भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/ पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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'विदेह' ६३ म अंक ०१ अगस्त २०१० (वर्ष ३ मास ३२ अंक ६३)-Part II
शिव कुमार झा “टिल्लू”
समीक्षा- विभारानीक नाटक बलचन्दा २.तारानन्दवियोगी-सुभाष चन्द्र यादवक कथा–संवेदना- - सुभाष चन्द्र यादवक नवका कथा–संग्रह ‘बनैत बिगड़ैत’३.बिपिनझा-हे हृदयेश्वरी: एक कटाक्षालोचन ॥
१.
शिव कुमार झा “टिल्लू”
समीक्षा- विभारानीक नाटक बलचन्दा
श्रीमती विभा रानी मैथिली साहित्यक चर्चित लेखिका छथि। श्रुति प्रकाशनसँ प्रकाशित हुनक नाटक द्वय भाग रौ आ बलचन्दा पढ़लहुँ। भाग रौ बड़ नीक लागल, परंच बलचन्दा पढ़िते हृदयमे नव वेदना पसरि गेल आ समीक्षा लिखवाक दु:साहस कऽ देलहुँ।
वास्तवमे वलचन्दा नाट्क नहि, छोट पोथीमे मात्र 20 पृष्ठक एकांकी थिक। सभसँ पैघ गप्प जे विभा जी वर्तमान सामाजिक जीवनक सभसँ पैघ समस्याकेँ अपन लेखनीक विषय बनौलन्हि। कन्या भ्रुण हत्या बर्तमान समाजमे विकट रूप लऽ रहल अछि। प्राय: नाटकमे पुरूष प्रधान पात्रकेँ नायक कहल जाइत अछि परंच एहि ठॉ रोहितक भूमिका खलनायकक अछि। विजातीय समाजक एक शिक्षितसँ क्षणक आवेगमे प्रेम कएलनि। विवाह सेहो भऽ गेल। मुदा ओहि स्त्रीकेँ की भेटल? अभियन्ताक शिक्षा ग्रहण कएलाक पश्चात् गृहिणी वनि कऽ रहि गेली। पुरूष प्रधान समाज तैयो पाछॉं नहि छोड़लक। प्रथम संतान बालक होएवाक चाही। आश्चर्यक गप्प ई जे एहि प्रकारक आदेश सासु द्वारा देल गेल। एक नारी द्वारा दोसर नारीसँ आबएबला नारीक नाश करबाक कुटिल आज्ञा एहि एकांकीक मूल विषए-वस्तु अछि। खलनायक चुप्प छथि, किएक तँ ओ मातृभक्त। तखन दोसर माएकेँ संतति हंता किए बनाबए चाहैत छथि। जीवन भरि संग देवाक शपथकेँ की भेल? जखन निर्वाह करबाक सामर्थ्य नहि छल तँ आन जातिक कन्याकेँ संगिनी किए बनौलन्हि। रोहितक प्रेम-सिनेह नहि वरन् वासना मात्र छल।
स्त्रीकेँ भोग्या बना कऽ राखब ओहि परिवारक मूल संकल्प। ओहि लोकनिकेँ सोचवाक चाही जे आव ओ दिन बीति गेल, नारी लक्ष्मी तँ चंडी सेहो छथि। रोहितक स्त्री गर्भपातक प्रवल विरोध कएलनि। प्रतिज्ञा कए लेली जे अबैबला तनयाक पतिपाल स्वयं करब।
एहि एकांकीक भाषा सरल आ सुन्दर अछि। विषए-वस्तुक सम्पादन सुन्दर आ आकर्षक। मैथिल संस्कृतिक व्यापक प्रदर्शन। जय-जय भैरविसँ प्रारंभ आ समदाओनसँ इति श्री। नारी व्यथाक मर्मस्पर्शी चित्रणक संग जाति व्यवस्थापर मैथिली साहित्यक लेल ई नाट्क नहि एकटा आन्दोलन कहल जा सकैत अछि। संस्कृतिक रक्षाक लेल आ सामाजिक संतुलन हेतु साहित्यिक आन्दोलन विभा जीकेँ नमन........ धन्यवाद।
सुभाष चन्द्र यादवक कथा–संवेदना- - सुभाष चन्द्र यादवक नवका कथा–संग्रह ‘बनैत बिगड़ैत’
कोनो संग्रहकेँ, चाहे ओ कथा–संग्रह हो आ कविता आ निबन्ध–संग्रह, एक नीक अथवा अधलाह संग्रह कोन आधारपर मानल जाए? अंग्रेजीसँ लऽ कए मैथिली धरिक संग्रहकेँ देखैत हमर एक सामान्य मान्यता बनल अछि जे जाहिमे पाठककेँ साठि प्रतिशत रचना, अपन पसन्दक, अपन काजक भेटैत हो, तकरा एक नीक संग्रह मानल जेबाक चाही। एहिसँ बेसी प्रतिशतक निर्वाह कठिन छै आ ताहिमे प्रधान कारण अछि पाठकक रूचिभिन्नता। जे से। हम तँ जखन पढ़लहुँ तँ बुझाएल जे कोनो कारण नहि छै जे सुभाषक एहि संग्रहकेँ अधलाह संग्रह मानल जाए।
चालीस बरखसँ ऊपर भेल जे सुभाष मैथिलीमे कथा–लेखन शुरू केने छलाह। ओ सुरूहेसँ कने ‘दोसर तरहें’ लिखै छलाह। तकर तात्विक कारण छलै जे जीवनकेँ आ जगतकेँ कने दोसर तरहें देखै छलाह। ‘दोसर तरहें’ माने मैथिलीमे जाहि तरहें देखबाक रेबाज रहलए, ताहिसँ भिन्न तरहेँ। कोनो लेखक यदि जीनियस हएत आ ओरीजिनल लिखत तँ ई चीज हेबे करतै। से कैक गोटेमे भेलैए। सुभाषोमे भेलनि अछि। तँ हमरा लोकनि देखैत छी जे मैथिलीमे जे गंभीर लोक सभ छलखिन, से सुभाषकेँ बहुत मान देलखिन। सुभाषमे, मैथिली साहित्यकेँ अपना लेल नैतिक समर्थन देखार पड़लैक। प्रख्यात आलोचक कुलानन्द मिश्र कहलनि जे मैथिली कथाक क्षेत्रमे एकटा निश्चित सीमाक अतिक्रमण सुभाष चन्द्र यादवक बादे आरम्भ भेल।
कुलानन्द कुलानन्दमिश्र ‘बुधिआरकेँ इशारा काफी’ बला अंदाजमे अपन बात कहलखिन आ एहि बातकेँ नहि साफ केलखिन जे मैथिली ‘एकटा निश्चित सीमा’ की छलै आ सुभाष कोन तरहें ओकर अतिक्रमण केलखिन। मुदा, हमारा पुछै छी जे मैथिली साहित्य अंततः थिक की? जीवन–जगतकेँ देखबाक एकटा ब्राह्मण–दृष्टि। अपना संतोषक लेल हमरा लोकनि कहि सकै छी जे एहि दृष्टिमे बहुत विविधता छै–अनेक वाद अछि, अनेक पीढ़ी अछि। आदि–आदि। से बड़ बेस।
मुदा तैयो, ई तँ एकर बड़ पैघ सीमा भेलै कि नहि! मानै लेल तँ संसारक अधिकांश लोक आइयो इएह मानैत अछि जे मैथिली साहित्य भाजपाक एकटा सांस्कृतिक उपनिवेश थिक, मुदा ई लोकनि दयनीय छथि कारण मैथिलीक सार्थक लेखनक यथार्थ हिनका लोकनिकेँ नहि बूझल छनि। दोसर दिस हमरा लोकनि देखैत छी जे दृष्टिवान सम्पादक अशोक जखन समकालीन कथापर ‘संधान’क विशेषांक प्रकाशित करैत छथि तँ आयासपूर्वक सुभाषक कथासँ आरंभ करैत आगामी विकासक आकलन करैत छथि कुलानन्द मिश्रक मान्यताक सर्वजनीजीकरणक ई एक दृष्टांत थिक।
सुभाष कने दोसर तरहें जीवनकेँ देखैत छथि। कोन तरहें? हुनक एक कथा ‘एकटा अंत’मे आएल एकटा चित्रण हमरा एहि ठाम मोन पड़ैत अछि। कथावाचक अपन बीमार ससुरक जिज्ञासामे सासुर गेल अछि। ओतए ससुरक संग ओकर देखा–देखीकेँ चित्रण कथाकार करैत छथि–‘जखन हुनकासँ विदा लेबऽ गेल रही तँ हुनकर आँखिमे ताकने छलिअनि। ओहो हमर आँखिमे ताकने छलाह। आ हमरा दुनूकेँ बुझाएल रहए जेना ई ताकब अंतिम ताकब थिक, जेना आब फेर कहियो भेंट नहि होएत’। देखल जाए। दुनू दुनूक आँखिमे ताकैए। दुनू दुनूक आँखिक भाषा बुझैए। एक दोसरक भावनाक आदान–प्रदान बहुत प्रामाणिकताक संग भऽ रहल अछि। अलगसँ एहि दुनूकेँ कोनो भाषाक प्रयोजन नहि छै। कने अखियास कएल जाए जे एहि तरहक कम्यूनिकेशनमे संवेदनशीलताक कोन तल वांछित अछि, जीवनक मर्मक भीतर कतेक गहराई धरि पैसब जरूरी अछि! ई सुभाष छथि! हुनकर सीमा छनि जे कलावादी ओ भऽ नहि सकै छथि, बहुत कलाकारी कऽ नहि सकै छी। ज्ञान छनि दुनिया भरिक। मुदा जखन रचबाक बेर अबै छनि तँ ततेक प्रकृत भऽ जाइत छथि तें ‘प्राइवेशी’केँ सर्वस्वीकृत मानक धरि टुटि जाइत अछि। अहाँ देखि सकै छी जे ई चित्रण मात्र एक चित्रण नहि थिक; सुभाष दुनियाकेँ कोना देखै छथि तकर स्पष्टीकरण थिक। ई अपन पाठकसँ डिमांड सेहो थिक जे हुनका देखू तँ एहि ठामसँ देखू एतबा संवेदन–क्षमता राखि कऽ, जीवन–मर्ममे एतबा डूबि कऽ। देखबाक प्रचलित रेवाज की अछि? ककरो आ कथूकेँ देखू तँ विचारक संग देखू जे की देखै छी, कते देखै छी, कोन ठामसँ देखै छी! आदि–आदि। आ जखन विचारक संग देखबै तँ चयन–बुद्धि सक्रिय रहबे करत। देखलमे कांट–छांट करब। जे प्रयोजनीय नहीं बुझाएत तकरा छाँटि देबैक। ततबेकेँ राखब जाहिसँ अहाँक अभिप्राय स्फुट भऽ जाए। साहित्यमे आम तौरपर इएह रेवाज छै। परम्परित साहित्य–शास्त्र सेहो एकरे कवि–प्रक्रिया कहैत छै। सुभाष कने दोसर तरहें देखैत छथि। देखबाक संकल्प टा खाली हुनकर होइ छनि, माने जे ककरा आ कथीकेँ देखबाक अछि। तकरा बाद, कोनो चयन–बुद्धि नहि, कोनो विश्लेषण नहि, कोनो सिंगार–पेटार नहि–बस, ओ खाली देखै छथि, जेना हुनकर कथावाचक अपन ससुरक आँखिमे देखने छल।
जीवनकेँ देखबाक दृष्टि आनिवार्य रूपसँ कथाक भाषाकेँ आ शैलीकेँ आ रचना–विधानकेँ नियंत्रित करैत अछि। जेहन अहाँक दृष्टि अछि तदनुरूप अहाँक शिल्प हएत। सुभाषक कथामे हमरा लोकनि देखै छी जे व्यापक पसरल जीवनक कोनो एकटा क्षणसँ कथा शुरू होइ छै। आ जतएसँ शुरू होइ छै, तकर बाद एक–एक प्रक्रमक विवरण दैत आगू बढ़ै छै, बस विवरण दैत–बिना कोनो विश्लेषणक–आ तखन देखै छी जे कथाक ई क्रम आगू बढ़ैत–बढ़ैत कोनो एक ठाम आबि कऽ समाप्त भऽ जाइ छै। कोनो पैघ कालखण्ड हुनका कथामे कमोबेस भेटैत अछि। तहिना, घटनावलिक अथवा विचार–सरणिक विश्लेषणो हुनका कथामे नहि भेटत, जेना हुनके समकालीन सुकांतक कथामे भेटैत अछि। हम सभ तँ देखै छी जे अपन जाहि कथामे सुभाष अपन प्रकृतिक विरूद्ध विश्लेषण करबाक प्रयास केलनि अछि से कथा हुनकर अधलाह कथाक रूपमे चीन्हल गेल अछि। माने जे जे चीज ओ छथि, सएह बनल रहथु तँ ओ सुन्दर लगैत अछि।
हुनकर एक कथा छनि–‘अपन अपन दुःख’। एक परिवारक माने पति–पत्नीक सात–आठ घंटा रातुक समय कोना बितलै, तकर विवरण एहि कथामे देल गेल छै। पत्नीक मोन सांझेसँ किछु खराब छै जे कि परिवारक लेल एक रेहल–खेहल बात थिक। ओ बिनु भानस–भात केने खाटपर सूतलि अछि। पेशंट देरीसँ घर घुरैत अछि। बच्चा सभक सहायतासँ कहुना भानस करैत अछि। खाइ लेल पत्नीकेँ उठबैत अछि। ओ नहि उठैत अछि। ओकर भोजन सुरक्षित राखि देल जाइछ। बाँकी सभ लोक खा कए सूति रहैत अछि। पति कोनो आन कोठलीमे सूतल अछि। रातिमे तीन बेर आबि कऽ पत्नी पतिकेँ उठबैत अछि। पत्नी कर्कशा अछि। ओकरा मुँहसँ कुबोले बहराइत छै। पतिकेँ उठबैत अछि जे ‘एना पाड़ा जकाँ डिकरय’ नहि। पति ठरर पाड़ैत अछि, मुदा चिंतित अछि जे कण्ठमे कफ फसने ओकरा घरघरी शुरू भऽ गेल छै। भोरमे पता लागैत अछि जे पत्नी रातिमे भोजन नहि केलक। पति जँ उठौलापर उठि गेल रहितय, माने अपन बिछौनासँ बाहर, माने अपन सीमासँ, अपन घेराबंदीसँ तँ पत्नी भोजनो करितय, ओकर मोनो नीक होइतै आ ‘ठरर आ घरघरी’क जाहि दुष्चक्रमे ई दुनू पड़ल अछि, सेहो टुटितय। ई सुखाड़केँ कथा थिक। एहि ठाम सभ कथू सूखि गेल छै–पति–पत्नीक सम्बन्ध, एक–दोसराक लेल राग, एक–दोसराक अस्तित्वकेँ स्वीकारबाक लेल एकटा नमनीयता, एकटा ‘स्पेस’–किछुओ बचल नहि देखाइछ। जेहने एकर विषय छै, ठीक तेहने शिल्प आ तेहने कथा–भाषाक प्रयोग कएल गेल छै। दाम्पत्य–जीवनक जे आधारशिला छिएक–प्रेम, से एहि ठाम कतहु नहि अछि। आ, सुभाष एहि संग्रहक भूमिकामे कहैत छथि जे ‘हम एहन मनुक्ख गढ़ऽ चाहैत छी जे सभसँ प्रेम करए’। ध्यान देल जाए। ओ दुनू पति–पत्नी तँ एक–दोसरसँ प्रेम नहीं कऽ पाबैए, कारण प्रेमक लेल एकटा शर्त्त छै, सेहो सुभाष भूमिकेमे कहने छथि तँ ‘प्रेम वएह कऽ सकैत अछि जे सत्यक सर्वाधिक निकट हएत’। आ, अपन अपन अहंकारक कारण, जकरा सुभाष ‘अपन अपन दुःख’ कहैत छथि, आ व्यक्तित्वगत आन–आन मलिनताक कारण ई दुनू एक दोसरसँ प्रेम नहि कऽ पबैए। मुदा, जाहि तरहें सुभाष एहि विवरणकेँ प्रस्तुत केने छथि, से पाठकमे प्रेमकेँ जरूरत, प्रेम करबाक बेगरताकेँ निशान छोड़ैए।(मोन पड़ैए हिन्दी–कवि अज्ञेयक एकटा कविता–पंक्ति–‘दुःख सबको मांजता है/और, सबको मुक्त करना वह न जाने/किंतु, जिनको मांजता है/उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रक्खे’।) तँ, सएह। एहना स्थितिमे जखन सुभाष कहै छथि जे प्रेम केनिहार मनुक्ख ओ गढ़ऽ चाहै छथि–कथामे आ कि पाठकक स्मृति–संस्कारमे? निश्चिते पाठकक स्मृतिमे, ओकर संस्कारमे। प्रेम हुनक कथा–विषय नहि थिक, कथा–विषयक प्रतिफलन थिक, से हमरा लगैत अछि।
मुदा, औपचारिक रूपसँ जकरा प्रेमक बारेमे लिखब कहल जाइ, ताहू तरहक कथा सुभाष लिखलनि अछि आ हमरा खुशी अछि ई कहैत जे एहन कथा मैथिली कथा–क्षेत्रक सीमाक सुनिश्चित अतिक्रमण करैत अछि। हुनक एक कथा थिक–‘एकटा प्रेम कथा’। एहि कथामे एकटा लड़की छै जे एकटा लड़काकेँ बरोबरि फोन करैत अछि। फोनक मालिक कथावाचक थिकाह, जकरा लड़की ‘अंकल’ कहैत छैक। आ, लड़का, जे कि कथावाचकक पड़ोसी थिक, के तँ ओ ‘अंकल’ छथिहे। एहि त्रिकोणक तेसर कोण–अंकलक–नजरियासँ एहि कथाक रचना भेल छैक। किछु पाँती सभ देखी।-‘आब ओ लड़की सीधे प्रेमीसँ सभ तरहक गप करैत हएत। भरिसक इएह सोचि कऽ प्रेमी मोबाइल किनने हो। हमरा लागल जेना हमर किछु छिना गेल हो’। आ, इहो देखी–‘फोन राखि देलाक बादो हमारा ओत्तहि ठाढ़ रही गेल रही, जेना किछु आर कहबाक हो, किछु आर कहबाक हो, किछु आर सुनबाक हो। हमरा छगुंता भेल, ओहि लड़की लेल हमारा किए उदास भऽ रहल छी’? आ, एकटा परिस्थिति एहि तरहक–‘साझकेँ बेसी काल ओ किरानाक एकटा दोकानमे बैसल रहैत अछि। पहिने ओत्तहि देखबै। नहि भेटल तँ ओकर घर जाए पड़त। मुदा घरपर तँ ओकर माए–बाप छै। माए–बापकेँ लड़कीक फोन दिअ कहब ठीक नहीं हेतै’। आ अंततः निष्पत्ति किछु एहि तरहक–‘अपन छांहे जकाँ ओ लड़की हमर संग–संग चलि रहल छल, प्रेमी नामक रौदमे कखनो पैघ आ कखनो छोट होइत’। आब कहल जाऊँ जे एहि तरहक सम्बन्धकेँ कोन सम्बन्ध कहल जेतै? सुभाष कहै छथि–‘प्रेम कथा’–मानो ई अंकल महाशय सेहो प्रेममे पड़ल छथि। एहि प्रेममे जे ई दुनू लड़का–लड़की खूब जतनसँ एक दोसरसँ प्रेम करए, तकरा निमाहए। ‘प्रेम’ जँ ई थिक तँ कहए पड़त जे भौतिक प्रेमकेँ सब्लिमेशन (उदात्रीकरण) थिक। सोचि कऽ देखी तँ ई कथा, मात्र एकटा कथा नहि थिक, मिथिलाक सामाजिक परिवेशमे आ मैथिली कथामे एकटा नवीन पीढ़ीक आगमनक कथा थिक–एहन पीढ़ीक जे मानैत अछि जे धिया–पुतामे एक–दोसरसँ प्रेम करबाक चाही, तकरा निमाहबाक जतन करबाक चाही कारण ई दुनिया निर्बाध रहए ताहि लेल प्रेम जरूरी छै आ जीवन अपन लयमे आगू बढ़य, ताहि लेल प्रेम जरूरी छै। ई कथा तखन किछु आर पैघ देखार पड़त जँ हमरा लोकनि मैथिलीक सम्बन्ध–कथा सभक परिप्रेक्ष्यमे एकरा देखी। हमरा तँ मोन पड़ैत अछि–दू दशक पहिने मान्य साहित्यकार लोकनिक बीच ‘मिथिला–मिहिर’मे भेल तुमुल ‘सम्मति–विमति’ जाहिमे बात आएल रहै जे मैथिली कथाकेँ सन्दर्भ लैत बात करी तँ मिथिलाक लोक प्रेम कैए नहीं सकैत अछि, जे ओ कऽ सकैए से थिक छिनरपन। जकरा प्रेमकथा कहल जाइछ से वस्तुतः छिनरपनक कथा थिक। प्रश्न अछि जे सुभाषक एहि कथाकेँ कोन छिनरपनक कोन कोटिमे राखल जाए।
अस्तु, हमारा सुभाष चन्द्र यादवक कथाक स्वभावपर बात करैत रही। हुनकर कथाक स्वभाव एहन छैक जे केन्द्र बिन्दुकेँ थाह पेबामे अक्सरहा मतांतरकेँ गुंजाइश भऽ सकै छै। एक मोड़पर सँ कथा आरंभ भेल आ अगिला मोड़ अबैत–अबैत समाप्त भऽ गेल। आब पाठक निर्णय करथु जे एतबा दूरक विवरणक निरंतरतामे केन्द्र बिन्दु कोन छल? एहिमे पाठकक लेल ‘बुढ़ारीक लाठी’ बनै छै–सुभाषक देल शीर्षक। हुनकर कथा, एहि प्रकारक कथा सभ थिक जाहिमे शीर्षकक निर्णायक महत्व होइत छैक। आ, शीर्षक अंततः भेल की? केन्द्र बिन्दुक ठीक–ठीक संकेत नहि दऽ सकल आ संकेत अति दुरूह भऽ गेल (केनरी आइलैण्ड)क (नारेल जकाँ) तँ सम्यक सम्प्रेषण कठिन भऽ जाइ छै। एकटा दृष्टांत ली। कथाक शीर्षक थिक–‘एकटा अंत’। एहि कथामे एकटा बुद्धिवादी जुवक अछि जे कर्मकाण्डक विरोधमे ठाढ़ भेल अछि। अपन पक्षक स्थापनाक लेल ओ बहुत संघर्ष करैत अछि, मुदा ओकर बहुत दुर्गंजन होइत छैक आ ओ अपनहुकेँ अपना विचलित आ थाकल अनुभव करैत अछि। तकर डिटेल्स कथामे आएल छै। शीर्षक देल गेल छै–‘एकटा अंत’ प्रश्न अछि–कथीक अंत? जँ उत्तर हएत–कर्मकाण्डक अंत, तँ मानऽ पड़त जे ई कथा नितांत अधलाह आ असफल कथा थिक, कारण कथ्यक निर्वाह ने कथा–विवरण कए पाएल अछि आ ने कथा समय। मुदा, जँ एकर उत्तर होइक–‘कर्मकाण्डक विरोध परम्पराक अंत’ तँ लगले देखब जे ई कथा खूब सुन्दर कथाक रूपमे मोन राखऽ जोग देखार पड़त, जे बहुत करूणासँ भरल अछि आ एकटा संकल्प (संकल्प ई जे एहि जुबककेँ संरक्षण भेटबाक चाही) केँ संग समाप्त होइत अछि। फेर वएह बात। संकल्प कथामे कथित नहीं भेल छैक, ओ कथाक प्रतिफलनक रूपमे पाठकक मोनमे उचरैत छैक।
ओना, गौर कएल जाए तँ सुभाषक कथामे एकटा आर समस्या देखार पड़त। एकरा संतुलनकेँ चूक कहल जा सकैए। जेना अहाँ कोनो फिल्म देखैत होइ आ पाबी जे कोनो एकटा दृश्यकेँ जरूरतसँ बेसी काल धरि देखाएल जा रहल हो, जकर कि डिमांड कथाकेँ नहि छै। कहब आवश्यक नहिजे एना एहि दुआरे होइ छै जे दर्शक (आ पाठक)क डिमांड आ फिल्मकार (आ कथाकार)क डिमांड भिन्न–भिन्न भऽ जाइत छैक। से, हमरा लोकनि कैक कथामे देखै छी जे विवरणक अनुपात औचित्य टुटलैक अछि आ किछु एहनो बात आबि गेल छैक जकर आवश्यकता कथामे नहि छैक। एक हद धरि सुभाष कथाक शीर्षक चयन सेहो, जे कि एक खास फ्रेममे राखि कऽ कथाकेँ देखबाक आग्रह रखैत छैक मुदा स्वयं कथे एहि आग्रहक रक्षा नहि कऽ पबैत अछि। किछु ठाम तँ एहनो देखैत छी ज्र विवरण देबाक लेल जाहि शब्दावलीक प्रयोग सुभाष केलनि अछि से उकड़ू बुझा पड़ैत छैक आ सम्पूर्ण कथाक ताना–बानामे पीयन जकाँ देखाइत छैक। हुनकर एक बहुत सुन्दर कथा छनि–‘हमर गाम’। कोसी–परिसरमे बसल लोकक जीवन–संघर्षकेँ ई अप्रतिम दस्तावेज थिक। एहि कथामे बस एकठाम, सेहो प्रसंगात्, एकटा स्त्री परमिलिया अबैत छै। एहि कथामे पुरूखक जीवन–संघर्षकेँ ओ बहुत जीवंत आ प्रामाणिकिअ विवरण देलनि अछि, ताहिमे कतहु पुरूख–देहक अलगसँ कोनो वर्णन नहि भेल छै। मुदा, जखन स्त्री अबैत अछि, आ सेहो श्रम करैत स्त्री, गहूमक बोझ उठा–उठा कऽ थ्रेसर लग पहुँचाबैत स्त्री, तँ कथाकारक नजरि ओकर श्रमपर नहि, ओकर देहपर पड़ैत छनि आ हुनकर शब्दावली देखी–‘कर जोबनक उभार पुरूष–सम्पर्कक साक्षी छै’। लगेगी हाथ ओ इहो बता जाइत छथि जे ई परमिलिया सूर्यास्तक बाद घास छीलए जाइत अछि कारण सन्ध्या–अभिसारकेँ ओकरा खगता छै। किए? एतेक ‘सेंसेनल’ ओ किएक होइत छथि जखन कि कथाकेँ एहन कोनो मांग नहि छैक, उनटे कथाक समेकित प्रभावकेँ ओ खंडित करैत छैक। ‘कनिया पुतरा’ कथामे ‘नेबो सन कोनो कड़गर चीज’ कथावाचकक बाहिसँ टकराइत छैक जे कि ‘लड़कीक छाती’ छिएक जकरा कथाकार ‘फुटैत जोबन’ कहलनि अछि। हमारा नोटिस केलहुँ अछि जे कथाकारक सुभाषक शब्दावलीमे आएल ई नवीन प्रभाव थिकियनि। आनो–आन अनेक शब्द, मोहावरा, कथन–भंगिमा नव तरहें हुनका कथामे आएल अछि। से सभ अधिकतर प्रामाणिक प्रभाव छोड़ैत अछि। मुदा गौरतलब थिक जे ओ ‘भिजुअलाइजेशन’मे हायपर सेंसेबल भेलाह अछि।
एहि सभ बातक अछैत, कैक कारणसँ सुभाषक ई कथा–संग्रह सदैव स्मरन कएल जाएत। एक तँ एहि कारणेँ जे मैथिलीक ई अप्रतिम कथाकार बीस बरख धरि लगातार चुप्प रहलाक बाद फेर कलम पकड़लक आ तकर परिणाम एहि संग्रहमे संगृहित भेल अछि। एहि बीचक अवधिमे मैथिली कथा–साहित्यक परिदृश्यमे बहुत बदला आबि गेल अछि। कथा आइ ठीक ओत्तहि नहि अछि जतए सुभाषक युगमे छल। बहुतो नव–नव चीज कथामे आएल अछि। एक संवेदनशील सर्जकक रूपमे सुभाष एहि सभ कथूक प्रति ग्रहणशील सेहो छथि। ओ स्वयं कहने छथि जे हुनक एहि दोसर दौरकेँ कथा सभमे अपेक्षाकृत बेसी सावधानी आ सजगता छनि। हमारा पबैत छी जे नितांत सजग रूपसँ सुभाषक साहित्य किछु एहन तथ्य लऽ कए आएल अछि जे अक्सरहाँ समकालीन लेखनमे अनुपस्थित पाओल गेल अछि। जेना, एक यथार्थवादी कथा–भाषाक वितान, जकर मास्टर सुभाष छथि। जेना, कथामे जीवनकेँ देखबाक एक दार्शनिक दृष्टिकोण, जाहिमे ततबा गहराई छै जे देखल जाए वला वस्तुकेँ अधिकिअ पारदर्शी बना दैत छैक। आ सभसँ जबरदस्त मोन राखल जाए वला चीज तँ छै–कोशी–प्रांगणक जीवन–संघर्षपर केन्द्रित हुनकर तीनटा कथा एहि संग्रहमे संगृहित छनि।
सुभाष कहियो कहने छला–‘जीवनक लेल जे नीक आ सुन्दर अछि, हमर कथा तकरे आग्रही अछि। हमर कथाक प्रेरणा जीवन–प्रेम अछि। जे कोनो चीज जीवन–विरोधी अछि, हमर कथा तकरा प्रति वितृष्णा उत्पन्न करैत अछि’।
से ठीके। कम करए, बेसी करए; भाषामे करए आ प्रतिफलनमे करए, सुभाषक कथा काज तँ जरूर सएह करैत अछि।
३.
बिपिनझा
श्रीः
॥ हे हृदयेश्वरी: एक कटाक्षालोचन ॥
गतांक सँऽ आगू...
जहिना उरस्थ हृदय के दू भाग होइत अछि-
· लघुमस्तिष्क
· महामस्तिष्क।
लघुमस्तिष्क शरीर सन्तुलन-गतिनियन्त्रण आदि कार्य करैत अछि ओतहि महामस्तिष्क मन, बुद्धि, चित्त आदि रूप में प्रथित होइत अछि।
अस्तु हृदयेश्वरी पद में विद्यमान ’हृदय’ स्वीकार करब उचित कियाक तऽ शिरस्थ स्वीकार करब उचित कियाक तऽ शिरस्थ हृदय आत्मा के आश्रयस्थान, चेतना क केन्द्र, पंचेन्द्रिय के आधार, बुद्धि के संग्रहस्थान, स्मृति केर संचालय, चित्तक आधार, जीवात्माक आश्रयभूमि, स्नायु केर केन्द्र होइत अछि। चिन्तन प्रेरणा आदि शिरस्थ हृदये सँऽ संभव छैक[2]। एहि बातक प्रमाण सुश्रुत सेहो दैत अछि[3]।
एहि शिरस्थ हृदय के स्वाशयानुकूल प्रेरित करबाक सामर्थ्य हृदय केर ईश्वरी अर्थात कान्तामात्र कय सकैत अछि। कदाचित एहि आशय के ध्यान में रखैत कहल गेल अछि काव्यप्रकाश[4] में जे काव्य अर्थात साहित्य केर बात कान्ता द्वारा कहल गेल वचनतुल्य होइत अछि जेकरा कखनहुँ उपेक्षित नहि कयल जा सकैत अछि। कियाक तऽ कान्ता में शिरस्थ हृदय के स्वामिगतगुण विद्यमान रहैत अछि जे प्रकृतिप्रदत्त अछि।
एतय समीक्षात्मक रूप सँऽ एतेकमात्र कहल जा सकैत अछि जे यदि ओ हृदयेश्वरी प्रकृति प्रदत्त स्वामिगतगुण क प्रयोग स्वाशयानुकूल करबाक अपेक्षा श्रेय-प्रेय एवं योग-क्षेम कें ध्यान में यदि रखैत करैत छथि तऽ ओ हृदय धन्य होयत। अस्तु प्रकारान्तरें हृदयेश्वरी पद आत्मसमर्पणतुल्य अछि जे पूर्णतः शिरस्थ हृदय सँ सम्बद्ध अछि नकि उरोभागस्थ हृदय सँऽ।
(स्नातक- ECC. Allahabad University, परास्नातक- Jawaharlal Nehru University, दर्शननिष्णात- Jawaharlal Nehru University, सम्प्रति Cell for Indian Science & Technology in Sanskrit, HSS, IIT Bombay में शोधरत। विस्तृत विवरण bipinjha.webs.comपर सुलभ।)
जट–जटिन लोकनाट्य रुपान्तर - राम भरोस कापडि ‘भ्रमर’
मंच पर प्रकाशक एउटा गोल घेरा डांरमे नगाडा बन्हने नट पर पडैत छैक । ओ नगाडा केसुरताल मे बजबैत रहैत अछि । दोसर प्रकाशक घेरा दहिन कात प्रवेश करैत नटी पर पडैत अछि। ओकरा संग घेरा नट लग धरि अवैत अछि । आव दुनू के उपर प्रकाशक धेरा छै । नट— (नटी के देखि प्रशन्न होइत) अहा,केहन सयंोग अछि ई,प्रिय अहांके देखल, नटिन—(नृत्याभिमूख मुद्रा प्रदर्शित करैत) जट जटाधर व्यग्र बनल हो, पार्वती कोना बैसल । नट— धन्य प्रिय अहां संग पुरै छी सदिखन हमर छी अंग नटिन— जनम—जनम धरि एहिना प्रियतम छोडब अहां के ने संग ।
नगाडा पर फेरस चोट पाडैत नटक हाथ चलैत अछि । रुकलाक वाद ।
नटिन— रंगमंच पर किए उपस्थित मनमे की फुरल अछि, आइ ककर उद्घाटन करबै, दर्शक खूब जूटल अछि । नट— मध्यकाल के प्रेमी युगल के खिस्सा कहब महान । जकरा नामे पानि बरसै इन्द्रहुक झुकै कमान । ।नटिन—(आश्चर्यक भाव व्यक्त करैत) नाम की थिक प्रेमी युगल के जनिक कीत्र्ति एहन अपार, नट— जटा जटिनकेर गाथा स प्रिय होइछ जगत उद्धार । नटिन— ई त महिला मात्र करै छै,नाचि नाचिकऽबेंग कुटै छै, नंगटिनी आंगन घैल फैकै छै,गारि सुनै छै,पानि मगै छै । नट— एह,अहां त ज्ञानी छीहे, साज बाज ओरिआउ नटिन, कुटु बेंग उखरि मे ध,आ शुभारंभ करु जट जटिन ।
हाली–हाली बरिसू इन्नर देवता । पानी बिनू पडल अकाल हो राम । चौर सुखले, चांचर सुखलै खेती बारी झारी सुखलै सूखि गेलै बाबाके जिराते हो राम । सूखि गेलै भइया के जिराते हो राम ।।
धोबियाके अंगनामे छापर छुपर पनियाँ चमराके आंगनमे छापर–छुपर पनियाँ ओहिमे नहाइ पुजारी बभने हो राम । धोतियो ने भीजलै जनौओ ने भीजलै –२ रचि रचि तिलक लगावै हो राम –२ भीजले तीतले हवेलिया ढुकलै –२ बहुअो लेलक लुलुआइये हो राम –२ रांडी मौगिया हरवा जोतै छै –२ पानी विनू पड़लै अकाले हो राम –२
दयो नहि लगइ छ हो इन्नर लोक मयो नहि लगइ छ हो इन्नर लोक पानी विनू पड़ल अकाले हो राम ।
हाली–हाली बरिसू इन्नर देवता –२ पानी विनु पडल अकाले हो राम –२ निरसू के धीया–पूता मांड ले कनइ छै खुद्दी ले कनइ छै, अन्न ले कनइ छै पानी बिनू पड़ल अकाले हो राम ।
गीत १ समाप्त भेलाक बाद मंच पर अन्हार । प्रकाश अएला पर महिला सभ समूह मे नचैत गबैत।
गीत २ महिला समूह
एगो छलै जट, एगो जटिनियाँ। दुनूमे हो गेलइ परेमे हो राम । दुनूके विआह केना रचैवै बसेबै हो गेलै माइ बापके विरोधे हो राम ।
नगाडा बजबैत एक दिशसं नटक प्रवेश । दोसर दिशस नचैत नटिनक प्रवेश । वीच मे आबि ठमकिजाइछ । नगाडा पर जोरस लकडी बजारि नट गबैत अछि । नट— एक्कै देश, एक्कै परगन्ना जट आ जटिन, जट गामक सुधुआ मनसा दोसर तेहने नटीन । नटी— (नृत्य रोकैत) की बजलहुं अहां फेरसं बाजु चुगली परोक्षे पीठ, अहां पुरुष के इएह ऐब अछि सदिखन नारी पर दीठ । रुसि जएबाक अभिनय नट—(मनबैत) जटक हयत विआह, प्रशन्न छी, हमर ने अहित मनसाय, आयल वरियाती साज वाज देखि जटिनक माय पछताय ।
गीत ३ समूह
जटक पक्ष – हम अनलियै आजन–बाजन, आब करु वियाह, –२ सांवरि गेरुली, कऽ दियौ जटाके बियाह –२
जटिन सारी राति रे जटवा, तोहरे बिछौनमा रे जटवा तोहरे लगीचवा रे ! जटवा भिनुसरवामे तोहरे मैया चौरौलकौ रे ।.....
जटिन टिकवा जब–जब मंगलियौ रे जटा, टिकवा काहे ने लौले रे ।। अरे वाली उमरिया रे जटबा, टिकवा काहे ने लौले रे ।। जट – टिकवा जब–जब अनलियौ गे जटिन, पौतीमेकऽ धएले गे । तोहर वाली उमरिया गे जटिन, टिकवा काहे न पेन्हले गे ।। जटिन – हँसुली जब–जब मंगलियौ रे जटा, हँसुली काहे ने लौलें रे । हमर वाली समैया रे जटबा, हँसुली काहे न लौले रे । जट हँसुली जब–जब अनलियौ गे जटिन, तक्खापरकऽ धएले गे तोहर वाली समैया गे जटिन, हँसुली काहे न पेन्हले गे ।
अन्हार । प्रकाश नट पर । नट — जट जटिन के वीच मे भैया खटपट बझल बेजोड बाबा के दुलारी धीआ, मनबय जट पुरजोड ।
गीत ६
जटिन – धनमा कुटइते जटवा, मारलक मुसरवेके मार । सेहो विरोगवे रामा जाइ छियै नैहरवा जट – निम्मन–निम्मन टिकवा जे लैलिये जटिन ले सेहो जटिनिया छोड़ि नैहरबा तों जाइ छे । जट – चीनमा छिटलियौ गे जटिनियां चीनमा छिटलियौ । तू जाइ छै नैहरवा चीनमा के कटतै गे ? जटिन मैयो कटतौ रे जटवा बहिनियां कटतौ रे । अबरी रे समइया हम त नैहरे गमैबै रे ।। जट – घिउरा फड़लौ गे जटिन, झिगुनी फड़लौ गे, तू चल जेबही नैहरवा, घिउरा के बेचतौ गे ? जटिन मैयो बेचतौ रे जटवा, बहिनियां बेचतौ रे । अबरी रे समइया सखी संग झूमर खेलबै रे ।।
अन्हार । पुनःप्रकाश नट पर पडैत ।
नट— लाख मनौलक जिद्दी जटिन, नैहर डेग बढौलक, नदीक धारमे पारक चिन्ता मलहवा के गोहरौलक ।
गीत ७
जटिन भैया मलहवा रे, नइया लगादे नदियाके पार थारी देबै एवा–खेवा लोटा देबौ इनाम भैया मलहवा रे उतारि दही झिमनापुरके घाट मलाह नहि हम लेबौ एवा–खेवा, नहि लेबौ इनाम । बहिनी बटोहिनी गे, खोजिले गे दोसर घटवार ।
ग्रामीण स्त्री अगे नहि लेबौ, नहि लेबौ तोहर कोय ने पुछै छौ दहिया । सिपाही हमहूँ त छियै गुवालिन, मालिकके सिपाही मारि डण्टा, फोड़ि के कोहा, खाय लेव दहि–दूधवा । जट – इहो मत जानिहे सिपाही असगर गुवालिन मारि कोहा तोड़व थुथना, राति रहौं कुंजवन, दिन बेचौं दहिया, घेघा सिपाहीके नइ देब दहिया कोय ले गे गहिकी बेची दहिया ।
अन्हार प्रकाश
गीत ११
जट – ससुरे भैसुरे मोर जाल बुनै ना अकसर बलमुआ मोरा माछ मरैना । माछ ले हे, माछ ले हे, गहिकी बेटी, माछ ले हे, माछ ले हे ।।
ग्रामीण स्त्री आहे कौने मछरिया केर गोढिन हे ? जट – आहे रेहुआ मछरिया केर गोढिन हे । ग्रामीण स्त्री आहे गहुम के कै खूटे माछ देवय हे ? जट – आहे, गेहुमा के तीन खूटे माछ देवय हे । ग्रामीण स्त्री – तोर मछरी बनबै नइ जानियौ धुए नइ जानियौ, खबैयाके खियावै नइ जानियौ धियापुता परबौधै नइ जानियौ गोढिनियां गे ।
अन्हार । पुनः प्रकाश नटपर ।
नट— खोजि खोजिकऽ थाकल जटवा जटिन विनु मुरझायल, तखने नजरि पर अएलै जटिनिया, असली रुप मे आयल । नटी— की बुझलिएै जटिन ओकरा हपसि क धरतै ना । मनमे गरल दरद छै नटबा, दुर दुर करतै ना ।
गीत १२
जटिन दूर दूर रे जटा । दूर रहिहें रे जटा सड़ल चाउर रे जटा । राख छाउर रे जटा । सड़ल तीमन रे जटा । दूर रहिहें रे जटा । दूर रहिहें रे जटा ।
जटिन जुलफी सम्हारैत चल अविहें रे जटा । धोतिया पेन्हैत चल अबिहें रे जटा ।
अन्हार । पुनः प्रकाश नट नटी पर नगाडाक धुन पर कनेक काल दुनू नचैत नट— कहैछै जे एहिना होइछै सांइ बौह के झगडा बीच मे पडि कऽ गामक लोक अनेरे बनैए लवडा । नटी— अपनो घर त सएह हाल अछि,अनका कोन उपदेश जटिनके दुलरुवा जटबा,आब चलल परदेश ।
जटिन मोरंग मोरंग सुनियौ हो जटा मोरंग देस जनु जाहु हो जटा मोरंग के पनियां कुपनियां छै हो जटा लागि जयतौ कोढ करेज हो जटा । उलटियो ने आवे देतौ हो जटा पलटियो ने आबे देतौ हो जटा रहि जाही रे जटा नैना के हजूर ।
जट– तोहरे ले लेवौ जटिन मोरंग से टिकवा ओही मे झमकाइ तोरा देखव से जटिन मोरंग हमरा जाय दही गे जटिन । मोरंग हमरा जाय दही गे जटिन ।
जटिन अते जे कमैले जटा की भेलौ ना सुनु मोर जटवा, जटिनके मंगवा उदास लागे ना
जट – टिकवा जब जब लौलियौ गे जटिन टिकवा काहे ने पेन्हले गे जटनी गे सभामे ललचौले गे टिकवा विनु ।
जटिन जाहो ते जाहो रे जटवा, देस रे विदेस, मोरंग क टिकवा लेने आवहु हो रा
अन्हार । पुनः प्रकाश नट पर । नट— मान मनौबल कऽ कऽ जटवा गेलै मोरंग कमाय, एम्हर बेटा भेलै वेमार,जटिनियां वैद्यसं पुछए उपाय ।
गीत १४
जटिन रघुदासके अँगा–टोपी, रघुदासकेँ अंगा–टोपी तोहरे देवौ रे बैदा, तोहरे देवौ रे वैदा रघुदास के दियौ न जिआय ।
जटिन रघुदास के हाथके बलिया, रघुदासके हाथ के बलिया तोहरे देवौ रे वैदा, तोहरे देवौ रे वैदा रघुदास के दियौ ने जिआय ।
वैद – रघुदास के हाथ के बलिया, रघुदासके हाथ के बलिया, हमे की करबै गे दिदिया, हमे की करबै गे दिदिया रघुदास त सड़ले गेन्हाय ।
अन्हार । पुनः प्रकाश नट पर । नट— बेटवा भेलै चंगा, मनमे जटवा बसलै ना, जटवा के वियोगे जटिनियां अहुरिया काटै ना । नटी— चललै पिया उदेश जटिनियां,दर दर भटकै ना,हो रामा,दर..... कोने पापे पिअबा बिछुडलै कि दुनियां बिजुबन लागै ना,हो रामा,दर....। गीत १४ क( थपल गेल) जटिन हे रे सोनरबा भाय, कही दही जटबाके उदेश जहिया से गेलै निरदैया, नै कोनो संदेश पल पल काटे राति अन्हरिया,दिनो लगे भयाओन नै चाही मंगटीका कंगना,पिअबा अपन सोहाओन । हे रे..........। सोनार हे गे जटिनियां दाय,छोड जटके आस, गरबा जोखि जोखि हंसुली पेन्हैबौ,चल हमरे साथ । जटिन हे रे सोनरबा भाय,रे अगिया लगैबौ तोरे हंसुलिया बजर खसैबौ तोरे साथ । रे मोर पटा पुरबे नोकरिया रहबै पटे के आस । बरह बरस हम आंचर बान्हि रहबै रहबै जटे के आस । रे तोरास सुन्नर हमरो जटबा ब्टिया चलैत लचि जाय रे तोरास सुन्नर हमरो बलमुआ चन सुरुज छपि जाए ।
थाकि हारि क जटिन अपन घर आबि जाइत अछि ।ओसारा पर ओगठि जटक स्मरण करैत हिंचुकिहिंचुकि कानए लगैछ ।
गीत १५
जटिन जाहि बाटे पियवा गेलै, दुभिया जनमि गेलै बटिया जोहइते वीजूवन लागल रे की । आहे मइया । पियवा मोरंग गेलै, हमरा से कही गेलै, आहे दिदिया । फूल लागल कंगना लेने अइथिन हो राम । मांगे के टिकबा लेने अइथिन हो राम । रचि रचि जटिनके पेन्हयथिन हो राम । जट बिनु लागे दुनियाँ अन्हारे हो राम
बेटा सेहो घरस बाहर आबि माय संगे हिंचुक लगैछ । तखने दहिन कातस माथपर मोटरी लेनेजटक प्रबेश । लगमे आबि घरबाली आ बेटाके एकटक देख लगैछ ।प्रकाशक घेरा दुनू पर फूटफूट पडैत छैक ।दुनू चरित्र स्थीर भ जाइछ । प्रकाशक घेराक संग नट नटिनक प्रबेश ।
(नट नगाडा के सुर तालमे बजबैछ । नटिन सुरताल पर नाच लगैछ । नट के चारु कात गोलघेरामे नटिनक नृत्य )। नटी वारह बरिस पर पिअबा अएलै दुअरिया हे जटिन के खातिर । त्यागी देलकै मोंरंग नगरिया हे । जटिन के खातिर । नट चलियौ ने आब नटिन अपन एकचरिया हे । जटिन के खातिर । चमक दियौ मिलन के इजोरिया हे जटिन के खातिर । दुनु नचैत नचैत मंचस बाहर चलि जाइछ ।आब स्थीर चरित्र चलायमान भ उठैछ । ओम्हरप्रकाशक घेरामे जटिन अकानैत जटक लग अबैछ । खुशी सं आंखि छल छला जाइछ । पयर पर झूकिप्रणाम करैछ । माथ परक मोटरी, छाता लऽ घर दिश बढि जाइछ । जट बेटा के छातीस सटा लैछ। जटिन पानि लऽ अवैत अछि, जट पयर पखारैछ । दुनू एक दोसराके आगां ठाढ भऽ नोरायलआंखिए एक दोसराके देखैत अछि । गीत नं.५ क एक टुकडीक पुनरावृति होइछ ।
गीत ५के पुनरावृति
जटिन टिकवा जब–जब मंगलियौ रे जटा, टिकवा काहे ने लौले रे ।। अरे वाली उमरिया रे जटबा, टिकवा काहे ने लौले रे ।। जट – टिकवा जब–जब अनलियौ गे जटिन, पौतीमेकऽ धएले गे । तोहर वाली उमरिया गे जटिन, टिकवा काहे न पेन्हले गे ।।
जट जेवीसं लाल डिव्वा निकालैत अछि । ओकरा खोलि मंगटिका बहार कऽ जटिन कें पहिरा दैछ। दुनू नृत्य मुद्रा मे आवि जाइछ ।
गीत १६
आरे बाली उमेरिया रे जटबा टिकबा हम पहिरलौं रे टिकबा हम पहिरलौं रे रे जटबा टिकबा हम पहिरलौं रे आरे बाली उमेरिया रे जटबा टिकबा हम पहिरलौं रे
प्रदीप- नहि यौ। हमरा तँ बड नीक लागि रहल अछि बाबाजी बननाइ कोनो खराब बात अछि, बड़ नीक बात अछि। सिरिफ एकटा हमर विनती अछि जे बाबाजी धर्मक पूर्ण पालन करब आओर मरितहु दम धरि भ्रष्ट नहि होएब।
दीपक- सर, अपने बड अनुभवी व्यक्ति थिकहुँ। एहेन अनुभवी व्यक्ति ओ वार्ड सदस्य आइ काल्हि भेटब कठिन। सर, हम अपनेक प्रत्येक सलाहकेँ पूर्ण करबाक हार्दिक प्रयास करब।
प्रदीप- दीपक बाबू, आब चलबाक आज्ञा देल जाउ। जय राम जी की। (उठि कऽ प्रस्थान)
दीपक- जय राम जी की। (उठि कऽ) हम चाहैत छी जे शुरूए लगनमे मोहनक बिआह कऽ ली। कने कम्मो सम्मो दहेज भेटत तँ कोनो बात नहि। मुदा कुल कन्या नीक होएबाक चाही।
कथाकार ग्राम्य जिनगीक चित्रणमे माहिर छथि आ हुनका ग्राम्य-जीवनक अनुभवक बखाड़ी छन्हि। कुम्हारक सामग्रीक विवेचन देखल जाए- ‘कूड़, हाथी, ढकना, कोशिया, दीप, पांडव, गणेश, लछमी, मटकूर, छांछी, डाबा, घैल, सामा-चकेबा, पुरहर, अहिवात, कोहा, फुच्ची, सीसी, सरबा, सीसी, भरहर, आहूत, धुपदानी, पात्तिल, तौला, मलसी....।’ ओहिना बावी कथा मिथिलाक पर्व त्योहारक विस्तृत आख्यान अछि। कखन कोन पर्व होएत ओकर विधि-विधान बावीक माध्यमसँ व्यक्त होइत अछि। सभसँ आश्चर्यक गप्प जे सजीव चित्रण कथाकार केने छथि। कथाक अंतमे ई नै बुझना जाइए जे हम छठि पावनिक घाटपर उपस्थित नहि छी। छठिक मर्यादा आ शुद्धतापर सभसँ बेसी धियान देल जाइत छैक तेँ ओहु घटनाकेँ कथाकार पकड़ि नेने छथि।- “बाबी देखथुन जे ई छौँड़ा तेहन अगिलह अछि जे हाथीकेँ पटकि देलकै। ई तँ गुण भेल जे एकेटा टांग टुटलै नै तँ टुकड़ी-टुकड़ी भऽ जाइत।”
प्रस्तुत कथा संग्रहमे सभ कथा अपन-अपन विशेषता रखैत अछि आ सभ कथाक समस्या भिन्न अछि। सबहक समाधान अछि। कथ्य भिन्न आ वस्तु विशेष नव-नव।
कथाक शीर्षक कथासँ संबंधित आ भाषा जन- जनभाषा अछि। अधिसंख्य लोक जे भाषा बजैत अछि टीसनपर, हाटपर, यात्रामे, गाममे आ घरमे, से भाषाक प्रयोग अछि। विषय-बस्तु आ भाषा बीचक संबंध ई स्पष्ट करैत अछि जे कथाकार जमीनी हकीकतकेँ उपस्थित केलनिहेँ। मैथिली साहित्य लेल ई एकटा सौभाग्यक बात थिक।
कथामे वर्णनात्मक शैली रहितहुँ कतओ कतओ कथाकार कथोपकथनक प्रयोग सेहो केने छथि। कथाक विश्वसनीयता आ साधारणीकरण प्रक्रियामे आवश्यक तत्व एकटा एकरो अहमियत होइत अछि मुदा कथाकारकेँ हम सचेष्ट करए चाहब जे पात्रक भाषा पात्रक शैक्षिक स्तरसँ सम्बद्ध रहने, ओकर मानसिकता, परिवेशसँ मेल खाइत होमक चाही।
कथाकारकेँ हम धन्यवाद देवनि जे हिनकर कथा रातिक बाद अकासमे चमकैत भोरूकबा अछि। जयशंकर प्रसादक शब्दमे- “तुमुल कोलाहल कलह मे, मैं मलय की बात रे मन।” अछि।
२
अनमोलझा
४ टा लघुकथा
समाज
ओ अपने बेचारा गृहस्थ आदमी छला। बेटा सभ बाहर कमाइत छलनि मुदा तेहन स्थिति ठीक नहि छलनि। तथापि भगवानक दयासँ सभटा ठीके–ठाक चलि जाइत छलनि।
कखन ककर कोन गति हैत से भगवाने जनैत छथि। आ से बेचारा जाहियासँ पुतहु फाँसी लगा मरि गेलनि, आ बेटी बला हिनका सभो गोटापर केश ठोकि देलक, तहियासँ कोट; कचहरी आ दरभंगा–पटना करैत–करैत पायरक एँड़ीक सङ हाथक स्थिति सेहो खराप भऽ गेलनि।
समाज बड़ पैघ होइत छैक, हम सभ पढ़नेहो छी जे मनुष्य एक सामाजिक प्राणी थिक, ओकरा यदि जंगलमे सभ सुख सुविधा दऽ देतै आ समाज सँ सम्पर्क नहि रहए देतै तँ ओ नहि टीक सकत। तै समाजक एकटा अपन अलग महत्व आ मर्यादा छैक। बेर–कुबेर सभमे समाजे–समाजक काज दैत छैक। आ से हिनको हठात किछु पाइक काज पड़लनि। अपन डॉड़ मुट्ठी तँ पहिने खाली भऽ गेल छलनि। गेलाह घरक सटले, दू–चारि घरक बाद इंजिनियर साहेब ओतए। दस हजारक याचना केलनि आ ओ कहलखिन हमरा हाथपर नहि अछि, बहुत दिन रहि गेलउ गामपर, हमारा काल्हि जाइत छी काजपर ओतएसँ पठा दैत छी। आ ओ गेलापर ठीके पाइ आएल रहै इंजिनियर साहेबक बाबू नामे।
जखन ई आनए गेलाह तँ हुनकर बाबू गाछ तरक खेतक कागत बना ओहिपर औठा देमए कहलखिन! बेचारा ओ कजरौटी आ सादा कागत देखि आर एकटा चिंतामे फँसि गेल छलाह..........!!
रिटर्न
-कहलउ ने बाबू, एहिसँ बेसी पाइ हमरा बुते नञि देल पार लागत। बाहरक खर्चा, धीया-पुताक पढ़ाइ-लिखाइ आ ताहिपर ई महंगी, कतएसँ आनब हम।
-महंगीयेक द्वारे कहैत छियौ ने जे तू जे पठबै छै पाइ ताहिमे गामपर घर नञि चलै छउ।
-चलत किए नञि। कोनो की गामपर धीया-पुता पढ़ै बला अछि जे ओहोमे खर्चा लागत। हमरा तँ सेहो नञि करए पड़ैत अछि।
-जे तोरा आइ करए पड़ैत छउ से हमरा बहुत पहिने करए पड़ल रहए तोरा पढ़ाबैमे। ओ पाइ जे हमारा तखन राखि देने रहितउ तँ निश्चय तोरा सँ नीक रिटर्न भेटितै हमरा। हँ तखन ई जरूर होइतै जे तू मनुक्ख नञि बनितै......!
ओकरा बॉसक बाँहिपर एकटा छोट सन सादा स्पॉटछलै। ओ अपन असिस्टेंटक फाँक समयमे बजेलक आ कहलकै–देखहिन तँ ई की छियै।
असिस्टेन्ट ओकर हाथ पकड़ि कऽ घुमाक–फिराक, छू कऽ आदि–आदि भावे देखलक। आ कहलकै किछु नहीं सर, ई ओहिना किछु छी, दू–चारि दिनमे ठीक भऽ जाएत।
बॉस जोरसँ कहलकै–हम एकरा दस सालसँ एहिना देखि रहलियैहे आ तू कहै छै जे दू–चारि दिनमे ठीक भऽ जाएत?
असिस्टेन्ट आर विश्वाससँ कहलक–तखन सर किछु नहि छी, ओहिना किछु भऽ गेल अछि। कोनो चिंताक बात नहि। से सभ रहितए तँ एखन पसरि ने गेल रहितए ई। बॉसकेँ लगलै जे असिस्टेन्ट तेल लगा कए चलि गेल ........!
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"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका http://www.videha.co.in/:- सम्पादक/ लेखककेँ अपन रचनात्मक सुझाव आ टीका-टिप्पणीसँ अवगत कराऊ, जेना:- 1. रचना/ प्रस्तुतिमे की तथ्यगत कमी अछि:- (स्पष्ट करैत लिखू)| 2. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो सम्पादकीय परिमार्जन आवश्यक अछि: (सङ्केत दिअ)| 3. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो भाषागत, तकनीकी वा टंकन सम्बन्धी अस्पष्टता अछि: (निर्दिष्ट करू कतए-कतए आ कोन पाँतीमे वा कोन ठाम)| 4. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो आर त्रुटि भेटल । 5. रचना/ प्रस्तुतिपर अहाँक कोनो आर सुझाव । 6. रचना/ प्रस्तुतिक उज्जवल पक्ष/ विशेषता| 7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।
अपन टीका-टिप्पणीमे रचना आ रचनाकार/ प्रस्तुतकर्ताक नाम अवश्य लिखी, से आग्रह, जाहिसँ हुनका लोकनिकेँ त्वरित संदेश प्रेषण कएल जा सकय। अहाँ अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर सेहो पठा सकैत छी।
"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/ पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि। मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि। अपन टीका-टिप्पणी एतए पोस्ट करू वा अपन सुझाव ई-पत्र द्वारा editorial.staff.videha@gmail.com पर पठाऊ।
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