भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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धर्म:- वैदिक युगहिसँ मिथिला धर्म आ दर्शनक प्रधान केन्द्र रहल अछि। प्रारंभमे एकेश्वरवादी मत बड्ड प्रचलित छल आ ऋग्वेदमे एकर विशद विश्लेषण भेल अछि। वेदक प्रारंभिक कालमे यज्ञक महत्व विशेष छल मुदा पाछाँ जे हमरा लोकनि प्रजापतिक कथा–पिहानी पढ़ैत छी ताहिसँ इहो ज्ञात होइछ जे ‘अवतारवाद’क सिद्धान्त सेहो जोर पकड़ि रहल छल। ब्राह्मण साहित्यमे प्रजापति ‘पुरूष’क रूपमे ठाढ़ भेल छथि आ एहेन बुझि पड़इत अछि जेना की विश्वक भार सम्हारवाक कार्य हुनके माथपर पड़ि गेल हो। ‘आत्मा’ आ ‘ब्रह्म’क विकास उपनिषदक युगमे भेल। हिन्दू धर्मक दार्शनिक विश्लेषण उपनिषदमे भेटइत अछि आ एहिमे विशिष्ट भागक विश्लेषण मिथिला भूमिमे राजा जनकक दरबारमे भेल छल।
अखिल भारतीय धर्मक रूपमे जैन धर्म आ अखिल विश्व धर्मक रूपमे बौद्ध धर्मक उत्थान प्रसार आ प्रचार मिथिलहिक अंगनामे भेलैक। जनक सेहो अपना युगक विद्रोही छलाह आ प्राचीन नियमक उल्लंघन कए यज्ञ सम्बन्धी अपन कर्त्तव्य कए एहि बातकेँ सिद्ध केने छलाह जे मनुष्य अपन कर्त्तब्यसँ किछु प्राप्त कऽ सकइयै। ओहि परम्पराक अनुरूप आ प्राचीन कट्टरता एवँ अन्धविश्वासकेँ कटैत तथा वेदक अपौरूषेयतामे अविश्वास करैत मिथिला आङनमे अवतीर्ण भेल छलाह वर्द्धमान महावीर आ गौतम बुद्ध। वर्द्धमान महावीरक जन्म वैशालीमे भेल छलन्हि– कुंडग्राममे जाहिठाम ज्ञात्रिक लोकनि रहैत छलाह। महावीरकेँ विदेह, वैदेहीदत्ता, विदेह जात्य, विदेह सुकुमार, वैशालिक एवँ वैशालिए इत्यादि कहल गेल छन्हि। आ चारांगसुत्तमे तँ साफ लिखल अछि–
“समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मा
वासिट्ठत्सगुता तीरो णं तिन्नि नां तं–
तिसला इव विदेह दिन्ना इव पियकारिणी इवा”।
महावीरक माए त्रिशलाकेँ वैदेही कहल जाइत छलन्हि। २१म तीर्थंकर नेमीनाथक जन्म सेहो मिथिलेमे भेल छल। महावीर १२टा वर्षावास वैशालीमे आ ६टा वर्षावास मिथिलामे बितौने छलाह। विदेह आ वैशालीमे महावीर बहुत रास शिष्य छलथिन्ह आ एहि सब क्षेत्रमे हिनक प्रतिपादित धर्मक विशेष प्रचार भेल छल। जैन साहित्यमे मिथिलाक प्रचुर वर्णन भेटइत अछि जाहिसँ इ स्पष्ट होइछ जैन आ मिथिलाक बीच घनिष्ट सम्पर्क छल आ मिथिलाक साँस्कृतिक परम्परा जैन विद्वान लोकनिक ध्यान अपना दिसि आकृष्ट केने छलन्हि। प्रारंभिक अवस्था बुद्ध सेहो जैन धर्म दिसि आकृष्ट आ प्रभावित भेल छलाह मुदा से मात्र किछु दिनक हेतु। बौद्ध धर्मक उत्थान आ प्रसारक पूर्व विदेह आ वैशाली जैन धर्मक एकटा प्रधान केन्द्र छल। महावीर वर्ण व्यवस्थाक विरोधी छलाह तथापि ओ त्रिवर्णक एक प्रकारे समर्थक सेहो छलाह। जैन धर्म निर्वाणपर जोर देने अछि। हरिभद्र अपन ‘षड़दर्शन समुच्चय’मे लिखने छथि–“आत्यंतिको वियोगस्तु देहादेर्मोक्ष उच्च्यते”– महावीरक विश्वास छलन्हि जे मनुष्य अपन कर्मसँ वर्ण–व्यवस्था रूपी जालकेँ तोड़ि सकइयै। चाण्डालोमे सद्गुण भऽ सकैत जे ओ उचित कर्त्तव्यक पालन करए। मनुष्यक आस्था हुनक अपूर्व विश्वास छलन्हि आ बहुत ब्राह्मणो हुनक मतकेँ महत्व दैत छलथिन्ह। कल्पसूत्रक सुखवोधिका टीकामे लिखल अछि–
जैन लोकनि दर्शन आ न्यायक क्षेत्रमे सेहो बड्ड पैघ योगदान देने छथि।
महावीरक इतिहास मिथिलाक प्राचीन इतिहाससँ जुटल अछि आ जैन साहित्यक अनुसार मिथिलाक राजा निमि जैन धर्म स्वीकार केने छलाह आ श्रमण भऽ गेल छलाह। उत्तराध्ययनसूत्रमे लिखल अछि–
“नमी नमेइ अप्पाणं सक्खं सक्केण चोइओ
चइऊण गेह चं वेदेहि सामण्णे पज्जुंवट्ठिओ”।
एहिठाम स्मरण रखबाक अछि बौद्ध परम्परामे एहने किछु बात एहि राजाक सम्बन्धमे सेहो अछि जेना कि महाजनक जातकक कथासँ ज्ञात होइछ। विदेहमे महावीरक पर्याप्त समर्थक रहल हेतन्हि एहिमे संदेह नहि। वैशालीमे तँ हिनक विशेष प्रभाव रहबे करैन्ह। एहिठामसँ जैन धर्मक प्रसार सबतरि भेल। हियुएन संगक समय धरि एहिठाम ‘निग्रंथ’ लोकनिक पर्याप्त संख्या छल। जैन लोकनि सेहो स्तुपक निर्माता होइत छलाह आ ओहन एक स्तुप वैशालीमे सेहो छल तकर प्रमाण जैन साहित्यमे भेटइत अछि।
बौद्ध धर्मक दृष्टिकोणे सेहो मिथिला महत्वपूर्ण मानल गेल अछि। ई. पू. ६ठम शताब्दी तँ समस्त विश्व इतिहासक दृष्टिकोणसँ सहजहि महत्वपूर्ण अछि, मिथिलाक हेतु तँ आ विशेष रूपें। वैदिक कर्मकाण्डक विरोध तँ उपनिषदक युगहिसँ स्पष्ट भऽ चुकल छल मुदा ओहि विरोधक परिणति भेल जैन आ बौद्ध धर्मक उत्थानसँ। मुण्डक उपनिषदक विरोध तीव्रतासँ भेल छल। विरोध तीव्रता भेलेसँ जँ काज चलितै तँ से बात नहि। एक दिसि तँ ओ लोकनि वैदिक कर्मकाण्डक विरोध केलन्हि आ दोसर दिसि एहन गहन दर्शनक प्रतिपादन केलन्हि जकरा सामान्य लोक बुझबामे असमर्थ छल। एहना स्थितिमे सामान्य लोकक हेतु सुधारक अपेक्षा छल आ बुद्धक अवतीर्ण भेनाइ ओहि अपेक्षाक पूर्ति मात्र छल। ब्राह्मण धर्मक कर्मकाण्ड आ कुरीतिसँ लोग तंग आबि चुकल छल आ एकटा निदानक खोजमे छल। विदेह आ वैशालीमे बौद्ध धर्मक पर्याप्त प्रभाव रहल हैत एकर सबसँ पैघ प्रमाण इ अछि जे मनु लिच्छविये जकाँ विदेह लोकनिकेँ व्रात्य कहने छथिन्ह। विदेह– भेलाह ओ जनक पिता वैश्य आ माता ब्राह्मण हेथिन्ह।
बौद्ध धर्मक प्रभाव मिथिलामे रहल होइत एकर प्रमाण जातक कथा साहित्यसँ सेहो भेटइत अछि। जातक कथामे एहि सम्बन्धमे बहुत रास प्रसंग अछि। सभ किछु होइतहुँ मिथिलापर बौद्ध धर्मक कोनो स्थायी प्रभाव नहि पड़ल कारण हम देखैत छी जे बौद्ध धर्मक तुरंत बाद ओहिठाम पुनः सनातन धर्मक तुती बाजए लगैत अछि। बुद्ध वैशालीक सब तरहे प्रशंसा केने छथि आ अशोक बौद्ध धर्मक प्रसारक हेतु किछु उठा नहि रखलन्हि मुदा तइयो मिथिलाक समस्त भूमि एकरा प्रभावमे स्थायी रूपे नहि आबि सकल। मिथिलाक विभिन्न क्षेत्र बौद्ध धर्मक केन्द्र आ प्राचीन अवशेष अछि मुदा धर्मक प्रभाव कोनो अवशेष नहि देखबामे अवइयै। जँ बौद्ध धर्मक प्रचार–प्रसार भेलो हैत तँ मिथिलामे शूंग–कण्व कालीन शासनक समय ब्राह्मण लोकनि ओकरा नीप–पोतिके एक कऽ देने होएताह। कनिष्क बुद्धक भिक्षापात्र लेबाक हेतु वैशाली धरि आएल छलाह आ ओहियुगक गणेशक एकटा मूर्त्ति करिऔनसँ भेटल अछि जे एहि बातक प्रमाण दैत अछि जे कनिष्कक युग धरि बौद्ध धर्मक प्रभाव एम्हर घटि चुकल छल। हियुएन संग लिखैत छथि जे सातम शताब्दीमे मिथिला वैशालीक क्षेत्रमे बौद्ध धर्मक प्रभाव घटि चुकल छल। ब्राह्मण धर्म पुनः अपन प्राचीन सत्ता प्राप्तक चुकल छल। बौद्ध धर्म एहिठाम स्थानीय सम्प्रदायमे मिलिकेँ लुप्त भऽ गेल छल।
मैथिल परम्परामे एकटा कथा सुरक्षित अछि जे पम्मार(परमार) विक्रमादित्यक राज्य मिथिला धरि छल। मिथिलामे विक्रमादित्यक एबाक कारण इ जे हरिहर क्षेत्रमे बौद्ध संघ तथा मैथिल वर्गकेँ शास्त्रार्थ भेल परञ्च बौद्ध सब राजाक बलसँ मैथिलक अपमान केलन्हि। तखन सब मैथिल क्रुद्ध भए वररूचि मिश्रक पुत्र जयादित्य मिश्रकेँ विक्रमादित्यक ओतए पठौलन्हि। ओतए शिप्रानदीक तटस्थ महाकाल शिवमन्दिरमे पूजाक समय भेंट भऽ गेलैन्ह– तखन दुनू गोटएक बीच श्लोक बद्ध प्रश्नोत्तर भेल–
“के यूयं, कुत आयाता, अत्र वक्तव्यमस्तिकिम्?
मैथिला मिथिलातोऽत्र शकादित्येन पीड़िताः॥
आसजीवति कुत्रास्ति? नेपाले बौद्ध संकुले।
इतोभ्रष्टस्ततो भ्रष्टः सोऽचिरेणभर्विष्यति”॥
तखन विक्रमादित्य मिथिला मण्डल आबिकेँ दखल कैल आ बौद्ध लोकनिकेँ पराजित केलक। हुनके वंशक राजपूत एहिठाम गन्धवरिया कहबैत छथि। बौद्ध धर्म एहिठाम हिन्दूधर्ममे मिझ्झर भऽ गेल आ सनातनधर्मी हुनका विष्णुक नवम अवतार मानि लेलथिन्ह–गीत गोविन्दमे लिखल अछि–
“निन्दसि यज्ञ विधेरहह श्रुतिजातम्।
सदय हृदय दर्शित पशु घातम्।
केशवधृत बुद्ध शरीर।
जय जगदीश हरे”।
मिथिला मौलिक रूपे सनातनी मानल जाइत अछि आ एहिठाम वर्णाश्रमक प्रतिष्ठा अति प्राचीन कालहि चलि आबि रहल अछि। उपनिषद युगमे एतए आत्मा आ ब्रह्मक विश्लेषण भेल–राजा जनक अपन कर्त्तव्य पथसँ जे एकटा मार्ग संकेत केलन्हि सेहो बहुत दिन धरि चलि नहि सकल आ जैन धर्म तँ सहजहि अन्हर–बिहाड़ि जकाँ आएल आ चलि गेल। ओ वसात ककरो लगलैक ककरो नहिओ लगलैक। बुद्ध मध्यम मार्गक समर्थक छलाह। हुनक कथन छलन्हि जे आत्मानिरोधक माध्यमसँ आत्माक उन्नति भऽ सकइयै। शील, समाधि आ प्रज्ञाकेँ इ लोकनि उत्कृष्ट यज्ञ कहलन्हि। वैशालीमे बौद्धधर्मक प्रधानता विशेष छल आ ओतए बौद्ध लोकनिक दोसर संगीति भेल छल। ओहिमे किछु क्रांतिकारी निर्णय सेहो लेल गेल छल। महायान गीतासँ प्रभावित कहल जाइत अछि। बौद्ध धर्मक उत्थानक पाछाँ वैदिक परम्पराकेँ मिथिलामे किछु चोट लगलैक। मिथिला शीघ्रहि ओहि घातक आक्रमणसँ हटिके पुनः अपना पैरपर ठाढ़ भेल।
पूर्वी भारतमे आर्य संस्कृतिक प्रथम मान्य केन्द्र रहला उत्तरो मिथिलामे धार्मिक क्षेत्रक प्रधानता छल शिव, शक्ति आ विष्णुक। त्रिपुण्ड चाननक प्रतीक इएह तीनु देवता छथि। मिथिलाक सर्वश्रेष्ठ इश्वर शिव छथि जनिका भैरव सेहो कहल जाइत छन्हि आ एहेन शायदे मिथिलामे कोनो गाम हैत जतए शिवमन्दिर अथवा भैरव मन्दिर नहि हो। एकमुख लिंगसँ चतुर्मुख लिङ्गक अवशेष मिथिलाक कोन–कोनसँ भेटल अछि। प्राचीन अभिलेखमे सेहो शिव माहेश्वरक विवरण अछि। संग्राम गुप्तक अभिलेखमे शिवक वाहन नन्दीक विवरण सेहो अछि। मिथिला कवि लोकनि सेहो शिवक महिमाक गुण–गान कएने छथि–विद्यापतिसँ चंदा झा धरि।
शक्तिक प्रधानता सेहो मिथिलामे ओतवे रहल अछि। शक्तिक संगहि संग एतए तंत्रक प्रचार सेहो विशेष रूपें भेल अछि आ मध्यकालीन मिथिलाक देवादित्य, वर्धमान, मदन उपाध्याय आदि शाक्त आ तांत्रिक छलाह। मिथिलामे नेना सभकेँ जे पहिल पाठ देल जाइत अछि ताहुसँ तंत्रक झलक भेटइयै आ अरिपन इत्यादिक आधार तँ तंत्र अछिये। मात्रिका पूजा शक्ति पूजाक प्रतीक थिक। पाग बनेबाक कला तंत्रसँ प्रभावित अछि। मिथिलाक एहेन कोनो धार्मिक अवसर नहि अछि जाहिमे शक्तिक उपासना नहि होइत हो। खोजपुरसँ एकटा दुर्गाक प्रतिमा (अभिलेख सहित) सेहो भेटल अछि। नेपालक तुलजादेवीक स्थापनाक श्रेय मैथिलेकेँ देल जाइत छन्हि।
एवँ प्रकारे मिथिलामे शिवशक्तिक प्रभाव तँ छलाहे आ अधुना अछियो। मुदा मध्ययुगमे मिथिलामे वैष्णव धर्मक प्रभाव सेहो ओतबे छल। भागवत, हरिवंश आ ब्रह्मवैवर्त्त पुराणसँ मिथिलाक वैष्णव धर्म प्रभावित छल। कृष्णक प्रभाव मिथिलामे कोनो रूपे कम नहि छल। प्राक्–विद्यापति युगसँ एकर प्रभाव देखबामे अवइयै। उमापति भवानी, हरि आ शिवक उल्लेख अपन परिजातहरणमे केने छथि। चण्डेश्वर अपन कृत्यरत्नाकरमे गौरी आ शंकरीक संगहि संग मतस्य आ कच्छप अवतारक उल्लेख सेहो केने छथि। पूजा रत्नाकरमे तँ शिव, विष्णु, दुर्गा आ सूर्यक पूजाक तांत्रिक विधिक वर्णन अछि। ज्योतिरीश्वर धूर्तसमागममे अपना शिवक पक्षधर कहने छथि। विद्यापति सब देवी–देवतापर गीत बनौने छथि। हुनक दुर्गाभक्ति तरंगिणीमे दुर्गापूजाक विधि अछि, शैव सर्वस्वसारमे शिवक महिमा अछि, ब्याढ़ि–भक्तितरंगिणीमे सर्पपूजाक विधान अछि आ वर्षकृत्यमे वर्ष भरिक कृत्यक विवरण। जतेक साहित्यकार आ दार्शनिक मिथिलामे भेल छथि सब कोनोने कोनो रूपे शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य आदि देवी–देवताक बन्दना केने छथि तैं ककरो कोनो सम्प्रदायमे बान्हिकेँ राखब उचित नहि बुझना जाइत अछि। हरपति आगमाचार्य अपन मंत्र प्रदीपमे शैव–शाक्त आ वैष्णव देवी देवताक उल्लेख कएने छथि। विष्णुपुरीक विष्णु पूजा कल्पलता एवँ भक्ति रत्नावली वैष्णव धर्मक एकटा प्रधान स्तंभ थिक।
वैष्णव धर्मक प्रसार–प्रचारमे गीत गोविन्दक विशेष हाथ रहल अछि। कृष्ण अवतारक संगहि संग सर्वश्रेष्ठ देवतो मानल जाए लग लाहे। ११–१२म शताब्दीमे नान्यदेवक मंत्री श्रीधर दास कमलादित्य (विष्णु)क एकटा मन्दिर बनौलन्हि। प्राचीन मिथिलामे विष्णुपूजाक तिथि सेहो निश्चित् रहैत छल। विष्णुक सब अवतारक पूजा होइत छल। भगीरथपुर अभिलेखसँ ज्ञात होइछ रानी अनुमतिक आज्ञासँ माधवक मन्दिर बनाओल गेल छल। विष्णुक प्रभाव मिथिलामे कतेक छल से एहिसँ बुझल जा सकइयै जे उमापति अपन पारिजातहरणमे हरिसिंह देवकेँ विष्णुक दशम अवतार मनैत छथि आ विद्यापति शिवसिंहकेँ एकादशम अवतार। नरसिंह ठाकुर कृष्णक उल्लेखक संदर्भमे वंशीवट एवम मुरलीक उल्लेख सेहो केने छथि। विद्यापति स्वयं भागवतसँ अवगत छलाह। विद्यापतिक पूर्व आ विद्यापतिक बादो वैष्णव धर्म आ पदावलीक धार बहिते रहल आ एकर प्रमाण इ अछि जे विद्यापतिक बहुत दिन बादो मनबोध अपन प्रसिद्ध काव्य “कृष्ण जन्म” (हरिवंश)क रचना केलन्हि।
बंगालमे उत्पन्न भेलोत्तर तंत्र मिथिलेमे आबिकेँ दृढ़ भेल। नवन्यायक जन्मदाता गंगेशक सम्बन्धमे किंवदंती अछि जे ओ कालीक साधना कऽ कए ओतेक पैघ विद्वान भेल छलाह। तंत्रपर मिथिलामे बहुत रास पोथी सेहो लिखल गेल अछि। देवनाथ ठाकुरक तंत्र कौमुदी एहि दृष्टिकोणे बड्ड महत्वपूर्ण अछि। हुनक दोसर पोथीक नाम अछि मंत्र कौमुदी आ इ दुनू पुस्तक तांत्रिक विधिमे ज्ञान प्राप्त करबाक हेतु महत्वपूर्ण मानल गेल अछि। नरसिंहक लिखल ताराभुक्ति सुधार्णव सेहो महत्वपूर्ण पोथी मानल गेल अछि। एहिमे केवल तारेक नहि अपितु समस्त शक्तिक पूजा विधि अछि आ एकर ग्यारहम अध्यायमे काली भक्ति सुधार्णव सेहो अछि। ताराक संग कालीकेँ अनबाक औचित्यपर विचार करैत लिखल गेल अछि।-
“यथा काली तथा तारा या तारा कालिकैव सा।
उभयोर्नहि भेदोऽस्ति।
इति गन्धर्वतंत्र वचनात् काली विधिरपि निरूप्यते”॥
हरिपति आगमाचार्य मंत्र प्रदीपक रचना केलन्हि। कुमार गदाधर शारदा तिलकपर टीका लिखलन्हि आ ओहि ग्रंथक नाम रखलैन्ह तंत्र प्रदीप। वामाचार आ कुलाचारक दृष्टिये साधक मण्डन आ भवानी भक्ति मोदिका महत्वपूर्ण पोथी मानल जाइत अछि। कहल गेल अछि जे कलियुगक तंत्रे प्रधान अछि आ शूद्र–शोलकन्हिमे एकर विशेष प्रचलन रहत। निम्नलिखित श्लोकसँ एकर स्वरूप बुझबामे आओत–
घनानंद दास नामक एकटा मैथिल कर्ण कायस्थ प्रख्यात तांत्रिक मिथिलामे भऽ गेल छथि।
सूर्यपूजाक विधान सेहो मिथिलामे छल आ एकर प्रचार सेहो। गुप्त युगक बादसँ सूर्यपूजाक प्रधानता मिथिलामे बढ़ल छल आ मिथिलाक विभिन्न क्षेत्रसँ सूर्य मूर्त्तिक भग्नावशेष सभ भेटल अछि जाहिमे बरौनीसँ प्राप्त एकटा मूर्त्ति अखनो बेगूसरायक संग्रहालयमे राखल अछि। कलात्मक आ धार्मिक दुनू दृष्टिकोणसँ इ मूर्त्ति महत्वपूर्ण अछि। एकर अतिरिक्त सबसँ महत्वपूर्ण वस्तु इ जे ओइनवार शासक नरसिंह देव सहरसा जिलाक कन्दाहा गाममे एकटा सूर्यक मन्दिर बनबौलन्हि जे अहुखन विराजमान अछि आ जाहिपर एकटा अभिलेख सेहो अछि। भवादित्यक मन्दिरक नामे अखनो ओ मन्दिर ओतए प्रसिद्ध अछि। मिथिलाक चारूकातसँ प्राप्त अभिलेख मिथिलाक धार्मिक एवँ सामाजिक आर्थिक जीवनपर पूर्ण प्रकाश दैत अछि आ ओहिसँ इहो बुझना जाइत अछि जे हिन्दू धर्मक विभिन्न सम्प्रदायक मान्यता एहि क्षेत्रमे छल। पालशासक लोकनि कक्ष विषय (कौशिकी कक्ष)मे शिवमन्दिरक निर्माण हेतु दान देने छलाह। एहि सभसँ स्पष्ट होइछ जे कोनो विशेष संप्रदायक प्रति आकृष्ट नहि भऽ एहिठामक लोग सभ देवी देवताक अर्चना करैत छलाह आ धार्मिक दृष्टिकोणमे ओहि अर्थे उदार छलाह।
महिषीक महत्व:- तांत्रिक दृष्टिकोणसँ मिथिलामे महिषीक उल्लेख करब आवश्यक भऽ जाइत अछि। गामसँ बाहर आग्नेय कोणमे पश्चिमाभिमुख एकटा मन्दिर अछि। ताहि मध्य एकटा नील सरस्वती अक्षोभ्य ऋषि सहित तारामूर्ति विराजित छथि। एहिठाम दूर–दूरसँ लोक अनुष्ठानार्थ अबैत छथि। नवरात्रमे विशेष उत्सव होइछ। ओहिठाम तारा, नील सरस्वती, एकजला, लक्ष्मीनारायण, त्रिपुरसुन्दरी, सीतला, तारानाथ आदि देवी–देवताक मूर्त्ति अछि आ ६टा कुंड सेहो जकर नाम क्रमशः अछि–ताराकुंड, ताराकंचुकीकुण्ड, वशिष्टकुण्ड, गौतमकुण्ड, अक्षोभ्यकुण्ड, आ मानसरोवरकुण्ड। एहि सभ कुण्डक वर्णन चीनाचार तंत्रमे पाओल जाइत अछि
“वशिष्टकुण्डं पापघ्नं, कुण्डं च गौतमाभिधां
अक्षोभ्यकुण्डं सफलं, चैतज्जाभ्य दिशिस्मित।
तत समीपे महेशाजि सरोमानससंज्ञकम्
माहिष्मत्याश्चमहात्मश्रृणु साध्वि बरानने।
वशिष्ठं समानिता तारणी चीन देशतः
नारिभ्येन जटाशक्ति तथा नील सरस्वती
अक्षोभ्य गरूणायुक्ता स्थापिता यत्रसुन्दरी”॥
कहल जाइत अछि जे चीनाचार तंत्र नामक पोथी दरभंगा राजक पुस्तकालयमे अछि।
मैथिली परम्पराक अनुसार दक्ष एकटा यज्ञक आयोजन केलन्हि जाहिमे ओ ने शिव आ ने पार्वतीकेँ आमंत्रित केलन्हि। ओतए सती पार्वती अपन बापक ओत यज्ञक कथा सुनि पहुँचलीह आ ओतए अपन पतिक अपमान देखि यज्ञ कुण्डमे कुदि पड़लीह। शिवकेँ जखन एहि बातक भान भेलन्हि तँ ओ ओतए पहुँचलाह आ सतीक शरीरकेँ अपना कन्हापर उठौलन्हि। शिवकेँ एहेन तमतमाएल देखि विष्णुक चिंतित हैव स्वाभाविके छल आ तैं ओ अपन चक्र घुमौलन्हि जाहिसँ सतीक देह कटि–कटिकेँ ठाम–ठाम खसए लागल। सतीक आँखि महिषीमे खसल आ तहियेसँ महिषी तंत्रक एकटा प्रधान केन्द्र बनि गेल।
एकटा दोसर परम्पराक अनुसार अति प्राचीन कालमे महिषीमे असूर लोकनिक अड्डा छल आ ओकरे नियंत्रित करबाक हेतु वशिष्ट चीनसँ शक्तिकेँ अनने छलाह। महिषीकेँ महिषासुरक राजधानी सेहो कहल गेल अछि। सभ ठामक आ सभ तरहक तांत्रिक लोकनिक जमघट एहिठाम प्राचीन कालहिसँ होइत अछि। महिषीक नील सरस्वतीकेँ तांत्रिक लोकनि महानील सरस्वती मनैत छथि जकर अप्रत्यक्ष उल्लेख हमरा लोकनिकेँ पाल अभिलेखमे “उरूनील पद्मा”क रूपमे भेटइत अछि। महिषीकेँ सिद्धपीठ सेहो मानल गेल छैक- “कमला विमला चैव तथा माहिष्मतीपुरी
वाराही त्रिपुरा चैव वाग्मती नील वाहिनी”।
मिथिला महात्म्य आ शक्तिपीठमे सेहो एकर विवरण भेटइत अछि। ओहि क्षेत्रमे वाणेश्वर महादेव सेहो अछि जकर स्थापनाक श्रेय वाणासूरकेँ देल जाइत छैक। तारा, भवादित्य आ वाणेश्वर महिषीक त्रिकोण तंत्र थिक जाहिसँ महिषीक तांत्रिक केन्द्र होएबाक प्रमाण पुष्ट होइत अछि।
एकटा लोकगीत अछि-
“भवा भवादित्य देवना महेश
बनगाँ दुर्गा मिटे कलेश
बोलोरे मधुरी वाणी दुर्गा”।
महिषीसँ थोड़ेक दूरपर मधेपुरामे प्रसिद्ध सिंहेश्वरक मन्दिर सेहो अछि। महिषीमे मण्डन–शंकराचार्य विवाद भेल छल।
ताँत्रिक केन्द्रक हिसाबे मिथिलामे कात्यायनी स्थान आ जयमंगलागढ़क सेहो बड्ड महत्व अछि। प्राचीनकालमे संभवतः जयमंगला गढ़ तांत्रिक बौद्धक केन्द्र रहल होएत। जयमंगला गढ़क उल्लेख मैथिली परम्परामे सेहो अछि आ पुरातात्विक दृष्टिकोणसँ तँ ओ पुराण स्थान अछिये। मिथिलामे तंत्रक प्रचारक जे रूप रहल हो से अलग बात मुदा एतवा धरि निश्चित अछि जे एहिठाम आदि कालहिसँ शक्ति पूजाक बड्ड महत्व रहल अछि आ अहुखन मिथिलामे घरे–घर गोसाउनिक पूजा होइते अछि। मैथिल तांत्रिक विशेष कए वामाचारक पक्षधर होइत छलाह। मिथिलामे कौल आ दशमहाविद्याक प्राधान्य छल। काली, तारा, भुवनेश्वरी, दुर्गा, पार्वती, आदिशक्तिकेँ विशेष महत्व देल जाइत छल। मिथिलाक तांत्रिकमे वामाचार आ दक्षिणाचार दुनू पाओल जाइत छथि। तंत्रक फलहि एहिठाम अभिचारकर्मक प्रारंभ भेल। लक्ष्मीधर ६४तंत्रक नाम गिनौने छथि। शूद्र आ मिश्रित जातिक लोगक हेतु वामाचारमे विशेष स्थान छल। ओना तंत्रक साधनामे जाति–पातिक कोनो विशेष महत्व नहि छल। तंत्र मिथिलाक धार्मिक जीवनक एकटा मुख्य अंग छल आ अध्ययन–अध्यापनक अतिरिक्त मिथिलामे एकर साधना सेहो कैल जाइत छल। दक्षिणाचार प्रतिष्ठित बुझल जाइत छल। कहल जाइत अछि जे तंत्र लऽ कए मिथिला आ चीनक सम्पर्क भेल छलैक। मिथिलामे अहुखन नवरात्रक विशेष महत्व अछि आ अहुँसँ एकर तंत्रसँ प्रभावित हैव सिद्ध होइत अछि।
दार्शनिक पृष्ठभूमिमे मिथिलामे जे धार्मिक विकास भेल ताहि फले मिथिलामे कर्मकाण्डक अभिवृद्धि भेल आ इ मिथिलाक साँस्कृतिक जीवनक एकटा प्रधान अंग बनि गेल। कर्मकाण्डक विकास एहिठाम प्राचीन कालमे भेल आ एखनो हमरा लोकनिक जीवन एवँ संसारपर एकर प्रभाव देखबामे अवैत अछि। वर्णाश्रमक विकासक संगहि संग कर्मकाण्डो अपना लोकनिक जीवन संस्कारक एक प्रमुख अंग बनि गेल अछि। कर्मकाण्डपर अनेकानेक ग्रंथ मिथिलामे लिखल गेल अछि आ कर्णाट कालमे वीरेश्वर, गणेश्वर आ रामदत्त एहिपर कतेको पोथी लिखने छथि। चण्डेश्वरक ‘गृहस्थरत्नाकर’ आ ‘कृत्यरत्नाकर’ तथा ‘पूजारत्नाकर’ एहि दृष्टिकोणसँ बड्ड महत्वपूर्ण अछि। मिथिलाक मुख्य संस्कार जे सभ वर्णमे देखल जाइत अछि से भेल नामकरण, चूड़ाकरण, उपनयन आ विवाह। इ सभ कार्य मिथिलामे अपना पद्धतिक अनुसार होइत छल। प्राचीन मिथिलामे जैमिनीय कर्म मीमाँसा समाहृत छल आ एखनो एकरे प्रधानता अछि। कर्मकाण्डक पुष्टिकरणक हेतु तँ महाराज भैरवसिंहक शासन कालमे जरहटिया गाममे १४००मीमाँसक एक महान सम्मेलन भेल छल। जरहटियामे सभसँ पैघ पोखरि अछि जकर यज्ञ बड्ड उत्साहसँ भेल छल जाहिमे देश देशांतरक राजा आ विद्वानकेँ बजाओल गेल छल। लंकाक राजाकेँ आमंत्रित करबाक हेतु चौहान संग्राम सिंह आ केसरी सिंहकेँ पठाओल गेल छलन्हि।
मैथिल लोकनि श्रौत, स्मार्त आ आगम तीनू कर्मकाण्डक अनुष्ठानक विधि लिखने छथि। एहि दृष्टिकोणसँ गोकुल उपाध्यायक कुण्डकादम्बरी महत्वपूर्ण मानल गेल अछि। एकर अतिरिक्त संध्या तर्पण आ एकोदिष्टसँ पार्वनक नियम सेहो मैथिल लोकनिक ओतए प्रचलित अछि। मैथिल श्रीदत्तक ‘आह्निक’क प्रचलन एखनहुँ देखबामे अबैछ। विद्यापतिक ‘वर्षकृत्य’ सेहो एहि दृष्टिकोणसँ महत्वपूर्ण अछि। कर्मकाण्डपर अनेकानेक ग्रंथक प्रणयन भेल छल जाहिमे देशकर्म पद्धतिक बड्ड नाम छल। पूर्व–मीमाँसक लोकनिक ध्यान सेहो एहि दिशि गेल छलन्हि। श्राद्ध कर्मपर सेहो अनेकानेक ग्रंथक रचना भेल।
शिव शक्ति आ विष्णु पूजाक विधानपर सेहो पोथी लिखल गेल। नारायण पालक अभिलेखसँ ज्ञात होइछ जे कौशिकी कक्ष क्षेत्रमे एक हजार शिव मन्दिर बनल छल। मिथिलामे त्रिमूर्त्ति (ब्रह्मा–विष्णु–महेश)क कल्पना बड्ड पुरान रहल अछि। मुदा व्यवहारमे देखबामे इएह–अवैत अछि जे मिथिलामे शिव आ शक्तिक जनप्रियता विशेष रहल अछि। तंत्रक प्रधानता ताहु दिनमे छल आ एखनो अछि। तांत्रिक केन्द्र होएबाक कारणे मिथिलाक प्रसिद्धि विशेष छल आ बाहरोसँ लोक एहिठाम अबैत जाइत छलाह। शक्ति पूजाक विराट रूप अखनहुँ मिथिलामे देखल जाइत अछि। नवरात्रक महत्व अखनो एतए बड्ड अछि। तंत्रक प्रभाव तँ एहिठामक वेश भूषा आ साधारण जीवनमे अखनो देखबामे अवइयै जेना अइपन, साँवर पूजा, पाग, त्रिपुण्ड इत्यादि। मातृकापूजाक प्रथा प्राचीन कालसँ अद्यावधि विराजमान अछि। वर्णरत्नाकरमे विभिन्न प्रकारक सम्प्रदायक उल्लेख अछि आ ओहिसँ इहो ज्ञात होइछ जे एहिठाम नाथ पंथ आ अन्यान्य मतक विकास सेहो भेल छल। धर्मस्थान आ सिद्ध लोकनिक वर्णन सेहो ओहि पोथीमे अछि। ज्योतिरीश्वर ‘बौद्ध पक्ष’क व्यवहार केने छथि आ ओहि संगे उदयनक उल्लेख सेहो।
पावनितिहारक उल्लेख हमरा लोकनिकेँ चण्डेश्वरक कृत्यरत्नाकरसँ भेटइत अछि। फागुन मासमे होलीक उल्लेख भेल अछि। प्रत्येक मासमे कोनो ने कोनो उत्सव होइते छल। प्रत्येक पूजाक अवसरपर यज्ञ आओर दानक व्यवस्था छल। स्कंद पूजा दीपजराकेँ होइत छल। कार्तिकेयक व्रतक बड्ड महत्व छल। हिन्दोल चैत्र, मदन द्वादशी, वसंतोत्सव, अक्षयतृतिया, गौरीव्रत, गंगा दशहरा, मत्स्य–द्वादशी, दुर्गाक रथयात्रा, पितृपक्ष, नवरात्र, देवोत्थान एकादशी, कोजागरा, शिव चतुर्दशी, आदि पावनिक नाम चण्डेश्वर लिखने छथि। मिथिलामे बिहुला पूजा, इन्द्रपूजा, कृष्णाष्टमी, गणेश चतुर्थी, जीतिया, धन्वन्तरी पूजा, दीपावली, सामाचकेबा, मधुश्रावणी, नेवान्न आदिक विधान सेहो बनल अछि। हरिहर क्षेत्रक स्थान सेहो प्राचीन कालहिसँ प्रसिद्ध रहल अछि।
मिथिलामे मुसलमानक एलाक बाद दुनू संप्रदायक बीच क्रमेण समन्वय स्थापित भेल आ मिथिला क्षेत्र सूफी लोकनिकेँ विशेष रूपें आकृष्ट केलक। ज्योतिरीश्वर आ विद्यापतिमे जे अरबी–फारसी शब्द भेटइयै ताहिसँ स्पष्ट भऽ जाइछ जे मिथिलामे मुसलमानक सम्पर्क पूर्वहिसँ रहल होइत। इस्लामी संस्कृतिक प्रभाव मिथिलाक धर्म आ संस्कृतिपर पड़ल होएत एहिमे कोनो सन्देह नहि। सत्यनारायण पूजा एकर एकटा प्रमाण देल जा सकइयै। मिथिलाक मुसलमानोपर एहिठामक संस्कृतिक प्रभाव पड़ल। तजिया दाहामे मैथिल लोकनि सेहो सक्रिय भाग लैत छथि। अकबरक चलाओल फसली संवतक व्यवहार मिथिलामे विशेष अछि। मैथिलीरागमे इमान आ फिरदौस मुसलमानी संपर्कक देन थिक। मुसलमान लोकनि मिथिलामे रहि मैथिल संस्कृतिसँ प्रभावित भेलाह आ सूफीक अप्रत्यक्ष प्रभाव तँ मिथिलाक भक्ति भावनापर देखले जा सकइयै। लोरिक कथापर आधारित दाउद अपन प्रेमकाव्य चन्दायन लिखने छथि। एवँ प्रकारे साँस्कृतिक समन्वय दुनू संस्कृतिमे भेल। अंग्रेजक आवागमनसँ अहुस्थितिमे परिवर्त्तन भेल मुदा मिथिलाक कट्टरता मिथिलामे इसाई धर्मक दालिकेँ गले नहि देलकन्हि। ओना ठाम–ठाम गिरिजाघर फूजल मुदा ताहिसँ कोनो प्रभाव मिथिलाक जनजीवनपर नहि पड़ल। धर्ममे एहिठाम अखनो कर्मकाण्डी लोकनिक संख्या विशेष अछि आ कट्टर मैथिल अखनो सहजहि अपन अधिकार छोड़बा लेल प्रस्तुत नहि होइत छथि। ओ क्रियाकर्मकेँ विशेष महत्व दैत छथि आ अपन पद्धतिक अनुसार सभ काज करबाक पक्षपाती होइत छथि।
दर्शन:- मिथिला प्राचीन कालहिसँ दर्शनक एकटा प्रधान केन्द्र रहल अछि। ब्रह्मविद्याक जन्मदाता जनक जाहि दर्शनक श्रीगणेश केलन्हि तकर अभिवृद्धि दिनानुदिन होइत गेल आ मिथिला अपन न्याय आ दर्शनक हेतु जगत्प्रसिद्ध भऽ गेल। “ततत्वंअसि”क मूलमंत्र हमरे लोकनि देने छी जकर विश्लेषण बादक प्रकाण्ड पण्डित लोकनि विभिन्न रूपे कएने छथि। माया, कर्म, मुक्ति, आत्मा सभहिक विश्लेषण राजा जनकक ओहिठाम भेल छल। धर्म मनुष्यक आन्तरिक सुखानुभूतिक वस्तु थिक–एहु सिद्धांतक विवेचन मिथिलेमे भेल अछि आ शतपथ ब्राह्मणमे कहल गेल अछि–“मनश्चहं वैवाकच भुजो देवभ्यो यज्ञः वहतः”– स्मरण रखबाक वस्तु इ अछि जे प्राचीन परम्पराक अवहेलना राजा जनक यज्ञ करबाक अधिकारक घोषणासँ कैलन्हि आ यज्ञ सेहो बिना पुरोहित वर्गक हस्तक्षेपकेँ। ओहि युगक हिसाबे इ एक महान क्रांतिकारी बात छल जकर नेतृत्व कए जनक पूर्वी भारतमे एकटा नव कीर्त्तिमानक स्थापना केलन्हि आ भविष्यक हेतु मार्गदर्शन सेहो। जखन ओ इ काज सफलता पूर्वक कऽ लेलन्हि तखन हुनक अभिलाषा तँ पूर्ण भेवे केलन्हि मुदा एकरा संगहि संग इहो मान्य भेल जे कर्मक माध्यमसँ सभ केओ सभ किछु भऽ सकइयै। उपनिषद साहित्य मिथिलाक एहि गुण गौरवसँ भरल–पुरल अछि। जनकक एहि प्रतिज्ञासँ मिथिलामे एक नूतन युगक आविर्भाव भेल।
आत्माक तत्वज्ञक हेतु संसारमे कोनो बाधा नहि रहि जाइत छैक। एहि सत्यक विवेचन मिथिलहिमे भेल अछि–“तरति शोकं आत्मवित्”– आओर एकरहि संगहि संग इहो कहल गेल अछि जे “ब्रह्मविद् बहमैव भवति”। ब्रह्मक जननिहारे ब्राह्मण कहबैत अछि। बृहदारण्यक उपनिषदमे एहि सभ बातक स्पष्टीकरण भेल अछि। राजा जनकक ओहिठाम दूर–दूरसँ दार्शनिक लोकनि अवैत छलाह आ तैं मिथिलाकेँ दार्शनिकक भूमिए कहल गेल अछि। साँस्कृतिक दृष्टिकोणसँ तँ ओहुना उपनिषद युग भारतीय संस्कृतिक चरमोत्कर्ष मानल गेल अछि। मिथिलामे प्रारंभहिसँ छात्र लोकनिकेँ दार्शनिक शिक्षा देल जाइत छलन्हि आ एहि प्रकारे दार्शनिक शिक्षाक पृष्ठभूमि बनाओल जाइत छल। एहिठाम कुरू–पाँचाल धरिसँ लोग दार्शनिक शिक्षा लेबए अबैत छलाह। जनक स्वयं अपने पैघ–पैघ विद्वानसँ शिक्षा प्राप्त केने छलाह। हुनका दरबारमे पैघ–पैघ विद्वान सेहो रहैत छलथिन्ह। ओ अश्वमेध यज्ञ सेहो केने छलाह।
ब्रह्मवैवर्त्तमे कहल गेल अछि जे निमी आ हुनक उत्तराधिकारी जनक वैदेह आयुर्वेदपर सेहो लिखने छलाह। एहि युगमे गौतम आ कपिल आयुर्वेद शास्त्रपर सेहो लिखने छलाह। चक्रपाणि शुश्रुतक टीकामे कपिलक उल्लेख केने छथि। व्यास निदान ग्रंथक टीकामे गौतमक उल्लेख केने छथि। मिथिला गयायुर्वेद (गाय बड़दक आयुर्वेद)पर सेहो एकटा ग्रंथ एहियुगमे लिखल गेल छल मुदा ओकर कोनो प्रमाण अखन नहि भेट रहल अछि। शुश्रुत अपन पोथी उत्तरतंत्रमे विदेह राज्यक वर्णन कएने छथि–“शाकल्य शास्त्राभिहिता विदेहाधिप कीर्तितः”। न्यायशास्त्रक प्रणेता महर्षि गौतम मैथिल छलाह। गौतमक अक्षपादक उल्लेख चीनी यात्रीक विवरणमे सेहो भेटइत अछि। राहुलजीक अनुसार अक्षपाद, वात्साययन आ उद्योतकर मैथिल छलाह। याज्ञवल्क्यक जीवन चरित्र तँ सहजहि मिथिलाक साँस्कृतिक इतिहासक जीवन चरित्र थीक। केओ केओ हुनका योगदर्शनक अगुआ सेहो मनैत अछि। “योगीश्वरंयाज्ञवल्क्यं संपूज्य मुनयोऽब्रुवन्”। याज्ञवल्क्यक सामाजिक ओ सांस्कृतिक विचार उदार छल। गौतम, कपिल, ऋषि श्रृंग्य (मधेपुराक स्थित श्रृंगेश्वरक संस्थापक), विभाण्डक, सतानन्द, वेदवती आदि विद्वान–विदुषी मिथिलाक गौरवकेँ उठौने छथि।
सामान्यतया दर्शनक संख्या ६ मानल गेल अछि। नास्तिक दर्शन विश्वक प्रत्यक्ष रूपकेँ निरूपण केनिहार शास्त्र थिक। नाम, रूप, कर्मवाला पदार्थक (प्रत्यक्ष जगतक) नास्तिक दर्शन जतेक गंभीरतापूर्वक विचार केलक अछि ततेक आस्तिक दर्शन दृश्य जगतपर नहि। एहि तथ्यकेँ दृष्टिमे राखि नास्तिक दर्शनक अवहेलना नहि कैल जा सकइयै। ओकर ज्ञान राखब आवश्यक। वेदांत निर्गुण आत्मा मानैत अछि। जैन दर्शनक मुक्तिक तीन प्रधान मार्ग अछि–सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान आ सम्यग् चरित्र। वैशेषिकक उद्देश्य प्रधान तथा विश्व थिक। वैशेषिक दर्शन ईश्वरक द्वारा साक्षात सृष्टिक उद्भव नहि मानि ईश्वरक इच्छासँ सृष्टिक प्रवृत्ति मानैत अछि। अणुवाद एहि तंत्रक प्रिय धरातल थिक। महामुनि कपिल वैशेषिक तंत्र संमत परमाणुवादसँ संतुष्ट नहि छलाह। वैशेषिक दर्शनक प्रधान लक्ष्य अधिभूत प्रपंच थिक– द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय– जकर आधिभौतिक जगतसँ सम्बन्ध मानल गेल अछि। साँख्य एहि सभसँ अतिरिक्त एक पुरूष सत्ता आ मनलक अछि। कपिलक दर्शन साँख्य नामे विख्यात अछि। साँख्यतंत्र प्रकृतिकेँ जगतक कारण मनलक अछि। प्रकृत्ति जगतक कर्त्री थिकीह।
वैशेषिक परमाणुसँ विश्वक उत्पत्ति मानैत अछि। इ दर्शन स्थूल शरीर सम्बन्धी भूतक व्याजसँ सांसारिक पदार्थक साधर्म्य एवँ वैधर्म्यक निरूपण केलक अछि। नास्तिक दर्शनकेँ शास्त्रार्थ द्वारा परास्त करबाक उद्देश्यसँ तर्कशास्त्रक निर्माण भेल।
विदेहक राज्य सभामे एवँ याज्ञवल्क्यक सभापतित्वमे ब्राह्मण ग्रंथक निर्माणेटा नहि भेल अपितु गूढ़ धर्मतत्वक निर्णय सेहो। कर्मक अनुष्ठान करबामे कृष्ण विदेह राज जनककेँ ओ सर्वश्रेष्ठ मनने छलाह आ ओकरे आदर्श मनैत छलाह। न्यायशास्त्रक उद्गम स्थल मिथिले अछि। गौतम एवँ कणाद मैथिल छलाह। भारतीय गूढ़ दर्शनक तत्वक विवेचना मिथिलामे प्रारंभ भेल छल आ ओहि परम्पराकेँ बादमे मण्डन, वाचस्पति, मदन, उदयनाचार्य, गंगेश, पक्षधर, आ शंकर मिश्र बढ़ौलन्हि। मिथिलामे पूर्व मीमाँसा आ वेदांत (उत्तर मीमाँसा)क पूर्ण रूपेण विकास भेल छल। कर्मकाण्ड (पूर्व मीमाँसा) आ ज्ञान काण्ड (उत्तर मीमाँसा)पर एहि ठाम विशद् विश्लेषण कैल गेल। वेदांतक माध्यमसँ ब्रह्म–जिज्ञासापर जोर देल गेल अछि। वेदांत उपनिषद्, गीता आ वादरायणक ब्रह्मसूत्रपर आधारित अछि। वेदांतक विश्लेषण बादमे बहुतो गोटए अपना–अपना ढ़ँगे केने छथि। न्याय आ मीमाँसाकेँ मिथिलाक अपूर्व देन मानल जाइत अछि। गौतमसँ गंगेश धरि दर्शनक इतिहास मिथिलाक एकटा स्वर्णिम पृष्ट मानल गेल अछि। मीमाँसाकेँ प्रखर केनिहार छलाह कुमारिल, प्रभाकर आ मुरारी।
मिथिलाक दर्शनक इतिहासमे कुमारिल आ शंकरक नाम स्वर्णाक्षरमे लिखल गेल अछि। ब्रह्मसूत्रपर टीका लिखि शंकर वेदांतकेँ आ जगजिआ केलन्हि। कुमारिल जैमिनीक मीमाँसा सूत्रक आलोचना केने छथि। हुनका भट्टक पदवी छलन्हि आ तै हुनक मतकेँ भट्टमत सेहो कहल जाइत छन्हि। मैथिल लोकनि हिनका मिथिलाकेँ मनैत छथि आ आनन्दगिरी शंकर दिग्विजयमे मण्डन मिश्रकेँ कुमारिलक भगिनीपति कहने छथि। भट्टपुराक निवासी कुमारिलकेँ मानल गेल अछि आ हुनका मतकेँ भट्टमत कहल गेल अछि। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्तिसँ सेहो हुनका वाद–विवाद भेल छलन्हि। हिनक प्रसिद्ध पुस्तक अछि श्लोक वार्त्तिक, तंत्रवार्त्तिक, वृहत् टीका, मध्यम टीका इत्यादि। तंत्र वार्त्तिक शबर भाष्यपर टीका थिक। श्लोकवार्त्तिकपर बहुत रास मैथिल विद्वान सभ टीका लिखने छथि। भट्टमतक संस्थापकक रूपेँ ओ मिथिलामे प्रख्यात छथि।
पूर्व मीमाँसा आ वेदांतक क्षेत्रमे मिथिलाक इतिहासमे मण्डन मिश्रक नाम अग्रगण्य अछि। एक परम्पराक अनुसार वाद विवादमे मण्डन शंकराचार्य द्वारा पराजित भेलाह आ शंकराचार्यक मत ग्रहण केलाक बाद ओ सुरेश्वराचार्यक नामे प्रसिद्ध भेलाह। अपन रचनासँ ओ बौद्ध दार्शनिक लोकनिकेँ धतौलन्हि। मण्डन–सुरेश्वराचार्यक मिलौनाइ विद्वानकेँ ग्राह्य नहि छन्हि। मैथिल परम्पराक अनुसार मण्डन महिषीक रहनिहार छलाह आ शंकर जखन वाद–विवादक हेतु आएल छलाह तखन ओ काफी बृद्ध भऽ गेल छलाह। ओ कुमारिलक बहनोइ छलाह आ हुनक पत्नी भारती अद्वितीय विदुषी छलथिन्ह। मण्डन भट्टमतक विशेषज्ञ आ व्याख्याता छला आ कुमारिलक तंत्रवार्त्तिकपर टीका लिखने छलाह। मण्डनक प्रसिद्ध पुस्तक अछि विधि विवेक, भावना विवेक, विभ्रम विवेक इत्यादि। अपन रचनाक आधारपर ओ अद्वैतक प्रवर्त्तक कहल जा सकैत छथि। हुनक अद्वितीय विद्याक हेतु शंकरकेँ एतए आबए पड़ल छलन्हि आ दुनूक बीच जे वार्त्तालाप भेल छल ताहिमे भारती सभापतित्व केने छलीह। मण्डनक ब्रह्मसिद्धि प्राक्–शंकर वेदांतक प्रसिद्ध ग्रंथ मानल गेल अछि। “स्वतः प्रमाण” (मीमाँसा वेदांत) आ “परतः प्रमाण” (न्यायादि) शब्द हुनक दार्शनिक ज्ञानक परिचय दैत अछि। ‘ब्रह्मसिद्धि’क “ब्रह्मतत्व समीक्षा”क अंशपर वाचस्पति टीका लिखने छलाह।
मीमाँसाक क्षेत्रमे गुरूमतक प्रवर्त्तक प्रभाकर मिश्रक उल्लेख करब आवश्यक बुझना जाइत अछि। एहिमतकेँ प्रभाकर स्कूल सेहो कहल जाइत अछि। मीमाँसाक लोकनि हिनका गुरूक पदवी देने छथिन्ह। इ मण्डन मिश्रक सहपाठी छलाह। शबर भाष्य हिनको एकटा टीका छन्हि–‘बृहतिः’। प्रभाकरक मतकेँ गुरूमत, कुमारिलक मतकेँ भट्टमत आ मुरारि मिश्रक मतकेँ मिश्रमत कहल जाइत छैक। मुरारिक पथ हिनका दुनूसँ भिन्न छल। मुरारिक पथ ‘तृतीय पथ’ कहल गेल छैक।
वाचस्पति मिश्रक नाम मिथिलाक दर्शनक इतिहासमे अद्वितीय अछि। ओ पूर्वी मिथिलाक निवासी छलाह आ ओम्हुरके राजाक दरबारमे रहैत छलाह। राहुलजीक अनुसारे वाचस्पतिक प्रसादे मिथिलाक दार्शनिक ज्ञान बाँचल, बढ़ल आ बौद्ध दार्शनिकक आक्रमणसँ बचि सकल। बौद्ध दर्शनक खण्डन कए ओ आदर्शवादी दर्शनक रक्षा केलन्हि। उद्योतकरक न्यायवार्त्तिकपर हुनक टीका प्रसिद्ध अछि। वाचस्पतिकेँ षडदर्शनवल्लभ, सर्वतंत्र स्वतंत्र आ द्वादश दर्शनटीकाकारक संज्ञा भेटल छलन्हि। हुनका तात्पर्चाचार्यक पदवी सेहो छलन्हि। शंकर भाष्य ब्रह्मसूत्र ओ जे अपन टीका लिखने छलाह तकर नाम छल भामती (अपन पत्नीक नामपर) जकर विशद विश्लेषण अखनो अपेक्षिते अछि। वेदांत साहित्यमे भामतीक स्थान अद्वितीय अछि आ ओहिमे ओ बौद्ध सिद्धांत ‘प्रतीत्य समुत्पाद’क उल्लेख सेहो केने छथि। तात्पर्य टीकामे ओ दिङ्नागक उक्ति देने छथि। षडदर्शनक सभ अंशपर ओ अपन विवेचन उपस्थित केने छथि आ ईश्वर कृष्णक साँख्यकारिकापर हुनक टीका साँखतत्व कौमुदी साँख्य साहित्यमे अद्वितीय स्थान रखैत अछि। मण्डन मिश्रक विधि विवेक आ ‘ब्रह्मसिद्धि’पर ओ क्रमशः न्यायकणिका एवँ तत्वसमीक्षा, तत्वबिन्दू नामक टीका लिखलन्हि। अपना युगमे ओ समस्त उत्तर भारतमे वेदांतपर एक मात्र अधिकारी विद्वान मानल जाइत छलाहे। न्यायकणिका न्यायक अपूर्व पुस्तक मानल गेल अछि। दर्शनक क्षेत्रमे हुनका सर्वज्ञ मानल गेल अछि। दृष्टिश्रृष्टिवाद एवँ जीवश्रृष्टिअविद्यापक्षक हुनका संस्थापक मानल गेल अछि। योगदर्शनक टीका रूपे ओ तत्ववैशारदी लिखलन्हि। एहिसँ इ प्रत्यक्ष भऽ जाइछ जे दर्शनक एहेन कोनो शाखा नहि छल जाहिपर ओ नहि लिखने होथि। हिनकहि प्रयाससँ समस्त न्यायशास्त्रपर मिथिलाक एकाधिपत्य भेल। इ बौद्ध दार्शनिक वसुबन्धुक उल्लेख सेहो कएने छथि।
मीमाँसाक इतिहासमे पार्थसारथी मिश्रक नाम सेहो उल्लेखनीय अछि। शास्त्रदीपिका नामक पोथी हिनक प्रसिद्ध अछि। इ कुमारिलक समर्थक छलाह आ सालिकनाथ मिश्र प्रभाकरक। श्लोकवार्त्तिकपर पार्थसारथी मिश्रक टीका न्याय रत्नाकरक नामे प्रसिद्ध अछि।
एकर बाद मिथिलामे अवतीर्ण भेलाह प्रसिद्ध नैयायिक उदयनाचार्य। इ न्यायशास्त्रक अद्वितीय विद्वान छलाह। किरणावली, कुसुमाँजलि, न्याय परिशिष्ट, न्यायवार्त्तिक, तात्पर्य परिशुद्धि, आत्मतत्वविवेक आदि हिनक लिखल प्रसिद्ध पुस्तक सभ अछि। न्यायक क्षेत्रमे ओ अद्वितीय मानल गेल छथि आ अपन तर्क प्रणालीसँ ओ बौद्ध लोकनिकेँ परास्त कए पूर्ण यश प्राप्त केने छलाह। मैथिली परम्परामे तँ एतेक धरि कहल गेल अछि जे ओ बौद्धसँ ततेक दूर रहए चाहैत छलाह जे ओ मिथिलासँ दूर जाके राजा आदिसूरक धर्माधिकरणिक बनि गेलाह। हुनक ग्रंथ लक्षणावलीसँ ज्ञात होइछ जे ९८४इ.मे ओ जीवित छलाह। आत्मतत्वविवेक चारि परिच्छेदमे बटल अछि–
i) प्रथम परिच्छेदमे संसारक अस्थायित्वपर विचार भेल अछि।
इ हुनक सभसँ प्रसिद्ध ग्रंथ मानल गेल अछि आ एहिमे ओ बौद्ध लोकनि पूर्ण आलोचना केने छथि आ बौद्धक अनात्मवादक विरूद्ध एहिमे आत्माक प्रतिष्ठाकेँ पुनर्स्थापित कैल गेल अछि। न्यायकुसुमाञ्जलिमे सेहो ईश्वरक स्तित्वपर विचार कैल गेल अछि आ बौद्धक दृष्टिकोणक आलोचना सेहो। तेरहम शताब्दीमे वर्द्धमान ‘प्रकाश’क टीका आ रूचिदत्त ‘मकरन्द’ नामक टीका एहिपर लिखलन्हि। वैशेषिकक दृष्टिकोणसँ उदयन अपन न्याय पद्धतिक स्थापना केने छलाह। नव–न्यायक प्रमुख संस्थापकमे हुनक नाम आएब स्वाभाविके। हुनका नामपर निम्नलिखित श्लोक प्रचलित अछि–
“एश्वर्य मदमत्तोऽसि मामवज्ञाय वर्त्तसे
पुनर्बौद्धे समायाते मदधीना तवस्थितिः” –
मीमाँसाक अतिरिक्त मिथिलाक महत्वपूर्ण योगदान नव–न्यायक क्षेत्रमे रहल अछि। एहि नव न्यायक संस्थापक छलाह गंगेश उपाध्याय। उदयनाचार्य बौद्धक विरूद्ध जे तर्कपूर्ण विवाद प्रारंभ केने छलाह तकर स्वागत बंगालक रघुनाथ शिरोमणि तथा मिथिलाक शंकर मिश्र आ भगीरथ ठाकुर, अत्रेय नारायणाचार्य आदि बादमे ओकर विशद विश्लेषण सेहो केने छलाह। उदयनाचार्यक पूर्वहिसँ मिथिलामे मण्डन–वाचस्पति दर्शनक जे एकटा अविच्छिन्न श्रृंखला चलौने छलाह तकर परिणति भेल गंगेशक नव–न्यायक स्थापनामे। करिऔनमे ताहि दिनमे दर्शनक अध्ययन–अध्यापनक एकटा प्रधान केन्द्र छल आ ओतहि भेल छलाह उदयनाचार्य आ ओहि केन्द्रक छात्र छलाह गंगेश उपाध्याय।
पुरनका न्याय आ वैशेषिककेँ मिलाजुलाकेँ नवन्यायक जन्मदाता छलाह गंगेश। नव–न्यायपर श्रीहर्षक खण्डन–खण्ड–खाद्यक प्रभाव सेहो देखबामे अवइयै। गंगेश अपन तत्वचिंतामणिमे श्रीहर्षक मतक आलोचना केने छथि। गंगेशमे हमरा मीमाँसा आ वेदांतक आलोचना सेहो भेटइत अछि। ओ मात्र चारिटा प्रमाणकेँ मनैत छथि–i) प्रत्यक्ष, ii) अनुमान, iii) उपमान, आ iv) शब्द। पुनः प्रत्यक्षकेँ बारह वादमे, अनुमानकेँ सत्रह वादमे, आ शब्दकेँ सोलह वादमे बाँटल गेल अछि। बादमे चलिकेँ नवद्वीपक लोग सभ अनुमानपर विशेष जोर देलन्हि। ताहि दिनसँ अद्यावधि तत्वचिंतामणि अद्वितीय न्यायक ग्रंथ मानल गेल अछि आ नव–न्यायक तँ इ मूल श्रोते भेल। मिथिलासँ पढ़िकेँ गेलाक बाद जखन रघुनाथ शिरोमणि नादियामे नव–न्यायक स्थापना केलन्हि तखन ओहिठाम गंगेशक ग्रंथपर बहुत रास आलोचना लिखल गेल। मिथिलामे पक्षधर मिश्र एहि ग्रंथपर ‘आलोक’ नामक टीका लिखलन्हि आ बंगालमे हुनक शिष्य रघुनाथ शिरोमणि ‘दीधिति’ नामक टीका आ मथुरानाथ तर्कवागिश ‘प्रकाश’ नामक टीका लिखलन्हि। पुनः ‘दीधिति’पर जागदीशी आ गदाधरी टीका लिखल गेल। गंगेश तँ एहिरूपक नव–न्यायक सृष्टि केलन्हि जे आगाँ चलिकेँ विशेष विद्वत–प्रिय भेल आ प्राचीन न्यायशास्त्र पठन प्रणालीमे आमूल परिवर्त्तन अनलक। युग युगांतरसँ भारतमे मैथिल लोकनि श्रेष्ठतम नैयायिक भेल छथि। नव–न्यायक स्थापना तँ मिथिलामे भेल मुदा एकर प्रस्फुटन नादियामे (देखु–इंगलस नामक अमरीकी विद्वानक पोथी–“मटेरियल्स फार द स्टडी आफ नव–न्याय”)। गंगेशक पुत्र वर्द्धमान सेहो पैघ नैयायिक भेलाह। ओ गंगेशक सभ पोथीपर टीका लिखने छथि। ‘प्रकाश’नामक टीकाक रचयिता ओ छलाह। लीलावती प्रकाशमे ओ अपन पिताक सम्बन्धमे कहने छथि–
“न्यायाम्भोज पतङ्गाय मीमाँसा पार दृश्यने
गंगेश्वराय गुरवेपित्रेऽत्र नमः”
एहिठाम इ स्मरण रखबाक अछि जे वर्द्धमान धर्माधिकरणिक वर्द्धमानसँ भिन्न छलाह। बड्ड प्रतिष्ठाक संग सर्वदर्शन संग्रहमे हिनक उल्लेख भेल अछि। नव–न्यायक क्षेत्रमे मिथिलामे निम्नलिखित व्यक्ति प्रसिद्ध भेल छथि– पक्षधर (जयदेव), वासुदेव, रूचिदत्त, भगीरथ ठाकुर, महेश ठाकुर, शंकर मिश्र, वाचस्पति मिश्र (अभिनव), मिसारू मिश्र, दुर्गादत्त मिश्र, देवनाथ ठाकुर, मधुसुदन ठाकुर इत्यादि।
वाचस्पति मिश्र न्याय, मीमाँसा धर्मशास्त्र आदिक प्रकाण्ड पण्डित भेल छथि। हुनक पुत्र नरहरि मिश्र सेहो महान विद्वान छलथिन्ह। अयाची मिश्रक पुत्र शंकर मिश्र अपना युगक अद्वितीय विद्वान छलाह। शंकर मिश्रक पिता भवनाथ मिश्र सेहो पैघ नैयायिक छलाह। शंकर मिश्रक सम्बन्धमे कहबी अछि जे जखन ओ नेना छलाह तखन मिथिलाक कोनो राजा ओहि बाटे जा रहल छलाह जे हिनक सौन्दर्यसँ अत्यंत मुग्ध भऽ गेलाह आ बालककेँ बजाकेँ कोनो श्लोक सुनेबाक हेतु कहलथिन्ह। शंकर मिश्र निम्नलिखित श्लोक सुनौलन्हि–
“बालोऽहं जगदानन्द न मे वाला सरस्वती
अपुर्णे पंचमे वर्षे वर्णयामि जगत्रयम्”।
महाराज कहलथिन्ह जे अपन आनक मिश्रित कए श्लोक पढ़ू–तखन शंकर मिश्र पढ़लन्हि–
“चलितश्चकितश्छन्नः प्रयाणेल्व भूपते
सहर्षशीर्षा पुरूषः सहश्राक्षः सहस्त्रपात्”।
महाराज प्रसन्न भए दान देलथिन्ह। शंकर मिश्र महाराज भैरव सिंहक कनिष्ठ पुत्र राजा पुरूषोत्तम देवक आश्रित रहैथ। शंकर अपना समयक अद्वितीय विद्वान छलाह आ बहुत रास पोथीक प्रणेता सेहो रहल छथि।
पक्षधर मिश्र (जयदेव–पीयूष वर्ष) विद्यापतिक समकालीन व्यक्ति छलाह आ मिथिलाक नव–न्यायक एक प्रकाण्ड विद्वान सेहो। उहो भैरव सिंहक समयमे विराजमान छलाह। न्याय–शास्त्र ओ अदभूत विद्वान छलाह। मैथिली परम्परामे इ बात सुरक्षित अछि जे जतय कतहु कोनो विषयमे शास्त्रार्थ अथवा वाद–विवाद होमए लगैक आ ओहिमे जकर पक्ष लचल होइक तकरे पक्ष धय उपपादन करेऽ लागैथि पक्षधर आ एवँ प्रकारे सर्वत्र विजयी हेबाक कारणे लोक हुनका ‘पक्षधर’ कहए लागल। हुनका सम्बन्धमे निम्नलिखित श्लोक प्रचलित अछि–
“शंकर वाचस्पत्योः शंकर वाचस्पति सदृशौ।
पक्षधर प्रतिपक्षी लक्षी (क्ष्यी) भूतो न वर्त्तते जगति”॥
कवि समाजमे ओ ‘पीयूष वर्ष’क नामे प्रसिद्ध छलाह आ चन्द्रालोकमे ओ अपन एहि नामक व्यवहार सेहो केने छथि–
पक्षधर मिश्रक सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मानल गेल अछि ‘आलोक’ आ एहि‘आलोक’ आरो कतए गोटए बादमे टीका लिखलन्हि। रघुनाथ शिरोमणि मिथिला विजयार्थ आएल छलाह परंतु पक्षधर मिश्रक विद्यार्थी सभसँ परास्त भए तृतीय श्रेणीक छात्रक संग हुनकासँ पढ़ए लगलाह आ थोड़ेक दिन अपन प्रतिभासँ उत्तम विद्वान भए स्वदेश गेलाह आ वंग देशमे न्याय विद्याक प्रचार आ उन्नति केलन्हि।
‘आलोक’ गंगेशक तत्व चिंतामणिपर टीका थिक। हिनक लिखल दोसर ग्रंथ अछि चन्द्रालोक– इ ग्रंथ अलंकार विषयपर अछि आ एकरे आधारपर अधयजी दीक्षित कुवलयानन्द नामक अलंकार ग्रंथ बनौलन्हि। इ एकटा प्रसन्न–राघव नाटक सेहो लिखने छलाह। हिनक आरो बहुत रास पुस्तक सभ अछि।
शंकर मिश्रक समय धरि मैथिल विद्वान लोकनि बौद्ध मान्यताकेँ कटैत रहलाह अपन आदर्शवादी दर्शनक विश्लेषणमे व्यस्त रहलाह। बौद्ध धर्मक दूटा शाखा भऽ गेल छल–हीनयान आ महायान। महायानक प्रभावे वज्रयान–तंत्रयानक विकास सेहो भेल आ मिथिलाक तंत्रहुँपर बौद्ध तंत्रक प्रभाव पड़ल हो तँ कोनो आश्चर्य नहि। कुमारिल भट्ट आ शंकराचार्यक प्रभावसँ बौद्ध धर्मक ह्रास भेल। ‘शंकर दिग्विजय’मे कुमारिलक मुँहसँ शंकराचार्यकेँ निम्नलिखित वाक्य कहाओल गेल अछि–
“श्रुत्यर्थ धर्म विमुखान सुगतान् निहंतुं
जातं गुहं भुवि भवंतमहं नु जाने”॥
एहिमे तथ्य कहाँ धरि से कहब कठिन मुदा इ तँ निश्चित अछि जे कुमारिल, शंकराचार्य, मंडन आ वृद्ध वाचस्पतिक प्रयासे मिथिलामे बौद्ध धर्मक अंकुश नहि जमि सकल आ एहिठाम हिन्दूधर्मक प्रधानता बनल रहल। अद्वैत वेदांतक इतिहासमे शंकराचार्य एक नवीन धाराक प्रवर्त्तक मानल जाइत छथि। बड्ड सूक्ष्म ढ़ँगसँ ओ अपना ग्रंथमे बौद्धमतक खण्डन केने छथि। माधवक शंकर दिग्विजयक अनुसार सुधन्वा नामक एक राजा शंकराचार्यक कहलापर हजारो बौद्धकेँ नदीमे डुबा देलन्हि। मुदा एहिमे तथ्य कतबा अछि से कहब असंभव। शंकराचार्य आ मंडनसँ विशेष श्रेय बृद्ध–वाचस्पतिकेँ भेटबाक चाही जे अपन युक्तिसंगत तर्क आ दार्शनिक कुशलतासँ बौद्ध लोकनिकेँ परास्त करबामे सफल भेलाह। वाचस्पति मिश्रसँ शंकर– पक्षधर मिश्र धरि दर्शनक क्षेत्रमे इ बाद–विवाद चलैत रहल।
एहि सभ वाद–विवादक बाबजूदो मिथिलामे कर्णाट आ ओइनवार वंशक समयमे हम देखैत छी जे धार्मिक सहिष्णुताक भावना विराजमान छल। १२३४–३६धरि तिब्बती यात्री धर्मस्वामी (बौद्ध) भारतमे छलाह आ राजा रामसिंह देवसँ हुनका विशेष प्रेम छलन्हि। रामसिंह स्वयं तँ ब्राह्मण धर्मक समर्थक छलाह तथापि ओ धर्मस्वामीकेँ अपन राज पुरोहित बनबाक हेतु आग्रह केने छलथिन्ह। ओहि कालमे वैशालीमे एकटा ताराक मुरूतक उल्लेख सेहो धर्मस्वामी केने छथि। कट्टर मैथिल लोकनि बौद्ध–विरोधी छलाह आ उपेन्द्र ठाकुरक मते मैथिल ब्राह्मण बौद्धकेँ मुसलमानसँ बेसी घृणा करैत छलाह। ज्योतिरीश्वर ठाकुर बौद्धकेँ पतीत आ खतरनाक कहने छथि आ बौद्ध विरोधी भावनाकेँ प्रखर करबाक हेतु उदयनक प्रशंसा केने छथि। सप्तरी इलाकामे बौद्ध आ हिन्दूक बीच बरोबरि संघर्ष होइते रहैत छल।
मिथिलामे ताराक प्रधानता प्राचीन कालहिसँ अछि तकर प्रमाण हमरा धर्मस्वामीसँ भेटइत अछि। ‘तारा’केँ ताहि दिनमे बौद्ध देवीक रूपमे मानल जाइत छल। मुदा तंत्रक विकास भेलासँ ‘तारा’ तांत्रिक देवीक रूपमे सेहो स्वीकृत भेल आ मिथिलामे एकर जनप्रियता बढ़ि गेलैक। १२–१३म शताब्दीमे वैशालीकेँ तीरभुक्तिक अंतर्गत राखल गेल अछि। बौद्ध धर्मक सम्बन्धमे चण्डेश्वरक कृत्यरत्नाकरमे कहल गेल अछि जे बुद्धक पूजा चैत्र शुक्ल प्रतिपदाकेँ होएबाक चाही। वैशाख आ श्रावण सेहो बौद्ध पूजाक बिधान बताओल गेल अछि। एहिसँ बुझि पड़इयै जे बौद्ध लोकनिक किछु संख्या मिथिलामे अवश्य रहल होएत आ चण्डेश्वर सन समन्वयवादी ओकरो ध्यानमे राखि अपन विधान बनौने होएताह।
मिथिलामे सूफीसंत लोकनिक प्रभाव सेहो विशेष छल आ प्रोफेसर सैयद हसन असकरीक निबन्ध सभमे एकर विशद विश्लेषण भेल अछि। सूफी लोकनिक प्रभावे एहि क्षेत्रमे रहस्यवादक विकास भेल। मिथिलामे शेख फत्तु, शेख बुरहान आ इसमाइल, सैयद मुहम्मद, सैयद अहमद, अबुल फतेह हियायतुल्लाह, मीर इब्राहिम चिस्ती, शेख काजीन शुत्तारी, अब्दुर रहमान, शेख हुसैन, शाह ताजद्दुनीन, शेख शमशुद्दीन, शमन मदारी, पीर शाह नजीर, आ शेख ताजुद्दीन मदारी आदि प्रमुख सूफी संत सभ भऽ गेल छथि। बिहारी लालक ‘आयनी–तिरहूत’मे मिथिलाक बहुत रास मुसलमानी परिवारक इतिहास सुरक्षित अछि। शताब्दीक सम्पर्क आ संघर्षक उपरांत तँ आब मिथिलाक माँटि–पानिमे इ लोकनि एहेन मिल गेल छथि जे ओहिसँ हिनका लोकनिकेँ फराक करब असंभव। हिनका लोकनिक ‘मरसिया’ मैथिली साहित्यक एकटा प्रमुख अंग बनि चुकल अछि।
अध्याय–19
मिथिलामे शिक्षाक विकास
उपनिषद् एहि बातक प्रमाण अछि जे मिथिलामे अतिप्राचीन कालहिसँ शिक्षाक प्रचार बेस रहल अछि। विद्या व्ययसनी एहि ठामक लोग सभ दिनसँ होइत आएल छथि आ विद्वानक प्रतिष्ठाक स्वीकृतिक सर्वश्रेष्ठ एवँ सर्वप्रथम उदाहरण हमरा जनकक राजसभासँ भेटइत अछि। उपनिषदसँ इ ज्ञात होइछ जे ताहि दिनमे लोक शिक्षापर विशेष ध्यान दैत जाइत छलाह। याज्ञवल्क्यक मत छन्हि जे गुरूकेँ विद्यार्थीसँ ताधरि कोनो प्रकारक दान इत्यादि नहि ग्रहण करबाक चाही जाधरि ओ अपन शिक्षा समाप्त नहि कऽ लैत छथि। एकर अर्थ इ भेल जे गरीबसँ गरीब विद्यार्थी सेहो गुरूक ओतए जाए शिक्षा प्राप्त कऽ सकैत छल। शिक्षा प्राप्त करबाक मार्गमे अर्थक कमीकेँ बाधक नहि बुझल जाइत छल। शिक्षको निस्वार्थ भावे समाजक सेवा करैत छलाह। शिक्षककेँ राज्यसँ पूर्ण सहयोग भेटइत छलन्हि आ हुनक सम्मान आ प्रतिष्ठाक तँ कोनो कथे नहि। यज्ञमे राजा ब्राह्मणकेँ गाय आ सोना दानमे दैत छलथिन्ह। विद्वान कखनो कोनो स्थिति कोनो सहाय्यक हेतु राज दरबारमे निःसकोच आ सकैत छलाह। आचार्य लोकनिक सभ प्रकारक दिक्कतकेँ दूर करबाक कार्यकेँ शासक अपन धर्म बुझैत छलाह किएक तँ हुनका लोकनिक जीवन विद्याध्यनक हेतु समर्पित छल। चारि वेदक अतिरिक्त इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, अनुव्याख्यान, व्याख्यान आदिक पठन–पाठन होइत छल। ऋषिक आश्रम विद्यालयक काज करैत छल आ आश्रमेकेँ प्रसिद्ध विद्या केन्द्र मानल जाइत छल। विदेहमे ताहि दिनमे पढ़ल–लिखल लोगक संख्या विशेष छल।
बलिकेँ सर्वप्रथम तँ अपना घरेमे शिक्षा भेटइत छलैक। ताहि दिनमे बालक–बालिकामे कोनो भेद नहि छल आ दुहुकेँ शिक्षा देबाक प्रथा छल। वैदिक स्कूलमे (चरणमे) बालिकाक प्रवेश सेहो होइत छल। कथ–सम्प्रदायमे शिक्षित बालिकाकेँ कथी कहल जाइत छल। ताहिदिन गार्गी, मैत्रेयी, सुलभा सन विदुषी छलीहे। उपनयनक बाद अध्ययनक विशेष कर्म शुरू होइत छल। विद्यार्थी जीवन बारह वर्षक होइत छल आ बारह वर्ष विद्यार्थी अपन गुरूक संग रहि विद्याध्ययन करैत छलाह। विद्यार्थीकेँ आचार्य कुलवासिन आ अंतेवासिन कहल जाइत छलन्हि। दिनमे सुतव निषेध छल। गैर–ब्राह्मणकेँ शिक्षाक एतेक सुविधा नहि रहल हेतैन्ह। एक लव्यक कथासँ एहि बातपर प्रकाश पड़इत अछि। उद्दालक, आरूणि, स्वेतकेतु, आदि तहि दिनक प्रसिद्ध विद्वान छलाह। भ्रमणशील रहितहुँ किछु गोटए विद्याक उपार्जन करैत छलाह आ एहेन भ्रमणशील विद्यार्थीसँ जनककेँ भेट भेल छलन्हि– स्वेतकेतु आरूणेय, सोमशुष्म, सत्ययज्ञी आ याज्ञवल्क्य। एहि क्रममे जनक– याज्ञवल्क्यकेँ विवादो भेल छलन्हि आ एकर बादहिसँ जनक ‘ब्रह्मवादिन’क कोटिमे आवि गेल छलाह। प्रसिद्ध क्षत्रिय विद्वानमे काशीक अजातशत्रु, प्रवाहन जैवाली, केकैयक अश्वपति, विदेहक जनक, तथा प्रतर्दन आदिक नाम उल्लेखनीय अछि।
उपनिषद् युगमे मिथिला विद्याक प्रधान केन्द्र छल। जनक ‘ब्रह्म’क सम्बन्धमे निम्नलिखित ६शिक्षकसँ अपन ज्ञान प्राप्त केने छलाह– जित्वन, उदंक, बरकु, गर्दभी विपीत, सत्यकाम, साकल्य। याज्ञवल्क्यसँ ओ उपनिषदक ज्ञान प्राप्त केने छलाह। जनकक उदारतासँ काशीक अजातशत्रु तबाह रहैत छलाह। जनकक अश्वमेध यज्ञक अवसरपर निम्नलिखित दार्शनिक लोकनि उपस्थित छलाह। उद्दालक, आरूणि, अश्वल, जारूतकोख आर्त्तभाग, भुज्युलाहयायनि, उशष्ट चाक्रायण, कहोड़, कौषितकेय, विदग्ध शाकल्य एवँ गार्गी आ एहिमे याज्ञवल्क्य विजयी भेल छलाह। जनक प्रभावित भए अपन समस्त विदेह राज्य याज्ञवल्क्यकेँ अर्पित केने छलाह।
शिक्षाक प्रगतिक क्रम ओकर बादो चलिते रहल आ बौद्ध युगमे तँ वैशाली अति प्रसिद्ध केन्द्र भऽ गेल। तक्षशिला विश्वविद्यालयमे मिथिला आ वैशालीक विद्यार्थी पढ़बाक हेतु जाइत छलाह। महिला सेहो विदुषी होइत छलीहे। ओ लोकनि पढ़बाक हेतु तक्षशिला जाइत छली कि नहि से कहब कठिन कारण जातकमे एकर एहेन कोनो उल्लेख नहि भेटइत अछि। चाण्डालकेँ शिक्षासँ वर्जित राखल जाइत छल। वैशाली सेहो शिक्षाक एकटा प्रधान केन्द्र मानल जाइत छल। बुद्ध एहिठाम अपन कैकटा सारगर्भित प्रवचन देने छलाह। धार्मिक आ दार्शनिक वाद–विवादक हेतु लिच्छवी लोकनि एत्तए एकटा कूटागार प्रशाल बनबौने छलाह। तकर बादसँ जखन समस्त भारत एक राजनैतिक सूत्रमे बन्हि गेल तखन एहिमे एकरूपता आबए लागल। मौर्य–गुप्त–हर्ष आ पाल युगमे सेहो मिथिलाक अपन वैशिष्टय सुरक्षित रहल। उत्तर बिहारमे सेहो कैकटा बौद्ध बिहार छल जकर प्रमाण भेटइत अछि आ एहने एकटा बौद्ध बिहारमे बौद्ध संत नरोपा रहैत छलाह जे ओतएसँ विक्रमशिला गेल छलाह। नौलागढ़सँ एकटा जे अभिलेख भेटल अछि ताहु आधारपर इ कहल जाइत अछि जे ओहि क्षेत्रमे एकटा विहार छल।
मिथिलामे कर्णाटवंशक स्थापनाक बाद मिथिलाक अपन व्यक्तित्व विकसित भेल आ ताहि दिनसँ साँस्कृतिक एवँ सामाजिक क्षेत्रमे मिथिलाक अपूर्व योगदान रहल अछि। कर्णाट, ओइनवार आ खण्डवला कुल शासक लोकनि स्वयं पण्डित छलाह आ ओ लोकनि विद्या–प्रसार नीक व्यवस्था केलन्हि आ अपना–अपना शासनकालमे विद्या–प्रसारक प्राचीन परम्पराक पुनर्स्थापन केलन्हि। एहियुगमे विभिन्न विषयपर मिथिलामे पोथी लिखल गेल आ प्राचीन पोथी सभपर असंख्य टीका। प्रत्येक मुख्य बातक हेतु निबन्धक निर्माण भेल आ विद्याक विभिन्न पक्षपर विस्तृतरूपेण ग्रंथक रचना कैल गेल। कर्णाट युगकेँ एहि दृष्टिकोणसँ स्वर्ण युग कहल गेल छैक। समस्त मिथिलामे शिक्षा केन्द्रक जेना जाल बिछा देल गेल।
व्याकरणक क्षेत्र पद्मनाभ दत्तक नाम चिरस्मरणीय रहत कारण ओ अपन ‘सुपद्म’क रचना कए एहि दिशामे बड्ड पैघ योगदान देलन्हि। छन्दशास्त्रपर भानुदत्त मिश्रक रचना महत्वपूर्ण अछि आ ‘सरस्वती कण्ठाभरण’पर रत्नेश्वरक टीका सेहो प्रशंसनीय अछि। कामशास्त्रपर भानुदत्तक अतिरिक्त ज्योतिरीश्वरक पंचशायक एवँ रंगशेखर महत्वपूर्ण ग्रंथ मानल गेल अछि। भवदत्त प्रणीत नैषधचरितमक टीका एखनो धरि पढ़ाओल जाइत अछि। पृथ्वीधर आचार्य मृच्छकटिकपर टीका लिखलन्हि। अमरकोशपर श्रीकर आचार्यक टीका संस्कृत साहित्यक एक अमूल्य निधि मानल जाइत अछि। ज्योतिरीश्वरक ‘वर्णरत्नाकर’ अपना ढ़ँगक अपूर्वग्रंथ अछि जाहिसँ मैथिली साहित्य गौरवान्वित अछि। दार्शनिक क्षेत्रक लेखक उल्लेख हम पूर्वहि कऽ चुकल छी तै दोहरायब उचित नहि बुझना जाइत अछि। श्रीदत्त उपाध्याय, हरिनाथ उपाध्याय, भवशर्मण, इन्द्रपति, लक्ष्मीपति आ चण्डेश्वर, विद्यापतिक परिवारक योगदान एहि युगमे विशेष रहल अछि। मिथिला न्याय–मीमाँसाक हेतु अत्यंत प्रसिद्ध छल आ देश–देशांतर लोक इ दुनू विषय पढ़बाक हेतु एहिठाम अबैत छलाह।
ताहि कालमे मिथिलेटा एहेन अंचल छल जाहिठाम देशक कोन–कोनसँ विद्वान लोकनि आबिकेँ शरण लैत छलाह। साँस्कृतिक दृष्टिकोणसँ मिथिलाक महात्म्य बड्ड बढ़ि गेल छल। नालन्दा–विक्रमशिला जखन नष्ट भऽ रहल छल तखन बहुत पण्डित जे पोथी लऽ कए भागि रहल छलाह ताहिमे बहुतोकेँ मिथिलेमे शरण भेटलन्हि। उत्तर भारतमे आ जतए कतहु उथल–पुथल होइक तखन ओतहुँसँ विद्वान लोकनि मिथिला दिसि चल अवइत छलाह कियैक तँ एहिठाम विद्वान लोकनिक समादर होइत छल। मण्डन मिश्रक समयसँ मिथिलाक प्रसिद्धि समस्त भारतमे प्रसारित भए चुकल छल आ तकर बाद तँ एकापर एक एहेन विद्वान एहिठाम होइत गेलाह जाहिसँ मिथिलाक प्रसिद्धि समस्त भारतमे प्रसारित भए चुकल छल आ तकर बाद तँ एकापर एक एहेन विद्वान एहिठाम होइत गेलाह जाहिसँ मिथिलाक प्रसिद्धि दिनानुदिन बढ़िते चल गेल। मध्य–युगमे न्याय–वैशेषिक–मीमाँसा वेदांतक हेतु मिथिला भारतमे प्रसिद्ध भए गेल छल आ मुसलमानी आक्रमणक फलस्वरूप वर्णाश्रमक जे डोरी ढ़ील भेल जाइत छल ताहु हेतु मिथिलामे निबन्ध आ कर्मकाण्डपर ग्रंथक रचना एवँ ओकर अध्ययन–अध्यापन प्रारंभ भए चुकल छल। एहि सभमे योग्यता प्राप्त करबाक हेतु बाहरसँ विद्वान लोकनि एतए पढ़बा लेल अबैत छलाह आ विशेष कऽ कए न्यायक अध्ययनक हेतु मिथिला–विश्वविद्यालय समस्त भारतमे अद्वितीय छल। जखन मगधक अवसान भेलैक तखन मिथिला विश्वविद्यालयक चरमोत्कर्ष भेल आ पक्षधर मिश्रक अनुमतिसँ रघुनाथ शिरोमणि जखन नादियामे नव–न्यायक केन्द्र खोललन्हि तखनसँ नादियाक प्रभुत्व बढ़ल। ताहि दिन मिथिलाक विद्वानक महत्व तँ एतबेसँ बुझना जाइत जे बंगालक विद्वान लोकनि मैथिल निबन्धकार लोकनिक मतकेँ महत्व दैत छलथिन्ह आ बंगालक नैयायिक मैथिल नैयायिकक वाक्यकेँ प्रमाण मनैत छलाह। ओहि युगक मिथिलाक प्रत्येक विद्वान अपना आपमे एकटा संस्थे होइत छलाह। मिथिलाक संस्कृत एवँ भाषा साहित्यक हेतु एकरा स्वर्णयुग मानल गेल अछि।
मिथिलामे कर्णाट–ओइनवार कालमे उदयन, गंगेश, वर्द्धमान, पद्मनाभ, जगद्धर, शंकर, वाचस्पति, पक्षधर आदि जे विद्वान भेल छथि ताहिसँ कोनो देश आ कोनो काल गौरवान्वित भऽ सकैछ। विद्यापतिकेँ तँ सहजहि सभ केओ एकस्वरसँ भारतीय भाषाक सर्वश्रेष्ठ गीतकार मनैत छथि। गीतकाव्यक दृष्टिकोणसँ कालिदास आ जयदेवक बाद विद्यापतियेक स्थान अबैत अछि। ओनातँ विद्यापति मैथिली पदावली लऽ कए प्रसिद्ध छथि मुदा स्मरण रखबाक विषय इ जे एहेन कोनो विषय नहि अछि जाहिपर विद्यापति नहि लिखने होथि। लखिमा रानी सेहो प्रथम कोटिक विदुषी छलीहे। स्वयं महेश ठाकुर अपन विद्याक बले मिथिलाक राज्य प्राप्त केने छलाहे आ ओहि खण्डवला वंशमे आरो कतेक अद्वितीय विद्वान लोकनि भेल छथि। महेश ठाकुर स्वयं अकबरनामाक संस्कृत अनुवाद सेहो केने छलाह आ हेमांगद ठाकुर ज्योतिषपर अपूर्व ग्रंथ लिखने छलाह। महेश ठाकुर तँ प्रसिद्ध विद्वानक कोटिमे गिनल जाइत छथि आ हुनक वाक्यकेँ प्रमाणो मानल गेल अछि।
कविन्द्रचन्द्रोदयमे विश्वंभर मैथिलोपाध्याय, बदरीनाथ उपाध्याय मैथिल, दामोदर उपाध्याय मैथिल आदिक उल्लेख अछि। शाहजहाँक दरबारमे सेहो दूटा मैथिल विद्वान अपन विद्वता प्रदर्शित केने छलाह आ एहि पाँतिक लेखकक पूर्वज सेहो कोनो मुगल बादशाहसँ अपन विद्वता प्रदर्शित कए, जमीन्दारी प्राप्त केने छलाह आ चौधराइ सेहो। ओ मूल ताम्रपत्र गत सौ वर्ष पूर्वहि भीषण अग्निकाण्डमे स्वाहा भऽ गेल। खण्डवला शासक विद्वान लोकनिकेँ जागीर दैत छलाह जकर प्रमाण अछि।
ताहि दिनमे मिथिलामे गामे–गाम विद्यालय छल आ जाहिठाम जाहि विषयक पण्डित रहैत छलाह ताहिठाम सैह विषय नीक जकाँ पढ़ाओल जाइत छल। राजा महराजाक दिसिसँ विद्वानकेँ प्रोत्साहन भेटइत छलैक। मिथिला विश्वविद्यालयमे ताहि दिन अन्य विषयक अतिरिक्त नव–न्यायपर विशेष ध्यान देल जाइत छल। नव–न्याय पढ़बाक हेतु भारतक कोन–कोनसँ एहिठाम विद्यार्थीगण अबैत छलाह। विद्वता एवँ विद्याक क्षेत्रमे मिथिलाक स्थान अग्रगण्य छल आ मध्य युगमे नालन्दाक स्थान बुझु जे मिथिलेकेँ प्राप्त भऽ गेल छलैक। नालंदा जकाँ मिथिला विश्वविद्यालयकेँ अट्टालिका वाला भवन नहि छलैक, कारण एहिठाम तँ टोल आ चोपाड़िक व्यवस्था छल। मिथिला विश्वविद्यालयक आन वैशिष्ट्य छलैक। स्नातकत्व प्राप्त करबाक जे कसौटी एहिठाम छल ताहिसँ यदि अझुका स्नातक लोकनिकेँ मिलाओल जाइन्ह तँ एक्को गोटए अहुना स्नातक नहि कहा सकताह। मिथिला विश्वविद्यालयमे जे परीक्षा पद्धति छल तकरा शलाका–परीक्षा कहल जाइत छलैक। इ परीक्षा बड्ड कठिन छलैक। एहिमे शास्त्रार्थक व्यवस्था छल आ ओहि शास्त्रार्थमे प्रकाण्ड पण्डित लोकनि सेहो बैसैत छलाह। ‘शलाका’क अर्थ भेल जे पाण्डुलिपिक पृष्ट सभ जे सुइसँ घोपल जाइत छल ताहिमे सँ कतहुँसँ कोनो विषयपर शास्त्रार्थक सूत्रपात्र भऽ सकैत छल। जखन पाठ्यक्रमक पढ़ाइ समाप्त होइत छल तखन सभ छात्र एकठाम बैसैत छलाह आ ओहिमे गुरूजन सेहो सम्मिलित होइत छलाह आ तकर बाद शास्त्रार्थ प्रारंभ होइत छल आ ओहि शास्त्रार्थक पश्चात् स्नातकत्वक प्रमाण पत्र देल जाइत छलन्हि। ओहुसँ एक कठिन परीक्षा प्रणाली छल जकरा ‘षडयंत्र’ कहल जाइत छल। एहि प्रणालीमे छात्र लोकनिकेँ अपन विद्वताक प्रदर्शन जनताक मध्य करए पड़इत छलन्हि। ओहि परीक्षामे केओ हुनकासँ कोनो प्रकारक प्रश्न कए सकैत छल आ जखन ओहन लोग हुनका उत्तरसँ संतुष्ट होइत छलथिन्ह तखने हुनका प्रमाण पत्र भेंट सकैत छलन्हि। प्राध्यापक लोकनिकेँ उपाध्याय, महोपाध्याय, महामहोपाध्याय कहल जाइत छलन्हि। मिथिला विश्वविद्यालयमे चारूवेद, मीमाँसा, न्याय, दर्शन, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद आदि विषयक शिक्षा देल जाइत छल।
मिथिला विश्वविद्यालयक सबन्धमे एकटा किंवदंती प्रचलित अछि– जकर उल्लेख एहिठाम आवश्यक बुझना जाइत अछि। पक्षधर मिश्रक एकटा बंगाली शिष्य छलथिन्ह रघुनाथ शिरोमणि। परीक्षाक अवसरपर किछु एहेन बात भेल जाहिसँ रघुनाथ शिरोमणिक विद्वतापर किछु चोट पहुँचल। सन्ध्या भेलापर पक्षधर मिश्र अपन आगंन गेला आ पूर्णिमाक इजोरियामे बैसि ओ अपन पत्नीकेँ कहइत रहथिन्ह जे आइ हमरासँ एक बड्ड पैघ गलती भऽ गेल अछि। शास्त्रार्थ कालमे रघुनाथ बेचारा ठीके बजने छल मुदा हम ओकरा काटि देने छलियैक जाहिसँ ओकरा प्रतिष्ठापर अवस्से चोट पहुँचल हेतैक। हम तँ उचित बुझैत छी जे हम ओकरा बजाकेँ इ बात स्पष्ट कहि दियैक। एम्हर रघुनाथ तरूआरि नेने गुरूपर आक्रमण करबाक हेतु झोंझहिमे नुकाएल अपन गुरूक सभ बात सुनि रहल छल। पक्षधर मिश्र जहिना अपन स्वीकारोक्ति अपन पत्नीक समक्ष केलन्हि तहिना रघुनाथ अपन तरूआरि फेकि अपन गुरूक चरणपर खसि पड़ल। ओ अपन मूर्खताक हेतु माँफी मंगलक आ उदगार प्रगट केलक जे अहाँ सन गुरूसँ हमरा इएह आशा रखबाक चाहैत छल। रघुनाथ शिरोमणि मिथिला विश्वविद्यालयक एक प्रख्यात छात्र छल आ ओ मिथिलाक इतिहासक एकटा अंग बनि चुकल अछि। मैथिली परम्परामे सेहो ओकरा सम्बन्धमे एकटा प्रवाद छैक जकर उल्लेख करब आवश्यक। जरहटिया गाममे भैरवसिंह देवक खुनाओल पोखरिक प्रसंगक उल्लेख हमरा लोकनि पूर्वहि कऽ चुकल छी। ओहिमे पाथरक जाठि लंकासँ बनिकेँ आएल छल मुदा ओहिमे शर्त्त इ छल जे यज्ञमे कोनो ‘काण’ अथवा ‘विकलांग’ व्यक्ति नहि उपस्थित रहैथ। शुभ लग्नमे यज्ञ प्रारंभ भेल। जखन जाठि बैसेबाक बेरि भेलैक तखन मृदंग ध्वनि छोड़लक–
एहि श्लोकहिसँ हुनक परिचय स्पष्ट भऽ गेल आ लंकावासी काना व्यक्तिकेँ देखि पोखरिमे जाठि फेक भागि गेलाह।
रघुनाथ शिरोमणिसँ प्रसन्न भए पक्षधर मिश्र हुनका बंगालमे स्वतंत्र रूपें नव–न्याय विश्वविद्यालयक स्थापनाक अनुमति देलथिन्ह आ तखनहिसँ नादिया नव–न्यायक अध्ययनक प्रधान केन्द्र बनि गेल। नादियाक स्थापनाक उपरान्त मिथिलाक महत्व घटए लागल तथापि स्मृतिक क्षेत्रमे चण्डेश्वर, हरिनाथ, भवशर्मण, इन्द्रपति, विद्यापति, वाचस्पतिक कारणे मिथिलाक प्रभुत्व बनल रहल। मिथिला विश्वविद्यालयक प्रतापे संस्कृत साहित्य सुरक्षित रहि सकल। घरे–घरे मिथिलामे ताहि दिन पाण्डुलिपि तरिपत लिखल जाइत छल। महामहोपाध्याय पी.वी.कणे ठीके कहने छथि जे याज्ञवल्क्यक समयसँ आइ धरि मिथिला अपन विद्वताक परम्पराकेँ सुरक्षित रखने अछि। महेश ठाकुरक समयसँ मिथिला विश्वविद्यालयक परीक्षा पद्धतिमे एक नवीन पद्धतिक श्रीगणेश भेल जकरा ‘धौत परीक्षा’क नामे हमरा लोकनि जनैत छी। जनिका विद्वान कहेबाक शौख छलन्हि हुनका लेल इ परीक्षा पास करब आवश्यक कारण एहिमे बिनु परीक्षोतीर्ण भेने केओ विद्वान नहि कहा सकैत छलाह। एहि परीक्षाक नियम इ छल जे प्रत्येक वर्ष एकर घोषणा कैल जाइत छल आ इच्छुक संस्कृत पण्डित लोकनि ओहिमे उपस्थित भए लैत छलाह। परीक्षोतीर्ण भेलापर नैयायिक लोकनिकेँ एक जोड़ लाल धोती आ वैदिक एवँ वैयाकरण लोकनिकेँ एक जोड़ पीअर धोती विदाइ भेटइत छलन्हि। एहिमे मिथिलाक बाहरोसँ विद्वान अबैत छलाह। एहिमे सफल भेल विद्वान अपनाकेँ सगौरव “धौत परीक्षोतीर्ण” कहैत छलाह। दरभंगा राजक अंत भेलाक पूर्व धरि मिथिलामे इ व्यवस्था छल। एम्हर आबिकेँ स्वर्गीय डाक्टर गंगानाथ झा एहि परीक्षाक सिलेबस (पाठ्यक्रम) सेहो निर्धारित कऽ देने छलाह। खण्डवाल कुलक समयमे संस्कृत आ मैथिली साहित्यक रचनामे अभिवृद्धि भेल। महेश ठाकुरक वंशज सभ एकापर एक विद्वान छलाह–स्वयं पोथी लिखलन्हि आ उतारलन्हि आ विद्वान लोकनिकेँ प्रश्रय दए पोथी लिखबौलन्हि। नरपति ठाकुरक समयमे लोचन अपन रागतरंगिणी नामक पोथी लिखलन्हि। मैथिलियोसँ विशेष खण्डवला कुलक समयमे संस्कृत साहित्यक अभिवृद्धि भेल आ महिनाथ ठाकुरक समयमे तिरहुति गीतक प्रचार सेहो। हेवनि धरि मिथिलामे संस्कृत विद्वानक कोनो अभाव नहि छल आ बहुतोकेँ दरभंगा राजसँ वृति भेटइत छलन्हि।
ताहु दिनमे मैथिल विद्वान बाहर जाके अपन नाम कमाइत छलाह। ब्राह्मण मुख्यतः दानपर आधारित रहैत छलाह आ जखन मिथिलाक स्थिति विपन्न भऽ गेल तखन ओ लोकनि मिथिलासँ बहराए बाहरो जाए लगलाह। ओना अपन विद्वताकेँ प्रदर्शित करबाक हेतु सेहो ओ लोकनि मिथिलासँ बाहर जाइत छलाह। भवनाथ मिश्र अयाचीक शिष्यगण भारतक कोन–कोनमे पसरल छलथिन्ह। एहिमे सँ बहुतो प्रवासेमे रहियो गेलाह जकर प्रमाण अखनो अछि। भारतक कोन–कोनमे ब्राह्मण लोकनिक टोली अखनो देखल जा सकइयै जे अपनाकेँ मैथिल कहैत छथि। काव्य प्रदीपक रचयिता गोविन्द ठाकुर कृष्णनगरक राजा भवानंद रायक ओतए रहैत छलाह। हुनक वंशज दिनाजपुरमे बसि गेलथिन्ह। मालदहमे सेहो ओइनवार वंशक शाखा एखनो विराजमान छथि आ ओहिवंशक स्वर्गीय अतुल चन्द्र कुमर (हमर प्रिय मित्र) बंगाल सरकारक पार्लियामेंट्री सचिव सेहो रहल छलाह। हुनक देल ओइनवार वंशक वंशवृक्ष परिशिष्टमे भेटत। भवनाथ मिश्र अयाचीक प्रपौत्र एवँ रसमंजरीक सुप्रसिद्ध लेखक कविराज भानुदत्त मध्य भारतकेँ कैक राज्यमे भ्रमण केलन्हि आ हुनक लेखनीसँ गढ़मण्डलाक राजा संग्राम सिंह, बन्दोगढ़क बघेल राजकुमार (रेवा), अहमदनगरक राजा निजाम शाह आ राजा शेरखाँक पता लगइयै। हिनके पुत्रक नाति गंगानंद बिकानेर धरि गेल छलाह। महामहोपाध्याय गोकुलनाथ उपाध्याय आ हिनक भ्राता महामहोपाध्याय जगन्नाथ गढ़वालक राजा फतेहशाहक ओतए छलाह।
भवानी नाथ मिश्र (उर्फ सचल मिश्र) एक प्रसिद्ध न्यायाधीश भेल छथि जे १८म शताब्दीमे पूनामे पेशवा माधव रावक ओतए रहैथ। ओहिठाम पेशवासँ हुनका जबलपुरमे दूटा गाम भेटलन्हि जतए हुनक वंशज अखनो छथिन्ह। हुनका ओतए अद्वितीय सम्मान भेटल छलन्हि। कृष्णदत्त मैथिल नागपुरक भोंसलाक प्रधानमंत्री देवजी पुरूषोत्तमक ध्यान आकृष्ट केने छलाह। इ बहुत पैघ नाटककार छलाह आ हिनका सम्बन्धमे हमर निबन्ध फराके प्रकाशित अछि।
महेश ठाकुरक भ्राता गढ़मण्डलाक संग्रामशाहक पुरोहित छलाह आ हुनक वंशज बहुत दिन धरि महिष्मतीनगरमे बसल छलाह। अखनो मैथिल ब्राह्मणक बहुत रास शाखा ओम्हर छथि। शाहजहाँक दरबारमे सेहो दूटा मैथिल अपन विद्वताक परिचय देने छलाह। हुनका दुनूकेँ शाहजहाँसँ इनाम भेटल छलन्हि आ दूटा गाम दानमे सेहो। रघुदेव मिश्र शाहजहाँक प्रशंसामे एकटा ‘विरूदावली’ सेहो बनौने छलाह। संस्कृत शिक्षाक सम्बन्धमे ‘हरिहरसूक्ति मुक्तावली’मे विशेष बात भेटइत अछि।
मिथिलामे विद्याक किछु प्रसिद्ध केन्द्र छल–जजुआर (यजुर्वेदक शिक्षाक हेतु प्रसिद्ध), रीगा (ऋग्वेदक हेतु), अथरी (अथर्ववेदक हेतु), माउबहेट (माध्यनन्दिनी शाखाक हेतु), कुथुमा (कौथुमी शाखाक हेतु), शकरी (शकारी शाखाक हेतु), भट्टसिम्मरि एवँ भट्टपुर (मीमाँसाक भट्ट स्कूलक हेतु) इत्यादि। मिथिलामे तँ कुम्भकारकेँ सेहो पण्डिते कहल जाइत छैक (कुम्भकारोऽपि पण्डितः)। टोल आ चौपाड़ि तँ अखनहुँ मिथिलाक गाम–गाममे पसरल अछि। एहिठामक शिक्षा परम्पराकेँ देखि १८–१९म शताब्दीमे एहिठामक भूमिकेँ विश्व–विद्यालयक हेतु उपयुक्त मनने छलाह। १९७२मे मिथिला विश्वविद्यालयक स्थापना भेल आ १९७५मे ललित बाबूक परोक्ष भेलापर ओकर नाम ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय कऽ देल गेल।
कला:- शिक्षाक संगहि संग मिथिलामे कलाक विकास सेहो युग–युगांतरसँ होइत आबि रहल अछि। उत्खननक अभावमे इ कहब कठिन अछि जे प्राचीन कालमे मिथिलाक कलाक स्वरूप कि छल आ कोना छल। पुरातात्विक साधनक अभावमे ओहि पक्षपर किछु कहब असंभव। मिथिला–महात्म्यमे जे मिथिलाक वर्णन भेटइत अछि ताहि आधार इ अनुमान लगाओल जा सकइयै जे मिथिला नगरी सुनियोजित ढ़ँगसँ योजनाबद्ध रूपेँ बनल छल आ देखबा सुनबामे सर्वोत्तम रहल होएत। मिथिला–महात्म्य तँ जे वर्णन अछि तकरा जाधरि पुरातत्व सिद्ध नहि कऽ दैत अछि ताधरि तँ ओकरा काल्पनिके माने पड़त। जातक कथा सभमे सेहो मिथिला नगरीक विशिष्ट विवरण भेटइत अछि आ ओहुसँ इ सिद्ध होइत अछि जे मिथिला एकटा सुनियोजित नगर छल जे देखबामे सुन्दर छल आ एकर सीमा वेश विस्तृत छलैक। जातकमे राज दरबार आ किलाक विवरण सेहो भेटइत अछि।
विदेह, वैशाली, अंगुतराप क्षेत्रक प्राचीन इतिहास पुरातात्विक अंवेषणक अपेक्षा अखनो रखैत अछि। एहि सभ क्षेत्रसँ प्राक्–बौद्धकालीन अवशेष प्रचुर मात्रामे भेटइत अछि आ नादर्न ब्लैक पालिश्डवेयर (एन.बी.पी.)क प्राप्ति एहि बातकेँ सिद्ध करैत अछि जे बौद्ध युगमे एहि सभ क्षेत्रमे कलात्मकताक रूप निखरि गेल हैत। एन.बी.पी.क संगहि संग ताहि दिनक सिक्का सभ सेहो भेटल अछि। मिथिलाक गामहि गाम गढ़ सभसँ भरल अछि आ तैं इ निर्विवाद रूपे कहल जा सकइयै जे किलाबन्दीक क्षेत्रमे एहिठामक लोक प्रसिद्धि प्राप्त केने छल। बलिराजगढ़सँ प्राप्त ईंटा एहिबातक सबुत अछि। गढ़क निर्माण सुनियोजित ढ़ँगसँ होइत छल आ मौर्यकालमे गढ़ निर्माणक सम्बन्धमे कौटिल्यक मत स्पष्ट अछि। किलाक निर्माण रक्षात्मक दृष्टिकोणसँ होइत छल। मिथिलाक गढ़ सभसँ माँटिक गोलक प्रचुर संख्यामे भेटल अछि। मौर्यकालीन अवशेष पुर्णियाँ, सहरसा, दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, बेगूसराय, हाजीपुर, मुजफ्फरपुर, वैशाली आदि स्थानसँ प्राप्त भेल अछि आ ताहुमे मृण्मूर्त्ति सभ भेटल अछि से तँ सर्वथा अद्वितीय अछिये। शूंगकालक अवशेष सभ सेहो भेटल अछि। वैशालीक अतिरिक्त अशोक कालीन एकटा मौर्यकालीन स्तंभ धरहरा (पुर्णियाँ)सँ सेहो प्राप्त भेल अछि। जयमंगलागढ़सँ मौर्यकालीन एकटा काष्ट पुलक अवशेष भेटल अछि। पाटलिपुत्रक बाद उत्तर बिहारमे इएह एकटा काष्ठपुलक नमूना मौर्यकालीन भेटल अछि।
इ निश्चित रूपें कहि सकैत छी जे अशोक कालमे उत्तर बिहारमे सेहो किछु भवनादि, स्तंभादिक निर्माण भेल आ वैशालीमे थोड़ बहुत चैत्य इत्यादि बनल। चम्पारण आ जयमंगलागढ़मे सेहो एहेन प्राचीन अवशेषक उदाहरण भेटल अछि आ चम्पारणसँ तँ सहजहि पृथ्वीक एकटा मुर्त्तिये। पालि–साहित्यमे वैशालीक सम्बन्ध बहुत रास वर्णन अछि आ चैत्यक विवरण सेहो। वैशालीक पोखरि लिच्छवी लोकनिक समयमे कलात्मक छल। गुप्तकालीन अवशेष सेहो मिथिलाक सभ क्षेत्रसँ प्राप्त भेल अछि आ ओहिमे सँ विशेष भाग कोशी आ आन–आन नदीक बाढ़िमे भासि गेल अछि। एक अत्युत्तम गुप्तकालीन मृण्मूर्त्ति नौलागढ़सँ भेटल छल आ संगहि किछु सिक्का साँचा सेहो। आरो कतेक रास गुप्तकालीन सामग्री एम्हर–आम्हरसँ भेटल अछि। बरौनीसँ प्राप्त एकटा सूर्यक मुरूत (कारी पाथरमे) उल्लेखनीय अछि कारण ओहिमे पैरमे जूता आ देहमे जनेउ सेहो अछि।
एम्हर आबिकेँ पालकालीन अवशेष वैशाली, उचैठ, बलिराजगढ़, नौलागढ़, जयमंगलागढ़, अलौलीगढ़, महिषी, पुर्णियाँ, आओर सहरसा तथा बेगूसरायसँ भेटल अछि। कलाक दृष्टिसँ इ युग अत्यंत महत्वपूर्ण मानल गेल अछि आ बेगूसराय जिलाक गामे गाम पालमूर्त्तिसँ भरल अछि। बीहट, रजौरा, बरौनी, संहौल, नौला, जयमंगला, वीरपुर, आदि जतहि देखु सभ पालकालीन मुरूतसँ भरल अछि। नौलागढ़, जयमंगलागढ़, वीरपुर आदिसँ प्राप्त पालकालीन मूर्त्ति विधित्सा एवँ अभिकल्पना सभ तरहे विलक्षण अछि। पालयुगमे बौद्ध कलाकेँ प्रश्रय तँ भेटवे कैल मुदा हिन्दू कला शैलीक अवहेलना नहि भेल से निश्चित। एहि युगमे मिथिलामे आकाशचारी गन्धर्वक प्रचुरता एवँ ऐन्द्रियिक विस्तारक दुनू सीमांतक बीच जे संतुलन देखाओल गेल अछि से सर्वथा प्रशंसनीय आ स्तुत्य अछि। धार्मिक वस्तुकेँ कलात्मक वस्तुमे रूपांतरित कए देल गेल अछि। मुख्य मुरूत सभहिक दुनू पार्श्वमे सेवारत देवतागण एवँ अनुगत मूर्त्तिकेँ पृथक कमलाशनपर राखल गेल अछि जे निरूपित देवताक वाहनकेँ प्रदर्शित करैत अछि। शारीरिक बल एवँ पौरूषकेँ चारूता आ लालित्यमे परिवर्त्तित कए देल गेल अछि। मध्यकालीन कलाक पूर्वी स्कूलक रूपमे एहि युगमे मिथिलाक योगदान रहल होएत से बुझि पड़इयै। बाराह, सूर्य, गंगा, शिव–पार्वती, दुर्गा आदिक पालकालीन मुरूतक अवशेष सौसे मिथिलामे छिड़िएल अछि। बाराह मूर्त्ति विष्णुक बाराह अवतारक चित्रणक प्रतीक थिक। जयमंगलागढ़क सुखासन पोजमे शिव–पार्वतीक मूरूत अद्वितीय अछि। अपन दहिना हाथकेँ शिवक दहिना कन्हापर राखि पार्वती महादेवक वामा जाँघपर एहि मुरूतमे बैसल छथि। शिव अपन बामा हाथसँ पार्वतीक संग गाढ़ालिङ्गनबद्ध भेल छथि आ शिवक हाथ पार्वतीक स्तनकेँ छुएत छन्हि। एहि प्रकारक मुरूत तांत्रिक क्षेत्रसँ विशेष भेटल अछि। एहेन टुटल–फुटल मुरूत महिषीमे सेहो बहुत रास अछि आ तारा (खदिरवणी)क मुरूत सेहो पालकालीने थिक। जयमंगला आ महिषी दुनू प्रसिद्ध तांत्रिक केन्द्र मानल जाइत अछि। तांत्रिक साधक लोकनि सुखासन पोजमे बैसल शिवक कोरामे पार्वतीकेँ अपना मोनमे केन्द्रित कए साधना करैत छथि। नारायण पालक अभिलेखसँ स्पष्ट अछि जे कौशिकी कच्छकेँ क्षेत्रमे एक हजार शिव मन्दिरक स्थापनाक हेतु दान देल गेल छल। निश्चित रूपें एहि सभ क्षेत्रमे स्थापत्य कलाक पूर्ण विकास भेल होएत। सुन्दर रीतिसँ अभि कल्पित स्तंभ हमरा लोकनि नौलागढ़, जयमंगलागढ़ आ संहौलसँ भेटल अछि जाहिसँ स्थापत्यक सम्बन्धमे ज्ञान प्राप्त होइत अछि। इमादपुर (मुजफ्फरपुर)सँ धातुक मूर्त्ति सेहो भेटल अछि। पालयुगमे तीरभुक्तिमे बौद्ध आ तांत्रिक संप्रदायक प्रभाव परिलक्षित होइत अछि।
कलाक दृष्टिकोणसँ मिथिला कहियो कोनो रूपे बाँझ नहि रहल आ सभ युगमे किछुने किछु कलात्मक वस्तुक निर्माण एहिठाम होइते रहल। मूर्त्तिकला आ स्थापत्यमे सेहो मिथिला पछुऐल नहि छल। स्पूनर तिरहूतक किछु मन्दिरकेँ मिथिला आ तिरहूतक शैलीक मानैत छथि–
i) बगहाक हरमंदिर (चम्पारण)
ii) त्रिवेणीक कमलेश्वरी नाथक मंदिर (चम्पारण)
iii) सौराठक महादेव मंदिर (मधुबनी)
iv) अहियारीक रामचन्द्रक मंदिर (दरभंगा)
v) सुबेगढ़क भगवती मंदिर (मुजफ्फरपुर)
vi) शिवहरक शिवमंदिर (मुजफ्फरपुर)
vii) मुजफ्फरपुरक राम मंदिर
viii) सिमराँव गढ़क कंकाली देवीक मंदिर।
एम्हर जे बहेड़ामे उत्खनन भेल अछि ताहुसँ एकटा मंदिरक अवशेष भेटल अछि जकर विवरण हम आनठाम प्रकाशित करौने छी।
बहेड़ाक उत्खननसँ मंदिरक मिथिला शैलीपर प्रकाश पड़इयै। स्पूनरक ध्यान कंदाहाक सूर्यमंदिर दिसि नहि गेल छलन्हि जाहिसँ हुनका इ बुझनामे आबतन्हि जे ओइनवार लोकनिक समयमे स्थापत्य कलाक स्वरूप कि छल। भगीरथपुर उत्खननसँ सेहो बुझना जाइत अछि जे ओहिठाम एक मंदिरक निर्माण भेल छल जे काल–क्रमेण टुटि गेल मुदा जकर अवशेष उत्खननसँ प्राप्त भेल अछि। श्रीधरदास (कर्णाट काल)क कमलादित्यक मंदिरसँ मन्दिर बनेबाक जे परम्परा मिथिलामे प्रारंभ भेल से बरोबरि चलिते रहल आ मन्दिर बनेबाक क्षेत्रमे मिथिला निश्चितरूपे अपन एकटा अलग शैलीक निर्माण केलक।
शिल्प एवँ वास्तुकलामे सेहो मिथिला पछुऐल नहि छल आ वेलवा (सारण)सँ भीठ भगवानपुरक अवशेषक अध्ययन केलासँ एहि बातक पुष्टि होइत अछि। वेलवा आ भीठ भगवानपुरक कलापर कामशास्त्रक प्रभाव स्पष्ट अछि आ एहिसँ इहो साफ देखबामे अवइयै जे कलाक क्षेत्रमे ओ लोकनि वस्तुस्थितिकेँ नहि बिसरने छलाह। मूर्त्तिकलाक क्षेत्रमे सेहो प्रचुर सामग्री भेटल अछि। हाजीपुरसँ पुर्णियाँ धरि मूर्त्तिकला (पाथर आ माँटि)क असंख्य अवशेष भेटल अछि। वैशाली, लौरिया नंदन गढ़, अरेराज, पुनौरा, जनकपुर, दरभंगा, भगीरथपुर, देकुली, बहेड़ा, बलिराजगढ़, लदहो, बौराम, बाउर, भीठ भगवानपुर, बरौनी, जयमंगलागढ़, नौलागढ़, असुरगढ़, अलौलीगढ़, बीहट, वीरपुर, संहौल, पटुआरा, महिषी, बलबागढ़ी, हरदी, परसरमा, अन्हराठाढ़ी, श्रीनगर, पुरैनिया, सिकलीगढ़, आदि स्थानसँ प्राप्त विभिन्न युगक मूर्त्तिकला उपलब्ध अछि। लौरिया नंदनगढ़सँ स्वर्ण मूर्त्ति (मातृ देवता पृथ्वी) भेटल अछि। भीठ भगवानपुरक मुरूत सभकेँ विद्यापति गीतक साकार रूप मानल जा सकइयै। मैथिल शासक मूर्त्तिकला शैलीकेँ यथाशक्ति जीवित रखबाक प्रयास केलन्हि मुदा पालयुगीन सफलता हुनका लोकनिकेँ नहि भेट सकलन्हि। प्राचीन कालसँ अद्यावधि मिथिलामे कखनो मूर्त्तिकलाक नेऽ तँ ह्रास भेल आ नेऽ लोपे। एखनो मिथिलाक माँटिक मुरूत देखबा योग्य होइछ। संहौलसँ प्राप्त एक मुरूत कारी पाथरक (पत्रलेखन मुद्रामे नायिका) बेगूसराय काँलेजक संग्रहालयमे राखल अछि जे कोनो अर्थे खजुराहो आ भुवनेश्वरक तुलनामे कम नहि अछि। ओहने एक शाल भंजिकाक मुरूत सेहो अछि। सूर्यक मुरूतक उल्लेख तँ कइये चुकल छी। बहेड़ासँ एकटा काँसाँक मुरूत सेहो भेटल अछि जकर बनाबट कुर्किहारक मूर्त्तिकला सन छैक। भवन निर्माण कलाक क्षेत्रमे मिथिला अपन गौरवक निर्वाह केने छल। मुजफ्फरपुरक मंदिरक सम्बन्धमे स्पूनर साहेब कहने छथि जे ओ ‘नवरत्न टाइप’क विशिष्ट उदाहरण थिक। सिमरौनगढ़क अवशेषसँ कर्णाटकालीन भवन निर्माणक उदाहरण भेटइत अछि। सिमरौनगढ़ कर्णाट लोकनिक राजधानी छल आ ओतहि रामसिंहक समयमे तिब्बती यात्री धर्मस्वामी आएल छलाह। ओ सिमरौनगढ़क जे वर्णन उपस्थित कएने छथि ताहिसँ बुझि पड़इयै जे सिमरौन संगठित एवँ सुनियोजित नगर छल आ ओकरा चारूकात विशाल किलाबंदी छलैक। सिमरौनसँ प्राप्त अवशेषसँ इ प्रतीत होइत अछि जे नीचाँ मे पहिने पाथरक आधार देल जाइत छल आ ताहिपर सँ चिक्कन ईंटाक नींव दऽ कए भवन बनैत छल। पाथर आ ईंटापर तरह–तरहक नक्कासी सेहो होइत छल आ बलिराजगढ़सँ प्राप्त ईंटापर मनुक्खक तरहथीक छाप देखल गेल छैक। नक्कासीदार ईंटा बहेड़ासँ सेहो प्राप्त भेल अछि। एकटा ईंटापर अश्वमेध घोड़ाक छाप अछि आ दोसरपर कोनो तांत्रिक चक्रक। मैथिल संस्कारक अध्ययन एहेन–एहेन कलात्मक वस्तुक उपलब्धिसँ सेहो भऽ सकैछ। जतवा धरि जे अखनो धरि मिथिलामे प्राप्त भेल अछि तकरा कलात्मक दृष्टिसँ अन्यतम कहि सकैत छी।
मिथिलाक अपन वैशिष्ट ओकर भित्तिचित्र, अइपन, कोहवरमे छैक जे अद्यावधि “मिथिला पेंटिङ्गस”क नामे प्रसिद्ध भए देश–विदेशमे नाम अर्जन केलक अछि। अरिपनक आधार तँ ओना पुराणमे सेहो अछि मुदा तंत्रसँ इ कम प्रभावित नहि अछि। अइपन–कोहवर लिखब एक विशिष्ट कला बुझल जाइत छल आओर मिथिलाक प्रत्येक नारीमे एहिमे सिद्धहस्थ होएब आवश्यक बुझना जाइत छल। कोबरा–मड़बाक चित्र सेहो बनइत छल आ एकटा पाण्डुलिपिक मुख्य पृष्ट मड़बाक चित्र हमरा बरौनीसँ प्राप्त भेल अछि। ओहि चित्रमे वरपक्ष आ कन्यापक्षक लोग पाग पहिरने मड़बापर बैसल देखल जाइत छथि। एहि चित्रकेँ हम विशेष महत्वपूर्ण मनैत छी कारण एहेन पाण्डुलिपि हमरा आ कतहु देखबामे नहि आएल अछि। इ पाण्डुलिपिक पृष्ट छान्दोग्य विवाह पद्धतिक पाण्डुलिपिक एक पृष्ट थिक। कागजपर चित्र बनाएब सेहो मिथिलाक पुरान कला थिक आ बारहम शताब्दीक एक पाण्डुलिपिपर एक ताराक चित्र बनल अछि जाहिमे तीरभुक्ति आ वैशाली दुहुक उल्लेख अछि। भित्तिचित्र, कोहबर, अइपन, आदिमे दुर्गा, सीता, काली, राधा, रामकृष्ण, शिव, आदिक चित्र बनैत अछि आओर मिथिलामे एहेन कोनो उत्सव नहि होइत अछि जाहिमे चित्रादि नहि बनैत हो। सभ अवसरक हेतु निर्धारित चित्रमाला अछि। सूर्य, चन्द्रमा, बाँस, कमल, तोता, मैना, माँछ इत्यादिक प्रयोग सेहो एहि चित्र सभमे होइत अछि। चित्र बनेबाक पाछाँ एक विशिष्ट कथा साहित्य एहिमे जूटल अछि जकर संग्रह आ अध्ययन अपेक्षित बुझना जाइत अछि। आर्थर सेहो एहि क्षेत्रमे किछु काज केने छथि आ आबतँ सहजहि एहि कलाक अंतराष्ट्रीय प्रसार भऽ गेल अछि। मिथिलामे करण कायस्थ आ ब्राह्मणक परिवार एकरा एखनो धेने अछि। सिक्की, मौनी, सूप, डाला, कोनिया आदिपर सेहो चित्र बनेबाक प्रथा अछि। सिक्कीक तँ बहुत रास कलात्मक वस्तु बनाओल जाइत अछि। एहि सभ कलाकेँ गृहकला कहल गेल छैक आ मिथिलामे अति प्राचीन कालहिसँ इ सभ प्रथा चलि आबि रहल अछि। एहिमे तरह–तरहक रंगक व्यवहार होइत अछि जेना गुलाबी, पीअर, हरिअर, लाल, सुगा पाँखिक रंग इत्यादि। एक प्रकारक माँटि सेहो ओहन होइत छल जाहिसँ रंग तैयार कैल जाइत छल।
संगीतक क्षेत्रमे मिथिलाक योगदान ककरोसँ कम नहि रहल अछि। कर्णाटवंशक संस्थापक नान्यदेवक शासन कालमे संगीतमे बहुत रास नवीन राग आ भासक प्रयोग शुरू भेल। नान्यदेव स्वयं एक महान संगीतज्ञ छलाह। सारंगदेव अपन संगीत रत्नाकरमे एहि बातक उल्लेख केने छथि। नान्यदेव स्वयं ‘सरस्वती हृदयालंकार’ नामक एक प्रसिद्ध ग्रंथक रचयिता छलाह। श्रीधर दासक अन्धराठाढ़ी अभिलेखमे कहल गेल अछि जे नान्यदेव ‘ग्रंथमहार्णव’ नामक पोथीक रचयिता सेहो छलाह। नान्यदेव संगीतमे 160राग सभहिक वर्णन केने छथि। नान्यदेवक स्थापित कैल परम्परा संगीतक क्षेत्रमे मिथिलामे सदति व्याप्त रहल। मिथिलामे एकपर एक संगीतज्ञ सभ युगमे भेल छथि। पुरूष परीक्षाक एक कथासँ ज्ञात होइछ जे हरिसिंह देव स्वयं सेहो एकटा पैघ संगीतज्ञ छलाह। ज्योतिरीश्वर ठाकुर, सिंह भूपाल, जगज्योतिमल्ल, आ लोचन प्रसिद्ध संगीतज्ञ भऽ चुकल छथि। विद्यापति आ लखिमाक नाम सेहो एहि क्षेत्रमे अमर अछि।
पूर्व समयमे भवभूति नामक एक ब्राह्मण रहैथ जे नवीन धुनि (ध्वनि) सभमे गीत बनौलन्हि। ओहि समयमे सुमति नामक कायस्थ पश्चिमसँ आबिकेँ हुनकासँ सभ कला सिखलन्हि आ राजसभामे ओकर प्रदर्शन केलन्हि आ ताहियासँ ओ कलावान, कथक, कलाओत आदिक नामे प्रसिद्ध भेला। हुनक संततिमे कतेको व्यक्ति “मल्लिक”क उपाधि धारण केलन्हि। सुमतिक पुत्र छलाह उदय आ हुनक पुत्र जयत भेलाह। जयत सुश्वर गायक छलाह तैं शिवसिंह हुनका विद्यापति ठाकुरक समीप शिक्षार्थ समर्पण कैल। विद्यापति हुनका हेतु नवीन–नवीन धुनि सभहक कल्पना कए गीत बनौलन्हि जकर अग्रगायक राजसभामे जयत भेला। जयतक पुत्र कृष्ण देशी रागमे गान करैथ। हुनक पुत्र भेला हरिहर मल्लिक आ हुनक पुत्र घनश्याम विशिष्ट गायक भेलाह। घनश्यामक पुत्र सभ देशी सम्प्रदायक गानमे निपुण भेलाह। तदनुसारहिं लोचन कवि एवँ नरपति ठाकुर तिरहूत राग सभहिक प्रचार केलन्हि। रागतरंगिणीमे गीतक भनिता अछि ताहिमे नरपति आ महिनाथक उल्लेख अछि।
संगीतक क्षेत्रमे मिथिलाक अपन अलग शैली छैक। संगीतमे ओ लोकनि कतेक पारखी होइत छलाह तकर पता वर्णन रत्नाकरक भाट वर्णनासँ लगैत अछि। ओहिमे सात प्रकारक गायन दोष आ १४प्रकारक गीति दोषक उल्लेख अछि। पेशेवर गबैयाकेँ विद्यांवित कहल जाइत छल। वर्णरत्नाकरमे नृत्यवर्णनाक उल्लेखक संगहि संग लोरिक नाचक उल्लेख सेहो अछि। ढ़ोलकक विभिन्न प्रकारक रस आ तालक वर्णन सेहो अछि। जगद्धर अपन संगीत सर्वस्वमे सेहो मैथिल संगीत शैलीक विशद विश्लेषण केने छथि। मिथिला संगीत शैलीक क्षेत्रमे घनश्यामक श्रीहस्त मुक्तावली सेहो प्रसिद्ध मानल गेल अछि। संगीतक क्षेत्रमे वंशमणि झाक नाम सेहो उल्लेखनीय अछि। लोचन अपन रागतंरगिणीमे मैथिल रागक सम्बन्धमे निम्नलिखित उद्गार प्रगट केने छथि–
मैथिल रागक प्रचार ओहिकालमे नेपाल, गोरखपुर, बंगाल आ आसाम धरि भेल छल। संगीत आ नृत्यकला मिथिलामे एक समयमे अपन चरमोत्कर्षपर छल। शुभंकर ठाकुर नृत्य विद्यापर एकटा महान ग्रंथ लिखने छलाह। मैथिल गवैयाक बजाहटि त्रिपुराक राजाक ओतएसँ होइत छलन्हि। संगीतमे मिथिला शैलीक विकासक हेतु लोचनक रागतंरगिणी आनिवार्य ग्रंथ बुझना जाइत अछि। हेवनि धरि मिथिला संगीतक प्रधान केन्द्र छल आ पचगछियाक स्वर्गीय रायबहादुर लक्ष्मीनारायण सिंहक दरबार समस्त भारतीय गायक लोकनिक हेतु एकटा बड़का आश्रय छल। हुनके एहिठाम माँगन खबास प्रसिद्ध गबैया छल आ माँगनक शिष्य रघु झा सेहो। लक्ष्मीनारायण सिंह अखिल भारतीय स्तरक प्रसिद्ध संगीतज्ञ छलाह आ अपन जमीन्दारीकेँ संगीतक पाछाँ बिलटा देलन्हि।
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/ पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि। मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि। अपन टीका-टिप्पणी एतए पोस्ट करू वा अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर पठाऊ।
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