३. पद्य
३.७.१शिवकुमार झा टिल्लू- कविता- साहित्यक विदूषक २ रूपेश कुमार झा 'त्योंथ'- हम छी आजुक नेता
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मैथिल, मिथिला आ मैथिली,
आइ घोर अन्हरियामे हराओल अइ,
किछ दूर टिमटिमाइत तारा सन,
किछ मिटैल पगडण्डी,
आरि-धुरिमे ओझराएल अइ,
सभ्यातक सूर्य,
कहिया परिचयकेँ बदलि देलक,
किछ आभासो नै भेल,
मुदा !
जहन-जहन पाछू तकैत छी,
ह्रदयमे किछु उथल-पुथल,
बहराइ लेल व्याकुल अइ,
मुदा !
भीतरे-भीतर घुटि जाइत अइ,
स्वच्छन्दता- स्वतंत्रता नै अइ,
अपन अहंग,
सैहबी डोरीमे बन्हाएल,
जाबी लगौने,
बरद जकाँ ऑफिसक दाउनमे लागल छी,
अपन सहजता-सरलतासँ डेराइत,
जे पाछू नै भऽ जाइ ,
अपन परिचयसँ भगैत,
नव परिचय बनाबैमे लागल छी,
मुदा !
ओ स्वर्णिम गौरव गाथा,
कोना लिखब,
माता-पिता आ पूर्वजक प्रति श्रद्धा बिनु,
भाषाक प्रेम सिनेह बिनु,
कोन रंगसँ रंगब
अपन कैनवासकेँ…..
कोन गीतसँ सजैब
अपन जीवनकेँ ……
मुदा !
हम सुतल नै छी,
मरल नै छी,
जागल छी,
हमर अल्हड़ता, हमर सहजता, हमर नम्रता
सभ्यातक आलोकसँ आलोकित,
आइ आब हम समर्थवान छी,
तँ किएक ने अपन समृद्धिसँ,
अपन परिचयकेँ सींची,
अतीत तँ स्वर्णिम छल,
आब आइ आ आबैबला काल्हि,
केँ सेहो स्वर्णिम बनाबी,
सभ गोटे मिली कऽ,
एक दोसरकेँ मैथिलीक रसपान कराबी.
नइ बुझना जाइत अइ,
दहेजक बैशाखी पकड़ी,
अमरलत्ती जकाँ,
रीढ़ विहीन,
परिचय.....
सुनैत छलौं,
स्त्रीक नोरक समुद्रमे,
पुरषार्थक नाव हेलैत छैक,
मुदा!
जँ नावमे भूर भऽ गेल,
तँ ओ पुरुष आ समाज दुनूकेँ डुमा दैत छैक,
मुदा!
रीढ़ विहीन पुरषार्थक नावे की,
जेकर कोनो पतबारे नै अइ,
दिशा हीन,
ऊर्जा विहीन,
दोसरक धनसँ सिंचित भऽ,
अपन स्वाभिमान बनाबऽमे लागल अइ,
बिना सुगंध,
कृत्रिम फूल जकाँ,
सोझे सजाबट लेल.......
सृजनात्मकतासँ दूर,
प्रकृतसँ बिमुख,
सिनेमाक रील जकाँ,
अपन जीवन बीतबैत अइ,
हे बिधाता !
अहीं तँ रचने छी,
पुरुष पहाड़-पर्वतकेँ छाती चीरि,
स्त्री नदी श्रीजनक सुन्दर संसार रचैत छथि,
तँ किएक ने आइ ,
दहेजक दाबानलमे,
पुरूषक रीढ़ बिहीन पुरषार्थकेँ जरा कऽ,
ओकर समूल बिनाश कऽ,
पुनः मेघक घोर गर्जनमे,
शिवक तांडवसँ,
पुरूषक पुरषार्थकेँ ठाढ़ करी,
आ झर-झर बुन्नी बसातमे,
नव कोपलक संग,
मधुर गीतक गुंजनमे,
स्वाभिमानी रीढ़युक्त समाजक परिचय बनी.
अनुसंधाने सँ बढ़ै छै।
साहित्यक सृजन,
मंथनेसँ होइ छै।
चाहे रूप गढ़ू,
आकि रंग घोरू,
प्रेम करू,
वा नोर बहाऊ,
मोनक उद्वेग,
संयमेसँ रुकै छै।
पीड़ा ह्रदयक,
सहजतेसँ कमै छै।
सभकेँ सत मानि कऽ पैघ भेल बच्चा
जखन सत्तक तथ्य सामने आयल
नव-जन्मल युवाक मोन भेल घायल
बादमे हतास करैत छल सब लोककेँ
मोन भेल जे खतम करू अहि लोभकेँ
ने कुनो बौआ सैण्टाक आस लगेता
ने पैघ भऽ अहि नाटकीयतापर पछतेता
फेर भेल जे कोना चन्दाकेँ मामा कही
देखि-देखि बच्चामे खाना खाइत रही
फेर बादमे पढ़लहुँ जे ई मात्र उपग्रह थिक
गोल परिक्रमा करैत रहैत अछि पृथ्विक
जहिया बौआ अपने ठेकनगर हेता
खेलौना बॉंटि-बॉंटि स्वयं सैण्टा भय जेता
अपना सब जकॉं नहिं जे पहिने बच्चामे
सुनलहुँ सब खिस्सा भगवानक नामे
जेना-जेना बढ़लहुँ बुद्धिमत्ता दिस
केलहुँ ईश्वर पर शक़ भेलहुँ नास्तिक।
रूपेश कुमार झा 'त्योंथ'-
पितामह : स्व हरेकृष्ण झा, साहित्यिक नाम : रूपेश कुमार झा 'त्योंथ' (मैथिली कविता) ओ नवकृष्ण ऐहिक (आलेख/व्यंग्य)
साहित्यिक प्रकाशन : मैथिलीक विभिन्न पत्र-पत्रिका मे दर्जनो कविता ओ मैथिली दैनिक मिथिला समाद मे 'खुरचन भाइक कछ्मच्छी' स्तम्भ केर अंतर्गत, तीन सय सं बेसी व्यंग्य लेखन-प्रकाशन शिक्षा : स्नातक (कंप्यूटर अप्लिकेशन) कार्य : पूर्व मे विभिन्न दैनिक पत्र मे कार्य-अनुभव, मैथिली साप्ताहिक झलक मिथिला केर संपादन,वर्त्तमान मे कोलकाताक एक प्रतिष्ठित उच्च शैक्षणिक प्रकाशनक शोध ओ संपादन विभाग मे कार्यरत स्थायी पता: ग्राम+पत्रालय : त्योंथागढ़ , भाया : खिरहर, जिला: मधुबनी (मिथिला)
दऽकऽ ....(एत' धरि अपने पढ़ि चुकल छी) .आब आगाँ ---
मुदा ई भेलनि बोध जेना देह भ' गेल डेंगी नाव! पटिया बनि क' यमुना मे हुनका कराब' लगलनि-झिलहरि बड़ी काल...एकसरि झिलहरि खेलाय मे रहली मस्त- बड़ी काल ! तखन होअ' लगलनि अगिले क्षण मोन विरक्त । आखिर यत्न क' नाव के घाट लगौलनि , भेलीह-संतुष्ट जे पहिल बेर नहि लेब' पड़ल श्रीकृष्णक सहयोग, आ खेपि सकलहुँ नाव, उतरि गेलौं पार ! अपन सुख लेल किएक करी केकरो नेहोरा ? भने कृष्णे किएक नहि होथि। एकहि मोन मे तुरन्त उपस्थित भ गेलनि-ग्लानि, छिया, कृष्ण पर निर्भरता तँ हमर नियति आ प्रारब्ध। कोना आयल मोन मे एहन बात ? धिक्कार मोन -धिक्कार... मुदा ई की ? घाट पर साक्षात् कृष्ण महराज ठाढ़ ! वैह खौंझबै वला बिहुँसैत, बढ़ा चुकल नाव सँ गमग उतरि रहलि राधा दिस अपन दहिना हाथ। सस्नेह, सार्द्र दैत अपन हाथ राधा भेलीह बिकल । मिला नहि सकलीह हुनका सँ आँखि । -' भरिसक मन मे हमरा बिनु यमुना मे नाव चला लेबाक छौक मन पर भार । अपन सुखक अपनहि कर्म-निर्भरताक सेहो छौक आत्म दीप्त विश्वास...राधा, तों केहन लागि रहल छें एहि अलौकिक क्षण , तोरो ने बूझल छौक। हमरो तँ थिक जीवनक ई प्रथमहि दुर्लभ दृश्य ! हम केना योगा क' राखी ई आनन्द राधा, कोन बिधि, तोंही देखा दे उपाय।' -' जाउ-जाउ, एत्तहु खौंझबैये लए हमरा आएल छी अहाँ । हम कएलए स्त्रीगन भ' क' अगरजितपना आ छी ताही मोने बेचैन, अहाँ के सुझैए विनोद एखन ।' राधा किन्चित स्नेह-क्रोधित भ' कहलखिन तँ कृष्ण भेलाह गंभीर। -' नहि राधा, हम तँ छी परम हर्षित-संतुष्ट। यैह त हमर कामना छल, तों बनि जायं-स्वयं आत्म निर्भर । नहि रह' पड़ौ तोरा हमरा पर निर्भर । तों कएलेंहें हमरे काज। हम तँ तें छी प्रसन्न।' -'किएक नहि, आब आओर रहब निश्चिन्त, मरओ राधा कि जीबओ, नहि राख' पड़त फिकिर ।'
नाव सँ उतरि क' दरबनिया द' क' पड़यबाक छलनि विचार, मुदा ई तँ सर्वथा नवे परिस्थिति कएने छथि कृष्णजी ठाढ़ ! जानि ने एतबा काल एहि बीच की हएत आँगनक हाल। जे हो ... आब एहि क्षण तँ माधव-मायाजाल मे छी बाझलि हमहूँ । आगाँ देखी कोन नाटकक केहन दृश्य प्रस्तुत करय वला छथि-नटवर नागर...सकल गुण आगर !
बूलि क' राधा आँगन अयलीह तं आश्चर्ये ठकमूड़ी लागि गेलनि। बीच आँगन मे कृष्ण ठाढ़, सद्यः। हुनकर स.बोधनक कोनो टा ने जबाब दैत चलि गेलीह भीतर अपना कोठली दिस। धीरे-धीरे कृष्ण सेहो लागि क' पाछाँ राधाक पीठे पर पहुँचलखिन। एतनी काल मे पहुँचि जएथिन कृष्ण तकर नहि छलनि कनियों अनुमान। सरियाइयो कहाँ सकलीह आँचर पर्यन्त ...दुष्ट केहन जे पैसि गेलाक बाद कोठली मे खखसलनि कर्तव्य, कएलनि-राधा के साकांक्ष । अप्रत्याशित एहि कृष्ण-कृत्य पर भ' गेलीह क्रोधित । जेना तेना सरियबैत आँचर, तथापि घुरलीह पाछाँ दिस फेरलनि मुँह..कुटिल शृंगारोदीप्त भुवन मोहिनी बिहुँसी पसारने ठाढ़-श्रीकृष्ण । लग आबि क' खौंझाएल पोसुआ बिलाड़ि जकाँ राधा ! छड़पैत सन क्रमे ल'ग पहुँचि कृष्णक पीताम्बरी झीकैत’ 'हरण कर' लगलखिन.. . –‘'ई की, ई की करैत छें राधा । हमरा किएक करैत छें एना उघार ? देखत लोक हमर की रहत इज्जतिक हाल ! आखिर पुरुखोक होइत छैक इज्जति, मर्यादा लज्जा, पुरुखोक चीर हरण होइत छैक यदि नहि रहै पुरुषत्व...।' किन्तु हँसी-ठठा सँ राधा कनियों ने ठंढयलीह। कृष्णो बूझि ने सकलाह, राधा बजलीह किछु बा कनलीह..। स्नेहांक मे बन्हबाक हुनक मृदु प्रयास कें ताग जकाँ खुट द’ तोड़लनि। खौंझायलि ओ एतबा जे कृष्णक केश के पकड़ि घीच' लगलीह। ओ रहथि नहि प्रस्तुत, राधाक हेतनि एहेन स्नेहाघात। केश तिराइत मन छटपटबैत कननमुँह भ' गेलाह। मुदा राधा तँ जेना छलीह बताहि भेलि अपन तामस सँ। बूझल कृष्ण धैर्य सँ । सक्कत-बाँहि स्नेह सँ बन्हैत बुझब' लगलाह- -‘'भेलौ कि तोरा, की बात, की भेलौए बाज त किछुओ, हमरे सप्पत तोरा, भेलौए की से तँ कहै बताहि !... हमरो मन धधकैये कतेक दिन, मास-बरख सँ, कहाँ भेटैए शीतल स्नेहक छाहरि हमरो । तइ पर सँ तोरो यदि होउ एहिना हाल तँ हमर जीवन कोना चलत, कहिया धरि, कतबा दूर से तोंही क'ह कने ।...आखिर की भेलनिहें हमर बुधियारि राधिका जी कें , बुझियै त। से दोख जे भेलय हमरे बुते ? कोना-की। हिचुकैत राधिका कें करेज सँ साटि बड़ी काल कृष्ण अपनहुँ हिचकैत रहलाह निरन्तर ओतबा काल । दुहुक हिचुकब क्रमशः एकमेक बनल चलि गेलनि । राधा कें ई की भेलनि आ कृष्णहु कें ? दुनूक भाव आवेग एकात्म भ' चुपचाप बहिते गेल...जानि नहि एहि करुण चुप्पी मे जीवनक कतेक युग बीति गेल ! स्थिति मे एक ध्यान प्राण सेहो एक।
-' निन्न भ' गेलौ राधा, सूति गेलें तों की ? ' कृ्ष्णक एहि पुछैत स्वर पर चिहुँकि उठलीह राधा । उठितहि भान भेलनि जेना होथि ओ श्रीकृष्णक आलिंगन मे माँझ आँगन मे ठाढ़ि । चारू कात सँ देखैत लोक, सर-संबन्धिक- सखि बहिनपा...। आकि लाज सँ व्याकुल एकहि बेर मे श्रीकृष्णक बाँहि सँ झकझोरि छोड़बैत स्वयं कें चिकरि उठलीह, पड़यलीह- लत्त॓-फत्त॓, निछोह...
निन्न एतहि टुटि गेलनि । साँस फुलैत भेलीह बेसम्हार। जेना लोहारक भाँथी हो, ओहिना ताप जरैत उसाँसक भाँथी हो ई देह। आब भग्न स्वप्नक कर' बैसलीह भाग्यदशा विश्लेषण। पछताइत-पछताइत मन भेलनि अस्तम्व्यस्त । केहन दुर्लभ सुन्दर स्वप्नक क' देलियैक अपने दुर्दशा। कि अछि एतबो नहि लिखल , केहन भाग्य से कहि नहि, स्वप्नो जेना सुड़ाह होइत अछि, सोचथि राधा ।
मुदा ने जानि जखनि अबैत अछि किएक आधा , सौंस स्वप्न केहन दुर्लभ यदि हो मनोरथक । ओना तँ विकट भयावह स्वप्नक अंत नहि, व्यर्थक भरि- भरि राति बौआइत बन-झाँखुर मे बाधे बोने भरि संसार विकल भयभीत एकसर अनन्त मे लोक जेना पाछाँ सँ खेहारले जाइत कोनो राक्षसी सन असकर अब्बल नारीक पाछाँ लेने बर्छी-भाला कोनो डेग पर गाँथि सकैत अछि पीठहि दिस सँ त्रस्त जिजीविषा ग्रस्त प्राण छटपट दौड़ैत अनवरत
जानि ने चल जाइत अछि कतोक योजन कतबा आगाँ आ कि ओही अपस्यांत दशा मे जत' धरैत अछि सुस्तयबा लेल एकटा डेग किंचित निश्चिन्त जे राक्षसी पाछाँ बहुत पाछहि छुटि गेलए, हम पहुचल छी आबि सुरक्षित अपन गामेक इलाका तें एक पल
ल' ली दम । साँस करी स्थिर आश्वस्त, आकि जेना अवतार जेकाँ आगाँ मे आबि क' ठाढ़ कोनो भ' जाय विचित्र बिकराल भयावह हिंसक पशु मात्र एकटा ओकरा काया मे समाएल हो जेना कतोक बाघ-सिंह-हाथी-ऊँट आदि, सभ एकहि ठाम एक संग मुँह बाबि क' ठाढ़ जेना हो बड़का महलक सिंहद्वार केर फाटक जाहि मे एक संग पैसैत अछि सहस्रो सैनिक, अपन घोड़ा-हाथी रथ समेत से खुंखार जानवर सब केहन हँसैत लगैत अछि, जेना कि ओ गीड़य नहि, अहंक अएला पर अति प्रसन्न स्वागत करैत अछि केहन लगैत अछि एहन विशाल जानवर ई कोन थिक, ई जीव, जानि ने पहिले पहिल देखै छी- आगाँ एकटा डेग बढ़ौलक तँ सोझाँक धरती डोलैत बुझाएल, दोसर डेग पर देह-प्राण सौंसे संज्ञा जेना हेरायल, कोनो नहि बाँचल विकल्प कतहु पड़यबाक, सब दिशा मे हो जेना ओकरे पसरल पंजा,हाथ-पैर
ओना तँ विकट भयावह स्वप्नक अंत नहि, व्यर्थक भरि- भरि राति बौआइत बन-झाँखुर मे बाधे बोने भरि संसार विकल भयभीत एकसर अनन्त मे
लोक जेना पाछाँ सँ खेहारले जाइत कोनो राक्षसी सँ असकर अब्बल नारीक पाछाँ लेने बर्छी-भाला
कोनो डेग पर गाँथि सकैत अछि पीठहि दिस सँ त्रस्त जिजीविषा ग्रस्त प्राण छटपट दौड़ैत अनवरत जानि ने चल जाइत अछि कतोक योजन कतबा आगाँ आ कि ओही अपस्यांत दशा मे जत' धरैत अछि सुस्तयबा लेल एकटा डेग किंचित निश्चिन्त जे राक्षसी पाछाँ बहुत पाछहि छुटि गेलए, हम पहुचल छी आबि सुरक्षित अपन गामेक इलाका तें एक पल ल' ली दम साँस करी स्थिर आश्वस्त, आकि जेना अवतार जेकाँ आगाँ मे आबि क' ठाढ़ कोनो भ' जाय विचित्र बिकराल भयावह हिंसक पशु मात्र एकटा ओकरा काया मे समाएल हो जेना कतोक बाघ-सिंह-हाथी-ऊँट आदि, सभ एकहि ठाम एक संग मुँह बाबि क' ठाढ़ जेना हो बड़का महलक सिंहद्वार केर फाटक जाहि मे एक संग पैसैत अछि सहस्रो सैनिक, अपन घोड़ा-हाथी रथ समेत से खुंखार जानवर सब केहन हँसैत लगैत अछि, जेना कि ओ गीड़य नहि, अहंक अएला पर अति प्रसन्न स्वागत करैत अछि केहन लगैत अछि एहन विशाल जानवर ई कोन थिक, ई जीव, जानि ने पहिले पहिल देखै छी- आगाँ एकटा डेग बढ़ौलक तँ सोझाँक धरती डोलैत बुझाएल, दोसर डेग पर देह-प्राण सौंसे सज्ञा जेना हेरायल, कोनो नहि बाँचल विकल्प कतहु पड़यबाक, सब दिशा मे हो जेना ओकरे पसरल पंजा, हाथ-पैर
प्राण जेना चीत्कार क' उठय भय सँ आर्त्त अपन रक्षार्थ जोर ठहक्का पड़ल जेना ब्रह्माण्डे बिजलौका सं एक संग कड़कल चमकल आ सृष्टि भरिक मेघक समूह एकबेर गरजल, डरे भेल पसेना सं तरबतर थरथराइत सर्वांग बुझा रहलए जे जाइत होइ जेना ओहि जन्तुक बड़का फाटक सन खुजल कल्ला बाटे ओकर पोखरि सन पेटक सत्ते तखने उठल कंठ मोकल घिरघिरी भरल, आर्त्त पुकार मुदा के सुनय, सुनय के ? सुननहारक अपने भय-व्याकुल असकर ई वर्त्तमान स्वयं अपने ई प्रिय एकान्त, केहन असुरक्षित आ अशांत ! कोन जीव थिक आखिर एहन बिकराल आओर खुंखार सपनहुँ देखल तँ होयतै अवश्य अस्तित्व एकर पुछबनि हुनके, जँ भेटता तँ, कोन थीक ई जीव ? आइधरि देखल आ ने सुनल छल, माधव ! कोनो गतिमान पहाड़ कि सत्ये कोनो जीवे छल हुनका तँ हेबे टा करतनि एकरो बूझल परिचय। की नहि अछि हुनका एहि सृष्टिक जे किछु कोनो विषय अछि जानि ने कत्तेक ज्ञान कोना एतबहि बयसें पौने छथि सबटा ओ बूझैत छथि हुनका सबकिछुए सुझै छनि घ'न अन्हरिया मे पर्यन्त सबकिछु देखाइत छनि... कोना हमर खसि पड़ल कनपासा यमुना कातक घासक बन मे ओहन अन्हरिया राति मे से ओ ताकल एक्कहि क्षण मे कोन आँखि छनि केहन ताहि मे ज्योति विराजित दिव्य जत' जत' पड़ि जाइछ स्वतः भ' जाइछ ओत' इजोत ! हुनका सोझाँ तें अतिशय सम्हार' पड़इछ आँचर से सब सखि केर अनुभव वस्तुक भीतर वस्तु देखि लेबक अद्भुत कौशल छनि बिनु देखनहुँ श्रीमान जानि ने की की देखि ल' जाइत छथि सोचि स्मरण करैत लजयली एकान्तहु मे राधा...
एखन कत' छथि कृष्ण ? समय स्वयं सिरमा मे रखने जलक खाली बासन, अछि पियास सँ बिकल मुदा सबटा इनार आ पोखरि कोना जानि ने बिसरि गेल अछि तकर प्रयोग आ रक्षा प्रकृत जन्म भेल इच्छाक नहि क' रहलए लोक निबाह अचि समुद्र मे माछ जकाँ पर तृप्त ने छैक पियास केहन परिस्थिति केहन बुद्धि केर की बनलछि बिडंबना केकरो बुझबा मे नहि आबय ई नव युग केर रचना कि सब कोना कोन कोन विधियें पसरि रहलए घर-घर सलिलक स्वतः धार बहइत जे छल बहैत सब जीवन ठमकल ठमकल दुःक्ख मे भारी डेग-डेग पर क्षण-क्षण बिनु थकनीयें बैसि जाइत अछि सोच मे पड़ जाइत अछि बिलकुल्ले पसरल जाइत ई नबका मोनक रंग ढंग बिना युद्ध केर प्रतिदिन प्रति घर भ' रहलए जे हताहत घोर अशान्ति भरल बेशी मन चिन्तें अछि उद्विग्न-उन्मन कारण तेहन नुकाएल गोपन बूझि ने पाबि रहल लोक अधबयसे मे युगक ताल देखि भोगि नचारी गबइत लोक समय बनल जाइत अछि दिन-दिन स्वयं मूर्त्ति लाचारीक सभ शरीर सँ प्राण जेना सूखल जाइत अछि पल-पल अधिक लोक जेना बनि चुकलए बौक, कतोक बहीर शेष जीवनक नब ढर्रा सँ आतंकित आ अधीर आब परस्पर गौआँ-गौआँक रहि ने गेल आप्तता सब जेना सब सँ नुकाएल ताकय बचबा केर रस्ता तें अनेर मे आओर अकारण पसरि रहल अछि दूरी ककरो पर ककरो ने जेना बाँचल अछि आब विश्वास बहुत लोक गुम्म, बेशी दुखिया आरो बहुत उदास ई कोन युगक प्रवेश भेल अछि ओहन शान्त जीवन मे कर्मतृप्त मनुखक समाज मे केहन अशुभ से होएब
बेशी हाथ कपार धेने चिन्तित बड़ ब्याकुल-ब्याकुल प्रत्यक्षें तँ शान्त जेना किछु भेले नहि हो किछुओ किन्तु लोक जीवनक अंतः उद्वेलित आगि जरैत'छि सब सहिये रहलए लेकिन व्यथा अपन ने कहैत'छि
देह मोन आ प्राणक मध्य मे की अछि जीवन केर सू्त्र अछि दर्शन,आस्था बा युग सँ कहल-सुनल अनुबन्ध नहि बूझल होइछ बेशी क्षण एखन उठाएब प्रश्न देह विकलता मे अपना द' अनमन अपने सन मारि ठहक्का हँसय प्राण चकित चुपायल मोन सभ अछि सबमे तैयो अपना अज्ञाने लाचार जुड़य सभक अस्तित्व एकहि मे एक तंत्र संचार बोधक भिन्न स्थिति रहितहुँ अछि एक बिन्दु पर सम पूर्व गान केर हेतु जेना स्वर-शब्द लयक हो नियम बिना प्रयासे स्वतस्फूर्तित ओना होइछ सब क्रिया किन्तु आइ काल्हि ताहू मे होअय लागल व्यतिक्रम देह-मन आ प्राणक मध्य घटि रहल जेना हो समन्वय पहिने छल सब क्रिया बोध आ निष्पादनक सहजता आइ जेना टुटि गेल सूत्र हो आपसक तत्परता एक देह-मन-प्राणक सृष्टिक सुन्दर एहन महल मे आब जेना क' रहल वास हो तीनू एकसर एकसर तीनू ताकि लेने हो जेना अप्पन निष्क्रिय एकान्त तीनू मे बाजा भूकी नहि तीनू निपट अशान्त।
ई अनुभव कि खसल एकाएक कोनो मेघ सँ पानि जकाँ ई अनुभव कि जीवन मे आएल नोतल कोनो नोथारी ई अनुभव कि आयल कोनो बनि समधियान केर भार मे ई अनुभव कि आबि रहलए कीनि क' हाट-बजार सँ ई अपनहि देह-मन-प्राण मे एतेक समाद हीनता सोझाँक सहज प्राप्त सुख पर्यन्त बनल जाइत अछि दुर्लभ कारण किछु प्रत्यक्ष कहाँ अछि कहाँ साफ किछु लक्षण मात्र अदृश्य संदेहक छाया सँ असुरक्षित आँगन दूरी बढ़ल जाइत अपना मे, बिन बातहिक परस्पर टूटल संबंधक स्थिति सम आँगन मे घर घर चौंकलि राधा, दुब्बरि गता उठलि चललि डगमग डग ई अनुभव आएल अवश्ये.बड़ बुधियारी बाटे। हँ बुझबा मे अबैत अछि आब ई आ'ल हाटे- हाटे इ आएल हाटे- हाटे। हाट बनल नब बाट जेना जीबाक सब तरहे।
सभ बाट पर आब जनमि रहलए बन-झाँखुर। लोक लाचार । असमंजस मे - की करी, की नहि, कोन बाट चली एहि दुःख-दुविधा मे जे एक तँ ओहनहुँ छलैक कहाँ किछु विशेष हाथ आब तँ जेहो छलैक अपन अधीन, अपना योग्य, सभ भेल जा रहल छैक बेहाथ। किछु तं अपनहि घरक नवताक अन्हर-बिहाड़ि मे आ किछु भरि समाजक बदलि रहल दृष्टि आ व्यवहारो मे। यद्यपि कि सभक दुःख-दुविधा छैक रंग-रूप एक्के। मुदा से नहि बूझि पबैये लोक एकरा एना भ' क 'एहि रंग मे जे भ' रहलए सब किछु अंग-भंग। जीवन यापनक पारंपरिक बाट पर चलैत, सहैत जाइत सबटा नबका-नबका आघात जे प्रत्यक्ष मे तं छैक बड़ गंहीर स्नेहक स्पर्श, मुदा प्राण के थकुचि रहल छैक एक एक पल। कत' सँ ई कोन रोगाह वायु बहैत आयल छैक सभक बुद्धि बौआयल सभक हृदय घायल छैक। ताहू मे बेशी तं बनल छैक विडंबना ई, एहि सबक जड़ि छैक आन नहि, अपनहि सब ई यथा-पुत्र,पुत्रबधू, आ संगी-साथी सब। बहि रहल एहि बसात संग बेश गदगद अछि, बिनु बुझने एकर असरि। काल्हुक भविष्य पर अधिसंख्य नब लोक अपन-अपन फूकि रहलए घर। के बुझबय ? बूझक सेतु पुरना लोक सबकें राखल जा रहल अछि कतिया क'। नबके लोक सम्हारि रहल अछि नब युगक रासि। बढ़ा रहल गाड़ी के हाँकि क' एहि तरहें जेना कोनो दुपहियाक गाड़ी नहि, समस्त पृथ्वीये होथि गुड़का रहल, अपना सामर्थ्ये,अपनहि बुद्धि-ब्योंत सँ-आगाँ। समाज, बयसक पुरान ठकमूड़ी लगौने बैसल छथि चुपचाप, सबटा देखैत!
तँ कि ई प्राण जे थकुचल जाइत बुझाइत अछि दिन राति से नहि थिक एकमात्र हमर?लोकोक बहुत छैक आन अपन। तँ कि छैक व्याकुल हमरा सँ पृथक किछु लोक, तँ कि ई संसार, समाज बनल छैक ओतहु आन? छोड़ि सर-संबन्धी कि ओतहु कएने छै असकर अपनहि दुःखक ज्वाला मे कि जरैत अछि आनो घर एहन विपत्ति नव प्रकारक आ पहिले पहिल स्वभावक, तँ कि अछि प्रारंभ ई अनुभव केर नबका आवक-जावक? चीन्हि ने पाबी हम यद्यपि एकरा कोनो आँखिक विचार सँ द्विविधे दुविधा अछि प्रति पल प्रश्न सोझ सन्सार सँ अछि एही मे शुरू मनुक्खक कोमल संवेदन सब मौलाएब, टूटि खसब गाछ सँ पात जेना सुखायल क्रमशः पातक संगहि डारि, ध'र आ पूरा गाछ, सुन्न कएल जाइत जीवन रस सँ धराशायी भ’ जाइछ गाछ तँ तथापि मरि-सुखा क' रहि जाइत अछि उपयोगी जाड़नि बनि जरि चूल्हि बनाबय, आबाल बृद्धक भोजन, जड़काला- हाड़कंपौआ ऋतु मे धधकि क' दिअय जीवनक ताप, मुदा मनुख-जीवन, ई देह- समस्त बिलक्षण, प्रकृतिक अनुपम सृष्टि पृथ्वी पर अनुपम जीवित सेहो एहन निरर्थक बनल अकार्यक देहक जीवन हो अंत तखन पर्यन्त लिअय फेरो समाज,परिवार,प्रकृति सँ काँच-सुखायल गाछ जे होइछ काठ, देह कें अंतिम परिणति धरि पहुँचाबय मे,शरीर-मृत मनुक्ख शरीर डाहै मे करबा लैत अछि खर्च जाइतो-जाइतो।
-'हम-हम नहि राधा, तों..की सब सोचैत छें ...पुछैत राधा, कहैत राधा,सुनैत राधा..एखनहि केहन छल आत्म मुखर सक्रिय स्पन्दित ! मिझा गेल डिबिया जकाँ रहलए केना धुँआइत, प्रश्नक कोनो टा उत्तर नहि, कोनो टा ने बात-संवाद मात्र दीर्घ निश्वास-दीर्घ निश्वास-'कोना छी अहाँ कृष्ण, कहाँ छी, किएक छी ? एहन समय हमरे जीवन मे किएक एतेक रास जेहो नहि लेने ऋण तकरो भरि रहल छी सूदि, मूर धएल जसक तस अदृश्य कोनो बणिकक हमर पल, दिन, मास बर्ख चुकबैत अपन एक-एक साँस । एहन स्थान किएक बनि गेलय इएह हमर ई मन? भरि संसारक बस्तु, व्यक्ति, व्यक्तिक सब कार्यकलाप, क्रीड़ा आ सब कर्मक बनि गेल अछि सुलभ आँगन। जेकरा जखन सुभीता आबय क' लिअय व्यवहार। हमही आँगन हम मुदा ठकमूड़ी लेने ठाढ़ । कहि ने सकी केकरो निजताक बोझ, एकर संताप, बुझा सकी ने अपन एहि वर्तमानक कुटिल यथार्थ , हमर अर्थ छिड़ियाएल जेना कृषकक बीयाक छितनी-पथिया हो, बागु कर' खेत जाइत काल बाटे मे गेल हो हेराय, जतबा जे बिछि-समेटि सकलौं, हँसोथि-हँसोथि, खिन्न मन कर्माहत देहें यथोपलब्ध बीया कयलौं बागु ! घुरल हो ओहि प्रचण्ड रौद कें दैत ललकार घर आ बनल तथापि जीवन क्रम मे गाम मे स्थिर आशान्वित, फसिलक भावी उपलब्धिक दिस आश्वस्त, मुदा पुनि जतबो बीया छीटल गेल हो, घामे-पसेने खेत जोति तैयार कएल गेल मे तकरो सब कें चुनि क' ल' चल गेल हो चिड़ैक महा हेंज, एम्हर एक दिस निश्चिन्तता मे गबैत मनक भवितव्य, ओम्हर दोसर दिस सुन्न कएल बनि गेल हो खेतक गर्भ ! एम्हर निरन्तर बीया मे अंकुरयबाक , माटि के फोड़ि जन्मबाक-बढ़बाक, बढ़ि क' फसिलक गाछ विकसवाक अहो दिवस मर्मांतक प्रतीक्षा...ओम्हर जन्म सँ पहिनहि कोखि कें रिक्त करैत काल-गति, ई एहन हमरे टा किएक कर्माहत हमरे टा किएक वर्तमान ! आकि बोगि रहलए एहने आ यैह व्यथा आनो आन ?' सोचैत राधा छोड़लनि नमहर श्वाँस..। जानि ने कखन-कोना लागि गेल रहनि राधा कें आँखि। नहि जानि कखन बैसले बैसलि ओंघड़ा गेलीह ओ पटिया पर। मुदा ई भेलनि बोध जेना देह भ' गेल डेंगी नाव! पटिया बनि क' यमुना मे हुनका कराब' लगलनि-झिलहरि बड़ी काल...एकसरि झिलहरि खेलाय मे रहली मस्त- बड़ी काल ! तखन होअ' लगलनि अगिले क्षण मोन विरक्त । आखिर यत्न क' नाव के घाट लगौलनि , भेलीह-संतुष्ट जे पहिल बेर नहि लेब' पड़ल श्रीकृष्णक सहयोग, आ खेपि सकलहुँ नाव, उतरि गेलौं पार ! अपन सुख लेल किएक करी केकरो नेहोरा ? भने कृष्णे किएक नहि होथि। एकहि मोन मे तुरन्त उपस्थित भ गेलनि-ग्लानि, छिया, कृष्ण पर निर्भरता तँ हमर नियति आ प्रारब्ध। कोना आयल मोन मे एहन बात ? धिक्कार मोन -धिक्कार... मुदा ई की ? घाट पर साक्षात् कृष्ण महराज ठाढ़ ! वैह खौंझबै वला बिहुँसैत, बढ़ा चुकल नाव सँ गमग उतरि रहलि राधा दिस अपन दहिना हाथ। सस्नेह, सार्द्र दैत अपन हाथ राधा भेलीह बिकल । मिला नहि सकलीह हुनका सँ आँखि । -' भरिसक मन मे हमरा बिनु यमुना मे नाव चला लेबाक छौक मन पर भार । अपन सुखक अपनहि कर्म-निर्भरताक सेहो छौक आत्म दीप्त विश्वास...राधा, तों केहन लागि रहल छें एहि अलौकिक क्षण , तोरो ने बूझल छौक। हमरो तँ थिक जीवनक ई प्रथमहि दुर्लभ दृश्य ! हम केना योगा क' राखी ई आनन्द राधा, कोन बिधि, तोंही देखा दे उपाय।' -' जाउ-जाउ, एत्तहु खौंझबैये लए हमरा आएल छी अहाँ । हम कएलए स्त्रीगन भ' क' अगरजितपना आ छी ताही मोने बेचैन, अहाँ के सुझैए विनोद एखन ।' राधा किन्चित स्नेह-क्रोधित भ' कहलखिन तँ कृष्ण भेलाह गंभीर। -' नहि राधा, हम तँ छी परम हर्षित-संतुष्ट। यैह त हमर कामना छल, तों बनि जायं-स्वयं आत्म निर्भर । नहि रह' पड़ौ तोरा हमरा पर निर्भर । तों कएलेंहें हमरे काज। हम तँ तें छी प्रसन्न।' -'किएक नहि, आब आओर रहब निश्चिन्त, मरओ राधा कि जीबओ, नहि राख' पड़त फिकिर ।'
नाव सँ उतरि क' दरबनिया द' क' पड़यबाक छलनि विचार, मुदा ई तँ सर्वथा नवे परिस्थिति कएने छथि कृष्णजी ठाढ़ ! जानि ने एतबा काल एहि बीच की हएत आँगनक हाल। जे हो ... आब एहि क्षण तँ माधव-मायाजाल मे छी बाझलि हमहूँ । आगाँ देखी कोन नाटकक केहन दृश्य प्रस्तुत करय वला छथि-नटवर नागर...सकल गुण आगर !
बूलि क' राधा आँगन अयलीह तं आश्चर्ये ठकमूड़ी लागि गेलनि। बीच आँगन मे कृष्ण ठाढ़, सद्यः। हुनकर स.बोधनक कोनो टा ने जबाब दैत चलि गेलीह भीतर अपना कोठली दिस। धीरे-धीरे कृष्ण सेहो लागि क' पाछाँ राधाक पीठे पर पहुँचलखिन। एतनी काल मे पहुँचि जएथिन कृष्ण तकर नहि छलनि कनियों अनुमान। सरियाइयो कहाँ सकलीह आँचर पर्यन्त ...दुष्ट केहन जे पैसि गेलाक बाद कोठली मे खखसलनि कर्तव्य, कएलनि-राधा के साकांक्ष । अप्रत्याशित एहि कृष्ण-कृत्य पर भ' गेलीह क्रोधित । जेना तेना सरियबैत आँचर, तथापि घुरलीह पाछाँ दिस फेरलनि मुँह..कुटिल शृंगारोदीप्त भुवन मोहिनी बिहुँसी पसारने ठाढ़-श्रीकृष्ण । लग आबि क' खौंझाएल पोसुआ बिलाड़ि जकाँ राधा ! छड़पैत सन क्रमे ल'ग पहुँचि कृष्णक पीताम्बरी झीकैत’ 'हरण कर' लगलखिन.. . –‘'ई की, ई की करैत छें राधा । हमरा किएक करैत छें एना उघार ? देखत लोक हमर की रहत इज्जतिक हाल ! आखिर पुरुखोक होइत छैक इज्जति, मर्यादा लज्जा, पुरुखोक चीर हरण होइत छैक यदि नहि रहै पुरुषत्व...।' किन्तु हँसी-ठठा सँ राधा कनियों ने ठंढयलीह। कृष्णो बूझि ने सकलाह, राधा बजलीह किछु बा कनलीह..। स्नेहांक मे बन्हबाक हुनक मृदु प्रयास कें ताग जकाँ खुट द’ तोड़लनि। खौंझायलि ओ एतबा जे कृष्णक केश के पकड़ि घीच' लगलीह। ओ रहथि नहि प्रस्तुत, राधाक हेतनि एहेन स्नेहाघात। केश तिराइत मन छटपटबैत कननमुँह भ' गेलाह। मुदा राधा तँ जेना छलीह बताहि भेलि अपन तामस सँ। बूझल कृष्ण धैर्य सँ । सक्कत-बाँहि स्नेह सँ बन्हैत बुझब' लगलाह- -‘'भेलौ कि तोरा, की बात, की भेलौए बाज त किछुओ, हमरे सप्पत तोरा, भेलौए की से तँ कहै बताहि !... हमरो मन धधकैये कतेक दिन, मास-बरख सँ, कहाँ भेटैए शीतल स्नेहक छाहरि हमरो । तइ पर सँ तोरो यदि होउ एहिना हाल तँ हमर जीवन कोना चलत, कहिया धरि, कतबा दूर से तोंही क'ह कने ।...आखिर की भेलनिहें हमर बुधियारि राधिका जी कें , बुझियै त। से दोख जे भेलय हमरे बुते ? कोना-की। हिचुकैत राधिका कें करेज सँ साटि बड़ी काल कृष्ण अपनहुँ हिचकैत रहलाह निरन्तर ओतबा काल । दुहुक हिचुकब क्रमशः एकमेक बनल चलि गेलनि । राधा कें ई की भेलनि आ कृष्णहु कें ? दुनूक भाव आवेग एकात्म भ' चुपचाप बहिते गेल...जानि नहि एहि करुण चुप्पी मे जीवनक कतेक युग बीति गेल ! स्थिति मे एक ध्यान प्राण सेहो एक।
-' निन्न भ' गेलौ राधा, सूति गेलें तों की ? ' कृ्ष्णक एहि पुछैत स्वर पर चिहुँकि उठलीह राधा । उठितहि भान भेलनि जेना होथि ओ श्रीकृष्णक आलिंगन मे माँझ आँगन मे ठाढ़ि । चारू कात सँ देखैत लोक, सर-संबन्धिक- सखि बहिनपा...। आकि लाज सँ व्याकुल एकहि बेर मे श्रीकृष्णक बाँहि सँ झकझोरि छोड़बैत स्वयं कें चिकरि उठलीह, पड़यलीह- लत्त॓-फत्त॓, निछोह...
निन्न एतहि टुटि गेलनि । साँस फुलैत भेलीह बेसम्हार। जेना लोहारक भाँथी हो, ओहिना ताप जरैत उसाँसक भाँथी हो ई देह। आब भग्न स्वप्नक कर' बैसलीह भाग्यदशा विश्लेषण। पछताइत-पछताइत मन भेलनि अस्तम्व्यस्त । केहन दुर्लभ सुन्दर स्वप्नक क' देलियैक अपने दुर्दशा। कि अछि एतबो नहि लिखल , केहन भाग्य से कहि नहि, स्वप्नो जेना सुड़ाह होइत अछि, सोचथि राधा ।
मुदा ने जानि जखनि अबैत अछि किएक आधा , सौंस स्वप्न केहन दुर्लभ यदि हो मनोरथक । ओना तँ विकट भयावह स्वप्नक अंत नहि, व्यर्थक भरि- भरि राति बौआइत बन-झाँखुर मे बाधे बोने भरि संसार विकल भयभीत एकसर अनन्त मे लोक जेना पाछाँ सँ खेहारले जाइत कोनो राक्षसी सन असकर अब्बल नारीक पाछाँ लेने बर्छी-भाला कोनो डेग पर गाँथि सकैत अछि पीठहि दिस सँ त्रस्त जिजीविषा ग्रस्त प्राण छटपट दौड़ैत अनवरत
जानि ने चल जाइत अछि कतोक योजन कतबा आगाँ आ कि ओही अपस्यांत दशा मे जत' धरैत अछि सुस्तयबा लेल एकटा डेग किंचित निश्चिन्त जे राक्षसी पाछाँ बहुत पाछहि छुटि गेलए, हम पहुचल छी आबि सुरक्षित अपन गामेक इलाका तें एक पल
ल' ली दम । साँस करी स्थिर आश्वस्त, आकि जेना अवतार जेकाँ आगाँ मे आबि क' ठाढ़ कोनो भ' जाय विचित्र बिकराल भयावह हिंसक पशु मात्र एकटा ओकरा काया मे समाएल हो जेना कतोक बाघ-सिंह-हाथी-ऊँट आदि, सभ एकहि ठाम एक संग मुँह बाबि क' ठाढ़ जेना हो बड़का महलक सिंहद्वार केर फाटक जाहि मे एक संग पैसैत अछि सहस्रो सैनिक, अपन घोड़ा-हाथी रथ समेत से खुंखार जानवर सब केहन हँसैत लगैत अछि, जेना कि ओ गीड़य नहि, अहंक अएला पर अति प्रसन्न स्वागत करैत अछि केहन लगैत अछि एहन विशाल जानवर ई कोन थिक, ई जीव, जानि ने पहिले पहिल देखै छी- आगाँ एकटा डेग बढ़ौलक तँ सोझाँक धरती डोलैत बुझाएल, दोसर डेग पर देह-प्राण सौंसे संज्ञा जेना हेरायल, कोनो नहि बाँचल विकल्प कतहु पड़यबाक, सब दिशा मे हो जेना ओकरे पसरल पंजा,हाथ-पैर
ओना तँ विकट भयावह स्वप्नक अंत नहि, व्यर्थक भरि- भरि राति बौआइत बन-झाँखुर मे बाधे बोने भरि संसार विकल भयभीत एकसर अनन्त मे
लोक जेना पाछाँ सँ खेहारले जाइत कोनो राक्षसी सँ असकर अब्बल नारीक पाछाँ लेने बर्छी-भाला
कोनो डेग पर गाँथि सकैत अछि पीठहि दिस सँ त्रस्त जिजीविषा ग्रस्त प्राण छटपट दौड़ैत अनवरत जानि ने चल जाइत अछि कतोक योजन कतबा आगाँ आ कि ओही अपस्यांत दशा मे जत' धरैत अछि सुस्तयबा लेल एकटा डेग किंचित निश्चिन्त जे राक्षसी पाछाँ बहुत पाछहि छुटि गेलए, हम पहुचल छी आबि सुरक्षित अपन गामेक इलाका तें एक पल ल' ली दम साँस करी स्थिर आश्वस्त, आकि जेना अवतार जेकाँ आगाँ मे आबि क' ठाढ़ कोनो भ' जाय विचित्र बिकराल भयावह हिंसक पशु मात्र एकटा ओकरा काया मे समाएल हो जेना कतोक बाघ-सिंह-हाथी-ऊँट आदि, सभ एकहि ठाम एक संग मुँह बाबि क' ठाढ़ जेना हो बड़का महलक सिंहद्वार केर फाटक जाहि मे एक संग पैसैत अछि सहस्रो सैनिक, अपन घोड़ा-हाथी रथ समेत से खुंखार जानवर सब केहन हँसैत लगैत अछि, जेना कि ओ गीड़य नहि, अहंक अएला पर अति प्रसन्न स्वागत करैत अछि केहन लगैत अछि एहन विशाल जानवर ई कोन थिक, ई जीव, जानि ने पहिले पहिल देखै छी- आगाँ एकटा डेग बढ़ौलक तँ सोझाँक धरती डोलैत बुझाएल, दोसर डेग पर देह-प्राण सौंसे सज्ञा जेना हेरायल, कोनो नहि बाँचल विकल्प कतहु पड़यबाक, सब दिशा मे हो जेना ओकरे पसरल पंजा, हाथ-पैर
प्राण जेना चीत्कार क' उठय भय सँ आर्त्त अपन रक्षार्थ जोर ठहक्का पड़ल जेना ब्रह्माण्डे बिजलौका सं एक संग कड़कल चमकल आ सृष्टि भरिक मेघक समूह एकबेर गरजल, डरे भेल पसेना सं तरबतर थरथराइत सर्वांग बुझा रहलए जे जाइत होइ जेना ओहि जन्तुक बड़का फाटक सन खुजल कल्ला बाटे ओकर पोखरि सन पेटक सत्ते तखने उठल कंठ मोकल घिरघिरी भरल, आर्त्त पुकार मुदा के सुनय, सुनय के ? सुननहारक अपने भय-व्याकुल असकर ई वर्त्तमान स्वयं अपने ई प्रिय एकान्त, केहन असुरक्षित आ अशांत ! कोन जीव थिक आखिर एहन बिकराल आओर खुंखार सपनहुँ देखल तँ होयतै अवश्य अस्तित्व एकर पुछबनि हुनके, जँ भेटता तँ, कोन थीक ई जीव ? आइधरि देखल आ ने सुनल छल, माधव ! कोनो गतिमान पहाड़ कि सत्ये कोनो जीवे छल हुनका तँ हेबे टा करतनि एकरो बूझल परिचय। की नहि अछि हुनका एहि सृष्टिक जे किछु कोनो विषय अछि जानि ने कत्तेक ज्ञान कोना एतबहि बयसें पौने छथि सबटा ओ बूझैत छथि हुनका सबकिछुए सुझै छनि घ'न अन्हरिया मे पर्यन्त सबकिछु देखाइत छनि... कोना हमर खसि पड़ल कनपासा यमुना कातक घासक बन मे ओहन अन्हरिया राति मे से ओ ताकल एक्कहि क्षण मे कोन आँखि छनि केहन ताहि मे ज्योति विराजित दिव्य जत' जत' पड़ि जाइछ स्वतः भ' जाइछ ओत' इजोत ! हुनका सोझाँ तें अतिशय सम्हार' पड़इछ आँचर से सब सखि केर अनुभव वस्तुक भीतर वस्तु देखि लेबक अद्भुत कौशल छनि बिनु देखनहुँ श्रीमान जानि ने की की देखि ल' जाइत छथि सोचि स्मरण करैत लजयली एकान्तहु मे राधा...
एखन कत' छथि कृष्ण ?
कला प्रदर्शिनी: एक्स.एल.आर.आइ., जमशेदपुरक सांस्कृतिक कार्यक्रम, ग्राम-श्री मेला जमशेदपुर, कला मन्दिर जमशेदपुर ( एक्जीवीशन आ वर्कशॉप)।
कला सम्बन्धी कार्य: एन.आइ.टी. जमशेदपुरमे कला प्रतियोगितामे निर्णायकक रूपमे सहभागिता, २००२-०७ धरि बसेरा, जमशेदपुरमे कला-शिक्षक (मिथिला चित्रकला), वूमेन कॉलेज पुस्तकालय आ हॉटेल बूलेवार्ड लेल वाल-पेंटिंग।
प्रतिष्ठित स्पॉन्सर: कॉरपोरेट कम्युनिकेशन्स, टिस्को; टी.एस.आर.डी.एस, टिस्को; ए.आइ.ए.डी.ए., स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया, जमशेदपुर; विभिन्न व्यक्ति, हॉटेल, संगठन आ व्यक्तिगत कला संग्राहक।
हॉबी: मिथिला चित्रकला, ललित कला, संगीत आ भानस-भात।
Kalikant Jha "Buch" 1934-2009, Birth place- village Karian, District- Samastipur (Karian is birth place of famous Indian Nyaiyyayik philosopher Udayanacharya), Father Late Pt. Rajkishor Jha was first headmaster of village middle school. Mother Late Kala Devi was housewife. After completing Intermediate education started job block office of Govt. of Bihar.published in Mithila Mihir, Mati-pani, Bhakha, and Maithili Akademi magazine.
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पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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