२
शिवकुमार झा ‘टिल्लू’
पृथ्वीपुत्र
अतिक्रमण
सबल व्यक्ति वा समूहक अमानुषिक प्रवृति रहल अछि। वैज्ञानिक मान्यताक
अनुसारे सेहो अस्तित्वक लेल संघर्ष आ ओइ संघर्षमे योग्यतमक उत्तरजीविता
कालक्रममे होइ रहल अछि। जखन सम्पूर्ण सृष्टिमे बौद्धिक चेतनासँ युक्त मानव
अस्तित्वक लेल बेवस्थाक विरूद्ध संघर्ष केवल तखन मिथिलाक माटि-पानि कोना
अछोप रहए।
समाजक
ऊँच-नीच आ जय-पराजयक वृत्ति-चित्रक रूपेँ ललितेश मिश्र ललित जीक उपन्यास
पृथ्वी-पुत्र पुस्तकाकार सन् 1965 ई.मे प्रकाशित भेल। जेना की आमुखमे स्वयं
उपन्यासकार लिखने छथि जे ई उपन्यास हंसराज जीक तगेदामे लिखल गेल, तँए ऐमे रचनाकारक सम्पूर्ण आत्मीयता देखब भ्रामक सिद्ध हएत। हमरा सबहक
संग ई दुर्भाग्य रहल जे आत्मिक भाषामे रचनाकार अपन आशुत्वसँ बेशी तगेदाक
कारणेँ रचना करैत रहलाहेँ।
रचनाक
कारण जे हुअनि मुदा एतबा तँ अवश्य प्रासांगिक आ मैथिली साहित्यक लेल वरदान
मानल जाए जे पृथ्वीपुत्र उपन्यासक माध्यमसँ उपन्यसकार मिथिलाक माटि-पानिमे
समाहित सभसँ अंतिम वर्गक समाज धरि पहुँचि गेल छथि जे सोझ मानसिक प्रवृत्तिक
द्योतक अछि। ओना ललितक कथा “रमजानी” सेहो समाजक
दलित वा पछड़ल लोकक वृत्तिचित्र थिक। स्वाभाविके छैक रचनाकार प्रशासनिक
सेवामे रहल छथि,, समाजक ऊँच-नीच कृत्य-कुकृत्य आ वर्गक विषमताक
दर्शन बरोबरि होइत हेतनि तँए अपन दैनन्दिनीक अनुभवकेँ कल्पनाक सरोवरिमे बोरि
यथार्थवादी रूप देबाक प्रयास कएलनि जइमे अंशत: सफल सेहो भेलाह।
उपन्यासक
गाथा व्यावसायिक चलचित्र जकाँ मध्यसँ प्रारंभ होइत अछि। घटनाक गर्त्तमे
गेलासँ ई उपन्यास दलित समाजमे सामन्तवादी शोषणक विरूद्ध वर्ग संघर्षक चलचित्र
थिक।
जंगी
पासवानक पुत्र विसेखी पासवान कर्मसँ वैड-कैरेक्टरक चोर अछि। जकरा अपन दुनू
पुत्र गेनालाल आ सरूपसँ बेशी अपन शिष्य छतरपर विश्वास छैक। गेनालाल जेकरा गेनमा
कहल जाइछ ओकर चरित्र भकलोल-मनुख मुदा कर्मशील मजूरक छैक। सरूप ऐ उपन्यासक नायक
थिक। जकरा कतौ उपन्यासकार दलित समाजक क्रांति-वीर वनएबाक प्रयास करैत छथि तँ
कतौ अपन बहिन बिजलीक कल्पनाथ मिश्र उर्फ कलपू मिश्रक संग अनैतिक सिनेहक
प्रोत्साहक वा साक्षी। सरूपक चित्रक ई अर्न्तद्वन्द्व दलित समाजक जीवन शैलीमे
विराधाभास मानल जाए। गेना लालक अर्द्धागिनी बेनी अपन पतिक मृत्युक पश्चात्
पारिवारिक सहमति आ उत्तरदायित्वक कारणे अपन देओर सरूपसँ बिआह कऽ लैत अछि।
उपन्यास गाथाक विचित्र पात्र छथि बिजुली वा बिजो बिजुरी आ बिजुरिया सन
छद्म नामसँ विभूषित बिसेखी पासवानक कन्या “बिजली”। कौमार्यक आंगनमे प्रवेश करिते बिजलीकेँ गामक पंडित कुलमे जनमल कल्पनाथ
मिश्रसँ प्रेम भऽ जाइत अछि। कलपू मिसर विवाहित छथि मुदा पहिल प्रसव पीड़ाक
क्रममे हिनक कनियाँक देहान्त भऽ गेलनि। ऐ अनर्गल आ िनष्कर्ष रहित प्रेमक
आभास दलित समाजकेँ लागि जाइत अछि। फलत: रेलवेमे पेटमेन हीरालालसँ बिजलीक बिआह
कऽ देल गेल। रीति-प्रीति आरंभे कालसँ साहित्यक महत्वपूर्ण बिन्दु रहल छैक।
ओइ मार्गदर्शनपर आगाँ बढ़ैत ललित जी उपन्यासमे आकर्षणक सोमरस घोरबाक प्रयास करैत
ऐ विचित्र पात्राकेँ ऐमे समाहित कएलनि। दू-तीन बेरि पेटमेन हीरा लालक सानिध्यसँ
बिजली पड़ा कऽ गाम आबि गेलीह। मान-मनोबलक बाद फेर पतिक क्वाटरमे गयलाक बाद
कोयला सन धुरधुर घऽर आ बऽर नीक नै लगलनि। हीरा लालकेँ बिजलीक चरित्रक वास्तविकताक
भान भऽ जाइत अछि। पुरुष सभ किछु बर्दास्त कऽ सकैत अछि मुदा अपन दाराकेँ दोसर
पुरुषक सन आत्मिक वा दैहिक वरण पुरुषक लेल घोंटव असंभव। बिजलीक प्रति हीरा
लालक व्यवहार कर्कश भऽ जाइत अछि।
अंतिम
परिणति भेल जे बिजली सभ दिनक लेल नैहर आबि गेली। हीरा लाल पुनि आएल मुदा
ओकरा चरित्रपर खलनायिका बिजली लांछना लगेबाक लेल सरुपकेँ उत्साहित केलक। गामक
मानिजन अर्थात् जतिया राजा काी दासक अंतिम िनर्णय भेल जे बिजली आब हीरा लाल
संगे नै जेतीह। ओना समाजक सभ पंच एकमत छलाह जे बिजलीक पुर्नविवाह कराओल जाए, मुदा जखन रचनाकार मात्र उपन्यासक आकर्षक लेल ऐ चरित्रक िनर्माण कएने
छथि तँ क्रांतिक आश असंभव। कल्पनाथ मिश्र आ बिजलीक सिनेह पत्रहीन नग्न गाछ
जकाँ मानल जाए जकर अस्तित्व नै। एक दिस जखन सरूप पुछैत अछि बिजलीसँ-
“पाहुन
मोन पड़लौ की....?” तँ बिजलीक उत्तर दार्शनिक जकाँ भेटल तँ
दोसर दिस बिजली कलपू मिसर द्वारा दोहरि मोड़ि कऽ देबए काल बलजोरी शब्द सुनि
बजैत अछि- तोरा संग कुश्तम पटकममे डाँड़ तँ नै हएत हमरा....।
ई सिनेह
कोन तरहक मानल जाए ई िनर्णए करब सर्वथा असंभव।
उपन्यासगाथामे
कथाक्रमानुसारे विकराल वर्ग संघर्ष देखार होइत अछि। सर्वे एलाक बाद गरीबक जमीन
कागतपर तँ आपिस होइत अछि मुदा जंग बहादुर सिंह सन जमीन्दार दुसाध आ मुसहर
समाजकेँ जमीन देबाक लेल तैयार नै अछि। वर्ग संघर्ष करबाक लेल सरूप उद्यत भेल।
सरूपक दलमे जजाति कटबाक लेल गेनालाल सन माटिक पूत मात्र छल। जंग बहादुरक
हँसेरीदल लोहा सिंहक नेतृत्वमे सरूपपर हमला कऽ देलक। अनुजकेँ वचेबाक क्रममे
गेनमा मारल गेल। ऐ वर्ग संघर्षक अंत औचित्वहीन लगैत अछि। सन् 1965 ई.मे भारत
आजाद भऽ गेल छल। तखन दलित समाजक एकटा माटिक लाल सामन्तवादी तत्वक आगाँ लुप्त
भऽ गेल आ जंगबहादुर सन सामन्तीक ओइठाम पुलिस पहुँचल नै हएत...। ई अत्यन्त हास्यास्पद
लगैत अछि। जौं ऐ तरहक घटना भेलो हएत तैयो उपन्यासकारकेँ ऐमे क्रांति अनबाक
प्रयास करबाक छलनि। साम्यवादी लेखनीसँ िनकसल उपन्यासक अंश अत्यन्त िनर्बल
मानल जाए।
ऐ
घटनासँ पूर्व बिजलीक चरित्रपर आधात दुर्योधन सिंह सन सिपाही करैत अछि। ओकरा
सरूप काटि दैत अछि। पुत्रकेँ जेहलसँ बचएबाक लेल बिसेखी सभ दोख अपना ऊपर लऽ जहल
चलि जाइत अछि जइठाम संग्रहणी सन बेमारीसँ ओकर मृत्यु भऽ गेल।
बिसेखीक
चरित्रक काल-क्रमानुसार परिवर्त्तन उपन्यासक सबल पक्ष मानल जाए। पहिने जखन चोर
छल तँ ओकरा किछु नै भेल आ जखन किछु नै केलक तँ पुत्रमोह आ पारिवारिक मर्यादाक
कारणेँ सजा भेटल। बी.सी. कैरेक्टरक चोरसँ मुक्ति पाबए लेल कलक्टरक आगाँ सप्पत
खेने छल। ओइ सप्पत खेबामे घुरन दुसाध, मंडर पाण्डे, खख्खन जट्ट, रौदी खलीफा आ बुच्ची झा सन चोर सेहो
छल। उपन्यासकार द्वारा चोरक नाम चयन करबामे ई स्पष्ट भऽ गेल चोरक कोनो जाति नै
होइत छैक, समाजक अग्र आसन बैसैबला लोककेँ सेहो कुकर्मी
समाजमे स्थान छन्हि। ई उपन्यासकारक समन्वयवादी सोच मानल जाए।
आब बिसेखीक
परिवारमे पुरुष पात्रक रूपमे बचैत अछि- सरूप। सरूपकेँ ललित पृथ्वीपुत्र बनेबाक
कोनो अबसरि नै छोड़ैत छथि। ऐ उपन्यासक ओ वास्तविक नायक अछि। अपन पिताकेँ
चोरि नै करबाक सप्पत खाइत काल लड़खड़ाइत देखि ओ क्रोधित भऽ जाइत अछि। ओकरा
चोरि करब कथमपि पसिन्न नै। जंगबहादुरकेँ ललकारि जजाति काटि लेबाक उपक्रममे
शोषित समाजक ओ “क्रांतिवीर” बनि
जेबाक लेल उद्यत अछि। बहिनक आँचरपर दुर्योधन सिंह सन सिपाहीक हाथ देखि ओकर
हत्या कऽ केलक। सरूप कर्मवादी सत्पुरुष अछि। जाधरि बेनीकेँ सरूपक माय एकर अंक
नै लगलन्हि ताधरि ओइ भाउजमे सरूप मात्र श्रद्धापूर्वक मातृत्व रूप देखलक। ऐ
दलित समाजक आदरणीय पात्रकेँ ललित एकठाम कलंकी चरित्र बना देलनि। कल्पनाथ मिसरक
अनर्गल सिनेहसँ बँधलि बिजलीकेँ सरूप आत्मसात केना केलक। एकठाम भाउजिक विषक्त
हँसी आ व्यंग्यवाणसँ आकुल भऽ सरूप बिजलीपर क्रोध तँ करैत अछि मुदा सम्पूर्ण
उपन्यासमे कलपू मिसरक प्रसंगमे पृथ्वीपुत्र चुप्प रहि गेल। सिनेह कोनो अपराध
नै, कियो केकरोसँ कऽ सकैत अछि, मुदा
ऐ सिनेहक कोनो निष्कर्ष नै। सरूप सन सोझ मानसिकताक पुरुष ऐ अनर्गल सिनेहकेँ
केना समर्थन देलक। बिजली ठाम-ठाम औचित्यहीन सिनेही जकाँ बेनीसँ अपन प्रेमकेँ
सबलता प्रदान करबाक लेल निरर्थक संवाद करैत अछि। ऐसँ इहए प्रमाणित होइछ जे ऐ
नारीकेँ अपन माता-पिता आ भाइक मर्यादाक कोनो बोध नै। तखन एकठाम महान दार्शनिक
जकाँ बिजलीकेँ दृष्टि पटलपर राखब उपन्यासकारक अदूरदर्शिता छन्हि। जखन कलपू
मिसर अपन माइक राखल अभरन बिजलीकेँ पहिरबाक अनुरोध करैत अछि तँ ओ बजैत अछि जे-
“ओ
गहना पहिरब तँ हम जरि जाएब। जखन बिजली एतेक बुद्धिमती महिला अछि तँ अपन
मान-मर्यादा अपन बाप-पुरूखाक द्वारा बनाओल बेवस्था अर्थात् पाणिग्रहण संस्कार
द्वारा वरणेय हीरालालकेँ किअए छोड़ि देलक। ई निश्चित रूपे जातीय संकीर्णतासँ
बान्हल उपन्यासकारक व्यक्तिगत अनर्गल सोच छन्हि।”
जौं ऐ
उपन्यासमे वर्ग-संघर्ष देखाएब यथार्थबोध मानल जाए तैयो ऐमे कमजोरी अछि। वर्ग
संघर्षमे हत्या आ ओइ हत्याक बाद केनिहारकेँ कोनो सजा नै, अत्यन्त िनर्बल पक्ष थिक। कलपू मिसर आ बिजलीक िसनेहमे बिसेखीक परिवारक
कोनो तीक्ष्ण अवरोध नै देखाएब दलित समाजक चेतनापर आधात मानल जाए। समाजक कात लागल
वर्ग सवर्ण आ सामन्तवादी लग अपन घरक गणिकाकेँ परसि सकैत अछि... सर्वथा असंभव।
दलित समाजक नारीसँ सवर्ण समाजक पुरुष बेबाक गप्प तखने कऽ सकैत छथि जखन हुनक विचार
आ चरित्र विश्वसनीय हुअए। भऽ सकैत अछि बिजली सन कोनो विशेष नारी एहेन मानसिकता
रखैत छथि वा होथि मुदा परिवारक आन लोक ऐ तरहक िसनेहकेँ कथमपि नै स्वीकार करत।
जौं एकर अंत दुनूक बिआह देखा कऽ कएल जइतए तँ ई उपन्यास अवश्य दूरगामी होइतए।
अंर्तद्वन्द्वसँ भरल समाजसँ ललित कोनो अलग नै छथि तँए सभ सकारात्मकताक आश राखब
उचित नै।
एतेक तँ
निश्चित जे पृथ्वीपुत्र शिल्पमे बड़ नीक स्थान रखैत अछि। विम्ब कोनो विशेष
नै मुदा समाजक अंतिम वर्ग धरि पहुँचल तँए व्यापक मानल जाए। जितपुर मौजाक टोल
बबुरबन्नाक गाथा, मुदा टोलमे खएरक बोन बबूरसँ बेसी मुदा नाओं
बबुरबन्ना। वास्तविकता अछि सामर्थ्यवान लोक कम रहितौ पूजनीय होइत छथि, उपन्यासकारक दृष्टिकोण सम्यक् आ समन्वयवादी ऐठाम तँ अवश्य लगैत अछि।
भाषा ओ शैली गतिमान आ खाँटी ग्रामीण आंचलिक मैथिलीमे लिखल गेल जे ललितक योग्यताक
प्रत्यक्ष प्रमाण थिक। आाचार्य रमानाथ झाक ऐ मतसँ हम सहमति नै रखैत छी जे हास्य
रसक अभावमे पृथ्वीपुत्र झुझुआन लगैत अछि। जखन स्थिति कनबाक हुअए तँ हास्य
समागम संमव नै ऐ उपन्यासमे हास्य रसक समागम करब िनरर्थक होइतए।
ऐ पोथीक
सभसँ सकारात्मक पक्ष थिक समाजक यथार्थवादी बेवस्थाक मौलिक चित्रण। जाति-पातिमे
टुटल समाजक सत्यकेँ स्पष्ट देखबैत उपन्यासकार एकठाम एहेन साहस कऽ देलनि जे
संभवत: सबल समाजमे जनमल दोसर साहित्यकारसँ अवश्य असंभव होइतए। पृथ्वीपुत्र
पलायनवादक विरोध करैत अछि। जमीन्दार कृषिकार्य स्वयं नै करताह, मुदा जमीनक सकल उत्पाद आ स्वामित्व हिनके भेटनि, ऐ कटु सत्यसँ ललित विलग छथि। हिनक लेखनीसँ क्रांतिक सुगंध पसरल जे
जमीन ओकरे हएत जे एकरा जोतए। वास्तविकता सेहो छैक साम्यवादी बेवस्थामे कर्म
पुरुषकेँ कर्मक फल अवश्य भेटबाक चाही। जे संतान माए-बापक प्रति अपन कर्त्तव्य
पालन नै करए ओकरा मातृ-पितृ सिनेह मंगबाक कोनो अधिकार नै। अपन पसेनासँ माटि
कोरि जे मजूर धरतीकेँ बाँझ होएबासँ बचाबथि हुनके ऐ माटिक स्वामित्व भेटबाक
चाही।
जौं ऐ
प्रकारक सोचकेँ सबलता प्रदान कएल जाए तँ कृषि प्रधान देशमे अपन मौलिक कर्मसँ लोक
विमुख भऽ पड़ाइन नै करताह। प्राकृतिक संतुलनकेँ जीवन्त राखब सभक मौलिक
कर्त्तव्य थिक। ऐ तरहक साम्यवादी दृष्टिकोण मैथिली साहित्यकेँ अवश्य नव
दिशा देलक। िनष्कर्षत: पृथ्वीपुत्र किछु अर्न्तद्वन्द्वसँ भरल रहलाक बादो
मैथिली साहित्यमे नव चेतना भरबाक लेल अनुगामी उपन्यास मानल जाए।
२
मैथिली
कथा साहित्यक विकासमे राजकमलक योगदान :: शिवकुमार झा ‘टिल्लू’
सन्
1954 मे “अपराजिता” कथाक संग राजकमल जीक मैथिली
कथा साहित्य जगतमे प्रवेश भेल। हिनक मूल नाओं मनीन्द्र नारायण चौधरी छन्हि।
1929मे जनमल ऐ साहित्यकारक लेखनीसँ मैथिली साहित्यकेँ लगभग 36 गोट कथा भेटल।
मात्र 38 बरखक अपन जीवनकालमे राजकमल मैैथिली गद्य साहित्यकेँ किछु एहेन कृति
दऽ देलनि जइसँ प्रयोगकेँ बादक धरातलपर प्रतिष्ठित करबाक श्रेय साहित्यक
समालोचक लोकनि ऐ साहित्यकारकेँ िनर्विवाद रूपेँ दऽ रहल छथि।
हिनक
तीन गोट कथा संग्रह ललका पाग, एक आन्हर एक रोगाह आ “िनमोही बालम हम्मर” पुस्तकाकार प्रकाशित छन्हि।
एकर अतिरिक्त हिनक एक गोट पोथी “कृति राजकमलक” मैथिली अकादेमीसँ प्रकाशित भेल अछि जइमे 13 गोट कथा आ एकटा उपन्यास
आन्दोलन संकलित अछि। ओना कृतिराजकमलक छओ गोट कथा “ललका
पाग”मे सेहो छपल अछि।
रमानाथ
झाक मतेँ राजकमलक कथा मूल उद्देश्य मनोविश्लेषणात्मक प्रणालीसँ आरोपित मर्यादा
ओ आदर्शक पाछाँ नुकाएल आन्हरकेँ नाङट करब अछि। डॉ. डी.एन. झा सेहो ऐ मतसँ सहमत
छथि।
“ललका
पाग” कथा हिनक लिखल कथा सभमे अपन विशिष्ट स्थान रखैत
छन्हि। ऐ कथाकेँ मैथिली साहित्यक किछु श्रेष्ठ कथामे स्थान देब सर्वथा न्यायोचित
अछि। कथाक आरंभमे मैथिली स्त्रीक चिन्हबाक विश्लेषणमे कोनो अचरज नै। त्रिपुराक
तुलना जइ वर्गक मैथिल कन्याँसँ कएल गेल कथाक भूमिकामे ओइ वर्गक स्पष्ट उल्लेख
तँ नै कएल गेल मुदा ओ ब्राह्मण परिवारक कन्या छथि। अल्पायुमे पण्डित पिताक
मृत्युक पश्चात् तिरू अपन माइक संग गाममे रहैत छलीह। अग्रज झिंगुरनाथ बाहर धन
उपार्जन लेल चलि गेलाह। किछुए वर्षमे तिरू युवती वयसमे प्रवेश कऽ गेलीह।
दस-एगारह वर्षक बाद जखन झिंगुरनाथ अपन गाम घुरि अएलनि तँ मातृसिनेहक संग-संग
तिरूक हाथ पीअर करबाक जिम्मेदारीक आभास भेलनि। वास्तविकतो छैक जे जखन ई कथा
1955मे विदेह विशेषांकमे देल गेल ओइ कालकेँ के कहए वर्तमान समैमे सेहो अपना सबहक
समाजमे कन्याक जन्म कालहिसँ बियाहक चिन्ता अभिभावककेँ सतबए लगैत छन्हि।
तिरू तँ माघमे 14मे वर्षमे प्रवेश कऽ जेतीह। उद्देश्य जौं सार्थक हुअए तँ सफलता
निश्चित भेटबे करैत अछि। चण्डीपुरक राम सागर चौधरीक सुपुत्र राधाकान्तसँ स्व.
पण्डित टेकनाथ झाक पुत्री त्रिपुराक बियाह सम्पन्न भेल। सासुर आबि तिरू
कनेको स्तब्ध नै छथि किएक तँ जीवन शैलीक कोनो ज्ञाने नै छन्हि। अज्ञानतामे
बाड़ीक पछुआरमे पोखरि देखि अपन बेमात्र सासुसँ हेलबाक कलाक जिज्ञासा कएलनि।
यएह जिज्ञासा हुनक जीवनक लेल काल भऽ गेलनि। चननपुरवाली सासु भोरे-भोर समस्त
गाममे अफवाह पसारि देलखिन जे रातिमे नवकी कनियाँ पोखरिमे चुभकि रहल छलीह।
राधाकान्त ऐ घटनासँ मर्माहित भऽ गेलाह। आब प्रश्न उठैत अछि जे चननपुरवाली एना
किअए कएलीह? ओ अपन पितिऔत भाय डाॅ. शंभूनाथ मिसरक
सुपत्रीसँ राधाकान्तक बियाह करबए चाहैत छलीह। ऐठाम कथाकार कनेक चुकि गेल छथि।
ऐ उद्देश्यकेँ कतौ स्पष्ट नै कएल गेल। माए जौं अपन बेटाक बियाह आनठाम करबए
चाहैत छलीह तँ त्रिपुरासँ कोना भऽ गेलनि। जखन की चननपुरवाली परिवारक अभिभाविका
छलखिन। हुनक पतिक हुनकापर कोनो विशेष अनुशासन सेहो नै छलनि आ ने राधाकान्त
त्रिपुरासँ प्रेम बियाह केलखिन तँ कथानकमे एहेन परिवर्त्तनकेँ सोझे-सोझ आत्मसात्
करब कनेक कठिन लागि रहल अछि। गाममे तँ कूटनीति चलिते अछि किएक तँ छद्म रोजी
रोजगारपर बेरोजगारी भारी। तँए भोलामास्टर आ बंगट चौधरी सन परिवार विध्वंसक केँ
राधाकान्त सन संवेदनशील लोककेँ दोसर बियाह करबाक प्रेरणा देबएमे यथार्थ बोध होइत
अछि। ई सभ घटना चक्रसँ कथा रोचक होइत अछि। मुदा कथाकेँ आकर्षक बनेबाक क्रममे
राजकमल बिसरि गेलाह जे त्रिपुरा मात्र 13-14 वर्षक बालिका छथि। जखन पोखरिमे
चुभकबाक जिज्ञासा सासुरोमे छन्हि तखन सौतिन अएबाक संभावनाक मध्य अपन सकल
गृहस्थ कार्यमे कोना लागल रहलीह? एक दिस चंचल रूपक उद्बोधन
आ दोसरा रूपमे परिपक्व नारी, एकरा प्रयोगवाद तँ कहल जा
सकैत अछि मुदा प्रयोगात्मक रूप वास्तविकतासँ बहुत दूर अछि। राधाकान्त सेहो
शिक्षित छथि, मात्र अपन स्त्रीकेँ पोखरिमे स्नान करबाक
सजाक रूपेँ दोसर बियाह। ओना मिथिलामे पहिने गप्पे-गप्पमे बियाह करबाक इतिहास
रहल अछि परंच ऐ प्रकारक बियाहक कारण समीचीन नै लागल। अंतमे अपन बियाह कालक राखल
ललका पाग जखन त्रिपुरा राधाकान्तकेँ दोसर बियाहक लेल प्रस्थानकालमे दैत छथिन
तँ राधाकान्तक हृदए परिवर्तन भऽ जाइत अछि आ पहिलुक ललका पागक मर्यादा रखबाक
लेल ओ चुप्प भऽ आंगनमे आबि कुर्सीपर बैस जाइत छथि। एहू घटनकाक्रममे कथा वास्तविकतासँ
बेसी कल्पवृक्षक पुष्प प्रतीत होइत अछि। जे राधाकान्त मात्र पोखरि स्नानक
दंडमे त्रिपुरासँ नारीक अधिकार छीनि लेबाक िनर्णए केलनि ओ अंगुलिमाल जकाँ
क्षणहिमे कोना बदलि गेलाह। ई ध्रुव सत्य अछि जे मैथिल ब्राह्मण परिवारमे
ललका पागक स्थान विशेष छैक आ ओइ पागकेँ सहेजि कऽ त्रिपुरा धएने छलीह। भगवत
परीक्षा जकाँ सौतिन अनबाक लेल पतिक हाथमे पाग देबाक िनर्णएमे अंगुलिमाल रूपी
राधाकान्तकेँ बुद्धसँ दर्शन भेलनि। जौं एकरा संभवो मानल जाए तैयो कनेक कमी ई जे
राधाकान्त त्रिपुराक तुलनामे कामाख्या दाइक संस्कारकेँ सोचि-विचारि विशिष्ट
मानि दोसर बियाह करबाक िनर्णए कएलनि। कोनो क्षणहिमे नै। ऐ बियाहक सूत्रधार
हुनक बेमात्र माए छलथिन। चननपुरवालीकेँ अछैत राधाकान्त माथपर बिनु पाग धएने
कोना विदा भऽ रहल छलाह, ई तँ सद्य: कथाक बहुत कमजोर पक्ष
अछि।
भाषा विज्ञानक
आधारपर जौं मूल्यांकन कएल जाए तँ कथाकार परम्परावादी मैथिल साहित्यकार जकाँ
गद्यकेँ अधोषित श्रृंगारक रूप देबाक प्रयास कएलनि।
तिरूक
तुलना वाण भट्टक श्यामांगी नायिकासँ करए काल ई उद्देश्य स्पष्ट भऽ जाइत अछि।
मुदा जखन लिखैत छथि जे “मिथिलाक छौड़ी सभ अहिना कनैत अछि।” तँ स्पष्ट भऽ जाइत छन्हि आत्मिक रूपसँ किछु आर कहए चाहैत छथि।
ऐठाम छौड़ीक स्थानपर ‘कन्या‘ शब्दक
प्रयोग सेहो कएल जा सकैत छल जे बेसी नीक लगितए। कामाख्या दाइक विषयमे राधाकान्तक
मौन सिनेहमे पिआ आ आ जाऽ....... लिखबाक उद्देश्य स्पष्ट नै भऽ सकल।
ई सत्य
अछि जे राजकमल मैथिलीक संग-संग हिन्दीमे सेहो लिखैत छलाह, मुदा हिन्दीक प्रति झॉपल सिनेह मैथिली कथामे परिलक्षित भऽ गेल। ई
मैथिली साहित्यक लेल दुर्भाग्यक गप्प जे ऐ भाषाकेँ दुभाषी रचनाकार मात्र अपन
नाओं-गाओंक लेल हथियार बनेलनि मातृभाषा सिनेहसँ साहित्यिक रचनाक कोनो संबंध
नै। ओना ऐ प्रकारक कथ्य यात्री आ आरसीक रचनामे नै भेटैत अछि। कथोपकथनमे विरोधाभास
देखलाक बादो एकरा नीक रचना मानल जा सकैछ किएक तँ कथा बड्ड आकर्षक छन्हि। जौं बिम्बक
विश्लेषणकेँ शिल्पक रूपमे देखल जाए तँ राजकमलजी स्थापित शिल्पी छथि ई ललका
पाग प्रकट भऽ गेल।
दमयन्ती
हरण- ‘दमयन्ती हरण’ भरल सभामे कोनो विवश
नारीक चिर-हरणक वृत्ति चित्र नै। ई तँ समाजक पाग-चानन- ठोपधारी किछु कथाकथिक
भलमानुषक वास्तविक झाॅपल चरित्रकेँ नाङट करबाक कथा थिक। कथा नायिका छथि
तेइस-चौबीस बरखक- दमयन्ती दुलरैतिन दम्मो अथवा समाजक कोप भाजन बनलि दमिआँ। ऐ
नायिकाकेँ गामक रक्षक लोकनि खलनायिका बना देलनि, जे
दोसरक शोषण तँ नै करैत अछि मुदा अपन चरित्र हनन कऽ ग्राम्य समाजकेँ विगलित कऽ
रहलीह जे कोनो अर्थमे उचित नै। ऐ लेल दोष ककरा देल जाए?
सामर्थ्यहीन मायकेँ वा ओहि समाजकेँ जकर छाहरिमे नेनपनसँ सोझे अग्राह्य नारीक
अवस्थामे प्रवेश कऽ गेली- दमियाँ।
मिथिला
समाजक वर्णन कोनो कवितामे जतेक घृतगन्धा हुअए मुदा ई अक्षरश: सत्य अछि जे जइ
समैमे ई कथा लिखल गेल ओइ समैमे परीक्षा समाप्ति आ नव कक्षामे प्रवेशक मध्यक
समय छात्रक लेल मस्ताएल साँढ़सँ बेशी किछु नै छल। जौं रहितए तँ फूलबाबू
रामपुरमे किअए बौआइत रहितथि। “फूल भैया ओइपार जएबह?” वेदव्यासक मत्स्यगंधा इत्यादि संवादसँ नारी विमर्शक विह्वल रूप
प्रदर्शित होइत छैक। कथाकार तँ कथाक प्रारंभेमे अवश्ये ई निश्चय केने हेताह की
कथा नायिकाकेँ वैश्याक रूपमे प्रदर्शित कऽ कथाक इतिश्री कएल जाए। मुदा आदर्शवादी
विचारधारासँ एकटा वैश्याक भूमिका वॉधव बड़ कठिन कार्य भेल हएत। शनै:-शनै: ‘गाड़ीमे भीख मांगैत छौड़ी’ सदृश दमयन्तीक रूपक विश्लेषणमे
नारी जातिक अपमानसँ बेशी समाजक कटु सत्य इजोतमे आबि गेल।
स्वेच्छासँ
अमर्यादित आचरणक आवरणमे दमियाँ नै गेलीह। ‘हे महादेव, चारिदिनसँ हमरा ऑगनमे चूल्हा नहि जरल अछि’ सन
संवादसँ ई परिलक्षित होइत छैक।
गूढ़
मंथन कएलासँ कथामे किछु विशेष नै।
अपन
बेटीक भरण-पोषणक लेल देह व्यापारकेँ केन्द्र विन्दु बना कऽ लिखल गेल कथामे
कोनो सम्यक समाज विमर्श नै। कोनो आदर्श पथ नै मात्र पथभ्रष्ट समाजकेँ पाठक धरि
परसल गेल। यायावरी जीवन चक्रमे घुमैत जयद्रथ आ कथाकारक संवाद कोनो समाजक लेल आदर्श
प्रस्तुत नै कएलाक। देलक तँ समाजकेँ ई संदेश जे जौं कोनो अवला मिथिलाक गाममे
रामबाबू सन दु:खिता पतिताक कथाकथिक रक्षक लग अपन आत्मरक्षाक ऑचर पसारतीह तँ ओ
ऑचर खींच लेबामे कोनो संकोच नै करतथि।
’मायसँ
कोन काज अछि’- नायिका कथाकारकेँ देखि हुनको ग्राहके
बुझली। ई कोनो भ्रम नै। अस्तित्व विहीन नारी लग देहलोलुपे मनुक्ख पहुँचैत छथि।
‘हम
स्त्री नै छी, फूल भैया। हम तँ माटिक फूटलि हाँड़ी छी।
हमरापर दया करबाक कोनो प्रयोजन नहि’- मर्माहित करबाक लेल
चेतनाशील मनुक्खकेँ ई वाक्य भारी पड़त। छप्पन बरख पूर्व ई कथा लिखल गेल। ओइ
समैमे समाजक ई दशा छल? तखन तँ वर्त्तमानकालक जीवन शैलीकेँ
दोष देब उचित नै। जखन जड़िए पथभ्रष्ट तँ छीपक विषयमे नीक कल्पना करब सेहो
भ्रामक अछि।
सम्पूर्ण
कथामे झाजी आ चौधरीजी, मात्र पंचैती कालमे स्कूलक प्रधानाध्यापक
यादवजी आ एकठाम खबास कुंजा धानुक अन्य वर्गक पात्र छथि। तखन ‘ब्रह्मो जानति ब्राहण:’ कोना कलियुगमे प्रासंगिक
मानल जाए। समाजमे नीति शिक्षाक आचार्य जौं कुनीतिक प्रधानाचार्य भऽ जाथि तँ व्यवस्थे
चौपट्ट किएक नै हएत।
बेर-बेर
जखन-जखन नारी वा शूद्रक चर्च होइत अछि तँ तुलसीदासक ‘ढोल
गॅवार शूद्र पशु नारीक’ उद्धरण देल जाइत अछि। महाकाव्यक
रचनामे कोनो विशेष पात्रक मुखसँ निकसल ऐ वाणी द्वारा मानस पुरुषक चरित्र हनन
कएल जाइत अछि।
चौधरीजी
बजलाह ‘घोर कलियुग आबि गेल अछि तुलसीदास ठीके लिखने छथि...’
ई उचित नै लागल। तुलसीदास तँ एकठाम लिखने छथि जे ‘धीरज धर्म मित्र अरू नारी, आफत काल परेखहुँ चारी’
एकर उल्लेख किएक नै कएल जाइत छैक? ओना ऐ
कथामे नारी आ धर्ममे सहचरी बनेबाक कोनो गुंजाइश नै छल। मुदा तुलसीक विषयमे लिखबाक
काल ई धियान रखबाक चाही जे रामचरित मानस जनभाषाक कृति अछि जइसँ सम्पूर्ण हिन्दू
संस्कृति प्रभावित भऽ रहल, कोनो विशेष जातिक आधिकारिक
भाषा संस्कृतिमे लिखल नै गेल। तँए बाल्मिकि रामायणसँ बेशी पाठक धरि एकर
पहुँच रहल।
कथाक बिम्ब
विश्लेषण रूचिगर लागल, जे राजकमलक विशेष कथा लिखबाक कलाक परिणाम
मानल जाए। हिनक कथामे कोनो हास्य समागम नै रहितहुँ जनप्रिय रहल। तकर मौलिक
कारण थिक गद्य काव्यात्मक विश्लेषण। वाणिज्यक छात्र रहितहुँ राजकमल अंकगणितीय
वा सांख्यिक लेखा जोखामे नै पड़लाह किएक तँ ‘आशुकथाकार’
छथि। कथाक अंतमे वएह पंचैतीक िनर्णए जे हमरा सबहक समाजक व्याधि
छल। कानूनकेँ चुनौती देबाक लेल पंच परमेश्वर बनि किछु लोक पान चिबा कऽ इतिश्री
कऽ रहल छलाह। वर्त्तमान समैमे ई संभव नै छैक किएक तँ मनुख सेहो ‘चेतनाशील भऽ रहल आ प्रजातंत्र दीर्घ सूत्री समाजक पागधारीसँ भरिगर भऽ
गेल। मुदा अंतमे कथाकार बिसरि जाइत छथि आ मत्स्यगंधाक हँसी प्रश्ने रहि
गेल। राजकमलक प्रश्नसँ कथाक इतिश्री करब पाठककेँ भ्रमित कऽ दैत अछि, मुदा रूचिपूर्ण। िनर्णए तँ हमरा सबहक समाजमे ओझराएले रहि गेल छल तँए
संभवत: प्रश्नेसँ कथाक इतिश्री कएल गेल भऽ सकैत अछि कथाकार कथाकेँ रोचक बनेबाक
लेल पाठक धरि प्रश्न छोड़ि कथाक इतिश्री करब उचित बुझैत होथि। जौं ई सत्य तँ
एकरा मैथिली साहित्यक लेल दुर्भाग्यशाली मानल जाए, किएक
तँ न्यायाधिशकेँ िनर्णए ओझरा क’ न्यायक कुर्सीपर सँ
उतरलाक बाद बेवस्था चौपट हएब स्वभाविक छैक।
अाकाश
गंगा- मैथिली साहित्यक संग सदिखन ई भ्रांति रहल जे जौं कोनो साहित्यकारक एक
गोट कृति साहित्यकेँ आर सुवासित कऽ देने अछि तँ आगाँक रचनामे कथ्य ओ शिल्पसँ
बेशी कथाकारक नाओं मूल्यांकनक केन्द्र बिन्दु भऽ जाइछ। ऐ अर्न्तद्वन्द्वसँ
राजकमल सेहो नै अछोप रहलाहेँ। ‘आकाश गंगा’ श्रैगांरिक
बिन्दुकेँ स्पर्श करैत समाजक अर्न्तव्यथाक चित्रण करबामे सफल कथा थिक,
ऐमे कोनो संदेह नै। मुदा जौं अंत:करणसँ अवलोकन कएल जाए तँ ‘बऽर दुआरिपर उतरल नहि की छींकक ध्वनि’ जकाँ कथाक
प्रारंभे छायावादी शैलीमे कएल गेल। ‘विवेकानन्द चौधरी नहि
मिथ्या कहलहुँ, आब जमीन्दार नहि साधारण नागरिक। नागरिको
नहि साधारण ग्रामीण’ सन शब्दकोशसँ वाक्य बनाएब अप्रासंगिक
मानल जाए। कथाकार स्वयं दृग्भ्रमित तँ नै छथि किएक तँ हिनक प्रतिभापर संदेह
नै। तखन पाठककेँ दृग्भ्रमित करबाक उद्देश्य स्पष्ट नै। कथाकारकेँ एकबेर स्पष्ट
कऽ देबाक चाही जे विवेकानंद की छथि? जौं ई काव्य रहितए तँ
क्षम्य छल, मुदा कथाक ऐ रूपकेँ की मानल जाए? सचार तखने नीक लगैत छैक जखन मूल खाद्य पदार्थ अक्षत हुए। मड़ुआक संग गाही
साग तरकारी परसबाक बादो भोजनमे विशेष स्वाद नै भेटत। कथोपकथनपर शिल्पक भार एक
निश्चित सीमाने तक शोभायमान लगैछ। विवेकानंद चौधरीक अपन अर्द्धांगिनी मदालसासँ
संबंध समाप्त भऽ गेलनि। विवेकानन्द अपन बेटी अन्नपूर्णा संग रहए लगलाह। एकटा
जमीन्दारक बेटी अन्नपूर्णा पितृ आशाक विपरीत गरीब बालक राधाकान्तक संग विआह
कऽ लैत छथि। बाप-बेटीक संबंध समाप्त भऽ गेलनि। कालान्तरमे बेटी अन्नपूर्णा एक
बालक अशोकक माए भऽ गेलीह। पतिक देहावसानक बाद दरिद्रासँ लड़ैत माय अन्नपूर्णाक
चरित्र चित्रणमे कथाकारक सबल दृष्टिकोण झलकैत अछि। नारी-विमर्शक दृष्टिसँ
कथा रोचक मुदा नारीक जीवन दशा समाजमे उदासी छैक, ई प्रमाणित
करब उचित मुदा अगिला पीढ़ीक लेल उदासीन तँए रचनाकारकेँ ऐमे परिवर्त्तन करबाक
चाही छल। अंतमे विवेकानन्दक हृदए पझिजैत अछि आ ओ बेटीक विदागरीक लेल उद्यत भऽ
जाइत छथि। ललका पाग जकाँ अहू कथामे परिणाम स्पष्ट नै भऽ सकल। श्रैंगारिक
जीवनक परिधिमे घुमैत कथा परिणाम विहीन, एेसँ एकरा
कथाकारक पलायनवादी वैरागी प्रवृत्तिक द्योतक मानल जा सकैत अछि।
कादम्बरी
उपकथा- वैधव्य जीवनक अविरल चित्रणसँ भरल ऐ कथामे नायिका ‘कादम्बरी’
विधवा छथि। पति विश्वनाथक मरलाक बाद नैहर चलि जाइत छथि। किछु
दिनक बाद देओर दुखित भऽ गेलखिन तखन सासुर आबि गेलीह। सासुरक लोकक कल्पना छल
जे कादम्बरी ब्राह्मण संस्कृतिक अनुकूल श्वेत वस्त्र धारिणी अवला बनि
अएलीह। मुदा सौन्दर्य सुन्नरि कादम्बरी अंग-वस्त्रसँ विपदा-मारलि नै अएलीह।
फेर धमगिज्जरि। अपन केओ नै किएक तँ जीवनक एक पहिया धसि गेल छलनि। तँए ने
दोसरक नेनामे शिक्षाक दिव्य संस्कार जगएबाक क्रममे परिहासक पात्र भऽ गेलीह।
गायत्री देवी छोट दिआदिनी छलीह। शिक्षित नारी कादम्बरीक महत नेना-सभक मध्य
बेसी छल। किएक तँ हुनकामे संतानहीन रहितो मातृत्व छलनि। नेना आ मूक पालतू पशु
सिनेहक भुक्खल होइत अछि। ई सभ गायत्रीकेँ सोहाइत नै छलनि। अपना तँ ऊक देबाक
लेल एकटा अल्लुओ पेटसँ नै उखड़लनि’ गायत्रीक ऐ प्रतिघातसँ
कादम्बरी पाषाण भऽ गेलीह। आङनक पाठशाला बन्न कऽ देलखिन किएक तँ गायत्रीक छोटकी
बेटी निरमलाक मृत्यु भेलापर ‘डाइन’ शब्दसँ
सेहो विभूषित कएल गेलीह। जखन की निरमला सर्प दंशसँ जहान छोड़ि विदा भेलीह।
कथाक अंतिम
चक्र बड़ नीक अछि। लुब्धा खबासक स्त्री प्रसव पीड़ासँ व्यथित कादम्बरीक
आङनमे छटपटाइत छथि। एकटा गरीब समाजक कात लागल वर्गक नारीक व्यथा कादम्बरीकेँ
कर्त्तव्य परायणताक भावुक प्रवाहमे लऽ गेलनि। हास-परिहास आ परितापक भयसँ मुक्त
भऽ ओइ
नारीक संग-संग संसारमे आबए बला नेनाक लेल भगवतीसँ छागर कबुला केलखिन। जखन ई गप्प
बादमे गायत्री कादम्बरीक मुखसँ सुनलनि तँ प्रायश्चितमे अश्रुकण बाहर भऽ गेलनि।
ग्लानि भरल समाजक वैधव्य जीवनक वृति चित्र अंतमे सिनेहसँ समाप्त भेल।
आकर्षणमे
कथा चुम्बकीय प्रभाव जकाँ पाठककेँ झपटि लैत अछि, मुदा की समाजक ऐ
अनिश्चयवादी बेवस्थाकेँ ‘नारी-विमर्शक’ दृष्टिसँ उचित मानल जाए। जइ कालमे ई कथा लिखल गेल, भारतवर्षमे सेहो धर्म सुधार आन्दोलन भऽ रहल छल, मुदा
मैथिल ब्राह्मण समाज ओहिकालकेँ के कहए एखन धरि ‘वैधव्य
जीवन’सँ मुक्तिक आन्दोलनकेँ जाति-संस्कार विरोधी मानैत
अछि। ऐ मतेँ ई कथा लिखब कोनो अनुचित नै। मुदा प्रयोगधर्मिताक रूपेँ जौं धियान
देल जाए तँ राजकमल क्रांतिदूत भऽ सकैत छलाह। परिणाम मिश्रित देखा सकैत छलथि
परंच ‘कादम्बरी’केँ रूढ़िवादितासँ
मुक्ति करबाक प्रयास कथाकारकेँ ओइ शिखरपर स्थापित कऽ सकैत छल जतए धरि मैथिली
साहित्य एखन तक नै पहुँचल अछि।
निष्कर्षत:
व्यवस्था फेर नाङट भेल से उचित किएक तँ संकीर्ण मानसिकताक समाजक मध्य ई कथा
घुमैत अछि।
घड़ी-
कथा साहित्यमे रचनाकारक संग-संग समीक्षक लोकनि सेहो बिम्ब ओ शिल्पकेँ कथाक
सचार मानैत छथिन। हमर मत ऐ रूपेँ कनेक विलग अछि। कोनो रचनाकेँ पढ़लाक बाद ओकर
मूल्यांकन हेतु जे मौलिक तत्व होइछ ओ थिक रचनाकारक दृष्टिकोण। जेना स्वस्थ
व्यक्तिक सम्मिलनसँ स्वस्थ परिवार आ समाजक िनर्माण होइत अछि ठीक ओहिना
जौं रचनाकारक दृष्टिकोण समाजपयोगी हुअनि तँ रचनाक सार्थकता सत्य प्रमाणित भऽ
जाइछ।
’घड़ी’
शीर्षक कथाक बिम्ब चलन्त जेकरा सामान्य शब्दमे चालू कहल जाइत
अछि। शिल्प आवृतिसँ भरल अर्थात् परिवर्त्तनशील आ दृष्टिकोण आश्चर्यजनक
रूपसँ समाजक लेल कलुष अछि। नाओंसँ प्रथम दृष्टिए बुझना जाइछ जे ‘घड़ी’ अर्थात् समाजमे कालक प्रहरी मुदा अन्तरावलोकनक
बाद काल प्रहरी घड़ी समाजमे अकालक सार्थकता सिद्ध कऽ रहलैक। अकाल माने जे ने उचित
मानल जाए तकर व्याख्या, ओहूमे अनैतिक संबंधक केन्द्र बिन्दु
बना कऽ लिखल गेल कथामे कथाकार सेहो अनैतिक नायककेँ संग दैत छथिन।
रजनीकान्त
प्राध्यापक बनि पटनामे रहैत छथिन। पत्नी चन्द्रमुखी आ पाँच सन्तानक संग-संग
एकटा विधवा शिक्षिका मौसी उर्मिला हिनक परिवारक सदस्या थिकीह। टकाक ओ
ओछौनपर सूतनिहार रजनीकान्तकेँ ‘घड़ी’सँ कोनो
प्रेम नै। ‘घड़ी’ नामक यंत्रसँ
रजनीकान्त घृणा करैत छथि। ई बात पटना नगरमे मैथिल समाजक सभ लेाककेँ बुझल छैक। ई
लिखबाक प्रयोजन आ प्रमाणिकतापर संदेह होइत अछि जौं शिल्पक आधारपर उचित मानलो
जाए तँ एकर प्राथमिकता पूर्णत: असत्य हएत। काल्पनिक कथामे सेहो ऐ तरहक शब्द
वा वाक्य नै लिखबाक चाही। “मैथिल समाजक सभ लोक”मे पटनामे रहनिहार सम्पूर्ण मैथिलकेँ केन्द्रित कऽ कऽ 1965 मे ई कथा
लिखल गेल। रजनीकांत कोनो भारतीय सिनेमा जगतक प्रसिद्ध कलाकार नै छथि आ ने
महात्मा गाँधी सन राष्ट्रक सेवक एकटा प्रोफेसरकेँ सभ लोक कोना जानि सकैत अछि? मैथिल समाजमे अमीरक संग-संग गरीब लोक सेहो छथि। तत्कालीन पटनामे समाजक
किछु लोक मोटिया, रिक्शा चालक जूता पॉलिश केनिहार सेहो
हेताह हुनका रजनीकान्तसँ केना परिचय? खैर प्रयोगवादी
राजकमलक ऐ कृत्यकेँ मैथिली भाषामे क्षम्य कऽ देल गेल जे साहित्यक
अदूरदर्शिताक परिचायक थिक।
कथा
कोनो विशेष बिम्ब नै रखने अछि। कथाकार स्वयं ऐमे सहनायक छथि। मैथिल समाजक
मुसलमान जातिक पात्र अमजद मियाँ अपन नवयुवती पत्नी जहूरनक इलाजक लेल पटना अबैत
छथि। चूड़ीक व्यापारी अमजद कथाकारपर विश्वसनीयता रखैत हिनकेसँ सहयोग लैत छथिन।
“एक रिक्शापर हम आ जहूरनी आ दोसर रिक्शापर अमजद अली आ रत्नेश झा कम्पाउन्डर
आ दुसधा खबास अस्पतालसँ घुरैत छलहुँ।” ऐ प्रकारक संवादमे
कथाकारक दृष्टिकोण पूर्णत: स्पष्ट भऽ गेल अछि। कोनो पुरुष ओहिकालमे कथमपि
नै स्वीकार कऽ सकैत छल जे अोकर कनियाँ पर-परुषक संग वैसए जौं एना कएलो गेल तँ
एकर परिणाम अनर्गल साबित भेल। कालान्तरमे वएह जहूरन प्रो. रजनीकान्तक संग
अबैत-अबैत हुनक प्रेमालाप मे ओझरा गेलीह। ओइ प्रेमालापकेँ कथाकार समर्थन तँ नै
कएलनि मुदा गबाह अवश्य भऽ गेलखिन। अनर्गल प्रेमकेँ प्रकाशित कएलनि मुदा प्रो.
साहेवक कनियाँसँ एकरा नुका कऽ रखलनि। मित्रक ई कर्त्तव्य होइत अछि जे अपन मित्रकेँ
कुमार्गसँ रोकथि। जौं नै रोकि सकलाह तँ स्वयं संग छोड़ि देबाक चाहियनि छल।
राजा बलि वचनक रक्षाक लेल जखन गुरुक संग छोड़ि देने छलथि तँ राजकमल एक कुकर्मी
मित्रक कुकर्मक भागी कोना बनबाक लेल तैयार छथि? ई घटना
मात्र कथाक, मुदा कथोमे ऐ प्रकारक भ्रांति उत्पन्न करब
सर्वथा अनुचित मानल जाए। ‘दुसधा खबास’ लिखब उचित नै जौं हम दोसरकेँ इज्जति नै देब तँ ‘बाभन’
शब्द सुनबामे किएक क्षोभ होइत अछि? अंतमे
रजनीकान्त अपन सत्य पथपर पुन: आबि जाइत छथि। ‘घड़ी’
तँ कीनि लेलथि मुदा ई घड़ी जहूरनीक चरित्र आ चन्द्रमुखीक विश्वासकेँ
केना घुराएत?
ब्रह्माण्डशास्त्री,
दार्शनिकसँ लऽ कऽ भौतिकीय गणकक दृष्टिकोणमे चुम्बकीय आकर्षण विपरीत ध्रुवक
मध्य होइत छैक। जीवन धर्ममे नर-नारी संग रहितो विपरीत किएक तँ शारीरिक
संरचनासँ सृजनक माध्यममे अन्तर होइछ। स्वाभाविक छैक जे साहित्यकार ऐ गृहस्थ
आश्रममे प्रवेश करैत रचनाक बिम्ब तैयार करैत अछि। तँए कोनो साहित्यक आदि कालमे
मौलिक विमर्श भक्ति आ श्रृंगार रहल। राजकमल जीक पदार्पण मैथिली साहित्यक
आधुनिक कालमे भेलनि मुदा ताधरिक कथा जगतमे अपन भाषाकेँ कृषकाय मानल जाए।
अपेक्षाकृत राजकमल युवा सेहो रहथि तँए सौन्दर्य आकर्षण पनकब कोनो असहज नै।
अपराजिता कथा हिनक पहिलुक रचना छन्हि जे वैदेहीक अक्टूवर 1954 अंकमे प्रकाशित
भेल रहए।
जेना
नाओंसँ स्पष्ट अछि “अपराजिता” जे स्त्री
पराजित नै भेल हुअए मुदा ऐठाम कोनो मण्डन मिश्रक भारतीक उल्लेख नै। कथाकारक मित्र
नागदत्तक कनियाँ छथि- अपराजिता। एकर अर्थ कथमपि नै जे ओ नागदत्तपर विशेषाधिकार
रखैत छलीह। सिनेहसँ राखल नाओं आ अधिकारक दृष्टकोणमे व्यापक अंतर होइत छैक। तँए
कथाकारकेँ ई नाओं अनसोहाँत लगैत छन्हि।
मिथिला
क्षेत्र एखन धरि प्राकृतिक विपदा बाढ़िक कोपभाजिता बनैत रहलीह। सन् 1954मे स्थिति
तँ आर फराक छल। “सरिपहुँ... बागमती, कमला,
बलान, गण्डक आ खास कऽ कोसी तँ अपराजिता अछि
ने। ककरो सामर्थ्य नै जे एकरा पराजित कऽ सकए” ....ऐ कथांशक
द्वारा कथाकार कोनो बातसँ मुक्तिक आश नै रखने छथि, हिआसँ
भऽ सकैछ जे रखने होिथ मुदा कथाक दृष्टिकोण बेछप्प मानल जाए।
कथाकारकेँ
कथामे तँ अवश्य पीड़ा भऽ रहलनि जे जे वेदमे नदीकेँ मनुक्खक सेविका कहलकैक अछि।
मनुक्खक पत्नी कहलकैक अछि... मुदा, बहुओ भऽ कऽ कोसी आ
वागमती अपराजिता छथि।
एक दिस
बाढ़िक उजैहियासँ पसरल अधोगतिकेँ देखि कथाकार व्यथित छथि तँ दोसर दिस मििथलाक
परम सत्यकेँ उधार कऽ रहलाह। सम्पूर्ण भारत-वर्षक अधिकांश भूभागमे नारी-जीवन सोझ
विचार रखनिहार लोकक लेल चिन्ताक विषय रहल। राजकमलक कथा सभमे सम्पूर्ण भारत
वर्षक उल्लेख नै आ ने मिािलाक सम्पूर्ण समाजक िहनक कथा प्रतिनिधित्व करैत
छन्हि। मूलत: मैथिल ब्राह्मण परिवारकेँ केन्द्र बिन्दु बना कऽ लिखल गेल हिनक
“अपराजिता” शिक्षित मैथिल परिवारक नारी जकरा पति
रहितौं अवला कहल जा सकैछ केर स्थितिक वास्तविक विवेचक थिक। ओना ऐ कथामे
कतौ नारी शोषित अथवा दोहनक प्रत्यक्षत: उल्लेख नै। सम्पूर्ण कथा “द
वनिर्ग ट्रेन” जकाँ रेलगाड़ीसँ प्रारंभ भऽ समस्तीपुर आ
दड़िभंगाक बीच पटरीक मध्य झुलैत अछि। समस्तीपुरसँ मुक्तापुर होइत हायाधाट धरि
बाढ़िक प्रकोपक मध्य प्रारंभ भेल कथामे रेल पटरीपर पानि आबि जयबाक कारण यात्री
सबहक परेशानी कथा मूल बिम्ब थिक। बिम्ब कोनो विशेष अर्थक नै मुदा शिल्प
जोरगर तँए कथा किछु हद धरि रोचक भऽ गेल।
प्राय:
मैथिली कथाकारक संग समस्या रहल जे कथा लिखबाक उद्देश्य बहुत ठाम स्पष्ट नै
होइत अछि। राजकमलक अपराजिता सेहो इएह प्रकारक कथा मानल जाए। हमरा सबहक समाजक नकारात्मक
स्वरूपकेँ ऐ कथामे नांगट तँ खूब नीक जकाँ कएल गेल मुदा की मात्र नांगट कएने समस्याक
निदान संभव छैक?
ऐ कथामे
तँ ई प्रमाणित होइत छैक जे साहित्य समाजक दर्पण मुदा भांगल दर्पणमे कांति
देखलासँ कांति सेहो स्पष्टत: नै देखाएत आ आँखिपर असर पड़ब सेहो अवश्यांभावी
तँ कथाकार पाठककेँ ऐ कथासँ पूर्णत: प्रभावित कएलनि ई कहब सर्वथा अनुचित।
“फुलपरास
वाली” कथा नारी प्रधान कथा थिक जकर नायिका छथि। विलट भाय
पटनामे रहि रिक्शा चलबैत छथिन्ह। एकटा पंडितक पुत्र भऽ रिक्शा हाँकब कथाकारक
अर्द्धांगिनी शशिकेँ नीक नै लगैत छन्हि। शारीरिक श्रमक अभ्यास नै रहलासँ
जीवन दुष्कर भ’ जाइछ छै। शशिकेँ ऐसँ बेसी खटकैत छन्हि जे
विलट भाय हुनक भैंसुर छथि। पंडित चन्द्रकांत झा वेदान्तक पुत्र विलट झा रिक्शा
चएलबाक कर्मकेँ अनुचित नै मानैत छथि। मनुक्ख कर्मशील भऽ अपन पेट पोसए तँ कोनो
हर्ज नै। पैतृक ठाठ-बाठक घंटी डोलेलासँ पेट तँ नै भरि सकैत अछि। श्रमजीवी श्रमसँ
पेट भरि सकैत अछि मुदा जौं शरीर अस्वस्थ भऽ जाए तँ जीवन चलाएब नितांत असहज भऽ
जाइत छैक।
विलट
भाइ बेमार पड़ि जाइत छथि जिनका देखबाक लेल कनियाँ अर्थात् फुलपरास वाली पटना
अबैत छथि। विलट भाइक ज्वर तँ शांत भऽ जाइत छन्हि मुदा एकटा ज्वार बढ़ि
गेलनि ओ थिक सुरा पान। कहियो पीबि कऽ नाली खसैत छथि तँ कहियो घर आबि
गुड़कैत छथि। कथाकार अर्थात मणि बाबू आ हुनक कनियाँ शशिकेँ ई सभ बड़ अनसोहाँत
लगलनि। बिलट कर्मोपदेश दैत छलाह जे कोनो काज कऽ कऽ जीवन यापान करब अनुचित नै।
मुदा आब ताड़ी-दारूपर उतरि गेल छथि। एतबे नै एक दिन अपन संग फुलपरास वालीकेँ सिनेमा
देखबए लऽ जाइत छथि जइठाम मीनाक्षी अर्थात् फुलपरासवालीक हाथ विलट भाइक एकटा लुच्चा
मिऋ पकड़ि लैत अछि।
बादमे
बिलट अपन अधलाह कर्मपर प्रयश्चित सेहो करैत छथि। ऐ बीच कथाकार कथानककेँ थोड़े
मोरि दैत छथि। फुलपरास वाली जे मणि बाबूक भौजी थिकीह तिनकासँ प्रेम करबाक
नाटक। अश्चर्य मानल जाए जे नारी विमर्शमे राजकमलक लेखनी कतए धरि भसिया जाइत छन्हि।
ओना देओर अर्थात् मणिबाबू मीनाक्षीकेँ अपन पियासक शिकार नै बना सकलनि। किएक
तँ पतिक देल पीड़ासँ मैथिल नारी आत्मासँ कानि तँ सकैत अछि मुदा अपन पतिकेँ
छोड़ि अान पुरुषकेँ अपन सर्वस्व न्योछावर करबाक कल्पनो नै करत। एेठाम कथाकारक
दृष्टिकोण साफ आ समाजक लेल आदर्श मानल जाए। जौं दोसर अर्थमे सोचल जाए तँ विजय
कुकर्मी पुरुषेकेँ भेल। अपने कोनो कर्म करब, पथभ्रष्ट भऽ जाएब मुदा
जीवन संगिनी सदिखन संग देत, संभवत: यएह कारण थिक जे पुरुष
कोनो हद धरि खसि जएबामे संकोच नै करैत अछि आ तथापि ओकरा विश्वास रहैत छैक जे
गृहिणी कदापि नै विमुख हएत।
विहनि
कथाक विकासमे राजकमलक सेहो किछु योगदान छन्हि। “किरतनियाँ” सर्वकालिक विहनि कथामे अपन विशेष महत रखैत अछि। एकर कारण जे राजकमल
ऐ कथाक माध्यमसँ पहिलुक बेर मिथिलांक ब्राह्मण समाजसँ इतर भऽ कथा लिखैत छथि।
किरतनियाँ कोनो भजन संकीर्तण मण्डलीक सदस्य नै एकटा भिखमंगनी बालिका अछि।
जौं सवल परिवारमे जनमलि रहैत तँ उमेर पढ़ब लिखब आ नेनपनक भभटपन करबाक छल। मुदा
गरीबक कोन शेखी। माए-बाप कहिया जहान छोड़ि देलक पता नै। 80-90 वर्षक बुढ़िया
मइयाँक संग भीख मंगैत अछि। पूस मासक जाड़मे बुढ़िया लटुआ कऽ खसि पड़ल। ऐ घटनाक
तीन दर्शक नांगड़ा, झपसुआ आ भिखमंगाक मेट चन्नरदास छल।
नेंगरा कोनो नामकरण संस्कारसँ देल नाओं नै। नांगड़ तँए नगड़ा ओना भिखमंगाक नामे
की...? कथाकारक दर्शन नीक लगैत अछि। झपसुआ नामधारी जीव आ
चन्नरदास दिनमे निपट्ट अन्हारक भूमिकामे भीख मंगैत अछि आ रातिमे अपन वास्तविक
रूपमे। कथाकार ऐ प्रसंगसँ प्रमाणित करबामे सफल होइत छथि जे जीवनक मंच आ रंगमंचमे
भिन्नता छैक। बुढ़िया मरि गेल ओकर लहास लग बैसि किरतनिआँ चन्नरदास संग भीख
मांगि लहास जरेबाक लेल नाटकीय क्रीड़ा करैत अछि। भीखक कैंचा गनि-गनि सवा तीन
टका पूरा कएल गेल, मुदा लहास नै जराओल जाएत। किरतनिआँ
बाजलि- “एह! तीन टकामे हम दुनू आठ दिन
ताड़ी पी लेब।”
चन्नरदास
अपन उद्देश्यमे सफल होइत अछि। ओकर उद्देश्य छल बाल जीवनसँ युवती बनलि किरतनियाँक
शारीरिक दोहन। आब किरतनिआँ सेहो निडर भऽ गेली। स्वाभाविक छैक जखन नारी कलंकिता
बनि जाइत अछि तँ िनर्लज्ज होएब निश्चित भऽ जाइछ। कथाक गतिमे गेलासँ ई
प्रमाणित होइत छैक जे ऐ तरहक स्थितिक लेल दोषी ई पुरुष प्रधान समाज रहल। बिम्ब
आ शिल्प दुनूमे ई कथा राजकमलक सर्वश्रेष्ठ कथामे सँ एकटा मानल जाए। सबल पक्ष ई
जे कथा समाजक सभसँ अंतिम वर्गक जीवन शैलीक कथा थिक। एकटा आन विहनि कथा पनिडुब्वी
सेहो राजकमलक श्रेष्ठ कथामे स्थान रखैत अछि। हिनक अधिकांश कथा ब्राह्मण-परिवार
विषयमूलक अछि मुदा एकटा कथा “मलाहक टोल : एक चित्र” समाजमे पिछड़ल वर्गक नारीकेँ केन्द्रित कऽ कऽ लिखल गेल तीन नायिका
पिरितिआ कमली आ केतकीक कथा िथक। एे कथामे राजकमल मूलत: नारी विमर्शकेँ बिम्बित
कएलनि मुदा ऐठाम ई अवश्य प्रमाणित भऽ गेल जे समाजक कात लागल वर्गक नारीमे साहस,
चेतना आ दृढ़ निश्चय समाजक अधिष्ठाता वर्गक नारीसँ बेशी अछि।
तँए ऐ वर्गक नारी अपन इच्छानुसार अधोगतिकेँ प्राप्त तँ कऽ सकैत अछि मुदा ओकरा
संग कियो जबरदस्ती नै कऽ सकैछ। जौं कियो करबाक प्रयास करत तँ “कैतकी” जकाँ समाजक कात लागल र्वगक नारी रूद्रा बनि
तिरपित मिसर सन चरित्र हीन व्यक्तिक हत्या तक कऽ सकैत अछि। ऐ प्रकारक
घटना समाजमे होइत रहल तँए राजकमल जीक प्रयास ऐठाम उचित मानल जाए।
प्रयोगकेँ
बादक धरातलपर आनैबला राजकमल मैथिली साहित्यमे कथाकेँ विशेष स्थान दिऔलन्हि।
हरिमोहन आ ललित जकाँ हिनक कथा पाठकमे प्रिय अछि। जौं अल्पायु (मात्र 39
बर्ख) मे कालकलवित नै भेल होइत अछि तँ भऽ सकैत छल जे आगाँ आर परिपक्व भऽ कथा
जगतमे प्रवेश करितथि। मुदा हिनक कथाक सभसँ पैघ कमी रहल नारी सौन्दर्य आ अनैतिक
संबंधकेँ मूल बना कऽ किछु कथा लिखि साहित्यमे अनैतिक संबंधकेँ बलशाली बनेबाक
प्रयास कएलनि। ओना ऐ तरहक घटना समाजमे होइत रहल अछि मुदा सत्यकेँ नांगट कऽ कऽ
छोड़ि देलासँ साहित्य सबल नै भऽ सकैछ। दोसर किछु कथाकेँ जौं छोड़ि देल जाए तँ
कथाकार स्वयं फूलबाबू बनि कथा नायक बनल छथि मुदा सोचमे पारदर्शी नै। राजकमलकेँ
सम्पूर्ण कथाकार तँ नै मानल जा सकैछ मुदा “शिल्पी”क रूपमे मैथिली कथा जगतक विशिष्ट कथाकार तँ अवश्य छथि।
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