३.७.१.जगदानन्द झा मनु- किछु गजल २.बाल मुकुन्द पाठक- किछु गजल ३.पंकज चौधरी (नवलश्री)- किछु गजल
३.८.१.विनीत उत्पल- गजल २.अनिल मल्लिक- दूटा गजल ३.अविनाश झा अंशु ४.किशन कारीगर- पंडा आ दलाल- (हास्य
कविता)
जगदीश चन्द्र ठाकुर ‘अनिल’
की भेटल आ की हेरा गेल (आत्म गीत)- (आगाँ)
की भेटल आ की हेरा गेल ; आत्म गीत आगाँ
आतंकक छाया छल पसरल
चहुँदिस अन्हारटा छल लतरल
उत्पात मचौने छल दानव
पीड़ा केर पर्वत छल अकड़ल
सरस्वती कुहरैत छली
हाथक वीणा छल छिना गेल,
हम सोचि रहल छी जीवनमे
की भेटल आ की हेरा गेल।
अपहरण जतय उद्योग बनल
चंदाक वसूली रोग बनल
मारि-पीट, दंगा-फसाद,
छल
लोकक खातिर भोग बनल
छल जहाँ-जतऽ जे चिड़ै कतहु
आकाश छोड़ि कऽ पड़ा गेल,
हम सोचि रहल छी जीवनमे
की भेटल आ की हेरा गेल।
एक बिपटा, कते मदारी छल
सबहक सभसँ भैयारी छल
गाड़ी छल उपरमे चितंग
नीचाँ कुहरैत सवारी छल
हम थहाथही देखइत रहलहुँ
छल कंठ कतेको मोका गेल
हम सोचि रहल छी जीवनमे
की भेटल आ की हेरा गेल।
हे मित्र! बंधु ! परिवार
हमर!
हे आंगन आ चिनुआर हमर !
जीवाकेर, बजबाकेर देखू
क्यो छीन लेलक अधिकार हमर
हमरहि सोझाँ माइक छाती पर
पाथर छल क्यो खसा गेल
हम सोचि रहल छी जीवनमे
की भेटल आ की हेरा गेल ।
मा मिथिले ! क्षमा करू
हमरा
संकल्प अपन हम बिसरि
गेलहुँ
हमरहु मुट्ठीमे छल अकाश
नहि जानि कतऽ हम पिछड़ि
गेलहुँ
हमरहि चुप्पी केर कारण
क्यो
अछि आँखि अहाँकेँ देखा गेल
हम सोचि रहल छी जीवनमे
की भेटल आ की हेरा गेल।
की होयत ई जीवन लऽ कऽ?
की होयत तन-मन-धन लऽ कऽ?
की हएत जोगा कऽ आँखि अपन?
आ की अरण्य क्रन्दन लऽ कऽ?
कहइत अछि हमरा पंचवटी
मैथिलीक काया सुखा गेल
हम सोचि रहल छी जीवनमे
की भेटल आ की हेरा गेल।
१.शिव कुमार झा ‘टिल्लू’-कविता-दृष्टिकोण
२.मिहिर झा- महँगी ३.
शिव कुमार यादव- गीत-कविता
१
शिव कुमार झा ‘टिल्लू’
कविता-
दृष्टिकोण
हिआक दू गोट रूप
अवलोकन आ वाचन
पहिलुक मात्र अपनहि लेल
दोसर समाजकेँ जनयबाक लेल
पहिलुक जौं सद्गमनीय
स्व-संतोष आ कल्याणकारी
जीवन
ओहेन व्यक्तिमे
दोसरक कोनो आवश्यकता नै
हमर जीवन “पोथीक फूजल पन्ना”
सभ वाचन दइत
पोथीक आखरक संग-संग
जौं पटल अर्थात् पृष्ठ
कारी
केना आखर देखाएत?
एहेन फूजल अर्न्तमनक
कोनो प्रयोजन नै
मनसा-वाचा कर्मना
तीनू त्रिवेणीक धार जकाँ
विलग... छिड़िआएल...
ई बेवस्थाक फेर नै
आ ने जाति-वंशक प्रभाव
जौं रहितए तँ बैरमखाँक
आंगनमे
रहीम फुदकैत केना?
जखन गुरुजीक मुखसँ
पहिल बेर सुनलौं
आश्चर्य लगल छल
डार्विन जौं ई सुनितए
तँ वंश-सिद्धान्त नै लिखतए
किएक अछि दृष्टिकोणक
फेरि?
ई मात्र अर्थयुगक विजय
सभ आगू जेबाक लेल
बपहारि काटि रहल
नीक गुण-धर्मसँ
नीक बाटपर नै
कुकरम करब मुदा
सभसँ आगू नाचब
पथ्य स्वादहीन होइछ
बाबाकेँ ब्रह्मपहरमे
दुग्ध पानक अभ्यास छलनि
हमहूँ प्रयाग कएलौं
दूध तँ िनरंतर नै रहि
सकल
मुदा! सुरापान धरि
अवश्य करए लगलौं
अपने टा नै
समाजक जातिक भारसँ
दाबल भरिआक बीच
कुहरैत संस्कारी दिलीप
कोनो राज पुत्र नै
रैदासक वंशज दिलीप
खूब पढ़ैत छल
हम घुमैत छलौं
आब ओकरो सिखा देलिऐ
दुनू पिबैत छी
वाह रे मनुक्खक मोन
ऐ सँ नीक चाली
नोन देखिते बाट बदलि लइत
हम मनुक्ख छी
आर्यावर्त्तक वैदिक
सनातन पालक
पुरुष सूक्तसँ देल उपाधि
ब्रह्मकुलक पूत
हमहीं भँसै छी
कोनो ने मानवताक भीत ससरए
नानक-रैदास ईसा बुद्ध
परशुराम बुद्ध कृष्ण राम
सुरगण कुहरि रहल
रहीमक अस्तित्व वाम
अंतमे कनै छी
देखि अवोध चिलका बिलखइए
अपन संग दोसरोक कल्याण
नै सोचलौं
की भेटल
मनु-वंशकेँ नाश कऽ देलौं
तँए जे देखू वएह सोचू
वएह अर्न्तमन सएह वाचन
नीक केलक नीक भेटल
अधलाह परिणाम स्वत:
भोगैए
ईश्वर छैक की नै
विषय गौण बुझू
मुदा! प्रकृति तँ अवश्य
जकर डांगमे कोनो ध्वनि
नै
अधलाह परिणाम भोगबे करत
अधरकेँ हिआसँ जोड़ि
हमर दृष्टकोण नीक
चिचिआउ नै
सोचू.....
अान्हर रहू मुदा
सबहक कल्याण करू
जौं एतेक शक्ति नै
तँ अपने कल्याण करू
जहानमे दृष्टिकोणक विहान
अवश्य हएत।
२
मिहिर झा
महँगी
बुन्न बुन्न रिसैत
महँगी
बना लेलक दरारि
कमला क बाढ़ि सन
हू हू बहैत
संपोला से अजगर बनैत
चट करैत गामक गाम
एकहि संग
कोनो स्थान सुरक्षित नहि
त्राण पबै लेल
तथाकथित सरकार
फाटक खोलैत बान्ह के
रहि रहि के
आ कहैत सांत्वना शब्द
ई जरूरी छैक
देशक भविष्य लेल
जतय वर्तमाने अन्हार छैक
३
शिव कुमार यादव
गीत-कविता
१
बरखाक मौसम ऐलए, साउनक
मास चलल
बरखा ऐलए-बुन्नी ऐलए, बूनेँ-बून पानि बरसल।
जान भेटल सुखल दुभिमे, छोट-नमहर लत्ती लतरल
गाछ-बिरिछ, घास-पात हरिआएल, माल-जालक मनमा जुड़ाएल।
कतौ-कतौ तँ रौदिए अछि, गाछ-बिरिछ
मुरझाएल
मुदा कि करबै? मनुषक करनी जे गाछ-बिरिछ
काटल।
कोशी-कमला उछललि, उछलल नहरि-गंडकक
कतहु-कतहु तँ बान्हो टुटल, तँ कतेको
गामो दहाएल।
कतौ अछि जलामए बाड़ी-झाड़ी आ खेत-पथार,
तँ, कतहु अछि दरार पड़ल सुखाएल
चौरी-चाँचड़।
बौआ बुचकुन छुपर-छापरि खुब कऽ रहल,
तँ धीया-पुता आ मुनसा अछि माँछक जोगाड़िमे लागल।
मधुश्रावणी सेहो भेल, आ हएत भोला बाबाक
पूजा आ व्रत सभ सोम
तँ व्रत रखती कतेको कन्या, अछि ई साउनक
मास।
घंटीक टुन-टुनक मिठास सगरो, चलल हर-बड़द
खेत दिस,
कादो भेल, बीआक आँटी लऽ चलल जन रोपनी
लेल।
मेहनत कऽ रहल अछि कृषक मंडली खूब जतन सँ "शिकुया",
तखने तँ फसलि लहलहाइत अछि आ अन्न भेटैए।
२
कविता
हमर एतबहि अपराध छल
हमर एतबहि अपराध छल
हम नीच जातिक छौड़ा,
हमर एतबहि अपराध छल।
गरसा नेने ठाढ़ अछि
तमसाएल बीचे बान्ह पर,
गरदनि आइ काटि देबै,
जँ टपलै फेरो सँ आब
फलनाक छौड़ा हम्मर दूरा।
छै एहनो लोक मुचंट
जे आगाँ पिछाँ किछु नै सोचए,
पढ़ल-लिखल आ ऊँचक नाँच नचए,
अप्पन कपाड़ि छोड़ि कऽ
अनकर धीया पुता केँ दुसए।
सोझा हमहीं पड़ल छलिऐ
हमरे पर ओ दौड़ल छल,
हम तँ अनभिज्ञ अबोध नेना,
खनए मेँ तीतल बिलाड़ि जकाँ
हम ओतऽ सँ पड़ाएल छलौं।
हमर एतबहि अपराध छल,
गामक लोक मने हमर माय डाइन।
सात दिन सँ ओकर छौड़ा,
बोखारि मे बिछौना पर पड़ल छल।
कि! एखनो धरि लोक मानैए,
डाइन जोगन सँ डरइए?
हम तँ अबोध नेना छी,
बापक मुइने बटुबर छी।
बापक मुइने माय भसिआएल छल,
सदिखन किछु नै किछु निहारैत छलि,
अपने मेँ किछु बिचारैत छलि,
अप्पन घर-आँगन केँ सरिआबैत छलि,
तैँ, लोक डाइन बिचारि बजाबैत छल।
जइ गिरहत काजे बाप मुइल,
ओ उलटे गरिआबैत अछि
गए मौगी, अप्पन मरदकेँ खएबे केलाँ,
आब हमरा पर डेनियाँ लागल छैँ,
कि-कि नै कहि लोककेँ ओ बताबइए।
हमर एतबे अपराध अछि,
लोकक मोने हमर माय नै चलल
तैँ, लोक सदिखन दुत्कारैत अछि,
चुड़ैल डाइन कहि बजाबैत अछि।
एतेक खीझैत होइतौँ समाजक लोक सँ,
माय माहुर आनि नै खएलक,
हमरे लेल ओ जीबैए,
अनकर आस छोड़ि कऽ
एसगरे ऐ निःदर्द दुनियाकेँ पछाड़ैए।
"शिकुया" हमर एतबे अपराध छल,
हम नीच जातिक छौड़ा
हमर एतबे अपराध छल।
शिकुया "मैथिल"
जगदीश प्रसाद मण्डल
जगदीश प्रसाद मण्डलक तेरह
गोट गीत-
हेल-मेल जाधरि......
हेल-मेल जाधरि नै पकड़ब
जिनगीक कोनो भरोस नै।
रंग-बिरंग सरोवर सगर छै
पार जेबाक संतोष नै।
हेल-मेल जाधरि......।
कोनो थीर, जलजलाइत कोनो
जुआरि भरल छै सजल-धजल।
पबिते पेट उनटि-सुनटि
देखए रूप जीअल-मरल।
देखए रूप.......।
दूर-दूर, हटि-हटि सजल छै
दुर्गम दुर्ग सिरजैत रहै
छै।
अन्हर-विहाड़िक झोंक
पाबि
उनटा-पुनटा नाव चलबै छै।
उनटा-पुनटा......।
कौशल जखन......
कौशल जखन कोसल बनै छै
कोसलिया एबे करतै।
लाख परयास केलो पछाति
ढंस घर हेबे करतै।
कौशल......।
कोसल असगर नै पनपै छै
पनपै छै दाेसर-तेसर।
चालि कुचालि धड़ि पकड़ि
भूमि बनैत रहै छै उसर।
कौशल......।
उसर पाबि उसरि-उपटि
घर परिवार समाज उसरै छै
ऊपरे-ऊपर छीटि अछीनजल
फूकि शंख काल भगबै छै।
कौशल......।
जिनगीक कुन्ज......
जिनगीक कुन्ज भवनमे
बिहार कुन्ज करए लगै छै।
दुनियाँक भवसार बीच
भव आनन बनबए लगै छै।
भव आनन......।
आनन-फानन बीच-बीच
हजार आँखि देखैत रहै छै।
सरमे-भरमे चुनि-चानि
सागर भव भरैत रहै छै
सागर भव......।
आँखि बीच अँखिया-अँखिया
डिम्ह डिम्हा भाँगैत रहै
छै।
नीख-नीर निखड़ि-निखड़ि
घाटे-घाट चुनैत रहै छै।
घाटे-घाट......।
सत-चित......
सत-चित आनन-फाननमे
भव आनन बिलटि गेलै।
शील बनि शीला चढ़ा
लोढ़ि-बीछि रगड़ए लगलै।
लोढ़ि-बीछि......।
वाण-वाणि चेत-अचेत
चाल-चालि चलबए लगलै
बीचमान बनि बिचमानि
नीर-छीर मिलबए लगलै।
दूधे-पानि मिलबए लगलै।
मुख-बिमुख पथ पथरा
गुआरि गर लगबए लगलै।
आनन चित सरि-सरिया
ढुलकि ढोल बजबए लगलै।
ढुलकि ढोल......।
पड़िते पएर......
पड़िते पएर हवा पोखरि
डेगे-डेग डगरए लगै छै।
झील-मिलि, हिल-मिलि बानि
पकड़ि बाँहि संगरए लगै
छै।
बाँहि पकड़ि......।
धक्कम-धुक्का मुक्कामे जहिना
धक्का-धुक्की चलए लगै छै।
सिहकिते नाद चिहकि
छाती
धरा धार धड़धड़बए लगै छै।
धरा धार......।
हिला-डोला हिलोरि-हिलोरि
किनछड़ि कोण पकड़ए लगै छै।
तड़पि-तड़पि तड़पन करैत
ठौर अपन धड़ए लगै छै।
ठौर अपन......।
पड़िते पएर......।
अहाँ किअए......
अहाँ किअए रूसल छी हे बहिना
अहाँ किअए रूसल छी हे।
हल-चल, हल-चल
सभ दिन करै छी
चल-हल चल-हल
कहाँ पाबि पबै छी
तैयो अहीं मगन
कानि-हँसि कुचड़ै छी
कानि हँसि......।
अहाँ किअए......।
राति दिन एकबट्ट करए
सभ लागल रहै छी।
लागि भीड़ कियो, भीड़ लागि
रमझौआ करैत छी हे
रमझौआ......।
अहाँ किअए......।
उमकीमे उमकि......
उमकीमे उमकि गेलै
भाव भँवर भसिया गेलै।
अबिते उमकी चित-वृत्ति
रमकीमे रमकए लगै छै।
अतल-गहन गहन-अतल
पाबि-पाबि बौरए लगै छै।
उमकीमे उमकए लगै छै।
तीले-तील तिलकि-तिलकि।
कौओ बेरागी बनै छै
कल्प-कल्प रमकि झुमकि।
अनजनुआ कहबए लगै छै
अनजनुआ कहबए लगै छै।
उमकि-उमकि लपकि झपकि
लोल-बोल धड़ए लगै छै।
उमकीमे उमकए लगै छै।
घट-घट घोंट......
घट-घट घोंट घोटै छै
मीत यौ, घट-घट घोंट घोटै
छै।
तरसि-तरपि तन-तना, तना
फन-फन मन फनकए लगै छै।
मीत यौ, घट-घट......।
घट-घट घोंट घटि-घटि
तबधल तमसल मन-मनाइ छै
हक-हक हकहका-हका
अपनमे दरकार धड़ै छै।
अपनमे......।
अपन मान-समान मानि
बैसि बीच बीचमानि करै
छै।
जे जेकर से तेकरे रहतै
नाद-शंख फूकैत कहै छै।
नाद-शंख......।
जहिना बारह......
जहिना बारह दिन बजैत
तहिना ने रातियो कहै छै।
बीच-बिचौबलि बीछि-बेड़ा
दुनूमे समतूल भरै छै।
दुनूमे......।
जेठक बारह नम-नमड़ि
बारह राति पटिअबै छै।
मघजल्ला पसारि-पसारि
हार जाड़ बढ़िअबै छै।
हार जाड़......।
कखनो बाम दहिन घुसुकि
दुनू दिस कपचैत रहै छै।
निखरि-निहारि नहि
देखि
झपकी-लपकी सहैत रहै छै।
झपकी-लपकी......।
जहिना......।
दुनियाँ घोड़ाएल......
दुनियाँ घोड़ाएल छै निशाँमे
घट-घोट घोटैत कहै छै।
सुखचन-दुखचन कुहि-कुहि
भटैक-भटका मारैत रहै छै।
भटैक-भटका......।
शुक-चेन सोचि-असोचि
सुखल धार बहबैत रहै छै।
काँट-कुश बना बना
धार-धड़ि धड़बैत रहै छै।
धार-धड़ि......।
सुखल-टटाएल रसाएल जिनगी
रसाएल जीव कहबए लगै छै।
भुख-पियास पचि-पचा
सार-वेद गाबए लगै छै।
सार-वेद......।
बहलि बहील......
बहलि बहील बहिला कहै छै
आश हमर कहियो नै करिहह
फुलकि-फलकि ढेनु-ढेनुआरक
तोड़ि आश तेकरो रहिहह।
बहलि बहील......।
बहलि मन दहलि-दहलि
बाँझ गाछ धड़ैत रहै छै।
पकड़ि डारि डोला-डरा
लस्सा–लोल छोड़बए लगै छै।
लस्सा लोल......।
लटपट-सटपट बझ-बझीन
गीत वधैया गाबि कहै छै।
ता धीन ताधीन धीन ता धीन
सूर-तान टहिआए लगै छै।
शूर-तान......।
हलचल जिनगी......
हलचल जिनगी हलसि-खिलचि
हर-हरि चालि चलै छै।
बीर्तमान भविष्य कहि-सुनि
भूत-बंगला सजबै छै।
मीत यौ, भूत-बंगला सजबै
छै।
जहिना आनक पोखरि डरान
अपनो गाछी कहबै छै।
अधसर-अधमर पोखरि सृजए
जम-जजमान फफनै छै।
मीत यौ, जम-जजमान फफनै छै।
भाग बैसि एक वीणा-धारणी
बहिना बाँहि पकड़ै छै।
वाम-दहिन चालि चलि-चलि
धाम-काम धड़बै छै।
मीत यौ, धाम-काम धड़बै छै।
टकटक ताक......
टकटक ताक तकै छी हे मइये
आहाँ किअए आँखि मुनने
छी।
गड़-गड़ गाल गबै छी मइये
तखन किअए कान खोलने छी।
तखन......।
जन-मन-धन धियानए मइये
छी छूटि, केना जाइ छी।
डारि-पात अमृत भरि-भरि
विष-रस केना बनै छी।
विष-रस......।
कन-कन मणि मन-मन मइये
अन्हार किअए छोड़ै छी।
रचि अन्हार इजोत-जोत
तखन एना किअए विषविषबै
छी।
एना किअए......।
१.राजदेव मण्डल- कानैत हँसी/ कनहेपर भाेलब २.पवन कुमार साह- गीत एवं कविता ३.ओम प्रकाश- गजल ४.राजेश कुमार झा- एकटा
प्रेम बिरहक कथा
१
राजदेव मण्डल
दूटा कविता
कानैत हँसी
घटि गेल बीचक दूरी
गप्पसँ बेसी डोलैत मुड़ी
किछु नै जानै छी
तैयो अपन मानै छी
एककेँ सुख दोसराक सुख
दूनू मिलि भऽ जाइत अछि
दुख
एक गोटेक आँखिक नोर
दोसरकेँ दुखक नै ओर
भीज रहल अछि
अन्तरक पोरे-पोर
ई नै रूकत
कतबो लगाएब जोर
संचय कएल एक-एकटा कण
कतेक भरिगर भेल छल तन
निकलि गेलासँ आब
केहेन हल्लुक लगैत अछि
मन
माए एकदिन कहने रहए
साइत सभटा सहने रहए
बाटसँ भऽ कऽ कात
वएह भोगल बात
कहैत नीक अधलाह
फाटि कलेजा निकलै दाह
दू बून सूखल हँसी
नोर जल अथाह
कहलौं-सुनलौं भऽ गेल गप्प
एहेनठाम की करिते रहब तप
हे, रहै छी कतए कहाँ
गप्प कतौ नै बजबै अहाँ
बिसरि थाल-कादोमे धँसल
कानैत-कानैत खिखिया कऽ
हँसल
लवका शक्ति जागि गेल
हँसलासँ दुख भागि गेल।
कनहेपर भाेलबा
हड़बिर्ड़ो मचल अछि
मेलामे
धिया-पुता हरा गेल
ठेमल-ठेलामे
दूनू पच्छ अछि पूरा
तगड़ा
शुरू भऽ गेलै मेलेपर झगड़ा
कोइ एँठ-कुठपर खसल
चिचियाइत कोइ भीड़मे
फँसल
मँुहपर डर नाचि रहल अछि
सभ अपने दुख बाँचि रहल
अछि
के कोनए भऽ गेल निपत्ता
केकरो नै चलि रहल पत्ता
“हे रौ सुन-ढोलबा
हरा गेल भोलबा
गाँजा पीबैत छन छलै सँगे
की कहबो, छौड़ा छै अधनंगे
तकैत-तकैत करए लगल दरद
कानि-कानि ओ करैत हेतै
गरद।”
गाँजाक चिलम जेबीमे रखलक
आँखि उनटबैत ढोलबा कहलक-
“छौड़ा छह पाछू कान्हपर
चढ़ल
तूँ जाइ छह आगू बढ़ल
निशाँमे अहिना हरेबह
काका चिनाय
कन्हेपर भोलबा आ भोलबे नै।”
“बुधि हरा गेल हमर
साइत
कन्हेपर भोलबा ओकरे ले
औनाइत
कन्हेपर छौड़ा बैसल
बिसरि गेलौं डर छल पैसल।”
बजल बुढ़बा- छौड़ाकेँ दैत
चमेटा-
“तूँ बेटा छेँ की
टेटा
हमर मन भऽ गेल अधीर
कान्हपर बैसल छेँ भऽ कऽ
बहीर।”
थप्पर लगिते उपजल आनि
छौड़ा बजल कानि-कानि-
“आँखि रहितो किछु
नै सुझै छह
अपनाकेँ बड़ काबिल बुझै
छह।”
२
पवन कुमार साह
गीत एवं कविता
भाय-यौ भाय-यौ......
चलू चलू चलू चलू
चलू चलू मिथिला गाम
लागल छै ऐ ठाम सुन्दर धाम
भाय-यौ भाय-यौ......।
सुन्दर गाम, सुन्दर नाम
सुन्दर खान, सुन्दर पहचान
एहेन अछि अपन मिथिला
गाम
भाय-यौ भाय-यौ......।
मिठगर बोली मिठगर बात
दुस्मनो समैपर होइए साथ
सभ मिलि-जुलि रहए
नै देखबै गुमान
एहेन अछि अपन मिथिला
गाम
भाय-यौ भाय-यौ......।
गाछ-बिरिछ कत्ते सुहाबै
कोइलीक कू मनकेँ भावै
स्वच्छ हवा ऐ जगहक
रग-रग देहकेँ तृप्ति
कराबै
नै भेटत कतौ एते आराम
एहेन अछि अपन मिथिला
गाम
भाय-यौ भाय-यौ......।
मोनक बात
मोनक बात मोने रहि गेल
असरा फेर बर्षक पूरा नै
भेल
दिलक बात दिले रहि गेल
मनक बात मोने रहि गेल।
विचारि-विचारि हम चलैत
गेलौं
पास जा कऽ सभ किछु विसरलौं
नजरि हमर पराइते-पराइते
एक्केठाम एहेन बसि गेल
मनक बात मोने रहि गेल।
सोचलौं आब ओ तकबे करत
आँखिक इशारा देबे करत
आगू-पाछू हम करैत छलौं
मुदा हमर सोच व्यर्थ भऽ
गेल
मनक बात मोने रहि गेल।
३
ओम प्रकाश
गजल
अपन छाहरिक डरसँ सदिखन
पडाईत रहलौं
पता नै किया खूब हम
छटपटाईत रहलौं
कियो नै सुनै गप करेजक हमर
आब एतय
करेजक कहै लेल गप हडबडाईत
रहलौं
अपस्याँत छी जे चिन्हा जाइ
नै भीडमे हम
मनुक्खक डरे दोगमे हम
नुकाईत रहलौं
अपन पीठ अपने थपथपा मजा
लैत छी हम
बजा अपन थपडी सगर ओंघराईत
रहलौं
कतौ भेंटलै नै सुखक बाट
"ओम"क नगरमे
सुखक खोजमे बाटमे ढनमनाईत
रहलौं
ओम प्रकाश
फऊलुन
(ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ)- ५ बेर प्रत्येक पाँतिमे
बहरे-मुतकारिब
४
राजेश कुमार झा
एकटा
प्रेम बिरहक कथा
सुनबै छी एकटा प्रेम बिरहक कथा
जे आगि लगा दए गेल हमरा ओ व्यथा
छोड़ि कऽ हमरा एना चलि गेली ओ
जेना कायाक कमान लए गेली ओ
सुखो हमरासँ
एना रुसि गेल
जेना दुखक मझधारमे छोड़ि गेलीह ओ
आब नै भूख लगैए नै प्यास
जेना मरुभूमिमे असगर छोड़ि गेली ओ
आब तँ विक्षिप्त
प्रेमी सन हाल
अछि
सभटा
सुधि-बुधि बिसरा गेली ओ
हुनकासँ भेटो नै कए सकैत छी
किएक तँ
नै मिलैक सप्पत दए गेलीह ओ
सबहक चेहरामे हुनके चेहरा ढुँढइ छी
ह्रदयमे
एहन फोटो बसा गेली ओ
नीने टा आब बस
नीक लगैए
सुन्नरी सपनाक खजाना दऽ गेली ओ
कखनो कोनो जे
आहट सुनै छी,
बुझैए एक बेर
सतहीँ मे फेर
आबि गेली ओ
एकांतमे बैस चिट्ठी लिखै छी फाड़ै छी
नै फुड़ाइए सभटा शब्द चोरा गेली
ओ
प्रतीक्षा खत्म कए जरुर फूलो फुलायब
जे मिलनक कोरही छोड़ि गेली ओ
१.मुन्नी कामत- किछु कविता २.प्रीति प्रिया झा-
कविता- ज्ञानक बल ३.रूबी झा- दूटा गजल ४.कुसुम ठाकुर- हाइकू
१
मुन्नी कामत
१
बूँदक
मोल
फाटल
धरती
जरल घास
एक बूँद
पानि बिनु
अछि सभक
सभ उदास।
नै
बुझलौं हम
प्रकृतिक
निअम
तँइ
कानै पड़त आब
कतेक
जनम।
आइ
बुझितौं मोल
जे
पाइनकेँ
तँ एना
पियासल नै मरैतौं जाइन कऽ।
बहुत
नाच नचेलौं
छन्नी-छन्नी
धरतीकेँ केलौं
अपन
सुविधा खातिर
धरतीकेँ
सिमेंट बालु सँ झाँपि देलौं
वएह
अपमानक बदला छी ई
लागए नै
पएरमे माटि
तकर सजा
छी ई
आब तँ
लोरोमे नै
पानि
अबैए
जकरा पीब
हम पियास बुझाबी
बुझा
रहल यऽ आइ
ओइ एक
बूँदक मोल
छल
हमराले ओ कतेक अनमोल।
२
करी
मिथिलासँ पहचान
चलू
मिथिला, सुनियौ मैथिली
कतेक
मीठ ई बोल यौ
मिसरी
घुलल अछि हर शब्दमे
करिरौ एकर
मोल यौ।
सीताक
नैहर एतए
उगनाक ई
प्रिय स्थान यौ
ऋषि-मुनिक
भूमि ई
अछि एतऽ
विद्वानक खान यौ।
होइत
भिनसर सुगा
सीता-राम
पढ़ैत अछि
बउआ
नुनु कहि सभ
बात
बजैत अछि
करियौ
अइ भूमिक पहचान यौ।
एतए कऽ
माछ-पानक
दुनिया
करैए बखान यौ
धोती-कुरता
आ पाग
अछि
पुरूषक पोषाक यौ।
अइ धरती
पर हम जनमलौं
अछि ओइ
जनमक
कोनो
नीक काज यौ
फेर-फेर
हम एतै जनमी
अछि
अतनी प्रार्थना भगवान यौ।
३
कारिझुमरी
कोसी
दू-चाइर
दिन नै
आइ सात
दिनसँ
ऊपर भेल
कोसी
कारिझुमरी
सभ लेने
चलि गेल।
नै खाइ
लऽ
अन्न
अछि
नै पिबै
लेल पानि
ऊ
डसिनिया
सभ
ढेकारैत लऽ गेल।
बाउ
हरैल अछि
भाइ ढिस
भऽ पड़ल अछि
राइते-राइत
आएल
एहन
निरलज्जिया जे
कुहरा
कऽ चलि गेल।
नै बचल
एक कनमो किछो
नै
भाइ-बाप नै रिश्तेदार कोइ
असगर
ठार छी कछारिमे
ई कोसी
कारिझुमरी
असहाय
छोड़ि हमरा
हँसैत
चलि गेल।
४
नै लेब
आब हम दहेज
दहेजक
खातिर
गिर
गेलौं हम
मानवताक
समाजमे।
कि कहब
आब
अपन
दुखरा
कि लिखल
छल कपारमे।
धोती-कुरता
पहिर कऽ बाबू
ठाठसँ
चिबबैत पान अछि
हमरा बना
कऽ पापी
आब ओ
कात अछि।
पढ़ि-लिख
हम
बानर
बनलौं
बाबूक
बातमे एलौं
दहेज लऽ
कऽ
केहन
काज केलौं
नै
बुझलौं
नारीक
शक्ति
नै ओकर
सम्मान केलौं।
कि कहब
आब हम कि
कतेक
घिनौन कुकर्म केलौं।
५
मिथिलाक
दादा
खेत बेच
मन कारी झाम
मुदा
खाइए माछ सुबह-शाम।
जमीनक
मोल नै जानैए ई
पुरखा
अरजलहा बेचैमे लागैए कि।
बैठल-बैठल
ताल करैए
पटुआ
धोती पहिर गाम घुरैए।
चुप रहि
कऽ सभ नाच नचाबैए
हुक्का
गुरगुड़बैत अपन काज सलटियाबैए।
फाटल
जेब मुदा ऊँच शान
देखियौ
मिथलाक एगो ईहो पहचान।
तइयो
खुआबैए ई बुढ़बा सभकेँ
नित पान
आ मखान।
६
पाहुनक
माछ
एलखिन
पाहुन लऽ कऽ माछ
भदवरियामे
नै अछि सुखल कोनो गाछ।
माँ हम
करबै आब कोन काज
कोना
रखबै मान कोना सजेबै साज।
सुनु
कनिया हमर बात
छानि
उजारू करू ई काज।
नै केना
बना कऽ देबै
रामकेँ केना
उपासल रखबै।
छानि
उजरतै तँ फेर बनेबै
मुदा
रूसल पाहुन केना मनेबै।
पजारू
चुल्हा पड़लैए साँझ
लगाउ
आसन परसू तिमन संगे तरल माछ।
७
हमरा
पागल कहैत अछि लोग
लरखड़ाइत
कदम थरथड़ाइत होठ
नसाबाज
हम नै, अछि जालिम सभ लोक।
चोरी
केलौं नै मुदा चोर कहेलौं
पर
डकैती करि बाइज्जत घूमि रहल अछि लोग।
एक
मु़ट्ठी अन्न लऽ तरसि रहल छी
देखियौ गोदामक-गोदाम
अन्न सरा रहल अछि लोग।
हम
मेहनतो करि नै अपन पेट भरि पाबै छी
पर हमर
सरकार भरल पेट अरबोक घोटाला करैत अछि
आब
सोचियौ सभ लोक।
८
सगरे
अनहार अछि
भ्रष्ट
आ भ्रष्टाचारसँ
भरल
पूरा संसार अछि
कोइ नै
बॉंचल अतऽ
सौंसे
ओकरे राज अछि।
कोइ
देखा कऽ लुटैए
कोइ
चोरा कऽ लुटैए
तँ कोइ
शरमा कऽ लुटैए
लुइटिक
अतऽ बजार अछि।
के कहत
ककरा अतऽ
सभ एक
प्रकार अछि
गर्भमे
सिखैए भ्रष्टाचार
यएह नव
युगक संस्कार अछि।
कदम-कदम
पर घूस दैत मानव
अइ
दुनियामे अबैए
आगुओ
घुसे दैत
घुसकैल
जाइए
हर मोर
पर देखबैत यएह नाच अछि
घुस
दैबला सभसँ बड़का बइमान अछि।
९
मायक
रूदन
सोचलौं
बेटा
बेटी
भेल
रोपलौं
आम
बबुल
उगि गेल।
छापि
रहल अछि
समाजक
अत्याचार
केना
बचैब हम
१८ बरख
अकर लाज।
ई हमर
बोझ नै
हमर अंश
छी
जकरा हम
नैनामे बसैब
मुदा
केना कऽ सियाही
भरल
घरमे अपन चुनरी बचैब।
कलंक
बेटी नै
ई समाज
अछि
जे
युग-युगसँ
उज्जर
चुनरीमे लगबैत दाग अछि।
चारू
दिस छल लक्ष्मण रेखा
तइयो
हरण भेल सीता सुलेखा।
कऽ रहल
अछि
मजबूर
हमरा
बेटीसँ
दूर हमरा।
शूल बनि
मनमे गड़ैए
बेटी
तैँ गर्भमे चुभैए
बंद करू
आब अत्याचार
बसाबऽ
दिअ हमरा
बेटीक
संसार।
अपना
दिस निहारू।
बड़
केलौं
उक्टा
पेंच
अक्कर
खिद्यांस
ओकर
धेंस
कहियो
तँ आंगुर
अनेरो
उठाउ
अपन
मनकेँ बुझाउ।
उठैए जे
एगो
आंगुर ककरो दिस
तीन
आंगुर देखबैए
यऽ अपने
दिस।
मारू अइ
साँपकेँ
निकालू
मनक अइ काँटकेँ
जतेक
साफ नजर रखबै
दुनिया
ओतेक सुन्दर देखबै।
बहुत
भटकलै
खोजैले
भूत
दुबकि
कऽ बैठल छल
हमरे
करेजामे
बनि कऽ
सूत।
१०
मजबूर
किसान
बाबू
केना हेतै आब
पाबनि त्योहार।
बीसे-बीस
दिन पर
हेतै
खर्चाक भरमार
नै
अगहनक करारी पर
देतै
कोइ पैंच उधार
बाबू
केना हेतै आब
पाबनि-
त्योहार।
छुछे
छाछी रहि जेतै
अबकी
चौरचनमे
मरूआ
भेल अलोपित
आब
मिथिलामे
केना कि
उपाय करिऐ
कतऽ सँ
करिऐ हम जोगार
बाबू
केना हेतै आब
पाबनि-त्योहार।
जतरामे
धिया-पुता
लव कपड़ा
मंगै छै
दिवालीमे
फटक्काले कनै छै
छट्ठी
मइयाक की
अरग
देबै अइ बार
बाबू
केना हेतै आब
पाबनि-त्योहार।
२
प्रीति प्रिया झा
कविता-
ज्ञानक
बल
भोर भऽ
गेल सुरुजदेव आबि गेलखिन
फेरसँ
नव दिनक आरंभ....
नव आशाक
संग
गामक
लोक अपन काज आरंभ कएलनि
एक्के
गाम मुदा वएहमे
किछु
धनिक शेष िनर्धन
धनिकहा
लोक निकलला
धनिक
काजक संग
गरीब
गरिवहे रहि गेल
हऽर
जोति माल-जाल चराबऽ लेल
जमीन्दार
की जानथि गरीवक हाल
ओ तँ
मात्र आदेश देबए जानथि
गरीबक
व्यथासँ रस निकालथि
बड्ड
अनर्थ भऽ रहल
आब बदलऽ
परत समाज
मुदा ई
केना कएल जाय?
एक्केटा
उपाए अछि...
ज्ञान
ज्ञानक
मंचपर
केओ पैघ
नै
केओ छोट
नै
नै केओ
राजा
केओ रंक
नै
आबि
रहल ओ दिन
जखन
ाानक बलपर सभ एहत समान
जे हकसँ
अछि वंचित
ओकरो
आसन भेटत
तँए धनक
हुलि-मालि छोड़ि
ज्ञानक
स्त्रोत बढ़ाउ
सभ
पूर्ण भऽ जाएत।
३
रूबी झा
दूटा गजल
१
लेलहुँ सुख भरि पाँज पकड़ि हम
गेलौं माँ के कोर पसरि हम
ऐना नहि
बाजू वयस बितल
एखन छी बालकक उमरि हम
अनुपम माँ के छाँह आँचरक
प्रेमसँ गेलौं तैं तs लभरि हम
पैघो भेलहुँ जगत टहललौँ
माँ सन नहि पाओल नजरि हम
आशीषसँ माँ के विजय सगर
रहबै रूबी अमर अजरि हम
२२ -२२२१ -२१२ सभ पांति मे
२
गजल
भs
गेल लजौनी केर पात सन मौलाएल जिनगी
अछार परहक भात सन कठुआएल जिनगी
अधखिलल
पुष्प जेना फूलवारी में खसल कत्तो
कहै लेल पुष्प सुन्नर नहि तs सुखाएल जिनगी
समय संग जौं एखन धरि हम नै बदलि पेलौ
तैं बनल इनारक बेंग सन औनाएल जिनगी
ताकि रहल छी एतs ओतs जे
अपन भाग्यकरेख
हाथसँ जनु रेख मेटल आ की हेराएल जिनगी
निरर्थक बीतल जीबन रूबी बिनु परोजनके
आब नहि शेष किछ पानि में भसिआएल जिनगी
सरल वार्णिक बहर वर्ण -१९
५
कुसुम ठाकुर
हाइकू
समृद्ध भाषा
मैथिली मिथिलाक
जायत हेरा
लाज होइछ
बाजब कोना भाषा
पढ़ल हम
दोषारोपण
नेता अभिभावक
नहि कर्त्तव्य
देशक नेता
नहि
जनता केर
स्वार्थे डूबल
करू ज्यों स्नेह
माँ आ मात्रि भाषा सँ
संकल्प लिय
आबो तs जागू
मिथिला केर लाल
प्रयास करू
अबेर भेल
तैयो विचार करू
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मुदा ई तँ मात्र प्रारम्भ अछि।
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