१.जगदीश प्रसाद मण्डल- पाँचटा
विहनि कथा २.राम विलास साहु-दूटा विहनि कथा ३.
चन्दन कुमार झा-विहनि कथा-
टटका रचना
१
जगदीश प्रसाद मण्डल
पाँचटा विहनि कथा
1. गति-मुक्ति
सज्जासनसँ उठि आँखि मीड़िते बाबा
रमचेबलाकेँ उठबैत कहलखिन-
“रे रमचेलबा,
दिन-रातिकेँ लोक एकबट्ट करैक भाँजमे अछि आ तूँ ढेंग जकाँ
पड़ले रहमे?”
आँखिक काँच-सूखल काँची
पोछैत रमचेलबा ओछाइनेपर सँ बाजल-
“जे कहै छह से तँ
कइये दइ छिअ। तखन ढेंग किअए कहै छह?”
जाधरि बाबा नहलापर गुलाम
फेंकितथि ताधरि ओछाइनपरसँ उठि रमचेलबा लगमे पहुँच गेलनि। बाबा कहलखिन-
“रे तों ते हमर ने
कऽ दइ छेँ, तइसँ थोड़े हेतौ।”
मुँह बाँबि जहिना चूजा
अहार मंगैत तहिना रमचेलबा पुछलकनि-
“तब?”
रमचेलबाक जिज्ञासा देखि
बाबा कहलखिन-
“अपना ले कर।”
बाबाक पक्का चेला रमचेलबा।
एक पाइ बाम-बुच नै। मुड़ी डोलबैत बाजल-
“अच्छा, गिरह बान्हि लेलियह। मुदा ढेंग किअए कहलह?”
रमचेलबाकेँ मानै जोकर
भाषामे बाबा कहलखिन-
“देख, जाबे गाछक शील काटि कऽ राखल रहै छै ताबे ढंेग कहबै छै। ओकरे जखन
आड़ा-मशीनपर लऽ जा तख्ता चीड़ा नाव बना पानिमे दौड़बै छै तखन ओहो अपन भरि पेट
आदमीकेँ धारमे झिलहोरि खेलैत पार करै छै। मुदा एकटा बात कहि दइ छियौ, जे जे पुछबाक होउ से पूछि ले, किअए तँ एको
मिशिया जीवैक मन नै होइए।”
पाछू उनटि रमचेलबा तकलक
तँ बूझि पड़लै जे जाबे जीवैक लूरि नइए ताबे जीवै केना छी। तहूमे बाबाक संगे।
मुदा बूढ़-पुरानक बिसवासे कत्ते जँ कहीं टटके आँखि मूनि देलनि तखन तँ अपनो
मनमे आ हुनको मन लगले रहि जेतनि। पुछलकनि-
“बाबा हौ, गति-मुक्ति केकरा कहै छै?”
रमचेलबाक प्रश्न सुनि
बाबा विह्वल भऽ गेलाह। भावावेषमे कहए लगलखिन-
“चौबीसो घंटा जँ समए
संग मनोनुकूल जिनगी जीबए लगी, यहए भेल गति-मुक्ति।”
2. चौकीदारी
तीन दिन झंझारपुर-मधुबनी
दौड़-बरहा केला पछाति चौकीदार रामटहल दास पछिला आठ मासक दरमहो आ आनो-आन भत्ता
उठा सात बजे गामपर माने घर पहुँचल। रस्तेसँ निआरि लेलक जे आरो जे हेतइ से पछाति
हेतइ पहिने भरि पोख सूतब। तीन दिनक दौड़-बरहा कोनो लज्जति देहक रहए देलक। ने
नहाइक ठेकान आ ने खाइक। ठाकुरो जीकेँ एक लोटा जल नै चढ़ा सकलौं। खैर जे हौ, जे पुत हरबाही गेल
देव-पितर सभसँ गेल। मुदा ओछाइनपर पहुँचैसँ पहिने जे काज अछि से तँ करए पड़त।
अबिते मुँहक रोहानीसँ पत्नी परेखि नेने रहथि तँए पाँचटा तरूआ-भुजुआक ओरियानमे
जुटि गेली।
स्नान-धियान, तिलक-चानन,
पूजा-पाठ कऽ रामटहल दास भोजन करए आँगन पहुँचल। अँगनाक चुहचुही
देखि मनमे खुशी भेलै। मुदा चुहचुहीक कारण नजरिपर पड़बे ने कएल। पत्नीपर आँखि
पड़िते आंकि लेल जे चुह-चुही आंगनक किरतबे नै आंगनवालीक किरतबे भेल अछि। चिक्कनि
माटिक ठाँओं, नमगर-चौड़गर आसनपर बैसिते पाँचटा तरूआ,
पाँचटा भुजुआक संग अचार-चटनी सजल थारी आगूमे देखलक। देखिते
पत्नीसं किछु पूछैक विचार रामटहल दासकेँ भेल मुदा थारी राखि राम पिआरी सुतैक
ओछाइन सरिऔनाइकेँ काजक एक नम्बर सूचीमे रखने, तँए अखन
गप केना करितथि।
सरकारीकरण नै भेला पूब
चौकीदारी समाजक दायित्व बूझल जाइत छल। चौकीदारी टैक्सक रूपमे छोट-पैघ किसानसँ
लेल जाइत छल आ पनरह रूपैआ मािसक वेतनक रूपमे देल जाइत छल। अन्हरिया सप्तमीसँ
लऽ कऽ इजोरिया षष्टी धरि -पनरह दिन- गामक पहरा चौकीदार करैत छल। गाममे दूटा
चौकीदार तँए एककेँ हाथमे फरसा आ दोसरकेँ हाथमे भाला रहैत छल। घरसँ निकलिते
चौकीदार जोरसँ टाँहि दैत छल जइसँ गामोक लोक बूझि जाइत छल जे पहरूदार पहरा दइले
निकलि रहल अछि। निन्न टुटिते बीड़ी-तमाकुलक संग कतौ माल-जालक तकतान तँ कतौ
लघी-विरती शुरू भऽ जाइत छल। टोले-टोले घूमि-घूमि चौकीदार ठहकवो करैत आ जगेबो
करैत। जँ कतौ चोर अभड़ैत तँ संग मिलि आगू-आगू दौगवो करैत। विल्कुल पारदर्शी
कारोवार छल।
ओछाइनपर पति-रामटहल दासकेँ
देखिते रामपियारीक मन सिहरल। मन मन सिहरिते विचारक भाव बदलल। एक तँ कमासुत
पति तोहूमे आठ मासक बकिऔताक गरमी। बदलल मनमे उठलनि जानक जंजाल परिवार होइए।
जानकेँ अकछ-अकछ केने रहैए। एक बोल दुनू परानी गपो करब सेहो ने होइए। मन घुमलनि।
तँए कि लोक मनो-मनोरथ छोड़ि देत। सहटि कऽ पति लग आबि बजली-
“दरमाहा उठबैमे
पाइयो-कौड़ी खरचा भेल?”
पत्नीक जिज्ञासा भरल शब्द
सुनि रामटहल बजलाह-
“जाबे बबाजी नै भेल
छलौं ताबे आ अखनमे बड़ अन्तर भऽ गेल अछि। सौंसे थानाक सेक्रेटरी छी। आन-आनकेँ तँ
कटबे करै छै, मुदा हमर नै कटैए।”
“कते भेटल?”
कते भेटल सुनि रामटहल
दासकेँ, जहिना सीक परक मटकूर खसिते टुकड़ी-टुकड़ी भऽ छिड़िया जाइत तहिना
भेलनि। सुखक नीनकेँ छोड़ए नै चाहलनि। मुदा तैयो बजाइये गेलनि-भेटत कि अल्हुआ,
धैन समाज अछि जे मुँहक लाली अछि नै तँ अठ-अठ महीना पेट बान्हि
कऽ खटत। जेकरा ऊपर झपटी छै, तेकरा ने हमरा कोन अछि।
3. झगड़ो झोटैला
भोरे अर्द्धांगिनिक गग्गड़सँ
ठमकि लाल काका दरबज्जाक बीचला खूँटामे ओंगठि कुही होइत मने-मन विचारैत जे
औझुका िदन भंगठले अछि। जहिना यात्रा काल भंगठल इंजनक कोनो भरोस नै तहिना
पत्नीक खट-पटसँ लाल काकाक मनमे सेहो होइत। औझुका दिन केहेन हएत केहेन नै तेकर
कोनो ठेकान नै। अपनो किछु हुसलौं। हुसलौं की! पावर चढ़ल छलए। ओह: भोरे लोक राम-नाम लैत
उठैए आ कोन दुरमतिया चढ़ि गेल से नै जानि। कोन एहेन पहाड़ टूटि खसल जाइ छलै जे
भोरे अढ़ौती-अढ़ा देलियनि। निअमानुसार अपन-अपन पुरौला पछातिये ने कियो दोसर
दिस देखत। तइ बीच हाथमे चाहक गिलास नेने मुसिकिआति पत्नी दू हाथ आगू अबैत
देखलनि। जना कोनो कोकनल खूँटाबला घर हड़हड़ा कऽ खसैत अछि तहिना लाल काका अकाससँ
खसलाह। मुदा भिनसुरका तामस सोलहो आना नै मेटाएल छलनि,
तँए चाह लेल हाथ नै बढ़ौलनि। ससुराएल लोक जकाँ लाल काकाकेँ देखि लाल काकीक मनमे
उठलनि जे पुरुख छिया कि पुरुखक झड़। हाथ पकड़ि कहबनि जे चाह लिअ। आगूमे
ताड़क गाछ जकाँ ठाढ़ रहली।
जहिना नमहर गाछक ऊपरका
डारि टूटि रूकि-रूकि कऽ निच्चा खसैत तहिना लाल कक्काक मन फेर खसलनि। थोड़े
सबूर मनमे सेहो भेलनि जे दुपहरिया खेनाइ नै गड़बड़ाइत। पाछू उनटि तकलनि मन
पड़लनि जे एहेन-एहेन झगड़ा तँ बेसी काल होइए। मुदा खेनाइ-पीनाइमे कहाँ कहियो
बाधा भेल। ओह तामसमे बिसरि गेल छलौं। पत्नीक चौअनियाँ मुस्कीक जबाबमे लाल काका
अठनियाँ ठाह दैत, हाथक गिलास पकड़ैत बजलाह-
“मीठगर चाह अछि कि
ने?”
लालल काकाकेँ मुँहमे गिलास
लगबैसँ पहिने लालकाकी ठमकल रहली, मुदा मुँहसँ गिलास हटबिते,
पुछलखिन-
“ठाेरमे ठोर सटैए किने?”
चाहक गरमी लाल काकाकेँ
चढ़िते रहनि। अवसर केँ बिनु गमौने बजलाह-
“घी सँ नै चीनीसँ।”
4. घबाह टयूशन
घिड़नीक तिनकमिया बंशीक
घबाएल माछ जकाँ, बुधियार काका बीस बर्खक नोकरीक पछाति घबाएल मने अपना दिस तकलनि।
घबाएल मन ऐ लेल जे प्रतियोगिता परीक्षामे बैइसै जोकर बेटा भऽ गेलनि। उचित तँ
यएह ने बनैत जे वयस देखि-देखि अपन विषयक बात बेटोसँ पूछि लेब। एकर मतलब ई नै
जे छौड़ाकेँ बापक पएरक जूतो आ अंगो अँटि जाइ छै।
जइ दिन नोकरी शुरू केलौं, तीन मन धान गौआँ
मिलि दैत छलाह। राजा-रजवारक गाम नै, जे स्कूल-अस्पताल
खुजत। परिवारो तहिना छल, गौआँ मुँह देखि कोनो धड़ानी
गुजर करैत छलौं आ गामेक बच्चाकेँ पढ़ेबो करै छलौं। अपनो बूझि पड़ै छल आ समाजो शिक्षक
बुझैत छलाह।
अपने ऊपर दुरिमतिया चढ़ल
कि समाजक ऊपर चढ़ल आकि सरकारक ऊपर चढ़ल से बुझबे ने करै छी। जे विद्यालय या तँ
व्यक्ति-विशेषक वा सामाजिक स्तरपर चलैत छल ओकरा आगू केना बढ़ौल जाए। मूल
प्रश्न छल। मुदा भेल की? खाली संस्कृते विद्यालयकेँ कहबै आकि मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि जेनरल विद्यालयकेँ, सभटा
एक्के सिरहाने पेटकुनिया लधने अछि।
प्रकाशकेँ सोर पाड़ि बुधियार
काका कहलखिन-
“बौआ, आब तोरा ले दुनियाँक बहुत बाट खुजैक समए आबि गेलह मुदा समए एहेन बनि
गेल अछि जे जते सहयोगक जरूरत तोरा पड़तह, ओते नै दऽ
सकबह। अपनो जुआन भेल जाइ छह, अपनो तँ किछु सोचिते हेबह?”
पिताक विचार सुनि
प्रकाश बाजल-
“बाबूजी, टयूशनक नव क्षेत्र तँ बनिते जा रहल अछि,
बूझल जेतै।”
प्रकाशक विचार सुनि, कनी काल गुम रहि
बुधियार काका बजलाह-
“बौआ, तीनटा विद्यार्थीकेँ टयूशन पढ़ा अपनो शिक्षक बनलौं, मुदा आब लड़कीक शिक्षा बढ़लासँ ओहो घबाह भेल जा रहल छै।”
5.दादी-माँ
सत्तरि बर्खक दादी-माँकेँ
अखनो वहए चुहचुही गाममे बूझि पड़ै छन्हि जे चुहचुही सासुरमे सभकेँ बूझि पड़ैत।
जइ दिन रंगल वस्त्र, भरल पेट काजर लगौल आँखिसँ गाम देखलानि ओ जीते-जी केना बिसरि जेती।
ओना दादी-माँ केँ दू
पीढ़ीसँ मुखतियारी चलि अबैत मुदा पलखतिक दुआरे ऐ बातपर नजरिये ने कहियो गेलनि।
कारणो अछि जे दू तरहक जिनगी लोककेँ भेटै छै, एककेँ बनल-बनाएल दोसर टुटल-फुटल। टुटल-फुटल
घरकेँ दादी-माँ सभ दिन चिकने करैमे लागल रहली तँए सासुरक सुख दिस धियाने ने
गेलनि। एक तँ ओहुना जे कुरसीपर बैसि जाइए ओ थोड़े बुझै छै जे कुरसीक पुवरियो
पार छै आ पछवरियो पार। तँए जिनगीकेँ तीनू पार देखैक लूरि हेबाक चाही। मुदा से
दादी-माँ केँ नै छलनि परिवारक सभक धौजनि सुनैक अभ्यस्त छथि तँए आश्वासन तँ
सभकेँ दइते छथिन, मुदा जे पहिने बिसरै। सत्तरि बर्खक
अपनाकेँ नै बूझि दादी-माँकेँ छोड़ल केचुआ जकाँ लहलही छन्हिये। तहूमे
कोरा-काँखकेँ सभ दिन बच्चा सभकेँ लैत रहली तँए किअए नै रहतनि।
छह बर्ख पहिने परिवारमे
एकटा गाए एलनि। जहिना मनुष्यसँ लऽ कऽ बाध-बोन धरि लक्ष्मी छिड़िआएल छथि
तहिना दादी-माँ गाएकेँ बूझि सेवा करए लगलीह। थैर-गोबर अपन काजक सूचीमे लऽ लेलनि।
छबे बर्खक दौड़मे आइ दासटा गाए खुट्टापर छन्हि। पहिने एकटाकेँ थैर-गोबर करैक
अभ्यास छलनि अखन दस टाक भऽ गेल छन्हि, किअए मनक चुहचुही कमतनि।
अोना अखन धरि सभ तूर परिवारक
काजमे सटि चलै छन्हि मुदा दुनू पुतोहुओ आ बेटोक दियादिनियो आ भाइयोमे खट-पट
हुअए लगलनि से भनक छन्हि मुदा जेकरा जे मनमे हेतै से तेहेन पाऔत, तँए धनि-सन। दुनू
बेटो आ पुतोहुक बीच उठैत विवादक कारण पिता-शिवशंकर नीक जकाँ बुझैत। जइठाम लाखक
विधायक, सांसद, बेपारी, ठीकेदार करोड़ कूदि अरबमे टहलि रहल अछि तइठाम मनक उछाल स्वाभाविके
छै। तँए गुम्म।
जहिना दृष्टिकूट विश्राम
बेर होएत तहिना दादी-माँकेँ बूझि पड़लनि। पति-शिवशंकर सोझसँ गुजरिते रहथि
कि दुनू बेटा, ताल ठौकैत पहुँचल। अधरस्तेपर दादी-माँ अँटकि गेलीह। शिवशंकर पुछलखिन-
“तोरा दुनू भाँइक
बीच एना किअए होइ छह?”
पिताक प्रश्नसँ दुनू भाँइ
प्रकाशो आ जोगियो एक दोसरपर दोख मढ़ए लगल। तही बीच आंगनमे सेहो दुनू पुतोहु डंका
पीटए लगली। शिवशंकर बूझि गेलाह। जे अंगने आगि असमसान तक जाइ छै। भार हटबैत शिवशंकर
दुनू भाँइकेँ कहलखिन-
“माएसँ पूछि लहक?”
अपना-अपनीकेँ प्रकाशो आ
जोगियो दुनू भाँइ बाँहि पसारैत दादी-माँकेँ पुछलक-
“माए, तूँ केनए?”
गरमाएल साँस छोड़ैत
दादी-माँ बाजल-
“केम्हरो ने। अपने
दिस।”
दुनू बेकती शिवशंकरो आ
दादियो-माँ विचारए लगलथि जे समए एहेन दुरकाल बनि रहल अछि जे रातिक कोन बात
जे दिनोकेँ सुरक्षित रहब कठिन भऽ गेल अछि, तइठाम घरेमे कुकुड़-कटौज करत तँ जानत अपने।
आब कि जीबैक कोनो सख अछि, कमाइ छी खाइ छी।
२
राम विलास साहु
दूटा विहनि कथा ::
स्कूलक खिचड़ी
एकटा अभिभावक तमसा कऽ स्कूल
पहुँचलाह। हेड मास्टरकेँ उपराग दैत बजलाह-
“पढ़ाइ-लिखाइ तँ
जएह-सएह होइए। खाली खिचड़ीयेमे बेहाल रहै छी। जखन धिया-पुता पढ़बे नै करतै तखन
तँ हाकिम-हुकुमक तँ बाते छोड़ू चपरासियो नै बनतै। एसँ नीक तँ प्राइवेटे स्कूल
ने जइमे दूटा पाइये ने लगै छै, पढ़ाइ तँ नीक होइ छै। आइ
तक ऐ स्कूलक बच्चा पढ़ि कऽ कोन नाम कमेलकै।”
मास्टर सहाएब शान्त
भावसँ अभिभावककेँ समझबैत बजलाह-
“देखू, तमसाउ नै कोनो हम खिबै छी खिचरी। ई तँ सरकारक योजना छी। ऐ योजनासँ
लाभो बहुत छै। निच्चासँ ऊपर धरि सभ माले-माल होइ छै।”
अभिभावक बजलाह-
“से केना?”
मास्टर सहाएब कहलखिन-
“सहीमे प्राइवेट स्कूलक
बच्चा सभ पढ़ि-लिखि हाकिम-हुकुम बनै छै। आ ईहो देखैत हेबै जे ओ सभ माए-बाप,
गाम-समाजकेँ छोड़ि एवं मातृभूमिकेँ बिसरि जाइए, बूझू बौर जाइए। से तँ ऐ स्कूलक बच्चामे नै हाेइए।”
चोर-सिपाही
माघ मास अन्हरिया राति।
ओस-कुहेससँ हाथो-हाथ ने सुझैत। एकटा चोर चारि कऽ भागल जाइ छल। तखने एकटा सिपाही
गस्तीमे आबि रहल छल। चोर सिपाहीकेँ देखिते भागल। चोर बूढ़ छल मुदा सिपाही
बलंठ छलै। भागैत चोरकेँ रपटि कऽ पकड़लक सिपाही। पकड़ि हाजति लेने जाइ छल।
चोरकेँ डंढ़ासँ देह थरथराइ
छल। मने-मन ईहो सोचै छल जे केना ऐ यमराजक हाथसँ बचब। थोड़े आगू चलि कऽ देखल जे
सड़कसँ हटि एकटा घूर रहै। आगि देखिते चोर बाजल-
“सर, अहाँ एत्तै रहू आ हम ओइ धूरासँ कनी बिड़ी नेसने अबै छी?”
सिपाही कने सोचि कऽ
बाजल-
“अरे, तूँ हमरा मूर्ख बुझै छेँ रे! आ जे तूँ भागि
जेमे तँ हम तोरा पतालमे खोजबौ? चूपचाप एतए बैस हम अपनेसँ
बीड़ी सुनगेने अबै छी।”
३.
चन्दन कुमार झा
टटका रचना
लीलाधर बाबू एकटा कॉलेज मे प्रोफेसरी करैत
छथि.प्रोफेसरी कि करताह, बुझू तऽ भरिदिन विभाग मे बैसल गप्प हँकैत छथि.मैथिली
पढ़ैले कएक टा विद्यार्थी आब कॉलेज मे नाम लिखबैत अछि ? से सभ मैथिली प्रोफेसर सभकेँ बैसारी मे
रहि-रहि कऽ जहिना किछु लिखबाक झोंक चढैत छैक तहिना पछिला करीब सात-आठ बरख सँ कलाधर
बाबू के सेहो कखनो-काल चढैत छन्हि.प्रायः सब विधा मे कलम अजमा चुकल छथि मुदा
मोशकिल जे एखनधरि स्थापित साहित्यकार नहि भऽ सकलाह.अछैतो रचना आ'
किताब छपेबा हेतु पुँजीके किताब नहि छपा रहल छथि.सोचैत छथि जे पहिने किताब पढैबला
तऽ ताकि ली.विभिन्न पत्रिका के नियमित पाठकक सदस्यता ग्रहण कयने छथि,
बस अही लोभे जे एहि पत्रिका सभ मे हुनको रचना छपन्हि.मुदा संपादक,
आ' तहू मे मैथिली के विद्वान तऽ अपने
कम्म टेड़ियाह नहि होइछ से हिनकर पठाओल रचना सभकेँ कोनो पत्रिका मे उचित स्थान नहि
भेटैत छन्हि.एहि समस्या सँ त्राणक खातिर विचार भेलन्हि जे किएक ने संपादक जी सँ
मुखोत्तरी अनुरोध कएल जाए आ' से एकटा
संपादक ल'ग पहुचलाह.नमस्कार-पाती आ'
परिचय-पातक बाद लीलाधर बाबू अपन दूटा टटका रचना संपादक दिश बढ़बैत बजलाह-
" कने एकरा देखल जाओ.ई हमर एकदम्म टटका रचना अछि.अपन
पत्रिकाक अगिला अंक मे शामिल करी से अनुरोध."
फेर भेलन्हि जे ई विनय-वचन हुनक प्रोफेसरक कद के देखैत संपादक महोदय के कही
हल्लुक नहि लागल होन्हि तइँ कनेक आर पालिश करैत बजलाह -" एहि प्रतिष्ठित
पत्रिका मे यदि हमर रचना के अपने जगह देब तऽ ई हमरा लेल गौरवक गप्प होयत".
संगहि जोड़ति गेलाह जे-"हम एहि पत्रिकाक नियमित पाठक सेहो छी".
संपादक महोदय रचना पर अपन कैंचिआयल दृष्टि देलाक बाद कहलखिन्ह - " ओना
तऽ ठिक्के अछि मुदा हम अपन पत्रिका मे जे स्तर के रचना छपैत छियैक ताहि अनुरूपेँ
कनेक हल्लुक बुझना जाइत अछि".
फेर भेलन्हि जे कहीँ एकटा नियमित पाठक ने हाथ से छिटकि जान्हि से बात के
सम्हारैत बजलाह- "ठीक छैक, एखन ई रचना
राखि दियौक,हम छपबाक कोशिश करब".
लीलाधर बाबू केँ अपन रचनाक संग होइ बला लीला के भान भऽ गेल रहन्हि.ओ
चोट्टहि संपादक महोदय सँ विदा लेलाह.जखन दू मास बीत गेलैक तऽ एकबेर फेर लीलाधर
बाबू ओहि संपादक महोदय के कार्यालय मे जुमि गेलाह.
संपादक महोदय के पुरना गाहकि मोन पड़लनि आ लीलाधर बाबू के संबोधित करैत
बजलाह-" ओ..की कहू...पछिला दू मास मे ततेक ने रचना सभ आबि गेलैक जे अपनेक के
रचना के हम जगह नहि दऽ पौलहु.लेकिन अगिला अंक मे...."
लीलाधर बाबू हुनकर बात के बिच्चहि मे कटैत बाजि उठलाह-" कोनो बात
नहि...हम ओहि रचनाक मादेँ अपने सँ पुछारी करय लेल नहि आयल छी". आ फेर एकटा
विजीटिंग कार्ड संपादक महोदय दिश बढ़बैत बजलाह जे - " ई हमर संपादन मे नव
पत्रिका बहार होमय जा' रहल अछि. हम जनैत छी जे संपादक के
अपने पत्रिका मे अपन रचना छापब उचित नहि बुझाइत छन्हि.तइँ अहाँ ल'ग
यदि कोनो टटका आ' प्रकाशन योग्य रचना हो तऽ अवश्य
प्रेषित करी".
संपादक महोदय झट दऽ टेबुलक दराज मे अपन टटका रचना ताकय लगलाह....अगिला अंक
सँ लीलाधर बाबूक रचना सभ सेहो पत्रिका सभ मे छपय लागल.
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7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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