१.दुर्गानन्द मण्डल-बेटीक
अपमान/ जीवन-मरण २.शिवकुमार झा ‘टिल्लू’-पृथ्वीपुत्र/ राजकमल
३.डा.राजेन्द्र विमल- नव–नव क्षितिजक सन्धान करैत सुजीतक जिद्दी
१
दुर्गानन्द मण्डल
१
नाटक बेटीक अपमानपर एक नजरि
मैथिली साहित्यक एकटा विधा नाटक अछि, जे विधा सभ दिन रौदियाहे सन रहल। गिनल-चुनल
नाटककारक किछु नाटक जे आंगुरपर गनल जा सकैत अछि, दोगा-दोगी कोनो पुस्तकालयक शोभा मात्र बढ़ौलक। एकटा समए छल जइमे नाटककार जे
नाटक लिखलनि तइमे वाक्-पटुता नै रहबाक कारणे
वा शुद्ध-अशुद्ध उच्चारण नै भेने वा समुचित
वाद-संवादक संग समदियाक अभाव सभ दिन देखल गेल। चूँकि ओना हम जत्ते-जे ढकि ली मुदा एकटा सत्यकेँ स्वीकार करए पड़त जे हम मैथिल छी।
हमरा लोकनिक मातृभाषा मैथिली भेल। मुदा
माएकेँ माँ कहैत कनेको लाज विचार नै होइए। जेना कि आँखिसँ लाजक पानि खसि पड़ल। तात्पर्य, मैथिल होइतो दोसर भाषाक दासताक शिकार भेल छी आ ओकर भोग भोगि रहल छी, बुझाइत अछि जेना मैथिलीक लेल एेठामक माइटिये उसाह भऽ गेल अछि, जइपर गदपुरनि मात्र उपजि सकैए। मुदा ओहेन उसाह माटिपर “बेटीक अपमान आ छीनरदेवी”
लिखि नाटकार बेचन ठाकुर, चनौरागंज, मधुबनी, मैथिली नाट्य जगतमे एकर सफल मंचन कऽ महावीरी झंडा गाड़ि समस्त मैथिली, मैथिल आ मिथिलाक मान-सानकेँ
मात्र बढ़ेबे टा नै कलनि अपितु चारि-चाँद लगा देलनि। ऐ लेल ठाकुर जीकेँ समस्त मैथिल भाषी आ नाट्य प्रेमीक तरफसँ हम कोटिश: धन्यैवाद दैत अपार हर्ष महसूस कऽ रहल छी। हमरा विश्वास अछि जे अपने ई दुनू रचना जेकर मंचन अपने अपनहि कोचिंग संस्थानक
छात्र-छात्रा लोकनिसँ करा, ई साबित कऽ देलौं जे मिथिलाक माटिमे अखनो ओतेक शक्ति बचल अछि जइपर केसरो उपजि सकैत अछि।
नाटककारक नाटकक विषय अति उत्तम छन्हि। वर्त्तमान शताब्दीक सभ मनुख ऐ बातसँ भिज्ञ अछि, सरकारी सर्वेक्षणसँ सेहो स्पष्टत अछि जे
दिनानुदिन लिंगानुपात बढ़ि रहल अछि। सभ
राज्यक अनुपात थोड़े ऊपर-नीचाँ भऽ सकैए मुदा कियो ऐ बातसँ मुँह नै मोड़ि सकै छथि जे प्रति हजार लड़िका-लड़िकीक बीच एकटा
बड़का खाधि बढ़ैत जा रहल अछि,
जइ खाधिमे लड़िकीक अनुपात निरंतर नीचाँ मुँहेँ गिड़ैत जा रहल अछि आ हमरा लोकनि कानमे तूर-तेल दऽ निचेनसँ सूतल छी। जौं ई क्रम जारी रहल तँ आगू की हएत से तँ सोचू!! ई एकटा प्रश्नवाचक
चिन्ह छोड़बामे नाटककार एकदम सफल रहला अछि।
एतबे नै, आजुक वैज्ञानिक युगमे यंत्रादिक सहायतासँ ई जानि जे माइक गर्भमे पलैत बच्चाक, बेटा नै बेटी छी.... िनर्मम हत्या करबामे कनिक्को कलेजा नै कँपैए!! जेकर कोनो कसूर नै ओकरा कुट्टी-कुट्टी काटि खुने-खुनामे कऽ माइक
गर्भसँ बहार कऽ दै छिऐ। जइ बेथे ओइ बच्चाक
माए पनरह दिन धरि बिछौन धेने रहैत अछि। ऐठाम एकटा गप हम फरिछा कऽ कहि दिअ चाहै
छी, ओ बेथा हुनकर ओइ बेटीक प्रतिये नै जेकर ओ हत्या करौलनि अछि, अपितु शारीरिक बेथा छन्हि जइ लेल एत्ते आ
एहेन कुकर्म करै छथि। ओइ िनर्दोष बच्चाक माए-बाप दुनू ततबाए दोषी छथि। ओ ई नै बूझि रहल छथि जे जइ बेटीक ओ हत्याए करौलनि जौं ओ बेटी आइ नै
रहैत तँ की अपने रहितौं? जौं बेटी नै हएत तँ सृष्टिक रचना संभव अछि? जौं हँ तँ केना
वा नै तँ एहेन अपराध कऽ स्वयं किएक एतेक पैघ
हत्यारा साबित भऽ रहल छी। रानी झांसी, लक्ष्मीबाई, सावित्री, अहिल्या, सती अनुसुइया, इन्दिरा
गांधी, मैडम क्यूरी, मदर टेरेसा...,
ईहो सभ तँ बेटीये छलीह। जौं हिनको हत्या पूर्वहिमे कऽ देल गेल रहैत तँ आइ.....। तखन आँखि रहैत
एना हम सभ आन्हर किएक? बुइध रहैत मुर्खाहा जकाँ काज किए करै छी?
मनुक्ख तँ मनुक्ख छी ने, छागर-पाठी आकि गाए-महिंस तँ नै जे कतौ
कोनो.....। तहूमे साढ़े-पारा अधिक
भऽ जाए, गाए-महिंस कम, तखन की हएत? जौं हम-अहाँ ई नै सोचबै
तँ के सोचताह? ऐ हत्याक पाछाँ एकटा अओर कारण अछि जेकर नाओं थिक दहेज। मुदा उहो तँ
हमहीं अहाँ लेबाल आ देबालो छिऐ। अखनो समाजमे आ प्राय: गाम पाछाँ एक-आध गोटे जरूर छथि जे अपन बालकक बिआह एकटा नीक कुल-कनियाँ ताकि आदर्श बिअाह कऽ उदाहरण बनै छथि। ऐ काजक दोषीकेँ सजा नै दऽ िनर्दोषकेँ जानेसँ मारि दुनू परानी ऐ पापक भागीदारी छी। छीह.......।
शास्त्रो एकटा बात बतबैत अछि जे “यत्र नार्यस्तु
पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता।” मुदा ओकर पूजा की करबै, ओइ देवीक
संसारमे एबाक अधिकारे छीनि होइए, जे बड़का काज
केलौं।
जतए समस्त विश्व ऐ समस्यासँ जरि रहल अछि ओतए नाटककार अपना नाटकक माध्यमे एकटा साधारणो लेखक सदृश अपन लेखनीक माध्यमे समाजमे ई संदेश देबामे पूर्णत: सफल छथि जे समए रहैत जौं नै चेतब तँ
नाटकक मुख्य पात्र दीपक सदृश हाल हएत। जे अंतमे
कनियाँक मुइला पछाति अपनेसँ भात पसाबथि, किएक तँ हुनक कनियाँ बरोबरि गर्भपात करेबाक कारणे शोनितक कमीसँ उड़ीस भऽ मुइलीह। एतबे नै, बेटीक अभावमे नगद गीनि आ
तखन पुतोहु घर अनलाह। तखन हुनका कबीर साहैबक ई
पाँति मोन पड़ैत छन्हि, “सन्तोक सभ दिन होत एक समाना।” आबो जौं
नै चेतब तँ अहिना टाका दऽ बेटी बेसाहऽ पड़त। निरंतर चीज-बौस जकाँ बेटियोक दाम बढ़ैत जाएत, जेकरा किनैत-किनैत अहाँक प्राण निकलि जाएत। किएक तँ अपना समाजमे एकटा नै कएक टा मरूकियाबला अखनो जीविेते अछि, जे चारि लाख एकावन हजार टाका नगद आ सभ सरंजाम संगहि बरिआती ऊपरसँ। चेतु हे मैथिल आबो चेतु। नै तँ आब ओ दिन दूर नै जे गाड़ीपर नाव रहत। आब बेटी अपन
अपमान बरदास नै कऽ सकैए।
ऐ प्रकारे नाटककार समाजक लेल एकटा पैघ संदेश दऽ रहल छथि जे गर्भपातसँ पैघ कोनो पाप नै होइत अछि। तँए ऐ पापसँ
बची आ बेटीक बाप बनी। अहुना बेटा आ बेटी दुनू
कोइखिक श्रृंगार होइए। ऐ तरहेँ श्री बेचन
ठाकुर जी हमरा लोकनिक नीन तोड़ैमे सफल रहला। जे श्री जगदीश प्रसाद मण्डल जीक प्रेरणापूर्ण आदर्शवादी व्यक्तिक हाथ हुनका माथपर छन्हि, हम सेहो बिनु मंगने
शुभकामना दैत छियनि, रहबनि, जे अहिना नाटक लिखैत रहथु, मंचन करबैत रहथु।
धन्यवादक पात्र श्रुति प्रकाशनक श्रीमती नीतू कुमारी आ नागेन्द्र झाजी केँ जे प्रकाशनक समस्त भार उठा कृतज्ञ हेबाक मौका देलखिन। जौं विदेह
प्रथम पाक्षिक ई-पत्रिकाक सह सम्पादक उमेश मण्डल एवं सम्पादक गजेन्द्र बाबूकेँ, जिनक अथक सहयोगक प्रसादे प्रकाशनक रास्ता सुगम आ प्रकाशन सफल भेल, तँए नै लिखब-कहब तँ अनुचित।
२
जीवन-मरण
:: दुर्गानन्द मण्डल
जीवन-मरण
उपन्यास, एकटा लब्ध प्रतिष्ठित उपन्यासकार श्री जगदीश प्रसाद मण्डल
जीक अनुपम कृति अइ। हुनक लिखल अनेको उपन्यास, जे
एक-सँ-बढ़ि-कऽ–एक अछि। जइमे उपन्यासकार द्वारा उठाओल गेल
विभिन्न प्रकारक सामाजिक रूढ़िवादिताक ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत कएल गेल अछि।
मात्र प्रस्तुतिकरण धरि कथा नै अपितु ओकर सामाधान तकबामे सेहो उपन्यासकार
सतत् सफल रहला अछि।
प्रस्तुत
उपन्यासमे मनुखक जे अपन जिनगी छै, ओकर जे अपन समाज छै,
समाजक प्रति व्यक्ति विशेषक उत्तरदायित्व होइत अछि से,
आ नवका पीढ़ी जे पश्चिमी सभ्यताक असभ्यतासँ ग्रसित भऽ असभ्य
बनि गेला अछि तइपर उपन्यासक आरंम्भमे एकटा कसगर चोट देलनि अछि।
देवनन्दन
जे बेवसायसँ डाॅक्टर छथि, पत्नी शीला द्वारा जनलनि जे पिताक मृत्यु
भऽ गेल तैयो घबरेला नै सोचलनि पिताक अपन समाज छन्हि जइ बीच ओ अपन जिनगी बितौलनि।
तँए उचित हएत जे हुनका अपना समाजमे पहुँचा दियनि आ मृत्युक सभ कर्म सामाजेक
अनुकूल बढ़ियासँ करी िनर्णए लेलनि।
मोबाइलसँ
नम्बर निकालि, टिपि अपन जेठ बेटा दयानन्दकेँ जनौलनि-
“बच्चा,
बाबू मरि गेलाह, तँए दुनू भाँइ गाम आऊ।”
मुदा
वाह रे पश्चिमी सभ्यता! देखू हमरा लोकनिकेँ केना ग्रसित केने अछि, दयानन्द बाजि उठलाह-
“बाबू,
ऐ लेल गाम किअए जाएब? आब तँ बिजलीबला
शबदाहमे आसानीसँ काज सम्पन्न भऽ जाइत अछि”
दयानन्दक
विचार सुनि देवनन्दन कहलकनि-
“बच्चा,
सभ जीव-जन्तुकेँ अपन-अपन जिनगी होइत अछि। आ जे जेहने जिनगीमे
जीबैत अछि ओकरा लेल वएह जिनगी आनन्ददायक होइत अछि। जेना, चीनी, मिरचाइ आ करैला तीनूक तीन तरहक स्वाद,
मीठ, कड़ू आ तीत होइए। मुदा की मरिचाइक कीड़ा
आबि करैलाक कीड़ा चीनीमे जीब सकत? कथमपि नै। जखन की ओ तँ
अधलाहसँ नीकमे गेल।”
पिताक
बात सुनि दयानन्दकेँ आश्चर्य भेलनि, मुदा देवनन्दनक अनुसारे
ऐमे आश्चर्य कोन। किएक तँ गामक दोसर नाम समाज सेहो छिऐ। जे शहर-बाजारमे नै अछि।
ऐठाम उपन्यासकार समाजकेँ मानव नै मानवक जे मूल सभ्यता छै ओकरा एकैसम सदीक नव
पीढ़ी लेल एकटा मिशाल देखौलनि अछि। जे वर्त्तमानमे आजुक पीढ़ी समाजकेँ नै बूझि
किदैन बुझै छथिन, ओ बिसरि गेलाह जे समाज की थिक,
ओकर मान-मर्यादा कि होइ छै, सामाजिक बन्धन
की छी, ओकर कानून-कायदा की छै। आजूक वर्त्तमान आधुनिक समाज
जइमे सभ अपने पाछू बेहाल रहैए। ओ केकर सुख-दुख, जीवन-मरणकेँ
सुनत। ओ तँ भरिपेट नीक अन्न-तीमन खाएब मात्र जनैए। मुदा तइसँ कि मन थोड़े अस्थिर
भऽ सकैए। जाधरि आत्माक संतुष्टि नै हेतैक। बुझेबामे केत्तौ कोनो प्रकारक किन्तु-परन्तु
नै राखि, मनुक्ख एकटा सामाजिक प्राणी होइत अछि, ओकर अपन एकटा समाज छै, जइमे सभ एक-दोसराक सुखसँ
सुखी आ दुखसँ दुखी होइ छथि, देखेबामे सफल भेलाह।
वर्त्तमानमे जन्म जरूर जाति-समाजमे होइ छै, मुदा लगले आँखि-पाँखि
भेने हमरालोकनि अपन मूल समाजकेँ भूलि-बिसरि आन समाजमे मिलि हूलि-मािल
उठेने रहै छी। केतेक दुखक बात भेल। कला आ संस्कृितसँ दूर तँ स्वभाविक रूपे तँ
छिहे ओना हम सभ कतेको नोर मंचपर किएक ने बहा ली।
दोसर दिस
उपन्यासकार मिथिलानिक एकटा गजब चित्र प्रस्तुत केलनि अछि। मैथिल नारि
अपन पतिकेँ परमेश्वर मानै छथि। जिनकेपर हुनका भरि मांग सेनुर आ भरि हाथ चुड़ी
रहैत छन्हि। अपना पतिक प्रति कतेक निष्ठा रखै छथि स्पष्ट अछि-
“अदौसँ
सावित्री, अनुसुर्इया आदि ऐ विषयमे जगविदित छथि।
देवनंदनक माए सुभद्रा जिनका चेहरापर सोग नै अपितु सिनेह उमरि रहल छन्हि।
मोने-मन आनंदित जे, जहिना हाथ पकड़लनि तहिना पार-घाट लगा
देलनि। भड़ल-पुड़ल फुलवाड़ी अछि कतौ हेराएल रहब।”
मिथिलानिक
महान विचार आ तियागक स्तरकेँ कतेक सुक्ष्म रूपेँ उपन्यासकार रखलनि अछि। तियागक
मूर्तिक रूपमे ऐ तरहेँ स्पष्ट अछि जे पतिकेँ मुइला बादो हर्ष छन्हि जे हमरा
अछेत मरलाह से नीके भेलनि। अन्यथा मोनमे लागल रहैत जे हुनक शेष दिन केहेन...।
सभ
पौस-प्राणी गुनधुनमे पड़ल गाम चलल जा रहल छथि। देवनंदन सोचथि,
से नै तँ आइ समाजक काज पड़त। समाजक की महत छै। मनुक्ख कोन तरहेँ सामाजिक प्राणी
होइए, समाजक बीच बाबूजी केना जीबथि,
कतेक परिवारसँ दोस्ती छलनि आ कतेकसँ दुश्मनी, गुनधुनमे
पड़ल माएसँ पुछलखिन-
“माए,
कते परिवारसँ बाबूजी केँ दोस्ती छेलनि।”
तखन माएकेँ मोन पड़लनि ओ समाज, जतए सभ मिलि कुमरम, बिआह, सामा, घरक गोसाँइसँ लऽ
कऽ दुर्गा स्थानक गीत मोन पड़ए लगलनि। देवनंदनक बात सुनि माए-सुभद्रा बजलीह-
“छिया,
छिया। मिथिलाक समाज छी। ऐ समाजमे मुर्दा जरबैले, केकरो घरक आँगि मिझबैले, केकरो-साँप-ताप कटने रहल
आकि गाछ-ताछपर सँ खसलापर केकरो कियो कहै नै छै। ई सामाजिक काज छी। तँए, अपन काज बूझि सभ अपने तैयार भऽ जाइत अछि।”
ऐठाम
उपन्यासकार मिथिला आ मैथिल समाजक एकटा विलक्षण उदाहरण द’ अपन सभ्यता आ संस्कृतिक परिचए द’ समाजक समुद्री
रूपकेँ दर्शन करौलनि अछि। पूर्वोमे बाढ़ि एलापर करियाकाका आ देवनंदन द्वारा
उठाओल गेल कदम आबैबला समाजक लेल एकटा आदर्श उपस्थित केलनि अछि। आखिर दिन बिसेक
बाद सभ घूमि अपन-अपन घर आएल रहथि। ओही समाजक एकटा अभिन्न अंग देवनंदनक पिता जे
समाजक प्रतिष्ठित व्यक्ति रघुनंदनक लहाश गाम पहुँचते आगू-आगू गाड़ी आ पाछू
करमान लागल लोक दियादीमे सबहक चुल्हि मिझाएल।
दोसर दिस
उपन्यासकार जे मर्द-पुरुखक क्रिया-कलाप, स्त्रीगण सबहक गप-सप तँ
एक दिस 111 बर्खक रधिया दादी गाइक गर्दनि जकाँ लटकल चमरी, बाइस गाहीक बर्ख भेल, पूर्वमे रधुनंदनकेँ कतेको दिन
दूध पिऔने रहथिन, उपस्थित क’ सामाजिक
आ मातृत्व प्रेमक ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत केलनि। जिनका दादी जूरशीतलमे अछिंजलसँ
असिरवाद द’ फगुूआमे रँगो खेलाइत छलीह। से सप्तरंगी समाजक
इंद्रधनुषी संबंधक एकटा विलक्षण उदाहरण अछि।
श्राद्ध-बिआह
समाजेक काज होइते अछि। समाज तँ समाजे होइए तहूमे ओहेन समाज जइठाम रघुनंदनकेँ
उत्तरे-दछिने सुता उज्जर दप-दप वत्रसँ छाँपि सिरहानामे धूप-गुगुल जरैत अछि। तइ
बीच बचनू, चंचन, झोली, बौकू,
बतहू देहपर तौनी आ डाँरमे धोती पहिरने कान्हपर कुरहरि नेने
संग-मिलि कानी-गाबी आ हँसी ऐ सँ पैघ सुख केकरा कहबै? जइ
सुखक लेल लोक नीच-सँ-नीच काज करैए मुदा पाबि नै पबैए। ऐठाम उपन्यासकार भौतिक
सुखकेँ सुख नै मानि आत्मिक सुख, अतिइन्द्रिय सुख जइसँ
आत्मिक शान्ति भेटैत छै, ओ वास्तविक सुख थिक। तँए
मात्र दैहिक सुखकेँ क्षणिक आ आत्मिक सुखकेँ वास्तविक बता अपनाकेँ आध्यात्मिक
हेबाक सेहो परिचय द’ समाजोकेँ आध्यात्मिक बातपर चिन्तन-मनन
अनुकरणक प्रेरणा देलनि अछि।
समाजक
समस्त काजक जिम्मा करियाकाकापर छन्हि। समाजक ऊँच-नीच, छोट-पैघ सभ जातिक लोक, जाति-परजाति सभ मिलि
रघुकाकाक काजमे पूर्ण सहयोग देबए चाहै छथि चाहे ओ िकर्तनिया हुअए आकि भजनिया,
लेलहा हुअए आकि बौका, सुन्दर काका होथि वा
छीतन भाय दुनू परानी जे जातिक डोम छथि। जे पूर्वमे गुनापर रघुकाकाकेँ पाँचटा गीत
सुनौने छलाह। जीविते छथि छीतन भाय। छितनो भायकेँ बरियातीमे हकार देब नै बिसरब, समाजक जाति-पातिक कुप्रर्थासँ निकालि मनुक्खक जे एकटा अपन समाज होइछ,
मनुक्खक जे एकटा जाति होइए जइमे सभ वर्ग आ वर्णक लोक रहैए,
वास्तवमे ओ ने समाज छी। ओइ जातिगत भावनासँ ग्रसित समाजकेँ ऊपर
मुँहेँ उठा स्वच्छ वातावरणमे शुद्ध साँस लेबाक बाट देखौलनि हेन। जहिना हवा
अनेक गैसक मिश्रन छी तहिना तँ समाजो अनेक वर्ग आ वर्णक मिश्रण छी। जौं से नै तँ
कियो एक-दोसरक बिना जीब सकत? संभव नै, मुदा से बुझैत लोक अपने स्वार्थमे आन्हर भेल रहैए। आ फल्लंमा डोम तँ
फल्लांमा दुसाध ई संस्कार नैन्हियेटा सँ माए-बाप देबामे पाछू नै रहै छथि। आखिर
एकटा प्रश्न हमरा तरफसँ, अहाँ प्रबुध समाजक लेल अछि, जौं समाजमे सभ जाति नै रहत तँ की समाजिक जीवन चलि सकत यदि हँ तँ केना? जौं नै तँ फेर एहेन भावना किएक? डोमसँ हम छूबल
जाएब, मुदा ओकर बनाओल चीज-बौस गौसाँइ-पितरपर चढ़त तँ की इष्ट-देव
नै छुऔत। जौं छुआएत तँ सनातनिये सँ किएक ने..... ? आ जौं
देव-पितर नै छुआएत तँ हमरा-अहाँकेँ छुएबाक कोन आधार बनल अछि??
झाँपले
परदामे उपन्यासकार जाति-प्रथाकेँ तोड़ि एकटा आदर्शवादी समाज स्थापनापर जोर
देलनि। जहिना फुलवाड़ीमे जुही, चमेली फूल रहैत अछि तहिना गेना
गुलाब सेहो। अधला नै तँ नीकक महत्ते की? तीत नै तँ मीठक स्वादे
की? कारी नै तँ गोरे की? तहिना तँ
समाजो एकटा फुलवाड़ी होइ छै। जइमे सभ तरहक लोकक अपन-अपन भूमिका होइ छैक।
विचार
करबाक थिक जे वैदिक पद्धतिपर चलए बला समाजक चित्र जे जहजहि उपन्यासमे आएल
अछि से तँ सहज अछि। मुदा आजुक ओहन समाज जइमे अलगाव अछि। मनुक्ख-मनुक्खमे एतेक
अन्तर किएक अछि? प्रश्नक संग इशारामे उत्तर सेहो बतेबामे
उपन्यासकार पाछू नै हटलथि। जेकर स्पष्ट उदाहरण रघुकाकाक बरियातीमे छीतन भाय
सदृश लोककेँ अपन बाजाक संग भजन करैले चलैक लेल कहि एकटा आदर्श समाजक परिपक्व
छाप छोड़लनि अछि।
ओतबे नै, एकटा कहावत अछि ‘भेल-गेलपर शिव जगरनाथ’ एहने एकटा व्यक्ति छथि फोंचभाय, पाही जमीनदारक
टहलू धड़फराएल आबि छौंकए चाहै छथि ई बाजि-
‘सभ
कथुक आरिऔन तँ देखै छी मुदा ससर आ घी कहाँ अछि?’
माने
काज भँगठा एवं भरिया देबए चाहलनि। मुदा लेलहा फोंचभायकेँ चौहटैत ई सावित क’ देलकनि जे रघुकाका आ देवभाय सँ हमरो केकरोसँ कम अपेक्षा नै। फोंचभाय कएल
काजमे केवल गलतियेटा तकैबला लोक छथि।
मुदा
हाय रे उपन्यासकार, समस्त उपन्यासमे जीवन थिक तँ मरण
असंभावी.., ई खेल चलिते रहैए। अही समाजक बीच लोक जनमो लइए आ
मरबो करैए। पैघत्व तँ ऐ बातमे अछि जे जइ समाजमे रघुबाबू सन दाता छलाह आइ ओकरे
ऋृण चुकबए खातिर अर्थी उठबैले बुझू जे मािर भ’ रहल अछि।
तही बीच लेलहाक मुँहसँ अनायास निकलल जे सुनै जाउ, कान्ही
लगा उठबियनु नै तँ दरद हेतनि।’ सभ मानि गेल।
एक दिस
आंगनसँ लहास उठल आ दोसर दिस सहनाइपर विदाइक धून। आहहा... यएह तँ सुख आ दुखक दुिनयाँ
छी। जीवन-मरणक सार्थकता छी। मुदा हमरालोकनि जीवनक एक्के भाग देखै आ जनै छी। जीवन
आ मरण सृष्टिक चक्र छी। ऐसँ कियो बाँचल कहाँ। एक िदस करियाकाका आ दोसर दिस
सुन्नरकाका रघुभायकेँ अंतिम प्रणाम कऽ डेग आगू बढ़ौलनि। पाछू-पाछू देवनंदनक
हाथमे आगि अा कोहा दऽ पाछू-पाछू बरिआती सजि विदा भेल। तइ पाछू करियाकाका
रेलगाड़ीक गार्ड जकाँ पाछू-पाछू। गाछी पहुँचि सभ कियो सभ कथुक जोगर अपना-अपना विवेकसँ
लगा सिरहौना-पथौना रूपी औछाओनपर सुता एक-एक चेरा चढ़बैत छाती भरि ऊँच कऽ सुन्दरकाका
देवक बाँहि पकड़ि धधकैत उक मुँहमे लगा देलकनि। बाँकी सभ काज समाजक निअमानुसार
तेरहसँ सत्तर दिन धरि चलैत रहल। समाज तँ समाजक निअम। तही बीच हुलन दुनू परानी,
जेकर आधा देह झाँपल आ आधा उघार छल, ओसरक नीच्चेसँ अपन
कर्मकेँ धर्म बूझि प्रणाम केलकनि आ मने-मन सोचबो करए जे रघुबाबूक काजमे कत्ते
वर्तन लागत।
ईम्हर
देवबाबू जिनका गाड़ामे उतरी छन्हि हुनकोसँ बेसी चिन्ता करियाकाकाकेँ छन्हि
मुदा करियाकाकासँ कम कुसुमलाल पण्डितकेँ कहाँ छै? ओकरा तँ ऐ बातक
चिन्ता छै जे श्रधुआ वर्तनक काज तँ दसम-एगारहम दिन हएत, मुदा
दहीक लेल?
ओतबे नै, रघुनन्दन बाबूक काजक मादे ततबेक चिन्ता राजेसर नौआकेँ सेहो। जेकर काज
एक दिस पुजबैक प्रकिया तँ दोसर दििस कर्म सम्पन्न करेबाक। मुदा एतेक सभ किछु
होइतौ अपना समाजमे जे पण्डितक किरदानी छन्हि तेकरो बखिया उघारैमे कतौ कमी नै
रखला अछि। जे नायकक रूपमे शिवशंकर छथि जे अदौसँ अद्यतन आन-आन श्राध-कर्मक
उदाहरण दऽ जजमानक खून उड़िस जकाँ पीबैत रहलाह जेकर साक्षात् उदाहरण सिट्ठी भेल
समाज सबहक सोझामे अछि।
मनुक्ख
विचारसँ पैघ होइत अछि। विचार बदलल। नव पीढ़ीक प्रसादे सुन्दर आ दुधिगर गाए सभ
सेहो गाममे आएल। तइ बीच चाहक संग सभ सभ अपन-अपन विचार रखलनि। जइमे सर्वसम्मतिसँ
विचार यएह भेल जे पाँच गोटे विचार कऽ डेग उठाउ,
(1) श्राद्ध घरवारी आ कर्ताक अनुकूल हुअए।
दानस्वरूप मात्र झरखंडी बाछा नै दागल जाए।
(1)(2) आन गामक पंच माने
भोज खेनिहारसँ परहेज कऽ गामक सभ जातिकेँ खुऔल जाए आन गामक दोस्त–कुटुम-दिआद तँ रहबे करता।
(1)ऐ प्रकारे उपन्यासक
मादे उपन्यासकार हमरालोकनिक बीच व्याप्त विभिन्न प्रकारक नीक आ अधला
प्रथा-रीति-चलनि-मान्यताक बीच विभिन्न प्रकारक लोक सबहक अमुल्य विचार आ ओही
समाजक दालि-भातमे मुसलचन्दक उदाहरण दऽ ओकरासँ सावधान केलनि। सृष्टिक जे चक्र
छी जीवन-मरण जइसँ कियो बँचि नै सकै छी जेकरा समाज आ कर्त्तकेँ मनोनुकूल कऽ
समाजमे रचनात्मक काज करी ऐ लेल एकटा दिशा-िनर्देश देलनि। जेकरा देवनन्दन जी
अपने शब्दे स्वीकार कऽ पिताक निम्मिते साले-साल भोजे नै वल्कि यथासाध्य
कल्याणकारी काजक प्रेरणा देलनि।
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पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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