भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

(c)२०००-२०२३. सर्वाधिकार लेखकाधीन आ जतऽ लेखकक नाम नै अछि ततऽ संपादकाधीन। विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA सम्पादक: गजेन्द्र ठाकुर। Editor: Gajendra Thakur

रचनाकार अपन मौलिक आ अप्रकाशित रचना (जकर मौलिकताक संपूर्ण उत्तरदायित्व लेखक गणक मध्य छन्हि) editorial.staff.videha@gmail.com केँ मेल अटैचमेण्टक रूपमेँ .doc, .docx, .rtf वा .txt फॉर्मेटमे पठा सकै छथि। एतऽ प्रकाशित रचना सभक कॉपीराइट लेखक/संग्रहकर्त्ता लोकनिक लगमे रहतन्हि। सम्पादक 'विदेह' प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका ऐ ई-पत्रिकामे ई-प्रकाशित/ प्रथम प्रकाशित रचनाक प्रिंट-वेब आर्काइवक/ आर्काइवक अनुवादक आ मूल आ अनूदित आर्काइवक ई-प्रकाशन/ प्रिंट-प्रकाशनक अधिकार रखैत छथि। (The Editor, Videha holds the right for print-web archive/ right to translate those archives and/ or e-publish/ print-publish the original/ translated archive).

ऐ ई-पत्रिकामे कोनो रॊयल्टीक/ पारिश्रमिकक प्रावधान नै छै। तेँ रॉयल्टीक/ पारिश्रमिकक इच्छुक विदेहसँ नै जुड़थि, से आग्रह। रचनाक संग रचनाकार अपन संक्षिप्त परिचय आ अपन स्कैन कएल गेल फोटो पठेताह, से आशा करैत छी। रचनाक अंतमे टाइप रहय, जे ई रचना मौलिक अछि, आ पहिल प्रकाशनक हेतु विदेह (पाक्षिक) ई पत्रिकाकेँ देल जा रहल अछि। मेल प्राप्त होयबाक बाद यथासंभव शीघ्र ( सात दिनक भीतर) एकर प्रकाशनक अंकक सूचना देल जायत। एहि ई पत्रिकाकेँ मासक ०१ आ १५ तिथिकेँ ई प्रकाशित कएल जाइत अछि।

 

(c) २००-२०२ सर्वाधिकार सुरक्षित। विदेहमे प्रकाशित सभटा रचना आ आर्काइवक सर्वाधिकार रचनाकार आ संग्रहकर्त्ताक लगमे छन्हि।  भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल http://www.geocities.com/.../bhalsarik_gachh.htmlhttp://www.geocities.com/ggajendra  आदि लिंकपर  आ अखनो ५ जुलाइ २००४ क पोस्ट http://gajendrathakur.blogspot.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html  (किछु दिन लेल http://videha.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html  लिंकपर, स्रोत wayback machine of https://web.archive.org/web/*/videha  258 capture(s) from 2004 to 2016- http://videha.com/  भालसरिक गाछ-प्रथम मैथिली ब्लॉग / मैथिली ब्लॉगक एग्रीगेटर) केर रूपमे इन्टरनेटपर  मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितक रूपमे विद्यमान अछि। ई मैथिलीक पहिल इंटरनेट पत्रिका थिक जकर नाम बादमे १ जनवरी २००८ सँ "विदेह" पड़लै।इंटरनेटपर मैथिलीक प्रथम उपस्थितिक यात्रा विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,जे http://www.videha.co.in/  पर ई प्रकाशित होइत अछि। आब “भालसरिक गाछ” जालवृत्त 'विदेह' ई-पत्रिकाक प्रवक्ताक संग मैथिली भाषाक जालवृत्तक एग्रीगेटरक रूपमे प्रयुक्त भऽ रहल अछि। विदेह ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA

Sunday, July 04, 2010

'विदेह' ५९ म अंक ०१ जून २०१० (वर्ष ३ मास ३० अंक ५९)-PART V



प्रेमशंकर सिंह: ग्राम+पोस्ट- जोगियारा, थाना- जाले, जिला- दरभंगा।मौलिक मैथिली: १.मैथिली नाटक ओ रंगमंच,मैथिली अकादमी, पटना, १९७८ २.मैथिली नाटक परिचय, मैथिली अकादमी, पटना, १९८१ ३.पुरुषार्थ ओ विद्यापति, ऋचा प्रकाशन, भागलपुर, १९८६ ४.मिथिलाक विभूति जीवन झा, मैथिली अकादमी, पटना, १९८७५.नाट्यान्वाचय, शेखर प्रकाशन, पटना २००२ ६.आधुनिक मैथिली साहित्यमे हास्य-व्यंग्य, मैथिली अकादमी, पटना, २००४ ७.प्रपाणिका, कर्णगोष्ठी, कोलकाता २००५, ८.ईक्षण, ऋचा प्रकाशन भागलपुर २००८ ९.युगसंधिक प्रतिमान, ऋचा प्रकाशन, भागलपुर २००८ १०.चेतना समिति ओ नाट्यमंच, चेतना समिति, पटना २००८। २००९ ई.-श्री प्रेमशंकर सिंह, जोगियारा, दरभंगा यात्री-चेतना पुरस्कार।
हरिमोहन झाक रचनाक परवर्त्ती
रचनाकर्मीपर प्रभाव
विगत शताब्दी निश्चये मैथिली साहित्यक हेतु स्वर्ण कालक रूपमे प्रवेश पौलक जकर फलस्वरूप सामाजिक वातावरणक विशिष्ट सन्दर्भमे साहित्यिक वातावरणमे नव स्पन्दनक संचार भेलैक जे मातृभाषानुरागी रचनाकार एकर चहुमुखी विकास-यात्रामे मनसा वाचा कर्मणा आ कर्त्तव्य बुद्धया अजस्र साहित्य सरिता प्रवाहित करब प्रारंभ कयलनि जे पत्रिकादिक प्रकाशनक फलस्वरूप जनमानसमे मातृभाषाक प्रति अनुराग भावना उत्पन्न करबाक निमित्त जनजागरणक अभियान चलौलनि जे वर्त्तमान परिप्रेक्ष्यमे ऐतिहासिक महत्वक विषय भ गेल अछि। मातृभाषानुरागी साहित्य सृजक नव-नव प्रवृत्तिक रचनाक माध्यमे जनमानसक ध्यानाकर्षित करबाक निमित्त नव भाव-धाराक साहित्य-सृजन करब प्रारम्भ कयलनि तकरा अस्वीकार करब रचनाकारक प्रति अज्ञानता प्रदर्शित करब हैत। पत्रिकादिक प्रकाशनोपरांत मैथिली गद्य गंगा सहस्रमुखी साहित्यिक धारा उन्मुक्त भ कए प्रवाहित होमय लागल जकर फलस्वरूप एकांकी, उपन्यास, कथा, निबन्ध, नाटक, प्रहसन, संस्मरण एवं यात्रा वृतांतादिक सर्वतोमुखी विकास-यात्राक शुभारम्भ भेल।
वस्तुतः उन्नैसम शताब्दीक उत्तरार्द्धमे नवीनताक सूत्रपात भेल जकर फलस्वरूप आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, एवं सांस्कृतिक जीवनमे नव-नव परिवर्त्तन दृष्टिगत होमय लागल। सम्पूर्ण राष्ट्र यथार्थोन्मुख प्रवृत्तिसँ प्रेरित महात्मा गाँधीक स्वतंत्रता आन्दोलनक प्रश्रय देमय लागल। सामाजिक वातावरणक विशिष्ट सन्दर्भमे ओकर प्रतिनिधित्व पाश्चात्य शिक्षित वर्गक हाथमे छल। ओ लोकनि एक भाग अपन सांस्कृतिक विरासतक सुरक्षार्थ उत्सुकता देखौलनि तँ दोसर भाग नव आलोकक स्वागत कयलनि। एही सांस्कृतिक अनुष्ठानक पृष्ठभूमिमे अत्याधुनिक भारतीय भाषादिक विकास-यात्राक शुभारम्भ भेल जकर नेतृत्व बुद्धिजीवी लोकनि कयलनि। एही संक्रांति कालमे साहित्यमे आधुनिकता प्रारम्भ भेल आ रचनाकार साहित्यक नवीनतम प्रवृत्ति दिस उन्मुख भेलाह जे हास्य-व्यंग्यक सजीव चित्र अपन साहित्यमे प्रस्तुत कयलनि।
उपर्युक्त परिप्रेक्ष्यक स्वर्णिम बेलामे विगत शताब्दीक प्रथम दशकमे एक एहन अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न साहित्य-सृजक प्रादुर्भूत भेलाह जे अपन विविध रूपा अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न रचनावली ल कए पाठकक सम्मुख प्रस्तुत भेलाह जनिक साहित्यमे प्रचुर परिमाणमे हास्य तीक्ष्ण एवं प्रखर व्यंग्यक कारणेँ ओ जे लोकप्रियता अर्जित क कए प्रमाणित कयलनि जे मिथिलाक पावन भूमि अद्यापि विश्वकवि महाकवि विद्यापति सदृश सुसम्पन्न प्रतिभाशाली रचनाकार उत्पन्न क सकैछ ओ रहथि हरिमोहन झा (1908-1984) ओ प्रचुर परिमाणमे उपन्यास, एकांकी, कथा, कविता, निबन्ध, प्रहसन, एवं जीवनयात्राक रचना क कए गद्य एवं पद्य धाराक अवरूद्ध मार्गकेँ नव प्रवृत्तिक रचनादि द्वारा प्रशस्त कयलनि। साहित्यक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थिक जे रचनाकार अपन अनुभूतिकेँ सत्यताक संग उद्घाटित करब साहित्यकारक दायित्व होइछ। रचनाकारक व्यक्तित्वक निर्माणमे अनेक प्रकारक भूमिका कार्य करैछ आ ओहि सभक सम्मिलित संयोजनसँ अपन रचनाक स्वरूप सुनिश्चित करैछ। मातृभाषानुरागसँ उत्प्रेरित आ अब्याहत मोह हिनका अपन कौलिक विरासतक रूपमे प्राप्त भेलनि जकरा ओ जीवन आ जगतक गम्भीर अनुभवकेँ व्यक्त करबाक तीव्र लालसा हिनका साहित्य-सृजन दिस प्रेरित कयलक। साहित्यिक क्षेत्रमे ई अपन अद्भूत समंवयात्मक दृष्टिकोणक परिचय देलनि। ओ युगक निष्प्राण धमनीमे अपन साहित्यक माध्यमे नव जीवनक रक्त संचारित करबाक प्रयास कयलनि। ओ गद्य आ पद्य दुनू विधामे समान रूपेण लेखन कयलनि, किंतु पद्यक अपेक्षा गद्य-विधाकेँ, जकर अभाव मैथिलीमे छल तकरा पूर्त्ति करबाक संकल्प कयलनि।
ई श्रेय आ प्रेय हुनके छनि जे ओ सर्वप्रथम मिथिलाञ्चलक संगहि संग राष्ट्रीय आ अंतराष्ट्रीय जनमानसक नव्यतम प्रवृत्ति हास्य-व्यंग्यकेँ चिन्हलनि तथा ओकरा अवलम्बन क कए कन्यादान (1933), द्विरागमन (1943), प्रणम्य देवता (1945), रंगशाला (1948), खट्टर ककाक तरंगक प्रथम भाग (1948), द्वितीय भाषा (1955), चर्चरी (1960), एकादशी (1964), जीवन यात्रा (1982), आ काव्य संग्रह (2005) आदि पुस्तक रूपमे प्रकाशित अछि। एहिसँ अतिरिक्त निबन्धादि यथा स्त्री-शिक्षाक वर्त्तमान दशा (मिथिला वर्ष-1 अंक-1 सन् 1336 वैशाख), स्वराज केँ लेत (मिथिला वर्ष-1 अंक-8 सन् 1337 अगहन) एवं देशाचार (डॉ. प्रेमशंकर सिंहक शोध प्रबन्ध)मे समसामयिक सामाजिक कुरीतिक प्रति ओ साकांक्ष कयलनि। हिनक निम्नस्थ कथादि यथा निरसन मामाक सिनेमा (1961), प्रगतिक पथपर (1961), शास्त्रार्थक जोश (1962), सहस्त्रर्थाचिभ्यो नमः (1962), सहयात्रिणी (1963), आब मोक्षे चाही (1970), भोला बाबाक गप्प (1974), कालाजारक उपचार (1977) एवं महाभारतक क्षेपक (1979), मिथिला मिहिरमे धूल-धूसरित रहल अछि। हिनक प्रहसन यथा बौआक दाम (1946), महाराज विजय (1948), ठोपसँ टोप (1935), आदर्श मैथिल रेलवे एवं रेलक झगड़ा (1960) आदि कोनो संग्रहमे नहि आबि सकल अछि जे चिंतनीय विषय थिक।
उपर्युक्त रचनादिमे ओ सामाजिक वातावरणक विशिष्ट सन्दर्भमे सामकालीन मैथिल समाजक कुरुचि पूर्ण सामाजिक विकृति एवं विसंगतिपर कुण्ठाराघात कयलनि। सादा जीवन आ उच्च विचारक ओ प्रतिमूर्ति रहथि। ओ सत्य ज्ञानक भण्डार रहथि। ओ सशक्त व्यंग्यकार रहथि। हुनक चिंतन, पाण्डित्य, नीर-क्षीर विवेचनक शक्ति, व्यक्ति-व्यक्तित्वक खरेपन, सोझ, सपाट कथनक निखरल स्वरूप जनमानस समक्ष प्रस्तुत भेल जे उपन्यासकार, एकांकीकार, कथाकार, कविताकार, निबन्धकार, प्रहसनकार, एवं जीवन-यात्राकारक रूपमे हिनक साहित्यिक अवदान निश्चित रूपें प्रेरणादायक प्रमाणित भेल राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तरपर। हिनक चिंतन आ साहित्य-साधना सागर सदृश विशाल अछि जे परवर्त्ती साहित्यसाधक लोकनिक प्रेरणाक अविरल स्रोत बनल। ओ अपन साहित्यिक प्रतिभा प्रसादात सामाजिक वातावरणक विशिष्ट सन्दर्भमे अन्ध-विश्वास, रूढ़िग्रस्त परम्परा, धार्मिक वितण्डावाद, जीवनमे अंतर्विरोध, असंगति, ढ़ोंग, दम्म, पाखण्ड, बाबा वाक्यं प्रमाणम् क हठधर्मियता, मिथ्या बड़प्पन, मूर्खतापूर्ण संघर्ष, जीर्ण-शीर्ण विचार धारापर कशाघात क कए आचार-विचार एवं वाह्याडम्बरक तीव्र आलोचना आ भर्त्सना कयलनि। आनक उपलब्धिकेँ सहज भावसँ स्वीकारैत ओ सत्य गुणग्राहकक भूमिकाक निर्वाह कयलनि। हिनक कृतित्वक वैशिष्ट्य थिक हास्यमे सन्निहित व्यंग्य द्वारा ओ सामाजिक दोष दिस जनमानसक ध्यान आकर्षित कयलनि। प्राचीन एवं अर्वाचीन परम्परा एवं परिपाटीक दोष सम्प्रति वर्त्तमान अछि ओहि सभकेँ लक्ष्य क कए ओ अपन व्यंग्यवाण सँ बेधबाक प्रयास कयलनि। हिनक साहित्यमे ने तँ प्राचीन अन्धविश्वासक प्रति निष्ठा अछि आ ने तँ नवीनताक आन्धानुकरणक प्रति आशक्ति।
हरिमोहन झाक सम्पूर्ण साहित्य मात्र मिथिलाञ्चलक परिसर धरि सीमित नहि रहल, प्रत्युत राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तरपर उज्ज्वल भविष्यक सूचक सिद्ध भेल। हिनका द्वारा स्थापित परम्पराक प्रभाव परवर्त्ती युवा पीढ़ीक साहित्यपर तीन रूपें पड़लैक। प्रथम तँ मैथिलीमे पाठक वर्गक निर्माण कयलनि। द्वितीय मिथिलाञ्चलक कन्या लोकनिक व्यक्तिगत जीवन प्रभावित भेल जे हजारक हजार शिक्षित भ कए एक नव ज्योति जगौलनि। तृतीय प्रभाव पड़ल परवर्त्ती साहित्यकार लोकनिपर जे हुनका द्वारा प्रवाहित हास्य-व्यंग्य अविरल धाराक अनुकरण क कए साहित्यक विभिन्न विधामे साहित्य सृजनक परम्पराक शुभारम्भ कयलनि।
मैथिली साहित्यमे हिनका द्वारा हास्य-व्यंग्यक जे धारा प्रवाहित कयल गेल ओ एक नव-युगक अवतारणा क कए नव ज्योति जगौलक। हिनक प्रतिभाक छाहरिमे न्यू फोर्सक आविर्भाव भेलैक। हुनक कथा-साहित्यक परिवेशमे न्यू फोर्सक औनाहटिकेँ नहि थाहल जा सकैछ। न्यू फोर्सक अवतारणा एहन धरातलपर भेल आ एकर औनाहटि सर्वथा मौलिक छैक। हिनक साहित्यमे एकहि अकुलाहटि थिक समाजक नव जीवन शक्ति (भाइटल फोर्स)क प्राचीनताक सड़ल छोलकोइया फोड़ि क जनकल्याणक किरणसँ बाहर हैबाक अकुलाहटि। हुनक साहित्यमे रूढ़िवादक अन्धकार पूर्ण रात्रिक अंतिम अंशमे विहग कुलक रागिणी जे अयनिहार नवयुगक आन्दोलनक स्वागतमे गूंजि रहल अछि। ओ नारी जागरण शंखनाद कयलनि जकरा माध्यमे पर्दा प्रथा, तिलक-दहेज, बाबा वाक्यं प्रमाणम् पर गम्भीर चोट कयलनि।
हिनक साहित्य समाजक बीच प्रखर वेगसँ प्रवाहित होइत विभिन्न सामाजिक शक्ति सोसल फोर्सक घात प्रतिघात अछि। हुनक पात्र सभ परिस्थितिक प्रवाहमे बहैत अछि। आधुनिकताक बसातमे हिलैत अछि।
मैथिली उपन्यासक क्षेत्रमे ई हास्य-व्यंग्यक जे अजस्र धारा बहौलनि जे परवर्त्ती उपन्यासकार लोकनिक पाथेय बनल। जतय ओ शिक्षा-दीक्षा कारणेँ अनमेल विवाहक बलिदानक वेदी कन्या लोकनिक कुर्वान होइत देखलनि तकरा परवर्त्ती उपन्यासकार लोकनि व्यापक परिधिमे आनि यथा अवस्थाक कारणेँ अनमेल विवाह, रूप-गुणक कारणेँ अनमेल विवाह, शिक्षा दीक्षाक कारणेँ अनमेल, विधवा-विवाह आदि विविध सामाजिक वातावरण विशिष्ट सन्दर्भमे समसामयिक समाजमे व्याप्त विविध समस्यादिपर व्यंग्य कयलनि। वस्तुतः हिनक उपन्यासक प्रभाव मैथिली साहित्यपर तीन रूपें पड़लैक-समाजक मनोवृत्तिपर, कन्या लोकनिक व्यक्तिगत जीवनपर तथा परवर्त्ती लेखक समुदायपर।
हिनक उपन्यास नव युगक चौराहापर सामाजिक वातावरणक विशिष्ट सन्दर्भमे परम्परावादक गुदरी पहिरने, कट्टरता मारल, ढ़ोंगक झमारल, रूढ़िवादी जजर्रित समाजपर तीक्ष्ण व्यंग्य क कए हास्य उत्पन्न कयलनि। हिनक हास्य-व्यंग्यसँ संयुक्त उपन्यास माइल स्टोन प्रभावित भेल जे हिनका द्वारा स्थापित मापदण्डक टक्कर क्यो नहि क सकला। हिनका द्वारा स्थापित एहि प्रवृत्तिक व्यापक प्रभाव परवर्त्ती अत्याधुनिक उपन्यासकार लोकनिपर पड़लनि जे वस्तुतः एहि प्रवृत्तिक वास्तविक विकास दृष्टिगत होइत अछि। हिनकासँ प्रभावित भ योगानन्द झा (1922-1986) मिथिलाञ्चलमे प्रचलित कुलीन प्रथाक निस्सारतापर भलमानुस (1944) मे अन्धविश्वासक वेदीपर सुकुमारी निर्मलाक निर्मम हत्या आ पवित्रा (1966)मे बाल-विवाहक कारणेँ वैधव्यक समस्या उपस्थित क कए व्यंग्य कयलनि।
हरिसिंह देवक वैवाहिक व्यवस्थाक पृष्ठभूमिमे कन्या-विक्रय आ वृद्ध-विवाहक पृष्ठभूमिमे वैद्यनाथ मिश्र यात्री (1911-1998), पारो (1353 साल) एवं नवतुरिया (1954)मे अवस्थाक कारणेँ अनमेल विवाहक समस्यापर व्यंग्य कयलनि। उपन्यास सम्राट व्रजकिशोर वर्मा मणिपद्म (1918-1986) अनलपथमे प्राचीन कुलीन प्रथाक नीचाँ दबायल चिनगोरा नव सामाजिक चेतनाक स्फुलिंग बनि भुवनेश्वर एवं सरिताक रूपमे खिलैत अछि। सामाजिक नैतिकताक भर्त्सनाक संगहि-संग एहिमे सामाजिक जीवनमे राजनीति एवं आर्थिक पक्षपर व्यंग्य कयल गेल अछि। शारदानन्द झाक जयवार एवं अवधनारायण झाक वनमानुषमे उपन्यासकार समाजांतर्गत कतिपय उदण्ड व्यक्तिक दुष्कर्मसँ परिवार कलंकित भ सम्पूर्ण समाज हास्यापद भ जाइछ। राजकमल (1929-1967), पाथर फूल (1957) एवं आदि कथा (1958)मे व्यक्तिक व्यवहार एवं आंतरिक जगतक वीभत्स नग्नता एवं सामाजिक विरूपतापर व्यंग्य कयलनि। जतय विन्देश्वर मण्डल बाटक भेट जिनगीक गेंठ (1967)मे तिलक-दहेजपर ततय रूपकांत ठाकुरक नहलापर दहला (1967)मे बीसम शदीक उत्तरार्द्धमे जीवनमे आयल विसंगतिपर हास्य-व्यंग्य शैलीमे समसामयिक समाजपर व्यंग्य कयलनि।
समाजक परिवर्त्तित परिवेशमे ओ कथा-साहित्यांतर्गत जाहि हास्य-व्यंग्य शैलीक अवतारणा कयलनि तकरा परवर्त्ती पीढ़ीक युवा कथाकार लोकनि अधिक प्रशस्त कयलनि। किछु कथाकार तँ हुनक विचारधाराक अनुगमन कयलनि आ किछु व्यंग्य-मिश्रित भाषा-शैलीकेँ। परवर्त्ती कथाकार कोन अनुपातमे हुनक अनुकरण ओ विचारणीय प्रश्न अछि। हिनक कथाक लोकप्रियताक फलस्वरूप परवर्त्ती कथाकार हाँजक हाँज अग्रसर भेलाह जकर फलस्वरूप हास्य-व्यंग्य शैलीक निम्नस्थ कथा संग्रह प्रकाशमे आयल यथा नागेन्द्र कुमारक ससरफानी (1947), दृष्टिकोण (1954), शिकार (1954), एवं फलेना जामुन (1955), मायानन्द मिश्र (1934) भाङक लोटा (1957) गोविन्द चौधरीक पाञ्चजन्य, रूपगर्विता एवं पाँच फूल, उदयभानु सिंहक जखन-तखन (1963), रूपकांत ठाकुरक धूकल केरा (1964) एवं मोमक नाक (1965), रमानाथ मिश्र मिहिर (1939-1999) स्मृति (1965) एवं एकयुगक बाद (1975), छत्रानन्दसिंह झा (1946)क डोकहरक आँखि (1971) एवं काँटकूस (1977), हंसराज (1938-2006) जे कीने से (1972) दमनकांत झा (1924-1994) गपाष्टक (1974), अमरनाथ झाक क्षणिका (1975), एकटा चाही द्रोपदी (1976), कबकब (1977), जोंक (1978), मोम जकाँ वर्फ जकाँ (1980) एवं अधकट्टी (2007) तथा मंत्रेश्वर झा (1944)क एक बटे दू (1977) आदि उल्‍लेखनीय अछि। परवर्त्ती किछु कथाकार एहन छथि जनिक क‍था संग्रह तँ नहि प्रकाशमे आबि सकल अछि, किन्‍तु समकालीन पत्रिकादिमे हुनका सभक एहि प्रवृत्तिक कथादि प्रकाशित अछि जकर संख्‍या शताधिक अछि।
हरिमोहन झा ने विश्रुत गद्यकार रहथि, प्रत्‍युत वाक् सिद्ध कविताकार सेहो रहथि। हुनका विलक्षण प्रतित्‍वपन्‍नमतित्वक प्रतिभा सेहो छलनि। काव्‍यक क्षेत्रमे कुत्सित वैवाहिक परम्‍परा, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, आधुनिक फैशन एवं सभ्‍यता, महगी, धार्मिक पाखण्‍ड, पर्दाप्रथा इत्‍यादि विषय केन्द्रित क कए गंभीर व्‍यंग्‍य कयलनि। परवर्त्ती युवा पीढ़ीक कवि लोकनि कतिपय कविताक रचना कयलनि। ओ ढ़ाला झा (विक्रम संवत् 2003)मे एहन व्‍यंग्‍यात्‍मक चित्र प्रस्‍तुत कयलनि जे लुट्टी झाक प्रप्रौत्र, नरहा पाञ्जि, ककरौड़क निवासी तथा बेलौंचेक वंशज, जनिक स्‍वरूप देखितहि पाठकक हास्‍यक अन्‍त नहि होइछ। एकर प्रभाव परवर्त्ती बड़ चर्चित काव्‍यकार वैद्यनाथ मिश्र यात्रीपर पड़ल आ ओ बूढ़वरक रचना कयलनि जे मैथिल समाजक यथार्थ व्‍यञ्जना उपस्थित करैत अछि। ई कविता भावनाक तीव्रताक कारणेँ हृदयग्राही बनि गेल अछि। वृद्ध विवाहक शब्‍द-चित्र चन्‍द्रनाथ मिश्र अमर (1925) बुढ़बा काका (1364 साल)मे अंकित कयलनि जे पुनर्विवाहक हेतु कतेक व्‍याकुल छथि। एहन वृद्ध-वरकेँ देखि क केँ पाठक नहि हैत जकरा हृदयमे आक्रोशक भावनाक उदय नहि हैत। एहि परम्‍परासँ प्रभावित समाजक यथार्थ अभिव्यञ्जना वैद्यनाथ मिश्र यात्री बूढ़वरमे कयलनि :
·         माथ छलनि औन्‍हल छाँछ जकाँ
·         जीह गाँजक जोलही माछ जकाँ
·         दाँत ने रहन्हि निदन्‍त रहथि
·         बूड़ि रह‍थि घेंत्था वसन्‍त रहथि
मि‍थिलाक समसामयिक समाजमे वृद्ध-विवाहक प्रचलनक कारणेँ कन्‍या विक्रय प्रथाक प्रचलन भेल। एहि परिप्रेक्ष्‍यमे हरिमोहन झा कन्‍याक निलामी डाक (1336 साल)मे पतित कुलीन प्रथापर कुण्‍ठराधात कयलनि जे कन्‍या एवं वर पक्षक घटक कोना मायाजालमे फँसा क कोमल कलीकेँ वृद्धक संग विवाह स्थिर करैत छथि तकर मार्मिक चित्रणसँ प्रभावित भ वैद्यनाथ मिश्र यात्री जखन कहैत छथि :
·         देख मे सुखैल पकटैल काठ
रुपैया बान्हि बूढ़ ऐला सौराठ
·                     तथा
·         ई की कैल उठा क आनल
·         कमलक कोढ़ी लै ढ़ेङ कोकनल
·         बेटीकेँ बेचलहुँ मड़ुआक दोबर
·         बूढ़ बकलेल सँ भरलहुँ कोबर
उपर्युक्‍त प्रसंगमे चन्‍द्रनाथ मिश्र अमर कहैत छथि :
·         आगि देखौने कतहु नहि नमरैक लाह
·                     वृद्ध विवाहक दुष्परिणाम होइछ अधिकांश कन्‍या विधवा बनि जाइछ। बाल-विधवाक जीवन केहन विषाद पूर्ण होइछ तकर स्‍पष्‍ट चित्रांकन वैद्यनाथ मिश्र यात्री कयलनि विलाप कवितामे। यथा :
·         भुस्साक आगि जकाँ
·         जरै छी मने मन हमहुँ
·         फटै छी कुसियारक पोर जकाँ
·         चैतक पछबामे ठोर जकाँ
हरिमोहन झा अत्याधुनिक फैशन परस्‍त युवक-युवतीपर सेहो व्‍यंग्‍यक कुण्‍ठाराधात कयलनि जकर स्‍पष्‍ट चित्र भेटैछ बूढ़ानाथ (1960) काव्‍यमे। आधुनिक समाजमे नारीक चारित्रिक उच्‍छृंखलता कतेक वेसी अछि ताहिपर कवि व्‍यंग्‍य करैत छ‍थि। एहिसँ प्रभावित भ वैद्यनाथ मिश्र यात्री अत्‍याधुनिक राधिकापर कटाक्ष कयलनि :
·         देवि स्‍कूटर वाहिनी घुरिआउ सन्ध्याकाल
·         कोनो होटल मध्‍य बाट तकैत हैत बाँके बिहारीलाल
युग चक्रक कवि चन्‍द्रनाथ मिश्र अमर जखन कटाक्ष करैत छथि :
सुन्‍दरता लै पुरुष फटै छ‍थि
नारी वर्गक कान कटै छथि
तैं तँ महिला सब उठि चलली
काटै पुरुषक कान कहौ केँ
आधुनिक फैशनक अति व्‍यापक प्रभाव पड़ल, जाहिसँ प्रभावित भ परम्‍परावादी पण्डित लोकनि सेहो एहिसँ अछूत नहि रहि सकलाह। ओ सभ सेहो आधुनिकताक संग चरणमे चरण मिला क चलय लगलाह। गोपाल जी झा गोपेश (1931-2009) एहने एक पोंगा पण्डितपर व्‍यंग्‍य करैत छथि :
देखने छलियनि पण्डित जीकेँ
टोस्‍टक संग चाहक चुस्‍की लैत
वैदिको जी भेटलाह सिनेमेमे
देखय आएल छला राजकपूरक सतरंगी तमाशा


अत्‍याधुनिक सभ्‍यतामे जतय हिनका दोष दृष्टिगत भेलनि तकरो ई व्‍यंग्‍यक आलम्‍बन बनौलनि। एहि दृष्टिएँ हिनक टी पार्टी (2005 साल) विशुद्ध हास्‍य-व्यंग्यसँ अनुप्राणित अछि जाहिसँ प्रभावित भ गोपालजी झा गोपेश कतिपय कविताक रचना कयलनि।
धार्मिक पाखण्‍डक आलम्‍बन बना क ई कतिपय काव्‍यक सृजन कयलनि। तन्‍त्र-मन्‍त्र, शास्‍त्र-पुराणक वितण्‍डावादक कारणेँ सामाजिक जीवन दिन प्रति दिन विषम भेल जा रहल अछि। धर्मक नामपर अपनाकेँ अग्रदूत बुझनिहार पाखण्‍डी पण्डित लोकनिपर व्‍यंग्‍य क कए धर्माचारक भण्‍डा फोड़लनि जकर प्रत्‍यक्ष उदाहरण थिक हुनक पण्डित (1953) एवं पण्डित विलाप (1960)। एहिसँ प्रभावित भ राजकमल चौधरी वैद्यनाथ धामक पण्‍डा लोकनिपर, आद्यानाथ झा निरंकुश (1934) गामक भूत एवं ब्रह्मस्‍थानमे, काञ्चीनाथ झा किरण (1906-1989) माटिक महादेवमे (1950) तथा तन्‍त्रनाथ झा (1909-1994), मुसरी झा (1956)मे उपर्युक्‍त पृष्‍ठभूमिमे व्‍यंग्‍य कयलनि जाहिमे हास्‍यक रूप स्‍वयं उद्भाषित भ गेल अछि। जहिना ओ अपन गद्य-साहित्‍यमे नारी जागरणक शंखनाद कयलनि तहिना ओ अपन काव्‍यमे सेहो उपर्युक्‍त प्रवृत्तिकेँ अधिक मुखर कयलनि जकर स्‍पष्‍ट रूप हिनक अङरेजिया लड़कीक समुदाउन (1953) एवं बुचकुन बाबा (1358 साल)मे उपलब्‍ध होइछ। एहिसँ प्रभावित भ परवर्त्ती युवा कवि लोकनि कतिपय काव्‍यक सृजन क कए एकरा अधिक मुखर कयलनि। हिनक निरसन मामा (1953)सँ प्रभावित भ वैद्यनाथ मिश्र यात्री नवनाचारी तथा बुचकुन बाबासँ प्रभावित भ गोपाल जी झा गोपेश करिया काकाक रचना कयलनि।
भिन्‍न-भिन्‍न स्‍थानसँ पत्रिकादिक प्रकाशनक फलस्‍वरूप निबन्‍ध-लेखनक एक प्रबल ज्वार आयल तकरे फलस्वरूप हास्‍य-व्‍यंग्‍य मिश्रित निबन्‍धक पारम्‍परिक शुभारम्‍भक प्रमाण थिक हिनक निबन्‍ध-साहित्‍य जाहिमे ओ समसामयिक सामाजिक कुरीति, पण्डित लोकनिक वाह्याडम्‍बर आ प्राचीन अन्‍धविश्‍वासकेँ खण्डित करबाक दिशामे जनमानसक ध्‍यानाकर्षित कय‍लनि। पहिने तँ हिनक निबंधादि वैदेही, मिथिला दर्शन, स्‍वदेश एवं मिथिला मिहिरमे प्रकाशित भेल, किन्‍तु पश्‍चात् जा क खट्टर ककाक तरंग प्रथम भाग (1948) आ द्वितीय भाग (1955)मे प्रकाशित भेल जकर फलस्‍वरूप एहि विधाकेँ अत्‍यधिक बल भेटलैक। हिनक निबन्‍धक प्रमुख नायक छथि खट्टर कका जे पूर्णत: विनोदी प्रवृत्तिक व्‍यक्ति छथि। हिनक प्रत्‍येक बात विनोद पूर्ण होइत छनि। ई अपन प्रतित्वपन्‍नमतित्वक कारणेँ सदिखन काव्‍य-शास्‍त्र-विनोदक धारा प्रवाहित करैत छथि। हिनक व्‍यंग्‍य युक्‍त विनोद पूर्ण कथनमे व्‍यक्ति, समाज, धर्म, दर्शन आदिक कटु आलोचना उपलब्‍ध होइछ। थैकरे जकरा राउण्‍ड एवाउट पेपर्स, कहलनि ओहि परिप्रेक्ष्‍यमे खट्टर कका पुरातन परम्‍परा यथा अन्‍धविश्‍वास, धार्मिक पाखण्‍ड, ढ़ोंग, रूढ़ि आदिपर व्‍यंगय क कए भयानक विद्रोह करैत छथि।
हिनक निबन्‍धक प्रमुख स्‍वर रहल अछि वेद-पुराण, कर्मकाण्‍ड, धर्म-शास्‍त्र, रामायण-महाभारत, ज्‍योतिष, आयुर्वेद, तन्‍त्र-मन्‍त्र, देवी-देवता, स्‍वर्ग-नरक, पुनर्जन्‍म-मोक्ष आदि विविध विषयकेँ ओ कोन रूपेँ देखलनि जे हिनका तार्किक निबन्‍धकारक कोटिमे परिगणित देलक। ओ गीता, दुर्गापाठ एवं सत्‍यनारायणक कथाक विनोदात्‍मक व्‍याख्‍या करैत छथि तँ सांख्‍य, वेदान्‍त एवं भगवत्-भजनपर व्‍यंग्यात्‍मक पिचकारी छोड़ैत छथि। हिनक निबन्‍ध साहित्‍य बिजलीक करेंटक समान अछि। धार्मिक पाखण्‍डक खण्‍डनमे ओ प्रमाण एवं व्‍यंग्‍यवाणक झड़ी लगा देत छथि। हिनक निबन्‍धादिककेँ पंक्ति-पंक्तिमे हास्‍य-व्‍यंग्‍यक अजस्र धारा प्रवाहित भेल अछि। विचार-प्रधान निबन्‍धमे देखल जाइछ जे विचारात्‍मक एवं मधुर भावात्‍मक गद्यशिल्पक सम्मिश्रण आ वाद-विवादक प्रसंगमे संयुक्‍त गम्‍भीर व्‍याख्‍यात्‍मक गद्य-शिल्पक तेजी रहैछ। एहन गद्य शिल्‍पक हेतु बात कहबाक लेल भाषा नहि तकैछ।
निबन्‍धक क्षेत्रमे हुनका द्वारा स्‍थापित परम्‍पराक परिप्रेक्ष्‍यमे परवर्त्ती युवा निबन्धकार एहि प्रवृत्तिसँ अनुप्राणित भ आगाँ बढ़यबामे अद्भूत योगदान देलनि जकर संख्‍या सह्स्राधिक अछि। किन्‍तु दुर्योगक विषय थिक जे जाहि परिमाणमे हास्‍य-व्‍यंग्‍यसँ संयुक्‍त निबन्ध विभिन्न पत्रिकादिमे प्रकाशित भेल ओकर अत्यल्‍प संग्रह प्रकाशमे आयल अछि। खट्टर ककाक तरंगसँ सर्वाधिक अनुप्राणित भेलाह अमृतधारी सिंह (1918-1992) तथा हुनक शैलीक अनुकरण क कए घूटरबाबाक जाल (1976) एवं मन्त्रेश्‍वर झा ओझा लेखेँ गाम बताहे (1979) प्रकाशमे आयल। उपर्युक्‍त दुनू निबन्‍ध संग्रहमे हास्‍य-व्‍यंगयक संग कथात्‍मक रोचकताक समन्‍वय भेल अछि।
एतय एक बातक उल्‍लेख करब अधिक समीचीन हैत जे एहि विधामे नव-नव प्रतिभा सम्पन्न निबन्‍धकारकेँ उपस्थित करबाक दिशामे पटनासँ प्रकाशित मिथिला मिहिर अत्‍यधिक प्रोत्‍साहित कयलक। किन्‍तु एतबा कहबामे अतिशयोक्ति नहि होयत जे जाहि प्रकारक लो‍कप्रियता हरिमोहन झा अर्जित कयलनि ताहि रूपक लोकप्रियता अद्यापि किनको नहि भेटलनि अछि।
हरिमोहन झाक प्रहसन, एकांकी एवं छाया रूपक रचना क कए एक प्रतिमान प्रस्‍तुत कयलनि जकर व्‍यापक प्रभाव परवर्त्ती युगक युवा रचनाकर्मीपर पड़ल। एहि सब रचनादिमे व्‍यंग्‍य एवं हास्यक प्रधानता अछि जाहिमे ओ समाजकेँ कंगाल बना देनिहार दहेज प्रथा आ नारी जागरणक शंखनाद कयलनि। एहि दृष्टिएँ तन्‍त्रनाथ झाक एकांकी चयनिका (1947)मे कालेज प्रवेशमे एक अनुभवहीन, आधुनिकताक प्रिय एवं अर्द्धज्ञान प्राप्‍त छात्र समुदाय, तमघैलमे स्‍वार्थी समाज आ उपनयनाक भोजमे सामाजिक द्वेष तथा कुप्रथापर प्रपंच रचनिहार तथा घटकक पराभवमे नव युवक समुदायपर व्‍यंग्‍य कयलनि अछि जे विनु कन्‍या देखने विवाहार्थ प्रस्‍तुत नहि होइत छ‍‍थि। योगानन्‍द झा मुनिक मतिभ्रम (1953)मे वृद्ध विवाहपर कठोर आघात कयलनि जाहिमे नाटकीय व्‍यंग्‍यक स्‍वर अधिक प्रखर अछि। सामाजिक वातावरणक विशिष्‍ट सन्‍दर्भमे समसामयिक घटनाक आधार बना क चन्‍द्रनाथ मिश्र अमर समाधान (1955)मे निरक्षरता निवारक पाठशालामे वयस्‍क शिक्षापर संगहि नवीन पाठ्य प्रणालीमे आधुनिक शिक्षा पद्धतिपर तथा मलरवि (1961) हास्‍य-व्‍यंग्‍यक जे वातावरणक सृजन कयलनि जे सर्वाधिक निखरल अछि। सुधांशु शेखर चौधरी (1920-1990) हथटूट्टा कुरसी (1960)मे दू पीढ़ीक मानसिक वैषम्‍य, संघर्ष, वाह्याडम्‍बर, ममत्‍व एवं सामाजिक परिवेशपर कठोर व्‍यंग्‍य कयलनि अछि।
एहि प्रवृत्तिकेँ आगाँ बढ़यबाक दिशामे परमेश्‍वर मिश्र क त्रिवेणी, ह‍रिश्‍चन्‍द्र झाक छींक, रूपकान्‍त ठाकुरक वचन वैष्‍णव (1965) एवं लगाम (1966), चन्द्रकान्‍त झाक वाल्‍टी क्‍लब (शाके 1881) एवं पढ़बाक खर्च (शाके 1881), प्रबोध नारायण सिंहक हाथीक दाँत (1964), उदय नारायण सिंह नचिकेताक रामलीला (1977), जगदीश झाक मैथिली एकांकी प्रहसन (1988), किशोरी यादवक आँखिक बीझ (1987), मन्‍त्रेश्‍वर झाक बहुरूपिया (1993) एवं धूर्त्तनगरी (1993) समारोह (1991) एवं पराजय (1994) आदि-आदि एकांकी एवं प्रहसन हरिमोहन झाक हास्‍य-व्‍यंग्‍य शैलीक अनुकरण क कए लिखल गेल अछि।
एहि विधामे कतिपय एकांकी एवं प्रहसनकार उद्भूत भेलाह जनिक रचनादि विभिन्‍न पत्रिकादिमे धूल-धूसरित रहल अछि जकर संकलन अद्यापि प्रकाशमे नहि आबि सकल अछि। हमर विश्‍वास अछि जे भविष्‍यमे एहि विधाक अनुकरण क कए परवर्त्ती युवा पीढ़ी नव रूपेँ हास्‍य-व्‍यंग्‍य प्रस्‍तुत करताह।
कारयित्री एवं भावयित्री प्रतिभासँ समलंकृत हरिमोहन झाक उपन्‍यास, एकांकी, एवं प्रहसन, कथा, कविता, निबन्धादिमे हास्‍य-व्‍यंग्‍यक नव प्रवृत्तिक ओ जे नेओ देलनि ताहिसँ अनुप्राणित भ परवर्त्ती युवा रचनाकर्मी राष्‍ट्रीय एवं अन्‍तर्राष्‍ट्रीय स्‍तरपर प्रभावित भेलाह जे उपर्युक्‍त विवेचनसँ स्‍पष्‍ट अछि। एहि प्रवृत्तिक हिनक विशाल सा‍हित्यिक अवदान एक वट-वृक्षक समान अछि जकर परिसरकेँ केन्‍द्र-विन्‍दु मानि परवर्त्ती युवा रचनाकर्मी हास्‍य-व्‍यंग्‍यक अजस्र धारा प्रवाहित कयलनि आ पाठकवर्गक निर्माण, स्त्री शिक्षाक व्यापक प्रसार, अनमेल विवाहक अंत, धार्मिक वितण्‍डावादमे सुधार, चारित्रिक दुर्बलताक विनाश, राजनीतिक मूल्‍यमे ह्रास, सामाजिक वातावरणक विशिष्‍ट सन्‍दर्भमे सुधारक प्रयोजनीयताकेँ ध्‍यानमे राखि रचना कयलनि। हिनक साहित्‍यक व्‍यापक प्रभावक फलस्‍वरूप परवर्त्ती युवा पीढ़ीक साहित्‍य मनीषीपर पड़लनि आ हुनक प्रतिभाक प्रस्‍फुटन भेलनि। हुनक साहित्‍यक विशाल परिधिकेँ ध्‍यानमे राखि क जँ हुनका मैथिली साहित्‍यक चार्ल्‍स लैम्‍ब कहल जाय तँ कोनो अतिशयोक्ति नहि हैत। अंग्रेज समाजक जेहन चित्रण बनार्ड शॉक रचनामे उपलब्‍ध होइछ ओही प्रकारक मिथिलाञ्चलक सामाजिक जीवनक विशिष्‍ट सन्‍दर्भक एलबल थिक हिनक साहित्‍य-संसार।
जहिना सुस्‍वाद, चर्व्‍य, चोष्य, लेह्य, पेय भोजनकेँ प्राप्‍त भेलापर पेटूकेँ आनन्‍द होइछ तहिना हास्‍य-व्‍यंग्‍यमे अभिरुचि रखनिहार राष्‍ट्रीय एवं अन्‍तर्राष्‍ट्रीय युवा पीढ़ीक परवर्त्ती रचनाकारकेँ हास्‍य-व्‍यंग्‍यक ई एक नव मार्ग प्रशस्‍त कयलनि। हिनक साहित्‍य-संसारक लोकप्रियताक अनुमान तँ एहीसँ लगाओल जा सकैछ जे जहिना देवकीनन्‍दन खत्रीक उपन्‍यास चन्‍द्रकान्‍ता सन्तितकेँ पढ़बाक हेतु अनेक अहिन्‍दी भाषी जनमानस हिन्‍दी सिखलनि तहिना हरिमोहन झाक चित्ताकर्षक हास्‍य-व्यंग्‍य रचनाक रसास्वादनक हेतु बहुतो लोक मै‍थिली सिखलक। हिनक विभिन्‍न रचनादि समय-समयपर विभिन्न आधुनिक भाषाक प्रमुख साप्‍ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक पत्रिकादिमे अनूदित भ प्रकाशित भ अमैथिली भाषीकेँ आनन्दित कयलक। वस्‍तुतः ई श्रेय आ प्रेय हिनके छनि, जनिक साहित्‍य सर्वाधिक भाषामे अनूदित एवं समादृत भेल जे हिनका राष्‍ट्रीय एवं अन्‍तर्राष्‍ट्रीय परिप्रेक्ष्‍यमे अत्‍याधुनिक परिवेशमे युवा रचनाकारकेँ साहित्‍य-सृजनक निमित्त उत्‍प्रेरित कयलक। विद्यापतिक पश्‍चात् मैथिली भाषा-साहित्‍यकेँ अन्‍तर्राष्‍ट्रीय पहचान देनिहार रचनाकारमे हिनक समस्त साहित्‍य अजर, अमर एवं अक्षुण्‍ण रहत से हमर विश्‍वास अछि।

३. पद्य




 श्री कालीकान्त झा "बुच"
कालीकांत झा "बुच" 1934-2009
हिनक जन्ममहान दार्शनिक उदयनाचार्यक कर्मभूमि समस्तीपुर जिलाक करियन ग्राममे 1934 मे भेलनि  पिता स्वपंडित राजकिशोर झा गामक मध्य विद्यालयक
प्रथम प्रधानाध्यापक छलाह। माता स्वकला देवी गृहिणी छलीह। अंतरस्नातक समस्तीपुर कॉलेज,  समस्तीपुरसँ कयलाक पश्चात बिहार सरकारक प्रखंड कर्मचारीक रूपमे सेवा प्रारंभ कयलनि। बालहिं कालसँ कविता लेखनमे विशेष रूचि छल  मैथिली पत्रिका- मिथिला मिहिरमाटिपानि,भाखा तथा मैथिली अकादमी पटना द्वारा प्रकाशित पत्रिकामे समय - समयपर हिनक रचना प्रकाशित होइत रहलनि। जीवनक विविध विधाकेँ अपन कविता एवं गीत प्रस्तुत कयलनि।साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा प्रकाशित मैथिली कथाक इतिहास (संपादक डाबासुकीनाथ झा )मे हास्य कथाकारक सूची मे, डाविद्यापति झा हिनक रचना ‘‘धर्म शास्त्राचार्य"क उल्लेख कयलनि । मैथिली एकादमी पटना एवं मिथिला मिहिर द्वारा समय-समयपर हिनका प्रशंसा पत्र भेजल जाइत छल । श्रृंगार रस एवं हास्य रसक संग-संग विचारमूलक कविताक रचना सेहो कयलनि  डादुर्गानाथ झा श्रीश संकलित मैथिली साहित्यक इतिहासमे कविक रूपमे हिनक उल्लेख कएल गेल अछि |

!!
चैती दुर्गा !!

आगॉ - आगॉ वऽर पाछॉ सॅ देयऽर ।
चलली सीता चैती दुर्गा देख दशानन नगर ।।

संग साधना दाइ ज्ञान विरागी भाई ।
जा रहली भगतिनिया वेटी बापे कोर पर ।।

मुसुकी अधर झॉपल घोघे तर ।
जगदम्बाक भाग जागलनि कतेक दिन पर ।।

मोने मोन तरंग नैना रंगे रंग ।
बोने बोन बढ़लि जा रहली ठीक दुपहर ।।

हम सुपनेखे दाइ करू ने सगाइ ।
हमरा सन केर सुन्नरि नारी अपने सन के नर ।।

एखने सॅ ई हाल मेला हैत कमाल ।
देखू नकसिनुरी भऽ रहलै विच्चे वाट पर ।।

मुरही बनला खऽर दूषण झिल्ली झऽर ।
त्रिसरा मूरक बरी चिबावथि चामुण्डा कर कऽर ।।

बनला वालि मिठाइ जोगिनी लऽ लऽ खाइ ।
अच्छ कुमारक देहक कचरी कचरि रहल गीदऽर ।।

नटुआ छथि हनुमान देखू नाच महान ।
उक फेरी केर कला प्रदर्शन भऽ रहलै घर घऽर ।।

कहू की - की लेव जे कहवै से देव ।
गिरिमल हार लालक टीका शुद्ध सोनक छर ।।

एहेन लोभ ने फेर कऽ दीए अन्हेर ।
सेन मोन पड़िते सीता केॅ होवऽ लगलनि डर ।।

मेघनादक गऽर चाही कुंभक धऽर ।
हम बनैत छी काली अपने वनियौ हे हरि हऽर ।।

रावण भेला निडर बान्है छी ऑचर ।
दसमुण्डी माला पहिराबू झोंटक ऊपर ।।

होउ जननि समाधान बजलनि झुकि हनुमान ।
ई अपमान निशाचर कुल पर वर सतवनि जहर ।।
गंगेश गुंजन:
जन्म स्थान- पिलखबाड़, मधुबनी।श्री गंगेश गुंजन मैथिलीक प्रथम चौबटिया नाटक बुधिबधियाक लेखक छथि हिनका उचितवक्ता (कथा संग्रह) लेल साहित्य अकादमी पुरस्कार भेटल छन्हि। एकर अतिरिक्त्त मैथिलीमे हम एकटा मिथ्या परिचय, लोक सुनू (कविता संग्रह), अन्हार- इजोत (कथा संग्रह), पहिल लोक (उपन्यास), आइ भोर (नाटक)प्रकाशित। हिन्दीमे मिथिलांचल की लोक कथाएँ, मणिपद्मक नैका- बनिजाराक मैथिलीसँ हिन्दी अनुवाद आऽ शब्द तैयार है (कविता संग्रह)।१९९४- गंगेश गुंजन (उचितवक्ता, कथा)पुस्तक लेल सहित्य अकादेमी पुरस्कारसँ सम्मानित ।

अपन-अपन राधा
राधा-२४म खेप
 पछिला खेप अपने पढ़लहुं--
-
'मानि ले तोहर ई साड़ी पहिरने हम निकलितौं ..लोक देखितय..लोक की तोरे सखि-बहिनपा-तखन की होइतौक? होइतौ नइं तोरा लाज ? लोकक ?' ओ बिहुँसि रहल छलाह प्रेम - कुटिल बिहुँसी |
-से पक्ष अहाँक ।हमर कोन मर्यादा आ लोक लज्जा ।बनल रहय भरि समाज
, से पक्ष आ दायित्व अहाँक कृष्ण, मात्र अहीक।
कृष्ण अपन हाथ कान्ह पर पुनः केश पर फेरैत राधा कें ललाट पर लैत अलौकिक चुम्बन
, बाँहि कें करैत किछु आओर प्रगाढ़! अनचोखे हिचुक' लगलाह । हिचुक' ल्ग्ली राधा हुनके संग-बड़ी काल बड़ी काल, आर बड़ी काल...
एहिना चलैत बितैत रहल कएटा ने युग...
आब पढ़ू -
बड़ भ
' जाइत छें बिकल राधा ।संसार मे मनुक्खक निजी संसारक बादो रहैत छैक बड़ पैघ-पैघ संसार। तकर कार्य कलापक-सुख राग-विराग, इजोत अन्हार सभटा ई सब अपन अपन सभक संसार चलितहि रहैत छैक।अपन संसारक संगति अपना सँ फराक अपनो सँ बहुत पैघ संसारक बैस' पड़ैत छैक मनुख कें। सएह छैक एकर नियति, मर्यादा बा कर्तव्य आदर्श राधा । तकर अवहेलना अपनो संसारक प्रेम कें डाहि दैत छैक। अपन संसारक प्रेम कें अविकल रखबा लेल पसरल संसारक कर' पड़ैत छैक चिन्ता आ स्नेह। राख' पड़ैत छै ताकुत ।यैह विवेक मनुष्यक सीमा थिकै आ एकरहि मे नुकाएल छै सामर्थ्य सेहो। अपनो संसार बहुत दूर धरि नहि होइत छैक खास अपने उपभोग लेल मात्र,स्वाधीन ।
'बुझलहिक बुद्धू दाई?'
एकटा ई देह एके मोन
,
कतेक दिन
,मास,वर्ष मे पसरल
अनिश्चित आयुर्दाक जीवन
कोंढ़ फाड़ि कानि रहलए लोक
मोनक जोर सँ लगबैत ठहक्का
,
एहन समयक कठिन रस्ता पर चलैत-सोचैत
अपन होयबाक किछु प्रयोजन
जे फराक किछु अर्थ-अभिप्राय द
' सकय
बौआ रहल व्याकुल समय कें बाट
सबटा बाट जेना लेने हो एकाएक
तेसरे-तेसरे लगै वला हाट
रूप ध
' लेने हो जेना सब दिने हाटक रूप !
आ ओइ बाटे चलब मनुक्खक भ
' गेल हो महा मोश्किल।
सबटा पथ भरल जेना बिक्री आ कीनबा लेल
अनन्त बस्तु जात सँ सजाओल हाट
, सौंसे बाट !
जेम्हर पड़य डेग
, सोझाँ सजल देखाइछ-वस्त्राभू्षणेक दोकान
जानि ने अचानक लोक कें कतेक चिन्ता भ
' गेलैए-
लज्जा झँपबाक सौंदर्यीकरणक सुख-विलास एक सँ एक आकर्षक
, लोभा लै वला बे-जरूरी बस्तु सँ
चकमक करैत जिनिस सँ सजाएल सोर पाड़ैत लोक कें जेना
किनबा लए..गहिँकी के करैत पुकार
सौंसे बाट सजि गेल हाट !
जे नहि क्रेता बा छनिहें ने जिनका क्रय-शक्ति
,
अर्थात् टेंट मे टाका
, ओइ द' ' चलब छनि बन्द।
अपने गाम सन आब भरि संसार-
चाउर-दालिक स्थान ल
' लेलकएकिदन-कहाँ नबका स्वाद।
तकरे पसरल विन्यास...
ई एकटा विस्मयकारी अनुभव जे-सबदिना जरूरी जीवन रच्छाक बस्तु सभ भेल जा रहलय दिनानुदिन जेना बेजरूरी। आ जकरा बिनु चलि जा सकैए काज से बनि रहलए प्रधान। ताही बस्तु जातक आब खुज
' लागलए बेशी दोकान ।
भरि हाट सजाओल-पसरल
, राखल जेकाँ एहन सन जे ओकरा लेबा लेल देबाक नहि हो दाम...बजारक ई अदा केहन नब
आ मोहक अछि
, क्रूर सँ क्रूर कर्जा लेबाक बाट अनेरे धरा दैत अछि-अशिक्षित गरीब लोकक बड़का समाज कें।
कंतोर खोलि क
' बैसा रखैत अछि-साहुकार...कखनो गामक जेठ रैयति-जिमिदार कखनो बैंकक कोषागार !
फराक-फराक दोकान से तेहन देखनुक मोहि लै वला ओकरा आगाँ सँ बढ़ैत काल हठात् ठढ़ भ
' जाइक इच्छा होअ' लगैत छैक। अंकुराय लगैत छै किनबाक-पहिरि लेबाक दुर्दान्त स्पृहा ! आब गामक हाट एकटा नवे रूप आ स्वभाव मे पसारि रहलए अपन दोकान ।
हुनकर अरजल सम्पत्ति सँ आन करय सौख-मनोरथ
, से किएक ? सौख-मनोरथ करय तँ ओकरा वास्ते देएय दाम। दोकानो वला नव काटक मधुर आ कटगर विन्यासिक आँगी-चोली,
कंगन-पायल-गलाक हार मंगनीयें मे त नै द
' दै छै। गहिंकी स दाम लैत छैक तकर। सेहो गंहिकीक इच्छा-लालिसाक जेहन वेगग ताहि मोताबिक। तँ हम किएक पानि जकाँ बहाबी अपन धनक उपकार ?
तें आब से सुकाइ मरड़ ऋण लेनिहार सँ धरा लैत छथिन फी रुपिया दू आना मास
,सूदि। पहिल खेप सूदिक टाका जोड़ि क' ह थ मे दै सँ पहिने निकालि क' राखि लैत छथिन,तखन दैत छथिन लोक कें कर्जा। तखन ओ कीदन तँ कहैत छथिन.........माने, जतेक मास पर रुपैया घुराएब ततेक दूअन्नी फी रुपैया बेसी देब' पड़त। तही शर्त पर देब कर्ज।
से आश्चर्य जे ककरो नै बुझा रहल छै एना एतेक कड़ा सूदि पर ऋण लेब एको रती भारी।आश्चर्य !
सौख आ जीहक जे बढ़ि गेलैये एतेक चलाचली से कोनो एकाएक
? लोक दनादन पैसि रहलए एै दौड़ा दौड़ी मे। भने निश्चिन्त ...
ओही दिन तँ बड़ नुका क
' तितलिया देखबैत रहय, सत्ते एकदम नबे काटक भितर आँगी । तेहन मेंही-मेंही ताग-जाल सँ फूल पत्ती.. बनाओल केहन चक चक लाल-पीयर-हरियर-उज्जर रंगक केहन-केहन फेसनेबुल अन्दर बिलाउज ? मोन लोभा जाइ छै ठीके की । ई सबटा बजार आब जेना आँगन धरि पहुँचि गेलैए । घर तक। तें आब तँ गंहिकी के खाली इच्छे टा करबाक काज। किनबाक तँ सब सरंजाम ऋण भेटबा सं ल' ' बजार धरि सभक रचि देल गेल छै-प्रबन्धक जाल! से इच्छा त आब एहि नव-नव आकर्षक रूप सज्जा आ तकरा तुरन्त प्राप्त क' लेबाक आतुरताक अवसर तँ हाट-बजार सँ भ' जाइत छैक । बाकी तं किनबा लेल चाही-दाम,द्रव्य, माने धन। से तं तैयारे बैसल अछि-भरि कंतोर रुपैया रखने। आब तँ कएटा नव-नव सुकनी मरड़ सब।
सुनै छी आब सैकड़ा चारि आना क
' देलकैए सूदि-फी रुपैया। तथापि ऋण लेनहारक कमी नहि नहि भ' रहलैए। बल्कि बेशी बढ़ि गेलैये। इच्छा-मनोरथक बिहाड़ि मे पड़ि गेलय ई पूरा समाज, ई बिहाड़ि उठा देलकैये नबका वस्तु जातक नवे नवे उपयोगिता आवश्यकता बुझा क' किनबा लेल उसका रहल छै। लोक कें बजार अयबा लेल उत्प्रेरित आ लाचार करबा वास्ते प्रति दिन बढ़ि रहल ई हाट पर हाट ! पहिने कए गाम लगा क' कोनो एकटा हाट लागल करै कतबहि मे कतहु तेसरे-तेसरे...। आब पसरि क' बढ़ि गेल। तीन-तीनटा भ' गेल। एक रती परती छलैक मंदिर आगाँक स्थान, ओत'...सबसँ त धनिक मनोरथ बाबू दरबज्जाक आगाँक फैलहा धरती । ताही पर लाग' लागलए हाट। भरिसक तकर...भरिसक की सत्ते तकर ओ असूलै छथिन-अहगर क' बट्टी ! परतीक भाड़ा । अर्थात् तों मोनाफा कमेबें ताहि वास्ते हम देलियै भूमि, तों चुका तकर दाम।
समय-समय पर मंगनीक किछु बस्तु जात तं ओहिना दैत रहैत छथिन
,दोकानदार सब। नव तरहे भ' तहल छनि मनोरथ बाबू आरो समृद्ध होयबाक ।एक आध गोटय संकेतो कएलखिन जे-' ई की सरकार? एन डौढ़ीक सोझाँ मे हाट ? प्रतिष्ठा पर पड़त । हुनकर तेहन सन भाव चेहरा् पर जेना अहाँ महामूर्ख छी। नहि दिअ' ई सब परामर्श।परती पड़ल जमीन, देखैत छी बट्टी तरे देब' लागलए बारह-तेरह दिन केहन दिव्य उपजा...ठनठनौआ ! अहाँ कहैत छी-प्रतिष्ठा! औ एही नबका उपजाक किछु एक रती अंश समाज मे छिड़िया क' कीनैत रहब नबका प्रतिष्ठो । कोन अधलाह बाट भेल ई ?'
मोसाहेब मित्र
, परामर्शीक अकिल तँ एहि तर्क पर नंगड़ी सुटकंतङ जात जात खढ़ी...। गुम्मे भ' गेला।
सुनै छी मनोरथ बाबू घोषणा कएलनिहें-बटोही-व्यापारी-दोकनदार सभक वास्ते जल्दिये बनबौता-नब धर्मशाला टाइप दस-बीस कोठलीक रैन बसेरा । एकदम आधुनिक जरूरतिक मोताबिक डी लक्स सुख-सुभीता वला। तेहन जे बिदेशक लोक के ठहरबा मे कोनो असौकर्ज नहि बुझाइ।
आनन्द सँ ठहरय। पर्यटन-भ्रमण करय । घुरि क
' अपना देस जाय तँ भारतक उन्नति-प्रगतिक प्रसंसा करय । दुनिया मे भारतक नाम होअय| पतक्का फहराय|
एहि इलाका मे छेको कहाँ एकहु टा आश्रय भवन। दूर- दुरस्थ गेनिहार बटोही कें होइत छै कतेक कष्ट
? गौओं कें समस्या... कए काल तँ विपत्ति-विपत्ति । मनुखतोक रक्षार्थ ठहरबहि पड़ैत छनि घरबैया कें अभ्यागत । लत्ता सुत्ता कलकत्ता टाइप सर-संबंधीक लेल पर्यन्त कर" पड़ैये गौआँ के अकालो बिकाल बेर मे तरद्दूत। तिनका लोकनिक तँ प्राण बाँचत । तें मनोरथ बाबूक विचार मे हुनक ई योजना राष्ट्रहित मे अंतर्राष्ट्रीय तँ बुझले जएबाक चाही,जे अस्थानीय लोक कल्यानक सेहो मानक चाही । '
से एहन कल्यानी काजक
, सुनै छी न्यों सेहो लिया गेलैए। से गल गुल छै समाचार, परोपट्टा मे। धन्य। ठीक तिनदिना हाटक प्राप्त बट्टी सँ धन क' रहलए केहन कमाल। धन पएबाक जेहने नब बाट तेहने नब प्रतिष्ठा उपार्जित करबाक आधुनिक तरीका-व्यवहार !
केहन दिब पहिने लग-पासक कए कए गामक लोक आबए एकहि ठाम लगैत एहि हाट किनबा लेल सौदा-सुलुफ-नोन-हरदि सं ल
' गृहस्थीक जरूरी बस्तु जात। केहन होइत रहै मेला ! बल्कि केहन दिब भ' जाइक परस्पर भेंट घाँटक परिवारी उत्सव जकाँ अनमन ।एक गाम सं दोसर-तेसर आ चारिमो गाम वासीक एकदम सहज-सुलभ छलैक भेंट घाँटक संवाद-सम्मेलन ! दुख-सुखक गपसप आ मोन हल्लुक करबाक-प्लैटफारम । कतेक स्तर पर केहन-केहन संबंध-सृष्टिक अवसर । तेकर भरि जीवनी संबंध-अनुबंधक अनायास-आत्मीय व्यवस्था । जानि नहि कहिया सँ आरम्भ चलैत चलि आबि रहल छल । केहन दिब चलैत छल। चलि रहल छल सब काज। हाट-बजार-गँहिकी- दोकानदार, सबहक। बच्चाक खेलौना सँ ल' बच्छा-बाछीक रंग रंगक मुखारी-गरदानी तक...भ' जाइत रहै अनायासे

कीन-बेसाह। दोकनदार-गहिंकीक केहन दिब रहै आपसी स्नेह
, परस्पर विश्वास ।
धर्मी साहु तँ कहाँदनि करा दैत रहथिन कए टा विवाह-कन्यादान-तत्काल उधारी द
' जरूरतिक बस्तु जात।
-
'एखनि निबाहि लिय' जजमान। सब संपन्न भ' जाय तँ द' देब, 'जाय जखन इन्तिजाम। दुनू गोटय क्यो पड़ाएल्
नै ने जाइ छी
? हम त कत' कहाँ स आएल छी, बाबुओ के नहि छै आब तकर ठेकन- पता।...कोना बौआइत अही गाम ठमकलियै... आ आब तँ यैह हमरो ने गाम।जे पालन करय सैह ने माय, जे जीविका दिअय सैह ने गाम।'
से दृश्य सबटा विद्रूप। बेशी पुरना दोकानदार सब माछी मारैत। न
'व ढबक नव नव साज सज्जा मे आबि रहल, जानि ने कत' सँ कोन गामक दोकनदार ! अनचिन्हार । सजाबटि आ नव काटक आकर्षक मनोहारी बस्तुक अम्बार क' रहलए आयात।बेचि रहलए सब किछु पुरना शैली आ व्यवहारक सबटा आत्मीय आ परिवारी जकाँ रहल छल जे साहुकार। से हताश,दुखी आ विरक्त भ' रहल अछि। दुर्भाग्य तँ ई जे यदि आब ओकरा लग जाइतो छथि महानुभाव तँ उधार लेब'
-जखन नहि रहैत छनि डाँड़ मे द्रब्य
, आ किनबाक रहै छनि नबका अनचिन्हार दोकनदार सँ बस्तु, जे देनिहार ने कोनो बस्तु उधारी । हुनका तखनहि मन पड़ैत छथिन पुरना स्नेही, दुःख-सुख बुझनहार साहुजी।
स्वाभाविक जे ओ आब हाथ उठा दैत छनि-
' कहाँ सँ जजमान? बिक्री-बट्टा तँ देखिते छियै। बेसी काल बैसले बीतैये।
अइ नबका युग मे तं दोकानदारी पराभब भ
' गेलय। आब तं परिवारक पेट चलब दुर्घट भ' गेलै। कहाँ स लाउ उधारी? 'ल जोड़ेत छी। कहाँ स लाउ उधारी ?
-
''ल जोड़ेत छी।
खाली हाथ घुरयबाक अधर्म नै करबाउ सरकार। कल जोड़ै छी।
'
-
'पहिने त अहाँ नहि कहियो एना घुरबैत रही, सावजी ?'
-अपनो तँ मोन पाड़ू
, कए मास पर हयलौंहें हमरा दोकान। अइ बीच की किछुओ ने भेलै बेगर्ता-कोनो बस्तुक? ओहिना चलैत रहल गृहस्थी?'
सरकार गहिँकी कें बुझबा मे किएक नहि औतनि ई विषय। मुँह लटका क
' लज्जित, परास्त जकाँ घुरि जाइत छथि।
करताह की
? आमदनीक बेशी अंश त चुकब' पड़ैत छनि मासिक सूदि मे, नबका महाजन कें। डाँड़ तं भेल छनि ढील।
' जे लेने छथि, साहुजी जकाँ महाजन सँ ऋण। दोसर जे, प्रायः सब गामे मे लाग'लगलैये आबनबका-नबका हाट ।
नबका नबका रंग बिरंगक हाट। ओहू सब गाम चलि पड़लैये यैह बसात- नब नब बस्तुक चमक दमक वला। एक हाथें ऋण लिय
' दोसर हाथें कीनब बेशी तं अनेरेक इच्छा-सौखक बस्तु। प्रात सँ चुकबैत रहू कर्जाक सूदि।
आब त सुनै छी नीक नीक लोक लगा रहल छथि जमीन अपन भरना। बेचि रहलए कए गोटय सोनक टुकड़ी अपन रौदीओ मे उपजै वला बला जमीन। कीनि रहल छथि नब धनपति सब। एवंक्रमे उठल अछि भयावह बिहाड़ि-उपभोगक बिहाड़ि !
जानि ने एहि मे कतेक घरक खाम्ह-खुट्टा उखरत-पुखरत। कतेक घर खसत आ भम पड़
' लागत कतेक घरारी। तै घरारी पर चलत ह'र । क्यो नहि जनैत अछि।
बेशी लोक बूझि नहि सकैये जे किएक भ
' रहलैक ओकर मोन बेचैन? किएक भ' रहलैक ओकर परिवार मे अशान्ति ? किएक होअ' लगलैये-अपन स्त्री सँ बेशी काल बिवाद आ किएक रह' लगलैये ओकर जवान होइत धियापुता एतेक असंतुष्ट ? बुझहि मे ने आबि रहल छैक। लोक अबोध अछि। बयसें परिपक्व परन्तु अज्ञान।
१. राजदेव मंडल-तीन टा कविता २.
अकलेश कुमार मंडल-ट्रेनक चोरबा

राजदेव मंडलक तीनटा कवि‍ता

1. महत्‍वाकांक्षाक गाम

रथासीन भेल छी हम
आ रथकेँ घि‍ंचने जा रहल अछि‍
वेगयुक्‍त अश्‍व
उबड़-खाबड़ सड़कपर दलमलि‍त करैत
भऽ रहल अछि‍
शीघ्रतासँ अग्रसर
हमरा हाथक कोड़ा
सट-सट-सटाक
पड़ि‍ रहल अछि‍-उज्‍जर घोड़ाक पीठपर
पड़ाएले जा रहल अछि‍
लाल रंगक वाहन
शब्‍द भेल- धड़-धड़-धड़ाक
हरि‍यर रंगक पहि‍या
खसि‍ पड़ल खाधि‍मे
एखन अछि‍ सुदूर-गन्‍तव्‍य
हमर महात्‍वाकांक्षाक गाम
तेँ फेंकि‍ देलहुँ कोड़ा
लगेबाक हेतु जोर-रथक जुआमे
लगा देलहुँ कान्‍ह
देखि‍यौ आब तान।

2. एकटा चुप्‍पा

ई हमरा पाछू धेने रहैत अछि‍
छोट आ पैघ भऽ कऽ हरक्षण
उठैत-बैठैत, चलैत-फि‍रैत, सुतैत-जगैत
देखैत रहैत अछि‍
हमरा दुष्‍कर्म आ सुकर्मकेँ
कि‍न्‍तु कि‍छो नहि‍ बाजैत अछि‍
सभ हमरा छोड़ि‍ सकैत अछि‍
परन्‍तु ई नहि‍ छोड़ता
ई पछुआ भऽ गेल छथि‍-हमर
कि‍न्‍तु अन्‍हारमे गेलापर भऽ जाइत अछि‍- लुप्‍त
पुन: शीघ्रे प्रगट भऽ जाइत अछि‍
पछुआ रहि‍तो ई चुप्‍पा समदर्शी अछि‍
एकरा नजरि‍मे सभ बराबरि‍
नहि‍ केओ धनीक नहि‍ केओ उँच
नहि‍ केओ गरीब नहि‍ केओ नीच
नहि‍ कोनो नाम नहि‍ कोनो गाम
तेँ हम कऽ रहल छी परनाम।


3. छड़पटाइत लहाश

अन्‍हार राति‍
नि‍र्जन बाटपर पड़ल हमर लहाश
कि‍ जरेबाक वा दफनेबाक नहि‍ छै ओकरा?
कात भऽ कऽ नाक मुँह घोंकचाबैत
कि‍एक पड़ाइत अछि‍ लोक
केहेन संक्रामक अछि‍ रोग
बीतल जाइत अछि‍ राति‍ भऽ जाइत भोर
फेर वएह प्रति‍दि‍नक शोर
पुन: आएत राति‍
कन्‍तु हमर ई लहाश
गन्‍तव्‍यपर पहुँचत कहि‍या
कखैन देखत अनचि‍न्‍हार असमसानकेँ
जे अछि‍ तैयार कएल गेल
एहि‍ अंत्‍येष्‍टि‍ युगक व्‍यवस्‍था द्वारा।


अकलेश कुमार मंडल, पि‍ता- श्री सुरेश मंडल, ग्राम-बेरमा, जि‍ला-मधुबनी

ट्रेनक चोरबा

कि‍ कहूँ यौ भाय जुलुम भऽ गेल
कि‍ यौ भाय कि‍ भऽ गेल?”
यौ भाय, हमर तँ पॉंच हजारक बौगलीए कैट गेल
यौ भाय, और नै ने कि‍छु गेल
भाय कनैत बाजल जे बक्‍सा-पेटी सब चलि‍ गेल
ट्रेनक लोक पुछलक जे ऐना कि‍एक भेल
तँ दोसर आदमी पुछलक-
समानपर ध्‍यान नै गेल
जे बौगली सहीत समान छि‍ना गेल
भाय बाजल जे यौ समानपर तँ ध्‍यान गेल
मुदा, समान छि‍नैत काल हमर दि‍मागे पगला गेल
भाय झंझारपुर अबैत-अबैत पुरा बेढ़ंग भऽ गेल
झंझारपुरमे ट्रेनक मेल-भेल
ओतएसँ भायकेँ नेमुआ हॉल्‍टपर आनल गेल
नेमुआमे भायकेँ भरपुर सेबा भेल
नेमुआक प्रसि‍द्ध जानो-मानो बुथपर सँ भायक गाम फौन भेल
भायक गामसँ हरबराएल तीनटा आदमी गेल
ओतएसँ भायकेँ रोगी जेकॉं रि‍क्‍सापर आनल गेल
तुरते भायकेँ डॉक्‍टरसँ इलाज भेल
गामक प्रसि‍द्ध डॉक्‍टर बुधन बाजल जे एकरा तँ दि‍मागमे नि‍शॉं ढुकि‍ गेल
भायकेँ तुरते नि‍शॉं तौड़ैक सुइया देल गेल
नि‍शॉं भूत जेकॉं उतरि‍ गेल
नि‍शॉं उतड़ि‍तहि‍ समान तकैले घर वि‍दाह भेल
भाय समान नै देखि‍ घरमे लटुआ कऽ गि‍र गेल
गाममे ई घटना बाढ़ि‍क पानि‍ जेकॉं पसरि‍ गेल
भायक ऐठाम मुखि‍या, सरपंच सभ पहुँच गेल
मुखि‍या जी पुछल- भाय ई घटना कतऽ भेल
भाय जबाव देलक- सोकरीमे हमरा चकलेट पर मोन गेल
भाय चकलेट आनैले वि‍दा भेल
भायकेँ चकलेट दोकानपर सी.आइ.डी. लागि‍ गेल
सोकड़ी आ मनीगाछीक बीच ई घटना भेल
तब सरपंच सहाएव पुछलकनि‍ जे भाय सभ चीज छि‍ना गेल
नै सरपंच सहाएव फौन नम्‍बरबला डायरी बँि‍च गेल
एकटा मोवाइलो रहए सेहो छि‍ना गेल
कि‍ कहुँ मुखि‍या जी हमर तकदि‍रे बुडि‍़या गेल
भायकेँ दू दि‍न बाद मन शांत भेल
भायकेँ दहोदि‍ससँ फोन गेल
फोन केनि‍हार सभ भरोस दै मे लागि‍ गेल
भायक सार ई घटना सुि‍न तुरत्ते दौड़ल आवि‍ गेल
सार भरि‍ पेट खा कऽ ससरि‍ गेल
भौजी कहलखि‍न छोड़ू आब जे भेल से भेल
मुदा एते तँ भेल जे बुद्धि‍ बढ़ि‍ गेल
बुद्धि‍ तँ बढ़ि‍ गेल मुदा अहॉंले जे साया, साड़ी, बेलोज आ सेंडि‍ल आ एगो पर्श आनए छेलौं सेहो छि‍ना गेल
मनोज कुमार मंडलक चारि‍टा कवि‍ता-

चाह- 1

बड़ सोचि‍ पड़ल
नाम चाहक
चाह, चाह, चाह
अनघोल भऽ गेल
उठैत जाह, बैठैत चाह,
मन भकुआएल तखन चाह,
चाहक चाह
केओ आएल तँ चाहे चाह।
चूल्‍हि‍पर बनल
गि‍लासमे पड़ल,
फुकि‍-फुकि‍ पीयक
भेल चाह।
बनल बाहर,
जाएत भीतर,
तखनो नै
मेटाएल चाह।
बाहर तँ छि‍रि‍आएल चाह
पानि‍, दूध, चीनी-पत्ती,
मि‍लत तखने चाह।
समटल रहैत चाह।
चाहेसँ सृष्‍टि‍ बनल
जि‍नगीक पग-पगपर
चाह बनले रहल
बाहरि‍ जग
चाहसँ बनल
मि‍टल नइ
अन्‍दरक चाह।
चाह रूकत
ठमकत सृष्‍टि‍।
ि‍जनगीक नै
रहत ठेकान।
बाहरक चाहसँ तृप्‍ति‍ नै होएत
अन्‍दरक चाहक
स्‍वाद भेटत अन्‍दर
तखन नै
रहि‍ जाएत चाह।

खेल- 2

खेल खेल खेल
खेल बौउआ खेल
चोरा-नुकी खेल
अज्ञानक अन्‍हारमे
नुकाएल चोरबा
ज्ञानक कि‍रनसँ
पकड़ल गेल
खेल खेल खेल
खेल दाय खेल
कनि‍यॉं-पुतरा खेल
बेइमानक नगरीसँ
नकलल बहुरि‍या
शैतानक माफापर
बैठा देल गेल
इमानक चौबटि‍यापर
पकड़ल गेल
खेल खेल खेल
बैआ-बुच्‍ची खेल
गुड्डा-गुडि‍़या खेल
स्‍वाभि‍मानक गुड्डाकेँ
वि‍आह ठीक भेल
माया नगरीमे
सोर भऽ गेल
ज्ञानक बाट मादे
सायक रथ
तैयार भऽ गेल
ति‍यागक पाग पहि‍र
बि‍आह करए गेल
खेल खेल खेल
सभ मि‍ल खेल
जि‍नगीक खेल खेल
दयाक मूर्ति गुड़ि‍या भेल
ममताक नगरी
सजा देल गेल
सदाचारी, इमानदारीक
जोर भऽ गेल
बइमानीक पर्दा फास भऽ गेल
अहि‍ंसाक अंगनामे
ढोल बाजि‍ गेल
कर्मठ मानवताक
उदए भऽ गेल
गुड्डा-गुड़ि‍याक
वि‍आह भऽ गेल
खेल खेल खेल
खेल बच्‍चा खेल
मर्यादाक खेल।

मि‍थि‍ला- 3

मि‍थि‍लाक मंगल आंगनमे
अन्नक लागल ढेर छल
कृषकक परि‍वार भरल आर
राजा जनक मि‍थि‍लोश छल।
सरस्‍वती छलीह बान्‍हल बेटी,
लक्ष्‍मी कतए बाहरैत घर-आंगन
केतौ दर्शनक प्‍यास छल
सदाचारी, इमानदारीक दि‍व्‍य ज्‍योति‍सँ
सबहक वि‍वेक जगल छल।
जनक मि‍थि‍लाक मनीष बनि‍,
जगमे अपन कृतक झंडा लहराबैत छल।
मैथि‍लीक ऑंचर तर भेटैत
सभकेँ शीतल छॉंह छल।
गाए-महीस घर-घर बान्‍हल,
हर, कोदाइरक पहचान बनल छल।
ज्ञान, मुक्‍ति‍, बैरागक वि‍षएपर
हरदम करैत वि‍चार छल।
ि‍मथि‍लाक बेटी अवला नहि‍।
उठबैत शि‍व धनुष छलीह।
मनक सरलता एतबा लगैत,
जेना बागक कोमन फूल छल।
उच्‍च-नीचक वि‍चार नै कोनो
समतामूलक समाज बनल छल।
जाति‍-धरमक बात नै पुछू
मरमे सबहक बाप छल।
लि‍खलाह तुलसी, वाल्‍मि‍कि‍जी
ओ सद् ग्रंथ रामाएन छल।
ई कथा फूसि‍ नै कहैछ
अष्‍ठावक्र गवाह छल।

जि‍नगीक बाट- 4

मनुख, मनुखेटा सँ नै प्रेम करए
सबहक संग स्‍नेह रखै मनुख,
ताहि‍ लेल मनुखक सृजन भेल
सभसँ बुद्धि‍गर जीव बनल
तेँ जग चीनहक अधि‍कार भेटल
नीक बाटे मनुख चलए
ओ मनुख नै देवता
अधलाह बाट धऽ चलत मनुख,
मनुख रहि‍तो शैतान बनत
हम मनुस नै, मनुख हमर सृजन छी
हम सभ सभमे रहैत बाघ, बकरी, कुकुर छी।
हमरे रचल अछि‍ सभ जीव,
हमरे बसाैल ई जग छी
हमरे गढ़ल सुन्‍दर काया,
तकरे हम राति‍-दि‍न हकै छी
माया नगरीमे दौड़बैत-दौड़बैत,
सॉंस रहए की बन्न भऽ जाए
हम कखनो नै थाके छी
श्रद्धा राखि‍ आशा धरू,
आशेपर टि‍कल जीनगी अछि‍।
वि‍सबासक डोर थामि‍ अहॉं,
कर्मक बाट पकड़ि‍ आगू बढ़ू
बाटपर ठाढ़ भऽ राह देखैत छी,
कखन मि‍लब हमरासँ अहॉं
कने चूक भेने राह हेराएत,
हम अहॉंक, अहॉं हमर,
तखनो नै हम भेटब अहॉंक।

No comments:

Post a Comment

"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका http://www.videha.co.in/:-
सम्पादक/ लेखककेँ अपन रचनात्मक सुझाव आ टीका-टिप्पणीसँ अवगत कराऊ, जेना:-
1. रचना/ प्रस्तुतिमे की तथ्यगत कमी अछि:- (स्पष्ट करैत लिखू)|
2. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो सम्पादकीय परिमार्जन आवश्यक अछि: (सङ्केत दिअ)|
3. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो भाषागत, तकनीकी वा टंकन सम्बन्धी अस्पष्टता अछि: (निर्दिष्ट करू कतए-कतए आ कोन पाँतीमे वा कोन ठाम)|
4. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो आर त्रुटि भेटल ।
5. रचना/ प्रस्तुतिपर अहाँक कोनो आर सुझाव ।
6. रचना/ प्रस्तुतिक उज्जवल पक्ष/ विशेषता|
7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।

अपन टीका-टिप्पणीमे रचना आ रचनाकार/ प्रस्तुतकर्ताक नाम अवश्य लिखी, से आग्रह, जाहिसँ हुनका लोकनिकेँ त्वरित संदेश प्रेषण कएल जा सकय। अहाँ अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर सेहो पठा सकैत छी।

"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि।
अपन टीका-टिप्पणी एतए पोस्ट करू वा अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर पठाऊ।