१.परमेश्वर कापड़ि-छठिमाइके आसि आ लोकजीवनमे हिनक महत्व २.अतुलेश्वर- किछु विचार टिप्पणी
१.प्रा परमेश्वर कापड़ि छठिमाइके आसि आ लोकजीवनमे हिनक महत्व
व्रत उपवास आ पावनि –तिहारस’ लोकक जीवनमे आनन्द–उत्साह एवं आस्था–निष्ठाक बाढ़ि–बड़कैतस’ जीवन आनद्यमय बनि जाइत अछि । मिथिलाक अप्पन पावनि–तिहारस’ लोकक जीवनधारा राग–रंगस’ भरि जाइते अछि । एतुका परम्परागत पावनि सबमे छैठक आसि आ महिमा सर्वोपरि रहने आ एकर विध–विधानमे, ओरिआओन बस्तु–जुटानमे स्वच्छता आ शूद्धतापर अधिक ध्यान देने ई पावनि सबस’ बढ़का अछि । परम ईश्वरके शास्त्रे–पुराण आ ज्ञानीए–धर्मी लोक अधिकतर चिन्हैत जनैत अछि, आम अछरकटू लोक छैठपरमेश्वरीएके अधिक जनैत छथिन आ ईह्े ममतामयी एहि लोकके लेल सबकिछु छथिन, सर्वोपरि छथिन ।
छैठपावनि किथिलामे लोकपूजाक रुपमे विख्यात अछि सेहो मुख्यतः स्त्रीगणद्वारा कएल जाइत अछि आ हिनकास’ सम्वन्धित अनेको राग–भावक गीतसब अछि जे लोकमन्त्रक रुपमे प्रयुक्त होइत रहल अछि । छैठक लोकगीत छठिक अर्ध जकाँ निछुन आ अपरिवत्र्तनीयसनके अछि, परम्परागत अछि आ एहिमे रिमिक्स वा प्रयोगधर्मिता आँकड़ बातर जकाँ छँटा, थुकड़िक’ अलग कए देल जाइत अछि । एकर पाछू एकर सबस’ कहत्वपूर्ण आ मूल कारण ई लगैत अछि जे ई लोकगीत परम्परा सिद्ध अछि आ आधुनिकगीत जा धरि एहन सिद्धिप्राप्त नहि कएल लेत तावत ई प्रचलनके मूलधारमे समाहित भइए ने सकैछ ।
छैठपावनिमे आदिेदेव भगवान सूर्य आ छैठपरमेश्वरीक पूजा एकहि दिन– षष्ठी–तिथिके, एकहि ठाम, एकहि अर्ध आ एकहि विधि–विधानस’ भेने ईपूजा छैठपूजा, त’ कहबैत अछि मुदा बहुतोलोक भगवती छैठमाइस’ अनभिज्ञ रहने, एहन बूझि भूूूूलियो क’ लैत अछि । एहि लोकपूजामे दिनस’ अधिक सन्ध्या आ रात्रिक महत्व अधिक अछि आ तएँ किछु लोक एकरा डुबैत सूर्य तथा विहान भेने उगैत सूर्यक अर्धस’ जोड़िक’ देखैत छथिन । सूर्यके जलक अर्ध बड़ पसिन्न छैन आ सबस’ बेसी प्रसन्न जलार्ध देनिहारस’ होइत छथिन्ह तथापि छैठदिन जे हिनक पूजा विभिन्न पकवानसबस’ होइत छन् िताहिस’ ई अछिक तिरपित होइत लोकके लहदह बरदान दैत छथिन्ह एहन शास्त्र वचन आ लोक मान्यता रहल अछि । सूर्यके एक दिन सासुरमे यन्त्र–छापस’ साँचल ठकुआ तान्त्रिक रहस्यस’ भरÞल भुसबा खिअएलकनि आ ई पकवान आ विन्यास हिनका बड़ पियरगर लगलनि आ तएँ हिनका ईहे पकवान अरवसिक’ चढ़ाओले जाइत छनि ।
छैठपावनि मिथिलामे लोकपरम्पराक पूजा रहल होइतोमे एकर प्रचलनक पौराणिक महत्वक अछि आ ब्रह्मवैवर्तपुराणक प्रकृति खण्डमे बहुत विस्तृत रुपमे वर्णन कएल गेल अछि । भगवती षष्ठीदेवीके शिशुसबक अधिष्ठात्री देवी निरुपित कएल गेल अछि । धीयापूताके दीर्घायु बनाएब, हुनक रक्षण एवं भरण–पोषण कएनाइ षष्ठीक स्वाभाविक गुण अछि । पुराणसबमे षष्ठी देवीके बहुत महिमा–मण्डित कएल गेल अछि । मूल प्रकृतिक छठम् अंशस’ प्रकट भेनेस’ हिनक ’षष्ठी’ पड़ल छन्हि । संस्कृतक षष्ठ शब्द मैथिली छठम् अर्थमे प्रयुक्त अछि आ तए हिनका छैठ, छठि मैया कहल जाइत अछि ।
बढ़का पौराणिक घर–परिवारक ई भगवती छथिन्ह । ई ब्रह्माक मानसपुत्री एवं शिव–पार्वतीक जेठकी पुतौह आ स्कन्दक प्राणप्रिया छथिन्ह । हिनका देवसेना सेहो कहल जाइत छन्हि, सएह नहि विष्णुमाया आ बालदा से कहल जाइत छन्हि । ई माता भगवतीक सोलह मातृका सबमे परिगणित छथि आ अपना समाजमे ई लड़िकोड़ी माताक रुपमे सेहो चिन्हल जाइत छथिन्ह । ई अपन योगक प्रभावस’ शिशुक सङे सदैव बुढ़ियामाइके रुपमे विद्यमान रहैत छथिन्ह आ हुनक रक्षा एवं भरण–पोषण करैत रहैत छथिन्ह । धीयापूताजे सपनामे खियबैत, दुलारैत, हँसबैत एवं अभूतपूर्व वात्सल्य प्रदान करैत रहैत छथिन्ह । ईएह कारण अछि जे सबशिशु अधिकांश समय सुतनाइए पसिन करैत अछि । निन्ह टुटिते बालकक नजरि भगवति परस’ हटने आ हुनकाकोरास’ अलग लगने ओ कान–खिज लगैत अछि । र्ईएह भगवती निनियाँरानी, निन्नवाली बुढ़िया छथिन्ह आ लोरीस’ पड़िकल धीयापूता जावत निनियाँगीत गाबिक’ बजाओल नहि जाइत अछि तावत सुतिते नहि अछि । लोरीक लरमे सुखनिनियाँक अपूर्व स्वर राग आ वात्सल्य भावसहित निनियाँ बुढ़ियाक उपस्थित रहैत अछि ।
मैथिलीमे निनियाँगीत सुताब’लेल आ घुघुआ झुलुआ गीत हँसाब’–खेलाब’ आ भुलाब’ लेल प्रयुक्त होइत अछि । एहि शिशुगीतके बाल–मन्त्र सेहो अछि, कहल जा’सकैछ । एकर प्रचलन अत्यन्त प्राचिन आ अटुट रुपस’ अछि ।
—आगे निनियाँ आ’ । बौआके सुतो
सात बड़दके निनला’
आगे निनियाँ जनकपुरस’
खटिया मङा देवौ पटनास’
आगे निनियाँ खजन चिड़ैया
अण्डा पारि–पारि जो
तोरा अण्डाके आगि लगतौ
बौआ सुतो ।
०००
—आगे निनियाँ कटबोै कान
बौआला’ लबिहे फोंका मखान
आगे निनियाँ कटबौ कान
बौआला’ अबिहे पीरे लताम
आगे निनियाँ,
अबैछी !
बौआला’ निन लबैछी ।।
निनवाली बुढ़ियाके अर्थात छठि मैयाके अनेको तरहे अरोधिक’ बजाक’ बौआ–बुच्ची सबके सुतएबाक अनुरोध कएल जाइत अछि । लोरी आ सुखनिनियाँबीचमे इएह निनबाली बुढ़िया आ लोरी गीतक मधुर रस–भावरहने एकर प्रभाव उत्तम संस्कार सनके जीवनपर गम्भीर रुपस’ पड़ैत अछि ।
वैदिक विधि अनुसार भगवती षष्ठीक ध्यान एना कएल जाइछ—
—देवी मञ्जनसङकाशा चन्द्राधकृतशेखराम् ।
सिंहारुढां जगद्धात्रीं कौमारीं भक्तवत्सलाम् ।।
खड़गं खेतं च विभ्राणाममयं वरदां तथा ।
तारकाहार भूषाढयां चिन्तयामि नवांशुकाम् ।।
ध्यान अराधनामे हिनका इहो कहल गेल छन्हि जे सुन्दर पुत्र, कल्याण तथा दया–प्रदान करएबाली ई प्रकृतिक छठम् अंशस’ उत्पन्न जगत्माता छथि । श्वेत चम्पक–पुष्पक समान हिनक वर्ण अछि । ई रत्नमय आभूषणस’ अलंकृत छथि । एहि परम चित्स्वरुपपिणी भगवती देवसेना षष्ठी देवीके आराधना करैत छी—
—षष्ठांशा प्रकृतेः शुद्धां सुप्रातिष्ठाश्च सुव्रताम् ।
सुपुत्रदाञ्च शुभदां दयारुपां जगतप्रसून ।।
श्वेत चम्पक वर्णाभां रत्नभूषणभूषिताम् ।
पवित्ररुपां परमां देवसेनां परां भजे ।।
—व्रह्मवैवत्र्तपुराण, प्रकृतिखण्ड ४३÷४९ पृ.
षष्ठी मैयाक पूजा छठियारी पूजा दिन होइत अछि आ ई पूजा प्रत्येक बच्चाक जन्मक छठम्दिनमे विध्नेश, जीवन्तिको देवीक संगहि कएले जाइत अछि । जन्मौटी धीयापूताक भाग्य, आरोग्य आ औरदादि लेख ओहि दिन लिखाइत होइतोमे चैती छैठ आ कैतकी छैठके परम्परा बहुत प्रचलित अछि ।
हिनक महिमाके गुणगाण ऋषिमुनि एहि मन्त्रमय शब्द–भावमे कएने अछि–
— नमो देव्यै महादेव्यै सिद्धियै शान्त्यै नमो नमः
शुभायै देवसेनायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः
देवरक्षणकारिण्यै षष्ठी देव्यै नमो नमः
शुद्धस्त्वस्वरुपायै वन्दितायै नृणं सदा ।।
— ब्रह्म.प्र.ख.— ४३÷५७–६६
भगवती सिद्धि एवं शान्तिके नमस्कार अछि ! शुभा, देवसेना एवं भगवती षष्ठीके बेर–बेर नमस्कार । वरदान देनिहारि, पुत्र देनिहारि, धन देनिहारि, सुख–प्रदान कएनिहार एवं मोक्षदात्री भगवती षष्ठीके बेर–बेर नमस्कार ।
मूलप्रकृतिक छठम् अंशस’ प्रकट शक्तिस्वरुपां भगवती सिद्धिके नमस्कार । माया, सिद्धि योगिनी, स्वयं मुक्त एवं मुक्तिदात्री, सारा, शारदा आ परादेवी नामस’ शोभा पौनिहारि भगवतीके नमस्कार अछि । बालकक अधिष्ठात्री, कल्याणदात्री, कल्याण स्वरुपिणी एवं कर्मक फल देनिहारि देवी षष्ठीके नमस्कार अछि ।
अपन भक्तके प्रत्यक्ष दर्शन देनिहारि तथा सबकेलेल सम्पूर्ण कार्यमे पूजा प्राप्त करबाक अधिकारिणी स्वामी कात्र्तिकेयक प्राणप्रिया देवी षष्ठीके बेर–बेर नमस्कार अछि । मनुष्य जिनकर नित्य वन्दना करैत अछि आ देवतालोकनिके रक्षामे जे तत्पर रहैत छथि ओहि शुद्धसत्व स्वरुपा देवी षष्ठीके नमस्कार अछि । हिंसा आ क्रोधस’ रहित देवी षष्ठीके नमस्कार ! हे सुरेश्वरी ! अपने हमरा धन दिअ, प्रिय पत्नी दिअ, पुत दिअ, धर्म दिअ, यश दिअ । हे सुपूजिते ! अपने हमरा भूमि दिअ, प्रजा दिअ, विद्या दिअ आ कल्याण एवं जय प्रदान करु ।
सोइरीघरमे निवास कएनिहारि षष्ठीदेवी ! परम भक्तिस’ पूजित हुअ’बाली अपने हमरा दीर्धायु प्रदान करु । अपने जन्मसम्बन्धी सुखके जननी छी ! धन–सम्पत्तिके वृद्धि कएनिहारि छी, सब प्राणीके उत्पत्ति स्वरुपा छी !
भगवती षष्ठीदेवीक वात्सल्य–महिमा एवं असीम अनुकम्पाक ई विलक्षण कथा सर्वप्रथक नारदजी, भगवान नारायणस’ सूनने रहथि, जकर विस्तृत वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृति–खण्डक ४३म् अध्यायमे तथा श्रीमद्देवीभागवतक नवम् स्कन्धमे उलेख अछि ।
०००
२
अतुलेश्वर
किछु विचार टिप्पणी
१
‘बदलैत स्वर’ आ मैथिली आलोचना
हेमनिमे मैथिली कथाकार शिवशंकर श्रीनिवासक मैथिली कथा साहित्य पर केन्द्रित आलोचनाक पोथी ‘बदलैत स्वर’ पढ़ल। श्रीनिवासजीक कथा हमरेटा नीक नहि लगैत अछि अपितु सम्पूर्ण मैथिली पाठककें नीक लगैत छनि, जे हिनक कथाक वैशिष्टय परिचय दैछ। मुदा कोनो सफल कथाकार यदि सफल आलोचको होथि तँ ई आर बेशी नीक। श्रीनिवासजीक आलोचनाक पोथी एकर वानगी अछि, जहिना हुनक कथा पढ़ि पाठक मिथिला आ मैथिली कथा प्रति सोचबाक लेल विवश भए जाइत छथि, ठीक तहिना हुनक ई आलोचनाक पोथी सेहो बहुतो किछु सोचबाक हेतु वाध्य करैछ। प्रस्तुत पोथी, जे पूर्णरुपेँण मैथिली कथा साहित्यक विषयमे कहैत अछि, मात्र मैथिली अध्येतामात्रेक लेल नहि, अपितु साधारण पाठकधरि लेल सेहो लाभदायी अछि। कारण जे ई मनोरंजक कथाक विषयमे कहैत ओकर सामयिक सांदर्भिकता आ ओकर वैशिष्टय पर बड़ सहजता सँ बात रखलनि अछि, जे एकर विशिष्टताकेँ बढ़ा दैत अछि।
मुदा एतेक सफल प्रस्तुतिक बादो एहिमे किछु त्रुटि रहि गेल छनि। एहि त्रुटिक अभावमे ई पोथी अद्यावधि मैथिली कथासाहित्य पर लिखल गेल आलोचनात्मक अध्ययनजन्य पोथी मध्य सर्वोपरि रहितए, जाहिसँ श्रीनिवासजी चुकि गेलाह अछि। हमरा अनुसारेँ कोनो साहित्यक समीक्षामे जँ मात्र अपन मनोनुकूल विषयमात्र लए प्रस्तुति हो तँ ओ सर्वाङ कहिओ नहि भए सकैछ, एहने किछु अभाव एहि पोथीमे दृष्टिगोचर भए रहल अछि। एहिमे देखल गेल अछि जे समीक्षक मैथिली कथा साहित्यक आलोचना करैत काल भारतमे आएल नक्सलवाड़ी आन्दोलनसँ प्रभावित कथाक चर्च नहि कएनेँ छथि, जे हुनक आलोचनाकें कमजोर कएने छनि। हँ, ई ठीक जे ओहि क्रियाकलापकेँ अहाँ जाहि दृष्टिएँ देखैत होइ, मुदा जखन सम्पूर्ण कथाक चर्च होएत, तखन ओहि कथासभकेँ छोड़ब कोनो हिसाबेँ उचित नहि। जहिना भारतमे मैथिली कथा साहित्य विकास भ रहल अछि, ठीक ओहिना नेपालोमे कथा साहित्य विकासोन्मुख छैक, जकर चर्च उक्त पोथीमे नहि कएल गेलैक। आशा नहि पूर्ण विश्वास जे आलोचक श्रीनिवासजी एहि विन्दु पर हमरासँ सहमत भए अपन अग्रिम कार्यमे एकरा ध्यानमे रखताह। अन्तमे, मैथिली कथा साहित्यक आलोचनाकेँ नव भाव बोधसँ भरि एहि सृजनक लेल श्रीनिवासजीकें कोटिशः धन्यवाद।
मैथिली : पंडिताम वा आम?
एकबेर फेर मैथिली साहित्यमे मानकीकरणक नारा जोर पकड़लक अछि, एहिक्रममे सोचल जाए रहल अछि जे मानकीकरणक कसौटी तथाकथित पंडितलोकनि तय करताह। हमर सोच अछि जे एकर अर्थ भेल मैथिलीकेँ आम लोकसँ कटबाक एकटा नव सुनियोजित षडयंत्र। हेमनिमे गजेन्द्र ठाकुरक एकटा पत्र आयल छल जे ई षडयंत्र नहि थिक जे कोनो गोष्ठी ( सगर राति दीप जरए, जे वर्तमानमे कथा गोष्ठी सँ बेशी अनर्गल गोष्ठी भ गेल अछि ) मे एहि तथ्य पर नहि आलोचना होइत अछि जे एहि कथामे कोन कमजोरी अछि वा कोन-कोन नव तथ्य आयल अछि, बल्कि जाइत, खाइतकेर सङ्ग रमानाथी-शैली पर चर्चा कएल जाइत अछि? मुदा ई संर्कीण मानसिकता कियाक? एकर दूटा कारण देखाइत अछि, पहिल जे अखनि धरि मैथिली जातिवादक धोधरि सँ नहि निकलि पओलक अछि आ दोसर जे मैथिलीमे कोनो नव नारा नहि भेटि रहल छैक। कियाक तँ मैथिली पंडितक भाषा नहि भए विशुद्ध कय आमलोकक भाषा थिक। कारण महाकवि विद्यापति आमलोकक लेल देसिल बयनामे लिखब प्रारम्भ केने छलाह, नहि कि पंडित वर्गक लेल। (एतय ई स्पष्ट क देब आवश्यक जे हमरा अनुसारेँ पंडित कोनो जाति विशेषसँ नहि भए, हुनका लेल उपयुक्त अछि जे अपन विचार दोसरो पर थोपए चाहैत छथि, से चाहे उचित हो वा अनुचित)। हमरा तँ आश्चर्य लगैत अछि जे ओहि तथाकथित गोष्ठीमे सहभागीलोकनिकेँ कि ई नहि बुझल छलनि जे मैथिलीक कतेको भाषा-भाषी जाइत-खाइत बजैत छथि, मैथिली भाषामे आदरसूचक आ अनादरसूचकक लेल पृथक्-पृथक् शब्द अछि? हम तँ संशकित छी जे जँ एहिना मैथिलीकेँ व्याकरणीय फंदामे लटपटाओल जाइत रहत तँ ओ दिन दूर नहि जे ओ साधारण जनसँ दूर होइत-होइत ओकर अस्तित्वे पर संकट आबि जाएत। आ
नेपालक मैथिलीमे बहुत गति देखल जा रहल अछि, कारण छैक ओतुक्का मैथिली भाषामे आमलोक क धारणा आ भावनाकें राखब। नहि तँ एतेक दिन सँ प्रसारित भ रहल मैथिली कार्यक्रम ‘गामघर’ कियाक नहि सम्पूर्ण लोकक कार्यक्रम भ सकल, जखन कि धीरेन्द्र प्रेमर्षिक ‘हेलो मिथिला’ सम्पूर्ण मिथिलाक स्वर बनि प्रशंसित भए रहल अछि आ एकरहि प्रभावेँ मैथिली भाषाक अपन दर्जनों रेडियो एफ.एम. कार्य कए रहल छैक आ ओ आमलोकक वाणी भए प्रसारित भए रहल अछि। तखनि ई बखेरा कियाक? हमरसभक एहन कर्मसँ मैथिलीक कोनो तरहक लाभ संभव नहि, अपितु ओ आमलोकसँ कटि संस्कृतक संग धए लेत। तेँ यदि केओ एहि प्रकारक प्रश्न उठबैत छथि तँ बुझि लिय जे मैथिली क संग हित नहि अहित क रहल छथि। कारण तथाकथित भाषा क अध्ययन कएनिहार एकरा भाषाक विशेषता कहैत छथि आ ओ लोकनि एकरा सुधारबाक लेल जी-जान अरोपने छथि। की, ई मुर्खता छी कि षडयंत्र? ओना एकटा ईहो सत्य अछि जे लोकतंत्रमे बहुमतक सभ किछु मानल जाईत छैक, एतय प्रश्न उठैत छैक जे मैथिली क बहुमत कोन दिश- पंडितलोकनि द्वारा निर्धारित मैथिलीक वा आमलोकक मैथिलीक? उत्तर स्पष्ट अछि आमलोकक, तखनि ई प्रश्न उठएबाक औचित्य कतहु नहि बनैत अछि। कारण विद्यापतिक भाषा पंडितक विरुद्घ उठाओल आन्दोलन छल तेँ मैथिलीकें पंडितक राज नहि आमलोकक काज अछि।
सुदीप झा
सामाजिक मूल्य मान्यताकें चोच मारैत ‘चिड़ै’
सुजीतक प्रायः कथासभ भावनाक धरातलपर बनल मानवीय सम्बन्ध आ सम्बेदनाकेँ कुरेदवाक प्रयास करैत अछि । प्रायः कथासभ स्त्री पुरुष सम्बन्धपर केन्द्रित अछि । ओना किछु कथा सभ पितापुत्र सम्बन्ध, बाबा पौत्रीक सम्बन्धपर सेहो आधारित अछि । सुजीत जी अहि अर्थमे धन्यवादक पात्र छथि जे ओ समाजिक धरातल सँ उपर उठि मानवीय भावना आ सम्बेदनाकेँ धरातलपर सम्बन्धकेँ समझबाक आ समझेबाक प्रयास करैत छथि । एकरा की कहल जाए जँ कोनो पति अपन पत्निकेँ मृत शरीर ओकर प्रेमीकेँ सोपि दैक ? किछु एहने सन कथावस्तु छैक ‘एकटा अधिकार’केँ जाहिमे एकटा पति एरोप्लेन एक्सीडेन्टममे छतविछत भेल अपन पत्निकेँ मृत शरीर उपरक अपन अधिकार अपन पत्निक प्रेमीकेँ हस्तान्तरण कऽ दैत अछि । निश्चित रुप सँ अहि कथाक पति मानविय भावनाकेँ सम्मान करैत छैक । ‘भौजी’ कथामे नायक राजन एकटा विधवा सँ प्रेम करैत अछि आ ओहि विधवा सँ विवाह सेहो करय चाहैत अछि । तहिना ‘चिडै’ कथामे अन्तर वैवाहिक सम्बन्धक कटु यर्थाथकेँ उजागर कएल गेल अछि । कथाकेँ नायिका उषा जखन ओकर विवाहित प्रेमी मनोज ओकरा गुण्डासभकेँ बीच छोडि लोक लाजककेँ कारणे परा जाइत छैक ।
सुजीतजीक कथासभ किछु एहन सम्बन्ध जकर अनुमति प्रायः मैथिल समाज नहि दैत छैक तकर विभिन्न पक्षकेँ देखार करैत अछि । निश्चित रुप सँ अन्तर वैवाहिक प्रेम आ सम्बन्ध आ विधवा विवाह एकटा समाजिक अपराध मानल जाइत छैक , मैथिल समाजमे । हुनक बहुत रास कथासभ समाजिक मूल्यमान्यताकेँ चाइलेन्ज करैत अछि ।
एहन बात नहि छैक जे कथाकार समाजिक व्यवस्था सँ बाहर वनल सम्बन्धक अध्ययन मात्र करैत छथि । ‘बाबाजी’ कथामे एकटा बृद्ध व्यक्तिक अन्तिम अवस्थाक कारुणीक विवरण अछि आ स्वार्थपर ठाढ सम्बन्धक यर्थाथ परक विश्लेषण सेहो कएने छथि । ‘वनैत विगरैत ’ कथा एकटा रिटाइर्ड व्यक्तिक व्यथा छैेक । पिताकेँ ठेस जखन लगैत छन्हि जखन हुनका बुझवामे अवैत छन्हि जे हुनक पुत्र नागेश्वर अपन पिता सँ बेसी सम्पति प्रति चिन्तित छथि । तहिना ‘ढोल’ कथा पति प्रेमक लेल व्याकुल पत्नीक मनोदशाक विश्लेषण अछि । हुनक प्राय कथा सँ सम्बन्धक बनैत बिगरैत अवस्थाकेँ विश्लेषण करैछ । समाजिक व्यवस्थाकेँ भितर होइक या वाहर सुजीतजीकेँ कथासभ सभ अर्थमे मानविय सम्वेदनाकेँ कुरेदैत अछि । समाज अपन मुल्य मान्यताक आधारपर नैतिकताक आ अनैतिकताक तराजु बनबैत अछि । समाजिक मुल्यकेँ अनुकूल कार्यकेँ नैतिकताक संज्ञा देल जाइत अछि आ प्रतिकूल कार्यकेँ अनैतिकताक । मुदा सूजीतजी समाजिक मूल्य सँ उपर उठि मानवीय मुल्यकेँ धरातलपर नैतिकताक परिभाषित करैत छथि । उषा एकटा विवाहित पुरुष सँ प्रेम करैत अछि , ओकरा सँ सम्बन्ध स्थापित करैत अछि । उषा अपन प्रेमीकेँ भावनाकेँ कदर करैत अछि । कथामे कतहुँ ओकर नैतिकतापर प्रश्न चिन्ह ठाड़ नहि कएल गेल अछि । मुदा मनोजक नैतिकतापर अवश्य प्रश्न चिन्ह ठाढ़ भऽ जाइत छैक । जखन ओ अपन प्रेमिका नलिनीकेँ गुण्डासभक बीच छोरि परा जाइत अछि आ घायल नलिनी होस्पीटलाइज भऽ जाइत अछि । सुजीतजीक कथासभ बदलैत मानविय सम्बन्धकेँ उजागर तऽ करैत अछि मुदा ओकर पाछा वदलैत राजनीतिक आर्थिक आ सामाजिक परिवेशकेँ समेटवाममे असफल देखल जाइत छथि ।
मुनष्यक मनोदशा ओकर बनैत बिगरैत सम्बन्ध बहुत हदधरि समाजिक राजनीतिक आ आर्थिक परिवेशद्वारा निर्धारित होइत अछि । अहि पक्षसभदिस कोनो साहित्यकारकेँ अपन कला मार्फत इंगित करब ओतबे जरुरी होइत अछि । कथामे पात्रसभ एकटा खास परिवेशमे क्रिया आ प्रतिक्रिया करैत अछि । सुजीतजी ओहि प्रवेशकेँ नहि राखि पाएल छथि । हम अपन बात एकटा उदाहरणक माध्यम सँ प्रष्ट करय चाहैत छी ‘प्रियंका’ कथामे कथा वाचककेँ नायिका प्रियंका बसमे भेटलन्हि । बसमे तऽ आर लडकीसभ छल हैत । जखन बसपर सँ उतरलै तखनुका परिवेश केहन छलै ? की बस प्रियंकाकेँ ओकर मन्जिलधरि पहुँचेलकैक ? ओकर मोनमे सेहो बस चलैत छल
हैतै ? ंिप्रयंका निश्चित रुप सँ अपन मन्जिलधरि नहि पहुँच पबैत अछि । ओना ओकर वेग बड तेज छैक । बस, बसक वेग , वस स्टेण्ड, जीवन गाडी, वाट, सहयात्री आ जीवन लक्ष्य ई सभ चिजकेँ जँ कथाकार समायोजन कऽ पवितथि तऽ प्रियंका कथा आर मुखर भऽ अवितैक । वास्तवममे देखल जाए तऽ कथाकार प्राय कथासभमे बिम्बकेँ सही समायोजन नहि कऽ पाएल छथि । एकठाम मात्र हमरा भेटल जतय ठण्ढा हवा आ धुनि पिता आ पुत्रकेँ ठण्डाइत सम्बन्धकेँ प्रतिबिम्बित करैत अछि ।
‘धधकैत आगि आ फुटैत कनोजरि’ कथामे कथाकार खण्डित करैत नजरि अबैत
छथि ।
स्वप्नमे स्वयंकेँ उपस्थिति अनिवार्य रहैत छैक । सम्पूर्ण कथाकेँ घटनाक्रम कथाक नायिका जयन्तिक सपनामे घटैत देखाओल गेल अछि । तखन कथाकेँ सुरुवात ड्राइवर आ खलाासी बीचक वार्तालाप सँ कोना भऽ सकैत अछि । ततबे नहि कथामे किछुदेरक बाद नायिकाकेँ प्रवेश कराएब की उचित अछि ? की सपनाक यर्थाथकेँ खण्डित नहि करैत
अछि ? कथा सेहो मानव जीवनककेँ कलात्मक अभिव्यक्ति छैक । कोनो कलामे ओकर गढनी महत्वपूर्ण बनि जाइत छै । शब्द, विम्ब, पात्र आ कथावस्तुकेँ सही संयोजन सँ मात्र कथा जिवन्त भऽ सकैत अछि । कथा एकटा मौलिक अभिव्यक्ति सेहो होइत अछि । कथाकार जीवन जगतकेँ एकटा नयाँ ढंग सँ देखबाक प्रयास करैत छथि । सुजीतजीक अहि दूनु अर्थमे आशिंक सफलता भेटल छन्हि ।
दुर्गानन्द मण्डल सहायक शिक्षक-
उ.वि.झिटकी बनगामा (मधुबनी)
पोथी समीक्षा-
मौलाइल गाछक फूल
जेना लगातार पाँच-सात सालक प्रचंड रौदी भेलाक बाद जौं रोहनि नक्षत्रमे एकटा कसगर अछार हुअए तँ गिरहत सभहक मोन फूलकोका जकाँ खिल उठैत छैक। सभ कियो खेत-पथार जोति, तामि-कोरि, खढ़-पतार सभ बाले-बच्चा मिल ओलि-पालि कऽ देबे सेबे बिहनि खसबैत छैक। गोर दसे दिनक पछाति हरिअरकंच बिहैनक टेम बिरारमे निकलए लगैत अछि। गिरहत सभ पोखरि-झाखरि दिस दिसा-मैदान करैत बॉसक उभ्भीबला दतमनि करैत लोटा नेनहि बिरार दिस चल जाइत छथि। बिरारमे उपजल हरियरकंच बिहैन देख आत्मा जुड़बैत छथि। देखते-देखते बिहैन पैघ भऽ जाइत अछि। गिरहत सभ ऐ आशामे पाँच-सात सालसँ बर्खो नै भेल जौं ऐबेर समए संग देत तँ बाले-बच्चा मिल खूब जतनसँ खेती करब आ ऐ रौदीसँ छुटकारा भेट जाएत।
दिन दसे-पनरेहक बाद अारदारा चढ़िते खूब कसगर बर्खा भेल। आ गिरहत सभक आत्मा गूलाबक फूल जकाँ खिल उठल। किनको खुशीक कोनो सिमा नै। सभ बाले-बच्चे लाठी-बहिंगा (पटै), हर-कोदारि, चौकी आदि लऽ खेती करए लेल खेत दिस चललाह। आ कृपा महादेवक जे ऐ साल समए नीक रहल, संग देलक आ मनसंम्फे उपजा भेल। सभ आनंदित छथि। एकटा नव उत्साह आ आनंदक संग दोहाइ दै छथिन परमपिता परमात्माकेँ।
ठीक तहिना उपन्यासकार जगदीश प्रसाद मंडल जीक द्वारा लिखल उपन्यास “मौलाइल गाछक फूल”सँ पाप्त भेल खुशी आत्माकेँ तृप्ति कऽ देलक। प्रो. हरिमोहन झा जीक बाद बुझू जे मैथिली साहित्याकासमे बड़का रौदी नै अपितु अकाल पड़ि गेल छल। पाठक-बन्धु हक्कोपरास छलाह, उपन्यास नामक वस्तु पाठककेँ हेरने नै भेटैत छलनि। आत्मा तँ उपन्यास पढ़ए लेल सदिखन व्याकुल रहैत छल। जइ कमीकेँ मण्डलजी दूर कऽ देलनि। लगातार एक-सँ-एक चिक्कन-चूनमुन उपन्यास लिख ने मात्र भारते उपितु आनो-आन देशमे रहएबला मैथिली भाषीक नजरिमे ख्याति पौलन्हि। अपन देशक कथे कोन नेपालक जनकपुरसँ लऽ तराइ क्षेत्रमे सेहो हिनक लिखल पोथी, उपन्यास, कथा संग्रह, कविता संग्रह, नाटक, एकांकी इत्यादि साहित्यक सभ विधा केर पोथी सहजताक संग उपलब्ध अइ। पोथी उपलब्ध सेहो मैथिली साहित्य लेल एक नवीन बात थिक। ओना ऐ लेल हम श्रुति प्रकाशनकेँ अलगसँ धन्यवाद देत छियन्हि।
प्रस्तुत उपन्यासमे अपने अपना अनुसारे कतौ कोनो तरहक कोनो तरहक कमी नै रखने छी। अपितु सागरमे गागर भरि समाजक सभ वर्ग, सभ जाति, स्त्री-पुरूष, ऊँच-नीच, छोट-पैघ, नीक-बेजाए, धनीक-गरीब, नेना-भुटका, जवान-जुआनक लेल एकटा अलग संदेस छोड़एमे कतौ कमी नै रखलनि। जे पाठककेँ एक सांसमे उपन्यास पढ़ि जेबाक लेल बाघ्य कऽ दैत अछि। हमरा अनुसारे ई एकटा बड्ड पैघ उपन्यासकारक सार्थकता सिद्ध भऽ रहल अछि। यर्थाथवादी रूपमे गाममे रहितौं उपन्यास पढ़ए काल एहन लगैत अछि जे हम गाम नै अपितु मद्रासमे छी। मुदा मद्रासक चािल-वाणि, रहब-सुतब, लोक सबहक बाजब-भुकब, पैघ-पैघ कोठा-सोफा, अतिआधुनिक पैखाना घर आदि रहलाक बादो अपने अपना गामक माटिक यादि नै बिसरि सकलौं। जे रामाकान्त बाबू अपन गामक सोन्हगर मािटक सुगंधक सिनेहकेँ स्पष्ट करैत कहैत छथि- “हौ जुगे, बिना माटिये हाथ कोना मटियाएब?”
उपन्यासक पात्रक नामक अनुसार गुणक विलक्षण समाबेस करब अपने कतौ नै बिसरलौं। नामक अनुसारे कामकेँ अपने स्पष्ट देखौने छी। समाजक जे जेहन लोक जेहन पदपर पदस्थापित छथि। ओइ कार्यक लेल समर्पण उपन्यासक विशेषता बतबैत अछि। ठाम-ठाम अध्यात्म, दर्शन, अपना संस्कृति आदिकेँ दर्शादा देब सभ पाठकक लेल मोन राखक योग्य बुझना गेल। यथा- “ई भूमि जनकक राज मिथिला थिक। तेँ मिथिलावासीकेँ जनकक रास्ता पकड़ि हमरा लोकनिकेँ चलक चाही, जाहिसँ प्रतिष्ठा सभ दिन बरकरार रहत।”
ऐ उपन्यासक प्राय: सभ पात्रक चरित्र अति पवित्र, सामजिक समरसतासँ भरल बुझना जाइत अछि। हुनका लोकनिक सहज सज्जनता प्रकृत प्रदत्त बुझाइत अछि। समाज सुधारक जौं कोनो कथा हुअए तँ प्राय: सभ एक-दोसराक प्रति ओतबे जिम्मेवार स्वभावत: बुझना गेल जे एकटा सुसभ्य समाजक सामाजिक चिंतनक प्रति कर्त्तव्यनिष्ठ बुझना जाइत छथि। उपन्यासक केन्द्रीय पात्र रामाकान्त बाबू छथि। जे एकटा नीक जमीनदार होइतो सामाजिक कर्त्तव्यपरायणता, इमानदारी, समाजक सभ जातिक प्रति सिनेह, उदारचित्त विचारधारा, वास्तविक मानवतावादक चित्र, मानवक प्रति कर्त्तव्य ओकर दुख-सुख, मरनी-हरनीमे संग पुरब, हिनक चारित्रिक विशिष्टता स्पष्ट देखबा योग्य अछि।
उपन्यासक आरम्भहिंमे जखन कि गाममे अकाल पड़ि जाइत छैक। लोक सभ अन्न बेतरे मरए लगैत अछि। जनकेँ काज कतौ नै भेटैत छै, खेती-खोलाक कतौ थाह-पथाह नै, लोकक घरमे दिनक-दिन चुल्हि नै पजरै छै। इनारोक पानि ससरि ततेक निचाँ चल गेलैक जे उगहनियो सभ छोट भऽ गेलैक। आ एम्हर बौएलालक प्राण भुखसँ छुटै-छुटैपर छल। तेहने दुरूह समैमे रामाकान्त बाबू द्वारा बड़की पोखरि उराहब, समाजक प्रति साहानुभूति हुनक हृदैक महानता देखल जाइत अछि। ऐ तरहेँ एक तँ लोककेँ विभिन्न प्रकारक अकर्मणयतासँ बचा कऽ दोसर दिस, अन्नाभावसँ ग्रस्त लोकक मरबासँ सेहो बचबैत छथि। रमाकान्तबाबूक अवधारणा ई जे ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग भवेत्’क ‘‘अथवा सबए भूमि गोपाल की’’ सपष्ट कऽ दैत अछि। तँए रामाकान्तबाबू सामाजिक समरसता लेल ितयागक मिशाल स्वरूप अपन दू सय विधा जमीन गामक भूमिहीन परिवारक बीच वितरण करबा दैत छथिन। ठीक ओहिना जहिना चीम राजा चेन्पौ कएने रहथि। जइसँ गामक सभ व्यक्ति सुखी भऽ जाइ छथि, आ गाधीवादी विचारधारकेँ आरो मजगूती भेट जाइत अछि। अर्थात् व्यक्तिगत खुशी वा सुख-शांतिसँ एकटा समाज सुखी नै भऽ सकैत अछि। बल्कि सामाजिक सुख-शांतिक लेल व्यक्तिगत सुख-शांतिक तियाग करब मनुष्यक अहम कर्त्तव्य थिक। स्पष्ट अछि।
मनुष्य एक समाजिक प्राणी थिक, जे सोनेलाककेँ विपति पड़लापर फुदिया द्वारा कहल गपसँ स्पष्ट होइत अछि। जे “भाय, तोरा जे हमर खूनक काज हेतह, हम सेहो देबह।” स्पष्ट अछि जे समाजमे एहिना सबहक काज सभकेँ होइत छैक। उपन्यासक मध्यमे मण्डलजी गाम-घरमे पसरल धर्मभिरूताक चित्रण करब सेहो नै बिसरलाह। जे सोनेलालक आंगनवालीकेँ बिमारीसँ ठीक भेलापर आयोजित भंडारामे दू साधू दलक द्वारा जे एकटा वैष्णम आ कबीरपंथसँ सोनेलाल कोना लुटल जाइत अछि। उपन्यासकार एहन समस्याक प्रति समाजकेँ सचेत करै छथि।
आजुक मशीनक युग हमरा समाजकेँ कोन तरहेँ जोंक जकाँ पकड़ने अछि जे तरे-तर शोणित पीब रहल अछि मुदा पता तक नै चलै छै। ई स्पष्ट करबामे शत-प्रतिशत सफल छथि। कोन तरहेँ खून अपना खूनकेँ चिन्हबामे असमर्थ अछि एकदम स्पष्ट अछि जे महिन्द्रक पुत्र रमेश होस्टलसँ आबि अपन पिताकेँ गोड़ लागि ठकुआ कऽ आगाँमे ठाढ़ भऽ जाइत अछि, बाबा-दादीकेँ नै चिन्हैत अछि। बादमे पिताक कहलापर रमेश तीनू गोटेकेँ गोड़ लगलकनि। ऐ तरहेँ संयुक्त परिवारक महत्व जे मिथिलाक धरोहरि छल। ओकरा एकल परिवार बूझु जे झकझौरि कऽ राखि देलक। जे मानवीय सिनेहक नष्ट होइत स्वरूप थिक।
एे प्रकारेँ उपन्यास “मौलाइल गाछक फूल”मे सामाजिक जिनगीक विभिन्न प्रकारक समस्या आ ओकर समुचित समाधान तकबाक पूर्ण प्रयत्न केलनि अछि। “मनुष्यसँ परिवार बनैत अछि आ परिवारसँ समाज। जँ परिवार ठाढ़ भऽ जाए तँ समाज स्वत: आगू बढ़ए लागत।” मण्डलजीक सामाजिक भावना आदर्शवादी भावनाक रूपमे परिलक्षित होइत अछि। जकरा धियानमे रखैत मद्रासमे डाक्टरी करैत डॉ. महेन्द्रकेँ गाममे एकटा स्वास्थ्य केन्द्रक स्थापनाक विचार गामवासीक सेवा लेल देखाओल गेल अछि। उपन्यासमे जाति-पाति, धर्म-सम्प्रादयमे खंिडत भेल गाम-समाजमे छूआ-छूत, ऊँच-नीचक खाधिकेँ रामाकान्तबाबू द्वारा भजुआ डोमक ऐठाम जा कऽ भोजन करब समाजक बीच समरसता स्थापना आ छूआ-छूतक अंत कऽ एकटा आदर्शवादी पूर्ण समाधान देखौलनि अछि। जेकरा अशिक्षासँ उत्पन्न लाइलाज बिमारीकेँ विचार मात्रमे परिवर्त्तन कऽ एकसूत्रमे बन्हबाक प्रयास, वरदान सावित भेल अछि।
उपन्यासक समस्त नारी पात्र यथा- रधिया, श्यामा, सुगिया, सोनेलालक बहिन आदिमे पतिपरायणता सुख-दुखमे संग साथ देब। भारतीय नारीक मर्यादा स्पष्ट चित्र उपस्थित करबामे पूर्णत: सफल भेल छथि। सुमित्राक पढ़ि-लिख नीक नर्स बनब आ सुजाताकेँ पढ़ि-लिख नीक डाक्टर बनब, नारीक अबला नै अपितु सबला रूप देखबामे अबैत अछि। एतबे नै, उपन्यासक मादे मण्डलजी स्पष्ट दर्शा देलनि अछि जे गरीबो-गुरबामे ओ क्षमता छै जेकरा जँ कनिको सहयोग भेट जाए तँ ओ बहुत आगाँ बढ़ि सकैत अछि। नारीक एकटा अलग स्वरूप काली-दुगाँ आदि शक्तिक रूप सितिया केर चरित्र देखेबामे सफल रहलाह अछि। जखन आवारा छौड़ा ललबा ओकरा इज्जति लुटए चाहै छै तखन सितिया ललबाकेँ लाते-मुक्के थुरि-थारि कऽ राखि दैत छै। बात ओतइ नै खतम होइछ अपितु जखन ललबाक गौआँ सभ हसेरी बान्हि सितिया गामपर हमला करैत अछि तखन सितिया झांसीक रानी बनि सभकेँ परास्त कऽ दैत छै।
ऐ तरहेँ मौलाइल गाछक फूल उपन्यासमे सहजता, समरसता, यथार्थवाद, आदर्शवाद, धर्मभिरूता, एकल एवं संयुक्त परिवारक रूप-रेखा खिंच एकटा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण रूपमे उपन्यासकार हमरा लोकनिक मध्य उपस्थित छथि। हुनक ई िवधासँ उपन्यास जगतमे एक्केठाम सभ तरहक सुख, आनंदक अनुभव होइत छन्हि। आजुक समाज जे सभ तरहेँ मौलाएल अछि। अपना उपन्यासक मादे उपन्यासकार मात्र एक आदमी रामाकान्तबाबू हृदए परिवर्त्तन कऽ समाजमे एकटा नवका फूल खिलेबामे सश-प्रतिशत सफल भेला अछि। रामाकान्त बाबू द्वारा अपन दू सए बीघा जमीन- सबहक माथपर एकहक बीघा खेत अर्थात् जेकरा सात गो बेटा ओकरा सात बीघा दऽ सभकेँ एकटा नव जिनगी प्रदान करैत छथि। एक नव जिनगी जे पूर्णत: मौलाएल छल ओइमे फूल खीला दैत छथि। हमरा आशा नै अपितु विश्वास अछि जे श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजी सन उपन्यासकार होथि आ रामाकान्तबाबू सन नायक तँ अपन समाज रूपी मौलाएल गाछ मौलाएल नै अपितु डगडगीसँ भल गाछ बनि फूलसँ लदि सकैत अछि।
गजेन्द्र ठाकुर
उल्कामुख (मैथिली नाटक)
कल्लोल १
(मंचपर वाम मत्तवर्णीपर कूटक दूटा पैघ घन आ दहिन मत्तवर्णीपर कूटक दूटा पैघ घन राखल रहैत अछि, घनक सभ पृष्ठपर शतरंजक आकृति बनाएल रहैत छै।। धधरा फेकैत एकटा गीदर मंचपर चारू कात घूमि जाइत अछि। दू तीनटा टॉर्चसँ ई प्रभाव उत्पन्न कएल जा सकैए। पाछूसँ हूआ-हूआक ध्वनिक संग अन्हार पसरि जाइत अछि। फेर मंच प्रकाशित होइत अछि आ गंगेश आ वल्लभा रंगपीठपर वार्तालापक मुद्रामे बैसल छथि। बीचमे कूटक पैघ घन मत्तवर्णीसँ रंगपीठपर राखल जाइत अछि, जइपर मुँह खसा कऽ दुनू गोटे गप कऽ रहल छथि। )
वल्लभा: उषाक स्वर्णिम आभा सुसज्जित ऋषिक स्मरण करबैत अछि।
गंगेश: की भेल? कोन ऋषिक चर्चा अहाँ कऽ रहल छी? ककर स्मरण अबैत अछि?
वल्लभा: अहाँक, आर ककर?
गंगेश: हम कहियासँ ऋषि भऽ गेलौं। हम तँ एकटा साधारण विद्यार्थी छी। वाकचातुर्य तथ्यपर भारी नै भऽ जाए, तकर मात्र प्रयास कऽ रहल छी।
वल्लभा: मुदा तइसँ की हएत। लोक तँ गप घुमा फिरा कऽ बात बजिते छथि। अहाँ वाक चातुर्यक चलाकीकेँ देखार केने छिऐ कतेको श्लोकमे तैयो, तैयो लोक गप घुमा कऽ बाजिये दै छथि।
गंगेश: अहाँ कहियासँ हमर एतेक चिन्ता करए लगलौं।
वल्लभा: देखू। अहाँ चर्मकार टोलमे बच्चेसँ आबि रहल छी…
गंगेश: आ बच्चेसँ लोकक बोल सुनि रहल छी..
वल्लभा: मुदा लोकक बोल आर बिखाह भऽ गेल अछि..
गंगेश: कतेक बिखाह। सत्यकामक भाग्य हमरा भेटल अछि…
वल्लभा: कोन सत्यकाम..
गंगेश: वएह सत्यकाम जकरा पिताक विषयमे बुझल नै छलै, ओकर मायोकेँ नै बुझल रहै जे के ओकर पिता छै। मुदा ओकर गुरु गौतम ओकरा शिक्षा देलखिन्ह।
वल्लभा: अहूँसँ पूछल गेल ओ प्रश्न..
गंगेश: पूछल गेल वल्लभा, पूछल गेल। बिनु पिताक अहाँक जन्म..पितृ परोक्षे पञ्च वर्ष व्यतीते गंगेशोत्पत्ति…
वल्लभा: छोड़ू..हमरा तँ बुझले अछि।
गंगेश: गुरुजी हमरोसँ पुछने रहथि पिताक विषयमे। चर्मकार टोलक जे ओ रहथि जे हमर माताकेँ आपत्कालमे सहायता देने रहथि, आब गामे छोड़ि देलन्हि। मुदा हमरा एतऽ आइयो वएह आपकता भेटैए।
वल्लभा: आहा। ककरा-ककरासँ।
गंगेश: एकटा तँ सोझेँ छथि हमर।
वल्लभा: सएह आपकता तँ लोकक आँखिमे नै सोहाइ छै..लोकक आँखिमे हींग सुइया..
गंगेश: उदयनक बाद कएक शताब्दी धरि मिथिलामे भगवान जगन्नाथकेँ ललकारा दै बला कियो नै भेल।
वल्लभा: हे से नै कहियौ। दीना आ भदरी से ललकारा दऽ आएल रहथि जगन्नाथकेँ।
गंगेश: आ दुनू गोटे विजय सेहो प्राप्त केलन्हि। हे सुनाउ ने एकबेर ई खिस्सा।
वल्लभा: एक्के खिस्सा बेर-बेर सुनैत मोन नै भरैए।
गंगेश: नै भरैए..तत्त्वचिन्तामणि लिखबामे ई हमर उत्प्रेरक बनैए..
वल्लभा: ठीक छै। तखन दीना हम बनै छी आ भदरी अहाँ बनू।
(दुनू गोटे शतरंजक घनक सोझाँ आबि जाइ छथि।)
वल्लभा: जोगिया गामक दीना एलै भदरी भाइ जुमि हे
गंगेश: कालू सदाय निरसो मैयाक बेटा मजगूत हे
वल्लभा: (हँसैत आ गंगेश दिस तकैत)
दीन रहथि हीन रहथि मुदा नै मजबूर हे
शिकार खेलथि रणे-बने कोरथि खेत मिलि हे
पाँच-पाँच मोनक कोदारि लेने बीघा कते दूर हे
गंगेश: कटैया बोनक राजा छलै फोटरा गीदर हे
ओकर संगी धामन रहै, बिख मशहूर हे
बिख सन बोल बाजल धामन दुनू भाइकेँ
जो रे दीना जो रे भदरी पानिमे बसैले हे
वल्लभा: की बजलेँ धामन तूँ तूँ, की बजलेँ धामिन गे
हम्मर जीवन कटैय्या बोनक तूँ नै भागी हे
हम्मर जीवन हम्मर बलकेँ बुझलेँ हिनताइ रे
मारि-मारि छूटल ओकरापर दुनू भाइ रे
धामन मारल धामन फेकल धामिनक आगू रे
धामिन थरथर करै लागल लेबौ बदला भाइ रे
गंगेश: फोटर राजा कटैय्या बोनक छल दोसतियारी रे
हम्मर दोस धामन मारल, दुनू मिलि भाइ रे
धामिन भौजी निश्चिन्त रहू, नै करू अगुताइ हे
आबै दियौ आबै दियौ शिकार खेलऽ दुनू भाइकेँ
वल्लभा: दिन बीतल, गेल भदरी दीना बोन शिकार हे
संग गेल बहुरन मामा फोटर तैयार हे
बिखहा दाँत गरा देलक मारल दुनू भाइ हे
आत्मा बनि घूमए लागल दुनू भाइ हे
गंगेश: दौरी गामक हिरिया तमोलिन देखल दुनू भाइकेँ
दौरी गामक जिरिया तमोलिन देखल दुनू भाइकेँ
एहेन वर चाही हमरा करए लागलि तपस्या जोरसँ
वल्लभा (तपस्विनी सन ध्यान लगेने बैसि जाइत छथि):
दीना चाही भदरी चाही, वर दुनू सखीकेँ
मरल छेँ तँ भेल की स्वीकारू गंगा पैसि कऽ
(गंगेश घनक पाछाँ चल जाइ छथि आ हाथ उठबै छथि जेना गंगामे होथि। वल्लभा दोसर कातसँ हाथ पसारै छथि।)
वल्लभा: मातैर-मातैर सुनै छलौं मातैर बड़ी दूर हे
अन देलौं धन देलौं, लक्ष्मी बहुत हे
एकेटा जे स्वामी बिनु लागै य सुन हे
मातैर-मातैर सुनै छलौं.....।
(तखने मुखरामक प्रवेश होइत अछि।)
देवदत्त: (मुस्काइत एक बेर वल्लभाकेँ आ एक बेर गंगेशकेँ देखैत छथि)
कमला-कमला सुनै छलौं कमला बड़ दूर हेऽऽ
गहबर पहसैत कमला भए गेल कसहूर हे,
अन देलौं धन देलौं लक्ष्मी बहुत हे
एकेटा जे……
वाह गंगेश। नै नै, वाकचातुर्य नै गंगेश। कोनो चातुरी नै। ई तँ अछि स्थूल प्रेम।
प्रेम प्रेम देखी सगरे प्रेमे पूर्ण हे
प्रेम बिनु लागै यऽ सभ सून हे…
गंगेश। की बात छै। ऐ टोलमे तोहर माएकेँ सेहो मोन लागै छलौ आ तोरा सेहो। मुदा के बाजत। न्याय, तर्कक सोझाँ के ठठत।
वल्लभा। अहाँक भाग आकि कोनो मनता जे गंगेशक माए अहींकेँ पुतोहु बनेबा लेल मनने हेती। आकि गंगेशसँ सत करेने हेती जे हमर अपमानक बदलामे तोँ अही टोलमे बियाह कऽ कऽ लोककेँ देखा दहीं। न्याय आ तर्कमे के जीतत गंगेशसँ। न्याय करत गंगेश, तर्क करत कियो नै।
गंगेश: देवदत्त..
देवदत्त: नै गंगेश कोनो वचन चतुराइ नै अछि हमरामे। मुदा की कोनो तर्क नै अछि हमर वचनमे।
गंगेश: देवदत्त, ने हमर माए कोनो मनता मानने रहथि आ नहिये हमरासँ कोनो सत करबेने रहथि। आ नहिये ऐ टोलक हमर माएपर कएल उपकारक बदला हमर आ वल्लभाक प्रेम अछि। आ जेँ ऐ प्रेममे ने कोनो मनता छै, ने कोनो सत आ ने कोनो उपकार, तेँ ई प्रेम स्थूल प्रेम अछि।
देवदत्त: तर्क। नै कोनो वाक चातुरी नै। मुदा गंगेश, ई एकटा गप अहाँ ठीक कहलौं। अहाँक आ वल्लभाक प्रेमकेँ तँ लोक चर्चो नै कऽ रहल अछि। दूर देशक प्रेमक मुदा चर्चा होइए। ठीके कहलौं अहाँ। सुनल अछि कोनो बड़का न्यायक ग्रन्थक अहाँ लेखन कऽ रहल छी। सुनै छिऐ जे ओ तेहेन ग्रन्थ बनि रहल अछि जकर चर्चामे सभ नैय्यायिक ओझरा जेता। भाष्यपर भाष्य, टीकापर टीका लिखाएत ओइपर। मुदा गंगेश, सावधान। अहाँक प्रेमकेँ मारबाक ई षडयंत्र तँ नै अछि गंगेश। ऐ प्रेमक चर्च सेहो पाँच-सए बर्खक बाद मुदा हजार बर्खक भीतरे फेरसँ मिथिलामे हेतै। ओहो हो..ई की कहा गेल गंगेश। (अपन जीह थकुचऽ लगैए) लोक कहैए जे हमर जीह कारी अछि। जँ धानक खेतक आरिपर ठाढ़ भऽ हम कहि दै छिऐ जे देखू ई धान केहेन सनगर अछि तँ ओ धान अगिले दिन जरि जाइ छै। लोके सभ कहैए। (फेरसँ अपन जीह थकुचऽ लगैए) स्थूल प्रेमक चर्च हेबे किए करए गंगेश। किए हुअए स्थूल प्रेमक चर्च। ऐ चर्चसँ तँ समाजमे समरसता आबि जेतै। से नै हेतऽ चर्च ऐ प्रेमक गंगेश, नै हेतऽ चर्च ऐ प्रेमक। तोहर ग्रन्थ चर्च हेतऽ गंगेश, तोहर ग्रन्थकेँ मिथिलाक टोल आ चौपा़ड़िमे तोहर विद्वताक चर्चा हेतै गंगेश, तोहर प्रेमक नै। मिथिलाक शिक्षक तोहर पोथीक प्रतिलिपिक अनुमति नै देथिन्ह गंगेश आ ने ओकर सारांश लिखबाक। आ जँ बंगालक कोनो विद्यार्थी ओकर प्रतिलिपि कइयो लेत गंगेश तँ ओ लऽ जा सकत मात्र तोहर विद्वता। तोहर न्यायशास्त्र। तोहर तर्क। मरि जेतह तोहर प्रेम गंगेश। मरि जेतह तोहर स्थूल प्रेम।
वल्लभा: देवदत्त, हजार बर्खक बाद तँ घुरत ने ई प्रेम। गंगेशक अमर पोथी लेल हमरा ओ प्रतीक्षा स्वीकार अछि। चर्च नै हएत प्रेमक…हाह…प्रेम की चर्च हुअए तेँ होइत अछि देवदत्त?
देवदत्त: वल्लभा, गंगेशक हारि देख रहल छी हम। गंगेशक हारि देख रहल छी हम गंगेशक मुखपर। गंगेश, की तोँ वल्लभासँ सहमत छह। की वल्लभा आ तोहर स्थूल प्रेमक चर्च नै भेने सामाजिक समरसताक तोहर उद्देश्य पूर्ण हेतह। की ऐ स्थूल प्रेम आ ऐ टोलक नाराशंसी गाथाक कोनो कर्ज तोरा पोथीपर नै छै गंगेश? की तोहर प्रचण्ड तर्क सिद्धान्त बनि कऽ नै रहि जेतऽ गंगेश। प्रायोगिक महत्व खतम नै भऽ जेतै की ओकर? हम भरोस दिआबै छियह गंगेश, भरोस दियाबै छियह, जे तोहर स्थूल प्रेमक कियो विरोध नै करतह। आ तोँ बुझैत रहबह जे ओ सभ तोहर प्रचण्ड तर्कसँ हारि कऽ विरोध नै केलन्हि। मुदा असल बात ई छै जे तोहर पोथीपर भाष्यपर भाष्य आ टीकापर टीका लिखाइत रहतह। तोहर विरोध तँ छोड़ह, तोहर सन्तानोक विरोध कियो नै करतह गंगेश। सिद्धान्त बनि कऽ रहि जेबह तोँ आ तोहर तर्क।
गंगेश: देवदत्त। अहाँक कोनो गप हमरा कठानि नै लागि रहल अछि। मुदा एतेक तर्कपूर्ण गप..
देवदत्त: एतेक तर्कपूर्ण गप..ठीके बुझलेँ गंगेश। ई सुनलाहा गप छी। चौपाड़िपर होइत शिक्षक लोकनिक गप। हम तँ किछु बुझै नै छी, से जानि हमरा सोझाँ होइत रहै ई सभ गप..जाइ छी…जाइ छी…(एम्हर ओम्हर तकैत शतरंजक घनकेँ पलटाबऽ लगैए) तँ हमरा की इनाम देब ऐ तर्कपूर्ण गप लेल गंगेश। (शतरंजक एक-एकटा खानाकेँ छुबैत) ई ६४ टा खाना अछि शतरंजक गंगेश। पहिल खानामे एकटा धानक दाना राखू। दोसरपर ओकर दुगुना। तेसरपर दोसरक दुगुना। अन्तिम खानापर जतेक धानक दाना अबैए ततेक दाना दिअ हमरा गंगेश..
वल्लभा: दऽ दियन्हु हिनका इनाम गंगेश। नै जानि ईहो गप ओ कतौसँ सुनि कऽ आएल छथि।
गंगेश: नै वल्लभा। ई इनाम ऐ शतरंजक खेलोसँ बेशी विषम छै। सगर पृथ्वीक अन्नक उपजा जँ पाँच सए सँ हजार बर्ख धरि उपजत तखन जा कऽ ई इनाम देल जा सकत। देवदत्त, के बाजै छल ई गप देवदत्त। कोन चौपाड़िपर होइ छल ई गप देवदत्त..
देवदत्त: (डराइत) एतेक पैघ अछि ई इनाम..पाँच सए बर्खक बाद आ हजार बर्खसँ पहिने…गंगेश..जँ ई इनाम अहाँ नै देब हमरा तँ तावत धरि मुनाएल रहत अहाँक स्थूल प्रेम…हा हा हा…(अपने सँ बाजैए) डराओन सन गप..डराओन सन गप..(प्रस्थान कऽ जाइत अछि।)
दोसर कल्लोल
(दू टा शतरंज-घन दुनू रंगशीर्षपर राखल अछि। गंगेश एकटा शतरंजक घनक चारू कात घूमि रहल छथि। दोसर शतरंजक घनपर प्रकाश छै मुदा ओ फेर विलुप्त भऽ जाइ छै। आ फेर वेदिकासँ एकटा गीत उठै छै।)
बभनीकेँ पुत्र तोहें बाल गोरैय्या,
पोथी नेने पढ़न जाइ हे
पोथिया नेरौलनि गोरिल जाइ बिरिछ तर
हलुआइ घर पैसल धपाइ हे
किछु मधुर खेलनि गोरिल किछो छिरियौला
किछु देल लंका पठाइ हे
बभनीक पुत्र तोहेँ बाल गोरैय्या
ग्वालिन घर पैसल धपाइ हे
किछु दूध पीलनि गोरिल किछु ढ़रकओला
किछु देल लंका पठाइ हे
गंगेश: हम तँ बभनीक पुत्र मुदा हमर पुत्र तँ नै। ओ अछि बभनीक पुतोहुक पुत्र। हम बारह हजार ग्रन्थक बरोबरि एकटा तत्वचिन्तामणि लिखनिहार लेखक, मात्र एकटा साधारण शिक्षक छी? हमर तत्वचिन्तामणिक प्रतिलिपि करबापर प्रतिबन्ध के लगाएत? नवद्वीपक विद्यार्थी अवश्य लऽ जाएत हमर शिक्षा अपना संग।
(वेदिकासँ फेर गीत उठैए।)
बभनीक पुत्र तोहेँ बाल गोरैय्या
बड़इ घर पैसल धपाइ हे
किछु पान खेलनि गोरिल किछु छिड़िऔला
किछु देल लंका पठाइ हे
बभनीक पुत्र तोहेँ बाल गोरैय्या
डोमिन घर पैसल धपाइ हे
नीक नीक पाहुर गोरिल अपने चढ़ाओलऽ
काना पातर देल हड़काइ हे
बभनीक पुत्र तोहेँ बाल गोरैय्या
ब्राह्मण घर पैसल धपाइ हे
नीक-नीक जनौ गोरिल अपने पहिरलनि
औरो देलनि ओझराइ हे
हकन कनै छै गोरिल ब्राह्मणीक बेटिया
ब्राह्मण बाबू बड़ दुख देल हे
भनहि गंगेश सुनू बाबू गोरिल
गहवर पैसिये जस लेल हे
गंगेश: ई देवदत्त की कहि गेल। मुदा टोल आ चौपाड़िपर हमरा सोझाँ तँ एहेन कियो किछु नै बाजल अछि। मुदा शतरंजक अन्नक गणना। ओ तँ देवदत्तक सकमे नै छै।
(वल्लभाक प्रवेश।)
वल्लभा: की भेल? कोन गुनधुनी लागल अछि?
गंगेश: वएह देवदत्तबला गुनधुनी।
वल्लभा: धुर छोड़ू ने। ओकरा बुद्धिक लेशो नै छै..
गंगेश: तेँ तँ वल्लभा। बुद्धिसँ काज केलापर ने सत्य आ असत्य..मुदा ओकरा बुद्धि नै छै। तेँ ओकर गपपर हमरा सोच पड़ि रहल अछि।
वल्लभा: अहाँ तँ तत्वचिन्तामणिक अलाबे आब कवि सेहो भऽ गेल छी। एतेक सुन्दर गीत लिखऽ लागल छी। तत्वचिन्तामणिमे आचार्य सिंह आ आचार्य व्याघ्र आ गीतमे बाल-गोरैय्या!!
गंगेश: हँ वल्लभे। अनायासे अहाँ कतेक नीक गप बाजि देलौं (शतरंजक घनकेँ टेढ़ कऽ कंगुरिया आंगुरसँ कोनपर नियन्त्रित करै छथि।) हँ..तत्वचिन्तामणि नै, आचार्य सिंह आ आचार्य व्याघ्रक परिभाषा नै, ई बालगोरैय्या चौपाड़ि आ टोलक षडयंत्रकेँ तोड़ि सकत। (गंगेश कंगुरिया आंगुर घनसँ हटा लै छथि। घन घुमि कऽ फेर स्थिर भऽ जाइए।) अनायासे अहाँ कतेक नीक गप बाजि दै छी वल्लभा।
(तखने देवदत्त प्रवेश करैए।)
देवदत्त: गंगेश कवि!!!(आश्चर्यसँ हाथ पसारैए) गंगेश तत्त्वचिन्तामणिकारक। गंगेश कविक कवित्वक चर्च कियो नै करत।
वल्लभा: की ईहो निर्णय टोल आ चौपाड़िपर भऽ गेल छै।
देवदत्त: हँ वल्लभा। मुदा तोरा कोना बुझल छौ?
वल्लभा: बुझल नै अछि मुदा आब बुझल भऽ गेल जे हमर आ गंगेशक प्रेमकचर्चा, हमर आ गंगेशक विवाहक चर्चापर पहरुआ ठाढ़ कऽ देल गेल छै।
गंगेश: (शतरंजक घनकेँ फेर टेढ़ करैए) तँ हमर कवितापर सेहो चर्चा नै हएत। तत्त्वचिन्तामणिक सभ पाँतीपर भाष्य,टीका आ कवितापर..
वल्लभा: (शतरंजक घन गंगेशसँ अपना हाथमे लऽ लैए) गंगेश आब अहाँ चिन्ता छोड़ि दिअ। ई सभ गीत हमर नैहरामे गाओल जाएत। देवदत्त कहि अबियौ टोल आ चौपाड़िपर, गीत बन्न नै हएत। आइ नै तँ सात सए बर्ख बादो ऐ प्रेमक चर्चा फेरसँ हएत। आ जे प्रेम सात सए बर्ख इन्तजारी नै कऽ सकए ओ प्रेम प्रेम नै। की अहूपर हेतै कोनो प्रतिबन्ध।
देवदत्त: हेतै नै भऽ गेल छै वल्लभा। देखू ओ बँसबिट्टी। गाम आ अहाँक नहिराक टोलक बीचमे जे बाँसक कोपर सभ देखा पड़ि रहल अछि। अहाँक नहिराकेँ परदेस बना देत ई कोपड़। अहाँक गीत ओइ टोलसँ बहार तँ हएत मुदा ऐ बँसबिट्टीमे ओ भुतहा गीत बनि घुरत..तत्वचिन्तामणिकारक गंगेश..
वल्लभा: सुकविकैरवकाननेन्दुः – गंगेश। अपन पुत्र वर्द्धमानकेँ कहबै हम। अपन पिताक कवि हेबाक प्रमाण छोड़त ओ..कहि दियौ देवदत्त टोल आ चौपाड़िपर। छै कियो ओतऽ सात सए साल लड़ैबला? बँसबिट्टीक गीत घुरियाइत रहतै। सुनै छिऐ कोनो ध्वनि खतम नै होइ छै दुनियाँमे। सुनै छिऐ एक्के तरहक सातटा लोक होइ छै दुनियाँमे एक्के समएमे। सात सए बर्खमे सातटा लोक नै हेतै की देवदत्त?
देवदत्त: नै हेतै वल्लभा। सात सए बर्खमे एकटा भऽ जाए सेहो बहुत छै।
वल्लभा: एक टा तँ हेतै ने देवदत्त, तँ तइ लेल हमर सभक प्रेमक गीत विचरैत रहतै अहि बोन बँसबिट्टीमे। बँसबिट्टीक पारक जीवन, टोल, चौपाड़ि सभ खतम भऽ जेतै देवदत्त ऐ सात सए बर्खमे, मुदा ई भुतहा गीत नै खतम हेतै।
देवदत्त: नै खतम हेतै वल्लभा, नै खतम हेतै। (देवदत्त झटकारि कऽ प्रस्थान करैए। वल्लभा आ गंगेश शतरंजक घन लग आबि ठाढ़ भऽ जाइ छथि।)
गंगेश: वल्लभा, छोड़ू ई सभ। कोन गुनधुनी लागि गेल अहाँकेँ। सुनाउ ने खिस्सा, बालाराम आ वंशीधर ब्राह्मणक, व्याघ्र आ सूकरक, गहिल आ दुर्गाक।
वल्लभा: (वल्लभा मुस्की दै छथि आ शतरंजक सभटा घनकेँ एकत्र करै छथि आ हाथसँ सभटाकेँ नेपथ्य दिस सहटारि कऽ मंचसँ हटा दै छथि।)
हिर्र हिर्र सूगर जाइए अखराहा करीब सँ
पाछू बंशीधर भाभन खेहारैए जोर सँ
भोरे भोरे अखराहामे सूगर संग युद्ध रे
श्यामसिंह आबि माटि फेकल जूमि कए
बंशीधरकेँ तामस उठलै बाजल किछु बड़बर
गहिल गहिल कहि श्याम सिंह छूटल बड़ी जोरसँ
बंशीधर बलगर छल मारल बड़ मारुख
अरड़ा कऽ खसल श्यामसिंह, भेल अन्हेर हे
ओकर बेटा बालाराम केलक सत्त हे
गहिल दिअ शक्ति हमरा मारी बंशीधर केँ
गहील गेली दुर्गाजी लग करबेलन्हि सत्त हे
दुर्गा मुदा आबै छथि बंशीधरकेँ रक्ष हे
बंशीधरक सूगरकेँ मोहिनी काँटी भोकि मारल
बंशीधर तमसा कऽ ललकारा दैए बालारामकेँ
मुदा बालाराम भोंकैए काँटी ओकरो पेटमे
बंशीधरक पेट चिराएल दुर्गा एली बीचमे
गंगामे कऽ ठाढ़ कराएल बालाराम बंशीधर
दोस्ती भेलै दुहू बीचमे
गहिल मिललि,मिललि दुर्गा
सभ मिलि बढ़ू अहि देसमे
(हूआ-हूआक ध्वनिक संग अन्हार पसरि जाइत अछि।)
…(जारी)
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