भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Sunday, February 13, 2011

'विदेह' ७५ म अंक ०१ फरवरी २०११ (वर्ष ४ मास ३८ अंक ७५)- PART IV


३. पद्य



  



३.६.जगदीश प्रसाद मंडल

३.७.गजेन्द्र ठाकुर
सुबोध कुमार ठाकुर
नव वर्षक रंग
नव उमंग नव तरंग
छाएल सगरो नव रंग
परिताहीन धरापर
नव प्रभातक पहिल किरण
चमकि उठल धरतीक कण-कण
परैताहीन धरापर
नव प्रभातक पहिल किरण
बीतल ऐ तरहेँ जे पूर्व वर्ष
देलक ककरो दुख ककरो हर्ष

केकरो देलक शुभ संदेश
ककरो देलक खाली लिफाफा
ककरो उठा कऽ लऽ गेल
तोड़ि दुनियाँक फंद
ऐ तरहेँ बीतल एक आर वर्षक रम्ग

जे बीत गेल से बीत गेल
मानल वएह इतिहास रचि गेल
परंच आबए नव वर्षमे
नव कल्पना करब नव चाँदक संग
देखू पसरि गेल सगरो नव वर्षक रंग

होअए मंगल सुखमय सभक नव वर्ष
रहए सभक जीवनमे हर्ष
रहए सदिखन छाएल नव तरंग
अछि सुबोधक कामना नव वर्षक संग
           
प्रयास
जुनि तोड़ू अपन आस
करैत रहू सदिखन अपन प्रयास
सोचू सभ दिन नूतन दिन अछि, सोचू आजुक दिन नीमन अछि
भरैत चलू निस दिन नव उल्लास
करैत रहू सदिखन अपन प्रयास

कने सोचियौ मीता, जौँ राम होइतथि अधीर
तँ सेतु बना लंका नै पहुँचितथि
पाण्डव कौरव संग नै लड़ितथि
तँए देख कठिन कार्यकेँ जुनि होउ निराश
करैत रहू सदिखन अपन प्रयास

देखू कखनो मकड़ाकेँ, सीखू किछु ओकरासँ
कए कऽ पुरजोर बेर-बेर अपन प्रयत्न
जाल बनाबए सुन्दर नीमन
दए सनेस ओ सभकेँ
नै छोड़ी कखनो प्रयास
विजय निश्चित भेटत
कहए सुबोध दैत ई आस
राखू अपनापर विश्वास
 मनोज कुमार मण्‍डल
कवि‍ता
बूढ़
चि‍थड़ा वस्‍त्र हाथमे लाठी
शाल चि‍पड़ा मुँह सि‍कुड़ल
दाँत नि‍पत्ता आँखि‍क
चश्‍मा माथक अस्‍ति‍त्‍व बचौने
लगैत जेना नर कंकाल हुअए
चारि‍-पाँच गोट नव तुरि‍या
छाैड़ा जि‍ंस झारने, देह
लचकबैत आगू भऽ बाजल-
अँए हौ बूढ़ू हमरा सभकेँ
देख लगै छह हमहूँ आब
जवान बनी आकि‍ जीवन
लीला समाप्‍त कऽ आब
पृथ्‍वीक भार हल्लुक करी?
मुड़ि‍ उठबैत चश्‍मा सम्‍हारैत
बूढ़ा बजलाह-
के छि‍अह बच्‍चा कने चि‍न्‍हए देह
जबाब तँ बि‍नु कहनहुँ भेटतह
कने समए जरूर लगतह
करनी तँ देखबे करबह
मरनी बेर कने आबए दहक।‍

 राम वि‍लास साहु
कवि‍ता-
मोनक बात की कहब

चलू बहि‍ना चलू जहि‍ना छी तहि‍ना
की कहब हालचाल बीत गेल ओहि‍ना
मंदि‍र,मेला कतंको घुमलौं जहि‍ना तहि‍ना
पूजा-पाठ बहुतो केलौं पीया आएत कहि‍या
फूल, बेलपत्ता, चंदन-अछत, धूप-दीप
सभ देबताकेँ चढ़ेलहुँ तीन पेखन
आब की करब समझि‍ नै पबै छी अखन
जादू-टोना सेहो केलौं चारू कोना
चलू बहि‍ना चलू जहि‍ना.....

चढ़ल उमरि‍या हम कोना बि‍ताएब
जि‍नगीक भार पहाड़ बनल अछि‍
पहाड़क भारसँ यौवन भार अधि‍क बनल अछि‍
देव-धरमकेँ दया नै अबैत अछि‍
चंचल मन दि‍ल धधकैत अछि‍
सभ कि‍छु रहि‍तौं दि‍न-राति‍ सुना बि‍तैत अछि‍
पि‍या बि‍ना जि‍नगी सुना-सुना लगैत अछि‍
मनक बात की कहब......
राजेश मोहन झा 'गुंजन'
कवि‍ता
     
पादुका वि‍योग

भरल फगुनहटि‍ गंगाक बसात छल
प्रदीप भैयाक वि‍आहक परात छल
बाबू शि‍वदानीक भरल दलानपर
बरि‍आती सभ मारै छल ठहक्का
झणहि‍ंमे अएला मास्‍टर साहेव
सरि‍आती मध्‍यक पाहुन अनूप
सटकल चट्टीमे दड़वरि‍ मारैत
गंगाक बालुसँ मोन छन्‍हि‍ तप्‍त
हॅफैत अपसि‍यांत कान्‍हपर गमछा
टूटल पादुका लेलनि‍ नुकाए
नवका सैन्‍डि‍ल ताकि‍ रहल छथि‍
कतहु भेटत तँ लेब चोराए
तखने नजरि‍ पड़लनि‍ एक जोड़ि‍
नवका चप्‍पल छल बड़ सोहनगर
बढ़ि‍याँ हएत एकरे पएर लगावी
सभ दि‍न हवाइए पर चललहुँ
आबहु गर्दभ छान छोड़ाबी
हाथमे लऽ कऽ फुलही लोटा
नव चप्‍पल पहि‍रि‍ नदी कात चललनि‍
देखते चट्टी चोरि‍ लुटकुन बाबू
पंकज संग चोरकेँ दौड़ खेहाड़लनि‍
सभ बरि‍आती लग पहुँि‍च गेल
ई चप्‍पल तँ टि‍ल्‍लूक थि‍क
खोलि‍ दि‍औ औ मास्‍टर साहेब
कतेक दि‍न काटब लऽ आनक चीज
बतीसी नि‍पोरि‍ मास्‍टर बजलनि‍
गलती भऽ गेल देखू उदर बेगमे
बूझि‍ गेलहुँ ई हमरे चप्‍पल
लोटा लऽ चललहुँ उद्वेगमे
दुरजी साहेब फूसि‍ बजै छी
जोरसँ बजला पंकज झट दऽ
टुटल चट्टीमे अहाँ गामसँ अएलहुँ
कोना पहि‍रलहुँ नैका खट दऽ
कीनै छी सभ दि‍न सड़ले आलू
महकल भट्टा भरि‍ कऽ बोरी
की पढ़बै छी नेना सभकेँ
अपने शि‍क्षक मुदा करै छी चोरी
देखू महादेव केहेन अभ्‍यागत
अहाँक दलानक नाम हॅसैलनि‍
पाहुन तँ छथि‍ बरि‍आतक गामे केर
ई कहि‍ महादेव अप्‍पन जान छोड़ैलनि‍
उदयन गामक छथि‍ पुरूष ई
अपरूप जीवन छन्‍हि‍ काज महान
टूटल चप्‍पल फाटल छन्‍हि‍ धोती
वि‍नु टीकट रामदीरीमे गंगा स्‍नान।
.....।
नवीन कुमार "आशा" (१९८७- )
पिता श्री गंगानाथ झा, माता श्रीमति विनीता झा। गाम- धानेरामपुर, पोस्ट- लोहना रोड, जिला- दरभंगा।
की लिखू तोरा लेल
गे सुनरी प्राण प्रिय
हे मधुप्रिय, हे कर्णप्रिय
मोन कहए लिख ओकरा लेल
जकर कोनो नै मोल
गे सुनरी प्राण प्रिय
हे मधुप्रिय, हे कर्णप्रिय
जखन देखी तोहर काया
कहए मोन फुसफुसाय
बौआ तूँ कर किछु माया
जखन देखी तोहर खुजल केश
मोन करए बदलि किछु भेष
आँखि जखन देखी खाली
मोने मोन दी गारि
कही जँ रहितौं हम काजर
भेटितै तोर छुबैक अवसर
हे...
तोहर देखि कऽ ठोर
लागि जाए मनमे होर
हमर कहए निर्लज्ज मोन
जँ रहितै ठोरक शोभा
पाबि जइतें तूँ ई मेवा
गे सुनरी...

जखन देखी श्रृंगारित रूप
लागए जेना निकलि गेल धूप
आब की लिखू तोरा लेल
नै अछि कोनो शब्द मेल
आब कही मोनसँ
आब नै हमरा तूँ टोक
आस लगौने कही मोनसँ
जँ बनि पओतै ओ घरवाली
नै बुझाइत छी हम खाली
गे...
जगदीश प्रसाद मंडल
कवि‍ता-
गाछी भुताइ

बाबाम रोपल गाछी भुताइ
घाम बहा जड़ि‍-जड़ि‍ सि‍चलनि‍
तामि‍ कोड़ि‍-कोड़ि‍ गाछ रोपलनि‍
देख-देखि‍ मन हर्षित भेलनि‍
नै बुझलनि‍ बॉझि‍क कि‍रदानी
जे ने कहि‍यो माटि‍ देखलक
फुनगी पकड़ि‍ अकास पकड़लक
नै देखि‍ जड़ि‍ दि‍स कहि‍यो
सदति‍ उड़ि‍ बादल पकड़लक
गामक पोखरि‍ जहि‍ना डेरौन
तहि‍ना दबकल अढ़मे मन
कानि‍-खीज सदति‍ कलपैत
कि‍यो ने बँचबैवला अछि‍ पैत
जै धरतीपर बहति‍ गंगा
कमला सहि‍त जमुना धार
शान्‍त भऽ सरस्‍वतीक संग
पहुँचैत मि‍ल गंगा सागर
ति‍ल-ति‍ल उत्तर ढलान दि‍स
अनबरत बहैत सूर्यक धार
नाि‍च-नाचि‍ मि‍ल गाबह
जेबै जरूर जरूर ओइ पार

गाछी बीच बैस सदि‍ बाबा

सभ कि‍छु देख रहल छथि‍

बाँझक बच्‍चा अनकर नेत

बि‍हुँसि‍-बहुँसि‍ कहै छथि-‍

‍नै अछि‍ बौआ गाछी भुताइ

            

(२)  कानि‍ कलपि‍ कते कहब
      गामेमे हराएल छी
      रंग-वि‍रंगक अन्न-पानि‍मे
      नीकसँ छि‍ड़ि‍आएल छी
      समेटनौ तँ ने समटाइए
      थाकि‍ कऽ ठकुआएल छी
      डरे आँखि‍ये ने उठैए
      कातेमे नुकाएल छी।

(३)  मुँहसँ बोल कन्ना कऽ फुटतै
      दरदसँ दुखाइ छै
      टीससँ टि‍सकै छै छाती
      लहि‍-लहि‍ लटुआएल छै
      मुँहसँ बोल कन्ना....
     
      आशाक सभ आशा मेटलै
      बाटे सभ धेराएल छै
      ककरो कहने कि‍छु ने भेटत
      अपने बेथे बेथाएल छै
      मुँहसँ बोल कन्ना....

      चोटसँ चोटाएल छै मन
      ढहि‍-ढहि‍ कऽ ढनमनाइ छै
      तैयो हँसि‍-हँसि‍ नाचए-गाबए
      राति‍-दि‍न बड़बड़ाइ छै
      मुँहसँ बोल कन्ना....।

(४) दि‍न घटतै आकि‍ राति‍ यौ भैया
      मौसम मुस्‍की दै छै
      साले दि‍नक समैइये कते
      लीलाक रंग बदलैत छै
      दि‍न घटतै आकि‍ राति‍....

      अपन-अपन सनेस बाँटि‍ सभ
      सुरभि‍त वायु परसैत छै
      खसल-पड़लमे जान फूकि‍
      थामि‍-थामि‍ उठबैत छै
      दि‍न घटतै आकि‍ राति....

      समए ने ककरो संग पुड़ैए

      ने ककरो ओ दैत छै

      अपन-अपन सभ समेट-समेट

      सि‍रे-सि‍र उठबैत छै

      दि‍न घटतै आकि‍ राति‍.....।

गजेन्द्र ठाकुर
लवनचूश चूसी भरि दिन

लवनचूश  चूसी भरि दिन
मम्मी-पापा कहथि चूसैले
कुरकुड़ा कऽ नै यौ
मुदा चूसि-चूसि थाकल छी
कुरकुड़ाइत जे लवनचूश व्याकुल छी

मम्मी टोकथि डैडी टोकथि
दाँतमे लागत चुट्टी
मुदा ककरो टोक नै मानी
लवनचूश हम फाँकी

कुरकुड़ खाइ चूसि अघाइ
हुअए एहन सभ दिन
लवनचूश चूसी भरि दिन
संजय कुमार मंडल
कवि‍ता-
 
परदेसि‍या
असगर मनुख जाधरि‍ युवा रहैए
पढ़ैए-लि‍खैए, खेलैए-धुपैए
पढ़ाइ समाप्‍त कऽ वि‍आह करैए
परि‍वारि‍क जि‍म्‍मेबारीक हेतु
दूर-देश जा नोकरी-चाकरी करैए
भोरे उठि‍ टि‍फि‍न लऽ ड्यूटी जाइए
अधि‍क रूपैयाक लोभे ओभर टाइम खटैए
बेचाराकेँ नवकी कनि‍याँक यादि‍ अबैए
सब रवि‍ कऽ सासूर फोन करैए
कनि‍याँ आ सारि‍-सरहोजि‍सँ
घंटा-घंटा भरि‍ गप्‍प करैए
‍कहि‍या गाम आएब?”
कनि‍याँ पुछै छै
माघक शी‍तलहरी कन्ना
बि‍तेलहुँ कहै छै
अहाँ नि‍र्दय छी, हमर हाल नै जनै छी
भरि‍-भरि‍ राति‍ हम करौट फेड़ैत जगै छी
की कहतै कि‍छ नै फुड़ै छै
ओ बेवस्‍थाक जंजालमे ओझराएल फि‍रै छै

डेढ़े मास बाद होली पावनि‍ छै
होलीमे नै आएब तँ कहि‍यौ ने आएब
एक्के बेर हमरा मुइलाक बाद अाएब
मरल मुँह देख एकटा लकड़ी चढ़ाएब

कनि‍याँक बोली सुनि‍ तिलमि‍ला उठैए
उनटि‍ अपन शहरी जीवन दि‍स तकैए
कहि‍यो बर्गर, कहि‍यो छोला-भटोरा
कहि‍यो बड़ा-पाउ खा राति‍ बि‍तबैए
कोड़ी-कौड़ी, छि‍द्दी-छि‍द्दी जोड़ि‍
महि‍ने-महि‍ना हजार रूपैआ
बाबुकेँ पठबैए
वि‍डम्‍बना देखू,
मनुख सालक तीन साए तीस दि‍न
जतऽ जी‍बैए,
ओढ़ना-बि‍छान छोड़ि‍ कि‍छुओटा ने कि‍नैए
सभ दि‍न बीना सि‍रहौनेक सुतैए
गाम एबाक लेल
ठि‍केदारसँ एडभांस उठबैए
आधा रूपैआसँ साड़ी-धोती,
साबुन-शेम्‍पू, सेन्‍ट कि‍नैए
आधा रूपैआ बचा गाड़ी पकड़ि‍ गाम अबैए
सुनि‍ते महाजन आबि‍ दरबज्‍जाक माटि‍ खुनैए
पनरह दि‍न धरि‍ खुब मासु-माछ कचरैए
अबै काल मासुलक लेल
फेर महाजनक दरबज्‍जा ओगरैए
जाइत देरी रूपैआ पठा देब
महाजनकेँ गछैए
ककरा कहतै के पति‍येतै
परदेसि‍या मनुख कोना जीबैए
बाप सदि‍खन कहै छै
ई छौड़ा तँ फाउ खैलाइए।

शीतलहरि‍

हम छी पछि‍या शीतलहरि‍
हम छी पछि‍या शीतलहरि‍
जन मानसपर हम ढाहब कहरि‍
हम छी कहि‍ रहल चि‍करि‍-चिकरि‍
हम छी पछि‍या शीतलहरि‍....

जौं कनि‍यो अछि‍ जानक फि‍कड़ि‍
हमरा सोझासँ हटि जाउ
नै तँ हम बेध देब, सेद देब
हाथ पाएर सुइसँ छेद देब
हम नै बुझब छी अहाँ
बूढ़, बच्‍चा आकि‍ सि‍यान
जौं करब कनि‍याें
जुआनि‍क अभि‍मान
हम एक्के झोंकामे देब पटैक
एक बेर रमकब तँ कऽ देब लुल्ह-नाङर
जखन हएत पेरेलाइसि‍स एटैक
जल्‍दी कोनो कोनमे रहू दुबैक
अपन नाङरि‍केँ राखू सुटैक
 हम छी पछि‍या शीतलहरि....

हम अहि‍ना रमकब-उमकब

जे आओत सोझा ओकरेपर बमकब

 हम छी पछि‍या शीतलहरि....
 
डेंगू
बेरोजगारीसँ तंग आबि‍ बीजा,पासपोर्ट बनाओल
सात समुन्दर पार गल्‍फ कंट्रीमे नोकरी पाओल
आर्थिक मंदी भेलासँ नोकरी छुटल
बुझना गेल तारसँ खसल खजूरपर लटकल
हारि‍-थाकि‍ घुरि‍ गाम एलौं
अर्थाभावे जेना अनाथ भेलौं
अबि‍ते गाम पत्नी पड़ली बेमार
दरि‍भंगासँ पटना धरि‍ कएल उपचार
दि‍नो-दि‍न रोग बढ़ि‍ते गेल
नै भेल सुधार
सी.टी स्‍केन सहि‍त नाना प्रकारक
इनवेस्‍टीगेशन भेल
हजारो खर्चाक बादो रोग नै पहचानल गेल
ब्‍लडमे सीरम प्‍लेटलेट घटि‍तहि‍ गेल
डाक्‍टरो सभकेँ अचरज भेल
डि‍स्‍चार्ज सि‍लि‍प दैत कहलनि‍-
मरीजकेँ घर लऽ जाउ,
सेवा-सुश्रुषा करिओन, खुब खुआउ-पीआउ‍‍,
जतेक दि‍न जीबै छथि, मेहमाने बुझू,
फेर उठि‍ ठाढ़ नै हेती छाती बज्र करू।

अंतमे दस सी.सी. ब्‍लड लऽ
दि‍ल्‍ली‍ टेस्‍ट लेल भेजल गेल

रि‍पोर्ट आएल, बेमारी डेंगू छी कहल गेल।




..

विदेह नूतन अंक मिथिला कला संगीत
१.श्वेता झा चौधरी २.ज्योति सुनीत चौधरी ३.श्वेता झा (सिंगापुर)

श्वेता झा चौधरी
गाम सरिसव-पाही, ललित कला आ गृहविज्ञानमे स्नातक। मिथिला चित्रकलामे सर्टिफिकेट कोर्स।
कला प्रदर्शिनी: एक्स.एल.आर.आइ., जमशेदपुरक सांस्कृतिक कार्यक्रम, ग्राम-श्री मेला जमशेदपुर, कला मन्दिर जमशेदपुर ( एक्जीवीशन आ वर्कशॉप)।
कला सम्बन्धी कार्य: एन.आइ.टी. जमशेदपुरमे कला प्रतियोगितामे निर्णायकक रूपमे सहभागिता, २००२-०७ धरि बसेरा, जमशेदपुरमे कला-शिक्षक (मिथिला चित्रकला), वूमेन कॉलेज पुस्तकालय आ हॉटेल बूलेवार्ड लेल वाल-पेंटिंग।
प्रतिष्ठित स्पॉन्सर: कॉरपोरेट कम्युनिकेशन्स, टिस्को; टी.एस.आर.डी.एस, टिस्को; ए.आइ.ए.डी.ए., स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया, जमशेदपुर; विभिन्न व्यक्ति, हॉटेल, संगठन आ व्यक्तिगत कला संग्राहक।
हॉबी: मिथिला चित्रकला, ललित कला, संगीत आ भानस-भात।
 
चित्रक विषयमे: सूर्य आशाक आ संकल्पसिद्धिक प्रतीक अछि, अन्हारक बादक प्रकाशक प्रतीक अछि। ई पृथ्वीक जीवनक जड़ि अछि, दैवत्वक आशीर्वादक प्रतीक अछि। तेँ विश्वक सभ संस्कृतिमे ई पूजित अछि, खास कऽ मैथिल संस्कृतिमे (छठि आ मकर संक्रान्ति)। ई चित्र ऐ सभकेँ चित्रित करबाक प्रयास अछि।

२.

ज्योति सुनीत चौधरी
जन्म तिथि -३० दिसम्बर १९७८; जन्म स्थान -बेल्हवार, मधुबनी ; शिक्षा- स्वामी विवेकानन्द मि‌डिल स्कूल़ टिस्को साकची गर्ल्स हाई स्कूल़, मिसेज के एम पी एम इन्टर कालेज़, इन्दिरा गान्धी ओपन यूनिवर्सिटी, आइ सी डबल्यू ए आइ (कॉस्ट एकाउण्टेन्सी); निवास स्थान- लन्दन, यू.के.; पिता- श्री शुभंकर झा, ज़मशेदपुर; माता- श्रीमती सुधा झा, शिवीपट्टी। ज्योतिकेँwww.poetry.comसँ संपादकक चॉयस अवार्ड (अंग्रेजी पद्यक हेतु) भेटल छन्हि। हुनकर अंग्रेजी पद्य किछु दिन धरि www.poetrysoup.com केर मुख्य पृष्ठ पर सेहो रहल अछि। ज्योति मिथिला चित्रकलामे सेहो पारंगत छथि आ हिनकर मिथिला चित्रकलाक प्रदर्शनी ईलिंग आर्ट ग्रुप केर अंतर्गत ईलिंग ब्रॊडवे, लंडनमे प्रदर्शित कएल गेल अछि। कविता संग्रह अर्चिस्प्रकाशित।

३.श्वेता झा (सिंगापुर)



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7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।

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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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