भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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Friday, January 01, 2010
'विदेह' ४८ म अंक १५ दिसम्बर २००९ (वर्ष २ मास २४ अंक ४८) PART III
७
तीन बजे भोरमे हीरानन्दक निन्न टुटलनि। निन्न टुटितहि बाहर निकललथि तँ झल-अन्हार देखि पुनः ओछाइनपर आबि गेलाह। अनुपक बात हीरानन्दक मनकेँ झकझोड़ैत छलनि। जे समाजमे एहि रुपे कटुता, विषमता पसरि गेल अछि जे घर-घर, जाति-जाति, टोल-टोलमे भैंसा-भैंसीक कनारि पकड़ि नेने अछि। एहना स्थितिमे कोना समाज आगू बढ़त? समाजकेँ आगू बढ़ैक लेल एक-दोसरक बीच आत्मीय प्रेम हेबाक चाहिऐक। से कोना होएत? एहि प्रश्ननकेँ जते सोझरबै चाहै छलाह तते ओझराइत छल। विचित्र स्थितिमे पड़ल हीरानन्द। अपने मनमे प्रश्नक उठा, तर्क-वितर्क करैत आ अंत होइत-होइत प्रश्ना पुनः ओझरा कऽ रहि जाइत। विबेक काजे नहि करैत छलनि। तहि बीच भाग चिड़ैक चहचहेनाइ सुनलनि। चिड़ैक चहचहेनाइ सुनि फेर कोठरीसँ निकलि पूब दिस तकलनि। मेघ ललिआएल बुझि पड़लनि। घड़ीपर नजरि देलनि तँ पाँच बजैत छलैक। पुनः कोठरी आबि लोटा लए मैदान दिशि बिदा भेलाह। मुदा मनकेँ एहेन गछाड़ि कऽ सवाल पकड़ने रहनि जे चलैक सुधिये नहि रहलनि। जाइत-जाइत बहुत दूर चलि गेलाह। खुला मैदान देखि, लोटा राखि टहलबो करैत आ प्रश्नोि सोझरबैक कोशिश करैत रहथि। मुदा तैयो निष्कर्षपर नहि पहुँचि सकलाह। पुनः घुरि कए घरपर आबि, दतमनि कए मूह हाथ धोए चाह बनबै लगलाह। ओना चाहक सभ समान चुल्हिएक उपर चक्कापर राखल रहैत अछि। मातर केतली पखारब, गिलास धोअब आ ठहुरी जारन डेढ़ियापर सँ आनै पड़लनि। सब कुछ सरिया हीरानन्द चाह बनबै बैसलाह, मुदा मन बौआइत छलनि। असथिरे नहि होइत छलनि। असकरे चाह पीनिहार, मुदा भरि केतली पानि दए चुल्हिपर चढ़ा देलनि। जखन चाह खौलए लगलनि तखन मनमे एलनि जे अनेेरे एते चाह किअए बनबै छी। फेर केतली चुल्हि परसँ उतारि दू गिलास दूध मिलाओल पानि कातमे राखल गिलासमे रखि, बाकी दूध मिलाओल पानि दू गिलास केतलीमे दए देलनि।
मन बौआइते छलनि। आँच लगबैत गेला मुदा चाह पत्ती केतलीमे देबे नहि केलनि। आगिक तावपर दुनू गिलास पानि जरि गेलापर मन पड़लनि जे चाह पत्ती केतलीमे देबे ने केलिऐक। हाँइ-हाँइ कऽ डिब्बामे सँ हाथपर चाह पत्ती लए केतलीक झप्पा उठौलनि आकि नजरि केतलीक भीतर गेलनि तँ पानिये नहि छलैक। सभटा पानि जरि गेल छलैक। तरहत्थी परक चाह पत्ती डिब्बामे रखि पुनः केतलीमे पानि देलनि। चाह बनल। भिनसुरका समए दू गिलास पीलनि। एक तँ ओहिना मन समाजक समस्यामे ओझड़ाएल छलनि, तहि परसँ चाह आरो ओझरी लगा देलकनि।
चाह पीबि दरबज्जापर बैसि बिचारै लगलाह। मुदा चाहक गर्मी पाबि मन आरो बेसी बौआइ लगलनि। जहिना ककरो कोनो वस्तु हरा जाइत छैक आ ओ खोजए लगैत अछि, तहिना हीरानन्द समाजक ओहि समस्याक समाघान खोजै लगलाह, जे समस्या समाजकेँ टुकडा़-टुकड़ा कए देने अछि। दोसर कियो नहि छलनि, जनिकासँ तर्क-वितर्क करितथि। असकरे ओझराएल रहथि। अपने मनमे सवालो उठनि जवाबो खोजथि। अध्ययनो बहुत अधिक नहिये छलनि। सिर्फ मैट्रिके पास छलाह। मुदा तैयो समस्याक समाधान तकितहि रहलाह, छोड़लनि नहि। जहिना पथिककेँ बिनु देखलो पथ हराइत-भोथिआइत भेटिये जाइत छैक तहिना हीरानन्दोकेँ भेटलनि। अनायास मनमे मिथिलाक चिन्तनधारा आ मिथिला समाजक बुनाबटिक ढाँचापर गेलनि। चिन्तनोधारा आ सामाजिक ढ़ाँचो दुनूपर नजरि पड़ितहि मनमे एकटा नव ज्योतिक उदय भेलनि। बिजलोका इजोत जेकाँ मनमे चमकलनि। बिछानसँ उठि ओसारेपर टहलै लगलथि। अनायास मूहसँ निकललनि- ‘‘वाह रे मिथिलाक चिन्तक! दुनियाँक गुरु। जे ज्ञान हजारो बर्ख पहिनहि मिथिलाक धरतीपर आबि गेल छल, ओएह ज्ञान उन्नैसम शताब्दीमे मार्क्स कठिन संधर्ष कए कऽ अनलनि, जहिसँ दुनियाँक चिन्तनधारा बदलल। मुदा मिथिलाक दुर्भाग्य भेलै जे समाजक नियामक धूर्तइ केलक। जे चिन्तक मनुष्यकेँ सभ मनुक्ख मनुक्ख छी, एक रुपमे देखलनि, ओहि रुपकेँ नियामक, शासनकर्ता टुकड़ी-टुकड़ी कए काटि देलनि। आइ जरुरत अछि ओहि सभ टुकड़ीकेँ जोड़ि कए एक रुप बनबैक। जे नान्हिटा समस्या नहि अछि। ततबे नहि! अखनो टुकड़ी बनौनिहारक कमी नहि अछि। जहनकि भेल टुकड़ीकेँ स्वयं ओ चेतना नहि छैक। जे टुकड़ी भेल कातमे पड़ल छी आ कौआ-कुकुड़ खाइत अछि।
ई एहन विचार हीरानन्दकेँ उपकितहि मन असथिर भेलनि। मनमे नव स्फूर्ति, नव चेतना आ नव उत्साह जगलनि। नव ढंगसँ सभ वस्तुकेँ देखै लगलथि। तहि बीच शशिशेखर सेहो टहलि-बूलि कऽ अएलाह।
हीरानन्दपर नजरि पड़ितहि शशिशेखरकेँ बुझि पड़लनि जे जना क्यो नहा कऽ पोखरिसँ उपर भेल होअए, तहिना। मुदा हीरानन्दक मन विचारमे डूबले रहलनि। मने-मन सोचैत जे जहिना पटुआ सोन, सनईक सोन वा रुइक रेश महीन होइत, मुदा कारीगर ओहि रेश केँ टेरुआ वा टौकरीक सहारासँ समेटि कऽ सूत वा सुतरी बना कपड़ा वा बोरा वा मोटगर रस्सा बनबैत अछि। तहिना समाजोक टुटल मनुक्खकेँ जोड़ि समाज बनबै पड़त। तखने नव समाजक निर्माण होएत। जे अद्दी-गुद्दी काज नहि कठिन काज छी। कठिन काजक लेल कठिन मेहनतक जरुरत पड़ैत अछि। सिर्फ कठिन मेहनते कएलासँ सभ कठिन काज नहि भए सकैत अछि। कठिन मेहनतक संग, सही समझ आ सही रस्ताक बोध सेहो जरुरी अछि। तेँ कठिन मेहनत, गंभीर चिन्तन आ आगू बढ़ैक, काज करैक अदम्य साहस सेहो सभमे हेबाक चाहिऐक। एहि कऽ संग मजबूत संकल्प सेहो होएब जरुरी अछि। विचारक संग-संग हीरानन्दक मनमे कठिन कार्यक संकल्प सेहो अपन जगह बनबै लगलनि। भिनसुरका समए, तेँ लाल सूर्यमे ठंढ़ापन सेहो देखए लगलथि। एक टकसँ सूर्य दिशि देखैत अपन विचारकेँ संकल्प लग लऽ जाए दुनूकेँ हाथ पकड़ि दोस्ती करौलनि। दुनूक बीच दोस्ती होइतहि मनक नव उत्साह शरीरमे तेजी अनै लगलनि।
दरबज्जाक आगुऐ देने उत्तरे-दछिने रस्ता। हीरानन्द शशिशेखरकेँ कहलखिन- ‘‘चलू, कने बुलियो-टहलि लेब आ एकटा गप्पो कए लेब।’’
दुनू गोटे दरबज्जापर सँ उठि आगू बढ़लाह आकि उत्तरसँ दछिन मुहे तीनटा ढेरबा बच्चाकेँ जाइत देखलनि। तीनूक देह कारी खटखट। केश उड़िआइत। डोरीबला फाटल-कारी झामर पेन्ट तीनू पहिरने रहए। देहमे ककरो कोनो दोसर वस्त्र नहि। तीनूक हाथमे पुरना साड़ीक टुकड़ा कऽ चारु कोण बान्हल झोरा। तीनू गप-सप करैत उत्तरसँ दछिन मुहे जाइत रहए। तीनूकेँ एक टकसँ हीरानन्द देखि, तीनूक गप-सप सुनैक लेल कान पाथि देलनि। मुस्की दैत बेङबा बाजल- ‘‘रौतुका बसिया रोटी आ डोका तीमन तते ने खेलियौ जे चललो ने होइ अए। पेट ढब-ढ़ब करै अए।’’ दहिना हाथ बढ़बैत फेर बाजल- “हे सुंगही हमर हाथ केहेन गमकै छै। जना बुझि पड़तौ जे कटुक-मसल्ला लागल छै।’’ हाथ समेटि बाजल- “तूँ की खेलै गै रोगही?’’
सिरसिराएल रोगही बाजलि- ‘‘हमरा माए कहलक जे जो डोका बीछि कऽ ला गे। ताबे हमहूँ मड़ूआ उला- पीसि कऽ रोटी पका कऽ रखबौ। डोका चटनी-साना- आ रोटी खइहें।’’
रोगहीक बात सुनि बेङबा कबूतरीकेँ पुछलक- ‘‘तूँ गै कबूतरी?’’
“काल्हि जे माए डोका बेचै गेल रहै, ओम्हरेसँ मुरही किनने आएल। सैह खेलौं।’’
कबूतरीक बात सुनि बेङबा पनचैती केलक जे तोहर जतरा सभसँ नीक छौ। आइ तोरा सभसँ बेसी डोका हेतौ। सभसँ बेसी तोरा, तइसँ कम हमरा आ सभसँ कम रोगहीकेँ हेतै।’’
बेङबाक पनचैतीक विरोध करैत रोगही बाजलि- ‘‘बड़ तूँ पंडित बनै छें। तोरे कहने हमरा कम हैत आ तोरा सभकेँ बेसी। हमरा जेकाँ तोरा दुनू गोरेकेँ डोका बिछैक लूरि छौ ? घौदिआएल डोका कतऽ रहै छै से बुझै छीही?’’
मूह सकुचबैत बेङबा पुछलक- ‘‘कतऽ रहै छै से तूही कह?’’
“किअए कहबौ। तू खेलएँ से हमरा बाँटि देलैं।’’
बेङबा- ‘‘बाँटि दितियौ से हम अगरजानी जननिहार भगवान छी। तू कहलेहेँ अखनी आ बाँटि दैतियौ अंगनेमे।’’
बेङबाक बात सुनि रोगही निरुत्तर भऽ गेलि। हीरानन्द आ शशिशेखर तीनूक बात चुपचाप ठाढ़ भऽ सुनलनि। ताधरि तीनू गोटे हीरानन्दक लग पहुँचि गेल। हाथक इशारासँ तीनू गोटेकेँ हीरानन्द सोर पाड़ि पुछलखिन- ‘‘बौआ, तू सभ कतए जाइ छह?’’
हीरानन्दक प्रश्न। सुनि बेङबा धाँए दए उत्तर देलकनि- ‘‘डोका बिछैले।’’
“डोका बीछि कऽ की करै छहक?’’
“अपनो सभ तुर खाइ छी आ माए बेचबो करै अए। बाउ कहने अछि जे डोका बेचि कऽ पाइ हेतौ, तइसँ अंगा-पेन्ट कीनि देबौ। घुरना विआहमे पीहीन कऽ बरिआती जइहें।’’
बेङबाक बात सुनि हीरानन्द रोगहीकेँ पुछलखिन- ‘‘बच्चा तूँ?’’
रोगही उत्तर दैत कहलकनि- ‘‘हमहूँ डोके बीछैले जाइ छी। माए कहलक जे डोकासँ जे पाइ हेतौ, तइसँ शिवरातिक मेलामे महकौआ तेल, महकौआ साबुन, केश बन्हैले फीता आ किलीप कीनि देबौ।’’
मुस्कुराइत हीरानन्द बातक समर्थनमे मूड़िओ डोलबैत आ मने-मन विचारबो करैत जे कत्ते आशासँ गरीबोक बच्चा जीबैत अछि। शशिशेखर दिशि देखि आखिक इशारासँ कहलखिन, जे एकरा सबहक बगए देखियौ आ आशा देखियौक। तेसर बचिया कबूतरीकेँ पुछलखिन- ‘‘बौआ, तूँ?’’
हीरानन्दक आखिमे आखि गड़ा कबूतरी कहै लगलनि- ‘‘हमरा माए कहने अछि जे डोका पाइसँ सल्बार-फराक कीनि देबौ।’’
काजक समए नष्ट होइत देखि हीरानन्द तीनूकेँ कहलखिन- ‘‘जाइ जाह।’’
हीरानन्द आ शशिशेखर घुरि कऽ दरबज्जापर अएलाह। ओ तीनू बच्चा गप-सप करैत आगू बढ़ल। थोड़े आगू बढ़लापर कबूतरी बेङबाकेँ पुछलक- ‘‘बेङबा, तू विआह कहिया करमे?’’
विआह सुनि बेङबाक मनमे खुशी भेलैक। ओ हँसैत उत्तर देलक- ‘‘अखनी विआह नइ करबै। मामा गाम गेल रहियै तँ भैया कहलक- ‘‘जे कनी आउर बढ़मे तँ तोरा भेबन्डी –भिबन्डी- नेने जेबउ। ओतै नोकरी करबै। जखैन बहुत रुपैआ हेतै तब ईंटाक घरो बनेबै आ बिआहो करबै।’’
बिचहिमे रोगही कहलकै- ‘‘तोरा सनक ढहलेल बुते बौह सम्हारल हेतउ?’’
बौहुक नाम सुनि बेङबाक हृदय खुशीसँ गदगद भए गेलैक। हँसैत कहलक- ‘‘आँए गै रोगही, तूँ हमरा पुरुख नइ बुझैछेँ। हम तँ ओहन पुरुख छी जे एगो कऽ के कहै जे तीन गो बौहकेँ सम्हारि लेब।’’
कबुतरी- ‘‘खाइले बौहकेँ की देबही?’’
बेङबा- ‘‘भेबन्डीमे जब नोकरी करबै तब बुझै छीही जे कते कमेबै। दू हजार रुपैआ एक्के महीनामे हेतै।’’
हँसैत रोगही बिचहिमे टिपकल- ‘‘दू हजार रुपैआ गनलो हेतउ?’’
बेङबा बाजल- ‘‘बीस-बीस कऽ गनबै। रुपैआ हेतै तँ फुलपेन्ट सियेबै, खूब चिक्कन अंगा किनबै, घड़ी किनबै, रेडी किनबै, मोबाइल किनबै, डोरी बला जुत्ता किनबै । तब देखिअहै जे बेङबा केहेन लगै छै।’’
कबूतरी- ‘‘तोरा नोकरी के रखतौ?’’
बेङबा- ‘‘गामबला भैया नोकरी रखा देतै। उ कहलक जे जेही मालिक अइठीन हम रहै छिऐ तेही मालिक अइठीन तोरो रखा देबउ। बड़ धनीक मालिक छै। मारिते नोकर छै। हम जे मामा गाम गेल रहाइ तँ भइयो गाम आइल रहै। ओ कहै जे हम मालिकक कोठीमे रहै छिऐ। दरमाहा छोड़ि कऽ बाइलियो खूब कमाइ छै। मालिककेँ एकटा बेटी छै। उ बड़का इस्कूल-कओलेजमे पढ़ै छै। अपनेसँ हवागाड़ी चलबै छै। सभ दिन हमर भैया ओकरा इस्कूल संगे जाइ छै। उ पढ़ै छै आ हमर भैया गाड़ी ओगरै छै। जखनी छुट्टी भऽ जाइ छै तखनी दुनू गोरे संगे अबै छै। उ मलिकाइन हमरा भैयाकेँ मानबो खूम करै छै। संगे-संग सिलेमा देखैले जाइ छै। बजार घुमैले जाइ छै। बड़का दोकान-होटलमे दुनू गोरे खूम लड़ू खाइ अए। अन्ना तँ बड़का मालिक सभ नोकरकेँ दीयाबत्ती-दिवाली-मे चिक्कनका नुआ देइ छै, हमरो भैयाकेँ दै छै। छोटकी मलिकाइन अपने दिसनसँ निकहा-निकहा फुलपेन्ट, निकहा-निकहा अंगा कीनि-कीनि दै छै। रुपैयो खूम देइ छै।’’
तीनू गोटे बाध पहुँचि गेल। बाध पहुँचितहि तीनू गोटे तीन दिशि भए गेल। तीन दिस भए तीनू गोटे डोका बीछै लगल। उपरे सबमे डोका चराओर करैले निकलल रहए। डोका बीछि तीनू गोटे घुरि गेल।
दरबज्जापर आबि हीरान्द शशिशेखरकेँ पूछल- ‘‘शशि, की सभ ओहि बच्चा सभमे देखलिऐक?’’
मूह बिजकबैत शशि उत्तर देलनि- ‘‘भाय, ओहि बच्चा सभकेँ देखि छुब्द छलहुँ। ओकरा सबहक बगए देखए छलिऐक आ मनक खुशी देखै छलिऐक। जना दुनियादारीसँ कोनो मतलब नहि। निर्विकार। अपने-आपमे मग्न छल।’’
हीरानन्द- ‘‘कहलहुँ तँ ठीके, मुदा एकटा बात तर्कक छल। अपना सबहक समाज तते नमहर अछि जाहिमे भिखमंगासँ राजा धरि बसैत अछि। एक दिस बड़का-बड़का कोठा अछि तँ दोसर दिस खोपड़ी। एक दिस आजुक विकसित मनुक्ख अछि तँ दोसर दिस आदिम युगक मनुुक्ख सेहो अछि। एते पैघ इतिहास समाज अपना पेटमे रखने अछि, ने ओहि इतिहासकेँ कियो पढ़निहार अछि आ ने बुझनिहार।’’
“ठीके कहलहुँ भाए।’’
‘‘आइ धरि, हम सभ समाजक जाहि रुपकेँ देखैत छी ओ उपरे-झापरे देखै छी। मुदा देखैक जरुरत अछि ओकर भीतरी ढाँचाकेँ। जहिना समुद्रक उपरका पानि आ लहरि तँ सभ देखैत अछि, मुदा ओहिक भीतर की सभ अछि से देखनिहार कैक गोटे अछि।’’
भोरकेँ बौएलाल अपनो पढ़ैत आ सुमित्रोकेँ पढ़ा दैत। जाधरि टोल-पड़ोसक लोक सुति कऽ उठै ताधरि बौएलाल आ सुमित्रा एक-डेढ़ घंटा पढ़ि लिअए। एक तँ चफलगर दोसर पढ़ैक जिज्ञासा सुमित्रामे, तेँ एक्के दिनमे अ, आसँ य, र, ल, व तक सीखि गेल। कब्बीरकाने सीखि सुमित्रा बाल-पोथी आ खाँत सिखब शुरु केलक।
सुमित्राकेँ पढ़ैत देखि माए-बापकेँ खुशी होइ। ओना माइयोकेँ आ बापोक मनमे शुरुहेसँ रहए जे बच्चा सभकेँ पढ़ाएब, मुदा समएक फेर आ परिवारक विपन्नताक चलैत, मनक सभ मनोरथ मनेमे गलि कऽ विलीन भए गेलैक। मुदा जहियासँ सुमित्रा पढ़ै लागलि तहियासँ पुनः ओ मनोरथ अंकुरित होअए लगलैक। मनुक्खक जिनगीक गति मनुक्खक विचार आ व्यवहारकेँ सेहो बदलैत अछि। अनुपक प्रति जे कटुता आ दुर्विचार रामप्रसादक मनकेँ गहिया कऽ धेने छलैक ओ नहुँए-नहुँए पघिलए लगलैक। सुमित्राक माए -रामप्रसादक स्त्री- अनुपक आंगन अबैत जाइत छलीह। तीमन-तरकारीक लेन-देन पतिसँ चोरा कऽ सेहो करैत छलीह। मुदा तैयो रामप्रसादक मनमे पछिला दुश्म-नी नीक-नहाँति नहि मेटाएल छलैक। जहिना बरसातमे सुखाएल धारमे पानि अबितहि जीवित धारक रुप-रेखा पकड़ि लैत, तहिना विद्याक प्रवेशसँ रामप्रसादोक परिवारक रुप-रेखा बदलै लगलैक। भैंसा-भैसीक दुश्म नी भाय-भैयारीमे बदलैै लगलैक।
मिरचाइ, तरकारी आ चून कीनैले अनुप हाट गेल रहए। कोसे भरि पर कछुआ हाट अछि। तहि बीच रामप्रसाद कताक बेरि अनुपक डेढ़ियापर आबि-आबि अनुपक खोज केलक। रामप्रसादक अधला विचारकेँ धिक्कारि कऽ भगा, नीक-विचार अपन जगह बना लेलक। दोसरि साँझमे अनुप हाटसँ घुरि कऽ रस्तेमे अबैत छल आकि रामप्रसाद फेर तकैले पहुँचल। अनुपपर नजरि पड़ितहि रामप्रसाद कठहँसी हँसि कहलक- ‘‘बहुत दिन जीबह भैया। बेरुए पहरसँ कत्ते हरा गेल छेलह?’’
रामप्रसादक बदलल चेहरा आ विचार सुनि अनुप मने-मन तारतम्य करै लगल। जे आइ सुर्ज किमहर उगलाह। जिनगी भरिक दुश्ममनी एकाएक एना बदलि कोना गेलैक? पछिला गप अनुपकेँ मन पड़लै। अखन धरि रमपसदबा संग हमरा दुश्मरनी ओकर अधले-खवासी- काजक दुआरे ने छल। मुदा ताराकान्तकेँ धन्यवाद दिऐ जे बेचारा मारिओ खा, जहलो जा गाममे खबासी प्रथा मेटौलक। जाबे रमपरसदबा अधलाह काज करै छल ताबे जँ दुश्मदनी छल तँ ओहो नीके छल। किएक तँ हमहूँ अपना डारिपर छलौं। आब जँ ओ ओहि काजकेँ छोड़ि देलक तँ हमरो मिलान करैमे हरज की ? कालोक गति तँ प्रबल होइत छैक। समयो बदलि रहल अछि। एक तँ पहिलुका जेकाँ भारो-दौर लोक नहि दैत अछि, दोसर पहिने लोक कान्हपर भार उघैत छल आब गाड़ी-सवारीमे लए जाइत अछि। ततबे नहि, आब सबहक समांग परदेश सेहो खटै लगल अछि। गामक मालिको-मलिकानाक पहिलुका रुतबा कमले जाइत छैक।
रामप्रसादक बात सुनि अनुप कहलक- ‘‘हाट जाएब जरुरी छल। घरमे ने मिरचाइ छल आ ने चून। जे चूनवाली चून बेचए अबै छलि ओकर सासु मरि गेलै। अइ साल एक्को दिन कटहरक आँठी देल खेरही दालि सेहो नै खेने छलौं, तेँ मन लगल छले।’’
कहि अनुप सोझे आंगन जाए ओसारपर आँठी आ मेरिचाइक मोटरी रखि, कोहीमे चून रखलक। एकचारीमे बैसि रामप्रसाद तमाकुल चुनबैत। चूनक कोही खोलियापर रखि अनुप बाहर आबि रामप्रसादकेँ कहलक- ‘‘ताबे तमाकुल लगबह, कने हाथ-पएर धोए लै छी। एक तँ कच्ची रस्ता तहूमे तते टेक्टर सभ चलै छै जे भरि ठेहुन कऽ गरदा रस्तामे भऽ गेल अछि। जहिना लोकक पएर थाल-पानिमे धँसै छै तहिना गरदोमे धसै अए।’’
कहि अनुप इनारपर जा हाथ-पएर धोए कऽ आबि, रामप्रसाद लग बैसल। अनुपकेँ तमाकुल दैत रामप्रसाद कहलकै- ‘‘भैया, दुपहरेसँ मनमे आएल जे तोरो बड़दक भजैती आन टोलमे छह आ हमरो अछि। दुनू गोरे ओकरा छोड़ा कऽ अपनेमे लगा लाए। जइसँ दुनू गोरेकेँ सुविधा हेतऽ।’’
थूक फेकि अनुप उत्तर देलकै- ‘‘ई बात तँ कत्ते दिनसँ बौएलाल कहै छलए जे जते काल बड़द अनैमे लगै छह ओते कालमे एकटा काज भऽ जेतह।’’
मूड़ी डोलबैत रामप्रसाद बाजल- ‘‘काल्हि जा कऽ तोहूँ अपन भजैतकेँ कहि दहक आ हमहूँ कहि देबै। परसूसँ दुनू गोरे एक्के ठीन जोतब।’’
आंगन बहरनाइ छोड़ि रधिया सेहो आबि कऽ टाटक कातमे ठाढ़ भऽ गेलि। किएक तँ बहुतो दिनक उपरान्त दुनू गोटेकेँ मुहा-मुही गप करैत देखलनि। बड़दक भजैतीक गप कए अनुप रामप्रसादकेँ कहलक- ‘‘अबेर भऽ गेल। अखन तोहूँ जाह, हमहूँ पर-पाखाना दिस जाएब।’’
जहिना सड़लसँ सड़ल पानिमे कमल फुलेलासँ भगवान माथपर चढ़ैक अधिकारी भए जाएत अछि तहिना बौएलालक सेवा सबहक लेल होअए लगल। जहिसँ गाममे बौएलाल चर्चक विषय बनि गेल। हीरानन्दक आसरा पाबि बौएलाल रामाएण, महाभारत, कहानी कविता पढ़ब सीखि लेलक। जहि गाममे लोक भरि-भरि दिन ताश खेलैत, जुआ खेलैत तहि गाममे बौएलालक दिनचर्या सभसँ अलग बीतए लगलैक। जहिसँ बौएलालक जिनगीक रस्ता बदलि गेल। अधिककाल हीरानन्द बौएलालकेँ कहथिन- ‘‘बौएलाल, गरीबक सभसँ पैघ दोस्त मेहनत छी। जे कियो मेहनतकेँ दोस्त बना चलत ओएह गरीबी रुपी दुष्टकेँ पछाड़ि सकैत अछि। तेँ सदिखन समएकेँ पकड़ि सही रस्तासँ मेहनत केनिहार जे अछि, ओएह एहि धरती आ दुनियाँक सुख भोगि सकैत छथि।’’
८
रौतुके गाड़ीसँ रमाकान्त तीनू गोटे अपना टीशनमे उतरलाह। अन्हार राति। भकोभन स्टे शन। खाली दुइये गोटे, स्टेहशन मास्टर आ पैटमेन, स्टेरशनक घरमे केबाड़ बन्न कए जगल रहए। लेम्प जरैत। ने एक्कोटा इजोत प्लेटफार्मपर आ ने मुसाफिरखनामे। अन्हारेमे तीनू गोटे अपन सभ समान मुसाफिरखानामे रखि, जाजीम बिछा बैसि रहलाह। गाड़ी झमारक संग दू रातिक जगरनासँ तीनू गोटेक देह ओंघीसँ भसिआइत रहनि। प्लेटफार्मक बगलमे ने एक्कोटा चाहक दोकान खुजल आ ने एक्कोटा दोकनदार जगल रहए। ने कोनो दोकानमे इजोत होइत छलैक आ ने गाड़ीसँ एक्कोटा दोसर पसिंजर उतड़ल। निन्न तोड़ै दुआरे रमाकान्त चाह पीबै चाहथि मुदा कोनो जोगार नहि देखि कखनो समान लग बैसथि तँ कखनो उठि कऽ टहलै लगथि। जुगेसर आ श्यामा सुति रहल। मुदा रमाकान्तक मनमे होनि जे जँ कहीं सुति रहब आ सभ समान चोरि भए जाए तखन तँ भारी जुलुम हएत। निन्न तोड़ैक एकटा नीक उपाए छलनि जे ढाकीक-ढ़ाकी मच्छर रहए। जुगेसरो आ श्यामो चद्दरि ओढ़ि, मूह झाँपि सुतल रहथि।
प्लेटफार्मपर पनरह-बीसटा अनेरुआ कुकुड़ एम्हरसँ ओमहर करैत रहए। प्लेटफार्मक पछबारि भाग माल-जालक हड्डीक ढेरीसँ गंध अबैत । सकरीक एकटा व्यापारी हड्डीक कारोबार करैत अछि। गाम-घरमे जे माल-जाल मरैत ओकर हड्डी गामे-घरक छोटका व्यापारी, भारपर उघि-उघि अनैत अछि, ओहि व्यापारी ऐठाम बेचि-बेचि गुजर करैत अछि। जखन बेसी हड्डी जमा भए जाइत छैक, तखन ओ मालगाड़ीक डिब्बामे लादि बाहर पठबैत अछि। जाधरि हड्डी प्लेटफार्मक बगलमे रहैत अछि ताधरि अनेरुआ कुत्ता सभ ओहि हड्डीकेँ चिबबैक पाछू तबाह रहैत अछि। दिन रहौ आकि राति, जते टीशनक कातक कुकुड़ अछि, सभ ओहिक इर्द-गिर्द मड़राइत रहैत अछि। ओना आनो-आनो गामक कुकुड़ गाम छोड़ि ओतए रहैत अछि। एकटा पिल्ला एकटा पिल्लीक संग, प्लेटफार्मक पुबारि भागसँ अबिते छल आकि एकटा दोसर कुत्ताक नजरि पड़लैक। बिना बोली देनहि ओ कुकुड़ दौड़ि कऽ ओहि पिल्ला-पिल्लीक जोड़ि लग पहुँचि गेल।आगू-आगू पिल्ली आ पाछू-पाछू पिल्ला नाङरि डोलबैत। ओ दोसर कुकुड़ पिल्लीक मूह सूँघलक। मूह सुँघितहि पिल्ली मूह चियारि कऽ ओहि कुत्तापर टूटलि। पिल्लीक टूटितहि पछिला पिल्ला जोरसँ भुकल। कुत्ताक अवाज सुनितहि, जते अनेरुआ कुकुड़ प्लेटफार्म पर रहए, सभ भुकैत दौड़ि कऽ ओहि पिल्लीकेँ घेरि लेलक। सभ सभपर भूकै लगल। मुदा पिल्ली डराएल नहि। रानी बनि हस्तिनीक चालिमे पछिम मुहे चललि। अबैत-अबैत टिकट घरक सोझेँ बैसि रहलि। पिल्लीक बैसितहि सभ पिल्ला पटका-पटकी करै लगल।
प्लेटफार्मक पछवारि भाग, कदमक गाछक निच्चामे मघैया डोम सभ डेरा खसौने रहए। ओहि काल एकटा छाँैड़ा एकटा छैाँड़ीक संग, डेरासँ थोड़े पछिम जाए लट्टा-पट्टी करैत रहए। कुत्ताक अवाज सुनि एक गोटेकेँ निन्न टुटलै। निन्न टुटितहि आखि तकलक आकि पछवारि भाग दुनू गोटेकेँ लट्टा-पट्टी करैत देखलक। ओ ककरो उठौलक नहि ! असकरे उठि कऽ ओहि दुनू लग पहुँचल। ओहो दुनू देखलकै। छौँड़ा ससरिकेँ झाड़ा फीड़ैले कातमे बैसि गेल। मुदा छौड़ी चलाक। फरिक्केसँ ओहि आदमीकेँ छौड़ी कहलकै- ‘‘कक्का।’’
कक्का सुनि ओ किछु बाजल नहि मुदा घुरबो नहि कएल। आगुए मुहे ससरैत बढ़ल। छौँड़ियो ओकरे दिस ससरलि। लगमे पहुँचतहि छौड़ी कन्हापर दहिना हाथ दैत फुसफुसा कऽ कहलकै- ‘‘कक्का....।’’
कान्हपर हाथ पड़ितहि कक्काक मन बदलै लगलनि। जहिना शिकारीकेँ दोसराक शिकार हाथ लगलापर खुशी होइत, तहिना कक्कोकेँ भेलनि। ओहो अपन दहिना हाथकेँ छौैड़ीक देहपर देलखिन। देहपर हाथ पड़ितहि छौड़ी हल्ला केलक। छौड़ो देखैत। उठि कऽ ओहो हल्ला करै लगल। हल्ला सुनि सभ मघैया उठि-उठि दौड़ल।
स्टेओशनक टिकटघरमे टिकट मास्टर पैटमेनकेँ कहलक- ‘‘रघू, प्लेटफार्मपर बड़ हल्ला होइ छैक। जा कऽ देखहक तँ।’’
पैटमेन जवाब देलकनि- ‘‘टीशन छिऐ। सभ रंगक लोक ऐठाम अबै-जाइ अए। जँ हम ओमहर देखैले जाइ आ एम्हर स्टेोशन घरमे चोर चलि आबए तँ असकरे अहाँ बुते सम्हारल हएत। भने केबाड़ बन्न छै। दुनू गोटे जागलटा रहू। नहि तँ सरकारी समान चोरि भेने दुनू गोरेक नोकरी जाएत। कोनो कि सुरक्षा गार्ड अछि जे चोरिक दोख ओकरा लगतै।’’
पैटमेनक बात स्टे शन मास्टरकेँ नीक बुझि पड़लनि, पैटमेनकेँ कहलखिन- ‘‘ठीके कहलह।’’
दुनू गोटे गप-सप करै लगला। लेम्प जरिते रहै। केवाड़क दोग देने पैटमेन प्लेटफार्म दिस तकलक तँ देखलक जे कुत्ता सभ पटका-पटकी करै अए। अन्हार दुआरे मघैया सभकेँ देखबे नहि केलक।
एक दिस कुत्ता सबहक झौहड़ि आ पटका-पटकी, दोसर दिस मघैया सबहक गारि-गरौबलिसँ प्लेटफार्म गदमिशन हुअए। मने-मन रमाकान्त सोचैत जे भने भए रहल अछि। लोकक हल्लासँ हमर समान तँ सुरक्षित अछि। जुगेसरकेँ उठबैत कहलखिन- ‘‘कने आगू बढ़ि कऽ जा कऽ देखहक तँ कथीक हल्ला होइ छै?’’
जुगेसर उठि कऽ कहलकनि- ‘‘कक्का, कोन फेरामे पड़ै छी बस-स्टेण्ड आ रेलवे स्टे शनमे एहिना सदिखन झूठ-फूसि लए हल्ला होइते रहै छै। अपन जान बचाउ। अनेरे कतऽ जाएब।’’
भोर होइतहि टमटमबला सभ अबै लगल। थोड़े हटि कऽ उत्तरवारि भाग ठकुरबाड़ीमे घड़ीघंट बजै लगल। घड़ीघंटक आबाज सुनि रमाकान्त नमहर साँस छोड़लनि। जुगेसरकेँ कहलखिन- ‘‘ओंघीसँ मन भकुआएल अछि। चाहो दोकानपर लोक सभकेँ गल-गुल करैत सुनै छिऐ। कने चाह पीने अबै छी। ताबे तूँ समान सभ देखैत रहह।’’
कहि रमाकान्त उठि कऽ कल पर जाए कुड़ुड़ केलनि। पानि पीलनि। पानि पीबि चाहक दोकानपर जाए चाह पीलनि। चाह पीबि पान खाए घुरि कऽ आबि जुगेसरकेँ कहलखिन- ‘‘आब तोहू जाह। चाह पीबि दूटा टमटम सेहो केने अबिहह।’’
जुगेसर उठि कऽ कलपर जाए कुरड़ा केलक। कुरड़ा केलाक बाद सोचलक जे अखैन भिनसुरका पहर छै। तोहूमे तीनिये-चारिटा टमटमबला आएल अछि। जँ कहीं चाह पीबैले चलि जाइ आ इम्हर टमटमबला दोसर गोरेकेँ गछि लै, तखन तँ पहपटि भऽ जाएत। तइसँ नीक जे पहिने टमटमेबलाकेँ कहि दियै। सैह केलक। टमटमबला लग पहुँचि कऽ पुछलकै- ‘‘भाइ, टमटम खाली छह।’’
“हँ।’’
“चलबह।’’
“हँ, चलब।’’
पहिल टमटमबला जे छल, ओकर घरबाली दुखित छलैक। दस बजेमे डाॅक्टर ऐठाम जेबाक छलैक। एक्को टा पाइ नहि रहने भोरे स्टेमशन पहुँच गेल, जे एक्को-दूटा भाड़ा कमा लेब तँ औझुका जोगार भऽ जाएत। किएक तँ कमसँ कम पचास रुपैआ दवाइ-दारु, तकर बाद घरक बुतात, घोड़ाक खरचा आ दस रुपैआ बैंकबलाकेँ सेहो देबाक अछि।
जुगेसरक पुछितहि टमटमबला मने-मन सोचै लगल जे भिनसुरका बोहनि छी तेँ एकरा छोड़ैक नहि अछि। साला टमटमबला सभ जे अछि ओ उपरौज करैत रहैत अछि। कहैले अपनामे युनियन बनौने अछि मुदा बान्ह कोनो छैहे नहि। लगले बैसार कऽ केँ विचारि लेत आ जहाँ दस रुपैआ जेबीमे एलै आ ताड़ी पीलक अकि मनमाना करै लगैत अछि। अपनामे सभ विचारने अछि जे बर-बीमारीमे सभ चंदा देबै मुदा हमरे कए टा पैसा चंदा देलक। पनरह दिनसँ घरवाली दुखित अछि, जहि पाछु रेजानिस-रेजानिस भऽ गेल छी। ने एक्को मुट्ठी घोड़ाकेँ बदाम दै छिऐ आ ने अपने भरि पेट खाइ छी। धिया-पूता सभ अन्न बेतरे टउआइत रहै अए। तखन तँ धन्यवाद ओही बच्चा सभकेँ दिअए, जे भुखलो माएक सेवा-टहल करै अए। अपनो घोड़ाक संग-संग टमटम घिचै छी। जँ से नइ करब आ सोलहो अन्ना घोड़े भरोसे रहब तँ ओहो मरि जाएत। ओएह तँ हमर लछमी छी। ओकरे परसादे दू पाइ देखै छी। ओकरा कन्ना छोड़ि देबै। जिनगी भरि तँ ओकरे संग सुखो केलौं, छोट-छोट बच्चोकेँ तँ ओएह थतमारिकेँ रखलक। हम तँ भरि दिन बोनाइले रहै छी। घर तँ ओहि बेचारीक परसादे चलै अए।
तहि बीच जुगेसर पुछलकै- ‘‘कते भाड़ा लेबहक?’’
भाड़ाक नाम सुनि टमटमबला सोचै लगल- एक तँ भिनसुरका बोहनि छी, दोसर डाकडरो अइठीन जाइ के अछि। जँ भाड़ा कहबै आ ओते नइ दिअए तखन तँ बक-झक हएत। जँ कहीं दोसर टमटम पकड़ि लिअए, तखन तँ ओहिना मूह तकैत रहि जाएब। तइसँ नीक हैत जे पहिने समानो आ पसिनजरो चढ़ा ली। एते बात मनमे अबितहि टमटमबला कहलकै- ‘‘जे उचित भाड़ा हएत सैह ने लेब। हम तोरा एक हजार कहि देबह तँ कि तूँ दैये देबह।’’
टमटमबलाक बात सुनि जुगेसर कहलकै- ‘‘अच्छा ठीक छै। पहिने चाह पीबि लाए।’’
दुनू, टमटमोबला आ जुगेसरो चाहक दोकानपर जाए चाह पीलक। चाह पीबि तीनू गोटे तमाकुल खेलक। चाहबलाकेँ जुगेसरे पाइ देलकै। तीनू गोटे रमाकान्त लग आबि समान सभ उठा-उठा टमटमपर लदलक। एकटा टमटमपर श्यामा, जुगेसर चढ़ल आ दोसरपर असकरे रमाकान्त समानक संग चढ़ल। किछु दूर आगू बढ़लापर रमाकान्त टमटमबलाकेँ कहलखिन- ‘‘घोड़ा एते लटल छह, खाइले नइ दै छहक?’’
रमाकान्तक बात सुनि टमटमबला बेवशक आखि उठा रमाकान्त दिशि देखि उत्तर देमए चाहैत, मुदा कनैत हृदय मूहसँ बकारे नहि निकलै दैत। टमटमबलाक आखिपर आखि दए रमाकान्त पढ़ै लगलथि। तहि बीच टमटमबलाक आखिमे नोर ढ़बढबा गेलै। कान्ह परक तौनीसँ आखि पोछि टमटमबला कहै लगलनि- ‘‘सरकार यैह टमटम आ घोड़ा हमर जिनगी छी। अहीपर परिवार चलै अए। जइ दिनसँ भनसिया दुखित पड़ल तइ दिनसँ जे कमाइ छी से दबाइये-दारुमे खरचा भऽ जाइ अए। अपनो बाल-बच्चाकेँ आ घोड़ोकेँ खाइक तकलीफ भऽ गेलै अए। की करबै ! कहुना परान बचेने छिऐ। परान बँचतै तँ माउस हेबे करतै।’’
टमटमबलाक धैर्य आ बेवश देखि रमाकान्तक हृदय पघिल कऽ इनहोर पानि जेकाँ पातर भऽ गेलनि। बिना किछु बजनहि मने-मन सोचै लगलथि जे एक तरहक मजबुर ओ अछि जे किछु करबे कमेबे नहि करैत अछि आ दोसर तरहक ओ अछि जे दिन-राति खटैत अछि मुदा ओकरा प्राकृतिसँ लऽ कऽ मनुक्ख धरि एहि रुपे संकट पैदा करैत अछि, जहिसँ ओ मजबूर होइत अछि। ई टमटमबला दोसर श्रेणीक मजबूर अछि, तेँ एहेन लोकक मदति करब धरमक श्रेणीमे अबैत अछि। जरुर एहेन लोकक मदति करैक चाहिऐक। मुदा मेहनतकश आदमीक मोन एत्ते सक्कत होइत अछि जे दोसरसँ हथउठाइ नहि लेमए चाहैत अछि। जँ हम किछु मदति करै चाहिऐक आ ओ लइसँ नासकार जाए, तखन तँ मनमे कचोट हएत। एहि असमंजसमे रमाकान्त पड़ि गेला। फेर सोचै लगलथि जे कोन रुपेँ एकरा मदति कएल जाए ? सोचैत-सोचैत सोचलनि जे हम नहि किछु कहि एकरेसँ पूछिऐक, जे अखन तूँ जहि संकटमे पड़ल छह ओहिमे कते सहयोग भए गेलासँ तोरा पार लगि जेतह। ई विचार मनमे अबितहि पुछलखिन- ‘‘अखन तोरा कते मदति भए गेलासँ पार लगि जेतह।’’
रमाकान्तक बात सुनि टमटमबलाक मनमे संतोषक छोट-छीन लकीर खिंचा गेल। मने-मन सभ हिसाब बैसबैत बाजल- ‘‘सरकार, अगर अखन पाँच दिनक परिवारोक आ घोड़ोक बुतात आ एक सए रुपैआ भए जाए तँ हम अपन जिनगीकेँ पटरीपर आनि लेब। जखने जिनगी पटरीपर आबि जाएत तखने जिनगीक सरपट चालि पकड़ि लेब। स्त्रीक इलाज, परिवार आ कारोबार तीनू काज एहेन अछि जे एक्कोटा छोड़ैबला नहि अछि।’’
टमटमबलाक बोलीमे रमाकान्तकेँ मदतिक आशा बुझि पड़लनि। आशा देखि खुशी भेलनि। खुशी अबितहि बिचारलथि जे अगर पाँच दिनक बदला दस दिनक बुतात आ सए रुपैआक बदला दू सए रुपैया जँ मदति कए देबै तँ विरोध नहि करत। संगे जखने समस्यासँ निकलैक आशा जगि जेतै तँ काजो करैक साहस बढ़ि जेतै। मुदा असकरे तँ नहि अछि, दूटा टमटमबला दू गोटे अछि। की दुनू गोटेकेँ मदति करबैक आकि एकरे टा ?’’
पुनः एहि सवालपर सोचै लगलथि। मनमे एलनि जे मुसीबत तँ एहि बेचारे टाकेँ छैक। दोसर टमटमबालासँ तँ गप नहि भेल जे बुझितिऐक। मुदा एकर तँ बुझलिऐक। तेँ एकरे टा मदति करबैक। दोसर टमटमबलासँ पुछि लेबै जे तोहर भाड़ा कते भेलह ? जेते कहत तते दए देबै। मुदा सोझामे एक ठाम कम-बेसी देबो उचित नहि। तेँ पहिने ओकरा भाड़ा दए बिदा कए देबै आ एकरा रोकि पाछू कऽ सभ किछु दए बिदा कए देबै। गरीबक हृदयकेँ जुराएब बड़ पैघ काज होएत। एते सोचैत-सोचैत रमाकान्त घरपर पहुँचि गेलाह।
घरमे ताला लगा हीरानन्द पैखाना गेल रहथि। दुनू टमटम पहुँचि दलानक आगूमे ठाढ़ भेल। टमटम ठाढ़ होइतहि सभ कियो उतड़लाह। टमटमोबला आ जुगेसरो सभ समानकेँ उतारि दरबज्जाक ओसारपर रखलक। ताबे हीरानन्दो बाध दिशिसँ आबि पोखरिक पुबरिया महार लग पहुँचलाह। महार लग अबितहि दरबज्जापर टमटम लगल देखलनि। टमटम देखि हीरानन्द बुझि गेल जे रमाकान्त आबि गेलाह। हाँइ-हाँइ कऽ दतमनि, कुरुड़ कए लफरल दरबज्जापर आबि घरक ताला खोलि देलखिन। हाथे-पाथे तीनू गोटे सभ सामानकेँ कोठरीमे रखि देलकनि। दोसर टमटमबलाकेँ भाड़ा पूछि रमाकान्त दए देलखिन। पहिल टमटमबलाकेँ आँखिक इशारासँ रुकैले कहलखिन। दोसर टमटमबला चलि गेल। पहिल टमटमबलाकेँ दू सए रुपैया आ दस दिनक बुतात -दू पसेरी बदाम आ तीन पसेरी चाउर- दए बिदा केलनि। टमटमपर चढ़ि मने-मन गद-गद होइत टमटमबला गीत ‘सभक सुधि अहाँ लइ छी यौ बाबा हमरा किअए बिसरल छी यौ..’ गुनगुनाइत बिदा भेल।
पसीनासँ गंध करैत कुरता-गंजी निकालि रमाकान्त चौकीपर रखलनि। भकुआइल मन रहनि। मुदा निकेना घर पहुँचलासँ मन खुशी होइत रहनि। हीरानन्दक पूछैसँ पहिनहि रमाकान्त पुछलखिन- ‘‘गाम-घरक हाल-चाल बढ़िया अछि की ने ?’’
“हँ’’- कहि हीरानन्द पुछलखिन- ‘‘यात्रा बढ़ियाँ रहल की ने? ’’
‘‘येह, यात्राक संबंधमे की कहू ! अखन तँ मनो भकुआएल अछि आ तीन दिनसँ नहेबो ने केलहुँहेँ। तेँ पहिने नहा लिअए दिअ। तखन निचेनसँ यात्राक संबंधमे कहब।’’
जुगेसरकेँ जे बिदाइ मद्रासमे भेटल रहै ओ चारिटा कार्टूनमे रहै । चारु कार्टून जुगेसर फुटा कऽ ओसारेपर रखने रहए। जुगेसरक घरवाली आ धिया-पूता सेहो आबि गेलैक। चारु कार्टून जुगेसर अपना घरवालीकेँ देखबैत कहलक- ‘‘ई अप्पन छी। अंगना नेने चलू।’’
अप्पन सुनि घरोवाली आ धियो-पूतो चपचपा गेल। चारु कार्टून लए आंगन बिदा भेल।
रमाकान्तक अबैक समाचार गाममे बिहाड़ि जेकाँ पसरि गेल। धिया-पूतासँ लऽ कऽ चेतन धरि देखैले अबै लगलनि। दरबज्जापर लोकक भीड़ बढै़ लागल। रमाकान्त नहाएब छोड़ि जुगेसरकेँ कहलखिन- ‘‘जुगे, सनेसबला कार्टून एतै नेने आबह।’’
सनेसमे डाॅ. महेन्द्र टुकड़ी बनाओल दू कार्टून नारियल देने रहनि। जुगेसर कोठरी जा एकटा कार्टून उठौने आएल। जहियासँ रमाकान्त ब्रह्मचारी जीक आश्रम गेलथि, तहियासँ विचारे बदलि गेलनि। अपन सुख-दुखकेँ ओते महत्व नहि दिअए लगलथि, जते दोसराक। दरबज्जापर लोक थहा-थही करै लगल। जना लोकक हृदय रमाकान्तक हृदयमे मिझराए लगलनि आ रमाकान्तक हृदय लोकमे। अपन नहाएब, दतमनि करब आ आँखिपर लटकल ओंघी सभ बिसरि जुगेसरकेँ कहलखिन- ‘‘चेतनकेँ दूटा टुकड़ी आ बाल-बोधकेँ एक-एकटा टुकड़ी बाँटि दहक। दरबज्जापर आएल एक्को गोटे ई नहि कहए जे हमरा नहि भेल।’’
कार्टून खोलि जुगेसर नारियलक टुकड़ी बिलहै लगल। हाथमे पड़ितहि, की चेतन की धिया-पूता, नारियल खाए लगल। एक कार्टून सठि गेल मुदा देखिनिहार, जिज्ञासा केनिहार नहि सठल। दोसरो कार्टून जुगेसर अनलक। दोसर कार्टून सठैत-सठैत लोको पतरा गेल। लोकक भीड़ हटल देखि रमाकान्त नमहर साँस छोड़ैत जुगेसरकेँ कहलखिन- ‘‘आब तोहूँ जा कऽ खा-पीअह गे। हमहूँ जाइ छी।’’
आंगन आबि जुगेसर अपन चारु कार्टून खोललक। मद्रासमे कार्टूनक भितरका समान नहि देखने छल तेँ देखैक उत्सुकता रहै। एक-एकटा कार्टून चारु गोटे- महेन्द्र, रविन्द्र, जमुना आ सुजाता- देने रहै। पहिल कार्टून, महेन्द्रबलामे एक जोड़ धोती, एक जोड़ साड़ी, एकटा कुरता कपड़ाक पीस, एकटा आङीक पीस, एकटा चद्दरि, एकटा गमछा, जुगेसर ले एक जोड़ जुत्ता आ घरवलीले एक जोड़ चप्पल, दुनू बच्चाले पेन्ट-शर्टक संग तीन सए रुपैआ रहैक। एहिना तीनू कार्टूनमे सेहो रहैक। चारु कार्टूनक समान देखि जुगेसरक परिवारक मनमे खुसीक बिहाड़ि उठि गेलैक। दुनू बच्चा अपन कपड़ा देखि खुशीसँ एक-एकटा पहीरि आंगनमे नचै लगल। किएक तँ कपड़ाक एहन सुख जिनगीमे पहिल दिन भेटल छलैक। दुनू परानी जुगेसरकेँ सेहो खुशीसँ मन गद-गद भए गेलैक। जुगेसर हिसाब जोड़ै लगल जे जँ ओरिया कऽ पहिरब तँ दुनू गोरेक जिनगी पार लगि जाएत। एहन चिक्कन कपड़ा आइ धरि नसीब नहि भेल छल। एक आखि जुगेसर समानपर देने आ दोसर आखि घरवालीक आखिपर देलक।
दुनू गोटेक आखिमे जिनगीक बसन्त अबै लगलैक। अपन बिआह मन पड़लै। जुगेसरकेँ होए जे घरवालीकेँ दुनू बाँहिसँ पजिया कऽ छातीमे लगा ली आ घरवालीकेँ होए जे घरबलाक कोरामे बैसि एकाकार भए जाए। मुदा तीन दिनक गाड़ीक झमारसँ जुगेसरक देहो भसिआइ आ ओंघियो आखिक पिपनीकेँ झलफलबैत रहए। जुगेसर घरवालीकेँ कहलक- ‘‘पहिरैले एक-एक जोड़ कपड़ो आ जुत्तो बहार रखू आ बाकीकेँ खूब सरिया कऽ रखि लिअ, जे दुरि नहि हुअए।’’
बेर टगि गेल। जुगेसर नवका धोती, गंजी पहीरि कान्हपर गमछा नेने रमाकान्त ऐठाम पहुँचल। रमाकान्त सुतले रहथि। आंगन जाए श्यामाकेँ देखलक तँ ओहो सुति उठि कऽ मूह-हाथ धोइत छलीह। जुगेसरकेँ देखि, श्यामा एक टकसँ निङहारि, मुस्की दैत कहलखिन- ‘‘आइ तँ अहाँ दुरगमनिया वर जेकाँ लगै छी जुगेसर।’’
हँसैत जुगेसर उत्तर देलकनि- ‘‘काकी, महिन्दर भाए देलहा छी।’’
महिन्दरक नाम सुनि श्यामा कहलखिन- ‘‘भगवान भोग देथि। की सभ बच्चा देलनि?’’
जुगेसर- ‘‘अहाँसँ लाथ कोन काकी, तते कपड़ा-लत्ता आ जुत्ता-चप्पल चारु गोरेकेँ देलनि जे जिनगी भरि कतबो धाँगि कऽ पहिरब तैयो ने सठत।’’
बेटा-पुतोहूक बड़ाइ सुनि श्यामाक हृदय उमड़ि पड़लनि। आह्लादित भए पुछलखिन- ‘‘पाइयो-कौड़ी देलनि आकि कपड़े-लत्ताटा?’’
“रुपैआ तँ गनलिऐ नहि, मुदा बुझि पड़ल जे दस-पनरहटा नमरी अछि।’’
“बाह। मालिक देखलनि की नहि? ’’
“ओ तँ सुतले छथि। हुनके देखबैले पहीर कऽ एलौं।’’
“हम ताबे चाह बनबै छी। दरबज्जापर जा कऽ हुनको उठा दियौन।’’
‘बड़बढ़िया’ कहि जुगेसर दरबज्जापर आबि रमाकान्तकेँ उठबै लगलनि। आखि खोलि रमाकान्त देबालक घड़ीपर नजरि देलनि। चारि बजैत। पड़ले-पड़ल सुतैक हिसाब जोड़लनि। हिसाब जोड़ि घुनघुना कऽ बजलाह- ‘‘एहेन निन्न तँ जुआनियोमे नहि अबैत छल।’’ ओछाइनपर सँ उठि जुगेसरकेँ कहलखिन- ‘‘कने चाह बनौने आबह। अखनो बुझि पड़ै अए जे निन्न आँखियेपर लटकल अछि। ताबे हमहूँ कुरुड़ कए लैत छी।’’
कहि रमाकान्त पहिने लघी करै गेलाह। लघी करै काल बुझि पड़नि जे चाहोसँ धीपल लघी होइ अए। ततबे नहि जते लघी चारि बेरिमे करैत छी, तोहूसँ बेसी भए रहल अछि। लघी कए कलपर आबि आखि-कान पोछि, कुरुड़ कए दमसा कऽ भरि पेट पानि पीलनि। पानि पीबितहि बुझि पड़लनि जे अधा निन्न पड़ा गेल। जुगेसर चाह अनलक। रमाकान्त चाह पीबितहि रहथि आकि हीरानन्दो स्कूलसँ आबि गेला। शशिशेखर आबि गेल। हीरानन्द जुगेसरकेँ पुछलखिन- ‘‘जात्रा बढ़िया रहल की ने ?’’
हँसैत जुगेसर बाजल- ‘‘जाइ काल टेनमे बड़ भीड़ भेल। जाबे गाड़ीमे रही ताबे ने एक्को बेर झाड़ा भेल आ ने सुतलौं। किएक तँ रिजफ सीट रहबे ने करै। जइ डिब्बामे बैसल रही ओहिमे लोकक करमान लागल रहै। तइपर सँ जइ स्टे्शन मे गाड़ी रुकै सभ टीशनमे एगो-दूगो लोक उतड़ै आ दस-बीस गोरे चढ़ि जाए। मुदा भगवानक दयासँ कहुना-कहुना पहुँच गेलौं। जखन मद्रास टीशनपर उतड़लौं तँ दोसरे रंगक लोक दखिऐ। अपना सभ दिस अछि किने जे सभ रंगक लोक मिलल-जुलल अछि। से नइ देखिऐ। बेसी लोक कारिये रहै। गोटे-गोटे लोक उज्जर बुझि पड़ै। जखन डेरापर पहुँचलौं तँ मकान देखि बिसबासे ने हुअए जे अपन छिअनि। बड़का भारी मकान। तइमे कोठलीक कमी नहि।’’
“भरि मोन देखलौं की ने? ’’
‘‘ऐह, की कहू मासटर सैब, महिन्दर भाए अपने मोटरसँ भरि-भरि दिन बुलबैत रहथि। मोटरो तेहेन जे जहाँ बैसी आ खुगै आकि ओंघी लगि जाए। कतए की देखलौं से मनो ने अछि।’’
रमाकान्तक मद्राससँ अएबाक समाचार सुनि महेन्द्रक स्कूलक संगी सुबुध सेहो अएलाह। ओ हाइ स्कूलमे शिक्षक छथि। महेन्द्र आ सुबुध, हाइ स्कूल धरि, संगे-संग पढ़ने रहथि। महेन्द्र साइंसक विद्यार्थी आ सुबुध आर्टक। बी.ए. पास केलापर सुबुध शिक्षक भेलाह आ महेन्द्र डाॅक्टरी पढ़ि डाॅक्टर बनलाह। महेन्द्रक कुश्लन-क्षेम पूछि सुबुध रमाकान्तकेँ पुछलखिन- ‘‘अपना एहिठामक लोक आ मद्रासक लोकमे की अंतर देखलिऐक?’’
दुनू ठामक लोकक तुलना करैत रमाकान्त कहै लगलखिन- ‘‘ओत्तुका आ अपना ऐठामक लोकमे अकास-पतालक अन्तर अछि। ओहिठामक लोक अपना एहिठामक लोकसँ अधिक मेहनती आ इमानदार अछि।’’
बिचहिमे शािशशेखर प्रश्नो केलकनि- “की मेहनती?”
“मनुक्खक तुलना करैसँ पहिने अपन इलाका आ मद्रासक माटि-पानिक तुलना सुनि लिअ। जेहेन सुन्नर माटि अपना सभक अछि, देखते छिऐ जे कते मुलाएम आ उपजाऊ माटि अछि। पानियो कते बढ़ियाँ अछि, एहन मद्रासमे नहि अछि। अपना सभसँ बेसी गरमियो पड़ैत छैक। जहाँ धरि लोकक सवाल अछि, अपना ऐठामक लोक अधिक आलसी अछि। समएकेँ कोनो महत्व नहि दैत अछि। वा ई कहियौक जे एहिठामक लोक समएक महत्व बुझबे नहि करैत अछि। कियो बुझबो करैत अछि तँ ओ परजीवी बनि जिनगी बितबै चाहैत अछि। हँ, किछु गोटे एहेन जरुर छथि जे मर्यादित मनुष्य बनि जिनगी जीबि रहल छथि। जे पूजनीय छथि, मुदा सामाजिक व्यवस्था सदिखन हुनको झकझोड़ितहि रहैत छन्हि। ओहिठामक लोक समएक संग चलैत छथि, जहिसँ कमजोर इलाका रहितहुँ नीक-नहाँति जिनगी बितबैत अछि। ओहिठामक लोक भीखकेँ अधला बुझि नहि मंगैत अछि, मुदा अपना ऐठाम लोक उपार्जनक स्रोत बुझैत अछि।’’
बिचहिमे सुबुध पुछलकनि- “पढ़ाई-लिखाई केहेन छैक ?”
“स्कूल, कओलेज, युनिवर्सिटी सभ देखलहुँ। लड़का-लड़कीक स्कूल शुरुहेसे अलग-अलग अछि। मुदा तैयो दुनूकेँ संगे-संग पढ़ैत सेहो देखलहुँ। अपना ऐठामसँ बेसी लड़की ओहिठाम पढ़ैत अछि। अपना ऐठाम लड़के पछुआएल अछि तँ लड़कीक कोन हिसाब। गाड़ी, ट्रेन, बसमे सेहो अलग-अलग व्यवस्था छैक। जहनकि अपना ऐठाम सभ संगे-संग चलैत अछि।’’
सुबुध- ‘‘खाइ-पीबैक केहेन व्यवस्था छैक?’’
“गरीब लोकक खान-पान दब होइतहि छैक। मुदा एक हिसाबसँ देखल जाए तँ अपना सभक नीक अछि। कपड़ो-लत्ता पहिरब अपना ऐठाम नीक अछि।’’
रमाकान्तक छोटकी पुतोहू सुजाता एक कार्टूनक फलक बनल शराबक पेटी सेहो देने रहनि। आँखिक इशारासँ रमाकान्त जुगेसरकेँ एक बोतल ब्राण्डी अनैले कहलखिन। जुगेसर उठि कऽ भीतर गेल आ एकटा बोतल ब्राण्डी नेने आएल। दरबज्जापर आबि चाहेक गिलासकेँ धोए, सभमे शराब दए सबहक आगूमे देलकनि। आगूमे पड़ितहि रमाकान्त घट दए पीबि गेलाह। मुदा हीरानन्दो, शशिशेखरो आ सुबुधोकेँ डर होइत छलनि। कहियो पीने नहि। दोहरी गिलास पीबैत रमाकान्त सभकेँ कहलखिन- ‘‘पीबै जाइ जाउ, फलक रस छिऐक। कोनो अपकार नहि करत।’’
मुदा तैयो सभ-सबहक मूह तकैत रहथि। दोहराकेँ फेर रमाकान्त सभकेँ कहलखिन- ‘‘मने-मन सुबुध सोचलनि जे कोनो जहर-माहूर थोड़े छिऐक जे मरि जाएब। अगर मरबो करब तँ पहिने कक्के ने मरताह। बुझल जएतैक। आगूमे राखल गिलास उठा आस्तेसँ दू घोट पीबि, गिलास रखि, हीरानन्दकेँ कहलखिन- ‘‘पीबू, पीबू मास्टर सहाएब। सुआद तँ कोनो अधला नहिये बुझि पड़ैत अछि।’’
सुबुधक बात सुनि हीरानन्दो आ शशिशेखरो गिलास उठा कऽ पीलनि।ताबे तेसरो गिलास रमाकान्त चढ़ा देलखिन। तेसर गिलास पीबितहि आखिमे लाली अबै लगलनि। मन हल्लुक सेहो हुअए लगलनि। बजैक ताब सेहो चढ़ै लगलनि। जहिना आगिपर चढ़ल पानिक बरतनमे ताव लगलापर निच्चाँक पानि गर्म भए उपर आबै चाहैत अछि, तहिना रमाकान्तोकेँ हुअए लगलनि। धीरे-धीरे रंग चढ़ैत नीक जेकाँ चढ़ि गेलनि। अहू तीनू गोटे- हीरानन्द, सुबुध आ शशिशेखरक आँखि तेज हुअए लगलनि। तेज होइत नजरिसँ सुबुध पुछलखिन- ‘‘कक्का, महेन्द्र भाए मस्तीमे रहै छथि की ने?’’
बजैक वेग रमाकान्तकेँ रहबे करनि, तहि परसँ महेन्द्रक मस्ती सुनि कहै लगलखिन- ‘‘महेनद्रक मेहनति आ कमाइ देखि क्षुब्द भऽ गेलहुँ। अप्पन बड़का मकान, चारिटा गाड़ी, बजारमे अइल-फइलिक बास तहि परसँ बैंकोमे ढेरी रुपैआ जमा केने अछि। अइठामक सम्पत्तिक ओकरा कोनो जरुरी नहि छैक। किएक रहतैक? जेकरा अपने कमाइ अम्बोह छै।’’
बिचहिमे सुबुध टोकि देलकनि- ‘‘तखन ऐठामक खेत-पथार गरीब-गुरबाकेँ दए दियौक?’’
बिना किछु आगू-पाछू सोचनहि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बड़ सुन्नर बात अहाँ कहलहुँ। अनेेरे हम एत्ते खेत-पथार रखने छी। यैह खेत जे गरीबक हाथमे जेतै तँ उपजबो बेसी करतै आ ओकर जिनगीयो सुधरि जेतै।’’
जहिना धधकल आगिमे हवा सहायक होइत, तहिना रमाकान्तोकेँ भेलनि। एक तँ ब्राण्डीक नशा, दोसर परिवारमे चारि-चारिटा डाॅक्टरक कमाइ, तहि परसँ अपार सम्पत्ति देखि मन उधिआइत छलनि। समाजक स्नेह सेहो बढ़ि गेल छलनि। ततबे नहि, अद्वेत दर्शन हृदयकेँ पैघ बना देलकनि।
हँसैत रमाकान्त सबहक बीच, कहलखिन- ‘‘अखन धरि हम गुलरिक कीड़ा बनल छलहुँ, मुदा आब दुनियाँकेँ देखलिऐक। दू सए बीधा जमीन अछि। किएक हम एत्ते रखने छी। एकटा जमीनदारक खेतसँ सैकड़ो गरीब परिवार हँसी-खुशीसँ गुजर कए सकैत अछि। जखनिकि ओतेक सम्पत्तिक सुख एकटा परिवार करैत अछि। ई कते भारी अनुचित थिक। सभ मनुक्ख मनुख छी। सभकेँ सुख-दुखक अनुभव होइत छैक। केयो अन्न बेतरे काहि कटैत अछि तँ ककरो अन्न सड़ैत छैक। घोर अन्याय मनुक्ख-मनुक्खक संग करैत अछि।’’
कहि जुगेसरकेँ कहलखिन- ‘‘जुगे, चाह बनौने आबह?’’
जुगेसर चाह बनबै गेल। तहि बीच बौएलाल सेहो आएल। रमाकान्तकेँ गोर लागि कातमे बैसल। बौएलालकेँ बैसितहि रमाकान्त हीरानन्दकेँ कहलखिन- ‘‘मास्टर सहाएब, महेन्द्र कहने छल जे एकटा लड़का आ एकटा लड़की दू गोरेकेँ एहिठाम मद्रास पठा दिअ। ओहि दुनू गोटेकेँ अपना संग रखि छोट-छोट बीमारीक इलाज केनाइ सिखा देबैक। गाममे इलाजक बड़ असुविधा अछि। ततबे नहि, गरीबीक चलैत लोक रोग-व्याधिसँ मरि जाइत अछि, मुदा इलाज नहि करा पबैत अछि। तेँ एकटा छोट-छीन अस्पताल सेहो बना देब, जहिमे लोकक मुफ्त इलाज हेतैक। तहि लेल जते दवाइ-दारुमे खर्च हएत से हम देब। हम सभ चारि गोटे छी। बेरा-बेरी चारु गोटे, सालमे एक-एक मास गाममे रहब आ लोकक इलाज करब। तहि बीच छोट-छोट बीमारीक लेल सेहो दू आदमीकेँ तैयार कऽ देबाक अछि। जँ कहीं बीचमे नमहर बीमारी ककरो हेतैक तँ ओकर इलाजक खर्च सेहो देबै। तेँ दू आदमीकेँ मद्रास पठा दियौ, ओकर जेबाक खर्च देबै।’’
रमाकान्तक बात सुनि, सभ कियो बौएलाल आ सुमित्राकेँ मद्रास पठबैक विचार केलनि। बौएलालकेँ हीरानन्द कहलखिन- ‘‘बौएलाल सबहक विचार तँ तू सुनिये लेलह। काल्हि दुनू गोरे मद्रास चलि जाह।’’
९
कछ-मछ करैत हीरानन्द भरि राति जगले रहि गेलाह। मनमे कखनो होनि जे रमाकान्तक देल जमीन समाजक बीच कोना बाँटल जाए, तँ कखनो हुनक उदार विचार नचैत रहनि। कखनो होनि जे निसाँक झोकमे बजलाह मुदा निसाँ टुटलापर जँ कहीं नठि जाथि। विचित्र स्थितिमे हीरानन्द रहथि। बात बदलब धनीक लोकक जन्मजात आदत छी। मुदा हम तँ शिक्षक छी, शिक्षकक प्रति आदर आ निष्ठा, सभ दिनसँ, समाजमे रहलैक आ रहतैक। एहि विचारक बीच जते गोटे छलहुँ ओहिमे हम आ सुबुध शिक्षक छी। तँ आन क्यो तँ कम्मो मुदा हम दुनू गोटेतँ बेसी घिनाएब। कोन मूह लए समाजक बीच रहब। फेर अपनेपर शंका भेलनि जे हमहूँ तँ शराबेक निशामे ने तँ बौआइ छी। ई बात मनमे उठितहि, उठि कए बाहर निकलि चारु भर तकलनि। अन्हार गुप-गुप रहए। सन-सन करैत राति छलैक। हाथ-हाथ नहि सुझैत छलैक। मुदा मेघ साफ। सिंगहारक फूल जेकाँ तरेगण चकचक करैत रहए। हवा तँ कोनो नहिये बहैत रहै मुदा राति ठंढ़ाइल रहए। पुनः बाहरसँ कोठरी आबि बिछानपर पड़ि रहला। मुदा निन्नक कतौ पता नहि ! मनसँ जमीन हटबे नहि करैत रहनि। पुनः उठि कऽ कोठरीसँ निकलि लघी लघुशंका करैले कातमे बैसलाह। भरिपोख पेशाब भेलनि। पेशाब होइतहि मन हल्लुक भेलनि। मन हल्लुक होइतहि ओछाइनपर आबि पड़ि रहलाह। ओछाइनपर पड़ितहि निन्न आबि गेलनि।
सुबुध सेहो भरि राति जगले बितौलनि। मुदा हीरानन्द जेकाँ ओ ओझरीमे नहि ओझराइल रहथि। समाज शास्त्रक शिक्षक होइक नाते स्पष्ट सोच आ समाज चलैक स्पष्ट दिशा छलनि, तेँ मन दृढ़ संकल्प आ सक्कत विचारसँ भरल छलनि। सभसँ पहिने मनमे उठलनि जे जहिना आर्थिक दृष्टिसँ टूटल समाजकेँ रमाकान्त कक्काक सहयोगसँ मजबूत बल भेटतैक, तहिना तँ ओहि बलकेँ चलबैक सेहो मजगूत रस्ता भेटैक चाही ! जे रमाकान्त कक्का बुते नहि हेतनि। इमानदारी आ उदार स्वभावक चलैत तँ ओ सम्पत्तिक त्याग केलनि। मुदा ओ सम्पत्ति आगू मुहे कोना बढ़तैक? जहिना मनुक्खक परिवार दोबर, तेबर, चारिबरक रफ्तारसँ आगू मुहे बढ़ैत अछि, तहिना तँ सम्पतियोक गति हेबाक चाहिऐक। मुदा सम्पत्तिमे ओ गति तखने आओत जखन कि ओहिमे श्रमक इंजिन लगाओल जाएत। ओना श्रमक इंजन लगौनिहार श्रमिक सेहो पर्याप्त अछि मुदा ओकरा श्रमकेँ कोन रुपमे बढ़ाओल जाए। एक रुपक ई होइत जे सोझे-सोझी ओकरा नव कार्यक ढाँचामे ढालल जाए, नव काज देल जाए, जे संभव नहि अछि ! किएक तँ नव औजार, नव तरीका बिना नव ज्ञाने संभव नहि अछि, जे नहि अछि। दोसर जे लूरि आ औजार अछि, ओकरे धारदार बना आगू बढ़ाओल जाए। जे संभवो अछि आ उपयुक्तो होएत। मुदा ओहू लेल पथ-प्रदर्शकक जरुर होएत। जेकर अभाव अछि। हमहूँ तँ नोकरीये करै छी। सात दिनमे एक दिन रविकेँ गाममे रहै छी, बाकी छह दिन अनतै रहै छी। तहिसँ काज कोना चलि सकै अए ? किएक तँ समाजो नमहर अछि आ समस्यो ढेर अछि। हर समस्याक समाधानक रस्तो फराक-फराक होएत। जना बुद्धदेव कहने छथि जे दुश्मनकेँ सूइयाक नोक भरि जँ सुराक भेटि जाएत तँ ओहि होइत हाथी सन विकराल जानवर प्रवेश कए जाएत। समाजक समस्यो तँ ओहने अछि। अनायास मनमे उपकलनि जे जहिना रमाकान्त कक्का अपन सभ सम्पत्ति समाजकेँ दैले तैयार छथि तहिना हमहूँ नोकरी छोड़ि अपन ज्ञान समाजकेँ दए देबैक। सभ किछु बुझितहुँ सड़ल-गलल रस्ता, अपन अरामक दुआरे, धेने चलि रहल छी। सात बीघा जमीन, एकटा पोखरि, दस कट्ठा गाछी-कलम आ खढ़होरि अछि। जाहिसँ पिताजी नीक-नाहाँति गुजरो करैत छलाह आ हमरो पढ़ौलनि। मुदा हम नोकरीयो करैत छी, खेतो-पथार ओहिना अछि मुदा कते आगू मुहे बढ़लहुँ। हँ, एते जरुर भेल अछि जे घरोवालीकेँ आ बेदरो-बुदरीकें, धनिकक मंदिरक मुरती जेकाँ, नीक-नीक परसाद, नीक-नीक सजावटसँ सजा काहिल बनौने छी। की हम ई नहि देखैत छी जे झक-झक करैत छातीक हाड़बला रिक्साक खिंचैत अछि, साठि बरखक महिला चिमनीमे पजेबा उघैत अछि, मरैबला पुरुख बड़दक संग हर खिंचैत अछि। अन्नक बोझ उघैत अछि। की ओकर देह लोहाक बनल छैक आ हमरा सबहक कोढ़िलाक बनल अछि। ई सभ धन आ बुद्धिक करामात छी। आइ धरिक समाज आ समाजक नियामक एकरे पोसक रहलाह जे सुधारबाक अछि। नहि तँ मनुक्ख आ जानवरमे की अन्तर रहतैक? जहि समाजमे मनुक्ख जानवरक जिनगी जीबए ओहि समाजक प्रबुद्ध लोककेँ चुरुक भरि पानिमे डूबिकेँ नहि मरि जेबाक चाहियनि। एते बात मनमे अबितहि सुबुध तए केलनि जे सभसँ पहिने काल्हि स्कूलमे त्यागपत्र दए देब। आइ धरि जे जिनगी जीलहुँ, मुदा काल्हिसँ नव जिनगीक सूत्रपात करब। एहि संकल्प-विकल्पक बीच मन घुरिआइत रहनि।
भोर होइतहि सुबुध ओछाइन परसँ उठि मैदान दिशि बिदा भेला। हाथमे लोटा, मुदा मन ओहि विचारमे डूबल छलनि। थोड़े दूर गेलापर गाममे गल्ल-गुल होइत सुनलनि। रस्तेपर ठाढ़ भए अकानै लगलाह। जे कथीक गल्ल-गुल भए रहल अछि। सोझामे ककरो नहि देखैत, जे पुछियो लैतथि। मने-मन अनुमान करै लगलाह जे भरिसक रातिमे कतौ कोनो घटना घटि गेलैक। या तँ ककरो साँप-ताँॅप काटि लेलकै वा कतौ चोरि भए गेलैक। मुदा से सभ नहि छलैक। साँझमे जे विचार रमाकान्त व्यक्त केने रहथि ओ राता-राती बिहाड़ि जेकाँ सगरे गाम पसरि गेलैक। रस्तेसँ घूरि सुबुध कड़चीक दतमनि तोड़ि, दतमनि करैत घरपर अएला। घरपर अबितहि देखलनि जे सुकना बैसल अछि। मुदा सुकनाक नजरि सुबुधपर नहि पड़लैक, किएक तँ ओ अंगनाक दुआरि दिशि तकैत रहए। सुबुध सुकनाकेँ पुछलखिन- ‘‘भोरे-भोर किमहर सुकन।’’
सुबुधक बात सुनि अकचकाइत सुकन चौकीपर सँ उठि, दुनू हाथ जोड़ि बाजल- ‘‘मालिक, अहाँ तँ जनिते छी जे कोनो काज-उद्यममे सभ तूर मिलि सम्हारि दै छी। गरीबोपर नजरि रखबै।
सुबुधकेँ सुकनक बातक कोनो अर्थे ने लगलनि। पुछलखिन- ‘‘सुकन भाए, तोहर बात हम नहि बुझलिअह।’’
“लोक सभ कहलकहेँ जे रमाकान्त कक्का अपन सभ खेत गरीब-गुरबाकेँ दए देथिन, जे अहीं बँटबै।’’
सुकनक बात सुनि सुबुध मने-मन सोचै लगलथि जे जमीन-जएदादक सवाल अछि। धड़फड़ा कऽ कोना हेतैक। जँ आम लोकक बीच विचार कएल जाएत तँ हो-हल्ला हेतै। हो-हल्ला भेने काजो बिगड़ि जएतैक। तेँ असथिरसँ विचार करैक जरुरत अछि। मुदा अखन जँ सुकनकेँ ई बात कहबै तँ दुख हेतैक। तेँ आशाक बात कहब अछि। कहलखिन- ‘‘सुकन भाए, जखन गरीबक बीच खेतक बँटवारा हैत तँ तोहूँ गरीबे छह। तखन तोरा किएक ने हेतह। अखन जाह।’’
सुकन बिदा भेल। कलक आगूमे ठाढ़ भए सुबुध सोचै लगलाह। अजीब स्थिति भए गेल। एक दिशि गरीबक सबाल अछि। जँ कनियो चूक हैत तँ जिनगी भरि बदनामीक मोटरी माथपर चढ़ि जाएत। तेँ इमानदारीक जरुरत अछि। मुदा इमानदारी दिशि तकै छी तँ अपनोमे बेइमानी घुसल अछि। परिवारोमे तहिना देखै छी आ समाजोमे तँ अछिये। गरीबोमे देखै छी जे, जे मेहनती अछि ओ बहुत किछु कमा कऽ बनाइयो नेने अछि। जना रहैक घर, पानि पीबैक कल, जीबैक लेल बटाइ खेतीक संग पोसिया मालो-जाल खूँटापर रखने अछि। जहनकि जे आलसी अछि ओकरा सब कथूक अभावे छैक। ततबे नहि जँ हम इमनदारियोसँ विचार रखै चाहब तैयो उलझन होएत, हमही टा तँ नहि छी। आरो गोटे रहताह। सभक नेत सभक प्रति एक्के रंग हेतनि, सेहो बात नहि अछि। जँ कियो मूह देखि मंूगबा बँटताह, सेहो भए सकै अछि। ओहि ठाम जँ हुनका कहबनि तँ हमरे बात मानि लेता, सेहो संभव नहि अछि। जँ रमाकान्त कक्का ककरो बेसी दिअए चाहथिन तँ की कहबनि, सम्पत्ति तँ हुनके छिअनि। एहि सभ विचारक जंगलमे सुबुध बौआए लगलथि। दतमनिक घुस्सा कखनो चलैत आ कखनो बन्न भए जाइत छलनि। एक तँ भरि रातिक जगरना तहि परसँ अमरलत्ती जेकाँ ओझरी केँ सोझराएब असान नहि बुझि पड़नि, कनियो किम्हरो जोर पड़त तँ टन दऽ टुटि जाएत। तेँ समाजक मूल रोगकेँ जड़िसँ नहि पकड़ल जाएत तँ सभ गूड़ गोबर भए जाएत। तहि बीच मुनमा डाबामे दूध नेने सुबुधक आंगन जाए डाबा रखि, सुबुध लग आबि दुनू हाथ जोड़ि कहलकनि- ‘‘भाए, अबलोपर दया करबै?’’
एक तँ सुबुधक मन अपने घोर-घोर भेल, तहि परसँ लोकक पैरबी। मन मसोसिकेँ सुबुध कहलखिन- ‘‘अखन जाह। जखन जमीनक बँटवारा हुअए लगतै तँ तोरो बजा लेबह।’’
दतमनि कए सुबुध आंगन जाए पत्नीकेँ पुछलखिन- ‘‘डाबामे मुनमा की नेने आएल छल?’’
“दूध।’’
“दाम देलिऐ।’’
“नहि।’’
“किएक? ’’
“हमरा भेल जे अहीं पठेलौं, तेँ।’’
पत्नीक जबाव सुनि सुबुधक मनमे आगि लगि गेलनि। खिसिया कऽ पत्नीकेँ कहलखिन- ‘‘झब दे चाह बनाउ। स्कूल जाएब।’’
पत्नी- ‘‘अखने किअए जाएब? आन दिन खा कऽ जाइ छलौं आ आइ भोरे किअए जाएब? ’’
“रौतुका खेलहा ओहिना कंठ लग अछि। तेँ नहि खाएब।’’
कहि सुबुध लुंगी बदलि धोति पहिरए लगला आकि पत्नी चाह नेने एलखिन। कुरता पहीरि चाह पीबि सुबुध बिदा भेलाह।
जिनगी भरिमे रमाकान्तकेँ एहन निन्न कहियो नहि भेल छलनि जेहन राति भेलनि। समएक अन्दाजसँ जुगेसर आबि खिड़की देने हुलकी देलक तँ देखलक जे रमाकान्त ठर्र पाड़ैत छथि। रमाकान्तकेँ सुतल देखि जुगेसर जोरसँ केबार ढ़कढकौलक। केवारक अबाज सुनि रमाकान्त आखि मलैत उठलाह। जुगेसर रमाकान्तकेँ उठा चाह अनै आंगन गेल। रमाकान्तो उठि कऽ कलपर जा कुरुड़ केलनि। ताबे जुगेसरो चाह नेने आबि गेलनि। रमाकान्त चाह पीबितहि रहथि आकि मनमे एलनि जे बाबा चाणक्य ठीके कहने छथि जे धन ककराले रक्खी। हमरो तँ पितेजीक अरजल छी। जाधरि ओ जीबैत छलाह, हमरा कोनो मतलब नहि छल। मुदा हुनका मुइने तँ सभटा हमरे भेल। दुनू बेटा तते कमाइत अछि जे अइ धनक ओकरा जरुरते नहि छैक। हम कते दिन जीबे करब। तहन तँ सभ धन ओहिना नष्ट भए जाएत। कौआ-कुकुड़ लूझि-लूझि खाएत। तहिसँ नीक जे समाजक गरीब-गुरबाकेँ दए दिअए। जहिना तिब्बतक ८म-९अम शताब्दीक राजकुमार चेन पो अपन सभ सम्पति लोकक बीच बाँटि देलखिन, तहिना हमहूँ बाँटि देबइ। तहिसँ समाजमे भाइ-भैयारीक संबंध सेहो मजगूत बनतैक। आइ जँ व्यास बाबा जीबैत रहितथि तँ ओ जरुर बिना कहनहुँ आबि कऽ असिरवाद दैतथि। अगर स्वर्ग जेबाक रस्ता तियागो होए तँ हमहूँ किएक ने जाएब। धन्यवाद सुबुध आ मास्टर सहाएबकेँ दिअनि जे हमर अज्ञानताक केबार खोललनि। सभ जखन सुनत तँ मने-मन खूब खुशी हएत। की हमर कएल धरम ओकरा नहि हेतैक?
चाह पीबि, पान खा लोटा लए रमाकान्त गाछी दिशि चललाह। किसुनभोग आमक गाछ तर लोटा रखि, टहलि-टहलि गाछ सभकेँ निङहारि-निङहारि देखै लगलाह। गाछक जे रुप आइ रमाकान्त देखथि ओ आइ धरि कहियो नहि देखने रहथि। गाछ देखि बुझि पड़नि जे सभ हँसि रहल अछि। धरतीक शक्ति पाबि ऐश्व र्यवान बनल अछि। दोसराक सेवा लेल उत्साहित अछि। एक टकसँ गाछक रुप देखि रमाकान्तक हृदय सेहो गद-गद भऽ गेलनि। गाछ सभकेँ देखि लोटा उठा पाखाना दिशि बढ़लाह। तहि बीच जए-जएकारक आवाज सुनलखिन। आवाज दूरमे रहै तेँ स्पष्ट नहि बुझैत, मुदा सुनथिहिन। रसे-रसे आवाज लग अबैत गेलनि। पैखानासँ उठि ओ आवाजकेँ अकानए लगलथि। जए-जएकारक संग अपनो नाम सुनथिहिन। अपन नाम सुनि आरो चौकन्ना भए कानक पाछूमे हाथक तरहत्थी रखि अवाज अकानै लगलथि। लोकक समूह जते लग अबैत जाइत, तते अवाज स्पष्ट होइत जाइत छलैक। हाँइ-हाँइ कऽ लोटा नेने पोखरिक घाटपर आबि, कुरुड़ कए घर दिशि बिदा भेलाह। अपन नामक संग जए-जएकार सुनि सोचै लगलाह जे की बात छिऐक? किएक लोक जए-जएकार कए रहल अछि। दिलक धड़कन सेहो तेज हुअए लगलनि। मनमे गुदगुदी सेहो लगनि। उत्साहसँ छाती सेहो फुलैत जाइनि। जाबे लोकक जुलूस घर लग पहुँचल, तहिसँ पहिनहि दरबज्जापर आबि, देखै लगलथि। हीरानन्द आ शशिशेखर सेहो दलानक आगूमे ठाढ़ भए देखैत छलाह। की बूढ़, की जुआन, की बच्चा सभ एक्के सुरमे। सभ मस्त। सभ उत्साहित। सभ नचैत। सबहक मूहमे हँसी छिटकैत छलैक।
दरबज्जाक आगूमे जुलूस आबि कऽ रुकल। आगू-आगू घोड़ाक नाच। पाँच गोरे, बाँसक बत्तीकेँ ललका कपड़ासँ सजा, घोड़ा बनौने। पाँचो घोड़े जेकाँ दौगैत। कखनो हीं-हीं करैत तँ कखनो पाछूसँ चौतार फेकैत। तहि पाछू डफरा-बाँसुरीक धुन। वसन्तक बहार छिड़िअबैत रहए। तहि पाछू लोक नचबो करैत आ जय-जयकाराे करैत रहए। रमाकान्त अपन उत्साहकेँ रोकि नहि सकलाह। दलानक ओसारसँ उतड़ि सोझे जुलूसमे सन्हिया नचै लगलाह। के छोट, के पैघ, के बूढ़, के जवान, सभ बाढ़िक पानि जेकाँ उधिआइत रहए। घर-घरसँ स्त्रीगण सेहो आबि चारु कात पसरि गेलीह।
आंगनसँ श्यामा आबि दरबज्जाक आगूमे ठाढ़ भए नाचो देखैत आ रमाकान्तोपर आखि गरौने छलीह। रमाकान्तोकेँ नचैत देखि ओ मने-मन सोचै लगलीह जे एना किएक भए रहल अछि। लोक सभकेँ कोनो चीजक खुशी हेतै तेँ नचैत अछि। मुदा िहनका की भेटलनि जे एना बुढ़ारीमे कुदैत छथि। छोट बुद्धि श्यामाक, तेँ बुझबे नहि करैत जे धार जखन समुद्रमे मिलै लगैत अछि, तखन दुनूक पानि एहिना नचैत अछि। एक दिशि नदीक पानि गतिशील होइत, तँ दोसर दिशि समुद्रक असथिर होइत अछि। ओहिमे सिर्फ लहरि उठैत अछि।
अखन धरिक जुलूस आ नाच गामक उत्तरबारि टोलसँ आएल छलैक। दछिनबारि टोलसँ दोसर जुलूस, मोर-मोरनीक नाचक संग सेहो पहुँचल। दुनू नाचक बीच सौंसे गामक लोक हृदय खोलिकेँ नचैत। कातमे ठाढ़ भेल हीरानन्द, शशिशेखरकेँ कहलखिन- ‘‘अखन जे आनन्द अछि ओ समाजमे सभ दिन कोना बनल रहत?’’
हीरानन्दक प्रश्ननक उत्तर शशिशेखरकेँ नहि फुरलनि। मुदा प्रश्न क पाछू मन जरुर दौड़लनि। गंभीर प्रश्नभ। तेँ धाँए दऽ उत्तरो देब शशिशेखर उचित नहि बुझि चुप्पे रहलाह। मुदा एते बात जरुर मनमे अबैत रहनि जे जँ सुकर्मक रस्तासँ मनुष्य उत्साहित भए चलैत रहत, तँ जरुर एहने आनन्द जिनगी भरि चलैत रहतैक।
जुलूसक बीच रमाकान्त नचैत-नचैत घामे-पसीने तर-बत्तर भए गेल रहथि। मुदा तैयो मन नचैले उधकैत रहनि। एकटा छौंड़ा, जे अखरहो देखने, नचैत-नचैत रमाकान्त लग आबि दुनू हाथे पजिया कऽ रमाकान्तकेँ उठा कन्हापर लए नचै लगल। सभ कियो दुनू हाथे थोपड़ी बजबैत जए-जएकार करै लगल। कातमे ठाढ़ भेल हीरानन्दकेँ भेलनि, जे कहीं ओ खसि-तसि नहि पड़थि, तेँ लफड़िकेँ बीचमे जाए रमाकान्तकेँ डाँड़ पकड़ि निच्चा केलकनि। निच्चा उतड़ितहि रमाकान्त दुनू हाथे थोपड़ी बजबैत फेर नचै लगलथि। दुनू हाथ उठा कऽ हीरानन्द सभकेँ शान्त होइ लेल कहलखिन। हाथक इशारा देखि सभ शान्त भए गेल। धोतीक खूँटसँ रमाकान्त पसीना पोछि कहै लगलखिन- ‘‘अहाँ सभक बीच कहै छी जे, जे खेत-पथार आइ धरि हम्मर छल, अखनसँ ओ अहाँ सबहक भए गेल।’’
रमाकान्तक बात सुनि सबहक मूहसँ धानक लावा जेकाँ हँसी भरभरा गेल। जे समाज आर्थिक विपण्णताक चलैत अखन धरि मौलाइल छल ओहिमे खुशीक नव फुल फुलाए लगल। सभ केयो हँसी-चौल करैत अपन-अपन घर दिस बिदा भेल।
घरसँ निकलि सुबुध सोझे अपन डेरा गेलाह, डेरामे पहुँचि त्याग-पत्र लिखलनि। मेसबलाकेँ सभ हिसाब फड़िछा स्कूल जाए प्रध्यानाध्यापककेँ त्याग पत्र दैत कहलखिन- ‘‘मास्टर साहेब, आइसँ सेवामे सहयोग नहि कए सकब।’’ कहि आॅफिससँ निकलै लगलाह। आॅफिससँ निकलैत देखि कुरसीसँ उठि प्रध्यानाध्यापक कहलखिन- ‘‘सुबुध बाबू, कने सुनि लिअ।’’
हेडमास्टरक आग्रह सुनि सुबुध रुकि गेलाह। मुस्की दैत कहलखिन- ‘‘की कहलौं मास्साहेब?’’
हेडमास्टरक छातीक धड़कन तेज होइत जाइत छलनि। तेँ बोलीक गति तेज हुअए लगलनि। कहलखिन- ‘‘सुबुध बाबू, अहाँ जल्दीबाजीमे निर्णय कए लेलहुँ। अखनो कहब जे अपन कागज वापस लए लिअ।’’
निशंक आ गंभीर स्वरमे सुबुध कहलकनि- ‘‘मास्सैब, आइ धरि अहाँ सबहक संग रहलहुँ, मुदा आब हम बैरागीक संग जाए रहल छी। तेँ एक्को क्षण एतए अटकैक इच्छा नहि अछि। एक्को पाइ हमरा दुख नहि भए रहल अछि। व्यक्तिगत जिनगी बना अखन धरि जीलहुँ, मुदा आब सामाजिक जिनगी जीबैक लेल जा रहल छी। तेँ अपनहुँसँ आग्रह करब, जे असिरबाद दिअ।’’
एक दिशि सुबुधक मुखमंडल नवज्योतिसँ प्रखर होइत जाइत, तँ दोसर दिस हेडमास्टरक मुखमंडल मलिन होइत जाइत छलनि। सुबुधक त्यागपत्रक समाचार शिक्षकक बीच सेहो पहुँचल। सभ शिक्षक अपना कोठरीसँ उठि हेडमास्टरक चेम्बरमे पहुँचि गेलाह। दुनू हाथ जोड़ि सुबुध सभकेँ कहलखिन- ‘‘भाए लोकनि, आइ धरिक जिनगी, संगे-संग बितेलहुँ, तहि बीच जँ किछु अधला भेल हुअए, ओ बिसरि जाएब। आइ धरि किताबी ज्ञानक बीच ओझराएल छलहुँ, मुदा आब ओहि ज्ञानकेँ व्यवहारिक धरतीपर उताड़ै जाए रहल छी।’’ जहिना सूर्योदयसँ पूर्व थलकमल उज्जर रहैत, मुदा सूर्यक रोशनी पाबि धीरे-धीरे लाल हुअए लगैत अछि तहिना सुबुधक हृदय समाजक प्रखर रोशनीक प्रवेशसँ हृदय बदलि गेलनि।
कहि सुबुध तेज गतिसँ स्कूलक ओसारसँ निच्चा उतरि गेलाह। सुबुधक तेज चालि देखि विवेक बाबू सेहो नमहर-नमहर डेग बढ़बैत सुबुध लग आबि कहलखिन- ‘‘सुबुध भाए, अहाँ जे किछु केलहुँ, अपन विचारक अनुकूल केलहुँ। तेँ ओहि संबंधमे हमरा किछु कहैक नहि अछि। किएक तँ जहिया स्कूलमे नोकरी शुरुह केलहुँ आ जते बुझै छेलिऐक, ओहिसँ बेसी आइ जरुर बुझै छिऐक, तेँ ओहि दिनक विचारक अनुरुप केलहुँ आ आइ औझुका विचारक अनुकूल कए रहल छी। मुदा हमर अहाँक संबंध सिर्फ शिक्षकेक नहि अछि, बल्कि विद्यार्थियोक अछि।’’
सुबुध आ विवेक हाइये स्कूलसँ संगी। हाइ स्कूलसँ कओलेज धरि दुनू गोटे संगे-संग पढ़ने रहथि। मुदा विवेकसँ सुबुध तीन दिन जेठ रहथि। जे बात सुबुधोकेँ आ विवेकोकेँ बुझल छलनि। स्कूलोमे आ कओलेजोमे सुबुध विवेकसँ नीक विद्यार्थी रहथि। तेँ विवेकसँ अधिक नम्बर परीक्षामे सुबुधकेँ अबैत रहनि। ओना दुनू एक्के डिवीजनसँ पास करैत छलाह, मुदा अंकमे किछु तरपट रहैत छलनि। विवेक सुबुधकेँ सीनियर बुझैत छथि। जेकर उदाहरण अछि, जे जहि दिन दुनू गोटेक बहाली स्कूलमे भेल छलनि, ओहि दिन सभ कागजात विवेकक अगुआएल रहितहुँ स्वेच्छासँ विवेक सुबुधकेँ तीन नम्बर शिक्षक आ अपनाकेँ चारि नम्बर शिक्षकक लेल हेडमास्टरकेँ कहने रहथिन। जकरा चलैत सुबुधक बहालीक चिट्ठीक समए बदलि हेडमास्टर रजिस्टर मेनटेन केने रहथि। विवेकक प्रति सुबुधक हृदयमे ओएह स्नेह रहनि।
दुनू गोटे विवेकक डेरा अएलाह। डेरामे अबितहि विवेकक पत्नी चाह बना, दुनू गोटेक आगूमे दए बैठकखानासँ निकलि खिड़की लग ठाढ़ भए गेलीह। एक जिनगीक टूटैत संबंधसँ कपैत हृदय विवेक बाबूक। थरथराइत स्वरमे पुछलखिन- ‘‘एक्को दिन पहिने तँ ई बात नहि बाजल छलहुँ ! अनायास एहेन निर्णय कोना कए लेलिऐक?’’
मुस्कुराइत सुबुध उत्तर देलखिन- ‘‘पहिनेसँ नियार नहि छल। एहि बेरि जे गाम गेल छलहुँ तखन भेल। जहिना देव-असुर मिलि समुद्र मंथन केने रहथि, तहिना समाजक मंथनक परिस्थिति बनि गेल अछि। जहि लेल हमरो जरुरत समाजकेँ छैक। समाजक पढ़ल-लिखल लोक तँ हमहुँ छी, तेँ अपन दायित्व पूरा करैक लेल नोकरी छोड़लहुँ। महान् जिनगीक लेल सेवा जरुरी होइत अछि। जँ नोकरीकेँ सेवा कहल जाए तँ खेतमे काज करैबला बोनिहारकेँ की कहबैक? किएक तँ बोनि-मजूरी लेल ओहो काज करैत अछि आ नोकरीयो केनिहार। मुदा पेटक, जिनगीक लेल तँ कमेबो जरुरी अछि। जँ से नहि करब तँ खाएब की आ दोसरकेँ खुएबै कोना ? भूखलकेँ भोजन चाही। चाहे ओ अन्नक भूखल हुअए वा ज्ञानक। तेँ चाहे नोकरी होए वा आन उपारजनक काज, ओहिकेँ इमानदारीसँ निमाहैत, आगू बढ़ि किछु करब, चाहे ज्ञानक क्षेत्र होए वा जीवनक, भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, शिक्षा, ओ सेवा होइत। ज्ञानक सेवा ताधरि अपन महत्वक स्थान नहि पबैत, जाधरि ओ जीवनसँ जुड़ि कर्मक रुप नहि लैत अछि। सिर्फ वैचारिके धरातलसँ होइत तँ मिथिलामे महान्-महान् पैघ-पैघ विचारक, मनुष्यक उद्धार लेल रस्ता बतौलनि। मुदा अखनो समाजमे ओहन मनुक्ख अछिये जे हजारो बर्ख पूर्वमे छलैक। हँ, किछु आगुओ बढ़ल, इहो बात सत्य अछि। मुदा जे कियो बौद्धिक, आर्थिक- क्षेत्रमे आगू बढलथि ओ पछुआएलकेँ डेन पकड़ि आगू मुहे खिंचलनि वा पाछू मुहे धकेललनि। जँ बाँहि पकड़ि आगू मुहे खिंचै चाहितथि तँ एतेक जाति, सम्पद्राय, कर्मकांड पैदा करैक की प्रयोजन ? राजसत्ता आ समाजसत्ता- दुनू पछुआएल लोककेँ आरो पाछुए मुहे धकेललक।’’
एते कहि सुबुध उठि कऽ ठाढ़ होइत कहलखिन- ‘‘आब एक्को क्षण एहिठाम नहि रुकब। हमर बाट रमाकान्त कक्का तकैत होएताह। सुबुधकेँ दुनू बाँहि पकड़ि बैसबैत विवेक पत्नीकेँ कहलखिन- ‘‘झब दऽ थारी साठू। सुबुध भाए जेवा लेल धड़फड़ाइ छथि।’’
भोजन कए सुबुध विवेकक डेरासँ बिदा भए गेलाह। दुनू हाथ जोड़ि विवेक कहलकनि- ‘‘हमरोपर ध्यान राखब।’’
गामक सीमामे प्रवेश करितहि सुबुध घरक सुधि बिसरि गेलाह। साैँसे गाम परिवारे जेकाँ बुझि पड़ै लगलनि। एक टकसँ खेत, पोखरि, गाछी-कलम, खढ़होरि देखि मने-मन सोचै लगलथि, जँ एहि सम्पत्तिकेँ ढंगसँ आगू बढ़ाओल जाए, विकसित ढंगसँ कएल जाए तँ निसचित गामक लोकमे खुशहाली ऐबे करत। अखन धरि जहिना खेत मरनासन्न भए गेल अछि, तहिना पोखरि-झाखड़ि सेहो अछि। सभसँ पैघ बात तँ ई अछि जे लोको दबैत-दबैत एते दबि गेल अछि, जे सिर्फ मनुक्खक ढाँचा मात्र रहि गेल अछि। तेँ सभमे नव चेतना, नव ढंग -करैक क्रिया- नव तकनीकक नव औजारक उपयोग आवश्यढक अछि। तखने शिशिरक सिकुड़ल रुप बसन्तक विकसित रुपमे बदलि सकैत अछि। सोचैत सुबुध राजिनदरक घर लग पहुँचलाह। राजिनदरक घर देखि सुबुध रस्ता छोड़ि ओकरा ओहिठाम गेलाह। राजिनदरकेँ तीनटा घर। अंगनाक एकभागमे टाट लगौने रहए। दछिनबरिया घरमे मालो बन्हैत छल आ अपनो बैसार बनौने। बैसारमे दूटा चौकी देने रहए। एकटापर अपने सुतैत आ दोसरकेँ पाहुन-परकक लेल रखने रहए। सुबुधकेँ देखि राजिनदर चौकी परसँ उठि, दुनू हाथ जोड़ि बाँहि पकड़ि चौकीपर बैसौलकनि। सुबुधकेँ चौकीपर बैसाए घरवालीकेँ दरबज्जे परसँ कहलक- ‘‘मास्टर सहाएब ऐला हेन, झब दे एक लोटा पानि नेेने आउ?’’
राजिनदरक बात सुनि गुलबिया लोटामे पानि नेने आबि ओलती लग ठाढ़ भए गेलि। मूह झँपने। स्त्रीकेँ ठाढ़ देखि राजिनदर कहलक- ‘‘हिनका नइ चिन्है छिअनि, सुबुध भाइ छथि। मूह किअए झँपने छी।’’
राजिनदरक बात सुनि सुबुध मुस्की दैत बजलाह- ‘‘हम तँ गाममे रहितहुँ अनगौआँ भए गेल छी। जहियासँ नोकरी शुरु केलहुँ, गाम छुटि गेल। सप्ताहमे एक दिन अबै छी जहिसँ गाममे घुरियो-फीरि नहि पबैत छी। तेँ नहि चिन्है छथि। मुदा आब गाममे रहै दुआरे नोकरी छोड़ि देलहुँ। आब चिन्हतीह।’’
सुबुधक बात सुनि राजिनदर स्त्रीकेँ कहलक- ‘‘सुबुध भाए पैघ लोक छथि। जखन दुआरपर पएर रखलनि, तखन बिना किछु खुऔने-पीऔने कना जाए देबनि। जाउ बाड़ीसँ ओरहाबला चारिटा मकैक बालि तोड़ि, ओड़ाहि कऽ नेने आउ।’’
राजिनदरक बात सुनि गुलबिया मुस्की दैत बिदा भेलि। राजिनदर सुबुधकेँ पूछल- ‘‘भाए नोकरी किअए छोड़ि देलिऐ?’’
राजिनदरक प्रश्ननक सही उत्तर देब सुबुध उचित नहि बुझि कहलखिन- ‘‘नइ मन लागल। अपनो खेत-पथार अछि, आब खेतिये करब।’’
चारू ओड़ाहल बालि, नोन-मेरिचाइ थारीमे नेने गुलबिया आबि सुबुधक आगूमे रखि, अपने निच्चामे बैसि गेलीह। मकैक ओड़हा देखि सुबुध तिरपित भए एकटा बालि हाथमे लए गौरसँ दाना देखै लगलथि। सुभ्भर बालि, एक्कोटा दाना भौर नहि। बालिकेँ देखि कहलखिन- ‘‘बड़ सुन्नर मकइ अछि। अपना ऐठामक गिरहत तँ उपजबितहि नहि अछि, जँ उपजौल जाएत, खूब हेतै। बेगूसराय, सहरसा आ मुजफ्फरपुर इलाकामे देखै छिऐ जे मकैयेक उपजासँ गिरहस्त धनिक भए गेल अछि। सालो भरि मकैक खेती होइत छैक। जहिना खेती तहिना उपजा। पाँच मन छह मन कट्ठा मकइ उपजैत अछि। खाइयोमे नीक। रोटी, सतुआ, भुज्जा, ओरहा सब कुछ मकैक बनैत अछि। बदाम आ मकैक सतुआ तँ बुझू जे बिनु दाँतबला बूढ़क अमृते छी।’’
वामा हाथमे बालि दहिना हाथक ओंगरीसँ दाना छोड़ा मूहमे लैत पुछलखिन- ‘‘राजिनदर भैया, बाल-बच्चा कैक टा अछि?’’
सुबुधक प्रश्न सुनि राजिनदर चुप्पे रहल मुदा गुलबिया बाजलि- ‘‘तीनि भाइ-बहीन अछि। जेठकी सासुर बसै अए। बड़बढ़िया जेकाँ गुजर चलै छै। दोसरोक बिआह केलहुँ। मुदा जमाए बौर गेल। दिल्लीमे नोकरी करैत रहै, ओतैसँ बौर गेल, ने एक्कोटा चिट्ठी-पुरजी पठबैए आ ने रुपैआ-टाका। छह मास बेटीकेँ सासुरमे रहै देलिऐ, तकर बाद अपने ऐठाम लए अनलिऐ। दिल्लीसँ जे कोए आबै आ पुछिऐ तँ कोए कहे दोसर बिआह कए लेलक, तँ कोए कहै अरब चलि गेल। कोए कहै मलेटरीमे भरती भए गेल तँ कोए कहै उग्रवादी भए गेल। कोनो भाँजे ने लागल। आखिरमे चारि बरिस अपना अइठिन बेटीकेँ रखलहुँ। मुदा गामोमे तेहेन लुच्चा-लम्पट सभ अछि जे अनका इज्जतकेँ कोनो इज्जति ने बुझै छै।’’ हाथक इशारा सँ देखबैत- “उ घर देखै छिऐ, ओहि अंगनाक एकटा छौँँड़ा कहियो माछ कीनिकेँ नेने आबए तँ कहियो फोटो खिचबैले संगे लऽ लए जाए। हम दुनू परानी बाध-बोनमे भरि-भरि दिन रहै छलौं। गामपरक खेल-बेल बुझबे ने करै छेलिऐ। जखन गामक लोक कुट्टी-चौल करै लगल तखन बुझलिऐ। जेठकी बेटी आएल रहए। ओकरा कहलिऐ। ओ अपने संगे नेने गेलै। दोसर विआह अइ दुआरे नै करिऐ जे जँ कहीं जमाए जीविते हुअए। फेर जेठके जमाएसँ बिआह कए लेलक। दुनू बहीन एक्के घरमे रहै अए। दुनूकेँ सखा-पात छौ। छोट बेटा अछि। ओकरो विआह-दुरागमन कए देलिऐ।’’
मुस्कुराइत सुबुध पुछलखिन- ‘‘दान-दहेजमे की सभ देलक?’’
दान-दहेजक नाम सुनि गुलबिया हँसैत कहै लगलनि- ‘‘समैध अपने ऐला। संगमे सार -लड़कीक माम- रहनि। दुआरपर अबिते भोला बापक पुछाड़ि केलनि। हम चिपड़ी पथैत रही। नुआक फाँड़ बन्हने रही। माथ परक साड़ी पसरिकऽ गरदनिपर रहए। दुनू हाथमे गोबर लागल रहै। कना गोबराएल हाथे साड़ी सम्हारितौं। तेँ ओहिना चिपड़ी पथैत रहि गेलहुँ। कोनो की चिन्हैत रहिऐ। ओहो तँ हमरा नहिये चिन्हैत रहथि। अनठिया ओहो आ अनठिया हमहूँ रही। ओहो मनुक्खे छथि आ हमहूँ मनुक्खे छी, तखन बीचमे कथीक लाज ?’’
गुलबियाक बात सुनि दाँत पिसैत राजिनदर कहलक- ‘‘आबो एक उमेरक भेलि, तैयो समरथाइक ताव कम्म नै भेलै अए। जेे मनमे अबै छै, बकने जाइ अए।’’
राजिनदरक बातकेँ दबैत बाजल- ‘‘कोनो की झूठ बात बजै छी, जे लाज हएत। मास्टर बौआ की कोनो अनगौआँ छथि। जे रस्ते-रस्ते ढोल पीटताह।’’
बिच-बचाव करैत सुबुध कहलखिन- ‘‘तकर बाद की भेल?’’
‘‘ताबे इहो –पति- आएल। दुनू गोरेकेँ चौकीपर बैसाए गप-सप करै लगलथि। हमरो गोबर सठि गेल। चलि गेलहुँ। हाथ-पएर धोए पछबरिया टाट लग ठाढ़ भए, गप-सप सुनै लगलौं। लड़कीक माम उचक्का जेकाँ बुझि पड़ै। मुदा बाप असथिर बुझि पड़ल। बेचारा बड़ सुन्नर गप्प बाजलथि। ओ कहलकनि जे देखू अहाँक बेटा छी आ हम्मर बेटी। दुनियामे जते लोक अछि ओ अपने बेटा-बेटी लेल सबकुछ करै अए। जहिना अहाँ छी तहिना तँ हमहूँ छी। जहिना अपन नून-रोटीमे अहूँ गुजर करै छी तहिना हमहूँ करै छी। कौआसँ खैर लुटाएब मुरुखपना छी। हमरे एकटा पितिऔत सार अपन बेटाक विआह केलक। एक लाख रुपैआ नगद नेने रहए। तते लाम-झामसँ काज केलक जे अपनो जे बैंकमे साठि हजार रुपैआ रहै, सेहो सठि गेलै। हम ओहन काज नइ करब। बेटी-जमाइकेँ एकटा चापाकल गड़ा देबै। दू कोठरीक मकान बना देबै। एक जोड़ा गाए ली वा महीस से देब। दुनू गोटेकेँ लत्ता-कपड़ा, बरतन-बासन, लकड़ीक सभ आवश्य क सामानक संग बिआहक खर्च करब। अहाँकेँ एहि दुआरे नहि खर्च कराएब जे, जे खर्च भए जेतै ओ तँ ओही दुनूक जेतै की ने। हमरा पसिन्न भए गेल। मन कछ-मछ करै लगल जे सूहकारि ली। मुदा पुरुखक बीच गप चलैत रहै। मनमे इहो हुअए जे जँ कहीं कोनो बाते दुनू गोरेमे रक्का-टोकी भऽ गेल तखन तँ कुटुमैतियो नइ हएत। मन कछ-मछ करै लगल। एक बेर खोंखी केलहुँ जे ओ –पति- आबए, मुदा से नइ भेल। तखन दुनू हाथे थोपड़ी बजेलहुँ। तैयो सैह। आब की करितहुँ ? काज पसिन्नगर अछि, मुदा जँ कही कोनो बाधा उपस्थित भए गेल तखन तँ सभ नाश भऽ जाएत, मूह उघारनहि हम दुआरपर गेलहुँ। आगूमे ठाढ़ भए हिनका कहलिऐनि- ‘‘भैया, बड़ सुन्नर बात समैध कहै छथुन, भोलाक बिआह कए लाए।’’ कहि चोट्टे घुमिकेँ आंगन आबि शरबत बनेलहुँ। अपने सँ जा कऽ तीनू गोटेकेँ पिऐलहुँ। कुटमैती पक्का भए गेल। बिआह भए गेलै।’’
तहि बीच चारु बाइलो सुबुध खा लेलनि। पानि पीबि घर दिसक रस्ता पकड़लनि।
थोड़े दूर आगू बढ़लापर मनमे अबै लगलनि, घर पर जाइ आकि रमाकान्त काका ऐठाम। दुबट्टी लग ठाढ़ भए गुनधुन करै लगलथि। एक मन होनि जे भरि दिनक थाकल छी, कने आराम करब जरुरी अछि। तेँ घरपर जाएब जरुरी अछि। दोसर मन होनि जे एहि जुआनीमे जँ आराम करब तँ जिनगी छुटत। फेर मनमे भेलनि जे नोकरी छोड़ैक समाचार घर पहुँचाएब जरुरी अछि। तत्-मत् करैत रमाकान्त घर दिसक रस्ता छोड़ि मलहटोलीबला एकपेड़िया पकड़ि घर दिस बढ़लाह। घर लग अबितहि सभ किछु बदलल-बदलल बुझि पड़लनि। जना सभ किछु खुशीसँ मस्त हुअए। दरबज्जाक चुहचुही सेहो नीक बुझि पड़ै लगलनि। दुआरपर आबि कुरता खोलि चौकीपर रखि पत्नीकेँ सोर पाड़ि कहलखिन- ‘‘कने एक लोटा पानि नेने आउ। बड़ पियास लगल अछि।’’
पतिक आवाज सुनि लोटामे पानि नेने आएलि किशोरीक हाथसँ लोटा लए लोटो भरि पानि पीबि, पत्नीकेँ कहलखिन- ‘‘आइसँ नोकरी छोड़ि देलहुँ विद्यालयमे त्यागपत्र दए देलहुँ।’’
पतिक बात सुनि किशोरी चौंकि गेली। मुदा पति-पत्नीक बीच मजाको होइत छलनि। किशोरीकेँ सोलहन्नी बिसबास नहि भेलनि मुस्की दैत बजलीह- ‘‘नीक केलहुँ। आठ दिनपर जे भेंट होइ छलौं से दिन-राति भेंट होइते रहब। हमरो नीके।’’
किशोरीक बात सुनि सुबुधक मनमे भेलनि जे भरिसक ओ समाचारकेँ मजाक बुझलनि। दोहरबैत कहलखिन- ‘‘अहाँ मजाक बुझै छी। सत्य बात कहलौं।’’ जेबीसँ त्यागपत्रक नकल निकालि- “हे देखियौ कागज।’’
तहि बीच मंगल सेहो आएल। मंगलकेँ देखि किशोरी ससरि गेलीह। मुस्कुराइत सुबुध मंगलकेँ कहलखिन- ‘‘काका, नौकरी छोड़ि देलहुँ। आब गामे रहि खेतियो-पथारी करब आ जहाँ धरि भए सकत समाजक सेवा करब।’’
सुबुधक बात सुनि मंगल कहलकनि- ‘‘बौआ, हम तँ उमेरेमे ने अहाँसँ जेठ छी, मुदा अहाँ पढ़लो-लिखल छी, मास्टरियो करै छी, तेँ नीके जानि कऽ ने नोकरी छोड़ने हैब।’’
मंगलक बात सुनि सुबुधक मनमे सवुर भेलनि। मुस्की दैत बजलाह- ‘‘कक्का जाधरि पढ़ल-लिखल लोक समाजमे रहि समाजक क्रिया-कलापकेँ आगू मुहे नहि धकेलत ताधरि समाज आगू कोना बढ़त।’’
सुबुध आ मंगल गप-सप करतहि रहथि आकि किशोरी आंगनमे अड़राहट मारि कानै लगलीह। सुबुध बुझि गेलाह तेँ असथिरसँ बैसले रहलाह। मुदा अकलबेराक कानब सुनि टोलक जनिजाति दौड़ि-दौड़ि आबए लगलीह। सौँसे आंगन जनि-जातिसँ भरि गेलनि। नवानीवाली किशोरीकेँ पुछलखिन- ‘‘कनियाँ की भेल हेन जे एना अकलबेरामे कनै छी?’’
मुदा किछु उत्तर नहि दए किशोरी आरो जोर-जोरसँ कनै छलीह। टोलक जते बहिना, फुल, पान, गुलाब, कदम, चान, पार्टनर किशोरीक छलनि सभ केयो एक्केटा प्रश्नो पूछैत छलनि जे- ‘की भेल?’
जते संगी-साथी सभ किशोरीसँ पूछै छलनि तते किशोरी जोर-जोरसँ कनैत छलीह। ककरो कोनो अर्थे नहि लगैक। मुदा अनुमानक बजार तेज होइत जाइत छल। कियो किछु बुझैत तँ कियो किछु।
दरबज्जापर बैसल-बैसल सुबुध मने-मन खुशी होइत रहथि। सोचैत रहथि जे जाधरि पुरना चालि-ढालिक लोकक -चाहे मरद हुअए वा स्त्रीगण- चालि नहि बदलत ताधरि नव समाज कोना बनि सकैत अछि ? ई प्रश्नक तँ सिर्फ समाजेक लेल नहि परिवारोक लेल छैक। आ परिवारे किअए मनुक्खोक लेल छैक। तँे सुबुध किछु बजबे नहि करथि।
अकलबेराक समए रहबे करए। बाध दिशिसँ गाय, महीस, बकरी चरि-चरि अबैत रहए। घसबहिनी घासक पथिया नेने अबैत छलि। गोबर बीछनिहारि गोबरक छितनी माथपर नेने अबैत छलि। बुधनी आ सोमनी, घासक छिट्टा माथपर नेने अबैत छलीह आकि सुबुधक अंगनामे कानब सुनलनि। दुनू गोटे अकानिकेँ बुझलनि जे सुबुधक कनियाँ कनै छथिन। सोमनी बुधनीकेँ कहलखिन- ‘‘बहीन, छिट्टा रखिकेँ चल देखैले।’’
बुधनी कहलक- ‘‘गै बहीन, अइ चमचिकनी सबहक भभटपन सुनि कऽ की करबीही। भरि दिन चाह-पान घोटैत रहै अए, बुझै अए जे एहने दुनिया छै। मरदकेँ किछु हुअए, मौगी सभ रानी छी। जाबे एतए बरदेमे ताबे गामेपर चलि जेमे। घास-भूसा झाड़ब, जरना-काठी ओरिआएब। थैर खरड़ब। बासन-कुसन धुअब आकि अइ भभटपनवालीक भभटपन सुनब।’’
सोमनी मुड़ी ड़ौलबैत बाजलि - ‘‘बेस कहले बहीन। जकरा जते सुख होइ छै ओ ओते कनै अए। अपने सभ नीक छी, जे कमाइ छी खाइ छी। चैनसँ रहै छी। अइ ललमुही सबहक किरदानी सुनबीही तँ हेतउ जे मुहेपर थुक दए दीऐ।’’
१०
भरि दिन सुबुधक मनमे ईएह खुट-खुटी धेने रहलनि जे जाहि गामक लोकमे एते उत्साह बढ़ल अछि, ओहि गाममे जँ बिहाड़िक पूर्व हवा खसै तँ लोकक मनमे अनदेशे बढ़ि सकैत अछि। समाज छिऐ, के की बाजत की नहि बाजत, तकर कोन ठेकान। कियो कहि सकैत अछि जे, जते विचारक सभ अछि ओ पाइ-कौड़ीक भाँजमे कहीं टौहकी ने लगबैत हुअए। मुदा लोकक धाराकेँ रोकलासँ खतरो उपस्थित भए सकैत अछि। जहिना अधिक रफ्तार चलैत गाड़ीमे एकाएक ब्रेक लगौलासँ दुर्घटनो भए सकैत अछि, तहिना काजमे ढील-ढाल भेलापर भए सकैत अछि। ओना भरि दिन तँ अपने चक्करमे फँसल रहलौं, से के बुझत ? गामक लोक तँ गामक काजे भेलासँ बुझताह अचताइत-पचताइत सुबुध रमाकान्त ऐठाम बिदा भेला। मुन्हारि साँझ भए गेल छलैक। थोड़े दूर आगू बढ़लापर रस्ताक पछबारि भाग रतिया घरक आगूमे, पान-सात गोटे बैसि गप-सप करैत रहथि। एक गोटे अनुभवी जेकाँ बाजल जे - ‘‘खेतक बँटवाराक ढोल तँ रमाकान्त कक्का पीटि देलखिन, मुदा बँटै कहाँ छथिन। धनक लोभ ककरा नइ छै। ओ थोड़े खेत बँटथिन्ह। ई सभ सभ टा धनिक लोकक चालबाजी छिऐ। लोक थोड़े नीक-अधलाक विचार करै अए, जे सुनलक ओ कौआ जेकाँ काँए-काँए कए सगरे गाम बिलहि दैत अछि। मुदा तइसँ की, अगर जँ ओ खेत नहिये बँटथिन्ह तँ की लोक मरि जाएत ?’’
रस्तापर ठाढ़ भए सुबुध सुनलनि। दोसर बाजल - “जे अपने ठकि-फुसिया कऽ एते धन जमा केलक ओ सुहरदे मुहे थोड़े लोककेँ जमीन दए देतै। तखन तँ गरीबक कपारेमे दुख लिखल छै, से तँ भोगै पड़तै। केहेन निरलज्ज जेकाँ रमाकान्त नाचि-नाचि लोककेँ कहलकै।’’ एते सुनैत सुबुधक मनमे आगि लागि गेलनि। सोचै लगलाह जे भरि दिन तँ हमहूँ अनतै छलहुँ, गाममे ने तँ किछु भए गेलैक। मुदा बिना किछु बजनहि सुबुध आगू बढ़ि गेलाह।
रमाकान्त एहिठाम पहुँचतहि हीरानन्द बाजि उठलाह- ‘‘जिनके चरचा करै छलौं से आबिये गेलाह।’’
रमाकान्त सुबुधकेँ कहलखिन- ‘‘कैक बेर तोरासँ गप करैक मन भेल, मुदा तोँ तँ भरि दिन निपत्ते रहलह। कतौ गेल छेलह की?’’
रमाकान्तक बात सुनि सुबुध कहलखिन- ‘‘भरि दिन एते व्यस्त रहलौं जे अखन फुरसति भेल। घरसँ बहार धरि परेशान-परेशान दिन भरि होइते रहलौं।’’
रमाकान्त- ‘‘की परेशान?’’
‘‘काल्हि रातिमे जखन ओछाइनपर गेलहुँ तँ अहाँक कहलाहा बात मन पड़ल। मन पड़ितहि पेटमे घुरिआए लगल। बड़ी काल धरि सोचैत-विचारैत रहलौं। नीनो ने हुअए। अंतमे यैह मनमे आएल जे जहिना अहाँ अप्पन सभ सम्पति समाजकेँ दए देलिऐ, तहिना हमहूँ नोकरी छोड़ि, देहसँ समाजक सेवा करब। जहिना गाड़ी इंजिनक बले चलैत अछि, तहिना तँ समाजोमे इंजिनक जरुरति छैक। तहि बीच एकटा इतिहासक घटना मन पड़ल।’’
इतिहासक घटना सुनितहि उत्सुकतासँ हीरानन्द पूछि देल- ‘‘की बात मन पड़ल?’’
सुबुध बाजए लगलाह - ‘‘तिब्बतमे एकटा राजकुमार चेन-पो नामक भेलाह। ओ अपना राजमे धनी-गरीबक बीच खाधि देखलनि। ओहि खाधिकेँ पाटैक लेल अपन सब सम्पति प्रजाक बीच बाँटि देलखिन। मुदा किछुए दिनक उपरान्त फेर ओहिनाक ओहिना भए गेलै। धनिक धनिक बनि गेल आ गरीब गरीब बनि गेल। राजकुमार क्षुब्ध भए गेलाह, जे एना किएक भए गेलैक?’’
खिस्सा सुनि बिचहिमे शशिशेेखर पूछि देलकनि- ‘‘एना किएक भेलै?’’
‘‘हम समाजशस्त्रक विद्यार्थी छी तेँ एहि बातकेँ जनैत छी। जाधरि व्यवस्था नहि बदलत ताधरि मनुक्खक जिनगी नहि सुधरत। तेँ हम अपन दायित्व बुझि नोकरी छोड़लहुँ। गामक गरीबसँ लऽ कऽ अमीर धरि आ बच्चासँ लऽ कऽ बूढ़ धरि गाम सबहक छिऐक। तेँ हम तिब्बत जेकाँ हूसल काज नहि करब।’’
रमाकान्तक मन पहिलुके प्रशंसा सुनि, कान नेने उड़ि गेलनि, राजकुमारक खिस्सा सुनबे नहि केलनि। मुदा हीरानन्दोक आ शशिशेखरोक धियान ओहि खिस्सामे घुमै लगलनि। तहि बीच जुगेसर चाह अनलक। सभ कियो चाह पीबै लगलाह। चाह पीबि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘देखू, हम अप्पन सभ खेत समाजकेँ दए देलिऐक। आब हमरा कोनो मतलब ओहि खेतसँ नहि अछि। मुदा एकटा बात जरुर कहब जे कोनो तरहक गड़बड़ी समाजमे नहि हुअए। सभकेँ खेत होए।’’
रमाकान्तक बात सुनि शशिशेखर अप्पन विचार रखलक- ‘‘गामक गरीब-लोकक परिवार जते अछि ओकरा जोड़ि लिअ आ खेतकेँ जोड़ि एक रंग कऽ बाँटि दियौ।’’
शशिक विचार सुनि हीरानन्द नाक मारैत कहलखिन- ‘‘ऊँ- हूँ।’’
मूहपर हाथ नेने सुबुध मने मन सोचैत जे कियो एहनो अछि जकरा घरारियो ने छैक। आ कियो एहनो अछि जकरा घरारीक संग दू कट्ठा धनखेतियो ने छैक। ककरो पाँचो कट्ठा छैक। जँ जमा सम्पतिमे एक रंगकेँ देल जाए तँ सभकेँ एक रंग कोना हेतै। एहि ओझरीमे सुबुध पड़ल रहथि। हीरानन्द सोचैत जे गरीबो तँ सभ एक रंग नहि अछि। कियो मेहनती अछि तँ कियो नमरी कोइढ़। कियो नशाखोर अछि तँ कियो सात्विक। गरीबोक स्थिति तँ विचित्र अछि। लेकिन मूल प्रश्ने अछि समाजकेँ उपर उठबैक। सभकेँ गुम्म देखि रमाकान्त मूहमे पान लए जरदा फँकैत कहलखिन- ‘‘एना सभ गुम्म किअए छी? हम समाजक दाँव-पेंच तँ नहि बुझै छिऐ मुदा अहाँ सभ तँ पढ़ल-लिखल होशगर छी। तखन कियो किछु किअए ने बजै छी।’’
अपन बुद्धिक कमजोरी व्यक्त करैत हीरानन्द सुबुधकेँ कहलखिन- ‘‘भाए, जे सोचै छी ओ ओझरा जाइत अछि। तेँ अहीं सोझरबैत कहियौ।’’
गंभीर भए सुबुध कहै लगलखिन- ‘‘अप्पन समाज बहुत पछुआएल अछि। पछुआएल समाजमे घनेरो समस्या, समाढ़ जेकाँ, पकड़ने रहैत अछि। जे बिना समाधान केने आगू नहि ससरै दैत। मुदा समाधानो तँ कागजपर नक्शाु बनौने नहि होएत। समस्या लोकक जिनगीकेँ चुड़ीन जेकाँ पकड़ने अछि। जहिना चुड़ीन लोकेक देहमे घोसिया अपन करामात करैत अछि तहिना समस्यो अछि। तेँ अखन मात्र दूटा सवालकेँ पकड़ू। पहिल, सभकेँ एक रंग खेत होए। आ दोसर खेतक संग-संग आरो जे पूँजी अछि ओकरो उपयोग ढंगसँ कएल जाए।’’
सुबुध बजितहि रहथि आकि बिचहिमे जुगेसर टभकि गेल- ‘‘मास्सैब, कनी बिकछाकेँ कहियौ। एना जे पौतीमे राखल वस्तु जेकाँ झाँपि कऽ कहबै, तँ हम सभ कना बुझबै।’’
जुगेसरक बातसँ सुबुधकेँ तकलीफ नहि भेलनि। मुस्कुराकेँ कहै लगलखिन- ‘‘ठीके अहाँ नहि बुझने होएब जुगे। नीक जेकाँ बिकछा कऽ कहै छी। देखियौ, सिर्फ खेते रहने उपजा नहि भए जाइ छैक। ओकरा उपजबै पड़ैत छैक। तामि-कोड़ि कए तैयार करै पड़ैत छैक। बरखा होए वा पटा कऽ बीआ पाड़ै पड़ैत छैक। बीआ जखन रोपाउ होइत छैक तखन उखाड़ि कऽ रोपल, कमठौन कएल जाइत छैक। तखन ने उपजा हएत। खेतक संग-संग मेहनत जे होएत से ने पूँजी भेलैक। मेहनत करैले ओजारोक जरुरत होइत अछि। ओजारोक नमहर इतिहास रहल अछि। शुरुमे लोक साधारण औजारसँ काज करैत छल। जेना-जेना औजारो उन्नति करैत गेल तेना-तेना लोकक हालत सुधरैत गेल। मुदा अप्पन गाम बहुत पछुआएल अछि। तेँ नव औजारसँ काज करब संभव नहि अछि। नव औजारक लेल अधिक पैसोक जरुरत होइत, जे नहि अछि। अखन साधारणे औजारसँ काज चलबै पड़त। जेना-जेना हालत सुधरैत जाएत, तेना-तेना औजारो सुधरैत जाएत।’’
सुबुधक बात सुनि जुगेसर भक दऽ निसाँस छोड़ि बाजल- “हँ, आब बुझलौं। सुआइत लोक कहै छै जे पढ़ि-लिखकेँ जँ हरो जोतब तँ सिराउर सोझ हएत।’’
हीरानन्द बजलाह- ‘‘बड़ सुन्दर बात कहलिऐक सुबुध भाइ। आब खेतक बँटवाराक संबंधमे कहियौक।’’
कनडेरिये आखिये हीरानन्दकेँ देखि सुबुध कहै लगलखिन- ‘‘हीरा बाबू, गाममे जते एक बीघा खेतसँ निच्चा बला गरीब लोक छथि हुनका सभकेँ एक-एक बीघा खेत भए जेतनि। सिर्फ रमाकान्ते कक्काबला जमीन टा नहि, हुनकर अपनो जमीन ओहिमे जोड़ा जेतनि। जना देखियौ जे किनको घरारियो नहि छन्हि, हुनका बीघा भरि खेत दिअए पड़त। मुदा जिनका पाँच कट्ठा छन्हि हुनका तँ पनरहे कट्ठा दिअए पड़त। ततबे नहि जिनका ओहूसँ बेसी छन्हि, हुनका आरो कम दिअए पड़त।’’
सुबुधक बात सुनि रमाकान्त ठहाका मारि बजलाह- ‘‘बड़ सुन्नर, बड़ सुन्नर। बड़ सुन्नर विचार सुबुधक छनि। आब रातियो बेसी भए गेल। खाइओ-पीबैक बेरि उनहि जाएत। रोटी गरमे-गरम खाइमे नीक होइ छै। तेँ आब गप-सप छोड़ू। काल्हि भोरे ढोलहो दए सभकेँ बजा लेबनि आ सबहक बीचमे अपन निर्णय सुना देबन्हि। खेत बटैक भार हुनके सभपर छोड़ि देबनि। नहि तँ अनेरे हो-हल्ला करताह।’’
भोरे ढोलहो पड़ल। एक तँ ओहिना सबहक कान ठाढ़ रहनि, तहि परसँ ढोलहो पड़ल घरा-घरी सभ पहुँचलाह। जहिना केस लड़निहार फैसला सुनैले उत्सुक रहैत अछि, तहिना बैसारमे सभ रहथि। अस्सी बरखक सोने बाबा सेहो आएल रहथि। ओना सोनेलाल बाबाकेँ अपने अढ़ाइ बीघा खेत छन्हि मुदा गाममे नब उत्सवक उत्साहसँ आएल छलाह। बैसले-बैसल ओ मूड़ी उठा कऽ देखि बजलाह- ‘‘कोनो टोलक कियो छुटलो छथि। सभ अपन-अपन टोलक लोककेँ गनि लिअ।’’
सोनेबाबाक गप सुनि सभ अपन-अपन टोलक लोक मिलबै लगल। सिर्फ दू आदमी बैसारमे नहि आएल छलाह। दुनू टोलक दू आदमीकेँ पठा दुनूकेँ बजौल गेलनि। दुनू आदमीकेँ देखितहि सोनेबाबा पूछि देलखिन- ‘‘तोरा दुनू गोटेकेँ ढोलकक अबाज कानमे नहि पहुँचल छलौ ?’’
बौका बाजल- ‘‘ढोलहो तँ बुझलिऐ। मगर नोकरी करै छी ने, ने माए-बाप अछि आ ने बहु, तखन खेत लऽ कऽ की करब? बिआहो होइते ने अछि। लोक ढहलेल बुझै अए। तखन अनेरे किअए अबितौं।’’
बौकाक बात सुनि सोनेबाबा मूड़ी डोला स्वीकार केलनि। आब दोसर गोसैमा बाजल- ‘‘हम दुनू परानी तँ बूढ़े भेलहुँ की ने। बेटा अछिये नहि। लऽ दऽ कऽ एकटा ढेरबा बेटी अछि। ओकरो बिआह अइ बेर कइये देबै। विआह हेतै, अपन घर जाएत। भोगिनिहार के रहत जे अनेरे हम खेत लेब।’’
गोसैमोक विचार सुनि सोनेबाबा मूड़ी डोला स्वीकार केलनि। बौका आ गोसाइ दुनू गोटेक बात सुनि सोनेबाबा सोचै लगलथि जे समाजमे दूटा परिवार कमि जाएत। तेँ दुनू परिवारकेँ तँ नहि बचाओल जाए सकैत अछि, मुदा दुनूकेँ जोड़ि कए एकटा परिवार तँ बनाओल जाए सकैत अछि। कहलखिन- ‘‘बौका तँ सिर्फ नामक अछि। केहेन बढ़ियाँ बजै अए। गोसाइओक बेटी आन गाम चलि जेतै। जहिसँ बाप-माए दुनू गोटेकेँ बुढ़ारीमे दुख हेतै। तेँ बौकाक विआह गोसाइक बेटीसँ करा देने एक परिवार भए जाएत।’’
सोनेबाबाक विचार सुनि अधासँ बेसी गोटे समर्थन कए देलक। मुदा किछु गोटे विरोध करैत बजलाह- ‘‘एक गाममे लड़का-लड़कीक विआहक चलनि तँ नहि अछि। जँ हएत तँ अनुचित हएत।’’
धड़फड़ा कऽ लखना उठि जोरसँ बाजल- ‘‘कोन गाम आ कोन समाज एहेन अछि जहिमे छौड़ा-छौड़ी छह-पाँच नहि करैत अछि। चोरा कऽ छह-पाँच केलासँ बड़बढ़िया, मुदा देखाकेँ करत से बड़ अधला हेतैक।’’
लखनाक विचारकेँ सभ सहमति दए देलनि। दुनूक विआहक बात पक्का भए गेल। सुबुधक मनमे फेर एकटा प्रश्नब उठि गेलनि जे बौका आ गोसाइक दुनू परिवारकेँ एक मानि जमीन देल जाए वा दू मानि। तर्क-वितर्क करैत, मिला कऽ एक परिवार मानि हिस्सा दैक सहमति बनल।
फेर प्रश्नस उठल जे जमीनक नाप-जोख के करत ? रमाकान्त कहि देलखिन जे अपनेमे अहाँ सभ बाँटि लिअ।’’
सुबुधोक मनमे भेलनि जे रमाकान्त कक्का ठीके कहलनि। काजकेँ बाँटि कए नहि करब तँ गल्ती हएत। सभ काज जँ अपनहि करै चाहब तँ एते गोटे जे समाजमे छथि ओ की करताह। जँ कहीं कोनो गलतियो हेतै तँ सुधरि जेतै। कहलखिन- ‘‘खेत नपैक लूरि कते गोटेकेँ अछि? किएक तँ जँ अमीन लएकेँ बँटवारा करब तँ बहुत खर्च होएत। जे खर्च बँटैमे करब ओहि पैसासँ दोसरे काज किअए नहि कए लेब। पैसाक काज तँ बहुत अछि, तेँ अन्ट सन्ट खर्च नहि कए सुपत-सुपत खर्च करब नीक होएत। देखते छिऐ जे जहिना देशक संविधान ओकीलकेँ सालो भरि हरियरी देने रहैत अछि, तहिना तँ सर्वेओ अमीनकेँ अछि। कौआसँ खैर लुटाएब नीक नहि। जहिना अहाँ सभकेँ मंगनीमे खेत भेटि रहल अछि तहिना सही-सलामत हाथमे खेत चलि जाए। जँ अमीन सबहक भाँजमे पड़ब तँ ओहिना हैत जहिना लोक कहै छै ‘जतेमे बहु नहि ततेमे लहठी कीनब’।’’
सुबुधक बात सुनि, जोशमे बिलटा उठि कऽ ठाढ़ भए बाजल- ‘‘माघ माससँ लऽ कऽ जेठ धरि हम सभ खेत तमिया करै छी। कोनो एक्के साल नहि, सभ साल करै छी। सेहो कोनो आइयेसँ नहि जहियासँ ज्ञान परान भेल तहियेसँ। कोन अमीन आ कमिश्न्र नपैले अबै अए। अपन गामक कोन बात जे चरिकोसीमे तमनी करै छी। ततबे नहि, नेपालो जा-जा तमै छी। ततबे नहि साले-साल नपैत-नपैत तँ सौँसे गामक खेत जनै छी, जे कोन खेत कतए अछि, तेँ नपैक जरुरतो ने अछि। मूहजबानिये कहि देब जे कोन कोला कते अछि। एक गोरे कागजपर लिखि लिअ जे ककरा कते खेत देबै। हमरा कहैत जाएब, हम कोला फुटबैत जाएब। एकटा पंडीजी, बड़बढ़िया नाम कहने रहथिन, मुदा मन नइ अछि, जे ओ तीनिये डेगमे दुनियाँकेँ नापि लेने रहथि। तहिना हमहूँ तीन डेगक लग्गी बना, एक गामक कोन बात जे परोपट्टाक जमीन नापि देब।’’
बिलटाक बात सुनि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बड़बढ़ियाँ, बड़बढ़ियाँ।’’ सभ केयो उठि-उठि बिदा भेलाह।
बेर झुकतहि सौँसे गामक स्त्रीगण, ढेरबा बचिया छोटका-छोटका ढेन-बकेन चिकनी माटिक खोभार दिशि बिदा भेल। सबहक हाथमे खुरपी-पथिया। सभकेँ हाथमे खुरपी पथिया नेने जाइत देखि श्रीचन मने-मन सोचै लगल जे एना किअए लोक कए रहल अछि। दसमिओ तँ अखन नहि एलै। कोनो पावनियो-तिहार नहिये छिऐक। तहन स्त्रीगणमे एना उजैहिया किअए उठि गेलै। कोन बुढ़िया जादू तरे-तर गाममे पसरि गेल जे मरद बुझबे ने केलक आ मौगी सभ बुझि गेल। अनकर कोन अपनो घरवाली रमकल जाइत अछि। जते श्रीचन सोचै ओते ओझरिये लगल जाए। तत्-मत् करैत रुदल ऐठाम बिदा भेल। रुदलक घर लगेमे। श्रीचने जेकाँ रुदलो छगुन्तामे पड़ल रहए श्रीचनकेँ देखितहि रुदल पूछि देलकै- ‘‘आँइ हौ श्रीचन भाइ, मौगी सभकेँ कथीक रमकी चढ़लै जे एते रौदमे माटि आनैले जाइये।’’
रुदलक बात सुनि श्रीचन आरो छगुन्तामे पड़ि गेल। मनमे एलै जे हम गामपर नइ छलौं तेँ नइ बुझलिऐक। मगर ई तँ गामेपर रहए। किअए ने बुझलकै ? फेर सोचलक जे जखन घरवाली माटि लऽ कऽ आओत तँ पूछि लेबै। मन असथिर भेलै। मुदा रुदलक मूहक रंगसँ बुझि पड़ै जे कत्ते भारी काज स्त्री बिना पुछिनहि कए लेलकै। भीतरसँ खुश मुदा उपरसँ गंभीर होइत श्रीचन रुदलकेँ पुछलक- ‘‘आँइ हौ रुदल भाइ, तोरा भनसियासँ मिलान नइ रहै छह, जे बिन पुछनहि चलि गेलखुन।’’
श्रीचनक मनक बात नहि बुझि खिसिया कऽ रुदल बाजल- ‘‘की कहिहऽ भाइ, मौगीपर विसबास नै करी। जखैन अपन काज रहतै तँ हँसि-हँसि बजतह, मुदा जखैन तोरा कोनो काज हेतह तँ कहतह जे माथ दुखाइ अए।’’
मूह दाबि श्रीचन मने-मन खूब हँसैत मुदा रुदल तामसे भेर होइत जाइत। बिदा होइत श्रीचन कहलकै- ‘‘जाइ छिअ भाइ। मौगी सबहक किरदानी देखि हमरा किछु फुरबे ने करै अए।’’
सह पाबि रुदल गरजि उठल- ‘‘बड़बुधियार मौगी सभ भए गेल हौ, चलै चलह तँ हमरा संगे कोदारि पाड़ए।’’
थोड़े दूर आगू बढ़ि श्रीचन रुकिकेँ कहलकै- ‘‘भाए की करबहक, आब मौगिये सबहक राज भेलै।’’
‘‘हमरा कोन राज-पाटसँ मतलब अछि, हर जोतै छी, कोदारि पाड़ै छी, तीन सेर कमा कऽ अनै छी, खाइ छी। एते दिन पुरुखे चोर होइ छलै, आब मौगियो चोरनी हएत। भने जहल जाएत आ पुलिसबासँ यारी लगौत।
श्रीचन बढ़ि गेल। रुदल, दुनू हाथ माथपर लए सोचै लगल।
सभ केयो माटि आनि-आनि अपन-अपन अंगनाक माटिक ढेरीपर रखलनि। घामे-पसीने सभ तर-बत्तर रहथि। कने काल सुसतेलाक उपरान्त दिआरी बनबै लेल मुंगरी, लोढ़ीसँ माटि फोड़ै लगलीह। मेहीसँ माटि फोड़ि, इनार-कलसँ अछिनजल पानि भरि-भरि अनलनि। माटिमे पानि दए सानै लगलीह, सुखल माटिमे पानि पड़ितहि सोन्हगर सुगंध सौँँसे गाममे पसरि गेल। गामक हबे बदलि गेल। जहिना साझू पहर कऽ सिंगहार फूल, रातिरानीसँ वातावरण महमहा जाएत, तहिना माटि-पानिसँ जनमल सुगंध गामकेँ महमहा देलक। माटि सानि, छोट-छोट दिआरी सभ बनबै लागलि। दिआरी बना, पुरान साफ सूती वस्त्रकेँ फाड़ि-फाड़ि दहिना हाथक तरहत्थीसँ जाँघपर रगड़ि-रगड़ि टेमी बनौलनि। टेमी बना दिआरीमे कड़ू तेल दए टेमी सजौलनि। दिआरी सजा केयो फुलडालीमे तँ कियो चंगेरीमे तँ कियो छिपलीमे तँ कियो केराक पातपर रखलनि। दिआरी रखि सभ नहेलीह, अजीब दृश्यफ। नव उत्सव। नव जिज्ञासा। नव आशा सबहक मनमे छलनि। सुरुज डूबबो नेहि कएल, मुदा निच्चा जरुर उतरि गेल रहथि, गाछो सभपरक रौद बिला गेल छलैक, सभ अपन-अपन गोसाउनिक घर जा सिरा आगूमे दिआरी लेसिलनि, दिआरी लेसि एकटंगा दऽ आराधना करै लगलीह, जे आइल लछमी पुनः पड़ाइत नहि। गोसाइकेँ गोर लागि सभ गामक देव स्थान दिशि चललीह। अपन-अपन आंगनमे तँ सभ असकरे-असकर छलीह, मुदा आंगनसँ निकलितहि देवस्थान दिशि बिदा होइतहि संगबे सभ भेटै लगलनि। संगबे मिलितहि सभ, जहि स्थान दिशि जाइत रहथि ओहि देवताक, गीत गबै लगलीह। सौँसे गाम, सभ रस्तामे, एक नहि अनेक समूह गीत गबैत मगनसँ देवस्थान पहुँचै लगलीह। सबहक मनमे जमीनक खुशी तँ सभ देवतोकेँ मुस्कुराइत सभ देखैत। सबहक मनमे नचैत जे एकसँ एक्कैस हुअए।
दिआरीक इजोत जेकाँ गामक सभ गरीब-गुरबाकेँ आशाक दीप खेत पाबि जरै लगलनि। हजारो बर्खसँ पछुआबैत गरीबीमे एकाएक आड़ि पड़ि गेल। सभ कियो नव-नव योजना मनमे बनबै लगलाह। जहिसँ जिनगी दुखक बेड़ीकेँ टपि सुखक सीमामे पएर रखलक। नव जिनगी जीबैक उत्कंठा सबहक मनमे जगलनि।
११
खेत भेटलासँ भजुआक सभ समांगक विचारो बदललनि। नवो बापुत बैसि विचार करै लगल जे जहिना रमाकान्त काका हमरा सभकेँ रखि लेलनि, तहिना हमहूँ सभ समाजक एक अंग बनि कऽ रहब। सभसँ पहिने रमाकान्त, सुबुध शशिशेखर आ मास्टर सहाएबकेँ अपना ऐठाम भोजन करैबनि। मुदा अखन धरिक जे हमरा सबहक चालि-ढालि रहल अछि, ओकरा तँ अपनहि बदलै पड़त। अंगना-घर आ दुआर-दरबज्जाक जे छिछा-बिछा अछि, ओ नीक लोकक बैइसै जोकर नहि अछि। सभ दिन अपना एहनेमे रहलौं, तेँ रहै छी, मुदा नीक लोक एहेन जगहमे कोना औताह। देखिये कऽ मन भटकि जेतनि। तेँ पहिने सभ समांग भोरेसँ दुआर-दरबज्जा, अंगना-घरकेँ चिक्कन-चुनमुन बनाबह। मरदो आ मौगियो जे भदौस जेकाँ नुआ-बसतर बनौने रहै छी, ओकरो बदलह। जखन अपन काज करै छी तखन जे फटलो-पुरान आ मैलो-कुचैल कपड़ा पहिरै छी तँ बड़बढ़िया। मुदा जखन किनको नोत दए कऽ खाएलेे बजेबनि, तखन एहेन बगए-बानिसँ काज नइ चलत। भजुआक जेठ बेटाक सासुर दरभंगा बेला मोड़पर अछि। जखन ओ सासुर जाइत आ ओहिठामक रहल-सहन, बात-विचार देखैत तँ मन जरुर आगू मुहे बढ़ैक कोशिश करैत अछि। मुदा गामक जे गरीबीक अवस्था छैक ओ सभ विचारकेँ दाबि दैत छैक। मुदा तैयो दरभंगाक देखल परिवार नजरिमे तँ रहबे करैक। भजुआक जेठ बेटा झोलिया सातो भाइक भैयारीमे सभसँ जेठ। तेँ सभ भाए झोलियाक बात मानैत अछि। झोलिया कहलक- ‘‘सातो भाएक बीच रमाकान्त बाबा सात बीघा जमीन देलखुन। पाइ तँ एक्कोटा नै लेलखुन। दुनियाँमे ककरा के एना दै छै। जेँ हुनका मनमे हमरो सबहक प्रति दया एलनि तेँ ने। तहिना हमहूँ सभ हुनका ओते पैघ बुझि आदर करबनि। गामेमे भाड़ापर कुरसी, समेना, शतरंजी, जाजीम, सिरमा सभ भेटै अए। जहिना बरिआतीक लेल लोक भोजनसँ लऽ कऽ रहै तक सभ व्यवस्था करै अए, तहिना हमहूँ सभ करब।’’
झोलियाक विचार सुनि छवो भाइयो आ बापो-पित्ती सभ कियो मूड़ी डोला समर्थन कऽ देलक। झोलिया फेर बाजल- ‘‘बाउ, तूँ रमाकान्त बाबा ऐठाम चलि जैहह। हुनका चारु गोटेकेँ नोतो दए दिहनु आ संगे-संग बजेनहु अबिहनु। दू भाए रहैक, भाड़ापर सभ समान आनि जोगार करिहह। दू सवांग बजारसँ खाइक सभ समान कीनि आनह। सभ सब काजमे भोरेसँ लगि जैहह।’’
दलानपर बैसि रमाकान्त आ हीरानन्द चाहो पीबैत रहथि आ गामेक गप-सप करैत रहथि। गामक गप-सप करैत रमाकान्तक नजरि बौएलाल आ सुमित्रापर गेलनि। गिलास रखि रमाकान्त हीरानन्दकेँ कहल- “महेन्द्र बौआ कहने रहथि जे छअ मास सिखा-पढ़ा दुनू गोटेकेँ पठा देब मुदा अखन धरि किएक ने आएल?’’
हीरानन्द बजलाह- ‘‘कोनो कारण भेल हेतै तेँ ने अखन धरि नहि आएल अछि। ओना चिकित्सा कठिन विद्या थिक। सुढ़िआइमे तँ किछु समए लगबे करतैक।’’
दुनू गोटे गप-सप करिते रहथि आकि भजुआ आबि रमाकान्तकेँ गोर लगलकनि, रमाकान्तकेँ गोर लागि हीरानन्दोकेँ लगलकनि। हीरानन्दकेँ गोर लगितहि ओ असिरवाद दैत पुछलखिन- ‘‘भजू भाइ, नीके रहै छह कीने ?’’
“हँ मास्टर बौआ। हमरा तँ गामसँ भगैक नौवत आबि गेल छलए।’’ रमाकान्त दिशि देखि- “मुदा कक्का नै भागै देलनि।’’
‘‘से की, से की”- हलचल शब्दमे रमाकान्त पुछलखिन।
गाममे बसैक खिस्सा भजुआ कहै लगलनि- ‘‘एहि गाममे पहिने हम्मर जाति डोम नै छल रहए। मुदा डोमक काज तँ सभ गाममे जनमसँ मरन धरि रहै छै। हमरा पुरखाक घर गोनबा रहै। पूभरसँ कोसी अबैत-अबैत हमरो गाम लग चलि आएल। अखार चढ़िते कोसी फुलेलै। पहिलुके उझूममे तेहेन बाढ़ि चलि आएल जे बाधक कोन गप जे घरो सभमे पानि ढूकि गेल। तीन दिन तक ने माल-जाल घरसँ बहराएल आ ने लोके। पीह-पाह करैत सभ समए बितौलक। मगर पहिलुका बाढ़ि रहै, तेसरे दिन सटकि गेल। हम्मर बाबा दुइये परानी। ताबे हम्मर बाउ नै जनमल रहै। बाढ़िक पानि सटैकिते दुनू गोरे दसोटा सुगर आ घरक समान लए गामसँ बिदा भऽ गेल। जखैन गामसँ बिदा भेल तँ दादी बाबाकेँ कहलकै- ‘‘अनतै कतऽ जाएब। हमरो माए-बाप जीविते अछि, तेँ ओतै चलू। बबो मानि गेल। दुनू परानी अही गाम देने जाइत रहै। गाममे अबिते सुगरकेँ चरैले छोड़ि देलकै आ अपने दुनू परानी सुसताए लगल। अइ गाममे डोम नहि तेँ गामक बेदरा-बुदरी सभ सुगर देखैले जमा भऽ गेल। गामोमे हल्ला भए गेलै। गामक बाबू-भैया सभ आबि हमरा बाबाकेँ कहलकै जे अही गाममे रहि जा। हमर बाबा रहि गेल। गामक कातमे एकटा परती रहै। ओही परतीपर एकटा घर सभ बाबू-भैया बना देलकै। ओइ दिनमे परती नमहर रहै। मगर चारु भाग जोता खेत रहै। चारु भागक खेतबला सभ परतीकेँ छाँटि-छाँटि खेतमे पीअबैत गेल। परती छोट होइते गेलै। रहैत-रहैत घर-अंगना आ खोबहारे भरि रहलै। मगर तैयो दिक्कत नै होए। हमर बाउओ भैयारीमे असकरे। मुदा हम दू भाइ भेलौं। जखैन दुनू भाए भिन्न भेलौं तँ घरारियो बँटा गेल आ गिरहतो। मुदा तैयो गुजरमे दिक्कत नै हुअए। अखैन दुनू भाएक बीच सातटा बेटा अछि। चारिटा हमरा आ तीनटा भाएक। गुजर तँ कमा कऽ सभ कऽ लैत अछि, मुदा घरक दुख तँ सभकेँ होइते छै।’’
भजुआक खिस्सा सुनि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘आब तँ बहुत खेत भेलह?’’
‘‘हँ कक्का! कते पीढ़ी आनन्दसँ रहब। अखैन घर तँ नै बन्हलौं मुदा खेती केनाइ शुरु कऽ देलिऐ।’’
बिचहिमे हीरानन्द पुछलखिन- ‘‘सबेरे-सबेरे केम्हर चललह, भज्जु भाइ?’’
भजुआ- ‘‘रातिमे सभ सवांग विचारलक जे जहिना रमाकान्त कक्का सभकेँ समाजक अंग बना खेत देलनि तहिना हमहूँ सभ हुनका नोत दए खुऐबो करबनि आ धोती पहिरा बिदाइयो करबनि। तेँ नोत दैले एलौंहेँ।’’
न्योतक नाम सुनितहि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘कहियाक नोत दै छह?’’
ईहो तीनू गोटे- सुबुध, शशि आ हीरानन्द- जेथुन। हिनको सभकेँ कहि दहुन।’’
‘‘हँ कक्का, अहीं टाकेँ थोड़े लए जाएब। हिनको सभकेँ लए जेबनि। ऐठाम तँ अहीं दू गोरे छी। शशिभाइ आ सुबुध भाइ नइ छथि। ताबे अहाँ दुनू गोरे नहाउ-सोनाउ, हम ओहू दुनू गोरेकेँ बजौने अबै छिअनि।’’
हीरानन्द- ‘‘औझुके नोत दै छह?’’
‘‘हँ, मासटर सहाएब!’’
रमाकान्त- ‘‘बड़बढ़िया! शशि तँ पोखरि दिस गेलखुन, अबिते हेथुन। ताबे सुबुधकेँ कहि अबहुन।’’
भजुआ सुबुध ऐठाम बिदा भेल। चाह पीबि सुबुध दुनू बच्चाकेँ पढ़बैत रहथि। भजुआकेँ देखितहि सुबुध पूछि देलखिन- ‘‘भज्जु भाइ, केम्हर-केम्हर?’’
प्रणाम कए भजुआ कहलकनि- ‘‘भाइ, अहीं ऐठाम ऐलौंहेँ। रमाकान्तो कक्काकेँ कहि देलियनि आ अहूँकेँ कहैले एलौंहेँ।’’
“की कहैले ऐलह? ’’
‘‘नत दैले एलौं।’’
“कोन काज छिअह?”
‘‘काज-ताज नै कोनो छी। ओहिना अहाँ चारु गोरेकेँ खुअबैक विचार भेल।’’
भजुआक बात सुनि सुबुधक मनमे द्वन्द्व उत्पन्न भए गेलनि। मनमे प्रश्नि उठलनि जे भजुओ तँ अही समाजक अंग छी। जहिना शशीरमे नीकसँ नीक आ अधलाहसँ अधलाह अंग अछि, जहिसँ शरीरक क्रिया चलैत अछि तहिना तँ समाजोमे अछि। मुदा शरीर आ समाजकेँ तँ एक नहि मानल जाएत। समाजमे जाति आ सम्प्रदाइ एहि रुपे पकड़ि नेने अछि जे सभसँ उपरो अछि आ निच्चो अछि। एक दिस धर्मक नामपर सभ हिन्दू छी, मुदा जाति रंग-बिरंगक भीतरमे अछि। एक जाति दोसर जातिक ने छुवल खाइत अछि आ ने कथा-कुटमैती करैत अछि। ततबे नहि, हिन्दूक जे देवी-देवता छथि ओहो बटाएल छथि। जे देवी-देवताकेँ एक जाति मानैत अछि, दोसर नहि मानैत अछि। जँ मानितो अछि तँ ने हुनकर पूजा करैत अछि आ ने परसाद खाइत अछि। भरिसक हृदयसँ प्रणामो नहि करै जाइ छथि। देवतो मने-मन अछोप, शूद्र इत्यादि बुझैत छथि। जँ ई प्रश्ना हल्लुक-फल्लुक रहैत तँ कोनो बात नहि! मुदा प्रश्नक तँ जड़िआएल छैक। एहेन ने हुअए जे नान्हिटा प्रश्निक चलैत समाजमे विस्फोट भए जाए। समाजक लोक एहि दुनू प्रश्न्क बीच तेना ने बन्हाएल अछि, जे जिनगीक सभसँ पैघ वस्तु एकरे बुझैत छथि। जहन की छी नहि। मुस्कुराइत सुबुध भजुआकेँ कहलखिन- ‘‘ताबे तूँ रमाकान्त कक्का ऐठाम बढ़ह। हम नहेने अबै छी।’’
भजुआ बिदा भेल। मुदा सुबुध मने-मन सोचिते रहलाह जे की कएल जाए। तर्क-वितर्क करैत सुबुधक मन धीरे-धीरे सक्कत हुअए लगलनि। अंतमे एहि निष्कर्षपर पहुँचि गेलाह जे जाधरि एहि सभ छोट-छीन बातकेँ कड़ाइसँ पालन नहि कएल जाएत, ताधरि समाज आगू मुहे नहि ससरत। समाजकेँ पछुअबैक इहो मुख्य करण थिक। तेँ एकरा जते जल्दी हुअए तोड़ि देब उचित हएत। ई बात मनमे अबितहि सुबुध नहाइ लेल बिदा भेला। नहा कऽ कपड़ा पहीरि रमाकान्त ऐठाम बिदा भेला। जाबे सुबुध रमाकान्त एहिठाम पहुँचथि ताबे रमाकान्त शशिशेखर आ हीरानन्द नहाकऽ कपड़ा पहीरि तैयार रहथि। सुबुधक पहुँचतहि हीरानन्द कहलखिन- ‘‘सुबुधो भाइ आबिये गेलाह। आब अनेेरे बिलम्ब करब उचित नहि।’’
सुबुध बैसबो नहि कएला। सभ क्यो बिदा भए गेलाह। आगू-आगू रमाकान्त पाछू-पाछू सभ। थोड़े दूर आगू बढ़लापर हीरानन्द भज्जुकेँ पुछलखिन- ‘‘कथी सबहक खेती केलहहेँ भज्जु?’’
मजबूरीक स्वरमे भज्जु कहै लगलनि- ‘‘भाइ, अपना बड़द नै अछि। कोदारियो ने छलए मुदा छौरा सभ जोर केलक आ दस गो कोदारि कीनि अनलक। सभ बापुत भोरे सुतिकेँ उठै छलौं आ खेत तामै चलि जाइ छलौं। पनरह दिनमे सभ खेत तामि लेलहुँ। बड़बढ़िया जजात सभ अछि। अइ बेर हएत तँ बड़दो कीनि लेब।’’
“जखन खेत भेलह तँ बड़द किअए ने कीनि लेलह?’’
“एक्केटा दिक्कत नइ ने अछि। बड़द कीनितौं तँ बान्हितौं कतए। खाइले की दैतिऐ। जे सभ काज -बड़द कीनिनाइ, घर बनौनाइ, खाइक जोगार केनाइ- एक्के बेर शुरु करितौं तँ ओते काज पार कना लगैत। तेँ एका-एकी सभ काज करब।’’
‘‘बड़ सुन्दर विचार केलह?’’
गप-सप करैत सभ भजुआ एहिठाम पहुँचलाह। घरक आगूमे दू कट्ठा जमीन। ओहिमे समियाना टँगने। एक भाग कुरसी लगौने। दोसर भाग शतरंजी, जाजीम, तकिया लगौने। भजुआक सभ सवांग- मरदसँ मौगी धरि- नहाकऽ नवका वस्त्र पहिरने। जहिना कतौ बरिआतीक व्यवस्था होइत छैक, तहिना व्यवस्था केने अछि। व्यवस्था देखि चारु गोटे क्षुब्ध भए गेलाह। किनको बुझिये नहि पड़ैत, जे डोमक घर छिऐ। चारु गोटे चारु कुरसीपर बैसलाह। कुरसीपर बैसितहि भजुआक एकटा बेटा शरबत अनलक। सभसँ पहिने रमाकान्त दू गिलास सरबत पीबि, ढकार करैत कहलखिन- ‘‘आब पान खुआबह।’’
जते काल सरबत पीबथि, तहि बीच भजुआक पोती चाह नेने आबि गेली। हाँइ-हाँइ कऽ शशिशेखर सरबत पीलनि। स्टीलबला कपमे चाह। शुद्ध दूधक बनल। ने अधिक मीठ आ ने फिक्का। चाहक रंगो तेहने। तइपर काॅफी चक-चक करैत। चाह पीबैत-पीबैत रमाकान्तक पेट भरि गेल। भरिआइल पेट बुझि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘ई तीनू गोटे- कुरसीपर बैसताह, हम ओछाइनेपर पड़ब।’’ कहि उठि कऽ ओछाइनपर जाए पड़ि रहलाह। पान आएल। सभ क्यो पान खेलनि। मूहमे पान सठबो नहि कएल छलनि आकि जलखै करैक आग्रह भजुआ केलकनि। भजुआक आग्रह सुनि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘हम ओछाइनेपर खाएब। हुनका सभकेँ टेबुलपर दहुन।’’
भजुआक सभ सवांग दासो-दास रहए। जखनसँ चारु गोटे अएलाह तखनसँ भजुआक परिवारमे नव उत्साहक लहरि उमरि पड़लैक। की मरद की स्त्रीगण। जे स्त्रीगण सदिखन झगड़ेमे ओझराएल रहैत छलि, सभक मूहमे हँसी छिटकैत। मनुक्खे एहि दुनियाक सभसँ पैघ कर्ता-धर्ता छी, ई विचार सभक मनमे नचै लगलनि। भजुआक पोती, जेकर मात्रिक दरभंगा छिऐ आ ओतै बेसी काल रहबो करैत अछि, हाइ स्कूलमे पढ़बो करैत अछि, ओकर संस्कार आ काज करैक ढंग देखि सुबुध आ हीरानन्द आखियेक इशारामे गप करै लगलथि। आँखिएक इशारामे सुबुध कहलखिन- ‘‘जँ मनुखकेँ नीक वातावरण भेटै तँ ओ किछु सँ किछु कए सकैत अछि, चाहे ओकर जनम केहनो गिरल परिवारमे किएक ने भेल होए।’’
सुबुधक बात सुनि हीरानन्द कहलखिन- ‘‘ई सभ ढोंग छी जे लोक कहैत अछि जे पूर्व जनमक कर्मक फल लोक एहि जनममे पबैत अछि। हँ, जँ एकरा एहि रुपे मानल जाए जे एहि जनमक पूर्व पक्षपर पछातिक जिनगी निर्भर करैत अछि, तँ एक तरहक विचार होए। देखियौ जे यैह बचिया - भजुआक पोती कुशसरी- अछि, कते व्यवहारिक अछि। अही परिवारमे तँ एकरो जनम भेल छैक मुदा अगुआएल इलाका आ अगुआएल परिवारमे रहने कते अगुआइल अछि। की पैघ घरक बेटीसँ कम अछि।’’
चूड़ा, दही, चिन्नी, केरा, अचार, डलना तरकारीक संग पाँचटा मिठाइ सेहो जलखैमे छल। चारु गोटे भरि मन खेलनि। खेलाक बाद अस-बीस करै लगलथि। हाथ धोए रमाकान्त बिछानेपर ओंघरा गेलाह। मुदा गप-सप करै दुआरे सुबुधो आ हीरानन्दो कुरसियेपर बैसल रहलाह। सभ सवांग भज्जु जलखै कए सरिआती जेकाँ बैसल रहए। सुबुध पुछलखिन- ‘‘जखन एते समांग छह तखन माल-जाल किअए ने पोसने छह?’’
नवो समांगमे झोलिया सभसँ होशगर। अपनो सभ समांग झोलियाकेँ गारजन बुझैत। सुबुधक सवालक उत्तर झोलिया देमए लगलनि- ‘‘मास्सैब, अखन धरि हमरा सबहक परिवारमे सुगर पोसल जाइत रहल अछि। मुदा सुग्गर सिर्फ खाइक जानवर छी। आन काज तँ ओकरासँ होइ नहि छैक। ने हर जोतल जाइ छैक। आ ने दूध होइ छै। छोट जानवरक दुआरे गाड़ियो नहिये जोतल जेतैक। जकरा नूनो-रोटी नहि भेटै छै ओ माउस कत्तऽ सँ खाएत। तैयो हम सभ पोसै छी। अप्पन पोसल रहै अए तेँ पावनि-तिहारमे कहियो-काल खाइयो लै छी। खेनिहारक कमी दुआरे नेपाल जा-जा बेचै छलौं। नेपालमे अपना ऐठामसँ बेसी लोक खाइत अछि। किएक तँ सुगरक माउस खस्सी बकरीसँ बेसी गरम होइ छै। अपना ऐठामक जलवायु सेहो गरम अछि। तेँ सुग्गर मुख्यतः ठंढ़ इलाकाक खाद्य थिक। मुदा तैयो सुग्गरो पोसै छलौं, किएक तँ गाए-महीस जँ पोसबो करितहुँ तँ हमरा सबहक दूध के कीनैत?’’
झोलियाक बात सुनि सुबुध पुछलखिन- ‘‘सेहो तँ नै देखै छिअह?’’
झोलिया- ‘‘पहिने जेरक-जेर सुग्गर रहै छलै। पोसइयो मे असान होइत छलए। एक्के गोटेकेँ बरदेलासँ सए-पचास सुग्गर पला जाइत छल। भोरे किछु खा कऽ सुग्गरकेँ खोबहारिसँ निकालि चरबैले चलि जाइत छल। घरपर खुअबै-पिअबैक कोनो जरुरत नहि। साल भरि पोसै छलौं आ सालमे एक बेर नेपाल लए जाए बेचि लै छलौं। परुँका साल डेढ़ सए सुग्गर लए कऽ बाउओ आ कक्को नेपाल गेल। ओइठिन एकटा मंगलक हाट लगै छै। जहि हाटमे सभसँ बेसी सुग्गर बिकै छै। बड़का-बड़का पैकार सभ ओहि हाटमे रहैत अछि। हाटक एक भागमे हमरो सुग्गर छल। एक भाग बाउ वैसल आ दोसर भाग कक्का। एकटा पैकार पान-सात गोरेक संग आएल। दाम-दीगर हुअए लगलै। दाम पटि गेलै। सभ सुग्गरक गिनती कए, एकटा पैकार रहल आ बाकी गोरे सुग्गर हाँकि कऽ बिदा भेल। ओ पैकार हमरा बाउओ आ कक्कोकेँ कहलक जे चलू पहिने किछु खा-पी लिअ। हमरो बड़ भुख लागल अछि। एकटा दोकानमे तीनू गोटे गेल। जलखै करै लगल। जलखैमे किछु मिला देने छेलै। खाइते-खाइते दुनू गोरेकेँ निसाँ लगि गेलै। लटुआ कऽ दुनू गोरे दोकानेमे खसि पड़ल। तहि बीच की भेलै से बुझबे ने केलक। दोसर दिन निन्न टुटलै तँ ने ओ पैकार आ ने दोकान। किएक तँ दोकान हाटे-हाटे लगैत रहए। दुनू भाए कनैत-खिजैत बिदा भेल। ने संगमे एकोटा पाइ आ ने खाइक कोनो वस्तु। भूखे लहालोट होइत, कहुना-कहुना कऽ डगमारा आएल। डगमारा अबैत-अबैत दुनू भाए बेहोश भए गेल। डगमारामे हम्मर एकटा कुटुम अछि। दुनू भाएक दशा देखि ओ कुटुम गुम्म भए गेलाह। किछु फुरबे नहि करनि। बड़ी कालक बाद दुनू भाएकेँ होश भेलै। होश अबितहि दुनू भाए पानि पीबि, जखन कने मन नीक भेलै तँ नहाएल। नहा कऽ खेलक। खा कऽ सुतल। सुति कऽ उठला बाद आरो मन नीक भेलै। दू दिन औतै रहल। तेसर दिन गाम आएल। ओहि दिनसँ सुगर उपटि गेल।’’
सुबुध- ‘‘अपना घरमे रुपैआ-पैसा नहि अछि?’’
झोलिया- ‘‘थोड़बे रुपैआ अछि जे बाबा वाउकेँ देने रहै आ कहने रहै जे जब हम मरब तँ अइ रुपैआ सँ भोज करिहेँ। रुपैआ गनल नै अछि। बाँसक चोंगामे, सुगरक खोबहारीमे राखल अछि।’’
हलचला कऽ रमाकान्त कहलखिन- ‘‘नेने आबह तँ। देखियैक कते रुपैआ छह?’’
सातो चोंगा रुपैआ भजुआ सुगरक खोबहारीसँ निकालि रमाकान्तक आगूमे रखि देलकनि। फोंकगरहा बाँसक पोरक चोंगा, एक भाग गिरहेसँ बन्न आ दोसर भागमे कसिकऽ लत्ता कोंचने। सातो चोंगाक लत्ता निकालि रमाकान्त आगूमे रुपैआ निकालि-निकालि रखलक। एकटा रुपैआ उठा रमाकान्त निङहारि कऽ देखलनि तँ चानीक रुपैआ रहै। रुपैआक ढेरीपर सबहक आखि रहनि। जे जत्ते रहै सँ तत्तैसँ रुपैआपर आखि गड़ौने रहए। रमाकान्त हीरानन्दकेँ कहलखिन- ‘‘मास्सैब, एहि रुपैआकेँ गनियौ तँ।’’
कुरसी परसँ उठि हीरानन्द रुपैआ लग आबि गनै लगलाह। सातो चोंगामे सात सौ चानीक रुपैआ। सात सौ चानीक रुपैआ सुनि सुबुध मने-मन हिसाब जोड़ै लगलाह जे एक रुपैआक कीमत पचहत्तरि रुपैआ होइत अछि। एक सए सँ पचहत्तरि सए होएत। सात सौ सँ बाबन हजार पाँच सए हएत। अगर एक जोड़ बड़द कीनत तँ पाँच हजार लगतै। एकटा बोरिंग-दमकल लेत तँ पनरह हजारमे भए जेतै। जँ तीन नम्बर ईंटा लऽ ओकरा गिलेबापर जोड़ि, उपरमे एसबेसटस दए सात कोठरीक घर बनाओत तँ पच्चीस-तीस हजारमे भए जेतै। अपनो सभ सवांग कमाइते अछि आ सात बीघा खेतोक उपजा हेतै। साले भरिमे बढ़िया किसान परिवार बनि जाएत। जे अछैते पूँजीये लल्ल अछि। सभ कथूक दिक्कत छैक। विचित्र स्थिति सुबुधक मनमे उठि गेलनि। एक नजरिसँ देखथि तँ खुशहाल परिवार बुझि आ दोसर दिस देखथि तँ ने रहैले घर, ने खाइ-पीबैक समुचित उपाए। मुदा एकटा गुण भजुआक परिवारमे सुबुध जरुर देखलनि, जे आन गामक डोम जेकाँ ताड़ी-दारुक चलनि परिवारमे नहि छैक। सिर्फ बुझैक आ बुझबैक जरुरति परिवारमे छैक। नमहर साँस छोड़ैत सुबुध भजुओ आ भजुआक सभ सवांगोकेँ कहै लगलखिन- ‘‘भजु भाइ, हम सभ समाजकेँ हँसैत देखै चाहै छी, कनैत नहि। तेँ ककरो अधला होए से नहि सोचै छी। सभक नीक होए, सबहक परिवार हँसी-खुशीसँ चलैत रहए। सबहक बेटा-बेटी पढ़ै-लिखै, रहैक नीक घर होए, दबाइ-दारु दुआरे कियो मरै नहि, तेँ हम कहब जे एहि रुपैआकेँ रस्तासँ खर्च करु। ओना बाबू श्राद्धक भोजले कहने छथि, सेहो थोड़थार कए लेब, जँ एत्ते दिन नहि केलहुँ तँ किछु दिन आरो टारु। पहिने घर, बड़द आ बोरिंग गरा लिअ, तखन जे उपजा बाड़ी हएत तँ भोजो कए लेब।’’
सुबुधक विचारक समर्थन करैत रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बड़ सुन्दर विचार सुबुध देलखुन भज्जु। जिनगीकेँ बुझह जे जिनगी ककरा कहै छै आ कोना बनतैक। से जाधरि नहि सिखबह ताधरि एहिना बौआइत रहि जेबह।’’
भजुआ तँ चुप्पे रहल मुदा झोलिया टपाक दे बाजल- ‘‘बाबा जे कहलनि ओ गिरह बान्हि लेलौं। अहाँ सभ हमरो छोट भाए बुझू। जाबे हम्मर परिवार रहत आ हम सभ रहब, ताबे अहाँ सबहक संगे-संग चलैत रहब।’’
झोलियाक विचार सुनि हीरानन्द खुशीसँ झूमि उठलाह। हँसैत कहलखिन- ‘‘भज्जुभाइ, अहाँ तँ आब बुढ़ भेलहु तेँ नवका काज दिस नजरि नहि ढुकत, मुदा बेटा-भातीज सभ जुआन अछि, नव काज दिस बढ़ै दियौक। जाधरि लोक समएक हिसाबसँ नब काज दिशि नहि बढ़त ताधरि समएक संग नहि चलि पाओत। बाढ़िक पानि जेकाँ समए आगू बढ़ैत जाएत आ खढ़-पात जेकाँ मनुक्ख अरड़ा लगल रहत। तेँ समएकेँ पकड़ि कऽ चलैक कोशिश करह। आब अपनो सभ भाए मिला कऽ सात बीघा खेत भेलह। सात बीघा खेतबला बढ़ियाँ गिरहस्त तखने बनि सकैत अछि जखन कि खेती करैक सभ जोगार कए लिअए। पानिक बिना जजात नहि उपजि सकै अए। तहिना बड़दोक जरुरी अछि। खेतक महत्व तँ तखने हएत जखन कि ओकरा उपजबैक सभ जोगार कए लेब। बहुत रास रुपैआ अछि, ओहि रुपैआक उपयोग जिनगीक लेल करु।’’
गप-सप चलिते छल कि हहाइल-फुहाइल डाॅक्टर महेन्द्र आ बौएलाल पहुँचि गेलाह।
महंथ जेकाँ रमाकान्त ओछाइनपर पँजरा तरमे सिरमा देने पड़ल छलाह। महेन्द्रकेँ देखितहि सभ अचंभित भए गेलाह। महेन्द्र आ बौएलाल सोझे रमाकान्त लग पहुँच गोर लगलकनि। महेन्द्रकेँ असिरबाद दैत रमाकान्त कहलखिन- ‘‘एहिठाम किएक ऐलह। कनिये कालक बाद तँ हमहूँ सभ ऐबे करितहुँ। गाड़ीक झमारल छह, पहिने नहैतह, खैतह अराम करितह। हम कि कतौ पड़ाएल जाइ छलौं जे भेट नहि होइतिहह।’’
महेन्द्र डाॅक्टरक नजरिसँ चुपचाप पिताकेँ देखैत छलाह। पिताकेँ देखि मने-मन अपसोच करैत रहथि जे गलती समाचार पहुँचल। मुदा किछु बजैत नहि छलाह। तहि बीच भजुआ झोलियाकेँ कहलक- ‘‘बौआ, पहिने दुनू गोरेकेँ खुआबह।’’
महेन्द्रो आ बौएलालोकेँ खुअबैक ओरियान झोलिया करै लगल। ओरिआन तँ रहबे करै। लगले परसि दुनू गोटेकेँ खुऔलनि। दुनू गोटे खा कऽ घर दिस बिदा भेला। पाछूसँ कुशसरी महेन्द्रकेँ सोर पाड़ि कहलकनि- ‘‘चाचाजी, पान-सुपारी लए लिअ।’’
कुशसरीक आवाज सुनि दुनू गोटे रस्तेपर ठाढ़ भए गेला। झटकि कऽ कुशसरी, तस्तरीमे पान-सुपारी नेने, लगमे पहुँचलि। लगमे पहुँचि अपने हाथे पान सुपारी नहि दए तस्तरिये महेन्द्रक आगूमे बढ़ौलकनि। पान सुपारी देखि महेन्द्र कहलखिन- ‘‘बुच्ची, हम तँ पान नहि खाइ छी। अगर घरमे इलायची आ सिगरेट हुअ तँ नेने आबह।’’
कुशसरी चोट्टे घुरि कऽ आंगन आइलि। आंगन आबि सिगरेटक पौकेट, सलाइ आ इलायची नेने पहुँचली। उत्तरमुहे घुरि महेन्द्र ओरिया कऽ सिगरेट लगौलनि जे कहीं पिताजी ने देखि लेथि। दुनू गोटे गप-सप करैत बिदा भेला। कुशसरीकेँ देखि महेन्द्र अचंभित नहि भेलाह किएक तँ मिथिलाक गामक लेल कुशसरी अचंभित लड़की भए सकैत छलीह। मुदा मद्रासक लेल नहि। पछुआइल जाति मे कुशसरी सन-सन ढेरो लड़की अछि।
महेन्द्रकेँ गामसँ एकटा गुमनाम पत्र गेल रहनि। ओहिमे लिखल छलैक जे पिताजी बताह भऽ गेल छथि। अन्ट-सन्ट काज गाममे कए रहल छथि। तेँ समए रहैत हुनका इलाज नहि करेबनि तँ निच्छछ पागल भए जेताह। पत्र देखितहि महेन्द्र घर अबैक विचार केलनि। भाए रबिन्द्रसँ बिचारि लेब जरुरी बुझि महेन्द्र एक दिन रुकि गेलाह। दोसर दिन महेन्द्रक भावो सुजाता, महेन्द्र, बौएलाल आ सुमित्रा, चारु गोटे गाड़ी पकड़ि गाम बिदा भेलाह।
गाम अबितहि महेन्द्र पिताकेँ नहि देखि मने-मन आरो सशंकित भए गेलाह। माएकेँ पिताक संबंधमे पुछलनि। माएकेँ मात्र एतबे पूछलनि जे ‘बाबू कतए छथि?’। माए कहलखिन। एटैची रखि महेन्द्र बौएलालक संग सोझे भजुआ ऐठाम चललाह। डाॅ. सुजाता घरेपर रहि गेलीह। सासु ऐहिठामक परम्पराकेँ बुझबैत मनाही कए देलखिन।
चारि बजि गेल। खेबाक इच्छा ने रमाकान्तकेँ आ ने आरो किनको रहनि। भानस भऽ गेलै। जते विलम्ब होएत, ओते वस्तु सुआदहीन बनत। तेँ भजुआ चाहैत छल जे गरम-गरम भोजन सभ कियो करथि। मुदा भूख नहि रहने चारु गोटे टाल-मटोल करैत रहथि। असमंजस करैत भजुआ रमाकान्तकेँ कहलकनि- ‘‘कक्का, भानस भए गेल अछि। जैह मन माने सएह......।’’
ढकार करैत रमाकान्त उत्तर देलखिन- ‘‘जखन भोजन बना लेलह तँ नहि खाएब तँ मुहो छुताइये लेब। मुदा सच पूछह तँ एक्को रत्ती खाइक मन नहि होइत अछि।’’
‘‘सैह करबै’’ -भजुआ कहलकनि।
चारु गोटे उठि कऽ आंगन गेलाह। सौंसे आंगन चिक्कनि माटिसँ टटके नीपल, तेँ माटिक सुगंधसँ अंगना महमह करैत। आंगन तँ छोटे, मुदा बेसी लोकक दुआरे पैघ बुझि पड़ैत रहए। कम्मल चौपेत कऽ बिछाओल। जना आइये कीनिकेँ अनने हुअए तेहने थारी, लोटा, गिलास, बाटी चकचक करैत। भोजनक बिन्यास देखि रमाकान्त क्षुब्ध भए गेलाह। की पवित्रता, की सुआद। मने-मन रमाकान्त सोचथि जे अगर खूब भूख लागल रहैत तँ खूब खइतहुँ। मुदा भूखे ने अछि तँ की खाएब।’’
भोजन कऽ चारु गोटे बिदा हुअए लगलाह। बिदा होइसँ पहिनहि झोलिया रंगल चंगेरामे चारि जोड़ धोती आनि चारु गोटेक आगूमे रखि देलकनि। धोती देखि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘झोली, तूँ सभ गरीब छह। अपनेले घोती रखि लाए। तूँ पहिरौलह हम पहीरलहुँ। भए गेलैक।’’
१२
मद्रासमे महेन्द्र चारि बजे उठि अपन जिनगी लीलामे लगि जाइत छथि। मुदा गाममे चारि बजे भोरमे महेन्द्रकेँ कड़गर निन्न पकड़ने रहनि। एना किअए भेल? उठलाक उपरान्त महेन्द्र सोचै लगलथि। की मिथिलाक माटि, पानि, हवाक गुण छैक वा काजक कम रहने एना भेल। रमाकान्त सुति-उठि कऽ महेन्द्रक कोठरीमे जा देखलनि तँ देखलखिन जे ओ ठर्र पाड़ैत घोर नीनमे सुतल अछि। नहि उठौलखिन। मनमे एलनि जे बापक राजमे बेटा एहिना निश्चिन्त भए रहैत अछि। अपने लोटा लए कलम दिशि बिदा भेलाह। टहलि-बूलि, दिशा-मैदानसँ होइत अपन घरक रस्ता छोड़ि टोलक रस्ता पकड़ि घुमलाह। टोलमे प्रवेश करितहि, रस्ता कातेक चापाकलपर मूह-हाथ धुअए लगलथि। कलक बगलेमे मंगलक घर। रमाकान्तकेँ मंगल देखि चुपचाप अंगनासँ बेंतबला कुरसी आ टेबुल आनि डेढ़ियापर लगौलक। मूह-हाथ धोए रमाकान्त अपना घर दिस चललाह। रस्ता कटैत देखि मंगल कहलकनि- ‘‘काका, कने एक रत्ती अहूठाम बैसियौ।’’
मंगलक बातकेँ कटलनि नहि, मुस्कुराइत आबि कुरसीपर बैसि गेलाह। कुरसीपर बैसि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बड़ सुन्नर कुरसी छह। कहिया बनौलह?’’
‘‘आठम दिन छौड़ा दिल्लीसँ आएल। वैह अनलक।’’
मंगलक बेटा रविया, अंगनामे चाह बनबैत रहए। चाह बना, तस्तरीमे बिस्कुट नमकीन भुजिया आ चाहक गिलास नेने अबि रमाकान्तक आगूमे टेबुलपर रखि, गोर लागि कहलकनि- ‘‘बाबा, कने चाह पीबि लियौ।’’
रवियाक बात सुनि रमाकान्त सोचै लगलाह जे यैह मंगला छी जे बिहाड़िमे जखन घर उधिया गेल रहै तँ सात दिन अपनो सबतुरकेँ आ मालो-जालकेँ अपना मालक घरमे रहैले देने रहिऐ। आइ वैह मंगला छी जे केहेन सुन्दर घरो बना लेलक आ कुरसियो टेबुल कीनि लेलकहेँ। मुस्की दैत पुछलखिन- ‘‘बेटा, कत्तऽ नोकरी करै छह मंगल?’’
‘‘दिल्लीमे, कक्का। बड़बढ़िया अए।’’
रमाकान्त भुजिया, बिस्कुट खाए पानि पीबि चाह पीबैत रहथि आकि तहि बीच रविया आंगन जाए एकटा पौकेट जर्मनीक बनल रेडियो नेने आबि रमाकान्तक आगूमे रखैत कहलकनि- ‘‘बाबा, ई अहींले अनलहुँहेँ।’’
रेडियो देखि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘अइ सबहक सख आब एहि बुढ़ारीमे की करब। रखि ले। तूँ सभ अखन जुआन-जहान छैँ, छजतौ। हम लए कऽ की करब। दहिना हाथसँ रेडियो आ बामा हाथे रमाकान्तक गट्टा पकड़ि हाथमे दैत रविया कहलकनि- ‘‘बाबा, अहींले किनने आएल छी।’’
चाह पीबि, कुरसीपर सँ उठि रमाकान्त घर दिसक रस्ता पकड़लनि। आगू-आगू रमाकान्त पाछू-पाछू मंगल हाथमे रेडियो नेने। एक बाँस सुरुज उपर उठि गेल। महेन्द्र ओसारपर बैसि, दतमनि-ब्रस करैत रहथि। पान-सातटा बचिया माथपर पथिया आ हाथमे लोटा नेने पहुँचल।
महेन्द्र ब्रश करैत रहथि आ चुपचाप ओकरा सभकेँ देखबो करैत रहथि। लोटा पथिया ओसारपर रखि एकटा बचिया महेन्द्रकेँ पुछलकनि- ‘‘बाबा कहाँ छथिन?’’
बचियाक प्रश्न्क उत्तर महेन्द्र नहि देलखिन, किएक तँ नहि बुझल रहनि। सभक पथिया आ लोटाकेँ निङहारि-निङहारि महेन्द्र देखै लगलथि। कोनो पथियामे कोबी, कोनोमे टमाटर, कोनोमे करैला तँ कोनोमे भट्टा रहैक। लोटामे दूध रहै। दूध आ तरकारी देखि महेन्द्र सोचै लगलाह जे ई की देखि रहल छी। किअए ई सभ ऐठाम अनलकहेँ। गुन-धुन करै लगलाह। मुदा कोनो अर्थे ने लगैत छलनि। मन घुरिआइत छलनि। कनी कालक बाद पुछलखिन- ‘‘बौआ, ई सब किअए अनलह?’’
एकटा ढेरबा बचिया जे बजैमे चड़फड़, कहलकनि- ‘‘बाबा अप्पन सभ खेत हमरे सभकेँ दए देलखिन। अपनाले किछु ने रखलखिन, तेँ खेथिन की?’’
बचियाक बात सुनि महेन्द्र गुम्म भए गेलाह। सोचै लगलथि जे हम बेटा छिअनि। हुनकर चिन्ता हमरा हेबाक चाही। सुआइत कहल गेल अछि जे ‘जेहेन करब तेहेन पाएब।’ मूहपर हाथ नेने महेन्द्र सोचैत जे अनेरे लोक अप्पन आ दोसर बुझैत अछि। जकराले करबै, ओ अहूँले करत। चाहे अपन हुअए वा आन। सोचितहि रहथि आकि पिताजीकेँ अबैत देखलनि। पिताकेँ देखितहि उठि कऽ कुरुड़ करै गेलाह। रमाकान्तपर नजरि पड़ितहि सभ बचिया ओसारपरसँ उठि गोर लगै लगलनि। आगू बढ़ि रमाकान्त लोटामे दूध आ पथियामे तरकारी देखलखिन। तरकारी देखि कहलखिन- ‘‘बच्चा, एत्ते किअए अनलह? अच्छा जे आनिये लेलह, तँ आंगनमे रखि आबह।’’
सभ बचिया अपन-अपन पथिया-लोटा लऽ जा कऽ अांगनमे रखि आएल।
महेन्द्रक अबैक जानकारी गाममे सभकेँ भए गेलनि। एका-एकी लोक आबि-आबि अपन-अपन रोगक इलाज करबै चाहलक। मुदा महेन्द्र तँ नियारि कऽ नहि आएल छलाह, से ने जाँच करैक कोनो यंत्र अनने रहथि आ ने दवाइ। मुदा तैयो बौएलाल आ सुमित्राकेँ बजा अनैले जुगेसरकेँ कहलखिन। जुगेसर बौएलालकेँ बजबै गेल। जते जाँच-पड़ताल करैक यंत्र, चीड़-फाड़ करैक औजार बौएलाल आ सुमित्राकेँ कीनि देने रहथिन ओ सभ सामान नेने दुनू गोटे पहुँचल। बौएलाल महेन्द्र लग बैसल आ सुमित्रा सुजाताक संग दरबज्जाक पाछूक ओसारपर बैसलि। जनिजाति सुजाता लग जाँच करबै जाए लगलीह आ पुरुख महेन्द्र लग। चारिये-पाँच गोटेकेँ महेन्द्र जाँच केलनि आकि चारि-पाँचटा रोगी खाटपर टांगल अबैत देखलखिन। ओ सभ दोसर गामक छलैक। खाट देखि महेन्द्रकेँ भेलनि जे भरिसक हैजा-तैजा भए गेलैक। ओसारपर सँ उठि महेन्द्रो आ बौएलालो निच्चामे ठाढ़ भए गेलाह। खाटोबला आबि गेल। सभ कुहरैत रहए। ककरो कपार फुटल तँ ककरो डेन टूटल। ककरो मारिक चोटसँ देह फुलल। अपना लग कोनो दवाइ महेन्द्रकेँ नहि रहनि। हाँइ-हाँइ कऽ बौएलालकेँ बैनडेजक सभ समान आ दबाइक पुरजी बना, बजारसँ जल्दी अनैले कहलखिन। साइकिलसँ बौएलाल खूब रेसमे बिदा भेल।
रमाकान्त रोगी लग आबि, एकटा खाट उठौनिहारकेँ पुछलखिन- ‘‘कोना कपार फुटलै?’’
डरसँ कपैत ओ कहलकनि- ‘‘मारिसँ कपार फुटलै।’’
सुनितहि रमाकान्त महेन्द्रकेँ कहलखिन- ‘‘बौआ, सबहक इलाज नीक जेकाँ कए दहुन।’’ कहि ओसारपर बिछाओल बिछानपर बैसि, खाट उठौनिहार सभकेँ सोर पाड़लखिन। सभ केयो लगमे आबि बैसल। पुछलखिन- ‘‘मारि कखैन भेलह?’’
‘‘खाइ-पीब रातिमे।’’
“तब तँ खेनहुँ-पीनहुँ नहि हेबह?’’
‘‘नै।’’
जुगेसरकेँ कहलखिन- ‘‘पहिने सभकेँ खुआबह।’’
पनरह-बीस गोटेक जलखै तँ घरमे छलनि नहि। जुगेसर सुमित्राकेँ सोर पाड़ि कहलक- ‘‘बुच्ची, काकी तँ बूढ़े छथि, डाॅ. साहेब –सुजाता- अनभुआरे छथि। झब दे बड़का बरतन चढ़ा कऽ खिचड़ी बना। बेचारा सभ रौतुके भुखल अछि। हम सब समान जोड़िया दै छियौ। तोरो सब कुछ बुझल नइ छौ।’’
जहिना जुगेसर सुमित्राकेँ कहलक, तहिना सुमित्रो भानसमे जुटि गेलि। सुजाता सेहो लगि गेलीह।
जहिना बौएलाल निछोह साइकिल हाँकि बजार गेल तहिना लगले सभ समान कीनि आबियो गेल। बौएलालकेँ अबितहि महेन्द्रो आ बौएलालो सभ रोगीकेँ दरदक सुइया देलखिन। सूइ पड़ितहि, कनिये कालक उपरान्त, सभ कुहड़ब बन्न केलक। खिचैड़-तरकारी बना सुजातो आ सुमित्रो रोगी लग अएलीह। मन शान्त होइतहि, सबहक खून लगलाहा कपड़ा बदलि, खिचैड़ खुआ इलाज शुरु भेल। तीन गोटेक कपार फुटल रहै आ दू गोटेक डेन टूटल रहैक। सुजाता आ सुमित्रा दुनू गोटेक पलास्टर करै लगली। महेन्द्र कपारमे स्टीच करैत रहथि। बौएलाल दौड़-बड़हामे लागल रहै। कखनो किछु अनैत तँ कखनो किछु।
दू घंटाक बाद सभ चैन भेल।
रमाकान्त पुछलखिन- ‘‘मारि किअए भेलह?’’
नोर पोछैत जोखन कहै लगलनि- ‘‘मकशूदनक बेटी सितिया भाँटा बेचै हाट गेल रहै। सत्तरह-अठारह बर्खक उमेर हेतै। नमगर कद। दोहरा देह। चाकर मूह। गोल आखि ओकर छैक। परुँके साल दुरागमन भेल छलै। ओना हाट ओकर माए करै छै, मुदा पान-सात दिनसँ ओ दुखित अछि। डेढ़ कट्ठा खेतमे भाँटा केने अछि। खूब सहजोर फड़लो छै। भाँटाकेँ जुआइ दुआरे सितिया छाँटि-छाँटि कऽ नमहरका भाँटा तोड़ि लेलक। एक छिट्टा भेलै। भट्टोकेँ बेचनाइ आ माएले दवाइयो कीनिनाइ जरुरी छलै। दवाइक पुरजी साड़ीक खूँटमे बान्हि लेलक जे घुमै कालमे दवाइ किनने आएब। हाटमे भट्टा बेचि, दोकानमे दवाइ कीनि असकरे बिदा भेलि। गोसाइ डूबि गेलै। खूब अन्हार तँ नै, मुदा झलफल भऽ गेल छलै। धीरे-धीरे रस्तो चलनिहार पतराए लगल छलै। हाट गेनिहार तँ साफे बन्न भए गेल छलै। मगर हाट सँ घुरनिहार गोटे-गोटे रहबे करए। पाँतरमे जखन सितिया आइलि तँ पाछूसँ ललबा आ गुलेतिया सेहो साइकिलसँ अबैत छल। गुलेतिया ललबाक नोकर। ललबा बापक असकर बेटा। बीस-पच्चीस बीघा खेत छै। बच्चेसँ ललबा बहसल। दुनू गोरे दारु पीने रहै। अन्ट-सन्ट बजैत घर दिस अबैत रहै। जखन दुनू गोटे सितियाक लगमे आएल तँ ललबा बाजल- ‘‘गुलेती, शिकार फँसलौ।’’ ललबाक बात सुनियोकेँ सितिया किछु नहि बाजलि। मुदा मनमे आगि सुनगै लगलैक। आरो डेग नमहर केलक। आगू बढ़ि ललबा साइकिलसँ उतरि, रस्ताकेँ घेरि साइकिल ठाढ़ कए देलकै। साइकिल ठाढ़ कऽ जेबीसँ सिगरेट आ सलाइ निकालि, लगा पीबै लगल। सितियाक मनमे शंका भेलै मुदा डराएल नहि। साइकिल लग आबि रस्ताक बगल देने आगू टपि गेलि। आगूमे ललबो आ गुलेतियो ठाढ़ भए सिगरेटो पीबैत आ चढ़ा-उतरीक गप्पो-सप करैत। मूहमे सिगरेट रखि ललबा सए रुपैआ नोट उपरका जेबीसँ निकालि सितिया दिशि बढ़ौलक। रुपैआ देखि सितियाक देह आगिसँ लह-लह करै लागल। मुदा ने किछु बाजल आ ने रुकल। लफड़ल आगू बढ़ैत रहलि। सितियाकेँ आगू बढ़ैत देखि ललबो पाछूसँ हाथमे रुपैआ नेने बढ़ल। दुनू गोटेकेँ पछुआबैत देखि सितिया ठाढ़ भए गेलि। माथ परक छिट्टाकेँ दहिना हाथे आरो कसिया कऽ पकड़ि सोचलक जे छिट्टेसँ दुनूकेँ चानिपर मारब। तामसे भीतरे-भीतरे जरितहि छलि। ललबा दहिना हाथे नोट सितिया दिस बढ़ौलक। लगमे ललबाकेँ देखि, मौका पाबि सितिया तना कऽ रुपैआपर थूक फेकलक जे रुपैआपर कम्मे मुदा ललबाक मूहपर बेसी पड़लै। मूहपर थूक पड़ितहि ललबा सितियाक बाँहि पकड़ि खिंचै चाहलक। पहिनहिसँ सितिया छिट्टाकेँ पकड़ि अजमौनहि रहै। धाँइ-धाँइ दू छिट्टा ललबाकेँ दए देलक। दुनू गोटे दुनू बाँहि पकड़ि सितियाकेँ खिचलक। छिट्टा नेनहि सितिया रस्ताक निच्चा खेतमे खसि पड़लि। खेतमे खसितहि जोश कऽ केँ उठि दहिना तरहत्थीक मुक्का बान्हि, मुक्को आ दहिना पएरो अनधुन चलबै लागलि। मारिक डरसँ गुलेतिया कात भए गेल। मुदा ललबा नहि मानलक। ओहो अनधुन मुक्का चलबै लगल। गुलेतियाकेँ कातमे देखि सितियोक जोश बढ़लै। ललबा दारु पीनहि रहै, तिलमिला कऽ खसल। जहाँ ललबा खसल आकि सितिया ऐँड़े-ऐँड़ मारै लागलि। तहि-बीच हाटसँ तरकारी बेचिनिहारिक जेर अबैत रहै। तरकारी बेचिनिहारिक चाल-चुल पाबि सितियाक जोश आरो बढ़ि गेलै। एक तँ समरथाइक शक्ति सितियाक देहमे, दोसर इज्जत बँचबैक प्रश्ना, बाघ जेकाँ सितिया मारि कऽ ललबाकेँ बेहोश कए देलक। तरकारियो बेचिनिहारि लगमे आबि गेलीह। सितियाक काली रुप देखि हसीना पुछलकै- ‘‘बहीन, की भेलौ?’’
सितिया बाजलि- ‘‘अखैन किछु ने पूछ। अइ छुतहरकेँ खून पीबि लेबै।’’ बजबो करैत आ अनधुन ऐँड़ो देहपर बरिसबैत छलि। चारि गोरे सितियाकेँ पकड़ि कात करै चाहलनि। मुदा चारुकेँ झमारि सितिया पुनः आबि कऽ दस लात ललबाकेँ फेर मारलक। फेर चारु गोरे हसीना, जलेखा, रेहना आ खातून घेरि सितियाकेँ पँजिया कऽ पकड़ि घिचने-तिरने बिदा भेलि। अबैत-अबैत जखन गामक कात आएल कि सितिया फेर चारु गोरेकेँ झमारि, अपन डेन छोड़ा फेर ललबाकेँ मारै दौड़लि। मुदा रेहना आ खातून दौड़ि सितियाकेँ आगूसँ घेरलक। हसीना आ जलेखा सेहो दौड़ि कऽ आबि पकड़लक। सितियाक मन क्रोधसँ बमकैत रहै। मनमे होए जे ललबाक खून पीने बिना नहि छोड़बै। चाहे फाँसीपर किअए ने चढ़ऽ पड़ए। चारु गोटे सितियाकेँ पकड़ने घरपर पहुँचल।
सौँसे गाम घटनाक समाचार बिहाड़ि जेकाँ पसरि गेल। गाम डोल-माल करै लगल। तनावक वातावरण बनै लगलैक। राति भारी हुअए लगलैक। गामक बुढ़बा चोट्टासँ लऽ कऽ नवका चोट्टा धरिक चलती बढ़ि गेल। तहि बीच चारि गोटे ललवाकेँ खाटपर टाँगि सेहो अनलक। ललबाक बेहोशी तँ टूटि गेलै मुदा कुहरनी धेनहि रहलैक। ललबाक पितिऔत भाए डाॅक्टर बजा ललबाक इलाज करबै लगल। स्लाइन लगा डाॅक्टर बगलमे बैसि पानिक गति देखैत रहए। ललबाक पितिऔत भाए गाममे लाठी संगोर करै लगल। जते गामक मुहगर-कन्हगर लोक सभ छल, ललबाक पक्ष लेलक। ललबाक बाप बाजल- ‘‘जखैन इज्जत चलिये गेल तँ समपैते रखि कऽ की करब।’’
‘दुर्गा-महरानी की जए’ कहि पनरह-बीसटा गामक हुड़दंगहा लाठी लए सितिया ऐठाम बिदा भेल। रस्तोमे सभ जए-जएकार करैत रहए।
मकलदनक टोल मात्र बारह परिवारक। गरीब घरक टोल तेँ समांगो सभ मरदुआरे। मुदा तैयो जते पुरुख रहै, लाठी लए-लए गोलिया कऽ बैसि विचारलक जे इज्जतक खातिर मरि जाएब धरम छी। तेँ जे हेतै से हेतै, मुदा पाछू नै हटब। दोसर दिस टोलक सभ जनिजाति सेहो तैयार होइत निर्णय केलनि, जे जाधरि पुरुख ठाढ़ रहत ताधरि अपना सभ कातमे रहब। मगर पुरुखकेँ खसिते अपना सभ लाठी उठाएब। एक तँ सितियाक देहमे आगि लगले रहै आरो धधकि गेलै। बाजलि- ‘‘जत्ते जुआन बेटी छेँ आ जुआन पुतोहू छेँ, सभ अपन-अपन साड़ीकेँ कसि कऽ बान्हि ले। माथमे साड़िएक नमहर मुरेठा कसि कऽ बान्हि ले, जहिसँ कपार नै फुटौ। बुढ़िया सभकेँ छोड़ि देही। मड़ुआ बीआ पटबैबला जे पटै घरमे छौ से निकालि कऽ एक ठाम कए कऽ राख। आ देखैत रही जे की सब होइ छै। जहिना सभ बहीन मिलि मरब, तहिना संगे संगे सभ बहीन जनमो लेब।’’
टोलक जते छोट बच्चा रहै, सभकेँ घरक बूढ़ि-पुरान लए-लए टोलसँ हटि गाछीमे चलि गेल। दोसर हँसेरी टोलक लग आबि जए-जएकार केलक। जए-जएकार सुनि सितियाकेँ होए जे असकरे सभसँ आगू जा हँसेरीकेँ रोकी। मुदा लड़ाइमे अनुशासन आ निर्णयक महत्व बढ़ि जाइत अछि। तेँ सितिया आगू नहि बढ़ि ठाढ़े रहलि। टोलक लोक, ताकत भरि हँसेरीकेँ रोकलक। अनधुन लाठी दुनू दिससँ चललै। मुदा पछड़ि गेल। पाँच गोटे घाएल भेल। हँसेरी घुमल नहि धन आ इज्जत लुटैक खियालसँ आगू बढ़ल। अपन समांगकेँ खसल आ हँसेरीकेँ आगू बढ़ैत देखि मुरेठा बन्हने आगू-आगू सितिया, तहि पाछू-पाछू टोलक सभ स्त्रीगण, पटै लए हँसेरीकेँ रोकलनि। की बिजलोका चमकै छैक तहिना गामक बेटी अपन चमकी देखौलनि। वार रे मिथिलाक धी। मिथिला सिर्फ कर्मभूमे आ धर्मभूमे नहि, वीरभूमि सेहो थिक। चारि आदमीक कपार असकरे सितिया ढाहलक। चारु खसलै। खूनक रेत चललै। हँसेरी मे हुड़ भेलै। सभ पाछू मुहे पड़ाएल। इहो सभ भागल हँसेरीकेँ रबाड़लनि। मुदा किछु दूर रबाड़ि घुमि गेलीह।
अप्पन सभ समांगकेँ उठा-उठा सभ अनलक। मुदा दोसर दिसक लोककेँ अप्पन समांग अनैक साहसे नहि होइत छलैक। होए जे कहीं हमहूँ सभ अनैले जाइ आ हमरो सभकेँ ओहिना हुअए। तखन की हएत। बड़ी कालक बाद चोरा कऽ अपना समांग सभकेँ ओहो सभ लए गेल। गाममे दुइयेटा डाॅक्टर। सेहो डिग्रीधारी नहि, गमैया प्रेक्टिश्न र। दुनू ललबे ऐठाम रहए। रातिमे कतए जाएब, कोन डाॅक्टर भेटताह आकि नहि भेटताह, संगे संग दोहरा कए आक्रमणक डर सेहो रहै। सभ तत्-मत् मे पड़ल रहए। मुदा जेहो सभ घाएल छल ओकरो मूह मलिन नहि छलैक। मनमे खुशी होइत रहए। तेँ दर्दकेँ अंगेजने सभ रहए। इनहोर पानि कए कऽ सभकेँ स्त्रीगण सभ ससारै लगलीह, कपारक फाटल जगहमे सिन्नुर दए-दए खून बन्न केलक। भरि राति कियो सुतल नहि।
रमाकान्तक नाम इलाकामे पसरल छलनि। जहाँ-तहाँ हुनके चरचा बेसीकाल चलैत रहैत। डाॅ. महेन्द्रकेँ गाम अबैक जानकारी सेहो सबहक जानकारीमे छलनिहेँ।
जोखनक बात सुनि रमाकान्त बमकि उठलाह। ठाढ़ भए जोर-जोरसँ कहै लगलखिन- ‘‘जदि कियो अप्पन इज्जत-आबरु बँचाबैले हमरा कहत तँ हम अप्पन सभ सम्पति ओहि पाछू फुकि देब। मुदा छोड़बैक नहि। बौआ, जते तोरा हुन्नर छह तहिमे कोताही नहि करिहक। खेनाइ-पीनाइ, दवाइ-दारु सभ कथुक मदति कए दहक। फेर एहि धरतीपर जनम लेब। ई कर्मभूमि छिऐक। मनुष्य किछु करैक लेल एहिठाम अबैत अछि। सिर्फ अपनहि टा नहि आनो जे कर्मनिष्ट अछि, ओकरो जहाँ धरि भए सकत मदति करबैक। जे भए गेल से भए गेल जोखन, मुदा सुनि लाए जे जहिया-कहियो कोनो भीड़ पड़ए, हमरो एक बेरि खोज करिहह। जाधरि घटमे परान अछि ताधरि जरुर मदति करबह।’’
बेर टगैत चारिटा बचिया खाइक लए कऽ पहुँचलीह। एक कठौत भात बड़का डोलमे दालि आ छोटका डोलमे तरकारी नेने आइलि छलि। खाइले केराक पात आ दूटा लोटा सेहो अनने छलि। चारु बचियाकेँ देखि रमाकान्त कहलखिन- ‘‘बुच्ची, खाइक किअए अनलह?’’
रमाकान्तक बात सुनि सितिया कहलकनि- ‘‘बाबा, हमरा सभकेँ नै बुझल छलै, तेँ अनलौं।’’
‘‘अच्छा, अनलह तँ सभकेँ पूछि लहुन जे खाएब आकि घुरौने जाएब।’’
सितियाक संग रमाकान्त गप-सप करितहि रहथि आकि जोखन बाजल- ‘‘कक्का, यैह सभ बचिया मारि कऽ ओहि पाटीकेँ भगौलक।’’
अकचकाइत रमाकान्त बजलाह- ‘‘आँ-आँइ, यैह सभ छी। वाह-वाह। तोरे सभ सन-सन बेटी एहि धरतीक मान रखि सकैत अछि।’’
बिहाड़ि जेकाँ जोखनक बात, रमाकान्तक दरबज्जा आंगनसँ लए कऽ गाम धरि पसरि गेल। जे सभ मरदक हँसेरीकेँ अनधुन मारबो केलक, कपारो फोड़लक आ गामक सीमा धरि खेहारबो केलक। ई समाचार सुनि गामक स्त्रीगण मर्द सभ उनटि कऽ ओहि बचिया सभकेँ देखैले अबै लगल। अजीब दृश्यक बनि गेल। श्यामा आंगनसँ सुमित्रा दिया समाद पठौलनि जे कने ओहि बचिया सभकेँ अंगना पठा दियौ जे हमहूँ सभ देखब। दरबज्जापर आबि सुमित्रा रमाकान्तकेँ कहलकनि। अंगनाक समाद सुनि रमाकान्त चारु बचियाकेँ कहलखिन- ‘‘बेटी, कने आंगन जाह।’’
चारु बचियाकेँ संग केने सुमित्रा आंगन गेलि। ओसारपर ओछाइन ओछा श्यामो आ सुजातो बैसलि छलीह। आगू-आगू सुमित्रा आ पाछू-पाछू चारु बचियो छलि। आंगन जाए चारु बचिया श्या्मा आ डाॅ. सुजाता दुनू गोटेकेँ गोर लगलकनि। एकाएकी गामक स्त्रीगण, गामक बेटी अंगने जाए-जाए सितिया सभकेँ देखै लगलीह। अपने लगमे चारु बचियाकेँ श्यामा बैसौने रहथि। सुजाता निङहारि-निङहारि चारुकेँ उपर माथसँ लए कऽ निच्चा पएर धरि देखैत छलीह, अजीब शक्ति चारुक चेहरामे बुझि पड़लनि। चारु बचियो आखि उठा-उठा कखनो श्यामापर तँ कखनो गामक स्त्रीगण सभपर दैत छलीह। सबहक मनमे खुशी रहितहुँ, हँसी मूहसँ नहि निकलैत छलनि। जना खुशीक पाछू अदम्य उत्साह अदम्य साहस आ जोश सबहक चेहरापर नचैत रहनि। चारुक विशष आकर्षण सभकेँ अपना दिशि खिंचैत छल। जेहो स्त्रीगण कने हटि कऽ ठाढ़ भए देखैत छलि, ओहो सहटि-सहटि सितियाक लगमे अबै चाहैत छलि। श्यामा सुमित्राकेँ कहलखिन- ‘‘सुमित्रा, एहेन लोककेँ आंगनमे कहिआ देखबिही। तेँ बिना किछु खेने-पीने कोना जाए देबैक।’’
श्यामाक बात सुनि सुजाता उठि कऽ अपन आनल मद्रासी भुजियाक डिब्बे घरसँ उठैने अएलीह। भुजियाक डिब्बा देखि सितिया बाजलि- ‘‘बाबी, लगले खा कऽ बिदा भेल छलौं। एको-रत्ती खाइक छुधा नै अछि।’’
तहि बीच रमाकान्त चारु गोटेकेँ बजबैले जुगेसरकेँ अंगना पठौलखिन। जुगेसर अंगना आबि सभकेँ कहलक। उठि कऽ चारु गोटे श्यामाकेँ गोर लगलनि। असिरवाद दैत श्यामा कहलखिन- ‘‘भगवान हमरो औरदा तोरे सभकेँ देथुन, जे हँसैत-खेलैत जिनगी एहिना बिताबह।’’
चारु गोटेकेँ अंगनासँ निकलितहि सभ बिदा भेलि।
चारिक समए। रौदो गरमियो कमै लगल। महेन्द्र जोखनकेँ कहलखिन- ‘‘ऐठाम रोगी सभकेँ रखैक जरुरत नहि अछि। घरेपर साँझ-भिनसर सभ दिन बौएलाल जाए जाए कऽ सूइया दए दए आओत। गोटी सेहो लगातार चलबैत रहब। पनरह-बीस दिनमे पूरा ठीक भए जाएत।’’
पाएरे सभ बिदा भेल।
साँझू पहर, रमाकान्त आ जुगेसर दरबज्जापर बैसि मद्रासेक गप-सप शुरु केलनि। मुस्की दैत जुगेसर कहलकनि- ‘‘कक्का, एक बेर आरो मद्रास चलू।’’
नाक मारैत रमाकान्त कहलखिन- ‘‘धुः बूड़िबक। गाड़ीमे लोक मरि जाइ अए। ऐठाम केहेन निचेनसे रहै छी। ने गाड़ी बसक हर-हूड़ अबाज आ ने रस्ता-पेराक ठेकान। सड़क धए कए चलू। तहूमे सदिखन लोकेक धक्का लगैत रहत। केहेन सुन्दर अपना सबहक गाम अछि जे रस्ताक कोन बात जे आड़िये धुरे खेते पथारे जत्तै मन हुअए तत्तै जाउ। ने गाड़ी बसक धक्काक डर आ ने पएरमे काँटी शीशा गरैक। जकरासँ मन हुअए तकरासँ गप करु। कुशल-समाचार पूछि लियौ। ओइठाँ तँ जना मूहमे बकारे नहि रहै तहिना बौक भेल रहैत छलौं।’’
व्यंग्य करैत जुगेसर कहलकनि- ‘‘केहेन ठंढ़ा घरमे रहै छलौं। ने नहाएले कतौ जाइ पड़ै छलए आ ने पर-पैखानाले।’’
रमाकान्त- ‘‘धुत् बूड़ि। ओइठाँ जँ दुइयो मास रहितहुँ तँ कोढ़ि भए जइतहुँ। उठइयो-बैठइयोमे आसकतिये लगैत। सच पूछैँ तँ एते दिन रहलौं, ने कहियो भरि मन पानि पीलहुँ आ ने पैखाना भेल। सभ दिन जना कब्जियते बुझि पड़ैत। जखने पानि मूह लग लए जाइ आकि मन भटकि जाए।’’
फेर मुस्की दैत जुगेसर कहलकनि- ‘‘अंगूरक रस पीबैमे केहेन लगैत रहए?’’
अंगूरक रस सुनि थोड़े असथिर होइत रमाकान्त कहलखिन- ‘‘लोक कहै छै जे अंगूरमे बड़ तागति छै, मुदा अपना सबहक जे केरा, आम, बेल लताम अछि, ओते तागति अंगूरमे कतऽ सँ आओत। अंगूरेक शराब बनैत अछि मुदा अपना ऐठामक भांगक पड़तर करतैक ? अंगेरिजा शराब सनसना कऽ मगजपर चढ़ियो जाइत अछि आ लगले उतरियो जाइत अछि। मुदा अप्पन जे भांग अछि ओ रइसी नशा छी। ने अपराध करैले सनकी चढ़ौत आ ने एको मिसिया चिन्ता अबै दैत अछि।’’
रमाकान्त आ जुगेसरक गप-सप सुजातो अढ़सँ सुनैत रहथि। दुनू गोटेक गप्पो सुनैत आ मने-मन विचारबो करैत छलि। तहि बीच हीरानन्द आ शशिशेखर सेहो टहलि-बूलिकेँ अएलाह। दुनू गोटेक बैसितहि रमाकान्त हीरानन्दकेँ कहलखिन- ‘‘मास्सैब, खेतक झंझट तँ सम्पन्न भेल। बड़बढ़ियाँ भेल। एकटा बात कहू जे जते लोक गाममे अछि, सभ अप्पन गाम कहैत अछि की ने?’’
हीरानन्द- ‘‘हँ। ई तँ कोनो नब नहि अछि। अदौसँ कहैत आएल अछि आ आगूओ कहैत रहत।’’
‘‘जखन गाम सभक छिऐक तँ गामक सभ किछु ने सभक भेलैक?’’
‘‘तहिमे थोड़े गड़बड़ अछि। गड़बड़ ई अछि जे अखन धरि जे बनैत-बनैत समाज आ गाम अछि ओ टूटैत टूटैत खण्ड-पखण्ड भए गेल अछि। तेँ एक-एक केँ जोड़ि कए समाज बनबै पड़त जे लगले नहि भए सकैत अछि।’’
हीरानन्द बजितहि रहथि आकि उत्तर दिशिसँ सुबुध आ दक्षिण दिशिसँ महेन्द्र आ बौएलाल सेहो आबि गेलाह। रमाकान्त बौएलालकेँ कहलखिन- ‘‘बौएलाल, आब तँ तूँ डाक्टर बनि गेलैं, मुदा तैयो ऐठाम सभसँ बच्चा तोँही छैँ। जो, चाह बनौने आ।’’
डाॅक्टरक नाम सुनि महेन्द्रो आ हीरानन्दो मने-मन खुश भेलाह। किएक तँ दुनू गोटेक पढ़ौल बौएलाल अछि। मुस्कुराइत बौएलाल चाह बनबै बिदा भेल। रमाकान्त सुबुधकेँ कहलखिन- ‘‘सुबुध, जमीनक ठौर तँ लगि गेल पोखरि बाँचल अछि। शशि नौजवानो छथि। पढ़लो-लिखल छथि आ लूरियो छन्हि। पोखरिमे माँछ पोसैत।’’
सुबुध- ‘‘बड़ सुन्दर विचार अपनेक अछि काका। हमहूँ यैह सोचै छलौं जे गाममे तँ दुइयेटा चीज माटि आ पानि अछि। तेँ दुनूकेँ एहेन ढंगसँ उपयोग कएल जाए जे जहिना एक गोटेकेँ पाँचटा बेटा भेने पाँच गुना परिवार बढ़ि जाइत छैक तहिना खेतो आ पाइनोक होए। ढ़ंगसँ मेहनति आ नव तरीका अपनाओल जाए। जहिसँ मनुक्खे जेकाँ ओहो पाँचो गुनाक रफ्तारसँ किएक ने आगू बढ़त। जँ एहन रफ्तार पकड़ि लै तँ गामकेँ बढ़ैमे कते देरी लागत। बीस बीघासँ उपरे गाममे पानि अछि जे बैशाखो-जेठमे नहि सुखैत अछि। अगर जँ महा-अकालो पड़ि जाएत तैयो बोरिंगक सहारासँ उपजि सकैत अछि। अखन धरि सभ पोखरि ओहिना पड़ल अछि। सौँसे पोखरि केचली, घास छाड़ने अछि। ने नहाए जोकर अछि आ ने माछ-मखान करै जोकर। जे इलाका माछ-मखानक छी, ओहि इलाकाक लोककेँ माछ-मखान नहि भेटै, कते लाजक बात छी। एहि लाजक कारण की हम सभ नहि छिऐक? जरुर छिऐक। भलेहि हरसी-दीरघी कए अपनाकेँ निर्दोष साबित कए ली, मुदा....। अखन देखै छी जे किछु सुभ्यस्त परिवारकेँ तँ माछे-मखानक कोन बात जे अहूसँ नीक-नीक वस्तु भेटैत अछि। मुदा विशाल समूहक गति की छैक ? जितिया पावनिमे माछसँ भेंट होइ छैक आ कोजगरामे दूटा मखान देखैत अछि। तेँ मनुष्यकेँ खुशहाल कऽ बनैक लेल वस्तुक परियाप्तता जरुरी अछि। जँ वस्तुक कमी रहत तँ खुशहाली आओत कोना?’’
सुबुध बजितहि रहथि आकि बौएलाल चाह नेने आएल। चाह देखितहि केयो कुरुड़ करै उठलाह तँ कियो तमाकू थुकरै। जुगेसर चाह बँटै लगल। एक घोंट चाह पीबि हीरानन्द महेन्द्रकेँ पुछलखिन- ‘‘डाॅक्टर साहेब, कते दिनक छुट्टीमे आएल छी?’’
हीरानन्दक प्रश्नघ सुनि महेन्द्र असमंजसमे पड़ि गेलाह। मने-मन सोचै लगलाह जे कोना चिट्ठीक चरचा करब। चिट्ठीक बात तँ सोलहन्नी झूठ निकलल। जँ बेसी दिनक छुट्टीक चरचा करब तँ सेहो झूठ हएत। धड़फड़ीमे आएल छी। की कहिअनि की नहि कहिअनि। विचित्र स्थितिमे महेन्द्र पड़ि गेलाह। मुदा बिचहिमे जुगेसर टभकल- ‘‘येह मास्सैब, डाकडर सहाएब तँ आला भए गेलाह। कोनाे चीजक कमी नहि छन्हि। जखन अपना गाड़ीमे चढ़ा कऽ बुलबैत छलाह तँ बुझि पड़ैत छल जे इन्द्रासनमे छी।’’
हीरानन्दक बात तर पड़ि गेलनि। मने-मन सोचलनि जे भरिसक पिता दुआरे गुमकी लधने छथि। सभ कियो चाह पीबि-पीबि गिलास बौएलालकेँ देलखिन। सभ गिलास लए बौएलाल अखारैले कलपर गेल। तहि बीच सुबुध महेन्द्रकेँ कहलखिन- ‘‘महेन्द्र भाए, गामक लोककेँ जे देह देखै छिऐ तहिसँ की बुझि पड़ैत अछि, जे किछु नहि किछु रोग सभकेँ पछारनहि छैक। तेँ सभकेँ जाँचि इलाज कए दियौक।’’
सुबुधक प्रश्न’ महेन्द्रकेँ जँचलनि। कहलखिन- ‘‘अपनो विचार अछि। चारि-पाँच दिन जँचैमे लगत। सभकेँ जाँचि, जहाँ धरि भए सकत तहाँ धरि इलाजो कइये दितिऐक। आइ तँ भरि दिन दोसरे ओझरीमे ओझरा गेलहुँ, मुदा काल्हिसँ एहिमे लगि जाएब।’’
शशि पुछलकनि- ‘‘डाॅक्टर साहेब, बुढ़ा –पिताजी- जे अप्पन सभ खेत बाँटि देलनि तहि लेल अपनेक..?”
शशिशेखरक बात सुनि मुस्कुराइत महेन्द्र कहलखिन- ‘‘दू भाइ छी दुनू भाएकेँ डाॅक्टर बना देलनि। एहिसँ बेसी एक पिताक पुत्रक प्रति की बाकी रहि जाइत अछि जे किछु कहबनि। खेतक बात अछि, हम थोड़े खेती करए आएब। तखन तँ जे खेती करैबला छथि जँ हुनका हाथमे गेलनि तँ एहिसँ बेसी उचित की होएत। बाबाक अरजल खेत छिअनि, जकर हकदार तँ वैह छथि। जँ अप्पन सम्पति लुटाइये देलनि तहिसँ हमरा की। वैरागी पुरुषकेँ रागी बनाएब पाप छी।’’
पुनः शशिशेखर पुछलखिन- ‘‘मद्रासमे केहेन लगैत अछि?’’
किछु मन पाड़ैत कने रुकि महेन्द्र कहै लगलखिन- ‘‘जहिया डाॅक्टरीक शिक्षा पेलहुँ तहिया नीक बुझि मद्रास गेलहुँ। मुदा अखन एहिठामक सिनेह हृदयकेँ तेना पकड़ि लेलकहेँ जेना छातीमे लगल तीरसँ पक्षी छटपटाइत अछि। होइत अछि जे मद्रासक सभ किछु छोड़ि-छाड़ि एहिठाम रही। कतएसँ जिनगीक लीला शुरु कएल जाए, ई गंभीर प्रश्नअ अछि। एहि प्रश्नुक बीच मन ओझरा गेल अछि। स्पष्ट उत्तर नहि भेटि रहल अछि। किएक तँ एहि प्रश्नलक उत्तर दृष्टिकोणक मुताबिक भिन्न-भिन्न भए जाइत अछि।’’
१३
गामक दुखताहक दुख जाँचि दवाइ देबाक समाचार गाममे पसरि गेल। काल्हि भिनसरसँ सभ टोलक दुखताहकेँ बेरा-बेरी जाँचो होएत आ दवाइयो देल जाएत।
भिनसर होइतहि ओहि टोलक लोक अबै लगलाह जहि टोलक पार छलनि। मर्दक जाँच महेन्द्र करै लगलथि आ स्त्रीगणक डाॅ. सुजाता करै लगलीह। डाॅ. महेन्द्रक मदतिक लेल बौएलाल आ सुजाताक लेल सुमित्रा रहथि।
तीन दिनमे सौँसे गामक रोगीक जाँच भेलनि। दवाइयो भेटलनि। लोकक बीच एहन खुशी दौड़ि आएल जना गामसँ बीमारीये पड़ा गेल होए। सभक मनक खुशी एक्के रंगक रुप बना नचैत छलीह। मनमे एहन खुशी जे आब ने हमरा देहमे कोनो रोग अछि आ ने मरब। खुशीक नाच एहन छल जेना रोग देखियेकेँ भगि गेल होए। मुदा जिनगीमे तँ यैहटा रोग तँ नहि अछि, आरो बहुत तरहक अछि। मुदा ई तँ मनक बात छल। ई मनक बात छी मुदा वास्तविक बात की छल ? से तँ लोकेमे देखै पड़त।
सभ दिन भलेसराकेँ देखै छेलिऐ जे दुखताहे अछि जहिसँ काज काज-उद्यम छोड़ि देने छल, मुदा आइ भोरे बड़का छिट्टामे छाउर गोबर नेने खेत फेकै जाइत अछि। रस्तामे सोनमा पुछलकै तँ कहलकै जे आब देहमे कोनो दुख नहि अछि। जाइ छी छाउरो फेकि लेब आ गरमा धानो काटि कऽ नेने आएब। तहिना तेतरो पटैमे गाँथि, दूटा धानक बोझ कन्हापर उठैने अबैत रहए।
सोनमाक मनमे नचै लगलै जे एना किअए भेलै? देखै छिऐ जे लहेरियासराय असपतालमे छअ-छअ मास रोगीकेँ लोहाबला खाटपर रखि, सूइयो पड़ै छै आ गोलियो खाइले देल जाइ छै, तैयो मरि जाइ अए। मुदा एहि गामक दुखताहक दुख कोना एते असानीसँ पड़ा गेलै। अजीब भेलै। ओह, भरिसक दुख ककरा कहै छै से बुझबे ने करै छी। जब अपने बुझबे नै करै छी तब बुझबै कना ? जँ अपने सोचि बुझै चाहबै आ गलतिये सोचा जाए तखन तँ गलतिये बुझबै। गलती बुझब आ नहि बुझब, दुनू एक्के रंग। बिनु बुझलो काज लोक करै लगैत अछि आ गलतियो काज करैत अछि। भलेही दुनूक फल अधले होए मुदा करै तँ अछि। तब की करब? जकरा बुझै छिऐ जे फल्लाँ बुझनिहार अछि जँ ओकरो नइ वुझल होए आ झुठे अन्ट-सन्ट कहि दिअए। ततबे नहि जे बुझिनिहारो अछि आ ओकरा पूछिऐ जँ ओ गलतिये कहि दियए, तैयो तँ ओहिना रहि जाएब। मुदा तोहूमे एकटा बात अछि जे, जे ओ कहै आ हम करी आ तेकर फल गल्ती होए तँ दोखी के हएत ? तब की करब? आब उमेरो ने अछि जे इस्कूलोमे जा कऽ पढ़ब। धिया-पूता सभ इस्कूलमे पढ़ैत अछि। मुदा जखैन इस्कूल जाइबला रही, तखन किअए ने पढ़लौं। पढ़लौं कोना नै, इस्कूलमे नाओ लिखौनहि रही। पाँच किलास तक पढ़बो केलौं। तँ छोड़ि किअए देलिऐ ? छोड़लिऐ की मास्टर मारिकेँ छोड़ा देलक। मास्टर मारिकेँ किअए छोड़ा देलक ? जखैन छअ किलासमे गेलौं आ अंग्रेजी मास्टर आबिकेँ पढ़बए जे बी.यू.टी.- बट। पी.यू.टी.- पुट। तेहिपर ने कहने रहिऐ जे अहाँ गलती पढ़बै छिऐ। कोनो गलती कहने रहिऐ। जब गलती नै कहने रहिऐ तब ओ मारलक किअए। नै पढ़बैक मन रहै तँ ओहिना कहितए जे तोरा नइ पढ़ेबौ। इस्कूलसँ चलि जो। मारलक किअए। जँ मारबो केलक तँ हमरा मनकेँ तँ बुझा दइतै। हमर मन मानि लैत । मन मानि लैत, भए गेलैक। से तँ नै केलक। तेँ ने हम मुरुख रहि गेलौं। नइ तँ हमर की हाथ-पएर कोनो पातर-छितर अछि जे दरोगा नइ बनलौं। हमर जे दरोगाक नोकरी गेल सँ उ मास्टर हमरा देत। जे मारि कऽ इस्कूल छोड़ा देलक। धिया-पूतामे सैह भेल, चेतनमे तहिना देखै छी। आब कना जीब ? भरिसक हमरो तँ ने बतहा दुख पकड़ि लेलकहेँ। ककरासँ पुछबै, के कहत, सभकेँ तँ सैह देखै छिऐ। की हम भरि जिनगी हरे जोतैत रहब, घोड़ापर चढ़ि कऽ शिकार खेलैले कहिया जाएब? दुनू हाथ माथपर लए सोनमा गाछक निच्चामे बैसि सोचै लगल, जहिना आमोक गाछ रोपल जाइ छै, तहिना तँ खाइरो-बगुरक रोपल जाइ छै। मुदा आममे मीठहा फल फड़ै छै, खैर-बगुरमे काँट होइत छैक। रोपैक इलम तँ एक्के होइ छै। ओना अनेरुआे होइ छै। आमोक गाछ अनेरुओ होइ छै आ खाइरो-बगुरक।
साते दिनक छुट्टीमे महेन्द्र गाम आएल छलाह। आठ दिन पहिनहि छुट्टी बीति गेलनि। अबै जाइक रस्ता सेहो मद्रासक पाँच दिनक अछि। छुट्टी बढ़बै पड़तनि। काल्हि भोरका गाड़ीसँ चलि जएताह, ई बात सुबुधोकेँ बुझल छलनि। तेँ सुबुधक मनमे अएलनि जे महेन्द्र बच्चेक संगी छी, मुदा भरि मन गप एक्को दिन नहि कएलहुँ। काल्हि भोरमे चलिये जाएत। तेँ आइये भरि समए अछि। ई सोचि सुबुध अपन सभ काज छोड़ि महेन्द्रसँ गप्प करैक लेल अएलाह।
दरबज्जापर बैसि महेन्द्र पिताकेँ कहैत रहथि- ‘‘बाबू, गामक जत्ते रोगीकेँ जँचलहुँ ओहिमे एक्को गोटे पैघ रोग, जना टी. वी., कैंसर, एड्स इत्यादिसँ ग्रसित नहि अछि। तेँ आश्चोर्य लगैत अछि जे बीमारी शहर-बजारमे धड़ल्लेसँ होइत अछि। ओहि रोगक नामे-निशान गाममे नहि अछि। जे खुशीक बात छी।’’
महेन्द्रक रिपोर्ट सुबुधो सुनलनि। खुशीक बात सुनि रमाकान्त पुछलखिन- ‘‘तखन जे एते लोक बीमार अछि, ओकरा कोन रोग छै?’’
मुस्की दैत महेन्द्र कहलखिन- ‘‘साधारण रोग। जे बिना दवाइओ-दारुसँ ठीक भए सकैत छैक। अगर ओकर खान-पान सुधरि जाए तँ ई सभ रोग लोककेँ नहि हेतैक। अदहासँ बेसी रोगी ओहन अछि जकरा कोनो रोग नहि सिर्फ शंका छैक। मुदा जँ ओकरा दुइयो-चारिटा गोली नहि दितिऐक तँ मन नहि मानितैक। तेँ पुरजो बना देलिऐक, अल्लासँ देहो हाथ देखि लेलिऐक आ दू-चारिटा गोलियो दए देलिऐक।
महेन्द्रक बात सुनि रमाकान्तो आ सुबुधो मने-मन हँसै लगलाह। हँसी रोकि सुबुध महेन्द्रकेँ पूछल- ‘‘महेन्द्र भाए, काल्हि तँ तूँ चलि जेबह, फेर कहिया भेंट हेबह कहिया नहि। तेँ तोरेसँ गप-सप करैले अप्पन सभ काज छोड़ि एलहुँ। जिनगीक तँ ढेरो गप्प होइत, मुदा तोँ डाॅक्टर छिअह आ हम शिक्षक छलौं, जे आब नहि छी। मुदा रोगक कारण बुझैक जिज्ञासा तँ जरुर अछि। तेँ अखन रोगेक संबंधमे किछु बुझै चाहै छी।’’
“की? ’’
‘‘पहिल सवाल बताहेक लाए। जखन बताह दिस तकै छी तँ बुझि पड़ै अए जे जते मनुख अछि सभ बताह अछि।’’
धड़फड़ा कऽ रमाकान्त पूछि देलखिन- ‘‘से कोना?’’
‘‘कक्का, जे एक नम्बर प्रशसक छथि, जे एक इलाकासँ लए कऽ देश भरिक शासनमे दक्ष रहैत छथि ओ घरक परिवारक शासनमे लटपटा जाइत छथि। तहिना देखै छी जे, जे बड़का-बड़का हिसाबी गणितज्ञ छथि ओ जिनगीक हिसाबमे फेल कए जाइत अछि। तहिना देखै छी जे, जे बड़का-बड़का इंजीनियर छथि ओ परिवारक नक्शाञ बनबैमे चूकि जाइ छथि। नेताक तँ कोना बाते नहि। किएक तँ जहिना गोटे साल मानसुन अगते उतरि खूब बरिसैत अछि जहिसँ बेंगक वृद्धि अधिक भए जाइत छैक, तहिना ओकरो छैक।
मुस्की दैत रमाकान्त कहलखिन- ‘‘हँ, ठीके कहै छहक।’’
“ततबे नहि कक्का, कियो ताड़ी-दारु पीबै पाछू बताह अछि, तँ कियो धनक पाछू। कियो पढै़क पाछू बताह रहैत, तँ केयो ऐश-मौजक पाछू। कियो खाइ पाछू बताह तँ कियो ओढ़ै-पहिरै पाछू बताह। कियो काजेक पाछू बताह रहैत, तँ कियो अरामेक पाछू। कियो खेले-कुदक पाछू बताह रहैत, तँ कियो नाचे-तमाशाक पाछू। एते बताहक इलाज कतए हैत। ततबे नहि, एक रंगक बताह दोसरकेँ बताह कहैत आ दोसर तेसरकेँ। तहिना कियो शरीरक रोगसँ दुखित वा रोगी कहबैत तँ कियो अन्नक अभावसँ, तँ कियो वस्त्रक अभाव वा घरक अभावसँ दुखी होइत। तहिना कियो कोनो उकड़ू बात सुनलासँ होइत। एहि दृष्टिये जँ देखल जाए तँ कते लोक निरोग अछि। ततबे नहि जँ एक-एक गोटेमे देखल जाए तँ कए-कएटा रोग धेने अछि। मुदा ई सभ उपरी बात भेल। मूल प्रश्नर अछि जे बसन्त ऋृतुक गुलाब जेकाँ जिनगी सबदिन फुलाइत रहै।’’
गुलाबक फूल जेकाँ फुलाइत जिनगी सुनि महेन्द्र नमहर साँस छोड़लनि। आखि उठा सुबुधक आखिपर देलनि। सुबुधक नजरिसँ नजरि मिलितहि जना महेन्द्रकेँ बुझि पड़लनि जे अथाह समुद्रमे सुबुध हेलि रहल छथि। आ हम छोट-छीन पोखरिमे उग-डूब कए रहल छी। ई बात मनमे अबितहि महेन्द्र अप्पन माए-बापसँ लए कऽ अपन भैयारी होइत, धिया-पूता दिशि नजरि दौड़ौलनि। जे कते आशासँ पिता जी हमरा दुनू भाएकेँ पढ़ौलनि, मुदा हम हुनकासँ कत्ते दूर हटि कए रहै छी। एते दूर हटल रहलापर कोना हुनका सेवा कए सकबनि। आब हुनका सेवाक जरुरति दिनोदिन बेसिये होइत जेतनि। उमेरो अधिक भेलनि आ दिनानुदिन बढ़िते सेहो जेतनि। जते उमेर बढ़तनि तते शरीरक अंग कमजोर हेतनि। जते अंग कमजोर हेतनि तते शरीरक क्रियामे रुकावट हेतनि। जहिसँ कते नव-नव रोग शरीरमे प्रवेश करतनि। जते रोग शरीरमे प्रवेश करतनि तते कष्ट हेतनि। की ओहि कष्टक जिम्मेवार हम नहि हेबै। ताहि लेल करैत की छिऐक ? किछु नहि। अखन हम सभ दुनू भाइ आ दुनू पत्नी जवान छी, मुदा किछु दिनक उपरान्त तँ हमहूँ सभ हुनके जेकाँ बूढ़ होएब। कोनो जरुरी नहि अछि जे हमरो सबहक बेटा हमरे सभ लग रहत। अखन तँ हम देशेमे छी। अंतर ऐतबे अछि जे देशक एक छोर पर ई सभ छथि आ दोसर छोरपर हम सभ छी। मुदा आइक जे हवा बहि रहल अछि जे आन-आन देशमे जाए लोक नोकरी करैत अछि आ जीवन-यापन करैत अछि। जँ कहीं हमरो संगे सैह हुअए तखन की होएत ? एते बात मनमे अबैत-अबैत महेन्द्रक चेहरा उदास हुअए लगलनि। मन बौआए लगलनि। देहसँ पसीना निकलै लगलनि। बुझि पड़ै लगलनि जे देह शक्ति विहीन भए रहल अछि। एक्को पाइ लज्जति देहमे अछिये नहि। पसीनासँ तर-बत्तर होइत महेन्द्र सुबुधकेँ कहलखिन- ‘‘सुबुध भाए, जिनगीक अजीब रस्ता अछि। जते मनुक्ख एहि धरतीपर जन्म लेने अछि, ओकरा तँ जिनगी बीतबै पड़तैक। मुदा जिनगीक रस्ता एहेन पेंचगर अछि जे विरले क्यो-क्यो बुझि पबैत अछि, बाकी सभ औनाइते रहि जाइत अछि।’’
मुस्कुराइत सुबुध महेन्द्रकेँ कहलखिन-‘‘महेन्द्र भाए, अहाँ तँ डाॅक्टर छी। पढ़ल-लिखल लोकक बीच सदिखन रहबो करैत छी। अहाँ किअए एहेन बात कहि रहल छी। हम तँ जाबे मास्टरी केलहुँ ताबे धिया-पूताकेँ पढ़ेलहुँ आ जखन नोकरी छोड़ि गाममे रहै छी, तखन जेहन समाजमे रहै छी से देखबे करैत छी।’’
महेन्द्र- ‘‘भाए, अहाँ जे बात कहलहुँ ओ तँ आँखिक सोझामे जरुर अछि मुदा अहाँमे मनुक्ख चिन्हैक आ ओकरा चलैक रस्ताक लूरि जरुर अछि। अहाँ अपनाकेँ छिपा रहल छी।’’
महेन्द्रक बात सुनि रमाकान्तकेँ भेलनि, जे आदमी घरसँ हजारो कोस दूर हटि, कमा कऽ एत्ते बनौलक ओ अपनाकेँ एते कमजोर किअए बुझि रहल अछि। मुदा दुनू संगीक बीच नहि आबि गुम्मे रहलाह। बैसले-बैसल एक बेर महेन्द्रकेँ देखथि आ एक बेर सुबुधकेँ।
अपनाकेँ छिपाएब सुनि सुबुध बजलाह- ‘‘महेन्द्र भाए, जाहि प्रश्ननक बीच अहाँ ओझरा रहल छी ओ प्रश्न एतेक ओझड़ाओठ नहि अछि। मुदा असानो नहि अछि। सिर्फ आखिमे ज्योति आनि देखिकेँ चलैक अछि।’’
दलानक आंगना दिसक भितुरका कोठरीमे बैसि सुजाता खिड़की देने सभकेँ देखबो करैत आ गप्पो-सप सुनैत रहथि। कखनो मनमे खुशियो अबैत छलनि तँ कखनो मन कड़ुऐबो करनि। मुदा किछु बाजथि नहि। बाजब उचितो नहि बुझैत। ओना पढ़ल-लिखल रहने, कखनो कऽ बजैक मन जरुर होइ छलनि। मुदा किछुए दिनमे सासु मिथिलाक रीति-रेवाज आ व्यवहारक संबंधमे तेनाकेँ बुझा देलकनि जे मद्रासक सुजाता मिथिलाक सुजाता बनि गेलीह। मूहपर नुआ राखब तँ उचित नहि बुझथि मुदा बाजब-भूकबपर नजरि जरुर रखै लगलीह। किनकासँ कोन ढंगे बाजी, कते आबाजमे बाजी, कोन शब्दक प्रयोग करी, एहि सभपर नजरि अवश्यर रखै लगलीह। तेँ बोली संयमित भए गेलनि। ओना एहिठामक चालि-ढालि पूर्ण रुपेण नहि अंगीकार कए सकल रहथि, मुदा अंगीकार करैक पूर्ण चेष्टा करए लगलीह।
सुबुधक ऊट-पटांगो बातसँ महेन्द्रकेँ दुख नहि होइत छलनि। हल्लुको बातमे ओ गंभीर रहस्यक अनुमान करै लगलथि। भलेही ओ गंभीर नहि हल्लुके किएक ने होए। महेन्द्रक गंभीर मुद्रा देखि सुबुध सोचलनि जे आब ओ गंभीर बात बुझैक चेष्टामे उताहुल भए रहल छथि। तेँ जिनगीक गंभीर बातकेँ खोलि देब उचित होएत। कहलखिन- ‘‘महेन्द्र भाए, अपना गाममे सभसँ अगुआएल परिवार अहाँक अछि। चाहे धन-सम्पतिक हुअए वा पढ़बा-लिखबाक। मुदा कने गौर कए केँ देखियौ जे एत्ते धन-सम्पत्तिक उपरान्तो धनेक पाछू हजारो कोस घरसँ हटि कऽ रहै छी। अहीं कहू जे कत्ते धन भेलापर मनमे संतोष होएत। मुदा एहि प्रश्नाक दोसरो पक्ष अछि, आ ओ ई अछि, ‘विश्व -बंधुत्व’क विचार। अपनो एहिठामक महान्-महान् चिन्तक एहि विचारकेँ सिर्फ मानबे नहि केलनि बल्कि बनबैक प्रयासो केलनि। ओना सैद्धान्तिक रुपमे विश्व-बंधुत्वक विचार महान् अछि मुदा जते महान् अछि ओहिसँ कनियो कम व्यवहारिक बनबैमे असान नहि अछि। लोक गामक वा आन गामक देवस्थानमे दीप जरबै, साँझ दैसँ पहिने अपना घरक गोसाइक आगूमे दीप जरबैत अछि, जे उचिते नहि गंभीर विचारक दिग्-दर्शन सेहो थिक। तहिना सभकेँ अपना लगसँ जिनगीक लीला शुरु करक चाहिऐक। अपनासँ आगू बढ़ि समाज, समाजसँ आगू बढ़ि इलाका, इलाकासँ आगू बढ़ि देश-दुनियाँ दिस बढ़ैक चाहिऐक। जँ से नहि कए कियो परिवार-समाज छोड़ि आगू बढ़ि करैत अछि, तँ जरुर कतहुँ नहि कतहुँ गड़बड़ जरुर हेतैक। जहिना दुनियामे समस्याग्रस्त मनुष्य असंख्य अछि, तहिना तँ ओहि समस्यासँ मुकबलो करैबला मनुष्य असंख्य अछि। एक्के आदमीक कएलासँ तँ दुनियाक समस्या नहि मेटा सकत। तेँ जे जेतए जन्म नेने छी ओ ओतए इमानदारी आ मेहनतसँ कर्ममे लगि जाउ।’’
सुबुधक प्रश्न्केँ स्वीकार करैत महेन्द्र कहलखिन- ‘‘हँ, ई दायित्व तँ मनुष्यमात्रक थिक।’’
सुबुध- ‘‘जखन ई दायित्व सभ मनुष्यक छी तँ अपने गाममे देखियौ ! एहि सालसँ, जखन सभकेँ खेत भेलै, थोड़-बहुत खुशहाली गाममे एलै। मुदा एहिसँ पहिने तँ देखै छेलिऐक जे ने सभकेँ भरि पेट खेनाइ भेटै छलै आ ने भरि देह वस्त्र। ने रहैक लेल सुरक्षित घर छलै, ओना अखनो नहि छैक, आ ने रोग-व्याधिसँ बचैक कोनो उपाए। बाजू, छलै की नइ छलै?’’
‘‘हँ, छलैक।’’
‘‘आब अहीं कहू जे हमर-अहाँक जन्म तँ अही समाजमे भेल अछि। की हम ओते कमजोर छी जे गाम छोड़ि पड़ा जाएब, पड़ाइक मतलब, जतए पेट भरत। जँ कियो पड़ाइत अछि तँ ओकरा कायर, कामचोर छोड़ि की कहबैक ? मुदा तैयो लोक जाइत किएक अछि? एकरो कारण छैक। एकर कारण छैक अधिक पाइ कमाएब वा कम मेहनतसँ जिनगी जीब। मुदा कम मेहनतसँ जिनगी असानीसँ जीब ताधरि संभव नहि अछि, जाधरि मेहनतसँ देशकेँ समृद्धिशाली नहि बना लेब। अगर जँ किछु गोटेकेँ समृद्धशाली भेने देशकेँ समृद्धशाली बुझब तँ ओ नेने-नेेने गुलामीक जंजीरमे बान्हि देत। कोनो देश गुलाम नहि होइत, गुलाम होइत अछि ओहि देशक मनुक्ख आ गुलामी होइत ओकर जिनगीक क्रिया। पाइबला सबहक जादू समाजमे ओहि रुपे चलि रहल अछि जहिना हम-अहाँ पोखरिमे कनेक बोर दए बनसी पाथि दै छिऐक आ नमहर-नमहर माछ भोजनक लोभे फँसि जाइत अछि, तहिना मनुक्खोक बीच चलि रहल अछि। ओहिकेँ नजरि गड़ाकेँ देखै पड़त।’’
सुबुधक विचारकेँ महेन्द्र मूड़ी डोला मानि लेलनि। मुदा मुड़ी डोलौलाक उपरान्तो मनमे किछु शंका रहबे कएल छलनि। जे सुबुध मूहक हाव-भावसँ बुझि गेलखिन। पुनः अपन विचारकेँ आगू बढ़बैत कहै लगलखिन- ‘‘अपना एहिठामक दशा देखियौ। जकरा अपना सभ क्रीम ब्रेन कहै छिऐ, ओ थिक वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाॅक्टर इत्यादि। ओ सभ आन-आन देश जाए अपन बुद्धिकेँ पाइबलाक हाथे बेचि लैत छथि। भलेही किछु अधिक पाइ कमा लैत होथि, मुदा ओ ओहि धनिककेँ आरो धन बढ़बैत छथि। नव-नव मशीन, नव-नव हथियारक अनुसंधान कएकेँ पछुएलहा देशपर आक्रमण कए वा व्यापारिक माल बेचि आरो पछुअबैत अछि। एकटा सवाल आरो मनमे अबैत होएत। ओ ई जे अपना देशमे ओतेक साधन नहि अछि जे ओ अपन बुद्धिक सदुपयोग कए सकताह। तेँ अपन बुद्धिक सदुपयोग करैक लेल आन देश जाइत छथि। मुदा हमरा बुझने एहि तर्कमे कोनो दम्म नहि छैक। आइ धरिक जे दुनियाँक इतिहास रहल ओ यैह रहल जे सम्पन्न देश सदिखन कमजोर पछुआएल देशकेँ लुटैत रहलैक। चाहे लड़ाइक माध्यमसँ होए वा व्यापारक माध्यमसँ। जहिसँ जेहो सम्पत्ति-साधन ओहि देशकेँ रहैत, ओहो लुटा जाइत अछि। जखन ओ लुटा जाएत तखन आगू मुहे कोना ससरत?’’
माथ कुड़िअबैत महेन्द्र पुछलखिन- ‘‘तखन की करक चाही?’’
सुबुध- ‘‘आखि उठा कए देखिऔ जे दुनियाँमे क्यो बिना अ,आ पढ़ने विद्वान् बनि सकल अछि वा बनि सकैत अछि ? जँ से नहि बनि सकैत अछि तँ पछुआएल देश वा लोक, बिना कठिन मेहनत केने आगू बढ़ि सकैत अछि। तेँ पछुआएल देश वा लोककेँ एहि बातकेँ बुझै पड़तनि। जँ से नहि बुझि अगुएलहाक अनुकरण करताह, तँ पुनः गुलामीक बाटपर चलि अओताह। कते लाजिमी बात छी जे हम अपने बनाओल हथियारसँ अपने घाएल होइ। आब दोसर दिशि चलू!’’
“अपना ऐठाम जे परिवारक ढाँचा, अदौसँ रहल, ओ दुनियामे सभसँ नीक रहल अछि। आइक चिन्तनमे दुनियाँ परिवारवाद दिशि बढ़ल अछि। जे हमरा सबहक संयुक्त परिवारक रुपमे धरोहर अछि। मनुक्खक जिनगी कतेटा होइ छै, एहिपर नजरि दियौ। तीन अवस्था तँ सभक होइ छैक। बच्चाक, जवानीक आ बुढ़ारीक। एहिमे दू अवस्था बच्चा आ बुढ़ारीमे दोसराक मदतिक जरुरत पड़ैत छैक। जे एकांगी परिवारमे नहि भए पाबि रहल छैक। आइक जे एकांगी परिवार बनि गेल अछि, ओ कुम्हारक घरारी जेकाँ बनि गेल अछि। जहिना कुम्हारक घरारी बेसी दिन धरि असथिर नहि रहैत, तहिना भए रहल अछि। बाप-माए कतौ, बेटा-पुतोहू कतौ आ धिया-पूता कतौ रहै लगल अछि। मानवीय स्नेह नष्ट भए रहल अछि। सभ जनै छी जे काँच बरतन जेकाँ मनुष्य होइत अछि। कखन की एहि शरीरमे भए जाएत, तकर कोनो गारंटी नहि छैक। स्वस्थ अवस्थामे तँ मनुष्य कतौ रहि जीबि सकैत अछि मुदा असवस्थक अवस्थामे तँ से नहि भए सकैत छैक। तखन केहेन कष्टकर जिनगी मनुष्यक सामने उपस्थित भए जाइत छैक तोहूपर तँ नजरि देमए पड़त।’’
सुबुधक विचार महेन्द्रकेँ झकझोड़ि देलकनि। देहमे कम्पन आबि गेलनि। बोली थरथराए लगलनि। कने काल असथिर भए मनकेँ असथिर केलनि। मन असथिर होइतहि सुबुधकेँ कहलखिन- ‘‘सुबुध भाए, भलेही हाइ स्कूल धरि संगे-संग पढ़लहुँ, मुदा जिनगीकेँ जहि गहराइसँ अहाँ चिन्हलहुँ, हम नहि चीन्हि सकलहुँ। सच पूछी तँ आइ धरि अहाँकेँ साधारण हाइ स्कूलक शिक्षक बुझैत छलहुँ मुदा ओ भ्रम छल। संगी रहितहुँ अहाँ गुरु छी। कखनो काल, जखन एकांत होइ छी, अपनो सोचै छी जे एते कमाइ छी, मुदा दिन-राति खटैत-खटैत चैन नहि भए पबैत छी। कोन सुखक पाछू बेहाल छी से बुझिये ने रहल छी। टी.भी. घरमे अछि, मुदा देखैक समए नहि भेटैत अछि। खाइले बइसै छी तँ चिड़ै जेकाँ दू-चारि कौर खाइत-खाइत मन उड़ि जाइत अछि, जे फल्लाँकेँ समए देने छिऐ, नहि जाएब तँ आमदनी कमि जाएत। तहिना सुतइयोमे होइत अछि। मुदा एते फ्रीसानीक लाभ की भेटैत अछि? सिर्फ पाइ। की पाइये जिनगी छिऐक?’’
महेन्द्रक बदलल विचार सुनि, मुस्की दैत सुबुध कहलखिन- ‘‘भाए, पाइ जिनगी चलैक साधन छी, नहि कि जिनगी। पाइक भीतर एते पैघ दुर्विचार छिपल अछि, जे मनुष्यकेँ कुकर्मी बना दैत अछि। कुकर्मी बनलापर मनुष्यत्व समाप्त भए जाइत छैक। जाहि सँ चीन्ह-पहचीन्हि समाप्त भए जाइत छैक। आपराधिक वृत्ति पनपै लगैत छैक। आपराधिक वृत्ति, मनुष्यमे अएलापर पैघसँ पैघ अपराधमे मनुष्यकेँ धकेलि दैत छैक। तेँ अपन जिनगीकेँ देखैत परिवार, समाजक जिनगी देखब जिनगी छी। ओना मनुष्यमात्रक सेवाक लेल सेहो सदिखन तत्पर रहक चाही। जहाँ धरि भए सकै, करबो करी। मुदा कर्मक दुनियाँ बड़ कठिन अछि। एत्ते कठिन अछि जे कर्मठसँ कर्मठ लोक रस्तेमे थाकि जाइत छथि। मुदा ओ थाकब हारब नहि जीतब छी। जे समाज रुपी गाछ मौला गेल अछि, ओहिमे तामि, कोड़ि, पटा नव जिनगी देबाक अछि। जाहिसँ ओहिमे फूल लागत आ अनबरत फुलाइत रहत। एहि काजमे अपनाकेँ समर्पित कए देबाक अछि।’’
सुबुधक संकल्पित विचारसँ महेन्द्रक विचार सेहो सक्कत बनै लगलनि। आँखिमे प्रखर ज्योति अबै लगलनि। दृढ़ स्वरमे पितो आ सुबिधोकेँ कहलखिन- ‘‘दुनू गोटेक बीच बजै छी जे सालमे एक्को दिन ओहन नहि बँचत जहि दिन हमरा चारु -दुनू भाइ आ दुनू स्त्रीगण- गोटेमे सँ कियो नहि क्यो एहिठाम नहि रहब। ओना मद्रासोमे अज-गज बहुत भए गेल अछि, ओकरो छोड़ब नीक नहि होएत, मुदा परिवारो आ समाजोकेँ नहि छोड़ब। मद्रासक कमाइ परिवारो आ समाजोमे लगाएब। अखन तँ ओते अनुभव नहि अछि, मुदा चाहब जे समाजमे बीमारीक लेल जे खर्च होइत ओ पूरा करब। जहिना पिताजी समाजक खाइक ओरियान कए देलखिन तहिना स्वास्थक ओरियान जरुर कए देब। समाजकेँ कहि दिअनु जे जकरा ककरो कोनो रोग बीमारी होए ओ आखि मूनिकेँ एहिठाम चलि आबथि। ओकर इलाज जरुर हेतै। बिना नियारे गाम आएल छलहुँ तेँ किछु लएकेँ नहि एलहुँ। मुदा कहै छी जे जहाँ धरि रोग जँचैक औजारक जोगार भए सकत ओ मद्रास जाइते पठा देब। तत्काल अखन भावो रहतीह। बौएलाल आ सुमित्रा रहबे करत। आब जे आएब ओ बेसी दिनक लेल आएब। आ एहिठाम आबि अधिकसँ अधिक गोटेकेँ चिकित्साक ज्ञान करा गामसँ रोगकेँ भगा देब। समाज हम्मर छी, हम समाजक छिऐक।
(२००४ ई.)
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जेठक दुपहरि बारहो कलासँ उगिलि उगिलि भीषण ज्वाला आकाश चढ़ल दिनकर त्रिभुवन डाहथि जरि जरि पछबा प्रचण्ड बिरड़ो उदण्ड सन सन सन सन...
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खंजनि चलली बगढड़ाक चालि, अपनो चालि बिसरली अपन वस्तुलक परित्याकग क’ आनक अनुकरण कयलापर अपनो व्यिवहार बिसरि गेलापर व्यंपग्यय। खइनी अछि दुइ मो...
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