भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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'विदेह' ५५ म अंक ०१ अप्रैल २०१० (वर्ष ३ मास २८ अंक ५५)- PART VII
बालानां कृते-
जगदीश प्रसाद मंडल
किछु प्रेरक कथा
81 सद्गृहस्त
एकटा गृहस्त छला। संयम स जीवन-यापन करैत छला। परिवार कऽ सुसंस्कारी बनबै मे सदिखन लागल रहैत। नीतिपूर्वक आजीविका स जिनगी बितबैत। परिवारक काज आ खर्च स जे समय आ धन बँचैत छलनि ओ परमार्थ मे लगबैत। ओ गृहस्त कहियो तपोभूमि नहि गेलाह मुदा घरे मे तपोवन बना नेने छलाह। देवतो खुशी रहैत छलथिन।
एक दिन गृहस्तक क्रिया सऽ खुशी भऽ इन्द्र आबि बर मांगैक लेल कहलखिन। गृहस्त असमंजस मे पड़ि गेला जे की मंगबनि। जखन असंतोषे नहि तखन अभावे कथीक? स्वाभिमानी गमौलाक उपरान्ते क्यो ककरो स किछु पबैत अछि। ई बात सोचि गृहस्त मने-मन विचारै लगलाह जे जहि स ऋृणो-भार नहि हुअए आ देवतो अपमान नहि बुझति। बड़ी काल धरि सोचैत-विचारैत गृहस्त मंगलकनि- हमर छाया जतै पड़ै ओतए कल्याणक बरखा होय।
इन्द्र वरदान तऽ दऽ देलखिन मुदा अचंभित भऽ गृहस्त स पूछलखिन- हाथरखला पर कल्याणों होइत आ आनंदो प्रशंसो आ प्रत्युपकारक संभवनो होइत। मुदा छाया स कल्याण भेलो पर लाभ स बंचित रहै पड़ैत। तखन ऐहन विचित्र वर किऐक मंगलहुँ?
मुस्कुराइत गृहस्त कहलखिन- देव! सोझावलाक कल्याण भेने अपना मे अहंकार पनपैत अछि। जहि स साधना मे बाधा उपस्थिति होइत। छाया ककरा पर पड़ल के कत्ते लाभन्वित भेल ई पता नइ लगब जीवनक लेल श्रेयस्कर थिक।
साधनाक यैह रुप पैघ होइत। यैह क्रम प्रगतिक रास्ता पर चलैत-चलैत व्यक्ति महामानव बनैत अछि।
82 सद्भाव
अपन शिष्यक संग महात्मा ईसा कतौ जाइत रहथि। साँझ पड़ि गेलै। राति बितवैक लेल एकठाम ठहरि गेला। संग मे पाँचे टा रोटी खाइ ले छलनि। रोटीक हिसाबे खेनिहार अधिक तेँ सभकेँ पेट भरब कठिन। अपना मे शिष्य सब यैह गप-सप करैत। ईसो सुनलखिन। मुस्कुराइत ईसा कहलखिन- सब रोटी कऽ टुकड़ी-टुकड़ी तोड़ि एकठाम कऽ लिअ आ चारु भाग स सभ बैसि खाउ। जहि स सभकेँ एक रंग भोजन भेटि जायत।
महात्मा ईसाक विचार मानि सभ सैह केलक। संतोषक जन्म सभक हृदय मे भऽ गेलैक। सभ केयो खायब शुरु केलक। रोटी सठैत-सठैत सभक पेटो भरि गेलैक। तखन एकटा शिष्य बाजल- ई गुरुदेवक चमत्कार छिअनि।
शिष्यक बात सुनि ईसा कहलखिन- ई अहाँ लोकनिक सद्भावक सहकार थिक नहि की चमत्कार। अगर अहाँ सभ अपना मे छीना-झपटी करितहुँ त ई संभव नहि होइत। जहिठाम सद्भाव स परिवारक संबंध होइत तहिठाम एहिना प्रभुक अयाचित सहयोग भेटैत अछि।
83 आलस्य वनाम पिशाच
वन विहार करैक लेल वासुदेव बलदेव आ सात्यकि घोड़ा पर चढ़ि निकललाह। घनघोर जंगल रहने तीनू गोटे रास्ता मे भटकि गेला जाइत-जाइत ऐहन सघन बन मे पहुँच गेलथि जहिठाम सऽ ने पाछू होएब बननि आ ने आगू बढ़ब। मुन्हारि साँझ भ गेलै। अन्हार मे चलब आरो कठिन भऽ गेलनि। अचताइत-पचताइत तीनू गोटे अटकि गेला। एकटाझमटगर गाछ छलैक जहिक तर (निच्चा) मे घोड़ा बान्हि तीनू गोटे राति बितबैक कार्यक्रम बनौलनि। खाइ-पीबै ले किछु रहबे ने करनि तेँ गाछेक निच्चा मे दूबि पर सुतैक ओरियान केलनि। मुदा मन मे शंका होइत रहनि जे जँ तीनू गोटे सुति रहब आ घोड़ा कियो खोलि कऽ ल जाय? तीनू गोटे बिचारलनि जे एक-एक पहर जागि अपनो आ घोड़ोक ओगरवाही कऽ लेब आ सुतियो लेब।
पहरा करैक पहिल पारी सात्यकिक भेल। वासुदेव आ बलदेव सुति रहला। सात्यकि जगल रहल। थोड़े खानक बाद गाछ पर स पिशाच उतड़ि सात्यकिक संग मल्लयुद्ध करैक लेल ललकारलक। ओहने उत्तर सात्यकियो देलक। दुनूक बीच घुस्सा-घुस्सी हुअए लगल। सैाँसे पहर दुनूक बीच मल्लयुद्ध होइते रहल। कते ठाम सात्यकिक देह मे चोटो लगलैक। छालो ओदरलै। पहर बीति गेल।
दोसर पारी बलदेवक आयल। सात्यकि सुति रहल। बलदेव पहरा करै लगल। थोड़े कालक बाद पिशाच पुुनः आबि चुनौती देलकनि। बलदेवो ओहने उत्तर देलखिन। पिशाचक आकार सेहो नमहर भ गेल छलै। दुनूक बीच मल्लयुद्ध शुरु भेल। बलदेवो केँ पिशाच दुरगति क देलकनि। दोसरो पहर बीतल। तेसर पहरक पारी वासुदेवक छलनि। पुनः पिशाच आबि हुनको चुनौती देलकनि। मुदा वासुदेव हँसवो करति आ कहबो करथिन- बड़ मजगर अहाँ छी। निन्न आ आलस स बँचैक लेल मित्र जेँका मखौल करै छी।
पिशाचक बल घटै लगलै। आकारो छोट होइत गेलै। भिनसर भेल। नित्यकर्म स तीनू गोटे निवृत्ति भ चलैक तैयारी करै लगलथि। तखन सात्यकि आ बलदेव अपन रौतुका चरचा करैत जतऽ-जतऽ चोट लगल रहनि सेहो देखोलखिन। हँसैत वासुदेव कहलखिन- ई पिशाच आरो किछु नहि थिक। ई मात्र कुसंस्कार रुपी क्रोध छी। ओकरो ओहने प्रत्युत्तर भेटिलै तेँ बढ़ैत गेल। मुदा जखन ओकरा उपेक्षाक रुप मे देखलिऐक तखन ओ छोट आ दुर्बल भ गेल।
84 स्वर्ग आ नर्क
विद्यालयक ओसार पर बैसि गुरु आ शिष्य गप-सप करति रहथि। एकटा शिष्य गुरु स स्वर्ग आ नर्कक संबंध मे पूछलकनि। शिष्य कऽ बुझबैत गुरु कहै लगलखिन- स्वर्ग आ नर्क अही धरती पर अछि। जे कर्मक अनुसार अही जिनगी मे भेटैत छैक।
गुरुक उत्तर स शिष्य संतुष्ट नहि भेल। शंका बनले रहलै। पुनः गुरु स अपन शंका व्यक्त केलक। गुरु बुझलनि जे बिना व्यवहारिक जिनगी देखौने शिष्य संतुष्ट नइ हैत। ओ (गुरु) उठि शिष्य सभ कऽ संग केने गाम दिशि विदा भेला।
गाम मे एकटा बहेलियाक घर छलै।। ओहिठाम पहुँचते सभ देखलक जे पेट-पोसैक लेल बहेलिया जीव-हत्या कऽ रहल अछि। ततबे नहि जीब हत्यो केने ने देह पर वस्त्र छैक आ ने भरि पेट भोजन। धीयो-पुतोक देह पर माछी भिनकै छै। एको क्षण ओतै रहैक इच्छा ककरो नहि होय। चुपचाप गुरुजी शिष्यक संग ओतै स विदा भ गेला। दोसर ठाम पहुँचला। ओ वेश्याक घर छलै। युवावस्था मे ओ (बेश्या) खूब पाइयो कमेने छलि आ भोगो केने छलि। मुदा बुढ़ाढ़ी मे आबि अनेको रोगो स ग्रसित भ गेलि आ परिवारो-समाजो स तिरस्कृत भ गेलि। पेटक दुआरे भीख मंगैत छलि। सभ केयो (गुरु-शिष्य) देखि ओतै स विदा भ गेला।
तेसर परिवार गृहस्तक छल। जहिठाम जा सभ देखलखिन जे गृहस्त जेहने संयमी छथि तेहने परिश्रमी। स्वभाव स उदार आ सद्गुणी सेहो छथि। जहि स परिवार सुख-समृद्धि स भरल-पूरल छलैक। गृहस्तक परिवार देखि गुरुजी शिष्यक संग आगू बढ़ि चारिम परिवार मे पहुँचल। पोखरिक मोहार पर एकटा संत कुटी बनौने रहथि। शिक्षा आ प्रेरणा पवैक लेल दिन-राति समाजक लोक अबैत-जाइत रहैत छल। संतजी मस्त-मौला जेँका जिनगी बितवैत। ने मन मे एक्को मिसिया क्रोध आ ने कोनो तरहक चिन्ता।
चारु परिवार देखि शिष्यक संग गुरुजी विद्यालय दिशि चललाह। रास्ता मे शिष्य केँ कहलखिन- पहिल जे दुनू परिवार देखलिऐक ओ नरकक रुप मे छल आ बादक जे दुनू परिवार देखलिऐक ओ स्वर्गक रुप मे।
85 यथार्थक बोध
शिखिध्वज ब्रह्मज्ञानी बनै चाहति रहथि। ओ सुनने छलथि जे तियाग आ वैराग्य स मनुष्य ब्रह्मज्ञानी बनैत अछि। तेँ शिखिध्वज घर-परिवार छोड़ि जंगल मे कुटी बना रहै लगलथि। ओहि बन मे तपस्वी शतमन्यु सेहो रहैतछलथिन। शतमन्यु कऽ पता लगलनि जे एकटा नवांगतुक घर-परिवार छोड़ि कुटी बना रहैत अछि।
शतमन्यु आबि शिखिध्वज केँ कहलखिन- गामक घर-गिरहस्तीउजाड़ि बन मे वैह सब सरंजाम (रहैक व्यबस्था) जुटबै मे लागि गेलहुँ ताहि स की लाभ? बैराग्य त अहंता आ लिप्सा स हेबाक चाही। जँ भऽ सकै तऽ घरे मे तपोवन बना सकै छी।
शतमन्युक विचार सुनि शिखिध्वज केँ वास्तविकताक बोध भऽ गेलनि। ओ घुरि कऽ घर आबि परिवारक बीच रहि सेवा-साधना मे जुटि गेला। शिखिघ्वज एकांकी मुक्तिक जगह सामूहिक मुक्तिक मार्ग अपनौलनि। हुनके वंश मे बाल्यखिल्य ऋृषि भेलखिन जे सैाँसे जम्बूद्वीप कऽ देवभूमि बना देलखिन।
86 विद्वताक मद
एक दिन महाकवि माघ राजा भोजक संग वन-विहार कऽ घुमल अवैत रहथि। रास्ता मे एकटा झोपड़ी देखलखिन। ओहि झोपड़ी मे एकटा वृद्धा टोकरी (तकली) कटैत रहथि। ओहि वृद्धा स माघ पूछलखिन- ई रास्ता कत्ते जाइत अछि? बृद्धा माघ कऽ चीन्हि गेलीह। ओ हँसैत उत्तर देलखिन- वत्स! रास्ता त कतौ नहि जाइत अछि। जाइत अछि ओहि पर चलैवला राही। अहाँ सभ के छी?
माघ- हम सभ यात्री छी।
मुस्कुराइत वृद्धा बाजलि- तात्! यात्री त सुरुज आ चान दुइये टा छथि। जे दिन-राति चलैत रहति छथि।सच-सच कहू जे अहाँ के छी?
थोड़े चिन्तित होइत माघ कहलखिन- माँ! हम क्षणभंगुर आदमी छी।
थोड़े गंभीर होइत पुनः वृद्धा कहलकनि- बेटा! यौवन आ धने टा क्षणभंगुर होइत। पुराण कहैत अछि जे एहि दुनूक बिसवास नहि करी।
माघक चिन्ता आरो बढ़लनि। रोष मे कहलखिन- हम राजा छी। हुनका मन मे एलनि जे राजाक नाम लेला स ओ सहमि जयतीह। मुदा ओ वृद्धा निर्भीक भऽ उत्तर देलकनि- नई भाई अहाँ राजा कोना भऽ सकै छी? शास्त्र त दुइये टा राजा- यम आ इन्द्र मानने अछि।
87 श्रद्धा
बच्चा मे स्वामी रामतीर्थ गामेक एकटा मौलवी सहाएव स पढ़ने रहथि। प्रारंभिक पढ़ाई पुरला उपरान्त पाठशाला मे नाम लिखौलनि। पाठशाला मे नाओ लिखबै स पहिने पिताक (रामतीर्थक) मन मे प्रश्न उठलनि जे मौलवी एहाएव केँ की देल जाइन। प्रश्न दू तरहक। पहिल जे उचित महीना (मजदूरी) आ दोसर ज्ञानक पुरस्कार। काजो दोसर जिनगी भरिक। पिताक चिन्तित मुद्रा देखि रातीर्थ पुछलखिन। पिता कहलखिन।
पिताक बात सुनि रामतीर्थ कहलखिन। पिताक बात सुनि रामतीर्थ कहलखिन- पिता जी जहिना ओ (मौलवी सहाएव) हमरा ज्ञानक दूध पीबैक लेल देलनि तहिना हिनको दूध दइवाली बढ़िया गाय दऽ दिअनु।
पिता सैह केलनि।
88 अनंत
हरि अनंत हरि कथा अनंता - तुलसी
एक दिन भगवान बुद्ध आनंदक संग एकटा सघन बन स गुजरैत रहथि। रास्ता मे दुनू गोटेक बीच ज्ञानक चर्चा चलैत रहनि। आनंद पूछलखिन- देव अपने तऽ ज्ञानक भंडार छिअए। अपने जे जनैत छी ओ हमरा बुझा देलहुँ?
आनंदक बात सुनि उलटि कऽ बुद्धदेव पूछलखिन- एहि जंगलक जमीन पर कते सुखल पत्ता पड़ल छै? हम जइ गाछक निच्चा मे ठाढ़ छी ओइ गाछ मे कते सुखल पात लागल छै? आ अपना सभक पाएरक निच्चा कते पड़ल छैक। सब मिला कते होएत?
बुद्धदेवक प्रश्न स आनंद निरुत्तर भऽ गेलाह। आनंद कऽ उत्तर नहि दइत देखि तथागत कहलखिन- ज्ञानक विस्तार ओते अछि जते एहि वन प्रदेश मे सुखल पातक परिवार। अखन धरि हमहूँ एतबे बुझलौ हेँ जे जते वृक्षक उपर सुखल पात अछि। मुदा पाएरक निच्चा जे अछि ओ हमहूँ ने बुझै।
89 हँसैत लहास (मुरदा)
जिनगी कऽ जिनगी बुझि मनुष्य कऽ जीबाक चाहिऐक। जँ से नहि भेलि त जिनगीक कोनो महत्व नहि जायत। जे कियो जिनगी कऽ कमेनाइ-खेनाइ धरि रखैत ओकर संस्कार मरलो पर ओहिना रहि जायत।
एक दिन दू टा शव एक्के बेरि श्मशान पहुँचल। कठिआरीक लोक डाहैक ओरियान करै लगल। एकटा शव दोसर कऽ देखि ठहाका मारि हँसै लगल। हँसैत शव कऽ देखि दोसर शव पुछलक- बंधु ऐहन कोन बात भऽ गेल जे अहाँ हँसि रहल छी। जबकि दुनू गोटे एक्के स्थिति मे छी?
हँसैत शव उत्तर देलक- बंधु अहाँ कऽ मन अछि की नाहि मुदा हमरा त मन अछि। दुनू गोटे संगे गामक स्कूल मे पढ़ने रही। पढ़लाक वाद अहाँ वणिक वृत्ति मे लगि दिन-राति पाइयेक हिसाबो आ भोग-बिलास मे लगि गेलहुँ। आब अहाँक ओहन स्थिति भऽ गेलि अछि जे श्मशानो घाट पर पाइयेक हिसाब आ भोगे-बिलासक गर लगबै छी।
आओर अहाँ - दोसर पूछलक।
पहिल- जाधरि जीवैत छलौ मस्त सऽ रहलौ। ने कहियो बेसी पाइक जरुरत भेलि आ ने तइ ले मन मे चिन्ता। जहिना चिन्ता मुक्त पहिने छलहुँ तहिना अखन छी। अच्छा आब ओहूँ जाउ आ हमहूँ जाइ छी। अछिया तैयार भऽ गेल। नमस्कार।
कहि पहिल शव चिता दिशि बढ़ि गेल आ दोसर कनगुरिया ओंगरी पर हिसाब जोड़ै लगल।
90 अनगढ़ चेतना
ज्ञान (विद्या) अनगढ़ चित्त कऽ सुगढ़ बनबैत। जहि स सोचै आ चलैक दिशा निर्धारित होइत। ओना मनुष्यक अनगढ़ता क प्राप्ति जन्मजात होइत। जहिना शरीरक रक्षाक लेल भोजनक प्रयोजन होइत तहिना मनुष्यता प्राप्त करैक लेल विद्याक।
वशिष्ठ जी राम केँ भयंकर वन मे विचरण करैवला उनमत्तक आखिक देखल कथा सुनवैत कहलखिन- ओ (उनमत्त) देखै मे त निरोग (स्वस्थ) बुझि पड़ैत मुदा ओकर जे क्रिया-कलाप होइत ओ विल्कुल पागलक सद्श्य होइत। सदिखन रास्ताक व्यतिक्रम करैत। जहाँ-तहाँ बौआइलो घुमैत आ अन्ट-सन्ट रास्ता सेहो बनबैत। जहि स अपनो देह-हाथक नोकसान करैत आ काँट-कुश मे ओझराइलो रहैत। मुदा तइओ अपना कऽ बुद्धियार बुझि दोसराक नीको विचार कऽ मोजरो ने दइत। जहि स सदिखन भय चिन्ता स मन त्रस्त रहैत। मुदा तइयो ने अधलाह रस्ता छोडै़त आ ने ककरो नीक करैत।
वशिष्ठक विचार सुनि राम पूछलखिन- भगवन! ओ उन्मादी कते रहैत अछि? ओकर नाओ की थिकैक आ ओकर कोनो उपचार छैक की नहि?
वशिष्ठ- वत्स ओ कियो आन नहि मनुष्यक अनगढ़ चेतना छी। जे जाल मे फँसल ओहि चिड़ैक सदृश्य अछि जे मरैक रास्ता देखि फड़फड़ाइत त अछि मुदा निकलैक रस्ते ने देखैत।
बच्चा लोकनि द्वारा स्मरणीय श्लोक
१.प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त्त (सूर्योदयक एक घंटा पहिने) सर्वप्रथम अपन दुनू हाथ देखबाक चाही, आ’ ई श्लोक बजबाक चाही।
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती।
करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम्॥
करक आगाँ लक्ष्मी बसैत छथि,करक मध्यमे सरस्वती,करक मूलमे ब्रह्मा स्थित छथि। भोरमे ताहि द्वारे करक दर्शन करबाक थीक।
हे भगवान्। अपन देशमे सुयोग्य आ’ सर्वज्ञ विद्यार्थी उत्पन्न होथि, आ’ शुत्रुकेँ नाश कएनिहार सैनिक उत्पन्न होथि। अपन देशक गाय खूब दूध दय बाली, बरद भार वहन करएमे सक्षम होथि आ’ घोड़ा त्वरित रूपेँ दौगय बला होए। स्त्रीगण नगरक नेतृत्व करबामे सक्षम होथि आ’ युवक सभामे ओजपूर्ण भाषण देबयबला आ’ नेतृत्व देबामे सक्षम होथि। अपन देशमे जखन आवश्यक होय वर्षा होए आ’ औषधिक-बूटी सर्वदा परिपक्व होइत रहए। एवं क्रमे सभ तरहेँ हमरा सभक कल्याण होए। शत्रुक बुद्धिक नाश होए आ’ मित्रक उदय होए॥
मनुष्यकें कोन वस्तुक इच्छा करबाक चाही तकर वर्णन एहि मंत्रमे कएल गेल अछि।
एहिमे वाचकलुप्तोपमालड़्कार अछि।
अन्वय-
ब्रह्म॑न् - विद्या आदि गुणसँ परिपूर्ण ब्रह्म
रा॒ष्ट्रे - देशमे
ब्र॑ह्मवर्च॒सी-ब्रह्म विद्याक तेजसँ युक्त्त
आ जा॑यतां॒- उत्पन्न होए
रा॑ज॒न्यः-राजा
शुरे॑ऽ–बिना डर बला
इषव्यो॒- बाण चलेबामे निपुण
ऽतिव्या॒धी-शत्रुकेँ तारण दय बला
म॑हार॒थो-पैघ रथ बला वीर
दोग्ध्रीं-कामना(दूध पूर्ण करए बाली)
धे॒नुर्वोढा॑न॒ड्वाना॒शुः धे॒नु-गौ वा वाणी र्वोढा॑न॒ड्वा- पैघ बरद ना॒शुः-आशुः-त्वरित
सप्तिः॒-घोड़ा
पुर॑न्धि॒र्योवा॑- पुर॑न्धि॒- व्यवहारकेँ धारण करए बाली र्योवा॑-स्त्री
जि॒ष्णू-शत्रुकेँ जीतए बला
र॑थे॒ष्ठाः-रथ पर स्थिर
स॒भेयो॒-उत्तम सभामे
युवास्य-युवा जेहन
यज॑मानस्य-राजाक राज्यमे
वी॒रो-शत्रुकेँ पराजित करएबला
निका॒मे-नि॑कामे-निश्चययुक्त्त कार्यमे
नः-हमर सभक
प॒र्जन्यों-मेघ
वर्षतु॒-वर्षा होए
फल॑वत्यो-उत्तम फल बला
ओष॑धयः-औषधिः
पच्यन्तां- पाकए
योगेक्ष॒मो-अलभ्य लभ्य करेबाक हेतु कएल गेल योगक रक्षा
नः॑-हमरा सभक हेतु
कल्पताम्-समर्थ होए
ग्रिफिथक अनुवाद- हे ब्रह्मण, हमर राज्यमे ब्राह्मण नीक धार्मिक विद्या बला, राजन्य-वीर,तीरंदाज, दूध दए बाली गाय, दौगय बला जन्तु, उद्यमी नारी होथि। पार्जन्य आवश्यकता पड़ला पर वर्षा देथि, फल देय बला गाछ पाकए, हम सभ संपत्ति अर्जित/संरक्षित करी।
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केँ जेना रामकेँ भेल हिन्दीक को (राम को)- राम को= रामकेँ
क जेना रामक भेल हिन्दीक का ( राम का) राम का= रामक
कऽ जेना जा कऽ भेल हिन्दीक कर ( जा कर) जा कर= जा कऽ
सँ भेल हिन्दीक से (राम से) राम से= रामसँ
सऽ तऽ त केर एहि सभक प्रयोग अवांछित।
के दोसर अर्थेँ प्रयुक्त भऽ सकैए- जेना के कहलक।
नञि, नहि, नै, नइ, नँइ, नइँ एहि सभक उच्चारण- नै
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राष्ट्रिय (राष्ट्रीय नहि)
सकैए/ सकै (अर्थ परिवर्तन)
पोछैले/
पोछैए/ पोछए/ (अर्थ परिवर्तन)
पोछए/ पोछै
ओ लोकनि ( हटा कऽ, ओ मे बिकारी नहि)
ओइ/ ओहि
ओहिले/ ओहि लेल
जएबेँ/ बैसबेँ
पँचभइयाँ
देखियौक (देखिऔक बहि- तहिना अ मे ह्रस्व आ दीर्घक मात्राक प्रयोग अनुचित)
जकाँ/ जेकाँ
तँइ/ तैँ
होएत/ हएत
नञि/ नहि/ नँइ/ नइँ
सौँसे
बड़/ बड़ी (झोराओल)
गाए (गाइ नहि)
रहलेँ/ पहिरतैँ
हमहीं/ अहीं
सब - सभ
सबहक - सभहक
धरि - तक
गप- बात
बूझब - समझब
बुझलहुँ - समझलहुँ
हमरा आर - हम सभ
आकि- आ कि
सकैछ/ करैछ (गद्यमे प्रयोगक आवश्यकता नहि)
मे केँ सँ पर (शब्दसँ सटा कऽ) तँ कऽ धऽ दऽ (शब्दसँ हटा कऽ) मुदा दूटा वा बेशी विभक्ति संग रहलापर पहिल विभक्ति टाकेँ सटाऊ।
एकटा दूटा (मुदा कैक टा)
बिकारीक प्रयोग शब्दक अन्तमे, बीचमे अनावश्यक रूपेँ नहि।आकारान्त आ अन्तमे अ क बाद बिकारीक प्रयोग नहि (जेना दिअ, आ )
अपोस्ट्रोफीक प्रयोग बिकारीक बदलामे करब अनुचित आ मात्र फॉन्टक तकनीकी न्यूनताक परिचाएक)- ओना बिकारीक संस्कृत रूप ऽ अवग्रह कहल जाइत अछि आ वर्तनी आ उच्चारण दुनू ठाम एकर लोप रहैत अछि/ रहि सकैत अछि (उच्चारणमे लोप रहिते अछि)। मुदा अपोस्ट्रोफी सेहो अंग्रेजीमे पसेसिव केसमे होइत अछि आ फ्रेंचमे शब्दमे जतए एकर प्रयोग होइत अछि जेना raison d’etre एत्स्हो एकर उच्चारण रैजौन डेटर होइत अछि, माने अपोस्ट्रॉफी अवकाश नहि दैत अछि वरन जोड़ैत अछि, से एकर प्रयोग बिकारीक बदला देनाइ तकनीकी रूपेँ सेहो अनुचित)।
अइमे, एहिमे
जइमे, जाहिमे
एखन/ अखन/ अइखन
केँ (के नहि) मे (अनुस्वार रहित)
भऽ
मे
दऽ
तँ (तऽ त नहि)
सँ ( सऽ स नहि)
गाछ तर
गाछ लग
साँझ खन
जो (जो go, करै जो do)
३.नेपालआभारतक मैथिली भाषा-वैज्ञानिक लोकनि द्वारा बनाओल मानक शैली
1.नेपालक मैथिली भाषा वैज्ञानिक लोकनि द्वारा बनाओल मानकउच्चारण आ लेखन शैली
(भाषाशास्त्री डा. रामावतार यादवक धारणाकेँ पूर्ण रूपसँ सङ्ग लऽ निर्धारित)
मैथिलीमे उच्चारण तथा लेखन
१.पञ्चमाक्षर आ अनुस्वार: पञ्चमाक्षरान्तर्गत ङ, ञ, ण, न एवं म अबैत अछि। संस्कृत भाषाक अनुसार शब्दक अन्तमे जाहि वर्गक अक्षर रहैत अछि ओही वर्गक पञ्चमाक्षर अबैत अछि। जेना-
अङ्क (क वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे ङ् आएल अछि।)
पञ्च (च वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे ञ् आएल अछि।)
खण्ड (ट वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे ण् आएल अछि।)
सन्धि (त वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे न् आएल अछि।)
खम्भ (प वर्गक रहबाक कारणे अन्तमे म् आएल अछि।)
उपर्युक्त बात मैथिलीमे कम देखल जाइत अछि। पञ्चमाक्षरक बदलामे अधिकांश जगहपर अनुस्वारक प्रयोग देखल जाइछ। जेना- अंक, पंच, खंड, संधि, खंभ आदि। व्याकरणविद पण्डित गोविन्द झाक कहब छनि जे कवर्ग, चवर्ग आ टवर्गसँ पूर्व अनुस्वार लिखल जाए तथा तवर्ग आ पवर्गसँ पूर्व पञ्चमाक्षरे लिखल जाए। जेना- अंक, चंचल, अंडा, अन्त तथा कम्पन। मुदा हिन्दीक निकट रहल आधुनिक लेखक एहि बातकेँ नहि मानैत छथि। ओलोकनि अन्त आ कम्पनक जगहपर सेहो अंत आ कंपन लिखैत देखल जाइत छथि।
नवीन पद्धति किछु सुविधाजनक अवश्य छैक। किएक तँ एहिमे समय आ स्थानक बचत होइत छैक। मुदा कतोकबेर हस्तलेखन वा मुद्रणमे अनुस्वारक छोटसन बिन्दु स्पष्ट नहि भेलासँ अर्थक अनर्थ होइत सेहो देखल जाइत अछि। अनुस्वारक प्रयोगमे उच्चारण-दोषक सम्भावना सेहो ततबए देखल जाइत अछि। एतदर्थ कसँ लऽकऽ पवर्गधरि पञ्चमाक्षरेक प्रयोग करब उचित अछि। यसँ लऽकऽ ज्ञधरिक अक्षरक सङ्ग अनुस्वारक प्रयोग करबामे कतहु कोनो विवाद नहि देखल जाइछ।
२.ढ आ ढ़ : ढ़क उच्चारण “र् ह”जकाँ होइत अछि। अतः जतऽ “र् ह”क उच्चारण हो ओतऽ मात्र ढ़ लिखल जाए। आनठाम खालि ढ लिखल जएबाक चाही। जेना-
2. निम्नलिखित तीन प्रकारक रूप वैक्लपिकतया अपनाओल जाय:भ गेल, भय गेल वा भए गेल। जा रहल अछि, जाय रहल अछि, जाए रहल अछि। कर’ गेलाह, वा करय गेलाह वा करए गेलाह।
3. प्राचीन मैथिलीक ‘न्ह’ ध्वनिक स्थानमे ‘न’ लिखल जाय सकैत अछि यथा कहलनि वा कहलन्हि।
4. ‘ऐ’ तथा ‘औ’ ततय लिखल जाय जत’ स्पष्टतः ‘अइ’ तथा ‘अउ’ सदृश उच्चारण इष्ट हो। यथा- देखैत, छलैक, बौआ, छौक इत्यादि।
5. मैथिलीक निम्नलिखित शब्द एहि रूपे प्रयुक्त होयत:जैह,सैह,इएह,ओऐह,लैह तथा दैह।
6. ह्र्स्व इकारांत शब्दमे ‘इ’ के लुप्त करब सामान्यतः अग्राह्य थिक। यथा- ग्राह्य देखि आबह, मालिनि गेलि (मनुष्य मात्रमे)।
7. स्वतंत्र ह्रस्व ‘ए’ वा ‘य’ प्राचीन मैथिलीक उद्धरण आदिमे तँ यथावत राखल जाय, किंतु आधुनिक प्रयोगमे वैकल्पिक रूपेँ ‘ए’ वा ‘य’ लिखल जाय। यथा:- कयल वा कएल, अयलाह वा अएलाह, जाय वा जाए इत्यादि।
8. उच्चारणमे दू स्वरक बीच जे ‘य’ ध्वनि स्वतः आबि जाइत अछि तकरा लेखमे स्थान वैकल्पिक रूपेँ देल जाय। यथा- धीआ, अढ़ैआ, विआह, वा धीया, अढ़ैया, बियाह।
9. सानुनासिक स्वतंत्र स्वरक स्थान यथासंभव ‘ञ’ लिखल जाय वा सानुनासिक स्वर। यथा:- मैञा, कनिञा, किरतनिञा वा मैआँ, कनिआँ, किरतनिआँ।
10. कारकक विभक्त्तिक निम्नलिखित रूप ग्राह्य:-हाथकेँ, हाथसँ, हाथेँ, हाथक, हाथमे। ’मे’ मे अनुस्वार सर्वथा त्याज्य थिक। ‘क’ क वैकल्पिक रूप ‘केर’ राखल जा सकैत अछि।
11. पूर्वकालिक क्रियापदक बाद ‘कय’ वा ‘कए’ अव्यय वैकल्पिक रूपेँ लगाओल जा सकैत अछि। यथा:- देखि कय वा देखि कए।
16. अनुनासिककेँ चन्द्रबिन्दु द्वारा व्यक्त कयल जाय। परंतु मुद्रणक सुविधार्थ हि समान जटिल मात्रा पर अनुस्वारक प्रयोग चन्द्रबिन्दुक बदला कयल जा सकैत अछि। यथा- हिँ केर बदला हिं।
17. पूर्ण विराम पासीसँ ( । ) सूचित कयल जाय।
18. समस्त पद सटा क’ लिखल जाय, वा हाइफेनसँ जोड़ि क’ , हटा क’ नहि।
"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका http://www.videha.co.in/:- सम्पादक/ लेखककेँ अपन रचनात्मक सुझाव आ टीका-टिप्पणीसँ अवगत कराऊ, जेना:- 1. रचना/ प्रस्तुतिमे की तथ्यगत कमी अछि:- (स्पष्ट करैत लिखू)| 2. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो सम्पादकीय परिमार्जन आवश्यक अछि: (सङ्केत दिअ)| 3. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो भाषागत, तकनीकी वा टंकन सम्बन्धी अस्पष्टता अछि: (निर्दिष्ट करू कतए-कतए आ कोन पाँतीमे वा कोन ठाम)| 4. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो आर त्रुटि भेटल । 5. रचना/ प्रस्तुतिपर अहाँक कोनो आर सुझाव । 6. रचना/ प्रस्तुतिक उज्जवल पक्ष/ विशेषता| 7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।
अपन टीका-टिप्पणीमे रचना आ रचनाकार/ प्रस्तुतकर्ताक नाम अवश्य लिखी, से आग्रह, जाहिसँ हुनका लोकनिकेँ त्वरित संदेश प्रेषण कएल जा सकय। अहाँ अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर सेहो पठा सकैत छी।
"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/ पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि। मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि। अपन टीका-टिप्पणी एतए पोस्ट करू वा अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर पठाऊ।
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