३. पद्य
३.४.जय प्रकाश मंडल
३.५.गंगेश गुंजन:अपन-अपन राधा २१म खेप
!! भैयाक विआह!!
जहिना धरफर्री वियाह,
तहिना कनपट्टी सिनूर,
ओहिना कऽ लिऔ भैया अनिल रूकसद्दियो जरूर ।।
वल्व जड़ै छल भीतर वाहर,
केहेन अनूप अहॉ केर ठाहर,
लालपुरक तोड़ण लागल छल,
सोनापूरक कलश साजल छल,
माथा पर मुसहरी गर मे माला मोतीपूर ।।
अतुकांत मंत्र सॅ पं0 विद्याधर,
करौलनि परिणय वॉचि धराधर,
सार श्याम आ नवल नन्द सन,
चन्द्र विकल स्वागत धुनि तनमन,
भीम पघारी सॅ दतमनि लेल काटल ठॉढ़ि वबूर ।।
गदगद देखि अंजु सन सारि,
परिछन कालक विसरि लहुॅ गारि,
समना आ भिरहा केर संगम
दू-दू सासु सॅ सासुर गमगम,
उषा सन सुकन्याक हाथ मे वियनि पंख मयूर ।।
चललहुॅ जहिना अहॉ सहरसा,
वरसावैत वसन्ती वरसा,
भुक्खे गाड़ी मे अधीर औ
मोन पड़ल कोवरक खीर औ,
एकसरि किएक गेलहुॅ रंगशाला टूटल भौजीक गुरूर ।।
!! नारि सुनू !!
हे नारि सुनू सुकुमारि सुनू
कहि रहलहुॅ हम किछुआन वात,
तकरो अहॉ कानि पसारि सुनू ।।
सतयुग मे हम नेना भुटका,
त्रेता मे ब्रह्मक आचारी,
द्वापर मे ज्ञानक अहंकार,
कलि मे छल भक्तिक लाचारी,
सभ झूठ मूठ केर दंभ देवि, जौं अहीं अनचिन्हारि सुनू ।।
श्याम रैनि वाट नहि सूझय,
सृजन देवि! अहॅक ऑचर अन्हार,
धरा अनलहुॅ अवोध राघव केॅ,
तखन कोना पसरल व्याभिचार ?
रौद्र नायिके भुवन वचाबू अयलहुॅ अहॅक दुआरि सुनू ।।
!! गीत !!
वंशीवट वेकार गय,
यमुना तट अन्हार गय ।
एक श्याम विनु सगरो,
वृन्दावन भरि हाहाकार गय ।।
सून - सान घर द्वार गय,
यौवन भेल असार गय ।
मन मोहन मुरलीक संग,
चलि गेल नदी केर पार गय ।।
उपटल खेत पथार गय,
मिलनक वन्न वजार गय ।
आव राधिका सॅ के करतनि ,
हॅसि हॅसि मधुर दुलार गय ।।
सखि पैसलि जलधार गय,
होइतथि कोना वहार गय ।
सभक चीर चुनरी पजिऔने,
श्याम ठाढ़ि पर ठार गय ।।
जमशेदपुर - 831 001, अन्य गतिविधि ः वर्ष 1996 सॅ वर्ष 2002 धरि विद्यापति परिषद समस्तीपुरक सांस्कृतिक ,गतिवधि एवं मैथिलीक प्रचार - प्रसार हेतु डाॅ0 नरेश कुमार विकल आ श्री उदय नारायण चैधरी (राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक) क नेतृत्व मे संलग्न
!! अनाचार !!
विहुंसल विजुकल दुष्यन्तक मन तनय गड़ल अछि थाल मे ।
न्याय - धर्म भू हिन्द घेरायल अनाचार केर जाल मे ।।
परदारा आ परक द्रव्य दिशि,
अधम कुलोचन हुलकि रहल ।
राजकोष केर वात की कहू ?
श्वेत वस्त्र वीचि फुदकि रहल ।
जनतंत्रक आंचर वसुधा पर मुस्की कौरव भाल मे ।
न्याय .......................................................................... ।।
उदयन दर्शन आव अलौकिक,
भेल विदेहक कथा विलुप्त,
सभजन लागल भौतिकता मे
बुद्ध अयाची पुंज शुशुप्त,
खर खवास सॅ मालिक धरि नाचय कैंचा केर ताल मे ।
न्याय .......................................................................... ।।
काटर लऽ कऽ गृहस्थ धर्म केॅ,
पालन कऽ रहलनि मनुसंतान ।
जानकी माता पातरि सजावथि,
मधुशाला पैसलनि हनुमान ।
गर्भक कन्या भ्रूण हत्या सॅ समायलि कालक गाल मे ।
न्याय .......................................................................... ।।
जाति, पंथ, भाषा विभेद ई,
प्रजातंत्र केॅ साड़ि रहल ।
कुटिल राजर्षिक चक्रव्यूह,
अपने अपना केॅ जाड़ि रहल
देवभूमि केॅ दियौ मुक्ति फॅसि गेल दलालक चाल मे ।
न्याय .......................................................................... ।।
कक्का ः सूति रहू अय बुच्ची ओल,
पाकल परोर सन लागय लोल ।
उल्लू मुख भदैया खिखिरक वोल,
नाम ‘अंजलि’ कतेक अनमोल ।
अंजलि ः मॉ !! टिल्लू कक्का वड़का शैतान,
थापर मारि ठोकै छथि कान ।
अहॉ सॅ नुका कऽ चिववथि पान,
फोड़वनि माथ वा तोड़वनि टॉग ।
कक्का ः भौजी ! छोटकी फूसि वजै छथि,
रीतू संग भरि दिन विन-विन करै छथि ।
दावि रहल छी हिनक देह हम,
उत्छृंखल नेना करै छथि तम-तम ।
अंजलि ः कक्का जुनि घोरू मिथ्याक भंग,
आव नहि सूतव हम अहॉक संग ।
मॉ लग हमरा सॅ सिनेह देखवैत छी,
एकात पावि हमर घेंटी दवैत छी ।
कक्का ः पठा देव काल्हि अहॉ केॅ हॉस्टल,
नेनपन ओहि ठॉ भऽ जएत शीतल ।
ओतय भेटत नहि खीरक थारी,
नहि रसमलाइ नहि पनीरक तरकारी ।
अंजलि ः काकू बनव हम बुधियारि नेना,
सदिखन वाजव सुमधुर वयना ।
ककरो संग नहि मुॅह लगाएव,
अहीं लग रहव हॉस्टल नहि जाएव ।।
जय प्रकाश मंडल
एम.ए. एल.एल.वी
मझौरा निर्मली
जिला- मधुबनी
बिहार
अधिवक्ता
निर्मली अनुमण्डल कोर्ट बिहार
एम.ए. एल.एल.वी
ग्राम- मझौरा निर्मली
जिला- मधुबनी
मोवाइल- 9801180392
(1)मैथिली लोक गीत- उपराग
हम दैइ छी उपराग
हे यौ समाजक लोक- 2
जाति धरम अहाँ किए बनौलियै
जन-जन मे अहाँ लड़ौलियै
केलियै केहन ई खोज,
हे यौ समाजक लोक।
हम दैइ छी उपराग.....
दहेज प्रथा अहाँ कियै चलेलियै
नारीकेँ अहाँ पाइये जोखलियै
देलियै केहन ई नोर
हे यौ समाजक लोग।
हम दैय छी उपराग........
हिन्दु, मुस्लिम, सिख, इशाई
अपनामे सभ भाइ-भाइ
मंदिर मस्जिद लेल झगड़ि गेलियै यौ
हे यौ समाजक लोक। हम दै छी उपराग.....
(2) मैथिली लोक गीत- भूल कतए भेल
बड़ नीक गप कहलौं
ई बुझलौं यौ
अपन देश ई महान
सेहो मानलौं यौ
मुदा घोटालामे देश भेल दिवाला
कहु भूल कतए भेल।
सौ मे नब्बे बेइमान
फेर देश ई महान
हम रटै छी
गाँधी गौतम केर नाम हम बेचै छी,
असमाने जँ फाटत तँ दरजी कि सीयत
जतए मंत्री बइमान
ओतए प्रजा कि करत
यौ भूल कतए भेल
कहु सुधि कतए भेल।
खेलो मे आब धोखेबाजी चलैए
क्रिकेट मे आब सट्ेबाजी चलैए
एशिया ओलोपिंक मे नामो धीनेलौं
धनि ई मलेशरी जे काँच एगो पइलौं
भूल कतए भेल यौ,
सुधि कतए गेल।
किछु ने देखाइ पड़ैत
किछु सुनाइ नहि पड़ैत
किछु चलैत-फिरैत नहि
भरि पृथ्वी भ' गेल अछि निःशब्द
अनालोड़ित सात समुद्रक नील नील ! नीलेक अनन्त भीजल विस्तार।
कतहु सँ कतहु किछु ने सुझाइत अछि वस्तुक कोनो आकार जल जेना
बहि गेल हो महाब्रह्माण्डक अकथनीय अस्पर्शनीय,निष्क्रिय-निष्पन्द विस्तार
एही क्षण पृथ्वी पएर धरैत एही क्षण जल | हाथ-पएर चलबिते ऊँच अदृश्य
दुर्गम पहाड़- मन कें, चित्त कें चेतना केम कठोर पएर पंजा सँ ओंघड़बैत,
गेन जकाँ गुड़कबैत । स्वयं गेन, स्वयं अनन्त विस्तार-महाकाल ।
तँ की भेल अछि एहि पल राधा स्वयं सेहो महाकाली शक्ति! नेनपनहि सँ
सुनल वर्णन जकाँ ?
हमर समय की थिक ? राधा राधा कें पूछैत छथि-हमर समय ? हम कोन
समय मे छी? कोन रूप मे कतेक आ कथी लेल ? अर्थात् समयक
निरन्तरता मे हमर ई एतेक दिन-राति,भोर-दुपहरिया-साँझक अबाध
अनुपस्थिति कोन ठाम अछि ? एकर की स्थान छैक । हमर अस्तित्वक
एहन नहि हएब, आधा हएब ,आधा नहि हएबब।होयबो करब आ
नहियों हएब। एकर की हो आकलन ,के करय एकर हिसाब ? हिसाब
कएलो उतर एकर की हो फलितार्थ ?
अर्थ तं चाही सभक अस्तित्वक, कीड़ा-मकोड़ा सँ ल' क' चुट्टी-पिपरी, घास-पात
लत्ती-बृक्ष सभक अस्तित्वक विहित अर्थे होइछ ओकर अस्तित्व,
वैह ओकर औचित्य
सौंसे पृथ्वीक सभटा सहजभूत पदार्थ आ तत्व अपन अर्थ ल'क' आएल अछि। अर्थे तं ओकर आयु बनैत छैक, देह अथवा काया नहि।' से कृष्ण कहैत छथि। एहि समस्तक
मनुष्य कें होम' पड़ैत छैक-विज्ञ आ कर' पड़ैत छैक विवेक सँ एहि सभटाक मनुखोचित व्यवहार। विवेक-व्यवहारे थिकैक मुष्यक स्रैष्टिक अर्थ प्रसंग ! संवेदना बाटे अर्थक पुनर्जन्म आ पुनर्रचने होइछ मनुक्खक अर्थ निष्पत्ति ।
माने मानव-अस्तित्व मे सृष्टिक गूढ़ -जटिल जीवनक अग्रसर होइत क्रमक छैक ज्ञान ,
ज्ञानक अर्थवान सृजन तथा प्रयोगक उत्तरदायित्व | मनुक्खे कें राख' पडैत छैक एक-एक टा हिसाब - जीवनक जोड़-घटाव -
गुणा-भाग...सबटाक राख' पड़ैत छैक बही-खाता, जबाबदेही | एखनो अल्प परिभाषित
सृष्टिक जटिल कारबारक बहीखाता कें निष्पाप -राफ साफ |बिना डंडी मारने मनुखे कें तौल' पडैत छैक मनुक्खे कें समयक तराजू पर समाज आ संसार | मनुष्य अपने तें, अछि अपने तराजू अपने बस्तु आ तौलल जाइत विराट बजार -वस्तु -व्यापार | ई सब मनुष्ये, सबकिछु...
' हमर कोटि की ? हम की छी ?'
राधा पूछैत छथि स्वयं कें ,अपन निष्क्रिय एकांत मे , एहन गंभीरता सं, एतेक दिनक बाद |
-' हम की छी ? मनुक्खे तं स्त्री ? ब्रजबासिनी स्त्री ? कोन ब्रजक ? की ?'
-' तों मात्र राधा छें | राधा ! तें हमर सबकिछु छें | तोहर उत्तर हमहूँ नहिं | ई तँ अछि बूझल
जे राधा माने-जे निवारण करय कृष्णक बाधा ।'
-'अहाँ सब बेर एहिना ठट्ठा मे उड़ा दैत छी कृष्ण हमर बात ।' खिसिया गेलखिन राधा-
-ई नीक बात? कहू थिक नीक लोकक काज?'
-तोरा के कहलकौ जे हम छी नीक लोक, तमसाहि छौंड़ी ?'
बिहुँसैत कहैत कृष्ण लगब' लगलखिन राधा कें गुदगुद्दी ।
तकरे बरजैत काल घुरि अएलनि चेतना, जेना....
ई केहन दुविधा , मोनक ई की दशा ?
एखन एहि पल दिन अछि कि राति तेकरो बोध नहि बांचल ।
अन्हार छी बैसलि कि इजोत मे तकरो अंदाज नहि।
बैसलि छी बा ठाढ़ि, बुझाइओ नहि पड़ैछ।
प्रगाढ़ निन्न मे छी देखि रहल कोनो स्वप्न बा
पड़लि निःश्चेष्ट भूमि पर सद्यः !
भरि गाम भ' गेलए निःशब्द, निर्बसात, आ कि निसभेर किंबा
साँठल भार जकाँ राखल भरि आँगन, से अंगने साँठि क'
पठा देल गेलय कोनो गाम, भार समेत ?
देह बड़ जरैए। जेठ-बैसाख मे आगि ताप' बैसि गेल होइ जेना ।
शरीर ।
मुदा ध्यान आएल यदि बुझा रहल अछि धाह आ ज्वाला तँ
यथार्थे छी। देहक बोध बाँचल अछि।अर्थात् देह बाँचल अछि। देह, कतहु
अछि।कोहनो स्थिति मे देह अछि। देह बुझा रहल अछि। भ' रहलए
किछु संचार -बुझबाक, किछु करबाक उचाबच । देह अछि, बैसल, ठाढ़,
सूतल-पड़ल जेना हो, अछि। तकबाक चाही। कोन स्थिति मे अछि
केबल ताप-धाहक बोध देहक अनुभव नहि होइत अछि। हँ मुदा,
धाहक-दुःखक माध्यमे देह-अनुभव मनुष्य-मन कें बेशी प्रत्यक्ष आ
तें यथार्थ क' बुझा दैत छैक आ ओकर आयु सेहो होइत छैक अपेक्षाकृत
बेशी । सुख बिलाई छैक, बिला जाइ छैक।
दुख जीवन में रहि जाएत छैक।
चुपचाप अपन कोनो कोन में उपेक्षा-सैंतल अपना के रूपांतरित करबाक मनोव्यनहार में भऽ जाइत छैक,
मनुक्ख के आत्मसात...दुखऽक रूप में ओकर विलय चेतना में ताहि अनुपात औऱ शैली में होयत छैक जो स्वयं ओ शरीर अर्थात मन-मस्तिष्क-चेतना के पर्यंत नहि होइत छैक तेकर अनुमान , अनुभव, बा ठेकान...। सुख जेंका विला के नहि स्वय के मनुक्ख जोग्य. बना कऽ, दुख बनैत अछि उपयोगी, सृष्टा और अक्शुण्ण प्रेम मार्गक बटखर्चा ।
सदा संबल। दुख स्वयं संग लोकके बदलैत अछि तैं अपन अस्वीकार्यता-अग्राह्यता में पर्यंत वैह होइत अछि श्रेयस्कर, मनुक्ख बाट के लक्श्य धरि लो जेबाह में ओकरे दिशा निर्देश होइत अछि, बेशी उपयुक्त ।
चैन छीनब सतत चैन छिनबे नहिं थिक। चैन छीनब बैचेन करबाक एकटा प्राकृतिक उपाय थीक, ई उपाय तुच्छता सऽ विशेष संऽ संजोग आर मुक्तिक सीढी बनिकऽ अपन काज करति अछि । अपन काज करति रहैत अछि। दुख के माहुर जेकां केला से उपयोग दुख हेय भ जायत अछि। हेयता मनुक्ख स्वभावक अंहार पक्ष होयत अछि। उच्चता आ उत्थाने होयत अछि ओकर स्वाभाविक उत्कर्ष। मनुक्ख भौतिकता सऽ लऽ कऽ अध्यात्म पर्यंत करैत चलैये अपना -अपना रुचि, सुख आर कर्तव्य सं अपन पथक निर्धारण - निर्माण...एहि में सऽ कतहु प्रकट होयत अछि रचना ….अपन संपूर्ण शरीर मोनक स्पंदन लेने, भीजल-तीतल सर्वांग उल्लसित मुख मंडल लऽ...को खन अतिचिंतित विश्वबोध सऽ जेना कालिया दह में प्राण लेबाक चिंता आर क्लेश में छोड़ि जानि नहि कतेक काल डूबल रहि गेला, जमुना में श्रीकृष्ण।कतेक काल....!जेना कै जुग-आ जमुना तर सऽ नथने नाग जखेन ऊपर भेला उल्लसित मुखमंडल आर भीजल शरीर संग, तखन ते नहल-भीजल छल डांढ़ में खोंसल बंसुली सेहो हुनकर... शरीर।
तं की हमर अपनो कोनो अछि कालिया, नितांत कोनो अप्पन ?
मुदा ध्यान आयल यदि बुझा रहल अछि धाह आ ज्वाला तं
यथार्थे छी। देहक बोध बाँचल अछि।अर्थात् देह बाँचल अछि। देह, कतहु
अछि।कोहनोस्थिति मे देह अछि। देह बुझा रहल अछि। भ' रहलए
किछु संचार -बुझबाक, किछु करबाक उचाबच । देह अछि, बैसल, ठाढ़,
सूतल-पड़ल जेना हो, अछि। तकबाक चाही। कोन स्थिति मे अछि
केबल ताप-धाहक बोध देहक अनुभव नहि होइत अछि। हँ मुदा,
धाहक-दुःखक माध्यमे देह-अनुभव मनुष्य-मन कें बेशी प्रत्यक्ष आ
तें यथार्थ क' बुझा दैत छैक आ ओकर आयु सेहो होइत छैक अपेक्षाकृत
बेशी । सुख बिलाई छैक, बिला जाइ छैक।
दुख जीवन में रहि जाएत छैक।
चुपचाप अपन कोनो कोन में उपेक्शा सैंतल अपना के रूपांतरित करबाक मनोव्यनहार में भऽ जाइत छैक,
मनुक्ख के आत्मसात...दुखऽक रूप में ओकर विलय चेतना में ताहि अनिपात औऱ शैली में होयत छैक जो स्वयं ओ शरीर अर्थात मन-मस्तिष्क-चेतना के पर्यंत नहि होइत छैक तेकर अनुमान , अनुभव, बा ठेकान...। सुख जेंका विला के नहि स्वय के मनुक्ख जोग्य. बना कऽ, दुख बनैत अछि उपयोगी, सृष्टा और अक्शुण्ण प्रेम मार्गक बटखर्चा ।
सदा संबल। दुख स्वयं संग लोकके बदलैत अछि तैं अपन अस्वीकार्यता-अग्राह्यता में पर्यंत वैह होइत अछि श्रेयस्कर, मनुक्ख बाट के लक्श्य धरि लो जेबाह में ओकरे दिशा निर्देश होइत अछि, बेशी उपयुक्त ।
चैन छीनब सतत चैन छिनबे नहिं थिक। चैन छीनब बैचेन करबाक एकटा प्राकृतिक उपाय थीक, ई उपाय तुच्छता सऽ विशेष संऽ संजोग आर मुक्तिक सीढी बनिकऽ अपन काज करति अछि । अपन काज करति रहैत अछि। दुख के माहुर जेकां केला से उपयोग दुख हेय भ जायत अछि। हेयता मनुक्ख स्वभावक अंहार पक्ष होयत अछि। उच्चता आ उत्थाने होयत अछि ओकर स्वाभाविक उत्कर्ष। मनुक्ख भौतिकता सऽ लऽ कऽ अध्यात्म पर्यंत करैत चलैये अपना -अपना रुचि, सुख आर कर्तव्य सं अपन पथक निर्धारण - निर्माण...
एहि में सऽ कतहु प्रकट होयत अछि रचना
अपन संपूर्ण शरीर मोनक स्पंदन लेने, भीजल-तीतल सर्वांग उल्लसित मुख मंडल लऽ...को खन अतिचिंतित विश्वबोध सऽ जेना कालिया दह में प्राण लेबाक चिंता आर क्लेश में छोड़ि जानि नहि कतेक काल डूबल रहि गेला, जमुना में श्रीकृष्ण।
कतेक काल....!
जेना कै जुग-आ जमुना तर सऽ नथने नाग जखेन ऊपर भेला उल्लसित मुखमंडल आर भीजल शरीर संग, तखन ते नहल-भीजल छल डांढ़ में खोंसल बंसुली सेहो हुनकर...
राधा देहक पसेना अनेरे भ' गेलनि बर्फक बनल सरिसो दाना,मेंही-मेंही कण चकचक सटल ऊर्ध्वांग ।बनबैत देह-मन शीतल, दैत दुर्लभ चैन, शान्ति आ सहन करबा योग्य सम्पूर्ण अपार वर्तमान, जे एखनि किछए पल पहिने धरि छलनि अस्तित्व कें अनाथ छोड़ने, जानि ने कत'? घुरि क' आबि अंकबारने छनि गसिया क' परम प्रिय सखि गंगा सन प्रगाढ़। कनफुसकीए पूछि रहल छनि-श्रीकृष्णक विषय। राधाक सम्पूर्ण अस्तित्व मे ध्वनित, अनुध्वनित-प्रतिध्वनित छथि आब-वैह नाग नाथि एखनहि यमुना सँ बहार भेल-श्रीकृष्ण ।....
-' ई एना नोर किएक बहए लागल असोधार? ककर थिक ई दिव्य आँगुरक हाथ ? के पोछि रहलए हमर नोर ?
कहाँ सँ ध्वनित भ' रहल लगातार- किएक कनैत छें राधा, किएक करैत छें एतेक दुःख ? नोर सेहो ओतेक निरर्थक
नहि राधा। तोरा-कम सं कम तोरा तं बूझल छौक । तोहूं भ' जएबें तेहन साधारण-बुद्धि ? नहि कान राधा। शान्त हो, स्थिर ।
-' केऽऽऽ केऽऽऽऽऽ?'
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