भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति
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भारतीय डाक विभाग द्वारा जारी कवि, नाटककार आ धर्मशास्त्री विद्यापतिकस्टाम्प। भारत आ नेपालक माटिमे पसरल मिथिलाक धरती प्राचीन कालहिसँ महानपुरुष ओ महिला लोकनिक कर्मभूमि रहल अछि। मिथिलाक महान पुरुष ओ महिला लोकनिकचित्र'मिथिला रत्न'मे देखू।
गौरी-शंकरक पालवंश कालक मूर्त्ति, एहिमे मिथिलाक्षरमे (१२०० वर्ष पूर्वक) अभिलेख अंकित अछि।मिथिलाक भारत आ नेपालक माटिमे पसरल एहि तरहक अन्यान्य प्राचीन आ नव स्थापत्य, चित्र, अभिलेखआ मूर्त्तिकलाक़ हेतु देखू'मिथिलाक खोज'
१५ अगस्त २०१० ई.क भारतक ६४म स्वतंत्रता दिवसक शुभकामना। ई संयोग अछि जे आइ विदेहक ६४म अंक सेहो ई-प्रकाशित भऽ रहल अछि।
गाममे जून २०१०मे मास भरि रहबाक अवसर बहुत रास आन गप लेल मोन रहत। हमर पिताजीक मृत्यु १९९५ ई. मे ५५ बरखमे भेलन्हि। मुदा गाममे अखनो हुनकर संगी आ ज्येष्ठ सभ छथि।
परशुरामजी आ धनेश्वर जीक बहिन झंझारपुरमे मल्लिकजीसँ पढ़ैले जाइत रहथि तँ धनाढ्य लोकनि द्वारा बारि देल गेलाह। परशुरामजीक बहिनक पढ़ाइमे बाधा पड़लन्हि। मुदा धनेश्वरजी जे कनेक उमेरमे सेहो पैघ रहथि, अड़ल रहलाह। अंग्रेजी पुलिससँ हुनका पकड़बाओल गेल आ जे पकड़बओलन्हि से आइ स्वाधीनता पेंशन पबै छथि। १९४२ ई.मे धनेश्वरजी सभ थानासँ अंग्रेज पुलिसकेँ भगा देने रहथि आ फेकन मुन्शीकेँ थानेदार बना देने रहथि। हमरा बाबूजीक कहल ओ शब्द मोन पड़ैत अछि जे गामक धनाढ्य एक्स एम.एल.ए. हुनका स्कॉलरशिपबला फॉर्मपर साइन करबासँ मना कऽ देने रहथिन्ह मुदा तैयो ओ एम.आइ.टी. मुजफ्फरपुरसँ १९५९ ई. मे रॉल नं.१ लऽ सर्वोच्च अंकक संग अभियन्त्रणमे नाम लिखबा लेलन्हि। एक बेर धनेश्वरजी, परशुरामजी, हमर बाबूजी सभ गोपेशजी अहिठाम जा कऽ खएने छलाह आ ई काज अंडा खएलापर धनाढ्यक नेतृत्वमे हुनका बारल जएबाक विरुद्ध छल। आब ने धनेश्वरजी छथि आ ने गोपेशजी। मुदा परशुरामजी छथि। १९९८ ई. मे कोलकातासँ अंग्रेजीक प्रोफेसरशिपसँ सेवानिवृत्त भऽ ओ अंग्रेजीमे “इन्ग्लिश पोएटिक्स”पर दूटा पोथी लिखने छथि।हमर पोथी “कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक समर्पण
पिताकसत्यकेँ लिबैत देखने रही स्थितप्रज्ञतामे
तहियेबुझने रही जे
त्यागनहि कएल होएत
रस्ता ईअछि जे जिदियाहवला।
-पिताकप्रिय-अप्रिय सभटा स्मृतिकेँ समर्पित
पढ़ि ओ हमर दुनू गाल अपना हाथमे लऽ अपन नोर नहि रोकि सकलाह। गाममे बहुत गोटे समर्पण पढ़ि कानए लागल रहथि आ कहने रहथि जे ई सभ हमर पिताक पुण्यक परिणाम अछि।
मानव समुदाय सर्वदा सँ समस्या सभक समाधान करबाक लेल साकांक्ष रहल अछि। कोनो भाषाक जन्म कहिया भेल एहि विषयमे किछु कहब कठिने नहि अपितु असंभव सेहो अछि। यद्यपि किछु विद्वान भाषा सभक जन्मपत्री बाहर करबामे व्यस्त रहलाह अछि किन्तु ओ लोकनिबरोबरि एहि दिशामे असफल रहलाह अछि। लिखित उपलब्ध साधनपर एतबे कहल जा सकैछ जे अमुक समयमे अमुक भाषा-शब्द प्रचलित छल। इएह हाल प्रत्येक भाषाक संग अछि।
साहित्यक शरीर अछि भाषा। संवेगात्मक अनुभूति जकरा साहित्यशास्त्रमे रसक आख्या कहल जाइत अछि, भाषाक माध्यमसँ अभिव्यक्त होइछ, ओ तेँ कोनो साहित्य इतिहास सँ संलिष्ट रहैत अछि। विश्वभाषाक इतिहासमे केवल संस्कृते टा एहन विषय अछि जे पाणिनि द्वारा ‘संस्कृत’ भए तेना ने प्रतिष्ठित भेल जे अद्यापि अपन स्वरूप सभ ठाम सभ विषयमे एकरूप स्थिर कएने अछि।
भारतीय साहित्यक आरंभ प्रायः अंधकारमे विलीन अछि। मैथिली साहित्यक संग सेहो इएह चरितार्थ होइत अछि। साहित्यक इतिहासकार मध्य बहुत दिन धरि ई विवादक विषय बनल रहल जे मैथिली साहित्यक उद्भव एवं विकासक प्रारंभ कहिया सँ मानब?
प्राचीन समयसँ मिथिला संस्कृतक केन्द्र रहल अछि। सम्पूर्ण भारत विशेषतः पूर्वांचलक छात्र लोकनि संस्कृतअध्ययनक हेतु मिथिला अबैत छलाह। विद्याक प्रचार-प्रसारक कारणेँ एतए विद्वान लोकनिक संख्या अधिकछल। ई विद्वान लोकनि दर्शन, न्याय, ज्योतिष, गणित, आदिकेँ महत्वपूर्ण मानैत छलाह। फलस्वरूप जनभाषाक उपेक्षा प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूपमे होइते रहलैक। मुदा एतबा होइतहुँ एहिठामक लेखक तथा कविगण समय-समय पर जमभाषामे सेहो किछु रचना करैत छलाह। एहि कारणेँ प्राचीनकालीन मैथिली सामग्री अत्यंत सीमित रूपमे उपलब्ध होइत अछि।
किन्तुजतबा सामग्री मैथिलीक प्रारंभिक कालक अध्ययनक हेतु उपलब्ध अछि तकरा चारि भागमे विभाजित कएल जा सकैत अछि:- 1. शब्द, 2. वाक्यखंड, 3. सूक्ति तथा 4. लोकगीत एवं लोकगाथा। अध्ययनक सुविधाक हेतु एहि सभ वर्ग पर अलग-अलग प्रकाश देल जा सकैछ।
(1)शब्द
भाषा विज्ञानक अनुसार कोनो भाषाक हेतु शब्दकमहत्व सर्वाधिक अछि। पहिने शब्दक प्रयोग होइत छैक तखन स्वरूपक। एहि दृष्टिएँ प्रथम कोटिमे ओ सभ ग्रंथ अबैत अछि, जाहिमे मैथिली शब्दक प्रयोग कएल गेल अछि।यद्यपि ओ सभ ग्रन्थ संस्कृतमे लिखल अछि, किन्तु लेखक अपन भावकेँ पूर्ण रूपसँ व्यक्त करबाक हेतु तथा सरल एवं जनसाधारणक बुझबा योग्य बनएबाक हेतु अनेक स्थान पर पर्यायवाची मैथिलीक व्यवहार कएलनि अछि। एहि वर्गमे सर्वप्रथम किछु निबंधकार लोकनि अबैत छथि जे अपना निबंधमे मैथिलीकस्थान देलन्हि। एहि प्रकारक लेखक लोकनिमे नवम् (9वम) शताब्दीक लेखक वाचस्पति मिश्रक नाम सर्वप्रथम लेल जाइत अछि। ई अपन प्रसिद्ध ग्रंथ शाङ्कर भाष्य टीका ‘भामति’ मे निगड़ शब्दवाची मैथिली ‘हरि’ क प्रयोग कएने छथि। ई शब्द देशी थिक आ हमरा लोकनिक ओतए आइ धरि प्रचलित अछि। ई शब्द मैथिलीक अप्पन अछि आ तेना ने पचि गेल अछि जे एकरा एहिसँ फराक करब असंभव छैक। यद्यपि एखनहुँ विद्वान मंडली मध्य ई विवाद अछि जे ई शब्द सन्ताली छैक। शब्द जैँ प्रचलित छलैक तेँ एकरा अपनाओल गेल, अतएव एहि शब्दकेँ मैथिलीक शुद्ध रूप कहब विशेष उपयोगी हैत।
दोसर लेखक छथि 10म् 11हम् शताब्दीक सर्वानन्द। डॉ. सुभद्र झा अपन निबंध (Maithili Words in Sarvanand’s Amarkosh) मे पूर्ण रूपेँ विचार करैत कहैत छथि जे “सर्वदानन्दक ‘अमरकोष’ मे 400 सँ 600 बीचमे शुद्ध मैथिली शब्दक प्रयोग देखबामे अबैत अछि, जकरा मैथिलीक शुद्ध रूप कहल जा सकैछ।” मैथिली केँ असमी एवं बंगला सँ समता रहबाक कारणेँ एहि पर विवाद कएल गेल जे ई शब्द प्राचीन बंगला एवं असमीक प्रारंभिक रूप थिक। किन्तु ई तँ स्वाभाविक थिक जे तखन भाषा अपन निर्माणक स्थितिमे रहल होएत तैँ ओहि समयक तद्युगीन भाषा सँ कमे अंशमे अंतर रहतैक तथा देशगत भिन्नता रहबाक कारणेँ पूर्ण रूपसँ एकर विकास हैब असंभव अछि। ‘अमरकोष’ में प्रयुक्त ई शब्दावली मैथिलीक निज सम्पत्ति थिक जकरा अस्वीकार नहि कएल जा सकैछ।
तृतीय सामग्री हमरा लोकनि केँ पञ्जीमे उपलब्ध होइछ। डॉ. जयकान्त मिश्र एकरा सभसँ प्राचीन मानैत छथि: “The Earliest of these are, of course, the oldest Vernacular names of places and persons found in the early Panji records.” किन्तु एतय एकटा तथ्य विचारसंगत अछि जे पञ्जीक प्रारंभ 1310 ई. मानल गेल अछि, तैँ एहिमे पओल गेल शब्दकेँ वाचस्पति मिश्र एवं सर्वानन्दक पश्चातहिक मानव उचित हैत। पञ्जी सेहो संस्कृतहिमे अछि किन्तु किछु शब्द एहन भेटैत अछिजे मैथिलीक थिक।
शब्द सबहक एहि प्रकारेँ प्रयोग चौदहम एवं पन्द्रहम शताब्दीक अन्य विद्वान सभ यथा चण्डेश्वर ठाकुर, रूचिपति, जगद्धर, वाचस्पति द्वितीय तथा विद्यापति ठाकुर सेहो कएने छथि। डॉ. उमेश मिश्र अपन निबंध शीर्षक “Chandeshwar and Maithili” मे चण्डेश्वर ठाकुर द्वारा प्रयुक्त मैथिली शब्द सभक चर्चा कएने छथि। तथा पुनः ओ “Journal of Bihar Orissa Research Society” 1928 क पृष्ठ संख्या 266 मे “Maithili Words of the 15th Century”शीर्षक निबंधमे रूचिपति एवं जगद्धर द्वारा प्रयुक्त शब्दक चर्चा करैतओ लिखैत छथि “In this commentary Ruchipati has now and then used words of Maithili, His mother-tongue, in order to give the exact meaning of some of the words of Sanskrit and Prakrit.” उदाहरणस्वरूप किछु शब्दकेँ देखल जा सकैछ:-
संस्कृतमैथिली
कर्तरिलकतरनी
जलग्रह जलढ़री
पलांदुपियाजु
पोतडोंगी
कर्मान्तिककामत, कमती
विहंगिकबँहगी
सुवासिनीसुआसिन
पर्यङ्कपलंग
पुत्रिकपुतरी
आलवालथाल, कादो इत्यादि।
डॉ. मिश्र ओहि निबंधमे जगद्धर द्वारा प्रयुक्त शब्द सभक सेहो वर्णन कएलनि अछि। जगद्धरक ‘मालती-माधव’ तथा ‘वेणीसंहार’ दुनू टीकामे मैथिली शब्द पाओल जाइत अछि यथा:-
संस्कृतमैथिली
दोड़दहदोहर
चोर्णकमटोप्पर
ग्रहगोह
अलवालमथाल, कादो
प्राजनम्पैना
यूथिकाजूही आदि।
वाचस्पति मिश्र द्वितीय द्वारा लिखित ‘तत्वचिन्तामणि’क अंग्रेजी अनुवादक भूमिकामे सेहो डॉ. उमेश मिश्र सिद्ध कएने छथि जे वाचस्पति मिश्र द्वितीय सेहो अनेक मैथिली शब्दक प्रयोग कएने छथि।
(2)वाक्यखंड
शब्दक अतिरिक्त हमरा लोकनिकेँ मैथिली वाक्यखंड सभक प्रयोग सेहो भेटैत अछि। जखन भारतवर्षमे अंग्रेजी राज्यक सुदृढ़ स्थापना भए गेल, तखन अंग्रेज लोकनि भारतक क्षेत्रीय भाषा सभक आधुनिक अनुसंधान प्रणालीक अनुसारेँ अध्ययन प्रारंभ कएलनि। एहि क्रममेम. म. हरप्रसाद शास्त्री केँ प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ सभक अनुसंधानकरबाक भार भेटलनि। म. म. शास्त्री एहि क्रममे नेपाल गेलाह, ओतए हुनका 1916 ई. मे तीन गोट ग्रंथ भेटलनि, जकरा ओ ‘बौद्धगान ओ दोहा’ नामसँ प्रकाशित करौलनि। उक्त तीनू ग्रंथ थिक (क) दोहाकोष (ख) चर्याचर्य विनिश्चय (ग) डाकार्णव।
एहि ग्रंथ सभक रचनाकाल आठम शताब्दीसँ एगारहम शताब्दी धरि मानल जाइत अछि। ओहि समयमे आधुनिक भाषा सभ विकासोन्मुख छल, किन्तु विकसित नहि भेल छल, तैँ हेतु भाषा-विज्ञानी लोकनि ओहि रचनामे भारतीय पूर्वांचलक प्रायःसभ भाषाक रूप पबैत छथि। सिद्ध लोकनिक विषयमे जखन विशेष अनुसंधान भेल तँ हुनका लोकनिक क्षेत्र गोरखपुर सँ भागलपुर धरि मानल गेल। जे सिद्ध लोकनि जाहि क्षेत्र केँ अपनौलन्हि से हुनका अपन रचनामे ओहि क्षेत्रक भाषाक प्रभाव देखबामे अबैत अछि। मैथिलीक प्रभाव सेहो सिद्ध लोकनिक रचनामे पाओल जाइत अछि। एहि मतक पुष्टि करबाक हेतु निम्न तर्क पर दृष्टि देल जा सकैछ:-
1)सिद्ध लोकनिक चर्चा ज्योतिरीश्वर अपन ‘वर्णरत्नाकर’ मे कएने छथि जाहिसँ अनुमान कएल जाइत अछि जे ओ लोकनि अपन मतक प्रचारार्थ मिथिला अवश्य गेल हेताह।
2)पदक शब्दावली सभक वैज्ञानिक अध्ययन कएलासँ ई सिद्ध होइत छैक जे ओ मैथिलीक अत्यंत सन्निकट अछि।
3)हुनका लोकनिक पदमे जाहि प्रकारक स्थानक वर्णन कएल गेल अछि तकरा मिथिलाक भौगोलिक स्थितिसँ विशेष साम्य छैक।
4)ओहिमे विभक्ति, विशेषण तथा किछु क्रियापद एहन अछि जे मैथिलीमे प्रचुर मात्रामे प्रयोग कएल जाइत अछि।
सिद्ध साहित्यक भाषा, विद्यापतिक कीर्तिलता, कीर्तिपताका, विशुद्ध विद्यापति पदावली तथा ज्योतिरीश्वरक वर्णरत्नाकरक भाषासँ साम्यरखैत अछि। किछु सामान्य विशेषता एहि सभ पदमे पाओल जाइत अछि यथा:- दन्त्य वर्णक प्रधानता,‘एँ’ क प्रयोग, चन्द्रबिन्दुक एकहि समान प्रयोग,‘हि’‘एँ’ तथा ‘ए’ क ध्वनिक एकहि समान प्रयोग, जे, एहु, तरक, अप्पन, आदि सर्वनामक प्रयोग इत्यादि विशेषता समान अछि।
5)ओहि पद सभमे किछु लोकोक्ति तथा किछु वाक्यखंड एहन प्रयोग कएल गेल अछि जो मिथिलामे एखनहुँ प्रचलित अछि, यथा:- (I) पहिल बियान, (II) बलाद बिआएल गबिया बाँझे (बरद बिआएल गाय रहल बाँझे) (III) बेङ्गसँ साँप बढ़िल जाय (IV) हाक पाड़ई (V) जे जे अएला ते ते गेला (VI) टुटि गेल कन्था इत्यादि।
6)किछु शब्दावली एहन अछि जे मैथिलीक प्राचीन रूप थिक। ओ शब्द सभ एखन विकसित भए दोसर रूप धारण कए लेलक अछि, यथा:-
चर्यापदमध्यकालीन मैथिलीआधुनिक मैथिली
आजिआजिआइ
चापी -चापिदेब
तेन्तलि -तेतरि
बिआतीबाइतिबिअउती
टेंगी -टेंगारी
चगेरा -चङ्गेरा
भणइभनइभनथि
सिद्ध साहित्यक प्रधान कविगणमे किछु नाम अछि सरहपा, कान्हपा, भुसुकपा, शबरपा, कुक्करीपा, लुईपा, आदि। जतए धरि हिनक सभक समयक प्रश्न अछि, हिनका लोकनिक समय संवत 817 सँ मानल गेल अछि किएक तँ प्रथम कवि ‘सरहपा’क आविर्भाव काल 817 मानल गेल अछि। एहि तरहेँ हिनका लोकनिक समय 8 सँ 12हम शताब्दी धरि निश्चित कएल गेल अछि।
दोहाकोषक भाषाकेँ डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी शैरसेनी अपभ्रंश मानैत छथि। ‘चर्याचर्य विनिश्चय’ पर सेहो शौरसेनिक प्रभावकेँ ई स्वीकार करैत छथि:The Charyas belong to the early or old N.I.A Stage. Being the first attempt, the speech is not sure of its own forms learns on its stronger, better established Sisters and Aunts.
उपर्युक्त तर्क एवं प्रमाण सभक आधार पर डॉ. सुभद्र झा अपन “Formation of Maithili Language” नामक ग्रंथमे चर्यापदक भाषाकेँ निर्विवाद रूपेँ माथिलीक “छिकाछिकी” शाखाक अन्तर्गत मानैत छथि। किन्तु ई निर्विवाद नहि अछि। एकरा प्राचीन बंगाली, प्राचीन असमियाँ तथा प्राचीन उड़िया सेहो कहल गेल अछि तथापि एतबा विवाद रहितहुँ अधिकांश विद्वान एकर भाषाकेँ प्राचीन मैथिली मानैत छथि। एहि मतक समर्थक छथि-- राहुल सांकृत्यायन, डॉ. के. पी. जायसवाल, म. म. डॉ. उमेश मिश्र, नरेन्द्रनाथ दास, डॉ. सुभद्र झा, श्री शिवनन्दन ठाकुर आदि।
अतएव, निष्कर्ष रूपेँ कहल जा सकैछ जे चर्यापदक भाषा प्राचीन मैथिलीक अत्यंत सन्निकट अछि। कारण जे एहिमे प्रयुक्त वाक्यखंड, जे मैथिलीक थिक, आदिक पूर्ण प्रयोग पाओल जाइत अछि।
(3) सूक्ति
एकर पश्चात् डाकवचनावलीक स्थान अबैत अछि। अतिप्राचीनकालसँ मिथिला कृषि प्रधान मानल जाइत रहल अछि। एतुका भूमिमे ने नदीक आभाव छैक आने भूमि उसर सएह छैक। फलस्वरूप खेती पर पूर्ण जोर देल जाइत रहलैक। मिथिलावासी लोकनि ज्योतिषमे सेहो विशेष आस्था रखैत छलाह, फलस्वरूप कृषि एवं ज्योतिष संबंधी नियमआदिक विषयमे लोककेँ शिक्षा देबाक हेतु विद्वान लोकनि तत्कालीन प्रचलित जनभाषामे सूक्ति सभक निर्माण करैत छलाह जाहिसँ अनपढ़ लोक सेहो पूर्णरूपसँ लाभान्वित होइत छलाह। एहि सूक्ति सभक अन्तर्गत डाक, घाघ, आदिक वचन सभ अबैत अछि।
डाकवचनावलीक भाषाकेँ किछु विद्वान चर्यापदहुँ सँ प्राचीन मानैत छथि। कारण जे चर्यापदहि जकाँ एकरहुँ प्रचार उत्तर प्रदेश सहित समस्त पूर्वोत्तर भारतमे भेल। डाकवचनावलीक दू संस्करण मिथिलामे प्रकाशित भेल, कन्हैयालाल कृष्णदास द्वारा मैथिली साहित्य परिषद, दरभंगा सँ। भाषाक दृष्टिसँ दोसर संस्करण बेसी प्रामाणिक कहल जा सकैछ । कारण जे ई एक प्राचीन हस्तलिखित पोथी पर आधारित अछि।एकर भाषा अपभ्रंशसँ विशेष साम्य रखैत अछि। प्राचीन तालपत्रमे जे डाकवचन भटैत अछि से ओहि ‘अवहट्ट’ मे भेटैत अछि, जाहिमे महाकवि विद्यापतिक ‘कीर्तिलता’ विद्यमान अछि।डाकक वचन एखनहुँ मैथिल समाजमे प्रचलित अछि, किन्तु देश कालक व्यवधानसँ हुनक भाषामे अनेक परिवर्तन आबि गेल अछि जाहिसँ ओ आधुनिकताक छाप ल’ नेने अछि। प्राचीन स्वरूपक एकाध उदाहरण थिक:-
डाकक समय केँ ल’ कए विद्वान सभक मध्य एखन धरि मतैक्य नहि अछि। हुनक निवास स्थानक विषय सेहो विवादग्रस्ते अछि। बंगाल, उत्तर प्रदेश, तथा मिथिला, सभ हुनका अपन-अपन स्थानक मानैत अछि। मिथिलामे डाकक संबंधमे अनेक किवदंती प्रचलित अछि। एहिसँ ई अनुमान कएल जाइत अछि जे ई अवश्ये मिथिलाक छलाह। मिथिलामे जे किवदंती प्रचलित अछि ताहि अनुसारेँ ई बराहमिहिरक पुत्र छलाह तथा जातिक गोआर।
कृषि सँ संबंधित डाकक प्रस्तुत वचन अद्यावधि प्रायः प्रत्येक लोकक कण्ठमे निवास क’ रहल अछि:-
थोड़कए जोतिह’ अधिक मटिअबिह
ऊँच कएबान्हिह’ आरि
ताहू पर जँ नहि उपजय तँ
डाककेँ पढ़िह’ गारि।
अथवा
साओन पछवा भादव पुरबा
आसिन बहै ईशान
कातिक कन्ता सिकियो ने डोलै,
कतए कए रखब’ धान?
अथवा
शुक्र दिन केर बादरी, रहे शनिचर छाय
कहे डाक सुनु डाकिनी, बिनु बरसे नहि जाय।।
अथवा
जौं पुरबैया पुरबा पाबै,
सुखले नदिया धार बहाबै
(4) लोकगीत एवं लोककथा
आदिकालक उपलब्ध सामग्रीक रूपमे लोकगीत एवं लोकगाथाक सेहो अपन महत्वपूर्ण स्थान अछि। एहि मे सँ किछु तँ पूर्ण साहित्यिक थिक। एकर एक विशेषता ई अछि जे एहि सभक नायक कोनो अवतारी वा अंशी पुरूष नहि छलाह। एहन रचना सभमे लोरिक, सलहेस बिहुला, गोपीचन्द मरसीयाक गीत सभ अबैत अछि। संसारक प्रत्येक स्थानमे वीरपूजाक भावना वर्तमान छलैक, मिथिला सेहो एहि भावना सँ वंचित नहि छल। उपलब्ध प्रमाणक आधार पर एतबा कहल जा सकैछ जे 13हम 14हम शताब्दीमे ओहि प्रकारक गानक प्रचार एहिठाम छल। कारण जे ज्योतिरीश्वर अपन ग्रंथ ‘वर्णरत्नाकर’ मे लोरिक गीतक चर्चा कएने छथि। अतएव ई सिद्ध होइत अछि जे ई एहिसँ पूर्वक तँ अवश्ये थिक। ई गीत सभ खनहुँ मिथिलामे खूब गाओल जाइत अछि। मात्र जिह्वा पर रहबाक कारणेँ एकर भाषा आधुनिक रूप धारण करैत गेलैक अछि। एहि गीत सभक भाषा अवश्ये प्राचीन मैथिली छल होएतैक, किन्तु दुर्भाग्यवशओहि प्रकारक गीत सभक संग्रह एकठाम नहि भेल अछि। एहि दिशामे सर्वप्रथम डॉ. जी. ए. ग्रिर्यसन 19म शताब्दीक अन्तमे किछु कार्य कएलन्हि, हिनक संग्रह प्राचीनतम संग्रह मानल जाइत अछि। एकर पश्चात् ‘लोरिक विजय’ पर श्री मणिपद्मक एकगोट निबंध, दिसम्बर 1953 मे ‘वैदेही’ मे प्रकाशित भेल छलनि जाहिमे ओ प्रमाणित कएने छलाह जे लोरिकक गीत मैथिली साहित्यक अमूल्य निधि थिक। लोरिक गाथाक प्रस्तुत पाँतीमे केहन धरावाहिकता तथा भाषाक प्राचीनता अछि से द्रष्टव्य थिक:-
आँगी मे जे झाँगी सोभए
रत्तन लागल हार
झाँगी मे जे मानिक सोभए
हीरा झमकार
से हँसइ जखन दामिनी दमकए
जकरा दिस उठाकए तक्कए
दई करेजा सालि
लोरिकक प्रवाह अपूर्व आ ध्वनि-योजना अत्यधिक ओजस्वी अछि। एकर गायक ई गबैत-गबैत जेना प्रभक्त भए उठैत अछि एवं झूमए लगैत अछि, तथा ताल ठोकि टाहि मारैत अछि। एहि बीचमे कनियो एकरा टोकि दिऔक अथवा स्थिर भावेँ गाब’ कहिऔक तँ गायक झमान भए खसत। मंगलाचरणक ई पंक्ति केहन मोहक अछि:-
“कंठ दीह कोकिला माय आ मधु सन दीह भास”
लोरिकक सदृश मरसीयाक गीतकेँ सेहो देखल जा सकैछ:-
वनमे रोए कोयल जंगलमे रोए फातमा
घरमे रोए दुलहिन अभागलि रे हाय
एक रोए अम्मा दोसर रोवे धन्ना रे हाय
तेसर रोए दूध छारि बलवा रे हाय।
अतएव, ई दृढ़तापूर्वक कहल जा सकैछ जे 13हम 14हम शताब्दी धरि मैथिली भाषामे गीत तथा कथाक सृजन अवश्य होमए लागल छल।
एकरा सभक अतिरिक्त निम्न साक्ष्य सभक सम्यक अध्ययन सेहो कएल जा सकैछ:-
(अ) वर्णरत्नाकर:- एकर पश्चात् वर्णरत्नाकरक स्थान अबैत अछि। एहिठामसँ हमरा लोकनि केँ मैथिली भाषाक क्रमबद्ध प्रगति दृष्टिगत होइत अछि। वर्णरत्नाकर मैथिलीक प्राचीनतम गद्य ग्रंथ थिक। 13हम 14हम शताब्दीमे मैथिली एक विकसित भाषा भए गेल। केवल शब्द, वाक्यखंड तथा किछु लोकगीतहिक नहि अपितु वर्णरत्नाकर सदृश प्रौढ़ गद्य ग्रंथ उपलब्ध सामग्रीमे मैथिलीक पूर्ण विकसित रूप ज्योतिरीश्वरक वर्णरत्नाकरक रूपमे भेटैत अछि।ई 14हम शताब्दीक आदिकाल (1324) क रचना थिक। वर्णरत्नाकरक विषयमे केवल एतबे धरि जोर द’ कए कहल जा सकैछ जे ई प्राचीन उपलब्ध सामग्रीमे मैथिलीक प्रगतिक द्योतक थिक। ई एखन धरि अपन महत्व सँ मिथिला ओ मैथिलीकेँ गौरवान्वित क’ रहल अछि।
(ब) एकर अतिरिक्त प्राचीन मैथिलीक किछु सामग्री ‘प्राकृत पैंगलम’ तथा अन्य अपभ्रंश ग्रंथमे सेहो भेटैत अछि। प्राकृत पैंगलममे लोकभाषाक उदाहरण देल गेल छैक। शिवनन्दन ठाकुरक मत छनि जे एहिमे प्रयुक्त किछु शब्द मैथिलीक थिक।
(स) विद्यापतिक अवहट्ट रचना ‘कीर्तिलता’ तथा ‘कीर्तिपताका’मे प्राचीन मैथिलीक अनेक विशेषता पाओल जाइत अछि, यथा:- क्रियाक स्त्रीलिंग रूप ए, एँ तथा हिं क प्रयोग पूर्वकालिक क्रियाक हेतु तथा ‘ए’ क प्रयोग आदि। एहि लेल ई ग्रंथ सेहो महत्वपूर्ण भ’ जाइत अछि।
एहि सामग्री सभक विषयमे डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी क उक्ति युक्तिसंगत अछि- These specimens allow us to have a glimpses of the language in its formative period.
उपर्युक्त सामग्री सभक समीक्षा कएलासँ ई विषय स्पष्ट भए जाइत अछि जे अभिरूचि एहिठामकलेखकमे 8म शताब्दीसँ प्रारंभ भए गेल छल। एतबा धरि सत्य जे ओहि कालक जे रचना उपलब्ध अछि ताहिमे विशेषतः दार्शनिक एवं व्यावहारिक पक्षक सबलता देखबामे अबैत अछि। आन प्रकारक रचना मौखिके रूपमे लोकक समक्ष उद्घाटित होइत रहल अछि तथा अनुमानसँ लोक एकर प्राचीन रूप जानबाक चेष्ठा करैत अछि।
-गजेन्द्र ठाकुर
यू.पी.एस.सी.-३
मैथिलीक उत्पत्ति आ विकास (संस्कृत, प्राकृत, अवहट्ट, मैथिली)
२.प्राकृत
संस्कृतसँ पहिने प्राकृत रहए वा बादमे ई विवादक विषय भऽ सकैत अछि कारण ऋगवेदक शिथिर, दूलभ, इन्दर आदि शब्द जनभाषाक साहित्यीकरणक प्रमाण अछि। ओना एकर प्रारम्भिक प्रयोग अशोकक अभिलेखसँ तेरहम शताब्दी ई. धरि भेटि जाएत मुदा पारिभाषिक रूपमे जाहि प्राकृतक एतए चर्चा भऽ रहल अछि ओ पहिल ई.सँ छठम ई. धरि साहित्यक भाषा दू अर्थे रहल। पहिल संस्कृत साहित्यक नाटकमे जन सामान्य आ स्त्री पात्र लेल शौरसेनी, महाराष्ट्री आ मागधीक (वररुचि चारिम प्राकृतमे पैशाचीक नाम जोड़ै छथि) प्रयोग सेहो भेल (कालिदासक अभिज्ञान शाकुन्तलम्, मालविकाग्निमित्रम्, शूद्रकक मृच्छकटिकम्, श्रीहर्षक रत्नावली, भवभूतिक उत्तररामचरित, विशाखादत्तक मुद्राराक्षस) आ दोसर जे फेर एहि प्राकृत सभमे साहित्यक निर्माण स्वतंत्र रूपेँ होमए लागल। फेर एहि प्राकृत भाषाकेँ सेहो व्याकरणमे बान्हल गेल आ तखन ई भाषा अलंकृत होमए लागल आ अपभ्रंश आ अवहट्ठक प्रयोग लोक करए लगलाह, ओना अपभ्रंश प्राकृतक संग प्रयोग होइत रहए तकर प्रमाण सेहो उपलब्ध अछि।
अशोकक अभिलेखमे शाहबाजगढ़ी आ मानसेराक अभिलेख उत्तर-पच्छिम, कलसी, मध्य, धौली, जौगड़ पूर्व आ गिरनार दक्षिण पच्छिमक जनभाषाक क्षेत्रीय प्रकारक दर्शन करबैत अछि। राजशेखर प्राकृतकेँ मिट्ठ आ संस्कृतकेँ कठोर कहै छथि (विद्यापति पछाति कहै छथि देसिल बयना सभ जन मिट्ठा)।
प्राचीन प्राकृत पालीकेँ कहल जाइत अछि जाहिमे अशोकक अभिलेख, महवंश आ जातक लिखल गेल। मध्य प्राकृतमे साहित्यिक प्राकृत अबैत अछि। बादक प्राकृतमे अपभ्रंश आ अवहट्ठ अबैत अछि।
मोटा-मोटी गद्य लेल शौरसेनी, पद्य लेल महाराष्ट्री आ धार्मिक साहित्य लेल मागधी-अर्धमागधीक प्रयोग भेल। नाटकमे स्त्री-विदूषक बजैत रहथि शौरसेनीमे मुदा पद्य कहथि महाराष्ट्रीमे, नाटकक तथाकथित निम्न श्रेणीक लोक मागधी बजैत छलाह।
प्राकृतमे सुप् तिङ् धातुक संग मिज्झर भऽ जाइत अछि।
प्राकृतमे धातुरूप १-२ प्रकारक (भ्वादिगण जेकाँ) आ शब्दरूप ३-४ (अकारान्त जेकाँ) प्रकारक रहि गेल, माने दुनू रूप कम भऽ गेल। मुदा एहिसँ अर्थमे अस्पष्टता आएल जकर निवारण कारकक चेन्ह कएलक।
चतुर्थी, द्विवचन, लङ् लिट् लुङ् आत्म्नेपद आदिक अभाव भऽ गेल प्रथमा आ द्वितीयाक बहुवचन एक भऽ गेल। ध्वनि परिवर्तन भेल। ऋ, ऐ, औ, य, श, ष आ विसर्गक अभाव भेल (अपवाद मागधीमे य आ श अछि मुदा स नहि)।
अन्तमे आएल व्यंजन लुप्त भेल (ह्रस्व स्वरक बाद दू आ दीर्घ स्वरक बाद एकसँ बेशी व्यंजन नहि रहि सकैत अछि।)
प्राकृतक शौरसेनी, मागधी, महाराष्ट्रीक अतिरिक्त पैशाची प्राकृतक सेहो उल्लेख भेटैत अछि। गुणाढ्यक वृहत्कथा एहि प्राकृतमे लिखल गेल जे आब स्वतंत्र रूपसँ उपलब्ध नहि अछि। एकर उल्लेख उद्धरण रूपमे कखनो काल भेटैत अछि। ई पश्चिमोत्तर भारतक प्राकृत छल, उद्धरण रूपमे उपलब्ध साहित्यक अनुसार एहिमे निम्न विशेषता छल। ण बदलि कऽ न भऽ गेल। र बदलि कऽ ल भऽ गेल। ल बदलि कऽ र भऽ गेल। सघोष अघोष बनि गेल। दू स्वरक बीचक ल बदलि कऽ ळ भऽ गेल। स्वरक बीचमे ष बदलि कऽ श वा स, ज्ञ बदलि कऽ न्य आ ण्य बदलि कऽ ञ्ञ भऽ गेल। एहिमे आत्मनेपद आ परस्मैपद दुनू अछि।
पश्चिमोत्तरक खोतानसँ प्राकृत धम्मपद खरोष्ठी लिपिमे दहिनसँ वाम लिखल लेख प्राप्त होइत अछि जाहिमे श, ष, स तीनूक प्रयोग अछि।
मोटा-मोटी प्राकृतमे शब्द-धातुरूपक सरलीकरणक प्रक्रिया दृष्टिगोचर होइत अछि, द्वित्व, मूर्धन्यीकरण, अघोषीकरण आ सघोषीकरण, लकारक बदला कृदन्तक प्रयोग सेहो बढ़ि गेल।
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