१. संपादकीय संदेश
२. गद्य
३. पद्य
३.६.१.चन्द्रशेखर कामति- दूटा गीत २.राजेश मोहन झा- पद्य ३.किशन कारीग़र- गलचोटका बर
३.७.गंगेश गुंजन- ३ टा गजल-पद्य
४. मिथिला कला-संगीत-१.श्वेता झा चौधरी-काली माँ २.ज्योति सुनीत चौधरी ३श्वेता झा (सिंगापुर)
5. बालानां कृते-राजेश मोहन झा- कविता- मूड़नक भोज
6. भाषापाक रचना-लेखन -[मानक मैथिली], [विदेहक मैथिली-अंग्रेजी आ अंग्रेजी मैथिली कोष (इंटरनेटपर पहिल बेर सर्च-डिक्शनरी) एम.एस. एस.क्यू.एल. सर्वर आधारित -Based on ms-sql server Maithili-English and English-Maithili Dictionary.]
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भारतीय डाक विभाग द्वारा जारी कवि, नाटककार आ धर्मशास्त्री विद्यापतिक स्टाम्प। भारत आ नेपालक माटिमे पसरल मिथिलाक धरती प्राचीन कालहिसँ महान पुरुष ओ महिला लोकनिक कर्मभूमि रहल अछि। मिथिलाक महान पुरुष ओ महिला लोकनिक चित्र 'मिथिला रत्न' मे देखू।
गौरी-शंकरक पालवंश कालक मूर्त्ति, एहिमे मिथिलाक्षरमे (१२०० वर्ष पूर्वक) अभिलेख अंकित अछि। मिथिलाक भारत आ नेपालक माटिमे पसरल एहि तरहक अन्यान्य प्राचीन आ नव स्थापत्य, चित्र, अभिलेख आ मूर्त्तिकलाक़ हेतु देखू 'मिथिलाक खोज'
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१. संपादकीय
पञ्जीमे आर्यभट्टक विवरण- (२७) (३४/०८) महिपतिय: मंगरौनी माण्डैर सै पीताम्ब र सुत दामू दौ माण्ड्र सै वीजी त्रिनयनभट्ट: ए सुतो आर्यभट्ट: ए सुतो उदयभट्ट: ए सुतो विजयभट्ट ए सुतो सुलोचनभट (सुनयनभट्ट) ए सुतो भट्ट ए सुतो धर्मजटीमिश्र ए सुतो धाराजटी मिश्र ए सुतोब्रह्मजरी मिश्र ए सुतो त्रिपुरजटी मिश्र ए सुत विघुजटी मिश्र ए सुतो अजयसिंह: ए सुतो विजयसिंह: ए सुतो ए सुतो आदिवराह: ए सुतो महोवराह: ए सुतो दुर्योधन सिंह: ए सुतो सोढ़र जयसिंहर्काचार्यास्त्रस महास्त्र विद्या पारङगत महामहोपाध्या य: नरसिंह:।।
म.म.गोनू झा 1050-1150
करमहे सोनकरियाम गोनू झाक वर्णन पञ्जीमे अछि- महामहोपाध्याय धूर्तराज गोनू। पञ्जीक अनुसार पीढ़ीक गणना कएलासँ गोनूक जन्म (गोनूक सोनकरियाम करमहे-वत्समे २४म पीढ़ी चलि रहल अछि) आर्यभट्टक बाद (आर्यभट्टक माण्डर-काश्यपमे ३९ म पीढ़ी चलि रहल अछि) आ विद्यापतिक पहिने (विद्यापतिक विषएवार बिस्फी-काश्यपमे १४म पीढ़ी चलि रहल अछि) लगभग १०५० ई.मे सिद्ध होइत अछि। कारण एहि तरहेँ एक पीढ़ीकेँ ४० सँ गुणा केला सँ आर्यभट्टक जन्म लगभग ४७६ ई. आ विद्यापतिक जन्म लगभग १३५० ई. अबैत अछि जे इतिहाससम्मत अछि।गोनू झाक गाम भरौड़ाक राजकुमार, "बहुरा गोढिन नटुआ दयाल" लोककथाक मलाह कथानायक। भरौड़ामे एखनो हिनकर गहबर छन्हि।
महाराज हरसिंहदेव : मिथिलाक कर्णाट वंशक। ज्योतिरीश्वर ठाकुरक वर्ण-रत्नाकरमे हरसिंहदेव नायक आकि राजा छलाह। 1294 ई. मे जन्म आ 1307 ई. मे राजसिंहासन। घियासुद्दीन तुगलकसँ 1324-25 ई. मे हारिक बाद नेपाल पलायन। मिथिलाक पञ्जी-प्रबन्धक ब्राह्मण, कायस्थ आ क्षत्रिय मध्य आधिकारिक स्थापक, मैथिल ब्राह्मणक हेतु गुणाकर झा, कर्ण कायस्थक लेल शंकरदत्त, आ क्षत्रियक हेतु विजयदत्त एहि हेतु प्रथमतया नियुक्त्त भेलाह। हरसिंहदेवक प्रेरणासँ- आ ई हरसिंहदेव नान्यदेवक वंशज छलाह, जे नान्यदेव कार्णाट वंशक १००९ शाकेमे स्थापना केने रहथि- नन्दैद शुन्यं शशि शाक वर्षे (१०१९ शाके)... मिथिलाक पण्डित लोकनि शाके १२४८ तदनुसार १३२६ ई. मे पञ्जी-प्रबन्धक वर्तमान स्वरूपक प्रारम्भक निर्णय कएलन्हि। पुनः वर्तमान स्वरूपमे थोडे बुद्धि विलासी लोकनि मिथिलेश महाराज माधव सिंहसँ १७६० ई. मे आदेश करबाए पञ्जीकारसँ शाखा पुस्तकक प्रणयन करबओलन्हि। ओकर बाद पाँजिमे (कखनो काल वर्णित १६०० शाके माने १६७८ ई. वास्तवमे माधव सिंहक बादमे १८०० ई.क आसपास) श्रोत्रिय नामक एकटा नव ब्राह्मण उपजातिक मिथिलामे उत्पत्ति भेल।
मंत्री गणेश्वर: मिथिलाक कर्णाट वंशक नरेश हरसिंहदेवक मंत्री। सुगतिसोपानमे मिथिलाक सांवैधानिक इतिहासक वर्णन
महाराज नान्यदेवमिथिलाक कर्णाट वंशक 1097 ई. मे स्थापना। 1147 ई. मे मृत्यु। मल्लदेव मिथिलाक कर्णाट वंशक संस्थापक नान्यदेवक पुत्र। मिथिलाक गंधवरिया राजपूत मल्लदेवकेँ अपन बीजीपुरुष मानैत छथि।
कोनो एकटा सुपरिचित युवा रंगकर्मी के प्रदान करत । एहि सम्मान मे सम्मानित रंगकर्मी केँ 5100/- टाका आ स्मृति चिह्न संग सम्मान पत्र सेहो प्रदान कयल जेतनि । ई सम्मान समारोह वर्षक अंतिम महीना मे आयोजित करबाक योजना अछि ।
(विदेह ई पत्रिकाकेँ ५ जुलाइ २००४ सँ एखन धरि १०७ देशक १,५७१ ठामसँ ५१,०७७ गोटे द्वारा विभिन्न आइ.एस.पी. सँ २,७२,०८२ बेर देखल गेल अछि; धन्यवाद पाठकगण। - गूगल एनेलेटिक्स डेटा।)
गजेन्द्र ठाकुर
२. गद्य
बिलाड़ि
हम जइ घरमे सुतै छी, तकर पछिला देबालमे बड़ी टा खिड़की अछि। ताहिसँ बाहर एक टा छहरदेवाली। ओइ छहरदेवाली पर कैक टा मैना एक संगे क्रिक्-क्रिक् करैत चहचहा उठल। हम गाढ़ नीनसँ सूतल रही। एक टा अत्यन्त मनोहर सपना देखैत रही। नीन टूटि गेल। सपना भखरि गेल।
हमर नीन बड़ दुलारू अछि। बहुत रास मान-मनौवलि केला पर अबैत अछि। तें ककरहु कोनो आचरणसँ काँच नीन टुटै’ए, तँ ओकरा पर बड़ तामस होइ’ए। नीन टूटि गेल, सपना टूटि गेल। ओइ भोर बड़ जोर तामस चढ़ल। नीन नँइ टुटितए त’ एखन आधेक घण्टा आओर सुतितौं। नीनों पूर भ’ जइतए, आ सपनो पूर भ’ जइतए।
ई जनितो, जे सपना, सपने होइ छै, वास्तविकतासँ ओकरा कोनो सरोकार नँइ रहै छै, अहू वयसमे हमरा सपनासँ तरुणाइए जकाँ आकर्षण रहैत अछि। वास्तविक जीवनमे तँ वस्तुतः लोक विपत्तिक पहाड़ उघैत रहै’ए। सत्य पूछी तँ ओ विपत्ति मनुष्यक स्वप्नलोक धरि पर राज कर’ च’ल अबैत अछि। एहेन विकराल समयमे मनोहर सपना देखब कोनो उपलब्धिसँ थोड़ कहाँ होइत अछि!...
से कहैत रही नीन टूटि गेल। सपना टूटि गेल। मैना-मैनी किलोलह मचा कए नीन तोड़ि देलक, सपना छीन लेलक। बड़ जोर रंज चढ़ल। मुदा ककरा पर तमसबितहुँ? मैनाकें की कहितिऐ? ओकरा हमर, आकि हमर नीन टूटि जेबाक कोनो खबरिओ कहाँ रहल हेतै? हमर रंजसँ ओकरा कोनो भय कहाँ होइत हेतै?
क्रिक्-क्रिक्...के ताबड़तोड़ ध्वनिसँ धड़फड़ा क’ उठलहुँ। आँखि मीड़ि क’ खिड़कीक ओइ पार देखलहुँ। अचानक तामस निजा गेल, आ दृश्य नीक लागए लागल। कैक टा मैना रहै। हठात चहचही बन्द भ’ गेलै। सबटा मैना एकाएकी ओतएसँ सहटि गेल। मात्रा दू टा रहि गेल। दुनूक आवाज क्रमे-क्रमे मधुर होअए लगलै। दुनू अपन-अपन लोलसँ एक दोसरकें गुदगुदी लगबए लगलै। पक्षी-विज्ञानी त’ नँइ छी, तें सामान्यतया पक्षीमे न’र-मादाक ज्ञान हमरा नँइ होइत रहै’ए, मुदा एक टा भ्रम हमरा सदति काल बनल रहै’ए, जे मनुष्यक अलावा समस्त जीवमे, सोहनगर आ मोहक बगए-बानि प्रायः न’रे के होइ छै। पता नँइ, हमारा ई भ्रम किऐ होइ’ए।...ओहू दिन अही भ्रमक आधार पर बुझाएल छल जे अइ दुनूमे सँ एक टा न’र थिक, एक टा मादा। दुनू प्रेमी-प्रेमिका थिक भरिसक। प्रेम क’ रहल’ए। बेरा-बेरी दुनू एक दोसरकें गुदगुदी लगबैक अवसर द’ रहल छलै। एक के गुदगुदीसँ दोसर हँसैत-हँसैत कनेक दूर धरि कुदकि कए पड़ा जाए; फेर दोसर सोह लगा क’ आबए आ पहिलकें गुदगुदी लगाबए। विलक्षण दृश्य लगै छल।...
कतेक उन्मुक्त होइत अछि पक्षी। जखन चाहैत अछि, जतए चाहैत अछि, प्रेम क’ लैत अछि! कते नीक होइत अछि पक्षी समाज, जखन दू टा पक्षीकें प्रेम करैत देखलक, बाकी सब आस्ते-आस्ते टहलि गेल। अइ दुनूकें नीरव एकान्त द’ क’ स्वच्छन्द प्रेम करबाक अवसर द’ देलक। मुदा केहन होइत अछि मनुक्खक समाज, दू गोटए प्रेम करै’ए, तेसरकें खौंत बाड़ए लगै छै; कुल-मर्यादा, मान-सम्मानक नाम पर, जाति-धर्मक नाम पर ओकर हत्या क’ दै’ए। पहिलुका जमाना जकाँ आजुक मनुक्ख इच्छा रूपधारी होइतए, तँ अवस्से ओ प्रेम करबा लए क्रौंच-क्रौंची बनि जइतए, आ अही मैना-मैनी जकाँ रमण करितए। क्रौंच-क्रौंचीकंे तँ नँइ देखने छी। मुदा अइ दुनूक रासलीला देखि कए लगै’ए ओहो अहिना करैत रहल होएत, आ दोसर दिशसँ व्याधा आबि गेल होएतै। दुनूक अनुराग लगातार बढ़ल जा रहल छलै। आब दुनू गुदगुदीक खेल, मखौल, हास-परिहास छोड़ि कए निकट भ’ गेल छल। साँस रोकि कए हम एकटक देख’ लागल रही। दुनू एक दोसरसँ गरदनि मिला रहल छल...प्रायः दुनूक उत्तेजना तीव्र होइत जा रहल छलै...
छपाक्...! ज्जाः! रंगमे भंग भ’ गेलै!
अचानक बगलबला मकानक छज्जीसँ एक टा बिलाड़ि झपट्टा मारलक। मुदा ओइ दुष्ट बिलाड़िक दुष्टता पूर्ण नँइ भेलै। एकटा प्रेमकथाकें देखबाक हमर तल्लीनता अइ वज्राघातसँ टूटि कए बिखरि गेल छल; मुदा मैना-मैनीक सतर्कतासँ अत्यन्त प्रसन्नता भेल। ओही प्रसन्नताक कसोहमे हम अपन सपनामे घुरि आबए चाहैत रही। मुदा सपना देख’ लेल तँ फेरसँ नीन चाही, से तँ अछिए नँइ...!
मैना-मैनीक प्रेमकें लाख-लाख शुभकामना, ओइ बिलाड़िकें परम धिक्कार!...
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२
मोटर साइकिल
पहिले बेर जहिया भौजीकें देखलिअनि, हमर आँखिक आकार ओही दिनसँ बढ़ि गेल। ओइसँ पहिने एते सुन्नरि स्त्री हम कोनो फोटोओमे नँइ देखने रही। तकिते रहि गेल रही थोड़े काल धरि--बाप रे! ई सौन्दर्य! ई नाक-नक्श, एहन केश, एहन भौंह, एहन आँखि, एहन ठोर, एहन बाँहि, एहन अँगुरी! छूबि क’ देखतिअइ कने!...
मुदा एहि तरहें अखियासि कए देखबाक हमर करतबकें भौजी लक्ष्य क’ गेल रहथि, से हम ग’र केने रही। कोनो हाट-बजार रहितै तँ थोड़े काल भरिसक आओर हम देखैत रहि जैतौं। मुदा हम तँ अपन बरिष्ठ सहकर्मीक घ’रमे बैसल छलहुँ, आ हुनकर पत्नीकें देखि रहल छलहुँ। सन्तृप्त सौन्दर्यसँ तराशल भौजीक रूप-राशि भूख-पियास हरण करैबला छल। प्रसन्न होइथ त’ सिंगरहारक फूल बरसए, बिहुँसथि त’ बिजलौका चमकि जाए, हँसथि त’ जलतंरगक रागिनी पसरि जाए, सन्तूरक ध्वनि उमरि उठए, चलल आबथि त’ लागए जेना दुनियामे कोनो शुभ मुहूर्त्तक प्रवेश भ’ रहल अछि। लगमे ठाठ होथि, त’ लागए जेना कोनो अनन्त सुखक झमटगर छाहरिमे बैसल छी, आँखि उठा क’ ताकि देथि त’ ओइमे डूबि क’ कलमच सूति रहबाक इच्छा करए। तपस्वी, मनस्वीक समाधि हिला देब’वला देह सौष्ठव, आ कान्तिमय मुखमण्डल गढ़’मे विधाताकें कते समय लागल हेतनि! विधाता भरिसक बड़े मनोयोगसँ फुरसतिक क्षणमे हिनकर रचना केने हेताह। बाघ-सिंह सन खूँखार जानवर धरि हिनकर सौन्दर्य आ हिनकर व्यक्तित्वक सम्मोहनसँ वशीभूत भ’ जा सकैत अछि।
एहने सौन्दर्य आ एहने व्यक्तित्वक सुकामा स्त्रीकें एक बेर पटनामे गाँधी मैदान बस स्टैण्ड पर देखने रही। वियोगीक संगें हम सहरसा जाइवला बसमे चढ़ल रही। एकटा स्त्री आबि कए हमर अगिला सीट पर बैसल। दुइए पल बाद ओ उठि गेल, बससँ उतरि गेल। हम कोनो जादूक अधीन बिना किछु बजने ओकर पाछू लागि गेलौं। वियोगी हमर अनुशरण केलक। बादमे वियोगी सबटा खेरहा सुनौलक। ओइ काल ओ हमरा बाधित नँइ करए चाहै छल। ओ स्त्री राँची जाइबला बसमे बैसि गेल। हम बगल बला सीट पर बैसि कए ओहि स्त्रीकें एकटक निहारैत रहलहुँ। मन्त्रमुग्ध भेल। पता नँइ ओइ स्त्रीकें देखि की की सोचैत रहलहुँ। बस स्टार्ट भेल, राँची दिश विदा भ’ गेल। वियोगी हाथ पकड़ि क’ घिचैत बाजल--ओकरा संगें राँची जाइ के छौ?...
हमर भक्क टूटल। लजा गेलहुँ, फेर दुनू गोटए हँसैत पानक दोकान दिश गेलहुँ। कतोक दिन धरि वियोगी चौल करैत रहल...। सोचै छी, ओ स्त्री भैजिए त’ ने रहथि...! हिनको नैहर राँचीयेमे छनि।
भौजीक मतलब हमर कोनो सहोदर अथवा अन्य पारम्परिक सम्बन्धें जेठ भाइक पत्नी नँइ! तइ अर्थें देखी त’ हम परम अभागल। सौंसे कुल-खानदानमे अपना पीढ़ीमे सबसँ जेठ हमही छी। कोनो पितियौत, पिसियौत, मसियौत, ममियौत हमरासँ जेठ नँइ छथि। तें हमरा जीवनमे अइसँ पहिने दीयर-भाउजक सम्बन्धक रंग ओतबे छल, जतबा अनुमान कएल जा सकै छल, अथवा यारी-दोस्तीमे लोकक मुँहें सुनल छल। एतए आबि क’ हमरा लेल भौजीक अर्थ बड्ड विराट भ’ गेल। भौजीक मतलब भौतिक विज्ञानक परम यशस्वी अध्यापक प्रोफेसर तापस चक्रवर्तीक सुकामा, नयनयभिरामा पत्नी सुवर्णा।
प्रोफेसर तापस चक्रवर्ती विलक्षण लोक छथि, जेहने सुयोग्य अध्यापक, तेहने श्रेष्ठ मनुष्य। कर्मनिष्ठ एहेन जे आइ धरि कोनो छात्रकें हुनकासँ कोनो शिकाइत नँइ भेलनि। धुरझार ट्यूशन चलै छनि, मुदा तें शहरमे कियो ई नँइ कहताह जे ट्यूशनक कारणें कॉलेजमे गैरहाजिर रहै छथि, अथवा क्लासमे पढ़बै काल कोताही करै छथि। वयसमे हमरासँ दसेक बर्ख पैघ हेताह, मुदा से कहिओ बोध नँइ होअए देलनि। कोनो तरहक अहंकार हुनका स्पर्श धरि नँइ क’ सकल छल। सर्वदा, आ सर्वथा प्रसन्नचित रहै बला लोक। सौंसे कॉलेजक अध्यापक वर्ग हुनका दादा कहनि। हम शुरुह-शुरूमे स’र कहैत रहिअनि। बादमे आन लोकक तर्ज पर हमहूँ कौखन दादा कह’ लगलिअनि।
सम्पर्क बढ़ल त’ बूझि सकलहुँ जे हुनकर समस्या हमरासँ विपरीत छलनि, हुनका जेठ हेबाक अपार सेहन्ता छलनि। बहुत अनुरागसँ एक दिन कहने रहथि--देब! अहाँसँ सम्पर्क भेलाक बाद हमरा होअ’ लागल अछि, जेना पछिला जनममे हमरा लोकनि सहोदर भाइ रहल होइ। एकदमसँ हमर अनुज जकाँ लगैत रहै छी अहाँ!
हम हुनकर अनुरागक आदर करैत कहलिअनि--सर! नेह-प्रेम लेल कोनो पारम्परिक, वैधानिक अथवा रक्त सम्बन्धक अनिवार्य प्रयोजन थोड़े पड़ै छै! नेह लेल तँ मोनक मिलानी चाही, खानदानक मिलानीसँ प्रेमक अनिवार्य संगति कहाँ सम्भव होइ छै! ई त’ हमर सौभाग्य थिक जे अहाँ सन जेठ भाइक उदात्त स्नेह हमरा एते सहजतासँ भेटि गेल अछि।
प्रोफेसर तापस चक्रवर्ती कहलनि--त’ तय रहल जे आइ दिनसँ अहाँ हमरा ‘सर’ नँइ कहब? तापस दा’ कहब?
हम कहलिअनि--तय रहल!
ताबत ओम्हरसँ प्रोफेसर साहेबक पत्नी चाह नेने, आ प्रसन्नताक अम्बार नेने उपस्थित भेलीह--तखन तँ हमरहु अहाँ आइ दिनसँ मैडम नँइ कहब?
नोकरी ज्वाइन करिते देरी अइ कॉलेजक जते अध्यापक लोकनिसँ पहिल किस्तमे परिचय भेल, ताहिमे प्रोफेसर तापस चक्रवर्ती प्रमुख छथि। धीरे-धीरे ओ हमर शिक्षा-दीक्षाक पृष्ठभूमि जान’ लगलाह। पता लगलनि जे हम अगबे मैथिली नँइ, शुरुआती दौरमे साइन्सक छात्र रही, फलस्वरूप आपकता बढ़’ लगलनि। साँझ क’ संगें टहल’-बुल’ चलबाक नोत देब’ लगलाह। कॉलेज परिसरक सरोकार डेरा धरि आबि गेल।
पहिल दिन, जहिया हुनकर डेरा पर चाह पीलौं, मोन गद्गद भ’ उठल। अलबत्त चाह बनबै छलीह हुनकर गृहिणी। भव्य व्यक्तित्व, अनिन्द्य सौन्दर्यक स्वामिनी, आ अपूर्व अनुरागमयी तँ ओ रहबे करथि, सम्पूर्ण पाक कलामे सेहो दक्ष रहथि। एहेन डेरामे बरमहल अबरजात राखब, हमरा सन पेटू आ चटोर लोक लेल कोनो अनकुरबी बात नँइ छल। बादमे तँ हम अपनहँु प्रयासें चाह, जलखै लेल ओम्हर टघरि जाइ, भनसा घ’रक अही प्रशंसाक दौरमे तापस दा’क पत्नीसँ परिचय बढ़ल, क्रमे-क्रमे हमहूँ हुनका संगे सहज होअ’ लागल रही। दुइए-तीन भेंटमे ओ हमर जनम-कुुण्डलीक सम्पूर्ण जानकारी जुटा लेलनि। कतए घ’र छी, घ’रमे के-के छथि, कोना पढ़ाइ-लिखाइ केलहुँ, कोना नेनपन बीतल, कोना किशोरावस्था, स’ख-सेहन्ता-स्वादक सीमा की अछि, केहन पुरुष पसिन पड़ै छथि, केहन स्त्री नीक लगै छथि, की पढ़बामे बेसी रुचिशील रहै छी, जीवनक की उद्देश्य अछि...स’ब प्रश्नक उत्तर ओ हमरासँ पूछि लेलनि। ह’म मुदा किछु नँइ पूछि सकिअनि। मात्र हुनकर प्रश्नक जवाब दिअनि, आ निरन्तर हुनका आ हुनकर व्यवहार-अनुरागकें देखी, ग’मी। हुनका सन स्त्रीसँ प्रश्न करब ने उचित छल, ने सम्भव। आँखि उठा क’ ताकि देथि त’ सब टा प्रश्न हेरा जाइ छल। तें हम कोनो प्रश्न नँइ करिअनि। हुनकर परम सौम्य आ सभ्य व्यक्तित्वक अछैत हुनका लग खुजै’मे हमरा थोड़े समय लागि गेल छल।
से, एहेन स्त्री जँ एकटा अन्यार्थक सम्बोधन त्यागि क’ भौजी कह’ लेल प्रेरित करथि, त’ के एहेन अभागल हएत, जे मना करत! हम तत्काल उत्तर देलिअनि--आब तापस दा’ त’ स्पष्टे क’ देलनि! ओहुना अहाँकें मैडम कहैत हमरा नीक नँइ लगै छल। आइ दिनसँ अहाँ हमर भौजी भेलहुँ!
तापस दा’ प्रसन्नतापूर्वक भौजीकें कनखी मारैत कहलखिन--लिअ’ एहेन सुरेबगर दीयर भेटलाह अछि, तैयो छुच्छे चाह! किछु नीक-निकुइत होइ एकरा संग!
भौजी बजलीह--अहाँ हमर पावरकें चुनौती द’ रहल छी?
-नँइ यै! हम कोनो बताह छी? अहाँ सन स्त्रीक पावरकें हम जनै नँइ छी की!
-जनैत रहितहुँ, बाते किछु आओर रहितए!
पति-पत्नीक ई षट्राग आगू नँइ बढ़ल। भौजी भनसा घ’र गेलीह, आ जल्दिए थोड़े रास मिठाइ-निमकीक संग आपस आबि गेलीह। पति दिश कनेक विजयी भावसँ तकैत हमरा दिस तकलनि--देव! अहाँ त’ एखन अपन भाइ संगे उपदेशक जकाँ ग’प करैत रही!
-नँइ भौजी! दादाकें हमरा सन प्रोबेशनर उपदेश की देतनि! साहित्यक अध्येता छी, पढ़ैत-लिखैत इएह अनुभव होइत रहै’ए जे सम्बन्धक मूल आधार मोन हेबाक चाही; जाति, धर्म, वंश, परम्परा, धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, देश आदि किछु नँइ! आजुक समयमे हमरा लोकनि जाहि सामाजिक संरचनामे जीबए लागल छी, ताहिमे सम्बन्धक कोनो न’ब व्याकरण तय हेबाक चाही। सम्बन्धक प्राचीन व्याख्या आब निरर्थक भ’ गेल अछि। अहीं देखिऔ ने, अपना ओतए पहिने बियाह होइ छै, तखन प्रेम! माने? ओही व्यक्तिसँ प्रेम करबा लेल आब ओ विवश अछि। ब’र-कनियाँकें कहियो भेंट नँइ, एकट्ठे दुनू पति-पत्नी भ’ गेल! हद्द अछि!
-से नँइ कहियौ देब! हमरा सभक बियाह तेना नँइ भेल अछि। बकायदा हमर फोटो देखा क’ हिनकर इच्छा पूछल गेल छलनि। ई हाँ कहलखिन, तखनहि बात आगू बढ़लै--तापस दा’ बजलाह।
-दादा, अहाँक फोटोमे अहाँक चालि-चलन, शील-स्वभावक उल्लेख नँइ रहल हेतै! ओ त’ अहाँ दुनू गोटए भागमन्त रही जे एहेन जोड़ी बनि गेल।
भौजी बजलीह--हमरा सभक भाग्यकें एखन छोड़ू! ई कहू, जे अहाँक भाग्य एखन कोन मन्दिरमे अहाँ लेल साधना क’ रहल छथि?
अचानक हमर आवेश पर रोक लागि गेल, हम लजा गेलहुँ। कहलिअनि--एखन चलै छी। देरी भ’ रहल अछि।
भौजी बजलीह--एखन लाज भ’ गेल त’ जाउ, मुदा काल्हि कहि देब! हमरा कोनो हड़बड़ी नँइ अछि!
अइ ठामसँ सम्बन्ध गाढ़ होअए लागल। ओइ डेरा पर स’हे-स’हे हमर आबाजाही बढ़’ लागल। कौखन तीनू गोटए, कौखन हम आ तापस दा’ गप-शपमे लीन होअए लगलहुँ। भौजी भनसा घर चल जाइथ, चाह जलखै बनबै’ लेल। कौखन हम आ भौजी बैसि जाइ टाइम पास कर’मे आ तापस दा’ ट्यूशन पढ़बै’मे व्यस्त भ’ जाइथ। भौजी संग शतरंज खेलएबामे सेहो खूब सोहनगर लागए। ओना बेसी काल जीतथि भौजिए। बादमे बुझाए लागल जे हमरा प्रसन्न कर’ लेल कखनहुँ-कखनहुँ ओ अरबधि कए हारि जाइथ। अर्थशास्त्रमे ओ एम.ए. केने छथि, मुदा इतिहास, राजनीति, सामाजिक आन्दोलन आ साहित्य सम्बन्धी मान्यता पर तर्कपूर्ण बहस करै छथि। तापस दा’कें तँ मिनटे-मिनटे धोबिया पछाड़ दै छथिन। मुदा ताहि सँ तापस दा’क पुरुषवादी अहं अनेरे आहत नँइ होइ छनि। ओ अपन अपढ़पन सहजतासँ स्वीकारि लै छथि। कहै छथि--भाइ, हम त’ फिजिक्ससँ बाहर कहिओ भेलहुँ नँइ। फिजिक्स पढ़लहुँ आ सिनेमा देखलहुँ। आ आब फिजिक्स पढ़बै छी, आ उपन्यास पढ़ि कए मनोरंजन करै छी। आब अइ सब बहस लेल त’ अहाँकें एकटा पाटनर ताकिए देलहुँ अछि, हिनकहिसँ बहस कएल करू! कान्ही मिलान हएत। हम अइ मामिलामे अजोह लोक छी।
तापस दा’ उपन्यास खूब पढै़ छथि, मुदा सस्तौआ, फुटपाथी।
भौजी कहलनि--अहाँक भाइ साहेब पाथर छथि! उपन्यास पढ़ै छथि, किऐ पढ़ै छथि, नँइ बुझल छनि। जाहि पोथीकें पढ़लाक बाद पाठक स्वयंकें न’व नँइ बुझ’ लागए, ओकर आन्तरिक भव्यता विकसित नँइ होइ, पोथी ओकर विचार शृंखलामे न’व फुनगी नँइ जोड़ए, ओइ पोथीकें पढ़ि कए लोक की करत? टाइम पास लेल लोक किऐ पढ़त? ओइसँ बेसी नीक तँ बाड़ी-झाड़ीमे फूल-पत्ती लगाउ, लत्ती-फत्ती लगाउ! फूल फुलाएत, खीरा-सजमनि फड़त, त’ आँखि जुड़ाएत, मोन हर्षित होएत!
रूप-रंगसँ बाइस बर्खक युवती लगनिहारि भौजीक वयस हमर बराबरीक अथवा हमरासँ दू-चारि बर्ख बेसी अवश्य हेतनि, ई अन्दाज लगाएब अइ लेल सम्भव अछि, जे ओ हमरासँ दशक भरि पैघ पुरुखक पत्नी छथि, आ एम.ए. पास क’ चुकल छथि! अन्यथा असम्भव छल। मुदा सांसारिक ज्ञान आ तर्कमे हमरासँ दशक भरि पैघ छथि। जीवन जीवाक कतोक रास बात हमरा ओएह सिखौने छथि। पाप-पुण्यक परिभाषा ओ कोनो शास्त्रीय फारमूलासँ नँइ जीवन-संग्राममे अरजल तर्कक आधार पर दै छथि। मान्यतादिक कतोक बन्धनसँ हमरा ओएह मुक्त करौने छथि।
असलमे भौजी सन जीवन्त आ रसवन्ती स्त्रीक संगति बनि गेलनि तापस दा’ सन भौतिक विज्ञानक प्रोफेसरसँ। तापस दा’ सौंसे कॉलेजक विलक्षण अध्यापक मानल जाइ छथि। बेहिसाब ट्यूशन चलै छनि। कॉलेजक क्लास पूरा क’ कए अबै छथि, आ ट्यूशन पढ़बए बैसि जाइ छथि। बैच पर बैच खतम होइ छानि, त’ ओएह सस्तौआ उपन्यास ल’ कए बैसि जाइ छथि। भौजी लेल समय बचिते नँइ छनि। साँझक बेला’मे हमरा संग थोड़े काल सड़क पर घुमै-फिरै छथि। चौक पर हमरा पान खुआ कए, अपने सिगरेट पीबि कए घुरि अबै छथि। फेर ट्यूशनियाँ चेला सब प्रतीक्षा करैत रहै छनि। ओ हमरा बैसबाक आग्रह करैत, पत्नीकें चाहक आदेश दैत ट्यूशनमे लीन भ’ जाइ छथि। भौजीसँ हमर निकटता बढ़ैत जेबाक स्रोत इएह चाह छल, जे क्रमे-क्रमे जलखै, भोजन, आ शतरंजक बिसात धरिमे परिणत भ’ गेल, भौजी धीरे-धीरे तापस दा’क संगें हमर डेरो पर आबए लगलीह। बादमे तँ कहिओ-काल एसगरो आबए लगलीह। बेर-कुबेर तँ भौजी हमर अल्हड़पन पर डाँट-डपट सेहो करए लागल छलीह--समय पर नहाएल करू, समय पर खाएल करू, बेसी चाह नँइ पीबू, जर्दा खाएब पुरुख लेल नीक बात नँइ थिक, केस किऐ उजरल-पुजरल रहै’ए...हम सम्मान भावसँ सबटा बात सुनैत घसकि जाइत रही। तापस दा’ मधुर परिहास करैत कहथि--आइ बढ़ियाँ धुनाइ भेल अछि देब! नीन बढ़ियाँ आओत!...आ जोरसँ ठहाका मारथि...।
पढ़बा लेल किताबक चयन पर भौजीक एहन प्रतिक्रिया प्रशंसनीय छल। मुदा तें तापस दा’क निन्दा कोना सूनि लितहुँ! हम कहलिअनि--भौजी! रातिमे कोनो खट-पट भेल अछि की? खौंझाएल देखै छी!
भौजी दाँत किचैत, बनावटी तामस करैत, हमरा पर आँखि गुरारैत बजलीह--रहसू नँइ! रसगर लोक छी अहाँ से त’ हमरा पहिले दिन बुझा गेल छल! अबिते देरी अहाँ जाहि तरहें अटकर लगा क’ हमरा देख’ लागल रही...! खेला रहल छी शतरंज, आ ध्यान अछि रंग-रभस पर। सम्हरि क’ चलू! जीवनो एक टा शतरंजे होइ छै देब! प्रतिपक्षक चालि के मर्मकें बुझबाक प्रयास करैक चाही!
हम फेरसँ लजा उठलहुँ, अपन ओइ दिनक आचरण पर अफसोच होअ’ लागल छल। हम लजाइत कहलिअनि--भौजी! ओ तँ एक टा अपरिचित व्यक्तिक नजरि छल! ओइ घटनाकें बिसरि जाउ ने! खेलमे तँ बुझले अछि, जे अहाँकें पछारब हमरा लेल आसान नँइ होएत! मुदा अहाँ दादाक मादे जे कहै छिअनि, से उचित नँइ थिक।
-ओइ घटना आ ओइ नजरिकें त’ हम जीवन भरि नँइ बिसरि सकब! खेलोमे पराजित हेबाक प्रतीक्षा हम क’ रहल छी। हमर पराजये हमर असली विजय हएत देब! मुदा हम देखि रहल छी जे अहूँकें हुनकर हवा लागल जा रहल अछि। ओ तँ वस्तुतः सूखल काठ भ’ गेलाह अछि। काठकें पोनका क’ हरियरी आनब कठिन अछि। अभिज्ञान शाकुन्तलम, अनामदास का पोथा, गोदान, कर्मभूमि...सब तरहक पोथी हुनका द’ कए देखि लेलहुँ; ओ खून भरी माँग, अन्धकार की चीख... सन-सन किताबसँ बहराइ बला नँइ छथि!
भौजीक वाक्य-खण्ड ‘जीवन भरि नँइ बिसरि सकब!’ हमरा भयभीत क’ देने छल। ग्लानि होइ छल अपन ओइ आचरण पर। अपन आचरणकें लगातार पवित्र करैत अपन छवि सुधारबाक छल। दोसर दिश हुनका दुनू प्राणीक बीच लास्यमय आ जीवन्त सम्बन्ध देखल छल। मुदा, भौजी सन बुधियारि, सुन्नरि आ व्यावहारिक स्त्री अपना मुँहें पतिक सम्बन्धमे एहेन कठोर वचन बाजि रहल छथि, बजबा काल भौजीक मुखमण्डल पसरल खौंझ सेहो स्पष्ट रूपें रेखांकित छल। अचरज लागल छल। सोच’ लगलहुँ--वस्तुतः भौजी प्रसन्नताक फुलवारी नँइ छथि, फूजल किताब नँइ छथि, चानक शीतल इजोते टा नँइ छथि, झमटगर गाछक छाहरिए टा नँइ छथि, भौजी बिहारि अनबाक मोखा छथि, बिहारिसँ पहिनेक चुप्प वातावरण छथि, चुपचाप सुनगैत दावानल छथि। हम भौजीक खौंझक कारण तकबाक प्रयास करए लगलहुँ। आ भौजीकें कहलिअनि--भौजी! हमरा पन्द्रह दिनक समय दिअ’। दादा ट्यूशन पढ़ाएब छोड़ताह, से त’ हमरा कठिन लगैत अछि, मुदा सस्तौआ उपन्यास छोड़ि क’ अहाँक मनोनुकूल पोथी पढ़ए लगताह से हम वचन दै छी। पढ़बाक आदति जँ रहए, तँ व्याक्ति खराब चीजसँ नीक चीज पढ़ए लगैत अछि।
दू सप्ताह बाद भौजीकें सूचना देलिअनि--देखू भौजी, आइ हम हुनका तेसर किताब द’ रहल छिअनि, श्रीलाल शुक्लक रागदरबारी।
-पहिल दुनू किताब कोन छल?
-पहिल छल भगवती चरण वर्माक चित्रलेखा, आ दोसर फेर हुनके रेखा!
-ई दुनू पोथी हम नँइ पढ़ने छी। देब पढै़ लेल? आइए दिअ’ ने! हमरा लग पर्याप्त समय रहै’ए। अहाँक भाइ साहेबकें नेनपनमे पाइक अभाव ततेक सतेलकनि, जे पाइए टा कमाएब हुनकर जीवनक परम-चरम उद्देश्य भ’ गेल छनि।
-भौजी! पाइ कमेबा लेल भाइ साहेब कोनो अवैध काज नँइ करै छथि, कॉलेजमे फाँकी नँइ मारै छथि। मेहनति, आ पवित्र रस्तासँ पाइ कमबै छथि, ताहिसँ अहाँकें गौरव नँइ होइए?
-हाँ, पवित्रतासँ पाइ कमाएब नीक बात थिक, मुदा, मनुष्यकें कते पाइ चाही? पाइ कथी लेल चाही? जीवनक सुख सौरभ लेल ने! जीवनक एक-एक साँस पाइ जुटेबामे लगा देब त’ जीवनक की करब!...जाए दिऔ, हम त’ आब अही जीवनकें अवधारि नेने छी। भरि दिन मशीन जकाँ अपन ऊर्जा ट्यूशनमे लगबै छथि, साँझमे काटल गाछ जकाँ निस्पन्द भेल ओछाओन पर खसि पड़ै छथि। हमहूँ करौछ, छोलनी, टी.वी. अखबार संगे दिन काटि लै छी! एसकरे घ’रमे पड़ल रहै छी। अहूँ बेर-कुबेर आएब, से नँइ होइए। शतरंज खेला कए थोड़ेक समय बिता लेब!
-अहाँ सन तेजस्विनी स्त्री संगे शतरंज की खेलाएब? हरदम तँ पछाड़िए दै छी।
-मौगी जातिसँ हारब अधलाह लगै’ए? मौगी तँ पुरुष जातिसँ हारि जेबा लेल मोन प्राण ओछौने रहैत अछि। हम त’ बिसात ओछा कए पछाड़ खेबा लेल सदति काल तत्पर रहै छी! किऐ नँइ पछाड़ै छी? ‘शह’ के पहचान समय पर किऐ नँइ होइए? एतेक बोधगर लोक त’ छी अहाँ!
-भौजी! हमर बोध अहाँक तेजस्विता लग पछड़ि जाइ’ए। आन ठाम त’ जीत जाइ छी। अहाँकें पछाड़ब सम्भव नँइ होइ’ए।
-देब! हम अपन हरेक चालि अहाँसँ पछाड़े खेबा लेल चलै छी। मुदा हमर अभाग, जे अहाँ मैदान छोड़ि दै छी। देखी, कहिया अहाँ हमरा पछाड़ै छी। लगै’ए अहाँकें विशेष ट्रेनिंग देब’ पड़त।
चित्रलेखा, आ रेखा पढ़लाक बाद एक दिन भौजी कहलनि--देब! की हाल अछि अहाँक भाइ साहेबक? चित्रलेखा, अथवा, रेखाक किछु असर भेलनि कि नँइ?
-हाँ भौजी! भेलनि अछि, आब त’ ओ गोदान, सुनीता, मछली मरी हुई धरि पढ़ि गेल छथि। नदी के द्वीप पढ़ि रहलाह अछि।
-मुदा हम कहब, जे ओ किछु नँइ पढ़ि सकलाह अछि। पढ़नाइ कोनो यान्त्रिक क्रिया नँइ होइत अछि। अध्ययनशीलता मनुष्यकें भिजाबए नँइ, त’ ओ अध्ययन नँइ भेल। या त’ अध्ययनक उद्देश्यमे दोष अछि, या फेर अध्येताक मूल बनावट दोखावह अछि। सुखाएल गाछमे पानि ढारलासँ ओ हरियर नँइ होएत। सुखाएल गाछकें पोनकबाक आशा हम त्यागि देने छी। हरियर गाछकें भकरार आ विकासोन्मुख हेबाक प्रतीक्षा करै छी।
भौजी पढ़लि-लिखल स्त्री छथि। मुदा हुनकर एहन दार्शनिक बात सब सोझ रस्तें हमरा समझमे नँइ अबै छल। भौजी किछु संकेत त’ ने द’ रहल छथि! फेर होअए--नँइ, एहेन पापिष्ठ बात नँइ सोचबाक चाही। तापस दा’ सन पतिक रहैत, ओ एना कोना सोचतीह? मुदा किऐ नँइ सोचतीह, ओएह त’ कहलनि, जे साँझ क’ ओछाओन पर काटल गाछ जकाँ खसि पड़ै छथि। अर्थात् भौजी हमरासँ किछु आओर चाहै छथि। ओ हमरा बड़ मानै छथि। किऐ मानै छथि? की कारण?...नँइ, एना नँइ सोचबाक चाही। ई पाप थिक। विश्वासघात थिक। सम्बन्धक पवित्रता आ नैसर्गिकताक हत्या थिक। मुदा भौजी ओइ दिन पाप, पुण्यक बहसमे मारिते रास उदाहरण देने छलीह। कहने छलीह, सबसँ पैघ पाप थिक मनुष्यक जीवनी शक्तिमे अवरोध लगाएब। छिड़हड़ा खेलाएब भने व्यभिचार हो, मुदा यौन-लिप्साकें दाबन देब पैघ पाप थिक, यौन-लिप्सासँ निर्लिप्त हएब अशक्य व्यक्ति लेल आसान होइत अछि। पुंशत्वपूर्ण पुरुख आ स्त्रीत्व धारण केनिहारि स्त्री एहिसँ मुक्त नँइ भ’ सकैत अछि!...त’ की भौजी हमरा नोत द’ रहली’ए। की भौजी व्याभिचारिणी छथि? कथमपि नँइ। से रहितथि त’ अइ दुनियामे पुरुखक कमी छै?...
भौजी की छथि? की चाहै छथि? ओ फूजल किताब जकाँ हमरा सोझाँ पसरल छथि, हम किऐ नँइ पढ़ि पाबै छी। एहेन विलक्षण, एहेन सुन्नरि, एहेन कलावती, एहेन वाग्विदग्ध स्त्रीकें चिन्हबामे हमरा किऐ तरद्दुत भ’ रहल अछि?
एक बेर भौजी कहने छलीह--मनुक्खक कैक टा रूप होइ छै देब! सब रूपमे ओकर अलग पहचान होइ छै। अहाँक भौजी हेबासँ पहिने हम एकटा सम्पूर्ण स्त्री छी। जेना पुंशत्वक बिना कोनो पुरुष निरर्थक, तहिना स्त्रीत्वविहीन स्त्री सेहो निरर्थके होइछ!
मोन कोनादन करए लगैए। अइ निर्णयक संग सूति रहै छी जे काल्हि भौजीकें स्पष्ट पुछबनि, हमरा कोन ट्रेनिंग देबए चाहै छी अहाँ, आ कहिआसँ देब?
अगिला दिन तापस दा’ कॉलेजमे भेटलाह, कहलनि--अहाँक भाउज हमरा आदेश देलनि अछि, जे खाइक समयमे हम अहाँकें संग नेने डेरा घुरी। आइ ओ अहाँक पसिन के किछु भोजन बना रहल छथि। एकटा क्लास समाप्त क’ कए अबै छी, तखन चलब! ठीक ने?
हम की कहितिअनि? काल्हि भौजी तेहन-तेहन गप केने छलीह, जे कैक तरहक आशंकासँ मोन तबाह छल! भौजीक ओइ बात, आ भोजनक निमन्त्रणमे ताल-मेल नँइ बैसै छल। तथापि कहलिअनि--मुदा अहाँ तँ घर पहुँचैत देरी चटिया सभमे लागि जाएब!
ओ मुस्किआइत बजलाह--ई न्यायपूर्ण बात नँइ भेल। अहाँ एतबहि दिनमे भाउजक गुलाम बनि गेल छी। हुनकहि जकाँ अहाँ हमरा पर निशाना तनने रहै छी।
क्लास समाप्त भेलाक बाद हमरा लोकनि डेरा पहुँचलहुँ। डाइनिंग टेबुल पर भोजन लगाओल गेल। थाड़ीमे परसल सोहारीमे चोपरल घी देखि तापस दा’ स्पष्ट लक्ष्य केलनि। बजलाह--देखिऔ देब, अहाँ अपन भाउजक न्याय! अहाँक सोहारीमे घी चोपरल अछि, आ हमर सोहारीमे औंसल अछि!
अचक्केमे हम सकदम्म भ’ गेलहुँ। की-की ने आशंका मोनमे उपजए लागल।
भौजी मुदा परम सुजान। ओ कनेक दोमि कए बजलीह--देखिअनु! लाज-धाख उठा कए पीबि गेल छथि। पेट लदरल जाइ छनि, आ घी खाइ लेल लेर चुबै छनि।
तापस दा’ बजलाह--अरे हम त’ अहाँक प्रशंसा शुरुहे केने रही, अहाँ बीचेमे टपकि गेलहुँ। हम सएह त’ कहैत रही, जे अइ सिकिया पहलमानकें अहाँ तन्दुरुस्त बनबए चाहै छिअनि। अहाँकें तँ प्रशंसो सुनबाक धैर्य नँइ रहैत अछि।
-हाँ से बात तँ सत्य थिक। छओ फिट्टा जवान छथि। छब्बीसक वयस छनि। पचास किलो ओजन छनि। स्वास्थ्यक प्रति सावधान तँ रहबाके चाही। कहै छिअनि घरनी आनि लिअ’ त’ से नँइ करताह। स्वच्छन्दता एतेक प्रिय छनि जे भोजन धरिक अभेला करै छथि।
-आ तै स्वास्थ्य पर अहाँ कहै छिअनि बुलेट मोटर साइकिल चलबै लए!
हम चौंक उठलहुँ। ई कोन सुर लागि गेल। हँसुआक बियाहमे खुरपाक गीत! बेरा-बेरी दुनू प्राणीक मुँह ताकए लगलहुँ। सोचए लगलहुँ--सब किछु त’ सामन्ये छल। एना थाड़ी पर बैसा कए दुनू प्राणी कोन गोत्राध्यायमे लागि गेल छथि। की बात थिकै आखिर! कोनो सूत्र तकबाक ब्यांेतमे हम तापस दा’ दिश तकलहुँ।
तापस दा’ बजलाह--देब! हमर कथनकें अन्यथा नँइ मानब। हम अहाँकें अपन सहोदर छोट भाइसँ कनेको कम नँइ बुझै छी। सुवर्णा लेल सेहो अहाँ परम प्रिय दीयर छिअनि। बेकूफीमे हमरासँ ई मोटर साइकिल किना गेल। हमरा बुतें ई निके नाँ चला नँइ होइए। हम निर्णय लैत रही जे एकरा बेच दी। अहाँक भाउजक आदेश भेल अछि, जे जेठ भाइक समस्त बखरामे छोटक अधिकार होइ छै। अहाँ पछिला किछु दिनसँ मोटर साइकिल कीनए चाहैत रही। अहाँकें अधलाह नँइ लागए तँ ई अहाँ ल’ जाउ। न’बे छै, से तँ अहाँ जनिते छी!
-मुदा दादा! हम सोचैत त’ अवश्य रही। किन्तु हमरा एखन पाइ कहाँ अछि?
-ओह्! तकर चिन्ता अहाँ छोड़ू! पाइ लगबे कते करतै! ऑनरशिप ट्रान्सफर करै’मे ततेक खर्च नँइ होइ छै। हम छी ने! अहाँकें तँ भगवान सुवर्णा सन लछमीपात्र भाउज देने छथि! अहाँकें कोन कमी अछि?--फेर पत्नी दिश तकैत बजलाह--की यै! ऑनरशिप ट्रान्सफरक खर्च अहाँ गछै छिअनि कि नँइ?
आब भौजी बजलीह--मुदा तकर आवश्यकता की? अहाँक अनुजकें अहाँ पर एतबो विश्वास नँइ छनि, जे अहाँ मोटरसाइकिल आपस नँइ मँगबनि? आ कि अहाँकें अपन अनुज पर विश्वास नँइ अछि जे ओ अहाँक चीज-वस्तु ओ सम्हारि क’ राखि सकताह! ई ऑनरशिपक बखेरामे किऐ पड़ल छी?
तापस दा’ फेर परिहास मिश्रित रंज केलनि--अहाँ तँ गजब स्त्री छी। सदति काल हमरा पर सींघमे माटि लगौने रहै छी! अहाँक दीअर जे कहलनि, हम तकर रस्ता निकालि देलहुँ। आब हम कतए दोषी छी?
-से कोन हम साँढ़ छी, जे सिंघमे माटि लागएब!
-नँइ, अहाँ गाय छी। मुदा सिंघ त’ गाइयो क’ होइ छै!
-मतलब हम झगराही छी?
-अरे बाबा, अहाँ परम सुशील छी। मुदा मूल बात सँ किऐ भटकि रहल छी। अहींक प्रस्ताव छल ने, जे मोटरसाइकिल जुनि बेचू। देबकें किनबाक छनि, से किनता किऐ, मूल काज त’ चढ़बाक छै! से चढ़थु अही पर! त’ बुझाउ ने अपन स्वाभिमानी दीयरकें, हमरासँ कथी लए ढूसि लै छी?
-से हम कहलहुँ तँ कोन बेजाए केलहुँ। हमर त’ विश्वास अछि जे अहाँक चीज-वस्तुक सम्मान देब निके नाँ करताह। हुनका सुख-भोग करैत देखि अहूँकें नीक लागत, आ हमरहु आत्मा तृप्त होएत।
हमरा आब बाज’ पड़ल--दादा! हम ऑनरशिप ट्रान्सफरक गप नँइ करैत रही। हम त’ मोटरसाइकिलक दामक गप करैत रही!
तापस दा’क आँखिमे व्यथा उपजलनि...नम्हर सन साँस घिचैत बजलाह--अहाँ ई कोना सोचलहुँ देब?
भौजी बजलीह--देब! जेठ भाइक सम्पतिक दाम नँइ लगाओल जाइ छै। दाम लगौला पर ओ पड़ोसिया भ’ जाइ छै। ई वस्तु नँइ थिकै देब! ई ममता थिकै, अनुराग थिकै!
तापस दा’ बजलाह--सुवर्णा! हम हिनका बुट्टी-बुट्टी चिन्है छिअनि! हम ई बात जनै छलहुँ। तें कहने रही, जे अहाँक सोझाँमे गप करब। हमर विद्यार्थी सब बैसल अछि। हम हाथ धो कए आब चलै छी पढ़बै लए। अहाँ हिनका भोजन कराउ, आ हिनकर माथमे बैसल भूतकें भगाउ। देखी आइ अहाँक चतुराइ!
तापस दा’ हाथ धो क’ ट्यूशन पढ़बै लेल सीढ़ी चढ़’ लगला।
समूचा घ’र आब तीन घण्टा लेल निस्पन्द रहत। भौजीकें सिपुर्द रहत। भौजी रहतीह, आ हुनकर चारू कात निःशब्द वातावरण रहत। तापस दा’ गदह बेर धरि ट्यूशनमे लागल रहताह।
भौजी थोड़े आओर खाइ लेल आग्रह केलनि। हमरा माथमे घुरिआइत आशंका सब समाप्त भ’ चुकल छल। सुभस्त होइत कहलिअनि--भौजी! अहाँ त’ अन्ने-तीमनमे ततेक स्नेह मिला देने रहै छिऐ, जे हाथ चाटैक मोन करए लगै छै, आग्रहक गुंजाइश बचल कहाँ रहै छै!
-ककर हाथ, अपन, कि बनेनिहारिक?
हम फेर गुम्म भ’ गेलहुँ। भौजीक बात पर निरुत्तर हेबाक हमरा लेल ई कोनो पहिल घटना नँइ छल। हाजिर जबाबी, आ बोल्डनेशमे भौजीक कोनो जवाब नँइ छल। केहनो बात केहनो परिवेशमे कहि देबाक हुनकर चतुराइ, आ हुनकर साहस विलक्षण छल। बोल्ड त’ हमहूँ कम नँइ रहल छी, मुदा पता नँइ किऐ, हुनका सोझाँ हमर सम्पूर्ण बोल्डनेस बिला जाइ छल। कहि नहि ई हुनकर व्यक्तित्वक प्रभाव छल, कि हुनकर आभामय रूप-सौन्दर्यक, आ कि दीयर भाउजक सम्बन्धक, हुनका सोझाँ पड़िते जेना हम हुनकर अधीनस्थ भ’ जाइ छलहुँ।
अपन कोमल हाथक दसो अँगुरीसँ हमर दुनू गालकें चुटकियबैत भौजी बड़े अह्लादसँ बजलीह--अहाँ त’ मौगी जकाँ लजाइ छी देब! पुरुखकें कतौ एते लाज हो! उठू हाथ धोउ!
हाथ धोअ’ गेलहुँ, त’ बेसिनमे हाथ धोइते रहि गेलहुँ। सोचए लगलहुँ--भौजी सत्ते बड़ मानै छथि हमरा। कते भागमन्त छी हम! अइ दुनियामे जकरा भाउज नँइ छै, से जीवनमे कते तरहक नेहसँ वंचित रहि जाइ’ए।...मुदा इएह भौजी एते दिनसँ प्रेम करै छथि, कहियो एना कहाँ बुझाइ छल हमरा! आइ एना किऐ लागि रहल आछि! बेर-बेर अपन दुनू गाल छूबै छी, लगै’ए जेना ओतए चम्पा-बेली फुला गेल हो! एना किऐ लागि रहल अछि!... भौजी आबि क’ बगलमे ठाढ़ि भेलीह, बामा हाथें टैप बन्द केलनि, दहिना बाँहि हमरा कन्हा पर आर-पार रखैत बामा हाथें आँचरसँ हमर हाथ पोछलनि, आ कान लग मुँह अनैत कहलनि, मोनमे किछु होअ’ त’ नँइ लागल अछि?...आ खिलखिला कए हँसए लगलीह। खिलखिलाहटिसँ छूटल हुनकर गर्म साँस हमर कनपट्टीसँ कन्हा पर आएल, आ कमीजक त’र बाटें पीठ आ छाती दिश पिछड़ि गेल। सौंसे देहमे झुनझुनी उठि गेल। भौजीक दहिना हाथक चूड़ी हमर दहिना कानमे गर’ लागल छल। मुदा बाँहिक ओ ऊष्मा आ चूड़ीक ओ प्रहार नीक लागि रहल छल। हम भौजीक छाहरि दिश सहटि जाए चाहै छलहुँ, मुदा संकोच भेल।...भौजी फेर धोपलनि--फेर लाज! मन्दबुद्धि! चलू, मोटर साइकिल निकालू। डेरा पहुँचा दै छी!
मोटरसाइकिलसँ डेरा विदा भेलहँु। बैचलर डेरा। भौजीक की सत्कार करिअनि! खा-पीबि क’ त’ तुरन्ते आएले छी। पुछलिअनि--भौजी, की सत्कार करू अहाँक? पानि पियाबी?
भौजी कहलनि--पिआसल त’ छीहे! पिआ सकब?
...
थोड़े काल बाद भौजी बजलीह--हमरा पहुँचा दिअ’ बौआ!
-पहुँचा दिअ’?
-राखियो त’ नँइ सकब? हम मोटर साइकिल नँइ छी ने? सजीव आ निर्जीवमे इएह अन्तर होइ छै देब!
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"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका http://www.videha.co.in/:-
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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