भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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मिथिला एकटा भौगोलिक इकाइ छल अति प्राचीन कालसँ। यजुर्वेदक समयसँ ‘मैथिल’ शब्द एक संस्कृतिक परिचायक छल आ मिथिलाक भौगोलिक इकाईक अंतर्गत जे केओ रहैत छलाह से ‘मैथिल’ कहबैत छलाह। अधुना एकर अर्थ दोसर लेल जाइत अछि परञ्च प्राचीन कालमे से बात नहि छल। मैथिल संस्कृतिक विकास कालक्रमेण होइत गेलैक आ ‘मैथिलत्व’ जे अपन एकटा व्यक्तित्व छैक तकर पूर्णोत्कर्ष विद्यापतिमे आबिकेँ भेल।
प्राचीन कालक मिथिक संतान माथव कहौलन्हि आ ओहिसँ ‘मैथिल’ शब्दक आविर्भाव भेल। अर्जुन आ श्रीकृष्णक मध्ये भेल गप्पसँ ‘मैथिल’क चित्र स्पष्ट होइछ। एहिठाम विदेह जनकक कर्मानुष्ठानपर बल देल गेल अछि। शतपथ ब्राह्मणक निर्माण मैथिलक हाथे भेल सेहो कहल जाइछ। याज्ञवल्क्यकेँ एकर श्रेय देल जाइत छन्हि–“याज्ञवल्म्योहि मैथिलः”। ब्राह्मण युगमे विदेहक राज्यसभामे याज्ञवल्क्यक सभापतित्वमे वेदमहर्षिगण गूढ़ धर्मतत्वक निर्णय करैत छलाह। मिथिलेकेँ न्यायशास्त्रक उदगम–स्थल मानल गेल अछि आ परम्परानुसार गौतम एवँ कणादकेँ मैथिल कहल गेल छन्हि। मिथिलामे राजर्षिविद्या, सिद्धविद्या, राजविद्या, एवँ आर्षविद्याकेँ क्रमशः वैज्ञान, ज्ञान, ऐश्वर्य एवँ धर्मक नामसँ सम्बोधित कैल गेल अछि। मिथिलामे बुद्धियोगक प्राधान्य रहल अछि। श्रीकृष्ण कर्मानुष्ठानक रूपमे विदेह जनककेँ आदर्श मनने छथि। विद्याकेँ मिथिलाक वैभव मानल गेल अछि।
उपनिषद् कालमे मिथिला विदेहक नामे ज्ञात छल। बृहदारण्यकमे जनककेँ विदेहक राजा कहल गेल छन्हि। विद्या आ दानक हेतु ओ सुप्रसिद्ध छलाह। अपन समकक्षीक मध्य ओ अद्वितीय छलाह। भौतिक दृष्टिकोणसँ सेहो विदेह एकटा सुसंपन्न राज्य छल आ एहिठाम आध्यात्मिक एवँ विद्वतपूर्ण विकासक संभावना विशेष छल। जनक बहुदक्षिणा यज्ञ केने छलाह जाहिमे दूर–दूर देशसँ ब्राह्मण लोकनिकेँ आमंत्रित कैल गेल छलन्हि आ ओहिठाम कुरू–पाँचालक ब्राह्मण सेहो आएल छलाह। वैदिक कर्मकाण्डक प्रधान केन्द्र छल मिथिला ताहि दिनमे। जनक ब्राह्मणकेँ गाय आ सोना दानमे दैत छलाह। ब्रह्मविद्याक गूढ़ तत्वक विश्लेषणक हेतु हिनका दरबारमे एकटा बृहत् जमघट भेल छल विद्वानक जाहिमे ताहि दिन सबटा प्रसिद्ध विद्वान सम्मिलित भेल छलाह। जनक स्वयं एक पैघ दार्शनिक छलाह। एहि जमघटमे याज्ञवल्क्य, आर्तभाग, लाह्यायनी, भुज्य, चाक्रायण, उषस्त, कौषितकेय कहोल, गार्गी, आरूणी उद्दालक एवँ शाकल्य आदि विद्वान उपस्थित छलाह। बेरा–बेरी याज्ञवल्क्य एहिमे सभकेँ पराजित केलन्हि। जनक याज्ञवल्क्यक विद्वतासँ प्रभावित भेला आ हुनका अपना ओतए रखलन्हि। याज्ञवल्क्यक दूटा पत्नी छलथिन्ह मैत्रेयी आ कात्यायनी। विदेहक लोग विशेष विद्या प्रेमी होइत छलाह। स्त्री शिक्षा सेहो बड्ड प्रचलित छल। मैत्रेयी विदुषी छलीह। गार्गीक विद्वताक प्रशंसा तँ बृहदारण्यकमे अछिये। गार्गी याज्ञवल्क्यक संग विवादमे भाग लेने छलीह। याज्ञवल्क्य स्मृतिमे कहल गेल अछि–
जनक वंशक राजा सभ योगीश्वर याज्ञवल्क्यक प्रसादे ब्रह्मज्ञानी भेलाह–
“एते वै मैथिला राजन्नात्म विद्या विशारदः
योगीश्वर प्रसादेन द्वर्न्यैमुक्ता गृहेष्वपि”
व्यासक पुत्र शुकदेवजी मिथिलेमे ब्रह्मविद्याक शिक्षा प्राप्त केने छलाह। गीतामे श्रीकृष्ण कहने छथि–
“कर्मणैवहि संसिद्धि मास्थिता जनकादयः”
एहि सभ तथ्यसँ मात्र एतबे संकेत देल गेल अछि जे मैथिल संस्कृतिक नींव वैदिक युगमे पड़ल आ ओकर बहुमुखी विकास भेल। एक सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्रक भौतिक सुविधाक आधारे इ विकास संभव भेल होएतैक एहिमे सन्देह नहि कारण जाधरि चारूकात सुरक्षा एवँ शांति नहि रहैत छैक ताधरि आध्यात्मिक चिंतनक हेतु वातावरण उपयुक्त नहि बुझल जाइत छैक। समस्त ब्राह्मण साहित्य एवँ उपनिषद् मैथिलक कृतित्वक प्राचीनकालक गवाही थिक जकर अवहेलना मिथिलाक साँस्कृतिक इतिहासक अध्ययनक क्रममे नहि कैल जा सकइयै। मिथिलाक सीमाक सम्बन्धमे विवाद भने हो मुदा मैथिली संस्कृतिक प्रवाह जे अविच्छिन्न चलैत रहल अछि आ जकर चरमोत्कर्ष विद्यापतिमे भेलैक ताहिमे सन्देहक कोनो गुंजाइश नहि अछि। अति प्राचीनकालसँ एखन धरि मिथिलाक भूमि संस्कृतिक एक विशिष्ट केन्द्र रहल अछि आ संस्कृतिक ओहि पातर डोरीसँ बान्हल अझुको मिथिलावासी निर्वाह कऽ रहल छथि। ओहि संस्कृतिक अपन जे वैशिष्टय छैक तकर निखार अखनो धरि पूर्णरूपेण नहि भेल छैक। एकर वैशिष्टयक विस्तृत विवरण महाभारतमे भेल अछि–
“मैथिलस्य”– शब्दक व्यवहार एहि कथनकेँ पुष्ट करैत अछि। बौद्ध आ जैन साहित्यमे सेहो मैथिलक विशिष्टता सुरक्षित अछि। अश्वघोष अपन बुद्धचरितमे लिखने छथि–
मिथिलाक तीर्थ सभहिक नामक विवरण सेहो रामायण, विष्णुपुराण, स्कन्दपुराण आदि ग्रंथ सभमे भेटइत अछि। अगस्त्य रामायणमे निम्नांकित वर्णन अछि–
“वैदेहो पवन स्यांते दिश्यैशान्यां मनोहरम्।
विशालं सरस्तीरे गौरीमंदिरमुतमम्॥
वैदेही वाटिका तत्र नाना पुष्पसुगुम्फिता।
रक्षिता मालिकन्याभिः सुर्वर्तुसुखदाशुभा॥
प्रभाते प्रत्यहंतत्र गत्वा स्नात्वालिभिः सह।
गौरीमपूजयत्सीता मात्राज्ञप्ता सुभक्तितः”॥
स्कन्दपुराण:-
“आसीद् बह्मपुरी नाम्ना मिथिलायाँ विराजिता।
तस्यां लसति धर्मात्मा गौतमोनाम् तापसः॥
अहल्यानाम तत्पली पतिभक्ता प्रियंवदा।
सर्वलक्षण सम्पन्ना सासीत्सर्वांगसुन्दरी”॥
बृहद विष्णुपुराण:-
“गौतमस्या श्रमे याम्ये पातालोस्थित पाथसि।
स्तात्वाकुण्डेनमेद्भक्तया ययुः पाठफलंलभेत्”॥
“विभाण्डको महायोगी दक्षिणो निवसत्यसौ।
गौतमस्याश्रमात्पुण्याधाम्य पश्चिम कोणके”॥
एहिसँ स्पष्ट अछि जे विभाण्डक मुनिक आश्रम गौतमाश्रमसँ सटले छल। मिथिला मात्र अध्यात्म विद्येटामे नहि अपितु शस्त्र आ शास्त्र दुहुक हेतु प्रसिद्ध छल। पराशर मैत्रेय संवादमे कहल गेल अछि जे सभ ठाम आ सभ समयमे जाहिठाम शत्रुक मथन होइत हो उएह जनक निर्मित मिथिला थिक।
“अंतोवहिश्च सर्वत्र मथ्यंते रिपवः सदा।
मिथिला नाम सा ज्ञेया जनकैश्च कृता मही”॥
एहि पक्षपर रामायणमे सेहो विशद् विश्लेषण भेल अछि। जनक विषय विरागी रहितहुँ राज–काज किंवा साँसारिक कर्तव्यसँ कथमपि विमुख नहि रहैत छलाह। तैं तँ हुनका राजर्षि, जीवन्मुक्त, योगी आ विदेह कहल गेल छन्हि। रामायणमे कहल गेल अछि जे राजा सुधन्वा मिथिलापर घेरा डालिकेँ शिवधनुष जनकक ओहिठाम पठाकेँ पद्माक्षी सीताक याचना केलन्हि। जनक एहिबातकेँ नहि मानलन्हि जकर नतीजा भेल युद्ध। राजा सुधन्वाकेँ मारि ओ साँकाश्यमे अपन वीर भ्राता कुशध्वजक अभिषेक केलन्हि। एहिसँ स्पष्ट अछि जे जनक व्यावहारिक सेहो छलाह।
वैशाली अपन गणतांत्रिक शासन पद्धतिक हेतु विश्वविख्यात छल एवँ जैन धर्म आ बौद्ध धर्मक प्रसार केन्द्रक हेतु सेहो। वैशालीक गरिमासँ स्वयं गौतमबुद्ध एतेक प्रभावित छलाह जे एहि स्थानकेँ ओ तावतिंश देवसँ तुलना कएने छथि। वैशाली लोकनि नागरिकताक कलामे अपना समयमे अपूर्व छलाह आ ताहि दिनमे चारूकात हिनक यश छिड़िऐल छल। चम्पारण तँ सहजहि वैदिक कालहिसँ प्रसिद्ध साँस्कृतिक केन्द्र छल। लौरिया नंदनगढ़मे ८०फीट उँच्च स्तुप भेटल अछि आ ओहिठाम वैदिक समाधिभूमिक टिलहासँ एकटा स्वर्णपत्रपर अंकित पृथ्वीमाताक चित्र भेटल अछि जे कैक मानेमे अपूर्व अछि। ओहिठाम एकटा अशोकक स्तंभ सेहो अछि जाहिपर अशोकक धर्मोपदेश अंकित अछि। आधुनिक युगोमे महात्मा गाँधी अपन अहिंसात्मक संघर्षक प्रयोग सेहो एहिठामसँ प्रारंभ केने छलाह। ‘हरिहर क्षेत्र’ मिथिलाक एकटा महान धार्मिक केन्द्र मानल गेल अछि आ पुराणक अनुसार गजग्राहकक युद्ध एतहि भेल छल। धार्मिक आर्थिक आ सामाजिक बिकासक क्रममे मिथिलाक विशिष्ट योगदान रहल अछि। एहिठाम इ उल्लेख करब आवश्यक बुझना जाइत अछि जे दरभंगाक महाराज स्वर्गीय रमेश्वर सिंहक सत्प्रयासे हरिद्वारमे गंगा नहरक बाँधकेँ कटबाओल गेल आ गंगाक रूकल प्रवाहकेँ पुनः भगीरथ–खातमे आनल गेल जाहिसँ हमरा लोकनिकेँ गंगाक दर्शन भरहल अछि। मिथिलामे हुनका ‘अपर–भगीरथ’ कहल जाइत छन्हि। जखन खादीक आन्दोलन प्रारंभ भेल तखन अखिल भारतीय खादीक केन्द्र मधुबनीमे स्थापित भेल आ अद्यावधि ओ चलल आबि रहल अछि आ खादीक प्रामाणिकताक हेतु मधुबनीक नाम आवश्यक मानल जाइत अछि। ओना मधुबनी हस्तशिल्प आ कुटिरशिल्पक हेतु सेहो प्रसिद्ध अछि।
मिथिलाक संस्कृतिक विकास कोनो एक दिनमे अथवा एक ठाम नहि भेल छल। मिथिलाक सीमा काफी विस्तृत छल आ एकर सभ क्षेत्र सारणसँ महानंदा धरि कोनो ने कोनो रूपें मैथिल संस्कृतिक विकासक श्रोत छल। जैन आ बौद्ध साहित्यक अतिरिक्त आरो बहुत रास साहित्यिक साधन अछि जाहिमे मिथिलाक संस्कृतिक विवरण भेटइत अछि आ जकर मूल्याँकन अद्यावधि नहि भऽ सकल अछि। मैथिल संस्कृतिक विशिष्ट अध्ययनक हेतु एक एहेन दलक आवश्यकता अछि जे वर्षौ एहि काजक हेतु अपनाकेँ समर्पण कऽ दैथि आ तखने एकर सर्वांगीण अध्ययन संभव भऽ सकत। सोमदेवक ‘यशस्तिलक चम्पू’मे हमरा लोकनि ‘तिरहूत रेजिमेंट’क उल्लेख भेटइयै जाहिसँ बुझना जाइत अछि जे एहिठामक निवासी युद्ध विद्यामे सेहो निपुण होइत छलाह आ एहिठामक ‘रेजिमेन्ट’क विशेष महत्व रहैत छल। साहित्यक क्षेत्रमे ‘मैथिल रीति’क उल्लेख भेटइत अछि जे एहि बातक द्योतक थिक जे गौड़ीय आ ‘वैदर्भी रीति’क अतिरिक्त एकटा ‘मैथिल रीति’ सेहो एकटा स्कूलक प्रतिनिधित्व करैत छल। कलामे मिथिलाक अपूर्व योगदान रहल अछि। हस्तकला, शिल्पकला, चित्रकला, आदि जे हेवनिमे अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त केलक अछि। मैथिलत्वक अपन विशेषता तँ एहने छलैक जे विद्यापति बाध्य भए एहि गुणकेँ अपन ‘पुरूष परीक्षा’मे वर्णन केने छथि। ‘विद्यापति’मे आबिकेँ मैथिल संस्कृति अपन चरमोत्कर्षपर पहुँचल आ मैथिलक व्यक्तित्वक शुद्ध रूपें निखार ओहिठाम आबिकेँ भेल।
बिहारक आन भागक अपेक्षा मिथिलेटा एकटा एहेन क्षेत्र अछि जकर अपन साँस्कृतिक वैशिष्ट्य अखन धरि बनल छैकि आ जकर एकटा साँस्कृतिक खण्ड कहल जा सकैत अछि–अपन लिपि, अपन कला, अपन सामाजिक संस्कार, अपन भौगौलिक इकाई, अपन साहित्य एवँ अपन कानूनक स्कूल तथा परम्परा एकरा एखनहुँ अपन व्यक्तित्व प्रदान केने छैक जे आन कोनो क्षेत्रमे नहि देखबामे अवइयै। रहन–सहन, खान–पान, विधि–व्यवहार, नियम–परिनियम, सामाजिक दृष्टिकोण, आर्थिक समानता आ भाषा एवँ साहित्यक श्रृखंलाबद्ध विकास क्रम तथा साँस्कृतिक गतिविधिक अविच्छिन्न प्रवाह एवँ एकरूपता मिथिलाक साँस्कृतिक परम्पराक द्योतक थिक आ इएह कारण थिक जे एकर व्यक्तित्वक वैशिष्टय अखनो धरि सुरक्षित अछि। ‘मिथिला’, ‘मैथिल’ शब्दसँ एकटा संस्कृतिक बोध होइत अछि आ एहि नामसँ हम अखिल भारतमे कतहु समादृत भऽ सकैत छी आ व्यक्तिगत रूपें हम भेलो छी। इ दुनू शब्द मात्र एकटा भौगौलिक क्षेत्रक द्योतक नहि अपितु एकटा संस्कृतिक द्योतक थिक जकर विकासक क्रमक प्रारंभ हमरा यजुर्वेदमे देखबामे अवइयै आ चरमोत्कर्ष विद्यापतिमे।
II.मिथिलाक संस्कृतिक विशिष्टता - अइपन
मिथिलाक चित्रकला (अइपन) :- मिथिलाक अरिपन आब एकटा विश्वकलाक रूपमे परिवर्त्तित भए स्वीकृत भऽ चुकल अछि आ मैथिली कलामे दक्ष लोकनिकेँ आब सरकारी उपाधि सेहो भेटए लागल छन्हि। ‘अरिपन’ शब्दक विकास आलेपन अथवा आलिम्पणसँ भेल अछि–‘आलेपन’ 64कलामे सँ एक कला मानल गेल अछि जकरा हमरा लोकनि चित्र अथवा शिल्पकला कहि सकैत छी। अरिपन देबाक प्रथा तँ प्राचीन कालहिसँ चलि आबि रहल अछि। प्रत्येक शुभ कार्यमे कोनो ने कोनो रूपें अरिपन देबाक प्रणाली प्राचीन कालहुँमे छल। शुभ कर्मक अवसरपर ‘सर्वतोभद्र’, ‘स्वस्तिक’, ‘षोड़सदल’, ‘अष्टदल’, आदि एकरे प्रभेद मानल गेल अछि आ एकर प्रमाण हमरा प्राचीन साहित्यमे सेहो भेटइत अछि। निम्नलिखित उद्धरण सभसँ प्रमाण भेटत।
ब्रह्माण्ड पुराण:-
“विवाहो सर्वयज्ञेषु प्रतिष्ठादिषुकर्मषु।
निर्विघ्नार्थ मुनिश्रेष्ठ न थोद्वेगाद्भतेषुच॥
वासुदेव कथाभिश्च स्तोत्रैरन्यैश्चे वैष्णवैः।
सुभाषितैरिन्द्रजालैर्भूमिशोभाभिरैवः च”॥
भूमि शोभाक विवरण एहिठाम देखबामे अवइयै। इएह भूमि शोभाकेँ हमरा लोकनि अपना ओतए ‘अरिपन’ कहैत छी।
संस्कार रत्नमाला(भट्ट गोपीनाथ कृत):-
“लग्नाहेमातृकाः पूज्याः पूज्या गौरी हरान्विता।
पीठे वै तदलाभे तु सुश्लाक्षणे तण्डुलान्विते॥
पंकज कारयित्वा तु तंत्र गौरी हरौ यजेत्”॥
संस्थाप्य गणपं गौरी काञ्चनी काण्चने गजे।
कृत्वोपवासनियमं गजं गौरीञ्च पूजयेत्”॥
एहिठाम “सुश्लक्षण”, ‘ताण्डुलान्वित’ आदिसँ इ भान होइछ जे अरिपनक हेतु चाउर पीसिकेँ चौरठ बनाओल जाइत छल आ तखन ओकरा घेरिकेँ अरिपन देल जाइत छल। स्वनिर्मित गजक ऊपर गौरी आ गणपतिक पूजनक प्रसंगक विवरण भविष्यपुराण आदि अन्याय ग्रंथमे सेहो भेटइत अछि। एहि सभ साधनक आधारपर इ कहल जाइत अछि जे भूमिकेँ बढ़िया जकाँ नीपिकेँ ओहिपर मंडल आलेपन कए (अरिपन दए) नवघटक स्थापना करबाक चाही।
चण्डेश्वर कृत्यरत्नाकरमे लिखने छथि–
“पूजयेन्मंगलां तत्र मण्डले विधि वत्सदा”– अर्थात् अरिपन दऽ कए सदैव विधिपूर्वक मंगला देवीक पूजा करी। एहि प्रसंगमे निम्नलिखित ग्रंथ सेहो उल्लेखनीय बुझना जाइत अछि–
पूजा प्रकाश(वीरमित्र मिश्र):-
“पद्माष्ट दलं तत्र कर्णिका केसरोज्ज्वलम्।
उभाभ्याँ वेदतंत्राभ्याँ मध्ये तुभय सिद्धये”॥
पूजा प्रदीपमे गोविन्द ठाकुर लिखने छथि–“यंत्राधारमाश्रित्यैव पूजा विहिता”।
एकर आरो कतेक रास उदाहरण देल जा सकइयै मुदा स्थानाभावक कारणे एहिठाम ओतेक उद्धरण देब संभव नहि। पर्व भेदसँ नाना प्रकारक अरिपन मिथिलामे स्त्रीगण दैत छथि। अपन चिरंतन संस्कृतिक प्रभावक फलें एहिठाम स्त्रीगणमे इ कलाक विलक्षणता देखबामे अवइयै। प्रत्येक अवसरक फराक–फराक आलेपनक (अरिपनक) विधि छैक। विवाहोत्तर महुअकक शुभ अवसर जे दूटा पुरैनी पातक आकारक अरिपन देल जाइत अछि से भेल वर–वधुक अविच्छिन्न सम्बन्धक प्रतीक। ठीक ओहिना कोजागराक अवसरपर लक्ष्मीपूजासँ सम्बन्धित अरिपन मखानक तीन पातक आकारक बनाओल जाइत अछि। पृथ्वी पूजाक अवसरपर त्रिकोण यंत्राकारदेवोत्थानमे प्रवोधिनी, साँझक ‘मंदिराकार’ आ तुलसी पूजाक अरिपनक अलग विधान अछि। सभ पर्वपर अलग–अलग अरिपन देबाक परिपाटी मिथिलामे अद्यपर्यंत अछि। सत्यनारायण पूजाक अवसरपर जे ‘चौशंख’ अरिपन देल जाइत अछि से बड्ड मार्मिक अछि–‘चौशंख’ चतुर्भुज भगवानक द्योतक थिक। पष्ठी देवीक पूजाक अवसर ‘कमलाकार’ अरिपन देबाक प्रणाली अछि। देवोत्थान (प्रवोधिनी)क सम्बन्धमे चण्डेश्वर लिखैत छथि–
विवाह, श्राद्ध, पूजा आदि अवसरक हेतु विविध प्रकारक अरिपन लिखबाक व्यवस्था मिथिलामे प्राचीन कालसँ चलि आबि रहल अछि। विवाहक सप्तपदी प्रकरणक प्रसंगमे सेहो आलेपनक उल्लेख भेटइत अछि। आलेपन शब्दक व्याख्या शब्दकल्पद्रूममे सेहो भेल अछि। विद्यापति एकर उल्लेख एवँ प्रकारे केने छथि।
“ललातरूअर मंडप जीति, निरमल ससधरधवलए भीति।
हरि जब आओब गोकुलपुर, घरे–घरे नगर बाजए जयतूर।
अलिपन देओब मोतिमहार, मंगलकलसक करब कुचगर”॥
वैदिक युगहिसँ मिथिलामे सभटा मांगलिक कार्य सर्वतोभद्रादिमंडलेपर होइत छल। ओना अरिपनक परिपाटी तँ समस्त भारतमे कोनो ने कोनो रूपें अछिये मुदा एहिकलामे मिथिलाक अपन एकटा वैशिष्ट्य छैक। हरिद्रा–कुंकुम–केसर आदिक संग सिन्दूरक संग अरिपन देबाक परिपाटी मिथिलेटामे अछि। मिथिलाक लोक चित्रकलामे अपन एकटा सादगी अछि। इ कला सनातन कालसँ प्रवाहित होइत आएल अछि। मिथिलाक एहिकलामे उन्मुक्त भावना एवँ परिष्कृत शैली, नैसर्गिक अभिव्यंजना एवँ सुरूचिक जे समन्वय देखबामे अवइयै से आनठाम भेटल असंभव। लोक संस्कृतिक एहेन प्राँजल प्रसाद आ कत्ते भेटत? कहल जाइत अछि जे स्वस्तिक अरिपनक प्रारंभ वैदिक युगहिमे भेल छल। ‘सर्वतोभद्र’ आ ‘स्वस्तिक’केँ एक्के मानल गेल अछि। मिथिलामे प्रचलित ‘अरिपन’ आ अन्यान्य चित्रशैलीकेँ ‘मिथिला शैली’क नामसँ सेहो जानल गेल अछि। एकरा आधुनिक विद्वान लोकनि “मिथिला स्कूल आफ पेन्टिङ्ग” सेहो कहैत छथि आ अधुना एहि धरोहरकेँ संयोगिकेँ रखने छथि मैथिल करण कायस्थ आ ब्राह्मण ललना लोकनि। आर्थर महोदय एहि कलाक विशिष्ट अध्ययन केने छथि आ एहि सम्बन्धमे अपन मतो प्रकाशित केने छथि। एहि चित्रक अध्ययनसँ सामाजिक धार्मिक आदिक ज्ञान सेहो होइत अछि। अरिपन आ भित्ति चित्र कालजयी भए एखनो मिथिलाक घर–घरमे व्याप्त अछि।
एहिमे दू प्रकारक भेद अछि। भित्ति चित्र आ भूमि चित्र। भूमि चित्र अइपनक नामे प्रसिद्ध अछि। मिथिलाक सबटा शुभकार्यमे अइपन लिखबाक प्रथा अहुखन बनल अछि। वीरेश्वर एवँ रामदत्तक लेख सभसँ सेहो एहिबातपर प्रकाश पड़इत अछि। अइपनपर तंत्रक प्रभाव स्पष्ट अछि आ एकर कारण इ थिक जे मिथिला तंत्रक प्रधान केन्द्र छल आ अइपन ओकर यांत्रिक प्रकाश थिक। मैथिल निबन्धकार लोकनि एकर महत्वक विश्लेषण अपना लेख सभमे केने छथि।
संगीत:- संगीत मैथिल संस्कृतिक एकटा अभिन्न अंग मानल गेल अछि। प्राचीन कालहिसँ मिथिलामे संगीतक पद्धति चलि आबि रहल अछि। १४हम शताब्दीमे मिथिलामे संगीतपर सिंह भूपाल “संगीत–रत्नाकर–व्याख्या” नामक ग्रंथ लिखने छलाह। १६हम शताब्दीमे जगद्धर ‘संगीत सर्वश्व’ नामक ग्रंथ लिखलन्हि आ ओकर तुरंत बाद खड़गराम आ कल्लीराम “लच्छिराघव” नामक ग्रंथक रचना केलन्हि। लोचनक रागतरंगिणी तँ सर्व प्रसिद्ध अछिये जकर उल्लेख पूर्वहि भेल अछि।
मिथिलामे संगीतक प्रारंभ वैदिक गानसँ मानल जाइत अछि। गौतम, भृगु, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य आदिक आश्रममे वैदिक यज्ञ आ गान सदैव होइत रहैत छल आ ओ परम्परा मिथिलामे बहुत दिन धरि बनल रहल। जनक विदेहकेँ राजदरबार तँ सहजहि एकर आश्रय केन्द्र छल। वैदिक गानमे ऋगवेदक मंत्रसमूह गाओल जाइत छल। सामवेदक गानक निर्माणमे मिथिलाक अपूर्व योगदान अछि। याज्ञवल्क्य संगीत विद्याकेँ मुक्तिमार्गक साधन मनैत छलाहे–“वीणा वादन तत्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः। तालज्ञश्चा प्रयासेन मुक्तिमार्गेनिगच्छति”॥ वैदिक गानमे जकरा स्वरमण्डल कहल गेल अछि ओहि समूहक सात स्वरकेँ (स,री,ग,म,प,ध,नी) सप्तक कहल गेल अछि। संगीतक इ सात स्वर अपन–अपन स्थानपर निश्चित बनल अछि। एहि सात स्वरक फेर अलग–अलग समूह सेहो होइछ। १६म–१७म शताब्दीमे दामोदर मिश्र छ टा रागक स्थापना केलन्हि। एक–एक रागक पाँच–पाँचटा रागिणी एवँ हुनक आठ–आठ पुत्र आ आठ–आठ पुत्रवधु। ओ रागकेँ पुरूष आ रागिणीकेँ स्त्री मनलन्हि। भैरव, मालकोष, हिंडोल, दीपक, मेघ आ श्री– इ छ टा राग भेल। ‘गीत गोविन्द’केँ प्रबन्ध काव्यक गानक रूपमे मानल गेल अछि। “वाग्देवता चारित्रचित्रित चित्रसद्मा....करोति जयदेव कवि प्रबन्धम्”।
ओकर बाद एहि श्रेणीमे विद्यापति ठाकुरक पद्मावली सेहो अबैत अछि। विद्यापति स्वयं एक पैघ संगीतकार छलाह। मिथिलामे ‘नचारी’ आ ‘लगनी’ अहुखन प्रसिद्ध अछि। मिथिलामे संगीतक मुख्य केन्द्र रहल अछि दरभंगा। आइन–ए–अकबरीमे विद्यापतिक नचारीक उल्लेख अछि आ संगहि ६रागक ६–६रागिणीक उल्लेख सेहो अछि। पचगछिया मिथिला संगीतक एकटा प्रधान केन्द्र अद्यावधि मानल जाइत अछि। एहिठामक रायबहादुर लक्ष्मीनारायण सिंहक दरबारमे माँगन खबास सन प्रसिद्ध गबैया रहैत छलाह। एहि सम्बन्धमे हम पहिने बहुत किछु लिखि चुकल छी तैं ओकरा एहिठाम दोहरैब आवश्यक नहि बुझना जाइत अछि।
III.मैथिल संस्कृतिक स्तंभ–
मैथिल संस्कृतिक किछु प्रमुख स्तंभ:-
i)गौतम– मिथिलाक ब्रह्मपुर गाँवक रहनिहार छलाह। गौतम कुण्ड एवँ अहिल्या स्थानसँ हुनक सम्बन्ध बताओल जाइत अछि।
ii)याज्ञवल्क्य– हिनका सम्बन्धमे मतभेद अछि मुदा हिनको मैथिल कहल गेल अछि। महाराज जनकक समकालीन आ योगी छलाह। इ अपनाकेँ “मिथिलास्यीस्स योगीन्द्रः” कहने छथि। हिनक पत्नी मैत्रेयी वेदांतक विदुषी छलथिन्ह।
जगद् ध्रुवं स्याज्जगद् ध्रुवं आ कीराङ्गनायत्र गिरोगिरंति।
द्वारस्थनीडाङ्गणसान्नेरूद्दा जा नीहि तन्मण्डन मिश्र धाम”॥
v)वाचस्पति– अद्वितीय दार्शनिक जनिक ‘भामती’ दर्शनक क्षेत्रमे अपूर्व ग्रंथ मानल गेल अछि। इ सर्वतंत्र स्वतंत्र विद्वान छलाह आ पूर्वी मिथिलाक निवासी छलाह।
vi)उदयनाचार्य– ओना तँ करिऔनक निवासी कहल जाइत छथि मुदा पूर्वी मिथिलाक निवासी हेबाक प्रमाण सेहो हिनका सम्बन्धमे भेटइत अछि। ओ पैघ दार्शनिक छलाह आ हिनक निम्नोक्त गर्वोक्ति प्रसिद्ध अछि–
“वयमहि पदविद्यां तर्क मान्वीक्षिकींवा
यदि पथि विपथे आ वर्त्तयामस्सपंथा॥
उदयति दिशि यस्यां भानुमान् सैव पूर्वा
नहि तरणिरूदीते दिक्पराधीन वृत्तिः”॥
हिनक लिखल अनेक ग्रंथ उपलब्ध अछि आ ओ एक विश्वविख्यात दार्शनिक छलाह। मिथिलाक प्रसिद्धिक प्रसारमे हिनक योगदान ककरोसँ कोनो हालतमे कम नहि अछि। कहल जाइत अछि जे जगन्नाथ धाम जेबाक कालमे हिनका मोनमे इश्वर सम्बन्धी संकल्प–विकल्प होमए लागल आ जगदीशपुरी नामक स्थानमे जखन ओ एक मंदिरमे प्रवेश केलन्हि तखन एकाएक मंदिरक केबार बन्द भऽ गेल। इश्वरक प्रति हुनक आस्था बढ़ि गेलन्हि आ ओ लिखलन्हि–
उपस्थितेषु बौद्देषु मदधीना तवस्थितिः
ऐश्वर्य्य मदमत्तस्सवं मामवज्ञाय वर्त्तसे॥
vii)गंगेश उपाध्याय– मंगरौनी निवासी गंगेश न्याय–शास्त्र दुधर्ष विद्वान भेल छथि आ हिनक प्रसिद्ध ग्रंथ “तत्वचिंतामणि” अपना विषयक अद्वितीय ग्रंथ मानल गेल अछि। नव–न्यायक जन्मदाता इ छलाह जाहि हेतु मिथिला जगत्प्रसिद्ध भेल।
viii)अभिनव वाचस्पति– धर्मशास्त्रज्ञ आ दार्शनिक छलाह आ मिथिलाक धर्मशास्त्र साहित्य एवँ न्याय आ कानूनक सुदृढ़ करबामे हिनक अपूर्व योगदान रहल छन्हि।
ix)पक्षधर मिश्र– तार्किकक संगहि संग न्याय–शास्त्रक अद्वितीय विद्वान छलाह। गंगेशक तत्व चिंतामणिपर हिनक टीका ‘आलोक’ सर्व विदित अछि। हिनके अनुमतिसँ रघुनाथ शिरोमणि नादियामे ‘नव–न्याय’क केन्द्रक स्थापना केने छलाह। तकरा बादहिसँ नादिया नव–न्यायक प्रसिद्ध केन्द्र भेल। इ ‘प्रसन्न राघव’ (नाटक) आ ‘चन्द्रालोक’ रचयिता सेहो छलाह आ हिनका सम्बन्ध कैक प्रकारक किंवदंती मिथिलामे अहुखन प्रचलित अछि–
“शंकर वाचस्पत्योः शंकरवाचस्पती सदृशौ।
पक्षधर प्रतिपक्षी लक्षीभूतो न च क्वापि”॥
x)शंकर मिश्र– भवनाथ मिश्र अयाचीक पुत्र शंकर मिश्र मिथिलाक साँस्कृतिक इतिहासक एकटा कीर्त्तिस्तंभ मानल गेल छथि। पाँच वर्षक अवस्था निम्नलिखित श्लोक सुनाकेँ मिथिलाक शासककेँ इ चकाचौंध कऽ देने छलाह–
“बालोऽहं जगदानन्दनमे बाला सरस्वती
अपूर्णे पंचमे वर्षे वर्णयामि जगत्त्रयम्”॥
जखन मिथिलाक शासक एकरा वर्णन करे कहलथिन्ह तखन ओ पूछलथिन्ह जे लौकिक अथवा वैदिक कोन रूपें–तखन महाराज कहलथिन्ह जे दुहु रूपें वर्णन करु–
“चकितश्चलितश्छन्नः प्रयाणे तव भूपते
सहस्त्रशीर्षा पुरूषः सहस्त्राक्षः सहस्रपात्”॥
एहिमे पहिल पांति स्वनिर्मित लौकिक संस्कृत थिक आ दोसर पांति वैदिक मंत्र थिक।
xi)विद्यापति ठाकुर– मिथिलाक संस्कृति चरमोत्कर्ष भेल महाकवि विद्यापति जे हमरालोकनिकमे रक्तमे अद्यतन समाहित छथि आ जिनका बिना मिथिलाक साँस्कृतिक इतिहासक कल्पनो करब असंभव अछि। मैथिल जनजीवनक एहेन कोनो अंश नहि अछि जाहिमे विद्यापति व्याप्त नहि होथि आ इ गौरव एहि रूपें संसारक आन कोनो कविकेँ प्राप्त नहि भेल छन्हि। जन्मसँ मृत्यु धरिक सामाजिक संस्कारोपर विद्यापति अद्यावधि व्याप्त छथि आ मैथिल संस्कृतिक विशिष्ट तत्वमे जे किछु एखनो बाँचल अछि तकर एकमात्र श्रेय विद्यापतिकेँ छन्हि। मैथिली संस्कृतिक ओ एहेन कीर्तिस्तंभ छथि जकर मूल्याँकन करब अखनो धरि संभव नहि भेल अछि।
ओ मैथिलकेँ ‘पुरूषार्थ’क पाठ पढ़ौलन्हि आ ‘सुपुरूष’क कल्पनाकेँ साकार करबामे समर्थ भेलाह। ‘पुरूष’क चरित्रक विभिन्न पक्षक विश्लेषण करैत ओ कहने छथि जे विद्या, बुद्धि आ विवेककेँ समुचित रूपें उपयोग केनिहार व्यक्तिये मानव कहा सकैत छथि। पुरूषार्थक अर्थे भेल मनुक्खक संतुलित विकास। परम्परावादी होइतहुँ विद्यापति युगपुरूष छलाह आ भविष्यक हेतु संकेत देनिहार सेहो। अपना समयक हिसाबे ओ प्रगतिशील कहल जा सकैत छथि आ विचारमे वस्तुनिष्ठ आ धर्मनिरपेक्ष सेहो। ‘विभागसार’ नामक कानूनी ग्रंथ लिखि विद्यापति अपन राजनैतिक पटुता आ ज्ञानक परिचय तँ देने छथिये, संगहि एहि पुस्तकक माध्यमसँ ओ ओइनवार वंशक एकताकेँ सुदृढ़ रखबामे सेहो सफल भेल छलाह।
विद्यापति मूलरूपेण तीन प्रकारक मैथिली गीतक रचना कए अपनाकेँ अमर कऽ गेलाह आ मैथिल संस्कृतिकेँ नव–जीवन प्रदान कऽ गेलाह। मैथिलीमे एहि तीनू प्रकारक गीतक रचना कए ओ मैथिली भाषा, मिथिलाक संस्कृति माध्यमकेँ सेहो अमरत्व प्रदान केलन्हि। प्रथम कोटिक गीत भेल विभिन्न देवी–देवताक प्रति गाओल गीत सभ जे अद्यावधि मिथिलामे ओहिना प्रचलित अछि जेना ताहि दिनमे रहल होएत। सभ प्रकारक सामाजिक उत्सवपर इ गीत सभ गाओल जाइत अछि आ एहिसँ मैथिल संस्कृतिक एकरूपता देखबामे अवइयै। एकरा सामान्यतः व्यवहार गीत कहल जाइत अछि। दोसर प्रकारक गीत भेल–शिवगीत जाहिमे नचारी आ महेशवाणीकेँ राखल जा सकइयै आ जाहि माध्यमसँ विद्यापति मिथिलाक शोषित–पीड़ित मानव व्यथाकेँ चित्रित करबामे सफल भेल छथि। तेसर प्रकारक गीत भेल सामान्य स्थितिक जीवन–यापन करैत जीवनक उपभोग करैत प्रेम गीत–प्रेमी आ प्रेयसीक मिलन, विरह, संभोग सम्बन्धी गीत जाहिमे राधाकृष्णकेँ आनि चित्रित कैल गेल अछि। एहि दिशामे ओ जयदेवसँ प्रभावित देखना जाइत छथि। प्रेमी–प्रेमिकाक हेतु तँ विद्यापति प्राणदायकेँ कहल जा सकैत छथि कारण मानव द्वारा संभावित एहेन कोनो मनः स्थिति नहि अछि जकर वर्णन विद्यापति नहि केने होथि।
शिव गीतक सेहो तीन रूप देखबामे अवइयै–i)शिवक स्तुति किंवा प्रार्थना; ii)शिव–विवाह, आ iii)शिवक पारिवारिक जीवन सम्बन्धी गीत। साहित्यक इतिहास दृष्टिकोणे विद्यापतिक शिवगीत साहित्यक क्षेत्रमे एकटा अपूर्व देन कहल जा सकइयै जकर दोसर उदाहरण हमरा देखबामे नहि अवइयै। नचारीक हेतु विद्यापति समस्त भारतमे प्रसिद्ध छथि। एकर प्रभाव आनोठाम देखल जाइत अछि खास कए नेपालमे।
त्रैभाषिक नाटक कऽ रचना कए विद्यापति जे आदर्श स्थापित केलन्हि तकरा मिथिलामे हेवनि धरि लोग अनुसरण करैत रहलाह आ हर्षनाथ धरि त्रैभाषिक नाटकक रचना होइत रहल।
मैथिल संस्कृति एकटा अन्यतम उदाहरण जे हमरा विद्यापति गीतसँ भेटइत से भेल शिव–विवाहक गीत–एकटा अपूर्व महेशवाणी जाहिमे पाँचगोट मैथिल विवाह विधिक उल्लेख अछि आ इ गीत भाषा गीत संग्रह (संख्या ६६)मे संग्रहित अछि। प्रथमहि एहि संग्रहमे प्रकाशित भेल अछि–एहिमे परिछन, तकरबाद पटिआपर बैसब, महुअक, सासु द्वारा बेदीपर घुमोनाइ, आ पाँचम गौरीक सखी सभ द्वारा महादेवकेँ काजर करब आदि विद्याक उल्लेख अछि जे अहुखन मिथिलामे प्रचलित अछि–एहि महेशवाणीकेँ एतए उद्धृत कैल जाइत अछि–
महादेवक स्वरूप एवँ वेषसँ अदभुत स्थिति उत्पन्न भगेल छल। एहिमे विद्यापति कालीन विवाहक लौकिक विधिक विवरण भेटइत अछि जाहिसँ तत्कालीन मैथिली संस्कृतिक सामाजिक रूपक दर्शन होइछ। एकरा परिछनक गीत सेहो कहि सकैत छी। एहि क्रममे एकटा आ गीत द्रष्टव्य अछि–
अहुठाम मैथिल विवाहक विधक विवरण भेटइत अछि आ विद्यापतिक सामाजिक व्यापकताक सेहो। जाहि दृष्टिये देखबा हो देखु। मुदा इ मानए पड़त जे विद्यापति मैथिली संस्कृतिक व्यापकताकेँ जीवंत रखलन्हि आ प्राचीन कालहिसँ चल अबैत परम्पराकेँ एकठा समेटिकेँ मैथिलत्वक वैशिष्ट्यकेँ शिखरपर चढ़ौलन्हि। तैं तँ विद्यापति हमरा लोकनिक संस्कृतिक आलोक स्तंभ छथि।
IV. मैथिल संस्कृतिक उत्कर्ष–मैथिली भाषा:- कोनो संस्कृतिक एकरूपताक द्योतक होइछ भाषा आ बिहारमे मिथिलेटा एकटा एहेन साँस्कृतिक क्षेत्र अछि जकर एकरूपताकेँ द्योतित केनिहार मैथिली भाषा अद्यपर्यंत जीवित अछि। मिथिला उपनिषद् युगहिसँ प्रसिद्ध विद्याकेन्द्र रहल अछि आ जखन मगधक प्रबल प्रताप सूर्य डुबियो गेल छलैक तखनहुँ मिथिला अपन संस्कृति आ विद्याकेँ सुरक्षित रखने छल। इतिहासक क्रममे सभ्यता ओ संस्कृतिक जत्तेक अंग–उपांग अछि ताहि सभमे मिथिला अपन स्वतंत्र स्थान बना लेने अछि। अधुना भारतीय सभ्यता मध्य मैथिल संस्कृति एवँ भाषाक विशिष्ट स्थान अछि। मिथिलाक विद्या, संस्कृति एवँ भाषासँ समस्त उत्तरभारत अनुशासित–प्रभावित भेल अछि आ ब्रजलोकसँ आसाम धरि एकर प्रत्यक्ष–अप्रत्यक्ष प्रभाव देखल जा सकइयै।
अति प्राचीन होइतहुँ मैथिली एक जीवंत भाषा थिक। बिहारमे मैथिलीक प्रभेद भेल दक्षिण भागलपुरक ‘छिकाछिकी’, चम्पारणक ‘मधेशी’ तथा छोट लोकक ‘जोलहा’ बोली आदि। मैथिलीक प्राचीनताक सम्बन्धमे एतबे स्मरण राखब आवश्यक अछि जे ‘ललितविस्तर’ नामक बौद्ध ग्रंथमे जे ६४लिपिक विवरण भेटइयै ताहिमे एकटा ‘वैदेही’, लिपिक उल्लेख सेहो अछि। मिथिलाक नाम प्रसिद्ध भेलापर उएह लिपि ‘मैथिली’ आ ‘तिरहूत’क प्रसिद्ध भेलापर ‘तिरहूता’क नामे प्रसिद्ध भेल। मिथिलासँ असम धरि इएह लिपि प्रचलित अछि। बृद्ध वाचस्पतिसँ अद्यावधि जतबा जे संस्कृतक पंडित, मनीषि एवँ विद्वान भेल छथि से सभ केओ मैथिली लिपि आ भाषाकेँ जीवित रखबाक प्रयास केने छथि आ ओहिमे योगदान सेहो देने छथि। रूचिपति जगद्धर, चण्डेश्वर, विद्यापति आदि व्यक्ति अपन संस्कृत रचनादिमे मैथिली शब्दक प्रचुर मात्रामे व्यवहार केने छथि जाहिसँ बुझना जाइत अछि जे भाषाक रूपमे मैथिलीक स्वीकृति अति प्राचीन कालहिमे भऽ गेल छल। वाचस्पति मिश्र ‘भामती’मे मैथिली शब्द ‘हड़ी’क व्यवहार केने छथि।
मैथिलीक प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ अछि ज्योतिरीश्वर ठाकुरक ‘वर्णन रत्नाकर’ जे अपना ढ़ँगक अद्वितीय ग्रंथ मानल गेल अछि आ अपूर्व गद्यग्रंथक हिसाबे पूर्वी भारतीय भाषाक प्राचीनतम ग्रंथ थिक। एहेन अदभुत ग्रंथ भारतवर्षक आन कोनो भाषामे अद्यावधि उपलब्ध नहि भेल अछि। ज्योतिरीश्वर, उमापति, विद्यापति, अमृतकर, अमियकर, गोविन्द दास, केशनारायण आदि कवि–मनीषिक प्रयासे मैथिली १३–१४–१५म शताब्दी धरि समस्त उत्तर पूर्वी भारत एवँ नेपालक एकमात्र साँस्कृतिक भाषा छल आ इ समस्त क्षेत्र एक साँस्कृतिक सूत्रमे बान्हल छल। चारिसे वर्ष धरि नेपालक राजा ओ हुनका सभसँ प्रोत्साहित धुरन्धर विद्वान मैथिल लोकनि मैथिलीमे सहस्त्र काव्य ओ नाटकक रचना केलन्हि। प्राचीन शिलालेख ओ अन्यान्य एतिहासिक साधनसँ इ स्पष्ट होइछ जे एक समयमे मैथिली उत्तर भारतवर्ष आ नेपालमे पूर्ण रूपें व्याप्त छल आ नेपालमे गोरखा शासनक पूर्व धरि एक प्रकारक राष्ट्रभाषे छल।
विद्यापतिक लिखनावलीसँ सामाजिक स्थितिक ज्ञान होइछ। मिथिलामे बहिया–बहिकिरनीक क्रय–विक्रय होइत छल आ एकर बहुत रास प्रमाणो मिथिलामे यत्र–तत्र भेटल अछि आ एहि प्रश्नकेँ लऽ कए मर मुकदमा सेहो होइत छल। भेष–भाव–भाषा एवँ लिपिपर कोनो जाति आ देशक मर्यादा निर्भर करैत अछि आ एहि दृष्टिये मिथिला–मैथिलीक जे अविच्छिन्न प्रवाह ८–९म शताब्दीमे प्रारंभ भेल छल से अद्यावधि प्रवाहित अछिये जाहिसँ मैथिल संस्कृतिक स्वरूप परिलक्षित होइछ। जाहि मैथिलीक उद्भव एवँ विकास हमरा लोकनि अखन देखि रहल छी तकर उत्पत्ति बौद्ध–गान आ दोहा आदिक कालसँ भेल अछि जे कि निम्नलिखित विवरणसँ स्पष्ट होएत।
८म शताब्दीसँ १२मशताब्दी धरि बौद्ध भिक्षु लोकनि जाहि चलित भाषामे अपन स्फुट दोहा, गीत आदिक रचना केलन्हि तकरे साहित्यमे ‘सिद्धगान’क संज्ञा देल गेल अछि। एहिमे सँ बहुत रास सिद्ध लोकनि बिहारेक निवासी छलाह। सिद्ध लोकनि भाषाकेँ महान भाषाविद लोकनि अपना–अपना ढ़ँगे लेने छथि आ केओ ओकरा हिन्दी, बंगला, असमी, उड़िया आदिक प्राचीन रूप मनने छथि। एहिठाम स्मरण रखबाक अछि जे प्रातः स्मरणीय राहुल सांकृत्यायन एहि सिद्धगानक भाषाकेँ मैथिली मगहीक प्राचीन रूप कहने छथि। ज्योतिरीश्वर ठाकुरक वर्ण रत्नाकरमे सेहो एहि सिद्ध सभहिक नाम भेटइत अछि। सिद्ध गानक भाषाक उदाहारणसँ सेहो इ स्पष्ट होएत जे इएह मैथिलीक आदि रूप थिक–
भानो थे कुक्कुरी पाए भवा थेरा जे एथु बुझएँ सो एथुवीरा।
उपरोक्त गीतमे संचरइ, करू, भाअ, जाअ, अइसन आदि ठेठ मैथिली शब्द जकर प्रयोग अहुखन मैथिलीमे व्याप्त अछि। एहि प्रकारक प्रयोग ज्योतिरीश्वर आ विद्यापति सेहो केने छथि। वर्णन रत्नाकर, कीर्तिलता आ पदावलीमे एहेन सभ प्रंयोग आ भाषाक साम्य देखबामे अवइयै। सिद्धगानक भाषा वर्णन रत्नाकर आ कीर्तिलताक भाषासँ विशेष भिन्न नहि अछि। एहि कोटिमे प्राकृतपैंगलमकेँ सेहो राखि सकैत छी। लोरिक आ डाकवचनावली सेहो प्राचीन अछि।
शंकरदत्त, उमापति आ विद्यापतिक प्रयासे मैथिलीक प्रगति विशेष भेल। उमापतिक मैथिली गीत कोनो साहित्यक शोभा भऽ सकैत अछि। उमापति आ विद्यापति ज्योतिरीश्वरक अपेक्षा चलित मैथिलीक प्रयोग विशेष केने छथि। विद्यापति ‘देसिल बअना’क व्यवहार कए अपनाकेँ गौरवान्वित बुझैत छलाह। उमापति आ विद्यापतिक मैथिलीक रूपक बानगी देखब आवश्यक–
भनहि वियापति सुन देवंकामा एक दोस अछि ओहि नामक रामा॥
गोविन्द दास:
कोटि कुसुमसर वरिसय जे पर तेहिकि जलदजल लागि
प्रेम दहन कर हृदय जकर पुनि ताहि कि वज्रक आगि।
जसु पद तल हम जीवन सौंपल ताहि कि तनु अनुरोध।
गोविन्द दास कहए धनि अभिसरू सहचरि आओल वोध॥
गोविन्द दासक एकाक्षर अनुप्रासक एकटा अन्यतम उदाहरण देखब आवश्यक–
काँचा कंचन कांति कमलमुखी कुसुमित कानन जोइ।
कुंज कुटीर कलावती कातर कान्हु कान्हु की रोइ॥
कि कहब कितब कत जे कुल कामिनी कठिन कुसुम सर सहइ।
करहि कपोल केश कत कुंनचत कालिन्दीकूल से रहइ॥
लोचनक रागतंरगिणीमे ३७मैथिल कविक गीत सभ संग्रहित अछि। लोचन ब्रजभाषाकेँ मध्यदेशी भाषा आ विद्यापतिक भाषाकेँ देशी भाषा कहने छथि। लोचन स्वयं ब्रजभाषा आ मैथिलीमे गीत बनौने छलाह। लोचनक एकटा मैथिली गीतक नमूना निम्नांकित अछि–
साँवर वदन विहुसिया, मधुवन जाइते मिलल तोर रसिकया।
सुनासि न मधुर मुरली रव, सुकृत सफलकर सवे समुचित नव।
“हमरा वहियाक हराइक बेटी पदुमी नाम्नी गौरवर्णा जे तोहरे बेटा ञे श्रीकृष्णा ञे बिहायाले से हमे एक टका लए तोहरा हमे देलियावे। ताहि सँ हमरा कञो लञे सम्बन्ध नहि”।
एवँ प्रकारे हम देखैत छी जे मैथिलीक विकास क्रम बरोबरि बनल रहल अछि। एकर प्रगति कहिओ अवरूद्ध नहि भेल। हिन्दीमे क्रियाक रूप कर्त्ताक कर्मकेँ अनुसार परिवर्त्तित होइत अछि, आ लिंगभेद प्रधान रहैत अछि, मुदा मैथिलीमे से बात नहि अछि। मैथिलीमे लिंगभेदक क्रम गौण रहैत अछि आ क्रिया कारकक अनुसार बदलैत अछि। आदर, अत्यादर, अनादर, आदि भावक संगहि क्रियाक रूप भिन्न होइछ जे आन ठाम देखबामे नहि अवइयै।
१७–१८म शताब्दीमे आबिकेँ मैथिलीक रूपमे परिवर्तन देखबामे अवइयै आ ओहि दृष्टिये मनबोधक कृष्णजन्ममे मैथिलीक ठेठ रूप देखबामे अवइयै–
“कतओक दिवस जखन वितिगेल,
हरि पुनि हथगर गोरगर भेल।
से कोन ठाम जतय नहि जाथि,
कय वेरि आङ्गनहु सँ बहराथि”॥
एहि मैथिलीक रूपक साम्य आधुनिक मैथिलीसँ अछि। मनबोधक पछाति हर्षनाथ, चन्दा झा, जीवन झा, रघुनन्दन दास, लाल दास आदिक नाम उल्लेखनीय अछि। हिनका लोकनिक उद्धरण देव आवश्यक–
चन्दा झा–
“पड़ा पड़ा बड़ा बड़ा गृहाद्द जारि देलकौ–
विदेह कन्यका विपति जानि, कानि लेलकौ
बहुत छोट बानरे सभैक हाल कैलकौ
प्रचण्ड दण्ड देनिहार दूत चोर धेलकौ”।
हर्षनाथ–
“रमनि हे सुनिय वचन दय कान।
जें ओ मोर मानिय दोष दोष करि.
करू धनि दण्ड विधान”।
लाल दास–
“खसल निशुंभ महा बलबान, संज्ञालुप्त सुतल हतज्ञान।
देखि निशुंभ को महिमे पड़ल, आएल शुम्भ क्रोध अति भरल।
जीवन झा–
“विरह व्यथा अति आकुल रमनी,
सकल कलेबर केवल धमनी।
सहजहि पातर लकलक हियकर,
धक धक रे की”॥
अन्यान्य भाषा जकाँ मैथिलीक अपन लिपि सेहो छैक जे अद्यावधि जीवित छैक आ ठेठ मिथिलामे जकर अखनो सभ कार्यक अवसरपर व्यवहार होइत छैक। मैथिलीक विकास २०म शताब्दीमे सभसँ बेसी भेल अछि आ ताहुमे स्वतंत्रता प्राप्तिक पछाति तँ आरो बेसी। अहिठाम मैथिली साहित्यक इतिहास लिखब हमर अभीष्ट नहि अछि–एहि विषयपर कतेक पुस्तक उपलब्ध अछि आ कतेक गोटए लिखिओ रहल छथि। हमर कथ्य एतबे जे मैथिली भाषा मिथिलाक सांस्कृतिक एकरूपताक सर्वश्रेष्ठ साधन रहल अछि आ ७००–८००वर्ष सँ मैथिलीक माध्यमसँ मिथिलाक राजनैतिक आ साँस्कृतिक एकताक निर्माणमे साहाय्य भेटल अछि। भाषाकेँ संस्कृतिक संबलक रूपमे उपस्थित कैल गेल अछि आ मैथिलीक प्राधान्य एहि बातक स्पष्ट सबूत अछि।
V.मैथिल संस्कृतिक निजी वैशिष्ट:- जेना बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात, कर्णाटक, केरल आदि प्रांत भाषिक, साँस्कृतिक, भौगौलिक, ऐतिहासिक आदि दृष्टिये प्रांत कहल जाइत अछि ठीक तहिना बिहारमे मिथिलेटा एहेन एकटा साँस्कृतिक क्षेत्र अछि जे सभ दृष्टिये प्रांत कहल जा सकैत अछि। भौगोलिक ऐतिहासिक, साँस्कृतिक एवँ भाषिक दृष्टिये मिथिला एकटा महान केन्द्र अति प्राचीन कालसँ रहल आ एकर अपन साँस्कृतिक वैशिष्टक महत्ता सेहो वैदिक कालसँ अद्यावधि अविच्छिन्न रूपें चलि आबि रहल अछि। उत्थान–पतन इतिहासक एकटा अकाट्य नियम आ तैं मिथिला एकर कोनो अपवाद नहि परञ्च एकर साँस्कृतिक एकता सभ दिन बनल रहल छैक आ इतिहास एकर साक्षी अछि। एकर क्षेत्र विस्तीर्ण अछि आ मिथिला एकटा भौगौलिक इकाइ मानल गेल अहि जे सम्प्रति तीन प्रमण्डल (तिरहूत, दरभंगा आ कोशी)मे विभक्त अछि। उत्तरमे नेपाल, पूर्वमे पश्चिम बंगाल, दक्षिणमे मगध, आ पश्चिममे बिहार आ उत्तरप्रदेशक अंश अछि। नदीक द्वारा सिञ्चित हेबाक कारणे एकरा ‘तीरभुक्ति’ सेहो कहल गेल अछि। ‘तीरभुक्ति’क रहनिहारक गर्वोक्तिक उल्लेख विद्यापति अपन ‘पुरूष परीक्षा’मे कएने छथि– “अहो तीरभुक्तीयाः स्वभावाद् गुणगर्विणो भवंति”(तिरहुतिया स्वभावतः गुणगर्वित होइ अछि)। विद्यापतिक इ उक्ति मैथिल सँस्कृतिक एक विशेषताक द्योतक थिक।
परिवर्त्तनशील सृष्टिमे अपरिवर्त्तित रूपें डटल रहिकेँ मिथिला अपन वैशिष्ट्यक जे परिचय देलक अछि तकर उदाहरण स्वरूप इ कहल जा सकइयै जे अपन आङनमे जन्मल, पोसल आ बढ़ल जैन धर्म आ बौद्ध धर्मकेँ इ कहियो अंगीकार नहि केलक आ वैदिक धर्म आ कर्मकाण्डकेँ अपनौने रहल। जहिना जैन–बौद्ध मैथिलक वैदिकत्वकेँ पलटि नहि सकलाह तहिना बादमे मुसलमान लोकनि एहिठामक कट्टरताक गढ़केँ नहि ढ़ाहि सकलाह। मिथिलाक सामाजिक संगठन दृढ़ रहल आ ओकरा दृढ़तर बनाओल गेल। कट्टरताक निर्वाहक हेतु शास्त्र पुराणक अध्ययनपर विशेष बल देल गेल आ कर्मकाण्डक समर्थनक हेतु ‘निबन्ध’क रचना भेल। सनातन समाज रूपी स्तम्भकेँ जैन, बौद्ध, मुसलमान अथवा अंग्रेजी प्रभाव सर्वतोभावेन हिलेबामे समर्थ नहि भेल। मिथिलामे सनातन धर्मक प्रति जनताक प्रगाढ़ प्रेम अछि आ ओकरा अहुखन डिगैब असंभव। एम्हर आबिक जे अखिल भारतीय स्तरपर सुधार आन्दोलनो भेल तकरो कोनो प्रभाव मैथिलपर नहि भेल। एतावता मैथिल संस्कृतिक धार अक्षुण्ण रूपें प्रवाहित होइत चलल आबि रहल अछि भने आजुक दृष्टिये हम ओकरा अनुदार कही से दोसर कथा। मिथिला आदर्शवादी दर्शनक जन्मभूमि मानल गेल अछि। दर्शनक दिग्गज आचार्य लोकनि मिथिलाक धरतीकेँ अपन विद्वतासँ चमत्कृत कएने छथि। एहिठामक देन थिक “स्वतः प्रमाणं” (मीमाँसा वेदांत) आ “परतः प्रमाणं” (न्याय)। मण्डन मिश्र मीमाँसक छलाह। आनन्दगिरि कुमारिल भट्टकेँ सेहो मैथिल कहने छथि। मैथिलक आदर्श रहल अछि जीवन्मुक्त रहब। श्री शुकदेव जी एहिठाम आबि जनकसँ उपदेश लए अपन मोह भंग केने छलाह। योगवाशिष्ठ आ गर्गसंहितामे एहि प्रसंगक कथा अछि। शनैः शनैः मिथिलामे धार्मिक कर्मकाण्डी लोकनिक संख्यामे वृद्धि भेल। विष्णु, शिव, शक्ति आदिक पूजा नियमित रूपें शास्त्रानुकुल ढ़ँगे अहुखन मिथिलामे होइत अछि।
कर्मकाण्ड शरीरक संस्कारसँ सम्बन्ध रखैत अछि। संस्कार कर्म पूर्व कालमे अनेक रूपक रहितहुँ एम्हर आबिकेँ दश प्रकारैक अवगत होइत अछि। वीरेश्वर, गणेश्वर, रामदत्त आदिक लेख सभसँ एहिपर विशेष प्रकाश पड़ैत अछि। दश प्रकारक कर्ममे ६काम्य तथा ४नित्य मानल गेल अछि– नामकरण, चूड़ाकरण, उपनयन आ विवाहक हवैछ, जे यथायोग्य नहि केने वर्णाश्रमक विलोप मानल जाइत अछि। एकर विधि एखनहुँ मिथिलहिमे यथासमय ओ यथाशास्त्र होइत देखल जाइत अछि। मिथिलामे जैमिनीय कर्म मीमाँसा शास्त्रक अधिक प्रभाव छल ओ अछिओ। श्रौत–स्मार्त–आगम तीनू कर्मकाण्डक यथा–वदनुष्ठान ओ लोकमे आविष्कार मैथिल विद्वानहिक कैल भेटइत अछि। ‘कुण्डकादम्बरी’मे गोकुलनाथ उपाध्याय ग्रह योगसँ लऽ कऽ अश्वमेधांत कर्मकलापक कुण्ड निर्माण कऽ गेल छथि। मैथिल एखन धरि संध्यातर्पण एवँ एकोदिष्ट पार्यण करैत छथि। पंचदेवोपासक मैथिल अहुखन होइते छथि। एकर प्रचार मिथिलहिमे सर्वतोभावेन देखल जाइत अछि। मिथिलामे मनुक अतिरिक्त याज्ञवल्क्य निर्दिष्ट आचारक विशेष प्रचार अछि। मैथिल विद्वानक विश्वास छन्हि जे आचारक संग धर्मक जाहि तरहक सम्बन्ध छैक आरोग्य शास्त्रसँ कम नहि। प्रातः कृत्यादिसँ शयनपर्यंत, व्रत आदिसँ लऽ साधारण आचमन सभ वैज्ञानिक तत्वसँ भरल अछि। विचार स्वातंत्र्यक उदाहरण निम्नलिखित वाक्यसँ भेटत–
“यस्तर्केणानुसन्धते सधर्म वेद नेतरः”– विद्यापतिक ‘पुरूषपरीक्षा’मे अपन–अपन कर्तव्यक समुचित ढ़ँगसे करबकेँ धर्म कहल गेल अछि। ‘बृहदारण्यकोपनिषद’ जकर रचना मिथिलामे भेल छल ताहिमे यौनधर्मक सम्बन्धमे स्पष्ट रूपे कहल गेल अछि–“सर्वेषामानन्दा नामुपुष्यं एकायतननम्”। मनुष्यकेँ संस्कारयुक्त कर्म करबाक अधिकार मिथिलामे देल गेल छैक। संस्कार एवँ कर्मक सम्बन्धमे मनुक मत अछि–
वेदक अध्ययन, ब्रह्मचर्य अवस्थाक पालन, सायं प्रातः केर होम, देव ओ ऋषिक तर्पण, संतानक उत्पत्ति, पाँच महायज्ञ (ब्रह्मयज्ञ–अध्यापन, पितृयज्ञ–तर्पण, देवयज्ञ–देवप्रीत्यर्थ अग्निमे होमक आहूत देव, भूतयज्ञ–बलिविश्वेदेवक, नृयज्ञ–अतिथि केर पूजन) तथा आन ज्योतिष्टोमादिक काम्ययज्ञक द्वारा शरीरकेँ पवित्र करब उचित मानल गेल अछि। एकर सभकेँ संस्कार कहल गेल अछि। संस्कार कुलाचारक अनुसार होइत अछि। संस्कारानुसार सभ जातिक कर्म सेहो निर्धारित अछि। करण कायस्थ कोनो वर्णगत नहिओं रहला उत्तर मिथिलामे सम्मानित रहला अछि। हिनका लोकनिक आचार–विचार तथा व्यवहार कोनो रूपें द्विजसँ कम नहि कहल जा सकैत अछि। ब्राह्मणे जकाँ सभ संस्कार हिनको लोकनि ओतए होइत अछि आ संगहि धार्मिक तथा सामाजिक कार्यकलाप सेहो–वैवाहिक सम्बन्धो अहुखन धरि हरि सिंह देवीय पद्धतिसँ होइत छन्हि। कायस्थहुक हेतु प्राचीन कालमे वैवाहिक सभाक व्यवस्था मधुबनी आ जगतपुरमे छल। मिथिलामे सत शूद्रकेँ ‘सोलकन्ह’ आ असत् शूद्रकेँ ‘अछोप’ कहल गेल छैक।
मिथिलामे संस्कारक पालन पूर्णरूपेण होइत आ अहुखन प्राचीन परम्परा देहातमे विराजमान अछि। पाँचम वर्षमे एहिठाम विद्यारंभ संस्कार शुरू होइत अछि–आ ओहि अवस्थामे बालककेँ ‘खड़ी’ अथवा ‘भट्टा’ धराओल जाइत अछि। धार्मिक कर्म केला उत्तर गुरूजी बालकक हाथ धकए “आँजी सिद्धिरस्तु” लिखबैत छथिन्ह। आँजीकेँ केओ प्रणवक भष्टरूप, गणेशक अंकुश, सूंढ़क प्रतीक अथवा त्रिशूलक चेन्ह कहैत छथि। विद्या प्रारंभक पूर्वहिसँ बालककेँ संस्कृत श्लोक इत्यादि सिखाओल अथवा रटाओल जाइत छन्हि आ ओहिमे सर्वप्रसिद्ध श्लोक निम्नांकित अछि–
“साते भवतु सुप्रीता देवी शिखर वासिनी।
उग्रेण तपसा लब्धो यथा पशुपतिः पतिः॥
बालोऽहं ‘जगदानन्द’ नमे वाला सरस्वती।
अपूर्णे पंचमे वर्षे वर्णयामि जगत् त्रयम्॥
मा निषाद प्रतिष्ठानवमगमः शाश्वतीः सभा।
यत्क्रौञ्च मिथुनादेकम वधीः काममोहितम्॥
सा रमा न वरारोहा नगे भागमनाहि या॥
याहि न तामगभागेन हारो रावण मार सा”॥
मिथिलामे विवाह संस्कार सेहो एकटा महत्वपूर्ण संस्कार मानल गेल अछि आ मैथिल व्यवस्थाक अनुरूप बारह वर्ष धरि विवाह भए जाएब आवश्यक बुझना जाइत अछि। शास्त्रमे कन्यासँ त्रिगुण अथवा अढ़ाए गुण पैघ वरक हैव उचित मानल गेल छैक। विवाहक हेतु कन्याक गुण, कुल आदिपर सेहो विचार कैल जाइत छैक। वैवाहिक सभा समौल, सौराठ, परतापुर, भखराइन, बनगाँव आदि स्थानमे पूर्वमे होइत छल। अखन आब मात्र सौराठ सभा रहि गेल अछि जाहिठाम शुद्धक समयमे एक विशाल मेला लगैत अछि आ जकरा देखबाक हेतु दूर–दूरसँ लोग सभ अबैत छथि। शास्त्रीय अनुमति देबाक हेतु पञ्जी प्रबंधक सभ सामग्री सहित पञ्जियार लोकनि सेहो एहिठाम उपस्थित रहैत छथि। जखन दुनू पक्षकेँ (वरपक्ष–कन्यापक्ष) सर्वथा सम्बन्ध करबाक निश्चय भऽ जाइत छन्हि तखन ‘अस्वजनपत्र’ लऽ कन्या पक्षक लोक लौकिक व्यवहारानुसार ‘हथधरी’ कए अपन गाम जाइत छथि। ‘अस्वजनपत्र’केँ गोसाउनिक सिरामे समर्पित कैल जाइत अछि। सिद्धांत भऽ गेलापर दुनू पक्ष निश्चित भऽ जाइत छथि। तकर बाद विवाह निश्चित बुझल जाइत अछि।
धर्मक क्षेत्रक हम विवेचन कऽ चुकल छी जे मिथिलामे पंचदेवोपासनाक पद्धति बड्ड प्राचीन अछि आ मैथिलक वैशिष्ट्यक हिसाबे एकर महत्व एखनो बनले अछि। एहिठाम स्मरण रखबाक अछि कि सभ किछु रहितहुँ एहिठाम कहिओ कोनो प्रकारक साम्प्रदायिक कलह नहि भेल अछि आ सभ प्रकारक धार्मिक विचारक लोग एहिठाम अपन–अपन धर्मक पालन करैत आएल छथि। एक्के ठाम अथवा एक्के परिवारमे शैव शाक्त, आ वैष्णव देखल जा सकैत छथि। वस्तुतः साम्प्रदायिकतामे जाहि प्रकारक सामंजस्य एहिठाममे देखबामे अवइयै तेहेन अन्यत्र भेटब बड्ड दुर्लभ। सभ सभहिक धार्मिक कार्यकलापमे सक्रिय रूपेण भाग लैत छथि। भारतीय संस्कृतिक इएह मूलमंत्र रहल अछि आ मिथिलामे एकरा चरितार्थ होइत हम देखि सकैत छी। मिथिला तांत्रिक सम्प्रदाय अपन एकटा स्थान भारतक संदर्भमे रखैत अछि तैं ओकर विवेचन अपेक्षित।
तांत्रिक संप्रदाय आ मिथिला– शिव आ शक्तिक प्रधानता मिथिलामे प्राचीन कालहिसँ चलि आबि रहल अछि। शिवक पूजाक हेतु मिथिलामे शिवमंदिरक कोनो अभाव नहि अछि आ सभ वर्ग आ वर्णक लोग शिवक पूजा करैत छथि। शिवकेँ आशुतोष सेहो कहल गेल छन्हि आ मिथिलाक गामक गाममे विद्यापति रचित नचारी आ महेशवाणी केओ कखनो सुनि सकैत अछि। शिवक संगहि संग मिथिलामे शक्तिक उपासनो होइछ आ सभ घरमे गोसाउनिक पूजा नियमित रूपें प्रतिदिन हेवे करैत अछि–मिथिलामे कुल देवी सभ घरमे पाओल जाइत अछि। स्मृतिक अनुसार शिवतत्वक ज्ञान प्राप्त करबाक हेतु शक्तिक उपासना आवश्यक मानल गेल अछि। तैं तँ कहल गेल अछि–“शिवोहि शक्ति राहतः शक्तः कर्तुन किंचन”। एकर समर्थन शंकराचार्यक सौन्दर्यलहरीमे सेहो भेल अछि–
“शिवः शक्तयायुक्तो यदि भवति शक्तः प्रभाषितुम्।
नचेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि”॥
शिवतत्वक ज्ञान प्राप्तिक हेतु शक्तितत्वक ज्ञान अपेक्षित अछि आ मिथिलाक संस्कृतिमे एहि दुहु तत्वकेँ बुझब अत्यावश्यक मानल गेल अछि।
श्रुति तीन भागमे विभक्त अछि–कर्मकाण्ड, उपासना काण्ड, आ ब्रह्मकाण्ड। कर्मकाण्डक प्रवर्त्तक भेल छथि जैमिनीय (पूर्व मीमाँसा), ब्रह्मकाण्डक प्रवर्त्तक ब्रह्मसूत्रकार व्यास रचित उत्तर मीमाँसाकार आ उपासना काण्डक प्रवर्त्तक भेल छथि नारद। आगम शास्त्र ज्ञानी उपासना काण्डकेँ महत्व दैत छथि। ज्ञान आ उपासना श्रुति मूलक मानल गेल अछि आ इ दुनू मत अद्वैतक समर्थक अछि। सकल साधारणक सुविधाक हेतु आगम मार्गक उपस्थान केनिहार छलाह ब्रह्माक चारू पुत्र–सनक, सनन्दन, सनातन, आ सनत कुमार–जेहि महादेवसँ प्रार्थना कए एहि मार्गक सूत्रपात केलन्हि। चारू गोटएकेँ महादेव जे उपदेश देलथिन्ह सैह ‘आगम’ कहाओल आ इएह ‘आगमशास्त्र’ तंत्रक नामे प्रसिद्ध भेल। ‘वैदिक’ आ ‘आगम’ भिन्न पद्धति अछि। एकरे हमरा लोकनि अधुना ‘निगम’ (वेद–वेदांग) आ ‘आगम’ (तंत्र–मंत्र)क नामे जनैत छी। कुलार्णवमे लिखल अछि–
“कृते श्रुत्युक्त आचारस्त्रेतायां स्मृति संभवः।
द्वापरेतु पुराणोक्तः कलवागमसम्मतः”॥
कलियुगमे आगमशास्त्रक प्रधानता रहबाक गप्प एहिठाम कहल गेल अछि। महानिर्वाणतंत्रमे शिव पार्वतीकेँ कहने छथि जे आगम मार्गक बिना अनुशरण केने कलियुगमे सिद्धिक प्राप्ति असंभव। वाराही तंत्रमे आगमक निम्नांकित लक्षण बताओल गेल अछि–
“सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानांतर्थाचनम्।
साधनञ्चैव सर्वेषां पुरश्चरणमेव च॥
षट्कर्मसाधनञ्चैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः।
सप्तर्भिलक्षणैर्युक्तमागमं तद्विदुर्बुधाः”॥
आगम उएह कहबैत अछि जाहिमे सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, कार्यसाधन, पुरश्चरण षट्कर्म आदि वाधा दूर करबाक एवँ शांति स्थापनाक हेतु वशीकरण, विद्वेषण, उच्चाटन आ मारणक विधानक योग हो। आगमशास्त्र शिव शक्तिसँ सम्बन्धित मानल गेल अछि। आगमक तीन मुख्य भेद भेल डामर (तमस्), यामल (रजस्), आ तंत्र (सत्व)। पुनः एहि सभक प्रभेद एवँ प्रकारे अछि–
यामल– आदियामल, ब्रह्मयामल, विष्णुयामल, गणेशयामल, आदित्ययामल, तथा रूद्रयामल।
तंत्रक विभिन्न प्रभेदक विवरण वाराही तंत्रमे भेटइत अछि।
मिथिलामे शक्तिक प्रधानताक कारणे शाक्ततंत्रक प्रचार अछि–कौलमत एवँ दशमहाविद्याक प्रचार एत्तए बेसी भेल अछि। कौलमतावलम्बी वामाचारक प्रवर्त्तक भेलाह कारण एहि मार्गमे सिद्धिक प्राप्ति शीघ्र होइछ। काली एवँ ताराक प्रधानता मिथिलामे विशेष रूपें छल। वशिष्ट ताराक उपासक भेल छथि। बौद्ध धर्मक प्रभाव भने मैथिलपर नहि रहल हो से संभवे मुदा बौद्ध तंत्रक प्रभाव तँ स्पष्ट रूपें मिथिलाक तंत्रक इतिहासपर पड़ल अछि आ चीन–तिब्बतसँ मिथिलाक साँस्कृतिक सम्बन्ध एहि माध्यमसँ भेल अछि। दश महाविद्या प्रथाक समुचित आदर अहुखन मिथिलामे अछि। वामाचार एवँ कौलमतक प्रचार सामान्यतः मिथिलाक निम्नवर्गक लोगमे भेल। ओना ग्रंथादिमे तँ 64तंत्रक नाम भेटइत अछि। चन्द्रकला, ज्योत्सनावती, कलानिधि, कुलार्णव, कुलेश्वरी, भुवनेश्वरी, बाहर्स्पत्य ओ दुर्वासामतमे ब्राह्मणादि चारू वर्णकेँ ओ वर्णसंकरहुक समान अधिकार देल गेल छैक। प्रथम तीन वर्गकेँ दक्षिणाचार मार्गे आ शूद्रादि आ वर्णसंकरकेँ वामाचार मार्गे साधना करबाक अधिकार प्राप्त छैक। मिथिलामे तांत्रिक स्थान सभमे विशेषकए छोटलोककेँ भगताक रूपमे एखनो देखल जाइत अछि। अखनो मिथिलामे कैकटा प्रधान तांत्रिक केन्द्र अछि आ ओहिसभ ठाम जाँति–पाँतिक कोनो बन्धन नहि देखबामे अवइयै। तांत्रिक धर्मक उत्थानक पाछाँ सेहो किछु आर्थिक आ सामाजिक तथ्य छल जकर अनुसंधान एखनो पूर्णरूपेण नहि भऽ सकल अछि। पूर्वी भारतमे मैथिली, असमी, आ बंगाली संस्कृतिमे तंत्र एकटा महत्वपूर्ण भूमिकाक निर्वाह केने अछि। मिथिलामे घनानंद दास नामक एकटा प्रसिद्ध कायस्थ तांत्रिक भेल छलाह।
तंत्र व्यापक अछि आ लौकिक पारलौकिक दुहु मार्गक बताओल गेल अछि। मोक्ष प्राप्तिक मार्गमे भोगकेँ नहि त्यागे पड़ए सैह विधान तंत्रमे बताओल गेल अछि। सर्वप्रथम आदिशक्ति प्रकृतिक पूजा प्रारंभ भेल आ ताहि दिनसँ मिथिलामे तंत्रक परम्परा चलि आबि रहल अछि। ब्रह्मस्वरूप प्रकृतिक प्राप्तिक हेतु तंत्रमे पंचमकारक विधान सेहो बताओल गेल अछि–पंचमकारक नाम एवँ लक्षण एवँ प्रकारे अछि–
“आनन्दं परमं ब्रह्ममकारास्तस्य सूचका
मत्स्यं, मांसं तथा मद्यं मुद्रा मैथुनेव च।
एते पंचमकाराः स्युमोक्षदा हि युगे–युगे”॥
कुलार्णव तंत्रमे एकर विश्लेषण एवँ प्रकारे अछि–
मत्स्यः–
मायामलादिशमनान्मोक्षमार्गनिरूपणात्।
अष्ट दुःखादि विरहान्मत्स्येतिपरिकीर्तितः॥
माँसः–
मांगल्य जननाद्देवि संविदानंददानतः।
सर्वदैव प्रियत्वाध माँस इत्यभिधीयनः॥
मद्यः–
सुमनः सेवितत्वाच्च राजत्वात्ससर्वदाप्रिये।
आनन्द जननाद्देवि सुरेतिपरिकीर्तितः॥
मुद्राः–
मुदं कुर्वंति देवानांमनांसिद्रावयंतिच
तस्मान्मुद्रा इतिख्याता दर्शिना व्याकुलेश्वरी॥
मैथुनः–
सर्वद्रोहं विनिमुक्त्वा तवप्राणप्रिय भवेत्।
एकाकारो भवेद्देवि त्वयि ब्रह्मणि मैथुनम्॥
मिथिलामे तांत्रिक साधनाक आधारपर पैघ–पैघ तांत्रिक अपन सिद्धि द्वारा लोककेँ चकित केने छथि। इएह कारण थिक जे अहुखन मिथिलामे तंत्रवादक मर्म सुरक्षित अछि।
स्त्रीगणक स्थिति:- मिथिलाक सामाजिक–साँस्कृतिक वैशिष्ट्यमे स्त्रीगणक स्तित्व महत्वपूर्ण रहल अछि आ एहिठाम हमरा सभ प्रकारक स्त्रीगणक विभेद देखबामे अवइयै। ओना भारतीय संस्कृतिमे तँ स्पष्ट कहल गेल अछि जे स्त्रीकेँ कहियो कोनो अवस्था स्वच्छन्द रहब अपेक्षित नहि अछि–
“पिता रक्षति कौमारे भर्त्ता रक्षति यौवने।
पुत्रश्च स्थविरे रक्षित् न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति”॥
स्त्रीकेँ कुल, जाति, समाज एवँ देशक गौरव बुझल गेल अछि। स्त्री शिक्षाक आधुनिक परिपाटी ताहि दिनक मिथिलामे नहि छल ओना रानी–महारानी लोकनि विदुषी होइत छलीह से देखबामे अवइयै। ‘मैत्रेयी’ ब्रह्मवादिनी भेल छलीह आ ‘मल्ली’ नामक एक मैथिलानी जैन लोकनिक एक तीर्थकंर भेल छथि। मंडन मिश्रक पत्नी ‘भारती’ तँ सर्वविदीत छथिये। लखिमा ठकुराइन आ विद्यापतिक कुलवधु तथा ‘विश्वास देवी’क नाम तँ प्रख्यात अछिये। मुदा एहिसँ इ अनुमान नहि लगेबाक चाही जे मिथिलाकेँ सामान्य नारि लोकनिकेँ सेहो एहने शिक्षा देल जाइत छलन्हि। परम्परागत रूपें परिवारमे जे किछु सिखाओल जाइत छलैक सैह हुनक शिक्षा भेलैन्ह। पर्दा प्रथाक संकेत तँ मनुक कालहिसँ देखबामे अवइयै। मेधातिथि अपन मनुभाष्य (४१४४)मे कहने छथि–“अवगुण्ठितामेव हि विशेषे स्पृहयंति”। मिथिलामे स्त्री पर्दाक हिसाबे घोघ काढ़ैत छथि आ इ प्रथा एखनो धरि विराजमान अछि। मिथिलामे नारीक सौन्दर्य, कोमलता, माधुर्य, पवित्रता आ शीलक रक्षार्थ पर्दाकेँ आवश्यक बुझल गेल अछि। मध्ययुगमे मिथिलामे एहिप्रथाक विशेष प्रचार भेल छल। अहु प्रथाक प्रचलन पैघ लोकमे जतवा अछि ततवा छोट लोकमे नहि कारण छोट लोककेँ तँ बाल–बच्चा समेत सदति बाहर–भीतर काज करए पड़िते छैक। मिथिलामे कुमारि ब्राह्मणकेँ पवित्र मानल गेल छैक आ कुमारि भोजनक प्रथा अद्यतन प्रचलित अछिये। अविवाहित कन्या मिथिलामे माँथ नहि झपैत अछि। मिथिलामे कोजागरा पूर्णिमा, सुखरात्रि आ कार्तिकमे शामा–चकेबाक प्रचलन स्त्रीगणक मध्य प्रसिद्ध अछि।
एहिठामक सामाजिक संगठन अद्यावधि जीवंत अछि आ सामाजिक नियमक उल्लंघन केनिहारकेँ दण्ड देल जाइत छैक। बाल–विवाह आ अनमेल विवाहक प्रणाली पहिने जेहेन छल ताहिसँ आब किछु बदलल अछि। स्त्री शिक्षामे प्रगति भेल अछि आ पर्दा प्रथा सेहो कम भेल अछि। कट्टर मैथिल लोकनि (चाहे ओ कोनो वर्णक किऐक ने होथि) अखनो स्पर्शास्पर्शक सम्बन्धमे बड्ड विचार रखैत छथि आ चमैन जे घरक ओतए महत्वपूर्ण काज करैत अछि तकरा अखनो अछापक गिनतीमे राखल गेल अछि। सभठाम परिवर्त्तन भेला उत्तरो मिथिलाक गाम घरमे अहुखन कट्टरता आ अन्धविश्वास जनित प्रलाप देखल जा सकइयै। रघुनंदन दासक ‘मिथिला नाटक’मे तथ्यपूर्ण सामाजिक चित्रण अछि।
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"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका http://www.videha.co.in/:- सम्पादक/ लेखककेँ अपन रचनात्मक सुझाव आ टीका-टिप्पणीसँ अवगत कराऊ, जेना:- 1. रचना/ प्रस्तुतिमे की तथ्यगत कमी अछि:- (स्पष्ट करैत लिखू)| 2. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो सम्पादकीय परिमार्जन आवश्यक अछि: (सङ्केत दिअ)| 3. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो भाषागत, तकनीकी वा टंकन सम्बन्धी अस्पष्टता अछि: (निर्दिष्ट करू कतए-कतए आ कोन पाँतीमे वा कोन ठाम)| 4. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो आर त्रुटि भेटल । 5. रचना/ प्रस्तुतिपर अहाँक कोनो आर सुझाव । 6. रचना/ प्रस्तुतिक उज्जवल पक्ष/ विशेषता| 7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/ पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि। मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि। अपन टीका-टिप्पणी एतए पोस्ट करू वा अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर पठाऊ।
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1. रचना/ प्रस्तुतिमे की तथ्यगत कमी अछि:- (स्पष्ट करैत लिखू)|
2. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो सम्पादकीय परिमार्जन आवश्यक अछि: (सङ्केत दिअ)|
3. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो भाषागत, तकनीकी वा टंकन सम्बन्धी अस्पष्टता अछि: (निर्दिष्ट करू कतए-कतए आ कोन पाँतीमे वा कोन ठाम)|
4. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो आर त्रुटि भेटल ।
5. रचना/ प्रस्तुतिपर अहाँक कोनो आर सुझाव ।
6. रचना/ प्रस्तुतिक उज्जवल पक्ष/ विशेषता|
7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।
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पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि।
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