखनो कहब जे अपन कागज वावस लए लिअ।’’
निषंक आ गंभीर स्वर मे सुबुध कहलकनि- ‘‘मास्सैब, आइ धरि अहाँ सभहक संग रहलहुँ, मुदा आब हम बैरागीक संग जाय रहल छी। तेँ एक्को झण एतए अटकैक इच्छा नहि अछि। एक्को पाइ हमरा दुख नहि भए रहल अछि। व्यक्तिगत जिनगी बना अखन धरि जीविलहुँ मुदा आब सामाजिक जिनगी जीवैक लेल जाय रहल छी। तेँ अपनो सँ आग्रह करब जे असिरवाद दिअ।’’
एक दिषि सुबुधक मुखमंडल नवज्योति सँ प्रखर होइत जायत त दोसर दिस हेडमास्टरक मुखमंडल मलिन होइत जाइत छलनि। सुवुधक त्यागपत्रक समाचार षिक्षकक बीच सेहो पहुँचल। सभ षिक्षक अपना कोठरी सँ उठि हेडमास्टरक चेम्बर मे पहुँच गेलाह। दुनू हाथ जोड़ि सुबुध सभकेँ कहलखिन- ‘‘भाय लोकनि, आइ धरिक जिनगी, संगे-संग बितेलहुँ, तहि बीच जँ किछु अधला भेल हुअए, ओ बिसरि जायब। आइ धरि किताबी ज्ञानक बीच ओझरायल छलहुँ मुदा आब ओहि ज्ञान केँ व्यवहारिक धरती पर उताड़ै जाय रहल छी।’’
जहिना सूर्योदय सँ पूर्व थलकमल उज्जर रहैत मुदा सूर्यक रोषनी पाबि धीरे-धीरे लाल हुअए लगैत अछि तहिना सुवुधक हृदय मे समाजक प्रखर रोषनीक प्रवेष स हृदय बदलि गेलनि।
कहि सुबुध तेज गति सँ स्कूलक ओसार सँ निच्चा उतड़ि गेलाह। सुवुधक तेज चालि देखि विवेक बाबू सेहो नमहर-नमहर डेग बढ़वैत सुबुध लग आबि कहलखिन- ‘‘सुबुध भाय, अहाँ जे किछु केलहुँ, अपन विचारक अनुकूल केलहुँ। तेँ ओहि संबंध मे हमरा किछु कहैक नहि अछि। किऐक त जहिया स्कूल मे नोकरी शुरुह केलहुँ आ जते वुझै छेलिऐक ओहि सँ बेसी आइ जरुर बुझै छियैक। तेँ, ओहि दिनक विचारक अनुरुप केलहुँ आ आइ औझुका विचारक अनुकूल कय रहल छी। मुदा हमर अहाँक संबंध सिर्फ षिक्षकेक नहि अछि बल्कि विद्यार्थियोक अछि।’’
सुबुध आ विवेक हाइये स्कूल सँ संगी। हाई स्कूल से कओलेज धरि दुनू गोटे संगे-संग पढ़ने रहथि। मुदा विवेक सँ सुबुध तीनि दिन जेठ रहथि। जे बात सुबुधो केँ आ विवेको केँ वुझल छलनि। स्कूलो मे आ कओलेजो मे सुबुध विवेक स नीक विद्यार्थी रहथि। तेँ, विवेक स अधिक नम्बर परीक्षा मे सुबुध केँ अबैत रहनि। ओना दुनू एक्के डिवीजन सँ पास करैत छलाह मुदा अंक मे किछु तरपट रहैत छलनि। विवेक सुबुध केँ सीनियर बुझैत छथि। जेकर उदाहरण अछि जे जहि दिन दुनू गोटेक बहाली स्कूल मे भेल छलनि ओहि दिन सभ कागजात विवेकक अगुआयल रहितहुँ स्वेच्छा सँ विवेक सुवुध केँ तीन नम्बर षिक्षक आ अपना केँ चारि नम्वर षिक्षकक लेल हेडमास्टर केँ कहने रहथिन। जकरा चलैत सुवुधक बहाली क चिट्ठीक समय बदलि हेडमास्टर रजिष्टर मेनटेन केने रहथि। विवेकक प्रति सुवुध हृदय मे ओइह स्नेह रहनि।
दुनू गोटे विवेकक डेरा अयलाह। डेरा मे अवितहि विवेकक पत्नी चाह बना, दुनू गोटेक आगू मे दए बैठक खाना सँ निकलि खिड़की लग ठाढ़ भए गेलीह। एक जिनगीक टूटैत संबंध सँ कपैत हृदय विवेक बावूक। थरथराइत स्वर मे पूछलखिन- ‘‘एक्को दिन पहिने त इ बात नहि बाजल छलहुँ! अनायास ऐहेन निर्णय कोना कए लेलिऐक?’’
मुस्कुराइत सुवुध उत्तर देलखिन- ‘‘पहिने सँ नियार नहि छल। एहि बेरि जे गाम गेल छलहुँ तखन भेल। जहिना देव-असुर मिलि समुद्र मथन केने रहथि तहिना समाजक मथनक परिस्थिति बनि गेल अछि। जहि लेल हमरो जरुरत समाज केँ छैक। समाजक पढ़ल-लिखल लोक त हमहुँ छी तेँ अपन दायित्व पूरा करैक लेल नोकरी छोड़लहुँ। महान् जिनगीक लेल सेवा जरुरी होइत अछि। जँ नोकरी केँ सेवा कहल जाय त खेत मे काज करैवला बोनिहार केँ की कहबैक? किऐक त मजूरी(बोनि) ले ओहो काज करैत अछि आ नोकरीयो केनिहार। मुदा पेटक(जिनगीक) लेल त कमेबो जरुरी अछि। जँ से नहि करब त खायब की आ दोसर केँ खुऐबै कोना? भूखल केँ भोजन चाही। चाहे ओ अन्नक भूखल हुअए वा ज्ञानक। तेँ चाहे नोकरी होय वा आन उपारजनक काज, ओहि केँ इमानदारी सँ निमाहैत, आगू बढ़ि किछु करब चाहे ज्ञानक क्षेत्र होय वा जीवनक(भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा,षिक्षा) ओ सेवा होइत। ज्ञानक सेवा ताधरि अपन महत्वक स्थान नहि पबैत जाधरि ओ जीवन सँ जुड़ि कर्मक रुप नहि लइत अछि। सिर्फ वैचारिके धरातल सँ होइत त मिथिला मे महान्-महान्(पैघ-पैघ) विचारक, मनुष्यक उद्धारक लेल रास्ता बतौलनि। मुदा अखनो समाज मे ओहन मनुक्ख अछिये जे हजारो बर्ख पूर्व मे छलैक। हँ, किछु आगुओ बढ़लनि, इहो बात सत्य अछि। मुदा जे कियो बौद्धिक, आर्थिक- क्षेत्र मे आगू बढलथि ओ पछुआयलक क डेन पकड़ि आगू मुहे खिंचलनि वा पाछू मुहे धकेललनि। जँ बाँहि पकड़ि आगू मुहे खिंचै चाहितथि त एतेक जाति, सम्पद्राय, कार्मकांड पैदा करैक की प्रयोजन? राजसत्ता आ समाजसत्ता- दुनू पछुआयल लोक केँ आरो पाछुऐ मुहे धकेललक।’’
एते कहि सुबुध उठि क’ ठाढ़ होइत कहलखिन- ‘‘आब एक्को क्षण एहिठाम नहि रुकब। हमर बाट रमाकान्त कक्का तकैत होयताह। सुबुध केँ दुनू बाँहि पकड़ि बैसबैत विवेक पत्नी केँ कहलखिन- ‘‘झबदे थारी साठू। साबुध भाय जेवा लेल धड़फड़ाय छथि।’’
भोजन कए सुबुध विवेकक डेरा सँ विदा भए गेलाह। दुनू हाथ जोड़ि विवेक कहलकनि- ‘‘हमरो पर ध्यान राखब।’’
गामक सीमा मे प्रवेष करितहि सुबुध घरक सुधि बिसरि गेलाह। सांैसे गाम परिवारे जेँका बुझि पड़ै लगलनि। एक टक सँ खेत, पोखरि, गाछी-कलम, खढ़होरि देखि मने-मन सोचै लगलथि जँ एहि सम्पत्ति केँ ढंग सँ आगू बढ़ाओल (विकसित ढंग स कएल जाय) जाय त निसचित गामक लोक मे खुषहाली ऐबे करत। अखन धरि जहिना खेत मरनासन्न भए गेल अछि तहिना पोखरि-झाखड़ि सेहो अछि। सबसँ पैघ बात त इ अछि जे लोको दबैत-दबैत एते दबि गेल अछि जे सिर्फ मनुक्खक ढाँचा मात्र रहि गेल अछि। तेँ सभ मे नव चेतना, नव ढंग (करैक क्रिया) नव तकनीकक (नव औजार) उपयोग आवष्यक अछि। तखने षिषिरक सिकुड़ल रुप बसन्तक विकसित रुप मे बदलि सकैत अछि। सोचैत सुबुध राजिनदरक घर लग पहुँचलाह। राजिनदरक घर देखि सुबुध रास्ता छोड़ि ओकरा ओहिठाम गेलाह। राजिनदर केँ तीनि टा घर। अंगनाक एकभाग मे टाट लगौने रहए। दछिनबरिया घर मे मालो बन्हैत छल ओ अपनो बैसार बनौने। बैसार मे दू टा चैकी देने, रहए। एकटा पर अपने सुतैत आ दोसर के पाहुन-परकक लेल रखने रहए। सुबुध केँ देखि राजिनदर चैकी पर स उठि, दुनू हाथ जोड़ि बाँहि पकड़ि चैकी पर वैसौलकनि। सुवुध केँ चैकी पर बैसाय घरवाली केँ दरवज्जे पर से कहलक- ‘‘मास्टर सहाएव ऐला हेन, झव दे एक लोटा पानि नेेने आउ?’’
राजिनदरक बात सुनि गुलबिया लोटा मे पानि नेने आबि ओलती लग ठाढ़ भए गेलि। मुह झँपने। स्त्री केँ ठाढ़ देखि राजिनदर कहलक- ‘‘हिनका नइ चिन्है छिअनि, सुबुध भाइ छथि। मुह किअए झँपने छी।’’
राजिनदरक बात सुनि सुबुध मुस्की दैत बजलाह- ‘‘हम त गाम मे रहितहुँ अनगौँवा भए गेल छी। जहिया से नोकरी शुरु केलहुँ, गाम छुटि गेल। सप्ताह मे एक दिन अबै छी जहि से गाम मे घुरियो-फीरि नहि पबैत छी। तेँ, नहि चिन्है छथि। मुदा आब गाम मे रहै दुआरे नोकरी छोड़ि देलहुँ। आब चिन्हितीह।’’
सुवुधक बात सुनि राजिनदर स्त्री केँ कहलक- ‘‘सुवुध भाय पैघ लोक छथि। जखन दुआर पर पाएर रखलनि तखन बिना किछु खुऔने-पीऔने कना जाए देबनि। जाउ बाड़ी से ओरहावला चारि टा मकैक बालि तोड़ि, ओड़ाहि के नेने आउ।’’
राजिनदरक बात सुनि गुलबिया मुस्की दैत विदा भेलि। राजिनदर सुबुध केँ पूछल- ‘‘भाय नोकरी किअए छोड़ि देलिये?’’
राजिनदरक प्रष्नक सही उत्तर देब सुबुध उचित नहि बुझि कहलखिन- ‘‘नइ मन लागल। अपनो खेत-पथार अछि आब खेतिये करब।’’
चारु ओड़ाहल बालि नोन-मेरिचाइ थारी मे नेने गुलबिया आबि सुवुधक आगू मे रखि, अपने निच्चा मे वैसि गेलीह। मकैक ओड़हा देखि सुवुधतिरपित भए एकटा बालि हाथ मे लए गौर स दाना देखै लगलथि। सुभ्भर बालि। एक्को टा दाना भौर नहि। बालि केँ देखि कहलखिन- ‘‘बड़ सुन्नर मकई अछि। अपना ऐठामक गिरहत ते उपजबितहि नहि अछि जँ उपजौल जायत खूब हेतइ। बेगूसराय, सहरसा आ मुजफ्फरपुर इलाका मे देखै छियै जे मकैयेक उपजा स गिरहस्त धनिक भए गेल अछि। सालो भरि मकैक खेती होइत छैक। जहिना खेती तहिना उपजा। पाँच मन छह मन कट्ठा मकई उपजैत अछि। खाइयो मे नीक। रोटी, सतुआ, भुज्जा, ओरहा सब कुछ मकैक बनैत अछि। बदाम आ मकेक सतुआ त बुझू जे बूढ़क(विनु दाँतवलाक) अमृते छी।’’
वामा हाथ मे बालि दहिना हाथक ओंगरी स दाना छोड़ा मुह मे लइत पूछलखिन- ‘‘राजिनदर भैया, बाल-बच्चा कैक टा अछि?’’
सुवुधक प्रष्न सुनि राजिनदर चुप्पे रहल मुदा गुलबिया बाजलि- ‘‘तीनि भाय-बहीनि अछि। जेठकी सासुर बसै अए। बड़बढ़िया जेँका गुजर चलै छै। दोसरो के विआह केलहुँ। मुदा जमाय बौर गेल। दिल्ली मे नोकरी करैत रहै, ओतइ से बौर गेल ने एक्को टा चिट्ठी-पुरजी पठवै आ ने रुपैया। छह मास बेटी केँ सासुर मे रहै देलिऐ तकर बाद अपने ऐठाम लए अनलियै। दल्लिी से जे कोय आबै आ पुछियै ते कोय कहे दोसर विआह कए लेलक। ते कोय कहै अरब चलि गेल। कोय कहै मलेटरी मे भरती भए गेल ते कोय कहै उग्रवादी भए गेल। कोनो भाँजे ने लागल। आखिर मे चारि बरिस अपना अइठिन बेटी केँ रखलहुँ। मुदा गामो मे तेहेन लुच्चा-लम्पट सब अछि जे अनका इज्जत के कोनो इज्जत बुझै छै। (हाथक इषारा स देखवैत) उ घर देखै छियै, ओहि अंगनाक एकटा छैाँड़ कहियो माछ कीनि के नेने आवे ते कहियो फोटो खिंचवै ले संगे ल जाय। हम दुनू परानी वाध-बोन मे भरि-भरि दिन रहै छलौ। गाम पड़क खेल-बेल वुझवे ने करै छेलिये। जखन गामक लोक कुट्टी-चैल करै लगल तखन वुझलियै। जेठकी बेटी आयल रहए। ओकरा कहलियै। ओ अपने संगे नेने गेलै। दोसर विआह अइ दुआरे नै करियै जे जँ कहीं जमाय जीविते हुअए। जेठके जमाय से विआह कए लेलक। दुनू बहीन एक्के घर मे रहै अए। दुनू केँ सखा-पात छैक। छोट बेटा अछि। ओकरो विआह-दुरागमन कए देलियै।’’
मुस्कुराइत सुवुध पूछलखिन- ‘‘दान-दहेज मे की सब देलक?’’
दान-दहेजक नाम सुनि गुलविया हँसैत कहै लगलनि- ‘‘समैध अपने ऐला। संग मे सार (लड़कीक माम) रहनि। दुआर पर आबिते भोला बापक(घरबला) पुछाड़ि केलनि। हम चिपड़ी पथैत रही। नुआक फाँड़ बन्हने रही। माथ परक साड़ी पसरि क’ गरदनि पर रहए। दुनू हाथ मे गोबर लागल रहै। कना गोवरायल हाथे साड़ी सम्हारितौ। तेँ ओहिना चिपड़ी पथैत रहि गेलहुँ। कोनो कि चिन्हैत रहियै। ओहो ते हमरा नहिये चिन्हैत रहथि। आनठिया ओहो आ अनठिया हमहूँ रही। ओहो मनुक्खे छथि आ हमहूँ मनुक्खे छी तखन बीच मे कथीक लाज?’’
गुलबियाक बात सुनि दाँत पिसैत राजिनदर कहलक- ‘‘आबो एक उमेरक भेलि, तइओ समरथाइक ताव कम्म नै भेलै अए। जेे मन मे अबै छै, बकने जाइ अए।’’
राजिनदरक बात केँ दबैत बाजलि- ‘‘कोनो कि झूठ बात बजै छी जे लाज हैत। मास्टर बौआ कि कोनो अनगैाँवा छथि। जे रस्ते-रस्ते ढोल पीटताह।’’
बिच-बचाव करैत सुुबुध कहलखिन- ‘‘तकर बाद की भेल?’’
- ‘‘ताबे इहो (पति) आयल। दुनू गोरे केँ चैकी पर बैसाय गप-सप करै लगलथि। हमरो गोबर सठि गेल। चलि गेलहुँ। हाथ-पाएर धोय पछबरिया टाट लग ठाढ़ भए गप-सप सुनै लगलौ। लड़कीक माम उचक्का जेँका बुझि पड़ै। मुदा बाप असथिर बुझि पड़ल। वेचारा बड़ सुन्नर गप्प बाजलथि। ओ कहलकनि जे देखू अहाँक बेटा छी आ हम्मर बेटी। दुनिया मे जते लोक अछि ओ अपने बेटा-बेटी ले सबकुछ करै अए। जहिना अहाँ छी तहिना त हमहू छी। जहिना अपन नून-रोटी मे अहूँ गुजर करै छी तहिना हमहूँ करै छी कौआ से खैर लुटाएब मुरुख पन्ना छी। हमरे एकटा पितिऔत सार अपन बेटाक विआह केलक। एक लाख रुपैआ नगद नेने रहए। तते लाम-झाम से काज केलक जे अपनो जे बैंक मे साठि हजार रुपैआ रहै, सेहो सठि गेलइ। हम ओहन काज नइ करब। बेटी-जमाइ केँ एकटा चापाकल गड़ा देवइ। दू कोठरीक मकान बना देबई। एक जोड़ा गाय ली वा महीसि, से देब। लत्ता-कपड़ा (दुनू गोटे के) बरतन-वासन, लकड़ीक सब आवष्यक सामानक संग बिआहक खर्च करब। अहाँ क’ एहि (अइ) दुआरे नहि खर्च कराएब जे जे खर्च भए जेतइ ओ त ओही दुनूक जेतइ की ने। हमरा पसिन्न भए गेल। मन कछ-मछ करै लगल जे सूहकारि ली। मुदा पुरुखक बीच गप चलैत रहै। मनमे इहो हुअए जे जँ कहीं कोनो बाते दुनू गोरे मे रक्का-टोकी भ’ गेल तखन ते कुटुमैतियो नइ हैत। मन कछ-मछ करै लगल। एक बेरि खोंखी केलहु जे ओ(पति) आवए, मुदा से नइ भेल। तखन दुनू हाथे थोपड़ी बजेलहुँ। तइयो सैह। आब कि करितहुँ। काज पसिन्न गर अछि, मुदा जँ कही कोनो बाधा उपस्थित भए गेल तखन त सब नाष भ’ जायत मुह उधारनहि हम दुआर पर गेलहुँ। आगू मे ठाढ़ भए हिनका (पति) कहलिएनि- ‘‘भैया, बड़ सुन्नर बात समैध कहै छथुन भोलाक विआह कए लाय।’’ कहि चोट्टे घुमि के आंगन आबि शरबत बनेलहुँ। अपने से जा क’ तीनू गोटे केँ पिऐलहुँ। कुटुमैती पक्का भए गेल। विआह भए गेलइ।’’
तहि बीच चारु बाइलो सुवुध खा लेलनि। पानि पीबि घर दिसक रास्ता पकड़लनि।
थोड़े दूर आगू बढ़ला पर मनमे अवै लगलनि घर पर जाय कि रमाकान्त काका ऐठाम। दुबट्टी लग ठाढ़ भए गुनधुन करै लगलथि। एक मन होइन जे भरि दिनक थाकल छी, कने आराम करब जरुरी अछि। तेँ, घर पर जाएब जरुरी अछि। दोसर मन होइन जे एहि जुआनी मे जँ आराम करब त जिनगी छुटत। फेरि मन मे भेलनि जे नोकरी छोड़ैक समाचार घर पहुँचाएव जरुरी अछि। तत्-मत् करैत रमाकान्त घर दिसक रास्ता छोड़ि मलहटोलीवला एकपेड़िया पकड़ि घर दिस बढ़लाह। घर लग अबितहि सभकिछ बदलल-बदलल वुझि पड़लनि। जना सभ किछु खुषी सँ मस्त हुअए। दरवज्जाक चुहचुही सेहो नीक वुझि पड़ै लगलनि। दुआर पर आबि कुरता खोलि चैकी पर रखि पत्नी केँ सोर पाड़ि कहलखिन- ‘‘कने एक लोटा पानि नेने आउ। बड़ पियास लगल अछि।’’
पतिक आवाज सुनि लोटा मे पानि नेने अयलीह किषोरी हाथ सँ लोटा लए लोटो भरि पानि पीबि, पत्नी केँ कहलखिन- ‘‘आइ सँ नोकरी छोड़ि देलहुँ विद्यालय मे त्यागपत्र दए देलहुँ।’’
पतिक बात सुनि किषोरी चैंकि गेलीए। मुदा पति-पत्नीक बीच मजाको होइत छलनि। किषोरी केँ सोलहन्नी बिसबास नहि भेलनि मुस्की दइत बजलीह- ‘‘नीक केलहुँ। आठ दिन पर जे भेटि होय छलौ से दिन-राति भेटि होइते रहब। हमरो नीके।’’
किषोरीक बात सुनि सुवुध केँ मन मे भेलनि जे भरिसक समाचार केँ मजाक बुझलनि। दोहरबैत कहलखिन- ‘‘अहाँ मजाक बुझै छी। सत्य वात कहलौ। (जेबी से त्यागपत्रक नकल निकालि) हे देखियौ कागज।’’
तहि बीच मंगल सेहो आयल। मंगल केँ देखि किषोरी ससरि गेलीह। मुस्कुराइत सुबुध मंगल केँ कहलखिन- ‘‘काका, नौकरी छोड़ि देलहुँ। आब गामे रहि खेतियो-पथारी करब आ जहाँ धरि भए सकत समाजक सेवा करब।’’
सुबुधक बात सुनि मंगल कहलकनि- ‘‘बौआ, हम त उमेरे मे ने अहाँ से जेठ छी मुदा अहाँ पढ़लो-लिखल छी, मास्टरियो करै छी तेँ नीके जानि के ने नोकरी छोड़ने हैब।’’
मंगलक बात सुनि सुवुधक मन सवुर भेलनि। मुस्की दैत बजलाह- ‘‘कक्का जाधरि पढ़ल-लिखल लोक समाज मे रहि समाजक क्रिया-कलाप के आगू मुहे नहि धकेलत ताधरि समाज आगू कोना बढ़त।’’
सुवुध आ मंगल गप-सप करतहि रहति कि किषोरी आंगन मे अड़र्ाहट मारि कानै लगलीह। सुवुध बुझि गेलाह तेँ असथिर स वैसले रहलाह। मुदा अकबेराक कानब सुनि टोलक जनिजाति दौड़ि-दौड़ि आवए लगलीह। सैाँसे आंगन जनि-जाति सँ भरि गेलनि। नवानी वाली किषोरी केँ पूछलखिन- ‘‘कनियाँ, की भेल हेन जे ऐना अकलबेरा मे कनै छी?’’
मुदा किछु उत्तर नहि दय किषोरी आरो जोर-जोर सँ कनै छलीह। टोलक जते बहीना, फुल, पान, गुलाब, चान, पार्टनर किषोरीक छलन् िसभ केयो एक्के टा प्रष्न पूछैत छलनि जे- ‘की भेल?’
जते संगी-साथी सभ किषोरी स पूछैकत छलनि तते किषोरी जोर-जोर सँ कनैत छलीह। ककरो कोनो अर्थे नहि लगैक। मुदा अनुमानक बजार तेज होइत जायत छल। कियो किछु वुझैत त कियो किछु।
दरवज्जा पर बैसल-बैसल सुबुध मने-मन खुषी होयत रहति। सोचैत रहथि जे जाधरि पुरना चालि-ढालिक लोकक (चाहे मरद हुअए वा स्त्रीगण) चालि नहि बदलत ताधरि नव समाज कोना बनि सकैत अछि? इ प्रष्न त सिर्फ समाजेक लेल नहि परिवारोक लेल छैक। आ परिवारे किअए मनुक्खोक लेल छैक। तँ सुवुध किछु बजबे नहि करथि।
अकलबेराक समय रहबे करए। बाध दिषि स गाय, महीस, वकरी चरि-चरि अवैत रहय। धसबहिनी घासक पथिया नेने अवैत छलि। गोबर बीछिनिहारि गोवरक छितनी माथ पर नेने अबैत छलि। बुधनी आ सोमनी, घासक छिट्टा माथ पर नेने अबैत छलीह कि सुवुधक अंगना मे कानव सुनलनि। दुनू गोटे अकानि केँ वुझलनि जे सुवुधक कनियाँ कनै छथिन। सोमनी वुधनी केँ कहलखिन- ‘‘बहीनि, छिट्टा रखि केँ चल देखै ले।’’
बुधनी कहलक- ‘‘गै बहीनि अइ चमचिकनी सबहक भभटपन सुनि के की करबीही। भरि दिन चाह-पान घोटैत रहै अए, वुझै अए जे ऐहने दुनिया छै। मरद केँ किछु हुअए मौगी सब रानी छी। जाबे एतए बरदेमे ताबे गामे पर चलि जेमे। घास-भूसा झाड़ब, जरना-काठी ओरिआइब। थैर खर्ड़ब। वासन-कुसन धुअब कि अइ भभटपनवालीक भभटपन सुनब।’’
सोमनी- ‘‘बेस कहले बहीनि। जकरा जते सुख होइ छै ओ ओते कनै अए। अपने सब नीक छी जे कमाई छी खाइ छी। चैन से रहै छी। ‘अइ ललमुही सबहक किरदानी सुनबीही ते हेतउ जे मुहे पर थुक दए दीअए।’
मौलाइल गाछक फुल:ः 10
भरि दिन सुवुधक मन मे अइह खुट-खुटी धेने रहलनि जे जाहि गामक लोक मे एते उत्साह बढ़ल अछि, ओहि गाम मे जँ बिहाड़िक पूर्व हवा खसै त लोकक मन मे अनदेषो बढ़ि सकैत अछि। समाज छियै, के की बाजत की नहि बाजत, तकर कोन ठेकान। कियो कहि सकैत अछि जे, जते विचारक सभ अछि ओ पाइ-कौड़ीक भाँज मे कहीं टौहकी ने लगबैत हुअए। मुदा लोकक धारा के रोकला स खतरो उपस्थित भए सकैत अछि। जहिना अधिक रफ्तार चलैत गाड़ी मे एकाएक ब्रेक लगौला सँ दुर्घटनो भए सकैत अछि तहिना काज मे ढील-ढाल भयला पर भए सकैत अछि। ओना भरि दिन त अपने चक्कर मे फँसल रहलौ, से के बुझत। गामक लोक त गामक काजे भेला सँ बुझताह अचताइत-पचातइत सुवुध रमाकान्त ऐठाम विदा भेला। मुन्हारि साँझ भए गेल छलैक। थोड़े दूर आगू बढ़ला पर, रस्ताक पछबारि भाग रतिया घरक आगू मे, पान-सात गोटे बैसि गप-सप करैत रहथि। एक गोटे अनुभवी जेँका बाजल- ‘‘जे खेतक बँटवाराक ढोल त रमाकान्त कक्का पीटि देलखिन, मुदा बँटै कहाँ छथिन। घनक लोभ ककरा नइ छै। ओ थोड़े खेत बँटतिन्ह। इ सब सबटा धनिक लोकक चालबाजी छियै। लोक थोड़े नीक-अधलाक विचार करै अए, जे सुनलक ओ कौआ जेँका काँय-काँय कए, सगरे गाम बिलहि दैत अछि। मुदा तइ से की, अगर जँ ओ खेत नहिये बँटतिन्ह तेँ कि लोक मरि जायत।’’
रास्ता पर ठाढ़ भए सुवुध सुनलनि। दोसर बाजल ‘जे अपने ठकि-फुसिया केँ एते धन जमा केलक ओ सुहरदे मुहे थोड़े लोक के जमीन दए देतइ। तखन ते गरीबक कपारे मे दुख लिखल छै, से त भोगै पड़तै। केहेन निरलज्ज जेँका रमाकान्त नाचि-नाचि लोक केँ कहलकै।’ एते सुनैत सुबुधक मन मे आगि लागि गेलनि। सोचै लगलाह जे भरि दिन त हमहू अनतै छलहुँ, गाम मे ने ते किछु भए गेलैक। मुदा बिना किछु बजनहि सुबुध आगू बढ़ि गेलाह।
रमाकान्त एहिठाम पहुँचतहि हीरानन्द बाजि उठलाह- ‘‘जिनके चरचा करै छलौ से आविये गेलाह।’’
रमाकान्त सुबुध केँ कहलखिन- ‘‘कैक बेरि तोरा स गप करैक मन भेल मुदा तोँ ते भरि दिन निपत्ते रहलह। कतौ गेल छेलह की?’’
रमाकान्तक बात सुनि सुबुध कहलखिन- ‘‘भरि दिन एते व्यस्त रहलौ जे अखन फुरसति भेल। घर स बहार धरि परेषान-परेषान दिन भरि होइते रहलौ।’’
रमाकान्त- ‘‘की परेषान?’’
- ‘‘काल्हि राति मे जखन ओछाइन पर गेलहुँ त अहाँक कहलाहा बात मन पड़ल। मन पड़ितहि पेट मे घुरिआय लगल। बड़ी काल धरि सोचैत-विचारैत रहलौ। नीनो ने हुअए। अंत मे यैह मन आयल जे जहिना अहाँ अप्पन सब सम्पत्ति समाज केँ दए देलियै तहिना हमहूँ नोकरी छोड़ि, देह स समाजक सेवा करब। जहिना गाड़ी इंजिनक बले चलैत अछि तहिना त समाजो मे इंजिनक जरुरत छैक। तहि बीच एकटा इतिहासक घटना मन पड़ल।’’
इतिहासक घटना सुनितहि उत्सुकता स हीरानन्द पूछि देल- ‘‘की बात मन पड़ल?’’
सुबुध- ‘‘तिब्बत मे एकटा राजकुमार चेन पो नामक भेलाह। ओ अपना राज मे धनी-गरीबक बीच खाधि देखलनि। ओहि खाधि केँ पाटैक लेल अपन सब सम्पत्ति प्रजाक बीच बाँटि देलखिन। मुदा किछुए दिनक उपरान्त फेरि ओहिना केँ ओहिना भए गेलइ।
धनिक धनिक बनि गेल आ गरीब गरीब बनि गेल। राजकुमार क्षुब्ध भए गेलाह जे ऐना किएक भए गेलैक?’’
किस्सा सुनि बिचहि मे शषिषेखर पूछि देलकनि- ‘‘ऐना किऐक भेलई?’’
- ‘‘हम समाजषास्त्रक विद्यार्थी छी तेँ एहि बात केँ जनैत छी। व्यवस्था नहि बदलत ताधरि मनुक्खक जिनगी नहि सुधरत। तेँ हम अपन दायित्व बुझि नोकरी छोड़लहुँ। गामक गरीब स ल’ क’ अमीरधरि आ बच्चा स ल क’ बूढ़ धरि, गाम सभकह छियैक। तेँ हम ओहन हूसल (तिब्वत जेँका) काज नहि करब।’’
रमाकान्तक मन पहिलुके प्रषंसा सुनि कान नेने उड़ि गेलनि, राजकुमारक खिस्सा सुनबे नहि केलनि। मुदा हीरानन्दोक आ शषिषेखरोक नजरि(धयान) ओहि खिस्सा मे घुमै लगलनि। तहि बीच जुगेसर चाह अनलक। सभ कियो चाह पीवै लगलाह। चाह पीबि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘देखू, हम अप्पन सब खेत समाज केँ दए देलिऐक। आब हमरा कोनो मतलब ओहि खेत स नहि अछि। मुदा एकटा बात जरुर कहब जे कोनो तरहक गड़बड़ी समाज मे नहि हुअए। सभकेँ खेत होय।’’
रमाकान्तक बात सुनि शषिषेखर अप्पन विचार रखलक- ‘‘गामक परिवार (गरीब-लोकक) जते अछि ओकरा जोड़ि लिअ आ खेत के जोड़ि, एक रंग क’ बाँटि दिऔ।’’
शषिक विचार सुनि हीरानन्द नाक मारैत कहलखिन- ‘‘ऊँ- हूँ।’’
मुह पर हाथ नेने सुवुध मने मन सोचैत जे कियो एहनो अछि जकरा घरारियो ने छैक। आ कियो ऐहनो अछि जकरा घरारीक संग दू कट्ठा धनखेतियो ने छैक। ककरो पाँचो कट्ठा छैक। जँ जमा सम्पत्ति मे एक रंग केँ देल जाय त सभकेँ एक रंग कोना हेतइ। एहि ओझरी मे सुबुध पड़ल रहलि। हीरानन्द सोचैत जे गरीबो त सभ एक रंग नहि अछि। कियो मेहनती अछि त कियो नमरी कोइढ़। कियो नषाखोर अछि त कियो सात्बिक। गरीबोक स्थिति त विचित्र अछि। लेकिन मूल प्रष्न अछि समाज केँ उपर उठबैक। सभकेँ गुम्म देखि रमाकान्त मुह मे पान लए जरदा फँकैत कहलखिन- ‘‘ऐना सभ गुम्म किअए छी? हम समाजक दाँव-पेंच त नहि बुझै छियै मुदा अहाँ सभ त पढ़ल-लिखल होषगर छी। तखन कियो किछु किअए ने बजै छी।’’
अपन बुद्धिक कमजोरी व्यक्त करैत हीरानन्द सुवुध केँ कहलखिन- ‘‘भाय, जे सोचै छी ओ ओझरा जायत अछि। तेँ अहीं सोझरबैत कहियौ।’’
गंभीर भए सुबुध कहै लगलखिन- ‘‘अप्पन समाज बहुत पछुआइल अछि। पछुआइल समाज मे घनेरो (ढेरो) समस्या, समाढ़ जेँका, पकड़ने रहैत अछि। जे बिना समाधान केने आगू नहि ससरै दइत। मुदा समाधानो त कागज पर नक्षा बनौने नहि होएत। समस्या लोकक जिनगी केँ चुड़ीन जेँका पकड़ने अछि। जहिना चुड़ीन लोकेक देह मे घोसिया अपन करामात करैत अछि तहिना समस्यो अछि। तेँ अखन मात्र दू टा सवाल केँ पकड़ू। पहिल, सभकेँ एक रंग खेत होय। आ दोसर खेतक संग-संग आरो जे पूँजी अछि ओकरो उपयोग ढंग सँ कयल जाय।’’
सुबुध बजितहि रहथि कि विचहि मे जुगेसर टभकि गेल- ‘‘मास्सैव, कनी बिकछा केँ कहियौ। ऐना जे पौती मे राखल वस्तु जेँका झाँपि केँ कहबै, त हम सभ कना बुझवै।’’
जुगेसरक बात सँ सुबुध केँ तकलीफ नहि भेलनि। मुस्कुरा केँ कहै लगलखिन- ‘‘ठीके अहाँ नहि बुझने होएव, जुगे। नीक जेँका बिकछा क’ कहै छी। देखियौ, सिर्फ खेते रहने उपजा नहि भए जाय छैक। ओकरा उपजबै पड़ैत छैक। तामि-कोड़ि कए तैयार करै पड़ैत छैक। बरखा होय वा पटा केँ बीआ पाड़ै पड़ैत छैक। बीआ जखन रोपाउ होयत छैक तखन उखाड़ि क’ रोपल, कमठौन कयल जायत छैक। तखन ने उपजा हैत। खेतक संग-संग मेहनत जे होयत से ने पूँजी भेलैक। मेहनत करै ले ओजारोक जरुरत होइत अछि। ओजारोक नमहर इतिहास रहल अछि। शुरु मे लोक साधारण औजार स काज करैत छल। जेना-जेना औजारो उन्नति करैत गेल तेना-तेना लोकक हालत सुधरति गेल। मुदा अप्पन गाम बहुत पछुआयल अछि। तेँ नव औजार सँ काज करव संभव नहि अछि। नव औजारक लेल अधिक पैसौक जरुरत होइत, जे नहि अछि। अखन साधारणे औजार सँ काज चलवै पड़त। जेना-जेना हालत सुधरैत जायत तेना-तेना औजारो सुधरैत जायत।’’
सुबुधक बात सुनि जुगेसर भक द’ निसांस छोड़ि बाजल- ‘हँ’ आब बुझलौ। सुआइत लोक कहै छै जे पढ़ि-लिख केँ जँ हरो जोतब तँ सिराउर सोझ हैत।’’
हीरानन्द बजलाह- ‘‘बड़ सुन्दर बात कहलिऐक सुबुध भाइ। आब खेतक बँटवाराक संबंध मे कहियौक।’’
कनडेरिये आखिये हीरानन्द केँ देखि सुबुध कहै लगलखिन- ‘‘हीरा बाबू, गाम मे जते गरीब लोक छथि (एक बीघा खेत स निच्चा वला) हुनका सभ केँ एक-एक बीघा खेत भए जेतनि। सिर्फ रमाकान्ते कक्का वला जमीनटा नहि हुनका अपनो जमीन ओहि मे जोड़ा जेतनि। जना देखियौ जे किनको घरारियो नहि छन्हि हुनका बीघा भरि खेत दिअए पड़त। मुदा जिनका पाँच कट्ठा छन्हि हुनका त पनरहे कट्ठा दिअए पड़त। ततबे नहि जिनका ओहू स बेसी छन्हि, हुनका आरो कम दिअए पड़त।’’
सुबुधक बात सुनि रमाकान्त ठहाका मारि बजलाह- ‘‘बड़ सुन्नर, बड़ सुन्नर। बड़ सुन्नर विचार सुवुधक छनि। आब रातियो बेसी भए गेल। खाइओ-पीबैक बेरि उनहि जायत। रोटी गरमे-गरम खाई मे नीक होइ छै। तेँ आब गप-सप छोड़ू। काल्हि भोरे ढोलहो दए सबकेँ बजा लेवनि, आ सभहक बीच मे अपन निर्णय सुना देवन्हि। खेत बटैक भार हुनके सभ पर छोड़ि देवनि। नहि ते अनेरे हो-हल्ला करताह।’’
भोरे ढोलहो पड़ल। एक त’ ओहिना सभहक कान ठाढ़ रहनि, तहि पर स ढोलहो पड़ल घरा-घरी सभ पहुँचलाह। जहिना केस लड़निहार फैसला सुनै ले उत्सुक रहैत अछि तहिना बैसार मे सभ रहथि। अस्सी बरखक सोने वाबा सेहो आयल रहति। ओना सोनेला बाबा केँ अपने अढ़ाई बीघा खेत छन्हि मुदा गाम मे नब उत्सवक उत्साह स आयल छलाह। बैसले-वैसल ओ मूड़ी उठा क’ देखि बजलाह- ‘‘कोनो टोलक कियो छुटलो छथि। सभ अपन-अपन टोलक लोक केँ गनि लिअ।’’
सोनेबाबाक गप सुनि सभ अपन-अपन टोलक लोक मिलबै लगल। सिर्फ दू आदमी बैसार मे नहि आयल छलाह। दुनू टोलक दू आदमी केँ पठा दुनू केँ बजौल गेलनि। दुनू आदमी केँ देखितहि सोनेवाबा पूछि देलखिन- ‘‘तोरा दुनू गोटे केँ ढोलक अवाज कान मे नहि पहुँचल छलौ?’’
बौका बाजल- ‘‘ढोलहो ते बुझलियै। मगर नोकरी करै छी ने, ने माए-बाप अछि आ ने बहू तखन खेत ल’ क’ की करब? विआहो होइते ने अछि। लोक ढहलेल वुझै अए। तखन अनेरे किअए अबितौ।’’
बौकाक बात सुनि सोनेबाबा मूड़ी डोला स्वीकार केलनि। दोसर, आब गोसैमा बाजल- ‘‘हम दुनू परानी ते (अहाँ आगू मे नहि) बूढ़े भेलौहुँ की ने। बेटा अछिये नहि। ल’ द’ क’ एकटा ढेरबा बेटी अछि। ओकरो विआह अइवेर कइये देवइ। विआह हेतइ अपन घर जायत। भोगिनिहार के रहत जे अनेरे हम खेत लेब।’’
गोसैमोक विचार सुनि सोनेबाबा मूड़ी डोला स्वीकार केलनि। दुनू गोटेक(बौका आ गोसाईक) बात सुनि सोनेबाबा सोचै लगलथि जे समाज मे दू टा परिवार कमि जायत। तेँ दुनू परिवार के त नहि बचाओल जाय सकैत अछि, मुदा दुनू केँ जोड़ि कए एकटा परिवार त बनाओल जाय सकैत अछि। कहलखिन- ‘‘बौका त सिर्फ नामक अछि। केहेन बढ़ियाँ बजै अए। गोसाईओक बेटी आन गाम चलि जेतइ। जहि से दुनू गोटे (बाप-माए) केँ बुढ़ाढ़ी मे दुख हेतइ। तेँ बौकाक विआह गोसाईक बेटी सँ करा देने एक परिवार भए जायत।’’
सोनेवबाक विचार सुनि अधा सँ बेसी गोटे समर्थन कए देलक। मुदा किछु गोटे विरोध करैत बजलाह- ‘‘एक गाम मे (लड़का-लड़कीक) विआहक चलनि त नहि अछि। जँ हैत त अनुचित हैत।’’
धड़फड़ा के लखना उठि जोर से बाजल- ‘‘कोन गाम आ कोन समाज ऐहेन अछि जहि मे छैाँड़ा-छैाँड़ी छह-पाँच नहि करैत अछि। चोरा क’ छह-पाँच केलक से बढ़बढ़िया मुदा देखाकेँ करत से बड़ अधला हेतैक।’’
लखनाक विचार केँ सभ सहमति दए देलनि। दुनूक विआहक बात पक्का भए गेल। सुबुधक मन मे फेरि एकटा प्रष्न उठि गेलनि जे दुनू परिवार (वौका आ गोसाईक) केँ एक मानि जमीन देल जाय वा दू मानि। तर्क-वितर्क करैत मिला केँ एक परिवार मानि हिस्सा दइक सहमत बनल।
फेरि प्रष्न उठल जे जमीनक नाप-जोख के करत? रमाकान्त कहि देलखिन जे अपने मे अहाँ सभ बाँटि लिअ।’’
सुवुधोक मन मे भेलनि जे रमाकान्त कक्का ठीके कहलनि। काज केँ बाँटि कए नहि करब त गल्ती हएत। सभ काज जँ अपनहि करै चाहब ते एते गोटे जे समाज मे छथि ओ की करताह। जँ कहीं कोनो गलतियो हेतइ त सुधरि जेतइ। कहलखिन- ‘‘खेत नपैक लूरि कते गोटे केँ अछि? किऐक त जँ अमीन लए केँ बँटवारा करब ते बहुत खर्च होयत। जे खर्च बँटै मे करब ओहि पैसा से दोसरे काज किअए नेहि कए लेब। पैसाक काज त बहुत अछि तेँ अन्ट सन्ट खर्च नहि कए सुपत-सुपत खर्च करब नीक होयत। देखते छियै जे जहिना देषक संविधान ओकील केँ सालो भरि हरियरी देने रहैत अछि, तहिना त सर्वेओ अमीनकेँ अछि। कौआ सँ खैर लुटाएव नीक नहि। जहिना अहाँ सभ केँ मंगनी मे खेत भेटि रहल अछि तहिना सही-सलामत हाथ मे खेत चलि जाय। जँ अमीन सभहक भाँज मे पड़ब ते ओहिना हैत जहिना लोक कहै छै ‘जते मे बहू नहि तते मे लहठी’ कीनव हैत।’’
सुवुधक बात सुनि, जोष मे बिलटा उठि क’ ठाढ़ भए बाजल- ‘‘माघ मास स ल’ क’ जेठ धरि हम सभ खेत तमिया करै छी। कोनो एक्के साल नहि, सभ साल करै छी। सेहो कोनो आइये से नहि जहिया से ज्ञान परान भेल तहिये से। कोन अमीन आ कमिष्नर नपै ले अवै अए। अपन गामक कोन बात जे चरिकोसी मे तमनी करै छी। ततबे नहि, नेपालो जा-जा तमै छी। ततवे नहि साले-साल नपैत-नपैत त सैाँसे गामक खेत जनै छी जे कोन खेत कते अछि, तेँ नपैक जरुरतो ने अछि। मुहजवानिये कहि देब जे कोन कोला कते अछि। एक गोरे कागज पर लिख लिअ जे ककरा कते खेत देवइ। हमरा कहैत जायब, हम कोला फुटवैत जायब। एकटा पंडी जी, बड़बढ़िया नाम कहने रहथिन मुदा मन नइ अछि, जे ओ तीनिये डेग मे दुनियाँ के नापि लेने रहथि। तहिना हमहूँ तीनि डेगक लग्गी बना एक गामक कोन बात जे परोपट्टाक जमीन नापि देब।’’
बिलटाक बात सुनि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बड़बढ़ियाँ, बड़बढ़ियाँ। सभ केयो उठि-उठि विदा भेलाह।
बेर झुकतहि सैाँसे गामक स्त्रीगण, ढेरबा बच्चिया छोटका-छोटका ढेन-बकेन चिकनी माटिक खोभार दिषि विदा भेल। सभहक हाथ मे खुरपी-पथिया। सभकेँ हाथ मे खुरपी पथिया नेने जाइत देखि श्रीचन मने-मन सोचे लगल जे ऐना किअए लोक कए रहल अछि। दसमिओ ते अखन नहि एलै। कोनो पावनियो-तिहार नहिये छियैक। तहन स्त्रीगण मे ऐना उजैहिया किअए उठि गेलइ। कोन बुढ़िया जादू तरे-तर गाम मे पसरि गेल जे मरद बुझबे ने केलक आ मौगी सभ बुझि गेल। अनकर कोन अपनो घरवाली रमकल जाइत अछि। जते श्रीचन सोचै ओते ओझरिये लगल जाय। तत्-मत करैत रुदल ऐठाम विदा भेल। रुदलक घर लगे मे। श्रीचने जेँका रुदलो छगुन्ता मे पड़ल रहए श्रीचन केँ देखितहि रुदल पूछि देलकै- ‘‘आँइ हौ श्रीचन भाइ, मौगी सभ केँ कथीक रमकी चढ़लै जे एते रौद मे माटि आनै ले जाइये।’’
रुदलक बात सुनि श्रीचन आरो छगुन्ता मे पड़ि गेल। मन मे एलै जे हम गाम पर नइ छलौ तेँ नइ, बुझलिऐक। मगर इ त गामे पर रहए। किअए ने बुझलिकैक। फेरि सोचलक जे जखन घरवाली माटि ल’ क’ आओत ते पूछि लेवए। मन असथिर भेलै। मुदा रुदलक मुहक रंग स बुझि पड़ै जे कत्ते भारी काज स्त्री बिना पुछिनहि कए लेलकै। भीतर स खुष मुदा उपर स गंभीर होइत श्रीचन रुदल केँ पूछलक- ‘‘आँइ हौ रुदल भाइ, तोरा भनसिया से मिलान नइ रहै छह जे बिन पुछनहि चलि गेलखुन।’’
श्रीचनक मनक बात नहि बुझि खिसिया केँ रुदल बाजल- ‘‘की कहिह भाइ, मौगी पर विसबास नै करी। जखैन अपन काज रहतै ते हँसि-हँसि बजतह, मुदा जखैन तोरा कोनो काज हेतह ते कहतह जे माथ दुखाइ अए।’’
मुह दाबि श्रीचन मने-मन खूब हँसैत मुदा रुदल तामसे भेरि होइत जाइत। विदा होइत श्रीचन कहलकै- ‘‘जाइ छिअए भाय। मौगी सभहक किरदानी देखि हमरा किछु फुरबे ने करै अए।’’
सह पाबि रुदल गरजि उठल- ‘‘बड़बुधियार मौगी सभ भए गेल होँ चलै चलह ते हमरा संगे कोदारि पाड़ए।’’
थोड़े दूर आगू बढ़ि श्रीचन रुकि केँ कहलकै- ‘‘भाय की करबहक, आब मौगिये सभहक राज भेलई।’’
- ‘‘हमरा कोन राज-पाट से मतलब अछि हर जोतै छी, कोदारि पाड़ै छी, तीन सेर कमा के अनै छी, खाइ छी। एते दिन पुरखे चोर होय छले आब मौगियो चोरनी हैत। भने जहल जायत आ पुलिसवा से यारी लगौत।
श्रीचन बढ़ि गेल। रुदल, दुनू हाथ माथ पर लए सोचै लगल।
सभ केयो माटि आनि-आनि अपन-अपन अंगनाक माटिक ढेरी पर रखलनि। धामो-पसीने सभ तर-बत्तर रहति। कने काल सुसतेलाक उपरान्त दिआरी बनबै लेल मुंगरी, लोढ़ी स माटि फोरै लगलीह। मेही स’ माटि फोड़ि, इनार कल से अछीनजल पानि भरि-भरि अनलनि। माटि मे पानि दए सानै लगलीह सुखल माटि मे पानि पड़ितहि सोन्हगर सुगंध सैाँसे गाम मे पसरि गेल। गामक हबे बदलि गेल। जहिना साझू पहर के सिंगहार फूल, राति रानी सँ वातावरण महमहा जायत तहिना माटि-पानि सँ जनमल सुगंध गामकेँ महमहा देलक। माटि सानि, छोट-छोट दिआरी सभ बनबै लागलि। दिआरी बना, पुरान साफ सूती वस्त्रके फाँड़ि-फाँड़ि दहिना हाथक तरहस्थी सँ जाँध पर रगड़ि-रगड़ि टेमी बनौलनि। टेमी बना दिआरी मे कड़ूतेल दए टेमी सजौलनि। दिआरी सजा सभ केयो फुलडाली मे त कियो चंगेरी मे त कियो छिपली मे त कियो केराक पात पर रखलनि। दिआरी रखि सभ नहेलीह अजीब दृष्य। नव उत्सव। नव जिज्ञासा। नव आषा सभहक मे छलनि। सुरुज डूबबो नेहि कयल, मुदा निच्चा जरुर उतड़ि गेल रहति, गाछो सब परक रौद बिला गेल छलैक सभ अपन-अपन गोसाउनिक घर जा सिरा आगू मे दियारी लेसिलनि दियारी लेसि, एकटंगा द आराधना करै लगलीह जे आइल लछमी पुनः पराइत नहि।’ गोसाई केँ गोड़ि लागि सभ गामक देव स्थान सब दिषि चललीह। अपन-अपन आंगन मे त सभ असकरे-असकर छलीह मुदा आंगन स निकलितहि देवस्थान दिषि विदा होइतहि संगबे सभ भेटेँ लगलनि। संगबे मिलितहि सभ, जहि स्थान दिषि जाइत रहथि ओहि देवताक, गीत गबै लगलीह। सैाँसे गाम, सब रास्ता मे, एक नहि अनेक समूह गीत गवैत मगन स देवस्थान पहुँचै लगलीह। सभहक मन मे जमीनक खुषी तेँ सभ देवतो केँ मुस्कुराइत सभ देखति। सभहक मन मे नचैत जे एक सँ एक्कैस हुअए।
दियारीक इजोत जेँका गामक सभ गरीब-गुरबाकेँ, आषाक दीप खेत पाबि जरै लगलनि। हजारो बर्ख स पछुआबैत गरीबी केँ एकाएक आड़ि पड़ि गेल। सभ कियो, नव-नव योजना, मन मे बनबै लगलाह। जहि स जिनगी दुखक बेड़ी केँ टपि सुखक सीमा मे पएर रखलनि। नव जिनगी जीवैक उत्कंठा सभहक मन मे जगलनि।
मौलाइल गाछक फुल:ः 11
खेत भेटिला स भजुआक सभ समांगक विचारो बदललनि। नवो बापूत बैसि विचार करै लगल जे जहिना रमाकान्त काका हमरा सभकेँ रखि लेलनि तहिना हमहूँ सभ समाजक एक अंग बनिकेँ रहब। सबसँ पहिने रमाकान्त, सुबुध शषिषेखर आ मास्टर सहाएवकेँ अपना ऐठाम भोजन करैवनि। मुदा अखन धरिक जे हमरा सभहक चालि-ढालि रहल अछि ओकरा त अपनहि बदलै पड़त। अंगना-घर आ दुआर-दरवज्जाक जे छिछा-बिछा अछि ओ नीक लोकक बैइसै जोकर नहि अछि। सभ दिन अपना ऐहने मे रहलौ तेँ रहै छी, मुदा नीक लोक ऐहेन जगह मे कोना औताह। देखिये केँ मन भटकि जेतनि। तेँ, पहिने सभ सवांग भोरे से दुआर-दरवज्जा, अंगना-घर केँ चिक्कन-चुनमुन बनाबह। मरदो आ मौगियो जे भदौस जेँका नुआ-बसतर बनौने रहै छी ओकरो बदलह। जखन अपन काज करै छी तखन जे फटलो-पुरान आ मइलो-कुचैल कपड़ा पहिरै छी ते बड़बढ़िया। मुदा जखन किनाको नोत दए क’ खाय लेे बजेबनि तखन ऐहेन बगए-बानि से काज नइ चलत। भजजुक जेठ बेटाक सासुर दरभंगा बेला मोड़ पर अछि। जखन ओ सासुर जात आ ओहिठाम रहल-सहन, बात-विचार देखैत त मन जरुर आगू मुहे बढ़ैक कोषिष करैत अछि। मुदा गामक जे गरीबीक अवस्था छैक ओ सब विचार केँ दाबि दइत छैक। मुदा तइओ दरभंगाक देखल परिवार नजरि मे त रहबे करैक। झोलिया(भजुआक जेठ बेटा) सातो भाइक भैयारी मे सबसे जेठ। तेँ सभ भाय झोलियाक बात मानैत अछि। झोलिया कहलक- ‘‘सातो भायक बीच रमाकान्त बाबा सात बीघा जमीन देलखुन। पाइ ते एक्कोटा नै लेलखुन। दुनियाँ मे ककरा के ऐना दइ छै। जेँ हुनका मन मे हमरो सभहक प्रति दया एलनि, तेँ ने। तहिना हमहू सभ हुनका ओते पैघ बुझि, आदर करबनि। गामे मे भाड़ा पर कुरसी, समेना, शतरंजी, जाजीम, सिरमा सब भेटै अए। जहिना बरिआतीक लेल लोक सब व्यवस्था(भोजन स’ ल’ क’ रहै तक) करै अए तहिना हमहू सभ करब।’’
झोलियाक विचार सुनि सभ कियो (छवो भाइयो आ बापो-पित्ती) मूड़ी डोला समर्थन क’ देलक। झोलिया फेरि बाजल- ‘‘बाउ, तू रमाकान्त बाबा ऐठाम चलि जैहह। हुनका चारु गोटे केँ नतो दए दिहनु आ संगे-संग बजेनहु अबिहनु। दू भाय रहैक जोगार (भाड़ा पर सब समान आनि) करिहह। दू सवांग बजार से खाइक सब समान कीनि आनह। सभ सब काज मे भोरे से लगि जैहह।
दलान पर बैसि रमाकान्त आ हीरानन्द चाहो पीबैत रहति आ गामेक गप-सप करैत रहथि। गामक गप-सप करैत रमाकान्तक नजरि वौएलाल आ सुमित्रा पर गेलनि। गिलास रखि रमाकान्त हीरानन्द केँ बौआ(महेन्द्र) कहने रहथि जे छअ मास सिखा-पढ़ा दुनू गोटे केँ पठा देब मुदा अखन धरि किऐक ने आयल?’’
हीरानन्द- ‘‘जे कोनो कारण भेल हेतै तेँ ने अखन धरि नहि आयल अछि। ओना चिकित्सा कठिन विद्या थिक। सुढ़िआइ मे त किछु समय लगवे करतैक।’’
दुनू गोटे गप-सप करिते रहथि कि भजुआ आबि रमाकान्त केँ गोड़ लगलकनि। रमाकान्त केँ गोड़ लागि हीरानन्दो केँ लगलकनि। हीरानन्द केँ गोड़ लगितहि, ओ असिरवाद दैत पूछलखिन- ‘‘भजू भाइ, नीके रहै छह की ने?’’
‘हँ मास्टर बौआ। हमरा ते गाम से भगैक नौवत आबि गेल छलए। मुदा (रमाकान्त दिषि देखि) कक्का नै भागै देलनि।’’
- ‘‘से की, से की- हलचल शब्द मे रमाकान्त पूछलखिन।
गाम मे बसैक खिस्सा भजुआ कहै लगलनि- ‘‘एहि गाम मे पहिने हम्मर जाति(डोम) नै छल रहए। मुदा डोमक काज त सब गाम मे जनम स मरन धरि रहै छै। हमरा पुरखाक घर गोनबा रहै। पूभर से कोसी अबैत-अबैत हमरो गाम लग चलि आयल। अखार चढ़िते कोसी फुलेलै। पहिलुके उझूम मे तेहेन बाढ़ि चलि आयल जे बाधक कोन गप जे घरो सब मे पानि ढूकि गेल। तीन दिन तक, ने माल-जाल घर से बहरायल आ ने लोके। पीह-पाह करैत सभ समय बितौलक। मगर पहिलुका बाढ़ि रहै तेसरे दिन सटकि गेल। हम्मर बावा दुइये परानी। ताबे हम्मर बाउ नै जनमल रहै। बाढ़िक पानि सटैकिते दुनू गोरे दसो टा सुगर आ घरक समान लए गाम से विदा भ’ गेल। जखैन गाम से विदा भेल ते दादी बाबा के कहलकै- ‘‘अनतै कत’ जायब। हमरो माए-बाप जीविते अछि तेँ ओतै चलू। बबो मानि गेल। दुनू परानी अही गाम देने जाइत रहै। गाम मे अबिते सुगर के चरै ले छोड़ि देलकै आ अपने दुनू परानी सुसताय लगल। अइ गाममे डोम नहि तेँ गामक बेदरा-बुदरी सब सुगर देखै ले जमा भ’ गेल। गामो मे हल्ला भए गेलै। गामक बाबू-भैया सब आबि हमरा बाबा के कहलकै जे अही गाम मे रैह जा। हमर बाबा रहि गेल। गामक कात मे एकटा परती रहै। ओही परती पर एकटा घर सब (बाबू-भैया) बना देलकै। ओइ दिन मे परती नमहर रहै। मगर चारु भाग जोता खेत रहै। चारु भागक खेतवला सभ परती के छाँटि-छाँटि खेत मे पीअवैत गेल। परती छोट होइते गेलै। रहैत-रहैत घर-आंगना आ खोबहारे भरि रहलै। मगर तइयो दिक्कत नै होय। हमर बाउओ भैयारी मे असकरे। मुदा हम दू भाइ भेलौ। जखैन दुनू भाय भिन्न भेलौ ते घरारियो बँटा गेल आ गिरहतो। मुदा तइयो गुजर मे दिक्कत नै हुअए। अखैन दुनू भायक बीच सात टा बेटा अछि। चारि टा हमरा आ तीनटा भेए के। गुजर ते कमा के सब क’ लइत अछि मुदा घरक दुख ते सबके होइते छै।
भजुआक खिस्सा सुनि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘आब ते बहुत खेत भेलह?’’
- ‘‘हँ कक्का! कते पीढ़ी आनन्द से रहब। अखैन घर ते नै बन्हलौ मुदा खेती केनाई शुरु क’ देलियै।’’
बिचहि मे हीरानन्द पूछलखिन- ‘‘सबेरे-सबेरे केम्हर चललह, भज्जु भाय?’’
भजुआ- ‘‘राति मे सभ सवांग विचारलक जे जहिना रमाकान्त कक्का सभकेँ समाजक अंग बना खेत देलनि तहिना हमहू सभ हुनका नोत दए खुऐबो करबनि आ धोती पहिरा विदाइयो करबनि। तेँ नोत दइ ले एलौ हेँ।’’
न्योतक नाम सुनितहि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘कहियाक नोत दइ छह?’’
ऐहो तीनू गोटे- सुबुध, शषि आ हीरानन्द- जेथुन। हिनको सभ केँ कहि दहुन।’’
- ‘‘हँ कक्का, अहीं टा केँ थोड़े लए जायब। हिनको सभ केँ लए जेबनि। ऐठाम ते अहीं दू गोरे छी। शषिभाइ आ सुबुध भाइ नइ छथि। ताबे अहाँ दुनू गोरे नहाउ-सोनाउ, हम ओहू दुनू गोरे के बजौने अबै छिअनि।’’
हीरानन्द- ‘‘औझुके नोत दइ छह?’’
- ‘‘हँ, मासटर सहायब!’’
रमाकान्त- ‘‘बड़बढ़िया! शषि त पोखरि दिस गेलखुन, अबिते हेथुन। ताबे सुबुध केँ कहि अवहुन।’’
भजुआ सुबुध ऐठाम विदा भेल। चाह पीबि सुबुध दुनू बच्चा केँ पढ़बैत रहथि। भजुआ केँ देखितहि सुबुध पूछि दलखिन- ‘‘भज्जु भाइ, केम्हर-केम्हर?’’
प्रणाम कए भजुआ कहलकनि- ‘‘भाइ, अहीं ऐठाम ऐलौ हेँ। रमाकान्तो कक्का के कहि देलियनि आ अहूँ के कहै ले एलौ हेँ।’’
‘की कहै ले ऐलह?’
‘‘नोत(नत) दइ ले एलौ।’’
‘कोन काज छिअह?’
‘‘काज-ताज नै कोनो छी। वहिना अहाँ चारु गोरे के खुअवैक विचार भेल।’’
भजुआक बात सुनि सुबुधक मन मे द्वन्द्व उत्पन्न भए गेलनि। मन मे प्रष्न उठलनि जे भजुओ त अही समाजक अंग छी। जहिना शषीर मे नीक सँ नीक आ अधलाह स’ अधलाह अंग अछि, जहि सँ शरीरक क्रिया चलैत अछि तहिना त समाजो मे अछि। मुदा शरीर आ समाज केँ तँ एक नहि मानल जायत। समाज मे जाति आ सम्प्रदाय एहि रुपे पकड़ि नेने अछि जे सभ सँ उपरो अछि आ निच्चो अछि। एक दिस धर्मक नाम पर सभ हिन्दू छी मुदा जाति रंग-बिरंगक भीतर मे अछि। एक जाति दोसर जातिक ने छुवल खायत अछि आ ने कथा-कुटमैती करैत अछि। ततवे नहि हिन्दूक जे देवी-देवता छथि ओहो बटायल छथि। देवी-देवता केँ एक जाति मानैत अछि दोसर नहि मानैत अछि। जँ मानितो अछि ते ने हुनकर पूजा करैत छथि आ ने परसाद खाइत छथि। भरिसक हृदय सँ प्रणामो नहि करैत छथि। मने-मन अछोप, शूद्र इत्यादि देवतो बुझैत छथि। अगर जँ इ प्रष्न हल्लुक-फल्लुक रहैत त कोनो बात नहि! मुदा प्रष्न त जड़िआयल छैक। ऐहेन ने हुअए जे नान्हि टा प्रष्नक चलैत समाज मे विस्फोट भए जाय। समाजक लोक एहि दुनू प्रष्नक बीच तेना ने बन्हायल अछि जे जिनगीक सबसँ पैघ वस्तु एकरे बुझैत छथि। जहन कि छी नहि। मुस्कुरायत सुवुध भजुआ केँ कहलखिन- ‘‘ताबे तूँ रमाकान्त कक्का ऐठाम बढ़ह। हम नहेने अवै छी।’’
भजुआ विदा भेल। मुदा सुवुध मने-मन सोचिते रहलाह जे की कयल जाय। तर्क-वितर्क करैत सुवुधक मन धीरे-धीरे सक्कत हुअए लगलनि। अंत मे एहि निष्कर्ष पर पहुँच गेलाह जे जाधरि एहि सब छोट-छीन बात केँ कड़ाई सँ पालन नहि कयल जायत ताधरि समाज आगू मुहे नहि ससरत। समाज केँ पछुअबैक इहो मुख्य करण थिक। तेँ एकरा जते जल्दी हुअए तोड़ि देव उचित हैत। इ बात मन मे अबितहि सुवुध नहाइ ले विदा भेला। नहा क’ कपड़ा पहीरि रमाकान्त ऐठाम विदा भेला। जाबे सुबुध रमाकान्त एहिठाम पहुँचथि तावे रमाकान्त शषिषेखर आ हीरानन्द नहा क’ कपड़ा पहीरि तैयार रहथि। सुबुध केँ पहुँचतहि हीरानन्द कहलखिन- ‘‘सुबुधो भाइ आबिये गेलाह। आब अनेेरे बिलम्ब करब उचित नहि।’’
सुबुध बैसबो नहि कयला। सभ क्यो विदा भए गेलाह। आगू-आगू रमाकान्त पाछू-पाछू सभ। थोड़े दूर आगू बढ़ला पर हीरानन्द भज्जु केँ पूछलखिन- ‘‘कथी सबहक खेती केलह हेँ भज्जु?’’
मजबूरीक स्वर मे भज्जु कहै लगलनि- ‘‘भाई, अपना बड़द नै अछि। कोदारियो ने छले मुदा छउरा सब जोर केलक आ दस गो कोदारि कीनि अनलक। सब बापूत भोरे सुति क’ उठै छलौ आ खेत तामए चलि जाइ छलौ। पनरह दिन मे सब खेत तामि लेलहुँ। बड़बढ़िया जजात सब अछि। अइबेर हैत ते बड़दो कीनि लेब।’’
जखन खेत भेलह ते बड़द किअए ने कीनि लेलह?’’
‘एक्के टा दिक्कत नइ ने अछि। बड़द कीनितौ ते बान्हितौ कते। खाइ ले की दैतिअइ। अगर सब काज-बड़द कीनिनाइ, घर बनौनाइ, खाइक जोगार केनाइ- एक्के बेरि शुरु करितौ ते ओते काज पार कना लगैत। तेँ एका-एकी सब काज करब।’’
‘‘बड़ सुन्दर विचार केलह?’’
गप-सप करैत सभ भजुआ एहिठाम पहुँचलाह। घरक आगू मे दू कट्ठा जमीन। ओहि मे समियाना टँगने। एक भाग कुरसी लगौने। दोसर भाग शतरंजी, जाजीम, तकिया लगौने। भजुआक सभ सवांग-मरद स मौगी धरि नहा क’ नवका वस्त्र पहीरिने। जहिना कतौ बरिआतीक व्यवसथा होइत छैक। तहिना व्यवस्था केने अछि। व्यव्स्था देखि चारु गोटे क्षुब्ध भए गेलाह। किनको बुझिये नहि पड़ैत जे डोमक घर छियै। चारु गोटे चारु कुरसी पर बैसलाह कुरसी पर वैसितहि भजुआक एकटा बेटा शरवत अनलक। सबसँ पहिने रमाकान्त दू गिलास सरबत पीवि, ढकार करैत कहलखिन- ‘‘आब पान खुआबह।’’
जते काल सरबत पीवथि, तहि बीच भजुआक पोती चाह नेने आवि गेली। हाँइ-हाँइ केँ शषिषेखर सरबत पीलनि। स्टीलवला कप मे चाह। शुद्ध दूधक बनल। ने अधिक मीठ आ ने फिक्का। चाहक रंगो तेहने। तइ पर काॅफी चक-चक करैत। चाह पीवैत-पीवैत रमाकान्तक पेट भरि गेल। भरिआइल पेट बुझि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘ई तीनू गोटे- कुरसी पर बैसताह, हम ओछाइने पर पड़ब।’’ कहि उठि क’ ओछाइन पर जाय पड़ि रहलाह। पान आयल। सभ क्यो पान खेलानि। मुह मे पान सठबो नहि कायल छलनि कि जलखै करैक आग्रह भजुआक केलकनि। भजुआक आग्रह सुनि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘हम ओछाइने पर खायब। हुनका सभ केँ टेबुल पर दहुन।’’
भजुआक सभ सवांग दासो-दास रहए। जखन से चारु गोटे अयलाह तखन से भजुआक परिवार मे नव उत्साहक लहरि उमरि पड़लैक। की मरद की स्त्रीगण। जे स्त्रीगण सदिखन झगड़े मे ओझरायल रहैत छलि, सभक मुह मे हँसी छिटकैत। मनुक्खे एहि दुनियाक सबसँ पैघ कर्ता-धर्ता छी इ विचार सभक मन मे नचै लगलनि। भजुआक पोती, जेकर मात्रिक दरभंगा छियै आ ओतै बेसी काल रहबो करैत अछि, हाइ स्कूल मे पढ़बो करैत अछि, ओकर संस्कार आ काज करैक ढंग देखि सुबुध आ हीरानन्द आखियेक इषारा मे गप करै लगलथि। आँखिऐक इषारा मे सुवुध कहलखिन- ‘‘जँ मनुख केँ नीक वातावरण भेटइ त ओ किछु सँ किछु कए सकैत अछि। चाहे ओकर जनम केहनो गिरल परिवार मे किएक ने भेलि होय।’’
सुवुधक बात सुनि हीरानन्द कहलखिन- ‘‘इ सब ढोंग छी जे लोक कहैत अछि जे पूर्व जनमक कर्मक फल लोक एहि जनम मे पबैत अछि। हँ, जँ एकरा एहि रुपे मानल जाय जे एहि जनमक पूर्व पक्ष पर पछातिक जिनगी निर्भर करैत अछि, त एक तरहक विचार होय। देखियौ जे यैह बच्चिया (भजुआक पोती, कुषेसरी) अछि कते व्यवहारिक अछि। अही परिवार मे त एकरो जनम भेल छैक मुदा अगुआयल इलाका आ अगुआयल परिवार मे रहने कते अगुआइल अछि। की पैघ घरक बेटी सँ कम अछि।’’
चूड़ा, दही, चिन्नी, केरा, अचार, डलना तरकारीक संग पाँच टा मिठाई सेहो जलखै मे छल। चारु गोटे भरि मन खेलनि। खेलाक बाद अस-बीस करै लगलथि। हाथ धोय रमाकान्त बिछाने पर ओंघरा गेलाह। मुदा गप-सप करै दुआरे सुवुधो आ हीरानन्दो कुरसिये पर बैसल रहलाह। सभ सवांग भज्जु जलखै कए सरिआती जेँका, बैसल रहए। सुबुध पूछलखिन- ‘‘जखन एते समांग छह तखन माल-जाल किअए ने पोसने छह?’’
नवो समांग मे झोलिया सबसँ होषगर। अपनो सभ समांग झोलिया केँ गारजन बुझैत। सुवुधक सवालक उत्तर झोलिया देमए लगलनि- ‘‘मास्सैब, अखन धरि हमरा सभहक परिवार मे सुगर पोसल जाइत रहल अछि। मुदा सुग्गर सिर्फ खाइक जानवर छी। आन काज त ओकरा से होइ नहि छैक। ने हर जोतल जाइ छैक। आ ने दूध होइ छै। छोट जानवरक दुआरे गाड़ियो नहिये जोतल जेतैक। जकरा नूनो-रोटी नहि भेटै छै ओ माउस कत्त’ स खायत। तइयो हम सभ पोसै छी। अप्पन पोसल रहै अए तेँ पावनि-तिहार मे कहियो-काल खाइयो लइ छी। खेनिहारक कमी दुआरे नेपाल जा-जा बेचै छलौ। नेपाल मे अपना ऐठाम से बेसी लोक खायत अछि। किऐक त सुगरक माउस खस्सी बकरी से बेसी गरम होइ छै। अपना ऐठामक जलवायु सेहो गरम आछि। तेँ सुग्गर मुख्यतः ठंढ़ इलाकाक खाद्य थिक। मुदा तइयो सुग्गरो पोसै छलौ, किऐक त गाय-महीसि जँ पोसबो करितहुँ ते हमरा सभहक दूध के कीनैत?’’
झोलियाक बात सुनि सुबुध पूछलखिन- ‘‘सेहो ते ने देखै छिअह?’’
झोलिया- ‘‘पहिने जेरक-जेर सुग्गर रहै छलै। पोसैइयो मे असान होयत छलए। एक्के गोटे केँ बरदेला से सय-पचास सुग्गर पला जाइत छल। भोरे किछु खा केँ सुग्गर केँ खोबहारि सेँ निकालि चरवै ले चलि जाइत छल। घर पर खुअबै-पिअबैक कोनो जरुरत नहि। साल भरि पोसै छलौ आ एक बेरि (सालमे) नेपाल लए जाय केँ बेचि लइ छलौ। परुँका साल डेढ़ सय सुग्गर लए क’ बाउओ आ कक्को नेपाल गेल। ओइठिन एकटा मंगलक हाट लगै छै। जहि हाट मे सबसे बेसी सुग्गर बिकै छै। बड़का-बड़का पैकार सभ ओहि हाट मे रहैत अछि। हाटक एक भाग मे हमरो सुग्गर छल। एक भाग बौ वैसल आ दोसर भाग कक्का। एकटा पैकार पान-सात गोरेक संग आयल। दाम-दीगर हुअए लगलै। दाम पटि गेलै। सब सुग्गर केँ गिनती कए, एकटा पैकार रहल आ वाकी गोरे सुग्गर हाँकि के विदा भेल। ओ पैकार हमरा बाउओ आ कक्को केँ कहलक जे चलू पहिने किछु खा-पी लिअ। हमरो बड़ भुख लागल अछि। एकटा दोकान मे तीनू गोटे गेल। जलखै करै लगल। जलखै मे किछु मिला देने छेलै। खाइते-खाइते दुनू गोरे केँ निसां लगि गेलै। लटुआ केँ दुनू गोरे दोकाने मे खसि पड़ल। तहि बीच की भेलइ से बुझबे ने केलक। दोसर दिन निन्न टुटलै ते ने ओ पैकार आ ने दोकान। किएक ते दोकान हाटे-हाटे लगैत रहए। दुनू भाय कनैत-खिजैत विदा भेल। ने संग मे एकोटा पाइ आ ने खाइक कोनो वस्तु। भूखे लहालोट होइत, कहुना-कहुना के डगमारा आयल। डगमारा अबैत-अबैत दुनू भाय वेहोष भए गेल। डगमारा मे हम्मर एकटा कुटुम अछि। दुनू भायक दषा देखि ओ कुटुम गुम्म भए गेलाह। किछु फुरवे नहि करनि। बड़ी कालक बाद दुनू भाय केँ होष भेलै। होष अबितहि दुनू भाय पानि पीबि जखन कने मन नीक भेलै ते नहायल। नहा क’ खेलक। खा के सुतल। सुति क’ उठला बाद आरो मन नीक भेलइ। दू दिन औतै रहल। तेसर दिन गाम आयल। ओहि दिन से सुगर उपटि गेल।’’
सुवुध- ‘‘अपना घर मे रुपैआ-पैसा नहि अछि?’’
झोलिया- ‘‘थोड़बे रुपैआ अछि जे बाबा वाउ के देने रहै आ कहने रहै जे जब हम मरब ते अइ रुपैआ से भोज करिहें। रुपैआ गनल नै अछि। बाँसक चोंगा मे, सुगरक खोवहारी मे राखल अछि।’’
हलचला क’ रमाकान्त कहलखिन- ‘‘नेने आवह ते। देखियैक कते रुपैआ छह?’’
सातो चोंगा रुपैआ भजुआ सुगरक खोबहारी सँ निकालि रमाकान्तक आगू मे रखि देलकनि। फोंकगरहा बाँसक पोरक चोंगा। एक भाग गिरहे स बन्न आ दोसर भाग मे कसि क’ लत्ता कोंचने। सातो चोंगाक लत्ता निकालि रमाकान्त आगू मे रुपैआ निकालि-निकालि रखलक। एकटा रुपैआ उठा रमाकान्त निङहारि केँ देखलनि ते चानीक रुपैआ रहै। रुपैआक ढेरी पर सबहक आखि रहनि। जे जत्ते रहति से तत्ते सँ रुपैआ पर आखि गड़ौने रहति। रमाकान्त हीरानन्द केँ कहलखिन- ‘‘मास्सैव, एहि रुपैआ केँ गनियौ ते।’’
कुरसी पर सँ उठि हीरानन्द रुपैआ लग आबि गनै लगलाह। सातो चोंगा मे सात सौ चानीक रुपैआ। सात सौ चानीक रुपैआ सुनि सुवुध मने-मन हिसाब जोड़ै लगलाह जे एक रुपैआक कीमत पचहत्तरि रुपैआ होयत अछि। एक सौ से पचहत्तरि सौ होएत। सात सौ से बाबन हजार पाँच सौ हैत। अगर एक जोड़ बड़द कीनत ते पाँच हजार लगतै। एकटा बोरिंग-दमकल लेत ते पनरह हजार मे भए जेतइ। जँ तीन नम्बर ईंटा ल ओकरा गिलेबा पर जोड़ि, उपर मे ऐसवेसट्स दए सात कोठरीक घर बनाओत ते पच्चीस-तीस हजार मे भए जेतइ। अपनो सभ सवांग कमाइते अछि आ सात बीघा खेतोक उपजा हेतइ। साले भरि मे बढ़िया किसान परिवार बनि जायत। जे अछैते पूँजीये लल्ल अछि। सब कथूक दिक्कत छैक। विचित्र स्थिति सुबुधक मन मे उठि गेलनि। एक नजरि स देखथि ते खुषहाल परिवार बुझि आ दोसर दिस देखथि ते ने रहै ले घर ने खाइ-पीवैक समुचित उपाय। मुदा एकटा गुण भजुआक परिवार मे सुवुध जरुर देखलनि जे आन गामक डोम जेँका ताड़ी-दारुक चलनि परिवार मे नहि छैक। सिर्फ वुझैक आ वुझबैक जरुरत परिवार मे छैक। नमहर साँस छोड़ैत सुवुध भजुओ आ भजुआक सभ सवांगो केँ कहै लगलखिन- ‘‘भजु भाइ, हम सभ समाज केँ हँसैत देखै चाहै छी, कनैत नहि। तेँ ककरो अधला होय से नहि सोचै छी। सभकेँ नीक होय, सभहक परिवार हँसी-खुषी स चलैत रहए। सबहक बेटा-बेटी पढ़ै-लिखै, रहैक नीक घर होय, दबाइ-दारु दुआरे कियो मरै नहि, तेँ हम कहब जे एहि रुपैआ के रास्ता सँ खर्च करु। ओना बाबू श्राद्धक भोज ले कहने छथि, सेहो थोड़थार कए लेब जैँ एत्ते दिन नहि केलहुँ ते किछु दिन आरो टारु। पहिने घर, बड़द आ बोरिंग गरा लिअ तखन जे उपजा बाड़ी हैत ते भोजो कए लेब।’’
सुबुधक विचार केँ समर्थन करैत रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बड़ सुन्दर बिचार सुवुध देलखुन भज्जु। जिनगी केँ वुझह जे जिनगी ककरा कहै छै आ कोना बनतैक। से जा धरि नहि सिखबह ता धरि एहिना बौआयत रहि जेबह।’’
भजुआ त चुप्पे रहल मुदा झोलिया टपाक दे बाजल- ‘‘बावा जे कहलनि ओ गिरह बान्हि लेलौ। अहाँ सभ हमरो छोट भाय बुझू। जाबे हम्मर परिवार रहत आ हम सभ रहब ताबे अहाँ सबहक संगे-संग चलैत रहब।’’
झोलियाक विचार सुनि हीरानन्द खुषी सँ झूमि उठलाह। हँसैत कहलखिन- ‘‘भज्जुभाइ, अहाँ त आब बुढ़ भेलहु तेँ नवका काज दिस नजरि नहि ढुकत मुदा बेटा-भातीज सभ जुआन अछि, नव काज दिस बढ़ै दिऔक। जाधरि लोक, समयक हिसाब सँ नब काज दिषि नहि बढ़त ताधरि समयक संग नहि चलि पाओत। बाइढ़िक पानि जेँका समय आगू बढ़ैत जायत आ खढ़-पात जेँका मनुक्ख अरड़ा लगल रहत। तेँ, समय क’ पकड़ि के चलैक कोषिष करह। आब अपनो सभ भाय मिला केँ, सात बीघा खेत भेलह। सात बीघा खेतवला बढ़ियाँ गिरहस्त तखने बनि सकैत अछि जखन कि खेती करैक सब जोगार कए लिअए। पानिक बिना जजात नहि उपजि सकै अए। तहिना बड़दोक जरुरी अछि। खेतक महत्व त तखने हएत जखन कि ओकरा उपजबैक सभ जोगार कए लेब। बहुत रास रुपैआ अछि ओहि रुपैआक उपयोग जिनगीक लेल करु।’’
गप-सप चलिते छल कि हहाइल-फुहाइल डाॅक्टर महेन्द्र आ वौएलाल पहुँच गेलाह।
महंथ जेँका रमाकान्त ओछाइन पर पँजरा तर मे सिरमा देने पड़ल छलाह। महेन्द्र केँ देखितहि सभ अचंभित भए गेलाह। महेन्द्र आ बौएलाल सोझे रमाकान्त लग पहुँच गोड़ लगलकनि। महेन्द्र केँ असिरवाद दैत रमाकान्त कहलखिन- ‘‘एहिठाम किऐक ऐलह। कनिये कालक बाद त हमहूँ सभ ऐबे करितहुँ। गाड़ीक झमारल छह, पहिने नहैतह, खैइतह अराम करितह। हम कि कतौ पड़ायल जाइ छलौ जे भेटि नहि होइतिहह।’’
महेन्द्र डाॅक्टरक नजरि सँ चुपचाप पिता केँ देखैत छलाह। पिता केँ देखि मने-मन अपसोच करैत रहति जे गलती समाचार पहुँचल। मुदा किछु बजैत नह छलाह। तहि बीच भजुआ झोलिया केँ कहलक- ‘‘बौआ, पहिने दुनू गोरे के खुआवह।’’
महेन्द्रो आ वौएलालो केँ खुअबैक ओरियान झोलिया करै लगल। ओरिआन त रहबे करै। लगले परसि देनू गोटे केँ खुऔलनि। दुनू गोटे खा केँ घर दिस विदा भेला। पाछू से कुषेसरी महेन्द्र केँ सोर पाड़ि कहलकनि- ‘‘चाचाजी, पान-सुपारी लए लिअ।’’
कुषेसरीक आवाज सुनि दुनू गोटे रस्ते पर ठाढ़ भए गेला। झटकि क’ कुषेसरी, तस्तरी मे पान-सुपारी नेने, लग मे पहुँचलि। लग मे पहुँच अपने हाथे पान सुपारी नहि दए तस्तरिये महेन्द्रक आगू मे बढ़ौलकनि। पान सुपारी देखि महेन्द्र कहलखिन- ‘‘बुच्ची, हम त पान नहि खाइ छी। अगर घर मे इलायची आ सिगरेट हुअ ते नेने आबह।’’
कुषेसरी चोट्टे घुरि क’ आंगन आइलि। आंगन आबि सिगरेटक पौकेट, सलाई आ इलायची नेने पहुँचली। उत्तरमुहे घुरि महेन्द्र ओरिया केँ सिगरेट लगौलनि जे कही पिताजी ने देखि लथि। दुनू गोटे गप-सप करैत विदा भेला। कुषेसरी केँ देखि महेन्द्र अचंभित नहि भेलाह किएक त मिथिलाक गामक लेल कुषेसरी अचंभित लड़की भए सकैत छलीह। मुदा मद्रासक लेल नहि। कुषेसरी सन-सन ढेरो (पछुआइल जाति मे) लड़की अछि।
महेन्द्र केँ गाम सेँ एकटा गुमनाम पत्र गेल रहनि। ओहि मे लिखल छलैक जे पिताजी बताह भ गेल छथि। अन्ट-सन्ट काज गाम मे कए रहल छथि। तेँ समय रहैत हुनका इलाज नहि करेबनि ते निच्छछ पागल भए जेताह। पत्र देखितहि महेन्द्र घर अबैक विचार केलनि। भाय रबिन्द्र सँ विचारि लेव जरुरी बुझि महेन्द्र एक दिन रुकि गेलाह। दोसर दिन सुजाता (महेन्द्रक भावो) महेन्द्र, वौएलाल आ सुमित्रा, चारु गोटे गाड़ी पकड़ि गाम विदा भेलाह।
गाम अबितहि महेन्द्र पिता केँ नहि देखि मने-मन आरो सषंकित भए गेलाह। माए केँ पिताक संबंध मे पुछलनि। माए केँ सिर्फ एतबे पूछलनि जे ‘बाबू कते छथि?’ माए कहलखिन। एटैची रखि महेन्द्र वौएलालक संग सोझे भजुआ ऐठाम चललाह। डाॅ. सुजाता घरे पर रहि गेलीह। सासु, ऐहिठामक परम्परा केँ वुझबैत मनाही कए देलखिन।
चारि बजि गेल। खेबाक इच्छा ने रमाकान्त केँ आ ने आरो किनको रहनि। भानस भ गेलै। जते विलम्ब होयत ओते वस्तु सुआदहीन बनत। तेँ भजुआ चाहैत छल जे गरम-गरम भोजन सभकियो करथि। मुदा भूख नहि रहने चारु गोटे टाल-मटोल करैत रहथि। असमंजस करैत भजुआ रमाकान्त केँ कहलकनि- ‘‘कक्का, भानस भए गेल अछि। जैह मन माने सइह......।’’
ढकार करैत रमाकान्त उत्तर देलखिन- ‘‘जखन भोजन बना लेलह ते नहि खाएब त मुहो छुताइये लेब। मुदा सच पूछह ते एक्को रत्ती खाइक मन नहि होइत अछि।’’
‘‘सैह करबै’’ -भजुआ कहलकनि।
चारु गोटे उठि केँ आंगन गेलाह। सौंसे आंगन चिक्कनि माटि स टटके नीपल, तेँ माटिक सुगंध स अंगना महमह करैत। आंगन त छोटे, मुदा बेसी लोकक दुआरे पैघ बुझि पड़ैत रहए। कम्मल चैपेत केँ बिछाओल। जना आइये कीनि के अनने हुअए तेहने थारी, लोटा, गिलास, बाटी चकचक करैत। भोजनक बिन्यास देखि रमाकान्त क्षुब्ध भए गेलाह। की पवित्रता, की सुआद। मने-मन रमाकान्त सोचति जे अगर खूब भूख लागल रहैत त खूब खइतहुँ। मुदा भूखे ने अछि ते की खाएब।’’
भोजन क’ चारु गोटे विदा हुअए लगलाह। विदा होइ स पहिनहि झोलिया रंगल चंगेरा मे चारि जोड़ धोती आनि चारु गोटेक आगू मे रखि देलकनि। धोती देखि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘झोली, तू सब गरीब छह। अपने ले घोती रखि लाय। तू पहिरौलह हम पहीरिलहुँ। भए गेलैक।’’
मौलाइल गाछक फुल:ः 12
मद्रास मे महेन्द्र चारि बजे उठि अपन जिनगी लीला मे लगि जाइत छथि। मुदा गाम मे चारि बजे भोर मे महेन्द्र केँ कड़गर निन्न पकड़ने रहनि। एना किअए भेल? उठलाक उपरान्त महेन्द्र सोचै लगलथि। की एहिठामक (मिथिलाक) माटि, पानि, हवाक गुण छैक वा काजक कम एबाव रहने ऐना भेल। रमाकान्त सुति उठि क’ महेन्द्रक कोठरी मे जा देखलनि ते देखलखिन जे ओ ठर्र पाड़ैत घोर नीन मे सुतल अछि। नहि उठौलखिन। मन मे एलनि जे बापक राज मे बेटा एहिना निष्चिन्त भए रहैत अछि। अपने लोटा लए कलम दिषि विदा भेलाह। टहलि-बूलि, दिषा-मैदान सँ होइत अपन घरक रास्ता छोड़ि टोलक रास्ता पकड़ि घुमलाह। टोल मे प्रवेष करितहि, रस्ता कातेक चापाकल पर मुह-हाथ धुअए लगलथि। कलक बगले मे मंगलक घर। रमाकान्त केँ मंगल देखि चुपचाप अंगना से बेंतवला कुरसी आ टेबुल, आनि डेढ़िया पर लगौलक। मुह-हाथ धोय रमाकान्त अपना घर दिस चललाह। रास्ता कटैत देखि मंगल कहलकनि- ‘‘काका, कने एक रत्ती अहूठाम बैसियौ।’’
मंगलक बात केँ कटलनि नहि, मुस्कुराइत आबि कुरसी पर बैसि गेलाह। कुरसी पर बैसि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बड़ सुन्नर कुरसी छह। कहिया बनौलह?’’
- ‘‘आठम दिन छैाँड़ा दिल्ली से आयल। वैह अनलक।’’
मंगलक बेटा रविया, अंगना मे चाह बनबैत रहए। चाह बना, तस्तरी मे बिस्कुट नमकीन भुजिया आ चाहक गिलास नेने अबि रमाकान्तक आगू मे टेबुल पर रखि, गोड़ लागि, कहलकनि- ‘‘बाबा, कने चाह पीबि लिऔ।’’
रवियाक बात सुनि रमाकान्त सोचै लगलाह जे यैह मंगला छी जे बिहाड़ि मे जखन घर उधिया गेल रहै ते सात दिन अपनो सबतुर केँ आ मालो-जाल केँ अपना मालक घर मे रहै ले देने रहियै। आइ वैह मंगला छी जे केहेन सुन्दर घरो बना लेलक आ कुरसियो टेबुल कीनि लेलक हेँ। मुस्की दैत पूछलखिन- ‘‘बेटा कते नोकरी करै छह मंगल?’’
‘‘दिल्ली मे, कक्का। बड़बढ़िया अए।’’
रमाकान्त भुजिया, विस्कुट खाय पानि पीबि चाह पीबति रहथि कि तहि बीच रविया आंगन जाय एकटा पौकेट रेडियो (जर्मनीक बनल) नेने आबि रमाकान्तक आगू मे रखैत कहलकनि- ‘‘बाबा, इ अहीं ले अनलहुँ हेन।’’
रेडियो देखि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘अइ सबहक सख आब एहि बुढ़ाढ़ी मे की करब। रखि ले। तू सभ अखन जुआन-जहान छैँ, छजतौ। हम लए क’ की करब। दहिना हाथ से रेडियो आ बामा हाथे रमाकान्तक गट्टा पकड़ि हाथ मे दैत रविया कहलकनि- ‘‘बाबा, अहीं ले कीनने आयल छी।’’
चाह पीबि, कुरसी पर सँ उठि रमाकान्त घर दिसक रास्ता पकड़लनि। आगू-आगू रमाकान्त पाछू-पाछू मंगल हाथ मे रेडियो नेने। एक बाँस सुरुज उपर उठि गेल। महेन्द्र, ओसार पर वैसि, दतमनि (ब्रस) करैत रहति। पान-सात टा बच्चिया माथ पर पथिया आ हाथ मे लोटा नेने पहुँचल।
महेन्द्र ब्रषो करैत रहति आ चुपचाप ओकरा सभकेँ देखवो करैत रहति। लोटा पथिया ओसार पर रखि, एकटा बच्चिया महेन्द्र केँ पूछलकनि- ‘‘बाबा कहाँ छथिन?’’
बच्चियाक प्रष्नक उत्तर महेन्द्र नहि देलखिन किऐक त नहि बुझल रहनि। सभक पथिया आ लोटा के निङहारि-निङहारि महेन्द्र देखै लगलथि। कोनो पथिया मे कोबी कोनो मे टमाटर, कोनो मे करैला त कोनो मे भट्टा रहैक। लोटा मे दूध रहै। दूध आ तरकारी देखि महेन्द्र सोचै लगलाह जे इ की देखि रहल छी। किअए इ सभ ऐठाम अनलक हेँ। गुन-धुन करै लगलाह। मुदा कोनो अर्थे ने लगैत छलनि। मन घुरिआइत छलनि। कनी कालक बाद पूछलखिन- ‘‘बौआ, इ सब किअए अनलह?’’
एकटा ढेरबा बच्चिया, जे बजै मे चड़फड़, कहलकनि- ‘‘बाबा अप्पन सब खेत हमरे सब केँ दए देलखिन। अपना ले किछु ने रखलखिन ते खेथिन की?’’
बच्चियाक बात सुनि महेन्द्र गुम्म भए गेलाह। सोचै लगलथि जे हम बेटा छिअनि। हुनकर चिन्ता हमरा हेबाक चाही। सुआइत कहल गेल अछि जे ‘जेहेन करब तेहेन पायब।’ मुह पर हाथ नेने महेन्द्र सोचैत जे अनेरे लोक अप्पन आ दोसर बुझैत अछि। जकरा ले करबै, ओ अहूँ ले करत। चाहे अपन हुअए वा आन। सोचितहि रहति कि पिताजी केँ अवैत देखलनि। पिता केँ देखितहि उठि क’ कुड़ुड़ करै गेलाह। रमाकान्त पर नजरि पड़ितहि सब बच्चिया ओसार पर स उठि गोड़ लगै लगलनि। आगू बढ़ि रमाकान्त लोटा मे दूध आ पथिया मे तरकारी देखलखिन। तरकारी देखि कहलखिन- ‘‘बच्चा, एत्ते किअए अनलह? अच्छा जदी आनिये लेलह। ते आंगन मे रखि आबह।’’
सब बच्चिया अपन-अपन पथिया, लोटा लए जाय केँ आंगन मे रखि आइलि।
महेन्द्र केँ अबैक जानकारी गाम मे सबकेँ भए गेलनि। एका-एकी लोक आबि-आबि अपन-अपन रोगक इलाज करबै चाहलक। मुदा महेन्द्र त नियारि केँ नहि आयल छलाह जेँ ने जाँच करैक कोनो यंत्र अनने रहति आ ने दवाई। मुदा तइयो वौएलाल आ सुमित्रा केँ बजा अनै ले जुगेसर केँ कहलखिन। जुगेसर वौएलाल केँ बजवै गेल। जते जाँच-पड़ताल करैक यंत्र, औजार (चीड़-फाड़ करैक) वौएलाल आ सुमित्रा केँ कीनि देने रहथिन ओ सब सामान नेने दुनू गोटे पहुँचल। वौएलाल महेन्द्र लग बैसल आ सुमित्रा सुजाताक संग दरबज्जाक पाछूक ओसार पर बैसलि। जनिजाति सुजाता लग जाँच करवै जाय लगलीह आ पुरुख महेनद्र लग। चारिये-पाँच गोटे केँ महेन्द्र जाँच केलनि कि चारि-पाँच टा रोगी खाट पर टांगल अबैत देखलखिन। ओ सभ दोसर गामक छलैक। खाट देखि महेन्द्र के भेलनि जे भरिसक हैजा-तैजा भए गेलैक। ओसार पर स उठि महेन्द्रो आ वौएलालो निच्चा मे ठाढ़ भए गेलाह। खाटोवला आबि गेल। सभ कुहरैत रहए। ककरो कपार फुटल त ककरो डेन टूटल। ककरो मारिक चोट से देह फुलल। अपना लग कोनो दवाई महेन्द्र के नहि रहनि। हाँइ-हाँइ के वौएलाल केँ, बैनडेजक सब सब समान आ दबाईक पुरजी बना, बजार से जल्दी अनै ले कहलखिन। साइकिल से बौएलाल खूब रेस मे विदा भेल।
रमाकान्त रोगी लग आबि, एकटा खाट उठौनिहार केँ पूछलखिन- ‘‘कोना कपार फुटलै?’’
डर स कपैत ओ कहलकनि- ‘‘मारि स कपार फूटलै।’’
सुनितहि रमाकान्त महेन्द्र केँ कहलखिन- ‘‘बौआ, सभहक इलाज नीक जेँका कए दहुन।’’ कहि ओसार पर पर विछाओल बिछान पर बैसि, खाट उठौनिहार सभकेँ सोर पाड़लखिन। सभ केयो लग मे आबि बैसल। पूछलखिन- ‘‘मारि कखैन भेलह?’’
‘‘खाइ-पीबै राईत मे।’’
‘‘तब ते खेनहुँ-पीनहुँ नहि हेबह?’’
‘नै’
जुगेसर केँ कहलखिन- ‘‘पहिने सभकेँ खुआबह।’’
पनरह-बीस गोटेक जलखै त घर मे छलनि नहि। जुगेसर सुमित्रा केँ सोर पाड़ि कहलक- ‘‘बुच्ची, काकी त बूढ़े छथि, डाॅ. साहेव (सुजाता) अनभुआरे छथि। झब दे बड़का बरतन चढ़ा के खिचड़ी बना। बेचारा सभ रौतुके भुखल अछि। हम सब समान जोड़िया दइ छियौ। तोरो सब कुछ बुझल नइ छौ।’’
जहिना जुगेसर सुमित्रा केँ कहलक तहिना सुमित्रो भानस मे जुटि गेलि। सुजाता सेहो लगि गेलीह।
जहिना वौएलाल निछोह साइकिल हाँकि बजार गेल तहिना लगले सब समान कीनि आबियो गेल। वौएलाल केँ अबितहि महेन्द्रो आ वौएलालो सभ रोगी केँ दरदक सूइयाँ देलखिन। सूई पड़ितहि, कनिये कालक उपरान्त, सभ कुहड़ब बन्न केलक। खिचैड़, तरकारी बना सुजातो आ सुमित्रो रोगी लग अएलीह। मन शान्त होइतहि सभहक खून लगलाहा कपड़ा बदलि, खिचैड़ खुआ, इलाज शुरु भेल। तीन गोटे केँ कपार फुटल रहै आ दू गोटे केँ डेन टूटल रहैक। सुजाता आ सुमित्रा दुनू गोटे केँ पलास्टर करै लगली। महेन्द्र कपार मे स्टीच करैत रहति। वौएलाल दौड़-बड़हा मे लागल रहै। कखनो किछु अनैत त कखनो किछु।
दू घंटाक बाद सभ चैन भेल।
रमाकान्त पूछलखिन- ‘‘मारि किअए भेलह?’’
नोर पोछैत जोखन कहै लगलनि- ‘‘मकषूदनक बेटी सितिया भाँटा बेचै हाट गेल रहै। सत्तरह-अठारह बर्खक उमेर हेतइ। नमगर कद। दोहरा देह। चाकर मुह। गोल आखि ओकर छैक। परुँके साल दुरागमन भेल छलै। ओना हाट ओकर माय करै छै, मुदा पान-सात दिन से ओ दुखित अछि। डेढ़ कट्ठा खेत मे भाँटा केने अछि। खूब सहजोर फड़लो छै। भाँटा के जुआइ दुआरे सितिया छाँटि-छाँटि क’ नमहरका भाँटा तोड़ि लेलक। एक छिट्टा भेलई। भट्टो के बेचिनाइ आ दवाइयो (माए ले) कीनिनाइ जरुरी छलै। दवाइक पुरजी साड़ीक खूँट मे बान्हि लेलक जे घुमै काल मे दवाई कीनने आयव। हाट मे भट्टा बेचि, दोकान मे दवाई कीनि, असकरे विदा भेलि। गोसाई डूबि गेलै। खूब अन्हार ते नै मुदा झलफल भ’ गेल छलै। धीरे-धीरे रस्तो चलनिहार पतरा लगल छलै। हाट गेनिहार ते साफे बन्न भए गेल छलै। मगर हाट से घुरनिहार गोटे-गोटे रहबे करए। पाँतर मे जखन सितिया आइलि त पाछू से ललबा आ गुलेतिया सेहो साइकिल से अबैत छल। गुलेतिया ललबाक नोकर। ललबा बापक असकर बेटा। बीस-पच्चीस बीघा खेत छै। बच्चे स ललबा बहसल। दुनू गोरे दारु पीने रहै। अन्ट-सन्ट बजैत घर दिस अबैत रहै। सितियाक लग मे, जखन दुनू गोटे, आयल त ललबा बाजल- ‘‘गुलेती, षिकार फँसलौ।’’ ललबाक बात सुनियो के सितिया किछु नहि बाललि। मुदा मन मे आगि सुनगै लगलैक। आरो डेग नमहर केलक। आगू बढ़ि ललबा साइकिल स उतरि, रस्ता केँ घेरि साइकिल ठाढ़ कए देलकै। साइकिल ठाढ़ क’ जेबी से सिगरेट आ सलाई निकालि, लगा, पीबै लगल। सितियाक मन मे शंका भेल, मुदा डरायल नहि। साइकिल लग आबि रस्ताक बगल देने आगू टपि गेलि। आगू मे ललबो आ गुलेतियो ठाढ़ भए सिगरेटो पीबैत आ चढ़ा-उतरीक गप्पो-सप करैत। मुह मे सिगरेट रखि ललबा सय रुपैआ नोट उपरका जीबी मे निकलि सितिया दिषि बढ़ौलक। रुपैआ देखि सितिया देह आगि स लह-लह करै लागलि। मुदा ने किछु बाजलि आ ने रुकल। लफड़ल आगू बढ़ैत रहलि। सितिया केँ आगू बढ़ैत देखि ललबो पाछू से हाथ मे रुपैआ नेने बढ़ल। दुनू गोटे केँ पछुआबैत देखि सितिया ठाढ़ भए गेलि। माथ परक छिट्टा केँ दहिना हाथे आरो कसिया क’ पकड़ि सोचलक जे छिट्टे से दुनू केँ चानि पर मारव। तामसे भीतरे-भीतरे जरितहि छलि। ललबा दहिना हाथे नोट सितिया दिस बढ़ौलक। लग मे ललबा केँ देखि, मौका पाबि, सितिया तना क’ रुपैआ पर थूक फेकलक जे रुपैआ पर कम्मे, मुदा ललबाक मुह पर बेसी पड़लै। मुह पर थूक पड़ितहि ललबा सितियाक बाँहि पकड़ि खिंचै चाहलक। पहिनहि स सितिया छिट्टा के पकड़ि अजमौनहि रहै। धाय-धाय दू छिट्टा ललबा केँ दए देलक। दुनू गोटे दुनू बाँहि पकड़ि सितिया केँ खींचिलक। छिट्टा नेनहि सितिया रस्ताक निच्चा खेत मे खसि पड़लि। खेत मे खसितहि जोष क’ केँ उठि दहिना तरहत्थीक मुक्का बान्हि, मुक्को आ दहिना पाएरो अनधुन चलबै लागलि। मारिक डर से गुलेतिया कात भए गेल। मुदा ललबा नहि मानलक। ओहो अनधुन मुक्का चलवै लगल। गुलेतिया केँ कात मे देखि सितियोक जोष बढ़लै। ललबा दारु पीनहि रहै, तिलमिला क’ खसल। जहाँ ललबा खसल कि सितिया ऐँड़-ऐँड़ मारै लागलि। तहि-बीच हाट से तरकारी बेचिनिहारिक जेर अबैत रहै। तरकारी बेचिनिहारिक चाल-चुल पाबि सितियाक जोष आरो बढ़ि गेलै। एक त समरथाइक शक्ति सितियाक देह मे, दोसर इज्जत बँचवैक प्रष्न, बाघ जेँका सितिया मारि क’ ललबा केँ वेहोष कए देलक। तरकारियो बेचिनिहारि लग मे आबि गेलीह। सितियाक काली रुप देखि हसीना पूछलकै- ‘‘बहीनि, की भेलौ?’’
सितिया बाजलि- ‘‘अखैन किछु ने पूछ। अइ छुतहर के खून पीबि लेबई।’’ बजबो करैत आ अनधुन ऐँड़ो देह पर वरिसवैत छलि। चारि गोरे सितिया केँ पकड़ि कात करै चाहलनि। मुदा चारु केँ झमारि सितिया पुनः आबि क’ दस लात ललबा केँ फेरि मारलक। फेरि चारु गोरे हसीना, जलेखा, रेहना आ खातून घेरि सितिया केँ पँजिया क’ पकड़ि घिचने-तिरने विदा भेलि। अबैत-अबैत जखन गामक कात आयल कि सितिया फेरि चारु गोरे केँ झमारि, अपन डेन छोड़ा फेरि ललबा केँ मारै दौड़लि। मुदा रेहना आ खातून दौड़ि सितिया केँ आगू से घेड़िलक। हसीना आ जलेखा सेहो दौड़ि क’ आबि पकड़लक। सितियाक मन क्रोध सँ बमकैत रहै। मन मे होय जे ललबाक खून पीने बिना नहि छोड़बै। चाहे फाँसी पर किअए ने चढ़ पड़ए। चारु गोटे सितिया केँ पकड़ने घर पर पहुँचलनि।
सौँसे गाम घटनाक समाचार बिहाड़ि जेँका पसरि गेल। गाम डोल-माल करै लगल। तनावक वातावरण बनै लगलैक। राति भारी हुअए लगलैक। गामक बुढ़बा चोट्टा स लए केँ नवका चोट्टा धरिक चलती बढ़ि गेल। तहि बीच चारि गोटे ललवा केँ खाट पर टाँगि सेहो अनलक। ललवाक बेहोषी त टूटि गेलै मुदा कुहरनी धेनहि रहलैक। ललबाक पितिऔत भाय डाॅक्टर बजा ललवाक इलाज करबै लगल। स्लाइन लगा डाॅक्टर बगल मे बैसि पानिक गति देखैत रहए। दोसर भाय (ललबाक पितिऔत) गाम मे लाठी संगोर करै लगल। जते गामक मुहगर-कन्हगर लोक सभ छल ललबाक पक्ष लेलक। ललबाक बाप बाजल- ‘‘जखैन इज्जत चलिये गेल ते समपैते रखि के की करब।’’
‘दुर्गा-महरानी की जय’ कहि पनरह-बीस टा गामक हुड़दंगहा लाठी लए सितिया ऐठाम विदा भेल। रस्तो मे जय-जय कार सभ करैत रहए।
मकषूदनक टोल मात्र बारह परिवारक। गरीब घरक टोल तेँ समांगो सभ मरदुआरे। मुदा तइयो जते पुरुख रहै लाठी लए-लए गोलिया केँ वैसि विचारलक जे इज्जतक खातिर मरि जायब धरम छी। तेँ जे हेतई से हेतई मुदा पाछू नै हटब। दोसर दिस टोलक सभ जनिजाति सेहो तैयार होइत निर्णय केलनि जे जाधरि पुरुख ठाढ़ रहत ताधरि अपना सभ कात मे रहब। मगर पुरुख केँ खसिते अपना सभ लाठी उठायब। एक त सितियाक देह मे आगि लगले रहै आरो धधकि गेलै। बाजलि- ‘‘जत्ते जुआन बेटी छेँ आ जुआन पुतोहू छेँ, सब अपन-अपन साड़ी क’ कसि क’ बान्हि ले। माथ मे साड़िऐक नमहर मुरेठा कसि केँ बान्हि ले, जहि स कपार नै फुटौ। बुढ़िया सभ केँ छोड़ि देही। मड़ुआ बीआ पटबैवला जे पटै घर मे छौ, से निकालि के एक ठाम कए क’ राख। आ देखैत रही जे की सब होइ छै। जहिना सभ बहीनि मिलि मरब तहिना संगे संगे सभ बहीनि जनमो लेब।’’
टोलक जते छोट बच्चा रहै, सबकेँ घरक बूढ़ि-पुरान लए-लए टोल स हटि गाछी मे चलि गेल। दोसर हँसेरी टोलक लग आबि जय-जय कार केलक। जय-जय कार सुनि सितिया केँ होय जे असकरे सबसे आगू जा हँसेरी केँ रोकी। मुदा लड़ाई मे अनुषासन आ निर्णयक महत्व बढ़ि जायत अछि। तेँ सितिया आगू नहि बढ़ि ठाढ़े रहलि। टोलक लोक, ताकत भरि, हँसैरी केँ रोकलक। अनधुन लाठी दुनू दिस स चललै। मुदा पछड़ि गेल। पाँच गोटे घायल भेल। हँसेरी घुमल नहि धन आ इज्जत लुटैक खियाल से आगू बढ़ल। अपन समांग केँ खसल आ हँसेरी केँ आगू बढ़ैत देखि मुरेठा बन्हने आगू-आगू सितिया, तहि पाछू-पाछू टोलक सभ स्त्रीगण, पटै लए हँसेरी केँ रोकलनि। की बिजलोका चमकै छैक तहिना गामक बेटी अपन चमकी देखौलनि। वार रे मिथिलाक धी। मिथिला सिर्फ कर्मभूमे आ धर्मभूमे नहि, वीरभूमि सेहो थिक। चारि आदमीक कपार असकरे सितिया ढाहलक। चारु खसलै। खूनक रेत चललै। हँसेरी मे हुड़ भेलै। सभ पाछू मुहे पड़ायल। इहो सभ भागल हँसेरीके रबाड़लनि। मुदा किछु दूर रबाड़ि घुमि गेलीह।
अप्पन सभ समांग केँ उठा-उठा सभ अनलक। मुदा दोसर दिसक लोक केँ अप्पन समांग अनैक साहसे नहि होयत छलैक। होय जे कहीं हमहूँ सभ अनै ले जाय आ हमरो सभ केँ ओहिना हुअए। तखन की हैत। बड़ी कालक बाद चोरा क’ (छिप क’) अपना समांग सभ केँ ओहो सभ लए गेल। गाम मे दुइये टा डाॅक्टर। सेहो डिग्रीधारी नहि, गमैया प्रेक्टिष्नर। दुनू ललबे ऐठाम रहए। राति मे कत्ते जायब, कोन डाॅक्टर भेटिताह आ नहि भेटिताह संगे संग दोहरा कए आक्रमणक डर सेहो रहै। सभ तत्-मत् मे पड़ल रहए। मुदा जेहो सभ घायल छल ओकरो मुह मलिन नहि छलैक। मन मे खुषी होयत रहए। तेँ दर्द केँ अंगेजने सभ रहए। इनहोर पानि कए केँ सभकेँ स्त्रीगण सभ ससारै लगलीह। कपारक फाटल जगह मे सिन्नुर दए-दए खून बन्न केलक। भरि राति कियो सुतल नहि।
रमाकान्तक नाम इलाका मे पसरल छलनि। जहाँ-तहाँ हुनके चरचा वेसीकाल चलैत रहैत। डाॅ. महेन्द्र केँ गाम अबैक जानकारी सेहो सभहक जानकारी मे छलनिहेँ।
जोखनक बात सुनि रमाकान्त बमकि उठलाह। ठाढ़ भए जोर-जोर सँ कहै लगलखिन- ‘‘जदि कियो अप्पन इज्जत-आबरु बँचावै ले हमरा कहत ते हम अप्पन सभ सम्पत्ति ओहि पाछू फुकि देब। मुदा छोड़बैक नहि। बौआ, जते तोरा हुन्नर छह तहि मे कोताही नहि करिहक। खेनाई-पीनाई, दवाई-दारु सब कथुक मदति कए दहक। फेरि एहि धरती पर जनम लेब। इ कर्मभूमि छियैक। मनुष्य किछु करैक लेल एहिठाम अबैत अछि। सिर्फ अपनहि टा नहि आनो जे कर्मनिष्ट अछि, ओकरो जहाँ धरि भए सकत मदति करबैक। जे भए गेल से भए गेल जोखन मुदा सुनि लाय जे जहिया-कहियो कोनो भीड़ पड़अ, हमरो एक बेरि खोज करिहह। जाधरि घट मे परान अछि ताधरि जरुर मदति करबह।’’
बेर टगैत चारि टा बच्चिया, खाइक लए केँ पहुँचलीह। एक कठौत भात बड़का डोल मे दालि आ छोटका डोल मे तरकारी नेने आइलि छलि। खाइ ले केराक पात आ दू टा लोटा सेहो अनने छलि। चारु बच्चिया केँ देखि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बुच्ची, खाइक किअए अनलह?’’
रमाकान्तक बात सुनि सितिया कहलकनि- ‘‘बाबा, हमरा सब के नै बुझल छलै, तेँ अनलौ।’’
‘‘अच्छा, अनलह ते सभकेँ पूछि लहुन जे खाएब कि घुरौने जाएब।’’
सितियाक संग रमाकान्त गप-सप करितहि रहति कि जोखन बाजल- ‘‘कक्का, यैह (अइह) सभ बच्चिया मारि केँ ओहि पाटी केँ भगौलक।’’
अकचकायत रमाकान्त बजलाह- ‘‘आँ-आँई; यैह सभ छी। वाह-वाह। तोरे सभ सन-सन बेटी एहि धरतीक मान रखि सकैत अछि।’’
बिहाड़ि जेँका जोखनक बात, रमाकान्तक दरबज्जा आंगन सँ लए केँ गाम धरि पसरि गेल। जे सभ मरदक हँसेरी केँ अनधुन मारबो केलक, कपारो फोरलक आ गामक सीमा धरि खेहारबो केलक। ई समाचार सुनि गामक स्त्रीगण मर्द सभ उनटि केँ ओहि बच्चियाँ सभ केँ देखै ले अबै लगल। अजीब दृष्य बनि गेल। श्यामा आंगन सँ सुमित्रा दिया समाद पठौलनि जे कने ओहि बच्चिया सभ केँ अंगना पठा दिऔ जे हमहू सभ देखब। दरवज्जा पर आबि सुमित्रा रमाकान्त केँ कहलकनि। अंगनाक समाद सुनि रमाकान्त चारु बच्चियाँ केँ कहलखिन- ‘‘बेटी, कने आंगन जाह।’’
चारु बच्चिया केँ संग केने सुमित्रा आंगन गेलि। ओसार पर ओछाइन ओछा श्यामो आ सुजातो बैसलि छलीह। आगू-आगू सुमित्रा आ पाछू-पाछू चारु बच्चियो छलि। आंगन जाय चारु बच्चियाँ दुनू गोटे (ष्यामा आ डाॅ. सुजाता) केँ गोड़ लगलकनि। एकाएकी गामक स्त्रीगण, गामक बेटी अंगने जाय-जाय सितिया सभ केँ देखै लगलीह। अपने लग मे चारु बच्चियाँ केँ श्यामा बैसौने रहति। सुजाता निङहारि-निङहारि चारु केँ उपर (माथ) स लए केँ निच्चा (पाएर) धरि देखैत छलीह अजीब शक्ति चारुक चेहरा मे बुझि पड़लनि। चारु बच्चियो आखि उठा-उठा कखनो श्यामा पर त कखनो गामक स्त्रीगण सभ पर दैत छलीह। सभहक मन मे खुषी रहितहुँ हँसी मुह सँ नहि निकलैत छलनि। जना खुषीक पाछू अदम्य उत्साह अदम्य साहस आ जोष सभहक चेहरा पर नचैत रहनि। चारुक विषेष आकर्षण, सभकेँ अपना दिषि खिंचैत छलि। जेहो (स्त्रीगण) कने हटि क’ ठाढ़ भए देखैत छलि ओहो सहटि-सहटि सितियाक लग मे अबैक चाहैत छलि। श्यामा सुमित्रा केँ कहलखिन- ‘‘सुमित्रा, ऐहेन लोक केँ आंगन मे कहिआ देखबिही। तेँ बिना किछु खेने-पीने कोना जाय देबैक।’’
श्यामाक बात सुनि सुजाता उठि केँ अपन आनल मद्रासी भुजियाक डिब्बे घर सँ उठैने अयलीह। भुजियाक डिब्वा देखि सितिया बाजलि- ‘‘बाबी, लगले खाा के विदा भेल छलौ। एको-रत्ती खाइक छुधा नै अछि।’’
तहि बीच रमाकान्त चारु गोटे केँ बजवै ले जुगेसर केँ अंगना पठौलखिन। जुगेसर अंगना आबि सबकेँ कहलक। उठिकेँ चारु गोटे श्यामा केँ गोड़ लगलनि। असिरवाद दैत श्यामा कहलखिन- ‘‘भगवान हमरो औरदा तोड़े सभकेँ देथुन, जे हँसैत-खेलैत जिनगी एहिना बिताबह।’’
चारु गोटे केँ अंगना स निकलितहि सभ विदा भेलि।
चारिक समय। रौदो गरमियो कमै लगल। महेन्द्र जोखन केँ कहलखिन- ‘‘ऐठाम रोगी सभकेँ रखैक जरुरत नहि अछि। घरे पर साँझ-भिनसर सब दिन वौएलाल जाय जाय केँ सूइयाँ दए दए आओत। गोटी सेहो लगातार चलबैत रहब। पनरह-बीस दिन मे पूरा ठीक भए जायत।’’
पाएरे सभ विदा भेल।
साँझू पहर, रमाकान्त आ जुगेसर दरबज्जा पर बैसि मद्रासेक गप-सप शुरु केलनि। मुस्की दैत जुगेसर कहलकनि- ‘‘कक्का, एक बेरि आरो मद्रास चलू।’’
नाक मारैत रमाकान्त कहलखिन- ‘‘धुः बूड़िबक। गाड़ी मे लोक मरि जाय अए। ऐठाम केहेन निचेन से रहै छी। ने गाड़ी (रेल) बसक हर-हूड़ अबाज आ ने रस्ता-पेराक ठेकान। सड़क धए कए चलू। तहू मे सदिखन लोकेक धक्का लगैत रहत। केहेन सुन्दर अपना सभहक गाम अछि जे रस्ताक कोन बात जे आड़िये धुरे खेते पथारे जते मन हुअए तते जाउ। ने गाड़ी, बसक धक्काक डर आ ने पाएर मे काँटी, शीषा गरैक। जकरा से मन हुअए तकरा से गप करु। कुषल-समाचार पूछि लिऔ। ओइठाँ ते जना मुह मे बकारे नहि रहै तहिना बौक भेल रहैत छलौ।’’
व्यंग्य करैत जुगेसर कहलकनि- ‘‘केहेन ठंढ़ा घर मे रहै छलौ। ने नहाए ले कतौ जाइ पड़ै छले आ ने पर-पैखाना ले।’’
रमाकान्त- ‘‘धुत् बूड़ि। ओइठाँ जँ दुइयो मास रहितहुँ ते कोढ़ि भए जहितहुँ। उठैइयो-बैठेइयो मे आसकतिये लगैत। सच पूछैँ ते एते दिन रहलौ ने कहियो भरि मन पानि पीलहुँ आ ने पैखाना भेल। सभ दिन जना कब्जियते बुझि पड़ैत। जखने पानि मुह लग लए जाय कि मन भटकि जाय।’’
फेरि मुस्की दैत जुगेसर कहलकनि- ‘‘अंगूरक रस पीबै मे केहेन लगैत रहै?’’
अंगूरक रस सुनि थोड़े असथिर होयत रमाकान्त कहलखिन- ‘‘लोक कहै छै जे अंगूर मे बड़ ताकत छै मुदा अपना सबहक जे केरा, आम, बेल लताम अछि ओते ताकत अंगूर मे कत्ते सँ आओत। अंगूरेक शराब बनैत अछि मुदा अपना ऐठामक भाँगक पड़तर करतैक। अंगेरिजा शराब सनसना क’ मगज पर चढ़ियो जायत अछि आ लगले उतड़ियो जायत अछि। मुदा अप्पन जे भाँग अछि ओ रईसी नषा छी। ने अपराध करै ले सनकी चढ़ौत आ ने एको मिसिया चिन्ता अबै देत अछि।’’
रमाकान्त आ जुगेसरक गप-सप सुजातो अढ़ स सुनैत रहति। दुनू गोटेक गप्पो सुनैत आ मने-मन विचारबो करैत छलि। तहि बीच हीरानन्द आ शषिषेखर सेहो टहलि-बूलि केँ अयलाह। दुनू गोटे केँ बैसितहि रमाकान्त हीरानन्द केँ कहलखिन- ‘‘मास्सैब, खेतक झंझट त सम्पन्न भेल। बड़वढ़ियाँ भेल। एकटा बात कहू जे जते लोक गाम मे अछि, सभ अप्पन गाम कहैत अछि की ने?’’
हीरानन्द- ‘‘हँ। इ त कोनो नब नहि अछि। अदौ स कहैत आयल अछि आ आगूओ कहैत रहत।’’
‘‘जखन गाम सभक छियैक त गामक सभ किछु ने सभक भेलैक?’’
‘‘तहि मे थोड़े गड़बड़ अछि। गड़बड़ इ अछि जे अखन धरि जे बनैत-बनैत समाज आ गाम अछि ओ टूटैत टूटैत खण्ड-पखण्ड भए गेल अछि। तेँ एक-एक केँ जोड़ि कए समाज बनवै पड़त जे लगले नहि भए सकैत अछि।’’
हीरानन्द बजितहि रहति कि उत्तर दिषि सँ सुवुध आ दक्षिन दिषि सँ महेन्द्र आ बौएलाल सेहो आबि गेलाह। रमाकान्त वौएलाल केँ कहलखिन- ‘‘बौएलाल, आब ते तू डाकटर बनि गेलै मुदा तइयो ऐठाम सबसे बच्चा तोँही छैँ। जो, चाह बनौने आ।’’
डाॅक्टरक नाम सुनि महेन्द्रो आ हीरानन्दो मने-मन खुष भेलाह। किएक त दुनू गोटेक पढ़ौल वौएलाल अछि। मुस्कुराइत वौएलाल चाह बनवै विदा भेल। रमाकान्त सुवुध केँ कहलखिन- ‘‘सुवुध, जमीनक ठौर त लगि गेल पोखरि बाँचल अछि। शषि नौजवानो छथि। पढ़लो-लिखल छथि, आ लूरियो छन्हि। पोखरि मे गाछ पोसैत।’’
सुवुध- ‘‘बड़ सुन्दर विचार अपनेक अछि, काका। हमहूँ यैह सोचै छलौ जे गाम मे ते दुइये टा चीज माटि आ पानि-अछि। तेँ दुनू केँ ऐहेन ढंग सँ उपयोग कयल जाय जे जहिना एक गोटे केँ पाँच टा बेटा भेने पाँच गुना परिवार बढ़ि जायत छैक तहिना खेतो आ पाइनोक होय। ढ़ंग से मेहनत आ नव तरीका अपनाओल जाय। जहि सँ मनुक्खे जेँका ओहो पाँचो गुनाक रफ्तार सँ किएक ने आगू बढ़त। जँ ऐहन रफ्तार पकड़ि लइ। ते गाम के बढ़ै मे कते देरी लागत। बीस बीघा सँ उपरे गाम मे पानि अछि जे बैषाखो-जेठ मे नहि सुखैत अछि। अगर जँ महा-अकालो पड़ि जायत तइयो बोरिंगक सहारा सँ उपजि सकैत अछि। अखन धरि सब पोखरि ओहिना पड़ल अछि। सौँसे पोखरि केचली, घास छाड़ने अछि। ने नहाय जोकर अछि आ ने माछ-मखान करै जोकर। जे इलाका माछ-मखानक छी ओहि इलाकाक लोक केँ माछ-मखान नहि भेटै, कते लाजक बात छी। एहि लाजक कारण की हम सभ नहि छियैक? जरुर छियैक। भलेहि हरसी-दीरघी कए अपना केँ निर्दोष साबित कए ली, मुदा....। अखन देखै छी जे किछु परिवार (सुभ्यस्त परिवार) केँ तँ माछे-मखानक कोन बात जे अहू सँ नीक-नीक वस्तु भेटैत अछि। मुदा विषाल समूहक गति की छैक। जितिया पावनि मे माछ सँ भेटि होइ छैक आ कोजगरा मे दू टा मखान देखैत अछि। तेँ, मनुष्य केँ खुषहाल केँ बनैक लेल वस्तुक परियाप्तता जरुरी अछि। जँ वस्तुक कमी रहत त खुषहाली आओत कोना?’’
सुवुध बजितहि रहति कि वौएलाल चाह नेने आयल चाह देखितहि केयो कुड़ुड़ करै उठलाह त कियो तमाकू थुकरै। जुगेसर चाह बँटै लगल। एक घोंट चाह पीबि हीरानन्द महेन्द्र केँ पूछलखिन- ‘‘डाॅक्टर साहेब, कते दिनक छुट्टी मे आयल छी?’’
हीरानन्दक प्रष्न सुनि महेन्द्र असमंजस मे पड़ि गेलाह। मने-मन सोचै लगलाह जे कोना चिट्ठीक चरचा करब। चिट्ठीक बात त सोलहन्नी झूठ निकलल। जँ बेसी दिनक छुट्टीक चरचा करब त सेहो झूठ हैत। धड़फड़ी मे आयल छी। की कहिअनि की नहि कहिअनि। विचित्र स्थिति मे महेन्द्र पड़ि गेलाह। मुदा बिचहि मे जुगेसर टभकल- ‘‘येह मास्सैव, डाकडर सहाएव त आला भए गेलाह। कोना चीजक कमी नहि छन्हि। जखन अपना गाड़ी मे चढ़ा केँ बुलबैत छलाह ते वुझि पड़ैत छल जे इन्द्रासन मे छी।’’
हीरानन्दक बात तर पड़ि गेलनि। मने-मन सोचलनि जे भरिसक पिता दुआरे गुमकी लधने छथि। सभ कियो चाह पीबि-पीबि गिलास वौएलाल केँ देलखिन। सब गिलास लए वौएलाल अखैरे कल पर गेल। तहि बीच सुबुध महेन्द्र केँ कहलखिन- ‘‘महेन्द्र भाय, गामक लोक केँ जे देह देखै छियै, तहि सँ कि बुझि पड़ैत अछि जे किछु नहि किछु रोग सभकेँ पछानहि छैक। तेँ सभकेँ जाँचि इलाज कए दिऔक।’’
सुवुधक प्रष्न महेन्द्र केँ जँचलनि। कहलखिन- ‘‘अपनो विचार अछि। चारि-पाँच दिन जँचै मे लगत। सभकेँ जाँचि, जहाँ धरि भए सकत तहाँ धरि इलाजो कइये दितिऐक। आइ तँ भरि दिन दोसरे ओझरी मे ओझरा गेलहुँ, मुदा काल्हि सँ एहि मे लगि जायब।’’
शषि पूछलकनि- ‘‘डाॅक्टर साहेव, बुढ़ा (पिताजी) जे अप्पन सब खेत बाँटि देलनि तहि लेल अपनेक..?
शषिषेखरक बात सुनि मुस्कुराइत महेन्द्र कहलखिन- ‘‘दू भाइ छी दुनू भाय केँ डाॅक्टर बना देलनि। एहि सँ बेसी एक पिताक पुत्रक प्रति की बाकी रहि जायत अछि जे किछु कहवनि। खेतक बात अछि, हम थोड़े खेती करए आयब। तखन ते जे खेती करैबला छथि जँ हुनका हाथ मे गेलनि त एहि सँ बेसी उचित की होयत। बाबाक अरजल खेत छिअनि, जकर हकदार त वैह (ओइह) छथि। जँ अप्पन सम्पत्ति लुटाइये देलनि तहि सँ हमरा की। वैरागी पुरुष के रागी बनाएव पाप छी।’’
पुनः शषिषेखर पूछलखिन- ‘‘मद्रास मे केहेन लगैत अछि?’’
किछु मन पाड़ैत मने रुकि, महेन्द्र कहै लगलखिन- ‘‘जहिया डाॅक्टरीक षिक्षा पेलहुँ तहिया नीक बुझि मद्रास गेलहुँ। मुदा अखन एहिठामक सिनेह हृदय केँ तेना पकड़ि लेलक हेन, जेना छाती मे लगल तीर सँ पक्षी छटपटायत अछि। होयत अछि जे मद्रासक सब किछु छोड़ि-छोड़ि एहिठाम रही। कत्ते सँ जिनगीक लीला शुरु कयल जाय, इ गंभीर प्रष्न अछि। एहि प्रष्नक बीच मन ओझरा गेल अछि। स्पष्ट उत्तर नहि भेटि रहल अछि। किऐक त एहि प्रष्नक उत्तर दृष्टिकोणक मुताबिक भिन्न-भिन्न भए जाइत अछि।’’
मौलाइल गाछक फुल:ः 13
गामक दुखताहक दुख जाँचि दवाइ देबाक समाचार गाम मे पसरि गेल। काल्हि भिनसर सँ सभ टोलक दुखताह केँ बेरा-बेरी जाँचो होयत आ दवाइयो देल जायत।
भिनसर होइतहि ओहि टोलक लोक अबै लगलाह जहि टोलक पार छलनि। मर्दक जाँच महेन्द्र करै लगलथि आ स्त्रीगणक डाॅ. सुजाता करै लगलीह। डाॅ. महेन्द्रक मदतिक लेल वौएलाल आ सुजाताक लेल सुमित्रा रहथि।
तीन दिन मे सौँसे गामक रोगीक जाँच भेलनि। दवाइयो भेटलनि। लोकक बीच ऐहन खुषी दौड़ि आयलीह जना गाम सँ बीमारीये पड़ा गेल होय। सभक मनक खुषी एक्के रंगक रुप बना नचैत छलीह। मन मे ऐहन खुषी जे आब ने हमरा देह मे कोनो रोग अछि आ ने मरब। खुषीक नाच ऐहन छलि जेना रोग (दुख) देखिये केँ भगि गेल होय। मुदा जिनगी मे त यैह टा (रोग) दुख त नहि अछि, आरो बहुत तरहक अछि। मुदा इ त मनक बात छल। जँ इ मनक बात छी मुदा वास्तविक बात की छल? से त लोके मे देखै पड़त।
सब दिन भलेसरा केँ देखै छेलियै जे दुखताहे अछि जहि स काज काज-उद्यम छोड़ि देने छल, मुदा आय भोरे बड़का छिट्टा मे छाउर गोबर नेने खेत फेकै जायत अछि। रास्ता मे सोनमा पूदलकै ते कहलकै जे आब देह मे कोनो दुख नहि अछि। जाइ छी छाउरो फेकि लेब आ गरमा धानो काटि क’ नेने आयब। तहिना तेतरो पटै मे गाँथि, दू टा धानक बोझ कन्हा पर उठैने अबैत रहए।
सोनमाक मन मे नचै लगलै जे ऐना किअए भेलइ? देखै छियै जे लहेरियासराय असपताल मे छअ-छअ मास, रोगी केँ लोहावला खाट पर रखि, सूइयो पड़ै छै आ गोलियो खाइ ले देल जाय छै, तइयो मरि जाइ अए। मुदा एहि गामक दुखताहक दुख कोना एते असानी स पड़ा गेलइ। अजीब भेलै। ओह, भरिसक दुख ककरा कहै छै से वुझबे ने करै छी। जब अपने बुझवे नै करै छी तब बुझबै कना? जँ अपने सोचि बुझै चाहबै आ गलतिये सोचा जाय तखन ते गलतियै बुझबै। गलती बुझब आ नहि बुझब, दुनू एक्के रंग। बिनु बुझलो काज लोक करै लगैत अछि आ गलतियो काज करैत अछि। भलेही दुनूक फल उधले होय, मुदा करै त अछि। तब की करब? जकरा बुझै छियै जे फल्लाँ बुझनिहार अछि जँ ओकरो नइ वुझल होय आ झुठे अन्ट-सन्ट कहि दिअए। ततबे नहि जे बुझिनिहारो अछि आ ओकरा पूछियै जँ ओ गलतिये कहि दियै, तइयो त ओहिना रहि जायब। मुदा तोहू मे एकटा बात अछि जे जे ओ कहै आ हम करी आ तेकर फल गल्ती होय ते दोखी के हैत? तब की करब? आब उमेरो ने अछि जे इस्कूलो मे जा क’ पढ़ब। धिया-पूता सभ इस्कूल मे पढ़ैत अछि। मुदा जखैन इस्कूल जाइवला रही तखन किअए ने पढ़लौ। पढ़लौ कोना नै, इस्कूल मे नाओ लिखौनहि रही। पाँच किलास तक पढ़बो केलौ। ते छोड़ि किअए देलियै? छोड़लियै की मास्टर मारि केँ छोड़ा देलक। मास्टर मारि के किअए छोड़ा देलक? जखैन छअ किलास मे गेलौ आ अंग्रेजी मास्टर आबि केँ पढ़बे जे बी.यू.टी.- बट। पी.यू.टी.- पुट। तेहि पर ने कहने रहियै जे अहाँ गलती पढ़बै छियै। कोनो गलती कहने रहियै। जब गलती नै कहने रहियै तब ओ मारलनि किअए। नै पढ़बैक मन रहै ते ओहिना कहिते जे तोरा नइ पढ़ेबौ। इस्कूल से चलि जो। मारलक किअए। जँ मारबो केलक ते हमरा मन के ते बुझा दैइते। हमर मन मानि लइत। मन मानि लइत भए गेलैक। से ते नै केलक। तेँ ने हम मुरुख रहि गेलौ। नइ ते हमर की हाथ-पाएर कोनो पातर-छितर अछि जे दरोगा नइ बनलौ। हमर जे दरोगाक नोकरी गेल से उ मास्टर हमरा देत। जे मारि के इस्कूल छोड़ा देलक। धिया-पूता मे सैह भेल, चेतन मे तहिना देखै छी। आब कना जीवि? भरिसक हमरो ते ने बतहा दुख पकड़ि लेलक हेँ। ककरा से पुछबै, के कहत, सभ केँ ते सैह देखै छियै। की हम भरि जिनगी हरे जोतैत रहब, घोड़ा पड़ चढ़ि के षिकार खेलै ले कहिया जायब? दुनू हाथ माथ पर लय सोनमा गाछक निच्चा मे बैसि सोचै लगल, जहिना आमोक गाछ रोपल जाइ छै तहिना त खाइरो-बगुरक रोपल जाय छै। मुदा आम मे मीठहा फल फड़ै छै, खैर-बगुर मे काँट होयत छैक। रोपैक इलम त एक्के होइ छै। ओना अनेरुआ होइ छै। आमोक गाछ अनेरुओ होइ छै आ खाइरो-बगुरक।
साते दिनक छुट्टी मे महेन्द्र गाम आयल छलाह। आठ दिन पहिनहि छुट्टी बीति गेलनि। अबै जायक रस्ता सेहो मद्रासक पाँच दिनक अछि। छुट्टी बढ़बै पड़तनि। काल्हि भोरका गाड़ी सँ चलि जयताह, इ बात सुबुधो केँ बुझल छलनि। तेँ सुबुधक मन मे अयलनि जे महेन्द्र बच्चेक संगी छी, मुदा भरि मन गप एक्को दिन नहि कयलहुँ। काल्हि भोर मे चलिये जयत। तेँ आइये भरि समय अछि। इ सोचि सुवुध अपन सब काज छोड़ि महेन्द्र स गप्प करैक लेल अयलाह।
दरबज्जा पर बैसि महेन्द्र पिता केँ कहति रहथि- ‘‘बाबू, गामक जते रोगी केँ जँचलहुँ ओहि मे एक्को गोटे पैघ रोग (जना टी. वी., कैंसर, एड्स इत्यादि) सँ ग्रसित नहि अछि। तेँ आष्चर्य लगैत अछि जे बीमारी शहर-बजार मे धड़ल्ले सँ ओयत अछि। ओहि रोगक नामे-निषान गाम मे नहि अछि। जे खुषीक बात छी।’’
महेन्द्रक रिपोर्ट सुबुधो सुनलनि। खुषीक बात सुनि रमाकान्त पूछलखिन- ‘‘तखन जे एते लोक बीमार अछि, ओकरा कोन रोग छे?’’
मुस्की दैत महेन्द कहलखिन- ‘‘साधारण रोग। जे बिना दवाइओ-दारु सँ ठीक भय सकैत छैक। अगर ओकर खान-पान सुधरि जाय त इ सब रोग लोक केँ नहि हेतैक। अधहा स बेसी रोगी ओहन अछि जकरा कोनो रोग नहि सिर्फ शंका छैक। मुदा जँ ओकरा दुइयो-चारि टा गोली नहि दितिऐक ते मन नहि मानितैक। तेँ पुरजो बना देलिऐक, अल्ला सँ देहो हाथ देखि लेलिऐक आ दू-चारि टा गोलियो दय देलिऐक।
महेन्द्रक बात सुनि रमाकान्तो आ सुवुधे मने-मन हँसै लगलाह। हँसी रोकि सुवुध महेन्द्र केँ पूछल- ‘‘महेन्द्र भाय, काल्हि ते तू चलि जेबह, फेरि कहिया भेटि हेबह कहिया नहि। तेँ तोरे से गप-सप करै ले, अप्पन सब काज छोड़ि, एलहुँ। जिनगीक त ढेरो गप्प होइत मुदा तो डाॅक्टर छिअह आ षिक्षक छलौ, जे आब नहि छी। मुदा रोगक कारण बुझैक जिज्ञासा त जरुर अछि। तेँ अखन रोगेक संबंध मे किछु बुझै चाहै छी।’’
‘की?’
‘‘पहिल सवाल बताहेक लाय। जखन बताह दिस तकै छी ते बुझि पड़ै अए जे जते मनुख अछि सभ बताह अछि।’’
धड़फड़ा क’ रमाकान्त पूछि देलखिन- ‘‘से कोना?’’
‘‘कक्का, जे एक नम्वर प्रषासक छथि, जे एक इलाका सँ लए केँ देष भरिक शासन मे दक्ष रहैत अछि ओ घरक (परिवारक) शासन मे लटपटा जायत छथि। तहिना देखै छी जे, जे बड़का-बड़का हिसावी (गणितज्ञ) छथि ओ जिनगीक हिसाब मे फेल कय जायत छैक। तहिना देखै छी जे, बड़का-बड़का इंजीनियर छथि ओ परिवारक नक्षा बनवै मे चूकि जाय छथि। नेताक त कोना बाते नहि। किऐक त जहिना गोटे साल मानसुन अगते उतड़ि खूब बरिसैत अछि जहि स बेंगक वृद्धि अधिक भय जायत छैक तहिना ओकरो छैक।
मुस्की दैत रमाकान्त कहलखिन- ‘‘हँ, ठीके कहै छहक।’’
ततवे नहि कक्का, कियो ताड़ी-दारु पीवै पाछू बताह अछि, त कियो धनक पाछू। कियो पढै़क पाछू बताह रहैत त केयो ऐष-मौजक पाछू। कियो खाइ पाछू बताह त कियो ओढ़ै-पहिरै पाछू बताह। कियो काजेक पाछू बताह रहैत त कियो अरामेक पाछू। कियो खेले-कुदक पाछू बताह रहैत त कियो नाचे-तमाषाक पाछू। एते बताहक इलाज कते हैत। ततवे नहि एक रंगक बताह दोसर के बताह कहैत आ दोसर तेसर केँ। तहिना कियो शरीरक रोग स दुखित वा रोगी कहबैत त कियो अन्नक अभाव स, त कियो वस्त्रक अभाव वा घरक अभाव स दुखी होइत। तहिना कियो कोनो उकड़ू बात सुनला सँ होइत। एहि दृष्टिये जँ देखल जाय त कते लोक निरोग अछि। ततबे नहि जँ एक-एक गोटे मे देखल जाय त कइअ-कइअ टा रोग धेने अछि। मुदा, इ सब उपरी बात भेल। मूल प्रष्न अछि जे बसन्त ऋृतुक गुलाब जेँका जिनगी सबदिन फुलाइत रहै।’’
गुलाबक फूल जेँका फुलाइत जिनगी सुनि महेन्द्र नमहर साँस छोड़लनि। आखि उठा सुबुधक आखि पर देलनि। सुवुधक नजरि स नजरि मिलितहि जना महेन्द्र केँ बुझि पड़लनि जे अथाह समुद्र मे सुवुध हेलि रहल छथि। आ हम छोट-छीन पोखरि मे उग-डूब कय रहल छी। इ वात मन मे अबितहि महेन्द्र अप्पन माए-बाप सँ लए केँ अपन भैयारी होइत धिया-पूता दिषि नजरि दौड़ौलनि। जे कते आषा स पिता जी हमरा दुनू भाय केँ पढ़ौलनि, मुदा हम हुनका सँ कत्ते दूर हटि कए रहै छी। एते दूर हटल रहला पर कोना हुनका सेवा कए सकबनि। आब हुनका सेवाक जरुरत दिनोदिन बेसिये होइत जेतनि। उमेरो अधिक भेलनि आ दिनानुदिन बढ़िते सेहो जेतनि। जते उमेर बढ़तनि तते शरीरक अंग कमजोर हेतनि। जते अंग कमजोर हेतनि तते शरीरक क्रिया मे रुकावट हेतनि। जहि स कते नव-नव रोग शरीर मे प्रवेष करतनि। जते रोग शरीर मे प्रवेष करतनि तते कष्ट हेतनि। की ओहि कष्टक जिम्मेवार हम नहि हेबई। ताहि लेल करैत की छियैक। किछु नहि। अखन हम सभ (दुनू भाई आ दुनू पत्नी) जवान छी, मुदा किछु दिनक उपरान्त त हमहूँ सभ हुनके (माता-पिता) जेँका बूढ़ होयब। कोनो जरुरी नहि अछि जे हमरो सभहक बेटा हमरे सभ लग रहत। अखन त हम देषे मे छी। अंतर ऐतवे अछि जे देषक एक छोर पर इ सभ (माए-बाप) छथि आ दोसर छोर पर हम सभ छी। मुदा आइक जे हवा बहि रहल अछि जे आन-आन देष मे जाय केँ लोक नोकरी करैत अछि आ जीवन-यापन करैत अछि। जँ कहीं हमरो संगे सैह हुअए तखन की होयत? एते बात मन मे अबैत-अबैत महेन्द्रक चेहरा उदास हुअए लगलनि। मन वौअए (वौअए) लगलनि। देह सँ पसीना निकलै लगलनि। बुझि पड़ै लगलनि जे देह शक्ति विहीन भय रहल अछि। एक्को पाइ लज्जति देह मे अछिये नहि। पसीना से तर-बत्तर होइत महेन्द्र सुवुध के कहलखिन- ‘‘सुवुध भाय, जिनगीक अजीव रास्ता अछि। जते मनुक्ख एहि धरती पर जन्म लेने अछि, ओकरा त जिनगी बीतवै पड़तैक। मुदा जिनगीक रास्ता ऐहेन पेंचगर अछि जे विरले क्यो-क्यो वुझि पबैत अछि बाकी सब औनाइते रहि जाइत अछि।’’
मुस्कुराइत सुबुध महेन्द्र केँ कहलखिन-‘‘महेन्द्र भाय, अहाँ त डाॅक्टर छी। पढ़ल-लिखल लोकक बीच सदिखन रहबो करैत छी। अहाँ किअए ऐहेन बात कहि रहल छी। हम ते जाबे मास्टरी केलहुँ ताबे धिया-पूता केँ पढ़ेलहुँ आ जखन नोकरी छोड़ि गाम मे रहै छी तखन जेहन समाज मे रहै छी से देखबे करैत छी।’’
महेन्द्र- ‘‘भाय, अहाँ जे बात कहलहुँ ओ त आँखिक सोझा मे जरुर अछि मुदा अहाँ मे मनुक्ख चिन्हैक आ ओकरा चलैक रास्ताक लूड़ि जरुर अछि। अहाँ अपना केँ छिपा रहल छी।’’
महेन्द्रक बात सुनि रमाकान्त केँ भेलनि जे आदमी घर सँ हजारो कोस दूर हटि, कमा केँ एत्ते बनौलक ओ अपना केँ एते कमजोर किअए बुझि रहल अछि। मुदा दुनू संगीक बीच नहि आबि गुम्मे रहलाह। बैसिले-बैसल एक बेरि महेन्द्र केँ देखथि आ एक बेरि सुवुध केँ।
अपना केँ छिपाएब सुनि सुवुध बजलाह- ‘‘महेन्द्र भाय, जाहि प्रष्नक बीच अहाँ ओझरा रहल छी ओ प्रष्न ऐतेक ओझड़ाओठ नहि अछि। मुदा असानो नहि अछि। सिर्फ आखि मे ज्योति आनि देखि केँ चलैक अछि।’’
दलानक भितुरका कोठरी (आंगना दिसक) मे बैसि सुजाता खिड़की देने सभकेँ देखबो करैत आ गप्पो-सप सुनैत रहति। कखनो मन मे खुषियो अवैत छलनि त कखनो मन कड़ुऐबो करनि। मुदा किछु बाजति नहि। बाजब उचितो नहि बुझैत। ओना पढ़ल-लिखल रहने, कखनो के बजैक मन जरुर होय छलनि। मुदा किछुऐ दिन मे सासु मिथिलाक रीति-रेवाज आ व्यवहारक संबंध मे तना केँ बुझा देलकनि जे मद्रासक सुजाता मिथिलाक सुजाता बनि गेलीह। मुह पर नुआ (साड़ी) राखब त उचित नहि बुझति मुदा बाजब-भूकब पर नजरि जरुर रखै लगलीह। किनका से कोन ढंगे बाजी, कते आबाज मे बाजी, कोन शब्दक प्रयोग करी, एहि सब पर नजरि अवष्य रखै लगलीह। तेँ बोली संयमित भए गेलनि। ओना एहिठामक चालि-ढालि पूर्ण रुपेण नहि अंगीकार कए सकल रहति मुदा अंगीकार करैक पूर्ण चेष्टा करए लगलीह।
सुवुधक ऊट-पटांगो बात सँ महेन्द्र केँ दुख नहि होयत छलनि। हल्लुको बात मे ओ गंभीर रहस्यक अनुमान करै लगलथि। भलेही ओ गंभीर नहि हल्लुके किऐक ने होय। महेन्द्रक गंभीर मुद्रा देखि सुबुध सोचलनि जे आब ओ (महेन्द्र) गंभीर बात बुझैक चेष्टा मे उताहुल भए रहल छथि। तेँ जिनगीक गंभीर बात के खोलि देब उचित होएत। कहलखिन- ‘‘महेन्द्र भाय, अपना गाम मे सबसँ अगुआइल परिवार अहाँक अछि। चाहे धन-सम्पतिक हुअए वा पढ़ब-लिखबक। मुदा कने गौर कए केँ देखिऔ जे एत्ते धन-सम्पत्तिक उपरान्तो धनेक पाछू हजारो कोस घर स हटि केँ रहै छी। अहीं कहू जे कत्ते धन भेला पर मन मे संतोष होएत। मुदा एहि प्रष्नक दोसरो पक्ष अछि, आ ओ इ अछि ‘विष्व-वंधुत्वक विचार। अपनो एहिठामक महान्-महान् चिन्तक एहि विचार केँ सिर्फ मानवे नहि केलनि बल्कि बनवैक प्रयासो केलनि। ओना सैद्धान्तिक रुप मे विष्व-बंधुत्वक विचार महान् अछि मुदा जते महान् अछि ओहि स कनियो कम व्यवहारिक बनवै मे असान नहि अछि। जहिना लोक गामक वा आन गामक देवस्थान मे दीप जरबै (साँझ दइ) स पहिने अपना घरक गोसाइक आगू मे दीप जरबैत अछि। जे उचिते नहि गंभीर विचारक दिग्-दर्षन सेहो थिक। तहिना सभकेँ अपना लग सँ जिनगीक लीला शुरु करक चाहिऐक। अपना स आगू बढ़ि समाज, समाज स आगू बढ़ि इलाका, इलाका स आगू बढ़ि देष-दुनियाँ दिस बढ़ैक चाहिऐक। जँ से नहि कए कियो परिवार-समाज छोड़ि आगू बढ़ि करैत अछि त जरुर कतहुँ नहि कतहुँ गड़बड़ जरुर हेतैक। जहिना दुनिया मे समस्याग्रस्त मनुष्य असंख्य अछि तहिना त ओहि समस्या सँ मुकबलो करैवला मनुष्य असंख्य अछि। एक्के आदमी केँ कयला से तँ दुनियाक समस्या नहि मेटा सकत। तेँ जे जत्ते जन्म नेने छी ओ ओतइ इमानदारी आ मेहनत सँ कर्म मे लगि जाउ।’’
सुवुधक प्रष्न केँ स्वीकार करैत महेन्द्र कहलखिन- ‘‘हँ, इ दायित्व त मनुष्यमात्रक थिक।’’
सुबुध- ‘‘जखन इ दायित्व सभक (सब मनुष्यक) छी त अपने गाम मे देखियौ! एहि साल सँ (जखन सबकेँ खेत भेलै) थोड़-बहुत खुषहाली गाम मे एलै। मुदा एहि स पहिने त देखै छेलिऐक जे ने सभकेँ भरि पेट खेनाइ भेटै छलै आ ने भरि देह वस्त्र। ने रहैक लेल सुरक्षित घर छलै (अखनो नहि छैक) आ ने रोग-व्याधि स बचैक कोनो उपाय। बाजू, छलै की नइ छलै?’’
-‘‘हँ, छलैक।’’
‘‘आब अहीं कहू जे हमर-अहाँक जन्म त अही समाज मे भेलि अछि। की हम ओते कमजोर छी जे गाम छोड़ि पड़ा जाएब। (पड़ाइक मतलब, जते पेट भरत) जँ कियो पड़ायत अछि त ओकरा कायर, कामचोर छोड़ि की कहबैक? मुदा तइयो लोक जायत किऐक अछि? एकरो कारण छैक। एकर कारण छैक अधिक पाइ कमाइब वा कम मेहनत स जिनगी जीबि। मुदा कम मेहनत स जिनगी असानी स जीबि ताधरि संभव नहि अछि जाधरि मेहनत सँ देष केँ समृद्धिषाली नहि बना लेब। अगर जँ किछु गोटे केँ समृद्धिषाली भेने देषकेँ समृद्धिषाली बुझब त ओ नेने-नेेने गुलामी जंजीर मे बान्हि देत। कोनो देष गुलाम नहि होइत, गुलाम होइत ओहि देषक मनुक्ख आ गुलामी होइत ओकर जिनगीक क्रिया। पाइवला सभहक जादू समाज मे ओहि रुपे चलि रहल अछि जहिना हम-अहाँ पोखरि मे कनेक बोर दए बनसी पाथि दइ छियैक आ नमहर-नमहर माछ भोजनक लोभे फँसि जाइत अछि तहिना मनुक्खोक बीच चलि रहल अछि। ओहि केँ नजरि गड़ा केँ देखै पड़त।’’
सुबुधक विचार केँ महेन्द्र मूड़ी डोला मानि लेलनि। मुदा मुड़ी डोलौलाक उपरान्तो मन मे किछु शंका रहबे कयल छलनि। जे सुबुध मुहक हाव-भाव सँ बुझि गेलखिन। पुनः अपन विचार केँ आगू बढ़वैत कहै लगलखिन- ‘‘अपना एहिठामक दषा देखियौ। जकरा अपना सभ क्रीम ब्रेन कहै छियै- ओ थिक वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाॅक्टर इत्यादि। ओ सभ आन-आन देष जाय अपन बुद्धि केँ पाइवलाक हाथे बेचि लइत छथि। भले ही किछु अधिक पाइ कमा लइत होथि मुदा ओ ओहि धनिक केँ आरो धन बढ़वैत छथि। नव-नव मषीन, नव-नव हथियारक अनुसंधान कए केँ पछुऐलहा देष पर आक्रमण कए वा व्यपारिक माल बेचि आरो पछुअबैत अछि। एकटा सवाल आरो मन मे अबैत होएत। ओ इ जे अपना देष मे ओतेक साधन नहि अछि जे ओ अपन वुद्धि केँ सदुपयोग कए सकताह। ते अपन बुद्धि केँ सदुपयोग करैक लेल आन देष जायत छथि। मुदा हमरा वुझने एहि तर्क मे कोनो दम्म नहि छैक। आइ धरिक जे दुनियाँक इतिहास रहल ओ अइह रहल जे सम्पन्न देष सदिखन कमजोर (पछुआइल) देष केँ लुटैत रहलैक। चाहे लड़ाइक माध्यम स होय वा व्यापारक माध्यम सँ। जहि स, जेहो सम्पत्ति (साधन) ओहि देष केँ रहैत, ओहो लुटा जाइत अछि। जखन ओ लुटा जायत तखन आगू मुहे, कोना ससरत?’’
माथ कुड़िअबैत महेन्द्र पूछलखिन- ‘‘तखन की करक चाही?’’
सुवुध- ‘‘आखि उठा कए देखिऔ जे दुनियाँ मे क्यो बिना अ,आ पढ़ने विद्वान् बनि सकल अछि वा बनि सकैत अछि? जँ से नहि बनि सकैत अछि ते पछुआइल देष वा लोक, बिना कठिन मेहनत केने आगू बढ़ि सकैत अछि। तेँ पछुआइल देष वा लोक केँ एहि बात केँ बुझै पड़तनि। जँ से नहि वुझि अगुऐलहाक अनुकरण करताह ते पुनः गुलामीक बाट पर चलि अओताह। कते लाजिमी बात छी जे हम अपने बनाओल हथियार सँ अपने घायल होय। आब दोसर दिषि चलू!’’
अपना ऐठाम जे परिवारक ढाँचा, अदौ स रहल, ओ दुनिया मे सवसँ नीक रहल अछि। आइक चिन्तन मे दुनियाँ परिवारबाद दिषि बढ़ल अछि। जे हमरा सभहक संयुक्त परिवारक रुप मे धरोहर अछि। मनुक्खक जिनगी कते टा होइ छै, एहि पर नजरि दियौ। तीनि अवस्था त सभकेँ होइ छैक। बच्चाक, जवानीक आ वुढ़ाढ़ीक। एहि मे दू अवस्था बच्चा आ वुढ़ाढ़ी मे दोसराक मदतिक जरुरत पड़ैत छैक। जे एकांगी परिवार मे नहि भए पाबि रहल छैक। आइक जे एकांगी परिवार बनि गेल अछि ओ कुम्हारक धरारी जेँका बनि गेल अछि। जहिना कुम्हारक घरारी (अर्थात् कुम्हारक बास) वेसी दिन धरि असथिर नहि रहैत तहिना भए रहल अछि। बाप-माए कतौ, बेटा-पुतोहू कतौ आ धिया-पूता कतौ रहै लगल अछि। मानवीय स्नेह नष्ट भए रहल अछि। सभ जनै छी जे काँच बरतन जेँका मनुष्य होइत अछि। कखन की एहि शरीर मे भए जायत, तकर कोनो गारंटी नहि छैक। स्वस्थ अवस्था मे त मनुष्य कतौ रहि जीवि सकैत अछि मुदा असवस्थक अवस्था मे ते से नहि भए सकैत छैक। तखन केहेन कष्टकर जिनगी मनुष्यक सामने उपस्थित भए जाइत छैक तोहू पर त नजरि देमए पड़त।
सुबुधक विचार महेन्द्रकेँ झकझोड़ि देलकनि। देह मे कम्पन्न आबि गेलनि। बोली थरथराय लगलनि। कने काल असथिर(स्थिर) भए मन केँ असथिर(स्थिर) केलनि। मन असथिर होइतहि सुबुध केँ कहलखिन- ‘‘सुबुध भाय भलेही हाई स्कूल धरि संगे-संग पढ़लहुँ, मुदा जिनगी केँ जहि गहराइ सँ अहाँ चीन्हिलहुँ, हम नहि चीन्हि सकलहुँ। सच पूछी ते आइ धरि अहाँ केँ साधारण हाई स्कूलक षिक्षक वुझैत छलहुँ मुदा ओ भ्रम छल। संगी रहितहुँ अहाँ गुरु छी। कखनो काल, जखन एकांत होइ छी, अपनो सोचै छी जे एते कमाई छी, मुदा दिन-राति खटैत-खटैत चैन नहि भए पवैत छी। कोन सुखक पाछू बेहाल छी से वुझिये ने रहल छी। टी.भी. घर मे अछि, मुदा देखैक समय नहि भेटैत अछि। खाइ ले वैइसै छी ते चिड़ै जेँका दू-चारि कौर खाइत-खाइत मन उड़ि जायत अछि जे फल्लाँ केँ समय देने छियै, नहि जायब त आमदनी कमि जायत। तहिना सुतैइयो मे होयत अछि। मुदा एते फ्री-सानीक लाभ की भेटैत अछि? सिर्फ पाइ। की पाइये जिनगी छियैक?’’
महेन्द्रक बदलल विचार सुनि, मुस्की दैत सुवुध कहलखिन- ‘‘भाय पाइ जिनगी चलैक साधन छी। नहि कि जिनगी। पाइक भीतर एते पैघ दुर्विचार छिपल अछि जे मनुष्य केँ कुकर्मी बना दइत अछि। कुकर्मी बनला पर मनुष्यत्व समाप्त भए जायत छैक। जाहि स चीन्हि-पहिचीन्हि समाप्त भए जायत छैक। आपराधिक वृत्ति पनपै लगैत छैक। आपराधिक वृत्ति, मनुष्य मे अयला पर पैघ सँ पैघ अपराध मे मनुष्य केँ धकेलि दैत छैक। तेँ अपन जिनगी केँ देखैत परिवार, समाजक जिनगी देखब, जिनगी छी। ओना मनुष्यमात्रक सेवाक लेल सेहो सदिखन तत्पर रहक चाही। जहाँ धरि भए सकै, करबोक करी। मुदा कर्मक दुनियाँ बड़ कठिन अछि। एत्ते कठिन अछि जे कर्मठ-स कर्मठ लोक रस्ते मे थाकि जायत छथि। मुदा ओ थाकब हारब नहि जीतब छी। जे समाज रुपी गाछ मौला गेल अछि ओहि मे तामि, कोड़ि, पटा नव जिनगी देवाक अछि। जाहि सँ ओहि मे फूल लागत आ अनबरत फुलाइत रहत। एहि काज मे अपना केँ समर्पित कए देबाक अछि।’’
सुवुधक संकल्पित विचार सँ महेन्द्रक विचार सेहो सक्कत बनै लगलनि। आँखि मे प्रखर ज्योति अबै लगलनि। दृढ़ स्वर मे पितो आ सुवुधो केँ कहलखिन- ‘‘दुनू गोटेक बीच बजै छी जे साल मे एक्को दिन ओहन नहि बँचत जहि दिन हमरा चारु (दुनू भाइ आ दुनू स्त्रीगण) गोटे मे से कियो नहि क्यो एहिठाम नहि रहब। ओना मद्रासो मे अज-गज बहुत भए गेल अछि, ओकरो छोड़ब नीक नहि होएत, मुदा परिवारो आ समाजो केँ नहि छोड़ब। मद्रासक कमाई परिवारो आ समाजो मे लगायब। अखन त ओते अनुभव नहि अछि मुदा चाहब जे समाज मे बीमारीक लेल जे खर्च हेइत ओ पूरा करब। जहिना पिताजी समाज केँ खायक ओरियान कए देलखिन तहिना स्वास्थक ओरियान जरुर कए देव। समाज केँ कहि दिअनु जे जकरा ककरो कोनो रोग (बीमारी) होय ओ आखि मूनि केँ एहिठाम चलि आवथि। ओकर इलाज जरुर हेतइ। बिना नियारे गाम आइल छलहुँ तेँ किछु लए केँ नहि एलहुँ। मुदा कहै छी जे जहाँ धरि रोग जँचैक औजारक जोगार भए सकत ओ मद्रास जाइते पठा देब। तत्काल अखन भावो रहतीह। वौएलाल आ सुमित्रा रहबे करत। आब जे आयब ओ बेसी दिनक लेल आयब। आ एहिठाम आबि अधिक स अधिक गोटे केँ चिकित्साक ज्ञान करा गाम सँ रोग केँ भगा देव। समाज हम्मर छी, हम समाजक छियैक।
2004
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"भालसरिक गाछ" Post edited multiple times to incorporate all Yahoo Geocities "भालसरिक गाछ" materials from 2000 onwards as...
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जेठक दुपहरि बारहो कलासँ उगिलि उगिलि भीषण ज्वाला आकाश चढ़ल दिनकर त्रिभुवन डाहथि जरि जरि पछबा प्रचण्ड बिरड़ो उदण्ड सन सन सन सन...
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खंजनि चलली बगढड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरली अपन वस्तुलक परित्याकग क’ आनक अनुकरण कयलापर अपनो व्यिवहार बिसरि गेलापर व्यंपग्यय। खइनी अछि दुइ मो...
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