भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

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Monday, January 16, 2012

'विदेह' ९७ म अंक ०१ जनवरी २०१२ (वर्ष ५ मास ४९ अंक ९७) PART IV


शान्तिलक्ष्मी चौधरी
तीनटा गजल
गजल १

 
शिशु सिया उपमा उपमान छियै हमर आयुष्मति बेटी 
मैत्रेयी गार्गीक कोमल प्राण छियै हमर आयुष्मति बेटी 

 
टिमकैत कमलनयन, धव-धव माखन सन कपोल 
पुर्णमासीक चमकैत चान छियै हमर आयुष्मति बेटी 

 
बिहुसैत ठोर मे अमृतधारा बिलखैत ठोर सोमरस 
शिशु स्वरुपक श्रीभगवान छियै हमर आयुष्मति बेटी 

 
नौनिहाल किहकारी सरस मिश्री घोरल मनोहर पोथी 
दा-दा-ना-ना-माँ सारेगामा गान छियै हमर आयुष्मति बेटी 

 
सकल पलिवारक अलखतारा जन्मपत्रीक सरस्वती 
अपन मैया-पिताश्रीक जान छियै हमर आयुष्मति बेटी 

 
ज्ञानपीठक बेटी छियै सुभविष्णु मिथिलाक दीप्त नक्षत्र 
मातृ पितृ कुलक अरमान छियै हमर आयुष्मति बेटी 

 
"शांतिलक्ष्मी" विदेहक घर-घर देखय इयह शिशुलक्ष्मी 
 बेटीजातिक भविष्णु गुमान छियै हमर आयुष्मति बेटी 

 
          ..................वर्ण २२................


 

 
गजल २

 
छाति तानि ठाढ़ सैनिक दुश्मनक तोप बरसाबैत अंगोरा 
लहास घिसियावैत कुत्ता पढ़ि कवैती शेर केँ कहै भगोरा 

 
सात कोनटाक मरचट्टा बदलै कोन-कोन रंगक नै झन्डा 
बलिदानीक सारा लागल पाथर केँ की बुझतै ओ लिकलोढा 

 
सौ मुनसाक संग जे खेलकरी राति-दिन खेलावै रसलीला 
सून बाट चलैत छौड़ी केँ कहलकै गे बज्जर खसतौ तोरा 

 
जँ बातक नहि ठीक तँ बापोक नहि ठीक के छै सत्ते कहवी 
उनटा-पुनटा गप्पक सतखेल करै ई कुर्सीक चटकोरा 

 
नौ सौ मुस खाय केँ बिलाय साधु नाहैत चानन ठोप लगौने 
सुसुम खुन चाटय सुंघसुंघ करै ई लाकर आदमखोरा 

 
"शांतिलक्ष्मी" माथ धयनै बैसल देख रहलै हेँ सभटा छिछा 
लोकतंत्रक अस्मिता लुटय बेकल कोना देसक कुलबोरा  

 
            ............वर्ण २३...........

 
गजल ३

 
दिन सुदिने बुझाइत ई कुहेस मे
देस फँसल अछि घोटाला आ केसमे

 
लोकतंत्रक राजा जनता-जनार्दन
जनते सुतय तँ तंत्र पेसो-पेस मे

 
पाप पराकाष्ठ होई जनमै श्रीकृष्ण
मीडीया छथि जागल ऐय्यार भेष मे

 
छुलाह पहिनौ पापक माल खेलकै
न्यायक आँखि आइ पड़ल उधेस मे

 
जनता छाती ठोकि आब लड़ै भीड़ल
लोकपालक अस्त्र देखि चोरो क्लेश मे

 
"शांतिलक्ष्मी"केँ सभकिछु शुभे बुझाबै
कृष्ण, चाणक्य, गाँधी, आ अन्नाक देस मे

 
    ..............वर्ण १४............




 
स्वाती शाकम्भरी

पिताजी
पिताजी
पिताजी वर्तमान दुनियाँ ए चाँद पर
मुदा अहाँ मचान पर बैसल
हमर भविष्यक चिंता किया करै छी

हमर भविष्य हमरे पर छोइड़ दिए
आबो अपन अनरगल सोच सँ मन क मोइड़ लिय

नारी आब अनाड़ी नै
दुत्कारल कौनो भिखाड़ी नै
हम दबल कुचल कौनो अबला सन
रक्षक केर बाट निहाड़ी नै

हम स्वयं लड़ब वोही दानव सँ
ममता विहिन ओइ मानव सँ
जै नारीत्व धर्म केर शोषक छै
कोमल भावक भक्षक छै

हम विवश वीर के वनिता नै
हम दुःखीता द्रौपदी सीता नै
हम रणचंडी दुर्गा काली छी
दानवीय भाव संहारी आ मानवीय सकल प्रतिपाली ।


ऐ रचनापर अपन मंतव्य ggajendra@videha.com पर पठाउ।
१.डॉ.अरुण कुमार सिंह- सोधनपाल २.ओमप्रकाश झा- सातटा गजल २.जगदीश प्रसाद मण्डल- तीनटा कविता

१.
डॉ.अरुण कुमार सिंह-
भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर
  सोधनपाल
एकटा छथि गोपाल
गोपाले सन मस्त
रंगो गोपाल सन
स्वभावो छन्हि व्यसानुकूल
पढबाक नाम पर छथि प्रतिकूल
जैताह नीत स्कूल
लिखताह नहि पढताह
मारि धरि खौताह
तैयो बिहुँसल
स्कूलसँ घूरताह
एक दिन अनचोकेमे
दलानक बगलेमे
लागल लारक ढेरीमे
लगोलन्हि सलाईसँ आगि
जाइत जुलूम
मुदा कौहुना आगि मिझाओल गेल
सौंसे गौऊँआक नजरिमे
गोपालसँ भेलाह सोधनपाल।

ओमप्रकाश झा

 
गजल
गजल
मोनक मोन सँ चलि केँ केहेन हाल केने छी।
प्रेम मे अपन जिनगी हम बेहाल केने छी।

 
करेज हमर छल उद्गम प्रेमक गंगा केँ,
विरह-नोर मे सानि करेज केँ थाल केने छी।

 
जकर प्रेम-ताल पर हम नाचैत रहलौं,
हमरा वैह कहै छै एना किया ताल केने छी।

 
एके बेर हरि केँ प्राण, झमेला खतम करू,
जे बेर-बेर आँखिक छुरी सँ हलाल केने छी।

 
अहाँक मातल चालि सँ "ओम"क मोन मतेलै,
ऐ मे दोख हमर की, अहाँ आँखि लाल केने छी।
---------------- वर्ण १७ ------------------
टुकडी-टुकडी मे जिनगी बीताबैत रहलौं।
सुनलक नै कियो जे बेथा सुनाबैत रहलौं।

 
अपन आ आनक भेद इ दुनिया बुझौलक,
इ भेद सदिखन मोन केँ बुझाबैत रहलौं।

 
ऐ मोन मे पजरल आगि धधकैत रहल,
हम पेट मे लागल आगि मिझाबैत रहलौं।

 
अपन अटारी सभ सँ सुन्नर बनाबै लेल,
कोन-कोन नै जोगाड हम लगाबैत रहलौं।

 
दुनियाक खेला मे "ओम" बन' चाहल मदारी,
बनि गेलौं जमूरा सभ केँ रीझाबैत रहलौं।
-------------- वर्ण १७ ---------------
आकाश बड्ड छै शांत, भरिसक बिहाडि आबै छै।
ओंघरैत सब एहि मे बलौं ओहार ओढाबै छै।

 
पोछि दियौ झहरैत नोर अहाँ निशब्द आँखिक,
आँखिक नोर थीक लुत्ती झट सँ आगि लगाबै छै।

 
चिन्है छै सब ओकरा कतेक स्वाँग रचेतै आब,
तखनो ओ सभ केँ बिपटा बनि नाच देखाबै छै।

 
नंगटे भेल छै तखनो कुर्सीक मोह नै छूटल,
कुर्सीक इ सौख ओकरा किछ सँ किछ कराबै छै।

 
रोकि सकै छै कियो नै, सागर मे जौं उफान एलै,
परतारै लेल देखियौ माटिक बान्ह बनाबै छै।
--------------- वर्ण १८ -----------------
डूबैत रहलौं हरदम हम, आर कहिया धरि इ अन्हेर हेतै।
खाली मझधारे नै हेतै कपार हमर, हमरो कोनो कछेर हेतै।

 
सब लेल बाँतर कात राखल छी कियो त' कखनो ताकत एम्हरो,
खूब गजल सब ले कहल गेल, हमरो लेल ककरो 'शेर' हेतै।

 
सुख-दुख जीवन-क्रम मे लागल, कखनो मीठ कखनो तीत भेंटै,
बड्ड अन्हरगर साँझ भेलै, कहियो इजोत भरल सबेर हेतै।

 
सब मिल भिडल छै माथापच्ची केने एकटा कानून बनबै लेल,
केहनो कानून बनि जाओ मुदा ओहि मे संशोधन बेर-बेर हेतै।

 
आब नै लुटेतै देशक वैभव, नै क' सकतै खजाना केँ चोरी कियो,
सोनक चिडै छल देश हमर, पुरना वैभव वापस फेर हेतै।
-------------------- वर्ण २५ -------------------------

 
सदिखन स्वार्थक चिन्तन करैत रहै ए मोन हमर।
इ गप नै बूझि जाइ कियो, डरैत रहै ए मोन हमर।

 
अपन खेतक हरियरी बचा केँ रखबाक जोगार मे,
आनक जरल खरिहानो चरैत रहै ए मोन हमर।

 
विचार अपन गाडने दोसरक छाती पर खाम जकाँ,
इ खाम उखडबाक डरे ठरैत रहै ए मोन हमर।

 
हृदयक भाव अछि तरंगहीन पोखरिक पानि भेल,
गन्हाईत जमल भाव सँ सडैत रहै ए मोन हमर।

 
अन्तर्विरोधक द्वन्द्व युद्ध मे बाझल अछि "ओम"क मोन,
अपना केँ जीयेबाक लेल मरैत रहै ए मोन हमर।
------------------- वर्ण २१ -------------------
ओकर गाँधी-टोपी कतौ हरेलै, आब ओ हमरे टोपी पहिराबै छै।
सेवक सँ बनि बैसलै स्वामी हमरे छाती पर झण्डा फहराबै छै।

 
चुनाव-काल मे मुस्की द' हमर दरबज्जाक माटि खखोरलक जे,
भेंट भेला पर परिचय पूछै, देखियो कतेक जल्दी बिसराबै छै।

 
दंगा भेल वा बाढि-अकाल, सब मे मनुक्खक दाम तय करैवाला,
पीडाक ओ मोल की बूझतै, जे मौका भेंटते कुहि-कुहि कुहराबै छै।

 
जनता केँ तन नै झाँपल, पेटक आँत सटकि केँ पीठ मे सटल,
वातानुकूल कक्ष मे रहै वाला फूसियों कानि केँ नोर झहराबै छै।

 
डारि-डारि पर उल्लू बैसल, सौंसे गाम बेतालक नाच पसरलै,
एखनो आसक छोट किरण "ओम"क मोन मे भरोस ठहराबै छै।
------------------------ वर्ण २५ -----------------------
अन्हरिया राति मे सँ भोर कखनो निकलबे करतै।
दुखक अनन्त मेघ केँ चीर सुरूज उगबे करतै।

 
सब फूल बागक झरि गेल सुखा केँ एकर की चिन्ता,
नब कोढी फूटलै कहियो सुवास पसरबे करतै।

 
टूटल प्याली पर कहाँ कानैत छै मय आ मयखाना,
प्याली फेर कीनेतै, मयखाना मे मस्ती रहबे करतै।

 
सागर मे सदिखन बिला जाइत छै धारक अस्तित्व,
तैं की धार रूकै छै, बिन थाकल देखू बहबे करतै।

 
काल्हि "ओम"क नाम लेबाक ककरो फुरसति नै हेतै,
आइ कान किछ ठोढ सँ हमर नाम सुनबे करतै।
------------------ वर्ण २० -------------------

जगदीश प्रसाद मण्डल
जगदीश प्रसाद मण्‍डलक तीन गोट कवि‍ता-
समए

समए संग तखने चलै छै
संगी बना संग मि‍लि‍ चलबै।
बाट-घाट बीच देखैत-सुनैत
रस्‍सा-कस्‍सी करैत रहबै।
संगी तँ ओहन संगी छी
देखि‍ परेख जेहन चलबै।
तेहने पग पगहा पहि‍रा
आगू-पाछू चलैत रहबै।

समए ने ककरो संग धड़ै छै
ने ककरो छोड़ै छै।
अपन-अपन भाग्‍य-करमकेँ
अपने आँखि‍ये पकड़ै छै।
अपन पएर अपने नै देखब
पएर केना पग पकड़त।
पगडंडी बि‍नु पग पकड़ने
राइत दि‍न केना बनत?
जहि‍ना जीवन-मरण चलै छै
तहि‍ना ने दुनि‍योँ बनल छै।
नि‍र्जीवेमे जीव बसै छै
देहा-देही कहि‍ सुनबै छै।
जहि‍ना ि‍नर्जीव सजीव देखै छै
तहि‍ना सजीवो ि‍नर्जीव देखै छै।
पकड़ि‍ पएर एक-दोसरक
हँसैत-कनैत संग चलै छै।

सजीव ि‍नर्जीवक रस नै चि‍खबै
भोज्‍य रस केना बूझबै।
की खाएब की पीब
बि‍नु ठेकाने जीब केना पेबै।
पाताल ऊपर सजल धरती
सात तल पातालो केर छै।
तहि‍ना सात तल अकासो केर ऊपर
मर्त देवलोक कहबै छै।
भूवन चौदहो बीच भरैम
लहड़ि‍ समुद्र केना पकड़ब।
पबि‍ते संगी हि‍हि‍या-हि‍हि‍या
बाट अपन केना धड़ब।
 
जि‍नगीक मोड़

पानि‍ बनि‍ पाथर जखन
धरा-धार धड़ै छै।
घाट-बाट बना-बना
जि‍नगीये जकाँ चलै छै।
जइसँ पहाड़ उठै छै
सएह ने सि‍रजए अतल सागर।
अपन-अपन नाओं गढ़ि‍
एक पहाड़ दोसर कहबए सागर।
जहि‍ना धाराक मोड़ घुमै छै
तहि‍ना ने धारो बहै छै।
बाट चलैत बटोही जेना
जि‍नगीक मोड़ पबै छै।
पबि‍ते मोड़ मुरूछि‍ जाइ छै
वि‍राग मुरूछि‍ कहबै छै।
बनि‍ते मुरूछि‍ तुरूछि‍ जाइ छै
पकड़ि‍ बाट एक दोसर छोड़ै छै।

मोड़े ने जोड़ो कहबै छै
एक दोसरक बाट केर।
तेहने ठीन ने देखि‍ पड़ैत
बाट-घाटक उनट-फेर।
जहि‍ना-जहि‍ना घाट घटै छै
तहि‍ना ने बाटो मरै छै।
चलनि‍हार जेम्‍हर चलै छै
सएह ने चलनसाइर कहबै छै।
चलनसाइरो दुभि‍या जाइ छै
काँटो-कुश जनमै छै।
हवा-बि‍हारि‍ सेहो झकझोड़ए
जे काटि‍ एक पेड़ि‍या बनै छै।
ततबे नै यौ भाय सहाएब?
पानि‍-पाथरक दोसरो कि‍रदानी
बर्खा-बाढ़ि‍ बनबै छै।
गामक-गाम दहा-भसा
उर्वर-उस्‍सर बनबै छै।
नि‍हत्‍था हाथ बौआ रहल
नि‍कम्‍मा पएरो बनल छै।
बनि‍ते हाथ पएर नि‍कम्‍मा
जि‍नगी बोझ बनै छै।
बोझो कि‍ हल्‍लुक-फल्‍लुक
समुद्र पहाड़ बन्‍हल छै।
बेबस बुइध बौरा-बौरा
मर्माहत भेल पड़ल छै।

अकलबेड़ा

दि‍न-दि‍नक मध्‍यांतर जहि‍ना
राइति‍यो राइत तहि‍ना पबै छै।
सि‍र चढ़ि‍ दि‍नकर देखए जब
अकलबेड़ झटकि‍ झमकै छै।
जबकल जल पोखरि‍ जहि‍ना
झील-सरोवर हँसि‍ कहबै छै।
तहि‍ना ठमकि‍ दि‍वा नि‍शाकर
अकलबेड़ तहि‍ना कहबै छै।
ठमकल हवा कहाँ कहै छै
मुदा, हवा बनि‍ हवा भरै छै।
भरि‍ते हवा भरैक‍-भरैक‍
हुरैक-हुरैक धार धड़ै छै।
बनि‍ते धार धारण करै छै
चुट्टी-पि‍पड़ी संगे उड़ै छै।
जीवन-मरण सि‍रजि-सि‍रजि‍
स्‍वच्‍छ गति‍ स्‍वच्‍छन्‍द चलै छै।
जल जलमग्‍न करै छै
हवा तेना कहाँ करै छै।
मुदा, अकास-पताल बीच
शीतल कोमल प्रचण्‍ड होइ छै।
धार धरतीक समेट-समेट
अकास चढ़ि‍ सुरसरि‍ बहबै छै।
सुरसरि‍ बनि‍ अकासगंगा
नव थल हृदए पसझै छै।
अपना पएरे सभ चलै छै
अपने लए सेहो चलै छै।
अबि‍ते भकमोड़ी-मोड़ बीच
अकलबेड़ ठमकए लगै छै।
बाजि‍ महाभारत कहए जेना
दृष्‍टि‍कूट चौमेर बनल छै।
सए-सएक बीच सजि‍-सजि‍
आगू-पाछू सेहो जोड़ै छै।
ओइ चौमेरक बीचो-बीच
अॅटकैक अॅटकार बनल छै।
बि‍नु अॅटकारे बूझि‍ ने पेबै
दसो दि‍शा ओ देशांतर।
एक-दोसरकेँ जानि‍ ने पेबै
बाम-दहि‍न बीचक अन्‍तर।

जि‍नगीक बीच जलमग्‍न सजल
भवसागर नाओं धड़बै छै।
बि‍नु टपान टपि‍ केना पएबै
कानि‍ कलपि‍ प्रेमी कहै छै।
बि‍नु पुले रामो ने पौलनि‍
पुष्‍प-बाटि‍का बीच सीता।
दि‍न-राइत चि‍कैर-चि‍कैर
कण्‍ठ फाइड़ गबै छै गीता।
गुण-मंत्र अमुल्‍य औषधि‍
देखा देलनि‍ सेवक हनुमान।
बना मार्ग हनुमन भक्‍त
पौलनि‍ देवत्‍वक सम्‍मान।

भवसागरकेँ पार पबैले
नाव तीन लागल छै।
नारद-व्‍यास ओ हनुमान
अपन नाव रखने छै।
काया-माया संग चलै छै
छाॅह बनि‍ रूप धेने छै।
देखि‍ते छाॅह छि‍छैल-छि‍छैल
छोड़ि‍ संग छि‍ड़ि‍याइ छै।
तँए की ओ फेर संग छोड़ै छै
हटि‍ते छाॅह लपैक-लपैक
जत्र-तत्र पकड़ै छै।
आँखि‍ मि‍चौनी खेल-बेल
कुदि‍-कुदि‍ दि‍न-राइत करै छै।
छैल-छबीली छमैक-छमैक
पानि‍-पाथर बनबै छै।
जे पाथर शि‍व भार उठाबए
कैलाश नाओं धड़बै छै।
वएह पाथर पानि‍ बनि‍-बनि‍
अगम सागर सेहो कहबै छै।
जे पाथर उठबए भार शि‍व
पानि‍ बीच डुमबै छै।
पाबि‍ ताप सूर्जक प्रखर
हवा बनि‍-बनि‍ उड़ै छै
पहाड़ सागर बनि‍ते बनैत
सि‍र अकास चढ़ै छै।
घुमैड़-घुमैड़ अकास बीच
दूत, मेघदूत कहबै छै।
अलकापुरी अॅटैक-अॅटैक
प्रेमाश्रु धार बहबै छै।
तँए कि‍ ओ बि‍सैर जाइ छै
गुण, धर्म ओ कर्मक मर्म।
एक-एककेँ समेट-समेट
सभ दि‍न बॅचबए अपन धर्म।
बनि‍ पाथर अकास बनबै छै
अकास पाथर कहबै छै।
झहैर-झहैर-झहैर सदए
कि‍छु ने शेष रखै छै।
आँखि‍ मि‍चौनी खेल खेला
जल थल नभ दौगै छै।
तहि‍ना ने हृदैओ सदए
अपन चालि‍ चलै छै।


ऐ रचनापर अपन मंतव्य ggajendra@videha.com पर पठाउ।
१. जगदीश चन्द्र ठाकुर अनिल२.निक्की प्रियदर्शिनी- दूटा कविता ३.मिहिर झा - दूटा कविता ४.जगदानंद झा 'मनु' -गीत-गजल ५.नारायण झा- एकटा कविता



जगदीश चन्द्र ठाकुरअनिल

गजल

सत्य अहिंसा केर जय हो
नव वर्श मंगलमय हो ।

तिमिर नष्ट हो भ्रष्टाचारक
जन-मनमे सूर्योदय हो ।

कां ट-कूश मुक्त बाट हो
सभ सज्जन-मन निर्भय हो ।

शिक्षा-शील-स्वभाव जाति हो
मूल-गोत्र नहि परिचय हो ।

हो दहेज सं मुक्त धरा ई
सभ तरि पावन-परिणय हो ।

जीवन हो संगीत प्रेम केर
सुगम ताल, सुमधुर लय हो ।

अभिनयमे जीवन-दर्शन हो
जीवन सुन्दर अभिनय हो ।
 
२.
चालनिमे नित पानि भरै छी हम-अहां
कते बरख सं संग रहै छी हम-अहां ।

अपन-अपन दुनियामे हम सभ हेरा गेलहुं
एक दोसरकें कहां चिन्है छी हम-अहां ।

कते जतन सं सींचै छी नवगछुलीकें
सभ दिन सपना नव देखै छी हम-अहां ।

भिनसर, दुपहर, सांझ, राति केर नाटक ई
हंसि ककानी, कानि हंसै छी हम-अहां ।

माथक मोटा हल्लुक कहियो भेल कहां
रोज मरै छी, रोज जिबै छी हम-अहां ।

काल्हुक दिन होयत शुभ दिन हमरो सभ ले
यैह सोचि सभ राति सुतै छी हम-अहां ।

नोर आंखि केर, एक दोसरक पोछब हम
चलू आइ संकल्प करै छी हम-अहां ।

२.
निक्की प्रियदर्शिनी- दूटा कविता
 अहां अहीं सन

अहां अहीं सन ,
छोट, कोमल आ शान्त हृदय सन,
सुन्दर आ सौम्यता सं प्रस्फुटित पुष्प सन,
अमावस्याक धोर अन्हार गुज्ज राति सन,
दुःख आ विवसता सं भरल धैल सन,
अहां अहीं सन,
क्रोध आ निर्दयताक अग्नि मे जरैत काठ सन,
सजीव रहितों निर्जीव वस्तु सन,
जानकी, मन्दोदरी आ उर्मिलाक त्याग सन,
मां, बेटी, बहिन, पत्नी आ प्रमिकाक स्वभाव सन,
अहां अहीं सन,
आधुनिकता आ पौराणिकताक धूरि पर लटकैत पिण्ड सन,
कुल आ मर्यादाक कहार सन,
नदीक दू किनार सन,
बढैत आ धटैत गंगाक धार सन,
अहां अहीं सन,

मनोरथक लेल बलिदानक निरीह छागर सन,
जीवन आ मृत्युक अनुभव करैत संसार सन,
दया, करूणा आ प्रेमक महासागर सन,
सम्पूर्ण जगतक मातृत्वक भंडार सन,
अहां अहीं सन।
दर्द आंखि मे नहि मन मे

आंखि समबोधक अछि तमन विचारक,
आंखि प्रश्न अछि तमन उतर,
आंखिमे आशा अछि तमनमे संवेदना,
दर्द आंखि मे नहि मनमे होइत अछि,
दर्द कें देखि आंखि तबन्द भजाइत अछि,
मुदा मनमे ओ अविस्मरणीय जकां जाइत अछि,
आंखिक सीमा सीमित अछि
मुदा मनक सीमा नहि जानि कतेक,
परम्परा आ आधुनिकता एक-दोसरक पूरक अछि,
आधुनिकताक देखि आंखि
ओकरा मे समाहित भजाइत अछि
मुदा मन परम्पराक विचार करैत रहैत अछि,
मन चंचल अछि आ आंखि अति चपल,
तें आवश्यकता अछि प्रेम, करूणा आ सौहार्दक
ताकि मन विचलित नहि होए
आ आंखि स्थिर नहि।


मिहिर झा - दूटा कविता
जीवन मे चलैत चलैत
कखनो ठमकबाक चाही
जिंदगी मे आगू बढैत
साँस लेबा ले रुकबाक चाही
आगू बढैत बढैत कौखन
पाछू तकबाक चाही
बीतल जीवन एलबम के
कोनो चित्र देखबाक चाही
रेस के घोडा जेका हरदम
पडेबाक नहि चाही
बीतल मधुर स्मृति के
जीवन शक्ति बनेबाक चाही |
हम छी एक टा तूक्ष मना
पडल रही कोनो कात कोना
ताक पर राखल धूरा जमल
सोचलहू जिनगी बीतल एहिना
मस्ती करैयत घुमैत छलहु
नेट सर्फिंग करैत छलहु
देखल एक ग्रूप मनोहर
विदेह नाम छल ओकर सुन्दर
ओहि रोज बदलल सोच
पारसमणी छुआएल जेना
सम्मान नहि करू पाथर के
सम्माननीय मात्र पारसमणी

 
४.
जगदानंद झा 'मनु', -गीत-गजल
पिता- श्री राज कुमार झा, जन्म स्थान  पैत्रिक गाम : हरिपुर डिहटोल ,जिला  मधुबनी, शिक्षा :प्राथमिक -ग्राम  हरिपुर डिहटोल मे, माध्यमिक आ उच्च माध्यमिक -सी बी एस ई, दिल्ली, स्नातक -देशबंधु कालेज ,दिल्ली बिश्वविद्यालय

                      
 (१) गीत
लगबयौन-लगबयौन हिनकर बोली ई,दूल्हा आजु कए
हिनकर बर मोल छैन,ई त दूल्हा आजु कए
हिनकर बाबु बिकेलखिन लाखे,बाबा कए हजारी
लगबयौन मिल जुइल कए बोली ई दूल्हा आजु कए

हिनकर गुण छैन बरभारी,ई रखै छथि दू -टा बखारी
दरबज्जा पर जोड़ा बडद,रंग जकर छैन कारी
भैर दिन ई पौज पान करैत छथि,जेना करे पारी
भोरे उठी ई लोटा लs s पिबए जाए छथि तारी

साँझु-पहर चौक पर जेता,चाहियैंह हिनका सबारी
ई छथि मएक बर-दुलरुआ,हिनका दियौंह एकटा गाड़ी
हिनकर गुण छैन बरभारी ई पिबई छथि खाली तारी
हिनका पहिरए आबै छैन नहि धोती,दियौन जोर भैर साडी

लगबयौन-लगबयौन हिनकर बोली ई,दूल्हा आजु कए
हिनकर बर मोल छैन,ई त दूल्हा आजु कए

(२)गजल
पहड राईत बीत गेल निन्द नहि आबैए हमरा
रैह-रैह कs अहाँक सुन्नर याद सताबैए हमरा

सुन्नर-मोहनी छवि अहाँक,आँखि में जए बसोने छी
सिनेहिया सलोनी हमर,बड्ड तरसाबैए हमरा

घरी-घरी बजाबै छी,अहाँ अपन चंचल इशारा सँ
मुइन लिय कोना कs आँखि अपन,काचोतैए हमरा

जुनि खसाबू एतेक अहाँ,अपन दाँतक बिजुडिया
एतेक इजोरिया अहाँक ,आब तरपाबैए हमरा

मधुर मिलन होएत अपन,कखन कोन बिधि सँ
ओही के विचारे सँ,करेजा हमर जुराबैए हमरा
-------------------------------------------------
(३)गजल
ज्ञानी नहि हम किछु जानी नहि
अल्प वुद्धि हम पहचानी नहि

हम छी मैथिल मिथिला हमर
मैथिली छोइर किछु जानी नहि

इतिहास भूगोल सँ अनभिक
राजनीती किछु पहचानी नहि

कविता-गजल कए ज्ञान नहि
गद्य-पद्य विधा हम जानी नहि

मोनक भाब राखि कागज पर
स्नेह कि भेटत सए जानी नहि
 
५.
नारायण झा
गाम-पोस्‍ट, रहुआ संग्राम
प्रखण्‍ड- मधेपुर
जि‍ला- मधुबनी
बि‍हार- 847408

कवि‍ता-

जाड़

आबि‍ गेल जाड़
गरीब-गुड़बाक काँपए लागल हाड़
सि‍रसि‍राइत अछि‍ तन
कलुषि‍त रहैत अछि‍ मन।।

एखनो धरि‍ कि‍छु तन उघार
फाटल-पुरानक करैत जोगार
जोगार होइछ बड़का घुरक
भगबैत अछि‍ जाड़केँ।।

मोन पड़ैत अछि‍ ओइबेरूका राइत पूसक
बुढ़-बच्‍चाक लेल होइत अछि‍ फौती
जेना एकरा नोतने कि‍यो बेल न्‍योति‍
नै मानैत घर कोठा आ फूसक।।

की कहुँ ओ हरशंखा जाड़केँ
फाड़ैत अछि‍ हाड़केँ
जड़बैत अछि‍ मनकेँ
मसुआबैत अछि‍ सभ काजकेँ।।

एकर अंत करैत फगुनि‍या बसात
जखन उगैत छथि‍ सुरूज
घटैत अछि‍ बि‍सबीसी
तखन नाइच उठैत शहरो-देहात।।

आबि‍ गेल जाड़
गरीब-गुड़बाक काँपए लागल हाड़
सि‍रसि‍राइत अछि‍ तन
कलुषि‍त रहैत अछि‍ मन।।
 

ऐ रचनापर अपन मंतव्य ggajendra@videha.com पर पठाउ।
१.विनीत उत्पल- गजल रवि मिश्राभारद्वाज३.उमेश मण्डल ४.सुबोध ठाकुर

१.
विनीत उत्पल
गजल
अहाँ क आहटि लेल, ठाढ़ अछि जिनगी
निनाएल आँखि भेल, ठाढ़ अछि जिनगी

 
अहाँले तड़पि रहल छल रोम रोम
सिहकाबैत आएल, ठाढ़ अछि जिनगी

 
अहाँ क हम सदिखन बाट जोहैत छी
बाइ मे बनलौं रेल, ठाढ़ अछि जिनगी

 
चांद सन ई चेहरा, हिरणी सन चालि
नाटकक ई छै खेल,  ठाढ़ अछि जिनगी

 
सोचने रही अहाँ ताकब ऐ उत्पलकेँ
मिथिला भेलि कुभेल, ठाढ़ अछि जिनगी
(१५ वर्ण)

रवि मिश्राभारद्वाज
ग्राम : ननौर
जिला : मधुबनी

 
'गजल'
 
तैयार छै लुटय लेल बेटीवला त लुटेबे करतै
बिन दहेज ने उठतै दोली त रकम जुटेबे करतै

प्रेम रस मे डुबल मोन आ जुरल हाथ
बिच मे एतै दहेज त जुरल हाथ छोरेबे करतै

फोकटो मे जे ने छै विवाहक लायक दुल्हा
खरीदार भेटतै त ऒहो दुल्हा बिकेबे करतै

पानि सँ लबलबायाल भरल छै जे पोखैर
अकाल रौदी एतै त भरल पोखैर सुखेबे करतै

चोर क हाथ जँ देबै समानक रखवारि
मौका भेटतै त चोर समान चोरेबे करतै

जँ भरल गिलास छै पानि सँ
ऒइ मे भरबै पानि तँ पानि नीचाँ हरेबे करतै

जँ दहेज क लालच मे हाथ धरि बैसतै बाप
बेटाक जरतै मोन त ऒ चक्कर चलेबे करतै

पर्दा क पाछु जे भऽ रहल छै दहेजक खेल
पर्दा नै उठतै त खेलबार खेल खेलेबे करतै

माय केर कौखि सँ हटायल जा रहल बेटीक भ्रूण
दहेक ने रुकतै त माय बेटीक भ्रूण हटेबे करतै

छोडी दियौ हाथ देखिऔ केम्हर जाइ छै
इजोत मे सदिखन मुदा अन्हारो मे खाइ छै

अपना सँ छोड़ा क हाथ भागै छै
जोरै छै हाथ ऒम्हर जेम्हर देखैत पाइ छै

एतेक भारी खदहा कोड़ने अछि ई हाथ
कोशिस केलौं भरय के मुदा नै भराइ छै

तंग अछि लोक जै नेता सं
देख हाथ मे नोट ऒकरे  पाछू पड़ाइ छै

३.
उमेश मण्डल
 
मुँहथैर

जेहने घरक लोक रहै छै
घरक मुँहथैर तेहने होइ छै।
जेहने घरक मुँहथैर रहै छै
तेहने ने बाटो धड़ै छै।
जेहने जेकर बाट रहै छै
आचारो-वि‍चार तेहने होइ छै।
जेहने आचार-वि‍चार रहै छै
तेहने ने संस्‍कारो बनै छै।
जेहने जेकर संस्‍कार होइ छै
तेहने ने जीवनो भेटै छै,
तेहने ने कला-संस्‍कृतो होइ छै।
जेहेन जतए केर कला-संस्‍कृति‍ रहै छै
मनुक्‍खक मुँहथैर तेहने होइ छै,
साहि‍त्‍यक मुँहथैर तेहने होइ छै।

हाइकू

राइत दि‍न/ कोनो नै अछि‍ हीन/ नाप-जोखमे।

गुण-दोषसँ/ एक-दोसर बीच/ अबैए फाँट।

दि‍न प्रतीक/ बनि‍ ज्ञानक अछि‍/ भेल महान।

राइत अछि‍/ अज्ञानक प्रतीक/ लोक कहैए।

दि‍नकेँ दुन्‍नी/ राति‍ चौगुन्‍नी सेहो/ लोके कहैए।

नि‍र्णए लि‍अ/ नीक संग अधला/ होइते अछि‍।

४.
सुबोध ठाकुर, गाम हैंठी बाला, वाया- झंझारपुर, जिला मधुबनी। सुबोधजी पेशासँ चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट छथि।
                                               
एहेन जीवन जिबितौं
अपन जीवनक हर रंगकेँ
किछु उत्तम शब्दसँ कवितामे सजबितौं
मोन होइए आइ हमरा, फेर किछु सुन्दर रचना करितौं!
भयसँ मुक्त आ उन्मुक्त भऽ
सुन्दर सपनाकेँ संग लऽ
कऽ कल्पना आइ फेरसँ उन्मुक्त गगनमे उड़ितौं
अपना जीवनक हर रंगकेँ
किछु उत्तम शब्दसँ कवितामे सजबितौं!
नहि राग रहए नहि द्वेष रहए,
नहि भागम भाग नहि कोनो क्लेश रहए,
मन होए हमरा हम एहेन सुन्दर जीवन जिबितौं!
अपना जीवनक हर रंगकेँ..

होए कतेक कष्ट अहि भौतिक सुख लेल,
जे सरिपहुँ होए भ्रष्ट आर दुख लेल,
संघर्ष भरल अहि जीवनसँ,
प्रतिद्वन्दताक ज्वालाकेँ हटबितौं!

अपन जीवनक हर रंगकेँ
काश ओ कोमल बचपन,
जे छल नव किशलय दल सनक,
जँ फेर घुरि कऽ आबि जेतै
तँ स्वच्छन्द रूपसँ ओकरा
हम सतरंगी सपनासँ सजबितौं!
अपना जीवनक हर रंगकेँ

नहि बुझि सकए एकरा समाज
भावनासँ भरल ई हृदयक उल्लास
नहि तँ अपना संगे संग एहि समाजोकेँ दू डेग चलबितौं
मन होए हमरा सभकेँ अपना संग नव जीवनक सनेस दैतौं!


                                               
ऐ रचनापर अपन मंतव्य ggajendra@videha.com पर पठाउ।
१. अनिल मल्लिक २.गणेश कुमार झा "बावरा"३.रामवि‍लास साहु

 

अनिल मल्लिक

ने भूत लिखू, ने भबिष्य लिखू, चलु आब अहाँ वर्तमान लिखू
असगर नै, सभ संग चलू,  करब अहाँ नव निर्माण लिखू

कि भेल, औ भेल किए, कयलक के जर्जर,  आब बिसारि दियौ
जाहि पर सन्तती गर्व करय, लौटेबै अतीत क मान लिखू

ने बाट जाम, ने मगज जाम, आब नै, ना, नुकुर बिसारि दियौ
उमंग भरु, तरंग भरु ,आब चलतै नव अभियान लिखू

बिश्वास राखू इच्छा शक्तिपर, चलु दंभ अहं केँ बिसारि दियौ
अगडा पिछडा कि होइछै यौ, लेब सभ मैथिल क साथ लिखू

बिचार रखियौ स्पष्ट, जखैन राज भेटत, तँ प्रारुप केहन?
दुर करु शंका केँ अहाँ, राखब सम-भाव, देब सम्मान लिखू

गान्धीगिरी चलु पुरान भेल, अन्ना क जोर तs मनबै ने अहाँ
ने रक्त बहै,  ने नोर झरै,  ने हेतै किन्हको अपमान लिखू

एफडिआई सँ खतरा कि? सहकारीता पर चलु ध्यान दियौ
सबल हेतै अर्थतंत्र, अही सत्य केँ करब आत्मसात लिखू

प्रतिभा पलायन किए? नव अवसर क चलू सृजन करु
नव सोच लाउ, कि लौटैथ सभ ,लगबैथ माटि क माथ लिखू

पाथर पथ पर प्रचंड अछि, डगर मानलौं उटंङ अछि
सागर बान्हि सकै छी अहाँ, नव इतिहासक शुरुआत लिखू

तन सँ, मन सँ, अहाँ प्रसन्न रहू, स्वस्थ स्पर्धा मे भेद नै होय
बढु आगाँ, शुभ-कामना अछि, नव बर्ष सँ नव प्रभात लिखू” !!

   
गणेश कुमार झा "बावरा":   गुवाहाटी


"संघर्ष"
हम पथ के पथिक एसगरी
छोडि देलक सब संग हमर
मुदा हम स्वयं के नहि छोड्लहूँ...
नहि निराशा सँ कहियो घबरेलहूँ
नहि असफलता सँ मान्लहूँ हारि
जे भेटल स्वीकार केलहूँ
आ आगू बढ़ैत गेलहूँ
क्याकि स्वयं पर छल भरोषा...
सिखने छलहूँ हम समंदर सँ
  "केनाई संघर्ष"
जनने छलहूँ हम आगि सँ
 "जरनाई"
महशुश केने छलहूँ हम
"
वायु के गति"
नपने छलहूँ हम
"
आकाश के ऊँचाई"
बुझल छल हमरा सूरजक सत्य
"
हुनक उगनाई-दूबनाई"
एहिलेल , हम नहि छोड्लहूँ कहियो
 "अपन कर्मक पथ"
सदा करैत रह्लहूँ "संघर्ष"....

अहाँ   बिनु
अहाँ  केहन छी
तकर कोनो खबरि नै
अहाँ आएब कहिया
तेकर कोनो तिथि नै....
हम एतय बताह भेल छी
जिनगी हमर निराश लगैया
बिनु अहाँ हमर जिनाई
हमरा व्यर्थ बूझि परैया...
अहाँ आउ जल्दी आउ
आब विलम्ब  करू जूनि
देखू! हम अहाँक बाट में
अपन नयन ओछेने छी....
पल-पल हर एक पल
हम अहाँ के याद करी
जखन हम एकसरि रही
अहाँक छवि नयन में निहारी...
एकटा कथा जनै छी ?
हम अहीं सँ प्रेम करै छी
सपनहु में हम
दोसर के नहि देखैत छी....
हम जनै छी
अहाँ के हमर ई कथा
मिथ्या बुझाइत होएत
सएह सोचि होईया व्यथा...
मुदा, एक कथा सच थिक-
हमर प्रेम
हम अहाँ सँ बहुत प्रेम करैत छी
बहुत- बहुत प्रेम................

कैंचा
बिनु कैंचा नहि भेटए शिक्षा
बिनु कैंचा नहि भेटए दीक्षा
बिनु कैंचा नहि भेटए स्नेह दुलार
बिनु कैंचा नहि भेटए मान- सम्मान |
कैंचा बनल अछि कैंची
कुतैर रहल अछि प्रेम - सम्बन्ध,
आजु कैंचा के खातिर
बेटी के होइछ प्राण -हरण |
गर्भधारण सँ मृत्युकाल धरि
कैंचा नहि छोडाए संग,
बिनु कैंचा नहि पुरहित- पंडित
ग्रहण करए श्राद्धक अन्न |
मंदिर जाउ व जाउ मस्जिद
बिनु कैंचा नहि हुअए पूजा संपन्न
कशी जाउ वा जाउ मथुरा
बिनु कैंचा नहि हो गंगा -स्नान |
चाहे हुअए इलेक्शन वा सेलेक्शन
बिनु कैंचा नहि कोनो एक्शन
ज दुहु हाथ खोलि फेकू कैंचा
फेर देखू नियोक्ताक रिएक्शन |
कैंचा हुअए त' दुलारे कनियाँ
बिनु कैंचा ललकारे कनियाँ
धिया -पुताक त' हाल नहि पूछू
नहि अपना त' ' आबए पैंचा |
कैंचा कें चारू दिश अछि चर्चा
देव, गुरु, मुनि बनल अछि कैंचा||

रामवि‍लास साहु
हाइकू

50. मधु मखान
रेहू माछक खान
पानसँ मान
पाग सँ बढ़ै शान
ि‍मथि‍लाकेँ ि‍नशान

51. आमक फल
मधुर रसदार
फलक राजा
सभकेँ मन भावै
सभकेँ ललचाबै।

52. सावन मास
रि‍मझि‍म फुहार
प्रेम बढ़ाबै
प्रेमीकेँ ललचाबै
गोरीकेँ तरसाबै।

53. मोनक बात
की कहब सजनी
समय नहि‍
की भेजब सनेस
दि‍ल दर्दक क्‍लेश।
54. दि‍लक रोग
नहि‍ कोनो इलाज
प्रेमक भूख
नहि‍ ि‍मटै धनसँ
नहि‍ कोनो दवासँ।

55. चंचल मन
ि‍चत्‍त घबराइत
मन डोलैत
नयन सुखदाय
प्रेमी कहै लजाय।

56. सोना कंगना
पैर पयजनि‍यँा
नाचै अंगना
घुरि‍ घुरि‍ ताकैत
हमर सजनि‍यँा।

57. फूलक डारि‍
झुलि‍ सनेश दैत
देशवासीकेँ
सदा प्रसन्‍न रहुँ
देशक सेवा करू।

58. देशक सेवा
मायक सेवा करू
ि‍जनगी भरि‍
र्ध्‍मक पालन छै
गरीबक कल्‍याण।

59. सुइत उठि‍
माय-बाप गुरूकेँ
छूऊ चरण
ि‍नत्‍य बन्‍दन करू
कृपा करत देव।

60. पि‍ढ़ ि‍लखकऽ
बनु ज्ञानीसँ दानी
करू देशक
ि‍वकास कल्‍याणक
रखू उँचा ि‍तरंगा।

61. सभ अपन
पराया नहि‍ कोय
सूरज चँाद
सभकेँ समझैत
एक समान हि‍त।

62. राजा दुखि‍त
प्रजा सभ दुखि‍त
जोि‍गक दुख
दुखि‍या सँ छै बेसी
संसार अछि‍ दु     :खी।

63. सेवा करैत
पथ पर चलैत
आगू बढ़ैत
झरना सन आगू
संघर्ष सँ बढ़ैते।

64. खूनक दाग
ि‍छपाय नहि‍ पावै
पापक भार
धरती नै उठाबै
सत्‍य करै से होय।

65. प्रात:क जल
पीबैत रहु ि‍नत्‍य
टटका फल
खाऊ जीबैत धरि‍
बनल रहु स्‍वस्‍थ।

66. रथक चक्‍का
उलटि‍ चलै बाट
चाक् चलै छै
ठामे ठाम नचैत
दुनु करै दू काम।

67. बच्‍चा बेदरू
खेलैत संगे खेल
कखनु झगड़ा
कखनु करै मेल
पढ़ै छै पाठ एक।

68. ि‍खलैत फूल
देखैत भौंरा नाचै
रस पि‍बैत
राति‍ बि‍तबै संगै
प्रेमक बात करै।

69. दि‍लक बात
की कहब सजनी
प्रेमक बँाध
सभसँ मजबूत
तोड़लौं सँ नै टुटै।

70. खूनक दाग
सभसँ अछि‍ पक्‍का
मि‍टैत नहि‍
कारी दागसँ भारी
बड़ पैघ बीमारी।

71. सच्‍चा इंसान
ज्ञान धर्म ईमान
उच्‍च ि‍वचारि‍
मानवक श्रृंगार
कार्य करै महान्।

72. सूर्य रौंद सँ
धरती तैप तैप
शुद्ध होयत
सोना तपै आगि‍सँ
धर्म सँ तपै लोक।

73. मोछक मान
राखै छै घरवाली
सेवक करै
घरक रखवाली
गाय छै हि‍तकारी।

74. दुर्जन साधु
नौकर बेईमान
कपटी ि‍मत्र
ई तीनु छी शैतान
क्षणमे लेत प्राण।

75. खाना खजाना
जनाना पखाना केँ
पर्दामे राखू
जौं राखक बाहर
ि‍बख बाि‍न जाएत।

76. प्रीत नै जानै
ओछी जाि‍त, नीन नै
टुटल खाट
प्‍यास नै धोबी घाट
सभ कहै छै बात।

77. बैल खींचैत
अछि‍ काठक गाड़ी
मनुख खींचै
छै दुि‍नयाक गाड़ी
की बनल लाचारी।

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पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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